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स्वयमयमुपयोगो बिभ्रदात्मानमेकम्।
प्रकटितपरमार्थैर्दर्शनज्ञानवृत्तैः
कृतपरिणतिरात्माराम एव प्रवृत्तः।। ३१ ।।
____________________________________________________________ अनुभवतो एवो भगवान आत्मा ज जाणे छे के-हुं प्रगट निश्चयथी एक ज छुं माटे, ज्ञेयज्ञायकभावमात्रथी ऊपजेलुं परद्रव्यो साथे परस्पर मळवुं (मिलन) होवा छतां पण, प्रगट स्वादमां आवता स्वभावना भेदने लीधे धर्म, अधर्म, आकाश, काळ, पुद्गल अने अन्य जीवो प्रत्ये हुं निर्मम छुं; कारण के सदाय पोताना एकपणामां प्राप्त होवाथी समय (आत्मपदार्थ अथवा दरेक पदार्थ) एवो ने एवो ज स्थित रहे छे; (पोताना स्वभावने कोई छोडतुं नथी). आ प्रकारे ज्ञेयभावोथी भेदज्ञान थयुं.
अहीं आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [इति] आम पूर्वोक्त प्रकारे भावकभाव अने ज्ञेयभावोथी भेदज्ञान थतां [सर्वैः अन्यभावैः सह विवेके सति] सर्व अन्यभावोथी ज्यारे भिन्नता थई त्यारे [अयं उपयोगः] आ उपयोग छे ते [स्वयं] पोते ज [एकं आत्मानम्] पोताना एक आत्माने ज [बिभ्रत्] धारतो, [प्रकटितपरमार्थेः दर्शनज्ञानवृत्तैः कृतपरिणतिः] जेमनो परमार्थ प्रगट थयो छे एवां दर्शनज्ञानचारित्रथी जेणे परिणति करी छे एवो, [आत्म–आरामे एव प्रवृत्तः] पोताना आत्मारूपी बाग (क्रीडावन) मां ज प्रवृत्ति करे छे, अन्य जग्याए जतो नथी.
भावार्थः– सर्व परद्रव्योथी तथा तेमनाथी उत्पन्न थयेला भावोथी ज्यारे भेद जाण्यो त्यारे उपयोगने रमवाने माटे पोतानो आत्मा ज रह्यो, अन्य ठेकाणुं न रह्युं. आ रीते दर्शनज्ञानचारित्र साथे एकरूप थयेलो ते आत्मामां ज रमण करे छे एम जाणवुं. ३१.
हवे ज्ञेयभावना भेदज्ञाननो प्रकार कहे छे. आ आत्मा सिवाय सर्वज्ञ परमेश्वर, सिद्ध अने निगोदथी मांडी बीजा बधाय अनंत आत्माओ अने छये द्रव्यो जे ज्ञेय छे ते ज्ञेयोथी भेदज्ञाननी हवे व्याख्या करे छे.
ज्ञायक एवो जीवनो पोतानो स्वभाव छे. तेथी ते ज्ञेयोने जाणे छे. जे जाणवानुं थाय छे ए कांई ज्ञेयनी परिणति नथी, परंतु ज्ञाननी परिणति छे. छतां ए ज्ञाननी परिणति पोतानी छे एम न मानतां ज्ञेयने पोताना माने छे ए मिथ्यादर्शन छे. देव,
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गुरु, शास्त्र अने धर्मादि छ द्रव्यो ए बधा परज्ञेयो छे अने ए ज्ञेयोथी मने लाभ छे एवी मान्यता मिथ्यादर्शन छे. ए मिथ्यादर्शनने मटाडनार ज्ञेयभावथी भेदज्ञाननी वात हवे गाथामां कहे छेः-
पोताना निजरसथी जे प्रगट थयो छे-कोण? के ज्ञाननी परिणति. ज्ञानना प्रकाशनी परिणति-दशा पोताना निजरसथी प्रगट थयेल छे. ज्ञाननी परिणति ज्ञेयोने जाणे छे तेथी ज्ञेयोने कारणे थई छे एम नथी. ए तो ज्ञानना स्वरसथी ज प्रगट थयेली छे, पोताना प्रकाशथी ज परिणमेली छे. वळी तेनो निवारण न करी शकाय तेवो फेलाव छे. चैतन्यनी परिणति एवी प्रकाशमय छे के एनो फेलाव निवारी शकाय एम नथी. तथा तेनो समस्त पदार्थोने ग्रसवानो स्वभाव छे. एटले के बधाय ज्ञेयोने-चाहे ते शरीर हो, भगवान हो, मूर्ति हो, देव हो, गुरु हो के शास्त्र हो-ए बधाय ज्ञेयोने पोताना स्वभावथी, ज्ञेयोना कारणे नहि, जाणवानो तेनो स्वभाव छे. ग्रसवानो एटले गळी जवानो, ज्ञानमां जाणी लेवानो. ज्ञाननो स्वभाव समस्त पदार्थोने ग्रसवानो छे छतां ते ज्ञाननुं परिणमन ज्ञेयने लईने थतुं नथी. जेम अरीसामां जे परचीजनुं प्रतिबिंब जणाय छे ते परचीज नथी, तेम ज अरीसामां ए परचीज आवी नथी. वळी अरीसामां परिणति थई छे (प्रतिबिंब पडयुं छे) ते परचीजने कारणे नथी. परंतु अरीसानी स्वच्छताने लईने परचीजनो एमां भास थयो छे. परचीज जाणे अरीसामां आवी होय तेम जणाय छे छतां ते अरीसानी स्वच्छतानी दशा छे, ते कांई परचीज नथी. तथा सामे परचीज छे तेने लईने अरीसानी स्वच्छतानी परिणति थई छे एम पण नथी. तेम आ ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मानो पोतानी दशामां परचीजने जाणवानो-ग्रहवानो-ग्रसवानो-कोळियो करी जवानो स्वभाव छे. समस्त पदार्थोने ग्रसवानो-जाणवानो तेनो स्वभाव छे. चाहे तो सर्वज्ञ परमेश्वर हो, समोसरण हो के मंदिर हो-ए बधायने पोताना चैतन्यना प्रकाशना सामर्थ्यथी तेनो जाणवानो स्वभाव छे.
आवी प्रचंड चिन्मात्रशक्ति वडे ग्रासीभूत करवामां आव्या होवाथी, जाणे अत्यंत अंतर्मग्न थई रह्या होय एवी रीते पदार्थो आत्मामां प्रकाशमान छे. एटले के प्रचंड ज्ञानना सामर्थ्य वडे ज्ञानमां बधा पदार्थो जाणवामां आव्या होवाथी, जाणे ज्ञानमां बधा ज्ञेयो पेसी गया होय अर्थात् ज्ञानमां तद्राकार थई डूबी रह्या होय एवी रीते तेओ आत्मामां प्रकाशमान छे.
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय पदार्थ छे, जगतनी चीज छे. ते केवळी भगवाने जोयेला छे. सर्वज्ञ परमेश्वर सिवाय ते पदार्थो कोईए जोया नथी. धर्मास्तिकाय तेम ज
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अधर्मास्तिकाय लोकप्रमाण छे. गति करनार (जीव-पुद्गलो) पोताथी गति करे छे त्यारे धर्मास्तिकाय तेमां निमित्त थाय छे. अने ते ते पदार्थ गति करीने पोताथी स्थिर थाय छे त्यारे अधर्मास्तिकाय स्थिर थवामां निमित्त छे. पदार्थो पोताना कारणे गति करे छे अने पोताना कारणे स्थिति करे छे त्यारे बीजी चीजने निमित्त कहे छे. धर्मास्तिकाय गति करावे छे के अधर्मास्तिकाय स्थिति करावे छे एम नथी. तेवी रीते आकाश लोक- अलोकमां व्यापक पदार्थ छे. अने काळद्रव्य जे असंख्य छे ते लोकमां रहेला छे. काळद्रव्य पण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त सत् पदार्थ छे. पुद्गलद्रव्य अनंत छे. कर्म, शरीर, वाणी इत्यादि बधा पुद्गलो परज्ञेय तरीके जगतमां अस्ति धरावे छे. तेम ज अन्य जीवो- निगोदना, सिद्धना जीवो, देव, गुरु, स्त्री, कुटुंब इत्यादि जीवो ते बधा अन्य जीव छे. ज्ञानी कहे छे के आ सर्व परद्रव्यो मारा संबंधी नथी. आ बधांय छये द्रव्यो ज्ञाननुं ज्ञेय छे. एटले के ज्ञान तेमने जाणी ले छे. ज्ञान तेमने जाणी ले छे एम कहेवुं ए पण व्यवहार छे. खरेखर तो ते संबंधी जे पोतानी ज्ञानदशा छे ते-रूपे परिणमतो ते पोताने ज जाणे छे. ज्ञानमां ज्ञेयने जाणवानो स्वभाव छे. परंतु ए ज्ञेय छे माटे तेने जाणवानो स्वभाव छे एम नथी. चैतन्य पोते ज ते काळे, चैतन्यनी शक्तिना विकासना सामर्थ्यथी जे अनंत ज्ञेयो छे तेमने जाणी-जाणवाना भावे परिणमी तेमने गळी जाय छे. परज्ञेय तरीके जगतमां जे अनंत पदार्थो छे तेमने ज्ञान पोताना जाणवाना सामर्थ्यथी जाणे छे. आत्मा पोताना ज्ञानमां रहीने, ज्ञेयना आश्रय-अवलंबन लीधा विना, पोतानो जे स्वपरने प्रकाशवानो स्वभाव छे तेना सामर्थ्यथी ते ज्ञेयोने प्रकाशे छे.
