Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 74.

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पर्यायमां तन्मय छे, द्रव्यमां नहि. तन्मय एटले पर्याय द्रव्याभिमुख थई, द्रव्य प्रति ढळी छे एम अर्थ छे. विज्ञानघन थयो एटले शुं? के ज्ञाननी पर्याय जे अस्थिर बहिर्मुख हती ते द्रव्यमां अंतर्मुख वळीने स्थिर थई तेने विज्ञानघन थयो कहेवामां आवे छे.

७४ मी गाथामां आवशे के जेम जेम विज्ञानघनस्वभाव थतो जाय छे तेम तेम आस्रवोथी निवृत्त थतो जाय छे. आ पर्यायनी वात छे हों. अहाहा...! वस्तु त्रिकाळी विज्ञानघनस्वभाव छे. तेमां एकाग्र थतां ते पर्यायमां विज्ञानघन थयो थको आस्रवोथी निवृत्त थाय छे. आस्रवोथी निवर्तवानो आ ज मार्ग छे. कह्युं छे ने के-

‘एक होय त्रण काळमां परमारथनो पंथ.’

अरे! दुनिया कयांय पडी छे, अने मार्ग कयांय रह्यो छे! भाई! वीतरागनो मार्ग रागनी मंदता वडे पमाय एम नथी. अहीं तो कहे छे के चैतन्यस्वरूप ध्रुव वस्तुमां एकाग्र थयो थको अने तेनेअनुभवतो थको आ आत्मा आस्रवोथी निवर्ते छे.

भाषा सादी पण भाव बहु उंचा छे, भाई! जन्म-मरणना अंत लाववानी आ वात छे. आमां व्यवहारथी थाय ने आम थाय एवा वादविवादने कोई अवकाश नथी. जेनाथी निवर्तवुं छे एनाथी (मुक्ति) थाय एम केम होई शके, भाई?

प्रश्नः– परंपरा कारण (शास्त्रोमां) कह्युं छे ने?

उत्तरः– जेने शुद्धतानो अनुभव प्रगट थयो छे तेने शुभरागमां अुशभराग टळ्‌यो छे. तेना शुभरागने व्यवहारथी परंपरा कारण कहेवामां आव्युं छे. ए तो उपचार कथन छे. परंतु निश्चय विना व्यवहार परंपरा मोक्षनुं कारण केवुं? एम छे ज नहि. अनादिरूढ व्यवहारमां अज्ञानी मूढ छे. निश्चय विना जे व्यवहारमां लीन छे ए तो व्यवहारमूढ छे. जाणनारो अंदर ज्यां जाग्यो, निश्चयमां आरूढ थयो त्यारे तेने जे रागनी मंदता होय तेना उपर निश्चयनो आरोप आपवामां आवे छे.

आवी भगवाननी फरमावेली वात संतो आडतिया थईने जाहेर करे छे. अंर्तसन्मुख थतां जेने (सम्यग्दर्शननी) बीज उगी तेने पूनम (केवळज्ञान) थये ज छूटको छे. अहाहा...! शुद्ध चैतन्यघन प्रभु आत्माना अवलंबने जेने विज्ञानघन पर्याय प्रगट थई तेने पूर्ण विज्ञानघन-केवळज्ञान थशे ज आवी आ वात छे.

* गाथा ७३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *
शुद्धनयथी ज्ञानीए आत्मानो एवो निश्चय कर्यो के-‘हुं एक छुं, शुद्ध छुं, परद्रव्य प्रत्ये

ममतारहित छुं, ज्ञानदर्शनथी पूर्ण वस्तु छुं.’ आम निश्चय करीने ज्यारे ते ज्ञानी आत्मा आवा पोताना स्वरूपमां रहेतो थको तेना ज अनुभवरूप थाय त्यारे


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क्रोधादिक आस्रवो क्षय पामे छे. अनादिथी रागमां रहेतो हतो ते हवे पोताना चैतन्य- स्वरूपमां रहेतो थको प्रथम मिथ्यात्वना आस्रवथी-दुःखथी निवृत्त थाय छे.

स्वरूपथी जे विरुद्ध भावो छे ते क्रोधादि छे. चाहे तो पुण्यरूप शुभभाव होय तोपण ते चैतन्यस्वभावथी विरुद्ध छे माटे क्रोधादि छे. आ क्रोधादि आस्रवो स्वरूपना लक्षे तेना अनुभवथी क्षय पामे छे. मिथ्यात्वरूपी आस्रवथी निवृत्त थवानो आ एक ज उपाय छे, अने ते धर्म छे. भाई! रागथी छूटुं पडवुं ते धर्म छे. त्यां राग (धर्मनुं) साधन थाय एम केम बनी शके? न ज बनी शके. अहीं कह्युं ने के रागना जे चंचळ कल्लोलो अनुभवतो हतो, तेनो निरोध करीने ज्यां त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यमय विज्ञानघन-स्वभावमय वस्तुमां निमग्न थयो, त्यां आस्रवो क्षय पामे छे अने स्वरूपना आनंदनो आस्वाद प्राप्त थाय छे.

प्रश्नः- देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग अने व्यवहार चारित्रनी आचरणनी क्रिया ए बधां साधन-उपाय छे के नहि?

उत्तरः– बीलकुल नहि. भाई! ए रागनी क्रियाओ तो बधी आस्रव छे. तेनो तो क्षय करवानो छे. ते साधन थाय एम कदीय बनी शके नहि. प्रभु! आम ने आम (खोटी मान्यतामां) जींदगी चाली जशे. छेवटे डूबकी संसारमां ऊंडे मारशे त्यां तने भारे दुःख थशे. तेनाथी छूटवानो तो आ एक ज मार्ग छे. भाई! वस्तु जे ज्ञानदर्शनथी परिपूर्ण छे तेमां एकाग्रता करी, तल्लीन थई स्वरूपने अनुभववुं आ एक ज दुःखना क्षयनो उपाय छे.

भगवान आत्मा निराकुळ आनंदस्वरूप परमात्मा छे. तेमां द्रष्टि एकाकार करतां ते आस्रवोथी-दुःखथी निवर्ते छे. अहा! कोई प्रतिकूळ संजोगो दुःखरूप नथी पण पुण्य-पापना भाव ते दुःखरूप छे, आकुळतामय छे. तेने मटाडवा चाहे छे तो कहे छे के-ज्यां निराकुळ आनंदस्वरूप चैतन्य प्रभु बिराजे छे त्यां जा ने, एमां लीन था ने, एनो अनुभव कर ने! तेथी तुं दुःखथी निवृत्त थशे. कठण लागे तोपण मार्ग तो आ ज छे. भाई! बीजो रस्तो लेवा जईश तो भव चाल्यो जशे अने चोरासीना अवतार ऊभा रहेशे.

जेम समुद्रना वमळे घणा काळथी वहाणने पकडी राख्युं होय पण पछी ज्यारे वमळ शमे त्यारे ते वहाणने छोडी दे छे, तेम आत्मा विकल्पना वमळने शमावतो थको आस्रवोने छोडी दे छे. वमळ छोडे तो वहाण छूटे तेम आ विकल्प छोडे तो स्थिर थाय एम कहेवा मागे छे. आत्मा विकल्पोनी जाळमां गुंचाई गयो छे तेने छोडतो थको ते आस्रवोने छोडी दे छे. ज्यां स्वभाव बाजु ढळ्‌यो अने एमां ठर्यो त्यां विकल्पो सहेजे छूटी जाय छे अने निर्विकल्प सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. मिथ्यात्वना आस्रवथी छूटवानी आ ज रीत छे.


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व्यवहार साधक छे अने व्यवहार करतां करतां निश्चय प्राप्त थशे एम कोई कहे तो ते मिथ्या छे. वळी निश्चय सम्यग्दर्शन शुं छे एनी खबर न पडे एम कोई कहे तो ए पण मिथ्या छे. निज शुद्ध आत्मानो अनुभव थतां जे निराकुळ आनंदनो स्वाद आवे एनी खबर न पडे एवुं न होय. प्रभु! तुं परमात्मस्वरूप छो. स्वभावथी सामर्थ्यरूपे पोते परमात्मा छे. तेनो निर्णय करीने एमां ढळतां जे अनुभव थाय एमां निराकुळ आनंदनो स्वाद आवे छे अने त्यारे आस्रवथी-दुःखथी निवर्ते छे. आवी वात छे.

प्रश्नः- व्यवहार आवे छे ने?

उत्तरः– ज्यां सुधी पूर्ण वीतराग न थाय त्यां सुधी समकितीने व्यवहार आवे छे. देव-गुरु-शास्त्रनी भक्ति-पूजा इत्यादि तथा व्यवहाररत्नत्रयना रागनो व्यवहार तेने होय छे. परंतु रागना स्वामीपणे सदाय नहि परिणमतो एवो हुं निर्मम छुं एम एने अंतरमां निश्चय थयेलो छे अने ते प्रमाणे जे व्यवहार आवे छे तेनो स्वामी थतो नथी. व्यवहारनो स्वामी थतो नथी पछी व्यवहारथी निश्चय थाय ए वात कयां रही? जेनाथी निवर्तवुं छुं, जेने टाळवा छे एने (निवर्तवामां) मदद करे एम केम होय शके? न ज होई शके. आवी ज वस्तुस्थिति छे अने आ ज मार्ग छे. ल्यो, ७३ (गाथा) पूरी थई.

