Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 71.

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अहाहा....! आ ज्ञानज्योति अत्यंत धीर छे. गमे तेवा प्रतिकूळ संजोगो होय तोपण एमां मुंझवण नथी, आकुळता नथी. ज्ञानज्योति प्रगट थतां धर्मी जीव एम जाणे छे के हुं परनुं कांई (परिणमन) करी शकुं नहि तथा पर मारुं कांई (परिणमन) करी शके नहि. प्रत्येक परिणमनने जाणवानो मारो स्वभाव छे, बदलवानो नहि. आवी ज्ञानज्योति प्रगट थतां अज्ञानभावे जे कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति थती हती ते सहेजे दूर थई जाय छे, अने निराकुळ आनंद प्राप्त थाय छे.

प्रश्नः– शास्त्रोमां एम आवे छे के जेटलुं रागनुं परिणमन थाय तेटला परिणमननो हुं कर्ता छुं एम ज्ञानी जाणे छे. तो आ केवी रीते छे?

उत्तरः– भाई! ए ज्ञानप्रधान कथन छे. सम्यग्ज्ञान थया पछी धर्मी जाणे छे के जेटलुं रागनुं परिणमन छे ए मारा पोताना (पर्यायरूप) अस्तित्वमां छे अने ते मारे लईने छे, एमां परनी साथे शुं संबंध छे? आम ते ज्ञानमां जाणे छे. परंतु द्रष्टिना विषयनी अपेक्षाए रागनुं कर्तृत्व त्रिकाळी ज्ञानस्वरूप द्रव्यमां छे ज नहि. त्रिकाळी द्रव्यस्वभावमां राग के रागनुं कर्तापणुं छे ज नहि. आवा त्रिकाळी शुद्ध आत्मद्रव्यने जाणनारी ज्ञाननी पर्याय, पर्यायमां अंशे रागादि छे एने पण जाणे छे, अने ते पोतानुं कार्य छे, परिणमन छे अने पोते एनो कर्ता छे एम व्यवहारे जाणे छे.

भाई! निश्चयथी विकारनुं कर्ता-कर्मपणुं ज्ञानीने नथी; तथापि पर्याय अपेक्षाए व्यवहारथी ते वर्तमान विकारनो कर्ता-भोक्ता छे. ज्यां जे अपेक्षाथी कथन होय ते अपेक्षा लक्षमां लई तेनो भाव बराबर समजवो जोईए.

विकार थवामां परद्रव्यनी साथे शुं संबंध छे? परद्रव्य तो पोताथी तद्न भिन्न छे. पर्यायमां जे विकार थयो ते पोतानो ज अपराध छे. तथापि ते करवा लायक छे एवी बुद्धि ज्ञानीने छूटी गई छे. पर्यायमां परिणमन छे ए अपेक्षाए त्यां व्यवहारथी कर्ता कहेवामां आवे छे, पण स्वभाव द्रष्टिए एनुं स्वामित्व ज्ञानीने नथी. (ए अपेक्षाए ज्ञानी रागनो अकर्ता छे.)

आत्मामां विकारने-रागने न करे एवो अकर्ता नामनो गुण छे. दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना रागने न करे एवी आत्मामां अकर्तृत्व नामनी शक्ति छे. ज्ञानमां ज्यां ज्ञायकभावने पकडयो त्यां शुभाशुभ विकारभावोनुं कर्तापणुं मटी जाय छे; आ अकर्तृत्व शक्तिनुं निर्मळ परिणमन छे. आ प्रमाणे ज्ञायकना लक्षे उत्पन्न थयेली ज्ञानज्योति अज्ञानरूप कर्ता-कर्मनी प्रवृत्तिने बधी तरफथी मटाडी दे तेवी धीर छे, अनाकुळ छे. भाई! आवी जैनधर्मनी सूक्ष्म वात दिगंबर धर्म सिवाय बीजे कयांय नथी, अने आ ज वात सत्य छे. लोकोए बहारथी कल्प्यो छे एवो जैनधर्म छे ज नहि. अहीं


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कहे छे के अंदर ज्यां ज्ञानस्वभावी शुद्ध आत्माने ग्रह्यो त्यां ज्ञानी-धर्मी एम जाणे छे के हुं अत्यंत धीर छुं, अनाकुळ आनंदरूप छुं. आ जैनधर्म छे.

वळी ते (ज्ञानज्योति) ‘निरुपधि–पृथग्द्रव्य–निर्भासि’ परनी सहाय विना जुदां जुदां द्रव्योने प्रकाशवानो जेनो स्वभाव होवाथी ‘विश्वम् साक्षात् कुर्वत्’ समस्त लोकालोकने साक्षात् करे छे-प्रत्यक्ष जाणे छे. शुं कह्युं? के ज्ञातास्वभावना आश्रये जे ज्ञानपर्याय प्रगटी तेनो स्वभाव जुदां जुदां द्रव्योने प्रकाशवानो छे. ज्ञाननो सविकल्प स्वभाव छे. एटले जेटलां (अनंत) द्रव्य- गुण-पर्याय छे ते सर्वने भिन्नभिन्नपणे जाणे एवो एनो स्वभाव छे. केवळज्ञाननी पर्यायमां के श्रुतज्ञाननी पर्यायमां परनी सहाय विना जुदां जुदां द्रव्योने-द्रव्य-गुण-पर्याय-बधांने प्रकाशवानो स्वभाव छे. अहीं कहे छे के अपरिमित स्वभावथी भरेली शुद्ध चैतन्यप्रकाशमय वस्तु जे आत्मा-एमां ढळतां ज्ञानमां एवुं सामर्थ्य प्रगट थयुं के ते द्रव्यने-स्वने जाणे अने लोकालोकने पण जाणे. ज्ञाननी पर्यायनो आवो स्वपरप्रकाशक स्वभाव पोताथी छे. अहो! करे नहि कोईनुं (परिणमन) अने जाणे सौने-लोकालोकने एवो ज्ञानस्वभावी आत्मा छे.

* कळश ४६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आवो ज्ञानस्वरूप आत्मा छे ते, परद्रव्य तथा परभावोना कर्तापणारूप अज्ञानने दूर करीने, पोते प्रगट प्रकाशमान थाय छे.’ जुओ, शरीर, मन, वाणी, कुटुंब, देश इत्यादिनुं हुं करुं ए कर्तापणानुं अज्ञान छे. देहने आम सद्-उपयोगमां वाळुं, लक्ष्मीनो सदुपयोग करुं, देशने सुधारी दउं, दानादि वडे पुण्य उपजावुं इत्यादि प्रवृत्ति ए कर्तापणानुं अज्ञान छे. ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा आवा अज्ञानने दूर करीने पोते प्रगट प्रकाशमान थाय छे. पोते एटले परनी अपेक्षा विना, रागनी मंदतानी अपेक्षा विना, व्यवहारनी अपेक्षा विना, भेदना लक्ष विना अभेद एक निर्मळ ज्ञानस्वभावना लक्षे ज्ञानज्योति प्रगट प्रकाशमान थाय छे. आ कळशनो भावार्थ छे.

हवे, ज्यां सुधी आ जीव आस्रवना अने आत्माना विशेषने (तफावतने) जाणे नहि त्यां सुधी ते अज्ञानी रह्यो थको, आस्रवोमां पोते लीन थतो, कर्मोनो बंध करे छे एम गाथामां कहे छेः-

* समयसारः गाथा ६९–७० *

अहा! कुंदकुंदाचार्यदेव गाथाओमां कहे छे के सर्वदर्शी-सर्वज्ञ भगवान आम कहे छे.

प्रश्नः– जो भगवान कहे छे तो भगवान वाणीना कर्ता छे के नहि?

उत्तरः– परमार्थे भगवान वाणीना कर्ता नथी. वाणी तो जड छे. एनो कर्ता आत्मा नथी. भगवान आम कहे छे एम जे अहीं कह्युं छे ए तो व्यवहार नयनुं


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कथन छे. भाई! वाणी तो स्वयं वाणीना कारणे नीकळे छे, आत्माना कारणे नहि. उपदेश वखते ज्ञानी एम जाणे छे के आ वाणी अमारी-आत्मानी नथी. वाणी जडनी छे.

वाणीमां स्वपरने कहेवानुं सामर्थ्य छे अने भगवान आत्मामां स्वपरने जाणवानुं सामर्थ्य छे. वाणीमां जे स्वपरने कहेवानुं सामर्थ्य छे ते आत्माथी थयुं छे एम नथी.

ज्ञानी धर्मात्मा अज्ञानीने व्यवहार द्वारा समजावे छे. त्यां अज्ञानी व्यवहारने ज चोंटी पडे छे. ते कहे छे-तमे अमने समजावो छो, तो समजावाथी अमे समजीए एम मानीने समजावो छो के नहि? तमे उपदेश करो छो, तो अमने ज्ञान थाय ए माटे करो छो के खाली एम ने एम करो छो? जो उपदेशथी-निमित्तथी कांई न थाय तो तमे मौन रहोने? सौ पोतपोतानी मेळे समजी जशे.

समाधानः– भाई! कोई कोईने समजावी दे ए वस्तुनुं स्वरूप ज नथी, ए तो व्यवहारनी कथन शैली छे. उपदेश तो सौ सांभळे छे पण जे स्वयं विकल्परहित थई अंतर्मुख थवानो उद्यम करे छे ते समजे छे, अन्य नहि. उपदेश सांभळीने पण जे समजे छे ते पोते पोताथी पोताना कारणे समजे छे अने बीजो मौन होय ते वेळा जे समजे छे ते पण पोते पोताथी समजे छे. दरेक वखते समज तो अंदरथी आवे छे, बाह्य उपदेशथी के मौनथी नहि.

