Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 72.

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स्वभावने भूलीने क्रोधादि कषायपणे विभाव-स्वभावे परिणमे छे. एनुं आ परिणमन अधर्म छे.

अत्यारना लोको महा भाग्यशाळी छे के आ काळे आवी वात तेमने सांभळवा मळी छे. प्रभु! आ तो सर्वज्ञ वीतरागनी वाणी छे. सांभळीने अंतरमां निर्णय कर, तुं न्याल थई जईश. हवे अडधा कलाक पछी भक्ति थशे. पण अहीं कहे छे-भगवाननी भक्तिनो जे भाव छे ते राग छे. ए रागपणे हुं छुं एम जे भासे छे ते अधर्म छे, केमके हुं आत्मा ज्ञानस्वरूपी छुं एम एमां भासतुं नथी.

प्रश्नः- समकिती निरास्रव छे, तेने राग होय नहि एम शास्त्रमां आवे छे ने?

उत्तरः– हा, आवे छे. पण कई अपेक्षाए? द्रष्टिनो विषय जे पोतानुं त्रिकाळी शुद्ध स्वरूप छे ए अपेक्षाए ज्ञानीने राग नथी एम कह्युं छे. परंतु ज्ञाननी अपेक्षाए जोवामां आवे तो दशमा गुणस्थाने पण ज्ञानीने सूक्ष्म लोभ-परिणाम छे. ज्ञानधारा अने कर्मधारा- साधकने बन्ने साथे वहे छे. ज्यारे अज्ञानीने एकली कर्मधारा, रागनी रुचिना प्रेमनी मिथ्यात्वधारा ज वहे छे. ज्ञानीने एकली ज्ञानधारा छे, पण साथे जे स्वभावथी विरुद्ध रागधारा छे तेने ते जाणी ले छे. आ जे रागधारा छे तेटलुं दुःख छे, बंधन छे-एम ते जाणे छे. समकिती विषयना रागमां जोडायो होय तोपण ते रागने जाणवापणे परिणमतो, हुं रागथी भिन्न ज्ञानस्वरूपी ज छुं-एम ज्ञानरूपे ज परिणमे छे. ज्ञानी बन्नेने भिन्न-भिन्न पाडी ज्ञानरूपे परिणमे छे.

अहाहा! अंदरमां आनंदनुं धाम भगवान आत्मा छे. एनी एक समयनी ज्ञाननी पर्यायमां आखो ध्रुव भगवान भासे, एनी एक समयनी श्रद्धानी पर्यायमां पूर्णानंदनो नाथ प्रतीतिमां आवे-आनुं नाम धर्म छे. आवा धर्मस्वरूपे ज्ञाननुं थवुं-परिणमवुं ते मोक्षमार्ग छे. परंतु जेमने पोताना ध्रुव चैतन्य स्वभावनुं भान नथी तेओ वर्तमान रागनी रुचिमां रोकाई जईने कृत्रिम रागने अनुभवनारा क्रोधादिनी ज क्रिया करवावाळा छे, ते स्वभावना अभावरूप विभावनी ज क्रिया करवावाळा छे. (तेओ संसारमां रखडनारा छे). आवुं नग्न सत्य जगतनी परवा कर्या विना दिगंबर संतोए जाहेर कर्युं छे. कोई मानो, न मानो; सौ स्वतंत्र छे.

आ रीते आत्मा अने क्रोधादिक निश्चयथी एक वस्तु नथी. भाई! जो बन्ने एक होय तो भेदज्ञान थतां जुदी पडे ज केवी रीते? परंतु आवी सूक्ष्म वात लोकोने बेसे नहि एटले बहारना (व्रत, तप, आदि) व्यवहारमां चढी जाय अने एनाथी लाभ (धर्म) थशे एवुं माने पण एथी तो धूळेय धर्म नहि थाय. (पुण्य पण सारा नहीं बंधाय).


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मुंबईमां प्रश्न थयेलो के-आप आपनी लाकडी माथे फेरवो छो तो लोको पैसादार थई जाय छे-आ वात बराबर छे?

त्यारे कहेलुं के-लाकडी कोई फेरवतुं नथी, लाकडी कोई उपर फरती नथी अने लाकडीने लईने कोईनुं कांई थतुं नथी अहाहा...! आ परम (तत्त्वनी, धर्मनी) सत्यनी वात बहार आवी छे ते सत्समागम करीने महिनो बे महिना ध्यानथी सांभळे त्यां एना शुभभावथी (ऊंचां) पुण्य बंधाई जाय. ए पुण्यना फळरूपे एने बाह्य सामग्री देखाय. भाई! जीवोने जे शुभभाव थाय ते पण एना पोताथी, तथा पुण्य बंधाय अने सामग्री मळे ते पण पोतपोताना कारणे छे. कोई कोईना कारणे नथी तो पछी अमारा कारणे मळे छे के लाकडीने लईने मळे छे ए वात ज कयां रहे छे? ए वात बीलकुल बराबर नथी. सामग्रीनुं आववुं, न आववुं ए पुण्य-पापना उदयने आधीन छे.

हवे कहे छे-‘आ प्रमाणे आत्मा अने आस्रवोनो विशेष (तफावत) देखवाथी ज्यारे आ आत्मा तेमनो भेद जाणे छे त्यारे आ आत्माने अनादि होवा छतां पण अज्ञानथी उत्पन्न थयेली एवी (परमां) कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति निवृत्त थाय छे.’

जुओ! कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति जीवने अनादिथी छे; छतां ते प्रवाहपणे-संतानपणे अनादिथी छे माटे टळी शके छे. वळी ते अज्ञान वडे उत्पन्न थयेली छे, स्वभावथी नहि. माटे ते चैतन्यस्वभावना ज्ञान वडे टळी शके छे. हुं रागनो कर्ता अने राग मारुं कर्म-एवी अनादि अज्ञानथी उत्पन्न थयेली कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति छे. ते भेदज्ञान थतां जीव एनाथी निवृत्त थाय छे. ज्ञानमां क्रोधादि नथी अने क्रोधादिमां ज्ञान नथी एवो बन्नेनो स्वभावभेद अने वस्तुभेद जाणीने ज्यां अंतर्द्रष्टि सहित भेदज्ञान थयुं त्यां अज्ञानथी उत्पन्न थयेली कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिथी जीव निवृत्त थाय छे. संवर अधिकारमां कळश आवे छे के-

भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन।
अस्यैवाभावतो बद्धा
बद्धा ये किल केचन।।

मतलब के जे कोई सिद्ध थया छे ते भेदविज्ञानथी सिद्ध थया छे, अने जे कोई बंधाया छे ते भेदविज्ञानना अभावथी बंधाया छे. जीवने अज्ञान अनादिनुं छे. ते वडे कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति छे. भेदविज्ञान थतां ते कर्ताकर्मप्रवृत्तिथी निवृत्त थाय छे.

‘तेनी निवृत्ति थतां अज्ञानना निमित्ते थतो पौद्गलिक द्रव्यकर्मनो बंध पण निवृत्त थाय छे. एम थतां, ज्ञानमात्रथी ज बंधनो निरोध सिद्ध थाय छे.’ आचार्य कहे छे के क्रोध अने आत्मानुं भेदविज्ञान थाय त्यारे तेमना एकपणारूप अज्ञान मटी जाय छे, अने नवुं कर्म पण बंधातुं नथी. आ प्रमाणे ज्ञानमात्रथी ज बंधनो निरोध


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सिद्ध थाय छे. अहीं ज्ञान एटले एकलुं (बहारनुं) जाणपणुं एम नहि, पण रागथी भिन्न पडी स्वभावनी प्रतीति, स्वभावनुं ज्ञान अने एमां ज रमणता एवी जे ज्ञाननी क्रिया तेनाथी ज बंधनो निरोध सिद्ध थाय छे-एटले के नवुं कर्म बंधातुं नथी.

* गाथा ७१ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

क्रोधादिक अने ज्ञान जुदी जुदी वस्तुओ छे; ज्ञानमां क्रोधादिक नथी, क्रोधादिकमां ज्ञान नथी. जुओ! संवर अधिकारमां आवे छे के स्वभाव अने विभाव बे भिन्न चीज छे. विभावने उत्पन्न थवानो आधार आत्मा नथी. अहाहा...! चिदानंदघन-स्वरूप भगवान आत्मानुं भान थतां एमां क्रोधादिक आवता नथी. तथा क्रोधादिकना परिणाममां ज्ञान नथी. आम ज्ञान अने क्रोधादिक भिन्न छे एवुं भेदज्ञान थाय त्यारे तेमना एकपणानुं अज्ञान मटे छे. अनादिथी जीवने दया, दान, व्रत, तप आदि शुभभाव अने भगवान शुद्ध चैतन्यस्वभाव-ए बन्नेना एकपणारूप अज्ञान छे. भेदविज्ञान थतां तेने ते अज्ञान मटे छे अने अज्ञान मटवाथी नवा कर्मनो बंध थतो नथी. आ रीते ज्ञानथी ज बंधनो निरोध थाय छे.

