Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 44.

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कम्मस्सुदयं जीवं अवरे कम्माणुभागमिच्छंति।
तिव्वत्तणमंदत्तणगुणेहिं जो सो हवदि जीवो।। ४१ ।।
जीवो कम्मं उहयं दोण्णि वि खलु केइ जीवमिच्छंति।
अवरे संजोगेण दु कम्माणं जीवमिच्छंति।। ४२ ।।
एवंविहा बहुविहा परमप्पाणं वदंति दुम्मेहा।
ते ण परमट्ठवादी णिच्छयवादीहिं णिद्दिट्ठा।। ४३ ।।

आत्मानमजानन्तो मूढास्तु परात्मवादिनः केचित्।
जीवमध्यवसानं कर्म च तथा प्ररूपयन्ति।। ३९ ।।
अपरेऽध्यवसानेषु तीव्रमन्दानुभागगं जीवम्।
मन्यन्ते तथाऽपरे नोकर्म चापि जीव इति।। ४० ।।
कर्मण उदयं जीवमपरे कर्मानुभागमिच्छन्ति।
तीव्रत्वमन्दत्वगुणाभ्यां यः स भवति जीवः।। ४१ ।।

_________________________________________________________________

को अन्य माने आतमा कर्मोतणा वळी उद्रयने,
को तीव्रमंद–गुणोसहित कर्मोतणा अनुभागने! ४१.
को कर्म ने जीव उभयमिलने जीवनी आशा धरे,
कर्मोतणा संयोगथी अभिलाष को जीवनी करे! ४२.
दुर्बुद्धिओ बहुविध आवा, आतमा परने कहे,
ते सर्वने परमार्थवादी कह्या न निश्चयवादीए. ४३.

गाथार्थः– [आत्मानम् अजानन्तः] आत्माने नहि जाणता थका [परात्मवादिनः] परने आत्मा कहेनारा [केचित् मूढाः तु] कोई मूढ, मोही, अज्ञानीओ तो [अध्यवसानं] अध्यवसानने [तथा च] अने कोई [कर्म] कर्मने [जीवम् प्ररूपयन्ति] जीव कहे छे. [अपरे] बीजा कोई [अध्यवसानेषु] अध्यवसानोमां [तीव्रमन्दानुभागगं] तीव्रमंद अनुभागगतने [जीवं मन्यन्ते] जीव माने छे [तथा] अने [अपरे] बीजा कोई [नोकर्म अपि च] नोकर्मने [जीवः इति] जीव माने छे. [अपरे] अन्य कोई [कर्मणः उदयं] कर्मना उद्रयने [जीवम्] जीव माने छे, कोई [यः] जे [तीव्रत्वमन्दत्वगुणाभ्यां]


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जीवकर्मोभयं द्वे अपि खलु केचिज्जीवमिच्छन्ति।
अपरे संयोगेन तु कर्मणां जीवमिच्छन्ति।। ४२ ।।

एवंविधा बहुविधाः परमात्मानं वदन्ति दुर्मेधसः।
ते न परमार्थवादिनः निश्चयवादिभिर्निर्दिष्टाः।। ४३ ।।

_________________________________________________________________ तीव्रमंदपणारूप गुणोथी भेदने प्राप्त थाय छे [सः] ते [जीवः भवति] जीव छे’ एम [कर्मानुभागम्] कर्मना अनुभागने [इच्छन्ति] जीव इच्छे छे (-माने छे). [केचित्] कोई [जीवकर्मोभयं] जीव अने कर्म [द्वे अपि खलु] बन्ने मळेलांने ज [जीवम् इच्छन्ति] जीव माने छे [तु] अने [अपरे] अन्य कोई [कर्मणां संयोगेन] कर्मना संयोगथी ज [जीवम् इच्छन्ति] जीव माने छे. [एवंविधाः] आ प्रकारना तथा [बहुविधाः] अन्य पण घणा प्रकारना [दुर्मेधसः] दुर्बुद्धिओ-मिथ्या-द्रष्टिओ [परम्] परने [आत्मानं] आत्मा [वदन्ति] कहे छे. [ते] तेमने [निश्चयवि्रदभिः] निश्चयवादीओए (-सत्यार्थवादीओए) [परमार्थवादिनः] परमार्थवादी (-सत्यार्थ कहेनारा) [न निर्दिष्टाः] कह्या नथी.

टीकाः– आ जगतमां आत्मानुं असाधारण लक्षण नहि जाणवाने लीधे नपुंसकपणे अत्यंत विमूढ थया थका, तात्त्विक (परमार्थ भूत) आत्माने नहि जाणता एवा घणा अज्ञानी जनो बहु प्रकारे परने पण आत्मा कहे छे, बके छे. कोई तो एम कहे छे के स्वाभाविक अर्थात् स्वयमेव उत्पन्न थयेला रागद्वेष वडे मेलुं जे अध्यवसान (अर्थात् मिथ्या अभिप्राय सहित विभावपरिणाम) ते ज जीव छे कारण के जेम काळापणाथी अन्य जुदो कोई कोलसो जोवामां आवतो नथी तेम एवा अध्यवसानथी जुदो अन्य कोई आत्मा जोवामां आवतो नथी. १. कोई कहे छे के अनादि जेनो पूर्व अवयव छे अने अनंत जेनो भविष्यनो अवयव छे एवी जे एक संसरणरूप (भ्रमणरूप) क्रिया ते-रूपे क्रीडा करतुं जे कर्म ते ज जीव छे कारण के कर्मथी अन्य जुदो कोई जीव जोवामां आवतो नथी. २. कोइ कहे छे के तीव्र-मंद अनुभवथी भेदरूप थतां, दुरंत (जेनो अंत दूर छे एवा) रागरूप रसथी भरेलां अध्यवसानोनी जे संतति (परिपाटी) ते ज जीव छे कारण के तेनाथी अन्य जुदो कोई जीव देखवामां आवतो नथी. ३. कोइ कहे छे के नवी ने पुराणी अवस्था इत्यादि भावे प्रवर्ततुं जे नोकर्म ते ज जीव छे कारण के शरीरथी अन्य जुदो कोई जीव जोवामां आवतो नथी. ४. कोई एम कहे छे के समस्त लोकने पुण्यपापरूपे व्यापतो जे कर्मनो विपाक ते ज जीव छे कारण के शुभाशुभ भावथी अन्य जुदो कोई जीव जोवामां आवतो नथी. प. कोई कहे छे के शाता-अशातारूपे व्याप्त जे समस्त तीव्रमंदत्वगुणो ते वडे भेदरूप थतो जे कर्मनो अनुभव ते ज जीव छे कारण के सुख-दुःखथी अन्य जुदो कोई जीव देखवामां आवतो नथी. ६. कोई कहे छे के शिखंडनी


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जेम उभयरूप मळेलां जे आत्मा अने कर्म, ते बन्ने मळेलां ज जीव छे कारण के समस्तपणे (संपूर्णपणे) कर्मथी अन्य जुदो कोई जीव जोवामां आवतो नथी. ७. कोई कहे छे के अर्थक्रियामां (प्रयोजनभूत क्रियामां) समर्थ एवो जे कर्मनो संयोग ते ज जीव छे कारण के जेम आठ लाकडांना संयोगथी अन्य जुदो कोई खाटलो जोवामां आवतो नथी तेम कर्मना संयोगथी अन्य जुदो कोई जीव जोवामां आवतो नथी. (आठ लाकडां मळी खाटलो थयो त्यारे अर्थक्रियामां समर्थ थयो; ते रीते अहीं पण जाणवुं.) ८. आ प्रमाणे आठ प्रकार तो आ कह्या अने एवा एवा अन्य पण अनेक प्रकारना दुर्बुद्धिओ (अनेक प्रकारे) परने आत्मा कहे छे; परंतु तेमने परमार्थना जाणनाराओ सत्यार्थवादी कहेता नथी.

भावार्थः– जीव-अजीव बन्ने अनादिथी एकक्षेत्रावगाहसंयोगरूप मळी रह्यां छे अने अनादिथी ज जीवनी पुद्गलना संयोगथी अनेक विकारसहित अवस्थाओ थई रही छे. परमार्थद्रष्टिए जोतां, जीव तो पोताना चैतन्यत्व आदि भावोने छोडतो नथी अने पुद्गल पोताना मूर्तिक जडत्व आदिने छोडतुं नथी. परंतु जे परमार्थने जाणता नथी तेओ संयोगथी थयेला भावोने ज जीव कहे छे; कारण के परमार्थे जीवनुं स्वरूप पुद्गलथी भिन्न सर्वज्ञने देखाय छे तेम ज सर्वज्ञनी परंपरानां आगमथी जाणी शकाय छे, तेथी जेमना मतमां सर्वज्ञ नथी तेओ पोतानी बुद्धिथी अनेक कल्पना करी कहे छे. तेमांथी वेदांती, मीमांसक, सांख्य, योग, बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक, चार्वाक आदि मतोना आशय लई आठ प्रकार तो प्रगट कह्या; अने अन्य पण पोतपोतानी बुद्धिथी अनेक कल्पना करी अनेक प्रकारे कहे छे ते कयां सुधी कहेवा?

