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हवे पूछे छे के पोताना परिणामने जाणता एवा जीवने पुद्गल साथे कर्ताकर्मभाव छे के नथी? गाथा ७६मां एम हतुं के रागने जाणता एवा जीवने राग साथे कर्ताकर्मभाव नथी. अहीं एम प्रश्न छे के पोताना परिणामने जाणता एवा जीवने पुद्गल साथे कर्ताकर्मभाव छे के नथी? केटली स्पष्टता करी छे! अहो! कोई धन्य घडीए समयसार रचाई गयुं छे. जगतनां सद्भाग्य के आवी चीज रही गई. अहा! एणे तो केवळीना विरह भूलाव्या छे. अहीं पूछे छे के पोताना परिणामने जाणवानुं कर्म करे छे एवा जीवने राग साथे, पुद्गल साथे कर्ताकर्मभाव छे के नहि? पोताना परिणामने जाणवानुं कर्म तो करे छे तो भेगुं परनुं कार्य पण करे छे के नहि?
लोकोमां कहेवाय छे ने के एक गायनो गोवाळ ते पांच गायोनो गोवाळ. एक गायने चारवा लई जाय तो भेगी पांचने चारवा लई जाय एमां शुं? एम आत्मा पोताना परिणामने जाणवानुं कर्म करे छे तो भेगुं परनुं रागरूपी कर्म करे छे के नहि? तेने राग साथे कर्ताकर्म संबंध छे के नहि? शिष्यना आ प्रश्ननो उत्तर कहे छेः-
जुओ, वस्तुनी स्थितिनुं आ वर्णन छे. धर्मीने शुं होय छे अने अज्ञानीने शुं होय छे एनी आ वात छे. धर्मीने आत्मानी-शुद्ध चैतन्यनी द्रष्टि होय छे. तेना ज्ञाननुं स्वपरप्रकाशक सामर्थ्य होवाथी ज्ञानभावे परिणमतो ज्ञानी स्व-परने जेम छे तेम जाणे छे एनी अहीं वात छे. कहे छे-
‘प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य एवुं, व्याप्यलक्षणवाळुं आत्माना परिणामस्वरूप जे कर्म, तेनामां आत्मा पोते अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने, तेने ग्रहतो, ते-रूपे परिणमतो अने ते-रूपे ऊपजतो थको, ते आत्मपरिणामने करे छे.’
ज्ञानना जे परिणाम (ज्ञानीने) थया ते, ते काळे प्राप्त थाय छे. ध्रुव छे एटले के ते काळे ते ज थवाना छे एम निश्चित छे. आ प्राप्य कर्मनी व्याख्या छे. आत्माना जाणवाना जे परिणाम थया ते ते काळे ते ज थवाना हता ते थया तेने प्राप्य एटले ध्रुव कहेवाय छे. आत्मा तेने पहोंची वळे छे. जाणवाना, देखवाना, श्रद्धवाना, जे परिणाम छे ते आत्मानुं प्राप्य कर्म छे. एटले के ते काळे ते (परिणाम) ध्रुव छे. ते काळे ते ज थवाना हता जे थया छे अने तेने आत्मा मेळवे छे, पहोंचे छे, प्राप्त करे छे. वळी ए ज परिणामने विकार्य कर्म कहे छे. प्रथम जे हता ते पलटीने आ थया माटे तेने विकार्य कर्म कहे छे. अने ते समये नवा ऊपज्या तेथी तेने निर्वर्त्य कर्म कहे छे.
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एना ए ज परिणामने निर्वर्त्य कर्म कहे छे. आवुं जे व्याप्यलक्षणवाळुं (ज्ञान-श्रद्धानरूप) कर्म तेमां आत्मा पोते अंतर्व्यापक थईने ते परिणामने करे छे.
