Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Part 4; Introduction; Contents; PravachanRatnaakar Bhag 4 ; KartaKarma Adhikar 1; Kalash: 46 ; Gatha: 69-70.

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दुःखरूप छे, ते कांई निराकुळ चैतन्य नथी. आ शरीरनां चामडां जुदां छे, जड कर्म जुदां छे अने पुण्य-पापनी छाल पण जुदी छे. एथी भिन्न भगवान आत्मा सच्चिदानंद स्वरूप-सत् कहेतां शाश्वत, चित् एटले ज्ञान अने आनंदस्वरूप छे. तेनो प्रत्यक्ष स्वाद-अनुभव ते मोक्षनो मार्ग छे.

अहा! अहीं तो ‘एक घा ने बे कटका’ जेवी वात छे. कहे छे के व्यवहाररत्नत्रयनो जे भाव छे ते आकुळतामय होवाथी चैतन्य नथी, पण जड अचेतन छे. तेनुं वर्तमान फळ दुःख छे अने भविष्यमां पण ते दुःखनुं ज कारण छे. ७४ मी गाथामां पण आवे छे के शुभभाव वर्तमानमां दुःखरूप छे अने तेथी जे पुण्य बंधाशे तेना कारणे पछी संयोगो मळशे अने ते संयोगो उपर लक्ष जशे तो राग-दुःख ज थशे. अहाहा! वीतरागनी वात गजब छे! वीतराग कहे छे के मारी सामुं जोतां के मारी वाणी सांभळतां, भले तने पुण्यने लईने आवो योग मळ्‌यो छे तोपण, तने राग ज थशे, दुःख ज थशे. माटे तारामां तुं जो, केम के चैतन्यनो अनुभव निराकुळ छे.

स्वाश्रय छोडीने जेटलो पराश्रयनो भाव छे ते राग छे. अने ते राग दुःखरूप छे. ज्यारे चैतन्यनो अनुभव निराकुळ छे. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना परिणाम निराकुळ आनंदमय छे.

प्रश्नः– परंतु चारित्र ‘मीणना दांते लोढाना चणा चाववा’ जेवुं कठण छे ने?

उत्तरः– अरे प्रभु! तुं एम न कहे. चारित्रनी आवी व्याख्या न कर. भाई! चारित्र तो आनंददाता छे. अहा! स्वरूपनुं श्रद्धान, एनुं ज्ञान अने एमां शांतिरूप स्थिरता-ए तो अतीन्द्रिय आनंदनां देनार छे. अहा! शुद्ध रत्नत्रयनो अनुभव तो अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव छे. व्यवहारमात्र दुःखरूप छे, ज्यारे भगवान आत्मानो अनुभव आनंदरूप छे. भाई! आ थोडुं लख्युं एमां घणुं जाणजे. बार अंगमां पण आ ज कह्युं छे. आनंदनो सागर प्रभु आत्मा ज्यारे रागथी खसीने स्वभावमां आवे छे त्यारे तेने आनंद ज थाय छे. आवी चारित्रनी दशा आनंदमय छे तोपण तेने जे कष्टदायक माने छे तेने धर्मनी श्रद्धा ज नथी. छहढालामां पण आवे छे के-

‘आतमहित हेतु विराग ज्ञान, ते लखै आपको कष्टदान.’

अज्ञानी त्याग-वैराग्यने दुःखरूप जाणे छे, सुखनां कारणने कष्टदायक जाणे छे.

अहीं तो एम कहे छे के चैतन्यनो अनुभव निराकुळ छे अने ते ज जीवनो स्वभाव छे एम जाणवुं.

हवे, भेदज्ञाननी प्रवृत्ति द्वारा आ ज्ञाताद्रव्य पोते प्रगट थाय छे एम कळशमां महिमा करी अधिकार पूर्ण करे छेः-


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* कळश ४पः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘इत्थं’ आ प्रमाणे ‘ज्ञान–क्रकच–कलना–पाटनं’ ज्ञानरूपी करवतनो जे वारंवार अभ्यास तेने ‘नाटयित्वा’ नचावीने, -एटले शुं? के ज्ञाननी एकाग्रतानो-अनुभवनो वारंवार अभ्यास करतां अर्थात् ज्ञानस्वरूप प्रभु आत्मानी एकाग्रतानो अभ्यास वारंवार करतां राग जुदो पडी जाय छे. अभ्यास कहो के अनुभव कहो, बन्ने एक ज चीज छे. आनंदनो नाथ शुद्ध चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा छे. एनी द्रष्टि करी एमां अंतर-एकाग्र थतां राग भिन्न पडी जाय छे, दुःखनी दशा भिन्न पडी जाय छे अने आनंदनी दशा प्रगट थाय छे. ज्ञान ते आत्मा छे एवो एनो अभ्यास-अंतरअनुभव करवो ते ज्ञानरूपी करवत छे.

जेम करवत बे फाड पाडे छे तेम अंतरनो अनुभव ज्ञान अने रागनी बे फाड करी नाखे छे. अहा! आठ-आठ वर्षना बाळको केवळज्ञान लेता हशे ते केवुं हशे? भले आठ वर्षनो राजकुमार होय पण अंतरमां एकाग्रता-अनुभव द्वारा आत्माना आनंदनो स्वाद आव्यो छे ने? ए स्वादनो वारंवार ते अभ्यास करे छे अने एकाग्र-स्थित थई अंतर्मुहूर्तमां परमात्मा थाय छे. आत्मा ज्ञान अने आनंदनी उत्कृष्ट लक्ष्मीनुं निधान त्रिकाळ परमात्मस्वरूप पदार्थ छे. एवा आत्माने रागथी भिन्न पाडीने स्वरूपमां एकाग्र थवानो वारंवार अभ्यास करवो-एम अहीं कहे छे. रागने अने आत्माने पूरा जुदा पाडवा छे ने? एटले कहे छे के ज्ञानरूपी करवतनो वारंवार अभ्यास नचाववो. वारंवार अंतर-अनुभव वडे आनंदना परिणमनमां स्थित थवुं. कयां सुधी? के ‘यावत्’ ज्यां सुधी ‘जीवाजीवौ’ जीव अने अजीव बन्ने ‘स्फुट–विघटनं न एव प्रयातः’ प्रगटपणे जुदा न थाय. आनो भावार्थमां बे रीते अर्थ करशे.

जेम गुलाबनी कळी संकोचरूप होय अने पछी विकासरूप थाय एम भगवान आत्मा जे ज्ञान-दर्शन-आनंदनी शक्तिरूपे छे ते अंदरमां खीले-विकसे छे. मार्ग तो आवो छे, भाई! कोई कथा-वार्ता सांभळीने राजी थाय छे पण ए कांई धर्म नथी. प्रभु! तने तारी मोटपनी खबर नथी. अहाहा! तुं अतीन्द्रिय आनंदनो नाथ सच्चिदानंदस्वरूप भगवान छे. एमां अंतर्मुख थवानो अभ्यास कर. पुण्य-पाप मारां छे एवो अभ्यास तो तें अनादिथी कर्यो छे. पण ए तो दुःखनो अभ्यास छे. हवे आ आनंदना नाथनो अभ्यास कर. कहे छे के-अंदर चिन्मात्रशक्तिरूपे भगवान आत्मा छे तेनो अनुभव ज्यां कर्यो ‘तावत्’ त्यां ‘ज्ञातृद्रव्यं’ ज्ञाताद्रव्य ‘प्रसभ–विकसत्–व्यक्त–चिन्मात्रशक्तया’ अत्यंत विकास पामती पोतानी प्रगट चिन्मात्र-शक्ति वडे ‘विश्वं व्याप्य’ विश्वने व्यापीने, ‘स्वयम्’ पोतानी मेळे ज ‘अतिरसात् उच्चैः चकाशे’ अतिवेगथी उग्रपणे चकाशी नीकळ्‌युं. शुं कह्युं? ज्ञानानंदस्वरूप भगवान आत्मा अनंत शक्तिओथी परिपूर्ण प्रभु छे.