* * *

हवे जीवद्रव्य अने अजीवद्रव्य-ए बन्ने एक थईने रंगभूमिमां प्रवेश करे छे. त्यां शरूआतमां मंगळना आशयथी (काव्य द्वारा) आचार्य ज्ञाननो महिमा करे छे के सर्व वस्तुओने जाणनारुं आ ज्ञान छे ते जीव-अजीवना सर्व स्वांगोने सारी रीते पिछाणे छे. एवुं (सर्व स्वांगोने पिछाणनारुं) सम्यग्ज्ञान प्रगट थाय छे-ए अर्थरूप काव्य कहे छेः-

* समयसार कळश ३३ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

ज्ञान केवुं प्रगट थाय छे? तो कहे छे के ‘ज्ञानं मनो ह्लादयत् विलसति’ ज्ञान छे ते मनने आनंदरूप करतुं प्रगट थाय छे. अहीं ज्ञान अने आनंद एम मुख्य बेनी वात करी छे. ज्ञान कहेतां जे जीव-शुद्धजीव तेनी (सम्यग्ज्ञानरूप) अवस्था मनने एटले आत्माने आनंदरूप करती प्रगट थाय छे. ज्ञान प्रगट थतां साथे (अतीन्द्रिय) आनंद होय तो तेने ज्ञान कहीए. ज्ञान प्रगट थयानी आ मुख्य निशानी छे. (अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव न होय तो ज्ञाननुं प्रगटवुं पण होतुं नथी.)


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हवे कहे छे-केवुं छे ते ज्ञान? ‘पार्षदान् जीव–अजीव–विवेक–पुष्कल–द्रशा प्रत्याययत्’ जीव-अजीवना स्वांगने जोनारा महापुरुषोने जीव-अजीवनो भेद देखनारी अति उज्ज्वळ निर्दोष द्रष्टि वडे भिन्न द्रव्यनी प्रतीति उपजावी रह्युं छे. भगवान आत्मा त्रिकाळ एकरूप अखंड ज्ञान अने आनंदनुं निधान छे. ए चैतन्यस्वभावनी जे द्रष्टि प्रगट थई अर्थात् निज निधानने जोनारी जे द्रष्टि थई ते अति उज्ज्वळ अने निर्मळ द्रष्टि छे. ए द्रष्टि जीव-अजीवने भिन्न भिन्न करी देखे छे. आवी निर्मळ द्रष्टि वडे प्राप्त थयेलुं ज्ञान गणधरादि संत-महंतोने जीव अने अजीव भिन्न द्रव्यो छे एवी यथार्थ प्रतीति उपजावी रह्युं छे. अचेतन शरीर अने रागादिथी चैतन्यधाम प्रभु आत्मा भिन्न छे एम ते ज्ञान सुस्पष्ट बतावी रह्युं छे.

वळी, ‘आसंसार–निबद्ध–बन्धन–विधि–ध्वंसात् विशुद्धं स्फुटत्’ अनादि संसारथी जेमनुं बंधन द्रढ बंधायुं छे एवां ज्ञानावरणादि कर्मोना नाशथी जे विशुद्ध थयुं छे, स्फुट थयुं छे-जेम फूलनी कळी खीले तेम जे विकासरूप छे. आवुं आठेय कर्मथी अने आठे कर्मना निमित्तथी थता भावोथी रहित, भगवान आत्माना शुद्ध चैतन्य-स्वभावने प्रगट करतुं, आनंद सहित ज्ञान प्रगट थाय छे.

संसारदशा वखते पण आठ कर्म अने तेमना निमित्तथी थता भावथी भगवान आत्मा भिन्न ज छे. सिद्धदशा वखते आठ कर्मथी रहित थाय छे ए तो पर्याय अपेक्षाथी वात छे. पण जीवद्रव्यना स्वभावमां तो आठेय अजीव कर्मोनो त्रिकाळ अभाव छे. द्रव्यकर्म, भावकर्मथी भगवान आत्मा निश्चयथी भिन्न ज छे. एवा (भिन्न) आत्मानुं भान करीने कर्मोने नाश करतुं ज्ञान प्रगट थाय छे. ज्यां पोते स्वभावसन्मुख थाय छे त्यां विकार अने कर्म बन्ने छूटा पडी जाय छे. एने कर्मनो नाश कर्यो एम कहेवामां आवे छे.

जेम फूलनी कळी अनेक पांखडीथी विकसित थई खीली नीकळे तेम ज्ञान प्रगट थतां भगवान आत्मा अनंत गुणोनी पांखडीथी पर्यायमां खीली नीकळे छे. सम्यग्दर्शन थतां पण अनंत गुणोनो विकास पर्यायमां थई जाय छे. कह्युं छे ने के-‘सर्वगुणांश ते समक्ति.’ ज्ञान अने आनंद आदि अनंतगुणो जे शक्तिरूपे विद्यमान हता ते पर्यायमां प्रगट थाय छे.

वळी ते ज्ञान केवुं छे’ ‘आत्म–आरामम्’ जेनुं रमवानुं क्रीडावन आत्मा ज छे अर्थात् जेमां अनंत ज्ञेयोना आकार आवीने झळके छे तोपण पोते पोताना स्वरूपमां ज रमे छे. जुओ, अनंत ज्ञेयोने जाणनारुं ज्ञान पोताना सामर्थ्यथी ज थाय छे, ज्ञेयोथी नहि. ते ज्ञान कांई ज्ञेयोमां जतुं नथी. पोताना भावमां अने पोताना क्षेत्रमां ज ए रमे छे, आराम पामे छे. अनंत ज्ञेयोने जाणवा छतां पोते पोताना ज्ञानमां ज रमे छे. अहाहा!


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ज्ञानस्वरूप भगवान परथी भिन्न पडीने ज्यां स्वस्वरूपे खीली नीकळ्‌यो त्यां ज्ञेयोने जे पोताना मानतो हतो ते मान्यता छूटी गई. हवे ज्ञेयो जे छे तेमने जाणनारुं मात्र ज्ञान छे अने ते पोते पोताना सामर्थ्यथी खीली उठयुं छे. अहो एक एक कळशमां अमृतचंद्राचार्यदेवे गजबनी वात करी छे. शुं तेमना वचनमां गंभीरता छे! अनंत ज्ञेयोने जाणतुं थकुं ज्ञान ज्ञानमां ज रमे छे (अन्यत्र नहि).

वळी, केवुं छे ते ज्ञान? ‘अनन्तधाम’ जेनो प्रकाश अनंत छे. अनंत, अनंत, अनंत प्रकाशवाळुं ते ज्ञान छे. अने ‘अध्यक्षेण महसा नित्यउदितम्’ प्रत्यक्ष तेजथी ते नित्य उद्रयरूप छे. भगवान ज्ञानस्वरूप ज्यां प्रगट थयो ते नित्य प्रगटरूप ज रहे छे. केवळज्ञान थयुं के सम्यग्ज्ञान थयुं ते प्रगट ज रहे छे.

वळी केवुं छे? तो ‘धीरोदात्तम्’ धीर छे, उद्रात्त छे. ते ज्ञान धीर छे, एटले के चंचळ नथी पण निश्चल छे, अचंचळ छे तथा प्रत्येक समये नवी नवी पर्याये प्रगटे छे एवुं उद्रात्त छे. वळी ‘अनाकुलम्’ अनाकुळ छे. इच्छाओथी रहित निराकुळ अतीन्द्रिय सुखपणे छे. धीर, उद्रात्त अने अनाकुळ ए त्रण विशेषणो आत्माना परिणमननी त्रण शोभा जाणवी. आवो भगवान आत्मा जे ज्ञानना विलासनी रमतमां रमे छे एने आत्मा कहीए.

* कळश ३३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

आ ज्ञाननो महिमा कह्यो. वर्तमान प्रगट ज्ञाननो आ महिमा बताव्यो छे. जीव अजीव एक थई रंगभूमिमां प्रवेश करे छे, तेमने आ ज्ञान ज भिन्न जाणे छे. जेम नृत्यमां कोई स्वांग आवे तेने जे यथार्थ जाणे तेने स्वांग करनारो नमस्कार करी पोतानुं रूप जेवुं होय तेवुं ज करी ले छे. तेवी रीते अहीं पण आ ज्ञान रागने रागरूपे अने ज्ञानने ज्ञानरूपे यथार्थ जाणी ले छे. त्यारे जे जे स्वरूप जेनुं छे ते ते स्वरूपे ते भिन्न पडीने रहे छे. ज्ञान ज्ञानरूपे रहे छे अने राग रागरूपे रहे छे. पोतपोताना स्वरूपमां बन्ने भिन्नपणे रहे छे.

आवुं ज्ञान सम्यग्द्रष्टि पुरुषोने होय छे. जेवी वस्तु पूर्ण सत्य छे तेवी द्रष्टि तेनुं नाम सत्द्रष्टि एटले सम्यग्द्रष्टि छे. भगवान आत्मा पूर्ण प्रभु सच्चिदानंदस्वरूप छे. सत् एटले शाश्वत ज्ञान अने आनंदस्वरूप परिपूर्ण वस्तु. आवा सत्नी जेने द्रष्टि थई ते सम्यग्द्रष्टि जीव छे. सम्यग्द्रष्टिने ज आवुं (राग अने ज्ञानना भिन्नपणानुं) यथार्थ ज्ञान होय छे. मिथ्याद्रष्टि आ भेदने जाणता नथी. दया, दान, व्रत आदि जे राग आवे तेने अज्ञानी पोतानो माने छे अने तेनो र्क्ता थईने करे छे. मिथ्याद्रष्टि जीव साधु पण अनंतवार थयो अने अनंतवार पंच महाव्रत पाळ्‌यां. पण ए तो बधा विकल्प


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छे. ए विकल्पोने अज्ञानी र्क्ता थईने करे छे केमके राग अने ज्ञानना भेदने ते जाणतो नथी. राग अने स्वभावने अज्ञानी तो एकपणे माने छे. सम्यग्द्रष्टिने ज राग अने स्वभावनी भिन्नतानुं यथार्थ ज्ञान अने श्रद्धा होय छे.