जे परज्ञेयो छे ते जीवना नथी. दीकरो जीवनो नथी के पैसा जीवना नथी. जीवने गुरुय नथी के शिष्य पण नथी. ए तो बधा परज्ञेयो छे. जीवने तो जे ज्ञेयो छे तेमने स्वभावना सामर्थ्यथी जाणे तेवो स्वभाव छे ते पोतानो छे. तेथी धर्मी जीव एम जाणे छे के ते सघळां परद्रव्यो मारां संबंधी नथी. वीतराग अरिहंतदेव अने निर्ग्रंथ गुरु ए मारा संबंधी नथी. ए तो पर पदार्थो छे.
प्रश्नः– देव-गुरुने तो आत्माना राखो. देव-गुरु तो शुद्ध छे ने? ते शुद्ध छे तेथी पोताना मानीए तो?
उत्तरः– अरिहंतदेव अने अनंत सिद्धो पोतपोतामां परम शुद्ध पवित्र परमात्मपदे बिराजमान होवा छतां आ जीवने पोताना माटे तेओ पर छे. तथा आ अरिहंत छे, आ सिद्ध छे, एम मानवा ए विकल्प छे. (अने एमने पोताना मानवा ए मिथ्यात्व छे.) आत्मानो तो पोतानामां रहीने पोताना सामर्थ्यथी ते ज्ञेयोने गळी जवानो स्वभाव छे. तेनो तो ज्ञानना परिणमनमां रमणता करवानो स्वभाव छे. तेथी ए सघळां परद्रव्यो देव, गुरु, शरीर अने कर्म ए मारां संबंधी नथी. जे आठ कर्म छे ते मारां संबंधी नथी. ए तो जड पुद्गल छे अने हुं तो चैतन्य-ज्ञानप्रकाशनी मूर्ति छुं.
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प्रश्नः– कर्म तो जीवने होय छे ने?
उत्तरः– भाई! कर्म तो जीवनां न होय केमके ए तो जड पुद्गलमय छे. जीवने तो ज्ञान पोतानुं होय छे. (जीवने कर्म छे ए तो संयोग बतावनारुं व्यवहारनुं कथन छे.) भगवान! एकवार तारा चैतन्यनुं सामर्थ्य केटलुं छे ए जो तो खरो. तारा ज्ञाननो स्वभाव तो परने, परना आश्रय विना जाणे तेवो छे. परनी हयाती छे माटे परने जाणे छे एम नथी. (परथी निरपेक्ष सहज तारो जाणवानो स्वभाव छे.)
आ धर्मनी वात चाले छे. पर पदार्थोनुं ज्ञान करवानो मारो सहज स्वभाव छे एम जाणवुं एनुं नाम धर्म छे. धर्म एटले शुं? के परपदार्थ अने मारे कांईपण संबंध नथी. परंतु परपदार्थ संबंधी ज्ञान करवानुं मारामां स्वपरप्रकाशक सामर्थ्य छे. ए स्वपरप्रकाशक सामर्थ्यमां स्वनुं परिणमन करवुं ए धर्म छे. सर्व परद्रव्यो मारा संबंधी नथी तेथी ज्ञेयज्ञायक संबंध कहेवो ए पण व्यवहार छे. भगवान! आ लोकालोकनी हयाती छे माटे केवळज्ञानीनी परिणति केवळज्ञानरूप थाय छे एम नथी. परंतु ज्ञाननुं परिणमन पोताना स्वभावना सामर्थ्यथी ज केवळज्ञानरूप थाय छे. ज्ञानना स्वभावनुं सामर्थ्य ज एटलुं छे के ते स्वने जाणे अने परने जाणे. परनी हयाती होवा छतां ज्ञान, परनी हयातीने कारणे नहि, पण पोतानी ज्ञाननी सत्ताना सामर्थ्यने लईने ते स्वपरने जाणे छे.
प्रश्नः– तो शुं भगवानथी पण कांई लाभ न थाय? भगवाननी वाणीथी पण लाभ न थाय?
उत्तरः– ना, केमके भगवान अने भगवाननी वाणी परज्ञेय छे, पर पदार्थ छे- आत्मानो स्वभाव तो पर पदार्थने परपदार्थनी हयातीमां जाणवानो छे. छतां ज्ञान, परनी हयातीना कारणे नहि, पण पोताना स्वपरप्रकाशक ज्ञानना सामर्थ्यनी परिणतिने कारणे जाणे छे. आ समयसारजीनी गाथा ३२० मां त्यांसुधी आवे छे के-भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप छे ते बंधने जाणे, मोक्षने जाणे, उद्रयने जाणे अने निर्जराने जाणे; मात्र जाणे. ल्यो, हवे शुं बाकी रह्युं? पोते ज्ञानस्वभावी प्रभु छे ने? उद्रय पर तरीके ज्ञेय, बंध पर तरीके ज्ञेय, निर्जरा पर तरीके ज्ञेय अने कर्मनुं छूटवुं ते पण पर तरीके ज्ञेय छे. माटे आत्मा उद्रय, बंध, निर्जरा अने मोक्षने जाणे ज छे, करतो नथी. जेम द्रष्टि मात्र परने जाणवानुं काम करे पण परने टकाववानुं, बदलाववानुं परिणमन कराववानुं के परिणमन फेरववानुं काम न करे. तेम भगवान आत्मा लोकनी आंख छे. ए चैतन्यनी द्रष्टिनुं परिणमन तो ज्ञानरूपे छे. पोताना सामर्थ्यथी पोतामां रहीने, परने स्पर्श कर्या विना बधां द्रव्योने ज्ञेय तरीके जाणवानो तेनो स्वभाव छे. तो हवे आमां परनी दया हुं पाळी शकुं ए कयां रह्युं? अहाहा! तत्त्व केटलुं स्पष्ट छे! आवुं बीजे कयांय नथी. आ तो सनातन मार्ग छे.
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अनादिथी आत्मानो स्वभाव स्वपरप्रकाशकना सामर्थ्यवाळो छे. तेथी स्वतत्त्व परने प्रकाशे छे ते परनी हयातीना कारणे प्रकाशे छे एम नथी. खरेखर तो पर संबंधी पोतानुं जे ज्ञान छे तेने ते प्रकाशे छे. आवी वात छे त्यां मारा पैसा, मारो देह, मारी पत्नी, मारां संतान इत्यादि कयां रह्युं? कोनां छोरुं अने कोनां वाछरुं? कोनां मा अने बाप? भगवान! कोना देश अने परदेश? बापु! तारो देश तो प्रभु असंख्य प्रदेशी अंदर छे, तेमां अनंत गुणनी प्रजा वसे छे. अने स्वरूपमां रहीने एकलुं जाणवुं ए ज तारो स्वभाव छे. अहीं मुख्यपणे ज्ञेयज्ञायकनी वात करवी छे, केमके बीजा गुणो करतां ते ज्ञानस्वभाव असाधारण शक्ति धरावे छे. ज्ञान सिवाय बीजी शक्तिओ तो निर्विकल्प पणे सत्ता धरावे छे. ज्ञानशिक्त सविकल्प छे. अर्थात् स्व अने परने जाणवाना सामर्थ्यवाळी ते एक ज शक्ति छे. आवी ज्ञानस्वभावी वस्तुमां परने मारी शकुं के परनी दया पाळी शकुं के पर पासेथी कांई लई शकुं-एवुं कयां छे? अरे! शास्त्रने जाणतां, शास्त्रमांथी जाणवानी पर्याय आवे छे एम नथी, केमके शास्त्र तो पर छे, पुद्गलमय छे जयारे ज्ञानपर्याय तो ज्ञायक भगवान जे स्वपरने प्रकाशवाना सामर्थ्यरूप तत्त्व छे तेनाथी थाय छे. अहाहा? तेथी धर्मी एम माने छे के-मारे परद्रव्यो साथे कांई संबंध नथी. तेओ मारा कांई संबंधी नथी. देव मारा संबंधी नथी, गुरु मारा संबंधी नथी अने मंदिर पण मारुं नथी. हुं तो एक चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा छुं, परमां गया विना अने पर वस्तु मारामां आव्या विना तेने जाणवाना स्वभाववाळो छुं.
सर्व परद्रव्यो मारां संबंधी नथी कारण के टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावपणाथी परमार्थे अंतरंग तत्त्व तो हुं छुं. हुं तो ज्ञायकस्वभावना-स्वरसना सत्नुं सत्त्व छुं. हुं आत्मा सत् अने ज्ञायकपणुं ए मारुं सत्त्व छे. तेथी ज्ञायकस्वभावपणाथी हुं अंतरंग तत्त्व छुं अने ते परद्रव्यो, मारा स्वभावथी भिन्न स्वभाववाळां होवाथी परमार्थे बाह्यतत्त्वपणाने छोडवा असमर्थ छे. अहाहा! सिद्ध भगवान अने सर्वज्ञ परमेश्वर अरिहंत परमेष्ठी पण मारा स्वभावथी भिन्न स्वभाववाळा छे. तेथी तेओ परमार्थे बाह्यतत्त्वपणाने छोडवा असमर्थ छे. बाह्य पदार्थो मारा स्वभावथी भिन्न छे अने पोताना स्वभावने छोडवा असमर्थ छे. अर्थात् तेओ पोताना स्वभावमां ज टकी रहेता होवाथी पोताना स्वभावनो अभाव करी ज्ञानमां पेसतां नथी. बाह्य अनंत तत्त्वो - परज्ञेयो पोतानी हयाती-पोताना स्वभावनुं सत्त्व छोडवा असमर्थ छे अने हुं मारुं अंतरंगतत्त्व जे ज्ञायकपणुं छे ते छोडवा असमर्थ छुं. ज्ञान स्व अने परने पोतानी अस्तिमां रहीने जाणतुं होवाथी ज्ञेय ज्ञानमां पेसतुं नथी तथा ज्ञान ज्ञेयमां जतुं नथी. आम बे विभाग तद्न जुदा छे-(१) अंतरंगतत्त्व ज्ञायक पोते अने (२) बाह्यतत्त्व सर्व परज्ञेयो. जुओ, आ ज्ञेयभावना भेदज्ञाननो प्रकार कहे छे.
