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करतां निमित्तनुं अनुसरण छूटी जाय छे. त्यारे ते भाव्य पण रहेतुं नथी अने केवळज्ञान प्रगट थाय छे. तेवी रीते मति, श्रुत, अवधि अने मनःपर्यय ज्ञानमां पण लई लेवुं. आ प्रकारे ज्ञानावरणीय कर्म जीताय छे.
केवळदर्शनावरणीय कर्मनो उद्रय आवतां, तेने अनुसरे तो जरी दर्शननी हीणतारूप भाव्य थाय छे. ज्ञानी अने मुनिने पण पर्यायमां दर्शननी हीणदशारूप भाव्य थवानी लायकात होय छे तेथी भाव्य थाय छे, कर्मना कारणे नहि. जो ते (उदय) तरफनुं लक्ष छोडी स्वभावमां आवे (संपूर्ण आश्रय पामे) तो केवळदर्शनावरणीय कर्म जीताय छे. तेवी ज रीते चक्षु, अचक्षु अने अवधि दर्शनावरणीय कर्मने जीतवा संबंधमां पण समजवुं.
हवे अंतराय कर्मः-दान, लाभ, भोग, उपभोग अने वीर्य ए पांच पर्याय छे. अंतराय कर्मनो उदय आवे छे माटे आ पांच पर्याय हीणी थाय छे एम नथी. परंतु ज्यारे ए हीणीदशा थाय छे त्यारे कर्मना उद्रयने निमित्त कहे छे. लाभांतराय, दानांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय अने वीर्यांतराय कर्मनो उदय आवे छे ते जडमां छे, अने ते समये हीणीदशा थवानी पोताना उपादानमां लायकात छे; तेथी उदयने अनुसरतां हीणीदशारूप भाव्य थाय छे. परंतु परनुं लक्ष छोडीने त्रिकाळ वीतरागमूर्ति अकषायस्वभावी भगवान आत्मानो आश्रय करे तो भाव्य-भावकनी एक्तानो संकरदोष जे थतो हतो ते टळी जाय छे. आ अंतरायकर्मनुं जीतवुं छे.
तेवी रीते आयुकर्मनो उदय छे माटे जीवने शरीरमां रहेवुं पडे छे एम नथी. भावक कर्मनो उदय जड कर्ममां छे अने तेने अनुसरीने पर्यायमां रहेवानी लायकात पोतानी छे माटे जीव रह्यो छे. आयुकर्म तो निमित्तमात्र छे. साता-असाता वेदनीयकर्मनो उदय होय ए तो जडमां छे. वळी खरेखर तो ए संयोगनी प्राप्तिमां निमित्त छे. तेना उदये जीवनी पर्यायमां किंचित् नुकशान थाय छे ते पोताना कारणे छे, परंतु उदयना कारणे नहि. तेवी रीते नामकर्मनो उदय तो जडमां छे अने तेना निमित्ते जीवनी सूक्ष्म अरूपी-निर्लेप दशा प्रगट होवी जोईए ते थती नथी ते जीवनी पोतानी योग्यताथी छे केमके ते काळे उदयनुं अनुसरण होय छे. गोत्रकर्म संबंधी पण आम समजी लेवुं. आम आठेय कर्मनो उदय तो जडमां छे अने भावक कर्मने अनुसरीने थवा योग्य जे भाव्य ते आत्मानी दशा पोताथी छे, कर्मना कारणे नहि. ज्ञानी ते उदयने अवगणीने, तेनुं लक्ष छोडीने निष्कर्म निज ज्ञायकभावने अनुसरतां ते ते भाव्यदशा प्रगट थती नथी ते कर्मने जीतवुं थयुं कहेवाय छे.
घातीकर्मने कारणे आत्मामां घात थाय छे एम नथी. परंतु द्रव्यघातीकर्मना उदयकाळे पर्यायमां ते जातनी हीणी दशारूपे परिणमवानी एटले भावघातीरूपे थवानी पोतानी लायकात छे, परंतु कर्मना कारणे ते लायकात नथी. कर्मना कारणे कर्ममां पर्याय थाय छे,
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आत्मामां नहि. अहाहा! परने कारणे बीजामां कांई थाय एवुं जैनधर्ममां छे ज नहि. गुणोनी पर्याय थाय छे तेमां पोते ज कारण छे, कारण के पोते ज कर्मनुं अनुसरण करे छे. पोते जेटले दरज्जे (अंशे) निमित्तनुं अनुसरण छोडी, स्वभाव जे साक्षात् वीतरागस्वरूप छे तेने अनुसरी वीतराग पर्याय प्रगट करे छे तेटले अंशे भाव्यभावक- संकरदोष टळे छे.
अहो! आ तो वीतरागना अलौकिक न्याय छे. जेम पेंथीए पेंथीए तेल नाखे तेम आचार्योए वीतराग भगवाननो मार्ग स्पष्ट कर्यो छे. कुंदकुंदाचार्यनां शास्त्रो अने अमृतचंद्राचार्यनी टीका अगाध छे. संतोए तो हृदय खुल्लां कर्यां छे. जेवी रीते द्रव्यकर्म जीताय छे तेम नोकर्मने अनुसरीने जे विकारी भाव थाय छे तेने छोडी स्वभावने अनुसरतां नोकर्मनुं जीतवुं थाय छे. वळी मनना निमित्ते जे कंपन छे तेने अनुसरीने योगपणे थवानी योग्यता पोतानीछे. ते भाव्य-भावकसंकरदोष जेटला अंशे स्वभावने अनुसरवामां आवे तेटला अंशे टळी जाय छे. आ शास्त्रमां आस्रव अधिकारमां गाथा १७३ थी १७६ ना भावार्थमां पंडित जयचंदजीए लख्युं छे केः- ‘क्षायिक सम्यग्द्रष्टिने सत्तामांथी मिथ्यात्वनो क्षय थती वखते ज अनंतानुबंधी कषायनो तथा ते संबंधी अविरति अने योगभावनो पण क्षय थई गयो होय छे तेथी तेने ते प्रकारनो बंध थतो नथी.’ तेथी श्रीमद् राजचंद्रे ‘सर्वगुणांश ते सम्यक्त्व’ अने पंडित श्री टोडरमलजीए रहस्यपूर्ण चिठ्ठीमां ‘ज्ञानादि गुणो एकदेश चतुर्थ गुणस्थान थतां प्रगट थाय छे’ एम कह्युं छे.
जेम उपर मन लीधुं तेम वचन, काय अने पांच इन्द्रियो पण लेवी. इन्द्रियोने अनुसरीने जे हीणी दशा थाय छे ते भाव्य छे. ते भाव्यने अनिन्द्रिय स्वभावनो आश्रय लईने टाळवुं ते जीतेन्द्रियपणुं छे.
आम समय समयना परिणाम पोताथी स्वतंत्रपणे छे एम सिद्ध करे छे. परिणाम उग्ररूप परिणमे के उग्ररूप न परिणमे, ते पोताना कारणे छे, एमां निमित्तनी जराय डखल नथी. आत्मावलोकनमां आवे छे के-जे द्रव्यनी पर्याय जे समये जे प्रकारे थवानी छे ते पोताना कारणे ज थाय छे अने ते निश्चय छे.
आ रीते मोहनी जग्याए राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काया अने पांच इन्द्रियो-ए सोळ पद मूकीने वर्णन कर्युं. आ सिवायना असंख्य प्रकारना शुभाशुभ भावो छे ते अने अनंत प्रकारनी अंशोनी हीनता अने उग्रता थाय छे ते पण विचारवी.
भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यघन छे. द्रव्येन्द्रियो, भावेन्द्रिय, अने इन्द्रिय-विषयो ए त्रणेय ज्ञेय छे. ए पोतानी चीज नथी एम जाणवुं एने सर्वज्ञ परमात्मा केवळीनी
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स्तुति कहे छे. जे पोतानी चीज होय ते दूर न थाय, अने जे दूर थाय ए पोतानी चीज केम होय? जेने केवळीनी स्तुति करवी होय तेणे आनंद अने सर्वज्ञस्वभावथी परिपूर्ण भगवान आत्मा साथे राग अने निमित्तथी भिन्न पडी, एक्तानी निर्विकल्प भावना करवी. आवी एक निश्चय स्तुतिनी वात ३१ मी गाथामां आवी गई.
हवे आ गाथामां एम कह्युं के-राग अने निमित्तथी भिन्न पडीने, भगवान आत्मा जे शुद्ध चैतन्यघन वस्तु छे तेनी सन्मुख थवाथी जेने पर्यायमां शुद्धता प्रगटी छे (ज्ञेय-ज्ञायक संकरदोष दूर थयो छे) ते ज्ञानीने हजु (मोह) कर्मनुं निमित्तपणुं छे, अने तेना तरफना वलणवाळी विकारी भाव्य दशा थाय छे. हवे ए ज्ञानी निमित्तनुं लक्ष छोडीने अंदर निज ज्ञायकभावनो उग्र आश्रय लईने ते भाव्य मोह-रागादिने जीते छे अर्थात् मोहनो उपशम करे छे. तेथी तेने भाव्यभावकसंकरदोष थतो हतो ते टळे छे, अने आत्मानी स्तुति थाय छे अर्थात् आत्माना गुणनी वृद्धि थाय छे.
