Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 26-30.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 20 of 210

 

PDF/HTML Page 381 of 4199
single page version

अथाहाप्रतिबुद्धः–

जदि जीवो ण सरीरं तित्थयरायरियसंथुदी चेव।
सव्वा वि हवदि मिच्छा तेण दु आदा हवदि देहो।। २६ ।।

यदि जीवो न शरीरं तीर्थकराचार्यसंस्तुतिश्चैव।
सर्वापि भवति मिथ्या तेन तु आत्मा भवति देहः।। २६ ।।
(शार्दूभविक्रीडित)
कान्त्यैव स्नपयन्ति ये दशदिशो धाम्ना निरुन्धन्ति ये
धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णन्ति रूपेण ये।
दिव्येन ध्वनिना सुखं श्रवणयोः साक्षात्क्षरन्तोऽमृतं
वन्द्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः।। २४ ।।

हवे अप्रतिबुद्ध जीव कहे छे तेनी गाथा कहे छेः-

जो जीव होय न देह तो आचार्य–तीर्थंकरतणी
स्तुति सौ ठरे मिथ्या ज, तेथी एकता जीव–देहनी! २६.

गाथार्थः– अप्रतिबुद्ध कहे छे केः [यदि] जो [जीवः] जीव छे ते [शरीरं न] शरीर नथी तो [तीर्थकराचार्यसंस्तुतिः] तीर्थंकर अने आचार्योनी स्तुति करी छे ते [सर्वा अपि] बधीये [मिथ्या भवति] मिथ्या (जूठी) थाय छे; [तेन तु] तेथी अमे समजीए छीए के [आत्मा] आत्मा ते [देहः च एव] देह ज [भवति] छे.

टीकाः– जे आत्मा छे ते ज पुद्गलद्रव्यस्वरूप आ शरीर छे. जो एम न होय तो तीर्थंकर-आचार्योनी जे स्तुति करवामां आवी छे ते बधी मिथ्या थाय. ते स्तुति आ प्रमाणे छेः-

श्लोकार्थः– [ते तीर्थेश्वराः सूरयः वन्द्याः] ते तीर्थंकर-आचार्यो वांदवायोग्य छे. केवा छे ते? [ये कान्त्या एव दशदिशः स्नपयन्ति] पोताना देहनी कान्तिथी दशे दिशाओने धुए छे-निर्मळ करे छे, [ये धाम्ना उद्दाम–महस्विनां धाम निरुन्धन्ति] पोताना तेज वडे उत्कृष्ट तेजवाळा सूर्यादिकना तेजने ढांकी दे छे, [ये रूपेण जनमनः मुष्णन्ति] पोताना


PDF/HTML Page 382 of 4199
single page version

रूपथी लोकोनां मन हरी ले छे, [दिव्येन ध्वनिना श्रवणयोः साक्षात् सुखं अमृतं क्षरन्तः] दिव्यध्वनि-वाणीथी (भव्योना) कानोमां साक्षात् सुखअमृत वरसावे छे अने [अष्टसहस्रलक्षणधराः] एक हजारने आठ लक्षणोने धारण करे छे, -एवा छे. २४.

-ईत्यादि तीर्थंकर-आचार्योनी स्तुति छे ते बधीये मिथ्या ठरे छे. तेथी अमारो तो एकांत ए ज निश्चय छे के आत्मा छे ते ज शरीर छे, पुद्गलद्रव्य छे. आ प्रमाणे अप्रतिबुद्धे कहृाुं.

हवे अप्रतिबुद्ध जीव कहे छे तेनी गाथा कहे छेः-

अज्ञानी कहे छे के-तमे बधी आवी वातो करो छो तो जे स्तुति कराय छे ते कोनी कराय छे? शरीरनी. माटे शरीर ते आत्मा छे. तमे ‘शरीर रहित, शरीर रहित’ एम आटलो बधो पोकार शानो करो छो? आम अज्ञानी जीव सामी दलील करे छे.

* गाथा २६ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जे आत्मा छे ते ज पुद्गलद्रव्यस्वरूप आ शरीर छे.’ शरीर अने आत्मा बन्ने एक ज छे. वळी तमे जुदा जुदा कहो छो, पण ए अमने बेसतुं नथी. जो एम न होय तो तीर्थंकर-आचार्योनी जे स्तुति करवामां आवी छे ते बधी मिथ्या थाय. ते स्तुति आ प्रमाणे छेः-(आम अज्ञानीए शास्त्रमांथी आधार काढयो).

* कळश २४ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

महाराज! तमे कहो छो के शरीर अने आत्मा बन्ने जुदा छे पण तमारा ज शास्त्रमां शरीरनी स्तुतिथी भगवाननी स्तुति करी छे. जेम केः-

ते तीर्थेश्वराः सूरयः वन्द्या ते तीर्थंकर-आचार्यो वांदवायोग्य छे. केवा छे ते? ये कान्त्या एव दशदिशः स्नपयन्ति पोताना देहनी कान्तिथी दशे दिशाओने धूए छे- निर्मळ करे छे, ये धाम्ना उद्दाममहस्विनाम् धाम निरुन्धन्ति अने पोताना तेज वडे उत्कृष्ट तेजवाळा सूर्यादिकना तेजने ढांकी दे छे. भगवाननुं शरीर एवुं होय छे के केवळज्ञान थतां तेना रजकणोनुं तेज सूर्यना तेजथी पण अधिक थई जाय छे. एटले सूर्यना तेजथी पण अधिक देदीप्यमान भगवाननुं परम औदारिक शरीर होय छे. ये रूपेण जनमनः मुष्णन्ति पोताना रूपथी लोकोनां मन हरी ले छे. तीर्थंकरना शरीरनुं रूप एवुं होय छे के लोकोनां मनने हरी ले छे. दिव्येन ध्वनिना श्रवणयोः साक्षात् सुखं अमृतं क्षरन्तः दिव्यध्वनि-वाणीथी (भव्योना) कानोमां साक्षात् सुख-अमृत वरसावे छे. अने अष्टसहस्त्रलक्षणधराः एक हजार ने आठ लक्षणोने धारण करे छे-एवा छे. आ बधां लक्षणो तो शरीरनां छे अने तमे तेने चैतन्य भगवाननी स्तुति कहो छो.


PDF/HTML Page 383 of 4199
single page version

-इत्यादि तीर्थंकर-आचार्योनी स्तुति छे एम तमे कहो छो ते बधीय मिथ्या ठरे छे. तेथी अमारो तो एकांत ए ज निश्चय छे के आत्मा छे ते ज शरीर छे, आ प्रमाणे अप्रतिबुद्धनुं कहेवुं छे.

अहीं शिष्यनो प्रश्न छे के शरीर अने आत्मा तद्न जुदा छे एम तमे कहो छो पण ए वात अमने बेसती नथी. केमके तमे तीर्थंकरनी स्तुति करो छो त्यारे एना शरीरनी अने एनी वाणीनी स्तुति करो छो. जेमकेः-जेमना देहना रूपना प्रकाशमां सूर्यनुं तेज पण ढंकाई जाय छे अने जेनी दिव्यध्वनिथी भव्योना कानोमां साक्षात् सुख- अमृत वरसावे छे इत्यादि. आ बधी शानी स्तुति करो छो? शरीरनी. माटे अमे तो मानीए छीए के शरीर अने आत्मा एक छे. जो देह अने आत्मा एक न होय तो तमे करेली बधी स्तुति मिथ्या ठरे. माटे देह अने आत्मा एक छे एम अमारो निश्चय छे.

