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के-शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप भगवान आत्माने रागथी भिन्न पडी अंतर-द्रष्टि-ज्ञान- रमणतामां लेवो ते आत्मव्यवहार छे, अने शुभराग छे ए तो मनुष्य एटले संसारनो व्यवहार छे. रागनो भाव-दया, दान, व्रत, भक्ति, जात्रा इत्यादिनो गमे तेवो मंद हो पण ते आत्मानी चीज नथी. जुओ, भगवान सर्वज्ञ परमेश्वरनी दिव्यध्वनि अने आगमनो आ सिद्धांत छे. आ आगमनुं वाकय छे. श्रीगुरु आ आगमना वाकयने कहे छे.
अहीं त्रण सिद्धांत सिद्ध कर्याछे. (१) भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप होवा छतां पोताना भ्रमथी शुभविकल्पने पोतानो माने छे.
(२) चैतन्यमूर्ति भगवान आत्माने अने रागने पोताना अज्ञानथी-भ्रमथी एक मानीने अज्ञानी सूतो छे. परद्रव्यथी, कर्मथी के कुगुरु मळ्या तेथी एकत्व मानीने सूतो छे एम नथी. पोताना अज्ञानना कारणे सूतो छे.
(३) श्रीगुरु तेने वारंवार वीतरागभावनो (भेदज्ञान करवानो) आगम-वाकय द्वारा उपदेश आपे छे अने जिज्ञासु शिष्य ते वारंवार सांभळे छे, एकवार सांभळीने चाल्यो जतो नथी. देशसेवाथी, जनसेवाथी, गुरुसेवाथी, के प्रभुसेवाथी धर्म थाय एवो उपदेश ए कांई वीतरागभावनो उपदेश नथी, ए तो लौकिक वातो छे.
आत्मानुं स्वरूप वीतरागभावरूप छे. तेथी राग-विकल्प ए आत्मानी चीज नथी. आत्मा एनाथी भिन्न छे. रागमां धर्म नथी अने धर्ममां राग नथी. श्रीगुरु वारंवार आवो उपदेश आपे छे. एटले के आगमनुं वाकय आवुं होय छे अने श्रीगुरु एवा ज वाकयने कहे छे; सांभळनार शिष्य पण आम ज (ए ज भावथी) सांभळे छे. शिष्य जिज्ञासाथी वारंवार उपदेश सांभळे छे तेथी श्रीगुरु वारंवार कहे छे एम कह्युं छे. आ वात वारंवार सांभळवाथी तेने रुचि-प्रमोद जागे छे के-अहो! आ तो कयारेय नहि सांभळेली कोई अलौकिक जुदी ज वात छे. जीवनुं स्वरूप वीतराग-विज्ञानता छे एम जे वारंवार कहे ते ज गुरुनी पदवीने शोभावे छे. रागथी आत्मामां लाभ (धर्म) थाय एवुं वचन आगमनुं वाकय नथी. अने एवुं वचन (वाकय) कहेनार गुरु नहि पण अज्ञानी कुगुरु छे. अहाहा! टीकामां केटलुं बधुं सिद्ध कर्युं छे?
आ समयसार शास्त्रनी ३८ मी गाथामां आवे छे के-‘जे, अनादि मोहरूप अज्ञानथी उन्मत्तपणाने लीधे अत्यंत अप्रतिबुद्ध हतो अने विरक्त गुरुथी निरंतर समजाववामां आवतां...’ तो शुं गुरु निरंतर समजाववा नवरा थोडा होय छे? एनो अर्थ एम छे के गुरुए जे समजाव्युं तेनुं शिष्य वारंवार चिंतन करे छे. उपदेश तो छठ्ठा गुणस्थाने मुनिने विकल्प होय तो आपे, नहीं तो तरत ज सातमा गुणस्थानमां आवी जाय छे. अहीं ‘निरंतर समजाववामां आवतां’ एम कह्युं छे तेनो अर्थ ए थयो के सांभळवावाळो
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शिष्य सांभळेली वातने वारंवार विचारे छे, वारंवार एनुं ज घोलन करे छे. (आमां शिष्यनी जिज्ञासा अने रुचि सिद्ध थाय छे.)
पूर्ण वीतरागता अने सर्वज्ञताने प्राप्त ते जैन परमेश्वर छे. तेमनी दिव्यध्वनि ते आगम छे. ए दिव्यध्वनिमां एम आव्युं छे के-भगवान! तुं वीतराग-विज्ञानघन स्वरूपे छे. तारामां आनंद अने ज्ञाननी लक्ष्मी परिपूर्ण भरी पडी छे. तेमां तुं रागने एकरूप करी भेळवे छे ए तारो भ्रम छे. राग तो भगवान आत्माथी भिन्न चीज छे. माटे शीघ्र जाग अने रागथी भिन्न पडी स्वरूपमां सावधान था, आत्मद्रष्टि कर. भगवाननी वाणीमां आम आव्युं छे अने गणधरदेवोए पण जे श्रुत रच्यां एमां ए ज कह्युं छे. अहाहा! आमां देव सिद्ध कर्या, गुरु य सिद्ध कर्या, आगमनुं वाकय सिद्ध कर्युं अने रागथी भिन्न एकरूप आत्मामां द्रष्टि करतां सम्यग्दर्शन आदि धर्म थाय छे-एम धर्म पण सिद्ध कर्यो. अहो! देव, गुरु, शास्त्र अने धर्म सघळुंय सिद्ध करनारी आचार्य भगवाननी शुं गजब शैली छे! दिगंबर संतोनी बलिहारी छे के एमणे जगतमां परम सत्य टकावी राख्युं छे.
जुओ, श्रीगुरु कहे छे-शीघ्र जाग, सावधान था. एटले के अंदर झळहळज्योति चैतन्यमूर्ति भगवान छे एमां सावधान था. जे रागमां सावधानी छे ते छोडी दे, कारण के ते परद्रव्यनो भाव होवाथी तारी चीज नथी, परचीज छे. भगवान आत्मामां एवो कोई गुणशक्ति नथी के विकाररूपे परिणमे छतां तुं रागथी एक्ता माने छे ते भूल छे. आ भूल तारा उपादानथी थई छे, कोई कर्मे करावी छे एम नथी. भाई! तुं एक (ज्ञानमात्र) आत्मा रागनी साथे (भळीने) एकरूप थाय एवो छे ज नहि. एक आत्मा अने बीजो राग एम बे (द्वैत) थतां बगाड थाय छे. (एकडे एक अने बगडे बे). प्रभु! ज्यां तुं छे त्यां ते (राग) नथी अने ज्यां ते (राग) छे त्यां तुं नथी. आवा सिद्धांतना आगम-वाकयने गुरु वारंवार कहे छे अने अज्ञानी शिष्य वारंवार सांभळे छे. अहाहा! आगम कथन बहु टूंकुं अने सरळ छतां गंभीर अने महान छे. आ समयसार तो भगवाननी वाणी छे. तेमां थोडुं लख्युं छे पण घणुं करीने जाणवुं. जेम लग्न वखते लखे छे ने के थोडुं लख्युं घणुं करीने जाणजो.
हवे शिष्य ते सांभळीने समस्त (स्वपरनां) चिह्नोथी भली-भांति परीक्षा करे छे. मारुं लक्षण ज्ञान-आनंद छे अने रागनुं लक्षण जडता अने आकुळता छे. रागनुं अने मारुं लक्षण भिन्न भिन्न छे. हुं ज्ञान लक्षणे लक्षित छुं अने राग दुःख लक्षणे लक्षित छे. मोक्ष अधिकारनी २९४ मी गाथामां आवे छे के आत्मानुं लक्षण ज्ञान अने बंधनुं लक्षण राग छे. माटे बन्ने भिन्न भिन्न छे. गुरुनी वात सांभळीने अज्ञानी पोते सारी पेठे परीक्षा करे छे. (प्रमाद सेवतो नथी). गुरु कांई परीक्षा करावता नथी. पोते परीक्षा करे छे के-भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप, आनंदस्वरूप, शान्तिस्वरूप, धीरजस्वरूप छे अने
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राग अचेतनस्वरूप, दुःखस्वरूप अने आकुळतास्वरूप छे. सारी रीते परीक्षा करीने’ एम कह्युं छे. एटले उपर टपके परीक्षा करीने एम नहीं. अहो! संतोए जगतने शुं न्याल करी दीधुं छे! देव केवा, गुरु केवा, शास्त्र केवां अने धर्म केवो होय ए सघळुं सिद्ध करी बताव्युं छे.