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तेनो पूर्ण अनुभव करतां केवळज्ञान थाय छे अने ते आखाय लोकालोकने एक समयमां प्रत्यक्ष जाणे छे. अहीं कहे छे के आवा भगवान आत्मानो ज्यां अनुभव थयो त्यां पर्यायमां चित्शक्तिनी प्रगटता थाय छे. तथा प्रगट थयेल ए ज्ञाननी पर्याय आखा लोकालोकने जाणी शके छे. श्रुतज्ञाननी पर्यायनी पण विश्वने-लोकालोकने जाणवानी ताकात छे. भले ते प्रत्यक्ष न जाणे पण ते पर्यायनुं सामर्थ्य परोक्षपणे लोकालोकने जाणे एवुं विश्वव्यापी छे. अहाहा! स्वानुभव थतां प्रगट थती ज्ञाननी पर्याय लोकालोकने व्यापीने एटले के लोकालोकने जाणती पोतानी मेळे ज अति वेगथी प्रगट थाय छे.

समुद्रमां जेम भरती आवे छे तेम स्वानुभव करतां अंतर चित्शक्तिमांथी पर्यायमां मोटी भरती आवे छे. आवो मार्ग छे. कोईने एम थाय के आवो धर्म!

प्रश्नः– आ कई जातनो धर्म छे? सोनगढथी नवो धर्म काढयो छे?

उत्तरः– भाई! आ नवो धर्म नथी. बापु! आ तो अनादिनो धर्म छे. तें सांभळ्‌यो न होय एटले तने नवो लागे छे. अनादिथी तीर्थंकरो, केवळीओ अने दिगंबर संतो पोकारीने आ ज कहे छे.

प्रश्नः– आ धर्म शुं विदेहक्षेत्रमांथी आव्यो छे?

उत्तरः– ना, आ तो आत्मामांथी आव्यो छे. अहीं कहे छे के चित्शक्तिनो अनुभव करतां ते स्वयं पोतानी मेळे ज अति वेगथी प्रगट थाय छे अने ते जगतने जोरथी उग्रपणे अत्यंत प्रकाशे छे. अर्थात् सम्यग्दर्शनमां प्रकाशे छे अने केवळज्ञान थतां पण ते प्रकाशे छे-एम बे अर्थ छे.

* कळश ४पः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

प्रज्ञा-ब्रह्मस्वरूप प्रभु आत्मा छे. प्रज्ञा कहेतां ज्ञान अने ब्रह्म एटले आनंद. आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप पोते ज छे. तेने अज्ञानी बहार गोते छे. परंतु आवा ज्ञानस्वरूप चैतन्य- ब्रह्म-आत्मानो वारंवार अभ्यास करतां चैतन्यस्वरूप छे ते जीव छे अने रागादि अजीव छे- एम जीव अने अजीव बन्नेनो भेद जणाय छे. अने ते काळे तरत ज आत्मानो निर्विकल्प अनुभव थाय छे. आ समक्ति छे.

शुं कह्युं? ज्ञानस्वभावी आनंदघन प्रभु आत्मानो अभ्यास करतां सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थाय छे, एटले के कोई बाह्य निमित्तथी के विकल्पथी सम्यदर्शननी प्राप्ति थाय छे एम नथी. भारे वात, भाई! आ वातनो अभ्यास न मळे अने आ वात अत्यारे चालती नथी एटले लोकोने ते नवी लागे छे. अरे! लोको तो व्रत पाळो, उपवास करो, भक्ति करो, दान करो, मंदिर बनावो, रथयात्रा काढो, गजरथ चलावो-इत्यादिमां ज धर्म माने छे. पण बापु! ए कांई धर्म नथी. भाई! साचो गजरथ तो अंदर आनंदना नाथनुं चक्र (परिणति) फेरवे एमां छे. आ ज्ञान अने आनंदथी भरेला भगवानमां


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एकाग्र थतां जीव अने अजीव जुदा पडी जाय छे अने त्यारे सम्यग्दर्शन थाय छे. कोई व्यवहार करतां करतां सम्यग्दर्शन थाय छे एम नथी.

कहे छे के समकितीनी पर्यायमां विश्वने जाणवानी ताकात छे. चाहे तिर्यंच हो के शरीरथी आठ वर्षनी बालिका हो, परंतु जेने शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्माना अभ्यासथी निर्मळ समकित थयुं छे तेनी श्रुतज्ञाननी पर्यायमां विश्वने जाणवानी ताकात छे. अहा! एक समयनी पर्याय आखाय लोकालोकना समस्त भावोने संक्षेपथी अथवा विस्तारथी जाणे छे. जेनो स्वभाव ज जाणवानो छे ते शुं न जाणे? निश्चयथी विश्वने प्रत्यक्ष जाणवानो जीवनो स्वभाव छे. माटे ज्ञानी विश्वने जाणे छे एम कह्युं छे. श्रुतज्ञाननी पर्यायनो पण, भले परोक्ष जाणे तोपण, लोकालोकने जाणवानो स्वभाव छे.

अरे! अज्ञानीने अंदर आत्मा केवडो मोटो छे एनी खबर नथी. अने तेथी ते पोताने एक समयनी पर्याय जेवेडो रागादिवाळो पामर माने छे. आम मानीने तेणे पूर्णानंदना स्वभावनो अनादर कर्यो छे. अर्थात् पूर्णानंदना स्वभावनी जे हयाती छे एनो तेणे नकार कर्यो छे अने राग अने पुण्यनी हयातीनो स्वीकार कर्यो छे. अहीं कहे छे के ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मानुं अंतरमां वलण करी तेनो अभ्यास करतां रागथी ज्ञान भिन्न पडे छे अने त्यारे सम्यग्दर्शन थाय छे. तेनी साथे थतुं ज्ञान विश्वना नाथने (आत्माने) जाणे छे. तथा जेणे पर्यायमां विश्वना नाथने जाण्यो छे तेने-ते पर्यायने लोकालोकने जाणवामां शुं मुश्केली पडे? जे ज्ञाननी पर्यायमां ‘विश्वनाथ’-आत्मा जणायो ते पर्याय विश्वने जाणे ज एमां प्रश्न शुं? (एमां नवाई शी?) एम अहीं कहे छे भाई! जिनवाणी अमूल्यवाणी छे अने तेनो रस मीठो छे. पण ए तो जेने वाणीनुं भान थाय एने माटे छे.-आम एक आशय छे.

बीजो आशय आ प्रमाणे छेः जीव-अजीवनो अनादिथी जे संयोग छे ते केवळ जुदा पडया पहेलां अर्थात् जीव अने अजीव तद्न जुदा थाय ते पहेलां-मोक्ष थया पहेलां भेदज्ञान भावतां वीतरागता रहित जे दशा हती ते हवे वीतरागता सहित दशा थई. एटले के अंतरमां स्वभावनी एकाग्रता थतां निर्विकल्प धारा जामी-वीतरागतानी धारा अंदर परिणमी के जेमां केवळ आत्मानो अनुभव रहे छे. अने ते अंतर-एकाग्रतानी धारा वेगथी आगळ वधतां वधतां केवळज्ञान प्रगट थाय छे. पछी अघाती कर्मोनो नाश थतां जीवद्रव्य अजीवथी तद्न भिन्न पडी जाय छे. पहेला आशयमां सम्यग्दर्शन सुधीनी वात करी हती, अहीं बीजा आशयमां सम्यग्दर्शन पछी धारा वेगथी आगळ वधतां परिपूर्ण आनंद अने ज्ञान थाय छे अने त्यारे जीव अने अजीव तद्न जुदा पडी जाय छे एनी वात छे. जीव अने अजीवने भिन्न करवानी आ रीत-पद्धति छे. निर्मळ शुद्ध चैतन्यस्वभावमां एकाग्रतानो अभ्यास करवो ते अजीवथी जुदा पडवानी रीत अने मार्ग छे. रागने साथे


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लईने के रागनी मददथी जीव-अजीव जुदा न थाय. भाई! जेने जुदो पाडवो होय तेनी मदद जुदा पाडवामां केम होय? राग तो अजीव छे अने तेने तो चैतन्यथी जुदो पाडवो छे. तो रागनी सहायथी राग जुदो केम पडे? न पडे. बहु झीणी वात!

-आ प्रमाणे जीव-अजीव जुदा जुदा थईने रंगभूमिमांथी बहार नीकळी गया. अर्थात् जीव जीवरूपे थई गयो अने अजीव अजीवरूपे थई गयुं.