ज्ञेयभावथी तारुं तत्त्व जुदुं छे एम तुं अनुभव. तारी द्रष्टिने त्रिकाळीतत्त्व ज्ञायक
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उपर जोडी दे के जे तुं ज छे. जे तुं नथी ए परज्ञेयोथी द्रष्टि हठावी ले-एम अहीं कहे छे. हवे कहे छे-वळी हुं स्वयमेव नित्य उपयुक्त एवो अने परमार्थे एक, अनाकुळ आत्माने अनुभवतो एवो भगवान आत्मा छुं. नित्य उपयुक्त एटले नित्य जाणवा- देखवाना उपयोगवाळो, नित्य ज्ञानना उपयोगना वेपारवाळो छुं. परमार्थे एक छुं एटले ज्ञानमां एकरूप छुं, जेमां भेद नथी एवो एक अनाकुळ शांतरसनो कंद प्रभु अतीन्द्रिय आनंदनुं ढीम हुं छुं. मारा आनंद माटे निमित्तनी अपेक्षा मने नथी, केम के निमित्तमां मारो आनंद नथी. तेवी ज रीते मारा ज्ञानप्रकाशने माटे निमित्तनी जरूर नथी, केम के मारो ज्ञानप्रकाश एमां नथी. भगवान समोसरणमां साक्षात् बिराजता होय अने तेमनी वाणी छूटे एनुं ज्ञान मने थाय ते मारा वडे माराथी थाय छे अने तेनाथी हुं अनाकुळ आनंदने वेदुं छुं. परंतु ए परने लईने मने ज्ञान थाय अने परना कारणे मने आनंद थाय एम नथी; कारण के मारुं ज्ञान अने मारो आनंद त्यां परमां छे ज नहि.
भाई! चैतन्यनी स्वपरप्रकाशक ज्ञाननी सत्ताना सामर्थ्यने जेणे जाण्युं नथी, जेणे अनुभवमां तेनी सत्तानो स्वीकार कर्यो नथी तेने धर्म कयांथी थाय? अहीं कहे छे के पोताथी ज नित्यउपयोगमय अने परमार्थे एक अनाकुळ एवा आत्माने पोतानी ज्ञान-परिणतिमां अनुभवतो, अनाकुळ आनंदने वेदतो भगवान आत्मा ज जाणे छे के हुं प्रगट निश्चयथी एक ज छुं. खरेखर एक ज्ञायकभावस्वरूपे अनाकुळ आनंदने वेदतो हुं एक छुं. निश्चयथी एक होवाथी पर्यायना भेदो पण मारामां नथी.
जिनेश्वरदेवनो मार्ग भाई! बहु सूक्ष्म अने अपूर्व छे. सर्पने पकडवा मोटा साणसा होय पण मोतीने पकडवा ए साणसा शुं काम आवे? (ना). तेम भगवान आत्माने पकडवामां स्थूळ विकल्प काम न आवे. ए तो निर्विकल्प ज्ञान अने आनंदथी पकडाय एम छे. आवां निर्विकल्प ज्ञान अने आनंद जेने प्रगट छे ते सम्यग्द्रष्टि ज्ञानी आत्माने एम अनुभवे छे के-हुं तो एक छुं. हुं एक ज्ञायक चैतन्यस्वरूप छुं अने आ शरीर, वाणी, मन, देव, गुरु, शास्त्र ए बधां परज्ञेय छे. ते मारी चीज नथी के मारामां नथी. ते मारा कारणे नथी अने हुं तेना कारणे नथी. हुं ज्ञायक छुं अने ते ज्ञेय छे एवो मात्र ज्ञेयज्ञायकभाव छे.
ते ज्ञेयज्ञायकभावमात्रथी परद्रव्यो साथे परस्पर मळवुं (मिलन) थयुं होवा छतां पण, प्रगट स्वादमां आवता स्वभावना भेदने लीधे भिन्नता छे. शिखंडमां जेम मीठो अने खाटो स्वाद बे भेगा होवा छतां पण, मीठो स्वाद खाटाथी जुदो जणाय छे तेम सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माने भगवान आत्मानो स्वाद परना स्वादथी जुदो जणाय छे. आवुं जाणे अने श्रद्धे त्यारे आत्माने जाण्यो-मान्यो-अनुभव्यो एम कहेवाय छे. आ सम्यग्दर्शन अने धर्मनी रीत छे. आ मूळ वातने मूकीने महाव्रत लीधां, ब्रह्मचर्य पाळ्यां, केशलोच
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कर्या इत्यादि बाह्य क्रियाकांडमां धर्म मानी मूर्छाई गयो पण ए तो बधां थोथेथोथां छे. ए तो शुभविकल्प छे. पण भगवान आत्मा निर्विकल्प छे. एमां ते विकल्प कयां छे? हुं शुभ विकल्पवाळो एम विचारवाने बदले हुं चैतन्यघनस्वरूप अनादि अनंत तत्त्व छुं एम विचारने? ज्ञानी तो कहे छे के हुं तो अनादि अनाकुळ आत्माने अनुभवतो भगवान छुं.
अज्ञानीने पण जडनो स्वाद आवतो नथी. फक्त तेना उपर लक्ष करीने ‘आ ठीक छे’ एम रागनो स्वाद तेने आवे छे. परंतु धर्मी तो कहे छे के रागनो भाव पण पर छे. ते मारा ज्ञानमां परज्ञेय तरीके हयाती राखनार तत्त्व छे-एम जणाय छे. ए राग छे माटे एने जाणुं छुं एम नथी. तथा रागने, एनामां प्रवेश करीने जाणुं छुं एम पण नथी. भाई! तने तारा स्वभावना सामर्थ्यनी खबर नथी, श्रद्धा नथी. एक समयमां लोकालोकने जाणे एवो तारो स्वभाव छे. भले श्रुतज्ञान हो. श्रुतज्ञान परोक्ष छे अने केवळज्ञान प्रत्यक्ष छे एटलो ज फेर छे. श्रुतज्ञानमां पण पोते पोताने जाणतां पोतानी हयातीमां, लोकालोक जणाई जाय छे. खरेखर तो लोकालोक जणाय छे एम कहेवुं ते व्यवहार छे. अहाहा! वीतरागनो मार्ग बहु झीणो छे, भाई!
भगवान आत्मा जाणे छे के हुं तो प्रगट निश्चयथी एक ज छुं. पर अनेक ज्ञेयोने जाणतां हुं अनेकरूप थतो नथी. अनेक परज्ञेयोने जाणतां छतां हुं अनेकमां जतो नथी, अने ते अनेक ज्ञेयो मारा ज्ञानमां आवता नथी. हुं तो ज्ञायकमात्र अनाकुळ आनंदने अनुभवतो आत्मा छुं. अहीं एकलुं जाणवानुं लीधुं नथी, कारण के ज्ञानमां साथे आनंद पण छे. जेम आत्मामां ज्ञान छे तेम अतीन्द्रिय आनंद पण छे. माटे जेवुं आत्मानुं स्वपरप्रकाशक सामर्थ्य छे एवुं जाण्युं तो ज्ञाननी साथे आनंद पण आवे ज छे. आनंद आव्या विनानुं एकलुं ज्ञान ते ज्ञान ज कहेवातुं नथी. सर्वज्ञ त्रिलोकनाथनी दिव्यध्वनिमां आवेली आ वात छे. भाई! तुं आत्मा छे ने प्रभु! अने तुं प्रभु छे, पामर नथी. प्रभुने पामर मानवो ते मिथ्यात्व छे. अहाहा! अनंता ज्ञेयोने, ज्ञेयमां प्रवेश कर्या विना अने ज्ञेय ज्ञानमां आव्या विना जाणवानी ताकातवाळो तुं आत्मा छे. आवी तारी प्रभुता छे, अने ए ज इश्वरता छे. ३६ मी गाथामां आवी गयुं के-‘जेनी निरंतर शाश्वती प्रतापसंपदा छे’-तेमां आत्मानी प्रभुता बतावी छे. जेम ज्ञानस्वभाव छे तेम प्रभुता पण स्वभाव छे. जेणे पोताना ज्ञान अने प्रभुता स्वभावनुं भान कर्युं तेने पर्यायमां प्रभुता प्रगटे छे. तेने पोतानी पर्याय पोताना सामर्थ्यथी, अखंड प्रतापथी शोभित स्वतंत्र शोभे एवी प्रगट थाय छे.
पण अमारे करवुं शुं? भाई, आ करवुं के-हुं अंदर ज्ञानस्वरूपी भगवान अनंत अनंत गुणनुं गोद्राम, अनंत स्वभावनो सागर प्रभु अने अनंत शक्तिओनुं संग्रहालय-धाम छुं-एम जाणवुं. पण अज्ञानीने तेनी कयां खबर छे? तेने छोडीने ते परमां (शरीरादि
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संयोगमां) राजी थई जाय छे. भगवान! तने आ शुं थयुं? तारुं भिखारीपणुं (रांकाई) तो जो. आ तारुं गांडपण छे, पागलपणुं छे. अहा! तुं त्रणलोकनो नाथ अने आटला सुखमां (संयोगमां) राजी थई जाय!! भगवान! तुं तो आनंदनो नाथ प्रभु छे. आ परचीज (संयोग) तारी नथी अने तुं तेनो नथी, ते ताराथी नथी अने तुं तेनाथी नथी. आ तारुं ज्ञान परचीजथी छे एम नथी. परचीजनी हयाती छे माटे ज्ञान जाणे छे एम पण नथी. तुं तारी सत्ताथी स्वपरने जाणे छे. स्वपरने जाणवाना सामर्थ्यवाळो तुं भगवान छे. तेने जाण तो अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवशे.
