Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 31-32.

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जो इंदिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं।
तं खलु जिदिंदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साहू।। ३१ ।।
य इन्द्रियाणि जित्वा ज्ञानस्वभावाधिकं जानात्यात्मानम्।
तं खलु जितेन्द्रियं ते भणन्ति ये निश्चिताः साधवः।। ३१ ।।

हवे, (तीर्थंकर-केवळीनी) निश्चयस्तुति कहे छे. तेमां पहेलां ज्ञेय-ज्ञायकना संकरदोषनो परिहार करी स्तुति कहे छेः-

जीती ईंद्रियो ज्ञानस्वभावे अधिक जाणे आत्मने,
निश्चय विषे स्थित साधुओ भाखे जितेन्द्रिय तेहने. ३१.

गाथार्थः– [यः] जे [इन्द्रियाणि] इंद्रियोने [जित्वा] जीतीने [ज्ञानस्व– भावाधिकं] ज्ञानस्वभाव वडे अन्यद्रव्यथी अधिक [आत्मानम्] आत्माने [जानाति] जाणे छे [तं] तेने, [ये निश्चिताः साधवः] जे निश्चयनयमां स्थित साधुओ छे [ते] तेओ, [खलु] खरेखर [जितेन्द्रियं] जितेंद्रिव [भणन्ति] कहे छे.

टीकाः– (जे मुनि द्रव्येन्द्रियो, भावेन्द्रियो तथा इंद्रियोना विषयभूत पदार्थो-ए त्रणेयने पोतानाथी जुदां करीने सर्व अन्यद्रव्योथी भिन्न पोताना आत्माने अनुभवे छे ते मुनि निश्चयथी जितेन्द्रिय छे.) अनादि अमर्यादरूप बंधपर्यायना वशे जेमां समस्त स्वपरनो विभाग अस्त थई गयो छे (अर्थात् जेओ आत्मानी साथे एवी एक थई रही छे के भेद देखातो नथी) एवी शरीरपरिणामने प्राप्त जे द्रव्येन्द्रियो तेमने तो निर्मळ भेद-अभ्यासनी प्रवीणताथी प्राप्त जे अंतरंगमां प्रगट अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभाव तेना अवलंबनना बळ वडे सर्वथा पोताथी जुदी करी; ए, द्रव्येन्द्रियोनुं जीतवुं थयुं. जुदा जुदा पोतपोताना विषयोमां व्यापारपणाथी जेओ विषयोने खंडखंड ग्रहण करे छे (अर्थात् ज्ञानने खंडखंडरूप जणावे छे) एवी भावेन्द्रियोने, प्रतीतिमां आवता अखंड एक चैतन्यशक्तिपणा वडे सर्वथा पोताथी जुदी जाणी; ए, भावेन्द्रियोनुं जीतवुं थयुं. ग्राह्यग्राहकलक्षणवाळा संबंधनी निकटताने लीधे जेओ पोताना संवेदन (अनुभव) साथे परस्पर एक जेवा थई गयेला देखाय छे एवा, भावेन्द्रियो वडे ग्रहवामां आवता जे इंद्रियोना विषयभूत स्पर्शादि पदार्थो तेमने, पोतानी चैतन्यशकितनुं स्वयमेव अनुभवमां आवतुं जे असंगपणुं ते वडे सर्वथा पोताथी जुदा कर्या; ए, इंद्रियोना विषयभूत पदार्थोनुं


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जीतवुं थयुं. आम जे (मुनि) द्रव्येन्द्रियो, भावेन्द्रियो तथा इंद्रियोना विषयभूत पदार्थो- ए त्रणेने जीतीने, ज्ञेय-ज्ञायक-संकर नामनो दोष आवतो हतो ते सघळो दूर थवाथी एकत्वमां *टंकोत्कीर्ण अने ज्ञानस्वभाव वडे सर्व अन्यद्रव्योथी परमार्थे जुदा एवा पोताना आत्माने अनुभवे छे ते निश्चयथी ‘जितेन्द्रिय जिन’ छे. (ज्ञानस्वभाव अन्य अचेतन द्रव्योमां नथी तेथी ते वडे आत्मा सर्वथी अधिक, जुदो ज छे.) केवो छे ते ज्ञानस्वभाव? आ विश्वनी (समस्त पदार्थोनी) उपर तरतो (अर्थात् तेमने जाणतां छतां ते-रूप नहि थतो), प्रत्यक्ष उधोतपणाथी सदाय अंतरंगमां प्रकाशमान, अविनश्वर, स्वतःसिद्ध अने परमार्थसत्-एवो भगवान ज्ञानस्वभाव छे.

आ रीते एक निश्चयस्तुति तो आ थई.

(ज्ञेय तो द्रव्येन्द्रियो, भावेन्द्रियो तथा इंद्रियोना विषयभूत पदार्थो अने ज्ञायक पोते आत्मा-ए बन्नेनुं अनुभवन, विषयोनी आसक्तताथी, एक जेवुं थतुं हतुं; भेदज्ञानथी भिन्नपणुं जाण्युं त्यारे ते ज्ञेयज्ञायक-संकरदोष दूर थयो एम अहीं जाणवुं.)

शिष्यनो प्रश्न छे के-जेम नगरना वर्णनथी राजानुं वर्णन यथार्थपणे थई शके नहि तेम शरीरना स्तवनथी आत्मानी स्तुति थई शक्ती नथी; तो पछी तीर्थंकर केवळीनी निश्चयस्तुति कोने कहे छे?

तेनुं समाधानः-आत्मा ज्ञायकस्वभावी वस्तु छे. अने आ शरीर-परिणामने प्राप्त जे इंद्रियो छे ते जड छे. तथा एक एक विषयने जे खंडखंडपणे जाणे छे ते भावेन्द्रियो-क्षयोपशमज्ञान पण खरेखर इंद्रिय छे. शरीरपरिणामने प्राप्त जड इंद्रियो जेम ज्ञायकनुं परज्ञेय छे तेम शब्द, रस, रूप, गंध आदिने जाणनार भावेन्द्रियो पण निश्चयथी ज्ञायकनुं परज्ञेय छे; ज्ञायक भगवान आत्मानुं ते स्वज्ञेय नथी. तेमज भावेन्द्रियोथी जणाता जे शब्द, रस, गंध, स्पर्शादि पर पदार्थो ते पर परज्ञेय छे. स्वज्ञेयपणे जाणवा लायक ज्ञायक अने पर तरीके जाणवा लायक परज्ञेय-ए बन्नेनी एकत्वबुद्धि ते मिथ्यात्व, अज्ञान अने संसारभाव छे. ए त्रणेयने (द्रव्येन्द्रियो, भावेन्द्रियो अने तेमना विषयभूत पदार्थोने) जे जीते एटले के परज्ञेय तरफनुं लक्ष छोडीने स्वज्ञेय जे शुद्ध ज्ञायकभावस्वरूप आत्मा छे तेनो अनुभव करे, तेने जाणे, वेदे अने माने ते सम्यग्द्रष्टि छे अने तेने केवळीनी साची अथवा निश्चय स्तुति होय छे. आ अधिकारमां मुनिनी प्रधानताथी वात छे. (सम्यग्द्रष्टि पण एमां आवी जाय छे) धर्मनी शरुआतनी आ गाथा छे. छठ्ठी अने अगीयारमी गाथामां आ ज वात छे. अहीं तेनुं जुदी रीते कथन कर्युं छे. ____________________________________________________________ * टंकोत्कीर्ण = पथ्थरमां टांकणाथी कोरेली मूर्तिनी जेम एकाकार जेवो ने तेवो स्थित.


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* गाथा ३१ः टीका उपरनुं प्रवचन *

शरीर ए जड परमाणुओनो स्कंध छे. अने पांच इन्द्रियो-स्पर्श, जीभ, नाक, आंख अने कान ते जड शरीरना परिणाम छे. शरीरना परिणामने प्राप्त जड इन्द्रियोने द्रव्येन्द्रियो कहे छे. ते (द्रव्येन्द्रियो) आत्माना परिणाम (पर्याय) नथी. जड द्रव्येन्द्रियोने जीतवी एटले तेनाथी भिन्न, अधिक-जुदो परिपूर्ण एक ज्ञायकने अनुभववो. तेने (अनुभूतिने) भगवान केवळीनी स्तुति अथवा केवळीनां वखाण कहे छे. ज्यारे पोतानुं जेवुं स्वरूप छे तेवुं आदर्युं, तेवा स्वरूपमां एकाग्र थयो त्यारे भगवाननां स्तुति-वखाण कर्यां एम कहेवाय छे. अने ए ज सम्यग्दर्शन एटले धर्मनुं प्रथम पगथियुं छे.

हवे द्रव्येन्द्रियोने केम जीतवी एनी विशेष वात करे छे. टीकामां निरवधिबंधपर्यायवशेन’ एटले अनादि अमर्यादित बंधपर्यायना वशे-एम लीधुं छे. जुओ, कर्मना बंधने मर्यादा नथी, ते अनादि छे. जेम खाणमां सोनुं अने पत्थर बन्ने अनादिनां भेगां छे तेम आनंदस्वरूप आत्माना संबंधमां निमित्तरूपे जड कर्मनी बंध अवस्था अनादिनी छे. अज्ञानी बंधपर्यायना कारणे नहि पण बंधपर्यायने वश थईने परने पोतानां माने छे. भगवान आत्मा चिद्घन ज्ञायकस्वरूप छे. तेना अनुभवथी सम्यग्दर्शन वा धर्म प्रगट थाय छे. परंतु अज्ञानी जड कर्मने वश थईने अधर्मने सेवे छे. पर्यायमां परने वश थवानो धर्म (योग्यता) छे. तेथी ते परने वश थईने रागादि करे छे. प्रवचनसारमां ४७ नय कह्यां छे. तेमां एक ईश्वरनय छे. तेमां आ वात करी छे. कर्मनो उद्रय विकार करावे छे एम नथी. अज्ञानी कर्मना उद्रयने वश थई जड इन्द्रियोने पोतानी माने छे तेथी अज्ञानीने विकार थाय छे. टीकामां ‘बंधपर्यायवशेन’ एम शब्दो छे एनो अर्थ ए छे के बंधपर्यायथी विकार थतो नथी पण बंधपर्यायने वश थतां अज्ञानी विकाररूपे परिणमे छे.