[प्रवचन नं. १२४ थी १२६ * दिनांक १३-७-७६ थी १प-७-७६]

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गाथा–७४

कथं ज्ञानास्रवनिवृत्त्योः समकालत्वमिति चेत्–

जीवणिबद्धा एदे अधुव अणिच्चा तहा असरणा य।
दुक्खा दुक्खफल त्ति य णादूण णिवत्तदे तेहिं।। ७४।।
जीवनिबद्धा एते अध्रुवा अनित्यास्तथा अशरणाश्च।
दुःखानि दुःखफला इति च
ज्ञात्वा निवर्तते तेभ्यः।। ७४।।

हवे पूछे छे के ज्ञान थवानो अने आस्रवोनी निवृत्तिनो समकाळ (एक काळ) कई रीते छे? तेना उत्तररूप गाथा कहे छेः-

आ सर्व जीवनिबद्ध, अध्रुव, शरणहीन, अनित्य छे,
ए दुःख,
दुखफळ जाणीने एनाथी जीव पाछो वळे. ७४.

गाथार्थः– [एते] आ आस्रवो [जीवनिबद्धाः] जीवनी साथे निबद्ध छे, [अध्रुवाः] अध्रुव छे, [अनित्याः] अनित्य छे [तथा च] तेम ज [अशरणाः] अशरण छे, [च] वळी तेओ [दुःखानि] दुःखरूप छे, [दुःखफलाः] दुःख ज जेमनुं फळ छे एवा छे, - [इति ज्ञात्वा] एवुं जाणीने ज्ञानी [तेभ्यः] तेमनाथी [निवर्तते] निवृत्ति करे छे.

टीकाः– वृक्ष अने लाखनी जेम वध्य-घातकस्वभावपणुं होवाथी आस्रवो जीव साथे बंधायेला छे; परंतु अविरुद्धस्वभावपणानो अभाव होवाथी तेओ जीव ज नथी. (लाखना निमित्तथी पीपळ आदि वृक्षनो नाश थाय छे. लाख घातक अर्थात् हणनार छे अने वृक्ष वध्य अर्थात् हणावायोग्य छे. आ रीते लाख अने वृक्षनो स्वभाव एकबीजाथी विरुद्ध छे माटे लाख वृक्ष साथे मात्र बंधायेली ज छे; लाख पोते वृक्ष नथी. तेवी रीते आस्रवो घातक छे अने आत्मा वध्य छे. आम विरुद्ध स्वभावो होवाथी आस्रवो पोते जीव नथी.) आस्रवो वाईना वेगनी जेम वधता-घटता होवाथी अध्रुव छे; चैतन्यमात्र जीव ज ध्रुव छे. आस्रवो शीतदाहज्वरना आवेशनी जेम अनुक्रमे उत्पन्न थता होवाथी अनित्य छे; विज्ञानघन जेनो स्वभाव छे एवो जीव ज नित्य छे. जेम कामसेवनमां वीर्य छूटी जाय ते क्षणे ज दारुण कामनो संस्कार नाश पामी जाय छे, कोईथी रोकी राखी शकातो नथी, तेम कर्मोदय छूटी जाय ते क्षणे ज आस्रवो नाश पामी जाय छे, रोकी राखी शकाता नथी, माटे तेओ अशरण छे; आपोआप (पोताथी ज) रक्षित


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एवो सहज चित्शक्तिरूप जीव ज शरणसहित छे. आस्रवो सदाय आकुळ स्वभाववाळा होवाथी दुःखरूप छे; सदाय निराकुळ स्वभाववाळो जीव ज अदुःखरूप अर्थात् सुखरूप छे. आस्रवो आगामी काळमां आकुळताने उत्पन्न करनारा एवा पुद्गलपरिणामना हेतु होवाथी दुःखफळरूप छे (अर्थात् दुःख जेमनुं फळ छे एवा छे); जीव ज समस्त पुद्गलपरिणामनो अहेतु होवाथी अदुःखफळ छे (अर्थात् दुःखफळरूप नथी).-आम आस्रवोनुं अने जीवनुं भेदज्ञान थतां वेंत ज जेनामां कर्मविपाक शिथिल थई गयो छे एवो ते आत्मा, जथ्थाबंध वादळांनी रचना जेमां खंडित थई गई छे एवा दिशाना विस्तारनी जेम अमर्याद जेनो विस्तार (फेलाव) छे एवो, सहजपणे विकास पामती चित्शक्ति वडे जेम जेम विज्ञानघन- स्वभाव थतो जाय छे तेम तेम आस्रवोथी निवृत्त थतो जाय छे, अने जेम जेम आस्रवोथी निवृत्त थतो जाय छे तेम तेम विज्ञानघनस्वभाव थतो जाय छे; तेटलो विज्ञानघनस्वभाव थाय छे जेटलो सम्यक् प्रकारे आस्रवोथी निवर्ते छे. अने तेटलो आस्रवोथी निवर्ते छे जेटलो सम्यक् प्रकारे विज्ञानघनस्वभाव थाय छे. आ रीते ज्ञानने अने आस्रवोनी निवृत्तिने समकाळपणुं छे.

भावार्थः– आस्रवोनो अने आत्मानो उपर कह्यो ते रीते भेद जाणतां ज, जे जे प्रकारे जेटला जेटला अंशे आत्मा विज्ञानघनस्वभाव थाय छे ते ते प्रकारे तेटला तेटला अंशे ते आस्रवोथी निवर्ते छे. ज्यारे संपूर्ण विज्ञानघनस्वभाव थाय छे त्यारे समस्त आस्रवोथी निवर्ते छे. आम ज्ञाननो अने आस्रवनिवृत्तनो एक काळ छे.

आ आस्रवो टळवानुं अने संवर थवानुं वर्णन गुणस्थानोनी परिपाटीरूपे तत्त्वार्थसूत्रनी टीका आदि सिद्धांतशास्त्रोमां छे त्यांथी जाणवुं. अहीं तो सामान्य प्रकरण छे तेथी सामान्यपणे कह्युं छे.

‘आत्मा विज्ञानघनस्वभाव थतो जाय छे’ एटले शुं? तेनो उत्तरः– ‘आत्मा विज्ञानघनस्वभाव थतो जाय छे एटले आत्मा ज्ञानमां स्थिर थतो जाय छे.’ ज्यां सुधी मिथ्यात्व होय त्यां सुधी ज्ञानने-भले ज्ञाननो उघाड घणो होय तोपण-अज्ञान कहेवामां आवे छे अने मिथ्यात्व गया पछी तेने-भले ज्ञाननो उघाड थोडो होय तोपण-विज्ञान कहेवामां आवे छे. जेम जेम ते ज्ञान अर्थात् विज्ञान जामतुं-घट थतुं-स्थिर थतुं जाय छे तेम तेम आस्रवोनी निवृत्ति थती जाय छे अने जेम जेम आस्रवोनी निवृत्ति थती जाय छे तेम तेम ज्ञान (विज्ञान) जामतुं-घट थतुं-स्थिर थतुं जाय छे, अर्थात् आत्मा विज्ञानघनस्वभाव थतो जाय छे.

हवे आ ज अर्थना कळशरूप तथा आगळना कथननी सूचनिकारूप काव्य कहे छेः-


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(शार्दूलविक्रीडित)

इत्येवं विरचय्य सम्प्रति परद्रव्यान्निवृत्तिं परां
स्वं विज्ञानघनस्वभावमभयादास्तिध्नुवानः परम्।
अज्ञानोत्थितकर्तृकर्मकलनात् क्लेशान्निवृत्तः स्वयं
ज्ञानीभूत इतश्चकास्ति जगतः साक्षी पुराणः पुमान्।। ४८।।

श्लोकार्थः– [इति एवं] ए रीते पुर्वकथित विधानथी, [सम्प्रति] हमणां ज (तुरत ज) [परद्रव्यात्] परद्रव्यथी [परां निवृत्तिं विरचय्य] उत्कृष्ट (सर्व प्रकारे) निवृत्ति करीने [विज्ञानघनस्वभावम् परम् स्वं अभयात् आस्तिध्नुवानः] विज्ञानघनस्वभावरूप एवा केवळ पोताना पर निर्भयपणे आरूढ थतो अर्थात् पोतानो आश्रय करतो (अथवा पोताने निःशंकपणे आस्तिकयभावथी स्थिर करतो), [अज्ञानोत्थितकर्तृकर्मकलनात् कॢेशात्] अज्ञानथी उत्पन्न थयेली कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिना अभ्यासथी थयेला कलेशथी [निवृत्तः] निवृत्त थयेलो, [स्वयं ज्ञानीभूतः] पोते ज्ञानस्वरूप थयो थको, [जगतः साक्षी] जगतनो साक्षी (ज्ञाताद्रष्टा), [पुराणः पुमान्] पुराण पुरुष (आत्मा) [इतः चकास्ति] अहींथी हवे प्रकाशमान थाय छे. ४८.