अहीं ‘ज्ञेयज्ञायकभाव मात्रथी’ एम कह्युं छे एटले शुं? के हुं ज्ञायक अने आ पर ज्ञेय छे ए तो कहेवा मात्र संबंध छे. आवा ज्ञेयज्ञायक संबंधथी परद्रव्यो साथे जाणे मेळ होय तेम जणाय छे. परंतु प्रगट स्वादमां आवता स्वभावना भेदने लीधे तेओ माराथी भिन्न छे. मारो-आत्मानो स्वाद अतीन्द्रिय आनंद छे, ज्यारे धर्मास्तिकाय आदि पर ज्ञेयो माराथी भिन्न छे. अहाहा! भगवाने जोयेला धर्मास्ति, अधर्मास्ति, आकाश, काळ, अन्य जीव अने कर्म आदि पुद्गलो ए बधा परज्ञेय छे अने हुं तो ज्ञानमां स्थित रहीने जाणवावाळो अतीन्द्रिय आनंदथी भरेलो भगवान छुं.
जड कर्म ए परज्ञेय छे. ते मने नडे के कर्म मारां छे एवुं वस्तुमां नथी. ‘कर्मे राजा, कर्मे रंक, कर्मे वाळ्यो आडो अंक’-एवुं आवे छे ने? भाई! ए बधी निमित्तनी वातो छे. पोतानी पर्याय विकाररूपे परिणमे त्यारे घातीकर्मने निमित्त कहेवाय छे. ज्यारे अघातीकर्म तो संयोगमां निमित्त छे. ते आठेय कर्म, तेनो प्रकृति, प्रदेश, स्थिति अने अनुभाग बंध-ए बधुंय ज्ञानमां परज्ञेय छे. तीर्थंकर प्रकृति बंधाय ए पण ज्ञानमां परज्ञेय छे. जेम शिखंडमां मीठो स्वाद, खाटा स्वादथी भिन्नपणे स्वादमां आवे छे तेम मारो आत्मानो स्वाद, धर्मास्तिकाय आदि परज्ञेयो तेनाथी भिन्न छे. मारो अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद परज्ञेयोथी भिन्न छे. माटे हुं तेनाथी जुदो छुं. आवो जिनेश्वरनो मार्ग कोई अपूर्व छे! पण लोकोए दया पाळवी अने बहारथी व्रत पाळवां इत्यादिमां धर्म मान्यो छे. पण एवुं तो अनंतवार कर्युं छे. ए तो रागनी क्रिया छे. एमां कयां आत्मा छे? आत्मा तो जाणनार स्वभावे छे. ते शुं रागमां आवे छे? (ना). परंतु अज्ञानीने तेनी (पोतानी) मोटप सुझती नथी. परने लईने मने ठीक पडे, परने लईने मने ज्ञान थाय एम मानी अज्ञानी पोतानी मोटप बीजाने आपे छे. अरे भगवान! आ तने शुं थयुं छे? तुं तो अनादि ब्रह्मस्वरूप भगवान छे ने!
भगवान आत्मा ज्ञानानंदस्वरूपी ब्रह्मानंदनो नाथ छे. तेनो प्रगट स्वाद अतीन्द्रिय आनंद छे. ज्यारे धर्मादि परज्ञेयोना स्वभावो माराथी भिन्न छे. आम प्रगट स्वादमां आवता स्वभावभेदने लीधे हुं, धर्म, अधर्म, आकाश, काळ, पुद्गल अने अन्य जीवो
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प्रत्ये निर्मम छुं. आ त्रणलोकना नाथ तीर्थंकरदेव प्रति निर्मम छुं. तीर्थंकर मारा नथी, देव मारा नथी, गुरु अने शास्त्र मारां नथी. ए तो शुभभाव होय छे त्यारे तेमना प्रति लक्ष जाय छे. पण शुभभाव कांई ते परने लईने थाय छे तथा ए शुभभाव थयो माटे धर्म छे एम नथी. ए शुभभाव अने बधी परवस्तु परज्ञेयमां जाय छे. ते परज्ञेयने हुं मारा ज्ञानमां रहीने, मारा अतीन्द्रिय आनंदना स्वादने वेदतो थको, माराथी जुदा जाणुं छुं. आनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे. सम्यग्द्रष्टिने जेवुं स्वरूप छे तेवी तेनी प्रतीति थई छे. ज्ञानस्वरूप चैतन्यसूर्य भगवान आत्मा सिवायना परज्ञेयो तेमना बाह्यतत्त्वपणाने छोडवा असमर्थ छे. अने हुं अंतरंगतत्त्व छुं जे मारा अनुभवमां आनंदने जाणतो थको परने भिन्न जाणुं छुं. माटे हुं ए सर्व परज्ञेयो प्रति निर्मम छुं- आवुं ज्ञानी जाणे छे.
ज्यारे अज्ञानी मारी पत्नी, मारा दीकरा, मारुं मकान-एम माने छे. पण भाई! आ देह तारो नथी तो वळी मकान आदि तारां कयांथी आव्यां? अरे! अंदर जे राग छे ते पण तारो नथी तो पछी परचीज तारी कयांथी आवी? ज्ञानी एम जाणे छे के हुं तो ज्ञान-आनंदनो अनुभवनारो छुं. रागनो अनुभवनारो ते हुं नहि. अहो! शुं अद्भुत टीका छे! एकलां अमृत रेडयां छे! अहीं एम कहे छे के-धर्मी एने कहीए जे पोताना ज्ञान-आनंदरूपे पोताथी ज (स्वयमेव) परिणमे. एमां पर संबंधी ज्ञान आवे पण ए पर संबंधी ज्ञान कहेवुं ए व्यवहार छे. खरेखर तो ए पोतानुं ज्ञान छे. ४७ शक्तिओमां एक सर्वज्ञत्वशक्ति छे. एनुं वर्णन करतां ‘आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्ति’ एम कह्युं छे. सर्वज्ञ एटले सर्वने जाणे एम नहि. पण सर्वनुं ज्ञान ए आत्मानुं ज्ञान छे. सर्वज्ञतानो स्वभाव पोतानो छे अने ते आत्मज्ञपणुं छे. तेथी ज्ञानी कहे छे के-हुं जे अत्यारे जाणुं छुं ए जाणवुं माराथी मारामां थयेलुं छे, परज्ञेयने लईने थयुं नथी. अने तेथी अतीन्द्रिय आनंदने वेदतो एकलो हुं परथी भिन्न छुं, निर्मम छुं. कारण के सदाय पोताना एकपणामां प्राप्त होवाथी आत्मपदार्थ एवो ने एवो ज स्थित रहे छे. एटले जाणवाना स्वभावमां ज स्थित रहे छे. पोताना स्वभावने कोई पदार्थ छोडतुं नथी.
आ प्रकारे ज्ञेयभावोथी भेदज्ञान थयुं. आत्मा परज्ञेयोथी भिन्न थयो.
अहीं आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘इति सर्वैः अन्यभावैः सह विविके सति’-आम पूर्वोक्त प्रकारे भावकभाव अने ज्ञेयभावोथी भेदज्ञान थतां-एटले शुं कह्युं? के आ आत्मा जे छे ते आनंद अने ज्ञानस्वरूप छे. ते पुण्य-पाप तथा राग-द्वेषना विकारी भावथी भिन्न छे. हवे अनादिथी जीव रखडवानुं तो करी
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रह्यो छे. दया, दान, भक्ति अने खावुं, पीवुं, रळवुं, कमावुं इत्यादि पुण्य-पापना भाव ए चार गतिमां रखडवाना भाव छे. ते वडे जीव दुःखी छे. हवे जेने जन्म-मरण मटाडवां होय अने धर्म प्रगट करवो होय तेणे शुं करवुं एनी आ वात छे. प्रथम तो तेणे आ भगवान आत्माने, भावकनो भाव जे पुण्य, पाप, राग, द्वेष, दया, दान, भक्तिना आदिना विकारी भाव छे तेनाथी जुदो अनुभववो-जाणवो. तथा परज्ञेयना भावो जे शरीर, मन, वाणी, कर्म, स्त्री, कुटुंब, लक्ष्मी, देव, गुरु अने शास्त्र छे तेनाथी पण स्वज्ञेय आत्माने भिन्न जाणवो. अहीं कहे छे के अनादिथी विकारने तथा परज्ञेयने पोताना मानतो हतो ते मिथ्यात्व, भ्रम अने अज्ञान हतां. परंतु हवे ज्ञानानंदस्वरूप भगवान आत्माने भेदज्ञान वडे रागादि विकारथी अने परज्ञेयोथी भिन्न पाडीने तेने ‘आत्माराम’ कर्यो.
सर्व अन्यभावोथी एटले के राग, दया, दान, व्रत, भक्ति, हिंसा, जूठ, चोरी, क्रोध, मान आदि विकारी भावोथी अने शरीर, वाणी, मन, कर्म, देव, गुरु, शास्त्र आदि परज्ञेयोथी ज्यारे भिन्नता थई त्यारे उपयोग आत्मरूप थई जाय छे. भिन्न तो छे ज पण ज्यारे परभाव अने परज्ञेय बन्ने भिन्न छे एवी भिन्नता ज्ञानमां करी त्यारे उपयोग आत्मरूप थई जाय छे. वस्तु धर्म अलौकिक छे, भाई! पण जेमने सांभळवा य मळ्युं न होय ते बिचारा घणा एम ने एम दुःखी थई चार गतिमां रखडे छे. आ करोडपति अने अबजोपति ए बधा बिचारा छे. केम के तेमने आत्मानी अंतरंग ज्ञानानंद लक्ष्मी शुं छे एनी खबर नथी. जे पोतानामां नथी तेने पोताना मानी रह्यो छे ते मूर्ख छे, मिथ्यात्वना भ्रममां पडयो छे.
