Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 76-77.

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जुओ! निमित्त मेळवी शकातुं नथी एक वात; निमित्त होय छे ते कार्यने नीपजावतुं नथी बीजी वात; निमित्तनुं ते काळे जे ज्ञान थाय छे ते ज्ञानमां ते निमित्त होवा छतां निमित्त ते आत्मानुं कार्य नथी अने जे ज्ञान थयुं ते निमित्तनुं कार्य नथी. अहो! आवुं वस्तुतत्त्व बतावीने आचार्य अमृतचंद्रदेवे एकलां अमृत रेडयां छे! आचार्य अमृतचंद्रदेव छेल्ले एम कहे छे के आ शास्त्र (टीका) अमे बनाव्युं छे एम नथी. टीका करवानो जे राग थयो ते अमारुं कार्य नथी. रागनुं जे ज्ञान थयुं ते ज्ञान रागनुं कार्य नथी. राग संबंधी जे ज्ञान थयुं ते ज्ञान ज्ञायक आत्मानुं कार्य छे. तेमां राग निमित्त हो, पण ते निमित्त राग ज्ञातानुं व्याप्य नथी. भगवान आत्मा स्वयं ज्ञानस्वरूपी वस्तु छे. ते पोते पोताना सामर्थ्यथी पोताने कारणे पोतानुं (स्वनुं अने रागनुं परनुं) ज्ञान करे छे; निमित्तना कारणे ज्ञान करे छे एम छे ज नहि. प्रश्नः– आ सामे लाकडुं छे तो लाकडानुं ज्ञान थाय छे ने? उत्तरः– ना, एम नथी. ज्ञान स्वतंत्र ते काळे पोताथी थयुं छे. आत्मा स्वपरप्रकाशक ज्ञानपणे स्वतंत्र परिणमे छे. ते ज्ञान आत्मानुं कार्य छे. अन्य निमित्त हो भले, पण ते निमित्त आत्मानुं कार्य नथी. ज्ञान ज आत्मानुं कार्य छे; व्यवहार-रत्नत्रयनो राग आत्मानुं व्याप्य कर्म नथी. आवो वीतरागनो मार्ग बहु झीणो छे.

* * *

हवे आ ज अर्थना समर्थननुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश ४९ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेत्’ व्याप्यव्यापकपणुं तत्स्वरूपमां ज होय, ‘अतदात्मनि अपि न एव’ अतत्स्वरूपमां न ज होय, अने ‘व्याप्यव्यापकभावसंभवम् ऋते’ व्याप्यव्यापकभावना संभव विना ‘कर्तृकर्मस्थितिः का’ कर्ताकर्मनी स्थिति केवी? अर्थात् कर्ताकर्मनी स्थिति न ज होय. जुओ! वस्तुना स्वभावमां स्वभाव ते त्रिकाळ व्यापक छे अने एनी पर्याय ते व्याप्य छे. आवुं व्याप्यव्यापकपणुं तत्स्वरूपमां ज होय छे, अतत्स्वरूपमां नहि. राग अने शरीरादि पर वस्तु ते तत्स्वरूप नथी. अहाहा...! भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यघनवस्तु प्रभु ज्ञाननो पिंड छे. एनो व्याप्यव्यापकभाव तत्स्वरूपमां ज होय छे एम अहीं कहे छे. एटले पोते व्यापक अने एनी निर्मळ निर्विकारी दशा ए एनुं व्याप्य छे, पण पोते व्यापक अने रागादि परवस्तु एनुं व्याप्य एम छे ज नहि; केमके अतत्स्वरूपमां आत्मानुं व्याप्यव्यापकपणुं संभवित ज नथी. भाई! आ तो सर्वज्ञ परमात्मा अरिहंतदेवनी कहेली मूळ वात छे. व्यापक एटले कर्ता अने व्याप्य एटले कर्म-कार्य तत्स्वरूपमां ज होय छे. खरेखर तो आत्मा व्यापक अने निर्मळ पर्याय एनुं व्याप्य-ए पण उपचार छे. कळशटीकामां आ कळशना अर्थमां नीचे प्रमाणे कह्युं छे-


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“व्यापक अर्थात् द्रव्य-परिणामी पोताना परिणामनो कर्ता होय छे; व्याप्य अर्थात् ते परिणाम द्रव्ये कर्या. जेमां (एक सत्त्वमां) आवो भेद करवामां आवे तो थाय छे, न करवामां आवे तो नथी थतो. जीवसत्त्वथी पुद्गलद्रव्यनुं सत्त्व भिन्न छे, निश्चयथी व्याप्यव्यापकता नथी. भावार्थ एम छे के जेम उपचारमात्रथी द्रव्य पोताना परिणामनो कर्ता छे, ते ज परिणाम द्रव्यथी करायेलो छे तेम अन्यद्रव्यनो कर्ता अन्यद्रव्य उपचारमात्रथी पण नथी, कारण के एक सत्त्व नथी, भिन्न सत्त्व छे.”

ज्ञाता एवो आत्मा पोताना स्वपरप्रकाशक परिणामनो कर्ता अने ए परिणाम एनुं कर्म-ए उपचारमात्रथी छे. “निश्चयथी तो पर्याय पर्यायथी (पोताथी) थई छे. द्रव्यथी पर्याय थई छे एम कह्युं ए तो भेदथी उपचार कर्यो छे. निश्चयथी तो निर्विकारी निर्मळ परिणाम स्वयंसिद्ध थया छे.” त्यां आत्मा ते निर्मळ परिणामनो कर्ता अने ते निर्मळ परिणाम आत्मानुं कर्म ए उपचारमात्रथी छे. तथा रागनी अने जडनी क्रियानो कर्ता आत्मा छे ए तो उपचारमात्रथी पण नथी. अहा! आवी वात बीजे कयांय नथी. निर्मळ परिणाम ते व्याप्य अने द्रव्य आत्मा व्यापक ए उपचारथी छे, परमार्थ नथी. अने शरीरनो, रागनो, व्यवहारनो कर्ता आत्मा छे ए तो उपचारमात्रथी पण नथी.

व्याप्यव्यापकपणुं तत्स्वरूपमां ज होय छे. एटले के कर्ता अने कर्म अभिन्न होय छे. आत्मा वस्तु शुद्ध त्रिकाळी ध्रुव ज्ञायक द्रव्य ते व्यापक अने सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ परिणाम ते एनुं व्याप्य एटले कर्म छे. परंतु आत्मा कर्ता अने एनाथी भिन्न पुण्य-पापना भाव एनुं व्याप्य कर्म छे एम कदी होई शके नहि; केमके पुण्य-पाप आदि भाव अतत्स्वरूप छे. पुण्य- पापना भाव विभावस्वरूप छे अने ते त्रिकाळी शुद्ध ज्ञायकस्वभावनी अपेक्षाए अतत्स्वरूप छे. अहाहा...! भाई, जेने व्यवहार साधन कह्युं छे एवा व्यवहाररत्नत्रयना भाव अतत्स्वरूप छे. तेने साधन कह्युं ए तो ज्ञान करवा माटे उपचारमात्र कथन छे. खरेखर ते साधन छे ज नहि. झीणी वात, भाई!

आत्मा त्रिकाळी शुद्ध ज्ञायकस्वभावी ध्रुव वस्तु छे. तेनुं व्याप्यव्यापकपणुं पोताना निर्मळ स्वभावमां (अभिन्न) छे. शुद्ध ज्ञायकना लक्षे जे निर्मळ वीतरागी पर्याय उत्पन्न थाय ते एनुं व्याप्य अने पोते व्यापक थईने ते निर्मळ व्याप्य कर्मने करे छे. परंतु पुण्य-पाप आदि जे विभावभाव थाय छे तेनां क्षेत्र अने भाव भिन्न होवाथी निश्चयथी ते अतत्स्वरूप छे. तेथी आत्माने रागादिथी व्याप्यव्यापकपणुं नथी. घणी गंभीर वात!

तथा व्याप्यव्यापकभावना संभव विना कर्ताकर्मनी स्थिति केवी? व्याप्यव्यापकभावना अभावे रागनो कर्ता आत्मा अने राग आत्मानुं कर्म ए स्थिति केवी? जुओ! आ धर्म केवी रीते थाय ते कहे छे. निर्मळ ज्ञानस्वभावी चिन्मात्र वस्तु जे आत्मा तेनी जेने द्रष्टि थई अने जे अतत्स्वरूप एवा रागथी-व्यवहारना विकल्पथी भिन्न पडयो ते


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स्वयं भगवान ज्ञायक व्यापक-कर्ता थईने पोतानी व्याप्य एवी निर्मळ मोक्षमार्गनी- सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्ररूप शुद्ध रत्नत्रयनी पर्यायने करे छे अने ते धर्म छे. आ आत्मानुं व्याप्य कर्म छे; परंतु अतत्स्वरूप एवो जे राग (व्यवहार) ते आत्मानुं व्याप्य नथी, ते आत्मानुं कर्म नथी.

