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राग अने शरीर साथे एकपणुं मानतो हतो. ते आ एकपणाना संस्कारथी अप्रतिबुद्ध हतो. जुओ, कोई कहे के आ समयसार मुनि माटे छे तो एम नथी. अहीं तो जे शरीर अने आत्माने एक माने छे एवा अत्यंत अप्रतिबुद्धने समजाववामां आव्युं छे.
हजारो राणीओ छोडीने दिगंबर जैन साधु थई, र८ मूळगुण पाळी नवमी ग्रैवेयके गयो. परंतु आनंदस्वरूप चैतन्य प्रभुनी खबर नहि होवाथी, शरीरने ज आत्मा मानतो हतो. बहारथी आत्मा रागथी भिन्न छे एम कहे, पण अंदर जे शुभ क्रियाकांडनो राग अवस्थामां प्रगट हतो तेमां ज पोतापणुं मानतो हतो. पोते शुं चीज छे अने पोतानुं अस्तित्व-होवापणुं-मोजूदगी केवी रीते छे एनो ख्याल नहि होवाथी ‘हुं आत्मा छुं’ एम कहेतो होवा छतां रागादिने ज आत्मा मानतो हतो. रागादिथी पृथक् पोतानी ज्ञायकवस्तुनी द्रष्टि थई नहि. तेनो अनुभव थयो नहि एटले कयांक परमां- रागादिमां ज पोतापणुं मानतो हतो. अगियार अंगनो पाठी होय एटले बहारथी ‘राग अने आत्मा भिन्न छे’ एम भाषामां बोले, पण अंतरमां राग अने आत्मानी एक्ता तोडी नहि. अहाहा! अगियार अंगमां केटलुं जाणवुं आवे? पहेला आचारांगमां १८ हजार पद होय छे अने ते एक एक पदमां प१ करोड जाजेरा श्लोक छे. बीजा अंगमां तेनाथी बमणा ३६ हजार पद होय छे. आम एक एकथी बमणा एम अगियार अंग सुधी लई लेवुं. आ बधुंय कंठस्थ कर्युं, परंतु अंदरमां विकल्पथी भिन्न, निर्विकल्प चैतन्य आनंदकंद छे एनी द्रष्टि, एनो अनुभव अने एनुं वेदन कर्युं नहि तेथी ते अत्यंत अप्रतिबुद्ध हतो. भाई! आ तो अंतरनी चीज छे. ते अंतरना स्पर्श विना मळे एवी नथी.
आवी रीते जे अत्यंत अप्रतिबुद्ध हतो ते हवे तत्त्वज्ञानस्वरूप ज्योतिनो प्रगट उदय थवाथी ज्ञानी थयो. रागथी भिन्न चैतन्यज्योतिनो भास थतां ‘पोते ज्ञायकस्वरूप ज हुं छुं’ एवो अनुभव थयो तेथी ज्ञानी थयो. ‘चैतन्य ज्ञानज्योतिस्वरूप हुं छुं’ एवो विकल्प नहि, पण तेवी परिणतिनो प्रगट उदय थतां, जेम नेत्रमां विकार होय ते दूर थतां वस्तु जेवी होय तेवी देखाय छे तेम, ते प्रतिबुद्ध थयो. जेम कोई पुरुषना नेत्रमां विकार होय त्यारे वर्णादिक पदार्थो अन्यथा देखाय छे. पण ज्यारे विकार मटे छे त्यारे पदार्थो जेवा होय तेवा देखाय छे. तेवी रीते पडळ समान आवरणकर्म सारी रीते उघडी जवाथी प्रतिबुद्ध थयो, साक्षात् ज्ञाता-द्रष्टा थयो. अहीं जे कर्मनी वात करी छे ते निमित्तनुं कथन छे. खरेखर तो स्वभावनुं भान थतां, मिथ्या श्रद्धानने लीधे जे भावघातीनी अवस्था थती हती अने जेना कारणे आत्मदशा प्रगट नहोती थती ते दूर थवाथी पोते साक्षात् ज्ञाताद्रष्टा थयो.
आत्मा वस्तु स्वभावथी तो ज्ञाता-द्रष्टा छे ज. एवा ज्ञाता-द्रष्टा-स्वभावनुं भान थतां मिथ्या श्रद्धानो नाश थई पर्यायमां ज्ञाताद्रष्टापणुं प्रगट थयुं तेने साक्षात् ज्ञाता-द्रष्टा थयो
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एम कह्युं छे. आत्मामां दया, दाननो राग के व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प नथी. अने तेथी रागथी के व्यवहाररत्नत्रयना विकल्पथी ज्ञाताद्रष्टास्वभाव प्राप्त थतो नथी, केमके जेनामां जे न होय तेनाथी ते प्राप्त केम थाय?
एकलो देखनार अने जाणनार एवा पोताने पोताथी ज जाणी, रागथी के विकल्पथी नहि पण स्वचैतन्यमां चैतन्यनी परिणति द्वारा प्रवेशीने पोताने जाणी, श्रद्धान करी, तेनुं ज आचरण करवानो इच्छुक थयो छे. एटले हवे ते मुनिपणानी भावना करे छे.
प्रश्नः– ‘पोताने पोताथी ज जाणे’ एमां एकांत थई गयुं, स्याद्वादपणुं तो न रह्युं?
उत्तरः– ‘पोताने पोताथी ज जाणे’ ए सम्यक् एकान्त छे. ते सम्यक् एकान्त ज अनेकान्तनुं साचुं ज्ञान करे छे. पोते पोताथी ज जणाय अने परथी न जणाय ए ज अनेकान्त छे. अने ए ज सम्यक् एकान्त छे. भाई! वीतरागनो स्याद्वाद मार्ग आवो छे. पोताथी पण जाणे अने रागथी पण जाणे ए तो फुदडीवाद छे, स्याद्वाद नहि.
चैतन्यसूर्यना प्रकाशनुं पूर प्रभु आत्मा पोताना निर्मळ प्रकाश द्वारा ज पोताने प्रकाशे छे. ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा ज्ञाननी निर्मळ पर्याय द्वारा ज पोताने पोताथी जाणे छे. तेने रागनी के व्यवहारनी अपेक्षा नथी. एटले के व्यवहारथी निश्चय जणाय नहि. परंतु व्यवहारनुं लक्ष छोडी स्वभावनुं सीधुं लक्ष करतां ते पोताथी पोताने जाणे छे. ज्ञाननी निर्मळ पर्याय द्वारा ज्ञायकने जाणी पछी श्रद्धान करवुं. जुओ अहीं प्रथम आत्माने जाणवो, पछी श्रद्धान करवुं एम कह्युं छे, कारण के जाण्या विना श्रद्धा कोनी? १७-१८ गाथामां पण आ वात आवी गई छे.
हवे जेने ज्ञान-श्रद्धान थयां छे ते एमां ज आचरण करवा इच्छुक थयो थको पूछे छे के ‘आ स्वात्मारामने अन्य द्रव्योनुं प्रत्याख्यान (त्यागवुं) ते शुं छे?’ निजपदमां रमे ते आत्माराम छे. तेने प्रत्याख्यान नुं शुं स्वरूप छे? अन्यद्रव्यना त्यागनुं शुं स्वरूप छे? आत्मा ज्ञाननो पुंज प्रभु छे. उदयभावरूप संसारनो अंश के तेनी गंध पण एमां नथी. आवा आत्माने जाणीने, एने प्रतीतिमां लईने हवे शिष्य गुरुने पूछे छे के-मने आत्मामां आचरण केम थाय? अन्यद्रव्यना अर्थात् रागना त्यागरूप पच्चकखाण केवी रीते थाय? ज्ञानीने चारित्र केवुं होय एनी खबर छे, छतां विनयपूर्वक गुरुने विशेष माटे पूछे छे.
शुद्ध चैतन्यघन पूर्ण स्वभावथी भरेलो भगवान आत्मा अनंत अनंत आनंदनुं गोद्राम छे. संयोगी चीजमां आत्मा नथी अने आत्मामां संयोगी चीज नथी. बन्ने तद्न भिन्न भिन्न छे. हवे अहीं कहे छे के संयोगी चीज तो दूर रही, पण संयोगीकर्मना लक्षे थता जे संयोगीभाव-पुण्यपापना भाव तेनाथी पण आत्मा भिन्न छे, जुदो छे.