अहो! दिगंबर संतोए तो ज्यां त्यां (सर्वत्र) स्वतंत्रतानुं ज वर्णन कर्युं छे. अजीव तत्त्व अने विकार-आस्रवतत्त्वनी स्वतंत्रतानी पण जेने खबर नथी तेने आनंद-कंद भगवान ज्ञायक्तत्त्व स्वतंत्र छे तेनी द्रष्टि कयांथी थाय? निमित्तना वशे विकार थाय छे एम न मानतां तेने लईने थाय छे एम मानवामां मोटो उगमणो- आथमणो फेर छे. भाई! आ तो भगवाननो माल संतो तेना आडतिया थईने बतावे छे. समोसरणमां भगवाननी दिव्यध्वनि-ओमकारध्वनि इच्छा विना छूटे छे. बनारसीविलासमां आवे छे के-‘मुख ओमकार धुनि सुनि अर्थ गणधर विचारै’ आपणे जेम बोलीए छीए तेम भगवान न बोले. एमना कंठ अने होठ हाले-ध्रूजे नहि. ‘ओम्’ एवो ध्वनि अंदर आखा शरीरमांथी नीकळे. एमांथी गणधरदेव बारअंगरूप श्रुतनी रचना करे छे.


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अहीं कहे छे के-भगवान! तुं तो आनंदघन अखंड एक ज्ञायकभाव वस्तु छो ने! तेनो आश्रय छोडी कर्मना उद्रयने वश थई जड इन्द्रियोने पोतानी माने छे ते मिथ्याभाव छे. तेना कारणे स्व-परनो विभाग अस्त थई गयो छे. बंध पर्यायना कारणे विकार-मिथ्याभाव थाय छे एम नहि, पण बंध पर्यायने वश थवाथी विकार- मिथ्याभाव थाय छे एम वात छे.

‘समस्त स्व-परनो विभाग’ एवा शब्दो छे. एनो अर्थ ए के ज्ञायकस्वरूप जीव पोते ते स्व छे अने जड इन्द्रियो ते पर छे. ते बन्नेनुं भिन्नपणुं पूरुं अस्त थई गयुं छे. तेथी आ जड इन्द्रियो ते ज हुं छुं एम अज्ञानी माने छे. ते जीव अने अजीवने एकपणे माने छे. कर्मबंधनी पर्यायने ताबे थई अज्ञानी भगवान आत्मा ज्ञायकभाव अने शरीर परिणामने प्राप्त जड इन्द्रियो-ए बन्नेनी जुदाई करतो नथी, पण जडनी पर्यायने पोतानी माने छे. अजीवने जीव मानवो के जीवने अजीव मानवो ए मिथ्यात्व छे.

अहो! संतो आत्माने ‘भगवान’ कहीने संबोधे छे. ‘भग’ एटले लक्ष्मी अने ‘वान’ एटले वाळो. आत्मा अनंत ज्ञान अने अनंत आनंदनी लक्ष्मीवाळो भगवान छे. आ तो जेनी पासे ईन्द्रो पण गलुडियांनी जेम वाणी सांभळवा बेसे ते वीतराग जैन परमेश्वरनी वाणीमां आवेली वात छे. परंतु पोते कोण छे तेनुं भान नहि होवाथी कर्मनी बंधपर्यायने वश थई अज्ञानी जड इन्द्रियोने पोतानी माने छे. मारी आंख आवी छे, मारा कान आवा छे, मारुं नाक आवुं छे इत्यादि माने छे. पण भाई ए इन्द्रियो के’ दि तारी हती? अगाउ गाथा १९ मां आव्युं छे के-ज्यांसुधी आ आत्माने ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, भावकर्म अने शरीरादि नोकर्ममां ‘आ हुं छुं’ अने हुं मां (आत्मामां) ‘आ कर्म-नोकर्म छे’-एवी बुद्धि छे त्यां सुधी आ आत्मा अप्रतिबुद्ध छे. भाई! आ शरीर तो जड माटी-धूळ छे. आ चार मणनी काया होय तेनी स्मशानमां राख थाय छे. ते बहु थोडी राख थाय छे अने पवन आवे ऊडी जाय छे. कह्युं छे ने केः-

‘रजकण तारां रखडशे, जेम रखडती रेत;
पछी नरतन पामीश कयां? चेत, चेत नर चेत.’

संतो जगतने सर्वज्ञनी वाणीना प्रवाहनो भाव जाहेर करे छे. भाई! शरीरनी अवस्थाने प्राप्त जे जड द्रव्येन्द्रियो छे तेने पोताथी एकपणे मानवी ते अज्ञान, मिथ्यात्व, अधर्म छे. ते द्रव्येन्द्रियोनी पोताथी जुदाई केम करवी तेनी हवे वात करे छे. धर्मी निर्मळ भेद-अभ्यासनी प्रवीणताथी द्रव्येन्द्रियोने जुदी करे छे. ‘हुं तो ज्ञायक छुं,


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शरीरनी अवस्था ते हुं नहि’-आवुं (स्वसंवेदन) ज्ञान ते निर्मळ भेदज्ञान छे. इन्द्रियो पर अने हुं स्व-एम एकलुं विकल्प द्वारा धारी राखवुं ते कांई निर्मळ भेदज्ञान नथी.

आ जीव धर्म केम पामे एनी अहीं वात करे छे. जोके वात क्रमे समजावे छे पण अंदरमां क्रम नथी. समजाववामां क्रम पडे छे, पण ज्यारे भिन्न पडे छे त्यारे एकीसाथे भिन्न थाय छे. निर्मळ भेद-अभ्यास एटले परथी भेद पाडवानो अभ्यास. ते निर्मळ भेद-अभ्यासनी प्रवीणताथी एटले के ज्ञाननी पर्यायने ज्ञायक तरफ ढाळवाथी अंदरमां प्रगट जे अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभाव ते प्राप्त थाय छे. अने तेना अवलंबनना बळथी द्रव्येन्द्रियोने सर्वथा पोताथी जुदी कराय छे. कथंचित् जुदी कराय छे एम नहि, सर्वथा जुदी कराय छे. शरीर परिणामने प्राप्त द्रव्येन्द्रियो अति स्थूळ अने जड छे. अने निर्मळ भेद-अभ्यासनी प्रवीणताथी प्राप्त अंतरंगमां प्रगट जे द्रव्यस्वभाव ते अति सूक्ष्म अने चैतन्यस्वरूप छे. आवा अंतरंगमां प्रगट अति सूक्ष्म चैतन्यस्वभावना अवलंबनना बळ वडे द्रव्येन्द्रियोने जुदी पाडवामां आवे छे. आ सम्यग्दर्शन पामवानी कळा छे. आवी वात सांभळवा मळे नहि अने बिचारा अहोनिश वेपार-धंधामां मशगुल रहे ते धर्म केम करी पामे? अरे! आत्माना ज्ञान विना जिंदगी चाली जाय छे!

अनादिथी अज्ञानी जड शरीरने अने आत्माने एकपणे माने छे. तेने श्रीगुरु कहे छे के-प्रभु! तुं (आत्मा) तेनाथी (इन्द्रियोथी) भिन्न छे. त्यां श्रीगुरुनी वात धारणामां लई ते अंतरमां एकाग्र थवानो प्रयोग करे छे. अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभाव अंदरमां वस्तु तरीके जे प्रगट छे तेने निर्मळ भेद-अभ्यासथी प्राप्त करी तेमां एकाग्र थतां, तेनो आश्रय करतां द्रव्येन्द्रियो सर्वथा जुदी पडे छे. आ सम्यग्दर्शन एटले धर्मनुं पहेलुं पगथियुं प्राप्त करवानी रीत छे. जुओ, केटली वात करी छे? एक तो कर्मना उद्रयने वश थवाथी विकार-मिथ्याभाव थाय छे. ते वडे जीव पोताने अने द्रव्येन्द्रियोने एकपणे माने छे पण जुदाई मानतो नथी. बीजुं शरीर परिणामने प्राप्त जड इन्द्रियोने पोताथी जुदी पाडवानो अभ्यास ते निर्मळ भेदज्ञान छे. आवा निर्मळ भेदज्ञान वडे प्राप्त अंतरंगमां प्रगट अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभावमां एकाग्र थतां द्रव्येन्द्रियो जुदी पडी जाय छे. आ धर्म पामवानी रीत छे.

अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभाव अंदरमां वस्तु तरीके प्रगट छे. गाथा ४९ मां तेने अव्यक्त कह्यो छे. त्यां तो पर्याय जे व्यक्त छे तेनी अपेक्षाए अव्यक्त कह्यो छे. वस्तु तरीके तो ते प्रगट, सत्, मोजूद, अस्तिपणे विद्यमान छे. आवा अंतरंगमां विद्यमान अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभावना अवलंबन-आश्रय वडे द्रव्येन्द्रियोने पोताथी सर्वथा जुदी करवी तेने द्रव्येन्द्रियोनुं जीतवुं कहेवाय छे. कानमां खीला नाखवा के आंखो बंध करी देवी इत्यादि


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कांई जितेन्द्रियपणुं नथी. हजी द्रव्येन्द्रियो कोने कहेवाय एनी पण खबर नथी ते इन्द्रियोने जीते शी रीते?