अरेरे! लोकोने अत्यारे व्यवहार अने निमित्तना प्रेममां अंदर जे भिन्न शुद्ध ज्ञायक भगवान पडयो छे तेनां रुचि अने आश्रय आवतां नथी. तेओ बिचारा चोरासीना अवतारमां अतिशय दुःखी थईने जाणे दुःखनी घाणीमां पीलाई रह्या छे. भाई! शुद्ध चैतन्यस्वभावमय वस्तु प्रभु पोते छे एनो महिमा द्रष्टिमां आव्या विना विकारनुं माहात्म्य अंतरथी छूटतुं नथी. अहीं कहे छे के व्याप्यव्यापकभाव तत्स्वभावमां ज होय छे, अतत्स्वभावमां न होय. प्रथम आ सिद्धांत मूकीने कहे छे के व्याप्यव्यापकभावना संभव विना कर्ताकर्मनी स्थिति केवी? भगवान आत्मा कर्ता अने दया, दान, व्रत, भक्ति आदि विभावभाव एनुं कर्म-ए केम होई शके? (न होई शके). अहाहा...! आ बहारनां (दया, दान आदि) काम तो आत्मा करी शके नहि, पण (दया, दान, आदि) विकारना परिणाम पण आत्मानुं काम-कार्य छे एम नथी केमके विभावभाव अतत्भावस्वरूप छे.

त्रिकाळी ज्ञायकभाव शुद्ध चैतन्यघन वस्तु छे ते तत्स्वभावे छे. तेनुं तत्स्वभावे परिणमन थयुं ते एनुं कार्य छे, कर्म छे. त्रिकाळी ध्रुव वस्तु पोते व्यापक थईने पोताना निर्मळ परिणाममां व्यापे ए तो बराबर छे. परंतु ते शुभाशुभ विकारमां व्यापक थईने एने करे ए वात कयांथी लाववी? केमके त्यां व्याप्यव्यापकभावनो अभाव छे. व्यवहार रत्नत्रयना शुभभाव ते आत्मानुं कर्तव्य, आत्मानुं व्याप्य कर्म ए स्थिति कयांथी लाववी? अहाहा...! द्रव्ये अने गुणे पवित्रतानो पिंड प्रभु आत्मा छे ते पवित्रताना व्यापकपणे पवित्रतानी व्याप्य अवस्थाने करे छे; परंतु ते विकारनी अवस्थाने व्याप्यपणे करे-ए स्थिति कयांथी लाववी? एम छे ज नहि.

केटलाकने आकरुं पडे छे, पण शुं थाय? मार्ग तो आ ज छे, भाई! आ समजवुं ज पडशे. बहारमां तो कांई नथी. आ पैसा, बंगला, मोटर, संपत्ति अने आबरू-ए धूळमां कय ांय सुख नथी. अहीं कहे छे के परवस्तु व्यापक थईने एनी पोतानी पर्यायने करे ते एनुं कर्म छे. अतत्भाववाळी वस्तु पोते पोताथी परिणमे छे. तेनुं कार्य आ आत्मा करे एम कदी होई शके नहि. आ जीभ हले, वाणी बोलाय ते आत्मानुं व्याप्य नथी. तथा तेमां जे विकल्प-राग थाय ए पण अतत्स्वभावरूप छे. अतत्भावरूप वस्तुनुं कार्य तत्स्वभावी आत्मा करे एम कदीय बनतुं नथी.

प्रश्नः– आ भाषा बोलवानुं जे कार्य थाय ते आत्मा करे छे के नहि?

उत्तरः– आ प्रश्न सं. १९९पमां शंत्रुजयमां थयो हतो. त्यारे कह्युं हतुं के


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भाषानुं व्याप्यव्यापकपणुं जडमां छे. आत्मा व्यापक थईने अतत्भावरूप एवी भाषाना परिणमनने करे एम होई शके ज नहि. भाई! आ पंडिताईनो विषय नथी. आ तो अंतर स्वरूपद्रष्टिनो विषय छे. जेने जन्म-मरणना दुःखथी छूटवुं होय तेने अहीं कहे छे के ए दुःखना परिणाम पण आत्मानुं व्याप्य नथी. भाई! ए तो अतीन्द्रिय आनंदनो नाथ नित्यानंदस्वरूप प्रभु छे ने! ते व्यापक थईने, प्रसरीने, कर्ता थईने पवित्र आनंदनी पर्यायनुं कार्य करे. एने दुःखनी पर्याय तो अतद्भावरूप छे. ए दुःखनी पर्याय तेनुं व्याप्य केम होय?

आत्मा शुद्ध चैतन्य ज्ञानानंदस्वभावी वस्तु छे. ते व्यापक थईने प्रसरीने खीले तो निर्मळ वीतरागी आनंदनी पर्यायरूपे खीले एवो तेनो स्वभाव छे. जुओ! कागळनो पंखो खीले-प्रसरे तो कागळपणे खीले पण शुं ते लोढापणे खीले खरो? (ना, कदापि नहीं). तेम ज्ञायकस्वरूपी भगवान खीले-प्रसरे तो निर्मळ ज्ञानस्वभावे खीले पण शुं ते राग अने दुःखपणे खीले? (ना). भाई! रागपणे जे खीले-प्रसरे ते आत्मा नहि. अहा! भगवान आत्मानुं व्याप्य तो वीतरागी पर्याय छे. चतुर्थ आदि गुणस्थानमां जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्ध रत्नत्रयनी पर्याय प्रगटे ते आत्मानुं व्याप्य छे.

प्रश्नः– चतुर्थ आदि गुणस्थानमां राग तो होय छे?

उत्तरः– हा, चतुर्थ आदि गुणस्थानमां व्रत, पूजा, भक्ति, दया, दान इत्यादिना शुभभाव होय छे. पण ते शुभभाव ते आत्मानुं व्याप्य कर्म नथी. जे विभाव होय छे तेने ते काळे ते जाणतो प्रवर्ते छे. स्वपरने जाणनारी एनी जे ज्ञाननी पर्याय ते एनुं व्याप्य कर्म छे. ज्ञान रागने जाणे तेथी राग आत्मानुं व्याप्य थई जाय एम छे ज नहि. भाई! आ तो कर्तृत्वना अभिमानना भुक्का बोलावी दे एवी वात छे. तेने अंतरमां बेसाड ने! व्यवहारथी निश्चय थाय एवी तारी मान्यता मिथ्या एकांत छे, केमके कर्ताकर्मपणुं तत्स्वभावमां ज होय छे. अहाहा...! वीतरागी पर्याय ते कार्य अने वीतरागी स्वभाव ते एनुं कारण छे एम अहीं कह्युं छे; पण राग कारण अने वीतरागता एनुं कार्य एम छे ज नहि. शास्त्रोमां जे व्यवहार साधननी वात आवे छे ए तो निमित्त देखीने तेनुं ज्ञान कराववा व्यवहारथी कहेवामां आवेलुं छे. ज्यां जे अपेक्षाथी कथन होय तेनुं यथार्थ ज्ञान करवुं जोईए.

हवे कहे छे- ‘इति उद्दाम–विवेक–घस्मर–महोभारेण’ आवो प्रबळ विवेकरूप, अने सर्वने ग्रासीभूत करवानो जेनो स्वभाव छे एवो जे ज्ञानप्रकाश तेना भारथी ‘तमः भिन्दन्’ अज्ञान-अंधकारने भेदतो, ‘स एषः पुमान्’ आ आत्मा ‘ज्ञानीभूय’ ज्ञानस्वरूप थईने, ‘तदा’ ते काळे ‘कर्तृत्वशून्यः लसितः’ कर्तृत्वरहित थयेलो शोभे छे.


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अहाहा-! समयसारनी एकेक गाथा अने एकेक कळश अलौकिक छे. आत्मानुं हित केम थाय एनी अहीं वात छे. बहु शास्त्रो भण्यो होय अने व्याख्यान सारुं करे एटले थई गयो मोटो पंडित ज्ञानी ए वात अहीं नथी. तथा घणो बधो बाह्य व्यवहार पाळे माटे ज्ञानी छे एम पण नथी. देव-गुरु-शास्त्रनी (भेदरूप) श्रद्धा अने भक्ति ए तो बधो राग छे. भाई! बहारनी धमाधम ए मार्ग नथी. अहीं कहे छे के भगवान आत्मा तत्स्वभाव जे ज्ञायकभाव ते कर्ता अने तेनी निर्मळ पर्याय ते एनुं कार्य छे, परंतु अतत्स्वभाव जे विभाव तेनो आत्मा कर्ता नहि अने ते विभाव आत्मानुं कर्म नहि. आ प्रमाणे अंतरंगमां द्रष्टि थई एने प्रबळ विवेकरूप (भेदज्ञानरूप) सम्यग्ज्ञाननो सूर्य उग्यो एम अहीं कहे छे.

आवो प्रबळ विवेकरूप सम्यग्ज्ञाननो जे सूर्य प्रगट थयो तेनो सौने ग्रासीभूत करवानो स्वभाव छे. एटले के ते स्वने जाणे अने जे राग होय तेने पण जाणे एवो तेनो स्वभाव छे. जाणवामां बधुं कोळियो करी जाय एवी प्रगट थयेला ज्ञानप्रकाशनी शक्ति छे. जुओ! रागने करे ए तो छे ज नहि, पण राग छे माटे तेने (रागने) जाणे एम पण नथी. ज्ञाननो ए सहज स्वभाव छे के ते जाणवामां राग आदि सर्वने कोळियो करी दे. जे काळे जे जातनो राग अने जे जातनी देहनी स्थिति पोताना कारणे थाय ते काळे ते सर्वने अडया विना ग्रासीभूत करवानो-जाणी लेवानो ज्ञाननो स्वभाव छे.