हवे जीव-अजीवनुं एकरूप वर्णन करे छेः-

* समयसार गाथा ३९ थी ४३ः टीका उपरनुं प्रवचन *

आ जगतमां आत्मानुं असाधारण लक्षण नहि जाणवाने लीधे नपुंसकपणे अत्यंत विमूढ थया थका, तात्त्विक (परमार्थभूत) आत्माने नहि जाणता एवा घणा अज्ञानी जनो बहु प्रकारे परने पण आत्मा कहे छे, बके छे.

ज्ञान आत्मानुं असाधारण लक्षण छे. ज्ञान द्वारा ज ए जणाय एवो छे. ज्ञान द्वारा ज आत्मानी अनुभूति अने प्राप्ति (उपलब्धि) थई शके छे. ज्ञान एटले स्वसंवेदनज्ञान, सम्यग्ज्ञान. ए सम्यग्ज्ञान वडे आत्मलाभ थई शके छे. परंतु भगवान आत्मा ज्ञानस्वभावी छे एम नहि जाणवाने लीधे अज्ञानीओ नपुंसकपणे विमूढ थया छे. दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादि शुभराग जे पुण्यभाव छे एनाथी धर्म थाय, एनाथी आत्मलाभ थाय एम माननाराओने अहीं नपुंसक कह्या छे. जेम नपुंसकने प्रजा न होय तेम शुभभावथी धर्म माननारने धर्मनी (रत्नत्रयरूप धर्मनी) प्रजा न होय. शुभभावथी धर्म थवानुं माननारने, भगवान आत्मा एनाथी भिन्न छे एवुं भान नथी. तेथी ते शुभभावमांथी खसीने शुद्धमां आवतो नथी. आ कारणे ते नामर्द्र. नपुंसक, पुरुषार्थहीन जीव छे. शुभाशुभ भावोथी भिन्न पडी पोताना ज्ञानस्वभावथी जे पोताने जाणे, अनुभवे एने मर्द अने पुरुष कह्यो छे, पछी भले ए स्त्रीनो आत्मा होय. स्त्री तो देह छे, आत्मा कयां स्त्री छे? (आत्मा तो शुभाशुभभावोनो उच्छेदक अनंतवीर्यनो स्वामी छे).

ए शुभभाव चाहे तो भगवाननी भक्तिनो होय के बार व्रत अने पंचमहाव्रतना पालननो होय, ए राग वडे आत्मा कदीय जणाय एम नथी. भाई! राग तो आत्माना चैतन्यस्वभावने घायल करे छे. जे घायल करे एनाथी आत्माने लाभ केम थाय? श्री समयसारजी गाथा १प४मां कह्युं छे के-मोक्षना कारणभूत सामायिकनी प्रतिज्ञा लईने जे अत्यंत स्थूळ संकलेशपरिणामोने तो (अशुभने तो) छोडे छे, पण अत्यंत स्थूळ विशुद्ध परिणामोमां (शुभभावमां) संतुष्ट चित्तवाळा थई ते विशुद्ध परिणामोने छोडता नथी ते सम्यग्द्रष्टि नथी. तेथी तेमने सामायिक होतुं नथी. रागनी मंदता होय तो ते पुण्य जरूर छे, पण ए पुण्य पवित्रताने रोकनारुं छे, आत्मानी पवित्रताने घायल करनारुं छे.

भले ने बहारथी मुनि थयो होय, नग्न थईने पंचमहाव्रत धारण कर्या होय, बाळब्रह्मचारी पण होय, परंतु पंचमहाव्रतना मंद रागमां रोकाईने जो एम माने के


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आ धर्म छे वा धर्मनुं साधन छे तो ते जीव नपुंसक छे, केमके ते शुद्धभावमां आवी शक्तो नथी. आवी धर्मनी वात कोई अलौकिक अने सूक्ष्म छे, भाई! धर्मनी प्रजा (पर्याय) जे छे ए तो शुद्ध छे, केमके भगवान आत्मा पोते परम पवित्र शुद्ध स्वरूप छे. ए पवित्रना आश्रये पवित्रता ज प्रगटे छे. अने पवित्रता प्रगटे ए ज धर्म छे.

श्री समयसारजी परिशिष्टमां ४७ शक्तिओनुं वर्णन करेलुं छे. त्यां एम लीधुं छे के आत्मामां एक वीर्य नामनी शक्ति छे. ते स्वरूपनी रचनाना सामर्थ्यरूप छे. पोताना स्वरूपनी रचना करे ते वीर्यशक्तिनुं कार्य छे. परंतु स्वरूपनी रचना करवाना बदले जे दया, दान, व्रत, करुणा इत्यादि शुभभावने-रागने रचे एने अहीं नपुंसक कह्यो छे. जे रागभावने रचे ए आत्मानुं बळ नहि, ए आत्मानुं वीर्य नहि.

भगवान आत्मा अनंतबळस्वरूप वस्तु छे. एनो बळगुण परिणमीने निर्मळता प्रगटावे, सम्यग्दर्शनादि निर्मळ निश्चयरत्नत्रय प्रगटावे एवुं एनुं स्वरूप छे. परंतु कोई एम कहे के भगवाननी स्तुति, वंदना, सेवा-पूजा करो, व्रतादि पाळो; तेथी आत्म-लाभ थशे. तो एम कहेनारा अने माननारा बधा वीर्यगुणने जाणता नथी अने तेथी आत्माने पण जाणता नथी. भाई! ज्ञान अने शुद्धता जेनो स्वभाव छे एवा निर्मळानंद प्रभु आत्माना लक्षे, जे निर्विकार स्वसंवेदनरूप निर्मळ शुद्ध ज्ञानना परिणाम थाय ते वडे जणाय एवी आत्मा वस्तु छे. परंतु अन्य कोई साधन-व्रत, तप, पूजा, भक्ति के व्यवहाररत्नत्रयना साधन वडे आत्मा जणाय एवी ए चीज नथी. निश्चयरत्नत्रय जे प्रगट थाय छे ते स्वभावना बळना पुरुषार्थे प्रगट थाय छे, व्यवहाररत्नत्रय छे माटे प्रगट थाय छे एम नथी.

प्रश्नः– परमात्मप्रकाश द्रव्यसंग्रह, इत्यादि शास्त्रोमां आवे छे ने के व्यवहार साधन छे?

समाधानः– भाई! ए तो निश्चय प्रगट थाय त्यारे बाह्य निमित्त शुं होय छे एनुं त्यां ज्ञान कराव्युं छे. करण (साधन) नामनो आत्मामां एक गुण छे. आ गुण वडे आत्मा पोते ज पोताना निर्मळ भावनुं साधकतम साधन छे. तेथी अंतर्मुख थई निज स्वभावने साधनपणे ग्रहण करी परिणमतां जे निर्मळ (निश्चयरत्नत्रयनी) पर्याय प्रगट थाय ए साधन गुणनुं कार्य छे. (व्यवहाररत्नत्रयनुं कार्य नथी, व्यवहाररत्नत्रय तो उपचारथी साधन कहेवामात्र छे).

पुण्यभावथी (धर्मनो) लाभ छे, ए आत्मानुं र्क्तव्य छे एम माननारा अत्यंत विमूढ छे. ‘अत्यंत विमूढ’ एवा कडक शब्दो आचार्यदेवे वापर्या छे. पण एमां आचार्य देवनी भारोभार करुणा छे.


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परमार्थरूप भगवान आत्मा तो शुभाशुभभावथी पार शुद्ध, शुद्ध, शुद्ध एवी एक शुद्धतानो-पवित्रतानो पिंड छे. आवो जे परमात्मा शुद्ध छे तेने एवो शुद्ध नहि जाणतां घणा अज्ञानीजनो, श्रावक अने साधु नाम धरावीने पण, पर एवा रागने, अध्यवसानने, विभावने आत्मा कहे छे. ए बधा नपुंसकपणे वर्तता अत्यंत विमूढ छे.

ते अज्ञानीओ एम कहे छे के शुभभाव शुद्धमां जवानी निसरणी छे. पहेलां अशुभथी छूटी शुभमां आवे, पछी ते वडे शुद्धमां जवाय-एम तेओ कहे छे. पण भाई, ए परमार्थे निसरणी नथी. शुं रागथी कदी वीतरागपणामां जवाय? राग दशानी दिशा पर तरफ छे, अने वीतरागदशानी दिशा स्व तरफ छे. बन्नेनी दिशा परस्पर विरुद्ध छे. जेनी दिशा विरुद्ध छे एने शुद्धभावनी निसरणी केम कहेवाय? पर तरफ डग मांडतां मांडतां स्वमां केम जवाय? शास्त्रोमां जे व्यवहारने निश्चयनुं साधन कह्युं छे ए तो निश्चय साथे जे व्यवहार निमित्तरूप होय छे तेनुं ज्ञान कराववा उपचारथी रह्युं छे.