वळी कोई एम कहे छे के जो शरीर अने आत्मा एक न होय तो शरीरमां जे रोग आवे छे ते आत्मा केम वेदे? शरीरमां रोगादिनी पीडा आत्मा वेदे छे के नहि? वळी शरीरनी क्रिया-हालवुं, चालवुं इत्यादि कोण करे छे? भाई! ए (आत्मा) शरीरने वेदतो ज नथी, पण शरीरनुं लक्ष करी रागने वेदे छे. अने शरीरनी क्रिया ए तो जडनी क्रिया छे. आत्मा ते क्रिया करतो नथी. तथा जे कर्मना निमित्ते क्रिया थाय छे ते जडकर्मने पण आत्मा अनुभवतो नथी. केमके जड अने चैतन्य वच्चे तो अत्यंताभाव छे. तेथी आत्माने जडकर्मनो अनुभव नथी, पण एना निमित्ते थता मिथ्यात्व अने रागद्वेषनो अनुभव छे.

वळी (अन्य) संप्रदायमां तो शरीर अने आत्मा अत्यंत भिन्न छे एवुं स्पष्ट लखाण ज नथी, एवी शैली ज नथी. त्यां तो एम मानता के आपणे ब्रह्मचर्य पाळीए, संयम पाळीए, पर जीवनी रक्षा करीए इत्यादि बधुं आत्मा करे छे. परजीवनी हिंसा न करवी, परजीवने बचाववो ए “अहिंसा परमो धर्मः” ए आखा सिद्धांतनो सार छे एम कहेता. ए जेणे जाण्युं एणे बधुं जाण्युं.

अहीं तो कहे छे के ए परनी हिंसा अने अहिंसा आ जीव करी शके ज नहि. बंध अधिकारमां आवे छेः-परने हुं मारी शकुं छुं, परने हुं जीवाडी शकुं छुं, बीजाने हुं सुखदुःख दई शकुं छुं, संयोगो, आहार-पाणी वगेरे हुं लई शकुं छुं अने छोडी शकुं छुं, परथी हुं जीवुं छुं, पर बधा रक्षा करनारा छे तेथी हुं जीवुं छुं इत्यादि बधी


PDF/HTML Page 384 of 4199
single page version

मान्यता जेनी छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. केमके जीवनुं जीवन-मरण तेना आयुकर्मने आधीन छे, तथा पर वस्तुने आत्मा ग्रही के छोडी शक्तो नथी. वळी प्रवचनसार गाथा १७२ना अलिंगग्रहणना वीस बोलमां १३ मो बोल छे. एमां आवे छे के पांच इन्द्रियो, त्रण बळ (मन, वचन अने काय) श्वासोच्छ्वास अने आयु ए दश प्राणथी जीवनुं जीवन छे ज नहि. निश्चयथी एनुं जीवन अंतर जीवतर-ज्ञानदर्शनरूप चेतन प्राणथी छे. अशुद्ध- निश्चयनयथी कहो तो ए भावेन्द्रियथी छे अने जड दश प्राणथी जीवे छे ए तो असद्भूत व्यवहारनयथी कथन छे.

आ एक एक रजकण छे एमां अनंत शक्तिओ-गुण छे. एमां क्रियावती नामनी एक शक्ति-गुण छे. आ शरीर, मन, वाणी आदिनुं जे हलन-चलन थाय छे ए तो रजकणोनी क्रियावती शक्तिने लईने छे, पण आत्माने लईने नहि. आ आंगळीने आत्मा हलावे तो हाले छे एम त्रण काळमां नथी. ए तो एनी (रजकणोनी) क्रियावती शक्तिने लईने हाले छे. जडनुं हालवुं जडना अस्तित्वमां अने चेतननुं हालवुं चेतनना अस्तित्वमां छे. भाई! आ तो मूळ वात छे. जड अने चेतन बन्नेनो स्वभाव प्रगट भिन्न भिन्न छे. अहीं तो राग अने दया, दाननो जे विकल्य ऊठे एनो ए (अज्ञानी) र्क्ता थाय छे. ए ज्ञानस्वरूप आत्मा ए विकारने केम करे? ए तो चैतन्य ज्ञानस्वरूपी भगवान ज्ञाता-द्रष्टाना भावथी भरेलो छे. ए परने शी रीते मारे के जीवाडे? ए रागने शी रीते करे? आत्मामां विकार करवानी तो कोई शक्ति नथी. एवो गुण नथी जे विकार करे. विकार जे पर्यायमां थाय छे ए तो पर्यायनी योग्यताथी पर्यायमां थाय छे, पण कर्मथी नहि अने द्रव्य-गुणथी पण नहि. झीणी वात, भाई. वीतराग मार्गने अनंतकाळमां समज्यो नथी.

वळी कोई एम कहे छे के शास्त्रमां कुंदकुंदाचार्ये पुण्यने व्यवहार धर्म कह्यो छे अने व्यवहारने साधन कह्युं छे. कहे छे-पुण्णफला अरहंता एटले के पुण्यना फळमां अरिहंतपद मळे छे. परंतु आ अज्ञानीनी खोटी मान्यता छे. पुण्यनुं फळ अरिहंतपद छे ज नहि. पुण्यना फळमां तो बहारना अतिशयनी वात लीधी छे. प्रवचनसार गाथा ४पनी टीका जुओ. पुण्यनो विपाक भगवानने-ज्ञानने अकिंचित्कर छे एम त्यां लीधुं छे. वात तो आवी छे. गाथाना मथाळे तीर्थकृतां पुण्यविपाकोऽकिंचित्कार एव पुण्यनो विपाक अकिंचित्कर ज छे एम कह्युं छे. आत्माने पुण्यनुं फळ कांई कार्यकारी नथी. अरिहंतने जे देहादिनी क्रिया, वाणी नीकळवी, चालवुं इत्यादि क्रिया छे ते पुण्यना फळरूप छे.


PDF/HTML Page 385 of 4199
single page version

अने एनो पण क्षणे क्षणे क्षय थतो जाय छे. भाई! त्यां तो एम कहे छे के भगवान तो पोताना पुरुषार्थथी केवळज्ञान पाम्यां छे. एने जे पुण्य बाकी रह्युं छे ते पुण्यने लईने आसन, विहार थाय अने वाणी नीकळे ए बधी उद्रयनी जे क्रिया छे ते क्षणे क्षणे नाश पामे छे तेथी तेने क्षायिकी कही छे एम त्यां वात आवे छे. पुण्णफला अरहंता एटले पुण्यना फळमां अरिहंतपद मळे छे एम छे ज नहि. आ आवा ऊंधा अर्थ करे, पण शुं थाय?

शिष्य आ रीते अनेक प्रकारे आत्मा अने शरीर एक छे एवी ऊंधी मान्यता शास्त्रमांथी काढे छे. एने आचार्य भगवान कहे छे के एम नथी; तुं नयविभागने जाणतो नथी. तुं शास्त्रोना व्यवहारनयना कथनोने समजतो नथी. ते नयविभाग आ प्रमाणे छे. एम आगळनी गाथामां कहेशे.