जीव अने रागादिक जे अजीव छे ते बन्नेनी अहीं वात छे. जेम नाटकमां नट स्वांग लईने आवे छे तेम ज्ञायकस्वभावी चैतन्यस्वरूप जीव अने अजीव रागनुं रूप धारण करीने अखाडामां प्रवेश करे छे. ए बन्नेए एकपणानो स्वांग रच्यो छे. आत्माए रागनो स्वांग रच्यो छे अने राग जाणे के आत्मा होय एवो स्वांग रच्यो छे, परंतु भेदज्ञानी सम्यग्द्रष्टि पुरुष भेदज्ञान-सम्यग्ज्ञान वडे ते जीव अने अजीवने, तेमना लक्षणभेदथी परीक्षा करीने, बन्नेने जुदा जाणे छे. आत्मानुं लक्षण चैतन्य छे, ज्यारे राग-व्यवहाररत्नत्रयनो राग पण अचेतन छे. आम बन्नेना भिन्न लक्षणो वडे तेमने भिन्न वस्तुओ तरीके धर्मी जाणे छे. धर्मीजीव बन्नेनी लक्षणभेदथी परीक्षा करे छे के-आ जाणनार ते हुं आत्मा अने आ अनुभवथी भिन्न रहेतो अचेतन राग ते हुं नहि. आम बन्नेने ज्यां जुदा जाणी लीधा त्यां स्वांग पूरो थाय छे, अने बन्ने जुदा जुदा थईने रंगभूमिमांथी बहार नीकळी जाय छे. एटले के आत्मा आत्मामां आनंदरूपे रहे छे अने राग, रागरूपे रही नीकळी जाय छे. आ प्रमाणे अलंकार करीने वर्णन कर्युं छे.

हवे टूंकमां कहे छे के-आ जीव अने अजीवनो अनादिथी संयोग छे. परंतु जेनी द्रष्टि संयोगी छे ते अज्ञानी, संयोगीभाव पोताना छे एम मानीने भिन्न आत्माना चैतन्यस्वरूपने पामतो नथी. पण ज्यारे भेदज्ञान-सम्यग्ज्ञान थाय छे त्यारे ज्ञानी, ज्ञान पोतानुं लक्षण छे एम जाणी रागने जुदो पाडे छे. निज स्वभाव तो ज्ञानानंदस्वरूप छे अने ते हुं छुं, आ रागादिभाव ते हुं नहि-एम ज्ञानलक्षणथी ज्ञायकने पकडतां राग भिन्न पडी जाय छे अने आत्माना आनंदनो अनुभव थाय छे. अहाहा! सद्गुरुनो उपदेश सांभळी सारो दिवस पामतां (काळलब्धि पाक्तां) अज्ञान दूर थाय छे अने त्यारे जगतमां महंत-महात्मा कहेवाय छे अने मोक्ष प्राप्त करीने सदाय निज आनंदरूपे रहे छे.

अहीं सद्गुरुनो उपदेश सांभळतां अज्ञान दूर थाय छे एम कह्युं एमां निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे एम समजवुं. पण निमित्त-उपदेशथी ज्ञान थयुं छे एम न जाणवुं. कोई द्रव्यनी पर्याय कोई अन्यद्रव्य वडे नीपजे छे एम त्रणकाळमां नथी. गाथा ३०८ थी ३११ नी टीकामां आवे छे के-‘सर्व द्रव्योने अन्य द्रव्य साथे उत्पाद्य-उत्पादकभावनो अभाव छे.’ वळी गाथा ३७२नी टीकामां लीधुं छे के-‘वळी जीवने परद्रव्य रागादिक उपजावे छे एम शंका न करवी; कारण के अन्यद्रव्य वडे अन्यद्रव्यना गुणनो (पर्यायनो)


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उत्पाद करवानी अयोग्यता छे.’ तथा त्यां तो छेल्ले एम लीधुं छे के-‘कुंभार घडानो उत्पादक छे ज नहि.’

प्रश्नः– परंतु कार्यमां बे कारण होय छे ने?

उत्तरः– भाई! आ गाथामां कयां बे कारण लीधां छे? बीजुं कारण (निमित्त कारण) तो उपचार-आरोप करीने एनुं ज्ञान कराववा कह्युं छे.

खरेखर तो निश्चय अने व्यवहार-मोक्षमार्ग पण ध्यानमां प्रगट थाय छे. माटे व्यवहारथी निश्चयमोक्षमार्ग थाय छे ए वात ज रहेती नथी. द्रव्यसंग्रहनी गाथा ४७मां कह्युं छे के-‘दुविहंपि मोक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा।’ (ध्यान करवाथी मुनि नियमथी निश्चय अने व्यवहाररूप मोक्षमार्ग पामे छे.) बे प्रकारनुं मोक्षनुं कारण (मोक्षमार्ग) ध्यानमां प्रगट थाय छे. एटले के निज चैतन्यनो आश्रय करतां जे निश्चय मोक्षमार्ग प्रगटे छे ते ज काळे जे राग बाकी छे तेने आरोपथी व्यवहारमोक्षमार्ग कहेवाय छे. तेथी व्यवहारमोक्षमार्गथी निश्चयमोक्षमार्ग प्रगटे छे एम ज नहि; केम के बन्ने एक साथे प्रगट थाय छे. आनंदनो नाथ भगवान आत्मा छे. तेने ध्येय बनावी स्वाश्रये ध्यान करतां निश्चय-मोक्षमार्ग प्रगटे छे. ते ज काळे जे राग बाकी रहे छे तेने व्यवहार कहेवामां आवे छे. तेथी व्यवहार अने निश्चय आगळ-पाछळ छे एम नथी. माटे व्यवहारथी निश्चय थाय छे एम मानवुं यथार्थ नथी.

प्रश्नः– परंतु अहीं तो देशनालब्धि मळतां अज्ञान दूर थाय छे एम लख्युं छे ने?

उत्तरः– भाई! ए तो निमित्तनुं ज्ञान कराववानी वात छे. ए तो त्यां एम समजाव्युं छे के सम्यग्दर्शन थवा पहेलां देशनालब्धि होय छे, बस एटलुं; परंतु तेथी करीने एनाथी (देशनालब्धिथी) सम्यग्दर्शन थाय छे एम नथी. तथा ज्यारे परनुं लक्ष छोडीने स्वमां जाय छे त्यारे गुरुना उपदेशने निमित्त कहेवामां आवे छे.

कह्युं ने के-सर्वद्रव्योने अन्य द्रव्य साथे उत्पाद्य-उत्पादकभावनो अभाव छे. एटले बीजी चीज जीवनी पर्यायने करे के परनी पर्याय उत्पन्न करवाने जीव लायक थाय-एवा भावनो अभाव छे. नहींतर तो बे द्रव्यो वच्चे कारण-कार्यभाव सिद्ध थई जाय. पण तेनी तो अहीं ना पाडे छे. अने तेथी जीव अने अजीवनुं (परस्पर) र्क्ताकर्मपणुं सिद्ध थतुं नथी. एटले के जीवनुं कार्य राग छे अने रागथी जीवनुं कार्य थाय छे एम सिद्ध थतुं नथी. जीव पोतानां परिणामने अन्यनिरपेक्षपणे पोते र्क्ता थईने करे छे. जीव अजीवनुं कार्य करे अने अजीव जीवनुं कार्य करे ए वात त्रणकाळमां छे ज नहि. गाथा ३७२मां कह्युं छे ने के-‘सर्वद्रव्योने निमित्तभूत अन्यद्रव्यो पोताना


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(अर्थात् सर्वद्रव्योनां) परिणामना उत्पादक छे ज नहि.’ अहाहा! निमित्त जे परद्रव्य छे ते स्वद्रव्यना परिणामनो उत्पादक छे ज नहि-आ निर्णय राखीने निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे. आवो निर्णय जे काळे थाय छे ते काळे बाकी रहेला रागने व्यवहार कहे छे. हवे आमां व्यवहारथी निश्चय थाय ए कयां रह्युं? बापु! निश्चयमोक्षमार्ग अने व्यवहारमोक्षमार्ग एक ज काळे साथे होय छे त्यां ते व्यवहार शुं करे? अने ए ज रीते निमित्तथी उपादानमां कार्य थाय छे ए वात पण त्रणकाळमां सत्य नथी.

प्रश्नः– परंतु निमित्त मददरूप-सहायरूप तो थाय ने?

