Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Part 3; Introduction; Gurudev's writing; Contents; Jiv-Ajiv Adhikar; Kalash: 33 ; Gatha: 39-43.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 26 of 210

 

PDF/HTML Page 501 of 4199
single page version

अहीं चिन्मात्र ज्योति हुं आत्मा छुं एम कहीने जीवनो स्वभाव ज्ञानमात्र छे एम कह्युं. ज्ञानमात्र कहेतां एमां बीजा अनंत गुणो छे तेनो निषेध करवो नथी, परंतु रागादि विकारनो निषेध करवो छे. अहाहा! हुं चिन्मात्र ज्योतिस्वरूप आत्मा छुं एवो सम्यग्द्रष्टिने सम्यग्दर्शनना काळमां अनुभव थाय छे.

हवे कहे छे-‘चिन्मात्र आकारने लीधे हुं समस्त क्रमरूप तथा अक्रमरूप प्रर्वतता व्यावहारिक भावोथी भेदरूप थतो नथी माटे हुं एक छुं.’ नरकगति, मोक्षगति इत्यादि गतिओ क्रमे थाय छे. एक पछी एक थाय छे तेथी तेने क्रमरूप भाव कह्यो छे. अने पर्यायमां कषाय, लेश्या, ज्ञाननो उघाड वगेरे एकसाथे होय छे तेथी तेमने अहीं अक्रमरूप भाव कह्या छे. आ बधा व्यावहारिक भावो छे. अहीं क्रम एटले पर्याय अने अक्रम एटले गुण एम नथी लेवुं. परंतु एक पछी एक थती गतिना भावने क्रमरूप अने उद्रयनो रागादि भाव, लेश्यानो भाव अने ज्ञाननी एक समयनी पर्यायनो भाव इत्यादि एक साथे होय छे तेमने अक्रमरूप लीधा छे. आ सघळा क्रम-अक्रमरूप प्रवर्तता व्यावहारिक भावोथी भेदरूप थतो नथी माटे हुं एक छुं. आ व्यावहारिक भावोथी भिन्न मारी चीज छे, केमके हुं तो अभेद, अखंड, आनंदकंद प्रभु एक चिन्मात्र वस्तु छुं.

अहाहा! एक ज्ञायकभावपणाने लीधे हुं क्रम-अक्रमरूप प्रवर्तता व्यावहारिक भावोथी भेदरूप थतो नथी माटे एक छुं. तेथी आ क्रम-अक्रमरूप व्यावहारिक भावोनी अस्ति नथी एम न समजवुं. गति, रागादि अवस्था, लेश्याना परिणाम के ज्ञाननी पर्याय इत्यादि पर्याय छे ज नहि एम नथी. तेमनी (पोतपोताथी) अस्ति तो छे पण तेमनी अस्तिथी हुं अखंड आनंदनो नाथ प्रभु भेदरूप थतो नथी. आवो धर्मनो उपदेश!! हवे आमां (अज्ञानी) माणस शुं करे? बीजे तो कहे के उपवासादि करो एटले करी नाखे अने माने के थई गयो धर्म. पण ए तो मिथ्यात्वनुं पाप छे, बापु!

ज्यारे आत्मानुं सम्यग्दर्शन थयुं अने तेनुं आचरण कर्युं त्यारे आत्मा केवो जाण्यो एनी वात करे छे. चिन्मात्रपणाने लीधे एटले अखंड एक ज्ञानस्वभावने लईने ए क्रमे थती गति अने अक्रमे थती ज्ञान पर्याय, राग, लेश्या, कषाय-ए सघळा व्यावहारिक भेदोथी हुं भेदरूप थतो नथी. अहाहा! जैन दर्शन आवुं सूक्ष्म अने अपूर्व छे. आवी वात बीजे कयांय छे नहि. आ तो परमेश्वर जिनेश्वरदेव जेमणे एक समयमां त्रणकाळ-त्रणलोकने जोया ए भगवानना श्रीमुखेथी जे दिव्यध्वनि-ॐध्वनि आवी ए वात संतोए आगममां रची छे.

अहाहा....! पर्याय अने रागथी खसीने द्रष्टि भगवानने भाळवा गई, ए ज्ञाननेत्र निज चैतन्यने जोवां गयां त्यां चैतन्यने आवो जोयो के-क्रम अने अक्रमे प्रवर्तता भेदोथी हुं भेदातो नथी. हुं तो त्रिकाळ एकरूप छुं, अभेद छुं. अरे! प्रभु केवळीना


PDF/HTML Page 502 of 4199
single page version

विरह पडया अने मनःपर्ययज्ञान पण रह्युं नहि. परंतु वस्तुस्थितिने बतावनारां आ शास्त्र रही गयां. अहो! आचार्योए शास्त्रो रचीने केवळज्ञानने भूलावी दीधुं छे! भाई! तुं कोण छे? केवडो छे? कया प्रकारे आत्माने जाणे त्यारे यथार्थपणे जाण्यो कहेवाय? के पर्यायना भेदथी भेदाय नहि एवो शुं चिन्मात्र एक छुं एम जाणे त्यारे आत्माने जाण्यो कहेवाय, कठण पडे, पण मार्ग तो आ छे, भाई! एने धीमे धीमे समजवो जोईए. आ चोरासी लाखना अवतारमां तुं दुःखी-दुःखी थई रह्यो छे. ए दुःखमांथी आ समज्या विना छूटकारो थाय एम नथी.

भाई! तें बहारनी संभाळ तो घणी बधी करी छे. पण अंदर जीवती जागती ज्योतस्वरूप जे चैतन्य भगवान पडयो छे तेनी अनंतकाळमां एक क्षणमात्र पण संभाळ करी नथी. ए चैतन्य भगवान सम्यग्ज्ञानमां केवो जणायो ते अहीं कहे छे. कहे छे के क्रमे-अक्रमे प्रवर्तता व्यावहारिक भावोथी हुं भेदरूप थतो नथी एवो अभेद अखंडानंद स्वरूप एक छुं. वीतराग देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो जे विकल्प ते विकल्पथी के ‘हुं चिन्मात्र छुं’ एवा विकल्पथी भेदरूप नहि थतो एवो अभेद एकरूप हुं छुं.

वस्तु आत्मा त्रिकाळ निर्विकल्प छे. पहेलां ‘अनसूया’नुं नाटक भजवातुं ते जोयेलुं एमां माता पोताना बाळकने सूवडावे त्यारे एम गाती के-शुद्धोऽसि, बुद्धोऽसि उदासीनोऽसि, निर्विकल्पोऽसिएटले के बेटा! तुं शुद्ध छे, ज्ञाननो पिंड छे, आखी दुनियामां तारी चीज जुदी छे माटे उदासीन छे, निर्विकल्प छे. आ तो नाटकमां पहेलां आ आवतुं. तुं निर्विकल्प छे एटले पर्यायमां थता क्रमरूप अने अक्रमरूप भावोथी भेदाय एवी तारी चीज नथी. वस्तु-आत्मा तो भेद रहित अभेद छे एम जाणे त्यारे आत्मा जाण्यो कहेवाय. आनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. अहीं ‘हुं एक छुं’ ए बोल पूरो थयो. हवे ‘हुं शुद्ध छुं’ ए बोल कहे छे.

‘नर, नारक आदि जीवना विशेषो, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा बंध अने मोक्षस्वरूप जे व्यावहारिक नव तत्त्वो तेमनाथी टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावरूप भाव वडे, अत्यंत जुदो छुं माटे हुं शुद्ध छुं.’

अनादिथी जीव पुण्यभाव, पापभाव, आस्रवभाव अने बंधभावमां रोकायेलो छे. अनादिथी एने मोक्ष कयां छे? पण संवर, निर्जरा, मोक्षना विकल्प छे. अने हवे ज्यारे भान थयुं त्यारे अंतर-एकाग्रता सहित जे संवर, निर्जरा अने मोक्षनी पर्याय प्रगटे ते पर्याय जेवडो हुं नथी. आ व्यावहारिक नवतत्त्वोथी हुं जुदो छुं. आ पुण्य, पाप, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा अने मोक्ष ए बधां व्यावहारिक नवतत्त्वो छे. ए सर्वथी हुं भिन्न छुं. नियमसार गाथा ३८ मां कह्युं छे के-सात तत्त्वो नाशवान छे. संवर, निर्जरा अने मोक्षनी पर्याय पण नाशवान छे. अने हुं एक अविनाशी छुं. मारा


PDF/HTML Page 503 of 4199
single page version

होवापणामां-अस्तिपणामां ए पर्यायोना भेदो छे नहि. ए भेदोमां हुं आवतो नथी अने मारामां ए भेदो समाता नथी. तेथी संवर, निर्जरा अने केवळज्ञाननी पर्यायथी पण हुं अत्यंत जुदो छुं. हुं तो एक अखंड चैतन्यनो पिंड छुं, ज्ञाननो पिंड छुं, आनंदनो कंद अने पुरुषार्थनो पिंड छुं अने व्यावहारिक जे नवतत्त्वो तेमनाथी जुदो, अत्यंत जुदो छुं माटे शुद्ध छुं.