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‘हुं एक ज्ञानानंदस्वरूप अमृतनो सागर प्रभु ज्ञाता द्रष्टा छुं, अने जगत ज्ञेय-द्रश्य छे. पण जगत मारामां नथी के हुं जगतमां नथी. अहाहा! मारी चीजमां पुण्य-पापना भाव तो नथी पण वर्तमान अल्पज्ञता पण मारी पूर्ण चीजमां नथी.’ आम जेने अंतरमां चिदात्मस्वरूपना भानपूर्वक भेदज्ञान-आत्मज्ञान प्रगट थयुं छे अने एनी प्रतीति थई छे ते सम्यग्द्रष्टि थयो छे. तेने धर्मनी शरुआत थई छे. जेम आंखमां पडळ होय ते नीकळी जतां निधान नजरे पडे छे तेम रागनी एक्ताबुद्धिनां पडळ दूर थतां आत्मा जेवो ज्ञानानंदस्वरूप छे तेवो नजरे पडे छे, अनुभवमां आवे छे. आवो अनुभव जेने थयो छे ते हवे प्रश्न करे छे के-पच्चकखाण शी रीते थाय? रागथी भिन्न आत्मानुं भान तो थयुं छे पण हजु अस्थिरतानो राग छे तेनो त्याग शी रीते थाय? आम पूछवामां आवतां तेना उत्तररूपे आ गाथा कहे छेः-
‘आ भगवान ज्ञाताद्रव्य’-जुओ ‘भगवान’ थी उपाडयुं. भगवानस्वरूप ज आत्मा छे. कयारे? अत्यारे अने त्रणेकाळ. जो अत्यारे भगवानस्वरूप न होय तो पर्यायमां भगवानपणुं कयांथी आवशे? शुं ते कयांय बहारथी आवे छे? (ना). स्वभावथी भगवान-स्वरूप छे ते पर्यायमां ‘एनलार्ज’ प्रगट थाय छे. जो अत्यारे भगवानस्वरूप न होय तो कयारेय पण भगवान थई शके नहि. ३१-३२ गाथामां पण ‘भगवान ज्ञानस्वभाव’ एम आवी गयुं छे. अहीं संस्कृत टीकामां ‘भगवत्’ शब्द पडयो छे. भग नाम लक्ष्मी वत् एटले वाळो. आत्मा अनंत-अनंत ज्ञान अने आनंदनी लक्ष्मीवाळो परिपूर्ण भगवान छे. ‘आ भगवान ज्ञातृद्रव्य’ एम कहीने तेनुं प्रत्यक्षपणुं कह्युं छे, कारण के ज्ञानीने भगवान आत्मानुं ज्ञानमां प्रत्यक्ष वेदन थई गयुं छे, अनुभव थई गयो छे.
‘आ भगवान ज्ञातृद्रव्य’-एम लीधुं छे. कारण के जे शिष्ये प्रश्न पूछयो छे तेने ज्ञानानंदस्वरूप आत्मानुं प्रत्यक्ष भान थयुं छे. सच्चिदानंद प्रभु पूर्ण आनंदनो नाथ सिद्ध समान आ आत्मा बाह्य लक्ष्मीवाळो नथी. बाह्य लक्ष्मी तो जड छे, अने तेने जे पोतानी माने ए पण जड छे. जेम भेंसनो पति पाडो होय छे तेम जडनो पति पण जड छे. अहीं तो चैतन्यलक्ष्मीना स्वामीनी वात छे. चक्रवर्तीने छ खंडनुं राज्य अने ९६ हजार राणीओ वगेरे वैभव होय छे. छतां सम्यग्दर्शन होवाथी ए बाह्य वैभवनो हुं स्वामी छुं एम ते मानता नथी. ‘हुं तो अनंत अनंत ज्ञान अने आनंदनी स्वरूपलक्ष्मीथी भरेलो भगवान छुं’-एम स्वरूपलक्ष्मीनुं स्वामीपणुं माने छे, केमके तेमने यथार्थ श्रद्धान-ज्ञान थयेलां छे.
भगवान आत्मा ज्ञाता छे, जाणनार सूर्य छे, ज्ञानना प्रकाशथी भरपूर छे. आवुं जे ज्ञाताद्रव्य (आत्मा) ते अन्यद्रव्यना निमित्तथी थता विकारीभावपणे थाय एवो एनो
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स्वभाव नथी, केमके ज्ञाता-द्रष्टा वस्तुनो स्वभाव तो जाणवुं, देखवुं अने आनंद छे. तेथी ते ज्ञाता-द्रष्टा-स्वभाव विकारीभावमां केम व्याप्त थाय? जाणन-देखन स्वभाव, अन्यद्रव्यना स्वभावथी थता जे अन्य समस्त भावो-चाहे ते व्यवहाररत्नत्रयनो राग केम न होय-एमां व्यापवा समर्थ नथी. तेमां व्यापे एवुं आत्मानुं स्वरूप ज नथी. भाई! अनंत आनंदने आपनारो आ मार्ग बहु सूक्ष्म छे. अनंत अनंत शांति, आह्लाद अने स्वरूपनी रचना करनार अनंत वीर्य जेनाथी प्रगट थाय ते उपाय कोई अलौकिक अद्भुत छे. आवो मार्ग समय काढी जाणवो जोईए. हमणां नहि जाणे तो कयारे जाणशे?
अहाहा! अनंत आनंद, अनंत शान्ति आदि एक एक एम अनंत गुणनो समाज अंदर छे. अनंतगुणरूपी साम्राज्यनो स्वामी आत्मा छे. ए मूळ वस्तु आत्मा प्रत्यक्ष छे, पण पर्यायबुद्धिथी-रागबुद्धिथी ते आखी वस्तु आवरणमां छे. अहीं पहेलेथी ज उपाडयुं छे के-‘आ भगवान ज्ञाताद्रव्य’, एमां आत्मा प्रत्यक्ष प्रभु छे एम बताव्युं छे. सम्यग्ज्ञानरूपी नेत्रमां प्रभु प्रत्यक्ष देखाय एवो ते आत्मा छे. आवो आत्मा, पोताना स्वभाव वडे, अन्यद्रव्यना स्वभावथी थता अर्थात् कर्मना-निमित्तना संगे थता विभाव भावोमां व्याप्त छे ज नहि. आ ज्ञानस्वभावी आत्मा रागना विकल्पपणे- व्यवहार-रत्नत्रयना विकल्पपणे व्यापीने रहेवाने-थवाने लायक ज नथी. विकारपणे थवुं एवो आत्मानो स्वभाव ज नथी. आम रागने परपणे जाणी स्वरूपमां ठरवुं ते प्रत्याख्यान छे.
प्रश्नः– अमे तो मानीए छीए के भगवाननां दर्शन करीए, जात्रा करीए एटले धर्म थाय. तमे तो ना पाडो छो?
उत्तरः– भाई! भगवान पोते अंदर बिराजे छे तेने जाणवाथी, देखवाथी धर्म थाय छे. परंतु पर भगवानने देखवाथी धर्म न थाय, शुभराग थाय. आ भगवान आत्मा ज्ञाता-द्रष्टा छे. ते अन्यद्रव्यना स्वभावथी उत्पन्न थता विभावोमां-दया, दान, व्रत आदि विकल्पोमां पोताना स्वभाव वडे व्याप्त थतो नथी. तेथी तेने परपणे जाणीने ज्ञानी त्यागे छे. एटले के अंदर स्वभावमां स्थिर थाय छे एटले तेने त्यागे छे एम कहेवामां आवे छे. विकारीभाव आत्माना स्वभाव वडे व्याप्त थवाने लायक नथी. तेथी तेने परपणे जाणवा ए ज तेनो त्याग कर्यो एम कहेवाय छे. आ धर्म अने धर्मनी रीत छे.
हुं एक ज्ञाता-द्रष्टास्वभाववाळो छुं. जे अन्यद्रव्यना निमित्तथी विभावपरिणामो थाय छे ते मारा स्वभावपणे थवाने लायक नथी. आम स्वभाव अने रागने भिन्न जाणवा ते रागनो त्याग छे. आ राग छे ते हुं नहि. ए भिन्न रागपणे हुं थवाने लायक नथी अने राग मारा स्वभावपणे थवाने लायक नथी. आम जे पहेलां जाणे छे ते ज पछी त्यागे छे. जे ज्ञानमां जणायुं के आ राग छे ते मारा स्वभाव वडे व्याप्त थतो नथी अने मारो पण स्वभाव नथी के हुं रागपणे थाउं ए जाणपणुं ए पच्चकखाण छे, सामायिक छे,
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केमके एम जाणनार रागथी खसीने स्वरूपमां ठरे छे. सामायिक एटले समता अने समता एटले वीतराग परिणामनो लाभ. वीतराग परिणामनो लाभ कयारे थाय? के ज्यारे वीतराग-स्वरूप भगवान पोते छे तेनो आश्रय ले त्यारे वीतराग परिणति थाय छे, अने एने सामायिक कहे छे. (तेवी रीते, जेम चणाने पाणीमां पलाळी-डूबाडी राखे त्यारे पोढो थाय छे तेम आत्मा आनंदनो नाथ प्रभु छे तेने पोषवो-एटले आनंदना सागरमां एकाकार डूबाडवो तेने प्रौषध कहे छे.) आवी वस्तु जाणे नहि अने बहारना अनेक क्रियाकांड करे तेथी शुं? ए बधां थोथेथोथां छे.
‘जे पहेलां जाणे छे ते ज पछी त्यागे छे, बीजो कोई त्यागनार नथी.’ एटले शुं? के ज्ञानस्वभावमां विभाव-विकल्प व्यापवाने लायक नथी. आम जे जाणनारे जाण्युं ते ज जाणनार विभावने छोडे छे अर्थात् ते-रूपे परिणमतो नथी. तेने रागनो त्यागनार कहे छे. जाणनार जुदो अने त्यागनार जुदो एम नथी. तेथी जे जाणे छे ते ज पछी त्यागे छे. मारा ज्ञानस्वभावमां राग व्याप्त थाय एवो रागनो स्वभाव नथी अने मारो पण स्वभाव एवो नथी के राग मारामां व्यापे. आम ज्यां रागने भिन्न परपणे जाण्यो त्यां तेना तरफनुं लक्ष रह्युं नहि अने स्वभावमां ज द्रष्टि स्थिर थई. आने पच्चकखाण एटले जाणनारे रागनो त्याग कर्यो एम कहेवामां आवे छे. बाकी आनो पच्चकखाण अने तेनो पच्चकखाण एम विकल्पो करे ए बधो संसार छे.