[प्रवचन नं. ६७-६८ * दिनांक प-२-७६ अने ६-२-७६]




PDF/HTML Page 386 of 4199
single page version

नैवं, नयविभागानभिज्ञोऽसि–

ववहारणओ भासदि जीवो देहो य हवदि खलु एक्को। ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदा वि एक्कट्ठो।। २७ ।।

व्यवहारनयो भाषते जीवो देहश्च भवति खल्वेकः।
न तु निश्चयस्य जीवो देहश्च कदाप्येकार्थः।। २७ ।।

त्यां आचार्य कहे छे के एम नथी; तुं नयविभागने जाणतो नथी. ते नयविभाग आ प्रमाणे छे एम गाथामां कहे छेः-

जीव–देह बन्ने एक छे–व्यवहारनयनुं वचन आ;
पण निश्चये तो जीव–देह कदापि एक पदार्थना. २७.

गाथार्थः– [व्यवहारनयः] व्यवहारनय तो [भाषते] एम कहे छे के [जीवः देहः च] जीव अने देह [एकः खलु] एक ज [भवति] छे; [तु] पण [निश्चयस्य] निश्चयनयनुं कहेवुं छे के [जीवः देहः च] जीव अने देह [कदा अपि] कदी पण [एकार्थः] एक पदार्थ [न] नथी.

टीकाः– जेम आ लोकमां सुवर्ण अने चांदीने गाळी एक करवाथी एकपिंडनो व्यवहार थाय छे तेम आत्माने अने शरीरने परस्पर एक क्षेत्रे रहेवानी अवस्था होवाथी एकपणानो व्यवहार छे. आम व्यवहारमात्रथी ज आत्मा अने शरीरनुं एकपणुं छे, परंतु निश्चयथी एकपणुं नथी; कारण के निश्चयथी विचारवामां आवे तो, जेम पीळापणुं आदि अने सफेदपणुं आदि जेमनो स्वभाव छे एवां सुवर्ण अने चांदीने अत्यंत भिन्नपणुं होवाथी एकपदार्थपणानी असिद्धि छे तेथी अनेकपणुं ज छे, तेवी रीते उपयोग अने अनुपयोग जेमनो स्वभाव छे एवां आत्मा अने शरीरने अत्यंत भिन्नपणुं होवाथी एक पदार्थपणानी प्राप्ति नथी तेथी अनेकपणुं ज छे. आवो आ प्रगट नयविभाग छे.

माटे व्यवहारनये ज शरीरना स्तवनथी आत्मानुं स्तवन बने छे.

भावार्थः– व्यवहारनय तो आत्मा अने शरीरने एक कहे अने निश्चयनय भिन्न कहे छे. तेथी व्यवहारनये शरीरनुं स्तवन करवाथी आत्मानुं स्तवन मानवामां आवे छे.


PDF/HTML Page 387 of 4199
single page version

अप्रतिबुद्धे तीर्थंकर-आचार्योनी स्तुति उपरथी एम कह्युं के-अमारो तो एकांत ए ज निश्चय छे के आत्मा छे ते ज शरीर छे, पुद्गल द्रव्य छे. तेने (अप्रतिबुद्धने) आचार्य कहे छे के-एम नथी. तुं नयविभागने जाणतो नथी. ते नयविभाग आ प्रमाणे छे एम गाथामां कहे छेः-

* गाथा २७ः टीका उपरनुं प्रवचन *

जेम आ लोकमां सुवर्ण अने चांदीने गाळी एक करवाथी एक पिंडनो व्यवहार थाय छे तेम आत्माने अने शरीरने परस्पर एकक्षेत्रे रहेवानी अवस्था होवाथी एकपणानो व्यवहार छे.’ जुओ, सोनुं अने चांदीने गाळी एक करीने एने धोळुं सोनुं एम कहेवामां आवे छे. पण धोळुं तो रूपु (चांदी) छे अने सोनुं तो पीळुं छे. बन्ने जुदां जुदां छे. तेम चैतन्य लक्षणवान आत्मा छे अने अचेतन लक्षणवान (जड) शरीर छे. एम बन्ने जुदां जुदां छे.

कर्मनां रजकणो कर्मनी पर्यायने करे पण आत्मा एने न करे तथा कर्मनी पर्याय आत्माने राग न करावे, अहाहा! स्वतंत्र परमाणु पोताना द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भावमां पोताना अस्तित्वथी रहेल छे. ए परना द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भावमां प्रवेश कर्या विना एने (परने) करे शी रीते? एथी कहे छे के आत्मा अने शरीर एक छे ए तो व्यवहारनुं कथन मात्र छे. आम व्यवहारमात्रथी ज आत्मा अने शरीरनुं एकपणुं कहेवामां आवे छे. बन्ने एक क्षेत्रमां रहेलां छे ए अपेक्षाए असद्भूत व्यवहारनयथी एक छे एम कहे छे, परंतु निश्चयथी एकपणुं नथी.

कारण के निश्चयनयथी विचारवामां आवे तो जेम पीळापणुं आदि, अने सफेदपणुं आदि जेमनो स्वभाव छे एवां सुवर्ण अने चांदीने अत्यंत भिन्नपणुं होवाथी एकपदार्थपणानी असिद्धि छे.’ जुओ, सोनुं अने चांदीनो भिन्नभिन्न स्वभाव छे तेथी निश्चयथी सोनुं अने चांदी एक नथी. अरे! सोनाना एक एक रजकणने बीजा रजकणनो संबंध नथी. परमाणु एकलो होय तोपण पोताना स्वचतुष्टयमां (द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भावमां) छे अने स्कंधमां होय तोपण पोताना स्वचतुष्टयमां छे. प्रवचनसार गाथा ८७मां कह्युं छे के स्कंधमां पण जे अनंत रजकणो छे ते दरेके दरेक रजकण स्वतंत्र छे, एके एक रजकण पोताना स्वचतुष्टयमां छे, पण अन्य रजकण साथे अभेद नथी. अनंत रजकणो अनंत तत्त्व छे. ते प्रत्येक स्वपणे रहे अने परपणे न रहे तो अनंत अनंतपणे रही शके. अनंतनी अनंततानुं अस्तित्व सिद्ध करवा जाय तो प्रत्येक पोतामां छे अने परमां नथी एम प्रत्येकनी भिन्नभिन्न स्वसत्ता (स्वरूप अस्तित्व) सिद्ध थई जाय छे. भाई! परथी आमां थाय अने आनाथी परमां थाय एम माने तो अनंतनी भिन्नभिन्न सत्ता सिद्ध नहि थाय.


PDF/HTML Page 388 of 4199
single page version

एक रजकणनुं जे क्षेत्रांतर थाय ए रजकणनी पोतानी क्रियावतीशक्तिने कारणे पोताना अस्तित्वथी थाय छे, पण बीजा रजकणने कारणे नहि अने आत्माना कारणे पण नहि. आवुं तत्त्व छे. वस्तु परथी भेदरूप (भिन्न) छे ए अहीं कहे छे. सुवर्ण अने चांदीने अत्यंत भिन्नपणुं होवाथी तेमने एकपदार्थपणानी असिद्धि छे. तेथी अनेकपणुं छे. जोयुं, अनंत अनंतपणे छे माटे एकबीजा साथे कांई संबंध नथी. सोनुं अने चांदी बे छे ने? ए बन्ने पोतपोतापणे छे. बे एक नथी थयां माटे अनेक छे. भाई! एक स्कंधमां अनेक रजकणो छे तेमां दरेक रजकण तथा एक निगोदना शरीरमां अनंत जीवो छे तेमां प्रत्येक जीव पोताना स्वचतुष्टय (द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भाव)ने छोडीने बीजाना चतुष्टयमां जता नथी. बधाय अनंतपणे रह्या छे, एकपणे थया नथी. आवो छे, भाई! वीतरागमार्ग बहु सूक्ष्म छे.

