Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 75.

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विज्ञानघन थतो जाय छे एम कह्युं छे. जेम जेम विज्ञानघन थतो जाय छे तेम तेम विकारना परिणाम घटता जाय छे, आस्रवथी निवृत्त थतो जाय छे. बन्नेनो समकाळ छे एम सिद्ध करवुं छे ने? शिष्यनो प्रश्न हतो के बेनो समकाळ कई रीते छे? तेनो आ जवाब आप्यो के आ रीते बन्नेनो समकाळ छे, एक काळ छे.

प्रथम आस्रवथी निवृत्ति थाय अने पछी ज्ञानमां स्थिर थाय अथवा प्रथम ज्ञानमां एकाग्र थाय अने पछी आस्रवनी निवृत्ति थाय एम बे आगळ-पाछळ नथी; पण बन्नेनो समकाळ छे.

जेम जेम विज्ञानघनस्वभाव थतो जाय तेम तेम आस्रवोथी निवृत्त थाय छे अने जेम जेम आस्रवोथी निवृत्त थतो जाय छे तेम तेम विज्ञानघनस्वभाव थतो जाय छे. अरसपरस वात करी छे.

‘तेटलो विज्ञानघनस्वभाव थाय छे जेटलो सम्यक् प्रकारे आस्रवोथी निवर्ते छे अने तेटलो आस्रवोथी निवर्ते छे जेटलो सम्यक् प्रकारे विज्ञानघनस्वभाव थाय छे. आ रीते ज्ञानने अने आस्रवोनी निवृत्तिने समकाळपणुं छे.’ अहीं सम्यक् प्रकारे आस्रवोथी निवर्ते छे एम कह्युं एनो अर्थ ए छे के आस्रवनी उत्पत्ति थाय नहि तेटलो विज्ञान-घनस्वभाव छे. तथा जेटलो विज्ञानघनस्वभाव छे तेटलो सम्यक् प्रकारे आस्रवोथी निवर्ते छे. बन्नेनो समकाळ छे. जेने स्वभावना भानपूर्वक भेदज्ञान नथी ते आस्रवोथी सम्यक्पणे निवर्ततो नथी अने ते विज्ञानघनस्वभाव पण सम्यक्पणे थतो नथी.

जेम अंधकार जाय ते समये ज प्रकाश थाय अने प्रकाश थाय ते समये ज अंधकार जाय, तेम जे समये आस्रवोथी निवर्ते ते ज समये आत्मा विज्ञानघनस्वभाव थाय छे अने जे समये विज्ञानस्वभाव थाय छे ते ज समये ते आस्रवोथी निवर्ते छे. अहो! शुं अद्भुत टीका! आचार्य श्री अमृतचंद्रदेवे एकलां अमृत रेडयां छे! ज्ञानानंद स्वरूप भगवान आत्मा छे. तेमां जेम जेम स्वरूपस्थिरता थाय तेम तेम आस्रवोथी निवर्ते अने जेटलो आस्रवोथी निवर्ते तेटली स्वरूपस्थिरता थाय. आ रीते ज्ञानने अने आस्रवोनी निवृत्तिने समकाळ छे.

अहीं व्रत, तप, भक्ति आदि करे तो आस्रवोथी निवर्ते एम कह्युं नथी. पण एनाथी भेदज्ञान करी निर्विकारी निज ज्ञायकस्वरूपमां थंभे-स्थिर थाय तो आस्रवोथी सम्यक् प्रकारे निवर्ते छे एम कह्युं छे. भाई! आ तारा स्वघरमां जवानी वातो करी छे. जेटलो परघरथी पाछो फरे तेटलो स्वघरमां जाय छे. जेटलो स्वघरमां जाय छे तेटलो परघरथी पाछो फरे छे. जेटलो स्वरूपमां जामतो जाय तेटलो आस्रवोथी सम्यक् प्रकारे हठे छे अने जेटलो आस्रवोथी सम्यक् हठे छे तेटलो स्वरूपमां जामे छे, विज्ञानघन थाय छे. जेटलो अने तेटलो-एम अरसपरस बन्ने सरखा बतावी समकाळ दर्शाव्यो छे.


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* गाथा ७४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आस्रवोनो अने आत्मानो उपर कह्यो ते रीते भेद जाणतां ज, जे जे प्रकारे जेटला जेटला अंशे आत्मा विज्ञानघनस्वभाव थाय छे ते ते प्रकारे तेटला तेटला अंशे ते आस्रवोथी निवर्ते छे. ज्यारे संपूर्ण विज्ञानघनस्वभाव थाय छे त्यारे समस्त आस्रवोथी निवर्ते छे. आम ज्ञाननो अने आस्रवनिवृत्तिनो एक काळ छे.’ गाथा ७२मां पण ‘णादूण’ शब्द हतो. अहीं पण ए ज कह्युं के आस्रवोथी भिन्न चैतन्यस्वरूप आत्माने जाणीने जेटलो ज्ञानानंदस्वभावमां ठर्यो-स्थिर थयो तेटलो आस्रवोथी निवर्ते छे. अने जेटलो आस्रवोथी छूटयो तेटलो स्वरूपस्थिर विज्ञानघन थाय छे. अहाहा...! जेटलो धर्म प्रगट थाय तेटलो अधर्मथी निवृत्त थाय अने जेटलो अधर्म-आस्रवथी निवृत्त थाय तेटलो धर्ममां स्थिर थाय छे, तेटलां संवर-निर्जरा थाय छे.

‘आ आस्रवो टळवानुं अने संवर थवानुं वर्णन गुणस्थानोनी परिपाटीरूपे तत्त्वार्थसूत्रनी टीका आदि सिद्धांतशास्त्रोमां छे त्यांथी जाणवुं. अहीं तो सामान्य प्रकरण छे तेथी सामान्यपणे कह्युं छे.’ आ पच्चकखाण करो, सामायिक करो, पोसा करो, प्रतिक्रमण करो, आ त्याग करो, ते करो इत्यादि करो तो धर्म थाय, संवर थाय एम लोको माने छे. पण ते बराबर नथी. आस्रव अने आत्माने भिन्न जाण्या नथी त्यां संवर केवो? जेनो वीतराग विज्ञानस्वभाव छे एवा आत्मामां ढळ्‌या विना आस्रवथी निवृत्ति थाय नहि अने त्यां सुधी संवर प्रगट थाय नहि. अहा! पुण्य-पापना विषमभावथी भेदज्ञान थया विना समता जेनुं मूळ छे एवी सामायिक केम थाय? न थाय. बापु! मन-वचन-कायानी सरळतारूप प्रवृत्तिथी पुण्य बंधाय, पण धर्म न थाय. कह्युं ने अहीं के ते (शुभ) भावो दुःखरूप अने दुःखफळरूप छे, पण धर्म नथी. धर्म तो स्वनो आश्रय लईने एमां ज ठरे तो प्रगट थाय छे. आवुं ज वस्तुस्वरूप छे त्यां थाय शुं? प्रश्नः– ‘आत्मा विज्ञानघनस्वभाव थतो जाय छे एटले शुं?’ तेनो उत्तरः–

उत्तरः– ‘आत्मा विज्ञानघनस्वभाव थतो जाय छे एटले आत्मा ज्ञानमां स्थिर थतो जाय छे.’ ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा पोतामां स्थिर थतो जाय, ठरतो जाय तेने विज्ञानघन थयो कहेवामां आवे छे. ज्यां सुधी मिथ्यात्व होय त्यां सुधी ज्ञानने-भले ज्ञाननो उघाड घणो होय तोपण-अज्ञान कहेवामां आवे छे. अगियार अंग अने नवपूर्वनुं ज्ञान होय पण मिथ्यात्व न गयुं होय तो ते अज्ञान छे, विज्ञान नथी. तिर्यंचने ज्ञाननो उघाड भले ओछो होय, पण जो तेनुं ज्ञान अंदर स्वभावमां स्थिर थयुं होय तो ते विज्ञान छे. जेम जेम ते ज्ञान एटले विज्ञान अंदर जामतुं जाय, घट्ट थतुं जाय, स्थिर थतुं जाय तेम तेम आस्रवोथी निवृत्ति थती जाय छे. अने