‘समस्त चिह्नोथी’ एम केम लीधुं? के एकला स्वना ज चिह्नोथी परीक्षा करी एम नहि, पण स्व अने पर बन्नेनां चिह्नोथी भली भांति परीक्षा करी. माटे ‘समस्त चिह्नोथी सारी रीते परीक्षा करीने’ एम लीधुं छे. पोते एक आत्मा अने बीजो राग एम बन्नेनां लक्षणो-एंधाणथी परीक्षा करी. परीक्षा शुं करी? के हुं आत्मा ज्ञानलक्षणथी लक्षित त्रिकाळी ध्रुव कायम रहेवावाळी चीज अनाकुळ आनंदस्वरूप छुं अने आ राग तो अचेतन, कृत्रिम, क्षणिक अने आकुळतामय दुःखस्वरूप छे. बन्नेनां लक्षणो भिन्न छे माटे राग मारो नथी. ‘जरूर आ परभावो ज छे’-एम परीक्षा करीने जाणे छे. राग परभाव ज छे एटले कथंचित् राग आत्मानो छे अने कथंचित् परनो छे एम नहीं. शरीर, मन, वाणी, पैसा-धूळ, बायडी, छोकरां ए तो बधां कयांक दूर रही गयां, पण स्वभावनी द्रष्टिमां तो राग पण परभाव ज छे एम जणाय छे.
आ राग परभाव ज छे अने हुं परभावथी भिन्न छुं एम कयारे जाणवामां आव्युं? के ज्यारे हुं एक ज्ञानमात्र ज चैतन्यप्रकाशनो पुंज छुं एम जाणवामां आव्युं त्यारे. मारी सत्ता एक चैतन्यबिंबमय छे एवुं अस्तिथी भान थयुं तो राग-परभाव मारामां नथी एवुं नास्तिनुं ज्ञान थई जाय छे. एक ज्ञानस्वरूपने जाणतां, ज्ञानमां ज्ञान ज छे पण एमां राग नथी एम जणाई जाय छे. ज्ञायकस्वभावनी ज्यां द्रष्टि थई त्यां एमां राग नथी एम रागनी भिन्नतानुं ज्ञान थई जाय छे. आम हुं एक ज्ञानमात्र ज छुं एम जाणतां परभावथी भिन्न पडी जवाय छे. पण आ समजवानी कोने पडी छे? आ तो जेने अंतरथी गरज थाय अने रखडवानो थाक लागे एना माटे वात छे. जे परिभ्रमणथी दुःखी छे एनां दुःख मटाडवानी चीज आ छे. आ भगवान आत्मा आनंद छे अने राग दुःख ज छे, आत्मा ज्ञान छे अने राग अज्ञान छे, आत्मा जीव छे अने राग अजीव छे, आत्मा चेतनमय छे अने राग अचेतन पुद्गलमय छे-एम लक्षणो वडे बन्नेने भिन्न जाणी ज्ञानस्वभावमां एक्ता करी हुं ज्ञानमात्र छुं एम जाणे त्यां जरूर रागादि परभाव छे एनुं ज्ञान थई जाय छे.
हवे कहे छे-‘एम जाणीने ज्ञानी थयो थको सर्व परभावोने तत्काळ छोडे छे.’ एटले के रागने परभाव जाणी, स्वभावमां आवतां परभावने ते तत्काळ छोडी दे छे अर्थात् तेनो आश्रय करतो नथी. प्रत्याख्याननी वात छे ने? स्वभावनो स्वीकार करतां राग छूटी जाय छे एने राग छोडयो एम कहेवामां आवे छे. अहाहा! वीतराग सर्वज्ञ
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परमेश्वरनी वाणी अने तेना आगमनुं शुं कहेवुं? एकलुं माखण भर्युं छे. सर्वज्ञदेवे शुं कह्युं, तेमणे शुं कर्युं, आगम शुं कहे छे, गुरु शुं उपदेश आपे छे तथा सांभळनारने कयारे भेदज्ञान थाय छे ते बधुंय बताव्युं छे. बीजी रीते कहीए तो परमागमनी वाणीमां जे उपदेश छे ए ज निमित्त थाय छे, अज्ञानीनो उपदेश (भेदज्ञान थवामां) निमित्त थतो नथी.
शुं जाणीने ज्ञानी थयो? के हुं तो ज्ञानमात्र ज छुं एवी स्वद्रष्टि करतां आ रागादि परभावो ज छे एम जाणीने ज्ञानी समकिती थयो थको सर्व परभावोने तत्काळ छोडे छे. स्वरूपमां एकाग्र थतां परभावनो आश्रय मटी गयो तो परभाव छूटी गयो एनुं नाम पच्चकखाण एटले चारित्र छे. एक सेकन्डनुं पच्चकखाण अनंता जन्म- मरणने मटाडे एवुं छे. वीतराग परमेश्वरना मार्गनी आ रीत छे अने ते रीत दिगंबर धर्ममां ज छे, बीजे कयांय नथी. आ ज जैनधर्म छे, बीजो कोई जैनधर्म नथी. परंतु ज्यांसुधी आ समजमां न आवे त्यांसुधी पोतानी मान्यता खोटी छे एम केम माने? ‘ज्ञानी थयो थको सर्व परभावोने तत्काळ छोडी दे छे.’ ‘सर्व परभावो’-एम भाषा छे, सूक्ष्ममां सूक्ष्म गुण-गुणीना भेदरूप विकल्पो जे परभाव छे तेने पण तत्काळ छोडी दे छे, अर्थात् ते (स्थिरताना काळे) छूटी जाय छे. एनुं नाम भगवान रागनो त्याग कहे छे. ज्ञायकस्वरूप भगवान आत्मा छे एवो बोध थयो अने पोते एमां स्थिर थयो तो राग छूटी गयो एनुं नाम भगवान पच्चकखाण कहे छे.
ज्यांसुधी परवस्तुने भूलथी पोतानी जाणे त्यांसुधी ज ममत्व रहे; अने ज्यारे यथार्थ ज्ञान थवाथी परवस्तुने पारकी जाणे त्यारे बीजानी वस्तुमां ममत्व शानुं रहे? अर्थात् न रहे ए प्रसिद्ध छे. जेम लग्न प्रसंग होय अने पोतानी स्थिति साधारण होय तो कोई अन्य गृहस्थने त्यांथी दागीनो लई आवीने पहेरे छे. पण ते समये पोते शुं समजे छे? के आ मारो दागीनो नथी. बे दिवसमां पाछो आपवानो छे, केमके ममत्व नथी. तेम रागादिने परपणे जाण्या एटले पोतानी चीज नथी एम जाणी तेने छोडी दे छे.
हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘अपरभावत्यागद्रष्टांतद्रष्टिः’ आ परभावना त्यागना द्रष्टांतनी द्रष्टि ‘अनवम्’ जूनी न थाय ए रीते ‘अत्यन्तवेगात् यावत् न अवतरति’ अत्यंत वेगथी ज्यांसुधी प्रवृत्तिने पामे नहि-शुं कह्युं ए? जेम वस्त्र पर छे अने तेने भूलथी ओढीने सूतो छे, पण ज्यां ख्यालमां आव्युं के आ वस्त्र पर छे त्यां वस्त्र छूटी गयुं, अभिप्रायमांथी वस्त्र जुदुं पडी
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गयुं. वस्त्रमां ममत्व-मारापणुं रह्युं नहि. एम आ आत्मा अने राग जे अपरभाव एटले परभाव छे-ए बन्नेनां लक्षणो जुदां छे अर्थात् आत्मा ज्ञान लक्षणथी लक्षित छे अने राग बंध लक्षणथी लक्षित छे एटली वात ज्यां सांभळी त्यां कहे छे के शिष्यने ए वात ख्यालमां आवी गई के आत्मा तो रागरहित छे अने ज्यां रागमां जोडायो नहि अने अंदरमां गयो त्यां ‘अन्यदीयैः सकलभावैः विमुक्ता’ अन्य सकळ भावोथी रहित ‘स्वयम् इयम् अनुभूतिः’ पोते ज आ अनुभूति ‘झटिति आविर्बभूव’ तत्काळ प्रगट थई गई. सिद्धांत समजवा द्रष्टांत वेगथी प्रवृत्तिने पामे नहि एटले के उपयोग द्रष्टांतने समजवामां जोडाय ते पहेलां ज तत्काळ सकल परभावोथी रहित पोते ज अनुभूति प्रगट थई गई. अर्थात् बीजी रीते कहीए तो, “आ परभावना त्यागनां द्रष्टांतनी द्रष्टि जूनी न थाय ए रीते एटले के समयांतर आंतरो पडया विना, अत्यंत वेगथी आ अनुभूति तो प्रगट थई गई. प्रथम मिथ्यात्वनो व्यय थयो अने पछी सम्यग्दर्शननी उत्पत्ति थई एम नथी, पण स्वभाव तरफ वळ्यो त्यां तो अन्यभावोथी रहित अनुभूति थई गई. जेम कोई माणस आवे ते ज वखते काम पुरुं थाय. त्यां एम कहेवाय के, ‘तमे न आव्या त्यार पहेलां तो आ काम थई गयुं.’ खरेखर तो आव्यो छे ने काम थयुं छे. बन्ने साथे छे. पहेलां पछी नथी. तेम अहीं पण पहेलां-पछी नथी. पण पहेलां पछीनी वात करी समजावेल छे. पण परभावनां त्यागनी द्रष्टि पहेलां परभावथी रहित अनुभूति थई एम नथी. परभावोनां त्यागनी द्रष्टि एटले ज्ञायकस्वभावनी ज्यां द्रष्टि थई त्यां ज परभावरहित आत्मानी अनुभूति थई गई छे. बन्ने साथे ज छे, काळभेद नथी. द्रष्टांतमां पहेलां पछी कहेवाय. पण त्यां ते प्रमाणे काळभेद न समजवो.”
