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हवे अप्रतिबुद्धने समजाववा माटे प्रयत्न करे छेः-जुओ, केटलाक एम कहे छे के आ समयसार मुनिजनो माटे छे, पण अहीं आचार्य भगवान कहे छे- ‘अथ अप्रतिबुद्ध–बोधनाय व्यवसायः क्रियते’ अप्रतिबुद्धने समजाववा माटे प्रयत्न करवामां आवे छे. जेने सम्यग्दर्शन नथी अने जे रागने, पुण्यने पोताना माने छे एवा मिथ्याद्रष्टिने समजाववा प्रयत्न करीए छीए एम आचार्यदेव कहे छे.
‘एकी साथे अनेक प्रकारनी बंधननी उपाधिना अति निकटपणाथी वेगपूर्वक वहेता अस्वभावभावोना संयोगवशे जे (अप्रतिबुद्ध जीव) अनेक प्रकारना वर्णवाळा आश्रयनी निकटताथी रंगायेला स्फटिक-पाषाण जेवो छे.’ जुओ, स्फटिक-पाषाणनी नजीकमां काळा, लाल आदि फूल होय तो जे एनुं प्रतिबिंब स्फटिक पाषाणमां पडे ते स्फटिकनी योग्यताथी पडे छे, पण ए लाल, काळा आदि फूलने लईने पडे छे एम नथी. जो ए लाल आदि फूलने लईने पडे तो लाकडुं मूकीए तो एमां पण पडवुं जोईए. (पण एम नथी.) ए (फूल) तो निमित्त छे अने नैमित्तिकमां जे लाल आदि फूलनुं प्रतिबिंब देखाय छे ए तो स्फटिकनी ते प्रकारनी पोतानी पर्यायनी वर्तमान योग्यताने लीधे छे. तेवी ज रीते कर्मना उद्रयरूप रंगने लीधे आत्मामां राग-द्वेषरूप रंग ऊठे छे एम नथी. ए (कर्मनो उद्रय) तो निमित्त छे अने नैमित्तिक राग-द्वेष जे आत्मामां ऊठे छे ते ते प्रकारनी पोतानी पर्यायनी वर्तमान योग्यताने लीधे छे.
वळी जेम कोई वासणमां स्फटिक मूकयो होय तो वासण जेवा रंगनुं होय तेवा ज रंगनो स्फटिक देखाय छे. ए स्फटिकनी पोतानी पर्यायनी वर्तमान योग्यताने कारणे छे नहि के वासणना रंगने कारणे; तेम एक समयनी पर्याय-विकारी होय के अविकारी- स्वतंत्रपणे ते काळे ते प्रकारे उत्पन्न थवानी योग्यताथी थाय छे. पर्यायनुं वीर्य पर्यायने लईने छे, गुणना वीर्यने लईने पर्यायनुं वीर्य छे एम पण नथी. चिद्दविलासमां आवे छे के पर्यायनी सूक्ष्मता पर्यायने कारणे छे, द्रव्य-गुणना कारणे नहि. त्यां पर्याय एटले मात्र निर्मळ पर्यायनी वात नथी, पण मलिन अने निर्मळ पर्याय स्वतः पोताना कारणे थाय छे एम त्यां पर्यायनी स्वतंत्रता बतावी छे.
स्फटिक अने फूलना संयोगनुं द्रष्टांत हवे जीव अने कर्ममां उतारे छे. जे ज्ञानानंद उपयोगस्वरूप स्वभावभावे छे तेने जीव कहीए. परंतु अनादिथी अनेक प्रकारना एटले आठ प्रकारना कर्मना बंधननी उपाधिनी अति निकटपणाने लईने वेगपूर्वक वहेता अस्वभावभावोना संयोगवशे चैतन्यना उपयोगरूप ज्ञान, आनंद आदि स्वभावभावो तिरोभूत थई (ढंकाई) गया छे. पोते संयोग-निमित्तने (कर्मोदयने) वश थतां शुभाशुभ
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पुण्य-पापना अनेक प्रकारना जे अस्वभावभावो थाय छे एने वश अज्ञानीनी अनादिनी द्रष्टि छे. जुओ, भगवान आत्मा चैतन्यतत्त्व ज्ञानउपयोगनुं द्रळ छे, ज्ञानानंदस्वरूपी दळ छे, एनी निकटमां आठ प्रकारना कर्मरजकणोनो अनेक प्रकारनो संबंध छे. ए संबंध उपर एनी द्रष्टि होवाथी एने राग-द्वेष अने विकारी भावोनो वेग वहे छे. ए वेगना भावमां रमतो ‘ए वेगनो जे भाव छे ते मारो छे’ एम मानवाथी एने चैतन्य ज्ञायकभाव ढंकाई गयो छे.
भगवान ज्ञायकभावस्वरूप आत्मानो चैतन्यउपयोग तो स्फटिकनी जेम निर्मळ छे. ए उपयोगमां अति निकटना जे अस्वभावभावो-राग-द्वेष, पुण्य-पाप, व्रत, तप, दान, भक्ति तथा काम, क्रोध आदि ते जणाय छे. ए जणातां ए अस्वभावभावो ज हुं छुं एम अज्ञानी माने छे. झीणी वात छे, भाई! आ व्यवहार रत्नत्रयना विकल्प, देव- गुरु शास्त्रनी श्रद्धानो राग, पंचमहाव्रतनो राग, इत्यादि जे बधा व्यभिचारी भावो ते चैतन्यना उपयोगथी भिन्न छे, अचेतनरूप छे छतां अनादि अज्ञानथी अज्ञानी कर्मनी निकटताथी उत्पन्न थयेला ए अस्वभावभावोने पोताना मानी ते हुं छुं एम माने छे.
प्रश्नः– एने शुं आ अण-उपयोगरूप अस्वभावभावो छे एनी खबर नथी?
उत्तरः– हा, खबर नथी. एने भान नथी तेथी तो ते अप्रतिबुद्ध छे.
जेम स्फटिकमणिमां लाल, पीळा आदि फूलनी निकटताथी लाल, पीळी आदि झलक (झांय) जे ऊठे छे एने लईने एनी सफेदाई (निर्मळता) ढंकाई गई छे, तिरोभूत थई गई छे; तेम चैतन्यस्वरूप ज्ञान उपयोगमय वस्तु जे आत्मा तेनो स्वभाव ए पुण्य-पाप आदि अस्वभावभावोने लईने ढंकाई गयो छे. एणे अनंतकाळमां व्रत, तप, दया, दान, भक्ति इत्यादि तो अनंतवार कर्यां छे. परंतु ए तो बधो रागभाव छे, कर्मनी निकटताना वशे थयेलो अस्वभावभाव छे. ए सर्व रागादि मलिनभावमां पोतानुं अस्तित्व स्वीकारवाथी एने चैतन्यरत्न निर्मळानंद उपयोगस्वरूप आत्मा ढंकाई गयो छे.
हवे कहे छे- ‘अत्यंत तिरोभूत (ढंकायेला) पोताना स्वभावभावपणाथी जेनी समस्त भेदज्ञानरूपी ज्योति अस्त थई गई छे एवो छे. अहाहा! एकलो ज्ञायक, ज्ञायक, ज्ञायकभाव जे निर्मळ शुद्ध उपयोगमयस्वभावभाव छे ते रागादि पुण्य-पापना परिणामने वश थयो थको ढंकाई गयो छे अने तेथी एनी समस्त भेदज्ञानज्योति अस्त थई छे. एटले आ रागादि ते हुं नहि, पण आ उपयोग छे ते हुं छुं एवा भेदने प्रकाशनारी भेदज्ञानज्योति एने अस्त थई गई छे. अहाहा! ‘हुं तो चैतन्यस्वरूप छुं’ एवो सूक्ष्ममां सूक्ष्म विकल्प जे ऊठे ए हुं नहि केम के ए विकल्प तो अजीव छे, अचेतन छे, अण-उपयोगरूप छे, पुद्गल छे. आ भेदज्ञान छे. आवो मार्ग माणस समजे नहि
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अने दया पाळवी अने व्रत पाळवां एम लईने बेसी जाय. पण एथी शुं लाभ? ए तो (चार गतिमां) रखडवानुं छे. (ए शुभभावथी) पहेलांय रखडतो हतो, अत्यारेय रखडे छे अने भविष्यमां पण रखडनार छे. अहाहा! भगवान चैतन्यचिंतामणि निर्मळ ज्ञानज्योति अनादिअनंत नित्य ध्रुव स्वभावभावरूप जे आत्मा तेनाथी भिन्न कर्मनी निकटताथी उत्पन्न अस्वभावभावो उपर एनी द्रष्टि होवाथी ए अनादि पर्यायबुद्धि छे. तेथी एने राग अने ज्ञायकनी भिन्नता करनारी भेदज्ञानज्योति अस्त थई गई छे.