आत्मा ज्ञान अने आनंदस्वरूप प्रभु छे. तेमां जे राग, पुण्य अने पापना शुभाशुभ भाव छे ते भावक कर्मना निमित्ते थयेला औपाधिक भाव छे. ते आत्मानो स्वभाव नथी-एम एनाथी भिन्न पाडयो, अने परज्ञेय-चाहे देव, गुरु, शास्त्र, के सम्मेदशिखरनुं तीर्थ हो-एनाथी स्वज्ञेयने भिन्न पाडयो, त्यारे ‘स्वयम् अयम् उपयोगो आत्मानम् एकम् बिभ्रत्’ आ उपयोग छे ते पोते ज पोताना एक आत्माने ज धारतो- एटले जाणवानो उपयोग जे अनादिथी रागने अने परज्ञेयने पोताना जाणतो हतो ते हवे राग अने ज्ञेयथी भिन्न पडी जतां आत्मारूप थई गयो अर्थात् पोताने पररूपे मानतो हतो ते उपयोग स्वभावरूप थई गयो. अहीं भेद पाडीने व्यवहारथी वात करी छे के-उपयोग छे ते पोते ज पोताना एक आत्माने धारे छे. खरेखर तो जे उपयोग छे ते स्वयं स्वरूपमां एकाकार थई जाय छे.
‘आ उपयोग छे ते पोते ज पोताना आत्माने धारतो’-एनो अर्थ ए छे के उपयोग आत्मारूप थई गयो, अभेद थयो. जाणवा-देखवानो व्यापार आत्मारूप थई गयो. दया, भक्ति, पूजा, जात्रा आदि भाव तो विकार छे, राग छे अने देव, गुरु, शास्त्र परज्ञेय
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छे, पर छे. ए रागादि भावथी अने परज्ञेयोथी भेद करीने निर्विकार उपयोग अंदर स्वज्ञेय एक ज्ञायकमात्रमां जामी जाय छे त्यारे उपयोग आत्मारूप थयो एम कहेवाय छे. त्यारे आत्मानो धर्म प्रगट थाय छे.
हवे कहे छेः-‘प्रकटितपरमार्थैः दर्शनज्ञानवृतैः कृत्तपरिणतिः’ जेमनो परमार्थ प्रगट थयो छे एवां दर्शनज्ञानचारित्रथी जेणे परिणति करी छे-शुं कहे छे? के भगवान आत्मा आनंदस्वरूप अने ज्ञानस्वरूप छे. ज्यारे उपयोग अंदर ज्ञायकमां लीन कर्यो त्यारे शक्तिमांथी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी परिणति प्रगट थई गई. रागादि विकार अने परज्ञेयोथी भेद करीने, उपयोग ज्ञान, दर्शन, आनंद आदि जे वस्तुमां सामर्थ्यपणे छे एमां जाम्यो त्यां शक्तिमांथी दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं परिणमन पर्यायमां थई गयुं. आवो वीतरागनो मार्ग छे, भाई! एणे कोई दिवस सांभळ्यो नथी. कहे छे के-भगवान आत्मा अंदर सच्चिदानंद प्रभु शुद्ध छे. तेने जिनेश्वरदेव केवळज्ञानी परमेश्वरे आत्मा तरीके जोयो छे. ते आत्मा राग अने परज्ञेयोथी भिन्न छे. ते रागथी भिन्न निर्विकारी छे अने परज्ञेयथी भिन्न स्वज्ञेयरूप छे. आ आखरनी गाथा छे ने? पर्यायमां थतो राग मारो अने परज्ञेयो मारा एवी जे मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रनी परिणति हती ते हवे गुलांट खाय छे एम कहे छे. शुद्धचैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा परमानंदनो नाथ प्रभु ते हुं छुं एम उपयोग अंतर्लीन थई अंदर जामतां श्रद्धा-ज्ञान-चारित्रनी निर्मळ परिणति-पर्याय प्रगट थाय छे.
आ प्रमाणे श्रद्धा-ज्ञान-चारित्रनी निर्मळ परिणति प्रगट करी छे एवो ‘आत्माराम एव प्रवृत्तः’ ज्ञानी पोतानो आत्मारूपी जे बाग छे तेमां ज प्रवृत्ति करे छे. आ भेदथी वात करी छे. खरेखर तो ते उपयोग आत्मारूप थई जाय छे. राग, दया, दानना तथा हिंसादिना परिणाम मारा एम जे मानतो हतो अने परज्ञेयोमां हुं छुं अने ते मने लाभकारी छे एवुं जे मानतो हतो ते मान्यताथी अने रागादिथी भिन्न पडी हवे उपयोग आत्मामां जाय छे, क्रीडा करे छे अने आत्मारूप थई जाय छे. अहाहा! आ तो एक समयमां त्रणकाळ त्रणलोकने जेणे जाण्यां छे ए वीतराग परमात्मा अरिहंतदेवनी वाणी छे. भाई! जेनां भाग्य होय तेने सांभळवा मळे. कहे छे के तुं आत्मा परमानंदनी मूर्ति प्रभु छे. तेनो उपयोग-व्यापार राग अने परज्ञेयमां जाय ते व्यभिचार छे. अने ते उपयोग परथी खसीने स्वमां जामे ए अव्यभिचारी परिणाम छे. आवी झीणी वात छे. ते समजे नहि अने जात्रा करे, पूजा करे, दान करे अने माने धर्म थई गयो, पण एमां तो धूळेय धर्म नथी. सांभळ ने, ए तो झेरनुं पगथियुं छे. अमृतनुं पगथियुं तो राग अने परज्ञेयथी भिन्न पडी स्वमां एकाकार थवुं ते छे.
अरेरे! वीतरागना मार्गने समजवानी दरकार पण करी नहि अने एम ने एम ढोरनी जेम मजुरी करीने, मरीने चाल्यो जाय छे. अहीं कहे छे के भगवान आत्मानो उपयोग अर्थात् जाणवा देखवानो भाव विकारभावथी भिन्न छे अने जेने पोताना मानतो
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हतो ते परज्ञेयथी पण भिन्न छे. हवे ते आवो विवेक-भेदज्ञान करीने गुलांट खाय छे के विकार अने परज्ञेय ते हुं नहि, हुं तो निर्विकारी स्वज्ञेय छुं. आम भेदज्ञान करी ज्ञानी पोताना आत्मारूपी क्रीडावनमां प्रवृत्ति करे छे. आ तो व्यवहारथी भेद पाडीने समजाव्युं छे. खरेखर तो उपयोग आत्मरूप ज थई जाय छे. उपयोग आत्मामां ज क्रीडा करे छे, अन्य जग्याए जतो नथी. एटले के जाणवा-देखवाना स्वरूपमां एकाकार थयो तेथी हवे राग अने परमां जतो नथी. अर्थात् ‘राग अने पर मारां छे’ एम मान्यता सहित उपयोग मलिन थतो नथी. आनुं नाम आत्मा जाण्यो एम कहेवामां आवे छे.
पोताने जे रागरूप अने परज्ञेयरूप माने छे तथा आ स्त्री, पुत्र, परिवार, धन- दोलत, महेल, हजीरा इत्यादि पोताना माने छे तेनुं आखुं जीवन ज मरी गयुं छे. अंदरमां जेणे विकारने अने परने पोतानां मान्यां छे ते आत्माना भान विना मरी गयेलो ज छे. भगवान आनंदनो नाथ जीवती चैतन्यज्योति छे. तेना जीवने जीवित न राखतां राग अने पर मारां छे एम मानीने तेणे पोताना जीवननी हिंसा करी छे. आवो जिनेश्वरदेवनो वीतराग मार्ग सांभळवा मळवो य मुश्केल छे. पछी तेनी समजण करी स्वरूपनां श्रद्धा-ज्ञान-रमणता करवां ए तो अति अति महामुश्केल छे. आ तो जन्म-मरण मटाडवानो मार्ग छे. सो इन्द्रोथी पूजित भगवान जिनेश्वरदेवनी दिव्यध्वनिमां आवेली आ वात छे. तेने छोडीने जे बीजे ज्यां-त्यां आथडे छे ते पाखंडमां रमे छे.
सर्व परद्रव्योथी तथा तेमनाथी उत्पन्न थयेला भावोथी अर्थात् ज्ञेय एवा परद्रव्योथी अने भावकना भावथी ज्यारे भेद जाण्यो त्यारे उपयोगने रमवाने माटे पोतानो आत्मा ज रह्यो. अहाहा! हुं तो चैतन्यसूर्य भगवान चैतन्यना तेजना नूरनुं पूर छुं अने आ रागादि भावो अने परज्ञेयो माराथी भिन्न छे, मारामां नथी आवुं ज्यारे भेदज्ञान कर्युं त्यारे उपयोग एक आत्मामां ज लीन थयो अने जामी गयो. केमके तेने रमवाने आत्मा सिवाय कोई अन्य स्थान रह्युं नहि. आ रीते दर्शन-ज्ञान-चारित्र साथे एकरूप थयेलो ते आत्मा आत्मामां ज रमणता करे छे. अहाहा! टूंकामां पण केटलुं भर्युं छे?