द्रव्यनी निर्मळ पर्याय ते एनुं व्याप्यलक्षणवाळुं कार्य छे. ते वखते ए ज कार्य थवानुं छे एवुं जे आत्माना परिणामस्वरूप कर्म एटले के ज्ञाता-द्रष्टाना परिणाम स्वरूप- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना परिणामस्वरूप कर्म, तेमां आत्मा पोते अंतर्व्यापक थईने, आदि- मध्य-अंतमां व्यापे छे. जुओ, द्रव्यद्रष्टिवंतने ज्ञाता-द्रष्टाना जे निर्मळ परिणाम थया तेनी आदिमां आत्मा छे, मध्यमां आत्मा छे अने अंतमां पण आत्मा छे. ते रागने जाणे छे माटे तेनी आदिमां राग छे एम नथी. राग छे माटे जाणवाना परिणाम थया एम रागनी अपेक्षा नथी. पोताना आत्मपरिणामने ग्रहतां-जाणतां आत्माने राग साथे कर्ताकर्मपणुं छे एम नथी. पोते स्वयं अंतर्व्यापक थईने पोताना जाणवाना परिणामने आत्मा करे छे. संस्कृत पाठमां ‘स्वयं’ शब्द पडयो छे. आत्मा स्वयं पोताना आत्म-परिणामने करे छे.
प्रश्नः– आत्मा कांई करतो नथी ने?
उत्तरः– हा, पण ए वात अत्यारे अहीं नथी लेवी. अहीं तो अत्यारे परथी अने रागथी भिन्न पाडवुं छे अने स्वथी (निर्मळ पर्यायथी) अभिन्न सिद्ध करवुं छे. द्रव्य अने तेनी निर्मळ पर्यायने अहीं अभेद बताववी छे. कह्युं ने के आत्मा स्वयं अंतर्व्यापक थईने पोताना आत्मपरिणामने करे छे. अहा! जे निर्मळ पर्याय थई ते आत्मानुं कर्तव्य छे. पोताना ज्ञाता- द्रष्टाना जे निर्मळ परिणाम थया तेनी आदि-मध्य-अंतमां आत्मा पोते व्यापे छे. ते निर्मळ परिणाम आत्मा स्वयं करे छे एम अहीं सिद्ध करवुं छे. माटे स्वभावना आश्रये जे वीतरागी पर्याय थई ते परिणामने ग्रहतो एटले के प्राप्त करतो अने ते-रूपे परिणमतो अने ऊपजतो ते आत्मपरिणामने आत्मा करे छे.
आ मूळ वात छे अने छे घणी ऊंची. कहे छे के जेनुं लक्ष त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य उपर छे एने जे परिणाम थया ते परिणामनी आदिमां भगवान आत्मा छे. ते परिणामने आत्मा ग्रहे छे. धर्मनी जेने दशा थई छे एने शुभभाव आवे, पण तेने जाणवानुं काम आत्मा करे छे. ते पण शुभभाव छे माटे जाणे छे एम नथी. स्वपरप्रकाशक एवा ज्ञानना परिणमननी आदिमां आत्मा पोते ज छे. परने जाणे छे माटे त्यां परनी अपेक्षा छे एम नथी. अहाहा...! दुनिया साथे मेळ न खाय एवी आ गजब वात छे! (दुनिया साथे मेळ छे ते तोडे तो समजाय एवी छे.)
आ वाणी (जिनवाणी) सांभळे छे ए शुं शुभभाव नथी? ए शुभभाव छे. अशुभथी बचवा ए शुभभाव आवे छे. अहीं कहे छे के शुभभावना काळे आत्मा (ज्ञानी)
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जे स्वपरप्रकाशकपणे ज्ञानभावे परिणमे छे ते ज्ञानपरिणामनो आत्मा कर्ता छे; रागनो (शुभभावनो) कर्ता नथी. रागने-शुभभावने जाणवाना जे परिणाम थया तेनो आत्मा कर्ता छे. आ वस्तुस्थिति छे.