प्रश्नः– तो धवलमां एम आवे छे के-ज्ञान कर्ता अने वाणी कर्म-एनो शुं आशय छे?

उत्तरः– भाई! ए तो निमित्तनुं कथन छे. निमित्त कर्ता तरीके कहेवाय, पण एनो अर्थ ए छे के ते कर्ता छे ज नहि. बापु! आत्महित करवुं होय तो वादविवाद छोडीने (स्याद्वाद शैली वडे) समजे तो समजाय एवुं छे. ‘भगवान आम कहे छे’ ए तो व्यवहारथी कहेवामां आव्युं छे, भगवान वाणीना कर्ता यथार्थमां छे ज नहि.

* गाथा ६९–७०ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जेम आ आत्मा, जेमने तादात्म्यसिद्ध संबंध छे एवा आत्मा अने ज्ञानमां विशेष (तफावत, जुदां लक्षणो) नहि होवाथी तेमनो भेद (जुदापणुं) नहि देखतो थको, निःशंक रीते ज्ञानमां पोतापणे वर्ते छे.’

पाठमां (गाथामां) प्रथम बीजी वात छे. अहीं टीकाकार प्रथम सवळेथी शरू करे छे. कहे छे-भगवान आत्मा अने ज्ञान ए बेमां जुदाई नथी. ज्ञान अने आत्मा बन्ने तादात्म्यपणे एकरूप छे. ज्ञानस्वभाव अने आत्मा एक ज वस्तु छे, बन्नेमां तफावत नथी. तेमनां लक्षणो जुदां नथी. धर्मी जीव, सम्यग्द्रष्टि जीव तेमने जुदां नहि देखतो थको निःशंकपणे ज्ञानमां पोतापणे वर्ते छे, एटले के आत्मामां पोतापणे वर्ते छे.


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जडनां काम आत्मा करे ए मान्यता मूढ मिथ्याद्रष्टिनी छे. जडनां कार्यो जडथी थाय, आत्माथी त्रणकाळमां नहि-आ वस्तुस्थिति छे. विश्वमां अनंत पदार्थो अनंतपणे एकबीजाथी पृथक्पणे रहेला छे ते एकबीजानुं(कार्य) करे तो अनंतता रहे नहि, पृथक्ता रहे नहि. अनंत आत्मा, अनंत पुद्गलो आदि विश्वमां अनंत द्रव्यो छे. ते सौ पोतपोताथी छे. द्रव्य-गुण तो पोताथी छे पण ते ते द्रव्योनी पर्यायो पण पोताथी छे. त्यारे ज ते अनंतपणे रहे छे. आत्मा अज्ञानपणे रागने करे अने ज्ञानपणे जाणवानी क्रिया करे. शरीर, वाणी, पैसा इत्यादि जडनी क्रिया आत्मा कदीय न करे-न करी शके. अहीं कहे छे के ज्ञान अने आत्माने जुदां नहि देखतो ज्ञानी निःशंकपणे ज्ञानमां वर्ते छे. ज्ञान अने आत्मा एक छे, माटे ज्ञानमां वर्ते छे ते आत्मामां वर्ते छे. जाणवुं, जाणवुं, जाणवुं एवो जे ज्ञानस्वभाव अने आत्मा बन्ने एक अभेद छे. तेथी रागनुं लक्ष छोडी दई जे ज्ञानमां वर्ते छे ते आत्मामां वर्ते छे, पोतामां वर्ते छे.

अने त्यां ज्ञानमां पोतापणे वर्ततो ते, ज्ञानक्रिया स्वभावभूत होवाने लीधे निषेधवामां आवी नथी माटे, जाणे छे-जाणवारूप परिणमे छे. ज्ञान ज्ञानमां-त्रिकाळी आत्मामां एकाग्र थयुं ते ज्ञाननी क्रिया छे. ज्ञान ते हुं एम जे ज्ञाननुं परिणमन थयुं ते ज्ञाननी क्रिया निषेधवामां आवी नथी. पर्याय स्वद्रव्य तरफ ढळतां जे ज्ञाननी क्रिया थई ते धर्म-क्रिया छे अने ते निषेधी नथी. परंतु परलक्षे जे रागनी क्रिया थई ते निषेधी छे.

त्रण प्रकारनी क्रियाः १. शरीर, मन, वाणी, धनादि जे जड परद्रव्य छे तेनी क्रिया ते जडनी क्रिया. २. पर-द्रव्यना लक्षे उत्पन्न रागनी क्रिया ते विभावरूप क्रिया. ३. स्वरूपना लक्षे उत्पन्न ज्ञाननी क्रिया ते स्वभावभूत क्रिया.

जडनी क्रिया तो आत्मा त्रण काळमां करतो नथी, करी शक्तो नथी. अने ज्ञान ते आत्मा-एम ज्ञानमां पोतापणे निःशंकपणे वर्ततो ते रागनी क्रियाने पण करतो नथी. ज्ञान ते आत्मा-एम स्वभावसन्मुख थई स्वानुभव करतां ते ज्ञानक्रिया करे छे. आमां द्रव्य-गुण- पर्याय त्रणे सिद्ध थई गयां. आ जाणवुं, जाणवुं, जाणवुं-एवो जेनो स्वभाव छे ते द्रव्य आत्मा, जाणवुं जे स्वभाव ते गुण. गुण अने गुणी बे एक अभिन्न छे-एम जे स्वलक्षे परिणमन थयुं ते ज्ञानक्रिया-पर्याय. आ ज्ञानक्रिया ते धर्म छे, मोक्षमार्ग छे.

ज्ञान ते आत्मा-एम स्व तरफ ढळतां जे स्वात्मप्रतीति थई ते श्रद्धान, स्वात्मज्ञान थयुं ते ज्ञान अने स्वात्मस्थिरता थई ते चारित्र. आ श्रद्धान-ज्ञान-चारित्रनी एकरूप परिणति ते मोक्षमार्ग छे. अहो! आ कर्ता-कर्म अधिकारमां आचार्योए


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अद्भुत वातो करी छे! आवो अधिकार बीजे कयांय छे ज नहि. आ समयसार तो बेजोड- बेनमून ग्रंथ छे.

प्रश्नः– रागनो कर्ता आत्मा नथी तो रागनो कर्ता कोण छे? कोई ईश्वर छे के पुद्गल कर्म?

उत्तरः– रागनो कर्ता कोई इश्वरेय नथी के परद्रव्य पण नथी. राग पोतानी पर्यायमां पोताना कारणे थाय छे त्यारे एमां पुद्गलकर्म निमित्त छे, बस.

अहीं कहे छे के आत्मानो स्वभाव जे शुद्ध चैतन्य ते तरफ ढळतां ज्ञाननी जे क्रिया थई ए निर्मळ परिणति छे. ए सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी दशा छे अने ते स्वभावभूत होवाथी निषेधवामां आवी नथी. अहाहा! द्रष्टि अंतर्मुख ढळतां ज्ञानमां एकाग्रतानी जे क्रिया थई ते स्वभावभूत छे. एटले जेवो स्वभाव छे ते जातनी ज क्रिया थई छे. तेथी ते निषेधी शकाती नथी.

केटलाक कहे छे के ‘क्रियानो लोप कर्यो, क्रियानो लोप कर्यो’ तेने अहीं कहे छे के- भाई! आ ज्ञानक्रियानो लोप नथी, आ ज्ञानक्रिया तो धर्मीने होय छे केमके ते स्वभावभूत छे. आत्मा अने ज्ञानमां विशेषता (तफावत) नथी-एम बन्नेमां जुदापणुं नहि देखतो थको धर्मी निःशंक रीते ज्ञानमां पोतापणे वर्ते छे. ज्ञानक्रिया जे थई ते स्वभावभूत छे तेथी निषेधी शकाती नथी.

गाथा १७-१८नी टीकामां आवे छे के-‘समस्त अन्य भावोनो भेद थवाथी निःशंक ठरवाने समर्थ थवाने लीधे आत्मानुं आचरण उदय थतुं आत्माने साधे छे.’ ‘आ अनुभूति छे ते ज हुं छुं-अहाहा....! ज्ञानमां जे अनुभूतिस्वरूप त्रिकाळी भगवान जणायो ते ज हुं छुं एम ज्ञानक्रियानी साथे ज श्रद्धाननो उदय थाय छे अने त्यारे दया, दान, व्रत, आदि समस्त परभावोनो भेद थवाथी स्वभावमां ठरवाने ते समर्थ थाय छे. आ प्रमाणे स्वरूपमां निःशंक ठरवाने लीधे ते आत्मानुं अनुष्ठान-आत्मानी रमणताने प्राप्त थाय छे. आ आत्मानी सिद्धिनी रीत छे, आ ज मोक्षमार्ग छे अने ते स्वभावभूत छे.

वळी त्यां ज (गाथा १७-१८नी टीकामां) आगळ कह्युं छे के आबाळगोपाळ सौने ज्ञाननी पर्यायमां जाणनारो-जाणकस्वभावी अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा सदा जणाय छे, केमके ज्ञाननी पर्यायनो स्वपरप्रकाशक स्वभाव छे तेथी ते स्वने जाणे छे. परंतु एना (ज्ञायकस्वभावी आत्माना) उपर अज्ञानी जीवनी द्रष्टि नथी. तेथी हुं रागने अने परने ज जाणुं छुं एम अज्ञानी माने छे.