संप्रदायमां अमारा गुरु श्री हीराचंदजी महाराज हता. ते बहु ज सरळ, भद्रिक सज्जन हता. बाह्य क्रियाओनुं कडक पालन करता. तेमना माटे कोईक वखत विचार आवे के आवी वात तेमने सांभळवा पण न मळी! अरे! आ वात ते वखते हती ज नहि. छ कायना जीवोनी दया पाळवी अने व्रत, तप आदि बहारनी क्रिया करवी ए ज धर्म-आवी वात ते वखते हती. भाई! वीतरागनो मार्ग लोको माने छे. तेनाथी तद्न जुदो छे. रागनी क्रिया ते धर्म नहि, पण अंतरना अनुभवनी क्रिया ते खरो धर्म छे. अहा! आ वात जेने बेठी ते मार्गने पामीने पोतानुं स्वहित साधी लेशे.

[प्रवचन नं. ११८-११९ * दिनांक ७-७-७६ अने ८-७-७६]

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गाथा–७२

कथं ज्ञानमात्रादेव बन्धनिरोध इति चेत्–

णादूण आसवाणं असुचित्तं च विवरीयभावं
च।
दुक्खस्स कारणं ति य तदो णियत्तिं कुणदि जीवो।। ७२।।

ज्ञात्वा आस्रवाणामशुचित्वं च विपरीतभावं च।
दुःखस्य कारणानीति च ततो निवृतिं करोति जीवः।। ७२।।

हवे पूछे छे के ज्ञानमात्रथी ज बंधनो निरोध कई रीते छे? तेनो उत्तर कहे छेः-

अशुचिपणुं, विपरीतता ए आस्रवोनां जाणीने,
वळी जाणीने दुःखकारणो, एथी निवर्तन जीव करे. ७२.

गाथार्थः– [आस्रवाणाम्] आस्रवोनुं [अशुचित्वं च] अशुचिपणुं अने [विपरीतभावं च] विपरीतपणुं [च] तथा [दुःखस्य कारणानि इति] तेओ दुःखना कारण छे एम [ज्ञात्वा] जाणीने [जीवः] जीव [ततः निवृत्ति] तेमनाथी निवृत्ति [करोति] करे छे.

टीकाः– जळमां शेवाळ छे ते मळ छे-मेल छे; ते शेवाळनी माफक आस्रवो मळपणे- मेलपणे अनुभवाता होवाथी अशुचि छे (-अपवित्र छे) अने भगवान आत्मा तो सदाय अतिनिर्मळ चैतन्यमात्रस्वभावपणे ज्ञायक होवाथी अत्यंत शुचि ज छे (-पवित्र ज छे; उज्ज्वळ ज छे). आस्रवोने जडस्वभावपणुं होवाथी तेओ बीजा वडे जणावायोग्य छे (- कारण के जे जड होय ते पोताने तथा परने जाणतुं नथी, तेने बीजो ज जाणे छे-) माटे तेओ चैतन्यथी अन्य स्वभाववाळा छे; अने भगवान आत्मा तो, पोताने सदाय विज्ञानघनस्वभावपणुं होवाथी, पोते ज चेतक (-ज्ञाता) छे (-पोताने अने परने जाणे छे-) माटे चैतन्यथी अनन्य स्वभाववाळो ज छे (अर्थात् चैतन्यथी अन्य स्वभाववाळो नथी). आस्रवो आकुळताना उपजावनारा होवाथी दुःखनां कारणो छे; अने भगवान आत्मा तो, सदाय निराकुळता-स्वभावने लीधे कोईनुं कार्य तेम ज कोईनुं कारण नहि होवाथी, दुःखनुं अकारण ज छे (अर्थात् दुःखनुं कारण नथी). आ प्रमाणे विशेष (-तफावत) देखीने ज्यारे आ आत्मा, आत्मा अने आस्रवोनो भेद जाणे छे ते ज वखते क्रोधादि आस्रवोथी निवृत्त थाय छे, कारण के तेमनाथी जे निवर्ततो न होय तेने आत्मा अने आस्रवोना पारमार्थिक (साचा) भेदज्ञाननी सिद्धि ज थई नथी. माटे क्रोधादिक आस्रवोथी निवृत्ति साथे जे अविनाभावी


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छे एवा ज्ञानमात्रथी ज, अज्ञानथी थतो जे पौद्गलिक कर्मनो बंध तेनो निरोध थाय छे.

वळी, जे आ आत्मा अने आस्रवोनुं भेदज्ञान छे ते अज्ञान छे के ज्ञान छे? जो अज्ञान छे तो आत्मा अने आस्रवोना भेदज्ञानथी तेनी कांई विशेषता न थई. अने जो ज्ञान छे तो (ते ज्ञान) आस्रवोमां प्रवर्ते छे के तेमनाथी निवर्त्युं छे? जो आस्रवोमां प्रवर्ते छे तोपण आत्मा अने आस्रवोना अभेदज्ञानथी तेनी कांई विशेषता न थई. अने जो आस्रवोथी निवर्त्युं छे तो ज्ञानथी ज बंधनो निरोध सिद्ध थयो केम न कहेवाय? (सिद्ध थयो ज कहेवाय.) आम सिद्ध थवाथी अज्ञाननो अंश एवा क्रियानयनुं खंडन थयुं. वळी जे आत्मा अने आस्रवोनुं भेदज्ञान छे ते पण जो आस्रवोथी निवृत्त न होय तो ते ज्ञान ज नथी एम सिद्ध थवाथी ज्ञाननो अंश एवा (एकांत) ज्ञाननयनुं पण खंडन थयुं.

भावार्थः– आस्रवो अशुचि छे, जड छे, दुःखनां कारण छे अने आत्मा पवित्र छे, ज्ञाता छे, सुखस्वरूप छे. ए रीते लक्षणभेदथी बन्नेने भिन्न जाणीने आस्रवोथी आत्मा निवृत्त थाय छे अने तेने कर्मनो बंध थतो नथी. आत्मा अने आस्रवोनो भेद जाण्या छतां जो आत्मा आस्रवोथी निवृत्त न थाय तो ते ज्ञान ज नथी, अज्ञान ज छे. अहीं कोई प्रश्न करे के अविरत सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी प्रकृतिओनो तो आस्रव नथी थतो पण अन्य प्रकृतिओनो तो आस्रव थईने बंध थाय छे; तेने ज्ञानी कहेवो के अज्ञानी? तेनुं समाधानः- सम्यग्द्रष्टि जीव ज्ञानी ज छे कारण के ते अभिप्रायपूर्वकना आस्रवोथी निवर्त्यो छे. तेने प्रकृतिओनो जे आस्रव तथा बंध थाय छे ते अभिप्रायपूर्वक नथी. सम्यग्द्रष्टि थया पछी परद्रव्यना स्वामित्वनो अभाव छे; माटे, ज्यां सुधी तेने चारित्रमोहनो उदय छे त्यां सुधी तेना उदय अनुसार जे आस्रव-बंध थाय छे तेनुं स्वामीपणुं तेने नथी. अभिप्रायमां तो ते आस्रव-बंधथी सर्वथा निवृत्त थवा ज इच्छे छे. तेथी ते ज्ञानी ज छे.

ज्ञानीने बंध थतो नथी एम कह्युं छे तेनुं कारण आ प्रमाणे छेः- मिथ्यात्वसंबंधी बंध के जे अनंत संसारनुं कारण छे ते ज अहीं प्रधानपणे विवक्षित (-कहेवा धारेलो) छे. अविरति आदिथी बंध थाय छे ते अल्प स्थिति-अनुभागवाळो छे, दीर्घ संसारनुं कारण नथी; तेथी ते प्रधान गणवामां आव्यो नथी. अथवा तो आ प्रमाणे कारण छेः- ज्ञान बंधनुं कारण नथी. ज्यां सुधी ज्ञानमां मिथ्यात्वनो उदय हतो त्यां सुधी ते अज्ञान कहेवातुं हतुं अने मिथ्यात्व गया पछी अज्ञान नथी, ज्ञान ज छे. तेमां जे कांई चारित्रमोह संबंधी विकार छे तेनो स्वामी ज्ञानी नथी तेथी ज्ञानीने बंध नथी;


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(मालिनी)
परपरिणतिमुज्झत् खण्डयद्भेदवादा–
निदमुदितमखण्डं ज्ञानमुच्चण्डमुच्चैः।
ननु कथमवकाशः कर्तृकर्मप्रवृत्ते–
रिह भवति कथं वा पौद्गलः
कर्मबन्धः।। ४७।।

कारण के विकार के जे बंधरूप छे अने बंधनुं कारण छे, ते तो बंधनी पंक्तिमां छे, ज्ञाननी पंक्तिमां नथी. आ अर्थना समर्थनरूप कथन आगळ जतां गाथाओमां आवशे.

अहीं कळशरूप काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [परपरिणतिम् उज्झत्] परपरिणतिने छोडतुं, [भेदवादान् खण्डयत्] भेदनां कथनोने तोडी पाडतुं, [इदम् अखण्डम् उच्चण्डम् ज्ञानम्] आ अखंड अने अत्यंत प्रचंड ज्ञान [उच्चैः उदितम्] प्रत्यक्ष उदय पाम्युं छे, [ननु] अहो! [इह] आवा ज्ञानमां [कर्तृकर्मप्रवृतेः] (परद्रव्यनां) कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिनो [कथम् अवकाशः] अवकाश केम होई शके? [वा] तथा [पौद्गलः कर्मबन्धः] पौद्गलिक कर्मबंध पण [कथं भवति] केम होई शके? (न ज होई शके.)