भाई! आवी वस्तुस्थितिनो अंदर निर्णय न करे त्यां सुधी धर्मनी शरूआत केम थाय? श्रद्धा-ज्ञान-रमणताना जे आत्मपरिणाम तेने ग्रहतो, ते-रूपे परिणमतो अने ते-रूपे ऊपजतो थको ते परिणामने आत्मा करे छे. ग्रहतो ए प्राप्य, परिणमतो ए विकार्य अने ऊपजतो ए निर्वर्त्य कर्म थयुं. अहीं तो अत्यारे परथी भिन्न पाडवानी वात छे. पर्यायथी द्रव्य भिन्न छे अने पर्याय पर्यायने करे छे ए वात अहीं सिद्ध करवी नथी. खरेखर तो एम छे के पर्याय पर्यायने करे छे, द्रव्य करतुं नथी. परंतु अहीं तो पररूपे परिणमतो नथी अने स्वपणे परिणमे छे एवो आत्मा पोताना परिणामने करे छे एम अहीं साबीत करवुं छे.
भाई! स्वभावद्रष्टि करवानी आ वात छे. अशुभथी बचवा शुभभाव भले हो; शुभ छोडीने अशुभ करवा एम अहीं वात नथी. शुभनी रुचि छोडीने द्रव्यनी रुचि कर-एम अहीं वात छे. सर्वथा शुद्धोपयोग थाय त्यारे शुभ छूटी जाय छे. शुभोपयोगनी दशा ए धर्मीनी (धर्मनी) दशा नथी, जे जाणवाना परिणाम थाय ते धर्मनी दशा छे अने तेनी आदिमां आत्मा छे. आत्मा कर्ता थईने जाणवाना परिणामने करे छे, ते-रूपे परिणमे छे, ते- रूपे ऊपजे छे.
हवे कहे छे-‘आम आत्मा वडे करवामां आवतुं जे आत्मपरिणाम तेने ज्ञानी जाणतो होवा छतां, जेम माटी पोते घडामां अंतर्व्यापक थईने आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने, घडाने ग्रहे छे, घडारूपे परिणमे छे अने घडारूपे ऊपजे छे तेम, ज्ञानी पोते बाह्यस्थित एवा परद्रव्यना परिणाममां अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने, तेने ग्रहतो नथी, ते- रूपे परिणमतो नथी अने ते-रूपे ऊपजतो नथी.’
जुओ, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने शांतिना जे परिणाम थया तेने ग्रहतो, ते-रूपे परिणमतो अने ते-रूपे ऊपजतो आत्मा पोताना परिणामने करे छे; पण व्यवहारना परिणामने आत्मा करतो नथी. पोताना परिणामने जाणता एवा आत्माने पर साथे कर्ताकर्मसंबंध नथी. व्यवहारनो शुभराग छे तेथी अहीं आत्मपरिणाम थया छे एम नथी. तथा व्यवहारने जाणे छे तेथी ते व्यवहारनो कर्ता छे एम पण नथी. आत्माना आश्रये थयेला परिणामनो कर्ता, ग्रहनार, परिणमनार आत्मा छे.
जुओ, प्रश्न एम हतो के पोताना निर्मळ परिणामने जाणतो होवा छतां ते रागना कार्यनो कर्ता छे के नहि? आत्मा जाणवानुं कार्य तो करे छे; तो रागनो कर्ता थईने भेगुं रागनुं कार्य करे छे के नहि? एक गायनो गोवाळ ते पांच गायनो गोवाळ-एम
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छे के नहि? तो कहे छे के एम नथी. ‘वस्तु सहावो धम्मो’-वस्तुनो स्वभाव धर्म छे. आत्मा वस्तु छे-तेनो स्वभाव ज्ञान, दर्शन, आनंद छे. ज्यां स्वभावनी द्रष्टि थई त्यां सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्ररूप निर्मळ परिणाम थया. ते निर्मळ परिणामने ज्ञानी करतो होवा छतां, अने तेने जाणतो होवा छतां, परनी साथे तेने कर्ताकर्मभाव नथी एम कहे छे.