आ तो एम माने शरीरथी दया पळे, शरीरथी संयम थाय, शरीरथी उपवास थाय, आत्मा होय तो शरीरनी क्रिया थाय, शरीरनुं दुःख आत्माने वेदाय इत्यादि-माटे शरीर अने आत्मा एक छे. भाई! आ तारी मान्यता मूढनी छे. आ बधी क्रियामां राग मंद होय, शुभक्रिया थई होय तो पुण्य थाय पण ए शरीरनी क्रियाथी अने आहार छोडवाथी के शुभक्रियाथी धर्म थयो माने तो ए मिथ्यात्वभाव छे. भाई! आत्मामां परवस्तुना ग्रहण-त्यागनी शक्ति ज नथी. आत्मामां त्याग-उपादान शून्यत्व शक्ति छे. एटले परनो त्याग अने परनुं ग्रहण आत्मा करी शके ज नहि. तो पछी परद्रव्यने शी रीते ते ग्रहे अने छोडे? (अन्यत्र) संप्रदायमां तो आ वात ज मळती नथी.

एक आत्मा बीजा आत्माना चतुष्टयथी भिन्न छे. तेम एक रजकण बीजा रजकणना चतुष्टयथी भिन्न छे. सप्तभंगीमां पहेलो भंग एम छे के-वस्तु स्वद्रव्य-क्षेत्र- काळ-भावथी अस्ति छे अने परद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी नास्ति छे.

प्रश्नः– पण व्यवहारथी तो बीजानुं करे ने?

उत्तरः– धूळे य न करे. ए तो बोलाय. निश्चयथी के व्यवहारथी कोई रीते परनुं करी शके नहि. जेम अमारो देश, अमारुं गाम एम बोलाय पण एथी गाम अने देश एना थई गया? (सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार, समयसार गाथा ३२प मां आ वात आवे छे.) श्रीमद् एम बोलता के अमारो कोट, अमारी टोपी, अमारुं घर इत्यादि. लोको आ समजी शक्ता नहि. तेमने एम थाय के आ शुं बोले छे? अ-एटले नहि. अमारो एटले मारो नहि एवो भाव एनी पाछळ हतो. पण समजवानी कोने पडी छे? आम ने आम आ आत्मा अनंतकाळथी परने पोतानुं मानीने, पोताना स्वरूपने भूली रखडे छे. श्रीमद कहे छे के “तारा दोषथी तने रखडवुं थयुं छे. तारो दोष एटलो के परने


PDF/HTML Page 389 of 4199
single page version

पोतानो मानीने भूल्यो.” आ टूंकी भाषा छे. कर्मे तने भूलाव्यो नथी. कर्मोए तने रखडाव्यो नथी. पूजामां आवे छे केः-

“कर्म बिचारे कौन भूल मेरी अधिकाई,
अग्नि सहै घनघात लोहकी संगति पाई.”

एटले लोढानो संग अग्नि करे तो अग्नि उपर घण पडे तेम आत्मा पोते परनो संग करे तो रागादि थाय, दुःखना घण पडे; पण परने लईने थाय एम नथी.

अहीं ए कहे छे के सोनुं अने चांदीना रजकणो भिन्न भिन्न छे, अनेकपणे छे. सोनाने धोळुं कहेवुं ए तो कथनमात्र छे, वस्तु एम छे नहि, तेवी रीते उपयोग अने अनुपयोग जेमनो स्वभाव छे एवां आत्मा अने शरीरने अत्यंत भिन्नपणुं होवाथी एकपदार्थपणानी प्राप्ति नथी तेथी अनेकपणुं ज छे.’ अहाहा! ज्ञायकस्वभावी आत्मा नित्यउपयोगस्वरूप वस्तु-तत्त्व छे. ए अनादि अनंत अस्तित्ववाळी सत्यार्थ परमार्थ वस्तु छे. आत्मा अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत आनंद, अनंत शांति, अनंत स्वच्छता, अनंत ईश्वरता-एम अनंत अनंत गुणोना अस्तित्वना स्वभावथी स्वभाववान वस्तु छे.

परने पोतानुं मानवुं ए तो मिथ्या भ्रम-अज्ञान छे ज. परंतु आत्माने एक समयनी पर्याय जेटलो माने ए पण पर्यायमूढ जीव छे, परसमय छे, मिथ्याद्रष्टि छे. अहाहा! वस्तु तो आखी आनंदकंद, ज्ञानानंदरसकंद, त्रिकाळी सत्ना सत्त्वरूपे अंदर पडी छे. एक समयनी पर्याय तो एना अनंतमा भागे एक अंश व्यक्त छे. ए अनंत- स्वभावनो स्वभाववान तुं, एनुं त्रिकाळी सत्त्व कांई एक समयनी पर्यायमां नथी आवतुं. आवो भगवान पूर्णानंदनो नाथ छे. एने परपणे मानवो के परथी हुं छुं एम मानवो ए तो मिथ्याभ्रम, अज्ञान अने भवभ्रमणनुं मूळ छे. ८४ लाखना अवतारनी ए जड छे. संयोगी चीज परवस्तु अने संयोगीभाव एटले पुण्य-पापना विकार ए बधुं छे. पण पोताना स्वभाववानने भूलीने संयोगी चीज अने संयोगीभावने पोताना मानवा ए भवभ्रमणनी जड छे.

वस्तु सहजानंदस्वरूप भगवान पूर्णानंदनो नाथ नित्यउपयोगस्वभावे अंदर पडेली छे एने आत्मतत्त्व कहीए. एना उपर अनंतकाळमां पण नजर गई नहि अने बहार जोया कर्युं. पोते जोनारो केवडो अने कयां छे अंदर ए जोयुं नहि, अने मात्र परने अने बहु बहु तो एक समयनी पर्यायने जोई. पर्याय जेमांथी ऊभी थाय छे अने जेना आश्रये छे एवी त्रिकाळी, ध्रुव चीजने जोई नहि अने मानी नहि. अने शरीरनी क्रियाओ करो, संयम शरीरथी पळे एम शरीरनी क्रियामां तथा गामने सुधारी दउं, दुनियाने सुधारी दउं, उपदेशथी समजावीने लोकोने तारी दउं इत्यादि क्रियाओ तथा भावोमां पोतापणुं


PDF/HTML Page 390 of 4199
single page version

करे छे ते मूढ, मिथ्याद्रष्टि, अज्ञानी छे. अरे भगवान! तने शुं थयुं छे आ? भाई! तारामां ए चीज छे नहि. परने तुं तारे के मारे ए तारा स्वरूपमां नथी. ए तो ते विकल्पथी (खोटुं) मान्युं छे.

जुओ शरीर, कर्म आदि अजीव-जड छे ए तो अण-उपयोगस्वरूपे छे. परंतु जे परना लक्षे उत्पन्न थाय छे एवा आ पुण्य-पापना विकल्प ए पण अण-उपयोगस्वरूप छे. छठ्ठी गाथामां आवे छे के ध्रुव त्रिकाळी ज्ञायकभाव कदी शुभाशुभभावोना स्वभावे थयो नथी. ज्ञायक वस्तु उपयोगस्वरूपे छे. ए अण-उपयोगस्वरूप शुभाशुभभावपणे थई नथी. आ दया, दान, भक्ति आदिना भावमां चैतन्यनो अंश नहि होवाथी ए सर्व रागादि भावो अण-उपयोगस्वरूप छे. तो पछी शरीर अने कर्मनी तो वात ज शी? अहीं कहे छे के उपयोग अने अनुपयोग जेमनो स्वभाव छे एवो ज्ञायक आत्मा अने शरीरादिने भिन्नपणुं छे, अनेकपणुं छे, एकपणुं नथी.