(ज्ञेयोना निमित्तथी तथा क्षयोपशमना विशेषथी ज्ञानमां जे अनेक खंडरूप आकारो प्रतिभासमां आवता हता तेमनाथी रहित ज्ञानमात्र आकार हवे अनुभवमां आव्यो तेथी ‘अखंड’ एवुं विशेषण ज्ञानने आप्युं छे. मतिज्ञान आदि जे अनेक भेदो कहेवाता हता तेमने दूर करतुं उदय पाम्युं छे तेथी ‘भेदनां कथनोने तोडी पाडतुं’ एम कह्युं छे. परना निमित्ते रागादिरूप परिणमतुं हतुं ते परिणतिने छोडतुं उदय पाम्युं छे तेथी ‘परपरिणतिने छोडतुं’ एम कह्युं छे. परना निमित्तथी रागादिरूप परिणमतुं नथी, बळवान छे तेथी ‘अत्यंत प्रचंड’ कह्युं छे.)

भावार्थः– कर्मबंध तो अज्ञानथी थयेली कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिथी हतो. हवे ज्यारे भेदभावने अने परपरिणतिने दूर करी एकाकार ज्ञान प्रगट थयुं त्यारे भेदरूप कारकनी प्रवृत्ति मटी; तो पछी हवे बंध शा माटे होय? अर्थात् न होय. ४७.

* * *
समयसार गाथा ७२ः मथाळुं

हवे पूछे छे के ज्ञानमात्रथी ज बंधनो निरोध कई रीते छे? रागथी भिन्न पडतां जेने आत्मानुं ज्ञान थयुं तेने बंध अटकी जाय छे ए केवी रीते छे? अहाहा! शिष्य जिज्ञासाथी पूछे छे के जेने आत्मानुं ज्ञान थयुं, श्रद्धान थयुं, एनी स्थिरता-


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रमणता थई, आनंद आव्यो अर्थात् अनंत गुण जे शक्तिरूपे विद्यमान छे ते पर्यायमां अंशे व्यक्त-प्रगट थया तेने बंधनो निरोध थाय छे ते केवी रीते छे? एना उत्तररूपे गाथा कहे छेः-

* गाथा ७२ः टीका उपरनुं प्रवचन *
‘जळमां सेवाळ छे ते मळ छे-मेल छे; ते शेवाळनी माफक आस्रवो मळपणे-मेलपणे

अनुभवाता होवाथी अशुचि छे (अपवित्र छे)’ जुओ! ‘आस्रवो’-एम बहुवचन छे. एटले पाप अने पुण्यना बन्ने भावो मळपणे-मलिनपणे अनुभवाय छे माटे अशुचि छे. आ रीते दया, दान, व्रत, भक्ति आदि शुभभाव आस्रव छे अने माटे ते अशुचि छे, मेल छे. हाडकां, चामडां अने मांसनुं माळखुं एवुं जे शरीर ते अशुचि छे ए वात तो बाजुए रही, तथा पापभाव अशुचि छे ए पण सौ कहे छे; अहीं तो कहे छे के दया, दान, व्रत, आदि जे पुण्यना भाव थाय छे ते अशुचि छे, अपवित्र छे. अहाहा...! जे भावे तीर्थंकर नामकर्म बंधाय ते भाव मलिन छे एम अहीं कहे छे. शुभभावमां धर्म माननारा अज्ञानीओने आकरी लागे एवी वात छे, पण स्वरूपनो आस्वादी ज्ञानी पुरुष तो शुभभावो-पुण्यभावोने मलिन जाणे छे, अने तेथी हेय माने छे. रागनी गमे तेवी मंदताना शुभ परिणाम होय पण ते मेला छे, अशुचि छे, झेररूप छे. शास्त्रमां कोई जगाए तेने अमृतरूप कह्या होय पण ते वास्तविकपणे झेर ज छे. अमृतनो सागर भगवान आत्मा छे. एनो स्वाद जेने अंतरमां आव्यो, धर्मी जीवने जे रागनी मंदताना परिणाम होय तेने आरोप करीने व्यवहारथी अमृत कह्या छे, तोपण निश्चयथी ते झेर छे; अशुचि छे; अपवित्र छे. ‘अने भगवान आत्मा तो सदाय अतिनिर्मळ चैतन्यमात्र-स्वभावपणे ज्ञायक होवाथी अत्यंत शुचि ज छे (-पवित्र ज छे; उज्ज्वळ ज छे).’ आचार्यदेवे आत्माने ‘भगवान आत्मा’-एम कहीने संबोधन कर्युं छे.

प्रश्नः- शुं ते हमणां पण भगवान छे? उत्तरः– हा, ते हमणां पण भगवान छे अने त्रणे काळे भगवान छे. जो भगवान (शक्तिए) न होय तो भगवानपणुं प्रगटशे कयांथी? ‘सदाय’ एम कह्युं छे ने?

अहाहा...! आचार्यदेव एने ‘भगवान आत्मा’-एम कहीने मोहनी निद्रामांथी जगाडे छे. जेम माता पोताना बाळकने घोडियामां सुवाडीने तेनां वखाण करीने उंघाडे छे. ‘दीकरो मारो डाह्यो अने पाटले बेसी नाह्यो, भाई, हाला!’-एम मीठां हालरडां गाईने माता बाळकने उंघाडी दे छे; तेम अहीं संतो एने ‘भगवान आत्मा’ कहीने


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जगाडे छे. जाग रे जाग भगवान! जागवानां हवे टाणां आव्यां त्यारे निंदर पालवे नहि. आम मीठां हालरडां गाईने जिनवाणी माता एने मोहनिद्रामांथी जगाडे छे.

पुण्य अने पापना भाव तो मलिन छे अने भगवान आत्मा तो सदाय अतिनिर्मळ छे. सदाय एटले त्रणेय काळ आत्मा अतिनिर्मळ छे. एकेन्द्रिय-निगोदमां हो के पंचेन्द्रियमां हो, वस्तु जे द्रव्य छे ए तो त्रिकाळ निर्मळानंद चैतन्यमय प्रभु ज छे. अहीं निर्मळ न कहेतां अतिनिर्मळ कह्यो छे. एटले आत्मा-द्रव्य निर्मळ, तेना गुण निर्मळ अने तेनी कारणपर्याय पण निर्मळ-एम त्रणे काळे आत्मा अतिनिर्मळ छे. अहाहा...! पवित्रताना स्वभावथी भरेलो, निर्मळानंदनो नाथ, चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा सदाय अतिनिर्मळ छे, पवित्र छे. जाणग-जाणग-जाणग-एम जाणगस्वभावपणे ज्ञायक होवाथी ते अत्यंत पवित्र ज छे, उज्ज्वळ ज छे. तेनुं स्वरूप ज आवुं छे.

आस्रवो कहेतां पुण्य-पाप बंने एमां आवी जाय छे. सात तत्त्वमां जे आस्रव तत्त्व कह्युं छे तेमां पुण्य-पाप गर्भित छे. नव तत्त्व कह्यां छे त्यां पुण्य-पापने जुदां पाडीने नव कह्यां छे. ज्ञानीने शुभाशुभ बन्ने भाव आवे छे, परंतु तेने एनुं ज्ञानमां भिन्नपणे ज्ञान वर्ते छे. अहाहा! अतिनिर्मळ निज चैतन्यस्वभावनो अनुभव करनार ज्ञानी शुभाशुभ- भावोने, पुण्य-पापना भावोने मेलपणे जाणे छे. पुण्यना भावने पण ते छोडवा योग्य, हेय जाणे छे, माने छे.

जुओ! श्रेणिक राजा क्षायिक समकिती हता. तेमने हजारो राणीओ हती. हजारो राजाओ तेमनी सेवा करता. अपार वैभव हतो. पुरुषार्थनी नबळाईने कारणे विषयोनी प्रवृत्ति पण हती. छतां ते वखते आत्मा आस्रवोथी भिन्न छे एवुं तेमने भेदज्ञान वर्ततुं हतुं. चारित्रनो दोष हतो ते ज वखते हुं एनाथी (दोषथी) भिन्न छुं एवुं भान हतुं. अहाहा...! रागथी भिन्न हुं तो विज्ञानघनस्वरूप अतिनिर्मळ छुं एवुं जे भान थयुं हतुं ते क्षणमात्र पण तेमने खसतुं नहोतुं. धर्मी जीवने आवी जे अंतरंगमां भेदज्ञाननी क्रिया वर्ते छे तेनाथी बंधनो सहज निरोध थाय छे. ल्यो, आ एक बोल थयो.

हवे बीजो बोल कहे छे-‘आस्रवोने जडस्वभावपणुं होवाथी तेओ बीजा वडे जणावा योग्य छे माटे तेओ चैतन्यथी अन्यस्वभाववाळा छे.’ शुभराग हो के अशुभराग हो; ते बन्ने अचेतन छे. ते नथी जाणता पोताने के नथी जाणता परने. तेओ बीजा वडे जणावा योग्य छे. गजब वात छे! जे भावे तीर्थंकर गोत्र बंधाय के जे भावे इन्द्रादि पद मळे ते भाव जड, अचेतन छे; अन्यथा एनाथी बंध केम थाय? पुण्य-पापना भावमां चैतन्यना प्रकाशनुं नूर नथी, एमां ज्ञाननुं किरण नथी. पुण्य-पापना भाव तो अंधकार छे. दया, दान, भक्ति आदि परिणाम अंधकार छे, चैतन्यथी शून्य छे, तेओ स्व-परने जाणता नथी पण तेओ चैतन्यद्वारा जणाय छे. माटे तेओ चैतन्यथी अन्यस्वभाववाळा छे.