समयसार गाथा ७४ः मथाळु

हवे पूछे छे के ज्ञान थवानो अने आस्रवोनी निवृत्तिनो समकाळ (एक काळ) कई रीते छे? प्रभो! जे क्षणे ज्ञान थयुं ते ज क्षणे आस्रवोथी जीव निवृत्त थाय एम कई रीते छे? आ प्रश्नना उत्तररूप गाथा कहे छेः-

* गाथा ७४ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘वृक्ष अने लाखनी जेम वध्य-घातकस्वभावपणुं होवाथी आस्रवो जीव साथे बंधायेला छे.’ पीपळ, बावळ इत्यादि घणा वृक्षोने लाख आवे छे. पीपळनुं वृक्ष अने लाख वध्य- घातक छे. वृक्ष वध्य एटले घात थवा लायक छे अने लाख घातक एटले घात करनार छे. घणां वर्ष पहेलां भावनगरमां गुजरी बजार पासे पीपळनां झाड हतां, हारबंध झाड हतां. त्यां लाख आवतां बधां वृक्षोनो खो थई गयो, एके झाड न रह्युं. ए अहीं कह्युं छे के लाख घातक-हणनार छे अने वृक्ष वध्य-हणावायोग्य छे. आ रीते वृक्ष अने लाखनो स्वभाव एकबीजाथी विरुद्ध छे. लाख वृक्ष साथे मात्र बंधायेली ज छे; लाख पोते वृक्ष नथी.

तेवी रीते आस्रवो घातक छे अने आत्मा वध्य छे. आम विरुद्ध स्वभावो होवाथी आस्रवो पोते जीव नथी. अहाहा...! भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनंदनो नाथ प्रभु चैतन्यनुं झाड छे. एनी पर्यायमां ते हणावा योग्य छे, वध्य छे. पुण्य-पापना भावो एनो


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पर्यायमां घात करे छे. अहा! पुण्यनो भाव घातक छे अने पर्याय घात थवा योग्य छे. पर्यायमां घात थाय छे. द्रव्यनो कयां घात थाय छे? भगवान आत्मा झाड समान छे अने पुण्य पापना भाव लाख समान छे. पुण्य-पापना भाव आत्मानी शान्तिना घातक छे अने आत्मानी शान्ति घात थवा योग्य छे.

‘अविरुद्धस्वभावपणानो अभाव होवाथी तेओ जीव ज नथी.’ जेम लाखनो झाडथी विरुद्ध स्वभाव छे तेम पुण्य-पापरूप आस्रवोनो स्वभाव आत्माना स्वभावथी विरुद्ध छे. तेमने अविरुद्धस्वभावपणानो अभाव छे. देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो विकल्प ऊठे के पंच-महाव्रतनो विकल्प ऊठे-ए जीवना स्वभावथी विरुद्ध स्वभाववाळा छे. पुण्य-पापना भावो विरुद्ध स्वभाववाळा होवाथी तेओ जीव ज नथी. जेम लाख झाड नथी, तेम पुण्य-पापना भाव जीव नथी, राग ते ज्ञान नथी; समजाय छे कांई?

व्यवहार साधक, साधक कहे छे ने? अत्यारे तो व्यवहार ज छे, निश्चय छे ज नहि, निश्चयनी खबर पडे नहि-आम केटलाक प्ररूपणा करे छे. अरे प्रभु! आ तुं शुं कहे छे? तारे कयां जवुं छे, बापु? भाई! तारे कयां रहेवुं छे? जेनाथी खसवुं छे, निवर्तवुं छे एमां रहीश, अटकीश तो एनो (निवर्तवानो) के दि’ पार आवशे? जन्म-मरणनो अंत कयारे आवशे? बापु! पुण्य-पापना भावथी तो हठवुं छे. जेम पापथी हठवुं छे तेम पुण्यथी पण हठवुं ज छे. पुण्य-पाप बेय एक ज वस्तु-आस्रव छे. योगसारमां आवे छे के-(दोहा ७१)

“पाप तत्त्वने पाप तो जाणे जग सौ कोई,
पुण्य तत्त्व पण पाप छे, कहे अनुभवी बुध कोई.”

पुण्य-पाप अधिकारमां छेल्ले संस्कृत टीकामां पण आ वात लीधी छे. त्यां प्रश्न थयो के-प्रभु! आ अधिकार पापनो चाले छे ने? एमां आ पुण्य कयां लीधुं? त्यां कह्युं छे के खरेखर तो ए पाप ज छे. पुण्य छे ते व्यवहारे पवित्रतानुं निमित्त कहेवाय, पण खरेखर तो ए पाप छे. निमित्तनो अर्थ ए के ते परवस्तु छे, तेनाथी कांई लाभ छे एम अर्थ नथी. निमित्तनो अर्थ तेनी उपस्थिति छे. निश्चय होय त्यां व्यवहार होय छे एटले उपस्थिति कहेवाय, पण ए घातक छे, दुःखरूप छे.

व्यवहार आवे छे, होय छे. व्यवहारनुं अस्तित्व छे. व्यवहारनयनो विषय नथी एम नथी. परंतु ते आत्माना स्वभावनो पर्यायमां घातक छे. अहीं कहे छे पुण्य-भावमां आत्माना स्वभावथी अविरुद्ध स्वभावनो अभाव छे. भगवान आत्मानो शुद्ध निर्मळ अनाकुळ आनंदरूप चैतन्यस्वभाव छे. अने पुण्यना भाव तो दुःखरूप भाव छे. आमां तडजोड-वाणियावेडा न चाले. (अर्थात् तडजोडने अवकाश नथी)

एक वाणियाने एक कणबी पासे पांच हजार लेणा हता. वाणियाने मनमां ख्याल


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हतो के कणबीनी बे हजारथी वधारे चूकववानी शक्ति नथी. छतां वाणियाए कह्युं के पूरा पांच हजारथी एक पाई ओछी लेवी नथी. कणबीए कह्युं के एक हजारथी वधारे एक पाई देवी नथी. वाणियाने तो खबर हती के कणबी पेटी-पटारा, घरवखरी वेचे तोपण बे हजारथी वधारे ते आपी शके तेम नथी. छेवटे रकझक करीने आघुं-पाछुं करतां करतां बंनेय बे हजारमां पताववा तैयार थई गया. आवुं आमां कांई हशे? के थोडुं निश्चयवाळा ढीलुं मूके, थोडुं व्यवहारवाळा ढीलुं मूके तो बन्ने एक थई जाय. अरे भाई! अहीं वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे त्यां छूटछाटने अवकाश ज कयां छे?

अहीं तो स्पष्ट वात छे के निश्चयथी थाय अने व्यवहारथी न थाय एनुं नाम अनेकान्त छे. व्यवहारथी पण थाय अने निश्चयथी पण थाय ए तो मिथ्या एकान्त छे. स्वभावथी ज थाय, विभावथी न थाय ए सम्यक् एकान्त छे. सम्यक् एकान्त थया विना वास्तविक अनेकान्तनुं ज्ञान साचुं होई शके नहि. श्रीमदे पण ए ज कह्युं छे.

वस्तु अखंड एक ध्रुव चैतन्यबिंब छे. एमां ढळ्‌या विना सम्यक् एकान्त थतुं नथी. ज्यां सम्यक् एकान्त थयुं के ज्ञानमां त्रिकाळी ध्रुव जणायो अने पर्यायमां जे अल्पज्ञता अने रागनी मंदता छे ते पण जणायां. आनुं नाम सम्यक् अनेकान्त छे. रागनी मंदता अने अल्पज्ञतानी पर्यायनुं ज्ञान रहे छे, पण ते हुं छुं एवी मान्यता छूटी जाय छे.

अहीं कहे छे के देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो विकल्प, पंचमहाव्रतना परिणाम अने शास्त्र-भणतरनो विकल्प-ए पुण्यभाव विरुद्ध स्वभाववाळा होवाथी जीव ज नथी. लाख ते पीपळनुं झाड नथी अने झाड छे ते लाख नथी तेम पुण्य-पापना भाव ते आत्मा नथी अने आत्मा छे ते पुण्य-पापना भाव नथी. अहाहा...! जीवमांथी जे नीकळी जाय ते जीव नथी. भाई! चार गतिना अपार दुःखना अंत लाववानो आ मार्ग बराबर समजवो जोईए.

लाठीमां घणा वखत पहेलां एक जुवान छोकरीने शीतळा नीकळ्‌या. नानी उंमर, बे वर्षनुं परणेतर. दाणे दाणे ईयळ पडेली. बाई बिचारी घडीक आम पडखुं फेरवे तो घडीक आम फेरवे. पवन नाखे तो गोठे नहि, पाणी पीवुं गोठे नहि. वेदना, वेदना, वेदना; जोयुं न जाय. अढार सालनी उंमर; बिचारी बोली-बा, में आवां पाप आ भवे कर्यां नथी, शुं थयुं आ? कयांय सुख नहि, चैन नहि. बिचारी रोवे, रोवे, आक्रंद करे. जोवाय नहि एवुं दुःख. अरे! एवी तीव्र वेदनामां देह छूटी गयो. आवां अनंत दुःख आ जीवे भोगव्यां तेनाथी छूटवाना उपायनी आ वात छे. खरेखर तो शरीर मारुं मान्युं छे ए ऊंधी मान्यतानुं दुःख छे. संयोगनुं एने दुःख नथी. शरीरने अने रोगने तो आत्मा अडतोय नथी. परंतु शरीर मारुं छे, मने रोग थयो छे एवी विपरीत मान्यता एने आकुळता अने दुःख उत्पन्न करे छे.