जडकर्म जे मोह तेना अनुसार प्रवृत्तिथी आत्मा भाव्यरूपे थतो हतो तेने भेदज्ञानना बळथी जुदो अनुभव्यो ते जितमोह जिन थयो. उपशम श्रेणी चढतां मोहना उदयनो अनुभव न रहे, पण पोताना बळथी उपशमादि करी आत्माने अनुभवे ते जितमोह छे. उपशमादि केम कह्युं? उपशमश्रेणीमां ज्ञान, दर्शन अने वीर्यनो क्षयोपशमभाव होय छे अने जेम पाणीमां मेल होय ते ठरीने नीचे बेसी जाय तेम विकार (चारित्र मोह) उपशमश्रेणीमां दबाई जाय छे, पण तेनो क्षय थतो नथी तेथी तेने उपशम कहे छे.
उपशम एक मोहकर्मनो होय छे त्यारे क्षयोपशम, उद्रय, क्षय चारेय घातीकर्मनो होय छे. क्षयोपशमभाव १ थी १२ गुणस्थान सुधी, क्षायिकभाव ४ थी १४ गुणस्थान सुधी अने उदयभाव १ थी १४ गुणस्थान सुधी होय छे. पारिणामिकभाव तो सदाय सर्व जीवोने होय छे.
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अथ भाव्यभावकभावाभावेन–
जिदमोहस्स दु जइया खीणो मोहो हवेज्ज साहुस्स। तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूहिं।। ३३ ।।
तदा खलु क्षीणमोहो भण्यते स निश्चयविद्भिः।। ३३ ।।
हवे, भाव्यभावक भावना अभावथी निश्चयस्तुति कहे छेः-
निश्चयविदोथकी तेहने क्षीणमोह नाम कथाय छे. ३३.
गाथार्थः– [जितमोहस्य तु साधोः] जेणे मोहने जीत्यो छे एवा साधुने [यदा] ज्यारे [क्षीणः मोहः] मोह क्षीण थई सत्तामांथी नाश [भवेत्] थाय [तदा] त्यारे [निश्चयविद्भिः] निश्चयना जाणनारा [खलु] निश्चयथी [सः] ते साधुने [क्षीणमोहः] ‘क्षीणमोह’ एवा नामथी [भण्यते] कहे छे.
टीकाः– आ निश्चयस्तुतिमां पूर्वोक्त विधानथी आत्मामांथी मोहनो तिरस्कार करी, जेवो (पूर्वे) कह्यो तेवा ज्ञानस्वभाव वडे अन्यद्रव्यथी अधिक आत्मानो अनुभव करवाथी जे जितमोह थयो, तेने ज्यारे पोताना स्वभावभावनी भावनानुं सारी रीते अवलंबन करवाथी मोहनी संततिनो अत्यंत विनाश एवो थाय के फरी तेनो उद्रय न थाय-एम भावकरूप मोह क्षीण थाय, त्यारे (भावक मोहनो क्षय थवाथी आत्माना विभावरूप भाव्यभावनो पण अभाव थाय छे अने ए रीते) भाव्यभावक भावनो अभाव थवाने लीधे एकपणुं थवाथी टंकोत्कीर्ण (निश्चल) परमात्माने प्राप्त थयेलो ते ‘क्षीणमोह जिन’ कहेवाय छे. आ त्रीजी निश्चयस्तुति छे.
अहीं पण पूर्वे कह्युं हतुं तेम ‘मोह’ पदने बदली राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, ध्राण, रसन, स्पर्शन-ए पदो मूकी सोळ सुत्रो (भणवां अने) व्याख्यान करवां अने आ प्रकारना उपदेशथी बीजां पण विचारवां.
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न्नुः स्तोक्र व्यवहारतोऽस्ति वपुषः स्तुत्या न तत्तत्त्वतः।
स्तोक्रं निश्चयतश्चितो भवति चित्स्तुत्यैव सैवं भवे–
न्नातस्तीर्थकरस्तवोत्तरबलादेकत्वमात्माङ्गयोः।। २७।।
नयविभजनयुक्त्यात्यन्तमुच्छादितायाम्।
अवतरति न बोधो बोधमेवाद्य कस्य
स्वरसरभसकृष्टः प्रस्फुटन्नेक एव।। २८ ।।
____________________________________________________________
भावार्थः– साधु पहेलां पोताना बळथी उपशम भाव वडे मोहने जीती, पछी ज्यारे पोताना महा सामर्थ्यथी मोहनो सत्तामांथी नाश करी ज्ञानस्वरूप परमात्माने प्राप्त थाय त्यार ते क्षीणमोह जिन कहेवाय छे.
हवे अहीं आ निश्चय-व्यवहाररूप स्तुतिना अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [कायात्मनोः व्यवहारतः एकत्वं] शरीरने अने आत्माने व्यवहारनयथी एकपणुं छे [तु पुनः] पण [निश्चयात् न] निश्चयनयथी एकपणुं नथी; [वपुषः स्तुत्या नुः स्तोत्रं व्यवहारतः अस्ति] माटे शरीरना स्तवनथी आत्मापुरुषनुं स्तवन व्यवहारनयथी थयुं कहेवाय छे, अने [तत्त्वतः तत् न] निश्चयनयथी नहि; [निश्चयतः] निश्चयथी तो [चित्स्तुत्या एव] चैतन्यना स्तवनथी ज [चितः स्तोक्रं भवति] चैतन्यनुं स्तवन थाय छे. [सा एवं भवेत्] ते चैतन्यनुं स्तवन अहीं जितेन्द्रिय, जितमोह, क्षीणमोह-एम (उपर) कह्युं तेम छे. [अतः तीर्थकरस्तवोत्तरबलात्] अज्ञानीए तीर्थंकरना स्तवननो जे प्रश्न कर्यो हतो तेनो आम नयविभागथी उत्तर दीधो; ते उत्तरना बळथी एम सिद्ध थयुं के [आत्म–अङ्गयोः एकत्वं न] आत्माने अने शरीरने एकपणुं निश्चयथी नथी. २७.
हवे वळी, आ अर्थने जाणवाथी भेदज्ञाननी सिद्धि थाय छे एवा अर्थवाळुं काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [परिचित–तत्त्वैः] जेमणे वस्तुना यथार्थ स्वरूपने परिचयरूप कर्युं छे एवा मुनिओए [आत्म–काय–एकतायां] ज्यारे आत्मा अने शरीरना एकपणाने [इति नय–विभजन–युक्त्या] आम नयना विभागनी युक्ति वडे [अत्यन्तम् उच्छादितायाम्] जडमूळथी उखेडी नाख्युं छे-अत्यंत निषेध्युं छे, त्यारे [कस्य] कया पुरुषने [बोधः] ज्ञान
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[अद्य एव] तत्काळ [बोधं] यथार्थपणाने [न अवतरति] न पामे? अवश्य पामे ज. केवुं थईने? [स्व–रस–रभस–कृष्टः प्रस्फुटन् एकः एव] पोताना निजरसना वेगथी खेंचाई प्रगट थतुं एकस्वरूप थईने.
भावार्थः– निश्चय-व्यवहारनयना विभाग वडे आत्मानो अने परनो अत्यंत भेद बताव्यो छे; तेने जाणीने, एवो कोण पुरुष छे के जेने भेदज्ञान न थाय? थाय ज; कारण के ज्यारे ज्ञान पोताना स्वरसथी पोते पोतानुं स्वरूप जाणे त्यारे अवश्य ते ज्ञान पोताना आत्माने परथी भिन्न ज जणावे छे. अहीं कोई दीर्घसंसारी ज होय तो तेनी कांई वात नथी. २८.
आ प्रमाणे, अप्रतिबुद्धे जे एम कह्युं हतुं के “अमारो तो ए निश्चय छे के देह छे ते ज आत्मा छे”, तेनुं निराकरण कर्युं.
आ रीते आ अज्ञानी जीव अनादि मोहना संतानथी निरूपण करवामां आवेलुं जे आत्मा ने शरीरनुं एकपणुं तेना संस्कारपणाथी अत्यंत अप्रतिबुद्ध हतो ते हवे तत्त्वज्ञानस्वरूप ज्योतिनो प्रगट उद्रय थवाथी अने नेत्रना विकारीनी माफक (जेम कोइ पुरुषनां नेत्रमां विकार हतो त्यारे वर्णादिक अन्यथा देखातां हतां अने ज्यारे विकार मटयो त्यारे जेवां हतां तेवां ज देखवा लाग्यो तेम) पडळ समान आवरणकर्म सारी रीते ऊघडी जवाथी प्रतिबुद्ध थयो अने साक्षात् द्रष्टा (देखनार) एवा पोताने पोताथी ज जाणी, श्रद्धान करी, तेनुं ज आचरण करवानो इच्छक थयो थको पूछे छे के ‘आ स्वात्मारामने अन्य द्रव्योनुं प्रत्याख्यान (त्यागवुं) ते शुं छे?’