दया, दान, व्रत, भक्ति आदि लाख क्रियाओ करे पण ए बधो विकल्प छे, ए बंधनुं लक्षण छे. भगवान आत्मा ज्ञानलक्षणथी लक्षित छे. रागनो विकल्प आकुळतामय छे अने बंधनुं लक्षण छे. निराकुळ ज्ञानस्वभावी आत्मानो ए भाव नथी आटलुं सांभळतां आ राग परभाव छे एवो पर (राग) तरफनो विकल्प ऊठे ते पहेलां ज्ञान ज्ञानमां स्थिर थई गयुं अने निर्विकल्प अनुभूति प्रगट थई गई. हुं अनाकुळ चिद्घन ज्ञानानंदस्वरूप छुं एवुं ज्यां द्रष्टिमां जोर आव्युं त्यां तत्काळ अनुभूति प्रगट थई गई, भगवान आत्माना आनंदनो प्रत्यक्ष स्वाद आव्यो.
आचार्य भगवान, पारका वस्त्रनी जेम आ रागादि परभाव छे एटलुं ज्यां समजावे त्यां आत्मानो निर्णय थई गयो. अन्यभावोथी रहित साक्षात् अनुभूति पोते ज प्रगट थई गई; द्रष्टांत समजवानी पण पछी एने जरूर न रही.
लोको कहे छे के व्यवहारथी लाभ थाय एम कहो, केम के भगवान जिनेन्द्रदेवे बे नयथी वस्तुनी प्ररूपणा करी छे. बे नयोना आश्रये सर्वस्व कहेवानी तेमनी पद्धति छे.
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नियमसारमां आवे छे के-हुं ते वाणीने वंदुं छुं के जे बे नयोथी वस्तुने कहे छे. (बे नयोने ग्रहण करवानुं कहे छे.)
बे नयो छे, बे नयोना बे विषयो पण छे अने शास्त्रोमां कथन पण बे नयथी आवे छे. परंतु तेमांथी एक नय (आश्रयनी अपेक्षा) हेय छे अने एक नय (आश्रयनी अपेक्षा) उपादेय छे. बन्ने नय परस्पर विरुद्ध छे. द्रव्यनयथी पर्यायनय अने पर्यायनयथी द्रव्यनय विरुद्ध छे. निश्चयनयथी व्यवहारनय अने व्यवहारनयथी निश्चयनय परस्पर विरुद्ध छे. बेमांथी निश्चयनय एक आश्रय करवा योग्य छे, ज्यारे व्यवहारनय हेयपणे जाणवा लायक छे. आ रीते बे नय परस्पर विरुद्ध छे छतां व्यवहारथी निश्चय माने तो बे नय कयां मान्या? भाई! वादविवादथी पार आवे एवुं नथी. वस्तुस्वरूप ज आवुं छे.
अहीं कहे छे के व्यवहारनयनो विषय राग छे-पर्याय छे अने अभेद निर्विकल्प ध्रुव वस्तु छे ते निश्चयनयनो विषय छे. एम बे नयोना बे विषयो छे एवा विचारमां विकल्पनी प्रवृत्तिमां जोडायो नहि त्यां तो आ बाजु निश्चयस्वरूपमां ढळतां ज आत्मानो साक्षात्कार थई गयो.
बीजी वात कळशटीकामां आवे छे के-जे काळे जीवना मोहरागद्वेषरूप अशुद्ध परिणमनरूप संस्कार छूटी जाय छे ते ज काळे तेने अनुभव छे. शुद्ध चेतनामात्रनो आस्वाद आव्या विना अशुद्ध भावरूप परिणाम छूटता नथी अने अशुद्ध संस्कार छूटया विना शुद्ध स्वरूपनो अनुभव थतो नथी. एटले के अशुद्धता छूटे अने पछी शुद्धता थाय के शुद्धता थाय अने पछी अशुद्धता छूटे एम नथी. जे कांई छे ते एक ज काळ, एक ज वस्तु, एक ज ज्ञान अने एक ज स्वाद छे.
अहाहा! आ अशुद्धपणुं छे अने आ वस्तु त्रिकाळ शुद्ध छे एवो जे विकल्प ते ऊठे नहि त्यां तो आ बाजु अंदर शुद्धमां ढळी जाय छे अने शुद्ध आनंदनो अनुभव थाय छे; ए ज काळे अशुद्ध परिणामनो व्यय थाय छे. अशुद्ध परिणामनो व्यय अने शुद्ध आनंदनो अनुभव एक ज काळे-समकाळे छे. आ तो ठेठ मूळनी वात छे. आत्मा आनंदना स्वादने तत्काळ पाम्यो एटले के आ राग पर छे अने आ (आत्मा) स्व छे एवी प्रवृत्ति थवा पहेलां तत्काळ आनंदना स्वादने पाम्यो. अहाहा! रागथी-विकल्पथी खसीने अंदर ढळी जवुं ए ज सत्य पुरुषार्थ छे.
(एक प्रकार एवो पण होय छे के) पर्याय तरफना विकल्प आदि होय छे. बेना भेदनो विकल्प पण ऊठे छे. कळशटीकामां आ पण कह्युं छे के आवुं प्रथम विकल्परूप भेदज्ञान आवे छे. ‘राग जुदो अने हुं जुदो’ ए विकल्प त्यां होय छे. पण अहीं तो
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कहे छे के-‘आ हुं नहीं अने आ हुं’ एवो विकल्प ऊठे ते पहेलां तो अंतरमां ढळी गयो अने अनुभूति प्रगट करी लीधी. वस्तु तो वस्तु छे, पण वस्तुनो आश्रय लई अनुभूति प्रगट करी लीधी. राग पर छे माटे भिन्न छे एवुं लक्ष पण न रह्युं अने अनुभूति प्रगट थई एने प्रत्याख्यान कहे छे. अहीं तो प्रत्याख्याननुं स्वरूप समजाववुं छे ने? वात शरूथी अनुभूतिथी उपाडी छे. ज्यारे ज्यारे आचार्योए प्रत्याख्यान के चारित्रनी वात करी छे त्यारे पहेलेथी अनुभूतिथी ज वात करी छे. समयसारमां पाछळ ४९ भंग आवे छे तेमां पण अनुभवथी ज उपाडयुं छे.
विकल्पथी-रागथी कयारे शून्य थवाय? के ज्यारे अस्ति महाप्रभु छे तेना उपर द्रष्टि पडे त्यारे. निर्विकल्पस्वरूप अस्तित्व उपर द्रष्टि पडवाथी विकल्पथी शून्य थवाय छे. पोतानुं अस्तित्व केटलुं, केवुं ए वातनी खबर न होय तो विकल्पथी शून्य केम थवाय? उपरना पगथिया उपर पग मूके तो नीचेना पगथिया उपरथी पग उपाडी शकाय. पण जो उपर पग मूकया विना नीचेनो पग उपाडे तो नीचे पडे. तेम भगवान आत्मा जे महाअस्तिरूप छे तेनी उपर द्रष्टि पडतां ‘आ राग नथी’ तेवा नास्तिना पण विकल्पनी जरूर नथी (त्यारे पोते विकल्पथी शून्य-विकल्परहित थई जाय छे), केमके स्वयं निर्विकल्प अनुभूति प्रगट थई जाय छे.
वस्तु आवी छे, भाई! गाथा ३८ मां आवे छे के-पोताना परमेश्वरने, मूठीमां राखेलुं सुवर्ण कोई भूली गयो होय ते फरीने याद करीने सुवर्णने देखे ए न्याये तेने जाणीने, तेनुं श्रद्धान करीने तथा तेनुं आचरण करीने ते सम्यक् प्रकारे एक आत्माराम थयो. राग परनो छे ए लक्ष त्यां रहेतुं नथी. बेपणुं ज्यां न थाय त्यां एकपणामां आवी गयो छे. अहाहा! आ शुभभाव छे ए मारामां नथी एवा विकल्पने पण त्यां अवकाश नथी. प्रभु! तारी परमेश्वरता एटली मोटी छे के एना अनुभव माटे परनुं लक्ष करीने अनुभव थाय एवो तुं नथी. आ राग भिन्न छे एवुं लक्ष करीने भिन्न पडे एवुं नथी एम कहे छे.
‘स्वयम् इयम्’ एम शब्द पडयो छे ने? एटले के आ अनुभूति परना त्यागनी अपेक्षा विना पोते ज प्रगट थई गई. तेने परना त्यागनी अपेक्षा नथी. गाथा ३४ मां ए वात आवी गई छे के पोताने रागना त्यागनुं र्क्तापणुं ए नाममात्र कथन छे, परमार्थ नथी. रागना करवापणानी वात तो दूर रही, रागनो नाशनो र्क्ता पण नाममात्र छे, व्यवहारमात्र छे, वस्तुमां नथी. अहो! वस्तुने रजु करनारी आचार्यनी कोई गजब शैली छे!