अहाहा! वस्तु आत्मा एकलुं चैतन्यनुं दळ छे. ए त्रिकाळस्वरूप छे. एक समयनी पर्यायमां ए त्रिकाळी द्रव्य कयां आवे छे? तेथी व्यावहारिक नवतत्त्वना भेदो- पर्यायो नथी एम कोई कहे तो एम नथी. तेओ पर्यायपणे, पर्यायना अस्तिपणे तो छे, परंतु त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यमां ते नथी एम वात छे. ध्रुव द्रव्यमां पर्याय आवती नथी अने पर्यायमां द्रव्य आवतुं नथी. श्री समयसार गाथा ४९ मां ‘अव्यक्त’ ना छ बोल लीधा छे. तेमां पांचमा बोलमां एम लीधुं छे के-व्यक्त अने अव्यक्त बन्ने साथे जणाता होवा छतां व्यक्तने एटले पर्यायने हुं स्पर्शतो नथी एवो हुं द्रव्य छुं. श्री प्रवचनसारमां ४७ नयोनुं वर्णन कर्युं छे. तेमां छेल्ला बे नय अशुद्धनय अने शुद्धनय लीधा छे. तेमां एम लीधुं छे के माटीने केवळ माटीरूपे जोवी ते शुद्धनय छे अने माटीना अनेक जातना आकार विशेषो (वासण) थाय ते-रूपे जोवी ते अशुद्धनय छे. एम भगवान आत्मा एकली चिन्मात्र अभेद वस्तु ते शुद्ध छे. ए शुद्धनयनो विषय छे. अने आत्माने पर्यायथी जोवो ए अशुद्धनयनो विषय छे. जुओ, अशुद्धनयनो विषय पर्याय-नवतत्त्वना भेदरूप छे खरी, पण द्रव्यनी सत्तामां त्रिकाळ ध्रुव सत्त्वमां ए नथी. तेथी कहे छे नवतत्त्वोना व्यावहारिक भावोथी जुदो होवाथी शुद्ध छुं.

आ ३८ मी गाथा जीव अधिकारनी छेल्ली गाथा छे. आखा जीवतत्त्वनो सार बधो आमां प्रगट कर्यो छे. ज्ञानी एम अनुभवे छे के-हुं शुद्ध छुं. ‘हुं शुद्ध छुं’ एवो विकल्प नहि, एवो अनुभव छे. अहाहा! ते एम जाणे छे के-मारा सत्नुं सत्त्व छे ते त्रिकाळ छे, ध्रुव छे, नित्य छे, अभेद छे अने एकरूप छे. तेथी नवतत्त्वना व्यावहारिक भावोथी हुं अत्यंत जुदो छुं, भिन्न छुं. भिन्नताना त्रण प्रकार छे.

एक द्रव्य बीजा द्रव्यथी अत्यंत भिन्न छे ए एक वात.

पुण्य-पापना जे विकारीभावो छे एनाथी भगवान आत्मा भिन्न छे ए बीजी

वात.
अने जे निर्मळ पर्याय छे एनाथी पण भगवान आत्मा भिन्न छे ए त्रीजी वात.
पहेली स्वद्रव्य-परद्रव्यनी भिन्नता कही. बीजी विकारीभाव अने स्वभावनी भिन्नता

कही अने त्रीजी द्रव्य अने पर्यायनी भिन्नता बतावी. एक समयनी पर्यायमां ए आखी वस्तु छे कयां? पर्याय द्रव्यने अडे छे कयां? अहाहा! पर्याय छे ए द्रव्यने स्पर्शती नथी अने द्रव्यस्वभाव पर्यायने स्पर्शतो नथी. पुद्गलादि (शरीर वगेरे) परद्रव्यो


PDF/HTML Page 504 of 4199
single page version

भगवान आत्माने स्पर्शता नथी. अंदर पर्यायमां थता रागादि विकारी भावो भगवान चैतन्यस्वभावने स्पर्शता नथी. ए तो ठीक, पण भगवान ज्ञायकस्वभावी ध्रुव आत्माना आश्रये प्रगट थएली निर्मळ पर्याय पण द्रव्यने स्पर्शती नथी. प्रवचनसार गाथा १७२ मां अलिंगग्रहणना १९-२० बोलमां आ वात लीधी छे. १९ मा बोलमां एम लीधुं छे के-‘लिंग एटले के पर्याय एवुं जे ग्रहण एटले के अर्थावबोधविशेष ते जेने नथी ते अलिंग-ग्रहण छे; आ रीते आत्मा पर्यायविशेषथी नहि आलिंगित एवुं शुद्ध द्रव्य छे.’ अहीं कहे छे के पर्याय द्रव्यने स्पर्शती नथी. २० मा बोलमां एम लीधुं छे के-‘लिंग एटले प्रत्यभिज्ञाननुं कारण एवुं जे ग्रहण एटले के अर्थावबोधसामान्य ते जेने नथी ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्मा द्रव्यथी नहि आलिंगित एवो शुद्ध पर्याय छे. शुं कहे छे? वेदन पर्यायमां छे, त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यमां नथी. द्रव्य तो अक्रिय छे. तेथी द्रव्य पर्यायने स्पर्शतुं नथी. भाई! आ तो वस्तुस्थितिनी अलौकिक वातो छे. ए ज अहीं कहे छे के-आ नवतत्त्वना व्यवहारिक भावोथी, अखंड एक चैतन्यस्वभावपणाने लीधे हुं जुदो छुं अने तेथी हुं शुद्ध छुं. आ ‘शुद्ध छुं’ नो बोल पूरो थयो.

हवे त्रीजो बोल ‘दर्शन ज्ञानमय’ नो कहे छे, ‘चिन्मात्र होवाथी सामान्य- विशेष उपयोगात्मकपणाने उल्लंघतो नथी माटे हुं दर्शनज्ञानमय छुं. अहाहा! चिन्मात्र कहेतां हुं चैतन्यस्वभावमात्र छुं. दया, दान, व्रतादि विकल्प ते हुं नहि, अल्पज्ञता ते पण हुं नहि अने हुं ज्ञानदर्शनवाळो एम (भेद) पण हुं नहि. हुं तो चिन्मात्र होवाथी दर्शन-ज्ञानमय छुं. अहीं चैतन्यसामान्य ते दर्शन छे अने चैतन्यविशेष ते ज्ञान छे. चैतन्य-स्वभावी भगवान आत्मा सामान्य-विशेष उपयोगात्मकपणाने ओळंगतो नहि होवाथी हुं ज्ञानदर्शनमय छुं. त्रिकाळी वस्तुपणे आवो छुं. आ त्रीजो बोल थयो.

