Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 73.

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राग अने स्वभावनुं जे भेदज्ञान थयुं ते ज्ञान आस्रवोथी निवर्ते छे एटले सर्वथा राग मटी जाय छे एम अहीं अर्थ नथी. अभिप्रायमां जे पुण्य-पापनां रस-रुचि हतां ते मटी जाय छे अने तेने ज्ञान आस्रवोथी निवर्त्युं एम कहे छे. ते ज्ञानथी मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधीनो बंध अटकी जाय छे.

हवे आ वात वधारे स्पष्ट करे छे.-

‘वळी जे आ आत्मा अने आस्रवोनुं भेदज्ञान छे ते अज्ञान छे के ज्ञान छे? दलीलथी विषय वधारे स्पष्ट करे छे. कहे छे-आ पुण्य-पापना भाव अने भगवान आत्मा ए बन्नेनुं जे भेदज्ञान छे ते अज्ञान छे के ज्ञान?

‘जो अज्ञान छे तो आत्मा अने आस्रवोना अभेदज्ञानथी तेनी कांई विशेषता न थई.’ जुओ! आत्मा अने आस्रवोनुं अभेदज्ञान-एकपणानुं ज्ञान तो अज्ञान छे, अने तेनाथी बंध छे. हवे जो आत्मा अने आस्रवो भिन्न छे एवुं जे भेदज्ञान ते पण अज्ञान होय तो बंनेमां कांई फरक न पडयो. जो भेदज्ञान पण अज्ञान होय तो आत्मा अने आस्रवोना एकपणाना ज्ञानथी तेमां कांई विशेषता न थई. आत्मानी राग साथे अनादिथी एक्ता छे अने एनाथी (रागथी) ज्ञान जुदुं न पडयुं तो ते ज्ञान ज नथी, भेदज्ञान ज नथी.

‘अने जो ज्ञान छे तो (ते ज्ञान) आस्रवोमां प्रवर्ते छे के तेमनाथी निवर्त्युं छे?’ आ बीजो प्रश्न छे. जो ते ज्ञान छे एम कहो तो ते ज्ञान आस्रवोमां प्रवर्ते छे के केम? जो आस्रवोमां प्रवर्ते छे तो आत्मा अने आस्रवोना अभेदज्ञानथी तेनी कांई विशेषता न थई. ज्ञान कहो अने वळी आस्रवोमां प्रवर्ते-रुचि करे एम कहो-ए तो एनुं ए थयुं. पुण्य-पापना भावोने उपादेय करीने प्रवर्ते ते ज्ञान भेदज्ञान ज नथी. रागथी भिन्न पडी स्वभावने ग्रहे ते ज्ञान भेदज्ञान छे. अने ते ज्ञानमात्रथी मिथ्यात्व अने अनंतानुंबंधीनो बंध अटके छे, परंतु पुण्य पापमां प्रवर्ते ए तो ज्ञान ज नथी. आस्रवमां प्रवर्ततुं अटके एनुं नाम साचुं ज्ञान-भेदज्ञान छे, अने एनाथी बंधनो निरोध थाय छे.

‘जो आस्रवोथी निवर्त्युं छे तो ज्ञानथी ज बंधनो निरोध सिद्ध थयो केम न कहेवाय?’ सिद्ध थयो ज कहेवाय. पुण्य-पापना भावथी द्रष्टि खसीने स्वभावमां एकाकार थई ए ज्ञानमात्रथी बंधन अटकी गयुं. अविरति आदि राग परिणाम होय खरा, पण हुं तो रागथी भिन्न चिदानंदघनस्वरूप छुं एवुं भेदज्ञान थतां बंध अटकी जाय छे.

हवे कहे छे-‘आम सिद्ध थवाथी अज्ञाननो अंश एवा क्रियानयनुं खंडन थयुं.’ दया- दान-पूजा-भक्ति आदि पुण्यभावथी धर्म थाय एवा (अज्ञानमय) क्रियानयनुं खंडन थयुं. कषायनी मंदता करतां करतां धर्म थाय एवी खोटी मान्यतानुं अहीं खंडन


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कर्युं छे. मंद रागनी लाख क्रियाओ करे, पण ए धर्म नथी. रागथी निवर्तेलुं ज्ञान धर्म छे; आवो मार्ग छे.

रागनी मंदतानी क्रिया ते क्रिया अने परलक्षी आत्मानुं ज्ञान-एम ‘ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्षः’ कोई कहे छे तो ते वात यथार्थ नथी; अहीं तेनुं खंडन कर्युं छे. रागथी भिन्न पडेलुं स्वरूपनुं ज्ञान ते ज्ञान अने ज्ञान-स्वरूपमां ठरवुं-रमवुं ते क्रिया. आ प्रमाणे ‘ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्षः’ यथार्थ छे. कळशटीकामां कळश २६७मां आवे छे के ज्ञान अने क्रियानयने परस्पर तीव्र मैत्री छे. एटले के ‘शुद्ध स्वरूपनो अनुभव अशुद्ध रागादि परिणामने मटाडीने थाय छे.’-‘शुद्ध स्वरूपनो अनुभव छे ते रागादि अशुद्ध परिणतिने मटाडीने छे, रागादि अशुद्ध परिणतिनो विनाश शुद्ध स्वरूपना अनुभव सहित छे.’ आने त्यां परस्पर अत्यंत मैत्री कही छे. एने जे पात्र थयो छे ते जीव समकिती छे, (धर्मिष्ठ छे) रागनी मंदतानी क्रिया थाय ते धर्म नथी, पण राग-परिणाम मटाडीने जे निर्मळ परिणाम प्रगट थाय ते धर्मनी क्रिया छे, ते मोक्षमार्ग छे.

‘वळी जे आत्मा अने आस्रवोनुं भेदज्ञान छे ते पण जो आस्रवोथी निवृत्त न होय तो ते ज्ञान ज नथी एम सिद्ध थवाथी ज्ञाननो अंश एवा (एकांत) ज्ञाननयनुं पण खंडन थयुं.’ एकलुं धारणारूप जाणपणुं करीने माने के मने ज्ञान थई गयुं, पण अंदर ज्ञानमां एकाकार न थाय तो ते ज्ञान ज नथी. ते एकान्त ज्ञाननयनुं अहीं खंडन कर्युं. एकलो ज्ञाननो उघाड छे पण आत्मामां एकाग्र थयो ज नथी तो ते ज्ञानने ज्ञान कहेता ज नथी. क्षयोपशमनो अंश छे ते वस्तु नथी. श्रीमद्जीए पण कह्युं छे ने-

“कोई क्रियाजड थई रह्या, शुष्कज्ञानमां कोई,
माने मारग मोक्षनो,
करुणा उपजे जोई.”

एकने क्रियाजड कह्या, बीजाने शुष्कज्ञानी. बंनेनो निषेध करीने कहे छे के एनी दशा जोईने अमने करुणा थई आवे छे.

रागथी निवर्ततुं नथी अने स्वभावमां प्रवर्ततुं नथी ए ज्ञान ज नथी. क्षयोपशम ज्ञानने कोई सम्यग्ज्ञान माने एनो अहीं निषेध कर्यो छे.

अहीं एकान्त क्रियानय अने एकान्त ज्ञाननय ए बन्ने मिथ्यामतनुं खंडन कर्युं छे. रागनी मंदतानी क्रियामां धर्म माने ते क्रियाजड छे. अने जाणवामात्रथी भेदज्ञान माने ते शुष्कज्ञानी छे. बीजी रीते कहीए तो-व्यवहार करतां करतां धर्म थाय एवुं माने ए एकान्त क्रियानयनुं अहीं खंडन कर्युं छे. तथा परलक्षी जाणपणामात्रथी ज्ञान थाय एवुं माने ते एकान्त ज्ञाननयनुं अहीं खंडन कर्युं छे.

अहाहा! वस्तु ज्ञान अने आनंदनुं ढीम छे. रागथी भिन्न पडी तेमां एकत्वपणे परिणमेलुं ज्ञान ज्ञान छे अने एमां रमणता करवी ते क्रिया छे, अने ते मोक्षमार्ग छे.


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* गाथा ७२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

आस्रवो अशुचि छे, जड छे, दुःखनां कारणो छे. आत्मा पवित्र छे, ज्ञाता छे, सुखस्वरूप छे. ए रीते लक्षणभेदथी बंनेने भिन्न जाणीने आस्रवोथी आत्मा निवृत्त थाय छे. पुण्य-पापने जे पहेलां उपादेयपणे मानतो तेने हवे हेय जाणीने आत्माने उपादेयपणे स्वीकारे छे. तेने कर्मनो बंध थतो नथी. स्व आश्रित निश्चय अने पराश्रित व्यवहार ते एक ज सिद्धांत छे. शुभभाव ते धर्म नथी, धर्मनुं कारण पण नथी.

आत्मा अने आस्रवोनो भेद जाण्या छतां जो आत्मा आस्रवोथी निवृत्त न थाय तो ते भेदज्ञान ज नथी, अज्ञान ज छे.