गाथा ३१ मां ज्ञेयज्ञायकसंकरदोषने जीतवानी वात हती, गाथा ३२ मां भाव्यभावक-संकरदोष दूर करवानी (उपशमनी) वात करी. हवे आ ३३ मी गाथामां भाव्यभावकसंबंधना अभावनी-क्षयनी वात करे छे. विकाररूप थवानी जे योग्यता छे ते भाव्य छे अने निमित्त कर्म ते भावक छे. ते बन्ने वच्चे जे भाव्य-भावकसंबंध छे तेना अभावथी थती निश्चय-स्तुतिने अहीं कहे छे. गाथा ३२ मां भाव्यभावक-संबंधनो अभाव नहि पण उपशम कर्यो हतो, दाब्यो हतो एनी वात हती. ए ज संबंधनो जे अभाव एटले क्षय करे छे एनी वात आ गाथामां छे.
निश्चयस्तुति एटले स्वभावना गुणनी शुद्धिनी विकासदशा. पूर्वे ३२ मी गाथामां कह्युं हतुं ते प्रमाणे जेणे ज्ञानस्वभाव वडे अन्यद्रव्यथी अधिक एवा आत्मानो अनुभव करी, मोहनो तिरस्कार कर्यो छे अर्थात् मोहनो उपशम कर्यो छे ते जीव हवे क्षायिकभाव द्वारा मोहनो नाश-क्षय करे छे. उपशमश्रेणीमां ११ मा गुणस्थाने क्षायिकभाव थतो नथी तेथी
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मुनि त्यांथी पाछा हठे छे अने पछी उग्र पुरुषार्थ करी मोहादिनो क्षय करे छे. उपशम- श्रेणीमां पुरुषार्थ मंद होय छे, ज्यारे क्षपकश्रेणीमां ते उग्र होय छे.
आ स्तुति छे ते साधकभाव छे, अने ते बारमा गुणस्थान सुधी ज होय छे. १३ मा गुणस्थाने स्तुति न होय, कारण के १३ मुं गुणस्थान-केवळज्ञान तो स्तुतिनुं फळ छे. पूर्वे कह्युं तेम इन्द्रियोने जीतीने जेणे अतीन्द्रिय एवा आत्मानुं ज्ञान अने भान कर्युं छे ते जीव त्यार पछी कर्मना निमित्तने अनुसरीने जे भाव्य थाय छे तेनो उपशम करे छे. त्यारे ते जितमोह थाय छे. ते ज आत्माना हवे पोताना स्वभावभावनुं उग्र अवलंबन करे छे. जे भावनाथी (एकाग्रताथी) कर्मनुं उपशमपणुं थतुं हतुं तेमां पुरुषार्थ मंद हतो. परंतु हवे ते ज्ञायक आत्माना अति उग्र आश्रय वडे पुरुषार्थने उग्र बनावे छे तेथी कर्मनो क्षय थाय छे. उग्र पुरुषार्थथी मोहनी संततिनो अत्यंत नाश थई जाय छे. पुरुषार्थ वडे मोहनो क्षय थाय छे एम कहेवुं ए तो निमित्तनुं कथन छे. कर्मनो जे क्षय थाय छे ए तो एनी पोतानी योग्यताथी थाय छे. स्वभाव तरफना उग्र पुरुषार्थना समये कर्ममां क्षय थवानी योग्यता होय छे ते एनी पोताथी छे. स्वभावसन्मुखताना अति उग्र पुरुषार्थथी ज्यारे केवळज्ञान प्रगटे छे त्यारे चार घातीकर्मानो क्षय थाय छे एम (निमित्तथी) कहेवाय छे. खरी रीते तो ते कर्मो नाश थवानी योग्यतावाळां हतां तेथी क्षयपणाने पामे छे. ते काळे कर्मनी पर्याय अकर्मरूपे थवा योग्य होय छे तेथी थाय छे. आम स्वभावना उग्र पुरुषार्थथी जे पर्यायमां उपशमभावनो मंद पुरुषार्थ हतो तेने टाळी नाख्यो ए त्रीजा प्रकारनी स्तुति छे.
परिपूर्ण भगवान आत्मानो अनुभव करी जे जितमोह थयो छे तेणे रागने दबाव्यो छे, रागनो उपशम कर्यो छे पण अभाव कर्यो नथी, केमके तेने स्वभावनुं उग्र अवलंबन नथी. हवे जो ते निज ज्ञायकभावनुं अति उग्र अवलंबन ले तो मोहनी संततिना प्रवाहनो एवो अत्यंत विनाश थाय के फरीने मोहनो उदय न थाय. आवी रीते ज्यारे भावकरूप मोहनो क्षय थाय छे त्यारे विभावरूप भाव्यनो पण आत्मामांथी अभाव थाय छे. जे भावक मोह छे तेना तरफनुं वलण छूटतां अने उग्र पुरुषार्थ वडे स्वभावनुं अवलंबन लेतां भावक मोह अने भाव्य मोह बन्नेनो अभाव थाय छे. तेथी क्षीणमोह गुणस्थानमां परमात्मपणाने प्राप्त थाय छे. आ त्रीजा प्रकारनी स्तुति छे.
१२ मा गुणस्थानमां भाव्यभावक भावनो अभाव थवाथी एकपणुं थवाथी टंकोत्कीर्ण परमात्मपणाने प्राप्त थयेलो ते क्षीणमोह जिन थयो छे. त्रण प्रकारे जिन कह्या छे. प्रथम जितेन्द्रिय जिन, बीजो उपशम अपेक्षाए जितमोह जिन अने त्रीजो क्षायिकरूप क्षीणमोह जिन. सम्यग्दर्शन थतां जितेन्द्रिय जिन थाय छे. उपशम श्रेणी थतां जितमोह जिन थाय छे अने अति उग्र पुरुषार्थ द्वारा पूर्ण वीतरागस्वरूप प्रगट थतां क्षायिक जिन-क्षीणमोह जिन थाय छे. बीजा प्रकारनी स्तुतिमां उपशम श्रेणीनी वात छे, उपशम समक्तिनी वात नथी. तेवी रीते त्रीजा प्रकारनी स्तुतिमां केवळज्ञाननी वात नथी, परंतु १२ मा क्षीणमोह
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गुणस्थाननी वात छे, केमके केवळज्ञान तो स्तुतिनुं फळ छे. क्षीणमोह जिन थतां जे पूर्ण वीतरागता थई ते त्रीजा प्रकारनी उत्कृष्ट स्तुति छे. उपशम स्तुतिमां (गाथा ३२ मां) जे सोळ बोल हता ते अहीयां पण लई लेवा. भाई! आ तो भगवान जिनेन्द्रदेवनो मार्ग अति सूक्ष्म छे. अनंतकाळमां जे समज्यो नथी एवो आ मार्ग अहीं बताव्यो छे.
सर्वज्ञ परमात्मानी निश्चयस्तुति कोने कहेवाय ए प्रश्न हतो. तेनो उत्तर आप्यो के-आ भगवान आत्मा ज्ञान अने आनंदस्वरूपी वस्तु छे. तेनी द्रष्टि करी तेनी एक्ता करवी ए केवळीनी पहेला प्रकारनी स्तुति छे. भगवाननी भक्ति, पूजा, जात्रा करवानो जे भाव छे ते शुभभाव होवाथी पुण्यबंधनुं कारण छे. तेथी ते भाव वास्तविक धर्म नथी अने तेथी ते भाव वास्तविक स्तुति पण नथी. अने वास्तविक जिन शासन पण नथी.
शुद्ध ज्ञानस्वरूप पूर्ण पवित्र आनंदधाम भगवान आत्मा छे. तेनी सन्मुख थईने अने निमित्त, राग अने एक समयनी पर्यायथी विमुख थईने अंदर एकाग्र थतां पर्यायबुद्धि छूटवाथी पहेला प्रकारनी स्तुति थाय छे. रागथी भिन्न चैतन्यस्वरूप आत्मानो अनुभव थतां सम्यग्दर्शन थाय छे ते पहेली स्तुति छे. छतां ए सम्यग्द्रष्टिने कर्मना उदय तरफना झुकावथी पोतामां पोताने कारणे भावक कर्मना निमित्ते विकारी भाव्य थाय छे. आ भाव्यभावकसंकरदोष छे. हवे कर्मना उद्रयनुं लक्ष छोडी वस्तु जे अखंड एक चैतन्यघन प्रभु छे तेनी सन्मुख थई तेमां जोडाण करतां उपशमभाव द्वारा ज्ञानी ते मोहने जीते छे ते बीजा प्रकारनी स्तुति छे.
प्रथम स्तुतिमां सम्यग्दर्शन सहित आनंदनो अनुभव छे. बीजी स्तुतिमां भावक मोहकर्मना उद्रयना निमित्ते जे विकारी भाव्य थतुं हतुं ते स्वभावना आश्रये दबावी दई उपशमभाव प्रगट कर्यो. आ प्रकारनी स्तुतिमां स्वभावसन्मुखतानो पुरुषार्थ तो छे, पण ते मंद छे. हवे त्रीजी स्तुतिमां प्रबळ पुरुषार्थथी अंदर एकाग्र थतां रागनो नाश थाय छे. बीजी स्तुतिमां जे उपशमश्रेणी हती तेनाथी पाछा हठीने क्षपकश्रेणीमां जतां रागादिनो क्षय थाय छे. उपशम श्रेणीमां रागादिनो क्षय थतो नथी. तेथी पाछा हठीने ७ मा गुणस्थाने आवीने पछी उग्र पुरुषार्थ वडे क्षपकश्रेणी मांडतां रागादिनो अभाव थाय छे.