हवे चोथो बोल ‘अरूपी’ नो कहे छेः ‘स्पर्श, रस, गंध, वर्ण जेनुं निमित्त छे एवा संवेदनरूपे परिणम्यो होवा छतां पण स्पर्शादिरूपे पोते परिणम्यो नथी माटे परमार्थे हुं सदाय अरूपी छुं.’ जुओ, स्पर्श, रस आदिनुं ज्ञान जे थाय छे ते मारा पोताथी थाय छे, निमित्तथी नहि, अने स्पर्शादि निमित्तनी हयाती छे तो मारामां ज्ञान थाय छे एम पण नथी, तत्संबंधी ज्ञानरूपे परिणमवानी योग्यता मारामां सहज स्वभावथी ज छे. ए स्पर्श, रस, गंध आदिने जाणवा छतां ते स्पर्शादि मारामां आवता नथी, हुं स्पर्शादिरूपे परिणमतो नथी. मारुं ज्ञान अने स्पर्शादि भिन्न भिन्न रहे छे. आम होवाथी हुं परमार्थे सदाय अरूपी छुं. आवो आत्मा ज्यां सुधी जाणे अने अनुभवे नहि त्यांसुधी जीव सम्यग्द्रष्टि थतो नथी. सम्यग्दर्शन विनानां जे व्रत अने तप करे ए बधां बाळव्रत अने बाळतप एटले के मूर्खाई भर्यां व्रत अने तप छे. व्रत, तप, जात्रा वगेरेना विकल्प तो शुभभाव छे. आ शेत्रुंजो अने सम्मेदशिखरना डुंगरे चढे अने जात्रा करे ए तो पुण्यभाव छे, राग छे, धर्म नहि, भाई! अंदर त्रणलोकनो


PDF/HTML Page 505 of 4199
single page version

नाथ, अखंडानंदस्वरूप चैतन्यनो डुंगर छे एमां जाय तो साची जात्रा छे. ए धर्मनी रीत छे.

प्रश्नः– ‘स्पर्श, रस, गंध, वर्ण जेनुं निमित्त छे एवा संवेदनरूपे परिणम्यो होवा छतां....’ एम पाठमां निमित्त कह्युं छे ने?

उत्तरः– निमित्त कह्युं छे एनी कोण ना पाडे छे? पण एनो अर्थ शुं? स्पर्शादि निमित्त छे एटलुं ज मात्र. स्पर्शादि निमित्तथी संवेदन (ज्ञान) थाय छे एम नथी. ज्ञानरूपे परिणमवानी मूळशक्ति तो मारी पोतानी छे. हुं संवेदनरूपे परिणम्यो छुं ए मारा शुद्ध उपादानथी छे, निमित्तथी नहि. स्पर्शादि निमित्तथी हुं ज्ञानरूपे परिणमुं छुं एम तो नथी पण स्पर्शादि निमित्तनी हयाती छे तेना कारणे मने ज्ञानरूप परिणमन छे एम पण नथी. तथा स्पर्शादिनुं ज्ञान थतां ज्ञान स्पर्शादिरूप थई जाय छे एम पण नथी. संवेदन (ज्ञान) तो मने माराथी थयुं छे अने ए मारुं छे, स्पर्शादिनुं नथी तेथी हुं परमार्थे सदाय अरूपी छुं. कोई एम कहे के संसार अवस्थामां जीव रूपी छे. केमके कर्म जे रूपी छे एनो जीवने संबंध छे माटे ते रूपी छे. पण ए वात बराबर नथी. निमित्तनी अपेक्षाए रूपी कह्यो छे (उपचारथी). खरेखर तो जीव सदाय अरूपी ज छे.

हवे कहे छे-‘आम सर्वथी जुदा एवा स्वरूपने अनुभवतो आ हुं प्रतापवंत रह्यो.’ अहीं ज्ञानी एम जाणे छे के-सर्वथी भिन्न एटले रागादि अने परज्ञेयोथी भिन्न एवा निज चैतन्यस्वरूपने अनुभवतो आ हुं प्रतापवंत रह्यो. मारी सत्ता प्रतापवंत छे, स्वतंत्रपणे शोभायमान छे. मारा प्रतापने कोई खंडित करे अने स्वतंत्रतानी शोभाने कोई लूंटे एवी जगतमां कोई चीज नथी. ‘आ हुं प्रतापवंत रह्यो’-एमां ‘आ’ कहीने आत्मवस्तुनुं प्रत्यक्षपणुं बताव्युं छे. मारा प्रतापथी हुं स्वसंवेदनमां आव्यो छुं, निमित्तना प्रतापथी के अन्यथी नहि.

‘एम प्रतापवंत वर्तता मने, जोके (मारी) बहार अनेक अनेक प्रकारनी स्वरूपनी संपदा वडे समस्त परद्रव्यो स्फुरायमान छे, तोपण कोई पण परद्रव्य परमाणुमात्र पण मारापणे भासतुं नथी.’ अहाहा! धर्मी जीव एम जाणे छे के-हुं निजस्वरूपने अनुभवतो थको स्वतंत्रपणे शोभायमान छुं. अने जगतना समस्त परद्रव्यो-पुद्गलादि पदार्थो अने रागादि आस्रवो पोताना स्वरूपनी संपदाथी प्रगट छे, हयात छे. परंतु ए समस्त पर द्रव्यो-अनंत पुद्गल रजकणो, अनंत आत्माओ अने रागादि भावो मने मारापणे भासता नथी. परद्रव्य परमाणु मात्र पण एटले पुद्गलनो एक रजकण के रागनो एक अंश पण मारो छे एम मने भासतुं नथी. ज्ञानी एम कहे छे के-दया, दान, व्रतादिनो जे विकल्प ऊठे छे के व्यवहाररत्नत्रयनो जे विकल्प छे ते मने मारापणे भासतो नथी. अहाहा! आने आत्माने जाण्यो कहेवाय अने आ धर्म छे.


PDF/HTML Page 506 of 4199
single page version

‘कोई पण परद्रव्य परमाणुमात्र मारापणे भासतुं नथी के जे मने भावकपणे के ज्ञेयपणे मारी साथे एक थईने फरी मोह उत्पन्न करे.’ जुओ, केवी स्वरूपनी निःशंक्ता अने द्रढता! धर्मात्मा अप्रतिहतपणे क्षायिकभाव लेवाना छे एम द्रढतानी वात करे छे. कहे छे के कोई पण परद्रव्य परमाणुमात्र पण मारापणे भासतुं नथी तो पछी भावकपणे के ज्ञेयपणे मारी साथे एक थईने ते फरी मोह केम उत्पन्न करे? अहाहा! शुं द्रष्टिनुं जोर! शुं वैराग्य अने उदासीनता!! कहे छे-मने हवे परद्रव्य मारुं छे एवो मोह उत्पन्न थाय एम छे ज नहि. हवे फरीथी मने मोह अर्थात् मिथ्यात्व उत्पन्न थशे ज नहि. श्री प्रवचनसारनी ९२ मी गाथामां पण आ रीते ज वात लीधी छे के-ते मोहद्रष्टि आगमकौशल्य अने आत्मज्ञान वडे नाश पामी छे, ते हवे फरीने उत्पन्न थवानी ज नथी. अहीं पण ए ज वात लीधी छे के ते मोह फरीथी शा माटे उत्पन्न थाय? कारण के निजरसथी ज मोहने मूळथी उखाडीने-फरी अंकुर न उपजे एवो नाश करीने, महान ज्ञानप्रकाश मने प्रगट थयो छे. मारा ज्ञान अने आनंदना रसथी मोहने मूळथी ज उखाडयो छे, फरीथी मोह न उपजे एवो मोहनो नाश कर्यो छे.

जुओ, आ पंचम आराना मुनिराज! भगवान केवळज्ञानीनो विरह होवा छतां पण पोताना अंतरअनुभवनी वात कहेतां एम फरमावे छे के-हुं तो ज्ञानस्वरूपी भगवान छुं एवो महान ज्ञानप्रकाश मने प्रगट थयो छे. तेथी राग अने परज्ञेय मारा छे एवो मोह हवे फरी मने उपजवानो नथी, केमके एने में मूळथी ज उखाडी दीधो छे. आनुं नाम आत्मा जाण्यो अने आ धर्म छे.

* गाथा ३८ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

आत्मा अनादिकाळथी मोहना उद्रयथी अज्ञानी हतो. एटले दर्शनमोहनो उदय हतो अने एने ते तरफनुं जोडाण हतुं. चैतन्यस्वभाव प्रति जोडाण करवुं जोईए ते नहि करतां स्वभावने छोडीने भावक जे मोहकर्म तेमां जोडाण कर्युं तेथी उत्पन्न भाव्य जे मिथ्यात्वभाव तेने लईने ते अनादिथी अज्ञानी हतो. ते श्री गुरुना उपदेशथी अने पोतानी काळलब्धिथी ज्ञानी थयो. श्री समयसार कळशटीकामां (कळश २८) आवे छे के अनादिथी जीव मरणतुल्य थई रह्यो छे. दया, दान, व्रतना परिणामथी मने लाभ थाय एम मानीने जीवे पोताने मारी नाख्यो छे, मरणतुल्य करी नाख्यो छे. ते भ्रान्ति परमगुरु श्री तीर्थंकरनो उपदेश सांभळतां मटे छे. श्रीगुरु पण जे तीर्थंकरनो उपदेश छे ए ज कहे छे. अरे! दया, दानना विकल्पथी मने लाभ थाय एम मानीने एणे आ जीवती जागती चैतन्यज्योतने-पोताना जीवतरनी ज्योतने हणी नाखी छे.