हवे भावेन्द्रियोने जीतवानी वात करे छे. जुदा जुदा पोतपोताना विषयोमां व्यापारपणाथी जेओ विषयोने खंडखंड ग्रहण करे छे ते भावेन्द्रियो छे. काननो उघाड शब्दने जाणे, आंखनो क्षयोपशम रूपने जाणे, स्पर्शनो उघाड स्पर्शने जाणे इत्यादि पोतपोताना विषयोमां व्यापार करी जे विषयोने खंडखंड ग्रहण करे छे ते भावेन्द्रियो छे. आ बाह्य इन्द्रियोनी वात नथी. एक एक इन्द्रिय पोतपोतानो व्यापार करे छे तेथी ज्ञानने ते खंडखंडरूप जणावे छे. जेम द्रव्येन्द्रियो अने आत्माने एकपणे मानवां ते अज्ञान छे तेम ज्ञानने खंडखंडरूपे जणावनार भावेन्द्रियो अने ज्ञायकने एकपणे मानवां ए पण मिथ्यात्व छे, अज्ञान छे. जुदा जुदा पोतपोताना विषयोने जे खंडखंड ग्रहण करे छे अने अखंड एकरूप ज्ञायकने जे खंडखंडरूपे जणावे छे ते भावेन्द्रियोनी ज्ञायक आत्मा साथे एक्ता करवी ते मिथ्यात्व छे.

द्रव्येन्द्रियो छे ते शरीरपरिणामने प्राप्त छे, ज्यारे भावेन्द्रियो ज्ञानना खंडखंड परिणामने प्राप्त छे. जे ज्ञान एक एक विषयने जणावे, ज्ञानने खंडखंडरूपे जणावे, अंशी (ज्ञायक) ने पर्यायमां खंडरूपे जणावे ते भावेन्द्रियो छे. जेम जड द्रव्येन्द्रियो ज्ञायकनुं परज्ञेय छे तेम भावेन्द्रियो पण ज्ञायकनुं परज्ञेय छे. अहीं ज्ञेय-ज्ञायकना संकर-दोषनो परिहार करावे छे. जेम शरीर परिणामने प्राप्त जड इन्द्रियो ज्ञेय अने आत्मा ज्ञायक भिन्न छे तेम भावेन्द्रियो पण परज्ञेय छे अने आत्मा ज्ञायक भिन्न छे. अहाहा! एक एक विषयने जाणनार ज्ञाननो क्षयोपशम तथा अखंड ज्ञानने खंडखंडपणे जणावनार भावेन्द्रिय ते ज्ञायकनुं परज्ञेय छे अने ज्ञायक प्रभु आत्माथी भिन्न छे. आमां अखंड एक चैतन्यशक्तिपणानी प्रतीतिनुं जोर लीधुं छे. पहेलां द्रव्येन्द्रियोने भिन्न करवामां एना (ज्ञायकभावना) अवलंबननुं बळ लीधुं छे. ज्ञायकभाव एक अने अखंड छे, ज्यारे भावेन्द्रिय अनेक अने खंडखंडरूप छे. अखंड एक ज्ञायकभावरूप चैतन्यशक्तिनी प्रतीति थतां अनेक अने खंडखंडरूप भावेन्द्रिय जुदी थाय छे-भिन्न जणाय छे. आ रीते अखंड ज्ञायकभावनी प्रतीति वडे ज्ञानने खंडखंडरूप जणावनार परज्ञेयरूप भावेन्द्रियने सर्वथा जुदी करवी ए भावेन्द्रियोनुं जीतवुं छे एम कहेवाय छे.

आ गाथामां ज्ञेय-ज्ञायकना संकरदोषना परिहारनी वात छे. शरीर परिणामने प्राप्त जड इन्द्रियो परज्ञेय होवा छतां ते मारी छे एवी एकत्वबुद्धि ते मिथ्यात्वभाव, संकर-खीचडो छे. जेनी आवी मान्यता छे तेणे जडनी पर्याय अने चैतन्यथी पर्यायने एक करी छे. तेवी रीते एक एक विषय (शब्द, रस, रूप, इत्यादि) जाणवानी योग्यतावाळो क्षयोपशमभाव ते भावेन्द्रिय छे. ते पण खरेखर परज्ञेय छे. परज्ञेय अने


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ज्ञायकभावनी एक्ताबुद्धि ते संसार छे, मिथ्यात्व छे. भावेन्द्रियनो विषय जे आखी दुनिया स्त्री, कुटुंब, देव, शास्त्र, गुरु-ते बधाय इन्द्रियना विषयो होवाथी इन्द्रिय कहेवामां आवे छे. ते पण परज्ञेय छे. एनाथी मने लाभ थाय एम मानवुं ते मिथ्या भ्रान्ति छे.

शरीर परिणामने प्राप्त जड इन्द्रियोथी भिन्न भगवान आत्मा निर्मळ भेद- अभ्यासनी प्रवीणताथी प्राप्त थाय छे, बीजी कोई रीते प्राप्त थतो नथी. खूब पैसा खर्ची मंदिरो बंधाववाथी, भगवानना दर्शनथी के भगवाननी वाणीथी भगवान आत्मा प्राप्त थाय एम नथी. जे भावे तीर्थंकरगोत्र बंधाय ते भावथी पण भगवान आत्मा ग्राह्य नथी. ज्ञाननी पर्यायने ज्ञायकमां वाळतां निर्मळ भेद-अभ्यासनी प्रवीणताथी अंतरंगमां प्रगट अतिसूक्ष्म चैतन्य-स्वभावना अवलंबनना बळ वडे जड इंद्रियोने पोताथी सर्वथा जुदी कराय छे, जीताय छे.

मिथ्याद्रष्टिने नव पूर्वनी जे लब्धि प्रगट थाय छे ते अने सात द्वीप तथा समुद्रने जाणे तेवुं जे विभंगज्ञान होय छे ते इंद्रियज्ञान छे, भावेन्द्रिय छे. ते नव पूर्वनुं ज्ञान के विभंगज्ञान स्वभावने प्राप्त करवामां कांई काम आवतुं नथी. भावेन्द्रियने जीतवी होय तो प्रतीतिमां आवता अखंड एक चैतन्यशक्तिपणा वडे तेने सर्वथा जुदी जाण. ज्ञानमां ते परज्ञेय छे पण स्वज्ञेय नथी एम जाण.

पर्यायने अंतर्मुख वाळतां ते सामान्य एक अखंड स्वभावमां ज एकत्व पामे छे. आ अखंडमां एकत्व थाउं एवुं पण रहेतुं नथी. पर्याय जे बहारनी तरफ जती हती तेने ज्यां अंतर्मुख करी त्यां ते (पर्याय) स्वयं स्वतंत्र र्क्ता थईने अखंडमां ज एकत्व पामे छे. पर्यायने रागादि पर तरफ वाळतां मिथ्यात्व प्रगट थाय छे अने अंतर्मुख वाळतां पर्यायनो विषय अखंड ज्ञायक थई जाय छे (करवो पडतो नथी). अहाहा! ते वाळवावाळो कोण? दिशा फेरववावाळो कोण? पोते. परनी दिशाना लक्ष तरफ दशा छे ए दशा स्वलक्ष प्रति वाळतां शुद्धता वा धर्म प्रगट थाय छे. अरे! जे परज्ञेय छे एने स्वज्ञेय मानी आत्मा मिथ्यात्वथी जीताई गयो छे (हणाई गयो छे). हवे ते परज्ञेयथी भिन्न पडी, स्वज्ञेय जे एक अखंड चैतन्यस्वभाव तेनी द्रष्टि अने प्रतीति ज्यां करी त्यां भावेन्द्रिय पोताथी सर्वथा भिन्न जणाय छे. तेने भावेन्द्रिय जीती एम कहेवाय छे. तेने सम्यग्दर्शन एटले साचुं दर्शन कहेवाय छे.

अहाहा! शुं अद्भुत टीका छे! भगवान आत्माने हथेळीमां बतावे छे. आखा लोकनुं राज आपे तोपण जेनी एक पण निर्मळ पर्याय प्रगट थाय एवी नथी, एवी अनंती पर्याय जेना एक एक गुणमां पडी छे एवो मोटो आत्मा भगवान छे. जो परथी भिन्न पडी तेनी द्रष्टि करे तो पुरुषार्थथी ते पर्याय अवश्य प्रगट थाय. अहो! ते पुरुषार्थ पण अलौकिक छे.

हवे कहे छेः-ग्राह्य एटले ज्ञेय-जणावा लायक अने ग्राहक एटले ज्ञायक-जाणनार.

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द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय, अने तेना विषयो ए त्रणे जणावा लायक छे अने ज्ञायक आत्मा पोते जाणनार छे. ए त्रणेय परज्ञेय तरीके अने भगवान आत्मा स्वज्ञेय तरीके जाणवा लायक छे. चाहे तो भगवान त्रणलोकना नाथ हो, तेमनी वाणी हो के तेमनुं समोसरण- ते बधुंय अनिन्द्रिय आत्मानी अपेक्षाए इंद्रिय छे, परज्ञेय तरीके जणावा लायक छे. अने आत्मा ग्राहक-जाणनार छे. आम होवा छतां ग्राह्य-ग्राहकलक्षणवाळा संबंधनी निकटताने लीधे वाणीथी ज्ञान थाय छे एम अज्ञानी (भ्रमथी) माने छे. ज्ञेयाकाररूपे जे ज्ञाननी पर्याय थाय छे ते ज्ञाननुं परिणमन छे, ज्ञेयनुं नहि, ज्ञेयना कारणे पण नहि, छतां ज्ञेय-ज्ञायकना संबंधीनी अति निकटता छे तेथी ज्ञेयथी ज्ञान आव्युं, ज्ञेयना संबंधथी ज्ञान थयुं एम अज्ञानी (भ्रमथी) माने छे.