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भाई! तारा दुःखनो कांई पार नथी. शुं कहीए! बापु! तुं मफतना मूळामां अनंतवार वेचायो छे. पहेलां शाकवाळा शाक साथे छोकराने मफतमां मूळो आपता. ए मूळामां तुं अनंतवार जन्म-मरण करी चूकयो छे. पण बधुं भूली गयो छे. अहीं याद करावीने कहे छे के- प्रभु! तुं तारा भगवानने संभाळ. चैतन्यमूर्ति प्रभु आनंदरसनो कंद भगवान आत्मा छे. तेनो आश्रय करीने आस्रव-दुःखने टाळ. आस्रव तारुं स्वरूप नथी. ए तो पर्यायमां तारी शान्तिनो घात करनार छे. जे घात करनार छे तने मदद करनार थाय एम कदीय बनी शके नहि. भाई! तुं गोटाळामां-गूंचवणमां न पड.

शरीरमां जेम क्षयनो रोग थाय तो बिचारो दुःखी दुःखी थई जाय. हाय, क्षयनो रोग थयो! बहु दुःखथी पीडाय. अहीं कहे छे के विकार मारो छे, पुण्य-पापना शुभाशुभ भाव मारा छे एम माने तेने मोटो क्षय लागु पडयो छे. पुण्य-पाप घातक छे, कह्युं ने? जेम लाखना निमित्तथी वृक्षनो क्षय थाय छे तेम पुण्य-पापथी आत्मानी निर्मळ अवस्थानो क्षय थाय छे. जेम लाख वृक्षनुं स्वरूप नथी, मात्र वृक्ष साथे निबद्ध ज छे तेम पुण्य-पापना भाव आत्मानुं स्वरूप नथी, मात्र जीव साथे निबद्ध ज छे अने तेनी शान्तिना घातक छे.

आमां वळी बचाव करीने कोई कहे के व्यवहार आवे छे तो तेनाथी आगळ (मार्गमां) वधाय छे तो ते वात बराबर नथी. भाई! आ वीतरागनो मार्ग तो जेम छे तेम रहेशे, तेमां फेरफार नहि थाय. बापु! तुं आ मार्गनो विरोध न कर. भगवान! आत्मा ज्ञानदर्शनथी परिपूर्ण प्रभु छे. तेनी पर्यायमां पुण्य-पापना भाव थाय ते विरुद्ध-स्वभावे होवाथी घातक छे. ते भावो तारी शान्तिने बाळनारा छे. आस्रवो घातक छे अने आत्मा वध्य छे. आ द्रव्यनी वात नथी, पर्यायनी वात छे. द्रव्य तो जेवुं छे तेवुं अनादि-अनंत चिद्घन छे. पर्यायमां वध्य थवानी लायकात छे, द्रव्यनो वध्य-स्वभाव नथी. एकेन्द्रियथी मांडी पंचेन्द्रिय सुधीनी गमे ते पर्याय हो, वस्तु जे अनंतगुणमां वसेलुं चिदानंदघन तत्त्व छे ए तो एवी ने एवी त्रिकाळ पडी छे.

प्रवचनसार गाथा र०० नी टीकामां आवे छे के-‘जे अनादि संसारथी ज्ञायक- भावपणे ज रह्यो छे अने जे मोह वडे अन्यथा अध्यवसित थाय छे (बीजी रीते जणाय छे) ते शुद्ध आत्माने, आ हुं मोहने उखाडी नाखीने, अति निष्कंप रहेतो थको, यथास्थित ज (जेवो छे तेवो ज) प्राप्त करुं छुं.’ वस्तु तो ज्ञायकभावे त्रिकाळ छे. हुं रागवाळो, पुण्यवाळो इत्यादि मान्यता तो ऊभी करेली छे. पुण्यथी मने लाभ थशे ए तो मोह वडे अन्यथा मान्युं छे; वस्तु एम नथी.

कोई पांच-पचास लाख रूपियानुं दान आपे तो लोको तेने चढावी मारे, मोटो धर्मधुरंधर कहे; परंतु भाई! दान आपवाना भाव तो शुभ छे, पुण्य-बंधनुं कारण छे.


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राग मंद करीने आपे तो पुण्य छे, अने जो वाह-वाह कराववा मानार्थे आपे तो पाप छे. एनाथी धर्म थाय ए वात तो त्रण काळमां नथी. दान आपतां राग मंद करे तोपण हुं राग मंद करुं छुं एम कर्तापणुं माने तो ते मिथ्यात्व छे अने हुं पैसा आपुं छुं एम माने तो ते जडनो स्वामी थाय छे. वीतरागनो मार्ग लोकोए मान्यो छे एनाथी जुदो छे, भाई!

अहीं कहे छे के आवा पुण्यना भाव जे छे ते घातक छे अने आत्मा (पर्यायमां) वध्य छे. परनी दया पाळवानो भाव आस्रव छे अने ते घातक छे. गाथा ७२मां तेने जड अचेतन कहेलो छे. तेमां आवे छे के राग छे ते नथी जाणतो पोताने, नथी जाणतो परने; अन्य चैतन्य द्वारा ते जणाय छे. माटे एमां चैतन्यपणानो अभाव होवाथी ते अचेतन छे. अहीं तेने घातक कह्यो छे. भाई! पुण्यना भावनी जगतने खूब मीठाश छे. ए मीठाश ज एने मारी नाखे छे. पुण्यना फळमां आबरू मळे, धन-संपत्ति मळे. अज्ञानी तेथी राजी-राजी थई जाय छे. पण अहीं कहे छे के पुण्यभावनी जे तने मीठाश छे ते घातक छे. भाई! तेने तुं साधक माने छे पण ते साधक केवी रीते होय?

प्रश्नः- पंचास्तिकायमां व्यवहार साधक अने निश्चय साध्य एम कह्युं छे ने?

उत्तरः– भाई! ए तो आरोप करीने कथन कर्युं छे. रागथी भिन्न पडीने चैतन्यस्वरूपना अनुभवथी साधक थाय त्यारे ते भूमिकानो जे मंद राग छे तेने आरोप करीने साधक कह्यो छे. ए ज्ञान कराववा एने व्यवहारथी साधक कहेवाय छे. धर्म कांई बे प्रकारे नथी, धर्मनुं निरूपण बे प्रकारे छे. चैतन्यस्वभावना आश्रये थयेली जे निर्मळ दशा ते धर्म छे अने ते काळे रागने सहचर देखीने आरोप आपी तेने व्यवहारथी साधक कहेवामां आवे छे. खरेखर तो आस्रवो विरुद्ध स्वभाववाळा होवाथी तेओ जीव ज नथी. पुण्यनो भाव-दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादिना भाव आस्रवो होवाथी जीव ज नथी एम अहीं कहे छे.

व्यवहाररत्नत्रयनो राग छे तो घातक, पंचास्तिकायमां तेने साधक कह्यो छे ए तो ज्ञानीना (आ) रागमां आरोप करीने व्यवहारथी तेने साधक कह्यो छे. परंतु जेने आत्मज्ञान नथी ते तो व्यवहारमां मूढ छे. तेना शुभरागने व्यवहार कहेवामां आवतो नथी.

समयसार गाथा ४१३मां आवे छे-‘जेओ द्रव्यलिंगमां ममकार वडे अहंकार करे छे, तेओ अनादिरूढ व्यवहारमां मूढ वर्तता थका, प्रौढ विवेकवाळा निश्चय पर अनारूढ वर्तता थका परमार्थसत्य भगवान समयसारने देखता-अनुभवता नथी.’ अहीं त्रण बोल कह्या छे.

रागनी मंदतानुं आचरण अनादिथी छे. निगोद अवस्थामां पण जीवने पुण्य-


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परिणाम थाय छे, छतां ते व्यवहार नथी. जेणे निज आत्मानुं ज्ञान-श्रद्धान प्रगट कर्युं नथी तेने एकलो पराश्रित भाव छे. ते मूढ जेवो छे. तेने व्यवहारमूढ केम कह्यो? तो कहे छे के ते एकलो रागनी मंदतानी रुचिमां ज पडयो छे अने स्वाश्रित एवा निश्चयमां ते अनारूढ छे. आ प्रमाणे अनादिरूढ ते व्यवहारमां मूढ छे. हवे ते मूढता त्यागीने व्यवहारनो जाणनारो कयारे थाय? स्वद्रव्यनो-स्वरूपनो आश्रय लईने सम्यक्त्वादि प्रगट करतां ते व्यवहारनो जाणनार रहे छे. भगवान पूर्णानंदनो नाथ त्रिकाळी ध्रुव जे चैतन्यमय वस्तु तेनो आश्रय करतां जेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट थयां ते व्यवहार-विमूढ नथी. तेने व्यवहार छे खरो, पण तेने व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे. आम वात छे.

शुभाशुभ बंने भाव आस्रव छे, अने आस्रव छे ते स्वरूपनो घातक छे. निश्चयमां जे आरूढ छे तेने पूर्ण वीतरागता न थाय त्यां सुधी व्यवहार आवे छे अने तेने आरोप आपीने (निश्चयनो उपचार करीने) साधक कहेवामां आवे छे. ज्ञानी तेने यथार्थपणे जाणी ले छे. अज्ञानीना शुभरागने तो आरोपथी पण साधक कही शकातो नथी.