गाथा १७-१८ मां एम कह्युं के आबाळ-गोपाळ सौने ज्ञान ज अनुभवमां आवे छे, एटले शरीर अने राग संबंधीनुं जे ज्ञान छे ए ज्ञान ज जाणवामां आवे छे पण एम न मानतां हुं शरीरने जाणुं छुं, रागने जाणुं छुं एम एनुं लक्ष पर उपर जाय छे. ए मिथ्या भ्रम छे. आ जाणनारो जणाय छे अने राग अने शरीरने जाणनारुं ज्ञान राग अने शरीरनुं नथी पण ज्ञायकनुं छे. ए परज्ञेयनुं ज्ञान नथी पण त्रिकाळी भगवाननुं छे. आम ज्ञायक आत्मा अने शरीरादि परवस्तुने भिन्नपणुं छे, अनेकपणुं छे.

अरे! वस्तुनी द्रष्टि विना अनंतवार व्रत, तप, नियम करीने बिचारो मरी गयो (रखडयो). कह्युं छे ने (पुण्य-पाप अधिकार, गाथा १पर मां) के अज्ञानभावे व्रत, तप आदि करे ए बाळव्रत अने बाळतप छे. आहाहा! छ छ मासना उपवास करे, बब्बे महिनाना संथारा करे, झाडनी डाळनी जेम पडयो रहे पण निजस्वरूपने जाण्या विना ए बधुं बाळतप अने बाळव्रत छे. भगवान ज्ञाननी मूर्ति छे. एनी पर्यायमां जे जाणवुं थाय छे ए तो आत्मानी पोतानी पर्याय छे. ए खरेखर जाणनार ज्ञायकने जाणे छे एम न मानतां आने (पर शरीरादिने) जाणे छे एम पर उपर लक्ष जाय छे ए अज्ञान छे.

अनंतकाळथी शरीर अने रागने लक्ष करी जाणे छे. अने एने एकपणे माने छे. आ जाणनार, जाणनार, जाणनार जे छे ते हुं एम विचारवानी कोने पडी छे? बस, दुनियामां पांच-पचास लाखनी धूळ मळे एटले माने के लीला लहेर छे. आपणे हवे लखपति. परंतु बनारसीदास समयसार नाटकमां कहे छे के आत्मा ज्ञानस्वरूप छे एना लक्षनो पति आत्मा लक्षपति छे. आत्मानुं लक्ष थतां जे अतीन्द्रिय सहज आनंद थयो ए आनंदनो नाथ भगवान आत्मा लक्षपति छे. बनारसीदासना पद्यमां छे आः-


PDF/HTML Page 391 of 4199
single page version

स्वारथके साचे परमारथके साचे चित्त,
साचे साचे बैन कहैं साचे जैनमती हैं,
काहूके विरुद्ध नाहि परजाय-बुद्धि नाहि,
आतमगवेषी न गृहस्थ हैं न जती हैं,
सिद्धि रिद्धि वृद्धि दीसै घटमैं प्रगट सदा,
अंतरकी लच्छिसौं अजाची लच्छपती हैं.”

ए दुनियाना लखपति-करोडपति ए तो धूळना पति धूळ-पति छे.

ज्यारे उपदेशमां दाननो, भक्तिनो, पूजानो अधिकार शास्त्रमां आवे त्यारे शुभभावनी वात आवे. रत्नकरंड श्रावकाचारमां दान आदिनो अधिकार विस्तारथी आवे छे. सम्यग्द्रष्टि होय, पैसा आदि संपत्ति होय तो एने रागनी मंदता करीने दानमां वापरे ए पुण्यनुं कारण छे. परंतु पैसानो लोभ राखी दानमां वापरे नहि तो पापनुं कारण छे. पद्मनंदि पंचविंशतिमां दान अधिकारमां पण आवे छे के-कागडो जेम उकडीआ-खीचडी तळिये दाझी होय ते तावेथाथी उखेडीने बहार कुंडीमां जे नाखे ते दाणा एकलो न खाय, पण का...का...का एम बोली बीजा कागडाओने बोलावीने खाय. तेम भगवान! तें पूर्वे जे शुभभाव कर्या त्यारे तारा आत्मानी शांति-वीतरागता दाझी हती. ते वेळा तने जे पुण्य बंधायां तेना फळमां आ लक्ष्मी आदि मळ्‌या छे ते एकलो वापरीश नहि, बीजाओने पण दानमां आपजे. नहिं तो तुं कागडामांथी य जईश. (उपदेशमां अधिकार प्रमाणे रागनी मंदतानी वात शास्त्रमां आवे पण तेथी मंद राग धर्म छे एम न समजवुं).

अहीं आचार्य भगवान ए स्पष्ट कहे छे के तुं कोण छे? आ जाणवा-देखवाना स्वभावथी भरेलो उपयोगस्वरूप ज्ञायक आत्मा छे ते तुं छे. तथा ज्ञानउपयोगथी खाली अण-उपयोगस्वरूप रागादि अने शरीरादि छे ते तुं नथी. आत्माने अने शरीरादिने आ रीते अत्यंत भिन्नपणुं छे. तेमने एकपदार्थपणानी प्राप्ति नथी तेथी अनेकपणुं ज छे. अनादिथी एकमेक मानी राख्युं छे ने? एने केम बेसे? पण भाई! शरीरना रजकण ते हुं अने एनाथी क्रिया थाय ते मारी थई एम जे माने ते भले कोई मोटो राजा होय, शेठ होय के मोटो त्यागी होय ए मूढ, मोटो मूर्ख छे.

आत्मा अने शरीर आकाशना एक क्षेत्रे रहेवाथी एक छे एम असद्भूत व्यवहार-नयथी कहेवामां आवे छे. (ए कथनमात्र छे.) बाकी भगवान आनंदनो नाथ चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मा अने आ जड शरीर ए तद्न भिन्न भिन्न छे. एमने त्रणकाळमां एकपणुं नथी. आवो प्रगट नयविभाग छे. आ हालवा-चालवानी, बोलवानी इत्यादि क्रिया जडनी छे. एने आत्मा करी शक्तो नथी. जाणवुं, जाणवुं एम जे उपयोगस्वभाव छे ते आत्मा


PDF/HTML Page 392 of 4199
single page version

छे. माटे व्यवहारनये ज शरीरना स्तवनथी आत्मानुं स्तवन बने छे. भगवाननुं स्तवन करतां भगवान शरीरे सूर्यना तेजथी पण अधिक तेजवाळा छे इत्यादि शरीरद्वारा जे स्तवन कर्युं ते आत्मानुं स्तवन नथी, शरीरनुं स्तवन छे. तेथी व्यवहारनयथी ज शरीरनुं स्तवन करवाथी आत्मानुं स्तवन कर्युं कहेवामां आवे छे, परमार्थे एम नथी.