पहेलां ज्ञान ओछुं हतुं, अने शास्त्र सांभळतां नवुं (वधारे) ज्ञान थयुं. तेथी सांभळवाथी ज्ञान थयुं एम अज्ञानीने लागे छे. जेवुं शास्त्र होय तेवुं ज्ञान थाय त्यारे अज्ञानी एम माने छे के शास्त्रथी ज्ञान थयुं. ज्ञेय-ज्ञायकनो अति निकट संबंध होवाथी परस्पर ज्ञेय ज्ञायकरूप अने ज्ञायक ज्ञेयरूप एम बन्ने एकरूप होय एवो तेने भ्रम थाय छे. खरेखर एम नथी, छतां आवी मान्यता ते अज्ञान छे. जेवी वाणी होय तेवा प्रकारनुं जे ज्ञान थाय छे ते पोताना कारणे छे, वाणीना कारणे नहि. परसत्तावलंबी ज्ञान पण परथी थयुं छे एम मानवुं ते अज्ञान छे. ज्ञेय-ज्ञायकसंबंधनी निकटताने लीधे अज्ञानीने ज्ञान अने ज्ञेय परस्पर एक जेवा थई गयेला देखाय छे, परंतु एक थया नथी.

प्रश्नः– वाणी सांभळी माटे ज्ञान थयुं, पहेलां तो ते न हतुं? उत्तरः– भाई! ते काळे ते (ज्ञाननी) पर्यायनी ते प्रकारना ज्ञेयने जाणवानी योग्यता हती. तेथी ज्ञान पोताथी थयुं छे, वाणीना कारणे नहि. प्रवचनसारमां आवे छे के वीतरागनी वाणी पुद्गल छे, तेनाथी ज्ञान थाय नहि. ज्ञानसूर्य प्रभु पोते जाणनार छे. ते स्वने जाणतां परने स्वतः जाणे छे. परथी तो ते जाणे नहि, पण पर छे माटे परने जाणे छे एम पण नथी.

वाणी, कुटुंब आदि पदार्थो तो ठीक, पण साक्षात् तीर्थंकर भगवान पण ग्राह्य एटले परज्ञेय छे; अने आत्मा पोताथी जाणनार छे. अज्ञानीने ते इन्द्रियना विषयभूत पदार्थो परज्ञेय होवा छतां एकमेक जेवा थई गयेला देखाय छे. तेमने जुदा केम पाडवा ते हवे कहे छे.

ज्ञायकनो तो जाणवानो स्वतः स्वभाव छे. भगवान के वाणीने लईने ते स्वभाव-शक्ति छे एम नथी. जेने वाणी के रागनो पण संग नथी तेवो पोतानो चैतन्यस्वभाव छे. तेवा चैतन्यस्वभावनुं स्वयमेव अनुभवमां आवतुं जे असंगपणुं तेना वडे पर विषयो-परज्ञेयो सर्वथा जुदा कराय छे. जुओ, द्रव्येन्द्रियो सामे अंतरमां प्रगट अति-सूक्ष्म चैतन्यस्वभाव लीधो, भावेन्द्रिय सामे एक अखंड चैतन्यशक्ति लीधी अने अहीं


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त्रीजा बोलमां ज्ञेय-ज्ञायकनी निकटता सामे चैतन्यशक्तिनुं असंगपणुं लीधुं छे. आ तो त्रणलोकना नाथनी वाणीनो सार छे.

अहाहा! जे पंथे प्रयाण करतां अनंत आनंद प्रगटे ते भगवान श्री जिनेश्वरदेव-कथित पंथ अपूर्व छे. आवा अपूर्व मार्गनी वात जेने सांभळवा पण न मळे ते प्रयोग शी रीते करे? जेना फळमां सादि अनंत अनंत समाधि-सुख प्रगटे ते मोक्षमार्गनो महिमा केटलो करीए? भाई! परपदार्थनो संयोग मळवो ए तो पूर्वनां पुण्य-पापने आधीन छे. पण जो अंदरमां पुरुषार्थ करे तो आ मोक्षमार्ग प्रगट थया विना रहे नहि. अहो! आचार्य अमृतचंद्रदेवे टीकामां अमृतनी धारा वहेवडावी छे.

केवळीनी वाणीमां पण जेनुं वर्णन पुरेपुरुं आवी शकयुं नथी एवी अमूल्य चीज आत्मा छे. एवा आत्माने स्वयमेव अंतरमां अनुभवमां आवता असंगपणा वडे इंद्रियोना विषयोथी जुदो कर्यो. जेणे परथी अधिकपणे-भिन्नपणे पूर्ण आत्माने जाण्यो, संचेत्यो अने अनुभव्यो तेणे इंद्रियोना विषयोने जीत्या. जड इंद्रियो, भावेन्द्रिय अने तेना विषयभूत पदार्थो ए त्रणेय ज्ञाननुं परज्ञेय छे. ए त्रणेयने जेणे जीत्या एटले ए सर्वथी जे भिन्न पडयो ते जिन थयो, जैन थयो. स्वपरनी एक्ताबुद्धि वडे ते अजैन हतो. हवे परथी भिन्न पडी निर्मळ पर्यायने प्रगट करी ते जीतेन्द्रिय जिन थाय छे.

प्रश्नः– आ गाथामां ‘सर्वथा जुदा कर्या’ एम आवे छे. पण जैनमां तो ‘सर्वथा’ न होय ने?

उत्तरः– जेम नाळियेरमां छालां, काचली अने उपरनी रातड से सर्वथी अंदर जे सफेद गोळो छे ते सर्वथा भिन्न छे. तेम भगवान आत्मा-चैतन्यगोळो शरीर, कर्म अने पुण्य-पापना (रातड) भावथी सर्वथा भिन्न छे. अने ते अनुभवमां आवतां परथी सर्वथा भिन्न पडे छे, कथंचित् भिन्न अने कथंचित् एक एम नहीं. समयसार कलशटीकामां श्लोक १८१ मां पांचवार ‘सर्वथा’ आवे छे. दाखला तरीकेः ‘शुद्धत्वपरिणमन सर्वथा सकळ कर्मोना क्षय करवानुं कारण छे,’ ‘आवुं शुद्धत्वपरिणमन सर्वथा द्रव्यना परिणमनरूप छे, निर्विकल्परूप छे,’ ‘शुद्ध स्वरूपना अनुभवरूप छे जे ज्ञान ते, जीवना शुद्धत्वपरिणमनथी सर्वथा सहित छे,’ इत्यादि. ज्यां जे अपेक्षा लागे त्यां ‘सर्वथा’ ज होय. जेमके द्रव्य अपेक्षाए आत्मा नित्य ज छे अने पर्याय अपेक्षाए अनित्य ज छे. आवो मार्ग छे ते जाणे नहि अने बहारथी व्रत करे अने तप करे पण ए तो बाळव्रत अने बाळतप छे, भाई!

आ प्रकारे जे कोई मुनि द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय अने तेना विषयभूत परपदार्थोने जीते छे तेने सघळो ज्ञेय-ज्ञायकसंकरदोष दूर थाय छे. जणावा योग्य चीज ज्ञायकनी छे अने जाणनार ज्ञायक जणावायोग्य चीजनो छे एम जाणवुं ए अज्ञान छे, ज्ञेयज्ञायकसंकरदोष


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छे. जड इंद्रिय, भावेन्द्रिय अने भगवान तथा भगवाननी वाणी इत्यादि इंद्रियना विषयो परज्ञेयरूप होवाथी पोताथी भिन्न छे. छतां अज्ञानी तेमने पोतानी माने छे, कारण के जेनाथी लाभ थवो माने तेने पोतानी मान्या वगर रहे नहि. परंतु जो ते पोताना अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभावने अवलंबे, अखंड एक ज्ञायकनो आश्रय ले, असंग एवा निज चैतन्यने अनुभवे तो ए सघळो दोष दूर थाय छे.

समजाववा कथन करे एमां क्रम पडे छे. पण ज्यारे आश्रय लेवामां आवे छे त्यारे एकसाथे बधी इंद्रियो (द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय अने तेना विषयभूत पदार्थो) जीताय छे. अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभावना अवलंबनना बळ वडे ज्यारे द्रव्येन्द्रियने जीते छे त्यारे भावेन्द्रिय अने इंद्रियोना विषयोनुं लक्ष छूटी गयुं होय छे. भावेन्द्रियने जीते त्यारे पण अखंड एक चैतन्यशक्तिनी प्रतीति थतां द्रव्येन्द्रिय अने परपदार्थोनुं लक्ष छूटी जाय छे. तेवी ज रीते ज्यारे पर विषयोने जीते छे त्यारे द्रव्य उपर ज लक्ष होवाथी जड इंद्रियो अने भावेन्द्रिय जीताई जाय छे. समजाणुं कांई? भाई! आ तो समजणनो मार्ग छे. समजवुं, समजवुं ए शुं करवानुं नथी? ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा छे ते जाणवा सिवाय बीजुं करे शुं?

जेम टांकणाथी कोतरेली पत्थरनी मूर्ति होय तेम आ भगवान आत्मा एक अखंड टंकोत्कीर्ण ज्ञानस्वभावरूप छे. राग अने परथी भिन्न पडतां ते जेवो छे तेवो देखाय छे. ज्ञानी समाधिकाळमां ज्ञानस्वभाव वडे सर्व इन्द्रियोथी परमार्थे जुदा आत्माने अनुभवे छे. द्रव्यसंग्रह, गाथा ४७ मां आवे छे के निश्चयरत्नत्रयस्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग अने व्यवहार-रत्नत्रयात्मक व्यवहार मोक्षमार्ग एम बन्ने प्रकारनो मोक्षमार्ग निर्विकार स्वसंवेदनस्वरूप परम ध्यानमां मुनिने प्रगट थाय छे. अंदर ध्यानमां जतां ज्ञेय-ज्ञायकनी भिन्नता थतां इन्द्रियो जीताय छे त्यारे जे अबुद्धिपूर्वकनो राग रहे छे ते व्यवहार मोक्षमार्ग छे. आ रीते जे पोताना आत्माने (सर्व इन्द्रियोथी भिन्न) अनुभवे छे ते जीतेन्द्रिय जिन छे.