प्रश्नः- व्यवहारने परंपरा मोक्षनुं कारण कह्युं छे ने?

उत्तरः– हा, पण कोनो व्यवहार अने कयो व्यवहार? जेने अंतरमां आत्मदर्शन थयुं छे, स्वाश्रयथी-निज चैतन्यना आश्रयथी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी शुद्ध परिणति प्रगट थई छे जे खरेखर आगळ जतां मोक्षनो साधक छे, तेने जे राग (व्यवहार) बाकी छे ते रागपरिणाममां उपचार करीने तेने व्यवहारथी परंपरा कारण कहेल छे; केमके एना शुभमां अशुभ टळ्‌यो छे. ए छे तो बाधक ज-एम समजवुं. नियमसार गाथा २ नी टीकामां आवे छे के-निज परमात्मतत्त्वनां सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप शुद्धरत्नत्रयात्मक मार्ग परम निरपेक्ष होवाथी मोक्षनो उपाय छे अने ते शुद्धरत्नत्रयनुं फळ स्वात्मोपलब्धि छे.’ मोक्ष अने मोक्षमार्गने रागनी मंदतानी, भेदनी के परनी कोई अपेक्षा नथी. ए तो परम निरपेक्ष छे.

वळी जेने चैतन्यमूर्ति निर्मळानंदस्वरूप भगवान आत्मानी द्रष्टि ज थई नथी तेना शुभभावमां अशुभ टळ्‌यो ज नथी, केमके तेने मिथ्यादर्शननुं महा अशुभ तो ऊभुं ज छे. तेनी तो रुचि ज शुभभावमां पडी छे तेथी तेना शुभरागने व्यवहारथी पण साधक कहेता नथी. माटे पर्यायमां जे शुभाशुभ राग थाय छे ते स्वभावना घातक छे अने विरुद्ध स्वभाववाळा होवाथी जीवनिबद्ध छे, तोपण जीव नथी एम निश्चय करवो. आ एक बोल थयो.

हवे बीजो बोलः-- ‘आस्रवो वाईना वेगनी जेम वधता-घटता होवाथी अध्रुव छे; चैतन्यमात्र जीव ज ध्रुव छे.’ जुओ! आस्रवो मृगीना रोगनी जेम वधता-घटता छे.


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शुभभाव वधे वळी घटे, ते ज प्रमाणे अशुभ भाव पण वधे वळी घटे. यौवनावस्थामां अशुभभाव वधे, वळी वृद्धावस्थामां घटे. तेम शुभभाव पण वधे अने घटे. अहा! वध-घटपणुं ए आस्रवोनुं लक्षण छे. जेम कोईने दश लाखनी मूडी होय ते छेल्ले विचार करे के एमांथी पांच लाख शुभमां दानमां आपुं. परंतु दीकराने वात करे त्यां दीकरो पूछे-बापुजी, मारा माटे शुं? एटले बापानो दाननो भाव घटी जाय. आ प्रमाणे वधे अने घटे ए आस्रवोनुं लक्षण छे. तेथी आस्रवो अध्रुव छे, पुण्य-पापना भाव अध्रुव छे. चैतन्यमात्र जीव ज ध्रुव छे. आम बंनेनो भेद जाणीने जे ध्रुवने अवलंब्यो तेने आत्मा विज्ञानघन थाय छे अने ते ज काळे ते आस्रवोथी निवर्ते छे.

शुभाशुभ भाव वधता-घटता थता होवाथी अध्रुव छे. कोई वार संसार उपर वैराग्य थई जाय अने संसारनो राग मोळो पडी जाय. तो वळी कांईक बाह्य अनुकूळता वधे अने बहार मान, मोटप मळवा मांडे तो पाछो राग वधी जाय. आ प्रमाणे आस्रवो अध्रुव छे अने चैतन्यमात्र वस्तु आत्मा एक ध्रुव, ध्रुव छे. अहाहा...! जेमां राग नहि, पर्याय नहि, भेद नहि एवो अखंड एकरूप चैतन्यमात्र आत्मा ज ध्रुव छे. आ प्रमाणे अध्रुवथी भिन्न पडीने ध्रुव चैतन्यवस्तुमां एकाग्र थवुं तेनुं नाम धर्म छे. आ बीजो बोल थयो.

त्रीजो बोलः- हवे आ त्रीजो बोल अनित्यनो बोल छे. अध्रुव अने अनित्यमां फेर छे. अध्रुवमां वध-घटपणुं छे अने अनित्यमां एक पछी एक छे. ‘आस्रवो शीतदाह-ज्वरना आवेशनी जेम अनुक्रमे उत्पन्न थता होवाथी अनित्य छे; विज्ञानघन जेनो स्वभाव छे एवो जीव ज नित्य छे.’

अध्रुवमां भावोनी वध-घटनी अपेक्षा छे, अनित्यमां एक पछी एक अनुक्रमनी अपेक्षा छे. अनुक्रम एटले-जेम टाढिया ताव वखते उष्ण ज्वर न होय अने उष्णज्वर वेळा टाढियो ताव न होय तेम शुभभाव वखते अशुभ न होय अने अशुभभाव वखते शुभ न होय. आ प्रमाणे शुभ-अशुभ भावो अनुक्रमे उत्पन्न थता होवाथी अनित्य छे. हिंसाना भाव होय त्यारे दयाना परिणाम न होय अने दयाना परिणाम होय त्यारे हिंसानो भाव न होय. आम अनुक्रमे थता, पलटता रहेता, नाश पामता आस्रवो अनित्य छे. अने विज्ञानघन जेनो स्वभाव छे एवो आत्मा ज नित्य छे. चिदानंदघन-स्वरूप भगवान आत्मा सदा एकरूप होवाथी नित्य छे.

रागभावनो हुं कर्ता अने राग मारुं कर्म एम मानवुं ए मिथ्यात्व छे. ते आस्रव छे, अनित्य परिणाम छे. अने चैतन्यघन नित्यानंद प्रभु आत्मा एनाथी भिन्न नित्य छे. आवा रागथी भिन्न नित्यस्वरूप आत्माने जाणवो-अनुभववो ते भेदज्ञान छे. ज्ञानीने राग आवे पण तेना स्वामीपणे ते परिणमतो नथी. ते रागने अनित्य जाणीने तेमां रहेता नथी पण तेनाथी भेद पाडीने ज्ञानमां रहे छे.


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‘विज्ञानघन जेनो स्वभाव छे एवो जीव ज नित्य छे.’ जुओ, ‘ज’ कहीने एकान्त कर्युं छे. कथंचित् नित्य अने कथंचित् अनित्य छे एम नथी कह्युं. नित्य छे ते एकान्त नित्य ज छे, अनित्य छे ते एकान्त अनित्य ज छे. आखा समग्र द्रव्यनी व्याख्या करवी होय तो त्यां कथंचित् नित्य कथंचित् अनित्य छे एम कहेवाय. पण द्रव्यद्रष्टिथी द्रव्य नित्य ज छे अने पर्याय अनित्य ज छे. आस्रवो अनित्य छे अने आत्मा चैतन्यघन नित्य छे. त्यां नित्यानंद चैतन्यघन प्रभु नित्यमां द्रष्टि लगाडवाथी भेदज्ञान थतां आस्रवनो हुं कर्ता अने आस्रव मारुं कर्म एवी कर्ता- कर्मप्रवृत्तिनो अभाव थाय छे. आ प्रमाणे आस्रवो-शुभाशुभ बन्नेय घातक, अध्रुव अने अनित्य छे अने भगवान आत्मा वध्य, ध्रुव अने नित्य छे एम त्रण बोल थया. आ बन्ने वच्चे भेदज्ञान करतां आस्रवो छूटी जाय छे. हवे चोथो बोल-

चोथो बोलः- ‘जेम कामसेवनमां वीर्य छूटी जाय ते क्षणे ज दारुण कामनो संस्कार नाश पामी जाय छे, कोईथी रोकी राखी शकातो नथी, तेम कर्मोदय छूटी जाय ते क्षणे ज आस्रवो नाश पामी जाय छे, रोकी राखी शकाता नथी, माटे तेओ अशरण छे; आपोआप (पोताथी ज) रक्षित एवो सहज चित्शक्तिरूप जीव ज शरणसहित छे.’