आ परभावना त्यागनुं जे द्रष्टांत कह्युं एना पर द्रष्टि पडे ते पहेलां समस्त अन्यभावोथी रहित पोताना स्वरूपनुं अनुभवन तत्काळ थई गयुं. भगवान आत्मा पूर्णानंदनो नाथ
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छे. एना तरफनो ज्यां झुकाव थयो त्यां तो तरत ज अनुभूति प्रगट थई गई. आनुं नाम पच्चकखाण छे.
भाई! जिनेन्द्रनो मार्ग अलौकिक छे. एनी प्राप्ति स्वभावथी थाय छे. एटले के ते स्वभावथी जणाय तेवो छे.
प्रश्नः– व्रत, दया, दान आदि शुभराग तेनुं साधन खरुं के नहि?
उत्तरः– ना. रागथी भिन्न पडी अंदरमां प्रज्ञाछीणी मारवी ए ज एनुं साधन छे. प्रज्ञा वडे अंदरमां जवुं ए तेनुं साधन छे. राग आदि कोई अन्य साधन नथी. ए ज वात अहीं कही छे के ‘स्वयम् इयम् अनुभूतिः आविर्बभूव’ आत्मामां, करण कहो के साधन कहो-ए नामनी शक्ति त्रिकाळ रहेली छे. गुणी एवा आत्मानो आश्रय करतां ए पोते ज (निर्मळ) पर्यायनुं साधन थई जाय छे.
संसारमां पण कहे छे ने के तमे आव्या ते पहेलां ज आ काम थई गयुं. एम अहीं कहे छे के-भगवान आत्माने परभावना त्यागनुं जे द्रष्टांत ते पर द्रष्टि पडे ते पहेलां ज एटले के द्रष्टांत पर लक्ष जाय ते पहेलां ज अंदरमां उतरी गयो. ज्यां जवुं हतुं त्यां जोर वधी गयुं. एमां परना-रागना त्यागनी पण अपेक्षा रही नहि. आ ज्यां जवुं हतुं त्यां जोर वधी गयुं. एमां परना-रागना त्यागनी पण अपेक्षा रही नहि. आ राग पर छे एम समजवा माटे त्यां द्रष्टांतनुं पण काम रह्युं नहि. ‘झटिति’ एम कह्युं छे ने? परभावना जे द्रष्टांत कह्युं ए उपर द्रष्टि पडे ते पहेलां समस्त अन्यभावोथी रहित पोताना स्वरूपनुं तत्काळ अनुभवन थई गयुं. कारण के ए प्रसिद्ध छे के वस्तुने परनी जाण्या पछी तेमां लक्ष रहेतुं नथी. जे चीज पर जाणी एना पर ममत्व नहि रहेवाथी एनुं लक्ष रहेतुं नथी. भाई! वस्तु आवी छे. आ सिवाय बीजी कोई रीते सोंघुं करवा जशे तो मोघुं (दुष्प्राप्य) पडशे. दुनिया व्रत, नियम, दया, दान, उपवासादि क्रियाकांड वडे धर्म माने छे, मनावे छे. पण एम सोंघुं करवा जईश तो छेतराई जईश. जिंदगी चाली जशे. (परिभ्रमण ऊभुं रहेशे).
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अथ कथमनुभूतेः परभावविवेको भूत इत्याशङ्कय भावकभावविवेकप्रकारमाह–
तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति।। ३६ ।।
तं मोहनिर्ममत्वं समयस्य विज्ञायका ब्रुवन्ति।। ३६ ।।
हवे, ‘आ अनुभूतिथी परभावनुं भेदज्ञान केवा प्रकारे थयुं?’ एवी आशंका करीने, प्रथम तो जे भावकभाव-मोहकर्मना उदयरूप, भाव, तेना भेदज्ञाननो प्रकार कहे छेः-
–ए ज्ञानने, ज्ञायक समयना मोहनिर्ममता कहे. ३६.
*गाथार्थः– [बुध्यते] एम जाणे के [मोहः मम कः अपि नास्ति] ‘मोह मारो कांई पण संबंधी नथी, [एकः उपयोगः एव अहम्] एक उपयोग छे ते ज हुं छुं’- [तं] एवुं जे जाणवुं तेने [समयस्य] सिद्धांतना अथवा स्वपरना स्वरूपना [विज्ञायकाः] जाणनारा [मोहनिर्ममत्वं] मोहथी निर्ममत्व [ब्रुवन्ति] कहे छे.
टीकाः– निश्चयथी, (आ मारा अनुभवमां) फळ देवाना सामर्थ्यथी प्रगट थईने भावकरूप थतुं जे पुद्गलद्रव्य तेना वडे रचायेलो जे मोह ते मारो कांइ पण लागतोवळगतो नथी, कारण के टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावभावनुं परमार्थे परना भाव वडे *भाववुं अशकय छे. वळी अहीं स्वयमेव, विश्वने (समस्त वस्तुओने) प्रकाशवामां चतुर अने विकासरूप एवी जेनी निरंतर शाश्वती प्रतापसंपदा छे एवा चैतन्यशकितमात्र स्वभावभाव वडे, भगवान आत्मा ज जाणे छे के-परमार्थे हुं एक छुं तेथी, जोके समस्त द्रव्योना परस्पर साधारण अवगाहनुं (-एकक्षेत्रावगाहनुं) निवारण करवुं अशकय होवाथी मारो ____________________________________________________________ * आ गाथानो अर्थ आम पण थाय छेः-‘जराय मोह मारो नथी हुं एक छुं’ एवुं
प्रत्ये निर्मम (ममता विनानो) कहे छे
× भाववुं = बनाववुं; भाव्यरूप करवुं.
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चेतये स्वयमहं स्वमिहैकम्।
नास्ति नास्ति मम कश्चन मोहः
शुद्धचिद्धनमहोनिधिरस्मि।। ३० ।।
____________________________________________________________
आत्मा ने जड, शिखंडनी जेम, एकमेक थई रह्यां छे तोपण, शिखंडनी माफक, स्पष्ट अनुभवमां आवता स्वादना भेदने लीधे, हुं मोह प्रति निर्मम ज छुं; कारण के सदाय पोताना एकपणामां प्राप्त होवाथी समय (आत्मपदार्थ अथवा दरेक पदार्थ) एवो ने एवो ज स्थित रहे छे. (दहीं ने खांड मेळववाथी शिखंड थाय छे तेमां दहीं ने खांड एक जेवां मालूम पडे छे तोपण प्रगटरूप खाटा-मीठा स्वादना भेदथी जुदां जुदां जणाय छे; तेवी रीते द्रव्योना लक्षणभेदथी जड-चेतनना जुदा जुदा स्वादने लीधे जणाय छे के मोहकर्मना उद्रयनो स्वाद रागादिक छे ते चैतन्यना निजस्वभावना स्वादथी जुदो ज छे.) आ रीते भावकभाव जे मोहनो उद्रय तेनाथी भेदज्ञान थयुं.
भावार्थः– आ मोहकर्म छे ते जड पुद्गलद्रव्य छे; तेनो उद्रय कलुष (मलिन) भावरूप छे; ते भाव पण, मोहकर्मनो भाव होवाथी, पुद्गलनो ज विकार छे. आ भावकनो भाव छे ते ज्यारे आ चैतन्यना उपयोगना अनुभवमां आवे छे त्यारे उपयोग पण विकारी थई रागादिरूप मलिन देखाय छे. ज्यारे तेनुं भेदज्ञान थाय के ‘चैतन्यनी शक्तिनी व्यक्ति तो ज्ञानदर्शनोपयोगमात्र छे अने आ कलुषता राग- द्वेषमोहरूप छे ते द्रव्यकर्मरूप जड पुद्गलद्रव्यनी छे’, त्यारे भावकभाव जे द्रव्यकर्मरूप मोहनो भाव तेनाथी अवश्य भेदज्ञान थाय छे अने आत्मा अवश्य पोताना चैतन्यना अनुभवरूप स्थित थाय छे.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [इह] आ लोकमां [अहं] हुं [स्वयं] पोतानी ज [एकं स्वं] पोताना एक आत्मस्वरूपने [चेतये] अनुभवुं छुं [सर्वतः स्व–रस–निर्भर–भावं] के जे स्वरूप सर्वतः पोताना निजरसरूप चैतन्यना परिणमनथी पूर्ण भरेला भाववाळुं छे; माटे [मोहः] आ मोह [मम] मारो [कश्चन नास्ति नास्ति] कांई पण लागतोवळगतो नथी अर्थात् एने अने मारे कांई पण नातो नथी. [शुद्ध–चिद्–घन–महः–निधिः अस्मि] हुं तो शुद्ध चैतन्यना समूहरूप तेजःपुंजनो निधि छुं. (भावकभावना भेद वडे आवुं अनुभव करे.) ३०.
एवी ज रीते, गाथामां ‘मोह’ पद छे तेने बदली, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन-ए
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सोळ पदनां जुदां जुदां सोळ गाथासूत्रो व्याख्यानरूप करवां अने आ उपदेशथी बीजां पण विचारवां.