व्यवहारना रागने ज्ञान जाणी ले छे; त्यां जाणवुं जे थयुं ते आत्मानुं निज कार्य छे पण जे राग छे ए आत्मानुं कार्य नथी. राग मारुं कार्य अने रागनो हुं कर्ता एवी मान्यता तो अज्ञान छे. ए अज्ञानने भेदतो तत्स्वरूपे-ज्ञानस्वरूपे पोते परिणमतो अज्ञानरूपी अंधकारनो नाश करे छे. भाई! आ व्यवहाररत्नत्रयनो शुभराग ते मारुं कार्य अने हुं तेनो कर्ता अथवा व्यवहार रत्नत्रयनो शुभराग ते कर्ता अने जे ज्ञान अवस्था प्रगट थई ते एनुं कार्य एवो अभिप्राय ते अज्ञान छे. आ अज्ञान-अंधकारने भेदतो भगवान आत्मा पोते ज्ञानस्वरूप थईने ते काळे कर्तृत्वरहित थयेलो शोभे छे.

कह्युं ने के जे काळे राग छे ते काळे रागने जाणतुं त्यां ज्ञान छे. ते ज्ञान कर्तृत्वरहित थईने शोभे छे. एटले राग मारुं कार्य अने हुं तेनो कर्ता एवी अज्ञानदशाने भेदतो पोते कर्तृत्वरहित थईने एटले के ज्ञाता थईने शोभे छे. जुओ, रागना कर्तृत्वथी आत्मा शोभतो नथी. पुण्यना परिणाम करवाथी आत्मानी शोभा नथी. एथी पोतानी शोभा मानवी ए तो मिथ्यात्व छे. भाई! वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे. अहीं तो, आ शास्त्रमां जे छे, तेनुं स्पष्टीकरण थाय छे. माणसने पोतानी मानेली वातनां पकड अने अभिमान होय तेथी आवी सत्य वातने ग्रहण करवी कठण लागे, पण भाई! आ समज्ये ज छूटको छे.


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अहाहा...! आत्मा पोते शुद्ध चैतन्यस्वरूप ज्ञाता-द्रष्टा स्वभावथी भरेलो भगवान छे. ते ज्ञाता-द्रष्टा थईने परिणमे ते शोभा छे. पहेलां रागनो कर्ता थईने परिणमतो हतो ते अशोभा हती, अज्ञान हतुं, दुःख हतुं. हवे ते रागना कर्तृत्वरहित थईने ज्ञातास्वभावे ज्ञानपणे, आनंदपणे परिणमतो ते अतीन्द्रिय आनंदनी लहेरथी शोभे छे. स्वरूपना भान विना पहेलां व्यवहारना रागना कर्तापणे परिणमतो हतो ते अज्ञानदशा हती, दुःखदशा हती. हवे प्रबळ विवेकरूप सम्यग्ज्ञाननो प्रकाश प्रगट थतां अज्ञानअंधकारने भेदतो ते रागनो अकर्ता थईने अने ज्ञान अने आनंदनी पर्यायनो कर्ता थईने पोते शोभे छे.

प्रश्नः– व्यवहार साधन अने निश्चय साध्य-एम शास्त्रमां आवे छे ने?

उत्तरः– अरे भाई! ए तो साधननो आरोप करीने कथन कर्युं छे. व्यवहारनो राग जे अतत्भावरूप छे ते तत्स्वभावनुं-निश्चयनुं साधन केम थाय? न ज थाय. अहीं तो रागथी भिन्न पडी, ज्ञायकभाव प्रसरीने-विस्तरीने जे निर्मळ वीतराग परिणति प्रगट थई ते साधन छे एम कह्युं छे. अने त्यारे जे राग छे तेने सहचर वा निमित्त देखीने उपचारथी आरोप करीने साधन कह्युं छे. सर्वत्र व्यवहारनुं लक्षण ज एवुं छे. एक द्रव्यने बीजा द्रव्यमां भेळवीने कथन करे. एकना भावने बीजाना भावमां भेळवीने कथन करे अने कारणमां कार्यने भेळवीने कथन करे एवुं व्यवहारनुं लक्षण छे. मोक्षमार्ग प्रकाशकमां सातमा अधिकारमां पंडितप्रवर श्री टोडरमलजीए निश्चय-व्यवहारनो बहु सरस खुलासो कर्यो छे.

पोताने बेसे नहि एटले विरोध करे, पण शुं थाय? अशुद्धतामां पण पोते स्वतंत्र छे. अनुभव प्रकाशमां कह्युं छे के-तेरी अशुद्धता भी बडी’-एटले के जेने विपरीत बेठुं छे ते त्रिलोकनाथ भगवाननी वाणी सांभळीने पण विपरीत मान्यताथी खसे नहि एवी एनी अशुद्धतानी पण मोटप छे; पोतानी ऊंधी पकड छोडे ज नहि. अहीं कहे छे के राग मारुं कार्य अने हुं रागनो कर्ता ए मान्यता अज्ञान छे. आ विपरीत अभिप्रायने तो प्रथम सुधार. वस्तुस्थितिनो प्रथम ज्ञानमां सम्यक् निर्णय तो कर. स्थिरता न थई शके ए जुदी वात छे. भाई! प्रथम स्वरूप आम ज छे एम निर्णय तो कर. रागनुं कर्तृत्व मारुं नहि, पण ते काळे स्वने अने परने जाणतुं जे मारुं ज्ञान ते मारुं कार्य अने हुं तेनो कर्ता एवा निर्णय सहित जे ज्ञानप्रकाश प्रगट थयो ते अज्ञान-अंधकारने भेदीने पोते अकर्तापणे-ज्ञातापणे परिणमतो कर्तृत्वरहित थईने शोभे छे. आवी अद्भुत आ वात छे. ए कांई वादविवादथी पार पडे एम नथी.

* कळश ४९ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जे सर्व अवस्थाओमां व्यापे ते तो व्यापक छे अने कोई एक अवस्थाविशेष ते


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(व्यापकनुं) व्याप्य छे. आम होवाथी द्रव्य तो व्यापक छे अने पर्याय व्याप्य छे.’ त्रिकाळी वस्तु जे द्रव्य ते व्यापक छे केमके ते दरेक अवस्थामां होय छे. अने वर्तमान वर्तती अवस्था ते व्यापकनुं व्याप्य छे.

‘द्रव्य-पर्याय अभेदरूप ज छे.’ एटले के तेने परवस्तु साथे कांई संबंध नथी. पोतानुं द्रव्य अने पोतानी पर्याय परथी भिन्न छे अने पोते अभेदरूप छे. परथी भिन्न छे ए अपेक्षाए द्रव्य-पर्याय अभिन्न छे एम कह्युं छे. त्यां द्रव्य अने पर्याय एक थयां छे एम नथी. द्रव्य-पर्याय अभेदरूप छे एटले परनी साथे के रागनी साथे कांई संबंध नथी. निर्मळ पर्याय अने द्रव्य अभेद छे एटले के निर्मळ पर्याय छे ते व्यापक एवा द्रव्यनुं व्याप्य छे. ए पर्यायनो कर्ता द्रव्य छे एम अभेदनो अर्थ छे.

अरे भाई! अनंतकाळनी पोतानी चीज छे. तेनी द्रष्टि करवी ते कांई साधारण वात नथी. जे पर्यायबुद्धि अने रागबुद्धि अनादिथी छे तेमां पलटो मारीने द्रव्यबुद्धि करवी ए साधारण (पुरुषार्थनी) वात नथी. भगवान आत्मा पूर्णानंदनो नाथ प्रभु त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य छे. ते छे एम ज्यां पर्याय द्रव्य सन्मुख ढळीने तेनो स्वीकार करे छे त्यारे द्रव्य-पर्याय अभेदरूप ज छे. जे पर्याय द्रव्यनी सन्मुख थई ते द्रव्यनो स्वीकार करे छे अने त्यां तेने शांतिनो अनुभव थाय छे. पोते आत्मा व्यापक अने पोतानी निर्मळ पर्याय ते व्याप्य एम अभेदरूप परिणमन छे त्यां शांति छे. पण पोते आत्मा व्यापक अने पुण्य-पापना भाव ते मारुं व्याप्य एम जे माने तेने अशांति छे. आवु ज वस्तुनुं स्वरूप छे.

हवे कहे छे-‘जे द्रव्यनो आत्मा, स्वरूप अथवा सत्त्व ते ज पर्यायनो आत्मा, स्वरूप अथवा सत्त्व. आम होईने द्रव्य पर्यायमां व्यापे छे अने पर्याय द्रव्य वडे व्यपाई जाय छे. आवुं व्याप्यव्यापकपणुं तत्स्वरूपमां ज होय; अतत्स्वरूपमां न ज होय.’

जुओ, शुं कहे छे? जे द्रव्यनुं स्वरूप छे ए ज पर्यायनुं स्वरूप छे. पर्याय एनी जातनी छे ने! पर्याय अने द्रव्य बन्ने एक थया छे एम नथी. पर्याय पर्यायमां रहीने द्रव्यने जाणे छे, द्रव्यमां भळीने जाणती नथी; परंतु परथी भिन्नपणुं छे ए अपेक्षाए द्रव्य अने पर्याय अभिन्न छे एम कह्युं छे. अपेक्षा बराबर समजवी जोईए. आ प्रमाणे द्रव्यनुं स्वरूप वा सत्त्व ते ज पर्यायनुं स्वरूप वा सत्त्व छे, आम होईने एटले के द्रव्य-पर्यायनी अभिन्नता होईने द्रव्य पर्यायमां व्यापे छे अने पर्याय द्रव्य वडे व्यपाई जाय छे.