मुनिवरो वीतरागी संतोए केवो दाखलो आप्यो छे! विषयसेवनमां वीर्य छूटी जाय ते क्षणे ज कामनी वासनाना दारुण संस्कार छूटी जाय छे, कोईथी रोकी शकाता नथी. तेम कर्मोदय छूटी जाय त्यारे आस्रवोनो नाश थाय छे. कर्मना उदयना निमित्ते जे आस्रवो थाय छे ते निमित्त मटी जतां छूटी जाय छे. कोइथी शुभाशुभ परिणामो रोकी राखी शकाता नथी. माटे आस्रवो- पुण्यपापना भावो अशरण छे. जुओ! शुभभाव पण अशरण छे. दया, दान, व्रत आदिना शुभभाव अशरण छे, कारण के उदयनुं खरी जवुं कोईथी रोकी शकातुं नथी. आपोआप-पोताथी ज रक्षित एवो सहज चित्शक्तिरूप जीव ज शरणसहित छे. अहाहा...! भगवान आत्मा आपोआप पोताथी ज रक्षित छे. एने राखवो पडे एवुं कयां छे? ए तो रक्षित ज छे. श्रीमद्मां आवे छे के-

स्वद्रव्य अन्यद्रव्य भिन्न भिन्न जुओ.
स्वद्रव्यना रक्षक त्वराथी थाओ.
स्वद्रव्यना व्यापक त्वराथी थाओ.
स्वद्रव्यना धारक त्वराथी थाओ.
स्वद्रव्यना रक्षक त्वराथी थाओ.
स्वद्रव्यना ग्राहक त्वराथी थाओ.
स्वद्रव्यनी रक्षक्ता उपर लक्ष राखो.
परद्रव्यनी धारक्ता त्वराथी तजो.

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परद्रव्यनी रमणता त्वराथी तजो.
परद्रव्यनी ग्राहक्ता त्वराथी तजो.
परभावथी विरक्त था.

अहीं कहे छे के आनंदनो नाथ पूर्णानंद प्रभु आपोआप ज रक्षित छे. तेनी द्रष्टि थाय त्यारे ते रक्षित छे एम जणाय छे. अहाहा...! नित्यानंद प्रभु पोते अनादि-अनंत स्वयं रक्षायेलो छे तेनी द्रष्टि करे त्यारे पर्यायमां पोते रक्षित छे एनुं भान थाय छे अने त्यारे आत्मा शरणरूप थतां अशरण एवा आस्रवोथी पोते निवर्ते छे. भाई! आवा शुद्ध ज्ञायकद्रव्यनी द्रष्टि थया विना एकलुं बाह्य आचरण-व्रत, नियम, संयम इत्यादि थोथे थोथां छे.

माणसोने लागे के-अरे! बायडी छोडी, घर छोडयुं, दुकान छोडी, बधुं छोडयुं. तो य कांई नहि? हा भाई! कांई नहि. ए तो बधी बाह्य चीजो छे, अने अंदरमां ते वखते जे राग छे ते शुभभाव छे. ते कांई धर्म नथी. भाई! दया, दान, व्रत इत्यादि परिणाम ते परद्रव्यना परिणाम छे, राग छे. ते अध्रुव, अनित्य अने अशरण छे एम अहीं कह्युं छे. पुरुषार्थसिद्धयुपायमां रागनी उत्पत्तिने हिंसा कही छे अने रागनी अनुत्पत्ति ते अहिंसा छे एम कह्युं छे. अहाहा...! भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यघन पूर्णानंदनो नाथ जे प्रभु छे तेनो आश्रय लेतां जे निर्मळ वीतरागी पर्याय उत्पन्न थाय ते अहिंसा छे, ते शरण छे, धर्म छे. चार बोल थया.

हवे पांचमो बोलः- ‘आस्रवो सदाय आकुळ स्वभाववाळा होवाथी दुःखरूप छे; सदाय निराकुळ स्वभाववाळो जीव ज अदुःखरूप अर्थात् सुखरूप छे.’

गाथा ४पनी टीकामां कह्युं छे के-‘अध्यवसान आदि समस्त भावोने उत्पन्न करनारुं जे आठे प्रकारनुं ज्ञानावरणादि कर्म छे ते बधुंय पुद्गलमय छे एवुं सर्वज्ञनुं वचन छे. विपाकनी हदे पहोंचेला ते कर्मना फळपणे जे कहेवामां आवे छे ते, अनाकुळतालक्षण जे सुख नामनो आत्मस्वभाव तेनाथी विलक्षण होवाथी, दुःख छे. ते दुःखमां ज आकुळता-लक्षण अध्यवसान आदि भावो समावेश पामे छे; तेथी, जोके तेओ चैतन्य साथे संबंध होवानो भ्रम उपजावे छे तोपण, तेओ आत्माना स्वभावो नथी पण पुद्गलस्वभावो छे.’

आम आस्रवो सदाय आकुळ स्वभाववाळा होवाथी दुःखरूप छे. दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि भावो दुःखरूप छे. अहा! जे दुःखरूप छे ते सुखनुं साधन केम थई शके? शुभरागने साधन कहेवुं ए तो निमित्तनुं ज्ञान करावनारुं उपचार कथन छे; खरेखर ते साधन छे एम नथी. जेम उपादाननी पर्याय पोताथी थाय छे, निमित्तथी नहि-जेम घडानी पर्यायनो कर्ता कुंभार नथी-तेम विकारी पर्यायनो कर्ता पर नथी. अने जे निर्विकारी पर्याय थई तेनुं साधन (शुभराग) विकारी पर्याय नथी. जेम घडो


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पोताथी ज थयो छे तेम निर्मळ अवस्था पोताथी ज थई छे, रागनी मंदता छे माटे थई छे एम नथी. भाई! वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे त्यां शुं थाय?

कहे छे के भगवान आत्मा सदा निराकुळ स्वभाववाळो होवाथी सुखरूप छे. अहाहा...! चैतन्यघन वस्तु सदा सुखरूप छे. अरे! सुख माटे झावां नाखनारने सुख कयां छे एनी खबर नथी! बिचारो पैसामां, आबरूमां, मकानमां, भोगमां, पुण्यमां इत्यादिमां सुख शोध्या करे पण कयांथी मळे? ज्यां छे नहि त्यां कयांथी मळे? पुण्य अने पापना भाव तो दुःखरूप छे. अने एना फळमां प्राप्त बाह्य सामग्री पण दुःखमां निमित्त छे. आ पुण्यना फळमां चक्रवर्ती आदि पद मळे तोपण ए तो एक बाह्य चीज छे, तेना तरफनो जे राग छे ते दुःखरूप छे. भगवान आत्मा एक ज सुखस्वरूप छे. तेथी जेने सुख जोईतुं होय तेणे निज चैतन्यस्वभावी आत्मामां ज शोधवुं पडशे. त्यांथी सुख मळशे. परंतु पुण्य-पापना भावमांथी के संयोगी पदार्थोमांथी कदीय सुख नहि मळे.

भगवान आत्मा सदाय निराकुळ आनंदस्वरूप छे. ते स्वरूपना आश्रये सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्ररूप जे धर्म प्रगटे ते सुखरूप दशा छे. परंतु बाह्य व्यवहार जे दुःखरूप छे तेना आश्रये सुख प्रगट न थाय. भाई! आ वीतरागनो मार्ग लोको माने छे एनाथी बहु जुदो छे. चैतन्य स्वभावना आश्रये जे निर्मळ पर्याय प्रगट थाय ते आत्मव्यवहार छे. जे रागभाव छे ते आत्मव्यवहार नथी, ए तो मनुष्यव्यवहार छे, संसारीनो व्यवहार छे. प्रवचनसार गाथा ९४ नी टीकामां कह्युं छे के-अविचलित-चेतनाविलासमात्र आत्म-व्यवहार छे अने जेमां समस्त क्रियाकलापने भेटवामां आवे छे ते मनुष्यव्यवहार छे. अहाहा! शुद्ध आत्मद्रव्यना आश्रये उत्पन्न निर्मळ विशुद्धि ते आत्मव्यवहार छे अने ते सुखदशा छे. बाह्य व्यवहार जे दुःखरूप छे ते कारण अने आनंद प्रगटे ते कार्य एम कदीय होई शके नहि. आनंदमूर्ति जे त्रिकाळी भगवान अंदर पडयो छे तेने कारणपणे ग्रहतां (तेनो आश्रय करतां) आनंद प्रगटे छे.

भाई! जन्म-मरणना अंत लाववा होय एने तो आ समजवुं पडशे. मुंबईना दरियाना पाणी उपर बगला उडता उडता घणे दूर सुधी जाय छे. कोईने पूछयुं के आ केटले दूर जतां हशे? तो कहे के वीस वीस माईल सुधी माछला पकडवा चाल्या जाय छे. जुओ! आ परिणाम! एना फळमां अहींथी छूटी नरकमां चाल्या जशे. दुःखना स्थानमां अवतार थशे. माटे भाई! हमणां ज चेत. परिभ्रमण ज न रहे एवा भावने प्रगट कर. अहाहा...! जेमां परिभ्रमण नहि अने परिभ्रमणनो भाव पण नहि एवा नित्यानंदस्वरूपनी समीप जा; तने परिभ्रमण मटशे. पर्यायमां आ जे राग छे ते दुःखरूप छे. एनाथी खसी अनाकुळस्वभावी त्रिकाळी आनंदना नाथ पासे जा; तने आनंद थशे, सुख थशे, शान्तिनी धारा प्रगटशे, तृप्ति थशे. जो ने! पांचमी गाथामां आचार्य भगवान स्वयं


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कहे छे के अमारा स्वानुभवमां प्रचुर आनंदनी मुद्रा छे, आनंदनी छाप छे. स्वभावना आश्रये प्रगट थयेलो अनुभव अनाकुळ आनंदनी महोर सहित होय छे.