शुभभावथी धर्म मनावे ए शास्त्र यथार्थ नथी. कुंदकुंदाचार्यदेवे बहु मोटेथी पोकारीने कह्युं छे के मुनि तो नग्न दिगंबर ज होय. वस्त्रसहित होय ते मुनि न होय. तेम छतां जे वस्त्रसहित मुनि मनावे, स्त्रीनो मोक्ष थवो मनावे, पंचमहाव्रतना परिणामथी निर्जरा थवी मनावे, एवी अनेक अन्यथा विपरीत वातो कहे ते शास्त्र जैनशास्त्र नथी, ते वीतराग शासन नथी. (आवा मिथ्या अभिप्रायो सघळा मिथ्यादर्शन छे).

वळी, कोई तो एम कहे छे के स्वाभाविक अर्थात् स्वयमेव उत्पन्न थयेला रागद्वेष वडे मेलुं जे अध्यवसान ते ज जीव छे, कारण के जेम काळापणाथी अन्य जुदो कोई कोलसो जोवामां आवतो नथी तेम एवा अध्यवसानथी जुदो अन्य कोई आत्मा जोवामां आवतो नथी. रागथी लाभ थाय एवो मिथ्या अभिप्राय ते अध्यवसान छे. ते अध्यवसानथी जुदो कोई आत्मा नथी एम कोई कहे छे.

आ अजीव अधिकार छे. रागादि विभाव परिणाम ए अजीव छे. जीव तो नित्य सच्चिदानंदस्वरूप छे. ए कांई विभावमां आवतो नथी.

वळी, कोई कहे छे के अनादि जेनो पूर्व अवयव छे अने अनंत जेनो भविष्यनो अवयव छे एवी जे एक संसरणरूप क्रिया ते-रूपे क्रीडा करतुं जे कर्म ते ज जीव छे, कारण के कर्मथी अन्य जुदो कोई जीव जोवामां आवतो नथी. (अथवा बीजी रीते लईए तो, वळी कोई कहे छे के अनादि अनंत जेनो परिपाटीरूप रागद्वेषरूप क्रियानो व्यापार छे, ते अवयवने धारण करनार अवयवी आत्मा रागद्वेषमय ज देखाय छे. अने चाल्या आवता द्रव्यकर्मनो प्रवाह तथा तेमां जोडाणरूप रागादि भावकर्म ते अनादि संतानरूप जेनुं स्वरूप छे, ते आत्मा छे, तेनाथी जुदुं स्वरूप अमने भासतुं नथी. जड कर्मनो उद्रय अने तेना संगे रागरूप क्रिया ए ज जेनुं अनादि अनंत कर्म छे, ते ज आत्मा छे,


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तेनाथी कोई जुदो आत्मा अमने जणातो नथी. द्रव्य कर्मनां उद्रयने अने भावकर्मने एकमेक माननाराओनो आवो अभिप्राय छे.) आत्मा त्रिकाळ शुद्ध चिद्रूप वस्तु छे. तेने नहीं जाणवाथी स्वरूपथी खसीने रागादि कर्मरूपी जे क्रिया तेमां जे रह्यो हतो, छे अने रहेशे ते आत्मा छे एम कोई माने छे. संसरणक्रियारूपे क्रीडा करतुं जे कर्म छे ते ज आत्मा छे. अर्थात् कर्मने लईने जीव रखडे छे अने कर्मनी क्रिया आत्मानी क्रिया छे एम जेओ माने छे तेमने अहीं मूढ, नपुंसक कह्या छे.

वळी, कोई कहे छे के तीव्र-मंद अनुभवथी भेदरूप थतां, दुरंत रागरूप रसथी भरेलां अध्यवसानोनी जे संतति ते ज जीव छे, कारण के तेनाथी अन्य जुदो कोई जीव देखवामां आवतो नथी. एटले केटलाक अज्ञानीओ एम कहे छे के-बहु तो राग तीव्रमांथी मंद थाय अने मंदमांथी तीव्र थाय, पण रागनो अभाव थाय एवुं स्वरूप छे नहि. आत्मा रागथी रहित थई शके एवुं एनुं स्वरूप नथी. राग दुरंत छे एटले के तेनो अंत आवी शके नहि. रागनी संतति जे अनादि छे ए ज आत्मा छे. रागनी संततिथी रहित आत्मानुं कोई स्वरूप नथी.

घणा एम कहे छे के जीवनो मोक्ष थाय पछी पण ते पाछो भव (जन्म) धारण करे. अरे भाई, ए वात तद्न खोटी छे. शुं चणो शेकाई गया पछी ते फरीने उगतो हशे? जेने अंदर द्रष्टिमां शुभभावनो निषेध थयो ते फरीने कदी शुभभावने करतो नथी (तेनो र्क्ता थतो नथी) तो पछी मुक्त थई गया पछी राग करे अने संसारमां आवे ए तो अज्ञानीओनी मिथ्या कल्पना छे.

अज्ञानीए रागना रस विनानो आत्मा अनादिकाळमां (भूतकाळमां) जोयो नथी अने भविष्यमां पण अनंतकाळ एवो ज (रागरस युक्त ज) रहेशे एम ते माने छे; ते रागनी संततिने ज आत्मा कहे छे.

वळी, कोई कहे छे के नवी अने पुराणी अवस्था इत्यादि भावे प्रवर्ततुं जे नोकर्म-शरीर ते ज जीव छे कारण के शरीरथी अन्य जुदो कोई जीव जोवामां आवतो नथी. आत्मा देखवामां आवतो नथी एम तेओ कहे छे; पण भाई! देखवामां आवतो नथी एवो निर्णय कोनी भूमिकामां थाय छे? जे भूमिकामां एवो निर्णय थाय छे ए ज आत्मा छे. एटले ए रीते एमां आत्मानुं अस्तित्व ज सिद्ध थई जाय छे.

वळी अज्ञानीओ आत्माना भिन्न अस्तित्वने स्वीकारता नथी. भगवान आत्मा तो शुद्ध ज्ञायकस्वभावी वस्तु छे. परंतु ज्ञायक तरफनुं जेमने लक्ष नथी एवा अज्ञानीओ पर्यायबुद्धि वडे जे शरीर देखाय छे तेने ज जीव माने छे. तेओ कहे छे के शरीरनी उत्पत्तिए (जीवनी) उत्पत्ति अने शरीरना नाशे नाश. शरीरनो सद्भाव ज्यां सुधी रहे त्यां सुधी जीव छे, शरीर छूटतां जीव रहेतो नथी-आवो तेमने भ्रम छे. वळी पोतानी


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इच्छानुसार शरीरमां क्रिया थाय छेण. माटे शरीर ए ज आत्मा छे आवो ते अज्ञानीओनो मत छे. आ चार्वाक मत छे.

चार बोल पुरा थया. हवे पांचमो बोल कहे छे. कोई एम कहे छे के समस्त लोकने पुण्यपापरूपे व्यापतो जे कर्मनो विपाक ते ज जीव छे कारण के शुभाशुभ भावथी अन्य जुदो कोई जीव जोवामां आवतो नथी. अज्ञानीने आखा लोकमां पुण्य-पापनुं करवुं-एटलुं ज मात्र देखाय छे. परंतु शुभ अने अशुभ भावो एनाथी भिन्न आत्मा एने जणातो नथी. पण ए भिन्न जणातो नथी एवो निर्णय तो ज्ञाने कर्यो ने? परंतु ए ज्ञान उपर अज्ञानीनी द्रष्टि जती नथी. अहीं पुण्य-पापना र्क्तानी वात लीधी छे. शुभाशुभ भावना र्क्ता थईने परिणमवुं-एनाथी भिन्न आत्मा अज्ञानीने देखातो नथी.

हवे छठ्ठो बोल भोक्तानो कहे छे. कोई कहे छे के शाता-अशातारूपे व्याप्त जे समस्त तीव्र-मंदत्वगुणो ते वडे भेदरूप थतो जे कर्मनो अनुभव ते ज जीव छे. कारण के सुख-दुःखथी अन्य जुदो कोई जीव देखवामां आवतो नथी. भगवान आत्मा अनंत अनंत सुखनुं धाम छे. परंतु अज्ञानीने एनी तरफ नजर नथी. ए तो शातामां मंद अने अशातामां तीव्र एवो जे भेदरूप कर्मनो अनुभव तेने ज जाणे छे अने तेथी ए ज जीव छे एम माने छे. शाताना अनुभवमां सुखनुं (अल्प दुःखनुं) वेदन अने अशाताना अनुभवमां (तीव्र) दुःखनुं वेदन देखाय छे. तेथी ते अज्ञानवश जे सुख-दुःखनो अनुभव थाय छे तेने ज जीव माने छे.