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जेम जेम आस्रवोनी निवृत्ति थती जाय छे तेम तेम विज्ञान जामतुं जाय छे, घट्ट थतुं जाय छे, स्थिर थतुं जाय छे; अर्थात् आत्मा विज्ञानघनस्वभाव थतो जाय छे. ज्ञान ज्ञानमां ठरे, ज्ञान ज्ञानमां जामे, ज्ञान ज्ञानमां स्थिर थाय ते विज्ञान छे अने ते मोक्षमार्ग छे. आगळ जईने तेनुं फळ केवळज्ञान आवशे. परंतु स्वभावमां ठर्यो ज नथी, आस्रवथी-शुभाशुभभावथी भेदज्ञान कर्युं ज नथी तेनुं बधुं ज्ञान अज्ञान छे. परलक्षी शास्त्रज्ञाननो उघाड, पांच समिति, त्रण गुप्ति इत्यादिनुं ज्ञान भेदज्ञानना अभावमां अज्ञान छे, विज्ञान नथी. माटे शुभाशुभभावथी भिन्न निज ज्ञाता-द्रष्टा स्वरूप वस्तुनुं लक्ष करी एमां ज ठरतां आत्मानो विज्ञानघनस्वभाव प्रगट थाय छे अने त्यारे तेने कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति मटे छे. * * * हवे आ ज अर्थना कळशरूप तथा आगळना कथननी सूचनिकारूप काव्य कहे छेः- * कळश ४८ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन * ‘इति एवं’ ए रीते पूर्वकथित विधानथी, ‘सम्प्रति’ हमणां ज (तरत ज) ‘परद्रव्यात्’ परद्रव्यथी ‘परां निवृत्तिं विरचय्य’ उत्कृष्ट (सर्व प्रकारे) निवृत्ति करीने ‘विज्ञानघनस्वभावम् परम् स्वं अभयात् आस्तिध्नुवानः’ विज्ञानघनस्वभावरूप एवा केवळ पोताना पर निर्भयपणे आरूढ थतो अर्थात् पोतानो आश्रय करतो (अथवा पोताने निःशंकपणे आस्तिकयभावथी स्थिर करतो), ‘अज्ञानोत्थितकर्तृकर्मकलनात् क्लेशात्’ अज्ञानथी उत्पन्न थयेली कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिना अभ्यासथी थयेला कलेशथी ‘निवृत्तः’ निवृत्त थयेलो, ‘स्वयं ज्ञानीभूतः’ पोते ज्ञानस्वरूप थयो थको, ‘जगतः साक्षी’ जगतनो साक्षी (ज्ञाता-द्रष्टा), ‘पुराणः पुमान्’ पुराणपुरुष (आत्मा) ‘इतः चकास्ति’ अहींथी हवे प्रकाशमान थाय छे. आत्मा त्रिकाळ ज्ञानानंदस्वभावी छे. विज्ञानघन एटले शुं? के रागनो ए कर्ता अने राग एनुं कर्म-ए आत्मानुं स्वरूप नथी. अहाहा...! आत्मा तो शुद्ध निर्मळ चैतन्यघनस्वरूप एकरूप वस्तु छे. एटले पर्यायमां जे पुण्य-पापना-आस्रवना भाव छे तेथी भिन्न पडी भेदज्ञान द्वारा निज शुद्ध चैतन्यमय तत्त्वनो अनुभव करतां पोते विज्ञान-घनस्वभावरूप थाय छे. कह्युं ने के संप्रति एटले तरत ज परद्रव्यथी सर्व प्रकारे निवृत्ति करीने विज्ञानघनस्वभावरूप एवा पोताना पर निर्भयपणे आरूढ थईने कलेशथी-रागथी निवृत्त थाय छे. रागथी निवृत्त थाय छे एटले विज्ञानघनस्वभावरूप थाय छे. आ धर्म छे अने आ ज उपाय छे. शरीर, मन, वाणी जड छे. एनाथी तो आत्मा-शुद्ध चैतन्यमय वस्तु भिन्न छे ज. पण पुण्य-पापना भाव जे आस्रवभाव एनाथी पण विज्ञानघन भगवान भिन्न छे. तथापि आत्मा पर्यायमां दुःखी छे. तेने सुख केम थाय एनी आ वात छे. परद्रव्यथी


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अने पुण्य-पापना भावथी एक्ताबुद्धि वडे जीव दुःखी छे. ते एक्ताबुद्धि दूर करी भेदज्ञान द्वारा पोताना विज्ञानघनस्वभाव पर आरूढ थतां, शुद्ध चैतन्यनो आश्रय करतां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे, कलेशनी निवृत्ति थाय छे. आ धर्म पामवानो अने सुखी थवानो उपाय छे. व्यवहार ते उपाय नथी. एनाथी भिन्न पडी अंतरमां भेदज्ञान करवुं ते उपाय छे. ज्यां सुधी हुं रागनो कर्ता अने राग मारुं कर्म एम माने अने एवी अज्ञानमय कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिनो अभ्यास राखे त्यां सुधी तेने मिथ्यात्व छे, त्यां सुधी ते कलेश पामे छे, दुःख पामे छे. रागनो हुं कर्ता अने राग मारुं कर्तव्य ए मान्यता अज्ञान छे, मूढता छे अने एनुं फळ चोरासीना अवतारनां जन्म-मरणनां दुःख छे, कलेश छे. माटे व्यवहार करतां करतां धर्म थशे एवी अज्ञानमय मान्यताथी भिन्न पडीने वस्तु चिदानंदघन त्रिकाळ ध्रुव अंदरमां जे पडी छे ते एकनो आश्रय करीने एमां ज ठरवुं ते धर्म छे, ते जन्म-मरणना कलेश निवारवानो उपाय छे. अरे! लोकोने अनादिनो अभ्यास नथी एटले कठण पडे, पण मार्ग आ ज छे भाई! भेदज्ञान एक ज तरणोपाय छे. कह्युं ने के-पूर्वकथित विधानथी हमणां ज परद्रव्यथी उत्कृष्ट एटले सर्व प्रकारे निवृत्ति करीने विज्ञानघनस्वभाव एवा पोतामां आरूढ थतो ते ज्ञानस्वरूप थयो थको जगतनो साक्षी-ज्ञाताद्रष्टा थाय छे.

जुओ, पुण्य-पापना भाव ते भावकर्म, मोहनीयादि आठ द्रव्यकर्म अने शरीर, मन, इन्द्रिय, वाणी, इत्यादि नोकर्म-ए बधांने परद्रव्य कहे छे. अने चिदानंदघनस्वरूप भगवान पोते स्वद्रव्य छे. अहीं कहे छे सर्व प्रकारे परद्रव्यनी रुचि छोडी दईने सच्चिदानंदस्वरूप भगवान ज्ञायकदेवमां द्रष्टि प्रसरावी तेमां ज आरूढ-स्थित थई जतां विज्ञानघनस्वभाव प्रगट थाय छे. एकान्त छे, एकान्त छे एम लोकोने लागे, पण भाई! कोई पण राग परिणाम, -पछी ते दया, दान आदिना शुभ परिणाम केम न होय, दुःखरूप छे अने भाविना दुःखफळरूप छे. आ वात गाथामां (७४मां) आवी गई. भाई! तुं अनादिथी परद्रव्यमां रागमां आरूढ हतो ते हवे परद्रव्यथी-रागथी खसी जईने स्वद्रव्यमां आरूढ थई जा. निर्भय थईने, निःशंक बनीने स्वद्रव्यमां आरूढ थई जा; केमके एम थतां अज्ञानथी उत्पन्न थयेली कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिना अभ्यासथी उत्पन्न थयेलो कलेश मटी जाय छे, नाश पामे छे. कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिना अभ्यासथी कलेश थतो हतो ते स्वभावमां आरूढ थतां मटी जाय छे अने पोते ज्ञानस्वरूप थयो थको जगतनो साक्षी प्रगट थाय छे. आत्मामां कर्तृत्व नामनो गुण छे. एटले पोते पोताना निर्मळ वीतरागीभावरूप कर्मनो कर्ता थई रागथी निवर्ते त्यारे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान प्रगट थाय छे. अने त्यारे ते जगतनो साक्षी पुराणपुरुष ज्ञाता-द्रष्टापणे प्रकाशमान थाय छे. रागादि भाव हो भले, पण तेनो ते मात्र जाणनारो-देखनारो साक्षी थाय छे, कर्ता नहि. पुण्य-पापना


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जे कृत्रिम विकारी भाव तेना कर्ता थवुं ए तो कलेश छे, दुःख छे अने दुःखफळ छे. त्यांथी द्रष्टि फेरवी लईने त्रिकाळी शुद्ध ज्ञायकमां ज्यां द्रष्टि स्थापी अने ज्ञाताभावे परिणम्यो त्यां तरत ज आनंदनो स्वाद आवे छे अने जे राग रहे छे तेनो ते मात्र साक्षी ज रहे छे. अहो! भेदज्ञाननो महिमा!

तिर्यंच पण रागथी भिन्न पडीने आवुं सम्यग्दर्शन प्रगट करे छे अने आत्माना आनंदनो स्वाद ले छे. व्यवहारनुं वर्णन शास्त्रमां घणुं आवे छे पण ए तो ज्ञान करवा माटे वात छे; व्यवहार ते कांई निश्चयनुं साधन छे एम नथी. समयसार गाथा ११ना भावार्थमां पंडित श्री जयचंदजीए खूब स्पष्ट कह्युं छे के-“प्राणीओने भेदरूप व्यवहारनो पक्ष तो अनादि काळथी ज छे अने एनो उपदेश पण बहुधा सर्व प्राणीओ परस्पर करे छे. वळी जिनवाणीमां व्यवहारनो उपदेश शुद्धनयनो हस्तावलंब जाणी बहु कर्यो छे; पण एनुं फळ संसार ज छे.” त्रणेयनुं फळ संसार छे. आगळ कह्युं छे- “शुद्धनयनो पक्ष तो कदी आव्यो नथी अने एनो उपदेश पण विरल छे-कयांक कयांक छे. तेथी उपकारी श्री गुरुए शुद्धनयना ग्रहणनुं फळ मोक्ष जाणीने एनो उपदेश प्रधानताथी दीधो छे...”

मोक्षमार्ग प्रकाशकना सातमा अधिकारमां कह्युं छे के-“व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्यने वा तेना भावोने वा कारण-कार्यादिने कोईना कोईमां मेळवी निरूपण करे छे माटे एवा श्रद्धानथी मिथ्यात्व छे तेथी तेनो त्याग करवो, वळी निश्चयनय तेने ज यथावत् निरूपण करे छे तथा कोईने कोईमां मेळवतो नथी तेथी एवा ज श्रद्धानथी सम्यक्त्व थाय छे माटे तेनुं श्रद्धान करवुं.”

वळी बंध अधिकारमां कळश १७३मां कह्युं छे के-“सर्व वस्तुओमां जे अध्यवसान थाय छे ते बधांय जिन भगवानोए पूर्वोक्त रीते त्यागवायोग्य कह्यां छे तेथी अमे एम मानीए छीए के ‘पर जेनो आश्रय छे एवो व्यवहार ज सघळोय छोडाव्यो छे’...” जुओ, व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प जे राग छे एनाथी लाभ (धर्म) थाय एम त्यां कह्युं नथी. अहा! आवी सत्य वात बहार आवी, छतां ते कोईने न बेसे अने विरोध करे तो शुं थाय? सौ सौनी लायकात स्वतंत्र छे.

अहाहा...! राग मारुं कर्तव्य अने हुं रागनो कर्ता एवा अज्ञानथी खसी जे अंतर स्वरूपमां एकाकार थयो ते ज्ञानस्वरूप थयो थको जगतनो साक्षी थाय छे. जेने सम्यग्दर्शन- ज्ञान थयुं ते विकल्पथी मांडीने आखा जगतनो साक्षी जाणन-देखनहारो थाय छे, कर्ता थतो नथी. आखा जगतनो साक्षी पुराण-पुरुष आत्मा अहींथी प्रकाशमान थाय छे.