अहीं कोई प्रश्न करे के अविरत सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी प्रकृत्तिओनो तो आस्रव नथी थतो पण अन्य प्रकृतिओनो तो आस्रव थईने बंध थाय छे; तेने ज्ञानी कहेवो के अज्ञानी? तेनुं समाधानः- सम्यग्द्रष्टि जीव ज्ञानी ज छे, कारण के ते अभिप्रायपूर्वकना आस्रवोथी निवर्त्यो छे. धर्मीने ज्ञानधारा प्रगट थई गई छे. रागधारा भले हो, अभिप्रायथी ते रागथी निवर्त्यो ज छे. अस्थिरता टळीने स्थिरता थई नथी, पण अभिप्रायमां तेने रागनो आदर नथी. स्वभावनुं स्वामीपणुं तेने प्रगटयुं छे अने परनुं-रागनुं स्वामीपणुं छूटी गयुं छे. माटे, ज्यां सुधी तेने चारित्रमोहनो उदय छे त्यां सुधी तेना उदय अनुसार जे आस्रवबंध थाय छे तेनुं स्वामीपणुं नथी. उदय अनुसार एटले उदय होय छे, पण पोतानी योग्यता प्रमाणे आस्रव थाय छे. उदय छे ते प्रमाणे ज आस्रव-बंध थाय एम नथी. नहितर तो कोई छूटवानुं बने ज नहि. उदय होय छतां पोतानी उपादान योग्यता अनुसार आस्रव थाय.

पोताना पुरुषार्थनी मंदताथी ज्ञानीने राग थाय छे, पण रागनो तेने अभिप्राय नथी. अभिप्रायमां तो ते आस्रव-बंधथी सर्वथा छूटवा इच्छे छे. तेथी ते ज्ञानी ज छे.

ज्ञानीने बंध थतो नथी एम कह्युं छे तेनुं कारण आ प्रमाणे छेः- मिथ्यात्वसंबंधी बंध जे अनंत संसारनुं कारण छे ते ज अहीं प्रधानपणे विवक्षित छे, कहेवा धारेलो छे. अविरति आदिथी बंध थाय छे ते अल्प स्थिति-अनुभागवाळो छे, दीर्घसंसारनुं कारण नथी; तेथी तेने प्रधान गणवामां आव्यो नथी.

राग थाय ते संसारनुं कारण छे, पण ज्ञानीने ते राग दीर्घ संसारनुं कारण नथी तेथी तेने प्रधान गण्यो नथी.

अथवा तो आ प्रमाणे कारण छेः- ज्ञान बंधनुं कारण नथी. ज्यां सुधी ज्ञानमां मिथ्यात्वनो उदय हतो त्यां सुधी ते अज्ञान कहेवातुं हतुं अने मिथ्यात्व गया पछी अज्ञान नथी, ज्ञान ज छे. तेमां जे कांई चारित्रमोह संबंधी विकार छे तेनो स्वामी


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ज्ञानी नथी तेथी ज्ञानीने बंध नथी; कारण के विकार के जे बंधरूप छे अने बंधनुं कारण छे ते तो बंधनी पंक्तिमां छे, ज्ञाननी पंक्तिमां नथी. आ अर्थना समर्थनरूप कथन आगळ जतां गाथाओमां आवशे.

अहीं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश ४७ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

जुओ! गाथामां त्रण बोलथी भेदज्ञान समजाव्युं छे. पुण्य-पापना भाव अशुचि छे, जड छे, दुःखरूप छे; अने भगवान आत्मा त्रिकाळी ध्रुव भगवान अति निर्मळ, विज्ञानघनस्वरूप, आनंदरूप छे. आम बंनेनी भिन्नता जाणीने जे पर्यायबुद्धि दूर करीने स्वभावसन्मुख थाय छे तेने भेदज्ञान प्रगट थाय छे. आवुं भेदज्ञान जेने अंतरंगमां प्रगट थयुं छे ते आत्माने- ‘परपरिणतिम् उज्झत्’ परपरिणतिने छोडतुं, ‘भेदवादान् खण्डयत्’ भेदनां कथनोने तोडी पाडतुं, ‘इदम् अखण्डम् उच्चण्डम् ज्ञानम्’ आ अखंड अने अत्यंत प्रचंड ज्ञान ‘उच्चैः उदितम्’ प्रत्यक्ष उदय पाम्युं छे.

जुओ! आ अखंड अने अत्यंत प्रचंड ज्ञान परपरिणतिने छोडतुं उदय पाम्युं छे. परपरिणति एटले विकारनो-पुण्यपापनो भाव. पहेलां जे अनेक प्रकारे पुण्य-पापना भावमां रोकाई रहेतो हतो ते हवे स्वभावनो आश्रय करतां ए भावोने छोडतुं अति प्रचंड ज्ञान उदय पाम्युं छे. हुं अखंड एक ज्ञायकस्वरूप छुं-एवी द्रष्टि थतां राग मारुं कर्तव्य छे ए द्रष्टि छूटी गई अने रागथी भिन्न पडीने अति तीक्ष्ण ज्ञान प्रगट थयुं. भगवान आत्मा चित्शक्तिरूप छे. पण पुण्य-पापनी रुचिना कारणे चित्शक्ति रोकाई गई हती. अरे! विकार-राग मारुं कर्तव्य, दया, दान, व्रतादि मारां कार्य-एम मानतां चित्शक्ति ढंकाई गई हती परंतु अखंड एकरूप चिदाकार चैतन्यमय आत्मानी द्रष्टि करतां रागनी रुचि छूटी गई, एनो महिमा छूटी गयो अने प्रचंड ज्ञानशक्तिनी प्रगटता थई. आम शक्ति जे हती ते प्रगट थई ते धर्म छे. जे ज्ञान परमां अटक्तुं हतुं ते स्वभावमां स्थित थयुं ते धर्म छे.

वळी आ अखंड अने अत्यंत प्रचंड ज्ञान भेदनां कथनोने तोडी पाडतुं प्रगट थयुं छे. अहाहा...! अखंड एकरूप ज्ञायक उपर द्रष्टि जतां भेदवाद खंडखंड थई जाय छे अने अखंड ज्ञान प्रगट थाय छे. जुओ! आ केवळज्ञाननी वात नथी. केवळज्ञान तो पर्याय छे. अहीं तो अखंड ज्ञान प्रगट थाय छे एम वात छे. अहाहा! एकलुं ज्ञान-ज्ञान-ज्ञान चैतन्यसामान्य एकसद्रश ध्रुव स्वभाव जेमां पर्यायनो अभाव छे ते प्रगट थाय छे एनी वात छे. अहाहा! मति-श्रुतज्ञान आदि जे खंडखंडरूप भेदो हता तेमने दूर करतुं-मटाडतुं अखंड ज्ञान उदय पाम्युं छे. एभदनी द्रष्टिमां भेदवाद मटी जाय छे. अहा! ओछा उघाडने लईने ज्ञेयना निमित्तथी ज्ञानमां जे खंड पडता


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हता, जे खंडरूप ज्ञानाकारो प्रतिभासता हता ते हवे ज्ञायकमां द्रष्टि स्थिर थतां ज्ञान अखंडपणे प्रत्यक्ष उदय पाम्युं छे, अर्थात् एक ज्ञानमात्र वस्तु ज ज्ञानमां जणावा लागी छे, ज्ञानना भेदो नहि. अहाहा! हुं अखंड एक ज्ञायकमूर्ति भगवान छुं-एम द्रष्टि थतां, विकार तो दूर रहो, मति-श्रुत अवस्थाना ज्ञानना भेदो पण बहार रही जाय छे, एकलो अखंड ज्ञायक भगवान ज जणाय छे. भाई! वीतरागनो मार्ग आवो आकरो छे, रागथी मरी जाय त्यारे ध्रुव चैतन्यबिंब जणाय एवुं छे. ११ मी गाथामां आवे छे के त्रिकाळी भूतार्थ-सत्यार्थ द्रव्यस्वभावना आश्रये सम्यग्दर्शन थाय छे. एमां भेद तूटी जाय छे एम अहीं कहे छे. चैतन्यरसनो कंद प्रभु आत्मा जाज्वल्यमान चैतन्यसूर्य छे. एना पर द्रष्टि करतां मति- श्रुतादि ज्ञानना खंडरूप भेदोने तोडी पाडतुं अखंड ज्ञान प्रत्यक्ष प्रगट थाय छे. ज्ञानमां अखंड ज्ञाननो सूर्य प्रत्यक्ष जणायो एटले प्रत्यक्ष प्रगट थाय छे एम कह्युं छे. हवे कहे छे-‘ननु’ अहो! ‘इह’ आवा ज्ञानमां ‘कर्तृकर्मप्रवृत्तेः’ (परद्रव्यनां) कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिनो ‘कथम् अवकाशः’ अवकाश केम होई शके?

वस्तु अखंड एकरूप चैतन्यस्वभावमय छे. तेमां कोई एवी शक्ति नथी जे विकार करे. आवा शक्तिमान द्रव्य उपर द्रष्टि पडतां ज्ञाननी वर्तमान दशा ज्ञाता-द्रष्टास्वभावे प्रगट थई छे. अहो! आवा ज्ञानमां कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिनो अवकाश केम होई शके? ज्ञायक-स्वरूप त्रिकाळीमां स्वपरने प्रकाशे एवी त्रिकाळ एनी शक्ति छे. त्रिकाळीने जाणे एवी एमां शक्ति छे. नियमसारमां आवे छे के त्रिकाळ ज्ञान-दर्शननो उपयोग ए त्रिकाळने जाणे ज छे. वस्तुनो स्वभाव आवो छे एनी वात छे. आ परिणमनरूपे (उपयोग) छे एनी वात नथी. त्रिकाळी वस्तुने जाणवानो स्वभाव त्रिकाळ शक्तिरूपे छे एम वात छे. परिणतिरूपे जाणे ए नहि. बहु सूक्ष्म वात, भाई! अहीं कहे छे के ज्ञानस्वभावना परिणमनमां रागनुं कर्तापणुं अने रागनुं कर्मपणुं एवो अवकाश केम होई शके? स्वभावनो आश्रय लईने जे ज्ञान-श्रद्धान प्रगट थयुं तेमां आखो आत्मा जणायो, श्रद्धामां आव्यो. ते ज्ञान, जे पर्यायमां रागनी अशुद्धता छे, के जे अशुद्धतानी परिणति छे तेने व्यवहारे जाणे, व्यवहार ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे; परंतु ज्ञानी रागनो कर्ता अने राग एनुं कार्य-एवो ज्ञानमां अवकाश कयां छे? (नथी ज). अनादिनी आवी पोतानी सर्वज्ञस्वभावी चीज छे. अनादिथी साधक जीवो छे, मिथ्याद्रष्टि जीवो पण अनादिथी छे. तेम जगतनी चीजो पण अनादिथी छे. अने ते सर्वने जाणनारनो विरह पण कदी जगतमां पडतो नथी. एवी ज रीते भगवान सर्वज्ञ-देवनी प्रतिमा पण अनादि काळथी छे. तेनो पण कदी विरह होतो नथी.