* गाथा २७ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘व्यवहारनय तो आत्मा अने शरीरने एक कहे छे अने निश्चयनय भिन्न कहे छे. तेथी व्यवहारनये शरीरनुं स्तवन करवाथी आत्मानुं स्तवन मानवामां आवे छे. शरीर-माटी, धूळ, हाडकां, चामडां वगेरेथी भगवान आनंदनो नाथ प्रभु भिन्न छे. आत्मा जाणनार, जाणनार सच्चिदानंद प्रभु-सत् एटले शाश्वत ज्ञान अने आनंदनो कंद प्रभु छे. एने केम बेसे? कदीय बहारथी नजर फेरवीने अंदर जोवा नवरो थयो छे? जेम तपेलामां लापसी रंधाती होय अने लाकडां लीलां होय तेथी धूमाडो नीकळे. ए धूमाडामां तपेलामां लापसी देखाती नथी. तेम रागनी नजर करनारने रागनी आडमां रागथी भिन्न भगवान चिदानंद प्रभु देखातो नथी, अरे! पुण्य अने पाप, दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि विकारी भावने देखनारो ए बधाथी जुदो छे एनी अज्ञानीने अनादिकाळथी खबर नथी. तेथी भवभ्रमण करी रह्यो छे.

[प्रवचन नं. ६८ * दिनांक ६-२-७६]





PDF/HTML Page 393 of 4199
single page version

इणमण्णं जीवादो देहं पोग्गलमयं थुणित्तु मुणी।
मण्णदि हु संथुदो वंदिदो मए केवली भयवं।। २८ ।।
इदमन्यत् जीवाद्देहं पुद्गलमयं स्तुत्वा मुनिः।
मन्यते खलु संस्तुतो वन्दितो मया केवली भगवान्।। २८ ।।

आ ज वात हवेनी गाथामां कहे छेः-

जीवथी जुदा पुद्गलमयी आ देहने स्तवीने मुनि
माने प्रभु केवळीतणुं वंदन थयुं, स्तवना थई. २८.

गाथार्थः– [जीवात् अन्यत्] जीवथी भिन्न [इदम् पुद्गलमयं देहं] पुद्गलमय देहनी [स्तुत्वा] स्तुति करीने [मुनिः] साधु [मन्यते खलु] एम माने छे के [मया] में [केवली भगवान्] केवळी भगवाननी [स्तुतः] स्तुति करी, [वन्दितः] वंदना करी.

टीकाः– जेम, परमार्थथी श्वेतपणुं सुवर्णनो स्वभाव नहि होवा छतां पण, चांदीनो गुण जे श्वेतपणुं, तेना नामथी सुवर्णनुं ‘श्वेत सुवर्ण’ एवुं नाम कहेवामां आवे छे ते व्यवहारमात्रथी ज कहेवामां आवे छे; तेवी रीते, परमार्थथी शुकल-रकतपणुं तीर्थंकर-केवळीपुरुषनो स्वभाव नहि होवा छतां पण, शरीरना गुणो जे शुकल-रकतपणुं वगेरे, तेमना स्तवनथी तीर्थंकर-केवळीपुरुषनुं ‘शुकल-रकत तीर्थंकर-केवळीपुरुष’ एवुं स्तवन करवामां आवे छे ते व्यवहारमात्रथी ज करवामां आवे छे. परंतु निश्चयनये शरीरनुं स्तवन करवाथी आत्मानुं स्तवन बनतुं ज नथी.

भावार्थः– अहीं कोई प्रश्न करे के व्यवहारनय तो असत्यार्थ कहृाो छे अने शरीर जड छे तो व्यवहारना आश्रये जडनी स्तुतिनुं शुं फळ छे? तेनो उत्तरः- व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्थ नथी, निश्चयने प्रधान करी असत्यार्थ कहृाो छे. वळी छद्मस्थने पोतानो, परनो आत्मा साक्षात् देखातो नथी, शरीर देखाय छे, तेनी शांतरूप मुद्राने देखी पोताने पण शान्त भाव थाय छे. आवो उपकार जाणी शरीरना आश्रये पण स्तुति करे छे; तथा शान्त मुद्रा देखी अंतरंगमां वीतराग भावनो निश्चय थाय छे ए पण उपकार छे.


PDF/HTML Page 394 of 4199
single page version

ए ज भाव हवेनी गाथामां कहे छेः-

* गाथा २८ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जेम, परमार्थथी श्वेतपणुं सुवर्णनो स्वभाव नहि होवा छतां पण, चांदीनो गुण जे श्वेतपणुं, तेना नामथी सुवर्णनुं “श्वेत सुवर्ण” एवुं नाम कहेवामां आवे छे.’ जुओ, ज्यारे सोनुं अने चांदीने गाळीने गट्ठो करे तो सोनाने “धोळुं सोनुं” एम कहेवामां आवे छे. त्यां सोनुं धोळुं नथी, सोनुं तो पीळुं ज छे. धोळुं तो रूपुं छे अने सोनुं तो पीळाश, चीकाश आदिथी अभिन्न छे. छतां चांदीना मेळापथी चांदीनो गुण जे श्वेतपणुं छे एना नामथी सोनाने “श्वेत सुवर्ण” एम व्यवहारमात्रथी ज कहेवामां आवे छे, परमार्थे एम नथी.

‘तेवी रीते, परमार्थथी शुकल-रक्तपणुं तीर्थंकर-केवळीपुरुषनो स्वभाव नहि होवा छतां पण, शरीरना गुणो जे शुकल-रक्तपणुं वगेरे, तेमना स्तवनथी तीर्थंकर- केवळीपुरुषनुं “शुकल-रक्त तीर्थंकरकेवळीपुरुष” एवुं स्तवन करवामां आवे छे ते व्यवहारमात्रथी ज करवामां आवे छे.’ भगवान धोळा अने भगवान राता एम श्वेत- रक्तपणुं ए तीर्थंकर-केवळीनो स्वभाव नथी. ए तो शरीरना गुण छे. आवे छे ने के सोळ तीर्थंकर सोनावर्णे हता, बे राता वर्णे, बे धोळा वर्णे, बे नीलवर्णे अने बे अंजनवर्णे हता. भाई! ए तो बधी शरीरनी वातो छे आत्मानी नहि. ए तो व्यवहारथी कहेवामां आवी छे. जेम चोखानो कोथळो होय तेमां चोखा चार मण होय अने कोथळो अढी शेर होय ते भेगो तोळाय, चार मण अने अढीशेर. हवे तेमांथी चोखा खूटे तो अढी शेरनो कोथळो कांई रांधवामां काम आवे? (न आवे). तेम शरीर तो कोथळो छे अने अंदर त्रिकाळी भगवान आनंदकंद आत्मा ए चोखा (सार वस्तु) छे. ए बन्नेनुं एकपणुं त्रण काळमां नथी. ए एकपणुं तो व्यवहारमात्रथी कहेवामां आवे छे. परंतु शरीर अने आत्मानुं एकपणुं नहि होवाथी निश्चय नये शरीरनुं स्तवन करवाथी आत्मानुं स्तवन बनतुं ज नथी.

* गाथाः २८ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अहीं कोई प्रश्न करे के व्यवहारनय तो असत्यार्थ कह्यो छे अने शरीर जड छे तो व्यवहारना आश्रये जडनी स्तुतिनुं शुं फळ छे?’

‘तेनो उत्तरः-व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्थ नथी, निश्चयने प्रधान करी असत्यार्थ कह्यो छे. वळी छद्मस्थने पोतानो, परनो आत्मा साक्षात् देखातो नथी, शरीर देखाय छे, तेनी शांतरूप मुद्रा देखी पोताने पण शांत भाव थाय छे.’ शुं कहे छे? भगवानने अंदर निर्मळ परिणतिरूप केवळज्ञान प्रगटयुं छे, णमो अरिहंताणं-सर्वज्ञपद प्रगटयुं


PDF/HTML Page 395 of 4199
single page version

छे अने परम वीतरागता थई छे. तेथी शरीरनी मुद्रा पण शांत-परमशांत देखाय छे. ए मुद्राना निमित्ते जो एम विचारे के भगवान चैतन्यमूर्ति जाणे शांत-शांत-शांत अंदर स्वरूपमां ठरी गया छे अने एम विचारी पोताना अंतरंगमां जुए तो भगवान एकलो ठरी गयेलो शांत जणाय छे.