[प्रवचन नं. १२७, १२८ अने १२९ (चालु) * दिनांक १७-७-७६ थी १८-७-७६]

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गाथा–७प

कथमात्मा ज्ञानीभूतो लक्ष्यत इति चेत्–

कम्मस्स य परिणामं णोकम्मस्स य तहेव परिणामं।
ण करेइ एयमादा जो जाणदि सो हवदि णाणी।। ७५।।

कर्मणश्च परिणामं नोकर्मणश्च तथैव परिणामम्।
न करोत्येनमात्मा यो जानाति स भवति ज्ञानी।। ७५।।

हवे पूछे छे के आत्मा ज्ञानस्वरूप अर्थात् ज्ञानी थयो एम कई रीते ओळखाय? तेनुं चिह्न (लक्षण) कहो. तेना उत्तररूप गाथा कहे छेः-

परिणाम कर्म तणुं अने नोकर्मनुं परिणाम जे
ते नव करे जे, मात्र जाणे, ते ज आत्मा ज्ञानी छे. ७प.

गाथार्थः– [यः] जे [आत्मा] आत्मा [एनम्] [कर्मणः परिणामं च] कर्मना परिणामने [तथा एव च] तेम ज [नोकर्मणः परिणामं] नोकर्मना परिणामने [न करोति] करतो नथी परंतु [जानाति] जाणे छे [सः] ते [ज्ञानी] ज्ञानी [भवति] छे.

टीकाः– निश्चयथी मोह, राग, द्वेष, सुख, दुःख आदिरूपे अंतरंगमां उत्पन्न थतुं जे कर्मनुं परिणाम, अने स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, बंध, संस्थान, स्थूलता, सूक्ष्मता आदिरूपे बहार उत्पन्न थतुं जे नोकर्मनुं परिणाम, ते बधुंय पुद्गलपरिणाम छे. परमार्थे, जेम घडाने अने माटीने ज व्याप्यव्यापकभावनो (व्याप्यव्यापकपणानो) सद्भाव होवाथी कर्ताकर्मपणुं छे तेम पुद्गलपरिणामने अने पुद्गलने ज व्याप्यव्यापकभावनो सद्भाव होवाथी कर्ताकर्मपणुं छे. पुद्गलद्रव्य स्वतंत्र व्यापक होवाथी पुद्गलपरिणामनो कर्ता छे अने पुद्गलपरिणाम ते व्यापक वडे स्वयं व्यपातुं होवाथी (व्याप्यरूप थतुं होवाथी) कर्म छे. तेथी पुद्गलद्रव्य वडे कर्ता थईने कर्मपणे करवामां आवतुं जे समस्त कर्मनोकर्मरूप पुद्गलपरिणाम तेने जे आत्मा, पुद्गलपरिणामने अने आत्माने घट अने कुंभारनी जेम व्याप्यव्यापकभावना अभावने लीधे कर्ताकर्मपणानी असिद्धि होवाथी, परमार्थे करतो नथी, परंतु (मात्र) पुद्गलपरिणामना ज्ञानने (आत्माना) कर्मपणे करता एवा पोताना आत्माने जाणे छे, ते आत्मा (कर्मनोकर्मथी) अत्यंत भिन्न ज्ञानस्वरूप थयो थको ज्ञानी छे. (पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान आत्मानुं कर्म कई रीते छे ते समजावे छेः-) परमार्थे पुद्गलपरिणामना ज्ञानने अने पुद्गलने घट अने कुंभारनी जेम व्याप्यव्यापकभावनो अभाव होवाथी कर्ताकर्मपणानी असिद्धि छे


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(शार्दूलविक्रोडित)

व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेन्नैवातदात्मन्यपि
व्याप्यव्यापकभावसम्भवमृते का कर्तृकर्मस्थितिः।
इत्युद्दामविवेकघस्मरमहोभारेण भिन्दंस्तमो
ज्ञानीभूय तदा स एष लसितः कर्तृत्वशून्यः पुमान्।। ४९।।

अने जेम घडाने अने माटीने व्याप्यव्यापकभावनो सद्भाव होवाथी कर्ताकर्मपणुं छे तेम आत्मपरिणामने अने आत्माने व्याप्यव्यापकभावनो सद्भाव होवाथी कर्ताकर्मपणुं छे. आत्मद्रव्य स्वतंत्र व्यापक होवाथी आत्मपरिणामनो एटले के पुद्गलपरिणामना ज्ञाननो कर्ता छे अने पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान ते व्यापक वडे स्वयं व्यपातुं होवाथी (व्याप्यरूप थतुं होवाथी) कर्म छे. वळी आ रीते (ज्ञाता पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान करे छे तेथी) एम पण नथी के पुद्गलपरिणाम ज्ञातानुं व्याप्य छे; कारण के पुद्गलने अने आत्माने ज्ञेयज्ञायकसंबंधनो व्यवहारमात्र होवा छतां पण पुद्गलपरिणाम जेनुं निमित्त छे एवुं जे ज्ञान ते ज ज्ञातानुं व्याप्य छे. (माटे ते ज्ञान ज ज्ञातानुं कर्म छे.)

हवे आ ज अर्थना समर्थननुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेत्] व्याप्यव्यापकपणुं तत्स्वरूपमां ज होय, [अतदात्मनि अपि न एव] अतत्स्वरूपमां न ज होय. अने [व्याप्यव्यापकभावसम्भवम् ऋते] व्याप्यव्यापकभावना संभव विना [कर्तृकर्मस्थितिः का] कर्ताकर्मनी स्थिति केवी? अर्थात् कर्ताकर्मनी स्थिति न ज होय. [इति उद्दाम–विवेक–घस्मर–महोभारेण] आवो प्रबळ विवेकरूप, अने सर्वने ग्रासीभूत करवानो जेनो स्वभाव छे एवो जे ज्ञानप्रकाश तेना भारथी [तमः भिन्दन्] अज्ञान-अंधकारने भेदतो, [सः एषः पुमान्] आ आत्मा [ज्ञानीभूय] ज्ञानस्वरूप थईने, [तदा] ते काळे [कर्तृत्वशून्यः लसितः] कर्तृत्वरहित थयेलो शोभे छे.

भावार्थः– जे सर्व अवस्थाओमां व्यापे ते तो व्यापक छे अने कोई एक अवस्थाविशेष ते, (ते व्यापकनुं) व्याप्य छे. आम होवाथी द्रव्य तो व्यापक छे अने पर्याय व्याप्य छे. द्रव्य- पर्याय अभेदरूप ज छे. जे द्रव्यनो आत्मा, स्वरूप अथवा सत्त्व ते ज पर्यायनो आत्मा, स्वरूप अथवा सत्त्व. आम होईने द्रव्य पर्यायमां व्यापे छे अने पर्याय द्रव्य वडे व्यपाई जाय छे. आवुं व्याप्यव्यापकपणुं तत्स्वरूपमां ज (अर्थात् अभिन्न सत्तावाळा पदार्थमां ज) होय; अतत्स्वरूपमां (अर्थात् जेमनी सत्ता-सत्त्व भिन्न भन्नि छे एवा पदार्थोमां) न ज होय. ज्यां व्याप्यव्यापकभाव होय त्यां ज कर्ताकर्मभाव होय; व्याप्यव्यापकभाव विना कर्ताकर्मभाव न होय. आवुं जे जाणे ते


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पुद्गलने अने आत्माने कर्ताकर्मभाव नथी एम जाणे छे. आम जाणतां ते ज्ञानी थाय छे, कर्ताकर्मभावथी रहित थाय छे अने ज्ञाताद्रष्टा- जगतनो साक्षीभूत-थाय छे. ४९.

* समयसार गाथा ७पः मथाळु *

हवे पूछे छे के आत्मा ज्ञानस्वरूप अर्थात् ज्ञानी थयो एम कई रीते ओळखाय? तेनुं चिह्न शुं? लक्षण शुं? तेना उत्तररूप गाथा कहे छेः-

* गाथा ७पः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘निश्चयथी मोह, राग, द्वेष, सुख, दुःख आदिरूपे अंतरंगमां उत्पन्न थतुं जे कर्मनुं परिणाम अने स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, बंध, संस्थान, स्थूलता, सूक्ष्मता आदिरूपे बहार उत्पन्न थतुं जे नोकर्मनुं परिणाम, ते बधुंय पुद्गलपरिणाम छे.’

जुओ! मोह, राग, द्वेष, सुख, दुःख इत्यादि अंतरंगमां उत्पन्न थतुं कर्मनुं परिणाम एम कह्युं एमां कर्मनुं परिणाम एटले जीवना विकारी भावकर्मनी वात छे. राग, द्वेष अने सुख-दुःखनी कल्पना इत्यादि कर्मना संगे-निमित्ते अंतरंगमां उत्पन्न थतुं जीवनुं भावकर्म छे, विकारी पर्याय छे. अने स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, बंध, संस्थान, स्थूलता, सूक्ष्मता इत्यादि बहार उत्पन्न थतुं नोकर्मनुं परिणाम छे. आ बधुंय पुद्गलपरिणाम छे एम अहीं कह्युं छे.

आ पुण्य-पापना अने हरख-शोकना जे भाव अंदर थाय ए पुद्गलपरिणाम छे. कर्म जड छे अने एना संगे थयेलो भाव पण कर्मनुं ज परिणाम छे. विकारी भाव ते पुद्गलपरिणाम छे, जीव नहि. आ शरीर, मन, वाणी, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण इत्यादि जे नोकर्मना परिणाम छे ते बधाय पुद्गलपरिणाम छे. गजब वात छे! भगवाननी भक्तिना परिणाम, दया, दान, व्रतादिना विकल्प के पांचमहाव्रतना विकल्प जे अंतरंगमां ऊठे ते पुद्गलना परिणाम छे एम जाणीने ज्ञानी एनाथी भिन्न पडे छे, एनो साक्षी थई जाय छे.