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शत्रुंजयना पहाड उपर पांच पांडव मुनिराजो ध्यानमां लीन हता. तेमने दुर्योधनना भाणेज द्वारा ज्यारे परिषह आवी पडयो त्यारे धर्मराजा युधिष्ठिर, अर्जुन अने भीम ए त्रणे विकल्प तोडीने स्वरूपमां ठरी गया अने मोक्ष साधी लीधो; परंतु सहदेव अने नकुळ मुनिराजोने जरीक विकल्प उठयो के-अरे! मुनिवरोने आवो उपसर्ग! लोढानां धगधगतां घरेणां पहेराव्यां! अरे, ए मुनिवरोने केम हशे? आ विकल्पना फळमां ए बे मुनिवरोने ३३ सागरोपमनुं सर्वार्थसिद्धिनुं आयुष्य बंधाई गयुं. एटलुं केवळज्ञान दूर गयुं. जुओ आ विकल्पनुं फळ! त्यांथी नीकळीने मनुष्य थई उग्र साधन करीने मोक्षपद पामशे. अहीं कहे छे के आवो साधर्मी मुनिओ प्रत्येनो शुभ विकल्प जे ऊठयो ते जड, अचेतन छे. संयोगीभाव छे ने? एनाथी संयोग ज प्राप्त थयो (आत्मोपलब्धि न थई). एनाथी-शुभ विकल्पथी पुण्यनां जड रजकणो बंधाया माटे ते जड, अचेतन छे, चैतन्यथी अन्यस्वभाववाळा छे.

‘अने भगवान आत्मा तो, पोताने सदाय विज्ञानघनस्वभावपणुं होवाथी, पोते ज चेतक (ज्ञाता) छे माटे चैतन्यथी अनन्य स्वभाववाळो ज छे.’

आत्मा सदाय विज्ञानघनस्वभावी छे. विज्ञानघन एटले ज्ञाननो घनपिंड छे, निबीड, नकोर छे. त्रणेकाळ एवो नकोर छे के एमां परनो के रागनो प्रवेश थई शक्तो नथी. विज्ञानघनस्वभावपणे होवाथी पोते ज चेतक-ज्ञाता छे, पोताने अने परने जाणे छे. पोतानो विज्ञानघनस्वभाव होवाथी पोताने जाणे छे अने जे राग थाय तेने पण जाणे छे. अहाहा! पर पदार्थना अनंत भावोने जाणवा छतां परनो अंश पण प्रवेशी न शके एवो ते विज्ञानघनरूप निबीड छे.

आवो विज्ञानघनस्वरूप आत्मा पोते ज चेतक छे तेथी शुद्ध चैतन्यथी अनन्य-एकरूप स्वभाववाळो छे; ज्यारे रागादि विकार पोते पोताने अने परने नहि जाणता एवा जड, अचेतन होवाथी चैतन्यथी अन्य स्वभाववाळो छे. आ प्रमाणे भेदज्ञान करीने शुद्ध चैतन्यना लक्षे परिणमतां जे ज्ञान थाय छे एनाथी कर्मबंधन अटके छे. आम ज्ञानमात्रभावे परिणमवुं ए ज बंधन अटकाववानो एकमात्र उपाय छे.

प्रश्नः– आमां पच्चकखाण तो आव्युं नहि? तो पछी बंधन केम अटके?

उत्तरः– अरे भाई! तने पच्चकखाणना स्वरूपनी खबर नथी. ज्ञान अने रागनुं भेदज्ञान थतां शुद्ध चैतन्यना लक्षे जे स्वरूपनां श्रद्धान अने ज्ञान प्रगट थयां अने जे अंशे स्वरूपमां स्थिरता थई ए ज वास्तविक पच्चकखाण छे. सम्यक्त्व थतां मिथ्यात्व संबंधीनो अने अनंतानुबंधीनो बंध तो एने थतो ज नथी. अने जे अल्प बंध थाय छे ते गौण छे. भेदज्ञानना बळे स्वरूपस्थिरता वधारतां तेनो पण अल्प काळमां नाश थई जाय छे. अज्ञानी बाह्य त्यागसंबंधी शुभभावने पच्चकखाण माने छे. परंतु


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भाई! शुभभाव तो चैतन्यथी अन्य स्वभाववाळो छे, अचेतन छे, बंधरूप छे. एनाथी बंधन केम अटके? (न अटके). माटे शुद्ध चैतन्यना लक्षे थतुं ज्ञानमात्र परिणमन ए ज बंधन अटकाववानो-मुक्तिनो उपाय छे.

धर्मीने तो निरंतर भेदज्ञाननो विचार रहे छे के-हुं सदाय विज्ञानघनस्वभावमय छुं, आ शुभभावरूप विभावो छे ते मारुं स्वरूप नथी, केमके तेओ जडना निमित्ते उत्पन्न थयेला छे अने स्वपरने जाणवा समर्थ नथी माटे जड, अचेतन छे, चैतन्यथी अन्यस्वभाववाळा छे. आवा भेदज्ञानना बळे ते अंतरमां स्वरूपस्थिरता वधारीने अंतिम लक्ष्य जे केवळज्ञान तेने प्राप्त करी ले छे. अहो! भेदज्ञाननो कोई अपूर्व महिमा छे! भेदज्ञानना अभावे अज्ञानी अनंतो संसार वधारे छे. बे बोल थया.

हवे त्रीजो बोल कहे छे-‘आस्रवो आकुळताना उपजावनारा होवाथी दुःखनां कारणो छे.’ पुण्य-पापना भाव बन्ने आकुळता उपजावनारा छे. आ दया, दान आदि शुभभाव जे थाय ते आकुळता उपजावनारा छे. आकरी वात, भाई. पण ते एम ज छे. जे भावथी तीर्थंकरनामकर्म बंधाय ते भाव आकुळता उपजावनारो होवाथी दुःखनुं कारण छे एम अहीं कहे छे. भावपाहुडमां शुभभावनी-व्यवहारनी घणी वातो आवे छे. आवी भावना भावतां तीर्थंकरगोत्र बंधाय इत्यादि घणा बोल छे. पचीस प्रकारनी भावना अने बार प्रकारनी भावना-एम घणा प्रकारे त्यां वात करेली छे. ए तो स्वभावनी द्रष्टि होवा छतां पूर्ण वीतराग न थाय त्यां सुधी भूमिका अनुसार धर्मी जीवने शुभभाव केवा प्रकारनो आवे छे एनुं त्यां ज्ञान कराव्युं छे. अशुभभाव आवे तो शुभभाव केम न आवे? अनेक प्रकारना शुभभाव ज्ञानीने आवे छे, पण ते आकुळता उपजावनारा छे एम अहीं कहे छे.

अतिचार रहित निर्दोष व्रत पाळवां, दया, दान, भक्ति इत्यादि करवां-एम व्यवहारनां कथन शास्त्रोमां अनेक प्रकारे आवे, पण ए तो भूमिका प्रमाणे धर्मीने जे शुभराग आवे छे-आव्या विना रहेता नथी एनी ए वात छे. अहीं कहे छे के जेटला शुभ- अशुभ भावना प्रकारो छे ते बधा दुःखनां कारणो छे केमके ते आकुळता उपजावनारा छे. आत्मानी शांतिने रोकनारा छे.

पद्मनंदी मुनिराज वनवासी मुनि हता. तेओ दान अधिकारमां कहे छे के-तारी शान्ति दाझीने आ शुभभाव थया छे. तेने लईने जे पुण्यरूपी उकडिया बंधाया तेना फळमां आ पांच-पचास लाखनी धूळ (संपत्ति)नो संयोग तने देखाय छे. तेनो जो सारा धार्मिक कार्योमां उपयोग न कर्यो तो तुं कागडामांथी पण जईश. केमके कागडो पण एने मळेला दाझेली खीचडीना उकडिया एकलो खातो नथी, पण का, का, का-एम पोकारी पांच-पचीस कागडाओने भेगा करीने खाय छे. आवां कथन शास्त्रमां आवे छे. त्यां लोभ आदि अशुभभाव घटाडीने शुभभाव करवा पूरती वात छे. पण ए छे तो दुःखरूप ज.


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प्रश्नः- तो ए शुभभाव करवा एम केम कह्युं?

उत्तरः– भाई! करवानी तो वात ज नथी. परंतु ए तो उपदेशनी शैलीनुं कथन छे. वास्तवमां तो अशुभथी बचवा धर्मी जीवने एवा शुभभाव यथासंभव आवे छे एनुं त्यां ज्ञान कराव्युं छे. जेने शुद्ध निश्चयनुं भान वर्ते छे, पण स्वरूपमां ठरी शक्तो नथी एने अशुभथी बचवा एवा शुभभाव आवे छे, बल्के आव्या विना रहेता नथी. परंतु ए शुभभाव आत्मानी शान्तिने दझाडनारा छे, दुःखनां कारण छे एम अहीं आचार्यदेव कहे छे.

भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव समयसारनी पहेली गाथामां कहे छे के हे श्रोताओ! हुं तमने समयसार कहीश. पांचमी गाथामां कहे छे के एकत्व-विभक्त आत्माने बताववानो में व्यवसाय कर्यो छे, तेने तुं (सांभळीने) अनुभवथी प्रमाण करजे, ज्यारे परमात्मप्रकाशमां आवे छे के-दिव्यध्वनिथी ज्ञान न थाय. जुओ! आ (सत्य) सिद्धांत छे. छतां सांभळवा आवे त्यारे ज्ञानीओ श्रोताने-शिष्यने एम कहे के-सांभळ, हुं तने धर्मकथा संभळावुं छुं. धवलमां पण आवे छे के-‘सूण’ आ शब्दनो त्यां विस्तारथी अर्थ कर्यो छे. जुओ! एक बाजु एम (सिद्धांत) कहे के भगवाननी वाणीथी लाभ न थाय अने बीजी बाजु एम कहे के अमे कहीए छीए ते सांभळ! वळी केटलाक एम कहे छे के-कथनी कांईक अने करणी कांईक. एटले के कार्य उपादानथी थाय एम कथनी करे अने निमित्त वडे उपादानमां लाभ थाय एवी करणी करे, एम के लाखोनुं मंदिर बंधावे, घणा माणसोने भेगा करी उपदेश आपे अने कहे के कार्य उपादानथी थाय, निमित्तथी न थाय. आ केवी वात!

अरे प्रभु! तारी समजणमां फेर छे. उपादान अने निमित्त बंने स्वतंत्र स्वयं पोतपोतानुं काम करे छे, कोई कोईने आधीन नथी. आ तो सिद्धांत छे. अने धर्मीने यथाक्रम उपदेशनो राग आवे अने शिष्यने ते सांभळवानो विकल्प होय-आवो भूमिकानुसार यथासंभव शुभराग-व्यवहार आवतो होय छे, पण एकथी बीजानुं कार्य थाय छे एम नथी. अहीं कहे छे के आ जे भगवाननी वाणी कहेवानो के सांभळवानो विकल्प छे ते आकुळता उपजावनारो छे. बापु! आ कांई खेंचताणनो मार्ग नथी, आ तो सत्यने समजवानो मार्ग छे. ज्यां जे अपेक्षा होय ते अपेक्षा बराबर समजी अर्थ ग्रहण करवो जोईए.

आस्रवो आकुळता उपजावनारा होवाथी दुःखनां कारणो छे; ‘अने भगवान आत्मा तो, सदाय निराकुळ-स्वभावने लीधे कोईनुं कार्य तेम ज कोईनुं कारण नहि होवाथी, दुःखनुं अकारण ज छे.’

जुओ! शुभभावथी स्वर्ग मळे अने अशुभभावथी नरकादि मळे. पण बंने भाव


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छे तो बंधरूप ज, दुःखरूप ज. तेथी पुण्यभाव छोडीने पापमां प्रवर्तवुं एम वात नथी. परंतु पुण्यभाव करतां करतां धर्म थशे एम कोई माने तो ते यथार्थ नथी. पुण्यभाव पण दुःखरूप ज छे एम यथार्थ समजवुं. दुःखनुं कारण नथी एवो तो एक भगवान आत्मा ज छे. अहाहा...! भगवान आत्मा चिदानंद प्रभु सदाय-त्रणे काळ निराकुळस्वभाव छे. ए कोईनुं कारण नथी, कोईनुं कार्य पण नथी.

अहाहा...! आत्मामां एक अकार्यकारणत्व नामनी शक्ति छे. आ शक्तिना कारणे आत्मा अन्यनुं कार्य नथी. एटले आत्मा, अनाकुळ आनंदनो नाथ प्रभु कोईथी उत्पन्न नथी एवो स्वतःसिद्ध छे. वळी आ शक्तिना कारणे आत्मा कोईनुं कारण नथी. एटले पुण्य-पाप आदि भावोने आत्माए उत्पन्न कर्या छे एम नथी. अहाहा...! पर्यायमां जे राग थाय, पुण्य-पापना भावो थाय एनुं आत्मा कारण पण नथी अने कार्य पण नथी. ‘जैन तत्त्वमीमांसा’ मां आवे छे के उपादाननी जे उपादेय पर्याय थाय छे ते पूर्वना कारणना क्षयथी थाय छे. त्यां एम लीधुं छे के उपादानकारण वर्तमान, अने एनुं कार्य ते पछीनी उत्तर पर्याय. आ पण व्यवहारथी वात करी छे. बाकी तो समय-समयनुं उपादान स्वयंसिद्ध पोताथी छे, निमित्तना कारणे नहि, पूर्वना (पूर्व पर्यायना) कारणे नहि अने पोताना द्रव्य- गुणना कारणे पण नहि. अहो! आवुं सत् स्वयं निज समृद्धिथी भरेलुं छे.

प्रश्नः– निमित्तथी कांई थतुं नथी तो आप समयसार शुं काम वांचो छो? पद्मपुराण वांचो ने? समयसारना निमित्तथी कांईक विशेष लाभ छे एम ज ने?

उत्तरः– भाई! एम नथी. वांचती वखते के सांभळती वखते जे ज्ञाननी पर्याय थाय छे ते पोताने लईने स्वयं पोताथी थाय छे, निमित्तने लईने नहि. ज्ञाननी पर्यायना उत्पादनो स्वकाळ छे, एनी निजक्षण छे एटले ते पर्याय स्वतंत्रपणे पोताथी उत्पन्न थाय छे.

भाई! आ तो वीतराग परमेश्वर जिनेश्वरदेवना दरबारनी वातो छे. भगवाननी दिव्यध्वनि छूटी ते जीवोनो उपकार करे छे एम कथन आवे छे. मोक्षमार्ग प्रकाशकमां (अधिकार ८मां) आवे छे के तीर्थंकर-गणधरादि मोक्षमार्गनो उपदेश आपी जीवो उपर उपकार करे छे. आवां कथनो व्यवहारथी कहेवामां आवे छे. बाकी कोई कोईनो उपकार करे ए वात वस्तुना स्वरूपमां नथी. जे अपेक्षा शास्त्रमां कथन आवे तेनो भाव बराबर समजवो जोईए

समयसार शास्त्रना कळश ४३मां आचार्यदेव आश्चर्य अने खेद प्रगट करी कहे छे के- अरेरे! अज्ञानीने स्वपरना एकपणानी भ्रान्ति केम नाचे छे? अहा! कयां राग-दुःखनो कूवो अने कयां भगवान आनंदनो नाथ! छतां बंनेने एक मानवानो


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मोह तने केम नाचे छे? आवो निस्पृह करुणानो विकल्प ज्ञानीने आवे छे, पण तेने ते दुःखनुं कारण जाणे छे. नित्य अनाकुळस्वभावी एक आत्मा ज दुःखनुं अकारण छे. अनाकुळस्वरूप नित्यानंद प्रभु रागनुं आकुळतानुं कारण केम थाय? ते रागनुं आकुळतानुं कार्य केम करे? अने परने कारण बनावी पोताना कार्य केम करे? अहाहा... अकार्यकारणत्वशक्ति वडे ते परनुं कारण पण नथी अने परनुं कार्य पण नथी.

त्यारे वळी कोई कहे छे के-आत्माने पर पदार्थनो कर्ता न माने ते दिगंबर नथी. अरे प्रभु! आ तुं शुं कहे छे? प्रभु! तने आ शुं थयुं छे? अरे! परमागमनी आवी स्पष्ट वात तारा लक्षमां केम आवती नथी? अरे! दुःखना ऊंडा कूवामां दुःखथी घेरायेला तने संतो दुःखथी मुक्त थवानो अलौकिक मार्ग बतावे छे ते तने केम बेसतो नथी? भाई! रागनो आकुळतारूप भाव पर्यायनी योग्यताना काळे स्वयंसिद्ध पोताने लईने थाय छे. आत्मा तेनुं कारण नथी. व्यवहाररत्नत्रयनो शुभराग पण आकुळताजनक छे. चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मा एनुं कारण केम थाय? ए दुःखरूप भाव ते त्रिकाळी आत्मानुं कार्य केम होय? शुं आनंदना नाथनुं कार्य कांई दुःख होय? कदी न होय. अहाहा! आनंदना नाथनुं कार्य पण आनंद ज होय.

पर्यायमां जे आनंद आव्यो छे ते अंदर आनंद (स्वभाव) पडयो छे त्यांथी आव्यो छे. रागनी मंदताने लईने आनंद आव्यो छे एम बीलकुल नथी. व्यवहार कारण अने निश्चय कार्य-ए वातनी अहीं स्पष्ट ना पाडे छे. भाई! मांड आवी (शुद्ध तत्त्वनी) वात बहार आवी छे तो साची श्रद्धा तो कर. चारित्रनो दोष भले हो, पण श्रद्धामां तो आ वात हर्षभेर स्वीकार. आ समज्या विना एक डगलुंय धर्मपंथे नहि जवाय.

आत्मा परनुं कार्य करे अने एनो कर्ता थाय ए वात जिनशासननी नथी. चैतन्य- स्वभाव नित्य अनाकुळ आनंदरूप छे. ते कोईनुं कार्य नथी. अर्थात् रागनी मंदताथी निश्चय (आनंद) नीपज्यो छे एम नथी. त्यारे कोई कहे छे के-आ तो त्रिकाळी द्रव्यनी वात छे. तेने कहीए छीए के द्रव्यनो जेमां निर्णय थयो ते पर्याय छे, ए प्रगटेली पर्याय एम जाणे छे के आत्मा आनंदनी मूर्ति चिदानंदघन प्रभु रागनुं कारण नथी, रागनुं कार्य पण नथी. राग रागना कारणे थयो छे अने आनंद आनंदना कारणे. त्यारे ते कहे छे के रागनुं कारण जड कर्म छे. तो ए वात एम पण नथी. निमित्त निमित्तमां स्वतंत्र छे अने राग रागना कारणे स्वतंत्र थाय छे. अहा! गजब वात छे! कोई जडनी अवस्था के रागनी अवस्थानुं आत्मा कारण नथी.