आवुं व्याप्यव्यापकपणुं तत्स्वरूपमां ज होय छे, अर्थात् अभिन्न सत्तावाळा पदार्थमां ज होय छे. परंतु अतत्स्वरूपमां अर्थात् भिन्न भिन्न सत्तावाळा पदार्थोमां आवुं व्याप्य-व्यापकपणुं होतुं नथी. रागने अने आत्माने व्याप्यव्यापकपणुं नथी केमके बन्ने भिन्न


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भिन्न चीज छे. परंतु ज्ञायकस्वभावी आत्मा अने तेनी निर्मळ वीतरागी परिणतिने व्याप्यव्यापकपणुं छे केमके ते बन्ने अभिन्न तत्स्वभावी छे. द्रव्य व्यापक छे अने राग एनुं व्याप्य छे एम नथी; परंतु द्रव्य व्यापक अने तेनी निर्मळ परिणति एनुं व्याप्य एम व्याप्यव्यापकपणुं छे. जुओ! पंडित श्री जयचंदजीए केटलुं स्पष्ट कर्युं छे! पहेलांना पंडितोए केवुं सरस काम कर्युं छे! कहे छे के पर्यायनी सत्ता अने द्रव्यनी सत्ता बे जुदी नथी. जेम परद्रव्यनी सत्ता जुदी छे तेम द्रव्य अने तेनी निर्मळ परिणतिनी सत्ता जुदी नथी.

आम तो द्रव्यनी सत्ता अने पर्यायनी सत्ता बे भिन्न छे. ए अंदर-अंदरनी (परस्परनी) अपेक्षाए वात छे. पण परनी अपेक्षाए तो द्रव्य अने पर्यायनी सत्ता अभिन्न एक छे. खरेखर तो त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यनां सत्ता अने क्षेत्र तेनी निर्मळ पर्यायनां सत्ता अने क्षेत्रथी भिन्न छे. पण ए तो अंदर-अंदर परस्परनी द्रव्य अने पर्यायनी अपेक्षाए वात छे. परंतु अहीं तो एम सिद्ध करवुं छे के पर्याय अने द्रव्यनुं क्षेत्र एक छे, केमके अभिन्न सत्तावाळा पदार्थमां व्याप्यव्यापकपणुं होय छे. परनी सत्ताथी पोताना द्रव्य-पर्यायनी सत्ता भिन्न छे अने पोतानां द्रव्य-पर्याय बेनी सत्ता अभिन्न छे एम अहीं सिद्ध करवुं छे.

सत्ता भिन्न होय एवा पदार्थमां व्याप्यव्यापकपणुं न ज होय. रागादि विभाव भिन्न सत्तावाळो पदार्थ छे. तेनी साथे आत्माने व्याप्यव्यापकपणुं नथी. वस्तु भिन्न छे माटे क्षेत्र भिन्न छे. तेथी व्याप्यव्यापकपणुं नथी अने माटे आत्मा अने रागादि विभावने कर्ताकर्मपणुं नथी.

ज्यां व्याप्यव्यापकभाव होय त्यां ज कर्ताकर्मभाव होय; व्याप्यव्यापकभाव विना कर्ताकर्मभाव न होय. एवुं जे जाणे ते पुद्गलने अने आत्माने कर्ताकर्मभाव नथी एम जाणे छे. कळशटीकामां ‘जीवसत्त्वथी पुद्गलद्रव्यनुं सत्त्व भिन्न छे, निश्चयथी व्याप्यव्यापकता नथी’ एम कह्युं छे. पुद्गल अने पुद्गलना निमित्तथी थती विकारी पर्याय ए बधुं पुद्गल छे. आवुं जे जाणे ते विकारने अने आत्माने कर्ताकर्मभाव नथी एम जाणे छे. कर्मना परिणामनो पोते कर्ता नथी एम जाणे त्यां रागादि विकारनो पण पोते कर्ता नथी एम जाणे छे. आम जाणतां लक्ष त्यांथी छूटी आत्मा उपर लक्ष जाय छे. परनुं कर्तापणुं छूटे त्यां रागनुं कर्तापणुं पण छूटी जाय छे. अहा! भरतमां केवळज्ञानीना विरह पडया पण भाग्यवश आवी चीज (समयसार) रही गई. कोई वळी कहे छे के समयसार वांचो छो अने बीजुं शास्त्र केम नहि? पण भाई! तत्त्वज्ञानना विषयनी मुख्यता द्रव्यानुयोगना शास्त्रमां होय छे. सम्यग्दर्शनना विषयनुं द्रव्यानुयोगना शास्त्रमां निरूपण होय छे.

अहीं कहे छे के पुद्गलने अने आत्माने कर्ताकर्मभावथी नथी. आम जाणतां ते ज्ञानी थाय छे. एटले के रागनो जाणनार थाय छे, कर्ता थतो नथी. ते कर्ताकर्मभावथी रहित थाय छे अने ज्ञाता-द्रष्टा बनी जगतनो साक्षीभूत थाय छे. बधानो जाणनार साक्षी थाय


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छे. पोतामां रहीने जाणे बस! पोतामां रहीने जाणनार, परमां जईने परनो जाणनार एम नहि, पोते साक्षी थाय छे. आवो वीतरागनो कहेलो वीतराग स्वरूप ज मार्ग छे.

भाई! आ देह छूटी जशे; कोई सगां संबंधी साथे रहेशे नहि. ज्यांथी देह छूटीने अहीं आव्यो त्यांनां सगांवहालां संभाळतां होय पण एथी शुं? कोई साथे रहे एम छे? कोई एनुं छे? भाई! कोई तारुं नथी. एक चैतन्यस्वभावमय ज्ञानानंदस्वभावी आत्मा एवो तुं तारो छे. आ गाम, आ मकान, आ देह, आ रागादि विकल्पो इत्यादि मारा छे एम कहेवाय पण तेथी शुं ते तारा थई गया? व्यवहारथी बोलाय एथी शुं? गाम मकान, देह, राग आदि पदार्थो तारा नथी अने ए तारां कार्य पण नथी, तुं एमनो कर्ता पण नथी. तुं तो नित्यानंदस्वरूप ज्ञाता-द्रष्टास्वभावी आत्मा छो अने ज्ञाताद्रष्टानुं निर्मळ परिणमन ए ज तारुं कर्म-कार्य छे. आवुं ज वस्तुस्वरूप छे; तेने यथार्थ जाणवुं ते ज्ञानीनुं कर्म छे.

[प्रवचन नं. १२९ शेष १३०, १३१, १३२ (चालु) * दिनांक १८-७-७६ थी २१-७-७६]

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गाथा–७६

पुद्गलकर्म जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तृकर्मभावः किं भवति किं न भवतीति चेत्–

ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए।
णाणी जाणंतो वि हु पोग्गलकम्मं अणेयविहं।। ७६।।

नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये।
ज्ञानी जानन्नपि खलु
पुद्गलकर्मानेकविधम्।। ७६।।

हवे पूछे छे के पुद्गलकर्मने जाणता एवा जीवने पुद्गल साथे कर्ताकर्मभाव (कर्ताकर्मपणुं) छे के नथी? तेनो उत्तर कहे छेः-

विधविध पुद्गलकर्मने ज्ञानी जरूर जाणे भले,
परद्रव्यपर्याये न प्रणमे, नव ग्रहे, नव ऊपजे. ७६.

गाथार्थः– [ज्ञानी] ज्ञानी [अनेकविधम्] अनेक प्रकारना [पुद्गलकर्म] पुद्गलकर्मने [जानन् अपि] जाणतो होवा छतां [खलु] निश्चयथी [परद्रव्यपर्याये] परद्रव्यना पर्यायमां [न अपि परिणमति] परिणमतो नथी, [न गृह्णाति] तेने ग्रहण करतो नथी अने [न उत्पद्यते] ते-रूपे ऊपजतो नथी.

टीकाः– प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य एवुं, व्याप्यलक्षणवाळुं (व्याप्य जेनुं लक्षण छे एवुं) पुद्गलना परिणामस्वरूप जे कर्म (कर्तानुं कार्य), तेनामां पुद्गलद्रव्य पोते अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने, तेने ग्रहतुं, ते-रूपे परिणमतुं अने ते-रूपे ऊपजतुं थकुं, ते पुद्गलपरिणामने करे छे; आम पुद्गलद्रव्य वडे करवामां आवता पुद्गलपरिणामने ज्ञानी जाणतो होवा छतां, जेम माटी पोते घडामां अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने, घडाने ग्रहे छे, घडारूपे परिणमे छे अने घडारूपे ऊपजे छे तेम, ज्ञानी पोते बाह्यस्थित (बहार रहेला) एवा परद्रव्यना परिणाममां अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने, तेने ग्रहतो नथी, ते-रूपे परिणमतो नथी अने ते-रूपे ऊपजतो नथी; माटे, जोके ज्ञानी पुद्गलकर्मने जाणे छे तोपण, प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य एवुं जे व्याप्यलक्षणवाळुं परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म, तेने नहि करता एवा ते ज्ञानीने पुद्गल साथे कर्ताकर्मभाव नथी.

भावार्थः– जीव पुद्गलकर्मने जाणे छे तोपण तेने पुद्गल साथे कर्ताकर्मपणुं नथी.