हवे शिष्य आशंका करीने पूछे छे-आशंका एटले आपनी वात यथार्थ नथी एम शंकाशील थईने नहि पण आप शुं कहो छो ए पोतानी समजमां बेठुं नथी तेथी समजवा माटेना प्रश्नने आशंका कहे छे. एम आशंका करीने पूछे छे के-आ अनुभूतिथी परभावनुं भेदज्ञान केवा प्रकारे थयुं? तेवी आशंकाना उत्तररूपे प्रथम, जे भावकभाव- मोहकर्मना उद्रयरूप भाव, तेना भेद्रज्ञाननो प्रकार कहे छे.
निश्चयथी एटले खरेखर फळ देवाना सामर्थ्यथी प्रगट थईने भावकरूप थतो जे कर्मनो उदय, तेना वडे रचायेलो जे भाव्यरूप मोह ते मारो कांई पण लागतो-वळगतो नथी. कर्मना निमित्तथी रचाता मोहभावने अने मारे कांई पण संबंध नथी, केम के हुं ज्ञायकभाव छुं अने रागभाव वडे मारुं थवुं ए अशकय छे. मारामां मोह छे ज नहि. हुं तो निर्मोही भगवान आत्मा छुं. १४ प्रकारना अभ्यंतर परिग्रह-मिथ्यात्व, ४ कषाय अने ९ नोकषाय तथा १० प्रकारना बाह्य परिग्रह-क्षेत्र, वास्तु, सोनुं, चांदी, धन, धान्य, दास, दासी, वस्त्र अने वासण-ए सर्व मारामां छे ज नहि. तेम ज बाह्य परिग्रह प्रत्येनो राग पण मारामां नथी. परिग्रह प्रत्येनी वृत्ति ऊठे छे ते मारा स्वरूपमां छे ज नहि. जेने अभ्यंतर परिग्रहनो त्याग छे तेने बाह्य परिग्रहनो त्याग असद्भूत व्यवहारनये कहेवाय छे. जुओ, वस्त्र अने वासण ए बाह्य परिग्रहमां कह्यां छे. एटले वस्त्र अने पात्र सर्व परिग्रहत्यागी निर्ग्रंथ मुनिने होय ज नहि.
अहीं कहे छे के पुद्गलद्रव्य भावकरूपे थईने मोहने रचे छे. अहीं जे मोहनी वात छे ते चारित्रमोहनी वात छे. समक्ति पछीनी वात छे, मिथ्यात्वनी वात नथी. पर तरफना वलणवाळो जे भाव-रागद्वेष छे ते मोह छे. ते मोह मारो कांई पण संबंधी नथी. पर तरफनी सावधानीनो जे भाव छे ते मारो नथी. मारा स्वभाव तरफनी सावधानीनो जे भाव छे ते मारो छे. ज्ञानानंद सहजानंद प्रभु आत्माने अने पर तरफना सावधानीना भावने कांई लागतुं-वळगतुं नथी. भावक मोहकर्म अने तेनी तरफना वलणवाळो जे भाव छे तेनी साथे मारे कांई पण संबंध नथी, कारण के एक चैतन्यधातु ज्ञायकस्वभावभावनुं परमार्थे परना भाव वडे थवुं-भाव्यरूप थवुं अशकय छे.
धर्मी जीव आगळ वधीने पच्चकखाण करे छे एनी आ वात छे. जड मोहकर्म ते भावक छे अने आत्मानो उपयोग जे पर तरफना वलणवाळो थईने रागद्वेषभावयुक्त परिणमे छे ए तेनुं भाव्य छे. पुद्गलद्रव्य, फळ देवाना सामर्थ्यथी प्रगट थईने भावकरूपे थाय छे त्यारे तेना निमित्ते पर तरफनो विकारीभाव-मोह रचाय छे. अहीं कहे छे के आ मोह मारो कांईपण संबंधी नथी कारण के हुं तो ज्ञानदर्शनशक्तिनी व्यक्तता रूप
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ज्ञानदर्शनउपयोगस्वरूप छुं. जेम कर्म भावकरूपे थाय छे तो मोह रचाय छे तेम हुं ज्ञानदर्शनउपयोगस्वभावी तत्त्व छुं, जेथी मारी पर्यायमां ज्ञानदर्शनशक्तिनी व्यक्तता थाय; ए व्यक्ततारूप उपयोग ते मारी चीज छे परंतु मोह ए मारी चीज नथी. कर्मना निमित्ते थता रागद्वेषना परिणाम जे उपयोगमां झळके छे ते हुं नथी, कारण के टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावभाव शुद्धचैतन्यउपयोगस्वभावी वस्तुनुं विकाररूप भाव्यपणे थवुं अशकय छे.
हुं तो चैतन्यशक्तिस्वभाववाळुं तत्त्व छुं. तेथी मारो जे विकास थाय ए पण जाणवा-देखवाना परिणामरूपे ज थाय छे. भावककर्मना निमित्ते जे विकार थाय ए मारो विकास नहि. पर्यायमां पण विकार न थाय एवुं मारुं स्वरूप छे. शक्तिरूपे तो आत्मा ज्ञायक छे ज. परंतु तेथी व्यक्तता अने प्रगटता थाय ते पण ज्ञानदर्शनउपयोगस्वरूपे ज थाय. राग-द्वेषना विकाररूपे थवुं एवी शक्ति तो नथी पण तेवी पर्यायनी व्यक्तता- प्रगटता थाय ए पण नथी. अहाहा! जीव अधिकारनी छेल्ली गाथाओ छे ने? तेथी जीवथी अजीवने तद्न जुदो पाडे छे. चैतन्यशक्तिनी प्रगटतानुं विकाररूप थवुं अशकय छे.
भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्य उपयोगस्वरूप छे, अने तेनी व्यक्तता-प्रगटता जाणवा-देखवारूपे ज होय छे. एनी शक्तिमांथी विकारना परिणाम प्रगटे ए अशकय छे. आवो भगवान आत्मा जेनी निरंतर शाश्वती संपदा छे ते, चैतन्यशक्तिमात्र स्वभावभाव वडे अर्थात् जाणवा-देखवाना स्वभावभाव वडे जाणे छे के-हुं एक छुं. जाणवा-देखवाना स्वभावे हुं एक छुं. जुओ, आमां प्रभुत्वशक्ति लीधी छे. आत्मामां एक प्रभुत्वशक्ति छे जे वडे ते अखंड प्रताप वडे स्वतंत्रपणे शोभायमान छे. आवा आत्मानी विश्वने प्रकाशवामां चतुर, विकासरूप, निरंतर शाश्वती संपदा छे. आ बाह्य मकान-कुटुंब आदि संपदा आत्मानी नथी, ए तो जड छे. अहीं कहे छे के भगवान आत्मा चैतन्यशक्तिना स्वभाव-सामार्थ्य वडे एम जाणे छे के परमार्थे हुं एक छुं. राग अने हुं एम बे थईने एक छुं एम नहि, पण रागथी भिन्न हुं तो चैतन्यशक्तिमात्र एक छुं.
तेथी जो के मारो चैतन्यस्वभाव अने जगतनां बीजां द्रव्यो एक क्षेत्रे रहे छे तोपण भिन्नभिन्न छे. परस्पर साधारण अवगाहनुं निवारण करवुं अशकय होवाथी एक ज क्षेत्रे होवा छतां आत्मा अने जड, शिखंडनी जेम, भिन्न छे. शिखंडमां जेम खटाश अने मीठाश एक क्षेत्रमां रहेली छे छतां खटाश अने मीठाशनो स्वाद तद्न भिन्न छे तेम आत्मा अने जड एकमेक (जेवा) थई रह्या छे तोपण स्पष्ट अनुभवमां आवता स्वादभेदने लीधे भिन्न छे. भगवान आत्मानो स्वाद अनाकुळ आनंदरूप अने कर्मना फळनो-रागनो स्वाद दुःखरूप छे. एम बन्ने भिन्नभिन्न छे.
भगवान आत्मा अनाकुळ आनंदना स्वभावथी भरेलो प्रभु छे. तेनी अनाकुळ आनंदना वेदनवाळी जे पर्याय प्रगट थाय छे तेनो स्वाद रागना स्वादथी तद्न जुदो छे.
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कोई लोको एम माने छे के साकरनो अने अफीणनो स्वाद आवे छे. परंतु ए तो जड चीज छे. तेनो स्वाद कोईने आवतो नथी. परंतु ते तरफनुं लक्ष करीने आ ठीक अने आ अठीक एम जे रागद्वेष करे छे ए रागद्वेषनो स्वाद आवे छे, तेनुं वेदन थाय छे. अहीं कहे छे के ए स्वाद पण, ज्ञानस्वभावी अनाकुळ आनंदना स्वभावनो सागर प्रभु आत्मा छे तेनी व्यक्त दशाना स्वादथी भिन्न छे. आत्मा अने जड, शिखंडनी जेम एकमेक थई रह्या छे तोपण स्वादभेदने लीधे भिन्न छे. जेम शिखंडमां मीठो अने खाटो स्वाद भिन्नभिन्न छे तेम जड अने आत्मानो स्वाद अनुभवमां स्पष्ट भिन्न जणाय छे. ज्ञानीनी वस्तुना स्वभाव उपर द्रष्टि होवाथी, वस्तुशक्तिनी व्यक्तता जे आनंद प्रगटे छे ते स्वादमां जणाय छे. तेथी कहे छे के-आम स्वाद भेदने लीधे हुं मोह प्रति निर्मम छुं.