उत्तरः– भाई! मददरूप थाय एनो अर्थ शुं? टेको आपे. टेको एटले शुं? आत्मा ज्यारे गतिरूप परिणमे छे त्यारे धर्मास्तिकाय निमित्त छे. धर्मास्तिकाय तो एम ने एम ज छे, तो तेणे शुं कर्युं? परंतु निमित्तथी एम कहेवाय छे के तेने लीधे गति थई. परंतु तेथी शुं धर्मास्तिकाय छे माटे जीव गतिरूपे परिणमे छे एम छे? जो एम होय तो धर्मास्तिकाय तो सदाय छे, तेथी जीवमां सदाय गति थवी जोईए. परंतु एम तो बनतुं नथी. जीव ज्यारे गति करवाना परिणामने पोते उत्पन्न करे त्यारे धर्मास्तिकायने निमित्तनो आरोप आपवामां आवे छे. अर्थात् कोईनी पर्याय कोई अन्य द्रव्यथी थती नथी.

काळलब्धि एटले शुं? दरेक द्रव्यनी समये समये जे पर्याय थाय छे ते स्वकाळे थाय छे अने ते एनी काळलब्धि छे. त्यारे निमित्त हो भले, परंतु निमित्ते पर्याय उत्पन्न करी छे एम नथी. तेवी रीते व्यवहारथी निश्चय उत्पन्न थाय छे एम पण नथी. व्यवहार तो निमित्त छे, अने निमित्त जेम परमां कांई उत्पन्न करतुं नथी तेम व्यवहार निश्चयने उत्पन्न करतो नथी सत्य तो आ ज छे. तेने मचडतां के कचडतां सत्य हाथ नहि आवे, भाई!

अहा! अहीं तो कहे छे के कुंभार घडानो उत्पादक छे ज नहि. तेवी ज रीते चोखा जे पाके छे तेने पाणी पकावे छे एम त्रणकाळमां नथी. जे द्रव्यनी जे पर्याय जे काळे थाय छे ते पर्यायनो र्क्ता ते द्रव्य छे. द्रव्य पोते र्क्ता थईने पर्यायना कार्यने करे छे, तेमां बीजानो जराय अधिकार नथी. बीजां शास्त्रोमां ज्यां बे कारणथी कार्य थाय छे एम कह्युं छे ए तो निमित्तनुं ज्ञान कराववा कह्युं छे. निश्चयथी कार्य तो उपादानथी ज थाय छे. आ निश्चयने राखीने प्रमाणज्ञान कराव्युं छे के बे कारणथी कार्य थाय छे. उपादानथी कार्य थाय छे-ए निश्चयने राखीने जे बीजी चीज-निमित्त छे तेनुं ज्ञान कराव्युं छे. व्यवहारथी-निमित्तथी कार्य थाय छे एम कह्युं होय एनो अर्थ ज ए छे के तेनाथी कांई थतुं नथी.

निश्चय मोक्षमार्ग थाय त्यारे व्यवहार साथे होय छे. निश्चयनी साथे जे कषायनी


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मंदता, देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग छे तेने व्यवहार समकित कहेवामां आवे छे. परंतु व्यवहारथी निश्चय थाय छे एम त्रणकाळमां नथी. तेवी रीते निमित्तथी उपादानमां कार्य थाय एम पण त्रणकाळमां बनतुं नथी. निश्चय (उपादान) होय त्यारे व्यवहार (निमित्त) होय भले, परंतु निमित्तथी कार्य नीपजतुं नथी. गाथा ३७२मां आवे छे के ‘सर्व द्रव्यो ज निमित्तभूत अन्यद्रव्योना स्वभावने नहि स्पर्शतां थकां....’ शुं कहे छे? कोई पण द्रव्य निमित्तभूत अन्यद्रव्योना स्वभावने अडतां नथी. एटले माटीमांथी घडो थाय छे पण ते माटी कुंभारने अडती नथी. अहाहा! ज्यारे चोखा पाके छे त्यारे तेने अग्नि अडती ज नथी. पाणीने अग्नि अडती नथी अने पाणी गरम थाय छे. गजब वात छे!

प्रश्नः– परंतु सम्यग्दर्शन निसर्गज अने अधिगमज एम बे प्रकारे कह्युं छे ने?

उत्तरः– भाई! अधिगमज सम्यग्दर्शन पण थयुं छे तो पोताथी ज, परंतु निमित्तनी त्यारे उपस्थिति होय छे तेथी एनाथी सम्यग्दर्शन थयुं छे एम कहेवाय छे. निमित्तथी सम्यग्दर्शननी उत्पत्ति थाय छे एम त्रणकाळमां नथी. निमित्त कार्यने उत्पन्न करे के निमित्तमां कार्य उत्पन्न कराववानी ताकात छे के उत्पन्न थनारी पर्याय निमित्तनी अपेक्षा राखीने उत्पन्न थाय छे एम छे ज नहि. गाथा ३०८ थी ३११ अने गाथा ३७२ मां आ ज वात करेली छे.

‘श्रीगुरुके उपदेश सुनै रु भले दिन पाय अज्ञान गमावै’ एम जे कह्युं छे ए तो निमित्तथी कथन कर्युं छे, बाकी अज्ञान तो पोते स्वना आश्रये ज गमावै-नाश करे छे. माटे व्यवहारथी निश्चय न थाय अने निमित्तथी परमां उत्पाद न थाय एम यथार्थ नक्की करवुं. खरेखर तो द्रव्य पर्यायने करे छे ए पण पर्यायार्थिक नयथी कथन छे एम जाणवुं. माटीथी घडो थयो छे एम कहेवामां ए परथी थयो नथी एम बताववुं छे. बाकी ध्रुव माटी घडानी पर्यायने करे नहीं. अहाहा! भगवान ध्रुव आत्मा (निश्चयथी) पर्यायने अडतो नथी, अने पर्यायने करतो पण नथी. लोटमांथी रोटली थाय छे त्यारे वेलणथी गोरणुं लांबु थाय छे एम त्रणकाळमां नथी, कारण के वलणने लोट अडतो ज नथी अने वेलण गोरणाने अडतुं ज नथी. तेवी रीते ज्यारे निश्चय अने व्यवहार एक साथे प्रगटे छे त्यारे व्यवहारने निश्चय अडयो ज नथी. अहाहा! निर्मळ पर्याय रागने अडती ज नथी. भाई! भगवान सर्वज्ञदेवे कहेलुं सत्य तो आवुं छे. तेने ते रीते समजवुं जोईए.

व्यवहार आवे छे, होय छे. तेनी आववानी योग्यता होय त्यारे ते आवे छे, परंतु एनाथी निश्चय प्रगटे छे एम नथी.

प्रश्नः– सांभळवाथी तो ज्ञान थाय ने?

उत्तरः– भाई! भाषा तो जड छे, एनाथी ज्ञान केम थाय? सांभळवाथी कांई


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ज्ञान थतुं नथी. वाणीनी पर्याय उत्पादक अने ज्ञान उत्पाद्य एम छे ज नहि. ए तो पोतपोताना काळे अने पोतपोताना कारणे ज्ञाननी तथा वाणीनी पर्याय थई छे, एकबीजाना कारणे थई छे एम नथी. भाई! वीतराग सर्वज्ञनो मार्ग बहु झीणो अने हितकारी छे. श्रीमद् राजचन्द्रे पण कह्युं छे के-

‘सर्वज्ञनो धर्म सुशर्ण जाणी, आराध्य आराध्य प्रभाव आणी,
अनाथ एकांत सनाथ थाशे, एना विना कांई न बाह्य स्हाशे.’

भाई! वीतरागनी वाणी एम पोकारे छे के-अमे संभळावीए छीए माटे तने ज्ञान थाय छे एम नथी, कारण के बीजा द्रव्यनी पर्यायथी बीजा द्रव्यनी पर्यायनो उत्पाद थाय एम छे ज नहि. बे द्रव्यो वच्चे उत्पाद्य-उपादक संबंध छे ज नहि. वस्तु स्वतंत्र छे, तेथी जे समये तेनो जे पर्याय थाय छे ते तेनो जन्मक्षण-निजक्षण छे. ते समये पर्यायनी उत्पत्तिनो काळ छे तेथी ते पोताथी ज थाय छे, निमित्तथी नहि. आवी वात छे. अज्ञानी साथे तो वाते वाते फेर छे. पण भाई! मार्ग तो आ ज छे. नियमसारमां आवे छे के-आवा सुंदर मार्गनी जो कोई अज्ञानी निंदा करे तो तेथी तुं मार्गनी अभक्ति न करीश. अज्ञानीओ निंदा करे एथी तारे शुं? तुं स्वरूपनी भक्ति छोडीने अभक्ति न करीश.

चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा पोताना आश्रये अंदरमां ज्यारे सम्यग्दर्शन-ज्ञाननी पर्याय उत्पन्न करे छे त्यारे ते धर्मनी उत्पत्ति थवानी प्रथम क्षण छे. हवे ते वखते राग- व्यवहार हतो माटे धर्मनी उत्पत्ति थई छे एम नथी. व्यवहार-रागनी उपस्थिति भले होय, पण एनाथी धर्मनी परणिति थई नथी. बे मोक्षमार्ग ध्यानमां प्रगट थाय छे एनो अर्थ शुं? के आनंदना नाथ भगवान चैतन्यदेवने जेणे अंदरमां पकडयो छे-अनुभव्यो छे ते निर्मळ परिणति निश्चय मोक्षमार्ग छे अने ते वखते जे राग बाकी छे तेनो आरोप आपीने व्यवहार मोक्षमार्ग कह्यो छे. खरेखर तो जे राग छे ते बंधनुं कारण छे, पण स्वाश्रये प्रगटेली निश्चय श्रद्धा-ज्ञान-चारित्रनी निर्मळ परिणति साथे जे रागनी मंदतानी हाजरी छे तेने उपचारथी मोक्षमार्ग कहेलो छे. व्यवहार समक्ति ए कांई समक्ति नथी, कारण के ते श्रद्धा-सम्यक्त्व गुणनी पर्याय नथी. ए तो रागनी पर्याय छे अने निश्चय साथे देखीने तेमां (व्यवहार) समक्तिनो उपचार कर्यो छे.

प्रभु! तारी मोटप पार विनानी अपार छे. तारी मोटप प्रगट करवा माटे रागनी हीणी दशाना आलंबननी तने जरूर नथी. ए (धर्मनी) पर्याय तो निमित्तनी अपेक्षा राख्या विना प्रगट थाय छे. (जुओ, गाथा ३०८ थी ३११). अहाहा! व्यवहारनी अपेक्षा राख्या विना ज पोताना स्वभावनी उत्पत्ति पोताने लईने स्वकाळे स्वाश्रित पुरुषार्थ द्वारा थाय छे. भाई! आ वातने बराबर राखीने पछी जोडे जे निमित्त-राग छे तेने


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व्यवहार कहेवाय छे. रागने व्यवहारसमकित कह्युं छे तो ते शुं साचुं समकित छे? ना. तेम निमित्तने व्यवहारकारण कह्युं छे पण ते साचुं कारण नथी. आवी वात भाई! दुनिया साथे मेळववी कठण छे कारण के अज्ञानी घणा भिन्न मतवाळा-अभिप्रायवाळा छे. परंतु तेनो अभिप्राय जुदो पडे तेथी करीने कांई सत्य फरी जाय? जेने सत्य मेळववुं हशे तेणे पोतानो अभिप्राय फेरववो पडशे. [प्रवचन नं. ११० (शेष) १११ थी ११प अने १९ मी वारनां १३९ थी १४१ दिनांक २९-६- ७६ थी ४-७-७६ तथा १८-११-७८ थी २०-११-७८]


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प्रवचन रत्नाकर

[भाग–४]

परम पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामीनां
श्री समयसार परमागम उपर अढारमी वखत थयेलां प्रवचनो

ः प्रकाशकः

श्री कुंदकुंद कहान परमागम प्रवचन ट्रस्ट
मुंबई


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क्रम गाथा/कळश प्रवचन नंबर पृष्ठांक
१ कळश-४६ ११प थी ११७
२ गाथा ६९-७० ११प थी ११७
३ गाथा-७१ ११८-११९ २३
४ गाथा-७२
१२० थी १२३ ३२
प कळश-४७ १२० थी १२३ ३४
६ गाथा-७३ १२४ थी १२६ प७
७ गाथा-७४ १२७ थी १२९ ७२
८ कळश-४८ १२७ थी १२९ ७४
९ गाथा-७प १२९ थी १३२ ९४
१० कळश-४९ १२९ थी १३२ ९प
११ गाथा-७६ १३२-१३३ ११८
१२ गाथा-७७ १३३-१३४ १२८
१३ गाथा-७८ १३३-१३४ १३प
१४ गाथा-७९
१३प थी १३७ १४२
१प कळश-प० १३प थी १३७ १४३
१६ गाथा-८० थी ८२ १३७ थी १३९ १प९
१७ गाथा-८३ १३९ थी १४२ १७३
१८ गाथा-८४ १४३-१४४ १९प
१९ गाथा-८प
१४४ थी १४७ २०प
२० गाथा-८६ १४७ थी १प२ २२९
२१ कळश-प१-प२ १४७ थी १प२ २३०
२२ कळश- प३ थी पप १४७ थी १प२ २३१
२३ कळश-प६ १४७ थी १प२ २३२
२४ गाथा-८७ १प२ थी १प४ २६३
२प गाथा-८८ १पप २७प
२६ गाथा-८९ १पप-१प६ २७८

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परमात्मने नमः।

श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत

श्री
समयसार
*
उपर

परम पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीना प्रवचनो

श्रीमदमृतचंद्रसूरिकृता आत्मख्यातिः।
*
कर्ताकर्म अधिकार
*

अथ जीवाजीवावेव कर्तृकर्मवेषेण प्रविशतः।

(मन्दाक्रान्ता)
एकः कर्ता चिदहमिह मे कर्म कोपादयोऽमी
इत्यज्ञानां शमयदभितः कर्तृकर्मप्रवृत्तिम्।
ज्ञानज्योतिः
स्फुरति परमोदात्तमत्यन्तधीरं
साक्षात्कुर्वन्निरुपधिपृथग्द्रव्यनिर्भासि विश्वम्।। ४६।।

________________________________________________________________________

कर्ताकर्मविभावने, मेटी ज्ञानमय होय,
कर्म नाशी शिवमां वसे, नमुं तेह, मद खोय.

प्रथम टीकाकार कहे छे के ‘हवे जीव-अजीव ज एक कर्ताकर्मना वेशे प्रवेश करे छे.’ जेम बे पुरुषो मांहोमांहे कोई एक स्वांग करी नृत्यना अखाडामां प्रवेश करे तेम जीव- अजीव बन्ने एक कर्ताकर्मनो स्वांग करी प्रवेश करे छे एम अहीं टीकाकारे अलंकार कर्यो छे.

हवे प्रथम, ते स्वांगने ज्ञान यथार्थ जाणी ले छे ते ज्ञानना महिमानुं काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– ‘[इह] आ लोकमां [अहम् चिद्] हुं चैतन्यस्वरूप आत्मा तो


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जाव ण वेदि विसेसंतरं तु आदासवाण दोण्हं पि।
अण्णाणी ताव दु सो
कोहादिसु वट्टदे जीवो।। ६९।।
कोहादिसु वट्टंतस्स तस्स
कम्मस्स संचओ होदि।
जीवस्सेवं बंधो भणिदो
खलु सव्वदरिसीहिं।। ७०।।
यावन्न वेत्ति विशेषान्तरं त्वात्मास्रवयोर्द्वयोरपि।
अज्ञानी तावत्स क्रोधादिषु वर्तते जीवः।। ६९।।
क्रोधादिषु वर्तमानस्य तस्य कर्मणः सञ्चयो भवति।
जीवस्यैवं बन्धो
भणितः खलु सर्वदर्शिभिः।। ७०।।

________________________________________________________________________ [एकः कर्ता] एक कर्ता छुं अने [अमी कोपादयः] आ क्रोधादि भावो [मे कर्म] मारां कर्म छे’ [इति अज्ञानां कर्तृकर्मप्रवृत्तिम्] एवी अज्ञानीओने जे कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति छे तेने [अभितः शमयत्] बधी तरफथी शमावती (-मटाडती) [ज्ञानज्योतिः] ज्ञानज्योति [स्फुरति] स्फुरायमान थाय छे. केवी छे ते ज्ञानज्योति? [परम–उदात्तम्] जे परम उदात्त छे अर्थात् कोईने आधीन नथी, [अत्यन्तधीरं] जे अत्यंत धीर छे अर्थात् कोई प्रकारे आकुळतारूप नथी अने [निरुपधि–पृथग्द्रव्य–निर्भासि] परनी सहाय विना जुदां जुदां द्रव्योने प्रकाशवानो जेनो स्वभाव होवाथी [विश्वम् साक्षात् कुर्वत्] जे समस्त लोकालोकने साक्षात् करे छे-प्रत्यक्ष जाणे छे.