आत्मा कोईनुं कारण नथी. एटले बे कारणथी कार्य थाय ए वात अहीं उडाडी


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दीधी छे. पर्यायमां जे राग थाय एनुं कारण अने कार्य स्वयं राग छे, आत्मा नहि अने कर्म पण नहि ज नहि. राग थाय एमां आत्मा निमित्त छे एम योगसारमां आव्युं छे. राग थाय एमां आत्मा निमित्त छे, उपादान नहि. विकार विकारना कारणे स्वयं थाय एमां ज्ञायकमूर्ति प्रभु आत्मा निमित्त छे. निमित्त छे एटले के छे, बस एटलुं ज; एनाथी थयो एम नहि. अहो! दिगंबर संतोए गजबनां काम कर्यां छे. माटे भगवान आत्मा दुःखनुं अकारण ज छे.

आस्रवो-पुण्यपापना भावो अशुचि छे, भगवान आत्मा अत्यंत शुचि छे ए पहेलो बोल थयो. आस्रवो-पुण्यपापना भावो जड, अचेतन छे, अने भगवान आत्मा विज्ञानघनस्वभाव होवाथी चेतक छे, शुद्ध चैतन्यमय छे. आ बीजो बोल कह्यो. आस्रवो- पुण्यपापना भावो आकुळता उपजावनारा होवाथी दुःखनां कारण छे, अने भगवान आत्मा सदाय अनाकुळस्वभाव होवाथी दुःखनुं अकारण ज छे. आ त्रीजो बोल कह्यो. त्रण बोलथी आत्मा अने आस्रवोनी भिन्नता कही. आ प्रमाणे आस्रवोथी भिन्न अने स्वभावथी अभिन्न एवा आत्मानी सन्मुख थईने भेदज्ञान प्रगट करवुं, अर्थात् पर्यायने त्रिकाळीमां अभेद करवी ते धर्म छे-मोक्षमार्ग छे. पर्यायने अभेद करवी एटले द्रव्य-सन्मुख करवी एवो एनो अर्थ छे. कांई द्रव्य अने पर्याय एक थई जाय एम अर्थ नथी. पर्याय द्रव्यसन्मुख थतां स्वभावनी जातनी पर्याय थई अने रागथी भिन्न पडी गई. एटले ते द्रव्यथी अभिन्न थई एम कहेवामां आवे छे.

पाठमां ‘णादूण’ शब्द पडयो छे ने? एनो अर्थ ए के आस्रवोने अशुचि, अचेतन अने दुःखनां कारण जाणीने एनो विशेष खुलासो एम छे के अत्यंत शुचि-पवित्र, चैतन्यस्वभावमय, सहजानंदमूर्ति भगवान आत्मा ज्यां अनुभवमां-ज्ञानमां आव्यो त्यां आस्रवो अशुचि आदि पणे जणाई गया, निर्मळ भेदज्ञान थई गयुं. ए ज धर्म अने मोक्षमार्ग छे. स्वतरफ वळतां ज्यां शुद्ध आत्मा जणायो त्यां आस्रवो अशुचि इत्यादि छे, निज स्वरूपथी भिन्न छे एम भेदज्ञान थई जाय छे अने आत्मा आस्रवोथी निवृत्त थाय छे.

जुओ! आ कर्ताकर्म अधिकार चाले छे. कर्ता एटले थनारो. आत्मा खरेखर पोताना चैतन्यस्वभावे थनारो छे. ज्ञाता-द्रष्टाना जे निर्मळ परिणाम थाय ते एनुं कर्म छे अने तेनो कर्ता आत्मा छे. अहाहा...! आत्मा सहजानंदनी मूर्ति त्रिकाळी भगवान छे. ते दुःखनुं कारणेय नहि अने दुःखनुं कार्य पण नहि; ते रागनुं कारण पण नहि अने कार्य पण नहि. पुण्य-पापना भाव आवे खरा, पण ते आत्मानुं कार्य नहि.

प्रश्नः- तो मंदिर बनाववा अने प्रतिष्ठा कराववाना भाव आवे छे ने?

उत्तरः– हा, आवे छे; पण ते छे राग. भाई? भगवाननी मूर्ति छे, मंदिर


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पण छे. ए बधुं छे ए आगमथी सिद्ध छे, इतिहासथी पण सिद्ध छे. कोई एने उथापे तो ए मार्ग नथी. मोहन-जो-डेरोमां पांच हजार वर्ष जूनी प्रतिमा नीकळी छे, इतिहासथी पण ए सिद्ध छे, शास्त्रमां पण मूर्तिनी वात छे. माटे एनो कोई निषेध करे तो ते सत्य मार्ग नथी. भगवाननी मूर्ति छे अने जे शुभभाव करे तेने एमां ते निमित्त पण छे. भगवाननी प्रतिमा शुभभाव करावी दे एम नहि, पण जे शुभभाव करे तेने ए निमित्त छे. तथापि शुभभाव छे ते धर्म नथी, धर्मनुं कारण पण नथी. आवी चोकखी वात छे.

वळी कोई मूर्ति माने, पण तेमां आडंबर वधारी तेने शणगार-आभूषण लगावे तो ते पण बराबर नथी, सत्य मार्ग नथी. शुद्ध जळथी ज भगवाननो अभिषेक होय एवी शास्त्रोक्त पद्धति छे. एमां फेरफार करवो ए पण मार्ग नथी. भाई! आ तो वीतरागनो मार्ग छे. तेमां वीतरागी बिंबनुं ज स्थापन, पूजा, भक्ति होय छे.

वीजळीना दीवाना मोटा भपका करे एमां जीव-जंतु मरे, पतंगियां मरे. जेमां विशेष हिंसानो दोष थाय ए मार्ग नथी. भाई! आ तो विवेकनो मार्ग छे. भगवानने फूल चढावे अने केशरना चांल्ला करे ए मार्ग नथी. कोई प्रतिमाने (जिनबिंबने) उथापे तो ए मार्ग नथी अने कोई प्रतिमा पर आभूषणादि अनेक प्रकारे आडंबर रचे तो ते पण मार्ग नथी. भगवाननी मूर्ति होय छे. तेनी पूजा-भक्ति-वंदनाना भाव पण होय छे. पण एनी मर्यादा एटली के ते शुभभाव छे, पुण्यबंधनुं कारण छे. कह्युं ने अहीं के ते आकुळता उपजावनार दुःखनुं कारण छे.

संप्रदायमां हता त्यारे चोटीलामां एक साधु साथे चर्चा थयेली. एमणे कबुल करेलुं के भगवाननी मूर्तिनी वात शास्त्रमां छे. वात साची छे. पण वात बहार केम मूकाय? लोकोने श्रद्धा उडी जाय. भाई! परमात्मा त्रणकाळ त्रणलोकना जाणनारा अनादिथी छे. तेम जिनबिंबनी-प्रतिमानी स्थापना, मंदिरोनुं निर्माण, तेमनी पूजा-भक्ति-वंदना-अभिषेक बधुं अनादि काळथी छे. स्वर्गमां तो भगवाननी शाश्वत अकृत्रिम प्रतिमाओ छे. इन्द्रो, देवो, देवांगनाओ तेनां वंदन-पूजन आदि करे छे अने मोटा महोत्सवो उजवे छे.

परंतु ए बधो भाव शुभ छे. एनाथी पुण्यबंधन थाय एटली एनी मर्यादा छे. एथी आगळ जईने जो कोई एम कहे के एनाथी (शुभथी) संसार परित थाय तो ए वात साची नथी. २प०० वर्ष पहेलांनी तथा पांच हजार वर्ष पहेलांनी पुराणी प्रतिमाओ नीकळी छे. छापामां एना लेख आवे छे ए परथी प्राचीन काळमां पण ए परंपरा प्रचलित हती एम सिद्ध थाय छे.

धवलमां तो एम आवे छे के जिनबिंबदर्शनथी निधत्त अने निकाचित कर्मना


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भुक्का थई जाय छे. ए व्यवहारथी वात करी छे. आत्मदर्शनथी कर्मनो नाश थाय एमां जिनबिंबदर्शन निमित्तमात्र छे.

द्रव्य, गुण अने पर्याय त्रणेमां अकार्यकारणशक्ति व्यापेली छे. द्रव्य अने गुण तो रागनुं कारण नथी अने रागनुं कार्य पण नथी. पण द्रव्य-स्वभावनी सन्मुख थतां जे निर्मळ पर्याय प्रगट थई ते पण कोईनुं कारण नथी, कार्य पण नथी. जे निर्मळ ज्ञाननी पर्याय प्रगटी एमां पण अकार्यकारणशक्ति व्यापी छे.

प्रश्नः– आत्मा रागनुं कारण नथी तो मंदिरो बंधाववां, महोत्सवो उजववा इत्यादि रागनां काम केम करो छो?