एकलुं ज्ञाननुं दळ एवो आत्मा ज सौने सदाकाळ जणाय छे. छतां रागने वश थयेलो अज्ञानी ‘आ अनुभूति छे ते हुं छुं’-एम ज्ञायक प्रति नजर करतो नथी.


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तेथी तेने आत्मा तिरोभूत थाय छे, अने पोताने पर अने राग जणाय छे एम ते माने छे. अज्ञानीने स्व उपर द्रष्टि नथी केमके ते पर्यायमां ज ऊभो छे.

अहीं कहे छे के-ज्ञानीने, वस्तुनो त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यस्वभाव एना प्रति ढळतां जे निर्मळ ज्ञानपरिणति थई ते स्वाभाविक क्रिया छे, अने तेनो निषेध नथी माटे ते जाणे छे- जाणवारूप परिणमे छे अने ते धर्म छे. वस्तुस्वभाव ते धर्म एम कह्युं छे ने? वस्तुनो त्रिकाळी ध्रुव ज्ञायकस्वभाव ते धर्मी छे अने तेमां ढळेली धर्मीनी जे निर्मळ ज्ञानपरिणति ते धर्म छे, ते मोक्षमार्ग छे. ज्ञाननुं ज्ञानपणे परिणमवुं ते एनुं कर्म एटले कार्य छे.

प्रश्नः– ‘ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्षः’-अमे कह्युं छे ने?

उत्तरः– हा, भाई! ते बराबर छे, पण कयुं ज्ञान अने कयी क्रिया? शुं शास्त्रनुं परलक्षी ज्ञान ते ज्ञान छे? शुं व्रतादि मंद रागनुं आचरण ते क्रिया नाम चारित्र छे? ना, हो; भाई! एम नथी. आत्मज्ञान विना अगियार अंग अने नवपूर्वना ज्ञाननी लब्धि प्रगटी; पण ते ज्ञान नथी. वर्तमान ज्ञाननी पर्यायमां (स्वसंवेदनपूर्वक) आ त्रिकाळी ध्रुव भगवान आत्मा ते हुं-एम जे जणायो ते ज्ञान छे, आत्मज्ञान छे. तथा ए ध्रुव ज्ञायकमां एकाग्रता-रमणता थई ते क्रिया एटले चारित्र छे. आ ज्ञान अने क्रिया ते मोक्षनो मार्ग छे. एनी पूर्णता ते मोक्ष छे. आवी वात जाणे नहि अने मंडी पडे बाह्य व्रत-तप आदि क्रियामां तो तेथी मोक्ष न थाय. अज्ञानपूर्वकनां आचरण ए तो बंधमार्ग छे, भाई.

प्रश्नः– ज्ञानरूपे तो अज्ञानी पण हंमेशां परिणमे छे?

उत्तरः– ना, एम नथी. अज्ञानी एक समय पण ज्ञानपणे परिणमतो नथी. ए तो कह्युं ने के ज्ञाननी पर्यायमां ध्रुव ज्ञानस्वरूपी आत्मा जणाय छे, पण आ ध्रुव ज्ञान ते हुं- एम ते कयां जाणे अने माने छे? ए तो जे राग अने पर जणाय छे ए ज मारां ज्ञेय छे एम माने छे. परंतु राग अने परथी लक्ष दूर करीने द्रष्टि स्व भणी वाळतां ज्ञाननी पर्यायमां ‘आ ज्ञायक छे ते हुं छुं’-एम ज्ञायकने जाणवापणे अज्ञानी परिणमतो नथी.

हवे कहे छे-‘तेवी रीते ज्यां सुधी आ आत्मा, जेमने संयोगसिद्ध संबंध छे एवा आत्मा अने क्रोधादि आस्रवोमां पण, पोताना अज्ञानभावने लीधे, विशेष नहि जाणतो थको तेमनो भेद देखतो नथी त्यां सुधी निःशंक रीते क्रोधादिमां पोतापणे वर्ते छे.’

जुओ, गाथानो मूळ भाव हवे शरू थाय छे. शुं कहे छे? के क्रोध, मान, माया, लोभ इत्यादि शुभाशुभ भावो अने आत्माने संयोगसिद्ध संबंध छे. जेनो संयोग थईने वियोग थाय तेने संयोगसिद्ध संबंध कहेवाय. दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि


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शुभ भावो अने हिंसा, जूठ आदि अशुभ भावो-ए बधा संयोगी भावो छे केमके तेमनो वियोग थई जाय छे. आ क्रोधादि भावो साथे आत्मानो एक समय पूरतो ज संबंध छे. (एक समयमां तेओ नाश पामे छे) अने बीजा समये बीजा नवा उत्पन्न थाय छे, तथा आत्माना भान अने स्थिरता वडे तेओ अत्यंत मूळमांथी ज नाश पामी जाय छे. केवलज्ञान थतां विकारीभावो अत्यंत नाश पामी जाय छे. माटे क्रोधादि भावो आत्मा साथे उत्पाद-व्यय संबंधे छे पण ध्रुवसंबंधे नथी, एकरूप संबंधे नथी. दया, दान, इत्यादि शुभ परिणाम के पांच महाव्रतना शुभ परिणाम के व्यवहार रत्नत्रयना परिणाम ए बधा संयोगीभाव होवाथी तेमनो आत्मा साथे संयोगसिद्ध संबंध छे. वळी ते बधा भावो निमित्तना संगे उत्पन्न थयेला छे ने? तेथी पण ते संयोगी भावो छे. ज्ञान अने आत्माने स्वभावसिद्ध संबंध छे, एकरूपतानो संबंध छे. ज्ञान अने आत्मा एक छे. तेथी ज्ञानमां पोतापणे प्रवर्ततां ज्ञानी आत्माना मार्गे प्रवर्ते छे. त्यां आत्मानुं ज ज्ञान, आत्मानुं श्रद्धान अने आत्मानी रमणता-स्थिरता थाय छे अने ते धर्मनी क्रिया छे. प्रश्नः– ज्ञाननी पर्याय पण बदलाय तो छे? तेनो पण उत्पाद-व्यय तो थाय छे? उत्तरः– ज्ञाननी पर्याय (केवळज्ञाननी पण) बदलाय तो छे. तेनो पण उत्पाद-व्यय तो थाय छे. परंतु जेवो आत्मानो शुद्ध चैतन्यस्वभाव छे ते ज जातनो तेमां उत्पाद-व्यय थाय छे. बदलाय छे तोपण ज्ञाननी पर्याय चैतन्यस्वभावमय ज रहे छे. माटे ज्ञाननी निर्मळ पर्यायने आत्मा साथे स्वभावसिद्ध संबंध छे, तादात्म्यसंबंध छे. अहीं कहे छे के आत्मा अने क्रोधादि आस्रवोने संयोगसिद्ध संबंध छे छतां पोताना अज्ञानभावने लीधे ज्यां सुधी तेमनो एटले स्वभाव-अने विभावनो विशेष जाणतो नथी, भेद देखतो नथी त्यां सुधी ते अज्ञानी निःशंकपणे विकारीभावोमां-आस्रवोमां पोतापणे वर्ते छे. पुण्य-पापना भाव, दया, दान, व्रत आदिना शुभभाव अने आत्माने स्वभावसिद्ध संबंध नथी पण संयोगसिद्ध संबंध छे. पंचाध्यायीमां आ शुभाशुभ विकारी भावोने ‘आगंतुक’ कह्या छे. आगंतुक एटले (एक समय पूरता) नवा महेमान तरीके आवेला भाव कह्या छे. संयोगीभाव कहो के आगंतुक कहो-एक ज अर्थ छे. हवे ज्यां सुधी पोताना अज्ञानपणाने लीधे-कर्मने लीधे एम नहि पण पोताना अज्ञानने लीधे, रागादि विभावभावो अने अखंड एकरूप चैतन्यस्वभाव-ए बन्नेनो भेद अज्ञानी जाणतो नथी त्यां सुधी ते निःशंकपणे विभावमां-विकारमां पोतापणे वर्ते छे. अहाहा! आत्मानो स्वभाव तो शुद्ध चैतन्यमय अमृतस्वरूप छे. पण अज्ञानीने एनो कदी अनुभव नथी. तेथी ज्ञान ते हुं एम न जाणतां राग-


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विकार ते हुं एम माने छे अने तेथी रागादि विकारमां पोतापणे वर्ते छे. पण भाई! राग ए तो झेर छे बापु! झेर पीतां पीतां अमृत (आत्मा)नो स्वाद न आवे, राग छे ए रोग छे अने राग मारो एवो मिथ्यात्वभाव महान रोग छे. कह्युं छे ने के ‘आत्म-भ्रान्ति सम रोग नहि, सद्गुरु वैद्य सुजाण.’ अनादिनो एने आत्मभ्रान्तिनो रोग लागु पडयो छे. तेने मटाडवानी आ वात चाले छे.

आत्मा अंतरमां स्वभावथी भगवान स्वरूपे बिराजे छे. तेने भूलीने अज्ञानी निःशंक रीते क्रोधादि विभावोमां पोतापणे वर्ते छे. ‘अने त्यां (क्रोधादिमां पोतापणे) वर्ततो ते, जोके क्रोधादि क्रिया परभावभूत होवाथी निषेधवामां आवी छे तोपण ते स्वभावभूत होवानो तेने अध्यास होवाथी क्रोधरूप परिणमे छे, रागरूप परिणमे छे, मोहरूप परिणमे छे.’