अहीं कहे छे के निर्मळ उपयोगस्वरूप भगवान आत्माने कर्मनुं निकटपणुं छे. निकटपणुं एटले एकक्षेत्रावगाह. नियमसार गाथा १८ नी टीकामां आवे छे के-निकटवर्ती अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयथी आत्मा द्रव्यकर्मनो र्क्ता छे-एम अहीं पण निकटपणुं कह्युं छे. भगवान आत्माना एकक्षेत्रावगाहमां जड रजकणो (धूळ) अति निकट छे. ए अति निकटपणाथी वेगपूर्वक वहेता अस्वभावभावो-एम कह्युं छे ने? प्रवचनसारमां पण ‘दोडता पुण्य अने पाप’-एम आवे छे. ‘वेगपूर्वक वहेता’ अने ‘दोडता’ एनो एक ज अर्थ छे के एक पछी एक गति करता चाल्या जता. एटले एक पछी एक वेगथी वहेता एटले पर्यायमां एक पछी एक थता ए पुण्य-पापना भावो ते अस्वभावभावो छे. ए अस्वभावभाव अने आत्माना उपयोगमय स्वभावने भिन्न पाडवानी शक्ति एने अस्त थई गई छे, आथमी गई छे तेथी अज्ञानी-अप्रतिबुद्ध छे. एनी द्रष्टिमां स्वभावभावनो अभाव (तिरोभाव) थयो छे तेथी अस्वभावभावनो सत्कार-स्वीकार थयो छे. तेथी ते अधर्मरूप द्रष्टि छे. अज्ञानीने भेदज्ञानज्योति आथमी गई होवाथी तेने निर्विकार परिणाम न थतां रागादि विकार ज उत्पन्न थाय छे.
हवे कहे छे के-‘अने महा अज्ञानथी जेनुं हृदय पोते पोताथी ज विमोहित छे.’ जुओ वस्तुनो स्वभाव ज्ञायकभाव छे. एनुं एने महा अज्ञान छे. तेथी पोते पोताथी ज विमोहित छे. कर्मना कारणे एने मोह थयो छे एम नथी. अज्ञानीने पर्यायमां जे अस्वभावभावोनी उत्पत्ति थई छे ते पोताना अज्ञानने लईने थई छे, पण कर्मना कारणे नहि.
आम अस्वभावभावथी-रागादिथी स्वभावरूप ज्ञायकने भिन्न पाडनारी भेदज्ञानशक्ति जेने बीडाई गई छे तेथी पोते पोताथी ज विमोहित छे-‘एवो अप्रतिबुद्ध जीव स्वपरनो भेद नहीं करीने पेला अस्वभावभावोने ज पोताना करतो, पुद्गल द्रव्यने “आ मारुं छे” एम अनुभवे छे.’ भगवान ज्ञायक आत्मा जे निर्मळ, उपयोगस्वरूप परम पवित्र जीवस्वभावे छे ते स्व अने आ रागादि भाव जे मलिन, अणउपयोगरूप अपवित्र अजीवस्वभावे छे ते पर-एम स्वपरनो भेद नहीं करीने पेला अस्वभावभावोने-दया, दान, व्रत, भक्ति, पुण्य अने पाप इत्यादि विकारी विभावोने ए पोताना छे एम अज्ञानी
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अनुभवे छे. अज्ञानीने जे पुण्य-पापना विकल्प ऊठे तेने वश ए थई गयो छे. तेथी ते स्वपरनी जुदाई न करतां बन्नेने एकरूप करे छे. एकेन्द्रिय अवस्थाथी मांडीने पंचेन्द्रिय द्रव्यलिंगी मुनिने जे शुभभाव थाय ते सघळा अस्वभावभाव छे. ते सर्व अस्वभावभावने ते पोताना छे एम माने छे.
प्रश्नः– केटलाक कहे छे ने के- ‘ए शुभभाव साधन छे अने निश्चय वस्तु साध्य छे?
उत्तरः– भाई, एम नथी. जो एम होय तो एनो अर्थ तो एम थयो के अचेतन राग साधन अने चैतन्यस्वभाव तेनुं साध्य. अथवा राग जे अजीव छे ते साधन अने एनाथी साध्य जीवस्वरूप (वीतरागता) प्रगटे छे. अथवा राग जे दुःखस्वरूप छे ते साधन अने तेनाथी आनंद प्रगटे ते साध्य. भाई, वस्तु बहु झीणी छे एटले खास ध्यान राखवुं जोईए. अहीं तो अंदरना उपयोगने अने रागने भिन्न पाडवो जोईए, पण अज्ञानी तेम करतो नथी एम कहे छे.
अहाहा! एकलो ज्ञायक-ज्ञायक-ज्ञायक सत्य प्रभु-एने अजाणक एवा जे रागादि अचेतन दुःखरूप भाव एनाथी भिन्न पाडी अनुभववो ए सूक्ष्म छे, कठण छे. पंडित राजमलजीए ए ज वात कळशटीकामां १८१ मां कळशमां कही छे. त्यां कह्युं छे के- “भावकर्म जे मोह-राग-द्वेषरूप-अशुद्ध चेतनारूप-परिणाम, ते अशुद्ध परिणाम वर्तमानमां जीवनी साथे एकपरिणमनरूप छे, तथा अशुद्ध परिणामनी साथे वर्तमानमां जीव व्याप्य-व्यापकरूप परिणमे छे, तेथी ते परिणामोना जीवथी भिन्नपणानो अनुभव कठण छे, तोपण सूक्ष्म संधिनो भेद पाडतां भिन्न प्रतीति थाय छे.”
अज्ञानी आनंदस्वरूप भगवान आत्माथी विरुद्ध रागादि दुःखरूप अस्वभावभावोने, भेद करवानी शक्ति तेने आथमी गई होवाथी मारापणे-एकपणे छे एम करतो थको पुद्गलद्रव्यने ते मारुं छे एम अनुभवे छे. अहीं जड पुद्गलने अनुभववानी वात नथी पण राग जे पुद्गलरूप छे तेने अनुभवे छे एम कहे छे. जीवने पोतानी विकारी दशा अनुभवमां आवे छे तेथी अहीं विकारने पुद्गल कही दीधा छे. भगवान चैतन्यदेवना आनंदनो अनुभव नहि, पण रागनो अनुभव छे तेने अहीं पुद्गलनो अनुभव कह्यो छे. आवी वात छे, भाई. एने कोई एम कहे के आ तो निश्चयनी एकली वात करे छे. पण आ निश्चय एटले साचुं ज आ छे. शुभ राग करतां करतां शुद्ध थाय, शुद्धनुं साधन शुभ ए तो बधां आरोपित कथन छे. भाई, निश्चयथी तो शुभराग अचेतन छे. गाथा ६ मां ए वात आवी गई छे के एक ज्ञायकभाव अनेकरूप शुभ-अशुभ भावोना जड स्वभावे परिणमतो नथी. जो ए परिणमे तो जीव जड थई जाय. चैतन्य उपयोग-स्वरूप भगवान आत्मा जो रागना स्वभावे परिणमे तो ते अचेतन जड थई जाय.
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रागादि भाव ए पुद्गलनी जात छे, अचेतन छे, दुःखरूप छे. एने पोते आनंद-स्वरूपी चैतन्यभगवान होवा छतां पोतानो माने एनुं नाम मिथ्यात्व छे. एवा मिथ्यात्वी अप्रतिबुद्धने हवे समजाववामां आवे छे. जुओ कोई एम कहे के आ समयसार तो मुनिने माटे छे तो अहीं आचार्य कहे छे के एवा अप्रतिबुद्धने समजाववामां आवे छे.
प्रश्नः– अप्रतिबुद्ध मुनिने समजाववामां आव्युं छे एम कहो तो?
उत्तरः– अप्रतिबुद्ध मुनि होय ज नहि. जेने आत्मज्ञान नथी, आत्मनुभव नथी ते मुनि केवा?
अहीं ‘एवा अप्रतिबुद्ध’ एम लीधुं छे. एवो कोण अप्रतिबुद्ध छे? तो कहे छे के जेने कर्मनिमित्तना वशे जे अस्वभावभाव उत्पन्न थयो तेने पोताना माने छे एवा अप्रतिबुद्धने समजाववामां आवे छे केः-
‘हे दुरात्मन्! आत्मानो घात करनार! जुओ, ‘हे दुरात्मन्’ ए करुणानो शब्द छे हों. परंतु ‘हे आत्मन्’ एम न कहेतां ‘दुरात्मन्’ एम केम कह्युं? एम कही आचार्य एम समजावे छे के भाई! आनंदनो नाथ भगवान तुं ज्ञानस्वरूपे छे ने. तारुं सत्त्व तो ज्ञानसत्त्व छे, तारुं सत्त्व कांई पुण्य अने रागादि नथी. तुं अनंतवार जैननो साधु थयो अने नवमी ग्रैवेयक गयो. त्यां पण तुं रागथी लाभ माननारो, रागने पोतानुं स्वरूप माननारो हतो. रागथी भिन्न मानवानी तारी स्वरूपदशा हती ज नहि. अरेरे! तारी जात तो ज्ञानानंदस्वरूप चेतन छे. तेने भूलीने तें रागादि कजातने पोतानी मानी! आम जीवनी अनादिथी मिथ्यादशा छे ए बताववा ‘दुरात्मन्!’ एम संबोधन कर्युं छे. एमां आचार्यनी करुणा ज छे.
वळी ‘आत्मानो घात करनार! एम संबोधन कर्युं छे ने? त्यां एम कह्युं के-हे भाई! तें निज सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्माने भूलीने दया, दान, व्रतादिना क्रियाकांडने पोतानुं स्वरूप मान्युं छे. पण ए सर्व क्रियाकांड रागस्वरूप होवाथी आत्मानो घात करनारा छे. दुःखदायक छे. आत्माना सुखनो नाश करवावाळा छे. भाई! जीवती जागती ज्योति उपयोगस्वभावे विराजे छे तेनो अनादर करी हुं राग छुं एम मानीने तें तारा आत्मस्वभावनो घात कर्यो छे, हिंसा करी छे. ‘हुं राग छुं’ एवी राग साथे एकपणानी मान्यता ज महा हिंसा छे एम दर्शाववा आचार्यदेवे ‘आत्मानो घात करनार! एम संबोधन कर्युं छे. अहाहा! आचार्यदेवनी शुं शैली छे! वस्तुनी वस्तु छे. कांई वस्तु अवस्तु थई नथी. पण वस्तुने न स्वीकारतां वस्तुमां जे नथी एवा विकल्पने-रागादिने स्वीकारवाथी वस्तुनो अनादर थयो. ते ज आत्मानी हिंसा छे. घात छे.