उत्तरः– अरे भाई! राग थाय छे, एने करवानी वात ज कयां छे? अने मंदिरो तो निर्मित थवा काळे एना कारणे एनाथी थाय छे. एने कोण करे? शुं आत्मा करे? (ना). ए मंदिरो बनवाना काळे शुभभाव होय छे ते एमां निमित्त छे, निमित्त-कर्ता नहि. निमित्त जुदी चीज छे अने निमित्त-कर्ता जुदी चीज छे. जयसेनाचार्यनी टीकामां आ वात छे. जगतमां मंदिर आदि पदार्थोमां जड रजकणो परिणमे, जडनी पर्याय थाय एमां आत्मा निमित्त छे, निमित्त-कर्ता नथी. आखा लोका-लोकने केवळज्ञान निमित्त छे अने केवळज्ञानमां लोकालोक निमित्त छे. ए तो एनी उपस्थिति छे, हाजरी छे एनुं त्यां ज्ञान कराव्युं छे.

जुओ! हाथनी आंगळी आम-तेम हाले तेनो निमित्त-कर्ता कोण? जे जीव राग अने जोगनो कर्ता थाय एवो पर्यायबुद्धि जीव तेनो निमित्त-कर्ता छे. हाथनी अवस्था तो तेना काळे जे थवानी होय ते थाय छे. परंतु अज्ञानी जीव जोग अने रागनो (करवाना अभिप्रायथी) कर्ता थाय छे. माटे तेना जोग अने रागने ते पर्यायनो निमित्त-कर्ता कहेवामां आवे छे.

अहीं कहे छे के-मंदिर थाय, राग थाय, छतां ए राग अने मंदिरनो कर्ता आत्मा नथी. वाह! करे ने कर्ता नहि! अरे! कोण करे छे? अज्ञानीने भ्रम पडे छे के आ क्रिया थवा काळे मारुं निमित्तपणुं छे माटे त्यां कार्य थाय छे. अज्ञानी (पोताने) निमित्त-कर्ता माने छे. पर वस्तुमां कार्य थाय एमां ज्ञानी तो निमित्तमात्र ज छे, निमित्त-कर्ता नहि.

भगवाननी प्रतिमा शांत-शांत-शांत एवा उपशमरसनो कंद होय छे. जोतां वेंत ज ठरी जवाय, आनंदविभोर थई जवाय-एवी ए प्रतिमाने मुगट पहेरावे अने आंगी लगावे तो ए जिनबिंब नथी. आ तो न्यायथी वात छे. अहीं कोई पक्षनी वात नथी. भाई! आ त्रीजा बोलमां बहु सूक्ष्म सिद्धांतनुं निरूपण छे. मंदिर बनाववाना शुभभाव होय छे, मंदिर एना थवा काळे एना कारणे थाय छे. परंतु ए


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शुभभाव अने मंदिर कांई आत्मानुं कार्य नथी. अहाहा...! भगवान आत्मा निराकुळ आनंदनो नाथ आनंदरसकंद प्रभु छे, तेनी पर्यायमां आनंदनुं कार्य थाय एनो ए कर्ता छे अने जे आनंद प्रगटयो ए तेनुं कार्य छे. परंतु व्यवहाररत्नत्रयना जे शुभ-भाव थाय तेनुं आत्मा कारण पण नथी अने कार्य पण नथी. शुभभावरूपी जे दुःख तेनुं आत्मा कारण केम होय? (न होय). शुभभावरूप जे दुःख छे ते कारण अने आनंदनी पर्याय एनुं कार्य केम होई शके? (न होई शके). अहा! कोईनुं कार्य तेम ज कोईनुं कारण नहि होवाथी भगवान आत्मा दुःखनुं अकारण ज छे.

द्रष्टि अने द्रष्टिनो विषय जे त्रिकाळी द्रव्य छे तेमां एवी कोई शक्ति नथी जे विकारने करे. तथा ते शक्तिवान अखंड द्रव्यने द्रष्टिमां लेनार (ज्ञानी) स्वभावपरिणमननो कर्ता छे, पण विभावनो नहि.

त्यारे कोई वळी एम कहे छे के राग उत्पन्न थाय छे एमां बे कारण जोईए-जेम माता-पिता बेथी पुत्रनी उत्पत्ति थाय छे तेम. हा, जयसेनाचार्यनी टीकामां आवुं कथन आवे छे, पण त्यां कयी अपेक्षाथी कह्युं छे ते समजवुं जोईए. खरेखर रागनो कर्ता आत्मा नथी, पण पर्यायमां परिणमन छे ए अपेक्षाए तेने कर्ता कह्यो छे. त्यां निश्चय राखीने वात छे, तथा प्रमाणनुं ज्ञान कराववा निमित्तने भेळवीने कह्युं के ए (निमित्त) कर्ता छे. आ प्रमाणे कार्यना बे कारणो सिद्ध कर्या छे-एक उपचरित अथवा निमित्त कारण अने एक उपादान कारण. उपादान कारण छे ते यथार्थ छे अने उपचरित कारण अयथार्थ छे. रागनो जे विकल्प उठे छे तेनुं निश्चयथी आत्मा कारण नथी. पण पर्यायमां थाय छे तेथी तेने कारण गण्युं छे. खरेखर तो रागनुं कारण रागनी पर्याय पोते ज छे. राग आत्माना द्रव्य-गुणनुं कारण नथी, तथा द्रव्य-गुण रागनुं कारण नथी.

शुभरागनो भाव ज्ञानीने आवे, मुनिराजने पण आवे छे, परंतु तेओ एना कर्ता थता नथी. भागचंदजीनी स्तुतिमां आवे छे के मुनिवरोने अशुभभावनो तो विनाश थई गयो छे अने शुभभावथी तेओ उदास छे. अहो! धन्य ते मुनिवरो भावलिंगी दिगंबर संतो जंगलवासी वीतरागभावमां झूलनारा केवलीना केडायतो! अहा! तेमने अशुभ-भावनी तो गंधेय नथी अने जे शुभोपयोग होय छे तेनाथी तेओ उदास छे. अहा! शुं तेमनां वचनो! उपदेश आपता होय त्यारे जाणे तेमना मुखमांथी अमृतनां झरणां झरतां होय! परंतु अहीं कहे छे के ए वचनामृतनुं कारण (मुनिवरनो) आत्मा नहि. आत्मा कोईनुं कारण नथी तेम ज कोईनुं कार्य पण नथी. अहाहा! दर्शनबुद्धिनी कांई बलिहारी छे! चारित्र दोष भले होय, उदयवश रागमां भले जोडाय, परंतु दर्शनशुद्धिनी निर्मळतामां रागनुं हुं कारण नहि अने राग मारुं कार्य नहि-एम धर्मी जीव माने छे. दर्शनशुद्धिना बळे हुं तो जाणनार-जाणनार- जाणनार ज्ञाता-द्रष्टा छुं एवी द्रष्टि


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निरंतर रहे छे. आवी दर्शनशुद्धि अने एनो विषय मूळ चीज छे. दर्शनशुद्धि प्रगट थई एने तो जन्म-मरणनो अंत आवी गयो.

राग अने स्वभावनी एक्ताबुद्धिनी ग्रंथि-गांठ ए तो मिथ्यात्व छे. हुं तो शुद्ध चैतन्यमूर्ति भगवान छुं एवा भानमां धर्मी जीवने रागनी द्रष्टि खसी गई छे. राग मारा स्वरूपमां नथी एम रागने ए पोताना ज्ञानमां परज्ञेय तरीके जाणे छे. राग छे माटे जाणे छे एम पण नथी. ए तो ज्ञाननी पर्याय स्वपर-प्रकाशक पोताना ज सामर्थ्यथी छे ते स्वपरने जाणती प्रगट थाय छे. आवी भेदज्ञाननी वात बहु झीणी, भाई!

हवे कहे छे-‘आ प्रमाणे विशेष (तफावत) देखीने ज्यारे आ आत्मा, आत्मा अने आस्रवोनो भेद जाणे छे ते ज वखते क्रोधादि आस्रवोथी निवृत्त थाय छे.’ भगवान आत्मा अतिनिर्मळ चिदानंदस्वरूप छे अने आस्रवो मेला दुःखरूप छे एम बे वच्चेनो तफावत- स्वभावभेद जे वखते जाणे छे ते ज वखते क्रोधादि आस्रवोथी ते निवृत्त थाय छे एटले के पुण्य-पापना भाव मारा छे एवा अभिप्रायथी निवृत थई जाय छे. जुओ! धर्मसभामां गणधरो अने एकावतारी इन्द्रो जे वात सांभळता हता ते आ अलौकिक वात छे. बापु! मुनिवरोनी वाणी ए तो सर्वज्ञनी वाणी छे. कहे छे-जे वखते रागथी भिन्न अंदर चिदानंद भगवान जाण्यो ते ज वखते रागथी-आस्रवथी निवृत्त थई गयो. रागभाव अने स्वभावभावनुं भेदज्ञान थतां ज रागमांथी द्रष्टि खसी जाय छे, निवृत्त थाय छे.

‘कारण के तेमनाथी जे निवर्ततो न होय तेने आत्मा अने आस्रवोना पारमार्थिक (साचा) भेदज्ञाननी सिद्धि ज थई नथी.’ तेने साचुं भेदज्ञान थयुं ज नथी.