शुं कह्युं? क्रोधादि क्रिया परभावभूत होवाथी निषेधवामां आवी छे. व्यवहार रत्नत्रयना परिणाम, दया, दान, व्रतादिना परिणाम संयोगीभाव होवाथी परभावभूत छे. तेथी ते विकारी क्रिया निषेधवामां आवी छे. छतां ते रागनी क्रिया मारी पोतानी क्रिया छे एम मानवानो तेने चिरकाळथी अध्यास छे. अहा! राग छे ते मारो स्वभाव छे एम मानवानी अज्ञानीने टेव-आदत थई गई छे. तेथी जेम विष्टाना कीडाने फरी फरीने विष्टामां जवानी टेव पडी गई होय छे तेम अज्ञानीने वारंवार क्रोधरूपे, रागरूपे अने मोहरूपे परिणमवानी टेव पडी गई छे. ते प्रमाणे ते निःशंक क्रोधरूपे परिणमे छे, रागरूपे परिणमे छे, मोहरूपे परिणमे छे. आ रीते ते रागादिमां एकपणे परिणमतो मिथ्यात्वना भावरूपे परिणमे छे.

‘हवे अहीं, जे आ आत्मा पोताना अज्ञान भावने लीधे, ज्ञानभवनमात्र जे सहज उदासीन (ज्ञाता-द्रष्टा मात्र) अवस्था तेनो त्याग करीने अज्ञानभवन व्यापाररूप अर्थात् क्रोधादि व्यापाररूप प्रवर्ततो प्रतिभासे छे ते कर्ता छे.’ ज्ञानव्यापारथी भिन्न लक्षणवाळा पुण्य-पापना जे क्षणिक विकारो पर्यायमां थाय छे ए ज जाणे पोतानो स्वभाव होय एम अज्ञानी माने छे. आम रागादि विकारथी एकत्व माननारो अज्ञानी, ज्ञाताद्रष्टानी सहज उदासीन अवस्थाने छोडी दईने रागादि विकारनो कर्ता थाय छे. अहाहा....! वस्तुनो सहज चैतन्यस्वभाव तो एवो छे के एमांथी ज्ञाताद्रष्टानी सहज उदासीन निर्मळ अवस्था ज थाय विकारनी नहि, केमके वस्तुमां विकार छे ज कयां? ज्ञानभवनमात्र एटले जाणवुं, जाणवुं, जाणवुं-एम सहज जाणनरूप ज्ञाताद्रष्टाना परिणमननी क्रिया थवी जोईए. परंतु अज्ञान वडे तेनो त्याग करीने अज्ञानी क्रोधादि क्रियामां एकत्वपणे प्रवर्ते छे अने तेथी क्रोधादिमां प्रवर्ततो ते क्रोधादिनो कर्ता छे.

प्रश्नः- ज्ञानीने पण पर्यायमां रागादि थाय छे ने?


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उत्तरः– हा, ज्ञानीने पर्यायमां रागादि थाय छे-थई जाय छे. परंतु ज्ञानी तेमां तन्मयपणे परिणमतो नथी. हुं रागादिनो कर्ता छुं एम एने रागादिनुं स्वामित्व नथी. ए तो पर्यायमां थता रागादिने जाणवापणे ज परिणमे छे. जुओ! मुनिराज अमृतचंद्राचार्यने टीकाना काळमां टीका करवानो विकल्प उत्पन्न थयो छे, पण ते विकल्पना कर्तापणे परिणम्या नथी, पण सहज जाणवापणे-ज्ञातापणे परिणम्या छे. अहीं कहे छे के अज्ञानी सहज उदासीन जाणनक्रियानो त्याग करीने, रागमां एकत्व स्थापीने रागादि क्रियामां प्रवर्ते छे अने तेथी ते रागादिनो कर्ता छे. तेने ज्ञान प्रतिभासवाने बदले एकला रागादि ज प्रतिभासे छे अने तेथी रागादिमां प्रवर्ततो ते रागादिनो कर्ता छे. ‘अने ज्ञानभवनव्यापाररूप प्रवर्तनथी जुदां, जे क्रियमाणपणे अंतरंगमां उत्पन्न थतां प्रतिभासे छे एवां क्रोधादिक ते, (ते कर्तानां) कर्म छे.’ निर्मळ ज्ञानना परिणमनथी जुदा-विरुद्ध लक्षणवाळा जे पोताथी (हुं करुं छुं एवा अभिप्रायथी) कराय छे एवा अंतरंगमां उत्पन्न थता क्रोधादिक भाव ते मारां कर्म छे एम अज्ञानी माने छे. आत्मा कर्ता अने क्रोधादिक भाव ते मारुं कर्म-आ प्रमाणे अनादिकाळनी अज्ञानथी थयेली आ आत्मानी कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति छे. अने आ ज संसारनुं कारण छे. आत्मा परनो अकर्ता छे, केमके ते परथी भिन्न छे. बीजाने सुधारवा-बगाडवा ए तो अज्ञानभावे पण आत्मानुं कर्म नथी. बापु! आ समज्ये ज छूटको छे हो. जोता नथी! क्षणवारमां देह छोडीने चाल्या जाय छे. भाई! आ समज्या विना ते कयां जशे? कयां उतरशे? स्वरूपने समज्या विना आ कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति ऊभी ज रहे छे, अने त्यां सुधी जन्म-मरणनी परंपरा ऊभी ज रहे छे. स्वरूप समज्ये ज जन्म-मरणनो अंत आवे तेवो छे. हवे कहे छे-‘ए रीते पोताना अज्ञानने लीधे कर्ताकर्मभाव वडे क्रोधादिमां वर्तता आ आत्माने, ते ज क्रोधादिनी प्रवृत्तिरूप परिणामने निमित्तमात्र करीने पोते पोताना भावथी ज परिणमतुं पौद्गलिक कर्म एकठुं थाय छे.’ जुओ! आत्मा अज्ञानभावे क्रोधादिनो कर्ता थाय छे. त्यां ते क्रोधादि परिणामने निमित्तमात्र करीने पोताना भावथी ज पुद्गलकर्म बंधाय छे. निमित्तमात्र करीने-एम कह्युं छे. एनो अर्थ ए के निमित्तनी उपस्थिति छे, बस एटलुं ज. जीवने क्रोधादि भाव थाय छे माटे त्यां कर्म एकठुं थाय छे एम नथी. कर्म, कर्मना रजकणना सामर्थ्यथी बंधाय छे. रजकणमां परिणमवानुं सामर्थ्य छे. लख्युं छे ने के ‘पोते पोताना भावथी ज परिणमतुं पौद्गलिक कर्म एकठुं थाय छे.’ अहो! आ तो स्वतंत्रतानो ढंढेरो छे! आवी स्वतंत्रतानी वात दिगंबर धर्म सिवाय बीजे कयांय नथी. अरे! दिगंबरमां पण आ काळे एने समजनारा बहु अल्प जीवो छे! जीव अज्ञानवश शुभाशुभ विकारभावे परिणमे छे त्यारे ते वखते कर्मपणे


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परिणमवानी पौद्गलिक कर्म-रजकणोनी लायकात छे तेथी स्वकाळे ते कर्मनी अवस्था थाय छे. जीवना शुभाशुभ परिणामने लईने नवुं कर्म बंधाय छे एम नथी. शुभाशुभ परिणाम तो बाह्य निमित्तमात्र छे. कर्म रजकणो पोतानी मेळे स्वतंत्र परिणमी जाय छे. अहो! समयसारनी टीका अद्भुत अने अजोड छे! आवी वात सांभळवा मळे ए जीवनुं महा सौभाग्य छे. अने तेनो भाव समजे ए तो न्याल थई जाय एवी आ चीज छे.

अहा! ज्ञानरूपे न परिणमतां रागरूपे परिणम्यो-ए तेनो स्वकाळ छे माटे रागरूपे परिणम्यो छे. कर्मनो उदय छे माटे रागरूपे परिणम्यो छे एम नथी. तथा ज्ञानरूपे परिणमतां कर्मनो अभाव थयो माटे कर्मनो अभाव थयो तेथी ज्ञानरूपे परिणम्यो एम पण नथी. ज्ञान अने आत्मा एक छे-एम जे ज्ञानमां पोतापणे वर्ततो परिणम्यो ते दर्शनमोहनो अभाव छे माटे परिणम्यो छे एम नथी. तथा दर्शनमोहनो उदय छे माटे मोहभावे परिणम्यो छे एम पण नथी. (बन्नेनी परिणमनधारा स्वतंत्र छे). निमित्त छे, बस एटली वात छे. परमाणुमां कर्मरूप अवस्था थवानो तेनो स्वकाळ छे तेथी पोतानी योग्यताथी कर्मरूप परिणमे छे.

जीवना विकारी भावने निमित्तमात्र करीने कर्म पोते पोताथी ज परिणमतुं त्यां एकठुं थाय छे. ‘आ रीते जीव अने पुद्गलनो परस्पर अवगाह जेनुं लक्षण छे एवा संबंधरूप बंध सिद्ध थाय छे.’ अहीं टीकामां त्रण प्रकारना संबंध कह्या-

१. ज्ञान अने आत्मानो तादात्म्यसिद्ध संबंध. २. राग अने आत्मानो संयोगसिद्ध संबंध. ३. कर्म अने आत्मानो परस्पर अवगाहसिद्ध संबंध.

वस्तुनो स्वभाव ज्ञान अने वस्तु ध्रुव आत्मा ए बेनो तादात्म्यसिद्ध संबंध छे अने तेमां अभेदभावे परिणमवुं ते धर्म छे.