हवे आवी खबर न मळे अने कहे के अमे जीवोनी दया पाळीए, व्रत पाळीए अने भक्ति करीने मंदिरो बंधावीए अने तेमां मूर्तिओ स्थापीए इत्यादि. परंतु आ
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शुं करे छे भगवान? ए परने कोण करी शके? एनी वात तो बहु दूर रहो, पण ए परना थवा काळे तने जे राग थाय ए राग ते हुं छुं अने ए राग लाभदायक छे एम जो तुं माने छे तो तुं आत्मघाती छे. चाहे लाखो मंदिर बंधावी करोडो रूपिया खर्च्या होय तोपण आ मिथ्या मान्यता वडे तुं आत्मघाती-महापापी छे.
हवे द्रष्टांत आपीने समजावे छेः-‘जेम परम अविवेकथी खानारा हस्ती आदि पशुओ सुंदर आहारने तृण सहित खाई जाय छे एवी रीते खावाना स्वभावने तुं छोड, छोड.’ जेम हाथीने चुरमुं (लाडवो आप्यो) आप्युं होय अने घासना पूळा आप्या होय तो पूळा अने चूरमुं भेगुं करीने खाय पण भेद पाडे नहि के आ चुरमुं छे अने आ घास छे. (आ मीठाशवाळुं चुरमुं छे अने मोळास्वादवाळुं आ घास छे एम स्वादना भेदथी बन्नेमां भेद पाडतो नथी.) तेम अज्ञानी जीव ज्ञानानंदस्वभावी आत्मानी बाजुमां (निकटमां) जे राग थाय छे एनाथी लाभ माने छे अने राग मारी चीज छे एम ए रागनो अनुभव करे छे. परंतु ज्ञानने (रागथी) जुदो पाडीने आनंदनो अनुभव करतो नथी. रागनो अनुभव तो दुःखनो-आकुळतानो अनुभव छे. तेथी अहीं कहे छे के तुं एवा रागना अनुभवने छोड. अंदर जे ज्ञानानंदस्वरूपी भगवान आत्मा विराजे छे तेनो अनुभव कर तो तने आनंदनो-सुखनो अनुभव थशे.
अहाहा! अमृतनो सागर भगवान अंदर ज्ञान अने आनंदथी छलोछल भरेलो छे. तेनो अनुभव छोडीने पर संयोगमां-स्त्रीना विषयमां, आबरूमां, धनदोलतमां, बाग-बंगलामां मने ठीक पडे छे, मझा पडे छे, मीठाश आवे छे एम जे माने छे ए तो आत्मघाती छे ज. अहीं तो अंदर जे शुभरागनो विकल्प ऊठे छे तेने पोतानो मानी एकमेकपणे अनुभवे छे, ए विकल्प ज हुं छुं अने एथी मने लाभ (धर्म) छे एम जे माने छे ते पण आत्मघाती छे, हिंसक छे, भले पछी ए जैन दिगंबर साधु होय, पंचमहाव्रत पाळतो होय, जंगलमां रहेतो होय अने हजारो राणीओ छोडी होय. भगवान! धर्म कोई जुदी चीज छे.
प्रश्नः– समकिती तो भोगवे ने?
उत्तरः– भाई, तने खबर नथी. समक्तिीने छन्नु हजार राणीओ, छ खंडनुं राज्य, चक्रवर्तीपणुं अने कोईने तीर्थंकरणपणुं पण होय पण एने ए भोगवतो नथी. समक्तिीने जे विकल्प आवे छे एने ते हळाहळ झेर माने छे. काळो नाग देखीने जेम थाय एम एने ए उपसर्ग माने छे, एमां एने रस के आनंद आवतो नथी. चक्रवर्ती होय ए मणिरत्नोजडित हीराना सिंहासन पर बेठो होय अने हजारो चमरबंधी राजाओ एने चामर ढोळता होय पण एमां कयांय एने आत्मानो आनंद भासतो नथी. हा, एने राग आवे छे, हजु आसक्ति (चारित्रमोहजनित) पण छे, पण एमां एने सुख
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भासतुं नथी. ए रागने एकपणे पोतापणे अनुभवतो नथी. ए (रागादि) अनात्मामां आत्मा मानतो नथी.
जेम हस्ती आदि पशुओ सुंदर आहारने तृणसहित खाय छे एम भगवान ज्ञायकस्वरूप आत्माने तुं रागसहित अनुभव करे छे तो तुं ढोर जेवो छे एम कहे छे. सर्वथा एकान्तवादीओना १४ भंगो-एकान्त नित्य-अनित्यादिना १४ श्लोको (र४८ थी र६१) समयसारमां आवे छे. त्यां ए एकान्तवादीओने विवेकहीन पशु कहीने संबोध्या छे. अहा! जेने निजस्वभावनुं भान नथी अने एकान्तद्रष्टिथी माने के आ राग ते हुं छुं तो ते पशु ज छे. एनुं फळ पण अंते पशु एटले निगोद ज छे. माटे आचार्य करुणा करीने कहे छे के पशु जेम सुंदर आहारमां घासने भेळवीने खाय तेम आ सुंदर ज्ञायकस्वभावी आत्मा साथे रागने भेळवीने खावाना स्वभावने तुं छोड, छोड. रागथी भिन्न एक सुंदर ज्ञायकभावनो अनुभव कर. ए अनुभव आनंदरूप छे, सुखरूप छे.
हवे कहे छे के-‘जेणे समस्त संदेह, विपर्यय, अनध्यवसाय दूर करी दीधां छे अने जे विश्वने (समस्त वस्तुओने) प्रकाशवाने एक अद्वितीय ज्योति छे एवा सर्वज्ञ- ज्ञानथी स्फूट (प्रगट) करवामां आवेल जे नित्य-उपयोगस्वभावरूप जीवद्रव्य ते केवी रीते पुद्गलद्रव्यरूप थई गयुं के जेथी तुं आ पुद्गलद्रव्य मारुं छे एम अनुभवे छे?’
जुओ, सर्वज्ञ परमेश्वर त्रिलोकनाथ अरिहंतदेवने समस्त संदेहरहित निःसंदेह, कोईपण प्रकारनी विपरीतता रहित अविपरीत अने कोईपण प्रकारना अनध्यवसाय एटले अचोक्कसता रहित चोक्कस ज्ञान थयुं छे. अहाहा! चैतन्यसूर्य सर्वज्ञदेव भगवानने एक समयमां लोकालोकने जाणनारी केवळज्ञानरूप अद्वितीय ज्योति प्रगट थई छे. भगवान तीर्थंकरदेवे केवळज्ञानमां आ जीव केवो छे ते जोयो छे अने दिव्यध्वनिमां कह्यो छे. अहीं कहे छे के भगवान सर्वज्ञदेवना ज्ञानमां तो एम आव्युं के आ जीवद्रव्य नित्य-उपयोग-स्वभावरूप छे. अहाहा! नित्य ज्ञायक, ज्ञायक, ज्ञायक एम उपयोगस्वभावरूप जीव छे. आ त्रिकाळीनी वात छे हों. जेने सर्वज्ञपणुं उपयोगरूपे प्रगट थयुं ए अरिहंत परमात्माए आत्माने नित्य-उपयोगस्वरूप ज जोयो छे.
भगवान सर्वज्ञदेवे जोयुं छे के आ आत्मा वस्तु छे. ते नित्य- उपयोगस्वभावमय एटले जाणवा-देखवाना स्वभावरूप चेतन छे. एवा आत्माने वर्तमानपर्यायमां नजरमां न लेतां तारी नजर राग उपर गई अने मानवा लाग्यो के राग ते हुं, राग ते मारी वस्तु. परंतु राग तो जड अचेतनरूप पुद्गलमय छे. तो ते राग मारो एटले पुद्गलद्रव्य मारुं-एम पुद्गलद्रव्य तारुं केवी रीते थई गयुं? भगवान केवळीए तो तारा आत्माने जाणवा-देखवाना स्वभावरूपे ज जोयो छे, अने तुं कहे छे के राग ते हुं; तो जे चैतन्य उपयोगथी विरुद्धभाव-अचेतन रागस्वरूप ते तुं केम थई शके? (न थई शके)
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एवुं अचेतनपणुं चैतन्यने केम शोभे? (न ज शोभे.) शुं तुं माने तेथी तुं रागरूपे थई गयो के जेथी तुं आ पुद्गलद्रव्य मारुं छे एम अनुभवे छे?