एवो अज्ञानी जीव श्री गुरुना उपदेशथी अने पोतानी काळलब्धिथी ज्ञानी थयो,


PDF/HTML Page 507 of 4199
single page version

पुरुषार्थ करतां काळलब्धि पाकी गई अने ते ज्ञानी थयो (सर्व समवाय साथे छे एम समजवुं), अने पोताना स्वरूपने परमार्थथी जाण्युं के हुं एक छुं, शुद्ध छुं, अरूपी छुं, दर्शनज्ञानमय छुं. अनंतवार शास्त्रभणतर वडे (विकल्पथी) स्वरूपने जाणेलुं, पण परमार्थथी स्वरूपने जाण्युं नहोतुं. अहाहा! सम्यग्दर्शन शुं चीज छे एना महिमानी लोकोने खबर नथी. स्वरूपने परमार्थथी जाणवाथी मोहनो समूळ नाश थयो, मूळमांथी मिथ्यात्वनो नाश थयो. अने भावकभाव अने ज्ञेयभावथी भेदज्ञान थयुं. भावकभाव एटले शुं? के मोहकर्म जेना निमित्ते जीवमां राग-द्वेष-मोहनी विकारी भाव्य अवस्था प्रगट थाय ते भावक. आवा भावकभावथी अने ज्ञेयभावथी एटले समस्त परद्रव्योथी तेने भेदज्ञान थयुं. अर्थात् रागथी अने ज्ञेयथी ते जुदो थयो. जुदो थयो तो शुं थयुं? के पोतानी स्वरूपसंपदा अनुभवमां आवी. अहाहा! भगवान अनंत अतीन्द्रिय आनंदनी लक्ष्मी, अतीन्द्रिय ज्ञान, अतीन्द्रिय श्रद्धा, अतीन्द्रिय शान्ति, आदि-स्वरूप संपदा अनुभवमां आवी. दया, दान आदिनो राग ए कांई जीवनी पोतानी संपदा नथी, ए तो विभाव छे. कोईने एम लागे के आमां तो व्यवहार उडी जाय छे. पण भगवान! व्यवहार तो राग छे. रागथी तो जुदो पडयो तो लाभ थयो. जेनाथी जुदुं पडवुं छे तेनाथी लाभ केवो? रागथी भिन्न पडतां स्वरूप संपदा अनुभवमां आवी. हवे फरीने मोह उत्पन्न केम थाय? न थाय. मोहने जडथी उखेडी नाखवाथी हवे फरी मोह उत्पन्न न थाय.

हवे, एवो आत्मानो अनुभव थयो तेनो महिमा कही प्रेरणारूप काव्य आचार्य कहे छे के आवा ज्ञानस्वरूप आत्मामां समस्त लोक निमग्न थाओः-

* कळश ३२ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

एषः भगवान् अवबोधसिंधुः आ ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा विभ्रमतिरस्करिणीम् भरेण आप्लाव्य विभ्रमरूप आडी चादरने समूळगी डूबाडी दईने (दूर करीने) प्रोन्मग्नः पोते सर्वांग प्रगट थयो छे. जीव अधिकारनो आ छेल्लो कळश छे. शुं कहे छे? के भगवान आत्मा ज्ञानसिंधु छे, पोते ज्ञानस्वरूप ज छे. ‘आ’ शब्द द्वारा एनुं प्रत्यक्षपणुं बताव्युं छे.

जेम पोतानी सामे मोटो समुद्र होय पण वच्चे चार हाथनी चादर होय तो समुद्र देखातो नथी. तेम राग अने पुण्यादि मारां छे, एवडुं ज मारुं अस्तित्व छे एवा मिथ्यात्वरूपी परिणमननी आड छे त्यां सुधी ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा देखातो नथी. चैतन्यस्वरूपथी विपरीत जे राग ते मारो अने एक समयनी पर्याय ते हुं एवी जे पर्यायबुद्धि हती ते विभ्रम हतो. ते विभ्रमनी चादरने डूबाडी दीधी, ते विभ्रमनो व्यय करी नाख्यो त्यारे पोते सर्वांग प्रगट थयो.

आत्मा परम परमेश्वरस्वरूप चिदानंद भगवान छे. रागादि मारा छे एवा विभ्रमनो


PDF/HTML Page 508 of 4199
single page version

व्यय करी, पोते ज्ञाननो समुद्र पर्यायमां प्रगट थयो. जेवो भगवान आत्मानो अतीन्द्रिय आनंद, अतीन्द्रिय शान्ति अने अतीन्द्रिय ज्ञाननो स्वभाव छे, तेनो आश्रय लेतां विभ्रमनी चादर नाश थई गई, अने पोते पर्यायमां (प्र+उन्मग्नः) विशेषे उछळ्‌यो. वस्तु तो वस्तु छे ध्रुव. ए कांई प्रगट थई एम नथी. परंतु ध्रुवनी द्रष्टि थतां मिथ्यात्वनो नाश थयो अने जेवुं एनुं शुद्ध स्वरूप छे एवुं पर्यायमां विशेषे उछळ्‌युं अर्थात् शांति अने अतीन्द्रिय आनंदनी निर्मळ दशा प्रगट थई. अंदर पूर्णानंदनो नाथ चैतन्य भगवान ज्ञान अने आनंदथी भरेलो छे. तेनी द्रष्टि थतां विभ्रमनो नाश थयो अने ते पर्यायमां उछळ्‌यो, विशेषे उछळ्‌यो, विशेषे उछळ्‌यो एटले उत्कृष्टपणे परिणम्यो, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी पर्यायपणे परिणम्यो.

अहीं जीव अधिकार पूरो थाय छे ने? जेवुं स्वरूप छे तेवुं प्राप्त थतां अधिकार पूरो थाय छे. लखाणमां पूरो थाय छे अने भावमांय. तेथी कहे छे प्रोन्मग्नः सर्वांग प्रगट थयो. असंख्य प्रदेशे जे परिपूर्ण ज्ञान अने आनंदनुं केवळ स्वरूप छे तेमां द्रष्टिनी जमावट करवाथी ए पर्यायमां परिपूर्ण प्रगट थयुं. व्रत पाळवाथी, दया, दान करवाथी के उपवासादि करवाथी भगवान आत्मा प्रगट थयो एम नथी लीधुं. ए तो बधी रागनी क्रिया छे. अने रागथी आत्मा (वीतरागता) प्रगटे ए मान्यता तो विभ्रम छे. ए विभ्रमने मटाडी आ चैतन्यनो दरियो जे शुद्धचेतनासिंधु भगवान छे एमां द्रष्टि निमग्न करतां तेमां अतीन्द्रिय आनंदनी भरती सहित उछळ्‌यो छे.

चैतन्यसिंधु एटले चैतन्यनुं पात्र. भगवान आत्मा चैतन्यनुं पात्र छे, एटले ए रागनुं पात्र नथी. कह्युं छे ने के-‘शुद्ध चेतनासिंधु हमारो रूप है.’ ए तो शुद्ध चैतन्यनुं पात्र छे. आवा चैतन्यसिंधुमां द्रष्टि करी तेनो उग्र आश्रय करतां ते सर्वांग प्रगट थयो छे तेथी हवे अमी समस्ताः लोकाः आ समस्त लोक शान्तरसे समम् एव मज्जन्तु तेना शान्तरसमां एकी साथे ज अत्यंत मग्न थाओ. अहाहा! आचार्यदेवे सागमटे नोतरुं आप्युं छे. कहे छे के आ चैतन्यसिंधु प्रगट थयो छे तेथी समस्त लोक एटले लोकना बधा जीवो तेमां निमग्न थाओ. श्री अध्यात्म तरंगिणीमां ‘भव्य जीवो’ लीधा छे. अभव्य जीवो आत्मस्वरूप पामी शक्ता नथी एटले तेमां भव्य जीवो ज लीधा छे.