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सामान्यपणे कर्तानुं कर्म त्रण प्रकारनुं कहेवामां आवे छे-निर्वर्त्य, विकार्य अने प्राप्य. कर्ता वडे, जे प्रथम न होय एवुं नवीन कांई उत्पन्न करवामां आवे ते कर्तानुं निर्वर्त्य कर्म छे. कर्ता वडे, पदार्थमां विकार-फेरफार करीने जे कांई करवामां आवे ते कर्तानुं विकार्य कर्म छे. कर्ता, जे नवुं उत्पन्न करतो नथी तेम ज विकार करीने पण करतो नथी, मात्र जेने प्राप्त करे छे ते कर्तानुं प्राप्य कर्म छे.

जीव पुद्गलकर्मने नवीन उपजावी शकतो नथी कारण के चेतन जडने केम उपजावी शके? माटे पुद्गलकर्म जीवनुं निर्वर्त्य कर्म नथी. जीव पुद्गलमां विकार करीने तेने पुद्गलकर्मरूपे परिणमावी शकतो नथी कारण के चेतन जडने केम परिणमावी शके? माटे पुद्गलकर्म जीवनुं विकार्य कर्म पण नथी. परमार्थे जीव पुद्गलने ग्रहण करी शकतो नथी कारण के अमूर्तिक पदार्थ मूर्तिकने कई रीते ग्रहण करी शके? माटे पुद्गलकर्म जीवनुं प्राप्य कर्म पण नथी. आ रीते पुद्गलकर्म जीवनुं कर्म नथी अने जीव तेनो कर्ता नथी. जीवनो स्वभाव ज्ञाता होवाथी ज्ञानरूपे परिणमतो पोते पुद्गलकर्मने जाणे छे; माटे पुद्गलकर्मने जाणता एवा जीवनो परनी साथे कर्ताकर्मभाव केम होई शके? न ज होई शके.

× × ×
समयसार गाथा ७६ः मथाळुं

हवे पूछे छे के पुद्गलकर्मने जाणता एवा जीवने पुद्गल साथे कर्ताकर्मभाव (कर्ताकर्मपणुं) छे के नथी? तेनो उत्तर कहे छेः-

* गाथा ७६ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य एवुं व्याप्यलक्षणवाळुं पुद्गलना परिणामस्वरूप जे कर्म, तेनामां पुद्गलद्रव्य पोते अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने, तेने ग्रहतुं, ते-रूपे परिणमतुं अने ते-रूपे ऊपजतुं थकुं, ते पुद्गलपरिणामने करे छे.’

जुओ! शिष्यनो एम प्रश्न छे के पुद्गलपरिणामरूप कर्मने एटले के रागादिने जाणतां ज्ञानीने तेनी साथे कर्ताकर्मभाव छे के नहि? जेवो राग थाय, जे देहनी स्थिति होय तेने ए रीते जाणे एटलो संबंध छे, पण आत्माने तेनी साथे कर्ताकर्मपणुं छे के नथी? तो कहे छे के ना; पुद्गलनुं-रागादिनुं कर्ताकर्मपणुं पुद्गलमां छे. जे जे रागादि अवस्था थाय ते ते ज्ञानी जाणे पण तेनी साथे ज्ञानीने कर्ताकर्मभाव नथी. पुद्गलपरिणामरूपकर्म साथे पुद्गलने कर्ताकर्मपणुं छे.

एक समयनी अवस्थाना त्रण प्रकार-प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य. एवुं व्याप्यलक्षणवाळुं पुद्गलना परिणामस्वरूप कर्म एटले के रागस्वरूप जे कर्तानुं कार्य छे तेमां पुद्गल अंतर्व्यापक थईने आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने तेने ग्रहतुं, रागरूपे परिणमतुं, रागरूपे


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ऊपजतुं थकुं पुद्गलपरिणामने करे छे. आ दया, दान, व्रत आदिना शुभरागमां पुद्गल व्यापीने ते परिणामने करे छे. व्यवहाररत्नत्रयना रागनी आदिमां पुद्गल, मध्यमां पुद्गल अने अंतमांय पुद्गल छे; रागनी आदिमां जीव छे एम नथी.

एक बाजु एम कहे के रागना, मिथ्यात्वना परिणाम जीवना छे अने वळी ते पुद्गलना परिणाम छे एम अहीं कहे ते केवी रीते छे? भाई! अहीं तो जेने ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि थई छे एवा ज्ञानीनी वात छे. जे काळे जे रागनी, शरीरनी, भाषानी, संयोगनी जे रीते अवस्था थाय तेने ते रीते ज्ञानी जाणे छतां जाणनार ज्ञायक कर्ता अने रागादि एनुं कर्म एम नथी. रागमां पुद्गल अंतर्व्यापक थईने रागने करे छे. राग छे तो जीवनी पर्याय पण अहीं तो जेने द्रव्यबुद्धि थई छे, जे ज्ञाताभावे परिणम्यो छे एवा ज्ञानीनी वात छे. कहे छे के पर्यायमां जे राग छे तेनी आदि-मध्य-अंतमां पुद्गल छे, आत्मा नथी. ज्ञानीने जे स्वभावद्रष्टि थई छे ते द्रष्टिनी आदि-मध्य-अंतमां आत्मा छे. सम्यग्दर्शननी पर्यायनी आदि-मध्य-अंतमां ज्ञायकस्वभावी भगवान आत्मा छे अने रागनी आदि-मध्य-अंतमां पुद्गल छे. बे वस्तु (ज्ञान अने राग) जुदी पाडी ने. कहे छे के राग जे पुद्गलपरिणाम छे तेना आदि-मध्य-अंतमां पुद्गल छे अने तेनो कर्ता पुद्गल छे.

ज्ञानीनी कर्ताकर्मनी स्थिति शुं छे अने जड पुद्गलनी दशा शुं छे एनी आ वात चाले छे. व्यवहाररत्नत्रयनो जे शुभराग छे एमां पुद्गलद्रव्य अंतर्व्यापक थईने ते कर्म करे छे; जीवनुं ते व्याप्य एटले कर्म नथी. प्राप्य एटले जे थाय तेने पहोंची वळवुं, विकार्य एटले बदलवुं, निर्वर्त्य एटले उपजवुं-एम त्रणे एक ज कार्य छे. शुभराग जे थयो तेने पुद्गल पहोंची वळ्‌युं छे ते तेनुं प्राप्य कर्म, पूर्वनो राग बदलीने शुभराग थयो ते पुद्गलनुं विकार्य कर्म अने शुभराग जे नवो उपज्यो ते पुद्गलनुं निर्वर्त्य कर्म छे. विकारना परिणाम-शुभरागादिना परिणामना आदि-मध्य- अंतमां पुद्गल व्यापे छे. आदिमां आत्मा छे अने पछी राग थाय छे एम नथी. आदि-मध्य- अंतमां पुद्गल व्यापीने रागने ग्रहे छे, भगवान आत्मा नहि. ते विकार्य कार्य पुद्गलनुं छे अने पुद्गल रागपणे उपजे छे तेथी पुद्गलनुं ते निर्वर्त्य कर्म छे. स्वभाव उपर जेनी द्रष्टि पडी छे तेनुं राग ते प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य कर्म नथी. बहु सूक्ष्म वात.

प्रश्नः– जो पुद्गल राग करतो होय तो जीव तेने शी रीते अटकावे?

उत्तरः– अटकाववानो सवाल छे कयां? ज्ञानी तो जे राग थाय तेने जाणे छे एम कह्युं छे. जे राग थाय ते पुद्गलनुं प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य कर्म छे अने ज्ञानी एने ज्ञानमां जाणे छे बस एटली वात छे. शुभराग ते मारुं कर्तव्य नहि, पण एने जाणनारी जे ज्ञाननी पर्याय छे ते मारुं कार्य छे एम मानतो ज्ञानी साक्षीभावे परिणमे छे.


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पोताना त्रिकाळी शुद्ध ज्ञाता-द्रष्टा स्वभावनो अनुभव थयो छे तेथी ज्ञानी पोताने जे ज्ञाता- द्रष्टाना परिणाम थया छे तेमां रागने जाणे छे बस; अने ते जाणवाना परिणाम एनुं कार्य छे, पण राग एनुं कार्य नथी. आवी सूक्ष्म वात छे.

हवे कहे छे-‘आम पुद्गलद्रव्य वडे करवामां आवता पुद्गलपरिणामने ज्ञानी जाणतो होवा छतां, जेम माटी पोते घडामां अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने, घडाने ग्रहे छे, घडारूपे परिणमे छे अने घडारूपे उपजे छे तेम, ज्ञानी पोते बाह्यस्थित एवा परद्रव्यना परिणाममां अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने, तेने ग्रहतो नथी, ते- रूपे परिणमतो नथी, अने ते-रूपे ऊपजतो नथी.’

राग के जे पुद्गलना परिणामस्वरूप कर्म छे तेनी आदि-मध्य-अंतमां पुद्गल व्याप्युं छे. पुद्गलथी जे उत्पन्न थयुं, तेनाथी जे बदल्युं अने तेनाथी ऊपज्युं एवा पुद्गलपरिणामस्वरूप कर्मने ज्ञानी जाणतो होवा छतां तेने ग्रहतो नथी, ते-रूपे परिणमतो नथी अने ते-रूपे ऊपजतो नथी. स्वस्वरूपने जाणतां, जे प्रकारनो राग थाय तेने जाणवाना ज परिणाम ज्ञानीने थाय छे.