पर्यायमां रागनो अनुभव ए तो पुद्गलनो अनुभव छे. अहीं पुद्गल एटले पेला जड (स्पर्श, रस, गंध, वर्णवाळा) नहि पण अणउपयोगस्वरूप दया, दान, व्रतादिना परिणाम जे पोताने के परने जाणता नथी तेथी जड, अचेतन छे एनी वात छे. ए रागादि परिणाम चैतन्यउपयोगस्वरूपथी भिन्न चीज छे. अहीं कहे छे के भगवाने तो तने उपयोगस्वरूपे जोयो छे तो हुं आ रागस्वरूपे छुं एवी जूठी मान्यता कयांथी लाव्यो? झीणी वात छे, बापु! संप्रदायमां तो आ व्रत पाळो अने दया करो एटले धर्म थई गयो एम कहे, पण भाई, मार्ग जुदो छे. वस्तु आत्मा द्रव्य- पर्यायस्वरूप छे. त्यां पर्याय ध्रुव उपयोगरूप नित्यानंदस्वभावने लक्ष करी न उपजे तो धर्म केवी रीते थाय? वर्तमान पर्याये उपयोगमां दया, दान, व्रतादिना रागने लक्षमां लई अने ए राग ते मारुं अस्तित्व एम मान्युं तो ए तो पुद्गलनो अनुभव थयो. भगवान आत्मानो अनुभव तो रही गयो.
हवे कहे छेः-‘जे नित्य-उपयोगस्वभावरूप जीवद्रव्य ते केवी रीते पुद्गलद्रव्यरूप थई गयुं के जेथी तुं आ पुद्गलद्रव्य मारुं छे एम अनुभवे छे? कारण के जो कोईपण प्रकारे जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्यरूप थाय अने पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्यरूप थाय तो ज “मीठानुं पाणी” एवा अनुभवनी जेम “मारुं आ पुद्गलद्रव्य” एवी अनुभूति खरेखर व्याजबी छे; पण एम तो कोई रीते बनतुं नथी.’
शुं कहे छे? मीठुं (लवण) वरसादमां ओगळी जाय अने बीजी मोसममां ए पाणीथी भिन्न थईने मीठुं (लवण) थई जाय. हवे मीठुं द्रवतां जेम मीठानुं पाणी अनुभवाय छे तेम तुं आनंदनो नाथ चैतन्यस्वरूप ज्ञानरसकंद भगवान आत्मा द्रवीने- ओगळीने रागरूपे थई गयो शुं? (ना) जेम मीठुं द्रवीने पाणी थाय एम भगवान उपयोगस्वरूप आत्मा पोताना उपयोगनी सत्ता छोडीने अण-उपयोगरूप एवा रागरूपे थाय तो ‘मारुं आ पुद्गलद्रव्य’ एवी तारी अनुभूति व्याजबी गणाय. दया, दान, व्रतादिनो के गुण-गुणीना भेदरूप विकल्पनो इत्यादि जे राग ए हुं छुं एवो तारो अनुभव त्यारे ज व्याजबी गणाय के भगवान आत्मा पोतानो त्रिकाळ ज्ञानानंदस्वभाव छोडीने रागरूपे थई जाय. पण एम तो कोई रीते बनतुं नथी. भगवान आत्मा तो कायम अखंड एकरूप ज्ञायकभावस्वरूपे अनादिअनंत रहेलो छे; अने राग रागपणे भिन्न ज रहे छे.
हवे ‘एम तो कोई रीते बनतुं नथी’ ए वात द्रष्टांतथी स्पष्ट करवामां आवे छेः-‘जेम खारापणुं जेनुं लक्षण छे एवुं लवण पाणीरूप थतुं देखाय छे अने द्रवत्व (प्रवाहीपणुं) जेनुं लक्षण छे एवुं पाणी लवणरूप थतुं देखाय छे कारण के खारापणुं
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अने द्रवपणाने साथे रहेवामां अविरोध छे अर्थात् तेमां कांई बाधा नथी तेवी रीते नित्य उपयोगलक्षणवाळुं जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्य थतुं जोवामां आवतुं नथी अने नित्य अनुपयोग (जड) लक्षणवाळुं पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्य थतुं जोवामां आवतुं नथी.’ अहाहा! शुं कहे छे? के जेम खारापणुं अने प्रवाहीपणुं ए बे विरुद्ध नथी (एकसाथे रही शके छे) एम आ नित्य उपयोगलक्षणवाळुं जीवद्रव्य रागरूपे थतुं जोवामां-देखवामां आवतुं नथी. आवी वात छे, भाई. माणसने मूळतत्त्वनी खबर न मळे अने पछी व्रत, तप अने उपवासादि करीने माने के धर्म थई गयो, पण भाई, ए बधुं करी करीने मरी गयो. ए रागनी क्रियाने-पुद्गलने कोई लोको धर्म माने छे पण ए धर्म नथी. कारण के ए शुभभावथी पुद्गल बंधाय अने एना फळमां पुद्गल मळे, पण आत्मा न मळे.
भगवान आत्मा ज्ञायकस्वभाव समजणनो पिंड प्रभु नित्य-उपयोगस्वभाव छे. एने पर्यायमां द्रष्टिमां-लक्षमां लीधा विना पर्यायमां रागनुं लक्ष कर्युं अने रागने अनुभव्यो. तेथी शुं आत्मा रागस्वभावे थई गयो? मीठानुं पाणी थाय एम शुं ज्ञायक रागपणे थई जाय छे? (नहि) आ व्यवहाररत्नत्रय कहे छे ने? ए (व्यवहाररत्नत्रय) नियमसारमां (१२१ मा) कळशमां कहेवामात्र-कथनमात्र छे एम कह्युं छे. एवा व्यवहाररत्नत्रयनो राग तो अनंतवार कर्यो. अहीं कहे छे के शुं ज्ञायक निर्विकल्पस्वरूप आत्मा ए रागना विकल्पपणे थयो छे के जेथी तुं एने धर्म माने छे?
खारापणुं अने द्रवत्वमां विरोध नथी. परंतु नित्य-उपयोगलक्षण जीवद्रव्य अने अनुपयोगस्वरूप पुद्गलद्रव्य-राग ए बेने विरोध छे. ए बे एकरूप थता नथी. चैतन्य उपयोगस्वभाव भगवान आत्मा रागना विपरीत स्वभावे कदीय थतो नथी. जेम मीठानुं पाणी थाय ए तो तें जोयुं छे तेम भगवान ज्ञायक चैतन्य उपयोगस्वरूप वस्तुने अचेतन पुद्गलस्वभावे-रागस्वभावे थती कदीय जोई छे तें? भाई! राग ते हुं एम तें मान्युं छे, पण वस्तुस्वरूप एम नथी. रागपणे जीव कदीय थयो नथी.
जेम सूर्यना किरणमां प्रकाश होय छे तेम चैतन्यसूर्य भगवान आत्माना किरणमां (चेतना) प्रकाश होय छे, एमां राग होतो नथी; केमके राग तो अंधकारमय छे, अंधकार ए कांई सूर्यनुं किरण कहेवाय? (न कहेवाय) तेम रागनो अंधकार ए कांई चैतन्यसूर्यनो अंश कहेवाय? (न कहेवाय) आ वस्तु बधे गोटे चढी गई छे. आ वात बीजे कयांय नथी अने संप्रदायमां कहे छे के आ बधुं निश्चयाभास छे. भाई! एम नथी. बापु! निश्चय मार्ग ज आ छे. चैतन्यसूर्यनुं किरण-पर्याय तो निर्मळ ज्ञानमय होय पण रागमय-अंधकारमय न होय. राग तो मलिन, अचेतन जड पुद्गलरूप छे. तेने अने चैतन्यने तें एक मान्या ए मिथ्यात्वभाव छे.
जे पर्याये, ते जेनी छे एवा स्वने (आत्माने) ज्ञेय न बनावतां जे एनामां
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(आत्मामां) नथी एवा रागने ज्ञेय बनावीने मान्युं के ते (राग) हुं छुं ए पर्याय मिथ्यात्वनी पर्याय छे. एने मिथ्याद्रष्टि कह्यो छे. जे पर्याये, ते जेनी छे एवा पूर्णानंदना नाथ भगवान आत्मा त्रिकाळी ध्रुवने द्रष्टिमां लईने ए (आत्मा) हुं छुं एम स्वीकार कर्यो ए पर्याय सत्य थई, केमके एमां सत्यनो स्वीकार छे. ए पर्याय सम्यग्दर्शन छे, धर्म छे.
अहाहा! आचार्योए-दिगंबर संतोए असीम करुणा करी छे. तेओ तो जंगलमां वसता हता. एमने कोईनी शुं पडी हती? आ ताडपत्र उपर अक्षर लखाता हता ए जाणता हता. (ए लखता हता एम नहि) लखाई गया पछी कोई आवे तो सोंपी दउं एम कोईनी वाट पण जोवा रहेता नहि. अंकलेश्वरनी बाजुमां सजोद गाम छे. त्यां आपणे गया हता. बहु जूनुं गाम छे. भगवाननी प्रतिमा बहु जूनी छे. आसपास नदीना कांठे हजारो ताडपात्रोनां झाड छे. त्यां जोवा गया हता. मुनिओ त्यां रहेता अने झाड परथी नीचे खरी पडेलां ताडपत्रमां लखता अने त्यां मूकी देता. कोई गृहस्थने खबर होय के मुनिराज ताडपात्र उपर लखे छे तो ते लखेलां ताडपत्रो पडयां होय ते उपाडी लेता. भाई! आ रीते संग्रह थईने आ शास्त्र बन्युं छे. एमां भगवान! कुंदकुंदाचार्य अने अमृतचंद्राचार्यदेवे आ कह्युं छे के-भगवान! तारी प्रभुता शुद्ध उपयोगमय छे. तारी ईश्वरता-सामर्थ्य रागथी अधिक-भिन्न अंदर आत्मामां पडी छे. ३१ मी गाथामां कह्युं छे ने केः-
भाई, रागथी भिन्न-अधिक तारुं ज्ञानतत्त्व अंदर ध्रुव पूर्णानंदथी भरेलुं एक अखंड पडेलुं छे. एनो अनादर करी, एने विषय न बनावतां ‘राग ते हुं छुं’ एम पर्याये रागने विषय बनाव्यो ए द्रष्टि विपरीत छे, मिथ्या छे.