अहाहा! अनादिथी पोतानुं स्वरूप अखंड आनंदकंद प्रभु भगवानस्वरूप ज छे. आत्मा स्वयं परमात्मस्वरूप, जिनस्वरूप, वीतरागस्वरूप ज छे. अने जे विकल्प ऊठे छे ए तो अन्य स्वरूप कर्म छे. एकलो अकषायस्वभावी आनंदकंद आत्मा छे. तेनी द्रष्टि करी अनुभव करवो ते प्रथम प्रकारनी आत्मानी स्तुति छे. त्यारपछी रागना उद्रयमां पोताना पुरुषार्थनी कमजोरीथी जोडाण थतुं हतुं ते जोडाण, पोताना स्वरूप तरफना पुरुषार्थथी न
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करतां रागने दाब्यो, रागनो उपशम कर्यो. आ उपशमश्रेणी छे. ए बीजा प्रकारनी स्तुति छे. आ उपशमश्रेणी ८ मा गुणस्थाने शरू थाय छे. पछी ११ मा गुणस्थाने उपशमभाव थाय छे, पण त्यां क्षायिकभाव थतो नथी. तेथी त्यांथी पाछा हठीने सातमा गुणस्थाने आवीने फरी पुरुषार्थनी अति उग्रताथी रागनो नाश करवामां आवे छे ते त्रीजी स्तुति छे. राग उपशम पामे के क्षय पामे काम तो पुरुषार्थनुं ज छे.
मुनिए पहेलां पोताना बळथी बीजी स्तुतिरूप उपशमभाव वडे मोहने जीत्यो हतो, परंतु नाश कर्यो न हतो. ते फरीने पोताना महा सामर्थ्यथी अर्थात् अप्रतिहतस्वरूप वस्तु छे तेना तरफना अप्रतिहत पुरुषार्थथी मोहनो नाश कर्यो. आ पण उपदेशनुं कथन छे. बाकी तो उग्र पुरुषार्थने काळे मोह पोताना कारणे नाश पामे छे. परंतु भाषामां तो एम ज आवे के मोहनो पुरुषार्थथी नाश कर्यो.
आ आत्मा परमात्मा छे. ते एक समयनी पर्याय विनानी परिपूर्ण वीतराग सर्वज्ञस्वभावी परमभावस्वरूप वस्तु छे. तेमां उग्र अप्रतिहत पुरुषार्थ द्वारा स्थिर थई मुनिराज मोहनो अत्यंत नाश करे छे अने त्यारे ज्ञानस्वरूप परमात्माने प्राप्त थाय छे. (तेने क्षीणमोह जिन कहे छे.) बारमा गुणस्थानने प्राप्त पूर्ण वीतराग क्षीणमोह जिन छे. ते त्रीजा प्रकारनी उत्कृष्ट स्तुति छे. आ उत्कृष्ट स्तुतिनुं फळ १३ मुं गुणस्थान- केवळज्ञान छे. आम जे केवळज्ञानस्वभावी पोतानो आत्मा ज्ञाता-द्रष्टास्वरूप छे तेना तरफना संपूर्ण झुकाव अने सत्कारथी पर्यायमां रागनो अने तेना भावक कर्मनो सत्तामांथी नाश थाय छे तेने त्रीजा प्रकारनी केवळीनी उत्कृष्ट स्तुति कहे छे. अहाहा! पोतानी पूर्ण सत्तानो जे अनादर हतो ते छोडीने, तेनो स्वीकार अने संभाळ करवाथी रागनी अने कर्मनी सत्तानो नाश थाय छे, अने त्यारे ते क्षीणमोह जिन थाय छे.
हवे अहीं आ निश्चय-व्यवहार स्तुतिना अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘कायात्मनोः व्यवहारतः एकत्वं’ शरीरने अने आत्माने व्यवहारनयथी एकपणुं छे. अहीं शरीर कहेतां बाह्य शरीर, कर्म अने राग ए बधुं लई लेवुं. आत्मा अने शरीर एक क्षेत्रे रहेवाथी अने बन्ने वच्चे निमित्त-नैमित्तिक संबंध होवाथी तेओ एक छे एम व्यवहारनय कहे छे. ‘न तु पुनः निश्चयात्’ परंतु निश्चयनयथी एकपणुं नथी. निश्चयथी तेओ एक नथी. चैतन्य भगवान जड रजकणोनो पिंड एवा शरीरथी जुदो छे. जेम पाणीनो कळश होय छे तेमां पाणी कळशथी अने कळश पाणीथी भिन्न छे- तेम अंदर ज्ञानजळरूपी भगवान आत्मा अने एनो आकार शरीर अने तेना आकारथी भिन्न छे. शरीर अने आत्माने व्यवहारथी एक कह्या हता पण निश्चयथी एटले खरेखर तेओ एक नथी पण भिन्न छे.
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‘वपुषः स्तुत्या नुः स्तोत्रं व्यवहारतः अस्ति, न तत् तत्त्वतः’ शरीरना स्तवनथी आत्मा-पुरुषनुं स्तवन थयुं एम व्यवहारनयथी कहेवाय छे, पण निश्चयनयथी नहि. अहाहा! जुओ, भगवान त्रिलोकनाथ अरिहंतदेव ते पर वस्तु छे अने तेमनी स्तुतिनो विकल्प ए राग छे. तेथी ए स्तुति आत्मानी स्तुति नथी केमके विकल्प आत्माथी भिन्न चीज छे. रागथी मांडीने बधाय-एटले के सिद्ध भगवान अने तीर्थंकरो पण आ आत्माना स्वरूपथी भिन्न होवाथी अनात्मा छे. तेथी ‘आ आत्मा (पोते) नहि’ एवा अनात्मानी जे स्तुति करे छे ते चैतन्यनी स्तुति करतो नथी पण चैतन्यथी भिन्न शरीरनी स्तुति करे छे. जेम आत्माथी भिन्न एवा अनात्मस्वरूप जड शरीरनी स्तुतिथी राग थाय छे तेम आत्माथी (पोताथी) भिन्न एवा समोसरणमां बिराजमान साक्षात् त्रिलोकीनाथ तीर्थंकरदेवना शरीर के गुणनी स्तुति करवाथी पण, परलक्ष होवाथी, राग उत्पन्न थाय छे. माटे ते आत्मानी स्तुति नथी.
जेम पर पदार्थ आ जीव नथी ए अपेक्षाए अजीव छे, तेम निज द्रव्यरूप भगवान आत्मानी अपेक्षाए बीजां द्रव्यो अद्रव्य छे. बीजां द्रव्यो पोतपोतानी अपेक्षाए तो स्वद्रव्यरूप छे, पण आ जीवद्रव्यनी अपेक्षाए तेओ अद्रव्य छे. तेवी रीते आ आत्माना क्षेत्रनी अपेक्षाए परक्षेत्र ए अक्षेत्र छे, आ आत्माना स्वकाळनी अपेक्षाए परकाळ अकाळ छे अने आ आत्माना स्वभावनी अपेक्षाए परस्वभाव ते अस्वभाव छे. समयसारमां पाछळ अनेकान्तना परिशिष्टना १४ बोलमां आ वात आवे छे. आत्मा स्वचतुष्टयथी छे अने परचतुष्टयथी नथी. तेम ज पर पोताना स्वचतुष्टयथी छे पण आ आत्माना चतुष्टयथी नथी. ज्ञानमात्र जीववस्तु स्वद्रव्यपणे, स्वक्षेत्रपणे, स्वकाळपणे अने स्वस्वभावपणे अस्ति छे, परंतु परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाळ अने परभावपणे नास्ति छे. स्वद्रव्य अनंत गुण अने पर्यायोनो पिंड छे, असंख्य प्रदेश तेनुं क्षेत्र छे, एक समयनी पर्याय ते पोतानो स्वकाळ छे अने पोताना गुण ते स्वभाव छे. आवा स्वद्रव्य-क्षेत्र- काळ-भावनी अपेक्षाए अरिहंत अने सिद्ध भगवाननो आत्मा अद्रव्य, अक्षेत्र, अकाळ अने अस्वभाव छे. आ तो परथी भिन्नतानी (भेदज्ञाननी) वात छे. माटे अर्हंतादिनी स्तुति ए आत्मानी स्तुति नथी.
कळशटीकामां कळश २प२ मां उपर कही एथी पण विशेष सूक्ष्म वात करी छे. त्यां कहे छे केः-स्वद्रव्य एटले अखंड निर्विकल्प अभेद एकाकार वस्तु अने परद्रव्य एटले स्वद्रव्यमां ‘आ गुण अने आ गुणी’ एवो भेदविकल्प करवो ते. स्वक्षेत्र एटले असंख्य प्रदेशी एकरूप आकार अने असंख्य प्रदेश एम तेमां भेद करवो ते परक्षेत्र छे. पूर्णानंदनो नाथ त्रिकाळी वस्तु ते स्वकाळ छे अने एक समयनी जे पर्याय छे ते परकाळ छे. स्वभाव एटले द्रव्यनी सहज शक्ति अने एकरूप वस्तुमां आ ज्ञान, आ दर्शन एम भेद करवा ते परभाव छे.