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लोकोने सत्य तत्त्वनी खबर नथी. भाई! उपरटपके मानी लईए एवी आ वस्तु नथी. आ तो भावमां एनुं भासन थवुं जोईए. त्रणकाळ, त्रणलोक अनादि-अनंत ज्ञेयपणे छे तो तेनो जाणनार कोई काळे न होय एम बनी शके नहि.

भगवान सर्वज्ञदेव जेम त्रिकाळ शाश्वत छे तेम एमनुं मूर्तिरूपे प्रतिबिंब पण जगतमां त्रणे काळ शाश्वत छे. आवी ज वस्तुनी स्थिति छे. अहीं कहे छे के ज्ञायकभावनुं भान थतां अंदर शक्तिरूप जे सामर्थ्य हतुं ते प्रगट थयुं. ए ज्ञानमां रागनो हुं कर्ता अने राग मारुं कर्म-एवी कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिनो अवकाश केम होई शके? न ज होई शके.

अरे भाई! प्रगटेलुं ज्ञान जाणवानुं काम करे के कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिनुं काम करे? परद्रव्यना कर्ताकर्मनो ज्ञानमां अवकाश ज नथी. परपरिणतिने तो छोडतुं ए प्रगट थाय छे. तो ज्ञानमां एनां कर्ताकर्म केवां? (छे ज नहि).

हवे कहे छे-‘वा’ तथा ‘पौद्गलः कर्मबन्धः’ पौद्गलिक कर्मबंध पण ‘कथम् भवति’ केम होई शके? न ज होई शके. जो ज्ञानमां कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिने अवकाश नथी तो कर्मबंधनो अवकाश केम होई शके? न ज होई शके.

कळशटीकाना र९ मां कळशमां आवे छे के-‘सुख, दुःख आदि विभावपर्यायरूप परिणमता जीवना जे काळे आवा अशुद्ध परिणमनरूप संस्कार छूटी जाय छे ते ज काळे तेने अनुभव छे. तेनुं विवरण-शुद्ध चेतनामात्रनो आस्वाद आव्या विना अशुद्ध भावरूप परिणाम छूटता नथी अने अशुद्ध संस्कार छुटया विना शुद्ध स्वरूपनो अनुभव थतो नथी. तेथी जे कांई छे ते एक ज काळ, एक ज वस्तु, एक ज ज्ञान, एक ज स्वाद छे.’ आवो मोक्षनो मार्ग कोई अपूर्व चीज छे, भाई! संसारनो व्यय थईने मोक्ष थाय एनो आ ज उपाय छे. व्यवहारथी आम थाय अने तेम थाय एम लोको वादविवादमां पडया छे परंतु आमां वादविवादने अवकाश नथी.

नियमसारमां प्रायश्चित अधिकारमां आवे छे के-निर्मळ दशा जे वीतराग परिणति प्रगटी ते प्रायश्चित छे. प्रायः+चित, अर्थात् प्रकृष्टपणे चित कहेतां ज्ञान ते प्रायश्चित. एटले त्रिकाळी ज्ञानस्वरूप जे वस्तु छे ते प्रायश्चितस्वरूप ज छे. परिणति प्रगटी ते कार्यनियम छे अने वस्तु जे त्रिकाळी शुद्ध ज्ञानचेतनारूप छे ते कारणनियम छे. एटले के जे कांई निर्मळ परिणति थाय ते प्रकारे आखीय वस्तु स्वभावथी छे. पर्यायमां वीतरागता प्रगट थाय छे तो वस्तु वीतरागस्वरूप ज छे. केवळज्ञान प्रगट थाय तो द्रव्य अखंड ज्ञानस्वरूप ज छे, आवा ज्ञाता-द्रष्टा स्वभावमां जेम रागना कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिने अवकाश नथी तेम ध्रुव स्वभावना आश्रये प्रगट थयेली ज्ञान परिणतिमां पण रागना कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिने अवकाश नथी. तो पछी कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिना अभावमां कर्मनुं बंधन थाय एनो अवकाश कयां रह्यो? (न ज रह्यो).


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कोई एम कथन करे छे के-“परद्रव्यनो कर्ता न माने ते दिगंबर नथी, -” आ कथननुं अहीं स्पष्ट निराकरण छे के आत्मद्रव्यमां परद्रव्यनी कर्ताकर्मप्रवृत्तिनो अवकाश होई शके नहि.

अरेरे! जीवो दुःखथी भय पामी सुख शोधे छे, पण एनो उपाय तेओ जाणता नथी! जेम फूलनी कळी शक्तिरूपे छे तेमांथी फूल खीले छे तेम भगवान आत्मा अनंतगुणपांखडीए एक ज्ञायकभाव पणे अंदर बिराजमान छे. द्रष्टि एनो स्वीकार करीने ज्यां अंर्तमग्न थाय छे त्यां पर्यायमां ज्ञायकभाव प्रगट थाय छे. आ ज धर्मनी रीत छे, भाई!

“ज्ञेयोना निमित्तथी तथा क्षयोपशमना विशेषथी ज्ञानमां जे अनेक खंडरूप आकारो प्रतिभासता हता तेमनाथी रहित ज्ञानमात्र आकार हवे अनुभवमां आव्यो तेथी ‘अखंड’ एवुं विशेषण ज्ञानने आप्युं छे.”

३१ गाथामां आव्युं छे के-जेओ विषयोने खंडखंड ग्रहण करे छे एवी भावेन्द्रियो ज्ञानने खंडखंडरूप जणावे छे. खंडखंडने जाणे छे ए बीजी वात, पण ज्ञानने खंडखंडरूप जणावे छे एम त्यां कह्युं छे. ज्ञानवस्तु तो त्रिकाळ अखंड छे. पण ज्ञेयोना निमित्ते ज्ञानमां अनेक खंडरूप आकारो प्रतिभासे छे. परंतु ज्यां ज्ञायकमां अंतर्मग्न थयो त्यां जाणनार- जाणनार-जाणनार एवो अखंड एक ज्ञायकभाव अनुभवमां आवे छे अने तेथी ज्ञाननुं ‘अखंड’ एवुं विशेषण आप्युं छे. आ ‘अखंड’ नी व्याख्या करी.

“मतिज्ञान आदि जे अनेक भेदो कहेवाता हता तेमने दूर करतुं उदय पाम्युं छे तेथी ‘भेदना कथनोने तोडी पाडतुं’ एम कह्युं छे.” कळशटीकामां उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, द्रव्य-गुण-पर्याय अथवा ‘आत्माने ज्ञानगुण वडे अनुभवे छे’-एवा जे विकल्पो छे ते भेदो छे एम कह्युं छे. ते भेदोने दूर करतुं-मूळथी उखाडतुं ज्ञान प्रगट थाय छे. अहाहा! ‘ज्ञान ते आत्मा’-ए विकल्प छे, भेद छे, अनुपचार व्यवहारनयनो विषय छे. अने वस्तु अखंड एकरूप अभेद ज्ञायक छे. आवा अखंड ज्ञायकनो ज्ञानमां स्वीकार थवो ते सम्यग्दर्शन-ज्ञान छे. एनुं नाम धर्म छे, समजाणुं कांई?

“परना निमित्ते रागादिरूप परिणमतुं हतुं ते परिणतिने छोडतुं उदय पाम्युं छे तेथी ‘परपरिणतिने छोडतुं’-एम कह्युं छे.” अनादिथी राग अने ज्ञानना एकत्वपणे परिणमतो हतो. ते ज्ञान प्रगट थतां बन्नेनी एक्ताबुद्धि छूटी गई अने ज्ञान, ज्ञान भणी वळ्‌युं तेथी ‘परपरिणतिने छोडतुं’ एम कह्युं छे.

“परना निमित्तथी रागादिरूप परिणमतुं नथी, बळवान छे तेथी ‘अत्यंत प्रचंड’ कह्युं छे.” ज्ञान, रागथी एकपणे थई परिणमतुं नथी पण जे राग थाय तेने पोताथी भिन्न जाणवापणे परिणमे छे. जे काळे राग आव्यो तेने ते काळे जाणतुं अने स्वने


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पण ते काळे जाणतुं ज्ञान पोताना स्वपरप्रकाशक सामर्थ्य वडे प्रगट थाय छे. वळी ते बळवान छे एटले ज्ञाननी ज्यां उग्रता थई त्यां राग-द्वेष भस्म थई जाय छे. ज्ञाननी उग्रता कर्मना आकरा विपाकना रसने पण भस्म करी दे छे तेथी तेने ‘अत्यंत प्रचंड’ कह्युं छे.

आवो भगवाननो मार्ग बहु सूक्ष्म छे, भाई! शुभरागना स्थूळ विकल्पथी पकडाय एवुं वस्तुतत्त्व नथी. द्रव्यनुं-आत्मानुं स्वरूप तो सूक्ष्म निर्विकल्प छे, अने निर्विकल्प द्रष्टिथी ज पकडाय एम छे.