जेम माटी पोते घडामां अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने घडारूपे थाय छे; अर्थात् घडारूप प्राप्यने माटी ग्रहे छे, घडारूपे माटी परिणमे छे, अने माटी घडारूपे ऊपजे छे तेम ज्ञानी पोते बाह्य स्थित पुण्यना भाव, शुभभाव जे परद्रव्यना परिणाम छे तेने जाणतो होवा छतां तेने ग्रहतो नथी, ते-रूपे परिणमतो नथी, ते-रूपे ऊपजतो नथी. ज्ञानस्वभावी वस्तु आत्मा छे. ते रागादि परद्रव्यने जाणवानुं काम करे, पण तेने ग्रहतो नथी जुओ, व्यवहाररत्नत्रयनो जे शुभराग छे तेने अहीं बाह्यस्थित कह्यो छे. तेने जे पोतानो माने छे ते बहिरात्मा छे. अहीं कहे छे-जेम माटी घडामां व्यापीने ऊपजे छे तेम धर्मी रागमां व्यापीने ऊपजतो नथी, रागने ग्रहतो नथी अने रागने नीपजावतो नथी.

राग छे ते परद्रव्यना एटले पुद्गलना परिणाम छे. देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो विकल्प, शास्त्र भणवाना वलणनो विकल्प, पंचमहाव्रतना पालननो विकल्प-ए शुभराग छे. तेने पुद्गल ग्रहे छे, पुद्गल ऊपजावे छे. चैतन्यस्वरूपी भगवान आत्मा ए रागने जाणे पण तेने ग्रहतो नथी, ऊपजावतो नथी. तेनो ते कर्ता नथी. जुओ, धर्मी जीवने धर्म केम थाय एनी आ वात छे. भगवान आत्मा पूर्णानंदस्वरूप छे एवी द्रष्टि थईने ज्यां प्रत्यक्ष अनुभव थयो त्यां धर्मी, राग जे पुद्गलना परिणाम छे तेमां व्यापीने तेने ग्रहतो नथी, ते-रूपे परिणमतो नथी, ते-रूपे ऊपजतो नथी.

जुओ! जे वखते जे राग थवानो छे ते थयो छे ते प्राप्य, वळी ते ज राग पलटीने थयो छे माटे ते विकार्य अने ते ज राग नवो ऊपज्यो माटे तेने निर्वर्त्य


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कहे छे. पर्याय तो एक ज छे, तेनुं कथन त्रण प्रकारे छे. ते रागनी आदि-मध्य-अंतमां पुद्गल व्यापीने ते रागने करे छे; पण तेने पोतामां रहीने जाणतो धर्मी तेमां (रागमां) व्यापीने तेने करे छे एम नथी. ‘निश्चय-व्यवहारना लोको वांधा उठावे छे के-अभ्यंतर अने बाह्य सामग्री-बंने होय तो कार्य थाय. परंतु एम नथी, भाई! रागनी सामग्री अने आनंदनी निर्मळ सामग्री-ए बंने थईने शुं आत्मानुं-धर्मनुं कार्य करे? एम कदीय नथी. आत्मानुं कार्य जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्ररूप शुद्ध रत्नत्रयना परिणाम तेमां एकलो आत्मा पोते अंतर्व्यापक थईने, तेना आदि- मध्य-अंतमां आत्मा पोते व्यापीने, ते परिणामने करे छे. माटी जेम घडाने ग्रहे छे तेम धर्मी रागने ग्रहतो नथी, रागने बदलावतो नथी, रागपणे ऊपजतो नथी. ते ते रागने ते ते काळे धर्मी पोतामां रहीने जाणे छे बस. आवो वीतरागनो मार्ग छे. आत्मा वीतरागस्वरूप ज छे अने तेनो आवो मार्ग छे. वीतरागी परिणाममां, तेना आदि-मध्य-अंतमां आत्मा पोते व्यापीने ते वीतरागी दशाने ग्रहे छे, पोते वीतरागदशारूपे परिणमे छे अने पोते ते-रूपे ऊपजे छे. परंतु रागने आत्मा ग्रहतो नथी, रागरूपे ते परिणमतो नथी, रागरूपे पोते ऊपजतो नथी. व्यवहाररत्नत्रयना परिणामने धर्मी पकडतो नथी. तेनुं जे ज्ञान थाय तेमां ज्ञानी व्यापे छे. ज्ञानीनुं प्राप्य, विकार्य, निर्वर्त्य कर्म ज्ञान छे, राग नहि. प्रश्नः– आ तो आपे निश्चयथी कह्युं, पण व्यवहार बतावो ने? उत्तरः– भाई! व्यवहारथी कांई आनाथी विरुद्ध वात छे एम नथी. राग जे व्यवहार छे ते निमित्त छे एम एनुं ज्ञान कराव्युं छे. प्रमाणना विषयमां व्यवहारनुं पण ज्ञान कराव्युं छे. त्यां निश्चयनी वात राखीने व्यवहारनुं ज्ञान कराव्युं छे. आत्मा रागना परिणामने करतो नथी, तेमां ते व्यापतो नथी, तेने ऊपजावतो नथी. ते रागने जाणवाना पोताना ज्ञानपरिणामने करतो, ग्रहतो, ऊपजावतो तेमां (ज्ञानमां) व्यापे छे. भाई! प्रमाणमां आ निश्चयनी वात राखीने पछी जे राग छे तेनाथी कार्य थाय एम आरोप करीने उपचारथी कथन कर्युं छे. आ तो वीतराग सर्वज्ञथी सिद्ध थयेलो मार्ग छे. भगवान आत्मा पोते ज सर्वज्ञस्वरूप छे. अहाहा...! सर्वज्ञ एटले ज्ञ-स्वभाव, ज्ञ-शक्ति, ‘ज्ञ’ जेनो भाव, ‘ज्ञ’ जेनुं स्वरूप छे एवो भगवान आत्मा जेनी द्रष्टिमां आव्यो ते धर्मी, ज्ञ-स्वभावमांथी उत्पन्न थता, ते काळे रागने जाणवाना ज्ञानपरिणाममां पोते आदि-मध्य-अंतमां व्यापे छे. एटले के ए राग छे माटे अहीं रागने जाणवाना परिणाम थया छे एम नथी. रागने जाणवाना परिणामनी आदिमां पोते ज छे. एनी आदिमां राग हतो अने तेथी जाणवाना परिणाम थया एम नथी. रागने जाणे एवा ज्ञानना परिणामनी आदि-मध्य-अंतमां प्रभु आत्मा ज छे. ‘माटे, जो के ज्ञानी पुद्गलकर्मने जाणे छे तोपण, प्राप्य, विकार्य अने


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निर्वर्त्य एवुं जे व्याप्यलक्षणवाळुं परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म, तेने नहि करता एवा ते ज्ञानीने पुद्गल साथे कर्ताकर्मभाव नथी.’

ज्ञान रागने जाणे माटे ज्ञान कर्ता अने राग एनुं कर्म एम नथी. तथा राग कर्ता अने जाणवाना ज्ञानपरिणाम एनुं कर्म एम पण नथी. भाई! वस्तुस्थितिने प्रसिद्ध करनारी आ ७प थी ७९ सुधीनी गाथाओ अलौकिक छे. अहाहा...! द्रष्टि त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य उपर पडतां, राग अने पर्यायनी द्रष्टि छूटतां, भगवान आत्मा पोते प्रसिद्ध थाय छे के-हुं तो जाणनार-देखनार आत्मा छुं. रागनो हुं कर्ता अने राग मारुं कर्म-एवा कर्ताकर्मभावना स्वरूपे हुं छुं ज नहि. अहो! परम अद्भुत वात संतोए करी छे!

आवुं सांभळवा मळवुं मुश्केल होय एटले व्यवहारना रसिया लोकोने आवुं वीतरागी तत्त्व न समजाय. परंतु भाई! व्यवहार एटले निमित्त, व्यवहार एटले राग, व्यवहार एटले दुःख, व्यवहार एटले आकुळता, व्यवहार एटले अस्थिरता-आम व्यवहारनां अनेक नाम छे. अस्थिरताना परिणामने (रागने) शाश्वत् स्थिर एवो भगवान आत्मा जाणवानुं काम करे. ते जाणवाना-ज्ञानना परिणामनी आदि-मध्य-अंतमां आत्मा पोते व्यापे छे. एटले राग छे माटे ज्ञाननुं कार्य थयुं एम नथी. तथा ज्ञान रागमां प्रसरीने रागने जाणे छे एम पण नथी. अहा! गजब वात छे!

व्यवहारना शुभरागना जे परिणाम छे ते आकुळतामय छे, दुःखरूप छे. व्यवहाररत्नत्रयनो जे राग छे ते दुःख छे. छहढालामां आवे छे के-

‘राग आग दहै सदा तातै समामृत सेईए’

जे राग छे ते दुःख छे. तेने! निश्चयनुं साधन कहेवुं ए तो उपचारमात्र कथन छे, वस्तुस्वरूप नथी. आवुं सांभळीने केटलाक पोकारी ऊठे छे के-‘एकांत छे, एकांत छे;’ पण भाई! भगवान आत्मा पोताना स्वभावमां जाय त्यारे सम्यक् एकांत थाय छे. त्यारे रागनुं परज्ञेय तरीके ज्ञान थाय तेने अनेकांत कहे छे. मार्ग तो आ छे, भाई!