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अहाहा! वस्तु बहु सूक्ष्म छे, भाई. ज्यां ‘हुं आ द्रव्य अने आ पर्याय’ तेवो भेद पण परद्रव्य छे त्यां पुण्य-पापना भावोनुं शुं कहेवुं? ए तो परद्रव्य छे ज. अभेद स्वभावमां गुण-भेदनी कल्पना करवी ए परभाव छे. अहो! दिगंबर संतोनी वीतराग- मार्गनी वात अलौकिक छे. आवी वस्तुना स्वरूपनी वात बीजे कयांय नथी.
नियमसारनी प० मी गाथामां पण आवे छे केः-स्वरूपना आश्रये प्रगटेली एक समयनी निर्मळ वीतरागी संवर, निर्जरा अने केवळज्ञाननी पर्याय पण परद्रव्य, परभाव छे अने तेथी हेय छे. पोतानो त्रिकाळी स्वभाव स्वद्रव्य छे अने एक समयनी पर्याय त्रिकाळीमां नथी, त्रिकाळरूप नथी माटे परद्रव्य छे. मूळ गाथामां ‘परदव्वं परसहावमिदि हेयं’ एटले ‘पूवोक्त सर्व भावो परस्वभावो छे, परद्रव्य छे, तेथी हेय छे’ एम कह्युं छे. तथा टीकामां एम लीधुं छे के-‘परंतु शुद्ध निश्चयनयना बळे (शुद्ध निश्चयनये) तेओ हेय छे. शा कारणथी? कारण के तेओ परस्वभावो छे, अने तेथी ज परद्रव्य छे. सर्व विभावगुणपर्यायोथी रहित शुद्ध-अंतःतत्त्वस्वरूप स्वद्रव्य उपादेय छे.’ अहाहा! ते चार-ज्ञान-मति, श्रुत, अवधि अने मनःपर्ययज्ञान ते पण विभावगुणपर्यायो छे. त्रिकाळी ज्ञायक-स्वभाव ते स्वद्रव्य छे अने ते एक ज उपादेय छे. अहीं पर्यायबुद्धि छोडावीने द्रव्यबुद्धि कराववानुं प्रयोजन छे. जेम परद्रव्यमांथी निर्मळ पर्याय उत्पन्न थती नथी तेम एक निर्मळ पर्यायमांथी बीजी नवी निर्मळ पर्याय आवती नथी. चाहे तो मोक्षमार्गनी पर्याय प्रगट हो, तोपण तेने द्रष्टिमांथी छोडवा जेवी छे, केम के त्रिकाळी एक अखंड आनंदकंद ज्ञायक वस्तु ते स्वद्रव्य उपादेय छे अने एक समयनी निर्मळ मोक्षमार्गनी पर्याय ते परद्रव्य छे, तेथी हेय छे.
अहीं एम कहे छे के आत्माने अने शरीरने एकक्षेत्रावगाह संबंध होवाथी शरीरनी स्तुतिथी केवळीनी स्तुति थई एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे, परंतु निश्चयनयथी ए साची स्तुति नथी केमके निश्चयनयथी आत्मा अने शरीर एक नथी. शरीरनुं स्तवन कहो के आ निज भगवान आत्मा सिवाय अन्य आत्मानुं-केवळीनुं स्तवन कहो; ए व्यवहारथी स्तवन छे. निश्चयथी केवळीना गुणनी स्तुति ते साची स्तुति नथी, ए तो राग छे.
‘निश्चयतः चित्स्तुत्या एव चितः स्तोत्रं भवति’ निश्चयथी तो चैतन्यना स्तवनथी ज चैतन्यनुं स्तवन थाय छे. अहाहा! अखंड एक त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यस्वरूप ज्ञायकभावनो सत्कार करवो एटले तेनी सन्मुख थई तेमां एकाग्र थवुं अने निर्मळ पर्याय प्रगट करवी एनुं नाम साची स्तुति छे. आ ज स्तुति भवना अभावनुं कारण छे, बीजी कोई स्तुति-भक्ति भवना अभावनुं कारण नथी. कोई एम कहे के सम्मेदशिखरजीनां जे दर्शन करे तेने ४९ भवे मुक्ति थाय. अरे भाई! आ वीतरागमार्गनी वात नथी. सम्मेदशिखर तो शुं? त्रणलोकना नाथ भगवान अरिहंतदेवनां साक्षात् दर्शन करे तोपण भवनो अभाव
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न थाय. अंदर चिदानंद भगवान त्रणलोकनो नाथ त्रिकाळ बिराजे छे एनां दर्शन भवना अभावनुं कारण छे. आ आत्मा सिवाय शरीरथी मांडी अन्य सर्व पोतानी अपेक्षाए अनात्मा छे. तेनी स्तुति करवी ते निश्चयस्तुति नथी. पूर्ण चैतन्यस्वभावमां एकाग्रतारूप स्तवनथी चैतन्यनुं साचुं स्तवन थाय छे. आ सिवाय पर भगवाननी स्तुति के एक समयनी पर्याय जे परद्रव्य छे तेनी स्तुति (एकाग्रता) ते चैतन्यनी स्तुति नथी.
अहाहा! चैतन्यबिंब, वीतरागमूर्ति भगवान आत्मानी स्तुतिथी केवळीना गुणनी निश्चयस्तुति वा स्वचैतन्यनुं स्तवन थाय छे. ‘सा एवं’ आ चैतन्यनुं स्तवन ते जितेन्द्रिय जिन, जितमोह जिन तथा क्षीणमोह जिन-जे पहेलां त्रण प्रकारे कह्युं ते छे. अहाहा! एक समयनी पर्याय विनानुं जे पूर्ण स्वरूप छे ते तत्त्व छे के नहि? सत्ता छे के नहि? सत्ता छे तो पूर्ण छे के नहि? जो ते पूर्ण छे तो अनादि-अनंत छे के नहि? वस्तु अनादि-अनंत पूर्ण त्रिकाळ ध्रुवस्वरूपे छे. ते तरफना झुकावथी निश्चयस्तुति थाय छे. ते सिवाय विकल्प द्वारा भगवाननी लाख स्तुति करे तोपण साची स्तुति नथी.
प्रश्नः– मोक्षशास्त्रनी शरुआतमां मंगलाचरणमां आवे छे केः-
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तद्गुणलब्धये।।
जेओ मोक्षमार्गना नेता छे, कर्मरूपी पर्वतोने भेदनारा छे, विश्वना तत्त्वोना ज्ञाता छे-एवा परमात्माना गुणोनी प्राप्ति माटे हुं तेमने वंदुं छुं. आमां भगवानना गुणनुं स्तवन करवाथी तेमना गुणनो लाभ (आ) आत्माने थाय छे एम आव्युं ने? कह्युं छे ने के ‘वंदे तद्गुणलब्धये’?
उत्तरः– भाई! ए तो निमित्तनुं, व्यवहारनुं कथन छे. ‘स्तुति करुं छुं’ एवो भाव तो विकल्प छे. परंतु अमृतचंद्राचार्यदेवे त्रीजा कळशमां जेम कह्युं छे तेम, ते विकल्पना काळे द्रष्टि द्रव्य उपर होवाथी जे शुद्धिनी प्राप्ति थाय छे तेने उपचारथी भगवाननी स्तुतिथी थई एम कहेवाय छे. अमृतचंद्राचार्यदेव आ शास्त्रना त्रीजा कळशमां कहे छे के-हुं तो शुद्ध चैतन्यघन छुं. पण मारी पर्यायमां हजु कांईक मलिनता छे. ते मलिनतानो टीका करवाथी ज नाश थाओ अने परम विशुद्धि प्रगट थाओ. तेनो अर्थ शुं? टीका करवानो भाव तो विकल्प छे. शुं विकल्पथी विशुद्धि प्रगट थई जाय? एनाथी शुं अशुद्धि नाश पामे? पाठ तो एवो छे-‘व्याख्यया एव’ टीकाथी ज. एनो अर्थ एम छे के हुं ज्यारे टीका करुं छुं त्यारे विकल्प तो छे, परंतु मारुं जोर तो अखंडानंद द्रव्य तरफ छे. टीकाना काळे द्रष्टिनुं जोर द्रव्य उपर छे तेथी ते जोरना कारणे अशुद्धि नाश थाओ अने परम विशुद्धि थाओ एम कहेवानो भाव छे.
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स्वभावमां एकाग्रताथी एक्ता थवी ते साची-निश्चयस्तुति छे. ‘अतः तीर्थकरस्तवोत्तरबलात्’ आम अज्ञानीए जे तीर्थंकरना स्तवननो प्रश्न कर्यो हतो तेनो आ प्रमाणे नयविभागथी उत्तर आप्यो. ते उत्तरना बळथी एम सिद्ध थयुं के ‘आत्मांगयोः एकत्वं न भवेत्’ आत्मा अने शरीरने निश्चयथी एकपणुं नथी. आत्मा अने अनात्मा एक नथी. तेम ज एक समयनी पर्याय अने त्रिकाळभाव एकरूप नथी. अहाहा! वस्तु आवी सूक्ष्म अने गंभीर छे.