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भवतीत्यावेद–यन्नुपसंहरति–
ण वि अत्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमेत्तं पि।। ३८ ।।
अहमेकः खलु शुद्धो दर्शनज्ञानमयः सदाऽरूपी।
नाप्यस्ति मम किञ्चिदप्यन्यत्परमाणुमाक्रमपि।। ३८ ।।
हवे, ए रीते दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप परिणत थयेलास आ आत्माने स्वरूपनुं संचेतन केवुं होय छे एम कहेतां आचार्य आ कथनने संकोचे छे, समेटे छेः-
कंइ अन्य ते मारुं जरी परमाणुमात्र नथी अरे! ३८.
गाथार्थः– दर्शनज्ञानचारित्ररूप परिणमेलो आत्मा एम जाणे छे केः [खलु] निश्चयथी [अहम्] हुं [एकः] एक छुं, [शुद्धः] शुद्ध छुं, [दर्शनज्ञानमयः] दर्शनज्ञानमय छुं, [सदा अरूपी] सदा अरूपी छुं; [किञ्चित् अपि अन्यत्] कांई पण अन्य परद्रव्य [परमाणुमाक्रम् अपि] परमाणुमात्र पण [मम न अपि अस्ति] मारुं नथी ए निश्चय छे.
टीकाः– जे, अनादि मोहरूप अज्ञानथी उन्मत्तपणाने लीधे अत्यंत अप्रतिबुद्ध हतो अने विरक्त गुरुथी निरंतर समजाववामां आवतां जे कोई प्रकारे (महा भाग्यथी) समजी, सावधान थई, जेम कोई मूठीमां राखेलुं सुवर्ण भूली गयो होय ते फरी याद करीने ते सुवर्णने देखे ते न्याये, पोताना परमेश्वर (सर्व सामर्थ्यना धरनार) आत्माने भूली गयो हतो तेने जाणीने, तेनुं श्रद्धान करीने तथा तेनुं आचरण करीने (-तेमां तन्मय थईने) जे सम्यक् प्रकारे एक आत्माराम थयो, ते हुं एवो अनुभव करुं छुं केः हुं चैतन्यमात्र ज्योतिरूप आत्मा छुं के जे मारा ज अनुभवथी प्रत्यक्ष जणाय छे; चिन्मात्र आकारने लीधे हुं समस्त क्रमरूप तथा अक्रमरूप प्रवर्तता व्यावहारिक भावोथी भेदरूप थतो नथी माटे हुं एक छुं; नर, नारक आदि जीवना विशेषो, अजीव, पुण्य, पाप, आस्त्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्षस्वरूप जे व्यावहारिक नव तत्त्वो तेमनाथी,
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आलोकमुच्छलति शान्तरसे समस्ताः।
____________________________________________________________ टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावरूप भाव वडे, अत्यंत जुदो छुं माटे हुं शुद्ध छुं; चिन्मात्र होवाथी सामान्य-विशेष उपयोगात्मकपणाने उल्लंघतो नथी माटे हुं दर्शनज्ञानमय छुं; स्पर्श, रस, गंध, वर्ण जेनुं निमित्त छे एवा संवेदनरूपे परिणम्यो होवा छतां पण स्पर्शादिरूपे पोते परिणम्यो नथी माटे परमार्थे हुं सदाय अरूपी छुं. आम सर्वथी जुदा एवा स्वरूपने अनुभवतो आ हुं प्रतापवंत रह्यो. एम प्रतापवंत वर्तता एवा मने, जोके (मारी) बहार अनेक प्रकारनी स्वरूपनी संपदा वडे समस्त परद्रव्यो स्फुरायमान छे तोपण, कोई पण परद्रव्य परमाणुमात्र पण मारापणे भासतुं नथी के जे मने भावकपणे तथा ज्ञेयपणे मारी साथे एक थईने फरी मोह उत्पन्न करे; कारण के निजरसथी ज मोहने मूळथी उखाडीने-फरी अंकुर न ऊपजे एवो नाश करीने, महान ज्ञानप्रकाश मने प्रगट थयो छे.
भावार्थः– आत्मा अनादि काळथी मोहना उद्रयथी अज्ञानी हतो, ते श्री गुरुओना उपदेशथी अने पोतानी काळलब्धिथी ज्ञानी थयो अने पोताना स्वरूपने परमार्थथी जाण्युं के हुं एक छुं, शुद्ध छुं, अरूपी छुं, दर्शनज्ञानमय छुं. आवुं जाणवाथी मोहनो समूळ नाश थयो, भावकभाव ने ज्ञेयभावथी भेदज्ञान थयुं, पोतानी स्वरूपसंपदा अनुभवमां आवी; हवे फरी मोह केम उत्पन्न थाय? न थाय.
हवे, एवो आत्मानो अनुभव थयो तेनो महिमा कही प्रेरणारूप काव्य आचार्य कहे छे के आवा ज्ञानस्वरूप आत्मामां समस्त लोक निमग्न थाओः-
श्लोकार्थः– [एषः भगवान् अवबोधसिन्धुः] आ ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा [विभ्रम–तिरस्करिणीं भरेण आप्लाव्य] विभ्रमरूप आडी चादरने समूळगी डुबाडी दईने (दूर करीने) [प्रोन्मग्नः] पोते सर्वांग प्रगट थयो छे; [अमी समस्ताः लोकाः] तेथी हवे आ समस्त लोक [शान्तरसे] तेना शांत रसमां [समम् एव] एकीसाथे ज [निर्भरम्] अत्यन्त [मज्जन्तु] मग्न थाओ. केवो छे शांत रस? [आलोकम् उच्छलति] समस्त लोक पर्यंत ऊछळी रह्यो छे.
भावार्थः– जेम समुद्रनी आडुं कांई आवी जाय त्यारे जळ नथी देखातुं अने ज्यारे आड दूर थाय त्यारे जळ प्रगट थाय; प्रगट थतां, लोकने प्रेरणायोग्य थाय के ‘आ जळमां सर्व लोक स्नान करो’; तेवी रीते आ आत्मा विभ्रमथी आच्छादित हतो त्यारे तेनुं स्वरूप नहोतुं देखातुं; हवे विभ्रम दूर थयो त्यारे यथास्वरूप (जेवुं छे
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प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिन्धुः।। ३२ ।।
____________________________________________________________ तेवुं स्वरूप) प्रगट थयुं; तेथी ‘हवे तेना वीतराग विज्ञानरूप शांतरसमां एकीवखते सर्व लोक मग्न थाओ’ एम आचार्ये प्रेरणा करी छे. अथवा एवो पण अर्थ छे के ज्यारे आत्मानुं अज्ञान दूर थाय त्यारे केवळज्ञान प्रगट थाय अने केवळज्ञान प्रगट थतां समस्त लोकमां रहेला पदार्थो एकीवखते ज ज्ञानमां आवी झळके छे तेने सर्व लोक देखो. ३२.
आ रीते आ समयप्राभृतग्रंथनी आत्मख्याति नामनी टीकामां टीकाकारे पूर्वरंगस्थळ कह्युं.
अहीं टीकाकारनो एवो आशय छे के आ ग्रंथने अलंकारथी नाटकरूपे वर्णव्यो छे. नाटकमां पहेलां रंगभूमि रचवामां आवे छे. त्यां जोनारा नायक तथा सभा होय छे अने नृत्य (नाटय, नाटक) करनारा होय छे के जेओ अनेक स्वांग धारे छे तथा शृंगारादिक आठ रसनुं रूप बतावे छे. त्यां शृंगार, हास्य, रौद्र, करुणा, वीर, भयानक, बीभत्स अने अद्भुत-ए आठ रस छे ते लौकिक रस छे; नाटकमां तेमनो ज अधिकार छे. नवमो शांतरस छे ते अलौकिक छे; नृत्यमां तेनो अधिकार नथी. आ रसोना स्थायी भाव, सात्त्विक भाव, अनुभावी भाव, व्यभिचारी भाव अने तेमनी द्रष्टि आदिनुं वर्णन रसग्रंथोमां छे त्यांथी जाणवुं. अने सामान्यपणे रसनुं ए स्वरूप छे के ज्ञानमां जे ज्ञेय आव्युं तेमां ज्ञान तदाकार थयुं, तेमां पुरुषनो भाव लीन थई जाय अने अन्य ज्ञेयनी इच्छा न रहे ते रस छे. ते आठ रसनुं रूप नृत्यमां नृत्य करनारा बतावे छे; अने तेमनुं वर्णन करतां कवीश्वर ज्यारे अन्य रसने अन्य रसनी समान करीने पण वर्णन करे छे त्यारे अन्य रसनो अन्य रस अंगभूत थवाथी तथा अन्यभाव रसोनुं अंग होवाथी, रसवत् आदि अलंकारथी तेने नृत्यना रूपे वर्णववामां आवे छे.
अहीं प्रथम रंगभूमिस्थळ कह्युं. त्यां जोनारा तो सम्यग्द्रष्टि पुरुष छे तेम ज बीजा मिथ्याद्रष्टि पुरुषोनी सभा छे, तेमने बतावे छे. नृत्य करनारा जीव-अजीव पदार्थ छे अने बन्नेनुं एकपणुं, कर्ताकर्मपणुं आदि तेमना स्वांग छे. तेमां तेओ परस्पर अनेकरूप थाय छे, -आठ रसरूप थई परिणमे छे, ते नृत्य छे. त्यां सम्यग्द्रष्टि जोनार जीव-अजीवना भिन्न स्वरूपने जाणे छे; ते तो आ सर्व स्वांगोने कर्मकृत जाणी शांत रसमां ज मग्न छे अने मिथ्याद्रष्टि जीव-अजीवनो भेद नथी जाणता तेथी आ स्वांगोने ज साचा जाणी एमां लीन थई जाय छे. तेमने सम्यग्द्रष्टि यथार्थ स्वरूप बतावी, तेमनो भ्रम मटाडी, शांत रसमां तेमने लीन करी सम्यग्द्रष्टि बनावे छे. तेनी सूचनारूपे रंगभूमिना अंतमां आचार्ये ‘मज्जन्तु’ इत्यादि आ श्लोक रच्यो छे. ते, हवे जीव- अजीवनो स्वांग वर्णवशे तेनी सूचनारूपे छे एवो आशय सूचित थाय छे. आ रीते अहीं सुधी तो रंगभूमिनुं वर्णन कर्युं.