राग अने चैतन्यस्वभाव बे भिन्न चीज छे एवा भेदज्ञानना अभावे अरे भाई! तुं चोरासीना अवतारमां अनंतकाळ रखडयो. हवे तो भेदज्ञान कर. अहीं कहे छे के जे व्यवहाररत्नत्रयनो राग छे ते क्षणिक छे, चैतन्यस्वभावथी विरुद्ध भाव छे, विभाव छे. ए विभावनी आदि-मध्य-अंतमां पुद्गल व्यापे छे, आत्मा नहि. जुओ, शुभराग छे ते चैतन्यनी-जीवनी पर्याय छे, ते कांई परनी नथी. पण ए पर्याय त्रिकाळी जे चैतन्यस्वभाव छे तेनी जातनी नथी, माटे स्वभावनी द्रष्टिमां एने अचेतन गणीने पुद्गलपरिणाम कही छे.

प्रश्नः– आत्मा निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्गने साधे छे एम शास्त्रमां आवे छे ने?

उत्तरः– हा, आवे छे. पण एनो अर्थ शुं? निश्चय ए ज एनुं कार्य छे, अने


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एमां ते व्यापे छे; व्यवहारमां ते व्यापतो नथी. परंतु व्यवहारनो राग ए जातनो त्यां (सहचर) होय छे. वळी निश्चयनो आरोप व्यवहार उपर करीने व्यवहार साधक कहेवामां आव्यो छे. खरेखर तो रागथी भिन्न पडतां प्रज्ञानो अनुभव जे थयो ते साधक छे. स्वरूपनो साधक तो अनुभव छे. प्रज्ञाछीणी ते साधन छे एम मोक्ष अधिकारमां कह्युं छे. जे अनुभवनो विषय त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य छे ते अनुभव-प्रज्ञाछीणी स्वरूपनो साधक छे. त्यां शुभरागने सहचर देखीने आरोप आपीने उपचारथी साधक कह्यो छे. तेने जो यथार्थ मानी ले तो द्रष्टि विपरीत छे.

केटलाक पंचमहाव्रतने साधन माने छे, एनाथी निश्चय प्रगटे छे एम माने छे, ते मोक्षनुं परंपरा साधन छे एम माने छे. पण कोने? अने कयां? जेने एकला व्यवहारनी क्रिया छे एने तो मिथ्यात्वभाव छे, मूढतानो भाव छे. मिथ्यात्वमां पडयो छे एने व्यवहार केवो? भाई! रागथी भिन्न पडीने, आत्मा निर्मळानंदस्वरूप प्रभु भगवान छे एवो जेणे अनुभव कर्यो छे तेने निश्चय थयो छे अने तेना सहचर रागने आरोप करीने उपचारथी परंपरा साधन कह्युं छे. साधन नथी एने साधन कहेवुं एनुं नाम व्यवहार छे. भाई! प्रज्ञाछीणी कहो के स्वानुभव कहो, ते एक ज साधन छे. आ तो अंतरनी वातो छे. पंडिताईना अभिमानथी दग्ध कोई सत्यने वींखी नाखे तोपण सत्य तो सत्य ज रहेशे.

वास्तविक साधन निश्चय, प्रगटया विना व्यवहारने साधननो आरोप पण अपातो नथी. व्यवहार साधन छे नहि, तथा निश्चय विना तेने साधननो आरोप पण न अपाय.

अरे! भगवानना विरह पडया! सर्वज्ञ वीतराग हाजर नथी. एटले न्यायमार्गने लोकोए मरडी-मचडी नाख्यो. पण एम न कर, भाई! तने दुःख थशे. सम्यग्दर्शन विना, स्वानुभव विना रागने साधन मानतां तने दुःख थशे, तारुं अहित थशे. भेंसना आंचळमां दूध होय छे तेने जेम बळुकी बाई दोहीने बहार काढे छे तेम, गाथामां कुंदकुंदाचार्यदेवे जे भावो भर्या छे तेने अमृतचंद्रस्वामीए टीका द्वारा दोहीने बहार काढया छे. ए भावोने अहीं प्रवचनमां कहेवामां आवे छे. भाई! राग ते साधन नथी तो शरीर धर्मनुं साधन तो कयांथी थाय? न ज थाय, न ज होय.

प्रश्नः– ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ एम आवे छे ने?

उत्तरः– ए तो व्यवहारनां कथन छे. तेने यथार्थ मानी ले ते तो उपदेशने पण लायक नथी. व्यवहारथी निश्चय पमाय एनो अर्थ शुं? भाई! व्यवहार छे ते निश्चयने बतावे छे. पण व्यवहारथी निश्चय प्राप्त थाय छे एम एनो अर्थ नथी. व्यवहारना लक्षे निश्चयमां जवाय एम छे ज नहि. व्यवहार निश्चयने बतावे छे एम आठमी गाथामां आव्युं छे. भेद अभेदने बतावे छे, पण भेदना लक्षे अभेदमां न जवाय.


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व्यवहार छे ते निश्चयने बतावे छे एटले के व्यवहारनो उपदेश करनार निश्चयमां तेने लई जवा मागे छे; अने श्रोता पण भेद उपर लक्ष न करतां अंदर अभेद, अखंड छे तेनुं लक्ष करे छे-त्यारे तेने व्यवहार ते साधन छे एम उपचारथी आरोप करीने कहेवामां आवे छे.

अहीं कहे छे-ज्ञानी धर्मी-जीव पुद्गलकर्मने एटले रागना भावने जाणवानुं कार्य स्वतंत्रपणे करे छे. आत्मा तेने जाणवानुं कार्य करे छे तोपण प्राप्य, विकार्य, निर्वर्त्य एवुं जे व्याप्य लक्षणवाळुं परद्रव्यस्वरूप कर्म तेने नहि करता एवा ज्ञानीने पुद्गल साथे कर्ताकर्मभाव नथी. रागने जाणवा छतां राग ते कर्म अने आत्मा रागनो कर्ता अथवा राग ते कर्ता अने जाणवाना परिणाम थया ते कर्म एवो संबंध ज्ञानीने नथी. भाई! आ परम सत्य छे, अने आ सिवाय बीजी वातो सो टका असत्य छे. आमां कोई छूटछाटने अवकाश नथी. वस्तुनी स्थिति ज आवी छे. ज्ञानी रागने जाणे छतां राग साथे तेने कर्ताकर्मभाव नथी.

* गाथा ७६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जीव पुद्गलकर्मने जाणे छे तोपण तेने पुद्गल साथे कर्ताकर्मपणुं नथी.

सामान्यपणे कर्तानुं कर्म त्रण प्रकारनुं कहेवामां आवे छे-निर्वर्त्य, विकार्य अने प्राप्य. कर्ता वडे, जे प्रथम न होय एवुं नवीन कांई उत्पन्न करवामां आवे ते कर्तानुं निर्वर्त्य कर्म छे. कर्ता वडे, पदार्थमां विकार-फेरफार करीने जे कांई करवामां आवे ते कर्तानुं विकार्य कर्म छे. कर्ता, जे नवुं उत्पन्न करतो नथी तेम ज विकार करीने पण करतो नथी, मात्र जेने प्राप्त करे छे ते कर्तानुं प्राप्य कर्म छे.’

अहीं प्रथम निर्वर्त्य कर्म कह्युं छे. टीकामां पहेलां प्राप्य कर्म लीधुं छे. आ कथननी शैली छे. जे राग थाय ते पुद्गलनुं प्राप्य कर्म छे अने ते समये जाणवाना परिणाम जे थाय ते आत्मानुं प्राप्य कर्म छे. पूर्वनी दशा पलटीने ते समये जे राग थयो ते पुद्गलनुं विकार्य कर्म छे अने आत्माना जाणवाना परिणाम पूर्वे जे बीजा हता ते पलटीने ते रागने जाणवाना ज्ञानना परिणाम थया ते आत्मानुं विकार्य कर्म छे. जे राग नवीन उत्पन्न थयो ते पुद्गलनुं निर्वर्त्य कर्म छे अने ते रागने जाणवाना जे नवीन परिणाम थया ते आत्मानुं निर्वर्त्य कर्म छे.

रागना भावने अहीं पुद्गलनुं प्राप्य कर्म कह्युं एटले कोई एम अर्थ करे के-जुओ, निमित्तथी कार्य थयुं ने? तो ते बराबर नथी. अरे भाई! अहीं कई अपेक्षाए वात करी छे? पुद्गल छे ते विकारनुं निमित्त छे. ए विकार अने निमित्त बन्नेय पर चीज छे. ए माटे विकारने परमां नाख्यो छे. भाई! जे विभाव उपजे छे ते शुं स्वभावमां छे? ना; तेथी विभावने परमां नाखी, निमित्तनी मुख्यताथी पुद्गलनुं कर्म कह्युं