भगवान आत्मा चैतन्यज्ञानघन छे. जेम पहेलां शियाळामां घी जामीने एवां घन थतां के एमां आंगळी तो न खूंपे पण तावेथोय न प्रवेशी शके, वळी जाय. तेम आ भगवान ज्ञानघन एवो छे के तेमां शरीर, मन, वाणी अने कर्म तो एमां न प्रवेशी शके पण तेमां विकल्पनोय प्रवेश नथी. जो आ नित्य-उपयोगस्वरूप भगवानमां विकल्पनो प्रवेश नथी तो ‘हुं राग छुं’ एम तुं केवी रीते कहे छे? जेम खारापणाने अने द्रवपणाने अविरोध छे एटले मीठुं द्रवीने प्रवाहीरूपे थाय छे तेम शुं भगवान ज्ञानघन नित्य उपयोगमय आत्मा द्रवीने रागपणे थाय छे? (नथी थतो.)
(संप्रदायमां) एम बोले के “मा हणो, मा हणो.” व्याख्यान शरू थाय एटले आम बोले. अमे पण बोलता हता के कोई जीवने “मा हणो, मा हणो”-आ
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भगवाननो उपदेश छे. पण एम नथी, भाई. पर जीवने कोण हणी शके छे? (अर्थात् कोई कोईने हणी शक्तुं नथी.) परंतु तुं ए रागने पोतानो मानीने स्वभावनी हिंसा करे छे ए तारो घात छे, ए पुण्य-पापना विकल्प तो राग छे, अस्वभावभाव छे. अण-उपयोग मय अचेतन जड छे अने दुःखदायक छे. पण एने कयां दरकार छे? आखो दिवस रळवुं, खावुं-पीवुं अने भोगववुं, बस. कदाचित् समय मळतां सांभळवा जाय तो कुगुरुओ एने लूंटी ले. बस एवुं सांभळे के दया पाळो, व्रत करो आदि; एथी कल्याण थई जशे, धूळेय कल्याण नहि थाय, भाई! सांभळने. भगवान सर्वज्ञदेवे जेवो जोयो छे एवा नित्यउपयोग-स्वभावी चैतन्यस्वरूप आत्मानी तने खबर नथी, भाई. ए सदा जाणनार-स्वभावे रहेलो ज्ञायक प्रभु कदीय रागस्वभावे थतो नथी. मीठुं जेम द्रवीने पाणी थाय तेम ए ज्ञानघन द्रवीने कदीय रागपणे थतो नथी. अहो! अद्भुत शैली अने अद्भुत वात छे!
आ शरीर आदि जड ए तो बधा माटीना आकार छे. ए कांई आत्माना नथी, आत्मामां नथी. एमां आत्मा पण नथी. एवा शरीरनी आकृतिने सुंदर देखीने तने होंश अने उत्साह केम आवे छे? ए उत्साह (राग) तो पुद्गलनो उत्साह छे. तारो आत्मा त्यां घात पामे छे. अरे! परमांथी आनंद आवे छे एवुं तें मान्युं छे परंतु तारा आनंदनी खाण तो त्रिकाळी ध्रुव पूर्णानंदनो नाथ प्रभु आत्मा छे. तेमांथी आनंद आवे छे. जेम गोळना रवा होय छे ने? ते रवा बहु तडको पडे एटले पीगळीने रस थाय? शुं ए रस गोळनो होय के (कडवी) काळी जीरीनो? तेम भगवान आत्मा ध्रुव उपयोगमय ज्ञानानंदस्वभावी छे. एमां एकाग्र थतां अंदरथी ज्ञान अने आनंदनो प्रवाह द्रवे छे. जेम गोळ पीगळे तो गळपणपणे पीगळे तेम भगवान आत्मा परिणामे तो ज्ञान अने आनंदनी पर्यायपणे परिणमे. अने एने आत्मा कहेवाय.
अहो! गाथाओ केवी अलौकिक छे! एक-एक गाथा न्याल करी नाखे एवी छे. एनी द्रष्टिने गुलांट खवरावे छे. आम (आत्मामां) जाने, भाई! एम (रागमां) कयां जाय छे? अरे! तने विकल्पनुं अने विकल्प निमित्ते थती शरीरनी क्रिया-उपवासादि वडे शरीर जीर्ण अने शिथिल थाय-एनुं माहात्म्य केम आवे छे? अनंत महिमावंत अंदर अतीन्द्रिय आनंद अने ज्ञाननो नाथ एकला ज्ञान अने आनंदनो रवो पडेलो छे एमां एकाग्रता अने ध्यान कर तो, जेम गोळनो रवो गळपणे पीगळे तेम एमांथी आनंद अने ज्ञान आवशे.
हवे कहे छे केः-‘नित्यउपयोगलक्षणवाळुं जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्य थतुं जोवामां आवतुं नथी अने नित्य अनुपयोग (जड) लक्षणवाळुं पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्य थतुं जोवामां आवतुं नथी कारण के प्रकाश अने अंधकारनी माफक उपयोग अने अनुपयोगने साथे रहेवामां विरोध छे; जड, चेतन कदी पण एक थई शके नहि.’ जुओ, ज्यां प्रकाश छे त्यां अंधकार न होय अने ज्यां अंधकार छे त्यां प्रकाश न होय. तेम भगवान आत्मा ज्यारे
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चैतन्यप्रकाशमां होय त्यारे राग-अंधकारमां न होय अने ज्यारे राग-अंधकारमां होय त्यारे चैतन्यप्रकाशमां न होय. जुओ, केवी शैली लीधी छे? रागने पहेलां अस्वभावभाव कह्यो हतो, अहीं एने अंधकार कह्यो छे. र्क्ताकर्म अधिकार, गाथा ७२मां रागने अशुचि, जड अने दुःखरूप कह्यो छे. राग जड अने अंधकाररूप छे केम के ते नथी पोताने जाणतो के नथी परने जाणतो. ते ज्ञान वडे जणावा योग्य छे, पण ते जाणतो नथी तेथी जड छे.
अहाहा! प्रकाशने अंधकारनी जेम उपयोग अने अण-उपयोगने एटले स्वभावभाव अने अस्वभावभावने, चेतनभाव अने अचेतनभावने, आनंदभाव अने जडभाव (दुःखमयभाव)ने-बन्नेने एकरूपे रहेवानो विरोध छे. मोक्ष अधिकारमां आवे छे के (साधकने) जे राग आवे छे ए विषकुंभ छे. अने जे वीतरागभाव छे ते अमृतकुंभ छे. बन्नेने एकपणे रहेवामां विरोध छे. एटले साधकने पर्यायमां बन्ने साथे होवा छतां भिन्न वस्तुपणे छे, एकपणे नथी. अहीं साथे रहेवानो विरोध छे एनो अर्थ एम लईए के ज्यां आनंद छे त्यां राग नथी तो एनो अर्थ एम नथी, केमके मुनिओने आनंद छे अने राग पण छे. परंतु आनंद रागथी भिन्नपणे रह्यो छे, बे एकपणे रह्या नथी. (एटले के मुनिओने जे अंशमां वीतरागता छे-आनंद छे ए तो आत्मा साथे एकपणे अनुभवमां आवे छे अने जेटलो राग रह्यो छे ते आत्माथी भिन्नपणे छे.) माटे अहीं एम लेवुं के उपयोगने अने अण-उपयोगने साथे एटले एकपणे रहेवामां विरोध छे. राग रागरूपे छे, ज्ञाता पोते पोतामां रहीने रागने जाणे. राग छे माटे जाणे एम नहि, पण ज्ञातानी ज्ञानशक्तिनुं एवुं सामर्थ्य छे ते वडे जाणे छे.
अहाहा! आ उपयोगस्वभाव ए प्रकाशस्वरूप छे. अने दया, दान, व्रत, भक्ति, उपवास आदि शुभभाव अंधकारस्वरूप छे. भारे आकरी वात. अत्यारे तो लोको आठ उपवास करे, अने एना उपर एक अठ्ठम करे तो पचीस उपवासनुं फळ मळे एम कहे छे. पण भाई! ए तो अपवास एटले मीठो वास छे. त्यां उपवास कयां छे? उप एटले समीप, वास एटले वसवुं. आनंदना नाथ भगवान आत्मानी समीप वसवुं ते उपवास छे. पण ए तो वस्यो ज नथी ने.
आत्मा चैतन्यप्रकाशस्वरूप छे अने राग अंधकाररूप छे. बन्नेने एकपणे रहेवामां विरोध छे. एटले के बन्ने कदापि एकपणे थाय नहि. मोक्ष अधिकारमां कळशटीकामां लख्युं छे के बे वच्चे संधि छे, निःसंधि-एक थया नथी. चैतन्यज्योति ज्ञानप्रकाशनी मूर्ति अने राग-अंधकार ए बे वच्चे कदीय एक्ता थई नथी. बे वच्चे संधि छे, तड छे बन्ने जुदा छे. आवो वीतरागनो मार्ग छे, भाई. जगत् आखुं अंधकारमां चाले छे. (परद्रव्यमां) आ करुं अने ते करुं, आ छोडुं अने आ ग्रहण करुं एवा विकल्पो शुं तारी जात छे? (ना.) आ विकल्पो तो आत्मानो तिरस्कार करनारा छे. आत्मा साथे
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एमने विरोध छे. ए भावो कदीय आत्मा साथे एकपणे नथी. तेथी ए शरीर, मन, वाणी अने सर्व विकल्पोनुं लक्ष छोडी भगवान ज्ञायक प्रकाशस्वरूप जे उपयोगस्वभावे विराजे छे तेमां अंदरमां जो ने. (तेथी तारुं भलुं थशे.)