बापु! आ तो धीरानी वातो छे. आ मंदिरो बंधावे अने मोटा वरघोडा काढे इत्यादि हो-हा करे तो धर्म थाय छे एम नथी. अहीं अंदरना शुभभावथी ज्यां निवर्तवुं छे त्यां बहारनी प्रवृत्ति एनी छे ए वात कयां रही? बहारनां कार्यो पोतपोताना कारणे पोतपोताना काळे थाय एने (बीजो) कोण करे? (अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यनां कार्य करे ए वस्तुस्थिति ज नथी).

प्रश्नः– तो निमित्त विना शुं ए बधुं थाय छे?

उत्तरः– हा, निमित्त विना ए कार्यो पोताथी थाय छे. निमित्त तो एने अडतुं य नथी माटे निमित्त विना ज थाय छे. परनां कार्योने करे कोण? संयोगथी क्रिया जे


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काळे थवानी होय ते थाय एने अन्य कोण करे? अहीं तो रागनो हुं कर्ता अने राग मारुं कर्म एवी कर्ताकर्मनी मिथ्याबुद्धि छोडीने ज्ञातापणुं प्रगट करे एनी वात चाले छे.

भाई! उपादान अने निमित्त बंने साथे होय छे एटलुं बराबर छे. पण निमित्ते कार्य कर्युं ए वात बीलकुल (बराबर) नथी. समयसार गाथा ३७२नी टीकामां कह्युं छे के-‘वळी जीवने परद्रव्य रागादिक उपजावे छे एम शंका न करवी; कारण के अन्य द्रव्य वडे अन्य द्रव्यना गुणनो उत्पाद करावानी अयोग्यता छे; केमके सर्व द्रव्योनो स्वभावथी ज उत्पाद थाय छे.’ त्यां आगळ कह्युं छे के-‘माटी पोताना स्वभावने नहि उल्लंघती होवाने लीधे, कुंभार घडानो उत्पादक छे ज नहि; माटी ज कुंभारना स्वभावने नहि स्पर्शती थकी, पोताना स्वभावथी कुंभभावे उपजे छे.’

माटी घडानी कर्ता छे, कुंभारे घडो कर्यो नथी. कुंभार निमित्त भले होय, पण कार्य (घडो) निमित्तथी-कुंभारथी थतुं नथी. रोटली पोते पोताथी उत्पन्न थाय छे, ते अग्निथी, तावडीथी के स्त्रीथी उत्पन्न थती नथी. आम दरेक कार्यमां समजवुं. अहीं एम कहे छे के अंदरमां उत्पन्न थता दया, दान, भक्ति आदिना परिणाम ते कर्मना परिणाम छे. भावकर्म छे ए बधुंय पुद्गलपरिणाम छे, जीवस्वरूप नथी.

हवे कहे छे-‘परमार्थे जेम घडाने अने माटीने ज व्याप्यव्यापकभावनो सद्भाव होवाथी कर्ताकर्मपणुं छे तेम पुद्गलपरिणामने अने पुद्गलने ज व्याप्यव्यापकभावनो सद्भाव होवाथी कर्ताकर्मपणुं छे.’ जुओ, माटी व्यापक छे, घडो तेनुं व्याप्य छे. माटी कर्ता छे, घडो तेनुं कर्म छे. घडो कुंभारनुं कर्म नथी. घडो एना थवा काळे माटीथी थाय छे. ते माटीना (स्व) भावथी थाय छे, कुंभारना अभावथी थाय छे. आकरी वात, भाई! आ पुस्तकनुं पानुं फरे छे ने! ते आंगळीथी-आंगळीने लईने नहि. रोटलीना बटका थवानुं कार्य छे ए परमाणुथी थाय छे, दाढथी नहि; आ पाणी उनुं थाय छे ते पोताथी थाय छे, अग्निथी नहि; जे चोखा चढे छे ते स्वकाळे पोताथी ज चढे छे, पाणीथी के अग्निथी नहि. अहाहा...! वीतरागभाव थाय छे ते कर्म खरे छे एनाथी नहि. निमित्त हो भले, पण एने लईने (उपादानमां) कार्य नीपजे छे एम छे ज नहि. जैनदर्शन घणुं झीणुं छे. मोटा मोटा पंडितो गोथां खाई जाय एम छे. घडाने अने माटीने व्याप्यव्यापकभावनो सद्भाव होवाथी घडो ते कर्म अने माटी तेनो कर्ता छे. घडानो कर्ता कुंभार नथी. अहाहा...! दुनियाथी तद्न उलटी वात छे.

प्रश्नः– तो शुं आ मानवुं पडशे?

उत्तरः– भाई! जेम छे एम नक्की करीने मानवुं पडशे. थाय शुं? वस्तुस्थिति ज आ छे. जेम माटी अने घडाने व्याप्यव्यापकभावनो सद्भाव होवाथी कर्ताकर्मपणुं छे तेम


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पुद्गलपरिणामने अने पुद्गलने ज व्याप्यव्यापकभावनो सद्भाव होवाथी कर्ताकर्मपणुं छे. आ विकारी परिणाम जे शुभाशुभ भाव छे ते पुद्गलना परिणाम छे. पुद्गल प्रसरीने विकारभाव थयो छे. पुद्गलपरिणाम एटले आ जे रागादि भाव छे ते पुद्गलथी थया छे, जीवथी नहि. ते पुद्गलना आश्रयथी थया छे.

आत्मा अने जडकर्मनो अनादिथी संबंध छे. कर्मनी पर्याय अनादिथी कर्मपणे थयेली छे, ते जीवे करी नथी; जीवना परिणाम कर्मे कर्या नथी. अनादिथी एक क्षेत्रे रह्या छतां एकबीजाने कर्ताकर्मपणुं नथी. जीव जीवनी पर्याय करे, कर्म कर्मनी पर्यायने करे. जीव कर्मनी अवस्थाने करे अने कर्मनो उदय जीवनी अवस्थाने-रागने करे एम नथी. आम प्रथम बे द्रव्यनी पर्यायनुं स्वतंत्रपणुं सिद्ध करीने पछी द्रव्यद्रष्टि कराववा रागना परिणामनो कर्ता जीव नहि एम अहीं कहे छे. पुद्गल-परिणाम एटले राग अने पुद्गलने व्याप्य-व्यापकभाव होवाथी कर्ताकर्मनो सद्भाव छे. पुद्गल कर्ता अने विकारी भाव पुद्गलनुं कर्म छे. जीव तेनो कर्ता नथी.

अहीं तो जीवनुं कार्य ज्ञाताद्रष्टापणुं छे एम सिद्ध करवुं छे. वस्तुद्रष्टि कराववी छे ने! आत्मा जे चैतन्यमय विज्ञानघनस्वभाव वस्तु छे ते एना निर्मळ चैतन्यपरिणामने करे पण विकारी परिणाम थाय ते एनुं कर्तव्य नथी. तेथी जे रागपरिणाम थाय ते पुद्गलनुं कार्य छे पुद्गल तेनो कर्ता छे एम अहीं कह्युं छे. ज्ञाताद्रष्टाना परिणमनमां जे राग थाय ते पुद्गलनुं कार्य छे, जीव तेनो जाणनहार छे, कर्ता नथी.

‘पुद्गलद्रव्य स्वतंत्र व्यापक होवाथी पुद्गलपरिणामनो कर्ता छे अने पुद्गलपरिणाम ते व्यापक वडे स्वयं व्यपातु होवाथी (व्याप्यरूप थतु होवाथी) कर्म छे.’ आ दया, दान आदि पुण्यना परिणाम व्याप्य छे अने पुद्गल स्वतंत्र व्यापक छे. पुद्गल प्रसरीने रागादि परिणाम करे छे. वस्तु तो चैतन्यस्वभावी छे. जीवमां एक वैभाविक शक्ति छे. पण तेनाथी विभाव थाय छे. एम नथी. पोते निमित्ताधीन थाय तो विभाव थाय छे. ए विभाव पुद्गलनुं कार्य छे, पुद्गल स्वतंत्र व्यापक थईने विभावने करे छे.

ज्ञानावरणीय कर्मथी ज्ञान रोकाय छे एम जे गोम्मटसारमां आवे छे ए तो निमित्तनुं ज्ञान करावनारुं कथन छे. बाकी ज्ञानमां जे ओछावत्तापणुं थाय छे ते पोताथी थाय छे. कर्मथी नहि. आम दरेक द्रव्यनी पर्यायनी स्वतंत्रता छे. अहीं त्रिकाळी शुद्ध ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिमां जे निर्मळ ज्ञानपरिणमन थाय ते ज्ञातानुं कार्य छे, पण जे रागादि भाव थाय ते ज्ञातानुं कार्य नथी. तेथी ते रागनो कर्ता पुद्गल छे अने राग ते पुद्गलनुं कर्म छे एम अहीं सिद्ध कर्युं छे.

परमार्थे घडाने अने माटीने व्याप्यव्यापकभावनो सद्भाव होवाथी कर्ताकर्मपणुं छे. माटी व्यापक ते कर्ता अने घडो व्याप्य ते एनुं कर्म छे. अहीं बे कारणथी कार्य थाय


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ए वात लीधी ज नथी. माटी पोते कर्ता अने घडो तेनुं कार्य छे; कुंभार तो निमित्त छे, कर्ता नथी. तेम पुद्गलपरिणाम एटले के शरीरादिने, पुण्यपापना भावने, व्यवहार-रत्नत्रयना परिणामने अने पुद्गलने ज व्याप्यव्यापकभावनो सद्भाव होवाथी कर्ताकर्मपणुं छे.

अहीं तो भेदज्ञाननी वात छे. शरीरादिथी, पुण्यपापना भावथी के व्यवहाररत्नत्रयना परिणामथी भगवान आत्मा भिन्न छे. तेथी आत्माने भिन्न एवा रागादि साथे अभिन्नपणुं नथी. रागादि छे तेने पुद्गल साथे अभिन्नपणुं छे. पुद्गल तेमां प्रसरीने-व्यापीने रहेलुं छे तेथी रागादि सर्व पुद्गलना परिणाम छे. जुओ! बे कर्ताथी कार्य थाय छे ए वात अहीं उडी जाय छे. प्रमाणनुं ज्ञान कराववाना कार्यकाळे बीजी चीज निमित्तरूपे होय छे एवी वात शास्त्रोमां आवे छे पण ए तो (बहिर्व्याप्ति बतावतुं) व्यवहारनुं कथन छे. अरे! वास्तविक निश्चयनो विषय जेने अंतरमां बेठो नथी तेने प्रमाणना विषयनुं यथार्थ ज्ञान होई शके नहि.