अहीं मोहनी वात करी छे तेमां पर तरफना रागादि बधाय भावो आवी जाय छे. तेनो स्वाद कलुषित छे, ज्यारे भगवान आत्मानो स्वाद आनंद छे, जे कलुषितताथी भिन्न छे. तेथी मोह प्रत्ये हुं निर्मम ज छुं. कारण के सदाय पोताना एकपणामां प्राप्त होवाथी हुं तो एकरूप ज्ञायक छुं. ज्ञायकपणाना लीधे ज्ञानपणाना परिणमन सहित एवो ने एवो सदाय स्थित छुं. अहाहा! कर्मना निमित्तथी-भावकथी जे रागादि भाव्य थाय छे तेनो स्वाद अने ज्ञायकस्वभावनी परिणतिमां जे आनंद आवे छे तेनो स्वाद भिन्न छे एम भेदज्ञान थवाथी हुं तो एकरूप-ज्ञायकरूपे ज छुं. आ बीजो स्वाद छे ए बीजानो छे, मारो नथी एम जणाय छे.
दहीं अने खांड मेळववाथी शिखंड थाय छे. एमां दहीं अने खांड एकमेक जेवां मालुम पडे छे तोपण प्रगट खाटा-मीठा स्वादना भेदथी बन्ने जुदां जुदां जणाय छे. तेवी रीते द्रव्यकर्मना उदयनो स्वाद जे रागादि छे ते, भगवान ज्ञायकस्वभावनी जे परिणति प्रगट थाय छे तेनाथी स्वादभेदने लीधे भिन्न छे. द्रव्यकर्म जे जड छे ते भावक छे अने तेना तरफनो भाव्यरूप जे राग छे तेना स्वादनी जात आत्माथी भिन्न छे. रागनो स्वाद कलुषित आकुळतामय छे अने भगवान आत्मानो स्वाद अनाकुळ आनंद छे. आम स्वादभेदथी-लक्षणभेदथी भेदज्ञान करवुं ए धर्मधारा छे, धर्म छे. कर्मना संबंधे जेटली अस्थिरता-व्याकुळता थाय छे ते मारी चीज नथी, केम के हुं तो ज्ञायकस्वभावी चैतन्यमात्र छुं. मोह-रागादि अने ज्ञायकभाव एम बेपणे हुं नथी. हुं तो एक ज्ञायकमात्र ज छुं, एकरूप ज छुं एम जे आत्माना उपयोगथी जाणे छे तेने समयना जाणनाराओ मोहनिर्मम कहे छे. अंतःस्वभावनी सावधानीना उपयोगमां रागनो स्वाद आवतो नथी तेथी तेना प्रत्ये निर्ममत्व थाय छे, ते ज्ञानी रागमां जोडातो नथी. अहीं परिपूर्ण स्थिरता थई तद्न जुदो पडी पूर्ण वीतराग न थाय त्यांसुधीनी वात लीधी छे.
चैतन्यदळ जे वस्तु आखी छे, जे जीवतर शक्ति, चैतन्यशक्ति, सुखशक्ति,
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वीर्यशक्ति इत्यादि अनंत शक्तिओना सामर्थ्यवाळुं तत्त्व छे तेनो ज्यां अंतर-सन्मुख थई स्वीकार कर्यो त्यां आनंदनी धारा पर्यायमां व्यक्त थई. हुं तो उपयोगमय छुं, जे रागादि जणाय छे, भावकनुं भाव्य थाय छे ते हुं नथी. जेम धूळधोयो धूळने, बंगडीना कटकाने, पित्तळनी कणीने अने सोनानी कणीने हळवा अने भारे वजनना लक्षणभेदथी भिन्न करे छे तेम आ भगवान आत्मा, राग अने स्वभावने स्वादभेदथी भिन्न जाणी, ज्ञायकस्वभावनो आश्रय करी रागने भिन्न पाडे छे. पूर्ण आनंदनुं धाम एवा स्वभावनी सत्तानो स्वीकार होवाथी ज्ञानी, आनंदना स्वादने अने रागना स्वादने व्यक्त पर्यायमां भिन्न जाणे छे. भाई! धर्म बहु सूक्ष्म छे, अपूर्व छे. अनंतकाळमां अनेक क्रियाकांड-भक्ति, व्रत, तप, पूजा इत्यादि कर्यां., पण आ कर्युं नथी. आनो उपदेश पण विरल छे.
आम राग तरफना वलणने छोडीने चैतन्यस्वभावना सामर्थ्य प्रति वलण करतां शक्तिमांथी आनंदनी धारा स्वादमां आवे छे. ते रागथी जुदी-भिन्न छे. राग तो जड अचेतन छे. तेमां चैतन्यना-ज्ञानना किरणनो अंश नथी. रागनो जे स्वाद छे ते कलुषित छे अने भगवान चैतन्यनो स्वाद आनंद छे. आम स्वादभेदना कारणे बन्ने जुदा पडे छे. जीवने तथा अजीवने तद्न जुदा पाडवा छे ने? मोहकर्मना उदयनो स्वाद रागादि छे. ते चैतन्यना स्वादथी तद्न जुदो जणाय छे. आ रीते भावकनो भाव जे मोहनो उद्रय छे तेनाथी भेदज्ञान थयुं. एटले के कर्मना निमित्ते जे रागभाव थतो हतो तेने लक्षणभेदथी भिन्न जाणी भेदज्ञानपूर्वक आत्माना स्वभावथी जुदो पाडयो.
आ मोहकर्म छे ते जड पुद्गलद्रव्य छे; अने तेनो जे उद्रय आवे छे ते कलुषित मलिन भावरूप छे. एटले के कर्म जड अजीव छे अने तेना निमित्ते थतो रागादिभाव ते कलुषित अने मलिन छे. रागादि विकारभाव मोहकर्मनो भाव होवाथी पुद्गलनो ज विकार छे, ए ज्ञायकनी अवस्था नथी. हवे कहे छे के भावक जे कर्म छे तेनाथी थयेलो विकार ज्यारे चैतन्यना उपयोगना अनुभवमां आवे छे त्यारे उपयोग पण विकारी थई रागादिरूप मलिन देखाय छे. परंतु चैतन्यनी शक्तिनी व्यक्ति तो ज्ञानदर्शन-उपयोगमात्र छे. एटले के चैतन्यना सामर्थ्यनी व्यक्ति ज्ञान-दर्शनना परिणामरूप छे पण रागद्वेषना परिणामरूप नथी. चैतन्यमां तो अनंत शक्तिओनुं सामर्थ्य भर्युं छे. ज्ञानस्वभावनुं सामर्थ्य, दर्शनस्वभावनुं सामर्थ्य, सुखनुं, आनंदनुं, सत्तानुं, जीवतरनुं एम अनंत- शक्तिओनुं सामर्थ्य भगवान आत्मामां भर्युं छे. आवा अनंत सामर्थ्यमंडित चैतन्यनी दशा तो ज्ञान-दर्शन-उपयोगमय शुद्ध ज होय छे. उपयोगमां बधुं जणाय छे तेथी अहीं उपयोगनी मुख्यताथी वात लीधी छे.
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आत्मानी ज्ञान-दर्शन शक्तिनी व्यक्तता जाणवा-देखवानी थाय छे. आत्मानुं व्यक्तित्व जे जाणवा-देखवानी व्यक्त दशा थाय ते छे. परंतु रागनुं परिणमन थाय एवुं तेनुं स्वरूप नथी. रागनी रचना करे एवो कोई गुण के शक्ति चैतन्यस्वरूप आत्मामां नथी. चैतन्यद्रव्य छे, तेनी चैतन्यशक्ति छे अने तेनी पर्याय-व्यक्ति जाणवा-देखवानी थाय छे. भाई! वीतरागमार्ग जगतथी जुदो छे. लोकोए तेने क्रियाकांडमां मनावी दीधो छे. अहीं कहे छे के व्रतादिनो जे विकल्प छे ते अचेतन छे, जड छे. ए कांई चैतन्यशक्तिनी व्यक्तता-प्रगटता नथी. अहाहा! वस्तु आखुं चैतन्यदळ छे अने चैतन्यपणुं ए तेनी शक्ति-गुण छे. तो तेनी व्यक्तता चैतन्यना एटले ज्ञान-दर्शनना उपयोगमय ज होय ने? तेनी प्रगटतामां रागद्वेष केवी रीते होय?
भेदज्ञान थतां जे रागद्वेषमोहरूप कलुषता अथवा मलिनतानो भाव छे ते द्रव्यकर्मरूप जड पुद्गलद्रव्यनी व्यक्तता छे एम जणाय छे. निश्चयथी राग पुद्गलनो छे; केमके विकार-राग ए कोई चैतन्यशक्तिनी व्यक्तता नथी. व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प पण निश्चयथी ज्ञानस्वभावनी जाणकशक्तिना सामर्थ्यमांथी आवेलो नथी. तेथी ते जड छे. जाणकशक्तिना सामर्थ्यमांथी तो मात्र जाणवा-देखवाना परिणाम थाय छे. ते परिणाम रागादिने जाणे छे परंतु ते रागादि मारा छे एम जाणे नहि.