प्रश्नः– ज्ञाननुं स्वरूप तो सविकल्प कह्युं छे ने?

उत्तरः– त्यां सविकल्प एटले ज्ञान स्व अने परने जाणे छे भेदपूर्वक स्व अने परने जाणवुं एम अर्थ छे. विकल्प एटले राग एम त्यां अर्थ नथी. ज्ञान तो रागथी भिन्न ज छे. निर्विकल्प ज्ञान एटले रागना अवलंबरहित ज्ञानथी ज वस्तुतत्त्व पकडाय एम छे. आ मार्ग छे.

* कळश ४७ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

कर्मबंध तो अज्ञानथी थयेली कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिथी हतो. हवे ज्यारे भेद-भावने अने परपरिणतिने दूर करी एकाकार ज्ञान प्रगट थयुं त्यारे भेदरूप कारकनी प्रवृत्ति मटी; तो पछी हवे बंध शा माटे होय? अर्थात् न होय. ज्ञायकना लक्षे अखंड ज्ञायकनी परिणति जागी त्यारे भेदरूप कारकोनी प्रवृत्ति मटी गई. रागनो हुं कर्ता अने राग मारुं कर्तव्य-ए प्रवृत्ति मटी गई. अभेद कारकनी प्रवृत्ति थई. ज्ञान ज्ञायकने अनुभवतुं प्रगट थयुं. तो पछी भिन्न कारकोनी प्रवृत्तिना अभावमां बंध शा माटे होय? न ज होय. ल्यो, अहीं (गाथा) ७२ पूरी थई.

[प्रवचन नं. १२० थी १२३ * दिनांक ९-७-७६ थी १२-७-७६]

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गाथा–७३

केन विधिनायमास्रवेभ्यो निवर्तत इति चेत्–

अहमेक्को खलु सुद्धो णिम्ममओ णाणदंसणसमग्गो।
तम्हि ठिदो तच्चितो सव्वे एदे खयं णेमि।। ७३।।
अहमेकः खलु शुद्धः निर्ममतः ज्ञानदर्शनसमग्रः।
तस्मिन् स्थितस्तच्चित्तः सर्वानेतान् क्षयं नयामि।। ७३।।

हवे पूछे छे के कई विधिथी (-रीतथी) आ आत्मा आस्रवोथी निवर्ते छे? तेना उत्तररूप गाथा कहे छेः-

छुं एक, शुद्ध, ममत्वहीन हुं, ज्ञानदर्शनपूर्ण छुं;
एमां रही स्थित, लीन एमां, शीघ्र आ सौ क्षय करुं. ७३.

गाथार्थः– ज्ञानी विचारे छे केः [खलु] निश्चयथी [अहम्] हुं [एकः] एक छुं, [शुद्धः] शुद्ध छुं, [निर्ममतः] ममतारहित छुं, [ज्ञानदर्शनसमग्रः] ज्ञानदर्शनथी पूर्ण छुं; [तस्मिन् स्थितः] ते स्वभावमां रहेतो, [तच्चित्तः] तेमां (-ते चेतन्य-अनुभवमां) लीन थतो (हुं) [एतान्] [सर्वान्] क्रोधादिक सर्व आस्रवोने [क्षय] क्षय [नयामि] पमाडुं छुं.

टीकाः– हुं आ आत्मा-प्रत्यक्ष अखंड अनंत चिन्मात्र ज्योति-अनादि-अनंत नित्य- उद्रयरूप विज्ञानघनस्वभावभावपणाने लीधे एक छुं; (कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान अने अधिकरणस्वरूप) सर्व कारकोना समूहनी प्रक्रियाथी पार ऊतरेली जे निर्मळ अनुभूति, ते अनुभूतिमात्रपणाने लीधे शुद्ध छुं; पुद्गलद्रव्य जेनुं स्वामी छे एवुं जे क्रोधादिभावोनुं विश्वरूपपणुं (अनेकरूपपणुं) तेना स्वामीपणे पोते सदाय नहि परिणमतो होवाथी ममतारहित छुं; चिन्मात्र ज्योतिनुं (आत्मानुं), वस्तुस्वभावथी ज, सामान्य अने विशेष वडे परिपूर्णपणुं (आखापणुं) होवाथी, हुं ज्ञानदर्शन वडे परिपूर्ण छुं. -आवो हुं आकाशादि द्रव्यनी जेम पारमार्थिक वस्तुविशेष छुं. तेथी हवे हुं समस्त परद्रव्यप्रवृत्तिथी निवृत्ति वडे आ ज आत्मस्वभावमां निश्चळ रहेतो थको, समस्त परद्रव्यना निमित्तथी विशेषरूप चेतनमां थता जे चंचळ कल्लोलो तेमना निरोध वडे आने ज (आ चैतन्यस्वरूपने ज) अनुभवतो थको,


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पोताना अज्ञान वडे आत्मामां उत्पन्न थता जे आ क्रोधादिक भावो ते सर्वने क्षय करुं छुं-एम आत्मामां निश्चय करीने, घणा वखतथी पकडेलुं जे वहाण तेने जेणे छोडी दीधुं छे एवा समुद्रना वमळनी जेम जेणे सर्व विकल्पोने जलदी वमी नाख्या छे एवो, निर्विकल्प, अचलित निर्मळ आत्माने अवलंबतो, विज्ञानघन थयो थको, आ आत्मा आस्रवोथी निवर्ते छे.

भावार्थः– शुद्धनयथी ज्ञानीए आत्मानो एवो निश्चय कर्यो के ‘हुं एक छुं, शुद्ध छुं, परद्रव्य प्रत्ये ममतारहित छुं, ज्ञानदर्शनथी पूर्ण वस्तु छुं’. ज्यारे ते ज्ञानी आत्मा आवा पोताना स्वरूपमां रहेतो थको तेना ज अनुभवरूप थाय त्यारे क्रोधादिक आस्रवो क्षय पामे छे. जेम समुद्रना वमळे घणा काळथी वहाणने पकडी राख्युं होय पण पछी ज्यारे वमळ शमे त्यारे ते वहाणने छोडी दे छे, तेम आत्मा विकल्पोना वमळने शमावतो थको आस्रवोने छोडी दे छे.

* * *
समयसार गाथा ७३ः मथाळुं

हवे पूछे छे के कई विधिथी, कई रीतथी आ आत्मा आस्रवोथी निवर्ते छे? पुण्य- पापना भाव छे ते आस्रव छे, मलिन छे, अचेतन छे, दुःख छे, चैतन्यनी जातथी विरुद्ध कजात छे. अहाहा! जेने स्वरूप समजवानी गरज थई छे ते शिष्य पूछे छे के प्रभो! आ आत्मा पुण्य-पापना भावोथी कई विधिथी निवर्ते छे? अंदर आस्रवोथी निवर्तवानो पोकार थयो छे ते पूछे छे के आ (अज्ञान-कर्ताकर्म)नी प्रवृत्तिथी निवृत्ति कई रीते थाय? तेना उत्तररूप गाथा कहे छेः-

* गाथा ७३ः टीका उपरनुं प्रवचन *

हुं आ आस्रवोने क्षय पमाडुं छुं. अहाहा! शैली तो जुओ! (आत्मा) आम करे तो आम थाय एम नथी लीधुं. ‘हुं’ क्षय पमाडुं छुं एम वात लीधी छे. गजब शैली छे! शुं कहे छे? ‘हुं आ आत्मा-प्रत्यक्ष अखंड अनंत चिन्मात्रज्योति अनादि-अनंत नित्य-उदयरूप विज्ञानघनस्वभावभावपणाने लीधे एक छुं.’ ‘अहमेक्को’ कह्युं छे ने? एनी आ व्याख्या करी.

‘हुं’ शब्दथी पोतानी अस्ति सिद्ध करी छे अने ‘आ’ थी प्रत्यक्ष अस्ति दर्शावी छे. छे ने के-हुं आ आत्मा प्रत्यक्ष चिन्मात्र ज्योति छुं? प्रत्यक्ष थई शके ए वात नथी. प्रत्यक्ष छे ज. भगवान आत्मा प्रत्यक्ष छे. शक्तिना अधिकारमां बारमी ‘स्वयं प्रकाशमान विशद एवा स्वसंवेदनमयी (स्वानुभवमयी) प्रकाशशक्ति’ कही छे. वस्तु पोते पोताथी प्रत्यक्ष थाय एवा प्रकाशगुण सहित छे. आत्मानो एवो प्रकाशस्वभाव छे के पोते ज पोताना स्वसंवेदनमां प्रत्यक्ष प्रकाशमान थाय छे.


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वळी अखंड छुं एम कहुं छुं. अहाहा...! एक समयनी पर्यायनो भेद पण आत्मामां कयां छे? (नथी). पर्याय तो व्यवहारनयनो विषय छे. सोळमी गाथामां एम कह्युं के ज्ञान- दर्शन-चारित्रपणे आत्मा परिणमे छे ए मेचकपणुं-मलिनता छे. एकने त्रणपणे परिणमतो कहेवो ए मेचक छे. भेद पडे ते मेचक छे, व्यवहार छे, असत्यार्थ छे. वस्तु शुद्ध एकाकार छे ते निश्चय छे.

वळी हुं अनंत चिन्मात्रज्योति छुं. स्वभावनी शक्तिनुं स्वरूप ज अनंत छे. अखंड अने अनंत ए त्रिकाळी चिन्मात्रज्योतिनां विशेषण छे. आ भावनी वात करी. हवे काळनी वात करे छे.