निश्चयथी भगवान आत्मा रागथी भिन्न छे. रागना परिणाम ते जीवना कर्तव्यपणे नथी. रागना परिणाम थाय ते वखते रागने जाणनारुं जे ज्ञान ते ज्ञानमां रागना परिणाम निमित्त छे. आवा जे ज्ञानना परिणाम तेनो कर्ता जीव अने रागने जाणनारुं (करनारुं नहि) जे ज्ञान प्रगटयुं ते जीवनुं कर्म छे. भाई! सूक्ष्म वात छे. खूब धीरजथी समजवानी आ वात छे. शिष्यनो प्रश्न छे के समकितीने-ज्ञानीने ओळखवानुं चिह्न शुं छे एनो उत्तर आ चाले छे. रागथी, व्यवहारना विकल्पथी भिन्न पडीने अंतर्मुख थतां भगवान आत्मानुं ज्ञान थयुं, स्वानुभव थयो त्यां जे रागादि भाव थाय ते जीवनुं कर्तव्य नथी. ते राग परिणाम पुद्गलनुं कार्य छे. पुद्गल स्वतंत्र व्यापक थईने मलिन परिणामने उत्पन्न करे छे.

अहाहा...! आत्मा एकलो चिदानंदघन प्रभु छे. ए रागना-आकुळतास्वरूप दुःखना परिणामथी भिन्न छे. धर्मीने सच्चिदानंदस्वरूप भगवान सिवाय बीजे कयांय सुखबुद्धि नथी, केमके निर्मळानंदस्वरूप भगवान आत्माना अनुभवथी सुखनुं निधान पोते ज छे एम एणे जाण्युं छे. आवुं त्रिकाळी निज चैतन्यनिधान जेणे जाण्युं एवा सम्यग्द्रष्टि धर्मी जीवने जे पर्यायमां राग, व्यवहारना परिणाम थाय तेने ते पुद्गलना कर्तव्यपणे जाणे छे, पोताना कार्यपणे नहि. बहु सूक्ष्म वात, भाई! लोकोने एकान्त छे एम लागे पण वस्तुस्वरूप जे छे तेनुं आ सम्यक् निरूपण छे. तेओ एम माने के व्यवहारथी लाभ थाय, पण भाई! ए व्यवहारनो राग तो पुद्गलपरिणाम छे, एनाथी आनंदना परिणाम नीपजे ए केम बनी शके? (न ज बनी शके).

निश्चयथी वस्तुना स्वभावमां जेम पुद्गल नथी तेम राग पण नथी. बंनेय पर छे तेथी बन्नेनेय आत्मामांथी एक साथे काढी नाख्या छे. आ कर्ताकर्म अधिकार छे ने?


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तेथी चैतन्यस्वभावथी बाह्य गणीने बंनेनो कर्ता पुद्गल अने बंने पुद्गलनां कर्म छे एम अहीं सिद्ध कर्युं छे.

अस्तिकायनी अपेक्षाए विकारनी पर्याय पण पोताथी पोतामां पोताने कारणे थाय छे, परथी नहि. ए तो द्रव्य-गुण-पर्याय एम त्रणे थईने अस्तिकाय सिद्ध करवानी वात छे. हवे अहीं द्रव्यद्रष्टि प्रगट करीने पर्यायद्रष्टि छोडवानी वात छे. पंचास्तिकायमां द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणे पोताथी छे एम कह्युं छे. विकारी पर्याय पण पोताथी अने निर्मळ पर्याय पण पोताथी थाय छे. परथी नहि एम पर्यायने त्यां स्वतंत्र सिद्ध करी छे. हवे अहीं ज्यां त्रिकाळी शुद्ध एक द्रव्यस्वभाव उपर द्रष्टि करवी छे त्यां विकारी परिणामनो कर्ता पुद्गल छे, जीव तेनो कर्ता नथी एम कह्युं छे अहो! जन्म- मरणने मटाडनारो वीतराग परमेश्वरनो मार्ग अद्भुत अलौकिक छे. भाई! खूब शान्तिथी एकवार तुं सांभळ.

कहे छे के-घडाने अने माटीने व्याप्यव्यापकभाव होवाथी जेम कर्ताकर्मपणुं छे तेम विकारी परिणामने अने पुद्गलने व्याप्यव्यापकभाव होवाथी कर्ताकर्मपणुं छे. अहाहा...! शरीरादि अवस्था अने अंदर थता पुण्य-पापना भावनी अवस्था ते बधांने अहीं पुद्गलनां कार्य कह्या छे. केमके निज चैतन्यस्वभावने ज्यां रागथी भिन्न जाण्यो-अनुभव्यो त्यां निर्मळ परिणाम जे थयुं ते जीवनुं व्याप्य अने जीव तेमा स्वतंत्र व्यापक छे. ते काळे विकारना जे परिणाम थाय ते तो जीवथी भिन्न छे. तेनो व्यापक पुद्गल छे अने ते विकारी परिणाम पुद्गलनुं व्याप्य कर्म छे. वस्तु आत्मा विकारमां व्यापे एवो एनो स्वभाव (शक्ति) ज कयां छे? आ वात सांभळवा मळी न होय एटले बिचारा ककळाट करे के एकान्त छे, एकान्त छे, पण भाई! आ सम्यक् एकान्त छे. आ गाथा ७प, ७६, ७७ बहु ऊंची छे.

अरे प्रभु! आ तो तारो अंतरनो मार्ग छे. समजाय छे कांई? पुद्गलद्रव्य स्वतंत्र व्यापक होवाथी पुद्गलपरिणामनो कर्ता छे, अने पुद्गलपरिणाम ते व्यापक वडे स्वयं व्यपातुं होवाथी कर्म छे. जे शुभाशुभ विकारना परिणाम छे एनो पुद्गल स्वतंत्र व्यापक होवाथी कर्ता छे. स्वतंत्रपणे करे ते कर्ता अने कर्तानुं इष्ट ते कर्म. आ शरीर, मन, वाणी आदि अवस्था तथा पुण्यपापना भावनी अवस्था छे तेनो कर्ता पुद्गल छे, आत्मा नहि. शरीर आदिनी अवस्था थाय तेमां राग पण व्यापक नथी. जे रागादि भाव थाय तेमां जड पुद्गल स्वतंत्र कर्ता थईने परनी अपेक्षा विना पुद्गलपरिणामने करे छे.

भाई! अनंत जन्म-मरणनां दुःखनो अंत लाववानी आ वात छे. सुंदर रूपाळुं शरीर होय, पांच-पचास लाखनी संपत्ति होय एटले राजी-राजी थाय. पण भाई! एमां धूळे य राजी थवा जेवुं नथी. दुनियाने बहारनी मीठाश छे एटले के शरीर, इन्द्रियो अने विषयोमां सुखबुद्धि छे, आत्मबुद्धि छे; पण एने मिथ्यात्व छे. ए मिथ्यात्वमां अज्ञानी तणाई गयो छे. अहीं ज्ञानीने मिथ्यात्वना परिणाम नथी, साथे ज्ञान पण


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सम्यक् छे. तेथी चारित्रमोहना जे परिणाम थाय छे ते बधा पुद्गलना परिणाम छे एम ते जाणे छे. पुद्गल स्वतंत्रपणे तेमां व्यापीने तेनो कर्ता छे, जीव तेनो कर्ता नथी. जुदी चीजनो कर्ता जुदी चीज छे. विकार आत्माथी जुदी चीज छे तो तेनो कर्ता पण ज्ञायकथी भिन्न पुद्गल छे. आवी वात छे.

हवे कहे छे-‘तेथी पुद्गलद्रव्य वडे कर्ता थईने कर्मपणे करवामां आवतुं जे समस्त कर्मनोकर्मरूप पुद्गलपरिणाम तेने जे आत्मा, पुद्गलपरिणामने अने आत्माने घट अने कुंभारनी जेम व्याप्यव्यापकभावना अभावने लीधे कर्ताकर्मपणानी असिद्धि होवाथी, परमार्थे करतो नथी. परंतु (मात्र) पुद्गलपरिणामना ज्ञानने (आत्माना) कर्मपणे करता एवा पोताना आत्माने जाणे छे, ते आत्मा (कर्मनोकर्मथी) अत्यंत भिन्न ज्ञानस्वरूप थयो थको ज्ञानी छे.’

जुओ! घडो अने कुंभार ए बेने व्याप्यव्यापकभावनो अभाव होवाथी कर्ताकर्मपणुं नथी. तेम आत्माने अने विकारी परिणामने व्याप्यव्यापकभावनो अभाव छे माटे कर्ता- कर्मपणुं नथी. दया, दान, व्रत, भक्ति आदि परिणामनो आत्मा कर्ता नथी. परनी दया पाळवी एम परना कार्यनो तो आत्मा कर्ता नथी पण परनी दया पाळवानो जे विकल्प ऊठयो तेनोय ए कर्ता नथी.

प्रश्नः– ‘दयावरं धम्मं’ धर्म तो दया प्रधान छे एम शास्त्रोमां आवे छे ने?

उत्तरः– हा, पण दया कोने कहेवी एनी लोकोने खबर नथी. रागनी उत्पत्तिनो अभाव तेनुं नाम दया छे, तेनुं नाम अहिंसा छे. आत्मा शुद्ध चैतन्यघन वस्तु छे. तेना आश्रये, तेमां स्थिर थतां वीतरागी पर्यायनी उत्पत्ति थवी तेने दयाधर्म कहे छे.