अज्ञानी दया-दान-भक्तिना भावमां धर्म मानी अनादिथी ८४ लाखना अवतारमां रखडी दुःखी थई रह्यो छे. तेने सन्निपात जेवो रोग लाग्यो छे. जेम कोईने सन्निपात थयो होय ते बीजा घणा रोगथी पीडातो होय तोपण खडखडाट हसे छे. शुं ते खरेखर सुखी छे के ते दांत काढी हसे छे? ना. एने दुःखनुं भान नथी तेथी हसे छे. तेम अज्ञानी कांईक अनुकूळ संयोगो मळतां पोताने सुखी माने छे. एनुं सुख सन्निपातना रोगी जेवुं छे. भाई! सुख तो आत्मामां छे. भगवान आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप छे. सत् नाम त्रिकाळ, चित् नाम चैतन्य अने आनंदस्वरूप भगवान आत्मा छे. आवा आत्माने जे अंतरंगमां स्पर्शीने जाणे छे तेने आनंद थाय छे, सुख थाय छे. ए जाणनार एम जाणे छे के हुं तो स्वभावथी देखवा-जाणवावाळो छुं. पुण्य- पापना भाव मारा स्वभावपणे नहि थता होवाथी परभाव छे. आम तेने परपणे जाणीने त्यागे छे, एटले के त्यांथी खसीने स्वरूपमां ठरे छे. तेथी जे पहेलां जाणे छे ते ज पछी त्यागे छे एम कह्युं छे. आवुं स्वरूप जाणे नहि अने व्रत, तप आदि बाह्य त्याग करवा मंडी पडे ए कांई पच्चकखाण नथी.
भाई! प्रत्याख्यान एटले चारित्र कोने कहेवाय एनी वात चाले छे. सम्यग्दर्शन अने पछी सम्यक्चारित्र ए अलौकिक चीज छे. सम्यग्दर्शन धर्मनुं मूळ छे तो सम्यक्चारित्र
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साक्षात् धर्म छे. कह्युं छे ने के ‘चारित्तं खलु धम्मो’-चारित्र ते धर्म छे. ए ज दुःखथी छूटवानो उपाय-मोक्षमार्ग छे. आवुं चारित्र कोने कहेवाय? प्रवचनसार गाथा ७ नी टीकामां आवे छे-‘स्वरूपे चरणं चारित्रं’ स्वरूपमां चरवुं ते चारित्र छे. स्वरूपमां आचरण करवुं-ठरवुं ए चारित्र छे. रागनुं आचरण ते चारित्र नथी. पंचमहाव्रतनो विकल्प ए पण अचारित्र छे. ज्ञानानंदस्वभावी भगवान आत्मा ते हुं छुं. अने राग- गमे तेवो मंद हो, दया, दान, व्रत, तप, भक्तिनो हो के व्यवहाररत्नत्रयनो हो-ते मारा चैतन्यघनस्वभावपणे थाय एवुं एनुं स्वरूप नथी, अने हुं रागपणे थाउं एवो मारो चैतन्यस्वभाव नथी. ज्ञानमां आम निश्चय करीने, रागने परपणे जाणी, ज्ञान ज्ञानमां ठरे ए प्रत्याख्यान छे, चारित्र छे, धर्म छे.
हवे कहे छे-जे पहेलां जाणे छे ते ज पछी त्यागे छे, बीजो कोई त्यागनार नथी एम आत्मामां निश्चय करीने प्रत्याख्यानना समये एटले परना त्यागना काळे प्रत्याख्यान करवा योग्य जे परभाव-रागादि तेनी उपाधिमात्रथी प्रवर्तेलुं त्यागना र्क्तापणानुं नाममात्र कथन छे. शुं कहे छे? आत्मा रागनो त्याग करे छे ए नाममात्र कथन छे. चाहे तो तीर्थंकरगोत्र बांधवानो भाव होय, पण ते भाव निज चैतन्यस्वभावपणे थवाने लायक नथी एम ए भावने परभाव तरीके जाण्यो त्यारे आत्मा रागने त्यागे छे एम कहेवुं ए कथनमात्र छे, केमके ज्ञान ज्ञानमां ठरी गयुं त्यां राग उत्पन्न ज थतो नथी. बापु! आ तो जन्म-मरणना फेरा मटाडवानी बहु मोंघी वात छे.
जेने भगवान ज्ञाता-द्रष्टावस्तुनो पोतानी निर्मळ ज्ञानपर्यायमां प्रत्यक्ष अनुभव थयो के ‘आ आत्मा छे’ तेने हवे प्रत्याख्यान केम थाय? एनो हवे उत्तर आपे छे के जेणे अंदरमां जाण्युं के राग अने चैतन्यस्वभाव भिन्न-भिन्न छे, रागपणे थवुं ए मारुं स्वरूप नथी अने मारा स्वभावपणे थवुं ए रागनुं स्वरूप नथी, ए जाणनारो रागने भिन्न जाणी तेने त्यागे छे. परंतु रागने त्यागे छे ए तो कथनमात्र छे, कारण के रागना त्यागनुं र्क्तापणुं परमार्थे जीवने नथी. निर्मळ भेदज्ञान मळे नहि अने बहारथी आनो अने तेनो त्याग करे अने माने अमे त्यागी. पण भाई! जीवने परनुं त्याग- ग्रहण मानवुं ए तो मिथ्यात्व छे, भ्रांति छे. अहीं कहे छे के रागनो त्याग करनार जीव छे एम कहेवुं ए पण कथनमात्र छे, परमार्थ नथी. खरेखर तो ए रागना त्यागनो र्क्ता छे ज नहि. स्वरूपमां ठरतां राग थतो ज नथी, माटे रागनो त्याग करे छे एम नाममात्र कथन छे. अहो! आ तो परमेश्वर त्रणलोकना नाथ सर्वज्ञ परमात्मानी दिव्यध्वनिमां आवेली वात संतोए आडतिया थईने जगतने जाहेर करी छे. प्रत्याख्यान समये एटले स्वरूपमां ठरवाना काळे, प्रत्याख्यान करवा योग्य जे परभाव-राग तेनो त्याग कर्यो एम कहेवुं ए नाममात्र कथन छे. अहाहा! टीका तो जुओ!! आवी टीका अत्यारे भरत-
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क्षेत्रमां बीजे कयां छे? अमृतना सागर उछाळ्या छे! अहो! मुनिवरोए जगतने अमृतनो सागर प्रत्यक्ष बताव्यो छे!!
भाई! परवस्तुनुं ग्रहण-त्याग आत्मामां छे ज नहि. आत्मामां त्यागउपादान- शून्यत्व नामनी शक्ति छे. ते वडे परवस्तुने ग्रहे के छोडे ए आत्मामां छे ज नहि. कपडां, स्त्री, पुत्र, परिवार, इत्यादि ग्रहे अने छोडे एवो आत्मामां गुण छे ज नहि. परवस्तु तो स्वतंत्र जगतनी चीज छे. शरीर, वाणी, पैसा, धूळ, बायडी, छोकरां इत्यादि जीवे ग्रह्यांय नथी अने छोडयांय नथी. अहीं कहे छे के समक्तिीने जे अस्थिरतानुं रागरूप परिणमन छे ते रागरूपे थईने रहेवानुं मारुं स्वरूप नथी एम जाणी अंदर स्वरूपमां स्थिर थयो त्यारे ए स्वरूपस्थिरताना काळे रागनी उत्पत्ति ज थई नहि तेने रागनो त्याग कर्यो एम नाममात्र कथन कहेवामां आवे छे. परमार्थे रागना त्यागनो र्क्ता आत्मा नथी अर्थात् परभावना त्यागर्क्तापणानुं नाम पण आत्माने नथी.
अहाहा! हुं शुद्ध चिद्रूप ज्ञाता-द्रष्टामात्र छुं एवुं जेने अंतरमां भान थयुं ते स्वमां स्वपणे रहीने ज्यारे परभाव-रागादिने परपणे जाणे त्यारे एने स्वमां रहेवानो काळ छे, रागना अभावस्वभावे परिणमवानो काळ छे, प्रत्याख्याननो काळ छे. आ स्वरूप-स्थिरताना काळे ज्ञाने जाणी लीधुं के राग पर छे ए रागनो त्याग छे. आ रागनो त्याग पण जो नाममात्र कथन छे-तो आहार-पाणी छोडवां अने बायडी, छोकरां, लुगडां इत्यादि छोडवां ए तो कयांय दूर रही गयुं. ए बाह्य वस्तुनो त्याग मानवो ए तो मिथ्यात्व छे.
अंदर पूर्णानंदनो नाथ भगवानस्वरूपे पोते विराजे छे. पण पामरने प्रभुनी प्रतीति केवी रीते आवे? पामरने ‘हुं पोते इश्वर छुं’ एम प्रतीति केम आवे? भाई! तुं पर्यायमां पामर भले हो, पण वस्तुपणे तुं पामर नथी, भगवान पूर्णानंदनो नाथ छे. अहाहा! जैनना मुनि तो अंदरमां विकल्पनी लागणी विनाना अने बहारमां कपडां विनाना नग्न होय छे. कपडां राखीने जे मुनिपणुं माने, मनावे छे ते मिथ्याद्रष्टि- अज्ञानी निगोदगामी छे. भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवे कह्युं छे के वस्त्रनो एक धागो पण राखीने जे मुनिपणुं माने, मनावे अने एवी मान्यताने रूडी जाणे ते निगोदगामी छे. मिथ्या मान्यताना फळमां एक बे भवे ए निगोद जशे. एवी वात आकरी पडे, पण बापु! आ तो मोटी भूल छे. एमां नवे तत्त्वनी भूल छे. वस्त्रनो विकल्प ए तो तीव्र आस्रवभाव छे. तेने बदले त्यां मुनिपणुं-संवर, निर्जरा मानवां ए बधां तत्त्वनी भूल छे. मूळमां भूल छे, भाई! प्रवचनसारमां आवे छे के मुनिनुं जन्म्या प्रमाणे रूप भगवान त्रिलोकनाथे भाळ्युं छे. त्रणलोकना नाथ देवाधिदेव अरिहंतदेवे आवो धोध मार्ग कह्यो छे. जे शास्त्रमां वस्त्रसहित मुनिपणुं कह्युं होय ते शास्त्र साचां नथी अने ए साधु पण साचा नथी.