राग अने आत्मानो संयोगसिद्ध संबंध छे छतां बेने एक मानीने परिणमवुं ते अज्ञान छे.

कर्म अने आत्मानो एक क्षेत्रावगाह संबंध छे. एटले के कर्म अने आत्मा परस्पर एक ज्ञेत्रमां व्यापीने संनिकट रहे एवा संबंधरूप बंध छे. जीवना परिणामनुं निमित्त पामीने कर्मना पुद्गलो एक क्षेत्रे अवगाहीने रहे छे तोपण भावथी तद्न जुदा छे. एक क्षेत्रे रहे छे तेने परस्पर अवगाह जेनुं लक्षण छे एवा संबंधरूप बंध कहेवाय छे.

हवे कहे छे-‘अनेकात्मक होवा छतां (अनादि) एक प्रवाहपणे होवाथी जेमांथी ईतरेतराश्रय दोष दूर थयो छे एवो ते बंध, कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिनुं निमित्त जे अज्ञान तेनुं निमित्त छे.’


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अनेकात्मक एटले जीव-पुद्गलनो एम बे द्रव्योनो जे बंध छे एमां ईतरेतराश्रय दोष नथी, केमके अनादि प्रवाहपणुं छे. (आनाथी आ अने एनाथी ए-एने ईतरेतराश्रय दोष कहे छे. जीवना राग-परिणामथी बंध अने ए ज बंधथी रागपरिणाम थाय तो ईतरेतराश्रय दोष कहेवाय. परंतु एम नथी. अज्ञानी जीव रागद्वेषरूपे परिणमे त्यारे नवां कर्म बंधाय अने ते अमुक स्थिति सुधी एकक्षेत्रावगाहे रहे; तथा जे रागद्वेषरूपे परिणमे छे एमां पूर्वना कर्मनो उदय निमित्त होय छे. आ प्रमाणे जे परिणामथी कर्मनो बंध थयो ते बंध विकार परिणामनुं निमित्त थतुं नथी, पण ते परिणाममां जूना कर्मनो उदय निमित्त थाय छे. तथा जे विकारी परिणाम थया ते नवीन कर्मबंधनुं निमित्त थाय छे. आ प्रमाणे ईतरेतराश्रय दोष नथी.)

पहेलां आत्मा शुद्ध हतो अने पछी विकारी थयो, पहेलां कर्मबंध नहोतो अने पछीथी कर्म बंधायां एम नथी. अर्थात् आत्माना विकारी परिणामथी कर्म थयां अने कर्मथी विकारी परिणाम थया एम नथी. बन्ने अनादिथी स्वतःसिद्ध छे. अनादिकाळथी कर्म कर्मरूपे अने आत्माना परिणाम विकाररूपे स्वतंत्रपणे थता आव्या छे. कोईथी कोई थया छे एम नथी. अनादिथी पुराणां कर्म खरतां जाय अने एनुं निमित्त पामीने जीवमां नवा नवा विकारी परिणाम थता जाय तथा एनुं निमित्त पामीने नवां कर्म बंधातां जाय एम प्रवाह छे; आ प्रमाणे अनादि प्रवाहपणाने लीधे जीव-पुद्गलनो जे बंध थाय छे एमां ईतरेतराश्रय दोष नथी.

अनादिकाळथी आवो जे बंध छे ते कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिनुं निमित्त जे अज्ञान तेनुं निमित्त छे.

कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिनुं निमित्त अज्ञान छे. अने अज्ञाननुं निमित्त पूर्वनां जूनां कर्मनो बंध छे. अज्ञान कांई आत्मानो मूळ स्वभाव नथी. अज्ञान-पर्याय स्वयं (अशुद्ध) उपादान छे अने तेनुं निमित्त पूर्वनो कर्मबंध छे. कर्म छे ते कांई अज्ञान करावी दे छे एम नथी, परंतु पोते ज्यां लगी राग-द्वेष-अज्ञान कर्या करे छे त्यां लगी कर्म निमित्त थाय छे.

निज चैतन्यस्वभावना लक्षे जेने अज्ञान टळी जाय छे तेने कर्ताकर्म प्रवृत्ति मटे छे अने कर्मबंध पण टळी जाय छे. तथा जे स्वभावना लक्षे परिणमतो नथी तेने अज्ञान छे, तेने कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति छे अने नवो नवो कर्मबंध पण छे. आवी वात छे.

* गाथा ६९–७०ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आ आत्मा जेम पोताना ज्ञान-स्वभावरूप परिणमे छे तेम ज्यांसुधी क्रोधादिरूप पण परिणमे छे, ज्ञानमां अने क्रोधादिमां भेद जाणतो नथी, त्यांसुधी तेने कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति छे.’


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जेम अग्निमां उष्णता एकरूप छे तेम आत्मा अने एनो ज्ञानस्वभाव एकरूप छे, तद्रूप छे, तादात्म्यरूप छे. आवा ज्ञानस्वभावी आत्मानी सन्मुख थई एकाग्रता थतां जे परिणमन थयुं ते ज्ञाननी क्रिया छे. ते सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म छे. आ क्रिया निज स्वभावरूप होवाथी निषेधी शकाती नथी. परंतु ज्ञान अने रागादि विकार भिन्न छे. ज्ञान आनंदस्वरूप छे अने विकार दुःखरूप छे. आम ज्ञान अने रागादि विकारनी भिन्नता नहि जाणवाथी, जाणे के पुण्य-पापना शुभाशुभ विकारी भाव पोतानो स्वभाव छे एम मानीने ज्यांसुधी शुभाशुभभावे परिणमे छे त्यांसुधी ते (अज्ञानी) विकारी परिणामनो कर्ता थाय छे, अने विकारी परिणाम तेनुं कर्म छे. परद्रव्यनो कर्ता तो आत्मा छे ज नहि, केमके परद्रव्य भिन्न स्वतंत्र चीज छे. ए (परद्रव्य) स्वयं पोताना कारणे परिणमे छे. छतां परद्रव्यने हुं करुं छुं. शरीर, मन, वाणीनी क्रिया हुं करुं छुं-एम जे माने ते मिथ्याद्रष्टि छे. तथा पर्यायमां जे शुभाशुभ विकारी भावो थाय, दया, दान आदिना परिणाम थाय तेनो हुं कर्ता छुं एम माने ते पण अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे. अहाहा....! आत्मा वस्तु ज्ञानस्वभावी, सर्वज्ञस्वभावी त्रिकाळी ध्रुव सहज शुद्ध द्रव्य छे. एमां राग नथी, पुण्य नथी, पाप नथी, विकार नथी के अल्पज्ञता नथी. ए तो अनंत शक्तिओनो पिंड परिपूर्ण चैतन्य भगवान छे. एमां ज्यां द्रष्टि एकाग्र थई त्यां परिणमन निर्मळ थयुं. ए निर्मळ परिणमन आत्मानी स्वभावभूत धार्मिक क्रिया छे अने ते निषेधवामां आवी नथी. परंतु आ अखंड एकरूप चैतन्य भगवान ते हुं एम पोताना अस्तित्वनो अज्ञानीने स्वीकार नथी. ए तो दया, दान, व्रतादिना परिणाम जे राग छे ते मारा छे, एम माने छे. अने एम मानीने रागभावे परिणमतो ते रागनो कर्ता थाय छे. अरे! जगतना जीवोने आवा सूक्ष्म तत्त्वनी खबर ज कयां छे! परंतु भाई! आ समजवुं पडशे. आ समज्या विना जन्म-मरणथी छूटवानो बीजो कोई उपाय नथी. अरे! जगतना जीवोए रागनी रुचिमां चैतन्यस्वभावी निज आत्मानो त्याग करी दीधो छे, त्रणलोकना नाथने हेय करी दीधो छे. आनाथी बीजो क्रोध अने द्वेष शुं छे? निर्मळानंदनो नाथ चैतन्यस्वभावी भगवान आत्मानी सन्मुख न जोतां एनाथी विरुद्ध रागमां एकत्व करी जोडाई जवुं ए ज क्रोध अने द्वेष छे. अहीं कहे छे ज्ञानस्वरूपी आत्मा अने क्रोध-मान-माया-लोभरूप विकारो ए बेनी भिन्नता जाणतो नथी त्यां सुधी जीवने कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति छे. विकारी परिणाम ते मारुं कर्तव्य अने हुं तेनो कर्ता एम अज्ञानी माने छे, अने एम परिणमे छे. शरीर, मन, वाणी इत्यादि परद्रव्यनी क्रियानो


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कर्ता-ए वात तो अहीं छे ज नहि, केमके परद्रव्य तो भिन्न स्वतंत्र छे. एनी क्रियानो कर्ता तो अज्ञानी पण नथी.

अरे! जीवने पोतानी दरकार नथी के अरे! मारुं शुं थशे? रात-दिवस रळवुं-कमावुं, खावुं-पीवुं, हरवुं-फरवुं इत्यादिमां ज समय वीती जाय छे. आ तो समय (कल्याण करवानो) वीती जाय छे. भाई! तुं मरीने तत्त्वनी द्रष्टि विना कयां जईश? त्रणलोकना नाथ देवाधिदेव परमात्मा कहे छे के-तुं आत्मा छो, पुण्य-पापना भाव ए तो आस्रव छे. ए आस्रव तुं नथी. आम बन्नेनी भेदद्रष्टि करी ज्ञानस्वरूपी निज आत्मतत्त्वने ग्रहण कर, केमके ते स्वभावभूत क्रिया छे, धर्मनी क्रिया छे.