अहीं कहे छे के-जेम कुंभार अने घटने कर्ताकर्मनी असिद्धि छे तेम आत्मा अने पुद्गलपरिणाम जे विकारी कर्म ए बेने कर्ताकर्मपणुं नथी. जेम घटनो कर्ता कुंभार नथी तेम विकारी परिणामनो कर्ता आत्मा नथी. अहाहा...! भगवान आत्मा ज्ञानस्वभावी अखंड एकरूप वस्तु छे एवी ज्यां द्रष्टि थई अने एमां अंतर्लीन थयो त्यां विकारी परिणामनो आत्मा कर्ता थतो नथी. केमके वस्तु स्वभावे निर्विकार, निर्मळ छे अने पर्यायमां जे विकार छे तेने पुद्गलमां नाखी दीधो. द्रव्यना स्वभावनी द्रष्टि करी राग साथे कर्ताकर्मपणुं समाप्त करी दीधुं.

हवे मात्र पुद्गलपरिणामना ज्ञानने आत्माना कर्मपणे करता एवा पोताना आत्माने जाणे छे. राग थाय तेनुं जे ज्ञान थाय ते ज्ञान तो पोतानुं छे, स्वनुं छे. राग संबंधीनुं ज्ञान ते आत्मानो स्वपरप्रकाशक स्वभाव होवाथी आत्मानुं कर्म छे अने ते ज्ञानपरिणामनो आत्मा कर्ता छे. अहाहा...! राग संबंधीनुं जे ज्ञान ते ज्ञानने पोताना कर्मपणे करतो ते आत्माने जाणे छे, रागने जाणे छे एम नहि. आ अलौकिक वात छे, भाई! अत्यारे तो


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घणी गडबड थई गई छे पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान एटले के जे काळे जे प्रकारना रागादि परिणाम थाय ते काळे, तेनुं ज्ञान थवानी पोतानी लायकात होवाथी, ते रागादिने जाणे छे. रागादि थया छे माटे ज्ञान तेने जाणे छे एम नथी. पण जे ते काळे स्वपरने जाणवानी दशा पोताने पोताथी थई छे. ए ज्ञानना परिणाम जीवनुं पोतानुं कर्म छे अने जीव तेनो स्वतंत्रपणे कर्ता छे. अहो! अद्भुत वात अने कोई अद्भुत शैली छे! तारी समजमां तो ले के मार्ग आ ज छे, भाई!

भाई! आ तो धीरानां काम छे. जेनी नजर स्वभाव उपर गई छे, जेनी नजरमां निज चैतन्य भगवान तरवरे छे एने जे राग थाय तेनुं तेने ज्ञान थाय, ए ज्ञाननो ते कर्ता छे, रागनो नहि. पुद्गलपरिणाम एटले के जे जे प्रकारनो दया आदि जे भाव थयो ते संबंधी तेनुं ज्ञान थयुं. ते काळे ते ज्ञाननी दशानो स्वकाळ ज एवो छे के स्वने जाणतां ते दया आदि जे भाव छे तेने पण जाणतुं ज्ञान थाय छे. ते ज्ञानपरिणामनो आत्मा कर्ता छे अने ज्ञानपरिणाम आत्मानुं कर्म छे. पुद्गलपरिणामने जाणतुं ज्ञान ते पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान नथी. जेवा प्रकारे पुद्गलपरिणाम छे ते ज प्रकारनुं आत्मानुं ज्ञान पोताथी थाय छे तेने अहीं पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान कह्युं छे.

भाई! आ तो एकांत छे, निश्चय छे एम कहीने आ अलौकिक मार्गनी उपेक्षा करवा जेवी नथी हो. व्यवहार करतां करतां पण मोक्ष थाय अने निश्चय करतां करतां पण मोक्ष थाय एम जे रीते वस्तुनुं स्वरूप नथी ते रीते निरूपण करीश तो दुनिया भले राजी थशे, पण भाई! तेमां तारो आत्मा राजी नहि थाय, तारो आत्मा नहि रीझे. तने पोताने तो मोटुं (मिथ्यात्वनुं) नुकशान ज थशे. (अने दुनिया तो नुकशानमां पहेलेथी छे ज). तुं व्यवहारने परंपरा कारण माने छे पण व्यवहार तो कारण ज नथी. जेने अहीं पुद्गलपरिणाम कह्यो छे ते व्यवहार परंपरा मोक्षनुं कारण केम होय? न ज होय. ज्ञानीने रागथी भिन्न आत्मानुं स्वसंवेदनज्ञान थयुं छे. तेने शुभभावमां अशुभ टळ्‌यो छे. ते आगळ वधीने स्वभावनो उग्र आश्रय लईने रागने टाळशे. आ अपेक्षाए ज्ञानीना शुभभावने व्यवहारथी परंपरा कारण कह्युं छे. निमित्त देखीने एम कह्युं छे, पण स्वभावनो उग्र आश्रय करी तेनो पण अभाव करशे त्यारे मोक्ष थशे.

पोतानुं कार्य पोताथी थाय. राग पर छे. ते रागनुं ज्ञान थाय छे ते ज्ञान आत्मानुं कार्य छे, आत्मा ते ज्ञाननो कर्ता छे. रागनुं ज्ञान थाय छे तथापि ज्ञानमां रागनो अभाव छे. बहु सूक्ष्म वात, भाई. आवो कर्ता-कर्म अधिकार दिगंबर सिवाय बीजे कयांय नथी. रागनो कर्ता जे पोताने माने छे ते अज्ञानी विकारीभावनी चक्कीमां पडयो छे. ते दुःखथी पीलाय छे, अतिशय पीडाय छे. वस्तुस्थिति ज आवी छे. अहीं कहे छे-कुंभार अने घटनी जेम आत्मा अने पुद्गलपरिणामने (रागादिने) कर्ताकर्मपणानो अभाव छे. तेथी स्वभावना अवलंबने परिणमेलो छे जे जीव ते पुद्गलपरिणामना


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(रागादिना) ज्ञानने आत्माना कर्मपणे करता एवा पोताना आत्माने जाणे छे अने ते कर्मनोकर्मथी अत्यंत भिन्न ज्ञानस्वरूप थयो थको ज्ञानी छे. अहाहा...! ज्ञाताद्रष्टाना भावने कार्यपणे करतो ते पोताना आत्माने जाणे छे, रागने जाणे छे एम न कह्युं. राग संबंधीनुं ते काळे पोतामां पोताना सामर्थ्यथी थयेलुं जे ज्ञान ते ज्ञानने ते (साक्षीपणे) जाणे छे. आवी वात छे. पोताना सामर्थ्यथी थयेलुं जे ज्ञान ते ज्ञान पोताना स्वरूपमां तन्मय रही साक्षी भावे रहे छे. बधानो जाणनार मात्र साक्षी भाव रहे छे.

वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरना मारगडा बहु जुदा छे, बापु! भगवान आत्मामां अनंत शक्तिओ छे. ते सर्व शक्तिओ अत्यंत निर्मळ छे. ४७ शक्तिओनुं ज्यां निरूपण छे त्यां क्रमरूप, अक्रमरूप प्रवर्तता अनंत धर्मोनी वात करी छे. त्यां अनंत शक्तिओ निर्मळपणे उछळे छे एम कह्युं छे. त्यां विकारनी वात ज करी नथी, केमके विकार परिणति ते जीवनी शक्तिनी पर्याय ज नथी. ४७ शक्तिना वर्णनमां द्रव्य शुद्ध, शक्ति शुद्ध अने एनी द्रष्टि थतां जे परिणमन थयुं ते पण शुद्ध ज होय एम वात लीधी छे. अशुद्धतानी त्यां वात ज लीधी नथी.

आ प्रमाणे अनंत शक्तिओनो पिंड प्रभु चिन्मात्र निज आत्माने जाणे छे ते रागादिथी अत्यंत भिन्न ज्ञानस्वरूप थयो थको ज्ञानी छे. तेने ज्ञानी अने धर्मी कहे छे. हवे पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान आत्मानुं कर्म कई रीते छे ते समजावे छेः- जे कांई रागादि भाव-पुण्यना भाव थाय छे तेनुं ज्ञान आत्मामां थाय ते ज्ञान आत्मानुं कर्म कई रीते छे ते विशेष स्पष्ट करे छे. ज्ञान एनुं पोतानुं कार्य छे. रागनुं ज्ञान थयुं माटे राग एनुं कार्य छे एम नथी. तेम रागनुं ज्ञान थयुं ते ज्ञान रागनुं कार्य छे एम पण नथी. राग छे एम जाण्युं त्यां जाणवानी जे ज्ञाननी पर्याय थई ते रागनुं कार्य नथी; तेम जाणवानी पर्यायमां राग जणाय छे माटे राग ते ज्ञाननुं कार्य छे एम नथी. भाई! आ समजवुं पडशे हो. आ शरीरादि बधुं विंखाई जशे. आ जीवनमां जो निर्णय न कर्यो तो शुं कर्युं? पछी कयां एने जवुं? भाई! सौ प्रथम करवानुं आ ज छे.

बहारना पदार्थनी मीठाश लक्षमांथी छोडी दे शुभरागनी मीठाश पण छोडी दे. त्यारे अंदरथी आनंदनी मीठाश आवशे. रागने लक्षमांथी छोडी ज्ञानमात्र निज वस्तुने अधिकपणे लक्षमां ले. परथी भिन्न ते चैतन्य भगवान अधिक छे. ते अधिक अधिकपणे न भासे अने बीजी चीज अधिकपणे भासे ते संसार छे, चार गतिनी रझळपट्टी छे, दुःख छे.

‘परमार्थे पुद्गलपरिणामना ज्ञानने अने पुद्गलने घट अने कुंभारनी जेम व्याप्यव्यापकभावनो अभाव होवाथी कर्ताकर्मपणानी असिद्धि छे अने जेम घडाने अने माटीने व्याप्यव्यापकभावनो सद्भाव होवाथी कर्ताकर्मपणुं छे तेम आत्मपरिणामने अने आत्माने व्याप्यव्यापकभावनो सद्भाव होवाथी कर्ताकर्मपणुं छे.’