हुं अनादि अनंत कहेतां त्रिकाळ आदि-अंत रहित छुं. जे छे एनी आदि शुं? जे छे एनो अंत शुं? वस्तु तो अनादि-अनंत नित्य-उदयरूप छे. वस्तु नित्य प्रगटरूप छे. सूर्य तो सवारे ऊगे अने सांजे नमी जाय. परंतु आ चैतन्यसूर्य तो नित्य उदयरूप ज छे. अहाहा! वर्तमानमां अनादि-अनंत नित्य-उदयरूप चिन्मात्रज्योति हुं छुं एम कहे छे.

जेम अग्निनी ज्योति छे तेम आ आत्मा चिन्मात्रज्योति छे. तेनो आश्रय लेतां संसार बळीने खाक थई जाय छे. आटलां विशेषणो कहीने हवे कहे छे के विज्ञानघन-स्वभावभावपणाने लीधे हुं एक छुं. विज्ञानघनस्वभाव एटले विकल्प तो शुं, जेमां एक समयनी पर्यायना पण प्रवेशनो अवकाश नथी. पर्याय तेनी उपर उपर तरे छे पण अंदर प्रतिष्ठा पामती नथी. आ वात अगाउ कळशमां आवी गई छे. बधा आत्मा भेगा थईने हुं एक छुं एम नथी. आ तो एकलुं विज्ञाननुं दळ जेमां परनो के पर्यायनो प्रवेश नथी एवा चिन्मात्रज्योति हुं विज्ञानघन- स्वभावभावपणाने लीधे एक छुं.

आत्मानुं क्षेत्र भले असंख्यात्प्रदेशी शरीर प्रमाण होय. परंतु तेना स्वभावनुं सामर्थ्य अनंत, अपार-बेहद छे. क्षेत्रनी किंमत नथी, स्वभावना सामर्थ्यनी किंमत छे. साकरना गांगडा करतां सेकेरीननी कणीनुं क्षेत्र खूब नानुं छे. पण सेकेरीननी मीठाश अनेकगणी छे. एम भगवान आत्मा शरीर प्रमाण थोडा क्षेत्रमां रहेवा छतां एनुं विज्ञानघनस्वभावरूप सामर्थ्य अनंत छे. भाई! ज्यां जेटलामां ते छे त्यां ध्यान लगाववाथी ते प्रगट थाय छे.

आत्मा आस्रवोथी केवी रीते निवर्ते छे-एम शिष्यनो प्रश्न छे. तेनो आ उत्तर चाले छे. आत्मा अखंड, अनंत, प्रत्यक्ष चिन्मात्रज्योति विज्ञानघनस्वभावभावपणाने लीधे एक छे. तेनी द्रष्टि करतां मिथ्यात्वनो आस्रव टळी जाय छे. आ सौ प्रथम धर्मनी शरुआतनी वात छे. अहीं एक बोल थयो.

हवे ‘हुं शुद्ध छुं’-ए बीजो बोल कहे छे. ‘(कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान,


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अपादान अने अधिकरणस्वरूप) सर्व कारकोना समूहनी प्रक्रियाथी पार ऊतरेली जे निर्मळ अनुभूति, ते अनुभूतिमात्रपणाने लीधे शुद्ध छुं.

आत्मा परनो कर्ता अने पर एनुं कार्य-एवुं एनामां छे ज नहि. आत्मा सिवाय शरीर, मन, वचन, इन्द्रिय, कुटुंब के देश इत्यादि पर द्रव्यनो हुं कर्ता अने एमां जे क्रिया थई ते मारुं कर्म एवुं छे ज नहि. आ वात अहीं लीधी नथी केमके जे परद्रव्य छे ते कार्य विना कदीय कोई काळे खाली नथी. आ एक वात.

हवे बीजी वातः दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, पूजाना अशुद्ध भाव थाय तेनो हुं कर्ता अने ते मारुं कर्म, हुं साधन, हुं संप्रदान, मारामांथी थयुं अने मारा आधारे थयुं आवा रागनी क्रियाना षट्कारकनी प्रक्रिया ते आत्माना स्वरूपमां नथी.

हवे त्रीजी वातः एक समयनी निर्मळ पर्यायना षट्कारको-जेमके निर्मळ पर्यायनो कर्ता हुं, निर्मळ पर्याय ते मारुं कर्म, तेनुं साधन हुं, मारा माटे ते थई, माराथी थई, मारा आधारे थई-आम निर्मळ पर्यायना षट्कारकोनी जे प्रक्रिया तेनाथी पार ऊतरेली एटले भिन्न जे निर्मळ अनुभूति ते (त्रिकाळी) अनुभूतिमात्रपणाने लीधे हुं शुद्ध छुं. अहीं ‘अनुभूति’ ए पर्यायनी वात नथी पण त्रिकाळी द्रव्यनी वात छे. पर्यायमां षट्कारकनुं परिणमन स्वतंत्र छे. एनाथी मारी चीज (त्रिकाळी) भिन्न छे. अहाहा! वर्तमान निर्मळ परिणतिथी मारो त्रिकाळी अनुभूतिस्वरूप भगवान भिन्न छे -एने अहीं शुद्ध कह्यो छे.

निर्मळ अनुभूतिनी पर्यायना भेदने लक्षमां लेवो ए व्यवहारनय छे, अशुद्धता छे, मेचकपणुं-मलिनता छे. आत्मा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र त्रणपणे परिणमे एम लक्षमां लेवुं ए व्यवहारनय छे. ए प्रमाणे (त्रणपणे) आत्माने-पोताने अनुभवतां आस्रवोथी निवृत्ति नहि थाय. प्रवचनसारना नय-अधिकारमां कहे छे के माटीने एना वासण आदि पर्यायना भेदथी जोवी ए अशुद्धनय छे. तेम आ आत्माने तेना षट्कारकना पर्यायना भेदथी जोवो ते अशुद्धनय छे. ज्ञाननी पर्याय, आनंदनी पर्याय, वीर्यनी पर्याय-एम पर्यायना भेदथी आत्मा जोवो ते अशुद्धपणुं छे एनाथी मिथ्यात्वनो आस्रव नहि मटे. अहीं तो कहे छे के षट्कारकनी प्रक्रियाथी भिन्न वस्तु त्रिकाळी अनुभूतिस्वरूप जे भगवान आत्मा छे तेना उपर द्रष्टि आपतां मिथ्यात्वनो आस्रव टळी जाय छे.

दया, दानना विकल्पथी धर्म माने ए तो मिथ्यात्व छे ज, परंतु पोताने निर्मळ पर्यायना भेदथी लक्षमां लेतां जे विकल्प थाय एनाथी धर्म थाय एम माने ते पण मिथ्यात्व छे.

भगवान आत्मा एक समयनी पर्यायना षट्कारकना परिणमनथी पार ऊतरेली-भिन्न अनुभूतिमात्र त्रिकाळी शुद्ध वस्तु छे. आ त्रिकाळी शुद्ध ज्ञायक उपर द्रष्टि जतां


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सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान प्रगटे छे अने त्यारे आत्मा आस्रवथी निवृत्त थाय छे. अहाहा...! विकारना षट्कारकनी परिणमनरूप क्रिया तो दूर रही, अहीं तो ज्ञाननो जे प्रगट अंश एना षट्कारकनी प्रक्रिया-परिणमनथी त्रिकाळी अनुभूतिस्वरूप भगवान भिन्न छे अने एने अहीं शुद्ध कहेल छे. एवा त्रिकाळी शुद्ध आत्मद्रव्यनी द्रष्टि थतां मिथ्यात्वनो आस्रव टळी जाय छे. आ विधिथी जीव आस्रवोथी निवर्ते छे.

जेम शीरो बनाववो होय तो एनी विधि ए छे के-प्रथम आटो घीमां शेके अने पछी एमां गोळनुं पाणी नाखे तो शीरो तैयार थाय. तेम आत्मामां धर्म केम थाय ते समजावे छे. एक समयमां कारकना भेदोथी पार अभेद शुद्ध चैतन्यमय त्रिकाळ वस्तु छे. तेना उपर द्रष्टि आपतां सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट थाय छे, अने मिथ्यात्वनो आस्रव छूटी जाय छे. आगळ आवशे के जेम जेम द्रव्यनो आश्रय वधशे तेम तेम आस्रव मटी जशे. आ एनी रीत अने पद्धति छे. बीजी रीते करवा जईश तो मरी जईश तोपण वस्तु प्राप्त नहि थाय. पूर्णानंदनो नाथ अभेद एक चैतन्यमय भगवान छे. एनुं त्रिकाळ टक्तुं जीवन ते एनुं सत्त्व - तत्त्व छे. एनो स्वीकार छोडीने निमित्त, राग अने भेदमां अटकीश तो मिथ्यात्वादि आस्रव थशे, परंतु वीतरागतारूप धर्म नहि थाय. आवो वीतरागनो मार्ग जेम छे तेम समजवो जोईए.

एक स्तुतिकारे कह्युं छे के-

“प्रभु तुम जाणग रीति, सहु जग देखता हो लाल;
निज सत्ताए शुद्ध, सहुने पेखता हो लाल.”