माटी पोते घडामां अंतर्व्यापक थईने घडाने करे छे. घडो थवानी आदि-मध्य-अंतमां माटी छे. कुंभारनो हाथ अडयो माटे कुंभार घडो थवानी आदिमां छे एम नथी. कुंभार प्रसरीने घडो थतो नथी. घडारूप कार्यमां कुंभार प्रसरतो नथी, पण माटी पोते घडामां प्रसरीने-व्यापीने घडाने करे छे, घडाने ग्रहे छे. घडो ते माटीनुं प्राप्य छे. ते समयनुं ते ध्रुव प्राप्य छे. विकार्य छे ते व्यय अने निर्वर्त्य छे ते उत्पाद छे ते वखते जे पर्याय थवानी हती ते थई माटे तेने ध्रुव कही छे. छे तो पर्याय, पण निश्चित छे तेथी ध्रुव कही छे. अहीं एक समयनी पर्यायमां उत्पाद-व्यय-ध्रुव कह्या छे. अहो! आचार्यनी अजब शैली छे! कहे छे के माटी पोते घडामां अंतर्व्यापक थईने घडाने ग्रहे छे. घडानी पर्याय ते माटीनुं ते समयनुं ध्रुव छे, प्राप्य छे. अहाहा...! ते समयनी पर्याय ते ज थवानी छे. जुओ ने! बधुं क्रमबद्ध छे एम अहीं सिद्ध करे छे. कुंभार घडाने करे छे ए वात ज नथी.
जेम माटी घडामां अंतर्व्यापक थईने घडाने ग्रहे छे, घडारूपे परिणमे छे, घडारूपे उपजे छे तेम आत्मा पूर्णानंदनो नाथ प्रभु बाह्यस्थित एवा परद्रव्यनां परिणाममां एटले के व्यवहाररत्नत्रयना शुभरागमां अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने तेने ग्रहतो नथी, ते-रूपे परिणमतो नथी, ते-रूप ऊपजतो नथी. शुभरागनी आदिमां आत्मा नथी, मध्यमां आत्मा नथी, अंतमां आत्मा नथी. रागनी आदि-मध्य-अंतमां पुद्गल छे. धर्मी जीव जेम वीतरागी शुद्ध रत्नत्रयना परिणाममां अंतर्व्यापक थईने, तेना आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने ते निर्मळ परिणामने ग्रहे छे तेम व्यवहारना शुभरागने तेना आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने ग्रहतो नथी. राग छे ए तो पुद्गलनुं प्राप्य कर्म छे. पुद्गल तेने ग्रहे छे, पुद्गल ते-रूपे परिणमे छे; पुद्गल ते-रूपे ऊपजे छे.
भाई! ध्यान राखे तो आ समजाय एवुं छे. आ तो सत्ना शरणे जवानी वात छे. दुनिया न माने तेथी शुं? सत् तो त्रिकाळ सत् ज रहेशे. आत्मा अनंत शक्तिनुं धाम चैतन्यस्वभावी भगवान छे. ए त्रिकाळी ध्रुव प्रभुने ग्रहतां, एनो आश्रय लेतां जे शक्तिरूपे छे ते व्यक्तिरूपे प्रगट थयो. त्यां जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना निर्मळ परिणाम थया तेनी आदि-मध्य-अंतमां आत्मा छे. परंतु रागना आदि-मध्य-अंतमां आत्मा नथी. तेथी आत्मा रागपरिणामने करतो नथी. व्यवहार रत्नत्रयनो शुभराग जे बाह्यस्थित परद्रव्यना परिणाम छे तेने आत्मा ग्रहतो नथी. तेथी ज्ञानी-धर्मी ते शुभरागनो कर्ता नथी.
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प्रश्नः– सविकल्पद्वारथी निर्विकल्पतानी वात पंडितप्रवर श्री टोडरमलजीए रहस्यपूर्ण चिट्ठीमां करी छे ने? उत्तरः– भाई! एनो अर्थ एवो छे के आवो विकल्प हतो तेने छोडीने निर्विकल्पता थाय छे, -आवुं त्यां ज्ञान कराव्युं छे. परंतु आवा विकल्प आवे माटे एनाथी निर्विकल्पदशा थाय एम अर्थ नथी. ए तरफनुं लक्ष छोडे त्यारे निर्विकल्पता थाय छे. लोकोने शुभभाव छोडवानुं आकरुं पडे छे; पण शुं थाय? शुभभाव तो जे निगोदमां जीवो पडया छे तेमने पण निरंतर थाय छे. क्षणे शुभ, क्षणे अशुभ-एम शुभाशुभनी निरंतर धारा वहे छे. एक शरीरमां निगोदना जे अनंत जीव छे तेमने क्षणेक्षणे शुभाशुभ थया ज करे छे. ए कांई नवीन नथी.