भावार्थः– आवो ज्ञानस्वरूप आत्मा छे ते, परद्रव्य तथा परभावोना कर्तापणारूप अज्ञानने दूर करीने, पोते प्रगट प्रकाशमान थाय छे. ४६.

हवे, ज्यां सुधी आ जीव आस्रवना अने आत्माना विशेषने (तफावतने) जाणे नहि त्यां सुधी ते अज्ञानी रह्यो थको, आस्रवोमां पोते लीन थतो, कर्मोनो बंध करे छे एम गाथामां कहे छेः-

आत्मा अने आस्रव तणो ज्यां भेद जीव जाणे नहीं,
क्रोधादिमां स्थिति त्यां लगी अज्ञानी एवा जीवनी. ६९.
जीव वर्ततां क्रोधादिमां संचय करमनो थाय छे,
सहु सर्वदर्शी
ए रीते बंधन कहे छे जीवने. ७०.

गाथार्थः– [जीवः] जीव [यावत्] जयां सुधी [आत्मास्रवयोः द्वयोः अपि तु] आत्मा अने आस्रव-ए बन्नेना [विशेषान्तरं] तफावत अने भेदने [न वेत्ति] जाणतो


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नथी [तावत्] त्यां सुधी [सः] ते [अज्ञानी] अज्ञानी रह्यो थको [क्रोधादिषु] क्रोधादिक आस्रवोमां [वर्तते] प्रवर्ते छे; [क्रोधादिषु] क्रोधादिकमां [वर्तमानस्य तस्य] वर्तता तेने [कर्मणः] कर्मनो [सञ्चयः] संचय [भवति] थाय छे. [खलु] खरेखर [एवं] आ रीते [जीवस्य] जीवने [बन्धः] कर्मोनो बंध [सर्वदर्शिभिः] सर्वज्ञदेवोए [भणितः] कह्यो छे.

टीकाः– जेम आ आत्मा, जेमने तादात्म्यसिद्ध संबंध छे एवां आत्मा अने ज्ञानमां विशेष (तफावत, जुदां लक्षणो) नहि होवाथी तेमनो भेद (जुदापणुं) नहि देखतो थको, निःशंक रीते ज्ञानमां पोतापणे वर्ते छे, अने त्यां (ज्ञानमां पोतापणे) वर्ततो ते, ज्ञानक्रिया स्वभावभूत होवाने लीधे निषेधवामां आवी नथी माटे, जाणे छे-जाणवारूप परिणमे छे, तेवी रीते ज्यां सुधी आ आत्मा, जेमने संयोगसिद्ध संबंध छे एवा आत्मा अने क्रोधादि आस्रवोमां पण, पोताना अज्ञानभावने लीधे, विशेष नहि जाणतो थको तेमनो भेद देखतो नथी त्यां सुधी निःशंक रीते क्रोधादिमां पोतापणे वर्ते छे, अने त्यां (क्रोधादिमां पोतापणे) वर्ततो ते, जोके क्रोधादि क्रिया परभावभूत होवाथी निषेधवामां आवी छे तोपण ते स्वभावभूत होवानो तेने अध्यास होवाथी, क्रोधरूप परिणमे छे, रागरूप परिणमे छे, मोहरूप परिणमे छे. हवे अहीं, जे आ आत्मा पोताना अज्ञानभावने लीधे, ज्ञानभवनमात्र जे सहज उदासीन (ज्ञाताद्रष्टामात्र) अवस्था तेनो त्याग करीने अज्ञानभवनव्यापाररूप अर्थात् क्रोधादिव्यापाररूप प्रवर्ततो प्रतिभासे छे ते कर्ता छे; अने ज्ञानभवनव्यापाररूप प्रवर्तनथी जुदां, जे क्रियमाणपणे अंतरंगमां उत्पन्न थतां प्रतिभासे छे, एवां क्रोधादिक ते, (ते कर्तानां) कर्म छे. आ प्रमाणे अनादि काळनी अज्ञानथी थयेली आ (आत्मानी) कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति छे. ए रीते पोताना अज्ञानने लीधे कर्ताकर्मभाव वडे क्रोधादिमां वर्तता आ आत्माने, ते ज क्रोधादिनी प्रवृत्तिरूप परिणामने निमित्तमात्र करीने पोते पोताना भावथी ज परिणमतुं पौद्गलिक कर्म एकठुं थाय छे. आ रीते जीव अने पुद्गलनो, परस्पर अवगाह जेनुं लक्षण छे एवा संबंधरूप बंध सिद्ध थाय छे. अनेकात्मक होवा छतां (अनादि) एक प्रवाहपणे होवाथी जेमांथी इतरेतराश्रय दोष दूर थयो छे एवो ते बंध, कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिनुं निमित्त जे अज्ञान तेनुं निमित्त छे.

भावार्थः– आ आत्मा, जेम पोताना ज्ञानस्वभावरूप परिणमे छे तेम ज्यां सुधी क्रोधादिरूप पण परिणमे छे, ज्ञानमां अने क्रोधादिमां भेद जाणतो नथी, त्यां सुधी तेने कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति छे; क्रोधादिरूप परिणमतो ते पोते कर्ता छे अने क्रोधादि तेनुं ________________________________________________________________________ १. भवन = थवुं ते; परिणमवुं ते; परिणमन. २. क्रियमाण = करातुं होय ते


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कर्म छे. वळी अनादि अज्ञानथी तो कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति छे, कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिथी बंध छे अने ते बंधना निमित्तथी अज्ञान छे; ए प्रमाणे अनादि संतान (प्रवाह) छे, माटे तेमां इतरेतर- आश्रय दोष पण आवतो नथी. आ रीते ज्यां सुधी आत्मा क्रोधादि कर्मनो कर्ता थई परिणमे छे त्यां सुधी कर्ता- कर्मनी प्रवृत्ति छे अने त्यां सुधी कर्मनो बंध थाय छे. * * * ल्यो, हवे कर्ता-कर्मनो अधिकार आवे छे. आ समयसार तो भरतक्षेत्रनो भगवान छे. अहाहा....! शुं अद्भुत एनी रचना छे! अलौकिक गाथाओ अने अलौकिक टीका छे. देवाधिदेव अरिहंतदेवनी साक्षात् दिव्य-ध्वनिनो सार लईने श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे आ समयसारनी रचना करी छे. अहो समयसार! भावो ब्रह्मांडना भर्या! (तारामां).

पहेला अधिकारमां आचार्यदेवश्रीए जीव-अजीव द्रव्यनी भिन्नतानी वात करी; जीव अने अजीव द्रव्यो सौ स्वतंत्र अने भिन्न छे एम सिद्ध कर्युं. हवे जीव अने अजीव द्रव्योनी पर्यायमां (कर्ता-कर्म संबंधी) जे भूल थाय छे तेनी आ अधिकारमां वात छे. भाई! पर्यायमां जे भूल छे ते संसार छे, अने ते भूल मटतां, भूलनो अभाव थतां मोक्ष प्राप्त थाय छे. आ वात छे.

हवे प्रथम पंडित श्री जयचंद्रजी मांगळिकनुं पद कहे छेः-

कर्ताकर्मविभावने, मेटी ज्ञानमय होय,
कर्म नाशी शिवमां वसे, नमुं तेह, मद खोय.

कर्ता एटले थनारो. स्वतंत्रपणे करे ते कर्ता अने कर्तानुं इष्ट ते कर्म. ज्ञानीनुं इष्ट ज्ञान छे अने अज्ञानीनुं राग-द्वेष. अहीं कहे छे के आत्मा कर्ता अने राग-द्वेषादि विकार एनुं कर्म-ए विभाव एटले स्वभावथी विरुद्ध भाव छे, अज्ञान छे. अहाहा! हुं कर्ता अने पर्यायमां जे राग-द्वेषादि विकार थाय के ते वेळा जे ज्ञानावरणादि कर्म बंधाय ते मारुं कर्म-ए अज्ञान छे. आवा अज्ञानने दूर करीने जे ज्ञानभावे परिणमे ते राग-द्वेषनो कर्ता मटीने ज्ञाता थाय छे. प्रश्नः– अहीं पर्यायमां रागादि भाव छे तेथी परमाणुओ ज्ञानावरणादि कर्मपणे परिणमे छे ने?