अज्ञानीनी द्रष्टि निरंतर पर्याय उपर ज रहेती होय छे. वस्तुतत्त्व जे चैतन्यमूर्ति त्रिकाळी शुद्ध आत्मा तेनी एने द्रष्टि ज नथी. तेथी शाता-अशाताना उद्रयमां जे मोह-जनित सुख-दुःखनुं वेदन तेनाथी भिन्न शुद्ध आत्मजनित वेदन होई शके छे एवुं एने भासतुं ज नथी. आम पर्यायबुद्धि जीवो, अनंतशक्तिमंडित जे त्रिकाळी शुद्ध आत्मद्रव्य तेनी द्रष्टिनो अभाव होवाथी, सुख-दुःखनी कल्पनास्वरूप जे शाता-अशातानुं वेदन होय छे तेने ज भ्रमवश आत्मा माने छे.

हवे सातमो बोलः-कोई कहे छे के शिखंडनी जेम उभयरूप मळेलां जे आत्मा अने कर्म, ते बन्ने मळेलां ज जीव छे कारण के समस्तपणे कर्मथी अन्य जुदो कोई जीव जोवामां आवतो नथी. अज्ञानी कहे छे के कर्मरहित आत्मा थाय एवुं तो कांई जणातुं नथी. अहाहा....! निश्चयथी वस्तु तो त्रिकाळ कर्मरहित ज छे. परंतु ए वस्तुना स्वभाव उपर द्रष्टि करे तो ने? ए तो अवस्थामां आत्मा अने कर्म उभयरूप मळेलां जुए छे अने तेथी तेने ज आत्मा माने छे. खरेखर तो कर्मथी भिन्न जीव नथी, नथी-एवुं जे एनुं ज्ञान ते ज जीवनुं भिन्न अस्तित्व सिद्ध करे छे. (जीव नथी एवुं जाणनार पोते ज जीव छे).


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एक समयनी पर्याय छे ते व्यक्त छे, प्रगट छे अने वस्तु (आत्मा) छे ते अव्यक्त छे. अव्यक्त एटले के पर्याय जे प्रगट-व्यक्त छे तेमां वस्तु आवती नथी माटे ते अव्यक्त छे. वस्तु छे ते पर्यायमां आवती नथी, पण एनुं ज्ञान पर्यायमां आवे छे. खरेखर तो ज्ञाननी पर्याय छे एमां ज्ञायक चैतन्य ज जणाई रह्यो छे. ज्ञाननो निश्चयथी स्वप्रकाशक स्वभाव होवाथी, ज्ञायक एमां जणाई ज रह्यो छे, परंतु अज्ञानीनी द्रष्टि ज्ञायक उपर नथी. पर्यायबुद्धि वडे पुण्य-पापनुं करवुं अने शाता-अशातापणे सुख-दुःखनुं भोगववुं ए ज जीव छे एम अज्ञानी माने छे.

जे शुद्धभावनो र्क्ता अने अतीन्द्रिय आनंदनो भोक्ता छे ते जीव छे ए वात अज्ञानीने बेसती नथी. एनो निर्णय करवानो पण एने कयां समय छे? परंतु भाई! आत्मा नथी, नथी एवो निर्णय तुं ज्ञानमां करे छे के पुण्य-पापना भावमां के सुख-दुःखनी कल्पनामां? सुख-दुःखनी कल्पना तो अचेतन छे. तथा शुभ-अशुभ भाव पण अचेतन जड छे. अचेतन एवां तेओ चैतन्यस्वरूप जीव नथी एवो निर्णय केम करे? जो ए निर्णय चेतन करे छे एम कहो तो एनाथी (कर्मथी) जुदो जीव छे एम साबित थई जाय छे. परंतु पर्याय जेनुं सर्वस्व छे एवा अज्ञानी जीवने कर्म जुदां पडे अने आत्मा एकलो रहे एवुं कांई देखातुं नथी. तेथी आत्मा अने कर्म बेउ भेगां थईने जीव छे एम ते माने छे.

आम तो नवमी ग्रैवेयक गयो त्यारे शास्त्रमांथी धारणारूपे आ वात तो जाणी हती के शुभाशुभ भाव अने सुख-दुःखनी कल्पनाथी आत्मा जुदो छे. पण ए वात धारणारूपे हती, वस्तुतत्त्वनी द्रष्टि करी नहोती. अगियार अंग भण्यो एमां आ वात तो आवी हती. त्यारे ए उपदेश पण एम ज आपतो हतो के शुभाशुभ भावथी भिन्न अखंड एक आत्मवस्तु छे. पण अरे! एणे शुभाशुभ भावथी भिन्न पडी आत्मा अनुभव्यो नहि. भगवान आत्मा आनंदस्वरूप छे एमां एनी द्रष्टि गई नहि.

अहीं (आ गाथामां) तो स्थूळपणे जे एम माने छे के कर्मथी जुदो जीव जोवामां आवतो नथी एनी वात लीधी छे. पण खरेखर अगियार अंगना पाठी अज्ञानीनी पण अंदर तो आ ज मान्यता छे. शुभाशुभ भावनुं करवापणुं वस्तुमां नथी, वस्तु तो ज्ञायक छे एम तेणे धारण तो करी हती. परंतु पर्यायबुद्धि टळी नहोती. कर्म अने आत्मा जुदा छे एम नवतत्त्वने तो ए जाणतो हतो. पण जुदा छे एने जुदा करी शकयो नहोतो. आ ज्ञानदर्शनरूप चैतन्यशक्ति एवुं जे स्वतत्त्व, ते पुण्य-पाप अने सुख-दुःखना वेदनथी भिन्न छे एम एणे धार्युं तो हतुं; पण भेदज्ञान प्रगट करी भिन्नता करी नहि, दिशाने फेरवी नहि. पर अने पर्याय उपर जे लक्ष हतुं ए त्यां ज अकबंध रह्युं. स्वद्रव्यनी सन्मुखता कर्या विना विमुखपणे मात्र बहारथी धारणा करी. पण तेथी शुं? आत्मा कांई परलक्षी शास्त्रज्ञानथी जणाय एवी चीज नथी.


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शुभभावथी रहित आत्मा चैतन्यस्वरूप छे एम व्यवहारश्रद्धामां एणे मान्युं हतुं, व्यवहारश्रद्धामां एटले अचेतन श्रद्धामां (रागमां) मान्युं हतुं. पण वस्तु जे त्रिकाळ आनंदनो नाथ प्रभु एकलो ज्ञायकसत्त्वपणे बिराजमान छे तेनुं अंतरमां माहात्म्य कर्युं नहि. माहात्म्य एने पुण्य अने पापमां रही गयुं. एणे एम तो सांभळ्‌युं हतुं के शुद्ध आत्मानुं वेदन करे ते आत्मा छे, पण ए पुण्य-पाप सहितना वेदननी धारणा हती. जे ज्ञायक अखंड चैतन्यशक्ति नित्यानंदरूप ध्रुव-ध्रुव-ध्रुव एकाकार ए ज खरेखर आत्मा छे. पर्यायमां एनो स्वीकार करीने आ चैतन्यतत्त्व ए ज हुं छुं एम वेदन कर्या विना आ हुं छुं एम विकल्पमां धारणा करी हती. परंतु प्रत्यक्ष वेदन करीने एमां अहंपणुं एणे न कर्युं. स्वभावनी अंतरमां जईने ‘आ हुं छुं’ एवी प्रतीति करी नहि. अंतरमां जईने एटले कांई वर्तमान पर्याय ध्रुवमां एक थईने एवो तेनो अर्थ नथी. अंतरमां जईने एटले स्वसन्मुख थईने. पर्याय ज्यारे ध्रुवनी सन्मुख थाय छे त्यारे परिपूर्ण तत्त्वनो प्रतिभास थाय छे.

१४४ मी गाथानी टीकामां ए वात लीधी छे के-‘श्रुतज्ञानतत्त्वने पण आत्मसन्मुख करतो, अत्यंत विकल्परहित थईने, तत्काळ निजरसथी ज प्रगट थता, आदि-मध्य-अंत रहित, अनाकुळ केवळ एक आखा विश्वनी उपर जाणे तरतो होय तेम, अखंड प्रतिभासमय....’ एटले पर्यायमां अखंडनो प्रतिभास थाय छे. अखंड वस्तु छे ते पर्यायमां आवती नथी पण अखंड प्रतिभासमय जे आत्मा तेनुं ज्ञान पर्यायमां आवे छे. पर्यायमां परमात्मस्वरूपनुं ज्ञान थई जाय छे अने एवुं जणाय त्यारे पर्यायमां परमात्मपणुं कार्यपणे परिणमे छे. पर्याय छे ते खंड छे, अंश छे. ते ज्यारे वस्तु तरफ ढळे छे त्यारे तेमां अखंड प्रतिभासमय वस्तु आखी जणाय छे.

खरेखर तो द्रव्य, गुण. पर्यायमां (त्रणेमां) प्रमेयत्वगुण व्यापेलो छे. तेथी पर्यायमां (ज्ञानमां) द्रव्य, गुण, पर्याय जणाय छे. परंतु अज्ञानीने, त्रिकाळी पोतानामां जणाय छे एवुं लक्ष नथी केमके एनी द्रष्टि अंतर्मुख नथी. अंतर्मुख ज्ञाननी वात एणे पर्यायमां धारी हती, परंतु ज्ञाननी वर्तमान प्रगट अवस्थाने स्वज्ञेयमां ढाळी न हती. तेथी धारणामां आव्युं छतां रही गयो अज्ञानी. ज्ञाननी पर्याय जे प्रगट छे ए, त्रिकाळी वस्तु अने पोताने (पर्यायने) पण जाणे छे एवुं एणे धारणामां लीधुं हतुं, पण वस्तुनो जे स्वभाव छे तेने ए अडयो नहोतो. ज्ञान, ज्ञानने जाणे तो छे, पण हुं ज्ञानने जाणुं छुं एवी एने खबर नथी. ज्ञान ज्ञानने जाणे छे एम नक्की थाय तो आखुं ज्ञेय एमां जणाय छे ए पण नक्की थई जाय.