अनंत अनंत सामर्थ्यथी परिपूर्ण अनंत शक्तिओ जेमां उछळी रही छे एवो
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अनंतस्वभावनो सागर स्वरूपसागर भगवान आत्मा छे. जे जीवे आवा आत्मानो अंतःस्पर्श करी अनुभव कर्यो छे ते समकिती धर्मी छे. आवा धर्मीने जे पुण्य-पापना विकल्पो-अस्थिरतानो राग आवे छे तेनुं पच्चकखाण केम थाय एम प्रश्न छे. तो कहे छे के ज्ञानमां जणातो ए राग ज्ञानमां व्यापतो नथी, ए तो भगवान चैतन्यनी स्वरूपसंपदाथी भिन्न रहे छे. अस्थिरतानो राग अने ज्ञानने भिन्नता छे. तेथी राग तो परपणे छे आम जेणे जाण्युं छे ते जाणनारो हवे रागमां जोडातो नथी ए पच्चकखाण छे. रागमां जोडातो नथी ए तो नास्तिथी कथन छे. खरेखर तो जे काळे ज्ञान ज्ञानमां ठरे छे ए स्वरूप-आचरणना काळे राग उत्पन्न ज थतो नथी एने रागनो त्याग कर्यो एम नाममात्र कथनथी कहेवामां आवे छे. जैन परमेश्वर वीतरागदेवनो आवो मार्ग छे, भाई. महाविदेहक्षेत्रमां सीमंधर भगवान हाल साक्षात् बिराजे छे. तेओ पण इन्द्रो अने गणधरोनी वच्चे सभामां आ ज वात करे छे.
आत्माने रागना त्यागना र्क्तापणानुं नाम ते कथनमात्र छे. परमार्थथी जोवामां आवे तो एटले के वास्तविकपणे जेम छे तेम जोवामां आवे तो परभावना त्यागर्क्तापणानुं नाम पोताने नथी, कारण के राग छोडयो एवुं आत्माना स्वरूपमां छे ज नहि. अहाहा! ज्यां स्वरूपमां ठर्यो त्यां राग ज थयो नहीं तो पछी राग छोडयो एम कयांथी आवे? रागनो त्याग कर्यो एनो अर्थ शुं? शुं प्रत्याख्यानना काळे, चारित्रना काळे रागनी हयाती छे? शुं ज्ञान ज्ञानमां ठरे छे ते काळे रागनी हयाती छे? ना. ते काळे रागनो अभाव छे. परंतु पूर्वे पर्यायमां राग हतो ते वर्तमानमां न थयो एम देखीने नाममात्रथी कहेवाय छे के आत्माए रागनो त्याग कर्यो. अद्भुत वात छे! आ तो समयसार छे, बापु! परमात्मानी दिव्यध्वनि छे! आ गणधरो अने संतोनी वाणी समजवा माटे घणो पुरुषार्थ जोईए.
हवे कहे छे-‘पोते तो ए नामथी रहित छे, कारण के ज्ञानस्वभावथी पोते छूटयो नथी.’ आत्मा तो परभावना त्यागर्क्तापणाना नामथी रहित छे केमके पोते तो ज्ञान-स्वभावपणे ज रह्यो छे, ज्ञानथी छूटयो ज नथी. माटे ज्ञान ज प्रत्याख्यान छे. ज्ञान ज्ञानमां थंभ्युं-स्थिर थयुं ए ज प्रत्याख्यान छे एम अनुभव करवो.
आत्माए परभावनो त्याग कर्यो, रागनो त्याग कर्यो एम कहेवुं ए नाममात्र छे. पोते तो ज्ञानस्वभावी चैतन्यप्रकाशनो पुंज एकला ज्ञायकभाव-स्वभाववाळुं तत्त्व छे, स्वपरप्रकाशकस्वभावी छे. आवा स्वतत्त्वने स्व जाण्युं अने परभावने पर तरीके जाण्यो त्यारे परभावने ग्रहण कर्यो नहि, रागने पकडयो नहि एने एनो त्याग कर्यो एम कहेवाय छे. रागमां जे अस्थिर थतो हतो ते थयो नहि तेने त्याग कर्यो एम कहेवामां आवे छे.
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सत्यने सत्य तरीके राखीने प्रसिद्ध करवा-परम सत्यनी प्रतीति कराववा केवी गजब शैली लीधी छे ए तो जुओ!
परद्रव्यने पर तरीके जाण्युं, पछी परभावनुं ग्रहण न थयुं ते ज एनो त्याग छे. रागना जोडाणथी ज्ञानमां जे अस्थिरता हती ते ज्ञान, ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मामां ठरतां उत्पन्न न थई तेने प्रत्याख्यान कहे छे. माटे स्थिर थयेलुं ज्ञान ए ज प्रत्याख्यान छे. ज्ञान सिवाय बीजो कोई भाव प्रत्याख्यानमां नथी. जाणनार चैतन्यसूर्यमां ज्ञान थंभी जाय-स्थिर थई जाय ए ज प्रत्याख्यान छे.
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अथ ज्ञातुः प्रत्याख्याने को द्रष्टान्त इत्यत आह–
तह सव्वे परभावे णाऊण विमुंचदे णाणी।। ३५ ।।
तथा सर्वान् परभावान् ज्ञात्वा विमुञ्चति ज्ञानी।। ३५ ।।
हवे पूछे छे के ज्ञातानुं प्रत्याख्यान ज्ञान ज कह्युं तेनुं द्रष्टांत शुं छे? तेना उत्तररूप द्रष्टांत-द्रार्ष्टांतनी गाथा कहे छेः-
त्यम पारका सौ जाणीने परभाव ज्ञानी परित्यजे. ३प.
गाथार्थः– [यथा नाम] जेम लोकमां [कः अपि पुरुषः] कोई पुरुष [परद्रव्यम् इदम् इति ज्ञात्वा] परवस्तुने ‘आ परवस्तु छे’ एम जाणे त्यारे एवुं जाणीने [त्यजति] परवस्तुने त्यागे छे, [तथा] तेवी रीते [ज्ञानी] ज्ञानी [सर्वान्] सर्व [परभावान्] परद्रव्योना भावोने [ज्ञात्वा] ‘आ परभाव छे’ एम जाणीने [विमुञ्चति] तेमने छोडे छे.
टीकाः– जेम-कोइ पुरुष धोबीना घरेथी भ्रमथी बीजानुं वस्त्र लावी,पोतानुं जाणी ओढीने सूतो छे ने पोतानी मेळे अज्ञानी (-आ वस्त्र बीजानुं छे एवा ज्ञान विनानो) थई रह्यो छे; ज्यारे बीजो ते वस्त्रनो खूणो पकडी, खेंची तेने नग्न करे छे अने कहे छे के ‘तुं शीघ्र जाग, सावधान था, आ मारुं वस्त्र बदलामां आवी गयुं छे ते मारुं मने दे’, त्यारे वारंवार कहेलुं ए वाकय सांभळतो ते, (ए वस्त्रनां) सर्व चिह्नोथी सारी रीते परीक्षा करीने, ‘जरूर आ वस्त्र पारकुं ज छे’ एम जाणीने, ज्ञानी थयो थको, ते (परना) वस्त्रने जलदी त्यागे छे. तेवी रीते-ज्ञाता पण भ्रमथी परद्रव्योना भावोने ग्रहण करी, पोताना जाणी, पोतामां एकरूप करीने सूतो छे ने पोतानी मेळे अज्ञानी थई रह्यो छे; ज्यारे श्री गुरु परभावनो विवेक (भेदज्ञान) करी तेने एक आत्मभावरूप करे अने कहे के ‘तुं शीघ्र जाग, सावधान था, आ तारो आत्मा खरेखर एक (ज्ञानमात्र) ज छे, (अन्य सर्व परद्रव्यना भावो छे), ’ त्यारे वारंवार कहेलुं ए आगमनुं वाकय सांभळतो ते, समस्त (स्व-परनां) चिह्नोथी सारी रीते परीक्षा करीने,
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दनवमपरभावत्यागद्रष्टान्तद्रष्टिः।
झटिति सकलभावैरन्यदीयैर्विमुक्ता
स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविर्बभूव।। २९ ।।
____________________________________________________________ ‘जरूर आ परभावो ज छे’ (हुं एक ज्ञानमात्र ज छुं)ॐ एम जाणीने, ज्ञानी थयो थको, सर्व परभावोने तत्काळ छोडे छे.
भावार्थः– ज्यां सुधी परवस्तुने भूलथी पोतानी जाणे त्यां सुधी ज ममत्व रहे; अने ज्यारे यथार्थ ज्ञान थवाथी परवस्तु ने पारकी जाणे त्यारे बीजानी वस्तुमां ममत्व शानुं रहे? अर्थात् न रहे ए प्रसिद्ध छे.
हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [अपर–भाव–त्याग–द्रष्टान्त–द्रष्टिः] आ परभावना त्यागना द्रष्टान्तनी द्रष्टि, [अनवम् अत्यन्त–वेगात् यावत् वृत्तिम् न अवतरति] जूनी न थाय ए रीते अत्यंत वेगथी ज्यां सुधी प्रवृत्तिने पामे नहि, [तावत्] ते पहेलां ज [झटिति] तत्काळ [सकल–भावैः अन्यदीयैः विमुक्ता] सकल अन्यभावोथी रहित [स्वयम् इयम् अनुभूतिः] पोते ज आ अनुभूति तो [आविर्बभूव] प्रगट थई गई.
भावार्थः– आ परभावना त्यागनुं द्रष्टांत कह्युं ते पर द्रष्टि पडे ते पहेलां समस्त अन्यभावोथी रहित पोताना स्वरूपनुं अनुभवन तो तत्काळ थई गयुं; कारण के ए प्रसिद्ध छे के वस्तुने परनी जाण्या पछी ममत्व रहेतुं नथी. २९. उत्थानिकाः–
हवे पूछे छे के ज्ञातानुं प्रत्याख्यान ज्ञान ज कह्युं अर्थात् ज्ञातास्वभावी भगवान आत्मानुं प्रत्याख्यान-चारित्र-रागनो त्याग ए ज्ञान ज कह्युं तो तेनुं द्रष्टांत शुं छे? ज्ञान ज्ञानमां ठरे ए जाणनार आ आत्मानुं प्रत्याख्यान छे. ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मानुं ज्ञान, तेनी प्रतीति अने तेनो अनुभव करी तेमां स्थिर थवुं एटले के रागथी भिन्न पडीने ज्यां ज्ञायकनो अनुभव करे त्यां ज्ञान आत्मामां स्थिर थई जाय ए वीतराग चारित्र-प्रत्याख्यान छे. आवुं प्रत्याख्यान ए एक ज जीवने र्क्तव्य छे. बीजुं शुं करवुं छे, भाई? शुं आ करवा जेवुं नथी? वस्तुनो जेवो ज्ञानस्वभाव छे तेवी ज्ञान- परिणति प्रगट करीने एमां ठरवुं ते एक ज करवा लायक छे.
चैतन्यस्वभावनुं ज्ञान (स्वसंवेदनज्ञान) थवुं-आत्मज्ञान थवुं ए सम्यग्ज्ञान छे, तेनी प्रतीति थवी के शुद्ध चैतन्यघन वस्तु आत्मा आ ज छे ते सम्यग्दर्शन छे, तथा
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विकल्पथी रहित थईने शुद्ध परिणमन थवुं ते चारित्र छे. शुद्धतानुं परिणमन अशुद्धताना नाश विना थाय नहि अने अशुद्धतानो नाश शुद्धताना परिणमन विना थाय नहि. वस्तु छे ए तो चैतन्यस्वभावी वीतरागतानी मूर्ति छे. छहढालामां पण आवे छे के आत्मा वीतराग-विज्ञानस्वरूप ज छे. एनो अनुभव करतां पर्यायमां वीतराग-विज्ञानता प्रगट थाय छे, अने तेमां विशेष विशेष स्थिर थतां चारित्र थाय छे. जे ज्ञान अस्थिरताने लीधे रागमां जोडातुं हतुं ते त्यांथी खसीने अंदर वीतराग-विज्ञानस्वभावमां ठरे छे तेने चारित्र कहे छे.
वीतराग-विज्ञानस्वरूप चैतन्यपिंडनी द्रष्टि थतां वीतराग-विज्ञाननो अशं पर्यायमां आवे छे. अने ए वीतराग-विज्ञाननी वधारे पुष्टि-वृद्धि थतां पच्चकखाण थाय छे. परंतु मूढ अज्ञानी जीव आ अंतरना आचरणने जाणतो नथी. लोकोने आगमनी- बहारनी पद्धति ख्यालमां आवे छे, परंतु अध्यात्मनो व्यवहार शुं छे एनी खबर पडती नथी. पंडित श्री बनारसीदास ‘परमार्थवचनिका’ मां कहे छे के-‘ज्ञाता तो मोक्षमार्ग साधी जाणे छे, मूढ मोक्षमार्ग साधी जाणे नहि. शा माटे? ते सांभळोः-मूढ जीव आगमपद्धतिने व्यवहार कहे छे अने अध्यात्मपद्धतिने निश्चय कहे छे, तेथी ते आगम अंगने एकांतपणे साधी मोक्षमार्ग दर्शावे छे; अध्यात्मअंगने व्यवहारथी पण जाणे नहि ए मूढद्रष्टि जीवनो स्वभाव छे; तेने ए ज प्रमाणे सूझे छे. शाथी? कारण के आगमअंग बाह्यक्रियारूप प्रत्यक्ष-प्रमाण छे, तेनुं स्वरूप साधवुं एने सुगम छे, बाह्यक्रिया करतो थको मूढ जीव पोताने मोक्षनो अधिकारी माने छे, पण अंतर्गर्भित अध्यात्मक्रिया जे अंतद्रष्टिग्राह्य छे ते क्रियाने मूढ जीव जाणे नहि, कारण अंतर्द्रष्टिना अभावथी अंतरक्रिया द्रष्टिगोचर आवे नहि.’
अज्ञानी दया-दान, व्रत-भक्तिना भावने व्यवहार कहे छे अने जे आत्मानुं त्रिकाळ स्वरूप छे तेनी श्रद्धा-ज्ञाननी परिणतिने निश्चय कहे छे. तेथी व्यवहार-दया- दान, व्रत-भक्ति अने पूजाना विकल्पने साधी मोक्षमार्ग माने छे. परंतु त्रिकाळी ज्ञायकभाव ए निश्चय अने तेनी शुद्ध परिणति-राग विनानी सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्रनी वीतराग परिणति थवी ते अध्यात्मनो व्यवहार छे एनो मूढ जीवने ख्याल नथी.
आत्मा शुद्ध सच्चिदानंदमूर्ति छे. सत् नाम शाश्वत ज्ञान अने आनंदनो सागर भगवान आत्मा छे. एमां वीतराग-विज्ञानमय जे रमणता थाय तेने अध्यात्मनो व्यवहार कहे छे, पण अज्ञानीने आनी खबर नथी, तेथी बाह्य प्रत्यक्ष-प्रमाणरूप व्रत, तप, पूजा, भक्ति इत्यादि भावने जोईने तेने ज अध्यात्मनो व्यवहार मानी बेसे छे. अनादिथी ते बाह्य क्रियाकांड-व्रत, नियम आदि पाळे छे तेथी तेनुं स्वरूप साधवुं एने सुगम छे, परंतु सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मानो अनुभव करीने तेमां ठरवुं एवी वीतरागी अध्यात्म व्यवहारक्रियाने ए जाणतो नथी.
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के बदलवुं ए क्रिया एनामां नथी. परिणमवुं के बदलवुं ए तो अवस्था-पर्यायमां छे. आवो त्रिकाळी ध्रुव अक्रियस्वरूप आत्मा ते निश्चय छे अने तेना अवलंबने मोक्षमार्ग साधवो ते व्यवहार छे. रागथी भिन्न अंदर सच्चिदानंदस्वरूप भगवान ध्रुव पडयो छे ए तो अक्रिय छे. परिणमवानी क्रिया एमां नथी. आवा ध्रुव अक्रियस्वरूप भगवानने अवलंबीने एमां ज ठरवुं ए मोक्षमार्ग छे. ए निश्चयमोक्षमार्ग ते अध्यात्मनो व्यवहार छे. शुं कह्युं? शुद्ध द्रव्यवस्तु ए निश्चय अने तेना आश्रये मोक्षमार्ग प्रगटे ते व्यवहार. शुभरागरूप व्यवहार मोक्षमार्गनी आ वात नथी हों. अहीं तो केवळज्ञानस्वभावी आनंदनो गोळो प्रभु शुद्ध, ध्रुव अक्रिय वस्तु जेमां बदलवुं-परिणमवुं नथी ते निश्चय अने पर्यायमां जे निश्चय मोक्षमार्ग प्रगट थाय ते व्यवहार छे. आवो मार्ग छे, भाई! अरे! ८४ ना अवतारमां रखडतां एने आ वात मळी ज नथी! अहा! घरमां छे छतां पोते कोण छे एनी खबर नथी!
अहीं कहे छे के-जेम साकर गळपणस्वरूप, अफीण कडवास्वरूप अने मीठुं खारास्वरूप छे तेम भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, ज्ञाता-द्रष्टा छे. आवा ज्ञानस्वभावनुं भान करीने, श्रद्धान करीने तेमां ठरवुं ते प्रत्याख्यान छे. अने ए निर्मळ वीतराग परिणतिने ज चारित्र अने मोक्षमार्ग कहे छे. अहाहा! त्रणे काळ जेमां जन्म- मरण अने जन्म-मरणना भावनो अभाव छे एवो भगवान आत्मा छे. कोईने एम थाय के आ शुं कहे छे? पण भाई! आ तो तारा निज घरनी वात छे. निजघरमां तो ज्ञान अने आनंदनां निधान पडयां छे ने! आ शरीर तो हाडकां अने मांसनुं पोटलुं परचीज छे. हिंसा, चोरी आदि पापभाव छे, अने दया-दानना भाव पुण्य छे. आ बधायथी तुं भिन्न छे. आवा आत्मानुं भान करी एमां ठरवुं ए प्रत्याख्यान छे.