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इतिश्रीसमयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ पूर्वरङ्गः समाप्तः। ____________________________________________________________
निजानंद रसमें छको, आन सबै छिटकाय.
आ प्रमाणे (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत) श्री समयसार शास्त्रनी (श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित) आत्मख्याति नामनी टीकामां पूर्वरंग समाप्त थयो.
भगवान आत्मा विकारना भावोथी अने ज्ञेयभावोथी भेदज्ञान करी भिन्न पडतां पोताना स्वरूपनी प्रतीति-ज्ञान रमणतारूपे परिणम्यो. त्यां दर्शन-ज्ञान- चारित्रस्वरूप परिणत थयेला आत्माने स्वरूपनुं संचेतन-वेदन केवुं होय छे एनुं कथन करतां आचार्यदेव हवे (३८ मी गाथामां) संकोचे छेः-
‘जे, अनादि मोहरूप अज्ञानथी उन्मत्तपणाने लीधे अत्यंत अप्रतिबुद्ध हतो’- शुं कह्युं? के अनादि मोहरूप अज्ञानने लईने जीव चारगतिमां रखडे छे. जुओ, अहीं एम नथी कह्युं के अनादि कर्मने लईने रखडे छे. कर्म बिचारां शुं करे? मोहरूप अज्ञानना कारणे तेने उन्मत्तपणुं छे. पोते आनंदनो नाथ सच्चिदानंद प्रभु भगवान छे तेने भूलीने पुण्य-पापना परिणाम अने तेना फळने पोतानां माने तेने उन्मत्त एटले पागल कह्यो छे. आ शेठिया बधा जे एम माने के अमे करोडपति अने अजबपति अने गौरव करे ते बधा मोहथी उन्मत्त-पागल छे एम अहीं कहे छे. पोताना स्वरूपनी सावधानी छोडीने जीव विकार अने संयोगी चीजमां सावधान थई रह्यो छे ए मिथ्यात्व-मोह छे.
‘अनादि मोहरूप अज्ञानथी....’ ए शब्दोथी पहेलां शरु कर्युं छे. आ गाथामां जीव अधिकार पूरो करवो छे ने? एटले जीवनुं पूर्णस्वरूप प्राप्त थाय त्यारे केवो होय अने ए पहेलांनी एनी भूल केवी होय ए बतावे छे. पैसा, धन-दोलत, आबरूमां मजा-आनंद मानतो ते मोह वडे पागल हतो, अत्यंत अप्रतिबुद्ध हतो. अहाहा! आत्मा एक समयमां ज्ञान, आनंद इत्यादि अनंत अनंत शक्तिओनो पिंड छे. पण एना उपर एनी अनंतकाळमां नजर गई नथी, केमके वर्तमान पर्याय जे व्यक्त-प्रगट छे तेना उपर एनी नजर छे. जैननो साधु थयो, दिगंबर मुनि थयो, जंगलमां रह्यो, पण एनी द्रष्टिनुं जोर वर्तमान पर्याय उपर ज रह्युं; केमके पर्यायनो जे अंश छे ए प्रगट छे, तेने ख्यालमां आवे छे तेथी तेमां ज रोकाई गयेलो छे. प्रगट पर्याय उपर द्रष्टि छे ते लंबाय तो राग अने पर उपर जाय छे. तेथी पर्यायनो, रागनो अने परनो ज तेने (आत्मापणे) स्वीकार छे. आ अनादि भ्रमणा अने अज्ञान छे अने ते वडे ते अप्रतिबुद्ध छे.
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वळी कोई कहे के जैनमां तो बधुं कर्मने लईने थाय छे एम आवे छे एटले जीव कर्मने लईने अप्रतिबुद्ध छे एम कहो तो? भाई! ए बराबर नथी. कर्म तो जड अचेतन छे. ए जडने लईने तारामां शुं थाय? ‘कर्मथी थयुं’ एम आवे ए तो निमित्त बतावनारुं कथन छे, कर्मथी जीवमां कांई थाय छे एम छे ज नहि. जीव अनादि मोहरूप अज्ञान वडे ज अप्रतिबुद्ध छे. हवे एवो जीव पोते सुलटो परिणमे त्यारे एने समजावनार केवा गुरुनुं निमित्त होय छे ते कहे छे.
अनादिथी जे मोहरूप अज्ञानथी अप्रतिबुद्ध हतो ते ‘विरक्त गुरु वडे समजाववामां आवतां’-जुओ अहीं समजावनार गुरु विरक्त लीधा छे. जे सम्यग्द्रष्टि होय अने चारित्र सहित होय ते निर्ग्रंथ मुनिराज साचा गुरु छे. जे अंतरमां रागथी छूटा पडी गया छे अने बहारमां वस्त्र-पात्रथी रहित छे तेने साचा निर्ग्रंथ गुरु कहे छे. एवा विरक्त गुरु वडे ‘निरंतर समजाववामां आवतां’-निरंतर समजाववामां आवतां एटले गुरु कांई चोवीसे कलाक समजाववा नवरा होता नथी, परंतु गुरुए एने जे समजाव्युं ए वातनी सांभळनार शिष्यने एवी धून लागी गई के निरंतर ए एना चिन्तनमां रहे छे. तेथी अहीं ‘निरंतर समजाववामां आवतां’ एम कह्युं छे.
श्री गुरुए तेने कह्युं के-प्रभु! तारी चीज विकार अने कर्मथी भिन्न छे. तुं अनंत अनंत ज्ञान अने आनंदनो सागर छे. जुओ, आवी देशना देनार दिगंबर भावलिंगी संत होय छे एम अहीं कह्युं छे. अज्ञानीनी देशना धर्म पामवामां निमित्त होई शक्ती नथी. जैन दर्शनमां साधु दिगंबर होय छे अने ते वनवासी होय छे. ते रागथी विरक्त अने स्वरूपमां विशेष रक्त होय छे. आवा निर्ग्रंथ गुरुनी देशना धर्म पामवामां निमित्त थाय छे. एवा गुरु पासेथी जे देशना मळे तेने सांभळीने शिष्य निरंतर ओगाळे छे, विचारे छे. तेथी ‘निरंतर समजाववामां आवतां’ एम अहीं लीधुं छे.
श्रीगुरुए देशनामां कह्युं के-भगवान! तुं चैतन्यस्वरूप छे. तारामां अनंत गुणो भर्या छे. अहाहा! प्रभु, तुं अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत आनंद, अनंत शान्ति, अनंत स्वच्छता, अनंत प्रभुता एवा एवा पूर्ण स्वभावनी अनंत शक्तिओनुं संग्रहालय-स्थान छे; तुं विकार अने देहनुं स्थान नथी. आ सांभळनार शिष्यने एवी स्वभावनी धून चडी के तेने चोट लागी अने ते कोई प्रकारे महाभाग्यथी आत्मा समजी गयो. महाभाग्यथी एटले महापुरुषार्थ वडे तेणे स्वसंवेदन प्रगट करी लीधुं. आत्मा अतीन्द्रिय आनंद, अतीन्द्रिय शान्ति अने अनंत ईश्वरशक्तिनो समुदाय छे एवुं सम्यग्दर्शनमां तेने भान थयुं. आवुं समजीने-भान करीने शिष्य सावधान थयो, स्वरूप प्रति सावधान थयो. अनंतकाळमां जे नहोतुं कर्युं अने जे करवा योग्य हतुं ते
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(सम्यग्दर्शन) तेणे कर्युं. गुरुए जे भावथी कह्युं हतुं ते भाव ते बराबर समजी गयो. पहेलां राग अने संयोगमां सावधान हतो ते हवे असंयोगी अने अरागी आत्मामां सावधान थयो.
हुं तो ज्ञायकस्वरूप चैतन्यस्वभावना भावथी भरेलो चैतन्य-तेजना नूरनुं पूर छुं एम सावधान थई, जेवी रीते कोई मूठीमां राखेलुं सुवर्ण भूली गयो होय ते याद करीने ते सुवर्णने देखे ते न्याये, पोताना परमेश्वर आत्माने भूली गयो हतो तेने जाणे छे. जुओ, सोनुं कयांय पेटी-पटारामां छे ने भूली गयो एम लीधुं नथी. पण पोतानी मूठीमां पोतानी पासे ज छे ते भूली गयो होय तेने कांई याद करीने देखे तेम अहीं पण पुण्य-पापनी रुचिमां पोतानी अंदर रहेलो भगवान आत्मा भूली गयो हतो ते याद करीने देखी लीधो. जेम लापसी रंधाती होय अने काचां लाकडांनो धूमाडो थतो होय तो वासण अने लापसी देखातां नथी, तेम पुण्य-पापना धुमाडानी आडमां अंदर भगवान आत्मा छे ते देखातो नथी. आ शुभाशुभ विकल्पो छे ए धुमाडो-मेल छे. अने तेनी रुचिमां आत्मा जणातो नथी. परंतु विरक्त गुरुना उपदेशनुं निमित्त बनतां सावधान थई शिष्ये जाण्युं के-अहो! हुं तो अतीन्द्रिय आनंद अने शांतिनो सागर छुं. आनंद, ज्ञान अने वीतरागताना रसथी छलोछल भरेलो परमेश्वर छुं. पाठमां छे ने के-‘पोताना परमेश्वर आत्माने भूली गयो हतो तेने जाणीने’-कोईने आ वात सांभळीने एम थाय के आत्मा अत्यारे कयां परमेश्वर छे? भाई! अत्यारे जो परमेश्वरस्वरूप न होय तो पर्यायमां थशे कयांथी? आत्मा शक्तिए वीतरागमूर्ति छे तेथी तेनी पर्यायमां वीतरागता प्रगटे छे, प्रवहे छे. अहीं कहे छे-भगवान! तुं तारा परमेश्वरने भूली गयो. “अपने को भूल आप हेरान हो गया.”