सदाय निराकुळ स्वभाववाळो होवाथी जीव ज सुखरूप छे. त्यारे कोई कहे आ तो एकांत थई गयुं. कथंचित् सुखरूप अने कथंचित् दुःखरूप-एम कहो ने? भाई! ए अनेकान्तनुं स्वरूप नथी. आत्मा एकान्त सुखरूप छे अने दुःखरूप बीलकुल नथी एनुं नाम अनेकान्त छे. भाई! सुखना पंथे चढवुं होय तो संयोग अने संयोगीभावथी खसी जा अने एकान्त सुखस्वरूप आत्मामां निमग्न थई जा. अहाहा...! अनाकुळ आनंदस्वरूप भगवान आत्मामां ज्यां एकाग्र थयो के तरत ज दुःखनो अभाव थई सुख प्रगट थाय छे. जे काळे सुख प्राप्त थाय छे ते ज काळे दुःखनो अभाव थाय छे अने जे काळे दुःखनो अभाव थाय छे ते ज काळे सुखनी प्राप्ति थाय छे. आ प्रमाणे दुःखनी निवृत्ति अने सुखनी प्राप्तिनो समकाळ छे.

त्यां वळी कोई कहे छे के चारित्र तो खांडानी धार पर चालवा जेवुं अने मीणना दांत लोढाना चणा चाववा जेवुं कठण (कष्टसाध्य) छे. भाई! तुं शुं कहे छे? तने चारित्रना स्वरूपनी खबर नथी. चारित्र तो दुःखना अभावरूप अति सुखदायक आत्मानो परिणाम छे. कष्टसाध्य छे एम शास्त्रमां आवे छे त्यां कष्टनो अर्थ तो पुरुषार्थ थाय छे. अंतरनो उग्र पुरुषार्थ करीने स्वभावमां ढळी जा एम त्यां आशय छे. महा कष्टे एटले महा पुरुषार्थ करीने पण शाताशीळियापणुं (प्रमाद) छोडी दे अने आत्म-रमणतारूप आनंददायी चारित्र साधी ले-आम प्रबळ पुरुषार्थनी प्रेरणानी एमां वात छे, पण चारित्र कष्टदायी छे एम वात नथी. जुओ पांच बोल आवी गया.

१. पुण्य-पापना भाव घातक छे अने आत्मा (पर्याय) वध्य-घात थवा योग्य छे. २. पुण्य-पापना भाव वधता-घटता छे तेथी अध्रुव छे, अने भगवान आत्मा ध्रुव छे.

३. पुण्य-पापना भाव अनुक्रमे उत्पन्न थाय छे माटे अनित्य छे, अने भगवान आत्मा एकरूप नित्य छे.

४. रागादिभाव निमित्तना लक्षे थाय छे तेथी अशरण छे, अने आनंदघन प्रभु आत्मा शरण छे.

प. शुभाशुभ भाव दुःखरूप छे, अने भगवान आत्मा सहज सुखस्वरूप छे, हवे छठ्ठो बोल-

‘आस्रवो आगामी काळमां आकुळताने उत्पन्न करनारा एवा पुद्गलपरिणामना हेतु होवाथी दुःखफळरूप छे.’ आ पुण्य-पापना भावो आगामी काळमां आकुळता उपजावनारा छे. एटले शुं? के आ पुण्यना भावथी जे पुण्य बंधायुं तेना फळरूपे


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आगामी काळमां संयोग मळशे. ते संयोग उपर लक्ष जशे एटले राग ज-दुःख ज थशे. जुओ, वर्तमान जे पुद्गलकर्म बंधाय तेनो आस्रव हेतु छे. अने ते पुद्गल-परिणाम भविष्यमां दुःख उत्पन्न करनार छे. अहीं एम लीधुं छे के शुभभाव ए भविष्यमां दुःख आपनार पुद्गलपरिणामनो हेतु छे. भाई! रागनी दिशा पर तरफ छे अने धर्मनी स्व तरफ. माटे शुभभाव धर्मनुं साधन थाय एम होई शके ज नहि.

अहाहा...! वर्तमान शुभभाव छे ते स्वयं दुःखरूप छे अने भविष्यमां दुःखने उत्पन्न करनारा एवा पुद्गलपरिणामनो हेतु होवाथी दुःखफळरूप छे. गजब वात छे! वर्तमान शुभभाव छे ते राग छे अने तेथी दुःख छे अने भविष्यना दुःखफळरूप छे. समकितीने पण जे राग-शुभभाव आवे ते पुद्गलपरिणामना (पुण्यना) बंधनुं कारण छे अने ए जे पुद्गलकर्म बंधायां ते भविष्यमां दुःखनुं कारण छे.

अशुभराग होय ते वर्तमान अशातावेदनीय आदि पुद्गलपरिणामना बंधनो हेतु छे अने ते पुद्गलपरिणाम भविष्यमां दुःखनुं कारण थशे. शुभभाव जे छे तेनाथी शाता-वेदनीय आदि पुद्गलपरिणाम बंधाशे. तेना उदयना निमित्ते भविष्यमां जे अनुकूळ सामग्री मळशे तेना उपर लक्ष जशे एटले राग थशे, दुःख थशे; केमके राग स्वरूपथी ज दुःखरूप छे.

प्रश्नः- शुभरागने व्यवहारे साधक कहेवामां आवेलो छे ने?

उत्तरः– हा, शुभरागने व्यवहारथी उपचार करीने साधक कहेवामां आवे छे पण ते उपचारमात्र ज समजवुं. द्रव्यसंग्रहनी गाथा ४७ मां आवे छे के-

‘दुविहं पि मोक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा।’

मुनिराजने निश्चय अने व्यवहार मोक्षमार्ग बन्ने साथे ध्यानमां नियमथी प्रगट थाय छे. निश्चय ते वीतरागी निर्मळ पर्याय छे अने व्यवहार ते रागनी पर्याय छे. बन्ने ध्यानमां प्राप्त थाय छे. एटले के चिन्मात्र द्रव्यस्वरूपनो आश्रय लेतां जे निर्मळ दशा प्रगट थई एटलो निश्चय मोक्षमार्ग छे अने ते ज काळे जे राग छे ते व्यवहार मोक्षमार्ग छे. छे तो ते बंधनुं कारण, पण निश्चयनो सहचर देखी, निमित्त गणी उपचार करीने तेने व्यवहार मोक्षमार्ग कहेल छे.

भाई! आ छठ्ठो बोल झीणो छे. पांचमा बोलमां आस्रवो वर्तमान दुःखरूप छे एम कह्युं, अने छठ्ठा बोलमां अहीं एम कहे छे के आस्रवो भविष्यमां दुःखना कारणरूप छे. कारण के शुभभावथी शातावेदनीय आदि पुण्यनी जे ४२ प्रकृति छे ते बंधाय अने भविष्यमां तेनो उदय आवे त्यारे धन- दोलत, आबरू इत्यादि अनेक सामग्री मळशे. त्यारे एना पर लक्ष जशे एटले राग थशे अने राग थशे एटले दुःख थशे, केमके राग दुःखस्वरूप ज छे.


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प्रश्नः- तीर्थंकरनामकर्मनी प्रकृति बंधाय ते भविष्यमां कयां दुःखनुं कारण छे? उत्तरः– तीर्थंकरनामकर्मनो जे बंध छे ते जीव ज्यारे शुभाशुभ भावनो संपूर्ण नाश करी पूर्ण वीतरागता अने केवळज्ञान उपजावशे त्यारे उदयमां आवे छे. (माटे त्यां ए प्रश्न ज नथी.) प्रश्नः– पुण्यानुबंधी पुण्य बंधाय एवा परिणाम सुखरूप छे के नहि? उत्तरः– गमे ते पुण्यना परिणाम हो, वर्तमानमां ते दुःखरूप छे अने भविष्यमां पण दुःखना कारणरूप छे. पुण्यानुबंधी पुण्य पण भाविमां आकुळता थवामां निमित्त छे, परंतु आत्मानी शांति-समाधिनुं निमित्त नथी. प्रश्नः- पुण्यना फळमां लक्ष्मी-संपत्ति आदि मळे तो ते धर्म करवामां साधन थाय. केम ए बराबर छे ने?