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छे. अने त्रिकाळी ध्रुव स्वभावभाव पोतानो छे एम कह्युं छे. आम बन्नेने (स्वभाव- विभावने) जुदा पाडया छे. हवे कहे छे-‘जीव पुद्गलकर्मने नवीन ऊपजावी शकतो नथी कारण के चेतन जडने केम उपजावी शके? अहीं भाषामां पुद्गलकर्म कह्युं छे, पण एमां राग पण भेगो आवी जाय छे. जीव पुद्गलना कार्यने एटले रागने नवीन ऊपजावी शकतो नथी. केम? तो कहे छे के चेतन जडने केम ऊपजावी शके? अहाहा...! शुद्ध चैतन्यनो पिंड प्रभु आत्मा, राग जे अचेतन छे, पुद्गलना परिणाम छे तेने केम ऊपजावी शके? (न ज ऊपजावी शके) अरे! लोकोने अभ्यास नहि एटले झीणुं लागे छे. केटलाक तो व्यवहारनी रुचिमां मग्न छे. पांच महाव्रत, समिति, गुप्ति पाळे, घरबार छोडयां होय, बायडी-छोकरां छोडयां होय एटले जाणे अमे केटलो त्याग कर्यो एम माने; पण भाई! खरेखर तें शुं छोडयुं छे? रागनी एकता छोडी नहि तो तें शुं छोडयुं? परने छोडवुं ए तो असद्भूत व्यवहारनयनुं कथन छे. ए पण जेने रागनी एकता छूटी छे तेणे परने छोडयां-एम असद्भूत व्यवहारनयथी कहेवाय छे. खरेखर तो आत्मामां परनां ग्रहण-त्याग छे ज नहि. ‘त्याग-उपादान शून्यत्व’ नामनी आत्मामां एक शक्ति एवी छे जेना कारणे परना ग्रहण-त्याग आत्मा त्रणे काळ शून्य छे. रजकणने ग्रहवुं के छोडवुं ए आत्मामां छे ज नहि. रागनी एकता तूटे, स्वरूपना लक्षे रागथी भिन्न पडे त्यारे ‘राग छोडयो’-एम कहेवुं ए पण व्यवहारनयनुं कथन छे. अने रागना निमित्तो छोडया एम कहेवुं ए असद्भूत व्यवहारनयनुं कथन छे. गाथा ३४नी टीकामां आवे छे के-आत्माने परभावना त्यागनुं कर्तापणुं नाममात्र छे. परमार्थे रागना त्यागनो कर्ता आत्मा छे ज नहि. राग एनामां कयां हतो के ते रागने छोडे? राग तो पुद्गलना परिणाम छे. ज्ञाताद्रष्टाना परिणाम प्रगट थया त्यारे राग उत्पन्न थयो नहि एटले रागने छोडयो एम व्यवहारनयथी कथन करवामां आवे छे. आम छे तो पछी परने ग्रहवुं ने छोडवुं ए कयां रह्युं? आटलां द्रव्य खपे, आटलां न खपे; दूध, दहीं इत्यादि रस न खपे ए बधुं परनुं ग्रहण- त्याग आत्मामां कयां छे? परना लक्षे राग थतो हतो ते स्वना लक्षे छूटयो त्यारे आटलो त्याग कर्यो एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे. भाई! कथनमां तो बीजुं शुं आवे? कथनमां तो एम आवे के-व्यवहारव्रत ग्रहण करवां, व्रत पाळवां, अतिचार टाळवा-इत्यादि. पण ए बधुं व्यवहारनयनुं कथन छे एम समजवुं. जीव पुद्गलकर्मने नवीन उपजावी शकतो नथी. आत्मा ज्ञानस्वभावी प्रभु छे. ए रागने उपजावी शकतो नथी, केमके चेतन जडने केम उपजावी शके? छठ्ठी गाथामां आवे छे के आत्मा प्रमत्त पण नथी, अप्रमत्त पण नथी केमके ते शुभाशुभभावना स्वभावे थतो नथी. शुभाशुभ भाव जड छे, अचेतन छे अने भगवान आत्मा शुद्ध


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चैतन्यमूर्ति छे. जो आत्मा शुभाशुभभावरूपे थाय तो ते जड थई जाय. पण ते कदीय ज्ञायकभावथी जडभावरूप थतो नथी. व्यवहाररत्नत्रयनो भाव अचेतन छे. तेने आत्मा उपजावी शकतो नथी. आवी वात छे.

व्यवहाररत्नत्रयनो भाव जे अचेतन छे ते चैतन्यभावनुं साधन केम थाय? न ज थाय. जे विरुद्ध भाव छे ते साधन न थाय. निश्चयरत्नत्रयनी साथे ए जातना विकल्पनी मर्यादा वर्ते छे. माटे निमित्त अने सहचर देखीने तेने आरोप करीने साधन कह्यो छे. छे तो बंधनुं कारण, छे तो दुःखरूप भाव, पण सहचर देखीने आरोपथी व्यवहाररत्नत्रय नाम आप्युं छे. चार मणनी घउंनी गुणी होय त्यां बारदान भेगुं तोळीने चार मण अढीशेर कहेवाय छे, पण बारदान ए कांई माल नथी. तेम निश्चयरत्नत्रयनी साथे राग होय तेने व्यवहारथी रत्नत्रय कह्यो, पण ए कांई साचां रत्नत्रय नथी. भाई! जेम छे तेम यथार्थ निर्णय करवो पडशे. अहीं कहे छे-‘माटे पुद्गलकर्म जीवनुं निर्वर्त्य कर्म नथी,’ अर्थात् राग छे ते जीवे ऊपजावेलुं कार्य नथी.

हवे कहे छे-‘जीव पुद्गलमां विकार करीने तेने पुद्गलकर्मरूपे परिणमावी शकतो नथी कारण के चेतन जडने केम परिणमावी शके? माटे पुद्गलकर्म जीवनुं विकार्य कर्म पण नथी.’ जे शुभ परिणाम थया ए पुद्गलनुं विकार्य छे, ते जीवनुं विकार्य कर्म नथी.

‘परमार्थे जीव पुद्गलने ग्रहण करी शकतो नथी कारण के अमूर्तिक पदार्थ मूर्तिकने कई रीते ग्रहण करी शके? माटे पुद्गलकर्म जीवनुं प्राप्य कर्म पण नथी.’ पुद्गलनी वात करी छे तेमां राग पण आवी जाय छे. पहेलुं निर्वर्त्य लीधुं, पछी विकार्य लीधुं अने पछी प्राप्य कर्म कह्युं.

‘आ रीते पुद्गलकर्म जीवनुं कर्म नथी अने जीव तेनो कर्ता नथी. जीवनो स्वभाव ज्ञाता होवाथी ज्ञानरूपे परिणमतो पोते पुद्गलकर्मने जाणे छे.’ ज्ञाता विकास पामे तो ज्ञानना परिणामे-भावे विकास पामे. परंतु ज्ञानस्वरूपी आत्मा रागरूपे केम थाय? पोते ज्ञाता होवाथी ज्ञानरूपे परिणमतो पुद्गलकर्मने जाणे छे, जे रागनी क्रिया थाय तेने पोतामां रहीने पोताथी जाणे छे. एने जाणे छे ए व्यवहार थयो, निश्चयथी तो पोताने अनुभवे छे- जाणे छे.

भाई! आ भव अनंत भवना अभाव माटे छे. जेने जन्म-मरणथी छूटवुं छे तेणे पोताना हितनी आ वात समजवी पडशे.

हवे कहे छे-‘माटे पुद्गलकर्मने जाणता एवा जीवनो परनी साथे कर्ताकर्मभाव केम होई शके? न ज होई शके.’ ल्यो ७६ पूरी थई.

[प्रवचन नं. १३२, १३३ (शेष) * दिनांक २१-७-७६ अने २२-७-७६]

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गाथा–७७

स्वपरिणामं जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तृकर्मभावः किं भवति किं न भवतीति चेत्–

ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए।
णाणी जाणंतो वि हु सगपरिणामं अणेयविहं।। ७७।।

नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये।
ज्ञानी जानन्नपि
खलु स्वकपरिणाममनेकविधम्।। ७७।।

हवे पूछे छे के पोताना परिणामने जाणता एवा जीवने पुद्गल साथे कर्ताकर्मभाव (कर्ताकर्मपणुं) छे के नथी? तेनो उत्तर कहे छेः-

विधविध निज परिणामने ज्ञानी जरूर जाणे भले,
परद्रव्यपर्याये न प्रणमे, नव ग्रहे, नव ऊपजे. ७७.

गाथार्थः– [ज्ञानी] ज्ञानी [अनेकविधम्] अनेक प्रकारना [स्वकपरिणामम्] पोताना परिणामने [जानन् अपि] जाणतो होवा छतां [खलु] निश्चयथी [परद्रव्यपर्याये] परद्रव्यना पर्यायमां [न अपि परिणमति] परिणमतो नथी, [न गृह्णाति] तेने ग्रहण करतो नथी अने [न उत्पद्यते] ते-रूपे ऊपजतो नथी.

टीकाः– प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य एवुं, व्याप्यलक्षणवाळुं आत्माना परिणामस्वरूप जे कर्म (कर्तानुं कार्य), तेनामां आत्मा पोते अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने, तेने ग्रहतो, ते-रूपे परिणमतो अने ते-रूपे ऊपजतो थको, ते आत्मपरिणामने करे छे; आम आत्मा वडे करवामां आवतुं जे आत्मपरिणाम तेने ज्ञानी जाणतो होवा छतां, जेम माटी पोते घडामां अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने, घडाने ग्रहे छे, घडारूपे परिणमे छे अने घडारूपे ऊपजे छे तेम, ज्ञानी पोते बाह्यस्थित एवा परद्रव्यना परिणाममां अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने, तेने ग्रहतो नथी, ते-रूपे परिणमतो नथी अने ते-रूपे ऊपजतो नथी; माटे, जोके ज्ञानी पोताना परिणामने जाणे छे तोपण, प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य एवुं जे व्याप्यलक्षणवाळुं परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म, तेने नहि करता एवा ते ज्ञानीने पुद्गल साथे कर्ताकर्मभाव नथी.

भावार्थः– ७६ मी गाथामां कह्युं हतुं ते अनुसार अहीं पण जाणवुं. त्यां ‘पुद्गलकर्मने जाणतो ज्ञानी’ एम हतुं तेने बदले अहीं ‘पोताना परिणामने जाणतो ज्ञानी’ एम कह्युं छे-एटलो फेर छे.