हे नाथ! आप ज्ञानमां त्रणकाळ त्रणलोक जुओ छो. तेमां आप बधा आत्माओ निज सत्ताए परिपूर्ण शुद्ध भगवान छे एम जोई रह्या छो. आ वात अहीं लीधी छे. पर्यायना षट्कारकनी परिणतिथी भिन्न आखुं चैतन्यनुं दळ भगवान आत्मा शुद्ध छे. एने विषय करनारी द्रष्टि पण एमां समाती नथी एवो ए त्रिकाळी एक शुद्ध छे एम भगवाने जोयो छे. ज्यारे एक समयनी पर्यायनुं लक्ष छोडी त्रिकाळी एक शुद्ध अनुभूतिस्वरूप चैतन्य भगवानना लक्षे परिणमन करे छे त्यारे मिथ्यात्वनो नाश थई सम्यग्दर्शननी वीतरागी परिणतिनो उत्पाद थाय छे. आवी अंतरनी क्रिया समजाय नहि एटले कोई दया पाळो, व्रत करो, पूजा-प्रभावना करो- एम बहारनी क्रियाओमां धर्म बतावे एटले राजी-राजी थइ जाय. परंतु भाइ! ए तो बधी रागनी क्रियाओ छे. राग छे ए तो अचेतन आंधळो छे, एमां ज्ञाननुं-चैतन्यनुं किरण नथी. जेम सूरजनुं किरण सफेद उज्ज्वळ होय पण कोलसा जेवुं काळुं न होय, तेम चैतन्यसूर्यनुं पर्यायरूप किरण चैतन्यमय, आनंदमय होय पण आंधळुं रागमय न होय.

आत्मा छ कारकोना समूहनी प्रक्रियाथी पार जे निर्मळ अनुभूतिस्वरूप त्रिकाळी


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शुद्ध चैतन्य भगवान छे ते भूतार्थ छे. तेना उपर द्रष्टि देतां मिथ्यादर्शननो व्यय अने सम्यग्दर्शननो उत्पाद थाय छे. पर्यायना भेदने लक्षमां लेवो ते अशुद्धता छे. एक समयनी जे निर्मळ पर्याय प्रगट थाय तेनाथी भिन्न, संयोगथी भिन्न अने दया, दानना विकल्पथी पण भिन्न अनुभूतिस्वरूप त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य छे. तेनो आश्रय करवाथी धर्मनी शरूआत थाय छे. आ धर्म पामवानी विधि छे.

केवळीना केडायतो भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव अने श्री अमृतचंद्राचार्यदेव केवळज्ञान केम थाय अने ते पहेलां सम्यग्दर्शन केम थाय एनी रीत बतावे छे. कहे छे के पर्यायना षट्कारकोना भेदनी रुचि छोडीने अखंड एक अनुभूतिस्वरूप त्रिकाळी भगवान अंदर पडयो छे एनो आश्रय कर. त्यारे सम्यग्दर्शन अने सम्यक्मतिश्रुतज्ञान थाय छे.

धवलमां आवे छे के श्रुतज्ञान केवळज्ञानने बोलावे छे. अर्थात् सम्यक् मतिश्रुतज्ञान जेने प्रगट थयुं तेने अल्पकाळमां केवळज्ञान प्रगट थशे ते निश्चित छे. केवळज्ञान-सर्वज्ञपद साध्य छे, परंतु ध्येय तो त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य ज छे. परिणतिमां पूर्ण साध्य जे सिद्धदशा प्रगट थाय तेनो आधार-आश्रय त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य ज छे. अहाहा...! समजवानी चीज आ ज छे के पर्यायथी पार जे त्रिकाळी भगवान भिन्न छे ते शुद्ध छे अने ते शुद्धनो जे पर्याये निर्णय कर्यो ते पर्याय ते शुद्धमां (द्रव्यमां) नथी. पर्याय पर्यायमां रहीने द्रव्य शुद्ध छे एम अनुभव करे छे. आवो भगवान वीतरागदेवनो मार्ग छे. तेने रागथी के भेदथी प्राप्त करवा जईश तो वस्तु-सत् हाथ नहि आवे.

एक समयमां त्रणकाळ त्रणलोकने जेणे जोया छे ते भगवान (सीमंधर नाथ)नी वाणी श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे साक्षात् सांभळी हती. आत्माना अनुभव सहित तेओ महा चारित्रवंत हता. भरतमां पधारी तेमणे संदेश आप्यो के-परने मारी शकुं, परने जीवाडी शकुं, परनी दया पाळी शकुं एम जे माने छे ते मूढ छे, मिथ्याद्रष्टि छे. परना काम करवानो बोजो माथे लईने पोताने परनो कर्ता माने ए मूढ छे, अज्ञानी छे. परनी दयानो भाव आवे ए जुदी वात छे, पण बीजाने जीवाडी शकुं छुं ए मान्यता एकलुं अज्ञान छे. प्रभो! तुं तो ज्ञाता-द्रष्टा छो ने! जाणवुं-देखवुं ए ज तारुं जीवन छे. एने बदले परने सुखी-दुःखी करवानुं माने ए तो तारा ज्ञानस्वभावनो अनादर छे, हिंसा छे. अहीं तो कहे छे के सम्यग्दर्शननी निर्मळ पर्याय जे प्रगट थाय तेनो कर्ता पर्याय पोते, कर्म पोते, साधन पर्याय पोते, इत्यादि छ कारकोना भेदना विकल्पथी पार वस्तु त्रिकाळी शुद्ध छे. ए अखंड एक विज्ञानस्वभावी शुद्धनी द्रष्टि करतां निर्मळ पर्याय प्रगटे छे अने ते धर्म छे. परंतु त्रिकाळी शुद्ध वस्तुमां भेगी पर्यायने भेळवे तो ए सम्यग्दर्शननो विषय रहेतो नथी पण अुशद्धता प्रगट थाय छे. ल्यो, आ बीजो बोल थयो.


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हवे निर्मम छुं-एम त्रीजो बोल कहे छे. परनां काम करे छे ए वात तो दूर रही, परंतु जे राग-विकल्प थाय एनुं स्वामीपणुं एने नथी एम हवे कहे छे. नरसिंह महेताए कह्युं छे ने के-

‘हुं करुं, हुं करुं ए ज अज्ञानता, शकटनो भार जेम श्वान ताणे.’

दुकानना थडे बेठो होय, घराक माल लई जाय, रोजना पांचसो-सातसोनी पेदाश थती होय, त्यां माने के आ दुकाननुं गाडु माराथी चाले छे. मारे रोजनी आटली पेदाश, हें; धूळेय नथी, सांभळने. ए कोण रळे? भाई! रळवाना भाव छे ए तो पाप छे अने एनो कर्ता थाय ए तो एकलुं अज्ञान छे. वीतराग परमेश्वरना दरबारमां आवेली आ वात छे.

त्रीजो बोलः- ‘पुद्गलद्रव्य जेनुं स्वामी छे एवुं जे क्रोधादिभावोनुं विश्वरूपपणुं (अनेकरूपपणुं) तेना स्वामीपणे पोते सदाय नहि परिणमतो होवाथी ममतारहित छुं.’

अहाहा...! केवी सरस वात करी छे! पुण्य अने पापना अनेक प्रकारे जे विकारी भाव थाय छे तेनो पुद्गल स्वामी छे, हुं तेनो स्वामी नथी. ए विकारी भावनो स्वामी हुं नहि ए वात तो ठीक, पण तेना स्वामीपणे हुं सदाय परिणमतो नथी एम कहे छे. पुण्य-पापना जे अनेक प्रकारना विकारी भाव छे तेमना स्वामीपणे हुं सदाय परिणमतो नथी माटे निर्मम छुं. क्षायिक समकित थया पछी पण राग तो यथासंभव आवे, मुनिपणानी भूमिकामां पण व्यवहाररत्नत्रयनो राग तो आवे; पण ते रागना स्वामीपणे सदाय नहि परिणमतो होवाथी हुं-आत्मा निर्मम छुं एम धर्मी माने छे. तेने आ विधिथी आस्रवोनी निवृत्ति थाय छे.

४७ नयना अधिकारमां (प्रवचनसारमां) लीधुं छे के (कर्तृनये) रंगेरेज जेम रंगनो कर्ता छे तेम ज्ञानीने जेटलुं हजु रागनुं परिणमन छे तेनो ते कर्ता छे. पण ए तो त्यां जे परिणमन छे ते अपेक्षाए कर्ता कहेल छे. ज्ञानी तेनो स्वामीपणे कर्ता थतो नथी. आ राग कर्तव्य छे, करवा लायक छे एम ज्ञानीने तेनुं स्वामीपणुं नथी. अहाहा...! दया, दान, व्रत, तप, भक्ति आदि जे राग थाय तेना स्वामीपणे समकिती कदीय परिणमता नथी. गजब वात छे! ते सर्वनुं स्वामी पुद्गल छे, हुं नहि एम मानतो धर्मी जीव आस्रवोथी निवर्ते छे.

प्रश्नः- आ दया, दान, भक्ति-पूजा करीए ते धर्म खरो के नहि?

उत्तरः– एमां जराय धर्म नथी. भाई? ए तो बधा शुभरागना भाव छे, पुण्यबंधनां कारण छे; अने एनुं स्वामीपणुं माने तो मिथ्यात्व छे. बापु! वीतरागी धर्मनो मार्ग जुदो छे. भाई! भगवाननी दिव्यध्वनितो प्रवाह अहीं भरतमां आव्यो तेमां एम कहे छे के-रागना स्वामीपणे परिणमवुं ए तारी प्रभुता नथी, ए तो रांकाई


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छे. प्रभु! अंदर अनंत अनंत निर्मळ गुणनो खजानो भर्यो छे तेनी सन्मुख ढळतां रागनुं स्वामीपणुं सहज छूटी जाय छे अने ए धर्म छे. भगवान गणधरदेव पण जे रागनुं परिणमन छे तेने जाणे पण तेना स्वामीपणे कदीय परिणमे नहि. पूर्ण वीतरागता न थाय त्यां सुधी धर्मीने व्यवहारना विकल्प आवे खरा, पण ते कर्तव्य छे एम तेना स्वामीपणे ते परिणमता नथी.