अहीं निमित्तथी कथन कर्युं छे. जो सर्वज्ञ परमात्माना समोसरणमां वीतरागमुद्राने देखी पोते शांत-शांत थई जाय तो भगवानना शरीरने निमित्त कहेवाय. बहेनश्रीनां वचनामृतमां आवे छे के हे नाथ! शांतरसना परमाणुथी आपनुं शरीर विराजे छे. अने भगवान आत्मानो अंदर वीतरागस्वभाव प्रगट थई गयो छे. शांत- शांत-शांत शरीरना रजकणो पण उपशमरस जेवा शांत देखाय एने देखीने जोनारो पण जो एम विचारे के पोतानुं अविकारी स्वरूप पण आवुं शांत छे तो एने अंदरमां शान्ति थाय. जो त्यां ने त्यां ऊभो रहे अने भगवाननी शांत मुद्रा, शरीरनी कान्ति इत्यादिना विकल्पो ज कर्या करे तो पुण्यबंधन थाय. (शांतिरूप धर्म न थाय.)

‘आवो उपकार जाणी शरीरना आश्रये पण स्तुति करे छे; तथा शान्त मुद्रा देखी अंतरंगमां वीतराग भावनो निश्चय थाय छे ए पण उपकार छे’ अंतरंगमां निश्चय थाय एनी वात छे. बाकी एकली शांत मुद्रा एवी तो अनंत वार करी अने देखी, अनंत वार भगवाननी मूर्तिओ देखी अने पूजा पण अनंत वार करी, समोसरणमां अनंत वार गयो पण भगवान आत्मा अंदर शांत-शांत-शांत, रागना विकल्पनी अशांतिथी भिन्न उपशमरसनो कंद छे एम अंतरंगमां निश्चय न कर्यो. तेथी भगवाननी मुद्रा पण निमित्त थई न कहेवाय.

जेम सक्करकंदनी उपरनी लाल छाल न जुओ तो अंदर आखो सक्कर एटले साकर नाम मीठाशनो सफेद पिंड पडयो छे, तेम पुण्य-पापना विकल्पनी छाल विनानो शांतरसथी भरेलो चैतन्यपिंड अंदर पडेलो छे एम भगवाननी शांत मुद्रा देखीने अंदर निश्चय करे तो उपकार (निमित्त) छे. पण एने आवी नवराश कयां छे? तेथी तो चार गतिमां अनादिथी रखडपट्टी करी रह्यो छे. समयसार नाटकमां बनारसीदासे कह्युं छे केः-

“जिनवर्नन कछु और है, यह जिनर्वनन नांहि.”

आ शरीरनुं वर्णन ए जिनवर्णन नथी. अंदर वीतरागमूर्ति शांतरसनो पिंड प्रभु आत्मा चैतन्यस्वरूप विराजे छे ए जिन छे. एनुं वर्णन जिनवर्णन कोई जुदी चीज छे. एनुं ज्ञान-श्रद्धान करवुं ए सम्यग्दर्शन आदि धर्म छे. अन्यथा शरीरादिना वर्णनमां रोकाई जाय तो पुण्यबंध थाय ए ज.

[प्रवचन नं. ६८ चालु * दिनांक ६-२-७६]


PDF/HTML Page 396 of 4199
single page version

तं णिच्छये ण जुज्जदि ण सरीरगुणा हि होंति केवलिणो।
केवलिगुणे थुणदि जो सो तच्चं केवलिं थुणदि।। २९ ।।
तन्निश्चये न युज्यते न शरीरगुणा हि भवन्ति केवलिनः।
केवलिगुणान् स्तौति यः स तत्त्वं केवलिनं स्तौति।। २९ ।।

उपरनी वातने गाथाथी कहे छेः-

पण निश्चये नथी योग्य ए, नहि देहगुण केवळीतणा;
जे केवळीगुणने स्तवे परमार्थ केवळी ते स्तवे. २९.

गाथार्थः– [तत्] ते स्तवन [निश्चये] निश्चयमां [न युज्यते] योग्य नथी [हि] कारण के [शरीरगुणाः] शरीरना गुणो [केवलिनः] केवळीना [न भवन्ति] नथी; [यः] जे [केवलिगुणान्] केवळीना गुणोनी [स्तौति] स्तुति करे छे [सः] ते [तत्त्वं] परमार्थथी [केवलिनं] केवळीनी [स्तौति] स्तुति करे छे.

टीकाः– जेम चांदीनो गुण जे सफेदपणुं, तेनो सुवर्णमां अभाव छे माटे निश्चयथी सफेदपणाना नामथी सोनानुं नाम नथी बनतुं, सुवर्णना गुण जे पीळा- पणुं आदि छे तेमना नामथी ज सुवर्णनुं नाम थाय छे; तेवी रीते शरीरना गुणो जे शुकल- रकतपणुं वगेरे, तेमनो तीर्थंकर-केवळीपुरुषमां अभाव छे माटे निश्चयथी शरीरना शुकल-रकतपणुं वगेरे गुणोनुं स्तवन करवाथी तीर्थंकर-केवळीपुरुषनुं स्तवन नथी थतुं, तीर्थंकर-केवळीपुरुषना गुणोनुं स्तवन करवाथी ज तीर्थंकर-केवळीपुरुषनुं स्तवन थाय छे.

हवे उपरनी वातने सिद्ध करे छेः-

* गाथा २९ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जेम चांदीनो गुण जे सफेदपणुं, तेनो सुवर्णमां अभाव छे माटे निश्चयथी सफेदपणाना नामथी सोनानुं नाम नथी बनतुं, सुवर्णना गुण जे पीळापणुं आदि छे तेमना नामथी ज सुवर्णनुं नाम थाय छेः-जुओ, धोळुं सोनुं एम कहेवाय छे पण सोनुं सफेद नथी. सोनामां तो सफेदपणानो अभाव छे. तेथी सुवर्णना गुण जे पीळाश आदि छे ते वडे ज सुवर्णनुं नाम थाय छे. आम अस्ति-नास्ति कर्युं.


PDF/HTML Page 397 of 4199
single page version

‘तेवी रीते शरीरना गुणो जे शुकल-रक्तपणुं वगेरे, तेमनो तीर्थंकर- केवळीपुरुषमां अभाव छे.’ जुओ, भगवान राता छे, धोळा छे एम जे रातो, धोळो, पीळो रंग छे ए कांई भगवानना आत्मामां नथी. ‘माटे निश्चयथी शरीरना शुकल- रक्तपणुं वगेरे गुणोनुं स्तवन करवाथी तीर्थंकर-केवळीपुरुषनुं स्तवन नथी थतुं, तीर्थंकर-केवळीपुरुषना गुणोनुं स्तवन करवाथी ज तीर्थंकर-केवळीपुरुषनुं स्तवन थाय छे.’ गुणोनुं स्तवन (आगळ) लेशे. भगवानना गुणो एटले ज्ञायकस्वरूप पोताना ज गुणो ए रीते (आगळ लेशे).