अहाहा! शुं संतोनी करुणानी धारा! कहे छे के-भगवान! तुं आनंदनुं अने शान्तरसनुं पात्र छे. तुं पूर्ण प्रभुतानुं धाम छे. जेमां पूर्ण प्रभुता वसेली छे एवुं तुं पात्र एटले स्थान छे. त्यां नजर करीने एमां ठरने प्रभु! लोको बिचारा बहारना क्रियाकांडमां पडीने अज्ञानमां जिंदगी काढे छे. व्रत, तप, उपवास, भक्ति वगेरे क्रियाकांडना विकल्प छे. ए आत्माना स्वरूपनी चीज नथी. छतां ए क्रियाकांड पाछळ जीवन वेडफी नाखे छे. ते लोकना प्रत्येक जीवने आह्वान आपी कहे छे-भगवान! तुं एकला ज्ञान,


PDF/HTML Page 509 of 4199
single page version

आनंद अने शान्तिनुं धाम छे. तुं ए तारा धाममां आवी जा ने. पुण्य-पापना स्थानमांथी खसी जईने आ आनंदधाममां आवी जा.

भगवान आत्मा शान्तरसनो समुद्र चैतन्यसिंधु हवे प्रगट थयो छे. तेथी समस्त लोक तेना शान्तरसमां एकी साथे ज अत्यंत मग्न थाओ. आचार्य कहे छे के आ समस्त भव्य जीवो अतीन्द्रिय आनंदगर्भित शान्तरसमां एटले वीतराग-रसमां एकी साथे अत्यंत मग्न थाओ. एकी साथे एटले एक पछी एक एम नहि पण बधाय साथे अत्यंत मग्न थाओ-अत्यंत मग्न थाओ एटले एवा मग्न थाओ के एमांथी बहार नीकळवानुं थाय ज नहि. अहाहा! जुओ तो खरा, केवी रामबाण वाणी छे! नहि पामी शके; थोडाक ज पामशे एवी वात ज अहीं लीधी नथी. पोते पाम्या तो बधाय जीवो पामो, बधाय जीवो शांतरस-वीतरागरसमां मग्न थाओ एम मीठो-मधुर संदेश आचार्यदेवे आप्यो छे. अभ्यास नथी एटले आकरुं लागे, पण वस्तुस्वरूप ज आवुं छे. भगवान त्रिलोकनाथ जिनेन्द्रदेवे आ रीते ज पूर्णदशा प्रगट करी, लोकालोकने जाणनारुं केवळज्ञान प्रगट कर्युं छे. एमणे उपदेश पण आ ज कर्यो छे.

प्रश्नः– समयसार कळश (४) मां आवे छे के जिनवाणीमां रमवुं. जिनवाणी तो बे नयोना आश्रये छे?

उत्तरः– श्री समयसार कळश (४)मां आवे छे के जिनवाणीमां रमवुं. तेनो अर्थ कोई एम करे छे के निश्चय अने व्यवहारमां रमवुं. अरे भाई! ए बेमां न रमाय. कळशटीकामां तेनो एवो अर्थ कर्यो छे के-दिव्यध्वनिमां कही छे उपादेयरूप शुद्ध जीववस्तु तेमां सावधानपणे रुचि-श्रद्धा-प्रतीति करवी. भगवाने शुद्ध आत्मा पूर्णानंदनो नाथ प्रभु जीवद्रव्यने उपादेय कह्युं छे. आदरवा लायक ते छे एम कह्युं छे. रागमां रमवुं एम त्यां कह्युं नथी. ए तो मात्र जाणवा योग्य कह्यो छे.

भगवान आत्मा एक समयमां पूर्ण-पूर्ण-पूर्ण अनंत गुणोनुं एक पात्र छे. अनंत गुणोथी भरपूर भरेलो ते भगवान उपादेय छे-एम भगवाननी वाणीमां आव्युं छे. ते एक आदरणीय छे, ते एक स्वीकार करवा लायक छे, ते एक सत्कार करवा योग्य छे. प्रभु! तुं एनी पूजा कर, एनी आरती उतार. तारा निर्मळ परिणामनी धाराथी एक एनी भक्ति कर, एने भज.

आचार्य कहे छे के-समस्त लोक आ शान्तरसमां अत्यंत अत्यंत मग्न थाओ, एवा मग्न थाओ के बहार आववुं पडे नहि. आ तो जीव अधिकारनी छेल्ली गाथा छे ने! कहे छे-शरीरने न जो, केमके ए तो माटी छे, हाडकानुं पिंजर छे. अंदर राग छे एने पण न जो, केमके आत्मा कांई रागनुं पात्र-स्थान नथी. आत्मा तो शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन स्वयंज्योति सुखधाम’ छे. निर्मळ पर्याय प्रगट करीने ए आत्माने जो, एमां मग्न था. आवो मार्ग छे! जिनेश्वरदेव दिव्यध्वनिमां आ कहेता हता अने संतो भगवानना


PDF/HTML Page 510 of 4199
single page version

आडतिया थईने ए ज कहे छे. भाई! आ काम तो पोते ज करवानुं छे. पोते सर्वांग प्रगट थयो छे एम कह्युं छे ने! देव-गुरु-शास्त्र आमां कांई मदद करता नथी, केमके जे स्वभाव प्रगट करवो छे तेनुं पोते ज पात्र छे, स्थान छे.

आत्मा अनंत वीतरागी शान्तिनो समुद्र छे. आचार्य कहे छे के तेने तुं पर्यायमां प्रगट कर. तुं पोते ज वीतरागी परिणतिरूप मोक्षमार्ग प्रगट कर. व्यवहारथी के निमित्तथी आ मोक्षमार्गनुं कार्य थतुं नथी. त्रण काळमां एनाथी न थाय. खरेखर तो जे मोक्षमार्ग प्रगट थयो ए एनी जन्मक्षण छे. स्वभावनो समुद्र भगवान पोते-एनी द्रष्टि-ज्ञान करीने जे चारित्र प्रगट कर्युं ए पर्यायनी उत्पत्तिनी जन्मक्षण छे, एने बीजा कशानी अपेक्षा नथी. वस्तुना क्रमबद्ध परिणमनमां पर्यायनो ज्यारे आवो क्रम छे त्यारे ते काळे पोते ज अर्क्तापणुं प्रगट करीने दर्शन-ज्ञान-चारित्रने प्राप्त थयो छे. वस्तुनी स्थिति ज आवी छे.

हवे कहे छे-केवो छे शांतरस? आलोकम् उच्छलति समस्त लोकपर्यंत उछळी रह्यो छे. एटले के उत्कृष्टपणे, पूर्णस्वरूपपणे उछळी रह्यो छे. अथवा पूर्ण लोकालोकने जाणे ए रीते उछळी रह्यो छे. भगवान आत्मा ज्ञान अने आनंद आदि अनंत गुणथी भरेलो शान्तरसनो समुद्र छे. एने उपादेय करी एमां एकाग्र थतां विभ्रमनो नाश थईने शक्तिनो जे संग्रह छे ते पर्यायमां बहार आव्यो छे. पूनमने दिवसे जेम दरियो भरतीमां पूरो उछळे छे तेम आ पूर्णवस्तु पूर्णपणे उछळी रही छे. अहाहा! आचार्य कहे छे शांतरस जेने उत्कृष्टपणे उछळी रह्यो छे एवा भगवान आत्मामां हे भव्य जीवो! तमे अत्यंत निमग्न थाओ जेथी शांतपणुं एटले चारित्रनी शांतिनी दशा अने अनंत आनंदरूप सुखनी दशा-एवी उत्कृष्टदशापणे भगवान आत्मा पर्यायमां परिणमी जशे. अहो! शुं वाणी! शुं समयसार!

मोक्षमार्ग के केवळज्ञानपणे आत्मा परिणमी जाय एनुं नाम जीवनो पूर्ण अधिकार प्राप्त थयो एम कहीए. शुद्धपणे परिणमे एने ज जीव कह्यो छे. वस्तु तो जीवपणे (त्रिकाळ) छे, पण (शुद्धपणे) परिणमे त्यारे तेने जीव कहेवामां आवे छे. कारणपरमात्मा तो त्रिकाळ शुद्ध ज छे, पण एनो स्वीकार करे त्यारे पर्यायमां शुद्धता प्रगटे छे. निगोदनी पर्याय हो के सिद्धनी पर्याय हो, आत्मा पूर्णानंदनो नाथ प्रभु तो त्रिकाळ शुद्ध एकरूप ज छे. परंतु हुं आवो छुं एम जेने बेसे तेने एवो छे. जेणे आवा निजस्वरूपथी विमुख थईने, रागने-विकल्पने पोतानो स्वीकार्यो छे तेने ए आत्मा छे ज नहि (केमके हुं आवो छुं एवुं एने कयां देखाय छे?). छती चीज पण एने अछती छे. अछती जे रागादि चीज ते अज्ञानीने छती देखाय छे. ए रागादिनुं लक्ष छोडीने शांतरसनुं स्थान सच्चिदानंद प्रभु भगवान आत्मानुं लक्ष करी एमां अत्यंत निमग्न थाओ जेथी अतीन्द्रिय आनंद थशे एम आचार्यदेवनो संदेश छे.