४७ शक्तिओमां एक स्वभावमात्र स्वस्वामित्वमयी संबंधशक्ति छेल्ली कहेली छे. द्रव्य-गुण अने पर्याय जे शुद्ध छे ते मारुं स्व अने हुं तेनो स्वामी एवी आत्मामां स्वस्वामित्व संबंधशक्ति छे. ते शक्तिनुं निर्मळ परिणमन थतुं ते धर्म छे.

लोकमां तो हुं पत्नीनो पति, गृहपति, लक्ष्मीपति, क्रोडपति, इत्यादि पोताने जडना पति माने छे, पण ए मूढता छे. कोना पति तारे थवुं छे, भाई? धर्मी कहे छे के जडनो स्वामी तो हुं नहि पण जे राग थाय छे तेनो स्वामी पण हुं नहि. ए रागनो स्वामी पण पुद्गल छे. अहीं हुं एक छुं, शुद्ध छुं एम पहेलां अस्तिथी कह्युं अने रागनुं स्वामीपणुं मने नथी एम निर्मम छुं कहीने नास्तिपणुं बताव्युं.

अहीं कह्युं के क्रोधादि विकारनो स्वामी पुद्गल छे माटे पुद्गलने लईने विकार थाय छे एम कोई माने तो ते यथार्थ नथी. पुद्गलने लईने विकार थयो छे एम नथी. ए तो परद्रव्य छे. पण विकार थयो छे निमित्तना लक्षे ए निश्चित. स्वभावमां-स्वरूपमां तो विकार छे ज नहि अने निमित्तना लक्षे ते थयो छे तेथी पुद्गल एनो स्वामी छे एम कह्युं छे. आम ज्यां जे अपेक्षा होय ते समजवी जोईए.

पुण्यना शुभभाव थाय ए वर्तमान दुःखरूप छे. वळी एना फळमां संयोग मळशे अने एना (संयोग) पर लक्ष जतां पण राग एटले दुःख ज थशे माटे भविष्यमां थवावाळा दुःखना पण ए कारणरूप छे. आ वात आगळ गाथा ७४ मां आवशे. अरे! पुण्यना फळमां अर्हंतादिनो संयोग मळशे अने ए संयोग पर लक्ष जतां राग ज थशे. अहाहा...! सर्वज्ञ परमेश्वर त्रिलोकनाथ एम कहे छे के-प्रभु! अमे तारा माटे परद्रव्य छीए, अने परद्रव्य उपर लक्ष जतां राग ज थशे, धर्म नहि थाय. मोक्षपाहुडनी १६मी गाथामां कह्युं छे के-‘परदव्वाओ दुग्गइ’ परद्रव्य उपर लक्ष जाय ते दुर्गति छे, चैतन्यनी गति नहि. भाई! रागनी परिणति थाय ए चैतन्यनी परिणति नहि. अहाहा...! जेना फळमां केवळज्ञान अने सादि-अनंत अनंत समाधिसुख प्रगटे तेवी दशाने प्राप्त धर्मी जीव एम कहे छे के राग थाय तेना स्वामीपणे सदाय हुं परिणमतो नथी. जे स्वरूपमां नथी अने स्वरूपना आश्रये थयेली निर्मळ स्वपरिणतिमांय नथी ते रागनुं मने स्वामीपणुं नथी. द्रव्य- गुण तो त्रिकाळ निर्मळ छे. तेना आश्रये जे निर्मळ दशा प्रगटी ते मारुं स्व अने हुं तेनो स्वामी छुं एम धर्मी माने छे.


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स्त्रीने लोको अर्धांगना कहे छे. एम के-अडधुं अंग मारुं अने अडधुं अंग तारुं-एम तेओ माने छे. पण ए तो बधी मूढ लोकोनी भ्रमणा छे, ए तो मिथ्यात्वनी मान्यता छे. परना स्वामीपणानी तो अहीं वात ज कयां छे? अहीं तो कहे छे के रागना स्वामीपणे सदाय नहि परिणमतो एवो हुं निर्मम छुं. आ तो प्रथम आवो विकल्पथी निर्णय करे, पछी स्वभावनो उग्र पुरुषार्थ करतां विकल्प छूटी जाय छे. भाई! आ मार्ग हाथ आवे एना जन्म-मरणना फेरा मटी जाय एवी आ वात छे. आ त्रण बोल थया.

हवे चोथो बोल कहे छेः-- ‘चिन्मात्र ज्योतिनुं (आत्मानुं), वस्तुस्वभावथी ज, सामान्य अने विशेष वडे परिपूर्णपणुं (आखापणुं) होवाथी, हुं ज्ञानदर्शन वडे परिपूर्ण छुं.’ सामान्य ते दर्शन अने विशेष ते ज्ञान; एम दर्शन-ज्ञान वडे परिपूर्ण वस्तु छुं. आत्मा विकारपणे तो नथी, अल्पज्ञपणे पण नथी. अहीं कहे छे के ज्ञान-दर्शनस्वभावथी परिपूर्ण छुं. वर्तमान अल्पज्ञ पर्याय एम निर्णय करे छे के पर्याय जेटलो हुं नहि, पण हुं तो ज्ञान- दर्शनस्वभावथी परिपूर्ण वस्तु छुं.

भाई! आ मिथ्या भ्रान्तिनुं मोटुं तोफान छे तेने शमाववानी-मटाडवानी आ वात चाले छे. मिथ्यात्वरूपी आस्रवथी निवर्तवानो उपाय शुं? आ प्रश्ननो उत्तर चाले छे. कहे छे के हुं ज्ञान-दर्शनथी परिपूर्ण वस्तुविशेष छुं एम प्रथम नक्की कर. सामान्य अने विशेष वडे परिपूर्णपणुं होवाथी हुं आकाशादि द्रव्यनी जेम पारमार्थिक वस्तुविशेष छुं अहीं सुधी तो विकल्पथी निर्णय करवानी वात छे के-

-हुं अखंड ज्ञानज्योतिस्वरूप विज्ञानघनस्वभावपणाने लीधे एक छुं. -षट्कारकना परिणमनथी रहित शुद्ध छुं. -रागपणे सदाय नहि परिणमनारो निर्मम छुं. -ज्ञानदर्शनथी परिपूर्ण वस्तुविशेष छुं.

वर्तमान दशा अल्पज्ञ होवा छतां स्वभावथी हुं परिपूर्ण छुं. आकाश जेम पदार्थ छे, परमाणु जेम पदार्थ छे तेम हुं पण पारमार्थिक वस्तुविशेष छुं, एटले के सर्वथी भिन्न वस्तु छुं. आ प्रमाणे प्रथम विकल्पथी निर्णय करे छे एनी आ वात छे. विकल्प तोडीने अनुभव करवानी वात पछी कहेशे. आ तो बीजाओए (अज्ञानीओए) कहेलो जे आत्मा तेनाथी जुदो परमार्थस्वरूप आत्मानो निर्णय करवा विकल्प द्वारा हुं आवो छुं एम प्रथम शिष्य निर्णय करे छे.

हवे कहे छे-‘तेथी हवे हुं समस्त परद्रव्यप्रवृत्तिथी निवृत्ति वडे आ ज आत्मस्वभावमां निश्चळ रहेतो थको, समस्त परद्रव्यना निमित्तथी विशेषरूप चेतनमां थता जे चंचळ कल्लोलो तेमना निरोध वडे आने ज (आ चैतन्यस्वरूपने ज)


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अनुभवतो थको, पोताना अज्ञान वडे आत्मामां उत्पन्न थता जे आ क्रोधादिक भावो ते सर्वने क्षय करुं छुं.’

रागादि विकारो परद्रव्यनी प्रवृत्ति छे अने ते निमित्तना आश्रये उत्पन्न थाय छे. प्रथम कह्युं के विकारी भावोनो स्वामी पुद्गल छे. हवे कह्युं के ते परद्रव्यप्रवृत्ति छे. ते पोताना अपराधथी परद्रव्यना निमित्ते थाय छे. ते परद्रव्यना निमित्तथी विशेषरूप चेतनमां थता जे चंचळ कल्लोलो तेमना निरोध वडे आ चैतन्यस्वरूपने ज अनुभवुं छुं-एम कहे छे.

अहो! अमृतचंद्राचार्ये अमृत रेडयां छे! चेतनमां थता जे चंचळ कल्लोलो ते पर्यायमां पोताना अपराधथी थाय छे, परद्रव्य तो निमित्तमात्र छे. तेना निरोध वडे चैतन्यस्वरूपने अनुभवतो हुं पोताना अज्ञान वडे आत्मामां उत्पन्न थता जे आ क्रोधादिक भावो ते सर्वने क्षय करुं छुं. क्रोधादिक विकार उत्पन्न केम थाय छे? तो कहे छे के स्वरूपनुं ज्ञान नथी माटे पोताना अज्ञान वडे आस्रवो उत्पन्न थाय छे. परंतु कहे छे के हवे परद्रव्यनुं लक्ष छोडी स्वरूप भणी ढळतां निज चैतन्यस्वरूपने अनुभवतो हुं जे आ क्रोधादिक भावो ते सर्वने क्षय करुं छुं. ज्ञानदर्शनस्वरूप परिपूर्ण एक शुद्ध वस्तु जे आत्मा तेनो अनुभव करतां आस्रवोथी हुं निवर्तु छुं.