तद्न सीधी सरळ वात छे. समजवा मागे तो समजाय एम छे. आत्मा अने आस्रवनो ज्यां लगी भेद जाणे नहि त्यां सुधी कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति पर्यायमां रह्या करे छे.

क्रोधादिरूप परिणमतो ते पोते कर्ता छे अने क्रोधादि तेनुं कर्म छे. खरेखर तो ते समयनी पर्याय ते ज कर्ता अने ते ज एनुं कर्म छे. जे शुभाशुभ राग परिणाम छे एनो कर्ता ए पर्याय, कर्म पण ए पर्याय, साधन-संप्रदान, अपादान अने अधिकरण -ए पर्याय छे. पर्यायनां षट्कारक स्वतंत्र छे. एनाथी ते परिणाम स्वतंत्र उत्पन्न थाय छे. अज्ञानी ते विकारी परिणामनो पोताने कर्ता मानी विकारीकर्मपणे परिणमे छे अने ते संसार छे. एनाथी नवो बंध थाय छे.

धर्मी जीव आत्मा अने रागने भिन्न जाणतो ज्ञाननी क्रियारूप परिणमे छे. ज्ञाननी क्रियानो हुं कर्ता अने ज्ञाननी क्रिया ते मारुं कर्म एम धर्मी माने छे. खरेखर तो ज्ञाननी निर्मळ पर्यायनो कर्ता ए पर्याय पोते, एनुं कर्म पण ए पर्याय पोते छे. निर्मळ पर्याय पण एना षट्कारकथी स्वतंत्रपणे उत्पन्न थाय छे. ध्रुवमां एकाग्र थतां जे स्वभावपर्याय थई ते धर्म छे. ए पर्यायनो कर्ता पर्याय छे. अहीं आत्मा एनो कर्ता छे एम कह्युं ते अभेदथी वात करी छे.

‘अनादि अज्ञानथी कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति छे, कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिथी बंध छे अने ते बंधना निमित्तथी अज्ञान छे; ए प्रमाणे अनादि संतान छे, माटे तेमां ईतरेतराश्रय दोष आवतो नथी.’

जुओ! स्वरूपना भान विना विकारनो स्वामी थई जीव पोते विकार करे त्यारे नवो कर्म-बंध थाय छे. जे कर्म बंधाय छे ते स्वयं स्वतः पोताना कारणे बंधाय छे. कर्मरूपे बंधावानी लायकातवाळा परमाणु स्वयं पोताथी कर्मरूपे परिणमे छे. त्यां जीव अने कर्मनुं एकक्षेत्रावगाहे रहेवुं ए संबंध छे, पण एकबीजाना कर्ताकर्मपणे थवुं एवो संबंध नथी.


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ए बंधना निमित्तथी अज्ञान छे. एटले के ए बंधना उदयकाळे पोते स्वतंत्रपणे नवुं अज्ञान करे छे त्यारे पूर्वकर्मनो बंध निमित्त छे. बंधने लईने अज्ञान छे एम नथी पण पोते स्वयं अज्ञानरूपे परिणमे छे त्यारे पूर्वना बंधना उदयने तेनुं निमित्त कहेवामां आवे छे. बंधनुं तो निमित्त छे, उपादान स्वयं पोतानुं अज्ञान (पर्याय) छे. आ प्रमाणे अनादि संतान छे, प्रवाह छे. नवा कर्मबंधनुं निमित्त अज्ञानभाव छे अने ए अज्ञानभावनुं निमित्त तो जूनां पूर्वनां कर्मनो उदय छे. आ प्रमाणे अनादि प्रवाह छे, माटे एमां इतरेतराश्रय दोष आवतो नथी.

प्रश्नः- ‘मोहावरणक्षयात्’–शास्त्रमां तो एम आवे छे ने?

उत्तरः– ‘मोहावरणक्षयात्’ एटले मोहनो सर्वथा क्षय थवाथी सर्वज्ञपद प्रगट थाय छे. परंतु त्यां जे स्वदोष छे ते निश्चयथी आवरण छे अने कर्मनुं निमित्त छे ते व्यवहारथी आवरण छे.

वळी ज्यां एम आवे के बे कारणोथी कार्य थाय छे-१. उपादानकारण अने २. सहकारीकारण. त्यां एनो अर्थ ए छे के सहकारी (निमित्तपणे) एक चीज छे तेनुं ज्ञान कराव्युं छे, पण सहकारी कारणथी उपादानमां कार्य थाय छे एम बीलकुल नथी. रागनी उत्पत्ति आत्मा स्वतः पोताना अज्ञानभावथी करे छे अने कर्मनो बंध पण स्वतः (रजकणोनी) पोतानी योग्यताथी थाय छे. विकार थवानी पोतानी योग्यता छे अने जे कर्म बंधायां ते एनी योग्यताथी बंधायां छे. विकार कर्यो माटे कर्मने बंधावुं पडयुं एम नथी, तथा कर्मना उदयना कारणे विकार थयो एम पण नथी. सर्वत्र योग्यता ज कार्यनी साक्षात् साधक छे. निमित्त ए वास्तविक कारण नथी, उपचारथी कारण कहेवाय छे.

आ रीते ज्यां सुधी आत्मा अज्ञानथी क्रोधादि कर्मनो कर्ता थई परिणमे छे त्यांसुधी कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति छे अने त्यांसुधी कर्मनो बंध थाय छे.

[प्रवचन नं. ११प, ११६, ११७ * दिनांक ४-७-७६ थी ६-७-७६]

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गाथा–७१

कदाऽस्याः कर्तृकर्मप्रवृत्तेर्निवृत्तिरिति चेत्–

जइया इमेण जीवेण अप्पणो आसवाण य तहेव।
णादं होदि विसेसंतरं तु
तइया ण बंधो से।। ७१।।

यदानेन जीवेनात्मनः आस्रवाणां च
तथैव।
ज्ञातं भवति विशेषान्तरं तु तदा न बन्धस्तस्य।। ७१।।

हवे पूछे छे के आ कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिनो अभाव कयारे थाय छे? तेनो उत्तर कहे छेः-

आ जीव ज्यारे आस्रवोनुं तेम निज आत्मा तणुं,
जाणे विशेषांतर, तदा बंधन नहीं तेने थतुं. ७१.

गाथार्थः– [यदा] ज्यारे [अनेन जीवेन] आ जीव [आत्मनः] आत्माना [तथा एव च] अने [आस्रवाणां] आस्रवोना [विशेषान्तरं] तफावत अने भेदने [ज्ञातं भवति] जाणे [तदा तु] त्यारे [तस्य] तेने [बन्धः न] बंध थतो नथी.

टीकाः– आ जगतमां वस्तु छे ते स्वभावमात्र ज छे, अने ‘स्व’नुं भवन ते स्व- भाव छे (अर्थात् पोतानुं जे थवुं-परिणमवुं ते स्वभाव छे); माटे निश्चयथी ज्ञाननुं थवुं- परिणमवुं ते आत्मा छे अने क्रोधादिकनुं थवुं-परिणमवुं ते क्रोधादि छे. वळी ज्ञाननुं जे थवुं- परिणमवुं छे ते क्रोधादिकनुं पण थवुं-परिणमवुं नथी, कारण के ज्ञानना थवामां (-परिणमवामां) जेम ज्ञान थतुं मालूम पडे छे तेम क्रोधादिक पण थतां मालूम पडतां नथी; अने क्रोधादिकनुं जे थवुं-परिणमवुं ते ज्ञाननुं पण थवुं-परिणमवुं नथी, कारण के क्रोधादिकना थवामां (-परिणमवामां) जेम क्रोधादिक थतां मालूम पडे छे तेम ज्ञान पण थतुं मालूम पडतुं नथी. आ रीते आत्माने अने क्रोधादिकने निश्चयथी एकवस्तुपणुं नथी. आ प्रमाणे आत्मा अने आस्रवोनो विशेष (-तफावत) देखवाथी ज्यारे आ आत्मा तेमनो भेद (भिन्नता) जाणे छे त्यारे आ आत्माने अनादि होवा छतां पण अज्ञानथी उत्पन्न थयेली एवी (परमां) कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति निवृत्त थाय छे; तेनी निवृत्ति थतां अज्ञानना निमित्ते थतो पौद्गलिक द्रव्यकर्मनो बंध पण निवृत्त थाय छे. एम थतां, ज्ञानमात्रथी ज बंधनो निरोध सिद्ध थाय छे.

भावार्थः– क्रोधादिक अने ज्ञान जुदी जुदी वस्तुओ छे; ज्ञानमां क्रोधादिक नथी,


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क्रोधादिकमां ज्ञान नथी. आवुं तेमनुं भेदज्ञान थाय त्यारे तेमना एकपणारूप अज्ञान मटे अने अज्ञान मटवाथी कर्मनो बंध पण न थाय आ रीते ज्ञानथी ज बंधनो निरोध थाय छे.

हवे पूछे छे के आ कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिनो अभाव कयारे थाय छे? तेनो उत्तर कहे छेः-

* * *

* गाथा ७१ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘आ जगतमां वस्तु छे ते स्वभावमात्र ज छे, अने ‘स्व’नुं भवन ते स्वभाव छे. (अर्थात् पोतानुं जे थवुं-परिणमवुं ते स्वभाव छे); माटे निश्चयथी ज्ञाननुं थवुं-परिणमवुं ते आत्मा छे अने क्रोधादिकनुं थवुं-परिणमवुं ते क्रोधादि छे.’