द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय अने इन्द्रियना विषयो ए त्रणेयने इन्द्रिय कहे छे. ते सर्वनुं लक्ष छोडीने पोताना ज्ञानस्वभाव वडे परथी अधिक-भिन्न एवा निज पूर्ण शुद्ध चैतन्यनो जे अनुभव करे छे तेने निश्चयनयना जाणनार गणधरदेव जितेन्द्रिय जिन अने धर्मी कहे छे. राग होय छे पण ते आत्मानो परमार्थ स्वभाव नथी. ते रागथी- पुण्य-पापथी पृथक् थईने ज्यारथी ज्ञायकस्वभावनो अनुभव थाय छे त्यारथी जिनपणानी धर्मनी शरूआत थाय छे, ज्ञानस्वभाव-जाणनस्वभाव रागमां के पर अचेतन पदार्थोमां नथी तेथी ज्ञानस्वभाव वडे आत्मा ते सर्वथी भिन्न-अधिक छे.

हवे कहे छेः-केवो छे ज्ञानस्वभाव? विश्व उपर तरतो छे अर्थात् ज्ञायक परज्ञेयने

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जाणे छतां परज्ञेयरूप थतो नथी. राग, शरीर, वाणी आदि परद्रव्योने ज्ञायक जाणे छे, छतां ते परद्रव्यरूप थतो नथी. पुण्य-पापना भावो राग छे, अचेतन छे. तेमां ज्ञान- स्वभावनो अंश पण नथी. ज्ञानस्वभाव चैतन्य भगवान छे. अनंत तेनो महिमा छे. बहु ज टूंकी पण घणी महत्त्वनी वात छे.

विश्व एटले समस्त पदार्थो-लोकालोक. ते उपर तरतो अर्थात् समस्त पदार्थोने- लोकालोकने जाणे छतां पण ते-रूप नहि थतो एवो भिन्न रहे छे. अहाहा! आवो ज्ञानस्वभाव छे. भावशक्तिने कारणे ज्ञानगुणनुं विकाररहित जे निर्मळ परिणमन थाय छे तेमां समस्त विश्व जाणवामां आवे छे छतां ज्ञाननी पर्याय विश्वरूप थती नथी. केवळ ज्ञाननी पर्याय आखा लोकालोकने जाणे छे. लोकालोक छे माटे ते पर्याय जाणे छे एम नथी. परंतु पोतानी पर्यायनी एवी ज शक्ति अने सामर्थ्य छे. लोकालोकने जाणे छतां ज्ञाननी पर्याय ज्ञेयरूप थई नथी अने ज्ञेय छे ते ज्ञाननी पर्यायरूप थयुं नथी. आवो ज वस्तुनो सहज स्वभाव छे. एना महिमानी शी वात! अहो! आचार्यदेवे खूब गंभीर वात करी छे. तेवी रीते श्रुतज्ञाननी पर्याय पण विश्वने जाणे छे, छतां ते पर्याय विश्वथी भिन्न रहे छे. श्रुतज्ञाननी पर्याय भले परोक्षपणे जाणे, पण जाणवामां कोई चीज बाकी न रहे. केवळज्ञान अने श्रुतज्ञानमां प्रत्यक्ष-परोक्षनो फेर छे, बीजो कोई फेर नथी. बीजी रीते कहीए तो जे रागनी मंदता छे तेने ज्ञान जाणे छे, छतां ज्ञाननुं परिणमन रागथी भिन्न रहे छे एटले के विश्व उपर तरे छे.

वळी ते ज्ञानस्वभाव प्रत्यक्ष उद्योतपणाथी सदाय अंतरंगमां प्रकाशमान छे. एटले के पर, मन के रागनी सहाय विना पोताना अनुभवमां ते प्रत्यक्ष थाय छे. अंतरंगमां प्रकाशमान वस्तु त्रिकाळ छे. तेथी एवो अनुभव पर्यायमां थतां ते पर्याय पण सदा प्रकाशमान रहे छे. शक्तिमांथी व्यक्ति प्रकाशमानरूप ज होय छे. ज्ञानस्वभाव पोताथी प्राप्त थाय छे, रागनी मंदताथी नहि. आने एकान्त कहो तो ते एकान्त ज छे. सम्यक् एकान्त विना अनेकान्तनुं ज्ञान पण यथार्थ थतुं नथी. सम्यक् एकान्तमां आव्या विना पर्याय, राग अने निमित्तनुं अनेकान्तपणानुं ज्ञान यथार्थ थतुं नथी. श्रीमद् राजचंद्रे पण कह्युं छे के-‘अनेकान्त पण सम्यक् एकान्त एवा निजपदनी प्राप्ति सिवाय अन्य हेतुए उपकारी नथी’ भाई! आ करवुं सरळ छे कारण के (पोते) जे वस्तु छे तेने प्राप्त करवी छे. राग पोतामां नथी तेथी ते प्राप्त करवो सुलभ नथी.

अहाहा! आ ज्ञानस्वभावने जेणे जाण्यो, अनुभव्यो तेने ते केवो जणाय छे? के ते अविनश्वर छे. नाश न थाय एवो त्रिकाळ शाश्वत ज्ञानस्वभाव छे. ते स्वतःसिद्ध छे, एटले तेनुं कोई र्क्ता नथी. वळी ते परमार्थरूप छे. आवो भगवान ज्ञानस्वभाव अनुभवमां जणाय छे. जोयुं? ‘भगवान ज्ञानस्वभाव’ एम शब्दो वापर्या छे. जेम आत्मा भगवान


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छे तेम एनो ज्ञानस्वभाव पण भगवान छे. जेणे आवा आत्माने अनुभवमां लीधो तेने ते आवो छे. परंतु जेने आवा आत्मानो अनुभव नथी तेने ते नथी, केमके आत्मा शुं चीज छे तेनी तेने खबर नथी.

प्रभु! तुं आवो ज छे. तारी जात ज आवी छे. सहज वस्तु आवी छे. ज्ञानस्वभाव विश्व उपर तरतो छे. एटले के समस्त विश्वने जाणवामां समर्थ होवा छतां तेनाथी भिन्न रहे छे. ज्ञान ज्ञेयमां गया विना ज्ञेयने जाणे छे. माटे ज्ञेय ज्ञानथी भिन्न छे. आवो अविनश्वर, स्वतःसिद्ध, परमार्थरूप परिपूर्ण भगवान ज्ञानस्वभाव छे. रागथी भिन्न पडी तेनुं भान थतां, तेनो अनुभव थतां ते आवो छे एम ख्यालमां आवे छे. तेनुं नाम जिनपणुं तथा सम्यग्दर्शनादि धर्म छे. अहो! अजैनमांथी जैन थवानी आ अलौकिक विधि छे. पर्यायमां रागथी भिन्न पडीने भगवान ज्ञानस्वभाव अनुभवमां आव्यो त्यारे जाणवामां आव्युं के पोते परथी भिन्न परिपूर्ण छे अने स्ववेदनमां आववा लायक छे. आ प्रकारे परथी भिन्न थईने भगवान परिपूर्ण ज्ञानस्वभावी वस्तुमां अंतर एकाग्र थवुं ए एक निश्चयस्तुति छे, ए केवळीना गुणनी स्तुति अने आत्माना गुणनी स्तुति छे.

हवे कौंसमां टीप वडे खुलासो करे छेः-

शरीर परिणामने प्राप्त द्रव्येन्द्रिय, खंडखंडज्ञानरूप भावेन्द्रिय अने इंद्रियना विषयभूत पदार्थो-कुटुंब परिवार, देव, शास्त्र, गुरु इत्यादि बधाय परज्ञेय छे अने ज्ञायक स्वयं भगवान आत्मा स्वज्ञेय छे. विषयोनी आसक्तिथी ते बन्नेनो एक जेवो अनुभव थतो हतो. निमित्तनी रुचिथी ज्ञेय-ज्ञायकनो एक जेवो अनुभव थतो हतो. पण ज्यारे भेदज्ञान वडे भिन्नतानुं ज्ञान थयुं त्यारे ज्ञेय-ज्ञायकसंकरदोष दूर थयो. त्यारे ‘हुं तो एक अखंड ज्ञायक छुं, ज्ञेयनी साथे मारे कांई संबंध नथी’ आवुं अंदरमां (स्वसंवेदन) ज्ञान थयुं. आ पहेला प्रकारनी स्तुति थई.

[प्रवचन नं. ७०, ७१, ७२. * दिनांक ८-२-७६ थी १०-२-७६]


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अथ भाव्यभावकसङ्करदोषपरिहारेण–

जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं। तं जिदमोहं साहुं परमट्ठवियाणया बेंति।। ३२ ।।

यो मोहं तु जित्वा ज्ञानस्वभावाधिकं जानात्यात्मानम्।
तं जितमोहं साधुं परमार्थविज्ञायका ब्रुवन्ति।। ३२ ।।

हवे भाव्यभावक-संकरदोष दूर करी स्तुति कहे छेः-

जीती मोह ज्ञानस्वभावथी जे अधिक जाणे आत्मने,
परमार्थना विज्ञायको ते साधु जितमोही कहे. ३२.

गाथार्थः– [यः तु] जे मुनि [मोहं] मोहने [जित्वा] जीतीने [आत्मानम्] पोताना आत्माने [ज्ञानस्वभावाधिकं] ज्ञानस्वभाव वडे अन्यद्रव्यभावोथी अधिक [जानाति] जाणे छे [तं साधुं] ते मुनिने [परमार्थविज्ञायकाः] परमार्थना जाणनाराओ [जितमोहं] जितमोह [ब्रुवन्ति] कहे छे.

टीकाः– मोहकर्म फळ देवाना सामर्थ्य वडे प्रगट उद्रयरूप थईने भावकपणे प्रगट थाय छे तोपण तेना अनुसारे जेनी प्रवृत्ति छे एवो जे पोतानो आत्माभाव्य, तेने भेदज्ञानना बळ वडे दूरथी ज पाछो वाळवाथी ए रीते बळपूर्वक मोहनो तिरस्कार करीने, समस्त भाव्यभावक-संकरदोष दूर थवाथी एकत्वमां टंकोत्कीर्ण (निश्चल) अने ज्ञानस्वभाव वडे अन्यद्रव्योना स्वभावोथी थता सर्व अन्यभावोथी परमार्थे जुदा एवा पोताना आत्माने जे (मुनि) अनुभवे छे ते निश्चयथी ‘जितमोह जिन’ (जेणे मोहने जीत्यो छे एवा जिन) छे. केवो छे ते ज्ञानस्वभाव? आ समस्त लोकना उपर तरतो, प्रत्यक्ष उधोतपणाथी सदाय अंतरंगमां प्रकाशमान, अविनाशी, पोताथी ज सिद्ध अने परमार्थसत् एवो भगवान ज्ञानस्वभाव छे.