PDF/HTML Page 511 of 4199
single page version

* कळश ३२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

जेम समुद्रनी आडुं कोई आवी जाय त्यारे जळ नथी देखातुं अने ज्यारे आड दूर थाय त्यारे जळ प्रगट थाय. प्रगट थतां, लोकने प्रेरणायोग्य थाय के ‘आ जळमां सर्व लोक स्नान करो.’ तेवी रीते आ आत्मा विभ्रमथी आच्छादित हतो. एटले के दया, दान, भक्तिना जे रागरूप परिणाम छे तेनाथी मने लाभ (धर्म) थशे एवा मिथ्या भ्रममां हतो. ते रागनी रुचिमां ज रोकाई गयो हतो. तेथी भगवान आत्मा आच्छादित हतो, ढंकाई गयो हतो, त्यारे पोतानुं स्वरूप नहोतुं देखातुं. रागनी रुचिनी आडमां आनंदथी भरेलो भगवान देखातो न हतो. बहिर्लक्षी वृत्तिओना प्रेममां ज्ञान अने आनंदना जळथी भरेलो भगवान चैतन्यसमुद्र नहोतो देखातो.

हवे विभ्रम दूर थयो. एटले के दया, दाननो अने भक्तिनो विकल्प छे ते गमे तेवो मंद हो तोपण राग छे, धर्म नथी. आत्माना स्वरूपनी ए (राग) चीज नथी. ए राग बंधनुं कारण छे, हेय छे. आम विभ्रम दूर थयो त्यारे जेवुं छे तेवुं यथार्थ स्वरूप प्रगट थयुं. अतीन्द्रिय आनंदनो नाथ प्रगट थयो. सम्यग्दर्शन-ज्ञान थयां एटले आनंद प्रगटयो. तेथी ‘हवे तेना वीतरागविज्ञानरूप शांतरसमां एकी वखते सर्व लोक मग्न थाओ’ एम आचार्यदेवे प्रेरणा करी छे. पूर्ण आनंदस्वरूप पोताना भगवाननो ज्यां पूर्ण आश्रय कर्यो त्यारे पर्यायमां पूर्ण आनंद प्रगट थयो. त्यारे कहे छे के आमां बधाय जीवो एक साथे आवीने स्नान करो अने संसारनो मेल धोई नाखे.

वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरनो मार्ग जुदो छे, भाई! व्रत, तप, भक्ति आदिथी धर्म मनाववो ए तो रागथी धर्म मनाववो छे. पण ए जैनधर्म नथी, ए तो अजैननो मार्ग छे. परनी दया पाळवानो भाव छे ए राग छे. श्री पुरुषार्थसिद्धयुपायमां आचार्य अमृतचंद्रस्वामीए रागने आत्मानी हिंसानो भाव कह्यो छे. सांभळ, प्रभु! (साचुं तत्त्व) तें सांभळ्‌युं नथी. आ पूर्णानंदनो नाथ जीवती चैतन्यज्योत छे. एवो आत्माने यथार्थ मानवो ते (निज) आत्मानी दया छे. तेने (आत्माने) ओछो, अधिक के विपरीत मानवो ते आत्मानी हिंसा छे.

श्री कुंदकुंदाचार्यदेव अने श्री अमृतचंद्राचार्यदेव तो परमेष्ठी हता. तेओ वीतराग- शांतरसमां निमग्न हता, अने परम करुणा करीने जगतने पण तेमां मग्न थवानी तेमणे प्रेरणा आपी छे. एम के अमे शांतरसमां निमग्न छीए तो प्रभु! तमे एमां केम निमग्न न हो? प्रभु! तमे पण आत्मा छो ने? दुनियाना मान-अपमानने छोडीने भगवान निर्मान आत्मानुं अहंपणुं स्थापित थतां वीतराग शांतरस प्रगटे छे. ए शांतरसमां सौ निमग्न थाओ एवी आचार्ये प्रेरणा करी छे.

अथवा एवो पण अर्थ थाय के ज्यारे आत्मानुं अज्ञान दूर थाय त्यारे केवळज्ञान


PDF/HTML Page 512 of 4199
single page version

प्रगट थाय अने केवळज्ञान प्रगट थतां समस्त लोकमां रहेला पदार्थो एकी वखते ज ज्ञानमां आवी झळके छे तेने सर्व लोक देखो. मिथ्यात्व अने अज्ञान जेने नाश थाय तेने (अल्पकाळे) केवळज्ञान प्रगट थाय ज. अथवा एवो पण अर्थ थाय के अज्ञान एटले अल्पज्ञपणुं दूर थाय त्यारे केवळज्ञान प्रगट थाय ज. केवळज्ञान एक समयमां त्रणकाळ त्रणलोकने जाणे छे. सर्व जीवो अज्ञान दूर करी केवळज्ञानने प्राप्त थाओ एवी प्रेरणा करी छे.

आ प्रमाणे जीव अधिकारनी पूर्णता करतां जीवनुं वास्तविक स्वरूप शुं छे ते दर्शाव्युं. आ ग्रंथने अलंकारथी नाटकरूपे वर्णव्यो छे. नाटकमां पहेलां रंगभूमिस्थळ रचवामां आवे छे. त्यां जोनारा नायक तथा सभा होय छे अने नृत्य (नाटक) करनारा होय छे के जेओ अनेक स्वांग धारे छे तथा शृंगारादिक आठ रसनुं रूप बतावे छे. नाटकमां शृंगार, हास्य, रौद्र, करुणा, वीर, भयानक, बीभत्स अने अद्भुत-एम आठ रस होय छे. ते लौकिक रस छे (आ आठ रसने पण श्री बनारसीदासे लोकोत्तर स्वरूपमां उतार्या छे.) नवमो शांतरस छे ते अलौकिक छे. वीतरागभावरूप शांतरस ए आत्मानो अलौकिक रस छे. अतीन्द्रिय आनंद अने शान्तिनुं बिंब प्रभु आत्मा छे. ए त्रिकाळी शांतिनुं बिंब, जिनबिंब भगवान आत्मानो आश्रय लेतां परिणमनमां जे शांत-शांत-शांत अकषाय भाव उत्पन्न थाय छे तेने अहीं शांतरस कहे छे. एने शांतरस, आनंदरस, स्वरूपरस, अद्भुत रस एम अनेक प्रकारे कही शकाय छे.

जीवनुं वास्तविक स्वरूप ज्ञाता-द्रष्टास्वभावी छे. क्रमबद्धपर्यायना सिद्धांतमांथी पण न्यायपूर्वक जीव ज्ञाता-द्रष्टामात्र छे एम सिद्ध थाय छे. अहाहा! जीवनी पर्याय क्रमबद्ध छे. जे समये जे पर्याय थवानी छे ते ज थाय छे-एम कहीने जीवनो अर्क्तास्वभाव वर्णव्यो छे. जे कांई थाय एनो र्क्ता जीव नथी. एटले एनो अर्थ ए थयो के जीव ज्ञाताद्रष्टा छे.

वीतरागनुं कोई पण वचन हो, एनुं तात्पर्य तो वीतरागता ज छे. क्रमबद्धपर्यायना सिद्धांतनुं पण तात्पर्य वीतरागता छे. जीवने क्रमबद्धपर्यायनो ज्यां निर्णय थाय छे त्यां ते ज्ञाताद्रष्टा थई जाय छे. पोते ज्ञाताद्रष्टा थतां शास्त्रनुं तात्पर्य जे वीतरागता ते एने प्रगट थाय छे. ए वीतरागता पोताना त्रिकाळी द्रव्यना आश्रये प्रगट थाय छे. एटले क्रमबद्धपर्यायना निर्णयमां पण ज्ञातानो निर्णय थवो ए मूळ रहस्यनी वात छे.