हवे वळी, आ अर्थने जाणवाथी भेदज्ञाननी सिद्धि थाय छे एवा अर्थवाळुं काव्य कहे छेः-
शिष्ये गुरु समक्ष शंका प्रगट करी कह्युं के शरीर अने आत्मा एक छे. कारण के ज्यारे आप तीर्थंकर भगवाननी स्तुति करो छो त्यारे एम कहो छो के-अहो! भगवाननुं शुं सुंदर रूप छे! इन्द्रोना मनने पण ते जीती ले छे. तथा एनुं तेज सूर्यने पण ढांकी दे छे. भगवान! आपनी दिव्यध्वनि तो जाणे साक्षात् अमृत झरतुं न होय! हे गुरुदेव! आप ज आवी रीते शरीरथी अने वाणीथी भगवाननी स्तुति करो छो. तेथी अमे एम मानीए छीए के शरीरने ज आप आत्मा मानो छो. तेनुं अहीं समाधान करे छे.
‘इति परिचिततत्त्वैः’ जेमणे वस्तुना यथार्थ स्वरूपने परिचयरूप कर्युं छे अर्थात् ज्ञानानंदस्वरूप जे वस्तु एनो परिचय करी जेमणे आनंदनो अनुभव कर्यो छे एवा मुनिओए ‘आत्मकायैकतायां’ आत्मा अने शरीरना एकपणाने ‘नयविभजनयुक्त्या अन्यन्तम् उच्छादितायाम्’ नयविभागनी युक्ति वडे जडमूळथी उखेडी नाख्युं छे-अत्यंत निषेध्युं छे. अहाहा! शुं कहे छे? व्यवहारनयथी आत्मा अने शरीरने एकपणुं कहेवामां आवे छे पण निश्चयथी एकपणुं नथी. (अत्यंत निषेध्युं छे)
आ शास्त्रनी चोथी गाथामां कह्युं छे के-भगवान! तें राग केम करवो अने रागने केम भोगववो ए वात तो अनंतवार सांभळी छे, ए वात अनंतवार तारा परिचयमां आवी गई छे अने अनुभवमां पण आवी गई छे; परंतु रागथी भिन्न भगवान आत्मा जे निजस्वभावथी एकत्व छे एनी वात कयारेय सांभळी नथी, परिचयमां आवी नथी अने अनुभवमां पण आवी नथी. परंतु आ कळशमां एम कहे छे के जेमणे वस्तुना यथार्थ स्वरूपनो परिचय कर्यो छे, वारंवार आनंदस्वरूपनो अनुभव कर्यो छे मुनिओए ‘रागनो विकल्प अने भगवान आत्मा त्रणकाळमां एक नथी’ एम भेदज्ञान करीने (एमना) एकपणाने जडमूळथी उखाडी नाख्युं छे. कळश टीकामां ‘परिचिततत्त्वैः’ नो अर्थ ‘प्रत्यक्षपणे जाण्या छे जीवादि सकळ द्रव्योना गुणपर्यायोने जेमणे एवा सर्वज्ञदेव’ एवो कर्यो छे. आम केवळीओए तथा जेमने सम्यग्ज्ञान थयुं छे एवा मुनिओए आत्मा अने शरीरादिना एकपणाने नयविभागनी युक्ति वडे उखेडी नाख्युं छे. एटले के आत्मा अने
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रागादिथी मांडी बधुंय अत्यंत भिन्न छे एम बताव्युं छे. अहाहा! भगवाननो अने मुनिओनो आवो उपदेश होय छे एम कहे छे.
पंचास्तिकायनी १७२ मी गाथामां व्यवहारने साधन अने निश्चयने साध्य कह्युं छे. परंतु ए तो साधननो आरोप आपसीने कह्युं छे. वास्तविक साधन तो रागथी भिन्न थई चैतन्यनो अनुभव करवो ते छे. तेनी साथे जे राग होय छे तेने उपचारथी साधन कह्युं छे. परंतु तेथी (रागथी) निश्चय प्रगट थाय छे-एम नथी. व्यवहारथी जेने साधन कह्युं छे तेनो अहीं अत्यंत निषेध करावे छे.
अहा! भगवाने अनंत ऋद्धिथी भरेली पोतानी चीज परिपूर्ण छे एने बतावी छे. छतां अज्ञानीने अनादिनुं राग अने शरीरनुं लक्ष होवाथी आत्मानुं लक्ष नथी. तेथी जाणे भगवान आत्मा छे ज नहि एम एने थई गयुं छे. एने आत्मा जाणे मरणतुल्य थई गयो छे. भाई! दया, दान, व्रतादिना विकल्पथी लाभ मानतां चैतन्यनुं मरण (घात) थई जाय छे. रागनी एक्तामां आत्मा जणातो नथी, राग ज जणाय छे. पूर्णानंद प्रभु चैतन्यज्योति आखी पडी छे तेनो प्रेम छोडीने जेने शुभाशुभ रागनो प्रेम छे तेने माटे आत्मा मरण-तुल्य थई गयो छे. राग मारो छे, हुं रागमां छुं अने राग मारुं र्क्तव्य छे एम जे माने छे तेने वीतरागस्वरूप आत्मानो अनादर छे. तेथी तेने आत्मा जाणे सत्त्व ज नथी. एम भ्रांति रहे छे.
आ भ्रांति परमगुरु परमेश्वर त्रिलोकीनाथ तीर्थंकरदेवनो उपदेश सांभळतां मटे छे. सर्वज्ञ परमेश्वरनो ए उपदेश छे केः-भगवान! तुं तो आनंदकंद छे ने! अमने पर्यायमां जे परमात्मपद प्रगट थयुं छे तेवुं ज परमात्मपद तारी स्वभाव-शक्तिमां पडयुं छे. तारो आत्मा (शक्तिपणे) अमारा जेवो ज छे. अल्पज्ञ पर्यायवाळो के रागवाळो ते तुं नथी. तुं तो पूर्णानंदस्वरूप भगवान छो आवो तीर्थंकर भगवाननो उपदेश छे. अमारी भक्ति करो तो कल्याण थई जशे एवो भगवाननो उपदेश होय ज नहि.
सच्चिदानंद प्रभु आत्मा पूर्ण ज्ञान अने सुखथी भरेलो भगवान छे. ते अल्पज्ञ, रागमय के शरीररूप नथी. छतां पण ‘हुं अल्पज्ञ, रागमय छुं’ एम मानतां आत्मा मरणतुल्य थई जाय छे. आम माननारे आखा चैतन्यतत्त्वने मारी नाख्युं छे. आवा अज्ञानीने भगवाननी वाणी सजीवन करे छे. एटले के पोते पोताथी सजीवन थाय तो भगवाननी वाणीए सजीवन कर्यो एम कहेवाय छे. ए भगवाननी वाणीमां एम आव्युं छे के-प्रभु! तुं रजकण अने रागथी भिन्न एवो ज्ञानानंदस्वरूप भगवान छो. दया, दान, भक्ति आदि तथा काम, क्रोधादिना जे (शुभाशुभ) विकल्पो थाय छे ते रागादि स्वरूप होवाथी तेमां चैतन्यनो अंश नथी. माटे तुं ए बधाथी भिन्न छो. व्यवहारथी भले ए
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बधा एकरूप कह्या होय पण परमार्थे तो तुं भिन्न ज छे. दिव्यध्वनिमां आम नयविभाग आवे छे अने संतो-मुनिओ पण आ ज रीते भिन्नता बतावे छे.
व्यवहारनयने ज जाणनारा एटले के रागथी धर्म थाय एम माननारा अज्ञानीओ राग अने आत्माने एक कहे छे, माने छे. परंतु सर्वज्ञ परमेश्वर तथा जेमणे राग अने विकल्पथी भगवान आत्माने भिन्न जोयो छे, जाण्यो छे, मान्यो छे अने अनुभव्यो छे एवा भावलिंगी संतो एम कहे छे के-‘भाई! आत्मामां रागनो अंश नथी. आत्मा निश्चयथी रागथी भिन्न छे.’ आम निश्चयनयना बळथी आत्मा अने रागना एकपणाने जडमूळथी उखेडी नाखे छे.
आवो उपदेश सांभळी पोताना स्वरूपने जाणतां, जे चैतन्यज्योत मरणतुल्य थई गई हती ते जाग्रत थई गई. त्यारे भान थयुं के-अहो! हुं तो ज्ञायकस्वरूप ज्ञान अने आनंदनी मूर्ति छुं. रागादि मारा स्वरूपमां नथी अने तेमनाथी मने लाभ पण नथी. मारुं टकवुं मारा चिदानंदस्वरूपथी छे, निमित्त के रागथी मारुं टकवुं नथी. अहाहा! हुं तो पूर्ण आनंद, पूर्ण ज्ञान, पूर्ण श्रद्धा, पूर्ण शांति इत्यादि अनंत अनंत परिपूर्ण शक्तिओथी भरेलो भगवान छुं, इश्वर छुं. आवी रीते जे अनादिनो रागनो अनुभव हतो ते छूटीने चैतन्यज्योतिस्वरूप भगवान ज्ञायक आत्मानो अनुभव थाय त्यारे सम्यग्दर्शन थाय छे. त्यारे आत्मा सजीवन थाय छे.