भावक एटले कर्मनो उदय अने ते भावकथी थयेला राग-द्वेष ते भावकना भाव छे. परंतु राग-द्वेष ज्ञायकना भाव नथी. अहाहा! आ समजवा केटली धीरज जोईए! स्वभावना अवलंबने भेदज्ञान प्रगटे छे त्यारे रागनी कलुषितता उपयोगथी भिन्न, जड पुद्गलद्रव्यनी छे एम भासे छे. अने त्यारे भावकभाव जे द्रव्यकर्मरूप मोहनो भाव छे तेनाथी अवश्य भेदभाव थाय छे. मोहकर्मना निमित्ते जे जे राग थाय छे ते भावकनो भाव छे परंतु ज्ञायकनो नथी. आवुं झीणुं पडे, परंतु भाई! तारामां ए समजवानी ताकात छे. अरे! तारामां तो अंतर्मुहूर्तमां केवळज्ञान लेवानी ताकात छे. प्रभु! तारी प्रभुतानी शी वात?
भगवान पूर्णानंदनो नाथ शुद्ध चैतन्यस्वरूपे अचळपणे अंदर बिराजमान छे. ते अनंत अनंत शांति, सुख, ज्ञान अने आनंदनो सागर छे. ते उछळे त्यारे तेमांथी ज्ञान अने आनंदनी परिणति आवे छे. फुवारामां जेम मशीन चालु करतां पाणी आवे छे-ऊडे छे तेम चैतन्यस्वरूप उपर द्रष्टिनुं जोर जतां अर्थात् भगवान आत्मा अनंत शक्तिओथी भरेलुं एक सत्त्व छे एम विश्वास आवतां, जेटलुं अंदर स्वभावमां एकाग्रतानुं दबाण- जोर थाय एटली आनंदनी धारा वहे छे. भेदज्ञान थतां, भावकभाव जे द्रव्यकर्मरूप मोहभाव छे तेनाथी जरूर ज्ञायकभावनो भाव जुदो थाय छे अने आत्मा जरूर पोताना चैतन्यना अनुभवरूप स्थित थाय छे, जेने ज्ञायकभावनो सत्कार थयो छे अर्थात् आ
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पूर्णानंदनो नाथ स्वभावनो सागर छे, गुणनुं गोदाम छे एम जेनी द्रष्टि- प्रतीतिना जोरमां आव्युं छे ते आत्मा अंतरमां विशेष विशेष स्थिर थईने शक्तिनी ज्ञान अने आनंदनी व्यक्तताओ प्रगट करी रागथी-भावकना भावथी-भिन्न पडी जाय छे.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
आ कळशनो ‘कहै विचच्छन....’ एम समयसार नाटकमां श्री बनारसीदासे छंद लख्यो छे. छंद आ प्रमाणे छेः-
धर्मात्मा ज्ञानीने विचक्षण पुरुष कहेवाय छे. दुनियाना डाह्या तो खरेखर पागल छे. अहीं सम्यग्द्रष्टि-विचक्षण पुरुष एम कहे छे अर्थात् एम विचारे छे के-हुं तो सदा एक छुं. रागना संबंधवाळो हुं नथी. हुं तो ज्ञायकनी परिणति जे निर्मळ प्रत्यक्ष आस्वादरूप छे तेना स्वभावथी एकरूप छुं. मारा एकस्वरूपमां बगडे बे एम बीजा भाव-रागना भावनो बगाड नथी. हुं तो निज चैतन्यरसथी भरपूर भरेलो मारा पोताना आश्रये छुं. एटले के मारी पर्यायनो दोर चैतन्यना त्रिकाळी ध्रुव (स्वरूप) उपर लाग्यो छे. पर्यायनी धारा द्रव्यथी तन्मयपणे छे तेथी कह्युं के सदाय हुं एक छुं, मारा ज्ञानरसथी भरपूर, मारा आश्रये ज छुं. रागनो आश्रय मने नथी. अहाहा! हुं अतीन्द्रिय आनंदरस अने ज्ञानरसथी अनादिथी भरपूर भरेलो छुं. ए ज्ञानदर्शनस्वभावनी मने रुचि थई एटले के स्वभावनो रस प्रगट थयो तेथी रागना रसनी जे रुचि हती ते नीकळी गई. रस एटले के तदाकार-एकाकार थवुं. एक ज्ञायकमां एकाकार लीन थवुं अने बीजे एकाकार न थवुं ते ज्ञान-दर्शननो रस छे.
रागादि छे ए तो भ्रमणानो कूवो छे, ए मारुं स्वरूप नथी. आ राग-द्वेष, अने पुण्य-पापनो विकार ए भ्रमकूप छे. भावकना भावथी उत्पन्न थयेली विकारी दशा, पर तरफनी सावधानीनी दशा ए मारी नथी. कारण के हुं तो एकलो शुद्ध चेतनानो सिंधु- दरियो छुं. शुद्ध चैतन्यसिंधु ए मारुं स्वरूप छे. अरे! पोते आत्मा कोण छे अने ते केवो छे एनी वात कदी सांभळी नहि अने बहारनी कडाकूटमां अनादिथी एम ने एम मरी गयो छे.
जीव अधिकारनी आ बधी आखरनी गाथाओ छे. तेथी कहे छे के-‘चेतये स्वयम् अहम् स्वम् इह एकम्’ आ लोकमां हुं पोताथी ज पोताना एक आत्मस्वरूपने अनुभवुं छुं.
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मारुं ज्ञायकस्वरूप छे तेने हुं वेदनमां लउं छुं. एक ज्ञायकने अनुभवुं छुं, वेदुं छुं. मारा वेदनमां रागनुं वेदन नथी. आवी वात समजवामां पण कठण पडे तो प्रयोग तो कयारे करे? वीतराग जिनेश्वरदेवनो आ मार्ग अपूर्व छे. जेणे त्रणकाळ त्रणलोकने केवळज्ञानमां प्रत्यक्ष जाण्या तेनी दिव्यध्वनिमां आवेलो आ मार्ग छे अने संतोए ते सर्वज्ञनी वाणी अनुसार कह्यो छे.
धर्मी कहे छे के हुं ते स्वरूपने अनुभवुं छुं जे ‘सर्वतः स्वरसनिर्भरभावं’ सर्वतः निजरसरूप चैतन्यना परिणमनथी पूर्ण भरेला भाववाळुं छे. परिणमन एटले निर्मळ स्वभाववाळुं. आ त्रिकाळी द्रव्यनी वात छे. चैतन्यनुं परिणमन चैतन्यना स्वभावथी परिपूर्ण भरेला भाववाळुं छे. माटे ‘नास्ति नास्ति मम कश्चन मोहः’ आ मोह मारो कांई पण लागतो-वळगतो नथी. तेने अने मारे कांई पण नातो-संबंध नथी. कारण के ‘शुद्धचिद्घनमहोनिधिः अस्मि’ हुं तो शुद्ध चैतन्यना समूहरूप तेजःपुंजनो निधि छुं- आम ज्ञानी परिणमनमां वेदे छे.
शुद्ध चैतन्य-आनंदनो सागर भगवान आत्मा छे. जीवत्व, चिति, द्रशि, ज्ञान, सुख, वीर्य प्रभुत्व इत्यादि अनंत अनंत शक्तिओनुं अनंत अनंत सामर्थ्य ते आत्मा छे. जे अनंत शक्तिओ छे ते एक एक शक्तिनुं पण अनंत सामर्थ्य छे. आवा अनंत शक्तिना सामर्थ्यवाळुं मारुं तत्त्व छे. आवा स्वरूपने हुं प्रत्यक्ष आनंदना आस्वादरूप अनुभवुं छुं. हुं शुद्ध चैतन्यना समूहरूप तेजःपुंजनो निधि छुं एम परिणति वेदे छे, जाणे छे. आ परिणति ते धर्म छे. केटलाक कहे छे के आ सोनगढथी नवो धर्म काढयो. पण आ कयां सोनगढनुं छे? आ शुद्धचिद्घनमहोनिधि अनादि छे ने? धर्मी जीव एम जाणे छे के-हुं शुद्ध चिद्घन अर्थात् शुद्ध ज्ञानसमूहनुं निधान, शुद्धआनंदघननुं निधान, शुद्ध वीर्यघननुं निधान, शुद्ध र्क्ताशक्तिनुं निधान, शुद्ध कर्मशक्तिनुं पूर्ण निधान-भंडार छुं.
कर्मना चार प्रकार छे. (१) कोई पण जडनी अवस्था थाय ते कर्म छे. आ शरीरादिनी अवस्था छे ते तेना र्क्तानुं कर्म छे. जड परमाणु र्क्ता छे. तेनुं ए कार्य छे एटले कर्म छे, पर्याय छे. जे जड द्रव्यकर्म छे ते पण जड र्क्तानुं परिणमन छे-कर्म छे.