हवे शिष्य पूछे छे के-प्रभो! आपे तो ज्ञातानुं प्रत्याख्यान ज्ञान ज कह्युं. बे हाथ जोडे ए तो जडनी क्रिया थई, अने जे विकल्प ऊठे छे ए रागनी क्रिया छे; ए कांई प्रत्याख्यान नथी. ज्ञानस्वरूप भगवाननी प्रतीति करी, अनुभव करी एमां ज रमणता अने स्थिरता करवी ए प्रत्याख्यान छे एम आपे कह्युं. तो तेनुं द्रष्टांत शुं छे? तेना उत्तररूपे द्रष्टांत अने सिद्धांत गाथा द्वारा कहे छेः-
अहीं धोबीनुं द्रष्टांत आपे छे. जेम-कोई पुरुष धोबीने त्यां पहेलां आपेलुं वस्त्र लेवा गयो. धोबीने ते वस्त्र हाथ नहि आववाथी तेने बीजुं वस्त्र आप्युं. एटले ते भ्रमथी बीजानुं वस्त्र लावी पोतानुं जाणी-मानी निश्चित थईने वस्त्र ओढीने सूतो छे, अने पोतानी मेळे अज्ञानी थई रह्यो छे अर्थात् आ बीजानुं वस्त्र छे एवा ज्ञान विनानो थई रह्यो छे हवे जेनुं आ वस्त्र हतुं ए बीजो पुरुष धोबीने त्यां आव्यो अने पोतानुं
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वस्त्र माग्युं. पूछपरछ करतां खबर पडी के हमणां ज कोई भाई ए वस्त्र भूलथी लई गया छे. त्यारे ते बीजो पुरुष सीधो ज पेला पुरुषना घेर जई, तेने ते वस्त्र ओढीने सूतेलो जोई ते वस्त्रनो खूणो पकडी, खेंची तेने उघाडो करे छे, कहे छे के-‘भाई! तुं शीघ्र जाग, सावधान था. आ वस्त्रनुं चिह्न जो. आ वस्त्र मारुं छे ते भूलथी बदलाईने तारी पासे आव्युं छे. तो ए मारुं वस्त्र मने आपी दे.’ आम एक-बे वार नहि पण वारंवार कहेला ते वाकयने सांभळतो ते पुरुष सावधान थईने वस्त्रनां सर्व चिह्नोथी सारी रीते परीक्षा करीने, ‘आ वस्त्र मारुं नथी, मारा वस्त्रना छेडे तो में मारुं नाम सीवी राख्युं छे ते अहीं नथी तेथी जरूर आ वस्त्र पारकुं ज छे’-एम जाणीने ज्ञानी थयो थको एटले संसारनो डाह्यो थयो थको ते वस्त्रने जलदी त्यागे छे, छोडी दे छे. भले वस्त्र हजु दूर थयुं न होय, पण ज्यां पर तरीके जाण्युं त्यां तरत ज पोतापणानी बुद्धि छूटी जाय छे, अने जे भ्रम हतो के आ वस्त्र मारुं छे एम भ्रम भांगी जाय छे.
तेवी रीते-आ ज्ञाता भगवान आत्मा चैतन्यमूर्ति प्रभु ज्ञानथी भरेलो दरियो छे. ए अनंत ज्ञानस्वभावना सामर्थ्यथी भरेलो भगवान ज्ञाता छे. ते जाणनार- जाणनार-जाणनार छे. छतां ते जेने जाणे छे ते परचीजोने-आ स्त्री, कुटुंब वगेरे तो ठीक पण अंदरमां कर्मना संगे-वशे थता पुण्य-पापना विकारी भावो जे परद्रव्यना भावो छे तेने, बीजाना वस्त्रनी जेम, पोताना मानी ग्रहण करे छे. पोते तो जाणनार स्वरूपे छे, छतां पण परद्रव्यना भावोने ग्रहण करी पोताना माने छे. ज्ञान अने आनंद जे स्वद्रव्यनो भाव छे तेने कदीय जोयो नथी तेथी दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि विकारी परिणाम मारा पोताना छे एम माने छे.
ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा चैतन्यप्रकाशना नूरना तेजनुं पूर छे. तेना अंतरमां ज्ञान अने आनंद भरेला छे. आवो ज्ञाता भगवान पोताने भूली भ्रमथी परद्रव्यना भावोने पोताना मानी अनादिथी जन्म-मरणनी घटमाळमां फर्या करे छे. अनादिथी अज्ञानी स्वद्रव्यना स्वरूपने छोडी दई पुण्य-पापना विकल्पो जे परद्रव्यना भावो छे तेमने भ्रमथी पोताना मानी ग्रहण करे छे. पोतानो स्वभाव तो जाणवुं-देखवुं छे. पण स्वभावनुं भान नहि होवाथी भ्रमथी परद्रव्यना भावोने पोताना जाणी ग्रहण करे छे. जुओ, अहीं ‘भ्रमथी’ कह्युं छे, ‘कर्मथी’ कह्युं नथी. अहाहा! ज्ञानानंदस्वरूप भगवान ब्रह्मने भ्रम थयो छे तेथी पोताने छोडीने परद्रव्यना भावो-दया, दान, भक्ति आदि पुण्यभावो अने हिंसा, जूठ, चोरी, आदि पापभावोने ग्रहण करे छे अने पोताना मानी अज्ञानी थई रह्यो छे. बिचारो शुं करे? तेने उपदेश पण एवो ज सांभळवा मळे छे के- पुण्य करो, पुण्य करवाथी धर्म थाय छे. परंतु आ यथार्थ उपदेश नथी.
भाई! पुण्यभाव जे दया, दान, भक्ति, व्रत, तप, पूजा, जात्रा, वगेरेना भाव छे
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ते राग छे (धर्म नथी), अने ते रागने जे पोताना माने ते मिथ्याद्रष्टि छे. ज्यां सुधी पूर्ण वीतरागता प्रगट थती नथी त्यांसुधी सम्यग्द्रष्टिने पण शुभराग होय छे खरो, परंतु व्यवहार छे अने ते आश्रय करवा लायक नथी. निश्चय अने व्यवहार बन्ने उपादेय (आश्रय करवा योग्य) नथी. व्यवहार होय छे खरो, पण ते आदरणीय नथी. व्यवहारनयने जो न माने तो तीर्थनो ज नाश थाय अने जो निश्चयनयने न माने तो तत्त्वनो नाश थाय. तेथी गुणस्थान आदि भेदो जे व्यवहार छे ते होय छे खरो, परंतु ते आदरवा लायक नथी. तथा ए व्यवहारथी निश्चय थाय एम पण नथी.
अहीं ए ज वात कहे छे के-पोतानुं स्वरूप तो ज्ञान ज छे. परंतु अज्ञानी स्वरूपने भूलीने भ्रमथी रागादि विभागोने ग्रहण करी तेमने पोताना जाणीने पोतामां एकरूप करीने सूतो छे. अनादिथी अज्ञानी जीव एकला ज्ञाननो पिंड प्रभु आत्मा छे तेने छोडी दईने पुण्य-पापना भाव जे धर्मथी विरुद्ध एटले अधर्म छे तेमने पोताना जाणीने, तेमने पोताना स्वभावमां एकरूप रीने सूई रह्यो छे, ऊंघी गयो छे; अने पोतानी मेळे अज्ञानी थई रह्यो छे. कर्मथी अज्ञानी थई रह्यो छे एम नथी, पोतानी मेळे अज्ञानी थई रह्यो छे. कह्युं छे ने केः-
पोतानी चीज सच्चिदानंद प्रभु आनंदकंद ज्ञायक छे. तेने छोडीने अज्ञानी देहादि जे परवस्तु जड अजीवस्वरूप छे तेने अने अंदरमां जे पुण्य-पापना विकार थाय छे तेने पोताना मानी मोहनिंदमां सूई रह्यो छे. भगवान आत्मा तो अबंधस्वभाव छे, अने जे पुण्य-पापना भाव छे ए भावबंध छे, आस्रवरूप छे. छतां ते भावोने पोताना जाणी, पोताथी एकरूप मानी पोते पोताथी ज अज्ञानी थई रह्यो छे; कर्मथी अज्ञानी थई रह्यो छे एम नथी.
आ देश, मकान अने छोकरां ए तो कयांय दूर रह्यां. अहीं वर्तमान दशामां कर्मना संगथी जे पुण्य-पापना भावो उत्पन्न थाय छे ते परद्रव्यना भावो छे एम कह्युं छे. कारण के परमात्मदशा थतां ते भावो छूटी जाय छे अने ज्ञानानंदस्वरूप चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा रही जाय छे. भाई! तारो देश तो असंख्य प्रदेशी द्रव्य अंदर छे, अने तेमां अनंत अनंत गुणनी प्रजा वसे छे. राग के पुण्य-पापना विकल्पो ए पोतानो स्वभाव के स्वभावनी जातना नथी. तेओ तो चंडाळनी जेम विकार-विभावनी जातना छे. एमनो वस्तुमां प्रवेश छे ज नहि. छतां अनादिथी चैतन्य भगवान पोतानी ज्ञान- आनंदनी स्वरूपसंपदाने भूलीने पुण्य-पापना विकल्पोने पोताना जाणीने, एमां ज एकरूप थईने सूतो छे, अने पोतानी मेळे अज्ञानी थई रह्यो छे. जुओ, दर्शनमोहनो उद्रय आव्यो तेथी अज्ञानी थयो छे एम नथी लीधुं. परंतु रागादि पुण्य-पापना मेलने पोतानो
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मानीने पोतानी मेळे अज्ञानी थयो छे. तोपण अज्ञानीने एवी मान्यता थई गई छे के कर्मने लईने बधुं थाय छे. दोष करे छे पोते, पण नाखे छे कर्मना माथे. पण भाई! कर्मनो कांई वांक नथी. आवे छे ने केः-
एकली अग्निने माथे घण न पडे. पण जो ते लोढानो संग करे तो घण पडे. तेम आ आत्मा जो रागनो संग करे अने एमां एकाकार थाय तो चारगतिनां दुःख भोगवे.