पहेलांना समयमां शियाळामां जे घी आवतुं ते खूब घन आवतुं. एवुं घन आवतुं के तेमां आंगळी तो शुं, तावेथोय प्रवेशी शक्तो नहि. तेम भगवान आत्मा चैतन्य ज्ञानघन छे. एमां शरीर, वाणी, मन अने कर्म तो प्रवेशी शक्तां नथी, पण शुभाशुभ विकल्प पण तेमां प्रवेशी शक्ता नथी. शरीरादि अजीव तत्त्व छे अने शुभाशुभभाव आश्रव तत्त्व छे. ते बन्ने-आस्रव अने अजीव तत्त्वथी पूर्णानंदनो नाथ भिन्न छे. अहाहा! जीवती-जागती चैतन्यज्योत अंदर पडी छे ते ज्ञान-दर्शनमय चैतन्यप्राणथी त्रिकाळी टकी रही छे. आवा त्रिकाळ टक्ता तत्त्वने न मानतां, देहनी क्रिया मारी, जड कर्म मारुं, दया, दान इत्यादि विकल्प मने लाभदायक एम मानीने अरेरे! जीवती ज्योतने ओलवी नाखी छे. मान्यतामां एना त्रिकाळ सत्त्वनो नकार कर्यो छे.
आवा अज्ञानी जीवने संतोए बताव्युं छे के-भाई! जे सम्यग्दर्शनना अनुभवमां जणाय छे ते चैतन्यसत्ता परिपूर्ण महान छे. ते परिपूर्ण सत्तामां रागनो कण के शरीरनो रजकण समाय एम नथी. अहाहा! ते ज्ञायक चैतन्यचंद्र एकलो शीतळ-शीतळ-शीतळ, शांत-शांत-शांत अकषाय स्वभावनुं पूर छे. भाई! तुं ज आवडो महान छो पोतानी अनंत रिद्धि-गुणसंपदानी खबर नथी तेथी जे पोतानी संपत्ति नथी एवां शरीर, मन, वाणी, बाग, बंगला इत्यादिने पोतानी संपत्ति मानी बेठो छे. अरे प्रभु! तुं कयां राजी थई
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रह्यो छो? राजी थवानुं स्थान तो आनंदनुं धाम एवो तारो नाथ अंदर पडयो छे ने! एमां राजी था ने. बहारनी चीजमां राजी थवामां तो तारा आनंदनो नाश थाय छे.
आ प्रमाणे मुनिओए निश्चय-व्यवहारनयनो विभाग करी स्पष्ट बताव्युं के व्यवहारथी एकपणुं कहेवामां आवे छे तोपण निश्चयथी भगवान आत्मा राग अने शरीरथी भिन्न छे. आवुं ज्यारे सांभळवामां अने जाणवामां आवे छे त्यारे ‘अवतरति न बोधः बोधम् एव अद्य कस्य’ कया पुरुषने ज्ञान तत्काळ यथार्थपणाने न पामे? आवी रीते ज्यारे भेद पाडीने वात समजावी तो कोना आत्मामां ए साचुं ज्ञान न थाय? अर्थात् कोने सम्यग्ज्ञान न थाय? आचार्य कहे छे के अमे भेद पाडीने जीव अने रागनां चोसलां जुदां बताव्यां तो हवे कया पुरुषने (जीवने) आत्मा तत्काळ अनुभवमां न आवे? ज्ञानज्योति आत्मा जडथी भिन्न छे एम जेणे जाणी, निश्चयनयथी व्यवहारनो निषेध कर्यो एवा जीवने ज्ञानानंद प्रभुनो अनुभव केम न थाय? तत्काळ यथार्थ ज्ञान केम न अवतरे? आनंदनी उत्पत्ति केम न थाय? अवश्य थाय ज. आ तो रोकडियो मार्ग छे.
त्रणलोकना नाथ भगवान अरिहंतदेवे चैतन्यमूर्ति आत्माने शरीर तथा रागथी भिन्न बताव्यो छे. तेनो जे अनुभव करे छे ते धर्मी छे. तेनो अवतार सफळ छे. आ सिवायनी बीजी बधी व्रत, दान आदि करोड क्रियाओ करे ते सर्व एकडा विनानां मींडां छे, आत्मा माटे ते लाभकारी नथी. अगियार अंगनुं ज्ञान कर्युं होय के नवपूर्वनी लब्धि प्रगटी होय तो तेथी शुं? एवो परसत्तावलंबी जाणपणानो क्षयोपशम तो अनंत वार कर्यो छे. ए कांई आत्मज्ञान नथी. चैतन्यमूर्ति भगवान आनंदनो नाथ पूर्ण शक्तिनुं आखुं सत्त्व छे. तेने स्पर्शीने जे ज्ञान थाय ते ज्ञान छे अने तेमां भवना अभावना भणकारा वागे छे. जेने अंतरस्पर्श थतां अतीन्द्रिय आनंद आव्यो छे तेणे राग अने आत्माने भिन्न मान्या छे अने ते धर्मी छे. अनंत धर्म-स्वभावनो धरनार एवो धर्मी आत्मा छे. तेनी अंदर द्रष्टि प्रसारतां जेने राग अने शरीरथी आत्मा भिन्न जणाय छे तेने सम्यग्दर्शन थाय छे, भले पछी ते बहारथी दरिद्री होय के सातमी नरकना संयोगमां रहेलो नारकी होय.
नरकमां आहारनो एक कण के पाणीनुं एक बिंदु पण मळतुं नथी. अने जन्म थतां ज एने सोळ रोग होय छे. छतां पण ज्यारे पूर्वना संस्कार याद आवे छे त्यारे एम विचारे छे के-मने संतोए कहेलुं के तुं राग अने शरीरथी भिन्न छे. आ वचन में सांभळेलां पण प्रयोग करेलो नहि. आम विचारी रागनुं लक्ष छोडीने अंतरएकाग्र थाय छे एटले धर्मी थाय छे. त्रीजा नरक सुधी पूर्वना वेरी परमाधामीओ, रूनी गांसडी वाळे तेम शरीरने बांधी, उपरथी धगधगता लोढाना सळियाथी मारे छे. आवी स्थितिमां पण रागथी भिन्न पडीने सम्यग्दर्शन पामी शकाय छे. पूर्वे सांभळ्युं हतुं ते ख्यालमां लई, जेम वीजळी तांबाना सळियामां एकदम उतरी जाय तेम, ते अंदर ज्ञानानंद भगवान
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बिराजे छे एमां पोतानी पर्यायने ऊंडी उतारी दे छे. बहारमां गमे तेवा प्रतिकूळ संजोगो होय पण तेथी शुं? अंदर पूर्णस्वभावी आत्मा छे ने? जुओ, श्रेणीक राजानो जीव पहेली नरकमां छे. बहारमां पीडाकारी संयोगनो पार नथी. छतां तेमने क्षायिक सम्यग्दर्शन छे अने समये समये तीर्थंकर गोत्रना परमाणुओ बंधाय छे. तेमने अंदर एवुं भान वर्ते छे के-‘हुं तो आनंदनो नाथ सच्चिदानंद भगवान आत्मा छुं.’ भक्तिमां आवे छे ने केः-
समकितीने नरकमां पीडाना संयोगनो पार नथी. छतां अंदर आत्माना आनंदनुं (अंशे) वेदन होवाथी शांति छे. प्रतिकूळ संयोग छे तेथी शुं? मने तो संयोगीभाव पण अडतो नथी, स्पर्शतो नथी एवो अनुभव अंदर वर्ततो होवाथी ज्ञानी नरकमां पण सुखने ज वेदे छे.
श्री कुंदकुंदाचार्य, अमृतचंद्राचार्य आदि संतो कहे छे के आनंदनो नाथ अंदर बिराजे छे. आत्माराम-आत्मा रूपी बगीचो अंदर छे. तेमां जरा प्रवेश तो कर! शरीर अने रागथी भगवान आत्मा भिन्न छे. आवी वात जेणे रुचिपूर्वक सांभळी तेने आत्मा केम न जणाय? जणाय ज. खरेखर राग छे ते पण शरीर छे. आ शास्त्रनी ६८ मी गाथामां आवे छे के कारण जेवां कार्य होय छे. तेथी जेम जवमांथी जव ज थाय छे तेम गुणस्थान आदि भावो अचेतन छे, केमके तेओ पुद्गलनुं कार्य छे. पुद्गल जड कर्म कारण छे तेनाथी गुणस्थानना भेद पडे छे. तेथी पुद्गलनुं कार्य होवाथी तेओ अचेतन पुद्गल छे. आवुं (वस्तुस्वरूप) सांभळीने कोने आत्मज्ञान न थाय? अहो! आचार्यदेव अति प्रसन्नताथी कहे छे के-भाई! आ तारो आत्मज्ञाननो काळ छे. आदि पुराणमां आवे छे के ऋषभदेव भगवानने पूर्वना भवमां मुनिराज उपदेश आपे छे के ‘आ तारो सम्यग्दर्शन पामवानो काळ छे. तारी काळलब्धि पाकी गई छे, सम्यग्दर्शन ग्रहण कर. एम अहीं कहे छे के तुं आनंदस्वरूप आत्मा छे ने! हुं राग छुं, शरीर छुं एवुं लक्ष करीने ज्यां पडयो छे त्यांथी द्रष्टि हठावी लक्षने फेरवी नाख. हुं ज्ञायक छुं एम लक्ष कर, आ पुरुषार्थ छे अने एनुं फळ ज्ञान अने आनंद छे.