आ रीते भाव्यभावक भावना संकरदोषने दूर करी बीजी निश्चयस्तुति छे.

आ गाथासूत्रमां एक मोहनुं ज नाम लीधुं छे; तेमां ‘मोह’ पदने बदलीने तेनी जग्याए राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय मूकीने अगियार सूत्रो व्याख्यानरूप करवां अने श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन-


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ए पांचनां सूत्रो इंद्रियसूत्रद्वारा जुदां व्याख्यानरूप करवां; एम सोळ सूत्रो जुदां जुदां व्याख्यानरूप करवां अने आ उपदेशथी बीजां पण विचारवां.

भावार्थः– भावक जे मोह तेना अनुसार प्रवृतिथी पोतानो आत्मा भाव्यरूप थाय छे तेने भेदज्ञानना बळथी जुदो अनुभवे ते जितमोह जिन छे. अहीं एवो आशय छे के श्रेणी चडतां मोहनो उद्रय जेने अनुभवमां न रहे अने जे पोताना बळथी उपशमादि करी आत्माने अनुभवे छे तेने जितमोह कह्यो छे; अहीं मोहने जीत्यो छे; तेनो नाश थयो नथी.

शिष्यनो प्रश्न हतो के ज्यारे शरीरना वर्णनथी आत्मानां वर्णन अने स्तुति थतां नथी तो आत्मानी-केवळीनी निश्चयस्तुति कोने कहे छे? आ प्रश्नना उत्तरमां गाथा ३१, ३२ अने ३३ मां केवळीना गुणोनी स्तुति कोने कहेवाय छे एनी वात करी छे. तेमां प्रथम ३१ मी गाथामां कह्युं के-द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय अने तेना विषयो ए त्रणेयनुं लक्ष छोडीने ज्ञानानंदस्वभाव जे परथी भिन्न-अधिक परिपूर्ण छे तेनो अनुभव करवो ते पहेला प्रकारनी केवळीनी स्तुति छे. हवे आ गाथामां बीजा प्रकारनी स्तुति कोने कहेवाय ते कहे छे.

कर्मनो उद्रय आवे छे ते भावक छे, अने ते भावकने अनुसरीने जे विकार थाय छे ते भाव्य छे. आ भाव्य-भावकनी एक्ता छे त्यां सुधी तेटलो अस्थिरतानो दोष छे. एक्ता छे एटले के समक्तिीने कर्मना उद्रयना अनुसार विकारी परिणति थाय छे एनी वात छे. (एक्ताबुद्धि छे एम नहि). सम्यग्द्रष्टिने आत्माना आनंदनो अनुभव होवा छतां पर्यायमां कर्मना उद्रय तरफनुं वलण छे. एने अहीं भाव्यभावक संकरदोष कहे छे. आ दोष मिथ्यात्वनो नथी, पण चारित्रनो छे. आ दोष कर्मना उद्रयना कारणे थाय छे एम नथी पण ते कर्मना उद्रयने अनुसरीने थती पोतानी परिणतिना कारणे छे. ते परिणतिने उद्रयथी दूर हठावतां (उद्रयने हठाववानो नथी) पर तरफनुं जोडाण छूटी जाय छे. त्यारे तेने भाव्यभावक-संकरदोष दूर थाय छे. आ बीजा प्रकारनी स्तुति छे.

भावक जे कर्म छे तेने अनुसरीने पर्यायमां जे विकार थवानी लायकात छे ते भावकनुं भाव्य छे. निमित्तना वलणमां भाव्यभावकपणानी एकपणानी जे वृत्ति थाय छे ते भाव्य-भावक-संकरदोष ते. तेने जे जीते छे भाव्यभावक दोष रहित थाय छे. आ अंदरनी पोतानी स्तुति छे. राग अने निमित्तनुं लक्ष छोडी स्वभावनुं लक्ष करवाथी, निमित्तने आधीन जे भाव्य-विकारी भाव थतो हतो ते थयो नहि तेने अहीं केवळीनी बीजा प्रकारनी स्तुति कहे छे. जेने आ बीजा प्रकारनी स्तुति थई होय तेने पहेला प्रकारनी स्तुति तो होय ज छे.

* गाथा ३२ः गाथार्थ उपरनुं प्रवचन *

ज्ञानीए-मुनिए मिथ्यात्व तो जीत्यो छे, परंतु हजु कर्मनो जे उद्रय आवे छे तेमां जोडाण न करतां ज्ञानस्वभाव वडे सर्व परद्रव्योथी अधिकपणे पोताना स्वरूपमां


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रहीने जे उद्रयने जाणे छे ते मुनि जितमोह कहेवाय छे. इन्द्रियोनी एक्ता तूटी गई छे अने स्वभावनी एक्ता थई छे. तेथी ज्ञानीने ज्ञेय-ज्ञायक-संकरदोष नाश पाम्यो छे. पण हजु अस्थिरतामां कर्मनो उद्रय जे भावक छे ते तरफना झुकावथी विकाररूप भाव्य थाय छे. आ भाव्यभावक-संकरदोष छे. निश्चयथी आत्मा खरेखर विकारनो र्क्ता नथी. तेथी कर्मना उदयने भावक कही ते उदय विकाररूप भाव्य करनार छे तेम कह्युं छे. ते भाव्य- भावक संबंधने ज्ञानीए पोताना स्वभावनो आश्रय लईने हठावी दीधो. एटले के उद्रयने अनुसरीने तेने भाव्य जे विकार थतो हतो ते स्वभावनो आश्रय थतां थयो नहि. त्यारे तेने भाव्यभावकसंकरदोष दूर थयो. तेथी तेने परमार्थना जाणनाराओ जितमोह कहे छे.

आ गाथामां जे मोहकर्मनी वात छे ते चारित्रमोहनी वात छे. चारित्रमोहनो उद्रय आवे छे तेमां ज्ञानीने एक्ताबुद्धि थती नथी. परंतु जे अस्थिरता थाय छे ते कर्मने वश थतां थाय छे. ते विकारनुं-अस्थिरतानुं जे परिणमन छे तेनो र्क्ता ज्ञानी आत्मा छे. कारण के भाव्य थवाने लायक ज्ञानी आत्मा पण छे. प्रवचनसारमां ४७ नयमां एक र्क्तृनय आवे छे. तेमां कह्युं छे के जेम रंगरेज रंगने करे छे तेम धर्मात्मा (पण) रागरूपे परिणमे छे. माटे ते रागनो र्क्ता धर्मात्मा पोते छे. कर्मथी राग थाय छे के कर्म रागनो र्क्ता छे एम नथी. हवे कहे छे के जेणे पोतानी पर्यायने ज्ञायक तरफ झुकावीने निमित्त-भावकने आश्रये जे विकार थतो हतो तेने दूरथी छोडी दीधो-एटले के पहेलां विकार कर्यो अने पछी छोडी दीधो एम नहि, पण विकार थवा ज न दीधो तेने जितमोह कहे छे.

* गाथा ३२ः टीका उपरनुं प्रवचन *

जड मोहकर्म फळ देवाना सामर्थ्यथी प्रगट उद्रयरूप थाय छे. फळ देवाना सामर्थ्यथी एटले अनुभागथी. अहीं जे कर्म सत्तामां पडयां छे तेनी वात नथी, पण उद्रयमां आव्यां छे एनी वात छे. उद्रयपणे जे कर्म प्रगट थाय छे ते भावक छे, अने विकारी थवाने लायक जे जीव छे तेने ए कर्मनो उद्रय निमित्त कहेवाय छे. कर्म भावक कोने थाय छे? के जे (जीव) कर्मने अनुसरीने विकार-भाव्य करे छे तेने ज कर्मनो उदय भावक कहेवाय छे अने ते जीवने भाव्य कहेवाय छे. भावक कर्मनो उदय तो जडमां आवे छे, परंतु तेना अनुसारे ज्यां सुधी प्रवृत्ति छे त्यां सुधी अस्थिरता थाय छे तथा भाव्यरूप विकार थाय छे. तेथी भाव्य-भावक बन्ने एक थाय छे. एक थाय छे एनो अर्थ एम छे के बन्नेनो निमित्त-नैमित्तिक संबंध थाय छे. समक्तिी छे ए जितेन्द्रिय जिन थयो छे, परंतु हजु भाव्यभावक-संकरदोष टाळवानो बाकी छे. चारित्र-मोहनो उद्रय आवे छे अने तेना अनुसारे प्रवृत्ति थवाथी भाव्य-विकारीदशा थाय छे. ज्ञानी ते विकारी भाव्यनो उपशम करे छे. ते बीजा प्रकारनी स्तुति छे.

ज्यारे मोहकर्म सत्तामांथी फळ देवानी शक्तिथी भावकपणे प्रगट उद्रयमां आवे छे

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त्यारे ज्ञानी आत्मानी, पोतानी अस्थिरताथी तेने अनुसरवानी प्रवृत्ति होवाथी भावकना निमित्ते भाव्य एवा विकारभावे परिणमे छे. कर्मनो उद्रय आवे माटे तेने अनुसरवुं ज पडे एम नथी. परंतु कर्मनो उद्रय आवे त्यारे जो तेने अनुसरे तो ते भाव्य थाय छे. त्यां सुधी बीजा प्रकारनी स्तुति थती नथी. आत्माना गुणनी शुद्धि वधे तो तेनी स्तुति थाय छे. विकारी पर्याय जे निमित्तने अनुसरीने थाय छे एमां भाव्यभावक-संकरदोष छे. आ दोषने जे जीते तेने बीजा प्रकारनी स्तुति-आत्माना गुणनी शुद्धिनी वृद्धि होय छे. अहो! आचार्यनी टीका केवी गजब छे! जाणे एकलां अमृत अने न्याय भर्यां छे! जो इंदिये जिणित्ता एटले के अनिन्द्रिय एवा भगवान आत्माने जे राग, निमित्त अने एक समयनी पर्यायथी पण भिन्न करीने अनुभवे अर्थात् मतिज्ञान, श्रुतज्ञान द्वारा जे अतीन्द्रिय आनंदने अनुभवे-वेदे तेने गणधरदेव जितेन्द्रिय जिन कहे छे. आ पहेला प्रकारनी स्तुति ३१ मी गाथामां आवी गई छे. हवे सम्यग्द्रष्टि जीव भेदज्ञानना बळ वडे भाव्य-भावकसंकरदोषने जीते छे तेनी अहीं वात छे.