अहाहा! शुं खूबीथी वात करी छे! के जेम कोई पुरुष धोबीने त्यांथी बीजानुं वस्त्र लई आव्यो अने भ्रमथी पोतानुं जाणी ओढीने सूतो छे तेम आ भगवान आत्मा पोतानी चैतन्यनी जातना नहि एवा परभावमय शुभ-अशुभ रागने ग्रहण करी, भ्रमथी पोताना जाणीने, पोतानी साथे एकरूप करी सूतो छे. चैतन्य प्रभु तो निर्विकल्पघन छे. परंतु पर्यायमां रागनी-विकल्पनी दशा साथे एकरूप थई अनादिथी सूतो छे. पैसा, देश, शरीर इत्यादि मारां छे एवी मान्यता तो गाढ मूढता छे. परंतु अहीं तो रागनी वृत्ति जे मेलमय छे अने जे आत्मस्वभावमां नथी एने पोतानी मानीने सूतो छे ते पण मूढ छे ए वात छे. चैतन्यदळ प्रभु आत्मामां एवी ताकात छे के ते एक समयमां समग्र लोकालोकने जाणे. परंतु रागने रचवानी तेना स्वभावमां ताकात नथी. भगवान आत्मा अंदर अनंत आनंद अने वीतरागी शांतिनुं दळ छे. पण कोई दिवस सांभळ्युं होय त्यारे ने? बिचारो बहारनी धामधूममांथी नवरो ज थतो नथी. तेथी पोते पोतानी मेळे अज्ञानी थयो थको चारगतिमां रखडपट्टी करे छे.
भाई! वीतरागी प्रभुनो मार्ग, धर्मनो मार्ग जगतथी जुदो छे. परनी दया पाळवानो भाव आवे छे ते शुभराग छे. परंतु एथी परनी दया कोई पाळी शके छे एम नथी. कारण के परवस्तु छे ते (परिणमनमां) स्वतंत्र छे. तेनी दशानो र्क्ता ते पोते छे. तेथी बीजो कोई एम कहे के हुं आने जिवाडुं के मारुं तो ए मान्यता मिथ्या भ्रम छे, अने ते अज्ञानी छे, मूढ छे. भाई! तुं तो ज्ञान छे ने! तुं जाणवानी भूमिकामां रहे एवुं तारुं स्वरूपतत्त्व छे. जाणनार शुं करे? शुं ते राग करे? रागनो- विकारनो तो तारा स्वभावमां अभाव छे. छतां दया, दान आदि परद्रव्यना भावोने एकरूप करी मिथ्यात्वमां अनादिथी सूतो छे ए मोटुं अज्ञान छे.
भगवान आत्मा अनादिथी पोतानी चीजने भूलीने कृत्रिम, क्षणिक, उपाधिमय एवा पुण्य-पापना भावोने पोताना मानी पोतानी मेळे अज्ञानी थई रह्यो छे. तेने श्रीगुरु परभावनो भेद करी बतावे छे के-भाई! तुं चैतन्यस्वरूप ज्ञानसंपदाथी भरेलो भंडार छे. आ रागना विकल्पोथी तारी चीज भिन्न छे. तुं तारुं लक्षण जो. तारुं लक्षण तो जाणवुं
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छे. राग ए तारुं लक्षण नथी. श्रीगुरु परभावनो विवेक करी बतावे छे, एनो अर्थ ए थयो के गुरु तेने कहेवाय के जे रागथी आत्मा भिन्न छे एम कही भेदज्ञान करावे. राग करवा जेवो छे के रागथी लाभ (धर्म) थाय-एवो जे उपदेश आपे ते जैनना गुरु नहि पण अज्ञानी छे. आत्मज्ञाननी अनुभवदशा जेने थई छे ते साचा गुरु छे. आवा साचा गुरु परभावने हेय करी बतावे छे के-भाई! ज्ञान अने आनंद ए तारुं स्वरूपसत्त्व छे, पुण्य-पापना कृत्रिम विकल्पो ए तारी चीज नथी. धर्मात्मानो आवो उपदेश, रागने पोताथी एक करी-मानीने बेठो छे एवा अज्ञानीने भेदज्ञान करावे छे.
जेमने चैतन्यस्वभावना आश्रये वीतरागी परिणति थई छे ते श्रीगुरु धर्मात्मा छे. ते मोक्षमार्गने पामेला छे. तेओ परभावोने हेय करीने, अज्ञानीने राग अने त्रिकाळस्वभावनी भिन्नतानो विवेक करावे छे. जेम फोतरां अने कस बन्ने जुदी चीज छे, तेम भगवान आनंदनो नाथ चिदानंद प्रभु आत्मा कस छे अने जे रागना विकल्पो ऊठे छे ते फोतरां छे. ए बन्ने भिन्नभिन्न छे. ज्यारे सूपडामां कस अने फोतरां जलदी छूटां न पडे त्यारे जेम धब्बो मारीने छूटां पाडे छे तेम अहीं श्रीगुरु धब्बो मारीने जे बन्नेने एकाकार माने छे तेने भेदज्ञान करावे छे, अने एक आत्मभावरूप करे छे.
भाई! जाणवुं-देखवुं ए तारो स्वभाव छे. तारुं स्वरूप प्रज्ञाब्रह्म छे. राग ए तारी चीज नथी. राग अने प्रज्ञास्वभाव भिन्नभिन्न छे. आ शरीर तो जड माटी-धूळ छे. शरीर चाले के वाणी नीकळे ए आत्माथी नथी. तेम आ पुण्य-पापना भाव पण जड अचेतन अने अंधकाररूप छे, ज्यारे भगवान आत्मा प्रकाशमूर्ति प्रभु चैतन्यसूर्य छे. चैतन्यनो प्रकाश अने राग अंधकार ए बन्ने भिन्नभिन्न छे. आ प्रमाणे यथार्थ उपदेश करी श्रीगुरु राग अने स्वभावनो भेद बतावी विवेक-भेदज्ञान करावे छे. बापु! मार्ग तो आवो छे. कोईने बेसे के न बेसे तेथी सत्य फरी जाय नहि.
जे रीते द्रष्टांतमां अज्ञानी पुरुष बीजाना वस्त्रने पोतानुं मानी सूतो छे तेने बीजो पुरुष के जेनुं वस्त्र छे ते ज्ञान करावे छे के-भाई! आ वस्त्र तारुं नथी, तुं भ्रमथी एने पोतानुं मानी बेठो छे. तेम अज्ञानी पण परभावरूप विकल्पोने-रागने पोताना मानी तेमां एकाकार थईने सूतो छे. तेने श्रीगुरु राग अने आत्मानो भेद करी विवेक करावे छे, अने एक आत्मभावरूप करे छे. श्रीगुरु समजावे छे के-भाई! ज्ञान अने आनंदथी भरेलो तुं प्रज्ञा ब्रह्म स्वरूपे छे. राग तारी पोतानी चीज नथी. जे चीज पोतानी होय ते जुदी पडे नहि अने जे जुदी पडे ते चीज पोतानी नहि. जो, आत्मा अंदर ध्यान करीने परमात्मा थाय छे त्यारे राग रहेतो नथी, राग छूटो पडी जाय छे. माटे जाणनार-देखनार आत्माथी ते भिन्न चीज छे. राग तारामां नथी अने तुं रागमां नथी. बन्ने चीज तद्न भिन्न भिन्न छे.
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जेम नाळियेरमां उपरनां छालां तेम ज काचली छे ते नाळियेर नथी. तथा ते काचली तरफनी लाल छाल छे ते पण नाळियेर नथी. अंदर धोळो अने मीठो गोळो छे ते नाळियेर छे. तेम आ शरीर छे ते उपरनां छालां छे, अंदर जे कर्म छे ते काचली छे तथा जे दया, दान, भक्ति, काम, क्रोध आदि पुण्य-पापना जे भाव छे ते लाल छाल छे. अने अंदर आनंदनो शुद्ध गोळो छे ए भगवान आत्मा छे. जेम धोळो अने मीठो गोळो ते नाळियेर छे एम ज्ञानानंद शुद्ध गोळो ए आत्मा छे. आम सर्व भिन्न भिन्न छे. आवो संतोनो उपदेश छे. जन्म-मरण रहित थवानी चीज तो जगतथी जुदी छे. भाई! तुं जन्म-मरण करीने अनादिथी दुःखी थई रह्यो छे छतां तने थाक नथी लाग्यो? श्रीमद् राजचंद्रे कह्युं छे केः-
आत्मा ज्ञानरस-चैतन्यरसथी परिपूर्ण भरेलुं तत्त्व छे. ते सत् छे, अने ज्ञान आनंद तेनुं सत्त्व छे. दया, दान, व्रत, भक्ति आदि शुभभाव के हिंसा, जूठ, चोरी, विषयवासना आदि अशुभभाव जे थाय छे ते विकार छे. ते आत्मानुं सत्त्व नथी. आत्मा अने राग भिन्नभिन्न सत्त्व छे. बल्के राग तो बेडी समान छे. अशुभ राग लोढानी बेडी छे तो शुभराग सोनानी; पण छे तो बन्नेय बेडी. शुभराग पण बेडी छे, भलो नथी. प्रभु! तारी प्रभुताने तो एकवार जाण. जाणवुं-देखवुं अने आनंद ए तारी प्रभुता छे. ए तारा तत्त्वनुं सत्त्व छे. आत्मा अनादि-अनंत वस्तु छे. जे वस्तु छे ते उत्पन्न थती नथी तेम ज एनो नाश पण थतो नथी. छतां अज्ञानी अनादिथी शुं करी रह्यो छे? प्रतिसमय नवा नवा थता पुण्य-पापना भावने पोताना मानी सूतो छे. तेने श्रीगुरु कहे छे के-प्रभु! तारी भूल थाय छे. जे चीज क्षणिक छे अने जे चीज तारामां नथी तेने पोतानी मानीने सूतो छे ए मोटी भूल छे.