प्रवचनसार, गाथा र०० मां आवे छे के ज्ञायक तो ज्ञायकपणे ज रह्यो छे. पण तें मोह वडे अन्यथा अध्यवसित कर्यो छे. एटले के तें एने बीजी रीते मान्यो छे के-हुं (ज्ञायक) रागपणे छुं. वस्तु तो ज्ञायकपणे अनादिअनंत रही छे, पण तें मान्यतामां गोटाळो कर्यो छे. पण तुं माने एटले शुं वस्तु ज्ञायक ज्ञेय (राग, परवस्तु) साथे एकरूप थई छे? (नथी थई) वस्तु ज्ञायक चैतन्यसूर्य तो शांतरसवाळो उपशमरसथी भरेलो शांत-शांत समुद्र-दरियो छे. (जगतनो) सूर्य तो उष्ण छे, पण आ चैतन्यसूर्य तो उपशमरसनो दरियो छे. भक्तिमां आवे छे ने के-“उपशमरस वरसे रे प्रभु! तारा नयनमां.” आत्मा उपशमरसनो कंद अकषायस्वभावी-वीतरागस्वरूपी छे. ए वीतरागस्वभावी वस्तु शुं कदीय रागपणे थाय? (कदी न थाय.)
हवे कहे छेः-‘तेथी तुं सर्व प्रकारे प्रसन्न था, तारुं चित्त उज्ज्वळ करी सावधान था अने स्वद्रव्यने ज “आ मारुं छे” एम अनुभव (एम श्री गुरुओनो उपदेश छे.)’ शुं कहे छे? आनंदमूर्ति भगवान चैतन्यप्रकाशनी झळहळ ज्योति त्रिकाळ एवी ने एवी रही छे, रागपणे-दुःखपणे थई ज नथी. तेथी तुं सर्व प्रकारे (ग्लानि अने निराशा छोडीने) प्रसन्न था. अहाहा! एक वार हा पाड, एक वार आ चैतन्यस्वरूप भगवाननो आदर कर. एक वार तेमां द्रष्टि कर तो अंदरमां एकली वीतरागमूर्ति जिनस्वरूपे भगवान विराजे छे तेनां तने दर्शन थशे. कह्युं छे ने केः-
अहो! अमृतचंद्राचार्यदेवे टीकामां अद्भुत अमृत रेडयां छे. कहे छे सर्व प्रकारे प्रसन्न था. वीर्यने उछाळी एवी ने एवी जे ज्ञानानंदस्वरूप चीज पडी छे एनी अंदर जा. तेथी तने आनंद-अमृतनो स्वाद आवशे. करवानुं तो आ छे, भाई. आ कर्युं नहि तो कांई कर्युं नहि. दुनिया आवी सरस वातोने छोडी तकरार, वादविवाद अने झघडामां पडे, पण एमां आत्मा कयां मळे?
अनंतवार नरकमां गयो, निगोदमां गयो, आर्त्तध्यान अने रौद्रध्यान कर्यां, मिथ्यात्वभाव सेव्या, परंतु वस्तु ज्ञायक भगवान तो एवो ने एवो ज रह्यो छे. तेथी कहे छे के तुं प्रमुदित थई, प्रसन्न थई चित्तने उज्ज्वळ कर. परना लक्षे जे तारुं चित्त मलिन छे ते स्वनुं लक्ष करी निर्मळ कर अने अंदर एकरूप ज्ञायकभावमां ज सावधान थई ए स्वद्रव्यने ज ‘आ मारुं छे’ एम अनुभव. अहाहा! स्वद्रव्य जे निज त्रिकाळी
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ज्ञायकभाव चिदानंदस्वरूप ए ज हुं छुं एम वर्तमान पर्यायने त्यां जडी दे, एमां स्थिर करी दे. अहो! केवी शैली! तद्न सादी भाषामां ऊंचामां ऊंचुं तत्त्व भर्युं छे. कहे छे के- प्रसन्न थई अंतरंगमां सावधान थई परिणतिने एक ज्ञायकमां ज लीन करी दे, डूबावी दे. ल्यो, आ श्री गुरुओनो उपदेश छे.
‘आ अज्ञानी जीव पुद्गलद्रव्यने पोतानुं माने छे तेने उपदेश करी सावधान कर्यो छे के जड अने चेतनद्रव्य-ए बन्ने सर्वथा जुदां जुदां छे.’ः-अज्ञानी जीव कोने कहीए? आ देहमां भगवान आत्मा सच्चिदानंदस्वरूपे विराजमान छे. परंतु पोते कोण अने केवो छे एनुं जेने भान नथी ते अज्ञानी छे. आवो अज्ञानी जीव पुद्गलद्रव्यने पोतानुं माने छे. जेने पोतानी वस्तु जे अनादिथी ज्ञानानंदस्वरूप छे ते ख्यालमां आवी नथी तेथी ते अन्यत्र परमां पोतानुं अस्तित्व माने छे. ते पुण्य-पापना भाव, दया, दान, व्रत, भक्ति आदि शुभभाव के हिंसा, जूठ, चोरी आदि अशुभभाव-जे निश्चयथी पुद्गल छे, स्वभाव नथी-तेने पोताना माने छे.
पोताना सत्त्वनी अनादिथी खबर नहीं होवाथी पोतानी चीजथी विपरीत एवा पुण्य-पापना विकल्पोने-रागने पोतानुं सत्त्व जे माने छे तेने अहीं संतोए उपदेश करी सावधान कर्यो छे. भाई! तुं तो त्रिकाळी ज्ञायक प्रभु चेतनद्रव्य छे. अने जेने तुं पोताना माने छे एवा आ पुण्य-पापना विकल्पो-राग तो अचेतन जड छे, पुद्गलरूप छे. माटे आ तारी मान्यता अज्ञान छे केम के जड अने चेतनद्रव्य सर्वथा जुदा जुदा छे, कोई पण प्रकारे ते बे एक नथी.
जैनपत्रोमां (सामयिकोमां) बधुं घणुं आवे छे के-आ व्यवहार, दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, पूजाना जे भाव छे एने पुण्य कही हेय कहो छो. पण एनाथी तो तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बळदेव, इन्द्र आदि पदवी मळे छे अने पछी मोक्ष थाय छे. तो एने (पुण्यने) हेय केम कहेवाय? तमे एने हेय कहो छो ए अज्ञान छे. घणुं लख्युं छे के-भगवाने एने धर्म कह्यो छे अने एनाथी ऊंचां पद मळे अने पछी मोक्षे जाय इत्यादि. अरे भाई! तने खबर नथी, बापु. ए पदवीनां पुण्यो कोने होय छे? जेने आत्मा सच्चिदानंद भगवान अनंत-आनंदनो कंद प्रभु अंदर विराजे छे ते अनुभवमां आव्यो छे, जेने आत्माना ज्ञानानंद स्वभावनो (स्वसंवेदन प्रत्यक्ष) साक्षात्कार थयो छे अने अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आव्यो छे एवा समक्तिीने कंईक मंदराग (पुण्यभाव) होय छे. एने आ रागना फळमां तीर्थकर, चक्रवर्ती, बळदेव, इन्द्र आदि सात स्थानो जे कह्यां छे ते होय छे. जेने राग हेयबुद्धिए छे अने रागनी इच्छा नथी एवा सम्यग्द्रष्टिने रागना (व्रतादिना) फळमां आ पदो होय छे. परंतु अज्ञानीने तो आ पदो
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होय ज नहि, केमके तेने आत्मज्ञान अने सम्यग्दर्शनना अभावमां जे पुण्य आदि भाव थाय तेमां आत्मबुद्धि छे अने ए ज मिथ्यादर्शन अने अज्ञान छे.
अहाहा! आ आत्मा सच्चिदानंद प्रभु शाश्वत वस्तु छे. आ कांई नवी नथी, कोईए करी नथी. अनादिथी छे अने अनंतकाळ रहेनार छे. एवो ए अविनाशी छे. ए अविनाशी वस्तुमां अविनाशी अनंत अनंत शक्तिओ पडी छे. दर्शन, ज्ञान, आनंद, वीर्य, प्रभुत्व, विभुत्व, स्वच्छत्व, उत्पाद-व्यय-ध्रुवत्व आदि अनेक छे.
प्रश्नः– गुणने उत्पाद-व्यय होय नहि. तो उत्पाद-व्यय-ध्रुवत्व गुण केम कह्यो?
उत्तरः– गुणोने तो उत्पाद-व्यय होय नहि ए बराबर छे. गुणो तो ध्रुव ज छे. पण अहीं तो उत्पाद-व्यय-ध्रुवत्व शक्ति छे ए गुण छे. ते ध्रुव छे. ए आत्मद्रव्यनो गुण छे. जेना कारणे द्रव्य नवी पर्यायपणे उपजे अने पूर्वपर्यायपणे नाश पामे अने द्रव्यपणे ध्रुव-कायम रहे. आवी शक्ति (उत्पाद-व्यय-ध्रुवत्व) आत्मामां नित्य रहेली छे. भगवान नित्यानंदस्वरूप आत्मामां जे अनंत शक्तिओ छे ते बधी नित्य छे, ध्रुव छे.