श्री नियमसारनी ३८ मी गाथामां एम आवे छे के पर्याय छे ए तो व्यवहार आत्मा छे. मोक्षमार्गनी पर्याय ए पण व्यवहार छे. निश्चय आत्मा तो त्रिकाळी शुद्ध


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ध्रुव-ध्रुव-ध्रुव, पर्यायनी सक्रियतारहित निष्क्रिय वस्तु छे. श्री समयसारनी ३२० गाथानी श्री जयसेनाचार्यनी टीकामां पण कह्युं छे के आत्मा निष्क्रिय छे. परंतु ए निष्क्रिय (आत्मा) जणाय छे सक्रियमां (पर्यायमां). सर्वज्ञनो आवो अद्भुत मार्ग छे. जेना पंथमां सर्वज्ञ नथी एना पंथमां सत्य वात होती ज नथी.

पहेलां दर्शनउपयोग अने पछी ज्ञानउपयोग एवो क्रम जे केवळीने माने छे तथा केवळीने क्षुधानी पीडा अने आहार माने छे तेने सर्वज्ञना साचा स्वरूपनी खबर नथी. पूर्णज्ञाननी दशा एटले शुं ए, ते जाणतो नथी. आत्मा अंदर सर्वज्ञशक्तिथी परिपूर्ण भरेलो छे. एनी सन्मुख थई एमां पूर्ण एकाग्र थतां सर्वज्ञपणुं पर्यायमां प्रगटे छे. सर्वज्ञपणुं प्रगट थतां अतीन्द्रिय आनंदनी पूर्ण भरती आवे छे एवा स्वरूपनी अज्ञानीने खबर नथी. भगवान केवळी सर्वदर्शी अने सर्वज्ञ एकी साथे छे.

अहीं आ गाथामां अज्ञानी कहे छे के कर्म अने आत्मा बन्ने एक छे. कारण के कर्मनी क्रियानो जे अनुभव एनाथी आत्मा जुदो छे एवुं कांई अमने देखातुं नथी. पण कयांथी देखाय, प्रभु? ज्यां प्रभु पडयो छे त्यां तुं जोतो नथी. भाई! कर्म अने आत्मा बन्ने थईने जीव छे, जुदो जीव नथी एवी तारी मान्यता पूर्ण शुद्ध आनंदघन प्रभु आत्मानी हिंसा करनारी छे. ए मान्यता वडे तुं पोतानी हिंसा करे छे. जीवतुं जीवन (त्रिकाळी जीवद्रव्य) तेनो तुं नकार करे छे ए ज हिंसा छे. भाई! वीतरागनो अहिंसानो मार्ग आवो सूक्ष्म अने झीणो छे. लोको बिचारा व्रत करो, पोसा करो इत्यादि शुभभावरूप क्रियाकांडमां गूंचवाई गया छे. पण निश्चयथी शुभभाव अने अशुभभाव बन्ने एक जात छे. (बन्नेमां चैतन्यस्वरूपनी नास्ति छे).

आठमो बोलः कोई कहे छे के अर्थक्रियामां समर्थ एवो जे कर्मनो संयोग ते ज जीव छे. कारण के जेम आठ लाकडाना संयोगथी अन्य जुदो कोई खाटलो जोवामां आवतो नथी तेम कर्मना संयोगथी अन्य जुदो कोई जीव जोवामां आवतो नथी. अहीं खाटलानुं द्रष्टांत आप्युं छे. खाटलो होय छे ने? ते आठ लाकडाना संयोगथी बनेलो छे. चार पाया, बे ईस अने बे उपडां-एम आठ लाकडानो बनेलो छे. ए रीते अज्ञानी एम माने छे के आठ कर्मनो संयोग ए ज जीव छे. आठ कर्मना संयोगरहित जीव होई ज न शके एम ते माने छे.

आत्मा त्रिकाळ संयोगथी रहित असंयोगी शुद्ध वस्तु छे. अज्ञानीनी त्यां द्रष्टि नथी. तेथी तेने आठ कर्म भेगां थाय ए ज जीव छे एम विपरीत भासे छे.

आम मिथ्या मान्यताना केटलाक प्रकार अहीं आप्या छे, बाकी असंख्य प्रकारनी मिथ्या मान्यता होय छे. दुर्बुद्धिओ अनेक प्रकारे परने आत्मा कहे छे. परंतु परमार्थना


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जाणनाराओ तेमने सत्यार्थवादी कहेता नथी. वस्तुना स्वरूपने यथार्थ जाणनारा गणधरादि महंतो तेमने साचा कहेता नथी.

* गाथा ३९ थी ४३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

जीव-अजीव बन्ने अनादिथी एकक्षेत्रावगाहसंयोगरूप मळी रह्यां छे. बन्ने आकाशना एक क्षेत्रे रहेलां छे. अनादिथी ज जीवनी पुद्गलना संयोगथी अनेक विकार-सहित अवस्था थई रही छे. परमार्थद्रष्टिए जोतां जीव तो पोताना चैतन्यत्व आदि भावोने छोडतो नथी अने पुद्गल पोताना मूर्तिक, जडत्व आदिने छोडतुं नथी. आत्मा पोताना ज्ञान-दर्शनस्वरूप, आनंदस्वरूप, शांतस्वरूप, स्वच्छतास्वरूप इत्यादि निज स्वभावने कदीय छोडतो नथी. पर्यायमां अनेक प्रकारना विकारी भाव थवा छतां, वस्तु पोतानी अनंत शक्तिथी भरेलो जे एक चैतन्यस्वभाव छे तेने केम छोडे? जीव मटीने अजीव केम थाय? (कदीय न थाय). तेवी ज रीते पुद्गल पण पोतानुं जडत्व छोडी जीवरूप केम थाय? (न ज थाय).

जीव-अजीव सर्व द्रव्यो पोतपोताना स्वभावमां ज स्थित रहे एवी वस्तुना स्वरूपनी मर्यादा छे. परंतु जेओ परमार्थने जाणता नथी तेओ संयोगथी थयेला भावोने ज जीव कहे छे. परमार्थे जीवनुं स्वरूप, पुद्गलथी भिन्न सर्वज्ञने देखाय छे तेम ज सर्वज्ञनी परंपरानां आगमथी जाणी शकाय छे. तेथी जेमना मतमां सर्वज्ञ नथी तेओ पोतानी बुद्धिथी अनेक कल्पना करी कहे छे. वेदांती, मीमांसक, सांख्य योग, बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक, चार्वाक आदि मतोना आशय लई आठ प्रकार तो प्रगट कह्या; अने अन्य पण पोतपोतानी बुद्धिथी अनेक कल्पना करी अनेक प्रकारे कहे छे ते कयां सुधी कहेवा?

एवुं कहेनारा सत्यार्थवादी केम नथी ते हवे आगळनी गाथामां कहे छेः-

[प्रवचन नं. ८७, ८८ * दिनांक ६-६-७६ थी ७-६-७६]

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कुतः–

एदे सव्वे भावा पोग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा।
केवलिजिणेहिं भणिया कह ते जीवो त्ति वृच्चंति।। ४४ ।।
एते सर्वे भावाः पुद्गलद्रव्यपरिणामनिष्पन्नाः।
केवलिजिनैर्भणिताः कथं ते जीव इत्युच्यन्ते।। ४४ ।

_________________________________________________________________

एवुं कहेनारा सत्यार्थवादी केम नथी ते कहे छेः-

पुद्गल तणा परिणामथी नीपजेल सर्वे भाव आ
सहु केवळीजिन भाखिया, ते जीव केम कहो भला? ४४.

गाथार्थः– [एते] आ पूर्वे कहेलां अध्यवसान आदि [सर्वे भावाः] भावो छे ते बधाय [पुद्गगलद्रव्यपरिणामनिष्षन्नाः] पुद्गलद्रव्यना परिणामथी नीपज्या छे एम [केवलिजिनैः] केवळी सर्वज्ञ जिनदेवोए [भणिताः] कह्युं छे [ते] तेमने [जीवः इति] जीव एम [कथं उच्यन्ते] केम कही शकाय?