जुओ! अशुभभावथी तो ठीक, पण शुभभावथी आत्मा भिन्न छे ए वात अज्ञानीने खटके छे. पण अहीं कहे छे के शुभभाव अने आत्मा-बे भिन्न छे एम जे काळे जाण्युं ते ज काळ ते आस्रवोथी निवृत्त थाय छे. एटले के पुण्यभाव उपर जे लक्ष हतुं ते लक्ष छूटी जाय छे. भाई! आ तो अंदरनी क्रियानी वातो छे. तारे आ समजवुं पडशे.

भगवान! आ समज्या विना चोरासीना अवतारमां रखडी-रझळीने तुं मरी गयो छे. कळशटीकामां कळश र८मां आवे छे के मरणतोल थई गयो छे. ‘जीव द्रव्य प्रगट ज छे, परंतु कर्मसंयोगथी ढंकायेलुं होवाथी मरणने प्राप्त थई रह्युं हतुं.’ अहा! रागनी रुचिमां, रागना परिणमनना अस्तित्वने ज (निजस्वभाव) स्वीकारीने जीवनुं जे त्रिकाळी जीवन छे तेने मरणतोल करी नाख्युं छे. जीव द्रव्य तो प्रगट ज छे. अहाहा...! विद्यमान चिदानंदघन प्रभु आत्मा तो अस्ति ज छे, प्रगट ज छे. गाथा ४९मां व्यक्त पर्यायनी अपेक्षाए अव्यक्त कह्यो छे ए बीजी वात छे. अहीं कहे छे के अनाकुळ आनंदनो नाथ ध्रुव त्रिकाळी भगवान अस्तिपणे मोजुद प्रगट ज छे. परंतु


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एनी सन्मुख थया विना, एनाथी विमुख थईने रागनो ज स्वीकार करीने मरणने प्राप्त थई रह्यो छे.

शुं जीव मरतो हशे? भाई! ए तो जीवती-जागती ज्योत सदा प्रगट ज छे. द्रव्य तो त्रिकाळ सत् छे. परंतु जीवनुं जे त्रिकाळी सत्त्व - जीवत्त्व छे एने तें मान्युं नथी. रागनी रुचिमां तारा त्रिकाळी जीवननो तें ईन्कार कर्यो छे तेथी मरणतोल करी नाख्यो एम अहीं कह्युं छे. अरेरे! रागनी रुचिना फंदमां फसाइने तें अनादिथी जन्म-मरणनी परंपरानां कष्टो ज उठाव्यां छे तेथी मरणतोल करी नाख्यो एम कह्युं छे. ‘ते भ्रान्ति परमगुरु श्री तीर्थंकरनो उपदेश सांभळतां मटे छे.’

‘नयननी आळसे रे नीरख्या न नयणे हरि’ -एम आवे छे ने! आ हरि एटले अज्ञान, राग, अने द्वेषने जे हरी ले ते हरि. ए हरि तो चिदानंदघन प्रभु पोते ज छे. आ भगवाननो उपदेश छे. प्रभु! तारी चीज तो रागथी-दया, दान, व्रत, तप आदिना विकल्पथी भिन्न अंदर परम पवित्र शुद्ध चैतन्यमय वस्तु पडी छे. ते सदा मोजुद छे. तेमां द्रष्टि कर. आ भगवाननो उपदेश छे.

कळशटीकामां चोथा कळशमां आवे छे के जिनवचननुं सेवन करवाथी-जिनवचनमां रमवाथी मोहनो नाश थाय छे. एनो अर्थ शुं? भगवान जिनेश्वरदेवे कहेला भावमां जे पुरुष रमे छे तेने मिथ्यात्वकर्मनुं वमन थईने शुद्धात्मानी प्राप्ति थाय छे. दिव्यध्वनि द्वारा कही छे उपादेयरूप शुद्ध जीववस्तु तेमां जे रमे अर्थात् तेनो जे आश्रय करे तेने भ्रान्ति छूटी जाय छे. आ भगवाननो उपदेश छे-के त्रिकाळी आनंदनो नाथ आश्रय करवा योग्य छे.

त्यां कोई वळी कहे छे के-जैनधर्ममां तो बे नयनुं ग्रहण करवानुं कह्युं छे ने?

समाधानः– भाई! बे नयनुं ग्रहण करवुं एटले शुं? बे नयनो विषय तो परस्पर विरुद्ध छे. शुद्धनयरूप आत्मा शुद्ध चैतन्यघन अंदर त्रिकाळी वस्तु मोजुद छे ते एकने ज उपादेयपणे ग्रहण करवानुं भगवाननी देशनामां आव्युं छे. अहाहा! वस्तु जे मलिनता रहित, हीणप रहित अने विपरीतता रहित अतिनिर्मळ पूर्ण चैतन्यमय भगवान छे ते एक ज उपादेय छे एम भगवाननी वाणीनुं फरमान छे. रागथी भिन्न पडीने ज्यां त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यने उपादेय कर्युं त्यां रागथी विरुद्ध शुद्ध चैतन्यमय परिणमन थई गयुं. आ रीते आत्मा आस्रवोथी निवृत्त थाय छे. (व्यवहारनय ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे, आदरेलो नहि. ए ज व्यवहारनयने ग्रहण करवानो आशय छे.

अने जो आत्मा आस्रवोथी निवृत्त न थाय तो तेने साचुं भेदज्ञान थयुं ज नथी, पुण्य- पापना भावथी द्रष्टि खसी गई एनुं नाम भेदज्ञान छे. कोई वळी आमांथी एवो अर्थ काढे छे के पुण्य-पापना भाव बीलकुल थाय ज नहि एने भेदज्ञान कहेवाय. परंतु


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एम नथी, भाई! पुण्य-पापभावनी रुचिथी खसी गयो एने अहीं निवर्त्यो कहे छे. अभिप्रायमां जे राग साथे एक्ता हती ते तूटी गई तेने निवृत्त थयो कहे छे अने ते भेदज्ञान छे. अभिप्रायमां जे आस्रवोथी निवर्ततो नथी तेने भेदज्ञान ज नथी.

बीलकुल रागभाव न होय तो भेदज्ञान छे एम अहीं वात नथी. रागनी रुचिथी खसीने चैतन्यस्वभावनी रुचिमां आवे छे तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. पुण्यभाव आदि होय, पण धर्मीने एनी रुचि छूटी गई होय छे. द्रष्टिनी अपेक्षाथी अहीं वात छे.

वळी कोई एम कहे के पहेलां क्रोधादिथी निवर्ते अने पछी भेदज्ञान थाय; तो ए वात पण यथार्थ नथी. जे काळे सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगटे, निर्मळ भेदज्ञान प्रगटे ते ज काळे क्रोधादिनी निवृत्ति थाय छे. बन्नेनो समकाळ छे, पहेलां-पछी छे ज नहि. भाई! अंतर्द्रष्टि थया विना भेदज्ञानना अभावमां अनंतकाळमां जीवे घणुं बधुं कर्युं; व्रत कर्यां, तप कर्यां अरे! हजारो राणीओने छोडीने वनवासी दिगंबर मुनि पण थयो. महाव्रत पाळ्‌यां अने आकरां तप कर्यां. परंतु एकडा विनाना मींडानी जेम बधुं निरर्थक गयुं. रागनां निमित्त मटाडयां, पण रागनी रुचि न मटी एटले संसार मटयो नहि, लेशमात्र पण सुख न थयुं. छहढालामां आवे छे ने के-

‘मुनिव्रतधार अनंतवार ग्रीवक उपजायो,
पै निज आतमज्ञान विना सुख लेश न पायो.’

भाई! अंतर्मुखद्रष्टि थया विना रागनी रुचि छूटती नथी अने ज्यां रागनी रुचि होय छे त्यां अंतर्द्रष्टि-भेदज्ञान होतुं नथी. माटे भेदज्ञान अने आस्रवोथी निवर्तन-ए बेनो समकाळ छे एम यथार्थ जाणवुं. (कळशटीकामां कळश २९ मां पण आ वात लीधी छे.)

‘माटे क्रोधादिक आस्रवोथी निवृत्ति साथे जे अविनाभावी छे एवा ज्ञानमात्रथी ज, अज्ञानथी थतो जे पौद्गलिक कर्मनो बंध तेनो निरोध थाय छे.’ क्रोध कहेतां अंदर पूर्णानंदनो नाथ जे ज्ञायकस्वभावी प्रभु आत्मा छे तेथी विमुख थईने रागनी रुचि करे तेने ज्ञायक रुचतो नथी माटे तेने भगवान आत्मा प्रत्ये क्रोध छे. कह्युं छे ने के ‘द्वेष अरोचक भाव’. निज स्वरूपनी अरुचि ते क्रोध छे. आ क्रोध आदि उपरथी जेने द्रष्टि खसी नहि अने स्वभावनी द्रष्टि करी नहि ते आस्रवोथी निवर्त्यो नथी. परंतु ज्यां आस्रवोथी द्रष्टि खसेडी निज चैतन्यस्वरूपमां अभेद थई परिणम्यो के तरत ज तेने अंतर्ज्ञान थयुं, सम्यग्ज्ञान थयुं. आ रागथी भिन्न पडेलुं जे ज्ञान ते ज्ञानमात्रथी ज बंधनो निरोध थाय छे. पहेलां जे एकत्व- विभक्तनी वात करी हती ए शैलीथी अहीं वात छे. अहाहा! स्वभावमां एकत्व अने रागथी विभक्त थाय ते भेदज्ञान छे. अने तेनाथी बंधनो निरोध थाय छे, बंधन अटकी जाय छे.