हवे कहे छे रागथी भिन्न आत्मानी रुचि थतां केवो थईने भगवान आत्मा जणाय छे? ‘स्वरसरभसकृष्टः प्रस्फुटन् एकः एव’ पोताना निजरसना वेगथी खेंचाई प्रगट थतुं एकस्वरूप थईने. आत्मा आनंदनो रसकंद अंदर पडयो छे. तेनी रुचि करतां तरत ज ते रागथी भिन्न, पोताना निजरसथी प्रगट थाय छे. अज्ञानमां जेम रागनो वेग हतो ते हवे ज्ञान थतां आनंदनो वेग आवे छे. रागना वेगथी भिन्न पडीने ज्यां द्रष्टि ज्ञायक उपर पडी त्यां तत्काळ ज्ञानरसनो, आनंदरसनो, शांतरसनो, वीतराग अकषायरसनो वेग
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उछळे छे. अहाहा! पर्यायमां आनंदनो उभरसो आवे छे. दूधनो उभरो तो खाली (पोलो) होय छे, ज्यारे आ तो नक्कर उभरो छे.
पुण्य-पापना भावने पोताना मानीने एकला ज्ञान अने आनंदना रसथी भरपूर आत्माने अनेकरूप मान्यो हतो. हवे भगवान आत्मानो निजरस जे आनंद तेनो उग्रपणे पर्यायमां वेग खेंचाईने जोरथी आवतां एकस्वरूपे प्रगट थाय छे. अहाहा! जेवो आनंदरसकंद स्वभावे छे अंतर्द्रष्टि थतां तेवो तरत ज पर्यायमां आनंद प्रगट थाय छे. ज्ञातास्वभाव तो त्रिकाळ एकरूप ज छे, ए तो विकाररूपे छे ज नहि. आवा ज्ञाताद्रष्टा-स्वभावनो अनुभव थतां पर्यायमां आनंदनो अनुभव थाय छे. आनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे. बाकी बधुं थोथेथोथां छे, नकामुं छे. आत्मा शुं छे एनी खबर न मळे अने मंडी पडे व्रत, तप अने नियम आदि करवा. पण ए तो बधुं वर वगरनी जान जेवुं छे. जेम वर विना कोई जान काढे तो ए जान न कहेवाय, ए तो माणसोनां टोळां कहेवाय. एम भगवान आनंदनो नाथ द्रष्टिमां लीधो नहि अने व्रत, तप आदि करे तो ए बधां थोथां छे, रागनां टोळां छे; एमां कांई धर्म हाथ न आवे. भाई! हुं आवो छुं एम प्रतीतिमां तो ले.
दया, दान, व्रतादिनो राग अने आत्मा वच्चे अत्यंत अभाव छे. आगममां चार अभाव-१. प्रागभाव, र. प्रध्वंसाभाव, ३. अन्योन्य अभाव अने ४. अत्यंताभाव (न्यायशास्त्रमां) कहेला छे. ज्यारे आत्मा अने राग वच्चेनो अत्यंत अभाव अध्यात्मनो छे. अहाहा! शुं वीतरागमार्गनी गंभीरता अने ऊंडप! निश्चय- व्यवहारनयना विभाग वडे आत्मा अने परनो, आत्मा अने शरीरनो तथा आत्मा अने रागनो अत्यंत भेद ज्ञानीओए बताव्यो छे. ते जाणीने एवो कोण आत्मा होय के जेने भेदज्ञान न थाय? अहीं पुरुषार्थनी उग्रतानुं जोर बताव्युं छे. वीर्यनो वेग स्वसन्मुख करवानी वात छे.
आत्मामां वीर्य नामनो गुण छे. स्वरूपनी रचना करवी ए एनुं कार्य छे. रागने रचवो के देहनी क्रिया करवी ए एनुं स्वरूप त्रणकाळमां नथी. आवा परिपूर्ण वीर्यगुणथी-पुरुषार्थगुणथी ठसोठस भगवान आत्मा भरेलो छे. ते गुणनुं कार्य आनंद आदि शुद्ध निर्मळ पर्यायने रचवानुं छे. रागने रचे ए तो नपुंसक्ता छे, ए आत्मानुं वीर्य नहि. राग ए स्वरूपनी चीज नथी. वीर्यगुणने धरनार भगवान आत्मानुं ग्रहण करतां ते वीर्य निर्मळ पर्यायने ज रचे छे. व्यवहारने (रागने) रचे एवुं तेना स्वरूपमां ज नथी. निमित्तथी थाय ए वात तो कयांय दूर रही गई. ए मान्यता तो अज्ञान छे. इष्टोपदेशनी ३प मी गाथामां आवे छे के बधां निमित्तो धर्मास्तिकायवत् उदासीन छे. निमित्त प्रेरक होय के स्थिर, परने माटे तो ते धर्मास्तिकायवत् उदासीन ज छे. धजा फरफर हाले छे
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एमां पवन प्रेरक निमित्त छे, छतां धर्मास्तिकायवत् उदासीन छे. धजा पोते पोताथी ज आमतेम फरफर थाय छे, पवनथी नहि, पवन तो निमित्तमात्र छे. आवुं सत्य समजवामां पण वांधा होय ते सत्य आचरे कयारे?
अहीं कहे छे के एवो कोण पुरुष छे जेने भेदज्ञान न थाय? थाय ज; कारण के ज्यारे ज्ञान पोताना स्वरसथी पोते पोतानुं स्वरूप जाणे त्यारे अवश्य पोताना आत्माने परथी भिन्न जणावे छे. राग अने शरीरथी भिन्न पडी ज्यारे द्रष्टि एक ज्ञायकमात्रमां प्रसरे छे तो अवश्य भेदज्ञान प्रगट थाय छे. कोई दीर्घसंसारी होय तो तेनी अहीं वात नथी.
आ प्रमाणे, जे अप्रतिबुद्धे एम कह्युं हतुं के “अमारो तो ए निश्चय छे के देह छे ते ज आत्मा छे, ” तेनुं निराकरण कर्युं. अज्ञानी जे चीजने देखे छे ते चीजने पोतानी माने छे. ज्ञान शरीर, राग, आदि ज्ञेयने जाणे छे छतां ते शरीरादि ज्ञेय ज्ञाननी चीज नथी. ज्ञाननी चीज तो ज्ञान ज छे. आवी वात कठण पडे पण शुं थाय? वस्तुस्वरूप ज आवुं छे. वीतराग त्रिलोकीनाथ जिनेश्वरदेव इन्द्रो अने गणधरोनी वच्चे दिव्यध्वनि द्वारा आवो ज उपदेश आपता हता. अने ए ज वात संतोए प्रसिद्ध करी छे. अहो! ए संतोनी वाणी अमृतनी वर्षा करनारी छे, तेनुं कर्णरूपी अंजलि वडे भव्य जीवो पान करो!
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तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेदव्वं।। ३४ ।।
तस्मात्प्रत्याख्यानं ज्ञानं नियमात् ज्ञातव्यम्।। ३४ ।।
तेथी नियमथी जाणवुं के ज्ञान प्रत्याख्यान छे. ३४.
गाथार्थः– [यस्मात्] जेथी [सर्वान् भावान्] ‘पोताना सिवाय सर्व पदार्थो [परान्] पर छे’ [इति ज्ञात्वा] एम जाणीने [प्रत्याख्याति] प्रत्याख्यान करे छे-त्यागे छे, [तस्मात्] तेथी, [प्रत्याख्यानं] प्रत्याख्यान [ज्ञानं] ज्ञान ज छे [नियमात्] एम नियमथी [ज्ञातव्यम्] जाणवुं. पोताना ज्ञानमां त्यागरूप अवस्था ते ज प्रत्याख्यान छे, बीजुं कांई नथी.
टीकाः– आ भगवान ज्ञाता-द्रव्य (आत्मा) छे ते अन्यद्रव्यना स्वभावथी थता अन्य समस्त परभावोने, तेओ पोताना स्वभावभाव वडे नहि व्याप्त होवाथी परपणे जाणीने, त्यागे छे; तेथी जे पहेलां जाणे छे ते ज पछी त्यागे छे, बीजो तो कोई त्यागनार नथी-एम आत्मामां निश्चय करीने, प्रत्याख्यानना (त्यागना) समये प्रत्याख्यान करवायोग्य जे परभाव तेनी उपाधिमात्रथी प्रवर्तेलुं त्यागना कर्तापणानुं नाम (आत्माने) होवा छतां पण, परमार्थथी जोवामां आवे तो परभावना त्यागकर्तापणानुं नाम पोताने नथी, पोते तो ए नामथी रहित छे कारण के ज्ञानस्वभावथी पोते छूटयो नथी, माटे प्रत्याख्यान ज्ञान ज छे-एम अनुभव करवो.
भावार्थः– आत्माने परभावना त्यागनुं कर्तापणुं छे. ते नाममात्र छे. पोते तो ज्ञानस्वभाव छे. परद्रव्यने पर जाण्युं, पछी परभावनुं ग्रहण नहि ते ज त्याग छे. ए रीते, स्थिर थयेलुं ज्ञान ते ज प्रत्याख्यान छे, ज्ञान सिवाय कोई बीजो भाव नथी. उत्थानिकाः–
आ रीते अज्ञानी जीव अनादि मोहना संतानथी निरूपण करवामां आवेलुं जे आत्मा अने शरीरनुं एकपणुं तेना संस्कारपणाथी अत्यंत अप्रतिबुद्ध हतो. शुं कहे छे? अनादिथी अज्ञानीने राग अने शरीरमां सावधानी होवाथी ते ज्ञानानंदस्वभावी चैतन्यने