टीकाः– आ अध्यवसानादि भावो छे ते बधाय, विश्वने (समस्त पदार्थोने) साक्षात् देखनारा भगवान (वीतराग सर्वज्ञ) अर्हंतदेवो वडे, पुद्गलद्रव्यना परिणाममय कहेवामां आव्या होवाथी, तेओ चैतन्यस्वभावमय जीवद्रव्य थवा समर्थ नथी के जे जीवद्रव्य चैतन्यभावथी शून्य एवा पुद्गलद्रव्यथी अतिरिक्त (भिन्न) कहेवामां आव्युं छे; माटे जेओ आ अध्यवसानादिकने जीव कहे छे तेओ खरेखर परमार्थवादी नथी केम के आगम, युकित अने स्वानुभवथी तेमनो पक्ष बाधित छे. तेमां, ‘तेओ जीव नथी’ एवुं आ सर्वज्ञनुं वचन छे ते तो आगम छे अने आ (नीचे प्रमाणे) स्वानुभवगर्भित युक्ति छेः-स्वयमेव उत्पन्न थयेला एवा राग-द्वेष वडे मलिन अध्यवसान छे ते जीव नथी कारण के, कालिमा (काळप) थी जुदा सुवर्णनी जेम, एवा अध्यवसानथी जुदो अन्य चित्स्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ प्रत्यक्ष चैतन्यभावने जुदो अनुभवे छे. १. अनादि जेनो पूर्व अवयव छे अने अनंत जेनो भविष्यनो अवयव छे एवी जे एक संसरणरूप क्रिया ते-रूपे क्रीडा करतुं कर्म छे ते पण जीव नथी कारण के कर्मथी जुदो अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे. २. तीव्र-मंद अनुभवथी भेदरूप थतां, दुरंत


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इह खलु पुद्गलभिन्नात्मोपलबि्ंधं प्रति विप्रतिपन्नः साम्नैवैवमनुशास्यः।

(मालिनी)
विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन
स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकम्।

_________________________________________________________________ रागरसथी भरेलां अध्यवसानोनी संतति पण जीव नथी कारण के ते संततिथी अन्य जुदो चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे. ३. नवी पुराणी अवस्थादिकना भेदथी प्रवर्ततुं जे नोकर्म ते पण जीव नथी कारण के शरीरथी अन्य जुदो चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे. ४. समस्त जगतने पुण्यपापरूपे व्यापतो कर्मनो विपाक छे ते पण जीव नथी कारण के शुभाशुभ भावथी अन्य जुदो चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ पोते तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे. प. शाता-अशातारूपे व्याप्त जे समस्त तीव्रमंदपणारूप गुणो ते वडे भेदरूप थतो जे कर्मनो अनुभव ते पण जीव नथी कारण के सुख-दुःखथी जुदो अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ पोते तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे. ६. शिखंडनी जेम उभयात्मकपणे मळेलां जे आत्मा अने कर्म ते बन्ने मळेलां पण जीव नथी कारण के समस्तपणे (संपूर्णपणे) कर्मथी जुदो अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ पोते तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे. ७. अर्थक्रियामां समर्थ एवो जे कर्मनो संयोग ते पण जीव नथी कारण के, आठ काष्टना संयोगथी (-खाटलाथी) जुदो जे खाटलामां सूनारो पुरुष तेनी जेम, कर्मसंयोगथी जुदो अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ पोते तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे. ८. (आ ज रीते अन्य कोई बीजा प्रकारे कहे त्यां पण आ ज युक्ति जाणवी.)

[भावार्थः– चैतन्यस्वभावरूप जीव, सर्व परभावोथी जुदो, भेदज्ञानीओने अनुभवगोचर छे; तेथी जेम अज्ञानी माने छे तेम नथी.]

अहीं पुद्गलथी भिन्न आत्मानी उपलब्धि प्रत्ये विरोध करनार (-पुद्गलने ज आत्मा जाणनार) पुरुषने (तेना हितरूप आत्मप्राप्तिनी वात कही) मीठाशथी (अने समभावथी) ज आ प्रमाणे उपदेश करवो एम काव्यमां कहे छेः-

श्लोकार्थः– हे भव्य! तने [अपरेण] बीजो [अकार्य–कोलाहलेन] नकामो


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हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाद्भिन्नधाम्नो
ननु किमनुपलब्धिर्भाति किंचोपलब्धिः।। ३४ ।।

_________________________________________________________________

कोलाहल करवाथी [किम्] शो लाभ छे? [विरम्] ए कोलाहलथी तुं विरक्त था अने [एकम्] एक चैतन्यमात्र वस्तुने [स्वयम् अपि] पोते [निभृतः सन्] निश्चळ लीन थई [पश्य षण्मासम्] देख; एवो छ महिना अभ्यास कर अने जो (-तपास) के एम करवाथी [हृदय–सरसि] पोताना हृदयसरोवरमां [पुद्गगलात् भिन्नधाम्नः] जेनुं तेज-प्रताप-प्रकाश पुद्गलथी भिन्न छे एवा [पुंसः] आत्मानी [ननु किम् अनुपलब्धिः भाति] प्राप्ति नथी थती [किं च उपलब्धिः] के थाय छे.

भावार्थः– जो पोताना स्वरूपनो अभ्यास करे तो तेनी प्राप्ति अवश्य थाय; जो परवस्तु होय तो तेनी तो प्राप्ति न थाय. पोतानुं स्वरूप तो मोजूद छे, पण भूली रह्यो छे; जो चेतीने देखे तो पासे ज छे. अहीं छ महिनानो अभ्यास कह्यो तेथी एम न समजवुं के एटलो ज वखत लागे. तेनुं थवुं तो अंतर्मूहूर्तमात्रमां ज छे, परंतु शिष्यने बहु कठिन लागतुं होय तो तेनो निषेध कर्यो छे. जो समजवामां बहु काळ लागे तो छ महिनाथी अधिक नहि लागे; तेथी अन्य निष्प्रयोजन कोलाहल छोडी आमां लागवाथी जलदी स्वरूपनी प्राप्ति थशे एवो उपदेश छे. ३४.

* * *

आगळनी गाथामां अनेक प्रकारनी मिथ्या मान्यता बतावी. तेनो हवे उत्तर आपे छेः-

* समयसार गाथा ४४ः टीका उपरनुं प्रवचन *

आ अध्यवसान आदि भावोनी हयाती कहेतां अस्तित्व तो छे. अशुद्धता छे ज नहि एम कोई कहे तो ते वात खोटी छे. जो अशुद्धता होय ज नहि तो पछी दुःखथी मुक्त थवानो उपदेश पण केम होय? दुःख न होय तो दुःखथी मुक्त थवानी वात रहेती नथी. परंतु दुःखथी आत्यंतिक मुक्त थवानो जे जिनोपदेश छे एनो अर्थ ज ए थयो के एक (शुद्ध) आत्मा सिवाय (संसारीने) पर्यायमां दुःख पण छे.

वळी कोई जो एम कहे के आत्मामां गुण नथी तो ए वात पण खोटी छे. हा, प्रकृतिना जे रजोगुण, तमोगुण इत्यादि छे ते आत्मामां नथी ए बराबर छे. परंतु वस्तुना गुणो एटले शक्तिओ तो वस्तुमां छे ज. तो श्री प्रवचनसारमां अलिंगग्रहणना १८मा बोलमां एम आवे छे ने के-‘आत्मा गुणविशेषथी नहि आलिंगित एवुं शुद्ध द्रव्य छे’? भाई! त्यां बीजुं कहेवुं छे. त्यां एम कहेवुं छे के सामान्य जे वस्तु ध्रुव-ध्रुव-


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ध्रुव अखंड एकाकार छे ते गुणविशेषरूपे थती नथी. सामान्य चिद्रूप चीज जे ध्रुव छे तेमां गुणो छे तो खरा, पण गुण अने गुणीनो भेद ज्यां लक्षमां लेवा जाय त्यां विकल्प-राग ऊठे छे. तेथी सामान्य जे छे ते गुणविशेषने नहि आलिंगन करतुं शुद्ध द्रव्य छे एम त्यां कह्युं छे. सूक्ष्म वात छे, भाई! सम्यग्दर्शननो विषय अभेद एकाकार छे, गुण-गुणीभेद ए सम्यक्त्वनो विषय नथी. भेदना लक्षे नहि, पण पूर्ण सत् वस्तु जे अभेद एकरूप सामान्य चैतन्यस्वरूप छे तेना लक्षे सम्यग्दर्शन थाय छे.

आ समजवुं पडशे, हों. जेम वंटोळियानुं तरणुं कयां जईने पडे एनो कोई मेळ नथी तेम आनी समजण विना मिथ्या भ्रममां पडेलो जीव चोराशीना अवतारमां कयां जईने पडे एनो कांई मेळ नथी. वस्तु जे त्रिकाळ अभेद छे तेमां भेदनी नजरथी जोतां भेद छे तोपण वस्तु कदीय भेदपणे थती नथी. वस्तुनुं स्वरूप ज सहज आवुं छे.

आ अध्यवसानादि भावो छे ते बधाय, विश्वने साक्षात् देखनारा भगवान अर्हंतदेवो वडे, पुद्गलद्रव्यना परिणाममय कहेवामां आव्या छे. जुओ, श्री अरिहंतदेव विश्वने एटले के समस्त पदार्थोने साक्षात् जाणे-देखे छे. भगवानने केवळज्ञान-केवळदर्शनमां स्वपरप्रकाशकपणानुं संपूर्ण सामर्थ्य प्रगटयुं छे. तेथी तेओ आखा विश्वने देखे छे, जाणे छे.

खरेखर तो सर्वज्ञपणुं ए आत्मज्ञपणुं छे. केवळज्ञाननी पर्यायनो स्वभाव ज एटलो अने एवडो छे के ते स्व अने परने संपूर्ण प्रकाशे. लोकालोक छे तो पर्यायमां तेनुं ज्ञान थाय छे एम नथी. पर्यायनो ए सहज ज स्वभाव छे के ए समस्त विश्वने जाणे. स्वपरप्रकाशकपणानुं सामर्थ्य पोताथी ज प्रगटयुं छे. अरिहंतदेव विश्वने साक्षात् देखे छे एटले के पोतानी पर्यायमां पूर्णताने देखे छे. जेम रात्रिना समये कोई सरोवरना पाणीमां तारा, चंद्र वगेरे देखाय छे ते खरेखर तो पाणीनी ज अवस्था देखाय छे तेम ज्ञान खरेखर तो ज्ञानने ज संपूर्ण जाणी रह्युं छे.