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परमार्थे पुद्गलपरिणामना ज्ञानने अने पुद्गलने घट-कुंभारनी जेम व्याप्यव्यापकभावनो अभाव छे. आत्माने रागनुं ज्ञान पोतामां रहीने स्वपरप्रकाशकपणे थयुं एवुं जे पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान अने पुद्गल कहेतां राग-ए बेने व्याप्यव्यापकपणुं नथी. राग व्यापक अने रागनुं ज्ञान ते व्याप्य एम नथी. तेथी राग अने ज्ञानने कर्ताकर्मपणानी असिद्धि छे. पुद्गलपरिणाम जे राग ते कर्ता अने ज्ञानपरिणाम तेनुं कर्म एम नथी.

वळी आत्मपरिणामने अने आत्माने घडा अने माटीनी जेम व्याप्यव्यापकभावनो सद्भाव होवाथी कर्ताकर्मपणुं छे. अहाहा...! पोताने जाणतां राग संबंधी जे ज्ञान थयुं ते ज्ञान व्याप्य छे अने आत्मा व्यापक छे. ज्ञान ते आत्मानुं कर्म छे अने आत्मा तेनो कर्ता छे. आत्माना परिणाम एटले ज्ञाताद्रष्टाना वीतरागी निर्मळ परिणाम अने आत्मा ए बेने व्याप्यव्यापकपणुं छे तेथी त्यां कर्ताकर्मपणुं सिद्ध थाय छे. आत्मा कर्ता अने दया, दान आदि विकल्पनुं जे ज्ञान थयुं ते ज्ञान आत्मानुं कर्म छे. परंतु राग कर्ता अने ज्ञान एनुं (रागनुं) कर्म-एम नथी. अहो! गाथा खूब गंभीर छे! आत्मा (ज्ञान) कर्ता अने राग एनुं कार्य एम नथी अने राग कर्ता अने (रागनुं) ज्ञान एनुं कार्य एमेय नथी.

भाई! आ गाथा महान छे! आत्माना परिणाम अने आत्माने कर्ताकर्मपणुं छे. लक्षमां लेवा आ धीमे धीमे कहेवाय छे. ‘आत्मद्रव्य स्वतंत्र व्यापक होवाथी आत्म-परिणामनो एटले के पुद्गलपरिणामना ज्ञाननो कर्ता छे अने पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान ते व्यापक वडे स्वयं व्यपातुं होवाथी (व्याप्यरूप थतुं होवाथी) कर्म छे.’ जुओ! आत्मद्रव्य स्वतंत्र व्यापक छे. जे जातनो राग छे ते जातनुं ज्ञान थयुं त्यां आत्मा स्वतंत्र व्यापक छे. राग छे माटे रागनुं ज्ञान थयुं एम नथी. आत्मा स्वतंत्र व्यापक होवाथी पुद्गलपरिणामना ज्ञाननो कर्ता छे. अहींयां ज्ञानना परिणाममां जे राग जणायो ते ज्ञानना परिणाममां आत्मा स्वतंत्र व्यापक छे. अहा! द्रव्य स्वतंत्र व्यापक थईने रागनुं ज्ञान करे छे. आत्मा व्यापक अने ज्ञान एनुं कर्म स्वतंत्र छे.

प्रश्नः– आत्मद्रव्य स्वतंत्र व्यापक छे एटले शुं? रागनुं ज्ञान छे एटलीय अपेक्षा छे के नहि?

उत्तरः– आत्मद्रव्य स्वतंत्र व्यापक छे एटले ते काळे जे रागने जाणवाना ज्ञानना परिणाम थया ते ज्ञानपरिणाम एनुं व्याप्य कर्म छे अने आत्मा स्वतंत्रपणे तेनो कर्ता छे. रागनुं के व्यवहारनुं ज्ञान थयुं माटे ज्ञान थवामां एटली परतंत्रता के राग के व्यवहारनी अपेक्षा छे एम छे ज नहि. ए तो आत्मा स्वतंत्रपणे कर्ता थईने ज्ञानरूपे स्वयं परिणमे छे. ज्ञाननो स्वपरप्रकाशक स्वभाव छे. ए स्वभावना कारणे ते स्वने अने परने जाणतो परिणमे छे. राग छे माटे परप्रकाशक ज्ञान थयुं एम छे ज नहि. समयसारनी वात बहु सूक्ष्म छे, पण शास्त्रमां जे छे ए वात कहेवाय छे. लोको बिचारा


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स्थूळबुद्धिने लीधे अंतरनुं काम केम करवुं एनी खबर न होय एटले आ तो निश्चयनो मार्ग, निश्चयनो मार्ग!-एम पोकारे. पण निश्चय एटले सत्य, निश्चय एटले यथार्थ, अनुपचार वास्तविक. भाई! दुनिया माने न माने तेनी साथे सत्यने संबंध नथी. सत्यने संख्या साथे शुं संबंध छे?

भगवान आत्मा स्वपरप्रकाशक ज्ञानशक्तिनो पिंड छे. ते पोते कर्ता थईने स्वपरने प्रकाशे छे. परने प्रकाशवामां एने परनी अपेक्षा नथी. राग परिणाम, व्यवहारना परिणाम थया माटे एनुं ज्ञान थयुं एटली अपेक्षा ज्ञानना परिणामने नथी. अहाहा...! आत्मा स्वतंत्रपणे कर्ता थईने ज्ञानपरिणामरूप कार्यने करे छे. बहु सूक्ष्म वात, भाई! व्यवहार छे माटे निश्चय छे एम नहि तथा व्यवहार छे माटे एने लईने एनुं ज्ञान थाय छे एम पण नहि.

लोकोए बीजी रीते मान्युं छे. व्यवहारना आश्रय वडे, निमित्तना आश्रय वडे कल्याण थशे एम लोकोए मान्युं छे. पण ते यथार्थ नथी. व्यवहारनुं अने निमित्तनुं पोते स्वतंत्रपणे कर्ता थईने ज्ञान करे छे अने ते ज्ञान एनुं कर्म छे. भाई! स्वतंत्रपणे करे तेने कर्ता कहीए. शुं लोकालोक छे माटे लोकालोकनुं ज्ञान थाय छे? भाई! एम नथी. लोकालोकने जाणवानुं ज्ञान स्वतंत्र पोताथी थाय छे. लोकालोक छे माटे तेने जाणवानुं कार्य ज्ञानमां थाय छे एम छे ज नहि. भगवान आत्मा सहज ज्ञानस्वभाव छे. माटे ज्ञाताना परिणामनुं कार्य पोताथी थाय छे. पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान व्यापक आत्मा वडे स्वयं व्याप्यरूप थतुं होवाथी आत्मानुं स्वतंत्र कर्म छे. आवी वात छे.

आ परनी दया पाळवी ए तो आत्मानुं कार्य नहि अने परनी दया पाळवानो व्यवहारनो जे राग थाय ते पण आत्मानुं कार्य नहि. खरेखर तो व्यवहारनो जे राग छे ते ज काळे ज्ञाननी पर्याय पोताने जाणती पोताथी परिणमे छे. राग हो, देहनी स्थिति हो; पण ए बधुं परमां जाय छे. जे काळे जे प्रकारनो राग थयो, जे प्रकारे देहनी स्थिति थई ते काळे ते ज प्रकारे जाणवानी ज्ञाननी पर्याय स्वतंत्र पोताथी थाय छे. अहो! आचार्य अमृतचंद्रदेवे गजब टीका करी छे!

बारमी गाथामां कह्युं छे ने के व्यवहारनय ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे. अहाहा...! जेने अखंड चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मानुं भान थयुं छे, त्रिकाळी ध्रुवनो आश्रय थयो छे तेने पर्यायमां कंईक अपूर्णता छे, अशुद्धता छे. आ अपूर्णता अने अशुद्धता ते काळे जाणेलां प्रयोजनवान छे. ते काळे जे व्यवहारनो राग छे ते जाणेलो प्रयोजनवान छे. अहीं पण स्पष्ट कहे छे के व्यवहारनो जे राग छे तेने ते काळे पोते पोताथी स्वतंत्रपणे जाणे छे. रागनुं, व्यवहारनुं अने देहनुं जे ज्ञान थयुं ते ज्ञान


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आत्मानुं कर्म छे. अहाहा...! वस्तु ज्ञानस्वभावी छे ते जाणवा सिवाय बीजुं शुं करे? जे स्वभावथी ज प्रज्ञाब्रह्म, चैतन्यब्रह्म छे ते आत्मा शुं पुद्गलपरिणामनुं कार्य करे? न ज करे.

आ गाथा जैनदर्शननो मर्म छे. कहे छे के पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान ते व्यापक आत्मा वडे, कर्ता वडे स्वयं व्यपातुं होवाथी आत्मानुं कर्म छे, कार्य छे. अहाहा...! भगवान आत्मा चैतन्यप्रकाशनी मूर्ति, चैतन्यना नूरनुं पूर प्रभु छे. ते जेणे द्रष्टिमां लीधो तेने स्वपरप्रकाशक ज्ञान प्रगट थयुं. ते ज्ञानमां राग, व्यवहार, कर्मनोकर्म इत्यादिनुं यथा अवसरे ज्ञान थयुं ते पोताथी थयुं छे. ते ज्ञाननो आत्मा कर्ता छे अने ते ज्ञान स्वयं आत्मा वडे व्यपातुं होवाथी ते आत्मानुं कार्य छे. अरे! लोको तो दया पाळवी, भगवाननी भक्ति करवी, शास्त्रस्वाध्याय करवुं इत्यादिने धर्म कहे छे पण ए तो सघळी बहारनी वातो छे. ज्ञानी तो ए सर्वने (साक्षीपणे) मात्र जाणे छे. अने ते व्यवहारने जाणनारुं जे ज्ञान ते ज्ञातानुं पोतानुं कर्म छे. लोकोने एकलो निश्चय, निश्चय एम लागे पण निश्चय ज भवसागरमांथी नीकळवानो पंथ छे.