उत्तरः– एम नथी, भाई! ए कर्मयोग्य परमाणुओनी कर्मभावे परिणमवानी जे ते समये योग्यता अने जन्मक्षण छे तेथी स्वयं ज्ञानावरणादि कर्मभावे परिणमे छे अने त्यारे रागादि भाव छे ते एमां निमित्त छे. रागादिथी ज्ञानावरणादि कर्म


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बंधाय छे एम कहेवुं ए तो निमित्तनुं कथन छे. आ प्रमाणे वस्तुस्वरूप जेम छे तेम यथार्थ समजवुं जोईए.

आत्मा त्रिकाळ एकरूप चैतन्यस्वभावमय भगवान छे. ते शुं करे? शुं ते रागादि विकार करे? शुं ते ज्ञानावरणादि कर्म करे? अहाहा....! ज्ञानानंदस्वरूपी सर्वज्ञस्वभावी भगवान आत्मा रागादि विकार करे के ज्ञानावरणादि जड कर्म करे ए वात जूठी छे. मात्र जाणवुं, जाणवुं, जाणवुं ए ज जेनो स्वभाव छे ते रागादि परने जाणे ए तो ठीक छे पण ते रागादि परने करे ए मान्यता विपरीत छे, अज्ञान छे. भाई! आ दया, दान आदि जे भाव थाय तेनो हुं कर्ता अने दया, दान आदि भाव ते मारुं कर्म तथा ते समये जे पुण्यकर्म बंधाय ते पण मारुं कर्म एवी मान्यता ते अज्ञान छे.

आ कर्ताकर्मविभावने-अज्ञानने मेटीने जे ज्ञाताभावे एक ज्ञायकना लक्षे परिणमे ते कर्मनो नाश करीने शिवमां वसे छे. शिवमां वसे छे एटले कल्याणपदने-सिद्धपदने प्राप्त थाय छे. ल्यो, एक कोर एम कहे के भावकर्मनो आत्मा नाश करे छे ए कथनमात्र छे (समयसार गाथा ३४), अने जड द्रव्यकर्मना नाशनो कर्ता तो आत्मा छे ज नहि कारण के द्रव्यकर्मनुं अकर्मपणे परिणमन थवुं ए तो परमाणुओनुं कार्य छे, आत्मानुं नहि; ज्यारे अहीं कहे छे ‘कर्म नाशी शिवमां वसे’-आ केवुं! भाई, आत्मा परमार्थे भावकर्म-द्रव्यकर्मनो नाश करतो नथी. परंतु ज्यां स्वयं, शुद्ध एक चिद्रूप ज्ञायकना लक्षे परिणम्यो अने ठर्याे त्यां पोते वीतरागदशाने पाम्यो तथा रागादि उत्पन्न ज थया नहि, अने द्रव्यकर्म पण अकर्मपणे परिणम्यां तो एटलुं देखीने व्यवहारथी एम कहेवामां आवे छे के एणे भावकर्म-द्रव्यकर्मनो नाश कर्यो. ‘णमो अरिहंताणं’ नथी कहेता? एटले के कर्मरूपी वैरीने भगवाने हण्या. परमार्थे भगवाने जडकर्मने तो हण्यां नथी पण रागादि भावकर्मने पण हण्यां नथी. भगवान तो स्वरूपस्थ थई पूर्ण वीतरागताने अने सर्वज्ञताने पाम्या छे. त्यारे रागादि भावकर्म उत्पन्न ज थयां नहि अने द्रव्यकर्म अकर्मपणे परिणमी गयां; तेथी भगवाने भावकर्म- द्रव्यकर्मनो नाश कर्यो एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे. आवो वीतरागनो मार्ग बहु सूक्ष्म छे, भाई! तेने समजवा तत्त्व-द्रष्टि केळववी जोईए.

आ प्रमाणे शिवपदने प्राप्त परम पवित्र परमात्माने, मद खोईने एटले के निर्मानता प्रगट करीने अत्यंत पवित्र भावथी हुं नमस्कार करुं छुं-एम पंडित श्री जयचंद्रजीए मांगळिक कर्युं छे.

प्रथम टीकाकार कहे छे के-‘हवे जीव-अजीव ज एक कर्ताकर्मना वेशे प्रवेश करे छे.’ जेम बे पुरुषो मांहोमांहे कोई एक स्वांग करी नृत्यना अखाडामां प्रवेश करे छे तेम जीव-अजीव बन्ने एक कर्ताकर्मनो स्वांग करी प्रवेश करे छे एम अहीं टीकाकारे


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अलंकार कर्यो छे. आ समयसार नाटक छे ने? जीव-अजीव छे तो बन्नेय भिन्न-भिन्न, परंतु बन्नेय जाणे एक होय तेम कर्ताकर्मनो स्वांग रचीने प्रवेश करे छे.

कर्ताकर्मनो स्वांग एटले हुं आत्मा कर्ता अने आ रागादि भाव ते मारुं कर्म-एम स्वांग रचीने प्रवेश करे छे. आ स्वांग जूठो छे केमके आत्मा चैतन्यप्रकाशनो पुंज, एकला ज्ञाननो रसकंद प्रभु ते दया, दान आदि विकारी परिणामने केम करे? ए तो सर्वने जाणे- बंधने जाणे, उदयने जाणे, निर्जराने जाणे अने मोक्षने जाणे-एवो ज्ञानस्वरूपी भगवान छे. (जुओ समयसार गाथा ३२०) तथापि हुं कर्ता अने रागादि अचेतन विकार ते मारुं कर्म एम अज्ञानीने भासे छे. अहाहा! हुं अखंड एक ज्ञायकस्वभावी आत्मा छुं-एवो जे विकल्प ऊठे तेनो कर्ता अज्ञानी थाय छे, ज्ञानी नहि. शुभाशुभ बन्नेय भावनो अज्ञानी कर्ता थाय छे, ज्ञानी नहि.

हवे प्रथम, ते स्वांगने ज्ञान यथार्थ जाणी ले छे तेथी ते ज्ञानना महिमानुं काव्य कहे छेः ते स्वांगने ज्ञान यथार्थ जाणी ले छे एटले जे समये अवस्थामां राग छे ते समये ज्ञाननी पर्याय स्वने स्वपणे अने रागने परपणे जाणवारूपे ज प्रगट थाय छे. अहाहा....! रागनो कर्ता तो जीव नथी, पण राग छे माटे रागसंबंधी ज्ञान थयुं छे एम पण नथी. रागनुं ज्ञान ए तो कथनमात्र छे. ज्ञाननुं ज्ञान छे अने ते ज्ञान आत्मानुं कर्म छे, राग आत्मानुं कर्म नथी अने ज्ञान रागनुं कर्म नथी. अहाहा! आम स्वांगने यथार्थ जाणनारुं ज्ञान ते ज्ञानना महिमानुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

कळश ४६ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन

आ कर्ताकर्म अधिकारनो पहेलो कळश छे. शुं कहे छे एमां? के-‘इह, ’ आ लोकमां ‘अहम् चिद्’ हुं चैतन्यस्वरूप आत्मा तो ‘एकः कर्ता’ एक कर्ता छुं अने ‘अमी कोपादयः’ आ क्रोधादि भावो ‘मे कर्म’ मारां कर्म छे ‘इति अज्ञानाम् कर्तृकर्म–प्रवृत्तिम्’ एवी अज्ञानीओनी जे कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति छे तेनेः शुं कह्युं? अज्ञानी एम माने छे के हुं कर्ता अने आ क्रोधादि मारां कर्म छे. क्रोधादि कह्यां एमां प्रथम क्रोध केम लीधो? कारण के मुनिराज छे ते (क्रोधना अभावपूर्वक) उत्तमक्षमाना भंडार छे. अहाहा....! मुनिराज तो चैतन्यस्वभावमय भगवान आत्मानी रुचि अने रमणताना स्वामी छे. भाई! आत्मा शुद्ध चिदानंदमय अखंड एकरूप वस्तु छे. तेनो जेने प्रेम नथी, रुचि नथी तेने पोताना आत्मा प्रति क्रोध छे. द्वेष अरोचक भाव. स्वभावनी अरुचि-अणगमो ते अनंतानुबंधी क्रोध छे. पुण्य-पापना भावो अने देव-शास्त्र-गुरु इत्यादि पर पदार्थोनी रुचि अने स्वस्वरूपनी अरुचि ते आत्मा प्रत्येनो द्वेष छे अने ते अनंतानुंबंधी क्रोध छे. तेवी रीते पुण्य-पाप आदि पर पदार्थोमां अहंबुद्धि थवी ए अनंतानुबंधी


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मान छे; पुण्य-पाप आदि पर पदार्थोना प्रेमनी आडमां चैतन्यस्वभावमय निज आत्मानो ईन्कार करवो ते अनंतानुबंधी माया छे तथा स्वभावने भूलीने पुण्य-पाप आदि पर पदार्थोनी अभिलाषा-वांछा करवी ते अनंतानुबंधी लोभ छे.