श्री अरिहंतदेवने केवळज्ञाननी दशा एवी स्वच्छ अने निर्मळ प्रगट थई छे के एने देखतां आखुं लोकालोक जणाई जाय छे. अहीं सिद्ध भगवंतोनी वात लीधी नथी केमके सिद्धोने अरिहंतनी जेम वाणी (दिव्यध्वनि) होती नथी. एवा वीतराग, सर्वज्ञ अरिहंतदेवो वडे आ दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, पूजा, शील, संयम आदि जे विकल्पो-शुभभावो छे ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय कहेवामां आव्या छे. अहाहा! जे भावे तीर्थंकर-नामकर्म बंधाय ते भावने पुद्गलद्रव्यना परिणाममय कह्या छे.

प्रश्नः– शुभभावोने अचेतन एवा पुद्गलद्रव्यना परिणाममय केम कह्या?

समाधानः– वस्तु आत्मा छे ए तो चैतन्यघनस्वरूप छे. अने आ शुभभावो छे ते चैतन्यना स्वभावमय नथी. श्री समयसार गाथा ६८ नी टीकामां लीधुं छे के-‘कारणना


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जेवां ज कार्यो होय छे,’ ‘जवपूर्वक जे जव थाय छे ते जव ज होय छे.’ जेम जवमांथी जव थाय तेम चैतन्यमांथी चैतन्य परिणाम ज थाय छे. आत्मा ज्ञानानंदस्वभावी छे. तेमांथी ज्ञान अने आनंदनी ज दशा थाय. तेमांथी आ जड, अचेतन शुभाशुभभावो केम थाय? तेथी पांच महाव्रत अने बार अणुव्रतना जे शुभ विकल्पो छे ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय छे, चैतन्यना परिणाममय नथी.

अशुद्धनिश्चयनयथी तेमने जीवना कहेवाय छे. परंतु अशुद्धनिश्चयनय एटले ज व्यवहार. खरेखर तो तेओ परना आश्रये (कर्मोद्रय निमित्ते) थता होवाथी ए भावो परना ज छे. अहीं तेमने पुद्गलद्रव्यना परिणाम एम न कहेतां अभेदपणे पुद्गलद्रव्यना परिणाममय एटले के पुद्गलद्रव्यना परिणामोथी एकमेक कह्या छे.

भाई, भगवान जिनेश्वरनो मार्ग कोई अलौकिक अने अद्भुत छे. मंद कषायनो गमे ते भाव होय, भगवान केवळीए एने पुद्गलद्रव्यना परिणाममय कह्यो छे केमके तेमां चैतन्यना नूरनो अंश नथी. कोई एने मोक्षनो मार्ग कहे तो ए महा विपरीतता छे. भले ए रागना परिणाममां स्पर्श, रस, गंध अने वर्ण नथी पण ए परिणाममां चैतन्यपणानो अभाव छे अने तेथी ए पुद्गलना परिणाममय छे. आगळ गाथा ६८ नी टीकामां अति स्पष्टपणे कह्युं छे के-आ मिथ्याद्रष्टि आदि गुणस्थानो पौद्गलिक मोहकर्मनी प्रकृतिना उद्रयपूर्वक थतां होईने, सदाय अचेतन होवाथी, पुद्गल ज छे-जीव नथी, केमके कारणना जेवां ज कार्यो होय छे.

हवे कहे छे के-तेओ (ते अध्यवसानो) चैतन्यस्वभावमय जीवद्रव्य थवा समर्थ नथी के जे जीवद्रव्य, चैतन्यभावथी शून्य एवा पुद्गलद्रव्यथी अतिरिक्त कहेवामां आव्युं छे. जुओ, स्वरूपथी जीवद्रव्य केवुं छे ते अहीं कह्युं छे. स्वरूपथी जीवद्रव्य शुद्ध चैतन्य-स्वभावमय छे. भगवान आत्मा चैतन्यस्वभावमय एक ज्ञायकमात्र छे. अहाहा! ए त्रिकाळी सत्नुं सत्त्व, भाववाननो भाव अभिन्न एक चैतन्यमात्र छे एने चैतन्यभावथी शून्य एवा पुद्गलद्रव्यथी, भिन्न कहेवामां आवेल छे.

तथा जे आ रागादि परिणाम, दया, दान, व्रत, भक्ति आदि शुभभावना परिणाम छे तेमने अर्हंतदेवोए पुद्गलद्रव्यना परिणाममय कह्या छे तेथी तेओ चैतन्यस्वभावमय जीवद्रव्य थवा समर्थ नथी. अहा! गजबनी वात करी छे. सघळाय पुण्यभावो-चाहे तो भगवाननी स्तुति हो, वंदना हो, भक्ति हो, के व्रत-तपना विकल्प हो के छकायना जीवोनी रक्षाना परिणाम हो-ए बधा जीवद्रव्य थवा समर्थ नथी केमके ते पुद्गलपरिणाममय छे, अधर्मना परिणाम छे.

श्री समयसार-कलशटीकाना १०८मा कळशमां कह्युं छे के-‘अहीं कोई जाणशे के


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शुभ-अशुभक्रियारूप जे आचरणरूप चारित्र छे ते करवा योग्य नथी तेम वर्जवायोग्य पण नथी.’

समाधानः– ‘उत्तर आम छे के-वर्जवायोग्य छे, कारण के व्यवहारचारित्र होतुं थकुं दुष्ट छे, अनिष्ट छे, घातक छे; तेथी विषय-कषायनी माफक क्रियारूप चारित्र निषिद्ध छे.’ आवा शुभभावोनी प्रतिज्ञा लईने कोई एम माने के बधुं थई गयुं (धर्म थई गयो) तो ते अज्ञान पोषे छे. शुभभाव पण विषय-कषायनी जेम ज अनिष्ट अने आत्मघातक छे. तेथी जेम विषय-कषायनो निषेध छे तेम पुण्यपरिणामरूप बाह्य चारित्रनो पण निषेध छे. आवुं लोकोने कठण पडे पण शुं थाय? व्यवहार चारित्रना परिणाम चैतन्यभावथी शून्य छे तेथी ते जीवद्रव्य थवा समर्थ नथी. तथा जेओ जीव थवा समर्थ नथी तेवा ए अचेतन भावो जीवनो मोक्षमार्ग केम थाय? जे बंधभाव छे तेमांथी मोक्षनो भाव केम थाय?

आ पंचम आराना साधु-परमेष्ठी-भगवान कुंदकुंदाचार्य अने अमृतचन्द्राचार्य भगवाननी दिव्यध्वनिनो संदेश पहोंचाडे छे के-ज्ञायकस्वभावमय, चैतन्यस्वभावमय एवुं जे जीवद्रव्य, चैतन्यभावथी शून्य एवुं जे पुद्गलद्रव्य तेनाथी भिन्न छे. माटे जेओ अध्यवसानादिकने जीव कहे छे तेओ खरेखर परमार्थवादी नथी. तेओ साचुं माननारा अने साचुं कहेनारा नथी. व्यवहारथी निश्चय थाय एम कहेनारा परमार्थवादी नथी. शुभ-भावरूप जे व्यवहार ए तो अजीव छे. ए अजीव मोक्षमार्गनुं साधन केवी रीते थाय? जे बंधस्वरूप छे ते मोक्षनुं साधन केम थाय?

प्रश्नः– श्रीमदे कह्युं छे ने के-‘लोपे सद्व्यवहारने साधनरहित थाय.’

उत्तरः– श्रीमदे तो त्यां जे निश्चयाभासी छे तेनी वात करी छे. जे कोई जीव निश्चयनयना अभिप्रायने यथार्थ जाणतो नथी अने सद्व्यवहार कहेतां आत्मव्यवहारने लोपे छे अर्थात् निश्चयरत्नत्रय प्रगट करतो नथी ते साधनरहित थयो थको निश्चयभासी मिथ्याद्रष्टि छे. श्रीमदे कहेली पूरी पंक्तिओ आ प्रमाणे छेः-(आत्मसिद्धिमां)

‘अथवा निश्चयनय ग्रहे, मात्र शब्दनी मांय;
लोपे सद्व्यवहारने, साधन रहित थाय.’

‘साधनरहित थाय’ एम कह्युं त्यां कयुं साधन? आ शुभभाव जे अजीव भाव छे ए साधन? ए तो साधन छे ज नहि. अंतरंग साधन निज शुद्धात्मा छे अने तेना लक्षे प्रगट थतां जे निश्चयरत्नत्रय ते बाह्य साधन छे. आ सिवाय अन्य कांई साधन नथी.

श्री प्रवचनसारमां आवे छे के-मोक्षमार्गनो भाव ए जीवनो व्यवहारभाव छे, आत्मव्यवहार छे. निश्चय समकित, निश्चयज्ञान अने निश्चयचारित्र एवी जे निश्चयरत्नत्रय-