आत्मा ज्ञानस्वभावी वस्तु त्रिकाळ सत्य छे. ए त्रिकाळी सत्ना आश्रये जे स्वपरप्रकाशक ज्ञान प्रगट थयुं ते परने पण स्वतंत्रपणे प्रकाशे छे. स्वने जाणतो ते ते काळे रागनी दशाने पोताना ज्ञानमां स्वतंत्रपणे जाणे छे. टीकामां छे के पुद्गलपरिणामना ज्ञानने करतो ते पोताना आत्माने जाणे छे. रागने जाणे छे, देहादिने जाणे छे एमेय नहि, ते काळे आत्माने जाणे छे एम लीधुं छे. स्वपरप्रकाशकपणे परिणम्यो तेणे आत्माने जाण्यो छे एम वात छे. सत्य तो आ छे, भाई. वादविवाद करवाथी कांई सत्य बीजी रीते नहि थाय.

हवे कहे छे-‘वळी आ रीते (ज्ञाता पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान करे छे तेथी) एम पण नथी के पुद्गलपरिणाम ज्ञातानुं व्याप्य छे; कारण के पुद्गलने अने आत्माने ज्ञेयज्ञायकसंबंधनो व्यवहारमात्र होवा छतां पण पुद्गलपरिणाम जेनुं निमित्त छे एवुं जे ज्ञान ते ज ज्ञातानुं व्याप्य छे. (माटे ते ज्ञान ज ज्ञातानुं कर्म छे).’

जुओ! आत्मा पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान करे छे तेथी पुद्गलपरिणाम एटले के दया, दान, व्रत आदिना परिणाम आत्मानुं व्याप्य कर्म छे एम नथी. पहेलां तो रागने पुद्गलपरिणाम कह्या अने हवे अहीं रागने पुद्गल कह्यो. दया, दान इत्यादि भाव पुद्गल छे एम कह्युं. पुद्गल अने आत्मा भिन्न द्रव्यो छे. आत्मा अने दया, दान आदि परिणाम भिन्न छे एम अहीं कह्युं छे. परनी दया पाळे, जात्रा करे, भक्ति करे तो धर्म थाय ए वात अहीं रहेती नथी. भगवान आत्मा निर्मळानंदनो नाथ चैतन्यघन प्रभु छे तेमां आरूढ थाय ते ज साची दया, साची जात्रा अने साची भक्ति


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छे, अने ते धर्म छे. भगवान आत्मा पोते तीर्थस्वरूप छे. तेमां आरूढ थवुं ते जात्रा छे.

पुद्गलने अने आत्माने ज्ञेयज्ञायकसंबंधनो व्यवहार मात्र छे. एटले के राग ज्ञेय छे अने आत्मा ज्ञायक जाणनार छे. आ व्यवहाररत्नत्रय इत्यादि जे विकल्प छे ते पुद्गल छे. ते परज्ञेय छे अने आत्मा तेनो जाणनार ज्ञायक छे. रागना परिणाम जे पुद्गल छे तेनुं ज्ञान तो पोताना उपादानथी थयुं छे, रागना परिणाम तो तेमां निमित्त छे. ज्ञानमां राग निमित्त छे एवुं जे ज्ञान थयुं ते ज्ञातानुं व्याप्य कर्म छे. राग ज्ञानमां निमित्त छे माटे राग ज्ञातानुं व्याप्य कार्य छे एम नथी. अहो! गाथा शुं अलौकिक छे! मानो बार अंगनो सार भरी दीधो छे.

दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि रागनुं ज्ञान थवामां ज्ञान पोते उपादान छे अने दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि भाव ज्ञानमां निमित्त छे. निमित्त छे एटले बीजी चीज छे बस एटलुं ज. ते वखते ज्ञान पोताथी उत्पन्न थयुं त्यारे ते ते रागने निमित्त कहेवामां आवे छे. खरेखर ते निमित्त छे माटे ज्ञान थयुं छे एम नथी. निमित्तनुं-रागनुं ज्ञान कह्युं माटे निमित्त- राग कारण अने ज्ञान एनुं कार्य एम अर्थ नथी. स्वपरप्रकाशक ज्ञाननी परिणति स्वतंत्रपणे जीवद्रव्ये करी छे. ए ज्ञानपरिणति जीवनुं कर्म छे. अहाहा...! जेवुं जेवुं (रागादि विकल्पो) निमित्त छे तेवुं ज्ञान अहीं पोताथी (निज उपादानथी) स्वतंत्रपणे थयुं छे. ते ज्ञान ज ज्ञायकनुं-आत्मानुं व्याप्य कर्म छे. (राग आत्मानुं व्याप्य नथी). अहो! गजब वात करी छे! निमित्त-उपादान अने निश्चय-व्यवहारना बधा खुलासा आवी जाय छे. व्यवहारनुं जे ज्ञान थयुं ए ज्ञानमां व्यवहार निमित्त होवा छतां ए ज्ञातानुं व्याप्य नथी, जे ज्ञान थयुं ते ज्ञान ज ज्ञातानुं व्याप्य छे. तत्त्वद्रष्टिनो विषय आवो सूक्ष्म छे, भाई!

आ मकानादि अमे करीए ए मान्यता तो मिथ्यादर्शन छे. मकान मकानथी (थवा काळे) थाय अने राग रागथी थाय. राग थाय ते आत्माथी नहि, अने राग छे माटे तेनुं आत्मामां ज्ञान थयुं एम पण नहि. ज्ञानमां राग निमित्त छे पण निमित्तथी ज्ञान थयुं छे एम नथी. ज्ञाननी पर्याय स्वतंत्र पोताथी थई त्यारे आने (रागने) निमित्त कहेवामां आवे छे. उपादान पोताना स्वभावे ज्यां जाग्रत थाय छे ते काळे ते ते ज्ञानना परिणाममां ते ते राग निमित्त होवा छतां ते राग आत्मानुं व्याप्य नथी, ज्ञानना परिणाम ज आत्मानुं व्याप्य कर्म छे. निश्चयमोक्षमार्ग जे छे ते आत्मानुं व्याप्य छे. व्यवहार मोक्षमार्ग छे ते निमित्त छे. निमित्त होवा छतां व्यवहार मोक्षमार्ग आत्मानुं व्याप्य छे एम नथी. केटली स्पष्ट वात छे!

व्यवहारनो राग आवे, पण ए पुद्गलना परिणाम छे. ज्ञानमां, पोताने जाणतां एने जाणवानो स्वभाव छे. परंतु ए ज्ञानना परिणाम पोताना शुद्ध उपादानथी थया


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छे. एमां व्यवहारनुं निमित्त होवा छतां, ज्ञेयज्ञायकसंबंधनो व्यवहार होवा छतां ते राग ज्ञातानुं व्याप्य नथी. व्यवहार ज्ञेय छे अने आत्मा ज्ञायक छे आटलो संबंध व्यवहारमात्र होवा छतां ते राग आत्मानुं कार्य-कर्म नथी.

जुओ! सामे हीरा होय तो हीरानुं ज्ञान थाय, कोलसा होय तो कोलसानुं ज्ञान थाय, राग होय तो रागनुं ज्ञान थाय अने द्वेष होय तो द्वेषनुं ज्ञान थाय. पण आ बधुं छे माटे अहीं तेनुं ज्ञान थाय छे एम नथी. ज्ञान थयुं तेमां ए बधुं निमित्त छे, पण एनाथी ज्ञान थयुं एम छे ज नहि. आवी सत्य वात सांभळवा मळे नहि ते अरेरे! सत्यपंथे के दि’ जाय? जुओने, केटली वात करी छे! आ सामे समयसार छे एनुं जे ज्ञान थयुं ते ज्ञान पोताथी थयुं छे. ते ज्ञानमां समयसार निमित्त छे छतां ते (समयसार शास्त्र) आत्मानुं व्याप्य कर्म नथी. भाई! वस्तुनी स्थिति ज आवी छे.

प्रश्नः– आप समयसार केम वांचो छो? पद्मपुराण केम नहि? आटलो निमित्तनो फेर छे के नहि?

उत्तरः– अरे भगवान! एम वात नथी. समयसारना शब्दो अने तेना वांचननो विकल्प ते आत्मा वडे स्वतंत्रपणे थता ज्ञानमां निमित्त छे, पण निमित्त छे माटे अहीं एनुं ज्ञान थयुं छे एम नथी. आत्मानुं भान थतां जे स्वपरप्रकाशक ज्ञानना परिणाम थया तेनो आत्मा पोते स्वतंत्र व्यापक थईने कर्ता छे. भाई! भाव तो सूक्ष्म छे, पण भाषा सादी छे; समजे तो समजाय एम छे, प्रभु!

जेने स्वभावनी द्रष्टि थई छे ते ज्ञानीने हेयबुद्धिए (स्वाध्याय आदि) व्यवहारना जे विकल्प ऊठे ते विकल्प तेना ज्ञाननुं ज्ञेय छे अने आत्मा ज्ञायक छे. आवो ज्ञेय-ज्ञायकनो संबंध व्यवहारमात्र होवा छतां ते (स्वाध्याय आदि) परज्ञेय आत्मानुं व्याप्य नथी, अर्थात् ते ज्ञानीनुं कार्य नथी. तेने प्रगट थयेलुं स्वपरप्रकाशक ज्ञान ज ज्ञातानुं व्याप्य कर्म छे.

आत्मा पोताना स्वभावनी द्रष्टिरूपे परिणमतां तेनी ज्ञाननी पर्यायमां व्यवहारनो विकल्प निमित्त होवा छतां ज्ञाननुं परिणमन ते निमित्तथी थयुं नथी, पण ज्ञाताथी ज स्वतंत्रपणे थयेलुं छे. तथा ते निमित्त ज्ञातानुं व्याप्य कर्म नथी पण ज्ञान ज ज्ञातानुं व्याप्य कर्म छे. पोताना स्वभावना शुद्ध उपादानथी ते ज्ञाननुं कार्य थयुं छे.

प्रश्नः– निमित्त अने उपादान एम कार्य प्रति बे कारण होय छे ने?

उत्तरः– निमित्त अने उपादान एम बे कारणोथी कार्य थाय ए वातनो अहीं निषेध छे. बे कारण कह्यां छे ए तो कथनमात्र छे. कार्यना काळे निमित्त कोण छे एम बीजी चीजनी उपस्थितिनुं ज्ञान कराववा त्यां बे कारण कह्यां छे. वास्तविक कारण तो एक उपादान ज छे.