आ ग्रंथने अलंकारथी नाटकरूपे वर्णव्यो छे. त्यां जोनारां सम्यग्द्रष्टि पुरुष छे तेम ज बीजा मिथ्याद्रष्टि पुरुषोनी सभा छे. सम्यग्द्रष्टि छे ए तो ज्ञाता-द्रष्टा छे. स्वांग अनेक प्रकारना आवे पण जोनारा सम्यग्द्रष्टि तेने ज्ञाता-द्रष्टा थईने देखे छे. अजीवनुं रंगस्थळ आवे के र्क्ताकर्मनुं, -ए बधाने ते पोते जाणनार-देखनार छे एवा भावे जाणे छे. सम्यग्द्रष्टि गमे ते प्रकारना स्वांगमां हो-आस्रव, बंध, र्क्ताकर्म इत्यादि गमे ते स्वांगमां


PDF/HTML Page 513 of 4199
single page version

हो, पण ते प्रत्येक स्वांगने मात्र ज्ञाता-द्रष्टापणे जाणे ज छे. बंधना स्वांगने पण मात्र जाणे अने मोक्षना स्वांगने पण मात्र जाणे छे. रागादिनो भाव होय तेनो पण सम्यग्द्रष्टि ज्ञाता ज छे. ए ज्ञाता छे ते ज खरेखर ज्ञायक छे.

सम्यग्द्रष्टि वास्तविक स्वांगना जोनारा छे अने जे मिथ्याद्रष्टिओनी सभा छे तेने पण यथार्थ स्वरूप बतावे छे. नृत्य करनारा अर्थात् बदलनारा-परिणमनारा जीव- अजीव द्रव्यो छे. ते बन्ने एकरूप लईने प्रवेश करे छे. जीव द्रव्य राग अने शरीरनी साथे एक छे एवा स्वांग आवे छे, वळी जीव र्क्ता अने पर एनुं कार्य, जीव र्क्ता अने राग एनुं कार्य एवा (र्क्ताकर्मना) स्वांग पण आवे छे. त्यां सम्यग्द्रष्टि जीव-अजीवना अने स्वभाव-विभावना भिन्न भिन्न स्वरूपने यथार्थ जाणे छे. सम्यग्द्रष्टिने पण राग आवे, पण ते रागने पोताथी भिन्न जाणे छे. ते तो आ सर्व स्वांगोने कर्मकृत जाणी शांतरसमां ज मग्न रहे छे, रागादि-दया, दान अने काम, क्रोध इत्यादि जे विकल्पो आवे ते बधा कर्मकृत स्वांग छे, मारा पोताना स्वांग नथी. हुं तो एक मात्र ज्ञायकस्वरूप छुं एम अंतरएकाग्रता करी ते शांतरसमां लीन रहे छे. अहाहा! भगवान आत्मा आनंद अने शांतरसनो पिंड प्रभु एकलो ज्ञायक छे. तेनुं जेने अनुभवमां सम्यक् भान थयुं ते जीव रागादि के शरीरादिना संयोगने पोताथी भिन्न जाणे छे अने आत्माना आनंदना रसमां निमग्न थाय छे.

अने मिथ्याद्रष्टि जीवो जीव-अजीवनो भेद जाणता नथी. ए तो आ राग मारो, शरीरादि मारां एम राग अने शरीरादि साथे एकपणुं करी जाणे छे. रागने तो भावकभाव कह्यो छे. भावक एटले कर्म. राग कर्मना निमित्ते थनारो भाव छे माटे तेने भावकभाव कह्यो छे. ए कांई स्वभावभाव नथी. (जीवनी) पर्यायमां थाय छे तोपण ए स्वभावभाव नथी. रागादि जे निश्चयथी अजीव छे तेने पोताना मानीने अज्ञानी एमां ज लीन थई जाय छे अने अशांतभावने सेवे छे. शरीर, राग, पुण्य, पाप इत्यादि स्वांग छे ते अजीव छे. खरेखर ए भगवान आत्माना साचा पहेरवेश-भेख नथी. छतां अज्ञानी ए सर्व स्वांगने पोताना स्वरूपमय साचा जाणी तेमां तल्लीन थाय छे अने आकुळता वेदे छे.

धर्म ए बहु झीणी चीज छे, भाई! आत्मा ज्ञायकस्वरूप छे एवुं ज्यां भान थयुं त्यां जीवने पर्यायमां रागादिनो संयोग आवे, अजीवनो संयोग थाय, चक्रवर्ती आदि पदनो संयोग आवे तोपण ए सर्वने पोताना ज्ञानस्वभावमां अर्थात् शांतरसस्वरूप भगवान आत्मामां स्थित रहीने (भिन्न) जाणे छे. अहो! वस्तु आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञान अने अतीन्द्रिय आनंद इत्यादि गुणोनो पिंड छे. तेने जेणे निज स्वरूपपणे अनुभव्यो छे ते धर्मात्मा शांतरसमां निमग्न रहीने परने (परपणे) मात्र जाणे छे. अज्ञानी तेने (परने) पोताना मानीने आकुळतामय अशांतभावमां रहे छे.

तेमने (अज्ञानीओने) सम्यग्द्रष्टि यथार्थ स्वरूप बतावी, तेमनो भ्रम मटाडी


PDF/HTML Page 514 of 4199
single page version

सम्यग्द्रष्टि बनावे छे. सम्यग्द्रष्टि अज्ञानीने अंतरनी वात समजावे छे के-भाई! आ रागादि अने शरीरादि छे ए तो बाह्य स्वांग छे, तारी चीज नथी. ए तारामां नथी अने तुं एमां नथी. राग, पुण्य अने शरीर ए जीवना अधिकारमां नथी. जीवना अधिकारमां तो ज्ञान, दर्शन, वीर्य, आनंद, शान्ति इत्यादि छे. भगवान! तुं तो ज्ञायकस्वभावी त्रिकाळ अखंड एकरूप वस्तु छे. तारी पर्यायमां पण ज्ञान अने आनंदनो रस आवे एवुं तारुं स्वरूप छे. तेथी रागादिनुं लक्ष छोडी अंतरमां एकाग्र था. तेथी शांतरस प्रगट थशे, अतीन्द्रिय आनंद प्राप्त थशे.

रागथी भिन्न आत्मा चिदानंदघन प्रभु अतीन्द्रिय आनंदनो नाथ छे एम समकिती मिथ्याद्रष्टि जीवने बतावे छे. त्यां एम जाणनार पोते आनंदना नाथमां समाई जाय छे. रागथी खसीने निराकुळ आनंद अने शान्तिने प्राप्त थई जाय छे. आ प्रमाणे वस्तुना यथार्थ स्वरूपने जाणी, भ्रम मटाडी, शांतरसमां लीन थई अज्ञानी सम्यग्दर्शनने प्राप्त थाय छे. तेनी सूचनारूपे रंगभूमिना अंतमां आचार्ये मज्जन्तु इत्यादि आ श्लोक रच्यो छे. ते, हवे जीव-अजीवनो स्वांग वर्णवशे तेनी सूचनारूपे छे एवो आशय सूचित थाय छे. आ प्रमाणे अहीं सुधी रंगभूमिनुं वर्णन थयुं.

‘नृत्य कुतूहल तत्त्वको, मरियवि देखो धाय;
निजानंद रसमें छको, आन सबै छिटकाय.’

मरीने पण-महाकष्टे पण (उग्र पुरुषार्थ करीने) तमे तत्त्वने देखो. सर्वज्ञ परमेश्वर भगवान जिनेश्वरदेवे जेवो कह्यो छे तेवा निज ज्ञानानंदस्वरूपी आत्मामां ठरो. कहे छे के-भाई! तुं रागना रसने छोडी दे. रागने अने रागना रसने मारी नाख. तुं आ जीवता जीवने जीवतो जो. (रागथी जीवनी हिंसा थाय छे). चैतन्यजीवन वडे जीवता भगवान आत्माने जाणीने रागथी निवृत्त था. दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि भाव आकुळता अने दुःख छे. तेमां तने जे रस आवे छे ते छोडी दे. शान्तरसनो समुद्र भगवान आत्मा छे. तेमां निमग्न थई शांतरसने प्राप्त था. आत्माना आनंदना रसमां छकी जा, अत्यंत लीन थई जा. समकिती, संतो अने सर्वे भगवंतो आनंदरससमुद्र एक भगवान आत्माने बतावे छे. तेथी बीजुं बधुंय छोडी एक निजानंदरसमां अत्यंत लीन थाओ.