जे आत्मा भेदज्ञानना बळ द्वारा, उदय तरफना वलणवाळा भावने न थवा देतां, दूरथी उदयथी पाछो वळीने, ज्ञायकभावने अनुसरीने स्थिरता करे छे तेने भाव्यभावक- संकरदोष टळे छे. ‘दूरथी ज पाछो वळीने’ एटले शुं? भावक एवा उदयने अनुसरीने आत्मानी पर्यायमां विकारी भाव्य थयुं अने पछी तेनाथी हठे, पाछो वळे एम नहि. परंतु भेदज्ञानना बळथी उदयमां जोडायो ज नहि अर्थात् उद्रय तरफनो विकारी भाव्य थयो ज नहि तेने दूरथी पाछो वाळ्‌यो एम कहेवाय छे. स्वभाव तरफना वलणथी पर तरफनुं वलण छूटी गयुं तेने ‘दूरथी ज पाछो वळीने’ एम कह्युं छे. अहाहा! भेदज्ञानना बळ द्वारा अर्थात् ज्ञायकभाव तरफना विशेष झुकावथी ‘परथी भिन्न हुं एक ज्ञायक छुं’ एम अंतरस्थिरतानी वृद्धिथी जेने उद्रय तरफनी दशा ज उत्पन्न न थई तेने भाव्यभावक-संकरदोष दूर थयो अने तेणे मोहने जीत्यो छे. अहो! केवळी अने श्रुतकेवळीओए करेली ए जितमोह जिनना स्वरूपनी कथनी केवी अलौकिक हशे!

केटलाक लोको एम माने छे के जेवो कर्मनो उद्रय आवे तेवो भाव जीवमां थाय ज; तथा कर्म निमित्तपणे थईने आवे छे तेथी जीवने विकार करवो ज पडे छे. परंतु एम नथी. जीव पोते कर्मना उदयने अनुसरे तो भाव्य-विकारी थाय. परंतु भेदज्ञानना बळ वडे कर्मथी दूरथी ज पाछो वळी उद्रयने अनुसरे नहि तो भाव्य-विकारी थाय नहि. उद्रय जड कर्मनी पर्याय छे अने विकार आत्मानी पर्याय छे. जडनी पर्याय अने आत्मानी पर्याय वच्चे अत्यंत अभाव छे. तेथी उद्रय आवे ते प्रमाणे विकार थाय के करवो पडे एम नथी.

मोहकर्म छे एम एनी अस्ति सिद्ध करी. हवे ते फळ देवाना सामर्थ्यरूपे प्रगट


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थयुं-एटले के सत्तामांथी ते पाकमां-उदयमां आव्युं. जो जीव तेने अनुसरीने भाव्य- विकार करे तो उद्रयने भावकपणे प्रगट थयो एम कहेवाय, अने मोहरूप थनार जीवने भाव्य कहेवाय छे. भाव्य आत्माने भेदज्ञानना बळ द्वारा दूरथी ज पाछो वाळवाथी उद्रय तरफनुं लक्ष छूटी जाय छे अने पोताना स्वभाव उपर लक्ष जाय छे. आने मोहनुं जीतवुं कहे छे. जे समये उदय आव्यो ते समये ज, साथे ज रागनो अभाव होय छे, पछी नहि; कारण के उदय आव्यो त्यारे तेना अनुसारे परिणमन न थयुं अने तेथी राग उत्पन्न ज थयो नहि.

अहाहा! एक-एक लीटीमां केटलुं भर्युं छे? लोकोनां भाग्य छे के समयसार जेवुं शास्त्र रचाई गयुं. आमां तो महामुनिओए सत्ना ढंढेरा पीटया छे. शुं अद्भुत टीका छे! आवी टीका भरतक्षेत्रमां कयांय नथी. अहा! वीतरागी मुनिओने आनंदमां झुलतां झुलतां विकल्प आव्यो अने आ शब्दोनी रचना थई गई, करी नथी. ते समये शब्दोनी पर्याय थवानी हती तेथी थई छे. टीकाना शब्दोनी पर्यायनी जन्मक्षण हती तेथी थई छे. विकल्प आव्यो तेथी टीका थई छे एम नथी. टीकाना शब्दो आ स्वरूपे परिणमवाना हता ज, माटे परिणम्या छे. ते काळे विकल्पने निमित्त कहेवाय छे.

क्षायिक समक्तिी के मुनिने पण भावक-निमित्तना लक्षे पोताथी भाव्यरूप थवानी लायकात पर्यायमां छे. तेथी भावक उदयना काळे तेने अनुसार जो प्रवृत्ति करे तो आत्माने भाव्य कहेवाय छे. आ भाव्य-भावक संकरदोष छे. आवो जे भाव्य आत्मा तेने भेदज्ञानना बळ वडे अर्थात् पोताना पुरुषार्थ वडे पर तरफना वलणथी जुदो पाडयो. तेथी परना लक्षवाळी विकारी दशा ज उत्पन्न न थई. उद्रय तो उदयमां रह्यो अने पोताना पुरुषार्थ वडे आत्माने उदयथी भिन्न करतां-पाछो वाळतां मोह उत्पन्न ज थयो नहि अने तेथी भाव्य-भावक संकरदोष दूर थई गयो. निमित्तनुं अनुसरण छूटतां, तेने अनुसारे जे पोतानो पुरुषार्थ थतो हतो ते हवे उपादानने अनुसरीने थाय छे. तेथी भावक एवा मोहकर्मना अनुसारे थती अस्थिरतारूप भाव्य दशा पण थती नथी. समकितीने भगवान आत्मानो आश्रय तो छे ज. परंतु ज्यां सुधी पोतानो (अस्थिरतारूपी) ऊंधो पुरुषार्थ छे त्यां सुधी भाव्य थवाने ते लायक छे. तेथी जो कर्मनो विपाक आवे त्यारे तेने अनुसरे तो भाव्य-भावकनी एक्ता थाय छे. परंतु जो सवळो पुरुषार्थ करे अर्थात् निज स्वभावना विशेष आश्रय द्वारा दूरथी ज उदयथी पाछो वळे तो भाव्य-भावकनी एक्ता थती नथी. जे भाव्य विकारी थतुं हतुं ते न थयुं ते एनुं जीतवुं छे.

जे सत्तामां मोहकर्म छे ते हवे फळ देवाना सामर्थ्यथी उदयमां आवे छे. ते समये ज्ञानीनी पर्यायमां तेने अनुसरीने अस्थिरतारूप भाव्य थवानी योग्यता पण छे. आ प्रमाणे बन्नेनी अस्ति सिद्ध करी. हवे ते ज्ञानी आत्मा बळपूर्वक मोहनो तिरस्कार करीने निमित्त


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तरफनो आदर छोडी दे छे. कर्मना विपाकनो अनादर करीने ते ज्ञानी अंदर भगवान ज्ञायक त्रिकाळीना आदरमां-आश्रयमां जाय छे. तेने भाव्य-भावकसंकरदोष दूर थाय छे. आ भगवान आत्मा पोते सर्वज्ञस्वभावी छे तेनी स्तुति छे. भाई! वस्तुस्थिति ज आवी छे. पोताना भावमां एनुं भासन थवुं जोईए. एम ने एम मानी ले ते काम आवे नहि. अहो! केवळीना अनुसारे आ अलौकिक टीका छे. ‘परमार्थ वचनिका’ मां श्री बनारसीदास कहे छे के- ‘आ चिठ्ठी (वचनिका) यथायोग्य सुमतिप्रमाण केवळीवचन अनुसार छे. जे जीव सांभळशे, समजशे अने श्रद्धशे तेने भाग्य अनुसार कल्याणकारी थशे.’ ज्यारे बनारसीदास आम कहे छे तो पछी संतोनी तो शुं वात?

कर्मना उदयना काळे तेने अनुसरीने जे विकारी दशा थाय ते दोष छे. जे मुनि मोहनो तिरस्कार करीने एटले के चारित्रमोहना उदयने अवगणीने, तेनुं अनुसरण छोडी निज ज्ञायकभावने अनुभवे छे ते निश्चयथी जितमोह जिन छे. आ बीजा प्रकारनी स्तुति पहेला प्रकारनी स्तुति करतां ऊंची स्तुति छे. ३१ मी गाथामां जघन्य, ३२ मी गाथामां मध्यम अने ३३ मी गाथामां उत्कृष्ट स्तुति कही छे.

जेटले अंशे परथी हठी स्व तरफ आवे छे तेटला अंशे भाव्यभावकसंकरदोष दूर थाय छे, भाव्यभावकनी एक्ता थती हती ते दूर थाय छे. आ दोष दूर थतां एकत्वमां टंकोत्कीर्ण (निश्चल) अने ज्ञानस्वभाव वडे अन्यद्रव्योना स्वभावोथी थता सर्व भावोथी परमार्थे जुदा एवा पोताना आत्माने ते मुनि अनुभवे छे. अहाहा! णाणसहावाधियं एटले ज्ञानस्वभाव वडे अन्यद्रव्योना स्वभावोथी थता सर्वभावोथी परमार्थे भिन्न एवा पोताना आत्माने जे मुनि अनुभवे छे ते निश्चयथी जितमोह छे. तेणे मोहने जीत्यो छे पण हजु टाळ्‌यो नथी. मोहनो उपशम कर्यो छे पण क्षय कर्यो नथी. एटलो पुरुषार्थ हजु मंद छे.