अहाहा! भगवान आत्मानी सत्ता-होवापणुं परमेश्वरपणाना स्वभावथी भरेलुं छे. अनंत सामर्थ्यमंडित एक एक शक्ति एम अनंत शक्ति-गुण-स्वभावथी भरेलो परमेश्वर पोते छे. ते सर्व सामर्थ्यनो धरनार अनंतबळथी भरेलो भगवान छे. एवा पोताना परमेश्वर आत्माने पोते भूली गयो हतो तेने याद करीने जाणी ले छे. एनामां नजर करतां क्षणमां नारायण थाय एवी ताकातवाळो ए जणाय छे. भाई! शक्तिमां जो परमेश्वरपणुं न होय तो पर्यायमां कयांथी आवे? कूवामां न होय तो अवेडामां कयांथी आवे?
आत्मामां ज्ञाननुं सामर्थ्य पूर्ण छे, दर्शननुं सामर्थ्य पूर्ण छे. एवा अनंतगुणोना पूर्ण सामर्थ्यवाळो प्रभु आत्मा छे. आत्मामां प्रभुतानो गुण छे. तेना निमित्ते अनंत- गुणोमां प्रभुतानुं रूप छे. प्रभुत्व गुण बीजा गुणोमां नथी पण प्रभुतानुं रूप अनंतगुणोमां
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रहेलुं छे. जेवी रीते ज्ञानगुण छे तेमां अस्तित्वगुणनुं रूप छे. जुओ, ज्ञान छे ए पणे पोताथी छे. ज्ञान छे एम कहेतां ज्ञाननुं अस्तित्व सिद्ध थाय छे. ज्ञानगुण अने अस्तित्व गुण भिन्न छे, पण ज्ञानमां अस्तित्व गुणनुं रूप छे. एवी रीते एक एक गुणमां अनंतगुणनुं रूप छे. आवो ‘सिद्ध समान सदा पद मेरो’-जेनुं सदाय सिद्ध समान पद छे एवा पोताना सच्चिदानंद परमेश्वरने भूली गयो हतो ते ज्यां आत्मानुं भान थयुं त्यां विकार अने परने भुली गयो. पहेलां आत्मा भूली गयो हतो, हवे आत्मामां नजर करतां जे पुण्य-पापने अने परने पोताना मान्या हता तेने भूली गयो. हवे तेणे जाणी लीधुं के पोतानी शांति अने आनंदनो लाभ राग अने परमांथी नहि पण पोताना परमेश्वर आत्मामांथी मळे छे.
‘पोताना परमेश्वर आत्माने भूली गयो हतो तेने जाणीने, तेनुं श्रद्धान करीने तथा तेनुं आचरण करीने जे सम्यक् प्रकारे एक आत्माराम थयो’-अहो! अमृतचंद्राचार्यदेवे अमृत रेडयां छे. तेओश्री एक हजार वर्ष पहेलां भरतक्षेत्रमां बिराजमान हता. तेओ टीकामां कहे छे के पोताना परमेश्वरने भूली गयो हतो तेने जाणीने तेनुं श्रद्धान कर्युं. पोतानी वर्तमान ज्ञाननी पर्यायमां स्वने-पूर्णानंदना नाथ प्रभु आत्माने ज्ञेय बनावीने एने जाण्यो. अहाहा! पोताना परमेश्वरने स्वसंवेदनमां जाणीने एम श्रद्धान कर्युं के हुं एक ज्ञायकभावस्वरूप आत्मा पूर्णानंदनो नाथ छुं. जाण्या विना श्रद्धान कोनुं करे? तेथी जाणीने, श्रद्धान करीने तेनुं आचरण कर्युं अर्थात् तेमां रमणता करी.
भगवान आत्मा अनंत ज्ञान अने आनंदना सामर्थ्यवाळो परमेश्वर छे. तेने जाणीने, तेनुं श्रद्धान करीने तेमां रमणता करवी ते तेनुं आचरण-चारित्र छे. बहारमां वस्त्रनो त्याग करे, नग्नपणुं धारण करे अने पंचमहाव्रत ले तेथी कांई चारित्र प्राप्त थई जतुं नथी. अंदर भगवान आनंदनो नाथ ज्ञाता-द्रष्टा स्वरूपे बिराजे छे तेमां उग्रपणे लीनता करी ठरवुं एनुं नाम चारित्र छे अने त्यां वस्त्रनो त्याग अने नग्नपणुं सहजपणे होय ज छे. वस्त्र राखीने साधुपणुं माने ए तो मिथ्यात्व छे. जैनदर्शनमां वस्त्र सहित साधुपणुं त्रणकाळमां कदीय होतुं नथी. तथा वस्त्र छोडीने नग्न थाय परंतु आत्माना श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र रहित होय तो ए पण मिथ्याद्रष्टि छे. भले पंचमहाव्रतने पाळे, पण ए महाव्रतना विकल्पने धर्म माने तो ए मिथ्याद्रष्टि छे. पंचमहाव्रतनो विकल्प ए तो राग छे. रागमां रमे ए चारित्र केम कहेवाय? आत्माना आनंदमां रमणता करे ए चारित्र छे, धर्म छे.
भगवान आत्मामां रमे तेने आत्माराम कहीए. पहेलां राग मारो अने परज्ञेय मारा एम परभावोमां अनेकरूप थई रमतो हतो ते हवे पोताना परमेश्वर आत्माने
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जाणीने, तेनुं श्रद्धान अने तेनुं आचरण करीने सम्यक् प्रकारे एक आत्माराम थयो. ते हवे पोते पोताने केवो अनुभवे छे ते कहे छेः-
‘हुं एवो अनुभव करुं छुं के-हुं चैतन्यमात्र ज्योतिरूप आत्मा छुं के जे मारा ज अनुभवथी प्रत्यक्ष जणाय छे.’ अग्निनी ज्योति, दीवानी ज्योति होय छे ए तो जड छे. आ तो चैतन्यमात्र ज्योति एटले देखवा-जाणवाना स्वभावरूप ज्योति हुं आत्मा छुं. ते मारा पोताना ज अनुभवथी प्रत्यक्ष जणाय छे. वजन अहीं छे के मारा अनुभवथी एटले आनंदना वेदनथी हुं मारा आत्माने जाणुं छुं. परथी, विकल्पथी के निमित्तथी नहि पण मारा ज अनुभवथी हुं आत्माने प्रत्यक्ष जाणुं छुं. समयसार नाटकमां बनारसीदासे कह्युं छे ने केः-
जेमां आत्माना आनंदना रसनो स्वाद आवे तेवा वेदनथी हुं मारा आत्माने प्रत्यक्ष जाणुं छुं. आ जैन परमेश्वरनो मार्ग छे. कोईने एम लागे के शुं मार्ग आवो हशे? पण भाई! भगवान जिनेश्वरदेवनी दिव्यध्वनिमां कहेलो आ मार्ग छे. वर्तमानमां विदेहक्षेत्रमां श्री सीमंधर भगवान साक्षात् अरिहंतपदे बिराजे छे. सो इन्द्रो अने गणधरो नतमस्तक थई बहु विनयपूर्वक तेमनी दिव्यध्वनि सांभळे छे. ए दिव्यध्वनिमां भगवाने कहेलो मार्ग आ छे. बाकी दया पाळो, व्रत करो, दान करो, जात्रा करो इत्यादि कांई जैनमार्ग नथी. एवो मार्ग शुं भगवान कहेता हशे? एवुं तो कुंभारेय कहे छे. भाई! आ जैनमार्गनी-मोक्षमार्गनी वात महाभाग्यशाळी होय एने सांभळवा मळे छे.
अहीं छद्मस्थदशामां समकिती धर्मात्मा आत्माने केवो अनुभवे छे ते बतावतां कहे छे के-चैतन्यमात्र ज्योतिरूप हुं आत्मा छुं. अहाहा! त्रिकाळी ज्ञानसत्त्व, सर्वज्ञ- स्वभाव, ‘ज्ञ’भाव, एक ज्ञायकभावस्वरूप चैतन्यमात्र झळहळ ज्योति हुं छुं. राग अने पर हुं नथी. एक समयनी प्रगट पर्याय जेटलो पण हुं नथी. अने आ ज्ञायकस्वभावी आत्मा मारा ज अनुभवथी प्रत्यक्ष जणाय छे. अहाहा! आ ज्ञायकभावस्वरूप आत्मा मारा स्वसंवेदनज्ञानमां प्रत्यक्ष जणाय छे. एनो अनुभव करवामां कोई परना- निमित्तना के विकल्पना सहारानी जरूर नथी. सीधुं ज्ञान पोताने अने परने जाणे छे एवो हुं छुं.
अरे! जन्म-मरणना चोर्याशी लाख योनिना आंटा खाईने अज्ञानी मरी गयो छे. जीवती ज्योतने एणे मारी नाखी छे. आ चैतन्यमात्र ज्योतिरूप आत्मा ते हुं एम नहि स्वीकारतां एक समयनी रागादि पर्याय अने विकार ते हुं एम जेणे मान्युं तेणे चैतन्यजीवनने हणी नाख्युं छे, केम के जीवता सत्ना सत्त्वनो तेणे नकार कर्यो छे. वस्तु तो वस्तु छे, वस्तुनो नाश थतो नथी पण पर्यायमां चैतन्यजीवननो घात थाय छे.