[प्रवचन नं. ६९ * दिनांक ७-२-७६]

PDF/HTML Page 398 of 4199
single page version

णयरम्मि वण्णिदे जह ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि।
देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होंति।। ३० ।।
नगरे वर्णिते यथा नापि राज्ञो वर्णना कृता भवति।
देहगुणे स्तूयमाने न केवलिगुणाः स्तुता भवन्ति।। ३० ।।
(आर्या)
प्राकारकवलिताम्बरमुपवनराजीनिगीर्णभूमितलम्।
पिबतीव हि नगरमिदं परिखावलयेन पातालम्।। २५ ।।

हवे शिष्यनो प्रश्न छे के आत्मा तो शरीरनो अधिष्ठाता छे तेथी शरीरना स्तवनथी आत्मानुं स्तवन निश्चये केम युक्त नथी? एवा प्रश्नना उत्तररूपे द्रष्टांत सहित गाथा कहे छेः-

वर्णन कर्ये नगरी तणुं नहि थाय वर्णन भूपनुं,
कीधे शरीरगुणनी स्तुति नहि स्तवन केवळीगुणनुं. ३०.

गाथार्थः– [यथा] जेम [नगरे] नगरनुं [वर्णिते अपि] वर्णन करतां छतां [राज्ञः वर्णना] राजानुं वर्णन [न कृता भवति] करातुं (थतुं) नथी, तेम [देहगुणे स्तूयमाने] देहना गुणनुं स्तवन करतां [केवलिगुणाः] केवळीना गुणोनुं [स्तुताः न भवन्ति] स्तवन थतुं नथी.

टीकाः– उपरना अर्थनुं (टीकामां) काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [इदं नगरम् हि] आ नगर एवुं छे के जेणे [प्राकार–कवलित– अम्बरम्] कोट वडे आकाशने ग्रस्युं छे (अर्थात् तेनो गढ बहु ऊंचो छे), [उपवन– राजी–निगीर्ण–भूमितलम्] बगीचाओनी पंक्तिओथी जे भूमितळने गळी गयुं छे (अर्थात् चारे तरफ बगीचाओथी पृथ्वी ढंकाई गई छे) अने [परिखावलयेन पातालम् पिबति इव] कोटनी चारे तरफ खाईना घेराथी जाणे के पाताळने पी रह्युं छे (अर्थात् खाई बहु ऊंडी छे). रप.


PDF/HTML Page 399 of 4199
single page version

(आर्या)
नित्यमविकारसुस्थितसर्वाङ्गमपूर्वसहजलावण्यम्।
अक्षोभमिव समुद्रं जिनेन्द्ररूपं परं जयति।। २६ ।।

____________________________________________________________

आम नगरनुं वर्णन करवा छतां तेनाथी राजानुं वर्णन थतुं नथी कारण के, जोके राजा तेनो अधिष्ठाता छे तोपण, कोट-बाग-खाइ-आदिवाळो राजा नथी.

तेवी रीते शरीरनुं स्तवन कर्ये तीर्थंकरनुं स्तवन थतुं नथी तेनो पण श्लोक कहे छेः-

श्लोकार्थः– [जिनेन्द्ररूपं परं जयति] जिनेन्द्रनुं रूप उत्कृष्टपणे जयवंत वर्ते छे. केवुं छे ते? [नित्यम्–अविकार–सुस्थित–सर्वाङ्गम्] जेमां सर्व अंग हंमेशां अविकार अने सुस्थित (सारी रीते सुखरूप स्थित) छे, [अपूर्व–सहज–लावण्यम्] जेमां (जन्मथी ज) अपूर्व अने स्वाभाविक लावण्य छे (अर्थात् जे सर्वने प्रिय लागे छे) अने [समुद्रं इव अक्षोभम्] जे समुद्रनी जेम क्षोभरहित छे, चळाचळ नथी. र६.

आम शरीरनुं स्तवन करवा छतां तेनाथी तीर्थंकर-केवळीपुरुषनुं स्तवन थतुं नथी कारण के, जोके तीर्थंकर-केवळीपुरुषने शरीरनुं अधिष्ठातापणुं छे तोपण, सुस्थित सर्वांगपणुं, लावण्य आदि आत्माना गुण नहि होवाथी तीर्थंकर-केवळीपुरुषने ते गुणोनो अभाव छे.

* गाथा ३०ः टीका उपरनुं प्रवचन *

उपरना (गाथामां कहेला) अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश २पः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

इदं नगरम् हि आ नगर एवुं छे के जेणे प्राकारकवलिताम्बरम् कोट वडे आकाशने ग्रस्युं छे. एटले के एनो कोट एटलो बधो ऊंचो छे के जाणे आकाशने आंबतो होय; उपवनराजीनिगीर्णभूमितलम् तथा बगीचाओनी पंक्तिओथी जाणे भूमितळने गळी गयुं होय (अर्थात् चारे तरफ बगीचाओथी भूमि ढंकाई गई छे); अने परिखावलयेन पातालम् पिबति इव कोटनी चारे तरफ खाईना घेराथी जाणे के पाताळने पी रह्युं छे (अर्थात् खाई बहु ऊंडी छे). जुओ, जेना भूमितळ उपर बगीचा पथराएला छे, कोट जाणे आकाशमां व्यापी रह्यो छे अने खाई जाणे पाताळ सुधी ऊंडी गई छे-‘आम नगरनुं वर्णन करवा छतां तेनाथी राजानुं वर्णन थतुं नथी. कारण के, जोके राजा तेनो अधिष्ठाता छे तोपण कोट-बाग-खाई आदिवाळो राजा नथी.’

तेवी रीते शरीरनुं स्तवन कर्ये तीर्थंकरनुं स्तवन थतुं नथी तेनो पण कळशरूप श्लोक कहे छेः-


PDF/HTML Page 400 of 4199
single page version

* कळश २६ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

जिनेन्द्ररूपं परं जयति जिनेन्द्रनुं रूप उत्कृष्टपणे जयवंत वर्ते छे. केवुं छे ते? नित्यम् अविकारसुस्थितसर्वागम् जेमां सर्व अंग हमेशां अविकार अने सुस्थित (सारी रीते सुखरूप स्थित) छे, जेमां अपूर्वसहजलावण्यम् (जन्मथी ज) अपूर्व अने स्वाभाविक लावण्य छे (अर्थात् जे सर्वने प्रिय लागे छे); समुद्रम् इव अक्षोभम् अने जे समुद्रनी जेम क्षोभरहित छे, चळाचळ नथी. जुओ, भगवाननुं शरीर एवुं होय छे के सूर्यथी पण वधारे प्रकाशवाळुं होय छे सुंदरता (नमणाई) बहु होय छे. दरेक अवयवनी प्रकृति एवी बंधायेली छे के जेथी शरीरनी सुंदरता-नमणाई श्रेष्ठ होय छे. सघळा अंगो निर्विकार अने प्रमाणसर होय छे. वळी ते समुद्रनी जेम शांत-शांत निश्चल होय छे.

आम शरीरनुं स्तवन करवा छतां तेनाथी तीर्थंकर-केवळीपुरुषनुं स्तवन थतुं नथी. कारण के, जोके तीर्थंकर-केवळीपुरुषने शरीरनुं अधिष्ठातापणुं छे तोपण, सुस्थित सर्वांगपणुं, लावण्य आदि आत्माना गुण नहि होवाथी तीर्थंकर-केवळीपुरुषने ते गुणोनो अभाव छे. जेम नगरना वर्णनमां राजानुं वर्णन आवतुं नथी तेम शरीरना वर्णनमां आत्मानुं वर्णन आवतुं नथी.

[प्रवचन नं ६९ चालु * दिनांक ७-२-७६]