पहेलां परमार्थरूप वस्तुस्वरूप कह्युं के हुं एक छुं, शुद्ध छुं, रागना स्वामीपणे सदाय नहि परिणमतो निर्मम छुं, ज्ञानदर्शन-पूर्ण छुं, परमार्थ वस्तुविशेष छुं. हवे पर्यायनी वात करी के पर्यायमां राग थयो केम? तो कहे छे के परद्रव्यना निमित्तथी चेतनमां विशेषरूप चंचळ कल्लोलो-विकल्पो थता हता. ते सर्वना निरोध वडे चैतन्यस्वरूपने अनुभवतो ते आस्रवोनो क्षय करुं छुं. आस्रवनो निरोध संवर छे. पुण्य-पापना विकल्पो ते आस्रवो छे. पर्यायमां उत्पन्न थता पुण्य-पापना जे चंचळ कल्लोलो तेनो निर्मळ शुद्ध चैतन्यस्वरूपना आश्रये निरोध करतां आस्रवोनी निवृत्ति-क्षय थाय छे. ज्ञानदर्शनथी परिपूर्ण शुद्ध चैतन्य भगवान छे. तेनो अनुभव करतां चेतनमां थता चंचळ कल्लोलोनो निरोध थाय छे अने आस्रवोथी निवृत्ति थाय छे. मिथ्यात्वने छोडवानी आ रीत छे.

प्रश्नः- व्यवहार साधन छे के नहि? पंचास्तिकायमां साधन कह्युं छे.

उत्तरः– पंचास्तिकायमां भिन्न साध्य-साधननी वात आवे छे. परंतु ए तो साधननुं निरूपण बे प्रकारे छे, साधन बे प्रकारनां नथी. साधन तो एक ज प्रकारनुं छे. मोक्षमार्गप्रकाशकमां पंडितप्रवर श्री टोडरमलजी कहे छे के जेने निश्चय सम्यग्दर्शन थयुं छे त्यां एनी साथे देव-गुरु-शास्त्रनो राग सहचरपणे होय छे. तेने सहचर देखीने, निमित्तथी उपचार करीने व्यवहार समकित कहेवामां आवे छे. खरेखर छे तो राग-


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बंधनुं कारण, पण सहचर देखीने आरोप कर्यो छे. पछी लख्युं छे के सर्वत्र निश्चय-व्यवहारनुं आवुं लक्षण जाणवुं.

रागथी भिन्न पडीने अनुभव द्वारा स्वरूपनुं निश्चय साधन प्रगट थयुं छे त्यां साथे रागनी मंदतानुं सहचरपणुं देखीने तेने व्यवहार साधननो आरोप आपवामां आव्यो छे. ए तो उपचारथी आरोप आप्यो छे, ए कांई यथार्थ साधन नथी. साधन बे नथी, पण तेनुं निरूपण बे प्रकारे छे. कारण तो एक ज छे. साधन कहो, कारण कहो, उपाय कहो-ए बधुं एक ज छे, एक ज प्रकारे छे. कथन बे प्रकारे होय छे-एक निश्चय अने बीजुं व्यवहार; तेमां निश्चय ते सत्यार्थ छे अने व्यवहार ते उपचार-असत्यार्थ छे.

आत्मामां पुण्य-पापना क्रोधादि भावो कयांथी थया? ए भावो कांई जडमां तो थया नथी. पोतानी पर्यायमां पोताना अपराधथी अज्ञानथी उत्पन्न थया छे. अज्ञानवडे उत्पन्न थयेला ते आस्रवो द्रव्यद्रष्टि वडे, शुद्ध चैतन्यना आश्रयना पुरुषार्थ वडे, सर्व क्षय करुं छुं एम अहीं कह्युं छे. द्रव्यद्रष्टिमां सर्व आस्रवोनी नास्ति छे तेथी सर्वने क्षय करुं छुं एम कह्युं छे. अल्प अस्थिरता रही छे ते पण पुरुषार्थना बळे अल्पकाळमां क्षय थवा योग्य छे तेथी सर्वने क्षय करुं छुं एम लीधुं छे. प्रथम तो आवो विकल्पमां निश्चय थाय छे एनी आ वात थई. मार्गने पामवानी आ रीत छे.

‘एम आत्मामां निश्चय करीने, घणा वखतथी पकडेलुं जे वहाण तेने जेणे छोडी दीधुं छे एवा समुद्रना वमळनी जेम जेणे सर्व विकल्पोने जलदी वमी नाख्या छे एवो, निर्विकल्प अचलित निर्मळ आत्माने अवलंबतो, विज्ञानघन थयो थको, आ आत्मा आस्रवोथी निवर्ते छे.’

जुओ! आत्मामां आम निश्चय करीने-एम कह्युं छे. भाई! मार्ग जेवो छे तेवो प्रथम निश्चय करवो जोईए. तेमां बीजी रीते मानवा जईश तो मार्ग हाथ नहि आवे. मिथ्यात्वना आस्रवथी निवर्तवा माटे पहेलां आंगणामां ऊभा रहीने पोतानी चीज आ छे एवो यथार्थ निश्चय करवो जोईए. आवो निश्चय करीने अंदर प्रवेशीने अनुभव वडे सर्व आस्रवोनो क्षय करुं छुं एम कह्युं छे. आ अप्रतिहत पुरुषार्थना उपाडनी वात करी छे.

अहो! संतोए गजब काम कर्यां छे. ७२मी गाथामां तो एने त्रण त्रण वार भगवान कहीने बोलाव्यो छे. जाग रे नाथ! जाग; रागमां एकत्व करीने सूवुं तने पालवे नहि. निर्मळ परिणतिमां जाग्रत थवुं ए तारी शोभा छे, भगवान! भगवान तुं अत्यंत शुचि, विज्ञानघनस्वरूप अने सुखनुं कारण छो. आवो भगवान आत्मा छे तेनो अनुभव करतां आस्रवोनो क्षय थाय छे. परिभाषा सूत्र बांध्युं छे ने! गाथा ७२ पछी यथास्थाने आ गाथा ७३ मूकी छे. दरेक गाथा यथास्थाने मूकी छे. कहे छे-भगवान


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तुं रागना रंगे रोळाई गयो छे एने आ नवो शुद्ध चैतन्यनो रंग चढावी दे. प्रभु! तुं वीतरागमूर्ति जिनस्वरूप ज छो. हवे निर्णय कर अने रागथी निवृत्त था. अहाहा...! हुं ज्ञानदर्शनथी परिपूर्ण छुं एम निश्चय करीने स्वभावमां ढळतां राग-द्वेषनो क्षय थाय छे.

जुओ! घणा वखतथी पकडेलुं जे वहाण तेने जेणे छोडी दीधुं छे एवा समुद्रना वमळनी जेम जेणे सर्व विकल्पोने जलदी वमी नाख्या छे ते आस्रवोथी निवृत्त थाय छे. वमळे घणा वखतथी वहाणने पकडयुं हतुं ते वमळ छूटे एटले वहाण गति करे. समुद्रना वमळनी जेम सर्व विकल्पो जेणे जलदीथी वमी नाख्या ते आस्रवोथी निवृत्त थाय छे. विकल्पोने वमी नाख्या एटले के फरीथी ते हवे उत्पन्न थशे नहि-एम अर्थ छे. प्रवचनसार गाथा ९२मां आवे छे के- ‘अने ते (बहिर्मोहद्रष्टि) तो आगमकौशल्य तथा आत्मज्ञान वडे हणाई गई होवाथी हवे मने फरीने उत्पन्न थवानी नथी.’ आ पंचम आराना मुनि कहे छे. आवी अप्रतिहत भावनी वात छे. द्रष्टांतमां एम लीधुं के वमळ छूटतां वहाणने छोडी दीधुं छे. सिद्धांतमां एम कह्युं के ज्ञानस्वरूपमां ज्यां एकाग्र थयो एटले विकल्पो तूटी गया. त्यां विकल्पोने एवा वमी नाख्या के फरीने हवे ते उत्पन्न थवाना नथी. मुनिराज कहे छे के अमे अप्रतिहत भावे उपडया छीए. क्षयोपशममांथी क्षायिक समकित लेशुं, पण वच्चे पडवानी वात ज नथी.

अहाहा...! जुओ, आ दिगंबर संतोना अंतरना आनंदनी मस्ती! आ पंचम आराना मुनिवरो पोकार करीने बहु ऊंचेथी कहे छे के हजारो वर्षथी बहारमां भगवाननो विरह होवा छतां अमारो अंतरंग निर्मळानंदनो नाथ चैतन्य भगवान अमने समीप वर्ते छे. कोई पूछे के भगवान केवळी पासे तमे गया हता? तो कहे छे-भाई! सांभळ! मारो नाथ भगवान आत्मा चैतन्य प्रभु छे तेनी पासे अमे गया छीए. त्यांथी अंतरमां अवाज आव्यो छे के विकल्पोने अमे एवा वमी नाख्या छे के फरीने हवे ते उत्पन्न थवाना नथी. अहाहा...! वस्तु परमपारिणामिकस्वभावे जे त्रिकाळ ध्रुव छे तेनी सन्मुख थतां जे स्वानुभव प्रगट थयो छे ते मोक्ष लईने ज पूर्ण थशे. हवे फरीने मिथ्यात्व थशे ए वात छे ज नहि. आ प्रमाणे सर्व विकल्पोने जलदी एकदम शीघ्र वमी नाख्या छे एवो निर्विकल्प अचलित निर्मळ आत्माने अवलंबतो विज्ञानघन थयो थको, आ आत्मा आस्रवोथी निवर्ते छे.

अभेद, अचलित, निर्मळ भगवान आत्मा विज्ञानघन छे. रूना धोकळामां पोलाण होय छे, परंतु आनंदनो नाथ प्रभु आत्मा तो एकलो विज्ञानघन छे. (एमां कोई परनो प्रवेश शकय नथी) एवा अचलित निर्मळ आत्माने अवलंबतो, विज्ञानघन थयो थको अभेद एकपणे परिणमतो आ आत्मा आस्रवोथी निवर्ते छे.

पर्याय ज्यां द्रव्यसन्मुख ढळी एटले ते द्रव्यथी अभेद थई. खरेखर तो पर्याय