आ प्रमाणे जीव-अजीव अधिकारमां पूर्वरंग समाप्त थयो.

[प्रवचन नं. ८४, ८प, ८६, ८७ * दिनांक २२-२-७६ थी ६-६-७६]

PDF/HTML Page 515 of 4199
single page version

PAPER VERSION WITH EXPLANATION

# Shastra Page-

Line Content

समयसार ६३-प
६३-६ ववहारणओ भासदि जीवो देहो य हवदि खलु एक्कोण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदा वि एक्कट्ठो।। २७ ।।
प्रवचन
रत्नाकर
१०प-प
१०प-६
ववहारणयो भासदि जीवो देहो य हवदि खलु इक्को
ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो स कदावि एकट्ठो।। २७।।


समयसार ७९-२३ [कश्चन नास्ति नास्ति] कांई पण लागतोवळगतो नथी
अर्थात् एने अने मारे कांई पण नातो नथी.
प्रवचन
रत्नाकर
१८९-३१[कश्चन नास्ति नास्ति] कांई पण लागतोवळगतो नथी
अर्थात् एने अने मारे कांई पण नातो नथी.
समयसार ८१-६ इति सति सह सर्वैरन्यभावैर्विवेके
प्रवचन
रत्नाकर
२००-४इति सति सह सवर्रैन्यभावैर्विवेके


PDF/HTML Page 516 of 4199
single page version

प्रवचन रत्नाकर
[भाग-३]
परम पुज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामीनां
श्री समयसार परमागम उपर अढारमी वखत थयेलां
प्रवचनो
ः प्रकाशकः
श्र कुंदकुंद कहान परमागम ट्रस्ट
मुंबइ


PDF/HTML Page 517 of 4199
single page version

परमोपकारी परमपुज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामीना
हस्ताक्षर
(awaiting confirmation)


PDF/HTML Page 518 of 4199
single page version

क्रम गाथा/कळश प्रवचन नंबर पृष्ठांक १ कळश-३३ ८७-८८ १ २ गाथा-३९ थी ४३ ८७-८८ २ ३ गाथा-४४ ८९ थी ९१ १७ ४ कळश-३४ ८९ थी ९१ १८ प गाथा-४प ९२ ३८ ६ गाथा-४६ ९३-९४ ४प ७ गाथा-४७-४८ ९४ प४ ८ गाथा-४९ ९४ थी ९९ प८ ९ कळश-३प ९४ थी ९९ ६१ १० कळश-३६ ९४ थी ९९ ६२ ११ गाथा-प० थी पप ९९ थी १०४ ८६ १२ कळश-३७ ९९ थी १०४ ९० १३ गाथा-प६ १०प १३० १४ गाथा-प७ १०प १३२ १प गाथा-प८ थी ६० १०६ १३७ १६ गाथा-६१ १०७ १प० १७ गाथा-६२ १३प-१३६ (१९मी वारनां) १प४ १८ गाथा-६३-६४ १३७ १६२ १९ गाथा-६प-६६ १०८-१०९ १७२ २० कळश-३८-३९ १०८-१०९ १७३ २१ गाथा-६७ ११० १९० २२ कळश-४० ११० १९१ २३ गाथा-६८ ११० २०० २४ कळश-४१ थी ४प १११ थी ११प २०१ १३९ थी १४१ (१९मी वारनां)


PDF/HTML Page 519 of 4199
single page version

परमात्मने नमः।
श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत
श्री
समयसार
उपर
परम पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीनां प्रवचनो
श्रीमदमृतचन्द्रसूरिकृता आत्मख्यातिः।
जीव–अजीव अधिकार
अथ जीवाजीवावेकीभूतौ प्रविशतः।
(शार्दूलविक्रीडित)
जीवाजीवविवेकपुष्कलद्रशा प्रत्याययत्पार्षदान्
आसंसारनिबद्धबन्धनविधिध्वंसाद्विशुद्धं स्फुटत्।

_________________________________________________________________

हवे जीवद्रव्य अने अजीवद्रव्य-ए बन्ने एक थईने रंगभूमिमां प्रवेश करे छे.

त्यां शरूआतमां मंगळना आशयथी (काव्य द्वारा) आचार्य ज्ञाननो महिमा करे छे के सर्व वस्तुओने जाणनारुं आ ज्ञान छे ते जीव-अजीवना सर्व स्वांगोने सारी रीते पिछाणे छे. एवुं (सर्व स्वांगोने पिछाणनारुं) सम्यग्ज्ञान प्रगट थाय छे-ए अर्थरूप काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [ज्ञानं] ज्ञान छे ते [मनो ह्लादयत्] मनने आनंदरूप करतुं


PDF/HTML Page 520 of 4199
single page version

आत्माराममनन्तधाम महसाध्यक्षेण नित्योदितं
धीरोदात्तमनाकुलं विलसति ज्ञानं मनो ह्लादयत्।। ३३ ।।
अप्पाणमयाणंता मूढा दु परप्पवादिणो केई।
जीवं अज्झवसाणं कम्मं च तहा परूवेंति।। ३९ ।।
अवरे अज्झवसाणेसु तिव्वमंदाणुभागगं जीवं।
मण्णंति तहा अवरे णोकम्मं चावि जीवो त्ति।। ४० ।।

_________________________________________________________________ [विलसति] प्रगट थाय छे. केवुं छे ते? [पार्षदान्] जीव-अजीवना स्वांगने जोनारा महापुरुषोने [जीव अजीव–विवेक–पुष्कल–द्रशा] जीव-अजीवनो भेद देखनारी अति उज्ज्वळ निर्दोष द्रष्टि वडे [प्रत्याययत्] भिन्न द्रव्यनी प्रतीति उपजावी रह्युं छे; [आसंसार– निबद्ध–बन्धन–विधि–ध्वंसात्] अनादि संसारथी जेमनुं बंधन द्रढ बंधायुं छे एवां ज्ञानावरणादि कर्मोना नाशथी [विशुद्धं] विशुद्ध थयुं छे, [स्फुटत्] स्फूट थयुं छे-जेम फूलनी कळी खीले तेम विकासरूप छे. वळी ते केवुं छे? [आत्म–आरामम्] जेनुं रमवानुं क्रीडावन आत्मा ज छे अर्थात् जेमां अनंत ज्ञेयोना आकार आवीने झळके छे तोपण पोते पोताना स्वरूपमां ज रमे छे; [अनन्तधाम] जेनो प्रकाश अनंत छे; [अध्यक्षेण महसा नित्य–उदितं] प्रत्यक्ष तेजथी जे नित्य उद्रयरूप छे. वळी केवुं छे? [धीरोदात्तम्] धीर छे, उद्रात्त (उच्च) छे अने तेथी [अनाकुलं] अनाकुळ छे-सर्व इच्छाओथी रहित निराकुळ छे. (अहीं धीर, उदात्त, अनाकुळ-ए त्रण विशेषणो शांतरूप नृत्यनां आभूषण जाणवां.) एवुं ज्ञान विलास करे छे.

भावार्थः– आ ज्ञाननो महिमा कह्यो. जीव-अजीव एक थई रंगभूमिमां प्रवेश करे छे तेमने आ ज्ञान ज भिन्न जाणे छे. जेम नृत्यमां कोई स्वांग आवे तेने जे यथार्थ जाणे तेने स्वांग करनारो नमस्कार करी पोतानुं रूप जेवुं होय तेवुं ज करी ले छे तेवी रीते अहीं पण जाणवुं. आवुं ज्ञान सम्यग्द्रष्टि पुरुषोने होय छे; मिथ्याद्रष्टि आ भेद जाणता नथी. ३३.

हवे जीव-अजीवनुं एकरूप वर्णन करे छेः-

को मूढ, आत्मतणा अजाण, परात्मवादी जीव जे,
‘छे कर्म, अध्यवसान ते जीव’ एम ए निरूपण करे! ३९.
वळी कोई अध्यवसानमां अनुभाग तीक्षण–मंद जे,
एने ज माने आतमा, वळी अन्य को नोकर्मने! ४०.