मुनिने अने समकितीने द्रष्टिमां रागनो अभाव छे. तेथी कर्मना उद्रये राग थाय छे एम नथी. परंतु पर्यायमां राग थवानी लायकात छे तेथी भावक (कर्म) तरफनुं वलण थतां रागरूप भाव्य थाय छे. हवे मुनि, भावक जे मोहकर्म तेनी उपेक्षा करीने-तेनुं लक्ष छोडीने एक ज्ञायकभाव त्रिकाळी ध्रुव भगवाननो आश्रय करे छे तेने जितमोह जिन कहे छे. भाई! आ एक (ज्ञायक) भाव जेने यथार्थ बेसे एने बधा भाव यथार्थ बेसी जाय. पण जेने एक भावनां ठेकाणां न मळे ते नाखे कर्म उपर. पण तेथी शुं थाय? (संसार न मटे)

हवे कहे छेः-केवो छे ज्ञानस्वभाव? ३१ मी गाथामां जे कह्युं हतुं ए ज अहीं छे. आ समस्त लोक उपर तरतो छे. ज्ञाननी पर्यायमां स्वपरप्रकाशक थवानो स्वभाव छे. तेथी ज्ञानस्वभाव वडे ते ज्ञेयने-लोकने जाणे छे छतां ते ज्ञेयथी भिन्न रहे छे. ज्ञेयने


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बराबर जाणतो होवा छतां ज्ञेयरूप थतो नथी. तरतो रहे छे एटले जणावा योग्य ज्ञेयथी जुदो रहे छे. वळी ते ज्ञानस्वभाव प्रत्यक्ष उद्योतपणाथी सदाय अंतरंगमां प्रकाशमान छे. तेथी ज्ञाननी पर्याय अंतरमां आत्माने विषय बनावतां ते प्रत्यक्ष थाय छे. आवो अविनाशी भगवान ज्ञानस्वभाव पोताथी ज सिद्ध अने परमार्थ सत् छे. अहाहा! आत्मा तो भगवान छे पण तेनो ज्ञानस्वभाव पण भगवान छे. आ भगवाननी स्तुति छे. एटले पोते भगवान छे तेनी स्तुति छे.

शिष्ये पूछयुं हतुं के तीर्थंकर अने केवळीनी निश्चय स्तुति केम थाय? तेनो उत्तर एम आप्यो के-आत्मा राग अने परथी भिन्न पडीने एक निज ज्ञायकभावमां एकाग्र थई तेने अनुभवे ते तेनी स्तुति छे. भावक कर्मनो उद्रय छे अने भाव्य थवाने लायक पोतानो आत्मा भाव्य छे. ते बन्नेनी एक्ता ते भाव्यभावकसंकरदोष छे. ते दोषने दूर करतां बीजा प्रकारनी स्तुति थाय छे.

गाथासूत्रमां एक मोहनुं ज नाम लीधुं छे. ते ‘मोह’ पद बदलीने तेनी जगाए राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय मूकीने अगियार सूत्रो व्याख्यानरूप करवां. चारित्रमोहनो उद्रय कर्ममां आव्यो. तेने अनुसरीने पर्यायमां रागद्वेषरूप थवानी योग्यतावाळो धर्मीनो आत्मा पण छे. तेथी उदयने अनुसरतां पर्यायमां भाव्य जे राग-द्वेष थाय छे ते संकरदोष छे. हवे ज्ञायक-स्वभावना उग्र आश्रयथी, उद्रय तरफनुं वलण छोडतां परथी भेद पडी जाय छे अने तेथी राग-द्वेष उत्पन्न थता नथी, परंतु अरागी-अद्वेषी परिणाम प्रगट थाय छे. तेने राग-द्वेषने जीतवुं कहे छे.

राग अने द्वेषमां चारेय कषाय आवी जाय छे. क्रोध तथा मान द्वेषरूप छे अने माया तथा लोभ रागरूप छे. चारित्रमोहनो उदय तो जडमां आवे छे. छतां समकिती अने मुनिने पण चारित्रमोहना चारेय प्रकारना उद्रयने अनुसरीने कषायरूपे परिणमवानी योग्यता छे. परंतु हवे तेने छोडी दे छे. कषाय प्रगट थयो अने पछी तेने जीतीने छोडी दे छे एम नहि. परंतु कषाय उत्पन्न ज थवा दीधो नहि. कषायना उद्रय तरफनुं लक्ष छोडी अर्थात् तेनुं अनुसरण छोडीने स्वभावना लक्षे स्वभावनुं अनुसरण करतां भावक अने भाव्यनुं भेदज्ञान थाय छे. तेथी भाव्य-कषाय उत्पन्न थतो ज नथी तेने कषाय जीत्यो एम कहेवाय छे.

एक बाजु ४७ शक्तिओना वर्णनमां एम कह्युं के कर्मना निमित्ते थता रागनुं र्क्तापणुं जीवने नथी. जीव रागनो अर्क्ता छे एवो एनो स्वभाव छे. रागने न करे एवो तेनामां अर्क्ता गुण छे. ‘समस्त, कर्मथी करवामां आवेला, ज्ञातृत्वमात्रथी जुदा जे परिणामो ते परिणामोना करणना उपरमरूप अर्क्तृत्वशक्ति.’ कर्मथी करवामां आवेला परिणाम एटले के विकारी परिणाम जीव करे एवो खरेखर एमां कोई गुण नथी. तेथी


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पर्यायमां जे विकार थाय छे तेने कर्मना निमित्ते थयेलो देखी कर्मथी करवामां आवेलो छे एम कह्युं छे. ज्यारे अहीं कहे छे के रागना भाव्यपणे थवानी लायकात जीवनी छे, माटे ते रागनो र्क्ता छे. प्रवचनसारमां ४७ नयोमां एक र्क्तृत्वनय छे. एमां कहे छे- आत्मद्रव्य र्क्तृनये, रंगरेजनी माफक, रागादि परिणामनुं करनार छे,’ ज्यां ४७ शक्तिओनुं वर्णन कर्युं छे त्यां द्रव्यद्रष्टिथी आत्मा अर्क्ता छे एम कह्युं छे. शक्तिमां द्रष्टिनो विषय अने स्वभावनी अपेक्षाए वर्णन छे. तेथी जीव रागनो र्क्ता नथी एवो अर्क्तास्वभावी कह्यो छे. ज्यारे अहीं पर्यायमां क्षणे क्षणे कंईक पराधीनता अने स्वाधीनता थाय छे तेनुं ज्ञान कराव्युं छे. द्रष्टि साथे जे ज्ञान प्रगट थयुं छे ते एम जाणे छे के जीव र्क्तृनये रागरूपे परिणमनार छे. कर्मना लईने जीव रागरूपे थाय छे एम नथी. तेम ज राग करवा लायक छे एम पण नथी. परंतु रागरूपे जीव (स्वयं) परिणमे छे तेथी र्क्ता कहेवाय छे. छतां पण र्क्तृनय साथे अर्क्तृनय होवाथी रागनो ज्ञानी साक्षी ज छे, जाणनार ज छे. रागने न करे एवो अर्क्तृत्वगुण आत्मामां छे. छतां पर्यायमां जे राग थाय छे ते कर्मना निमित्ते, कर्मने अनुसरीने थवानी योग्यता पर्यायमां होवाथी थाय छे. ते पर तरफनुं वलण छोडी स्वनुं वलण करवुं ते साचो पुरुषार्थ छे. शक्ति अने द्रव्यस्वभावनी अपेक्षाए जीवने राग-द्वेषनो भोगवटो नथी, केमके तेनामां अभोक्तृत्व शक्ति छे. कर्मना निमित्तथी थतां विकारीभावना उपरमरूप आत्मानो अनुभव ते खरेखर पोतानो भोगवटो छे. आ गुण अने द्रव्यने अभेद करीने वात छे. परंतु ज्यारे पर्यायमां शुं छे ते सिद्ध करवुं होय त्यारे भोक्तृत्व नयथी सुख-दुःख, संकल्प-विकल्प, पुण्य-पाप अने राग-द्वेषनो भोगवनार छे. आवो एक नय छे, परंतु परने आत्मा भोगवनार नथी. धवलना छट्ठा भागमां पण कह्युं छे के अंतरंग कारण प्रधान छे, निमित्त नहि.

प्रश्नः– स्वामी-कार्तिकेयानुप्रेक्षामां आवे छे केः-जुओ पुद्गलनी शक्ति! ते केवळज्ञानने पण रोके छे. केवळज्ञानने रोके एवुं केवळज्ञानावरणीय कर्म छे ने?

उत्तरः– ए तो पुद्गलमां निमित्त थवानी उत्कृष्टमां उत्कृष्ट केटली शक्ति छे ते बताव्युं छे. केवळज्ञानावरणीय कर्मनो उदय आव्यो माटे केवळज्ञान रोकायुं छे एम नथी. उदय तो जडमां छे, अने उद्रयने अनुसरवानी लायकात पोतानी छे. माटे ज्ञान पोताथी हीणपणाने प्राप्त थयुं छे. परिणतिमां विषयनो प्रतिबंध थतां थोडो विषय करे छे अने घणो छोडी दे छे. ते पोताथी थाय छे, ज्ञानावरणीय कर्म तो एमां निमित्त छे. ज्ञानावरणीय कर्मनो उदय भावकपणे आवे छे ते तेनी सत्तामां छे अने जीवनी सत्तामां पोताना कारणे तेने अनुसरीने ज्ञानी हीणी दशा थवानी भाव्य दशा थाय छे. ते भाव्य- भावकसंकरदोष छे. हवे पर्यायने पूर्ण निर्मळ करवा, पूर्णानंदस्वरूप भगवान केवळज्ञाननो पिंड छे तेनो पूर्ण आश्रय