आवा पोताना घरनी वात मूकी दईने जे परनी पंचात करे ते अज्ञानी छे. ए पुण्य-पापना विकल्पोने-रागने पोताना माने छे. ए परद्रव्यने पोतानुं माने छे. एने अहीं सावधान कर्यो के भाई! सावधान था. ‘जड अने चेतनद्रव्य बन्ने सर्वथा जुदां छे, कदाचित् कोई पण रीते एकरूप नथी थतां एम सर्वज्ञे दीठुं छे.’ भगवान आनंदमूर्ति प्रभु चैतन्यस्वरूप आत्मा जुदो छे अने जे पुण्य-पापना विकल्पो ऊठे छे ए अचेतन जड विकल्पो पण जुदा छे.एक चेतन अने बीजी अचेतन होवाथी बन्ने भिन्न चीज छे. हवे आ शरीर, बायडी, छोकरां, गाम अने देश ए तो कयांय दूर छे. एने मारा माने तो शुं मूर्खाईनो पार छे कांई? प्रभु! तुं मूळमांथी भूल्यो. अहीं सूक्ष्म वात करी छे. आ जीव अधिकार छे ने? एटले कहे छे के आ व्रत, तप आदि विकल्पो अजीव छे, जीव नहि. केमके जीव होय तो जुदा पडे नहि. पण ए तो जुदा पडी जाय छे. ए बन्ने सर्वथा जुदा जुदा छे, कोई रीते एक छे एम नथी. जैनशासनमां सर्वथा होय नहि एम केटलाक कहे छे. आ शुं कहे छे? के आत्मा अने राग सर्वथा जुदा छे. अने आ शरीरादि अने आत्मा तो सर्वथा भिन्न ज छे.
आ आत्मा चैतन्यबिंब छे. अने शरीर तो माटी-धूळ जड छे. पण आवुं नक्की करवानी फुरसद कयां छे? एना भान विना दया, दान, व्रतादि करे अने ए पुण्यना फळमां स्वर्गादि के आ धूळनी करोड-बे करोडनी शेठाइ मळे. ए धूळना शेठीआ वैभवना मदमां पाछा मरीने हेठे (नर्क, निगोदमां) चाल्या जाय. (आम चक्कर चाल्या करे छे.) अहीं कहे छे के भगवान सच्चिदानंद आत्मा अने राग तथा शरीर तद्न भिन्न चीज छे. ए कोई पण रीते एक थता नथी एम सर्वज्ञे दीठुं छे; माटे हे अज्ञानी! तुं
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परद्रव्यने एकपणे मानवुं छोडी दे. आ पहेली वात के आत्मा शरीर अने रागादिथी भिन्न छे ए एने आकरी पडे छे. एटले शुभभाव करतां करतां सारी पदवी मळशे अने पछी मोक्ष थशे एम विचारे छे. पण धूळेय नहि मळे (ऊंचां पुण्य नहि बंधाय), सांभळने अज्ञानीने पदवी केवी?
प्रश्नः– पहेलां भूमिका तैयार करवी पडे ने?
उत्तरः– पहेलां रागथी भिन्न पडे ए भूमिका छे. आ आत्मा ज्ञानप्रकाशना नूरनुं पूर छे एवी एने खबर ज कयां छे? ए जोवानी एने दरकारेय कयां छे? पछी भूमिका शामां तैयार करशे? अरेरे! हा हो अने हरिफाई-रळवुं, खावुं-पीवुं, कुटुंब आदि भोगववुं, मरवुं अने चार गतिमां रखडवुं इत्यादि सिवाय एने बीजुं विचारवानी नवराश ज कयां छे?
भाई! तारुं स्वरूप तो त्रिकाळी ज्ञाता-द्रष्टा छे. ए स्वरूपना भान विना पुण्यभावना विकल्पोथी धर्म थाय एम तुं माने छे पण ए मिथ्यादर्शन छे. एम के पुण्य तो करीए ने? पण भाई! एने एना क्रममां शुभभाव आव्या विना रहेशे नहि. क्रममां एने शुद्धता नहि थाय, अने ज्ञानीने पूर्ण शुद्धता नहि होय त्यांसुधी शुभभाव आवशे, व्यवहार आवशे. पण ए हेय छे. आवुं वस्तुस्वरूप छे, भाई. शुं थाय? तेथी कहे छे के ‘वृथा मान्यताथी बस थाओ.’ राग ए हुं एवी राग साथे एकपणानी वृथा मान्यता छोडी दे. अने आ चैतन्यस्वरूप आत्मा ते हुं एम स्वरूपनो अनुभव कर.
हवे आ ज अर्थना कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘अयि’ ए कोमळ संबोधनना अर्थवाळुं अव्यय छे. आचार्य कोमळ संबोधनथी कहे छे के हे भाई! ‘कथम् अपि मृत्वा’ तुं कोई पण रीते महा कष्टे अथवा मरीने पण ‘तत्त्वकौतुहली मन्’ तत्त्वनो कौतुहली थई ‘भवमूर्तेः पार्श्ववर्ती मुहूर्तम्’ आ शरीरादि मूर्तद्रव्योनो एक मुहूर्त (बे घडी) पाडोशी थई ‘अनुभव’ आत्मानो अनुभव कर. जुओ, कहे छे के भगवान! तुं आनंदनो नाथ छे तेने राग अने शरीरथी भिन्न पाडीने जो. तारुं चिदानंद स्वरूप अनादिअनंत एवुं ने एवुं विराजे छे तेने महाकष्टे एटले कष्ट करीने एम नहि पण महान पुरुषार्थ करीने, मरीने पण एटले मरणनी चिंता (परवा) कर्या विना तुं तत्त्वनो कौतुहली था.
अहाहा! आ ‘आत्मा, आत्मा’ एम कर्या करे छे ए चीज छे शुं? कोई दिवस जोई नथी ए चीज शुं छे? एक वार कौतुहल तो कर. नवी चीज जोवानुं कौतुहल करे छे ने? एम एने जोवानुं एक वार तो कौतुहल कर. घणा वर्षनी वात छे. एक राणी हती. ए ओझलमां (पडदामां) रहेती. ज्यारे बहार नीकळे त्यारे लोको कुतूहलथी
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जोवा नीकळे के राणीसाहेबा केवां हशे? पछी होय भले मडदा जेवां पण ओझलमां रहे एटले जोवानुं कौतुहल थाय. अहीं एम नथी. अहीं तो चैतन्यहीरलो अंदर पडयो छे. तेथी कहे छे के भगवान ज्ञाननी मूर्ति अंदर पूर्ण चैतन्यप्रकाश पडयो छे एने राग अने शरीरथी भिन्न पाडीने जो. जरा कौतुहल तो कर के आ जोनार कोण छे? जे शरीरने जाणे, रागने जाणे, आ जाणे, ते जाणे ए जाणनारमां शुं छे? कहे छे के जाणनार जे शरीर अने रागादिने जाणे ते शरीर अने रागादि एमां नथी. जेम शरीर अने राग ज्ञानमां नथी तेम ज्ञान शरीर अने रागमां नथी.
हे भाई! आ चैतन्यतत्त्व शुं छे एम जाणवानुं कुतुहल (जिज्ञासा) करी एने जो. वीस वर्ष पहेलांनी आ वात छे. जामनगरमां नवथी दश वर्षनो एक नानो छोकरो हतो. एणे प्रश्न कर्यो के-महाराज! चर्चामां आप आत्मा आत्मा करो छो पण आम आंख मींचीए तो त्यां अंधारुं देखाय छे. आत्मा तो देखातो नथी? उत्तरः-भाई! ए अंधारुं छे एम ए कोणे जोयुं? आ ज्ञानप्रकाशे अंधाराने जोयुं के अंधाराए अंधाराने जोयुं? ए अंधाराने जोनारुं जे ज्ञान छे ते आत्मा छे. पण कयां एनी पडी छे एने? एने तो आ पैसा पांच-पचास लाखनी धूळ मळे, कांईक आबरू मळे एटले एम जाणे के हुं मोटो शेठ. ए अभिमानमां पछी जाय मरीने हेठे. आम अजीवने मारुं माने ए मूढ छे. अहीं तो चोकखी वात छे, माखण-बाखण नथी. अहाहा! आचार्यनी टीका तो जुओ. कहे छे के भगवान! एक वार तुं कोण छे एनुं कुतुहल तो कर.
आ आत्मा ज्ञायकस्वभाव तो एवो ने एवो रह्यो छे. अनादिथी एवो छे. गमे तेटला मिथ्यात्वभाव सेव्या. अनंत वार नरक-निगोदमां गयो, कीडा, कागडा, कूतरा आदि पशुना अनंत भव कर्या, ८४ लाख योनिमां अनंत परिभ्रमण कर्युं पण ए भगवान वस्तु तो वस्तुपणे (ज्ञायकभावपणे) त्रिकाळ रही छे. तेथी कहे छे आ मूळ वस्तुने जो अने पाम. बीजुं भले आवे, व्यवहार भले हो. ज्ञानानंदस्वरूप वस्तुना भान विना तारा ए व्यवहारने व्यवहार कहेता नथी. लोकोने आ बहु खटके छे. (अने लोको एमां ज अटके छे) ए व्यवहार पण व्यवहार कयारे कहेवाय, भाई? ज्यारे एने अंतरमां आत्मानो अनुभव थाय त्यारे. पछी ज्यां सुधी ए स्वरूपमां पूर्ण स्थिर थाय नहि त्यांसुधी एने एवो भक्ति, पूजा आदिनो राग आवे. ए रागने व्यवहार कहेवाय. पण ए पुण्यबंधनुं कारण छे, धर्म नहि. एनाथी चक्रवर्ती, बळदेव आदि पदवी मळे. पण ए पुण्यबंधनुं कारण छे, धर्म नहि. एनाथी चक्रवर्ती, बळदेव आदि पदवी मळे. पण अज्ञानी एकलां दया, दान आदि करी एने धर्म माने तो ए तो मिथ्यात्वनुं सेवन छे. एनाथी तो परंपराए हेठे (नरक-निगोदे) जाय. शुं करीए, भाई? वस्तुस्थिति आवी छे.