अहाहा....! निर्मळानंदनो नाथ भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यनो दरियो छे. तेने द्रष्टिमां न लेतां हुं एक कर्ता छुं अने अंदर जे पुण्य-पापना क्रोधादि विकार थाय छे ते मारुं एकनुं (एक स्वभावी आत्मानुं) कर्तव्य छे एवी जे मान्यता छे ते अज्ञान छे, मिथ्यादर्शन छे.

अहीं कहे छे के आ लोकमां अनादिथी अज्ञानीओने आ अज्ञानमय कर्ताकर्मप्रवृत्ति छे. दया, दान, व्रत, तप, आदि शुभ परिणाम अने हिंसादि अशुभ परिणाम-एम शुभाशुभ परिणामोनो हुं कर्ता छुं अने ते मारां कार्य छे, कर्तव्य छे-एवी अज्ञानीओनी कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति छे.

आ जे अज्ञानमय कर्ताकर्मप्रवृत्ति छे तेने ‘अभितः शमयत्’ बधी तरफथी शमावती (मटाडती) ‘ज्ञानज्योतिः’ ज्ञानज्योति ‘स्फुरति’ स्फुरायमान थाय छे.

अहाहा....! आ शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय इत्यादि पर पदार्थोनी अवस्था तो मारां कार्य नथी पण अंदर जे पुण्य-पापना शुभाशुभ भावो थाय छे ते पण मारां कार्य-कर्तव्य नथी. एम सर्व परभावोथी भिन्न पडी ज्यां निर्दोष, पवित्र चैतन्य-स्वभावमां एकाग्र थयो त्यां कर्ता-कर्मनी प्रवृत्तिने मटाडती ज्ञानज्योति प्रगट थाय छे. जे भावे सर्वार्थसिद्धनो भव मळे के जे भावे तीर्थंकरगोत्र बंधाय ते भाव मारुं-आत्मानुं कार्य नथी. भाई! स्वभावनी द्रष्टिमां सर्व शुभाशुभ विकल्पोनुं स्वामित्व सहज छूटी जाय छे. अहाहा....! इन्द्र-अहमिंद्रादि पद के चक्रवर्तीपद इत्यादि बधुं धूळ छे, परमाणुनुं कार्य छे, आत्मानुं नहि. आम बधी तरफथी कर्ता-कर्मनी प्रवृत्तिने मटाडती ज्ञानज्योति प्रगट थाय छे.

हवे कहे छे-केवी छे ते ज्ञानज्योति? ‘परम–उदात्तम्’ परम उदात्त छे अर्थात् कोईने आधीन नथी. अहाहा....! सहज ज्ञान अने आनंदनी लक्ष्मीवाळो मारो अपरिमित-बेहद ज्ञानानंदस्वभाव छे ते परम उदात्त छे, स्वाधीन छे. आम ज्ञानी ज्ञानमां पोताने जाणतो कर्ता-कर्मनी प्रवृत्तिने मटाडी दे छे. ज्ञानानंदस्वभावी आत्मानुं जेने भान नथी एवो अज्ञानी कर्मने आधीन थईने-विकारी भावने पोतानो मानीने रागनो-विकारनो कर्ता थाय छे. स्वाधीनपणे विकारनो नाशक मारो स्वभाव छे एनुं एने भान नथी. अहीं कहे छे के परम उदात्त जे आत्मा ज्ञानानंदस्वभावमय वस्तु-तेने लक्ष करीने, तेनी सन्मुख झुकीने वा तेमां ढळीने जे स्वाधीन ज्ञानपरिणति प्रगट थई ते परम उदात्त छे, स्वाधीन छे, पराधीन नथी. परनी के रागनी तेने अपेक्षा नथी.


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आ बधुं करवुं, करवुं, करवुं, -एवो जे भाव छे ते राग छे, अने राग मारो ए मान्यता मिथ्या दर्शन छे. आ मिथ्यादर्शनयुक्त जे कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति छे तेने ज्ञानज्योति मटाडे छे. केवी छे ते ज्ञानज्योति? तो कहे छे-त्रिकाळी ज्ञानानंदरूप स्वरूपलक्ष्मी ते आत्मस्वभाव छे अने ते परम उदात्त छे. आवा द्रव्यस्वभावमां अभेद थई, अर्थात् एमां ढळीने एकाग्र थई जे निर्मळ ज्ञानपरिणति प्रगट थई ते एम जाणे छे के हुं परम उदात्त छुं, पूर्णानंदनो नाथ, परम उत्कृष्ट पदार्थ छुं अहाहा....! ज्ञानीने पोतानी वर्तमान अल्पज्ञ दशामां हुं सर्वज्ञस्वभावी परिपूर्ण आत्मद्रव्य छुं एम जणाय छे अने एम ते माने छे.

अरे! लोकोने आवी वात सांभळवा मळे नहि एटले बिचारा शुं करे? बहारनी प्रवृत्ति अने क्रियाकांडना कर्तृत्वना फंदमां फसाई जाय छे. दया करो, दान करो, तप करो इत्यादि करो-करो-करो एम करवाना-कर्तृत्वना फंदमां फसाई जाय छे. परंतु बापु! करवुं ए तो वस्तुना (आत्माना) स्वरूपमां ज नथी. (केमके आत्मा तो सर्वज्ञस्वभावी छे). अहाहा....! जेमां बेहद ज्ञानस्वभाव तिरछो (तिर्यक्, सर्व प्रदेशे) भर्यो पडयो छे, एवो आनंद, एवी श्रद्धा, एवी कर्ता-कर्म-करण इत्यादि अनंत अपरिमित्त शक्तिओनो जे भंडार छे ते परमानंदनो नाथ प्रभु आत्मा छे. आवा आत्माने अंतर्मुख थई अंदरथी पकडतां- ग्रहतां जे ज्ञानज्योति प्रगट थई एमां ज्ञानीए जाण्युं के हुं परम उदात्त छुं, उदार छुं, स्वाधीन छुं, कोईने आधीन नथी. अहाहा....! वस्तु (आत्मा) स्वाधीन अने तेने ग्रहनारी- जाणनारी ज्ञानज्योति पण (परनी अपेक्षा रहित) स्वाधीन!

आवुं वस्तुस्वरूप भूलीने रागादि क्रियानो ज्यां सुधी कर्ता थाय त्यां सुधी जीव अज्ञानी छे, मिथ्याद्रष्टि छे. अज्ञानभावे ते विकारनो-दोषनो कर्ता छे. विकारनो कर्ता कोई जड कर्म छे एम नथी. परंतु वस्तुस्वरूपना अभानमां अज्ञानी जीव विकारनो कर्ता छे. आ बधी अज्ञानमय कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिने बधी तरफथी शमावती जे ज्ञानज्योति प्रगट थई ते परम उदात्त छे, स्वाधीन छे एनी वात थई.

वळी केवी छे ते ज्ञानज्योति? तो कहे छे-‘अत्यन्त धीरं’ अत्यंत धीर छे अर्थात् कोई प्रकारे आकुळतारूप नथी. अज्ञानीओ परनां कार्यो करवामां अने परनुं परिणमन बदलवाना विकल्पोमां घणी बधी आकुळता करे छे. कुटुंबनुं आ करुं अने समाजनुं आ करुं-एम कुटुंबनां, समाजनां, देशनां कार्यो करवाना विकल्पोथी तेओ खूब आकुळ-व्याकुळ थता होय छे. परंतु भाई! एक रजकण पण बदलवानुं तारुं-आत्मानुं सामर्थ्य नथी. तारो तो ज्ञ-स्वभाव छे अने तेना आश्रये उत्पन्न थयेली ज्ञानज्योति धीर छे, अनाकुळस्वरूप छे, अत्यंत आनंदरूप छे. चैतन्यमय ज्ञानज्योति साथे अतीन्द्रिय आनंद पण भेगो ज छे.