(२) पुण्य-पापनो विकार, मिथ्यात्वनो भाव ते भावकर्म-विकारी कर्म छे. राग- द्वेष-मोहना परिणाम ए विकारी कर्म छे.
(३) निर्मळ परिणति ते पण कर्म छे. आत्माना आनंदना वेदननी क्रिया- शुद्धतानो अनुभव ते पण निर्मळ परिणमनरूप कर्म छे.
(४) त्रिकाळ रहेनार शक्ति-सामर्थ्य अंदर पडयुं छे ते पण कर्म छे. कार्य थवानुं सामर्थ्य छे ते कर्मशक्ति छे. कार्य थवानुं सामर्थ्य पोतानामां होवाथी तेना कार्य माटे निमित्त के परनी अपेक्षा नथी. कार्यरूप थवानी कर्मशक्ति वस्तुमां त्रणेकाळ पडी छे.
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आवो चिद्घनपरिपूर्ण शक्तिओथी भरेलो भंडार-ते हुं छुं एम जेना अनुभवमां आवे छे ते अनुभव एक निर्विकारी कर्म-कार्य छे, अने तेने मोक्षमार्ग कहे छे.
कर्म अर्थात् कार्य-पर्याय. आत्मामां कर्म नामनो त्रिकाळ गुण छे. तेथी कार्य- पर्याय ते कर्म गुणमांथी आवे छे. ए कर्म गुणनुं रूप बीजा अनंत गुणोमां छे. एक गुणमां बीजो गुण नथी, पण एक गुणमां बीजा गुणनुं रूप छे. र्क्ता गुणनुं रूप, कर्म गुणनुं रूप वगेरेनुं रूप बीजा अनंत गुणमां छे. एक गुणमां के एक गुणना आश्रये बीजो गुण छे एम नहि. गुणो तो सर्व द्रव्यना आश्रये छे. पण एक गुणमां बीजा गुणना रूपनुं सामर्थ्य छे. कर्ता गुण छे ते ज्ञानगुणथी भिन्न छे. पण ज्ञानगुणमां कर्ता गुणनुं रूप छे. तेवी रीते कर्मगुणनुं पण रूप छे. आवो शुद्ध चैतन्यघननो निधि हुं छुं एम ज्ञानी अनुभवे छे. अहाहा! तेना स्वभावना सामर्थ्यनी शुं शक्ति छे! रागरूपे थवुं ए कोई शक्ति के गुण नथी. वस्तु तो शुद्ध चिद्घन एटले शुद्ध आनंदघन, शुद्ध ज्ञानघन, शुद्ध वीर्यघन-एम अनंता गुणनुं घन-समूह छे. भाई! तेने प्राप्त करवा केटलो पुरुषार्थ जोईए?
वीर्यनो वेग ज्यां अंतरमां वळे छे त्यां ज्ञानी एम अनुभवे छे के हुं तो पूर्णस्वरूप निधि छुं. हुं शरीर नथी, राग नथी, पुण्य-पाप नथी अने अल्पज्ञ पण नथी, तेम ज एकगुणरूप पण नथी; हुं तो अनंता गुणनुं एक निधान-खाण छुं.
आवी ज रीते गाथामां जे ‘मोह’ पद छे तेने बदलीने राग लेवो. रागना भावकपणे हुं नथी. कर्म भावक छे अने तेनुं भाव्य राग छे. ते हुं नथी. हुं तो ज्ञायक छुं. तेथी ते मारा ज्ञानमां जणावा योग्य छे. परंतु ते राग मारा ज्ञाननी पर्यायमां (तद्रूप) आवी जाय एवुं मारुं स्वरूप नथी. एवी ज रीते द्वेष पण जे कर्म भावक छे तेनुं भाव्य छे. पण ते ज्ञायकनुं भाव्य नथी. ज्ञायकनुं भाव्य तो द्वेषने लक्षमां लीधा विना जाणवुं ते छे. ते ज प्रमाणे क्रोध ए कर्म-भावकनो भाव छे पण ज्ञायकनो भाव नथी. हा, ज्ञायकनुं भाव्य जे ज्ञान ते ज्ञानमां क्रोध जणाय छे खरो, पण ते क्रोध ते हुं नहि. ज्ञानमां क्रोध जणाय छे एम कहेवुं ते व्यवहार छे. खरेखर तो ज्ञाननी पर्यायनुं स्वपरप्रकाशकरूप व्यक्त थाय छे, अने ते हुं छुं पण क्रोध हुं नथी. आ तो प्रवीण एटले विचक्षण पुरुषना अनुभवनी वात छे.
अहाहा! भगवानना मुखेथी छूटती दिव्यध्वनि केवी हशे! आखा लोकना स्वामी इन्द्रो अने गणधरो सभामां सांभळता होय अने भगवानना श्रीमुखेथी अमृतनो धोध वहेतो होय ए वाणीमां केटकेटलुं स्पष्टीकरण आवे? आचार्य भगवंतो जो आटली चमत्कारिक वातो करे छे तो भगवाननी दिव्यध्वनिनी शी वात! अहाहा! पंचम आराना छद्मस्थ मुनिओ एम कहे छे के-अमे तो पूर्ण निधि छीए. एमांथी अनंत आनंद
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अने अनंत ज्ञान (प्रतिसमय) वह्या करे तोपण कदीय खूटे नहि एवी (अव्यय) शाश्वत निधि छीए. अरे! आवडो अने आवो आत्मा छे एम एने प्रतीतिमां आवतुं नथी. कारण के हुं पैसावाळो, बंगलावाळो, कुटुंबवाळो, रागवाळो, पुण्यवाळो छुं एम आत्माने पामर तरीके मान्यो छे. परंतु हुं तो जगतमां एक अनंत अनंत गुणोना सामर्थ्यथी भरेलुं महानिधान आत्मा छुं एम धर्मीने परिणति पोकार करे छे. वस्तु तो वस्तु ज छे. पण एने जाणे कोण? ज्ञानीनी परिणति जाणे छे के हुं आवो महानिधि छुं.
‘मोह’ पद बदलीने मान, माया, लोभ लेवां. ते बधां भावक कर्मनां भाव्य छे. ए बधां ज्ञायकनां स्वरूप नथी. ए मारां-ज्ञायकनां नथी. शरीर, वाणी, मन अने पांच इन्द्रियो मारां नथी. आम सोळ पद जुदां जुदां व्याख्यानरूप करवां, अने बीजां पण विचारवां. असंख्य प्रकारना शुभाशुभ भाव छे ते बधाय लेवा. ए बधाय जे विभावभाव छे ते हुं नथी, केमके ए बधा भावक-कर्मना भाव छे, ज्ञायकना भाव नथी अने हुं तो एक ज्ञायकमात्र ज छुं.
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अथ ज्ञेयभावविवेकप्रकारमाह–
णत्थि मम धम्मआदी बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को। तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति।। ३७ ।।
तं धर्मनिर्ममत्वं समयस्य विज्ञायका ब्रुवन्ति।। ३७ ।।
हवे ज्ञेयभावना भेदज्ञाननो प्रकार कहे छेः-
–ए ज्ञानने, ज्ञायक समयना धर्मनिर्ममता कहे. ३७.
*गाथार्थः– [बुध्यते] एम जाणे के [धर्मादिः] ‘आ धर्म आदि द्रव्यो [मम नास्ति] मारां कांई पण लागतांवळगतां नथी, [एकः उपयोगः एव] एक उपयोग छे ते ज [अहम्] हुं छुं’- [तं] एवुं जे जाणवुं तेने [समयस्य विज्ञायकाः] सिद्धांतना अथवा स्वपरना स्वरूपरूप समयना जाणनारा [धर्मनिर्ममत्वं] धर्मद्रव्य प्रत्ये निर्ममत्व [ब्रुवन्ति] कहे छे.
टीकाः– पोताना निजरसथी जे प्रगट थयेल छे, निवारण न करी शकाय एवो जेनो फेलाव छे तथा समस्त पदार्थोने ग्रसवानो (गळी जवानो) जेनो स्वभाव छे एवी प्रचंड चिन्मात्रशकित वडे ग्रासीभूत करवामां आव्यां होवाथी, जाणे अत्यंत अंतर्मग्न थइ रह्यां होय-ज्ञानमां तद्राकार थइ डूबी रह्यां होय एवी रीते आत्मामां प्रकाशमान छे एवां आ धर्म, अधर्म, आकाश, काळ, पुद्गल, अन्य जीव-ए सर्व परद्रव्यो मारां संबंधी नथी; कारण के टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावपणाथी परमार्थे अंतरंगतत्त्व तो हुं छुं अने ते परद्रव्यो मारा स्वभावथी भिन्न स्वभाववाळां होवाथी परमार्थे बाह्यतत्त्वपणाने छोडवा असमर्थ छे (केम के पोताना स्वभावनो अभाव करी ज्ञानमां पेसतां नथी.) वळी अहीं स्वयमेव, (चैतन्यमां) नित्य उपयुक्त एवो अने परमार्थे एक, अनाकुळ आत्माने ____________________________________________________________ * आ गाथानो अर्थ आम पण थाय छेः-‘धर्म आदि द्रव्यो मारां नथी. हुं एक छुं’