अहाहा! कहे छे के आ शरीरादि मूर्तद्रव्योनो एक मुहूर्त पाडोशी थई आत्मानो अनुभव कर. ‘शरीरादि’ शब्द छे ने? एटले ए बधां मूर्तिकद्रव्य. दया, दान, व्रत
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आदि पुण्यना परिणाम पण मूर्त छे. ए बधा मूर्तद्रव्योनो पाडोशी था (स्वामी नहि), अने ज्ञायकस्वभाव तरफ झूकाव कर. तेथी तने राग अने शरीरथी जुदो चैतन्यभगवान देखाशे. राग अने पुण्यने तुं वेदे छे ए तो अजीवनो अनुभव छे. रागमां चैतन्यज्योति नथी. जेम अग्निनी ज्योत उपर काजळ झीणी झीणी काळी छारी होय ए अग्नि नथी तेम चैतन्यज्योति भगवान आत्मामां उपर जे पुण्य-पापना विकल्प छे ए काजळ समान छे, ए आत्मा नथी. अहीं कहे छे के पुण्य-पापना विकल्पथी बे घडी भिन्न पडी निज चैतन्यस्वरूप आत्मानो अनुभव कर. भाई! जन्म-मरणना फेरा मटाडवा होय एणे करवानुं आ छे.
एकवार प्रभु! तुं राग अने शरीरनुं लक्ष छोडी अंतरमां लक्ष कर. तेथी तने राग अने शरीरनुं साचुं पाडोशीपणुं थशे. क्षणवारमां आत्मा रागथी जुदो पडी जशे, फरी एक थशे नहि. आ अनुभव ते सम्यग्दर्शन छे. हवे आ चीज विना व्रत, तप वगेरे करीने मरी जाय पण शुं थाय? बहु बहु तो शुभभाव थाय. पण ए तो राग छे. रागने तो आग कही छे. दोलतरामजीए छहढाळामां कह्युं छेः-“यह राग आग दहै सदा तातैं समामृत सेईए” रागनो विकल्पमात्र आग छे अने भगवान आत्मा शान्तिना अमृतनो सागर छे. राग कषाय छे. कषाय एटले कष+आय-जे संसारनो लाभ आपे ते. रागदशा तो संसारनो लाभ आपनारी छे. माटे एनाथी भिन्न पडी अमृतनो सागर प्रभु चैतन्य भगवाननो अनुभव कर. अहीं जेम ‘मृत्वा’ एटले मरणांत परिषहनी पण दरकार कर्या विना आत्मानुभव कर एम कह्युं छे तेम अध्यात्मतरंगिणीमां ‘च्युत्वा’ एटले मोहथी छूटीने तुं अंदर जो के ए कोण छे अने एनो अनुभव कर. भाषा सादी छे पण भाव तो आ छे, भाई.
ज्यारे सम्यग्दर्शन थशे त्यारे तने आत्मज्ञान एटले आत्मा जेवो छे तेवुं तेनुं ज्ञान थशे. तेथी निजपद प्राप्त थशे अने पछी मोक्ष थशे, बहारमां धामधूम करे, मंदिरो बंधावे पण ए बधामां सार वात आ एक ज छे के रागादिनो पाडोशी थई आत्माने केटलो अनुभव्यो? (अनुभव प्रधान छे) हवे कहे छे ‘अथ येन’ के जेथी ‘स्वं विलसन्तं’ पोताना आत्माने विलासरूप, ‘पृथक् समालोक्य’ सर्व परद्रव्योथी जुदो देखी ‘मूर्त्या साकम्’ आ शरीरादि मूर्तिक पुद्गलद्रव्य साथे ‘एकत्वमोहम्’ एकपणाना मोहने ‘झगिति त्यजसि’ तुं तुरत ज छोडशे.
पहेलां एम कह्युं के शरीरादि मूर्तद्रव्योथी भिन्न पडी कोई पण रीते आत्मानो अनुभव कर. हवे कहे छे के ए अनुभवथी तने अतीन्द्रिय आनंदना धामरूप भगवान आत्मा सर्व परद्रव्योथी भिन्न देखाशे. ज्यारे पुण्य-पापना विकल्पनो अनुभव हतो त्यारे
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स्वनो विलास न हतो. हवे आत्मानुभवथी निजवैभवनो विलास तने प्राप्त थशे. “ निजपद रमे सो राम कहीए.” निज आनंदधामस्वरूप आत्मामां रमे ते आतमराम छे. तेने अतीन्द्रिय आनंदनी मोज-विलास प्राप्त थाय छे. तेथी हे भाई! तुं आत्मानुभव कर जेथी सर्व परद्रव्योथी भिन्न विलासरूप आत्माने सम्यक् प्रकारे अवलोकीने-देखीने- प्रत्यक्ष साक्षात् आत्माना आनंदनुं वेदन करीने आ शरीरादिक पुद्गलद्रव्य साथे एकपणाना मोहने तुरत ज छोडी दईश. राग साथे एकपणानो जे मोह-मिथ्यात्व तने समये समये थाय छे ते आ आत्मानुभव थतां-आत्माना आनंदनुं प्रत्यक्ष वेदन थतां तरत ज छूटी जशे. ल्यो, आ धर्मनी रीत छे. जेनाथी संसारनो अंत आवी जाय ते धर्म छे.
‘जो आ आत्मा बे घडी पुद्गलद्रव्यथी भिन्न पोताना शुद्ध स्वरूपनो अनुभव करे (तेमां लीन थाय), परिषह आव्ये पण डगे नहि, तो घातीकर्मनो नाश करी, केवळज्ञान उत्पन्न करी मोक्षने प्राप्त थाय.’ जुओ अहीं ‘शुद्ध स्वरूपनो अनुभव करे’ एम कह्युं छे. अशुद्ध रागादिनो अनुभव तो ए अनादिथी करे ज छे. एटले त्यांथी गुलांट मारी शुद्ध स्वरूपनो अनुभव करवानुं कह्युं छे. वळी परिषह आवे पण डगे नहि एम कह्युं. गमे ते प्रतिकूळताना संयोगो आवे, सर्प करडे, वींछी डंखे, वाघ, सिंह आवीने फाडी खाय तोपण डग्या विना ज अंदर स्वरूपमां लीन रहे तो रागना एकपणानो मोह छूटी जाय. परिषह अनुकूळ अने प्रतिकूळ एम बेय होय छे. एमांथी कोई पण प्रकारनो परिषह आवेथी डगे नहि तो घातीकर्मनो नाश करी, केवळज्ञान उत्पन्न करीने मोक्षने प्राप्त थाय छे.
रामचंद्रजी महापुरुष-पुरुषोत्तम पुरुष ज्यारे मुनिदशामां हता त्यारे सीताजी देव-पुरुष हता. त्यांथी आवीने तेमणे सीताजीनुं रूप धारण करीने रामचंद्रजीने बोलावे छे के-‘अरे! आपणे जुदा पडी गया! एक वार तमे स्वर्गमां आवो अने आपणे भेगा रहीए.’ आम रामचंद्रजीने ध्यानथी डगाववा अनुकूळ परिषह आव्यो. पण राम डग्या नहि अने अंदरमां ध्याननिमग्न रह्या तेथी केवळज्ञान उपजावी, देहथी छूटीने मोक्ष पधार्या. सीताजी स्वर्गमां देव हता अने समक्तिी हता परंतु अस्थिरताने लीधे एवो भाव आव्यो.
आ बधुं आत्माना अनुभवनुं माहात्म्य छे. समयसार नाटकमां कह्युं छे केः-
आवो जे आनंदनो नाथ भगवान आत्मा एना अनुभवनुं एवुं माहात्म्य छे के जीव बे घडीमां मोक्ष प्राप्त करे, सिद्धपदने प्राप्त करे. ‘आत्मानुभवनुं एवुं माहात्म्य
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छे तो मिथ्यात्वनो नाश करी सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थवी तो सुगम छे.’ अहाहा! जयचंद पंडिते केवो सरस अर्थ कर्यो छे! बे घडी (४८ मिनिट)नी अंदरना ध्यानमां केवळज्ञान पामी जाय छे, त्रणकाळ त्रणलोकने जाणनार केवळज्ञानी परमात्मा थई जाय छे. पांडवो मुनिदशामां शेत्रुंजय उपर अंतरना ध्यानमां हता. त्यारे दुर्योधनना भाणेजे पूर्वना वेरना कारणे गरम धगधगता लोढाना दागीना तेमने पहेराव्या. आ परिषहथी डग्या नहि अने आत्मामां स्थिरता करी. तो बे घडीमां केवळज्ञान पामी त्रण पांडवो मोक्षे पधार्या. “सादि अनंत अनंत समाधि सुखमां” पूर्वे नहि थयेली अभूतपूर्व सिद्धदशाने पाम्या. तो मिथ्यात्वनो नाश करी सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थवी तो सुगम छे. माटे श्री गुरुओए ए ज उपदेश प्रधानताथी कर्यो छे. मुख्यताथी आ ज उपदेश कर्यो छे.