जुओ! आ वस्तुनी व्याख्या कही. वस्तु छे ते स्वभावमात्र ज छे. एटले जेटलो स्वभाव छे तेटली ज वस्तु छे. जेटलो विकार छे ते परमार्थ वस्तु-आत्मा नथी. अहाहा....! जे भावे सर्वार्थसिद्धिनुं पद मळे के जे भावे तीर्थंकर नामकर्म बंधाय ते भाव आत्मा नथी एम अहीं कहे छे. स्वभावमां पण वस्तु तो नथी पण आ जे क्रोधादिनुं थवुं-परिणमवुं छे ते पण वस्तु नथी, आत्मा नथी.

‘स्व’नुं भवन ते स्वभाव छे. पोतानुं जे थवुं-परिणमवुं ते स्वभाव छे. आ सिद्धांत कह्यो. माटे निश्चयथी ज्ञाननुं थवुं-परिणमवुं ते आत्मा छे. अहाहा....! निश्चयथी ज्ञाननुं थवुं एटले जेवो ज्ञानस्वभाव छे ते-रूपे परिणमवुं ते आत्मा छे. सम्यग्दर्शनपणे, सम्यग्ज्ञानपणे, सम्यक्चारित्रपणे, अतीन्द्रिय आनंदपणे परिणमवुं ते आत्मा छे. आत्मा निर्मळ ज्ञान- श्रद्धान-शान्तिपणे परिणमे ते आत्मा छे.

प्रश्नः- तो नियमसारमां शुद्धभाव अधिकारनी गाथा ३८ मां तो एम आवे छे के त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यस्वभावमय वस्तु छे ते आत्मा छे. त्यां संवर, निर्जरा अने मोक्षनी पर्यायने तो हेय कहीने ते आत्मा नथी एम कह्युं छे. आ केवी रीते छे?

उत्तरः– भाई! त्यां नियमसारमां अपेक्षा जुदी छे. त्यां तो ध्यातानुं जे ध्येय, जे सम्यग्दर्शननो विषय त्रिकाळी शुद्धभाव, शुद्ध चैतन्यमय वस्तु छे ते बताववानुं प्रयोजन छे. त्रिकाळी शुद्ध वस्तु, अविनाशी आत्मा ते एकना आश्रये ज सम्यग्दर्शन आदि धर्म थाय छे माटे तेने उपादेय कह्यो. ज्यारे पर्याय तो क्षणविनाशी छे अने तेना आश्रये सम्यग्दर्शन थतुं नथी पण विकल्प थाय छे तेथी संवर, निर्जरा, मोक्षनी पर्यायने त्यां (आश्रय करवा माटे) हेय कही. वळी त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यमां पर्याय नथी तेथी ते (निर्मळ पर्याय) आत्मा नथी एम कह्युं छे. ज्यारे अहीं तो कर्तानुं कर्म बताववानी वात छे. एटले कहे छे के वस्तु रागपणे न परिणमतां स्वभावपणे-ज्ञानपणे परिणमे ते आत्मा


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छे. रागनुं थवुं, रागपणे परिणमवुं ते आत्मा नहि. आत्मा तो शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावी वस्तु छे. माटे निर्मळ ज्ञान-आनंदपणे परिणमवुं ते आत्मा छे. जेवो आत्मानो स्वभाव छे ते-रूपे तेना परिणमननी दशा थाय ते आत्मा छे. जेवी शुद्ध चैतन्यमय वस्तु छे तेवुं (शुद्ध चैतन्यमय) परिणमन थवुं ते कर्तानुं कर्म छे एम अहीं वात छे.

दया, दान, व्रत आदि शुभरागना विकारी परिणाम ते मारुं कर्म अने हुं तेनो कर्ता- एम अज्ञानी माने छे. ज्ञानी तो कहे छे के ज्ञानस्वभावना लक्षे जे निर्मळ ज्ञानरूपे परिणमन थयुं ते मारुं कर्म छे, राग थाय ते मारुं कर्म नहि. आवो वीतरागनो मार्ग बहु झीणो छे. परंतु लोकोए बहारथी क्रियाकांडने ज धर्म मान्यो छे. घणाने एम थाय के आ तो व्यवहारनो लोप थाय छे, परंतु अहीं तो स्पष्ट कहे छे के रागभाव ए तारा स्वरूपमां नथी अने तेने तुं तारुं कार्य माने ए अज्ञान छे.

ज्ञाननुं थवुं-परिणमवुं ते आत्मा छे अने क्रोधादिकनुं थवुं-परिणमवुं ते क्रोधादि छे. स्वभावने भूलीने पुण्य-पापना विकारी भावरूपे थवुं ए विकार छे, आत्मा नथी. शुभरागरूपे परिणमवुं ए स्वभाव प्रत्येना विरोधवाळो भाव क्रोध छे. एवा क्रोधपणे थयो ते आत्मा नथी, अनात्मा छे. जगतनी वातोथी घणो फेर छे. जगत माने के न माने वात तो आ ज सत्य छे. जगत तो अनादिथी ऊंधे रस्ते छे.

‘वळी ज्ञाननुं जे थवुं-परिणमवुं छे ते क्रोधादिकनुं पण थवुं-परिणमवुं नथी, कारण के ज्ञानना थवामां (परिणमवामां) जेम ज्ञान थतुं मालूम पडे छे तेम क्रोधादिक पण थतां मालूम पडतां नथी.’

शुं कह्युं? ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा ज्ञानरूपे परिणमे ते वखते विकारपणे पण परिणमे एम नथी. अहाहा....! शुद्ध चैतन्यस्वभाव प्रति ढळीने चैतन्यनी रुचिपूर्वक जेने अंतर-परिणमन थयुं तेने रागादि-क्रोधादिनी रुचि नथी. एक म्यानमां बे तलवार रही शक्ती नथी. धर्मी जीव ज्ञानस्वभावना प्रेमपणे परिणमे ते वखते रागना प्रेमपणे पण परिणमे एम बीलकुल होई शके नहि.

स्वभावपणे परिणमन थवुं ते ज्ञानीनुं कर्म अने रागपणे परिणमन थवुं ते अज्ञानीनुं कर्म छे. परनुं करवुं ए वात तो छे ज नहि. परनुं कार्य तो कोई करी शक्तो ज नथी. आवुं धर्मनुं तत्त्व घणुं सूक्ष्म छे. भाई! जेने विकल्पनो द्वंद्व छूटी, स्वभावना आश्रये निर्विकल्प निर्विकारी ज्ञाननुं परिणमन थवुं ते धर्म छे. अहाहा....! मुनिदशामां तो त्रण कषायनो अभाव थई अंदर अतीन्द्रिय आनंदनी लहेर ऊठती होय छे, अने बहारमां सहज नग्न दशा होय छे. अंदर कषायथी नग्न अने बहार वस्त्रथी नग्न-एवी शुद्ध चैतन्यना आनंदमां झूलती मुनिदशा कोई अलौकिक चीज छे, बापु!


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आत्मानो चैतन्यस्वभाव अरूपी अतिसूक्ष्म छे. दया, दान, व्रत, भक्ति आदि शुभरागना परिणामने पुण्य-पाप अधिकारमां स्थूळ कह्या छे. जे पोताना सूक्ष्म स्वभावे परिणमे तेने आत्मा कहीए, अने राग-द्वेषना स्थूळ विकारपणे परिणमे तेने आत्मा नहि एटले अनात्मा कहीए. अहीं कहे छे के जे चैतन्यस्वभावे-आत्मभावे परिणमे ते साथे रागादि अनात्मभावे पण परिणमे एम बनी शके नहि.

प्रश्नः– ज्ञानीने पण रागादि तो होय छे?

उत्तरः– हा, साधकदशामां ज्ञानीने पण राग होय छे, पण ज्ञानपणे परिणमता ज्ञानीना ज्ञानपरिणमनथी ते राग भिन्न रही जाय छे. जे राग थाय तेने जाणवापणे एटले के तेना ज्ञातापणे ज्ञानी परिणमे छे. कर्तापणे नहि. जे राग आवे तेने जाणतो ज्ञानी ज्ञानरूपे परिणमे छे पण रागरूपे परिणमतो नथी. ज्ञानीने जे राग थाय तेनां एने रुचि अने स्वामित्व नथी.

ज्ञाननुं परिणमवुं ते क्रोधादिनुं परिणमवुं नथी. कारण? कारण के ज्ञानना थवामां जेम ज्ञान थतुं मालूम पडे छे तेम क्रोधादिक पण थतां मालूम पडतां नथी. अहाहा...! ज्ञानानंदस्वभावी वस्तु आत्मा ज्यारे ज्ञान अने आनंद स्वभावे निर्मळ परिणमतो भासे छे ते वखते ते रागपणे के क्रोधादिपणे परिणमतो भासतो नथी. परिपूर्ण वीतरागता न थई होय त्यां सुधी ज्ञानीने राग आवे खरो, परंतु तेने (रागने) जाणवापणे हुं परिणमुं छुं, रागपणे नहि एम ते माने छे. आ सांभळीने कोई कहे के आ तो बधी निश्चयनी वातो छे. परंतु भाई! निश्चयनी वात एटले ज साची वात. भाई! वस्तु-स्वरूप ज आवुं छे. ‘जैन तत्त्वमीमांसा’मां पंडित श्री फूलचंदजीए लख्युं छे के पोताना स्वभावनी पुष्टि करवी ए निश्चय छे.