श्रीमद् राजचंद्र एकवार कहेता हता के आत्माना गुणोनो जेम पार नथी तेम एना अपलक्षणोनो पण पार नथी. पोतानी जातने न जाणवी अने राग तथा पुण्य- पापने पोताना मानवा ए अपलक्षण छे. ज्ञान निज लक्षण छे. तेने ठेकाणे रागने पोतानुं स्वरूप मानवुं ते अपलक्षण छे. भाई! मार्ग तो आवो छे, बापु. भले तने न बेसे, पण तारी चीज आवी छे, नाथ! केटलाक कहे छे के संस्कार सुधारो. पण ए तो कोलसाने सुधारवा जेवुं छे. कोलसाने सुधारतां काळप नीकळशे. परंतु जो धोळाश जोईती होय तो तेने बाळवो पडशे. तेम जो सुधारो करवो होय तो पुण्य-पापना भाव मारा नथी एम जाणी बाळी नाख. नहीं तो सुधारो थशे नहि. भगवान! मोक्षनो मार्ग कोई अलौकिक चीज छे.
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दया पाळवी, व्रत करवां अने देशनी सेवा करवी एमां लोको धर्म मानी बेठा छे. पण बापु! एमां धूळेय धर्म थतो नथी. आत्मानी तें कदी सेवा करी नथी तेथी तने धर्म थयो नथी.
भूल केम छे अने ते केम टळे? अनादिथी जीव पुण्य-पापना भावने पोताथी एकपणे मानीने सूतो छे अने पोते पोतानी मेळे अज्ञानी थई रह्यो छे. कर्मोए तेने अज्ञानी कराव्यो छे एम नथी. आवा अज्ञानीने श्रीगुरु भेदज्ञान करावे छे के-भाई! तुं तो वीतराग-विज्ञाननो घन छे. तारी चीजमां तो एकलां ज्ञान अने आनंद भर्यां छे. राग ज्यां तारी चीज नथी, तो पछी शरीर, बायडी, छोकरां इत्यादि तारां कयांथी होय? तेथी पर जडनी तो अहीं वात ज लीधी नथी. अहीं तो रागथी भिन्नता बतावनारी उथल-पाथलनी वात छे. कहे छे के पुण्य-पापना परिणामने तुं पोताना माने छे ते मान्यताने उथलावी नाख. भाई! आ कांई भाषा बोलवाथी थई जाय एम नथी. निज चैतन्यस्वभावथी एकपणुं करी अंतर परिणमन करवुं जोईए.
भगवान! तुं आनंदनो नाथ प्रभु रागमां एकपणुं मानी सूतो छे ते तने शोभे छे? तुं तो जाणनार-देखनार स्वरूपे छे. पुण्य-पापना विकल्पो ए तारा नथी. तुं एमां नथी. माटे तुं शीघ्र जाग. श्रीगुरु कहे छे के-जाग रे जाग, भाई! हवे तुं रागमां बहु सूतो छे, अनादिथी तुं रागनी सोड ताणी सूतो छे. हवे शीघ्र जाग. हळवे-हळवे एम नहि, पण शीघ्र जाग. सावधान था. आ तारो आत्मा एक ज्ञानमात्र ज छे. जाणवुं- जाणवुं-जाणवुं एवा जाणकस्वभावना तत्त्वनुं तुं सत्त्व छे, ज्ञानमात्र कहेतां राग नहि पण तेमां अनंत आनंद, शान्ति, प्रभुता, स्वच्छता इत्यादि अनंत शक्ति आवी जाय छे. आम श्रीगुरु परभावथी भेदज्ञान करावी (अज्ञानीने) एक आत्मभावरूप करे छे.
अहाहा! आमां तो श्रीगुरु-जैनना गुरु-दिगंबर संत-निर्ग्रंथ गुरु केवो उपदेश आपे छे ए पण आवी जाय छे. आनो अर्थ एम थाय छे के जैनना गुरु एने कहेवाय के जे एम उपदेश आपे के रागथी आत्मा भिन्न छे, रागथी आत्माने किंचित् पण लाभ के धर्म थाय नहीं. परंतु जे रागथी धर्म थवानुं कहे ते साचा जैनगुरु नथी पण अज्ञानी कुगुरु छे. दिगंबर निर्ग्रंथ गुरु तो अज्ञानीने रागादि परभावथी विवेक करावे छे के- भगवान! पुण्य-पापना जे भाव उत्पन्न थाय ते आत्मानी चीज नहि, ए तो आत्मानो घात करनारी चीज छे. भगवाने सात तत्त्व कह्यां छे के नहि? तो तेमां दया, दान, व्रत, भक्ति, इत्यादि भाव पुण्यतत्त्व छे, अने हिंसा, चोरी आदिना भाव ते पापतत्त्व छे. तथा ते बन्नेथी भिन्न एकरूप ज्ञायकभाव छे ते जीवतत्त्व छे. अहाहा! शरीर, वाणी, इत्यादि अजीव तत्त्व छे ए तो कयांय दूर रह्यां, परंतु अहीं तो जे राग थाय छे ते कृत्रिम, क्षणिक, उपाधिमय मलिनभावथी तारी ज्ञायक चीज
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भिन्न छे एम श्रीगुरु भेदज्ञान करावी जीवने एक आत्मभावरूप करे छे. अहो! ज्ञानीओनो उपदेश परभावथी भेद करावी जीवने आत्मभावरूप करे छे!
अरेरे! एणे अनंतकाळथी आम ने आम पोतानी मूळ चीजने समज्या विना बधुं गुमाव्युं छे. छहढाळामां आवे छे ने केः-
अनंतवार व्रत, तप, भक्ति, पूजा करीने मरी गयो, परंतु आत्मानुं ज्ञान कर्युं नहि तेथी किंचित् सुखनी प्राप्ति न थई. रागनुं ज्ञान न कर्युं एम नहि पण (रागथी भिन्न) आत्मानुं ज्ञान-चैतन्यनुं ज्ञान न कर्युं तेथी सुखी न थयो अने चारगतिमां रखडयो. अहाहा! दिगंबर मुनि थयो, र८ मूळगुण पाळ्या, महाव्रतादि पाळ्यां; पण एमां कयां धर्म हतो? ए तो राग, विकल्प अने आस्रवभाव हतो. दुःख अने आकुळता हतां. एनाथी भिन्न आत्माना ज्ञान विना सुख कयांथी थाय?
तेने हवे श्री गुरु कहे छे के-भाई! शीघ्र जाग, ऊठ. अनंतकाळथी पुण्य-पापने पोतानां मानी मिथ्यात्वमां सूई रह्यो छे तो हवे जलदी जाग. आ टाणां आव्यां छे, माटे सावधान था-सावधान था. राग तारी चीज नथी तेथी रागमां सावधानी छे ते छोडीने हवे स्वरूपमां सावधान था. जे व्यवहारमां सावधान छे ते निश्चयमां ऊंघे छे अने जे निश्चयमां सावधान छे ते व्यवहारमां ऊंघे छे.
आ तारो आत्मा वास्तवमां एक ज छे. अर्थात् ते ज्ञानस्वरूपे पण छे अने राग-स्वरूपे पण छे एम नथी. तुं तो भगवान! एक ज्ञानस्वरूपे ज छे. राग तो अन्यद्रव्यनो-पुद्गलनो भाव छे. रागमां चैतन्यना प्रकाशना नूरनो अभाव छे. दया, दान, व्रत, भक्ति आदि शुभभावो चैतन्यना प्रकाशथी रहित अंधकारमय छे. चैतन्यप्रकाशबिंब प्रभु तुं एक ज्ञायकभावमात्र छे अने रागथी मांडीने सघळा अन्यद्रव्यना भावो-परद्रव्यना भावो परभावो छे. माटे तुं शीघ्र जाग्रत थई स्वरूपमां सावधान था. श्रीगुरुनो आवो उपदेश छे. आकरुं तो लागे पण आ ज परमार्थ वात छे. आ सिवाय अन्यथा कोई उपदेश करे के-व्यवहारथी धर्म थाय के व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय तो ते जैन गुरु नथी पण मिथ्याद्रष्टि-अज्ञानी छे.
अज्ञानी एकवार के बे वारमां समजतो नथी. एटले श्रीगुरु तेने वारंवार समजावे छे के-‘राग अने आत्मा भिन्न भिन्न छे, व्यवहार करतां करतां निश्चय न थाय, राग करतां करतां वीतरागता न थाय, इत्यादि.’ आम वारंवार सांभळे छे तेने वारंवार कहे छे एम कहेवाय छे. वारंवार सांभळवानी योग्यता हती तेथी वारंवार सांभळवाथी शिष्यने जिज्ञासा थई के-अहो! आ शुं कहे छे? तेने श्रीगुरु आगमनुं वाकय कहे छे