उत्तरः– ना, ए बराबर नथी. कह्युं ने के पुण्यभावना फळमां जे पुद्गलकर्म बंधाय तेना निमित्ते भविष्यमां आबरू, संपत्ति आदि सानुकूळ संयोगो मळे अने ते संयोगोना लक्षे राग ज थाय, दुःख ज थाय. ते संयोगो कांई आत्मानी शान्ति-समाधिनां निमित्त नथी. परवस्तु कांई धर्मनुं साधन नथी. संयोगो प्रत्येनो राग मटाडी, तेनाथी निवृत्त थई अंदर आत्मामां-शुद्ध चिदानंदघन वस्तुमां प्रवृत्त थाय त्यारे धर्म थाय छे. भाई! वीतरागनो मार्ग लोको माने छे तेनाथी जुदो छे. अहो! दिगंबर संतोनी शैलि गजब छे! सत्यने सिद्ध करवानी शुं अलौकिक शैली छे! व्यवहार छे, पण ते शुभराग कांई धर्मनुं साधन नथी. परमात्मप्रकाशमां आवे छे के निश्चयनुं नाम वीतराग छे, व्यवहारनुं नाम सराग छे. सरागने निश्चयनुं-वीतरागनुं साधन कहेवुं ए उपचार छे, आरोपित कथन छे. अहीं तो स्पष्ट कहे छे के वर्तमान सरागता छे ते भविष्यमां दुःखनुं कारण एवा पुद्गलपरिणामनो हेतु छे. व्यवहाररत्नत्रयना परिणामने साधक कह्यो छे ए तो उपचारथी कथन कर्युं छे. निमित्तनुं ज्ञान कराववा तेने साधक कह्यो छे, पण साधक बे प्रकारना छे एम नथी. साधकनुं निरूपण बे प्रकारे छे. जेम मोक्षमार्ग बे प्रकारनो नथी, तेनुं निरूपण बे प्रकारथी छे तेम साधक बे प्रकारना नथी पण तेनुं निरूपण बे प्रकारथी छे. शुभरागने व्यवहारथी साधकनो आरोप आप्यो छे, खरेखर ते साधक छे नहि. जेम समकितीने निश्चय सम्यग्दर्शन छे तेनी साथे देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो जे राग छे तेने व्यवहार समकित कह्युं. पण ए व्यवहार समकित कांई समकितनी- श्रद्धाननी पर्याय नथी. ए तो रागनी पर्याय छे. पण निश्चयनो सहचर देखी, निमित्त गणीने, उपचार करीने तेने समकित कहेवामां आवेल छे. मोक्षमार्ग प्रकाशकमां लख्युं छे के सर्वत्र निश्चय-व्यवहारनुं लक्षण आ रीते जाणवुं. व्यवहार करतां करतां मोक्ष थशे एवा एकला (मिथ्या)


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व्यवहारवाळाना व्यवहारने तो कोई आरोप लागु ज पडतो नथी. आवी वात छे. आ छठ्ठो बोल घणो गंभीर छे!

अरे! लोकोए-अज्ञानीओए वीतराग मार्गने तोड-फोड करीने चूंथी नाख्यो छे! पराश्रयथी जे भाव थयो ते राग छे, आस्रव छे, दुःखरूप छे अने भविष्यमां दुःखनुं कारण छे. परंतु एने चूंथवा मांडे अने कहे के आम (शुभभाव) करतां करतां धर्म थशे. पण वस्तुस्थिति एम नथी. भाई! आ बोलमां अहीं स्पष्ट कह्युं छे के आस्रवो आगामी काळमां आकुळताने उत्पन्न करनारा एवा पुद्गलपरिणामना हेतु होवाथी दुःखफळ छे, दुःख जेमनुं फळ छे एवा छे.

‘जीव ज समस्त पुद्गलपरिणामनो अहेतु होवाथी अदुःखफळ छे’. अहाहा...! भगवान आत्मा ज्ञायक प्रभु ज्ञाता-द्रष्टा निर्विकल्प निराकुळ आनंदस्वरूप भगवान छे; ते समस्त पुद्गलपरिणामनो अहेतु छे. तीर्थंकर प्रकृतिनो बंध थाय तेनो जीव हेतु नथी, तेनो हेतु तो शुभभाव छे. इन्द्र-अहमिंद्र, चक्री आदि भव मळे ते भव आकुळता उत्पन्न थवानुं निमित्त छे, आत्मानी शांति-समाधिनुं नहि. जीव ज समस्त पुद्गल-परिणामनो अहेतु होवाथी अदुःखफळ छे.

भाई! वीतरागनो मार्ग घणो निर्मळ, स्वच्छ छे. पण लोकोए पोतानी मति- कल्पनाथी ऊंधा अर्थ करीने चूंथी नाख्यो छे. पुद्गलपरिणाम जे १४८ कर्मप्रकृतिना भेदो छे ते कर्म परिणामनो जीव अहेतु छे. जीवने लईने कोई कर्मनी प्रकृति बंधाय छे एम छे ज नहि. जीव तो एक ज्ञायकभाव छे. ते कोईपण प्रकृतिना बंधनो हेतु थाय एवुं एनुं स्वरूप नथी.

आ अधिकारनी गाथा १०पमां कह्युं छे के-“आ लोकमां खरेखर आत्मा स्वभावथी पौद्गलिक कर्मने निमित्तभूत नहि होवा छतां पण, अनादि अज्ञानने लीधे पौद्गलिक कर्मने निमित्तरूप थता एवा अज्ञानभावे परिणमतो होवाथी निमित्तभूत थतां, पौद्गलिक कर्म उत्पन्न थाय छे, तेथी ‘पौद्गलिक कर्म आत्माए कर्युं’ एवो निर्विकल्प विज्ञान- घनस्वभावथी भ्रष्ट विकल्पपरायण अज्ञानीओनो विकल्प छे; ते विकल्प उपचार ज छे, परमार्थ नथी.”

जुओ, जडकर्म आत्माए कर्युं ए उपचार कथन छे. खरेखर तो जीव पोताना अज्ञाननो कर्ता छे, पुद्गलपरिणामनो कर्ता नथी. अहीं तो एम सिद्ध करवुं छे के आत्मा खरेखर स्वभावनी द्रष्टिथी जोतां कोई पण प्रकृतिना बंधनुं निमित्त नथी, चिन्मात्र वस्तु ज्ञायकभावरूप आत्मा निमित्त केम थाय? माटे अहीं कहे छे के जीव ज समस्त पुद्गलपरिणामनो अहेतु होवाथी अदुःखफळ छे. अहाहा...! त्रिकाळी शुद्ध ज्ञानानंद-स्वभावी जे ध्रुव ज्ञायकमूर्ति प्रभु आत्मा छे तेनां श्रद्धान-ज्ञान-रमणता कोई पुद्गल-


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परिणामनो हेतु नथी; माटे ते दुःखरूप नथी, परंतु वर्तमानमां पण एकांत सुखरूप छे अने भविष्यना सुखफळरूप छे.

हवे कहे छे-‘आम आस्रवोनुं अने जीवनुं भेदज्ञान थतां वेंत ज जेनामां कर्मविपाक शिथिल थई गयो छे एवो ते आत्मा, जथ्थाबंध वादळांनी रचना जेमां खंडित थई गई छे एवा दिशाना विस्तारनी जेम अमर्याद जेनो विस्तार छे एवो, सहजपणे विकास पामती चित्शक्ति वडे जेम जेम विज्ञानघनस्वभाव थतो जाय छे तेम तेम आस्रवोथी निवृत्त थतो जाय छे.

आस्रवो अने आत्मानुं अहीं छ प्रकारे भेदज्ञान कराव्युं-

१. आस्रवो घातक छे, पर्याय वध्य छे. २. आस्रवो अध्रुव छे, भगवान आत्मा ज ध्रुव छे. ३. आस्रवो अनित्य छे, भगवान आत्मा ज नित्य छे. ४. आस्रवो अशरण छे, भगवान आत्मा ज शरण छे. प. आस्रवो दुःखरूप छे, भगवान आत्मा ज अदुःखरूप छे. ६. आस्रवो पुण्य-पाप बंधना हेतु होवाथी दुःखफळरूप छे, भगवान आत्मा ज पुण्य-

पाप बंधनो अहेतु होवाथी अदुःखफळरूप छे.

आ प्रमाणे भेदज्ञान थतां वेंत ज, चैतन्यस्वरूप भगवान ज्ञायकनुं भान थतां वेंत ज जेनामां कर्मनो विपाक शिथिल-ढीलो पडी गयो छे ते आत्मा आस्रवोथी-मिथ्यात्वथी निवृत्त थई जाय छे.

जथ्थाबंध वादळांनी रचना खंडित थई जतां जेम सूर्यनो प्रकाश दिशाओमां सर्वत्र विस्तरे छे, दिशाओ निर्मळ थई जाय छे तेम अमर्यादित जेनो विस्तार छे एवा आत्मानी सहज ज्ञानकळा खीली जाय छे. इन्द्रियथी, कर्मथी, रागथी ज्ञानने भिन्न पाडतां ज्ञाननो विकास थईने ज्ञान विज्ञानघन थई गयुं, अने पुद्गल कर्म ढीलुं पडीने अभावरूप थई गयुं. पोतानी सहज चित्शक्ति वडे पोते ज्ञानमां स्थिर थई गयो, द्रढ जामी गयो. अहाहा...! वस्तु तो विज्ञानघन छे. भेदज्ञानना बळे पोते पर्यायमां जेम जेम विज्ञानघन थतो जाय छे तेम तेम आस्रवोथी निवृत्त थतो जाय छे.

बहारनुं ज्ञान ओछुं-वत्तु होय तेनी साथे अहीं संबंध नथी. अहीं तो वस्तु आत्मा जे मूळ विज्ञानघनस्वभाव छे तेमां एकाग्रता अने स्थिरता करीने पर्यायमां जे विज्ञानघनस्वभाव थतो जाय छे एनी वात छे. रागथी भिन्न पडतां ज्ञानमां ज्ञान जाम्युं अने त्यां कर्मबंध शिथिल थई गया अने आस्रवो गळी गया. अहाहा! विज्ञान-घनस्वभाव थतो जाय छे एम कहीने अंतर्मुख पुरुषार्थनी वात करी छे. जुओ! कर्म घटवा मांडे तेम तेम विज्ञानघन थतो जाय छे एम नथी कह्युं. ज्ञानमां एकाग्र थतां