भाई! बहु धीरजथी आ समजवा जेवी वातो छे. प्रथम एम सिद्ध कर्युं के आत्मा स्वभावमात्र वस्तु छे. प्रभु! तुं कोण छो? तो कहे छे के-तुं स्वभावमात्र वस्तु छो, चैतन्यमात्र वस्तु छो; राग अने पुण्य पाप ए तुं नहि. अहाहा...! आवी चैतन्यस्वभावमय वस्तु-आत्माने द्रष्टिमां लेतां जे स्वभावनुं-चैतन्यनुं परिणमन थाय ते धर्म छे अने ते वेळा धर्मी जीवने जेम चैतन्यनुं परिणमन थतुं मालूम पडे छे तेम रागनुं परिणमन थतुं मालूम पडतुं नथी. बहु झीणी वात, भाई! कहे छे के बन्ने क्रिया एक साथे थई शक्ती नथी. अहाहा...! रागथी भिन्न पडीने स्वभावपणे ज्यां ज्ञान परिणम्युं त्यां ज्ञानीने-हुं कर्ता अने जे ज्ञाननी पर्याय थई, आनंदनी पर्याय थई ते मारुं कार्य एम प्रतिभासे छे पण हुं राग करुं छुं अने राग मारुं कार्य एम प्रतिभासतुं नथी. अहो! धर्मना स्थंभ एवा दिगंबर संतोए गजबनी वातो करी छे. धर्मना स्वरूपनी आवी वात बीजे कयांय नथी.


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हवे कहे छे-‘अने क्रोधादिकनुं जे थवुं-परिणमवुं ते ज्ञाननुं पण थवुं-परिणमवुं नथी, कारण के क्रोधादिकना थवामां जेम क्रोधादिक थतां मालूम पडे छे तेम ज्ञान पण थतुं मालूम पडतुं नथी.’ जीव क्रोधादि कषायनी रुचिपणे परिणमे ते वखते चैतन्य-स्वभावपणे-ज्ञानपणे पण परिणमे एम होई शक्तुं नथी एम अहीं कहे छे.

जुओ! कर्ताकर्म सिद्ध करवुं छे ने! अहीं बे वात करी छे.

१. जेने चैतन्यस्वभावमय शुद्ध आत्मानी द्रष्टि थई ते जीव (ज्ञानी)ने पोते ज्ञानपणे, आनंदपणे, शांतिपणे परिणमे छे एम भासे छे पण रागपणे, आकुळतापणे, अशांतिपणे परिणमे छे एम मालूम पडतुं नथी.

२. अने स्वभावना भान विना ज्यारे जीव (अज्ञानी) क्रोधादि कषायनी-रागनी रुचिपणे परिणमे त्यारे क्रोधादि कषायरूपे थतो मालूम पडे छे पण ज्ञानपणे-शुद्धपणे परिणमतो मालूम पडतो नथी.

अहीं तो चैतन्यस्वभाव अने कर्म विभाव ए बन्नेने भिन्न पाडया छे. पर्याय उपरनी द्रष्टि छोडीने जेने द्रव्य उपर द्रष्टि गई एने ज्ञान अने आनंदनुं ज कर्म छे. ए ज्ञान अने आनंदनो ज कर्ता छे. खरेखर तो पर्याय पोते कर्ता अने पर्याय पोते ज कर्म छे. ४७ नयना अधिकारमां जे एम कह्युं छे के-राग छे ते मारुं परिणमन छे एम ज्ञानी जाणे छे त्यां, रागमां भळीने एने जाणे छे एम नथी, पण रागथी भिन्न रहीने जाणे छे. अहीं कहे छे के भगवान पूर्णानंदस्वरूप आत्मानुं जेने भान थयुं तेने ज्ञान अने शांतिनुं ज एकलुं वेदन छे. अने व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादि शुभरागथी धर्म थाय छे एम जेने रागनी रुचि छे एवो मिथ्याद्रष्टि जीव पोते रागपणे परिणमतो भासे छे, पण ज्ञानपणे परिणमतो भासतो नथी.

प्रश्नः– तो शुं ज्ञानीने रागनुं परिणमन छे ज नहि?

उत्तरः– भाई! एम नथी. पर्यायमां ज्यां सुधी पुरुषार्थनी मंदता छे त्यां सुधी ज्ञानीने (यथासंभव) रागनुं परिणमन छे, पण ते एने जाणे छे. व्यवहारे जाणेलो प्रयोजनवान छे एम (गाथा १२ मां) कह्युं छे ने? एटले के राग जे अशुद्धतानो अंश छे तेने ते जाणे छे- जाणवापणे परिणमे छे (कर्तापणे नहि). भाई! स्वभावनी रुचिना परिणमन वखते विकारनी रुचिनुं परिणमन अने विकारनी रुचिना परिणमन वखते स्वभावनी रुचिनुं परिणमन-एम बे एक समयमां एकसाथे होई शके नहि एम अहीं कहे छे. आवी वात जे त्रिलोकीनाथ सर्वज्ञ परमेश्वरनी दिव्यध्वनिमां आवी ते पोते अनुभव करीने संतोए जगत सामे जाहेर करी छे.

कहे छे-मार्ग तो आ ज छे. रागथी भिन्न पडतां ज्यां भेदज्ञान थयुं, सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान थयुं त्यां हुं शुद्धपणे परिणमुं छुं एम ज्ञानीने भासे छे; अल्प अशुद्ध


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परिणमन जे छे ते त्यां (द्रव्यद्रष्टिनी प्रधानतामां) गौण छे. अने भेदज्ञानना अभावमां ज्यां एकलुं अशुद्धतारूप परिणमन भासे छे त्यां मिथ्याद्रष्टिने आत्मा शुद्धपणे भासतो ज नथी. परनी दया हुं पाळुं छुं एवा कर्तापणाना भावना भासनमां हुं शुद्ध चैतन्यघन ज्ञातापणे परिणमुं छुं एम होई शक्तुं ज नथी. ज्ञाता वखते कर्ता नहि अने कर्ता वखते ज्ञाता नहि. अहो! दिगंबर संतोए कोई अलौकिक मार्ग बताव्यो छे!

‘आ रीते आत्माने अने क्रोधादिकने निश्चयथी एक वस्तुपणुं नथी.’ आत्मानो स्वभाव शुद्ध चैतन्य छे. अने क्रोधादि आस्रवो छे ए आत्माथी विरुद्ध स्वभाववाळा छे. तेथी आत्मानो स्वभाव अने क्रोधादिक विभाव ए बन्ने एक वस्तु नथी. क्रोधादि भावो तो आत्माना स्वभावनो अनादर अने अरुचि थतां थयेला छे. तेथी आत्मा अने क्रोधादिक भावो एक नथी.

अहाहा...! आत्मा-वस्तु शुद्ध चिद्घन अतीन्द्रिय आनंदनो पिंड प्रभु छे. एनी जेने अंतर्द्रष्टि थई तेने तो आत्मा ज्ञानपणे, निराकुळ आनंदपणे परिणमेलो भासे छे, परंतु क्रोधादिक विकारना प्रेममां फसाईने जे पर्यायबुद्धिए विकारपणे परिणम्यो तेने शुद्ध चैतन्यनुं ज्ञातापणे परिणमन भासतुं नथी-होतुं नथी. अहाहा...! कोई द्रुर्द्धर तप करे, मौन पाळे के छ कायना जीवनी रक्षा करे, पण जो तेने रागनी-क्रोधादिनी रुचि छे तो तेने चैतन्यनुं शुद्ध ज्ञातापणे परिणमन भासतुं नथी-होतुं नथी. भाई! जेने परलक्षी क्षयोपशमविशेषनी पण अधिकता (गौरव) भासे छे तेने पण विकारनुं ज परिणमन भासे छे. परसत्तावलंबी ज्ञानना प्रेममां तेने चैतन्यस्वभाव प्रत्ये अनादर ज रहेलो छे. तेने चैतन्यस्वरूपी आत्मा अने तेना निर्मळ ज्ञान-परिणमननी खबर ज नथी.

लोकोने आवी निश्चयनी वात आकरी पडे छे, पण शुं थाय? एकांत थई गयुं, एकांत थई गयुं-एम राडो पाडे छे, पण भाई! आ तो सम्यक् एकान्त छे. बापु! वीतराग धर्मनी वात जरा धीरज राखीने सांभळवा जेवी छे, समजवा जेवी छे. धर्म ए कांई बहारनी पंडिताईनो विषय नथी, ए तो अंतरनी चीज छे. अनुभवनी चीज छे.

कह्युं नथी के-वस्तुनो स्वभाव ते धर्म? अहाहा...! वस्तुनो स्वभाव शुद्ध ज्ञान अने आनंद छे. अने ते एनो त्रिकाळी धर्म छे. हवे ते त्रिकाळीने लक्षमां लई निर्मळ ज्ञान अने आनंदपणे परिणमे तेनुं नाम प्रगट धर्म छे. अने त्रिकाळीनो अनादर करीने दया, दान, व्रत, तप आदि पुण्यभावना प्रेममां रोकाई विकारपणे परिणमे छे ते स्वभावथी विरुद्ध अधर्म छे, तेने चैतन्यस्वभावनुं परिणमन होतुं नथी.

अंतरमां चैतन्यमूर्ति आनंदनो नाथ भगवान आत्मा नित्य बिराजमान छे. एनुं अस्तित्व जेने पोतापणे भास्युं नथी तेणे कयांक तो पोतापणे अस्तित्व मान्युं छे ने! तेणे पर्यायमां जे क्रोधादि कषाय छे तेमां पोतानुं अस्तित्व मान्युं छे. एटले ते