प्रश्नः– प्रवचनसारनी गाथा २४पमां शुभोपयोगी पण श्रमण छे एम कह्युं छे ने? उत्तरः– ए तो धर्मपरिणत मुनिनी वात करी छे. शुद्धोपयोगी निरास्रव छे अने शुभोपयोग होय त्यां सुधी सास्रव छे. धर्मपरिणत मुनि त्रण कषायना अभाववाळो छे त्यारे तो तेने मुनि कह्यो छे. तेने शुभोपयोग होय छतां श्रमण कहेवामां आव्यो छे. पण एकला शुभभाववाळा मुनिनी त्यां वात नथी. एवा शुभभाव तो अज्ञानीए अनंतवार कर्या छे. शुभभाव हो, पण ए कांई धर्म छे के धर्मनुं कारण छे एम नथी. होय छे ए जाणवा माटे छे. बापु! आवुं वीतरागनुं कहेलुं शुद्ध तत्त्व पकडे नहि एने धर्म केम थाय?
हवे कहे छे-‘माटे, जो के ज्ञानी पोताना परिणामने जाणे छे तोपण, प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य एवुं जे व्याप्यलक्षणवाळुं परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म, तेने नहि करता एवा ज्ञानीने पुद्गल साथे कर्ताकर्मभाव नथी.’ ज्ञानी पोताना परिणामने जाणे छे, जाणवानुं काम करे छे. करे छे माटे भेगुं रागनुं कार्य पण ते करे छे एम नथी एम कहे छे. ज्ञानी पोताना परिणाम एटले सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्ररूप शुद्ध रत्नत्रयना मोक्षमार्गना परिणामने करे छे तोपण प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य एवुं जे व्याप्यलक्षणवाळुं पर द्रव्य परिणामस्वरूप कर्म तेने ते करतो नथी. तेथी तेने पुद्गल साथे कर्ताकर्मभाव नथी. जुओ, बे ज भाग पाडया छे. एककोर स्वभाव, बीजी कोर विभाव. भाई! भेदज्ञान करवानी आ वात छे. विभावनी साथे जीवने एकताबुद्धि छे ए ज महा मिथ्यात्वनी गांठ छे. विभावमां तादात्म्यनो अभ्यास छे ए ज मिथ्यात्व छे. ए विभाव अने शुद्ध चैतन्यस्वभावनी भिन्नता करवी ए वस्तुना स्वभावरूप सम्यग्दर्शन छे.
भाई! नवमी ग्रैवेयक जाय एवा शुभभाव अनंतवार कर्या, छतां एने धर्म थयो नहि. अने एनाथी कोईने धर्म थयो पण नथी. वस्त्र छोडयां माटे मुनिपणुं आवी गयुं एम नथी. स्वमां उग्र आश्रय थाय त्यारे चारित्र प्रगटे छे. परंतु व्यवहारनी क्रिया पाळे छे माटे
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चारित्र प्रगटे छे एम नथी. चारित्र तो आत्मानो गुण छे, वीतरागी शक्ति छे. एनो आश्रय लईने विशेष एकाग्र थाय त्यारे तेने चारित्रदशा प्रगट थाय छे. एवा चारित्रवंतने ते काळमां पंचमहाव्रतादिना परिणाम होय छे अने तेने व्यवहार कहेवामां आवे छे. अज्ञानीने व्यवहार केवो? समयसार गाथा ४१३मां त्रण बोल कह्या छे-तेओ (अज्ञानीओ) अनादिरूढ, व्यवहारमूढ, निश्चय पर अनारूढ वर्तता थका भगवान समयसारने देखता- अनुभवता नथी एम कह्युं छे. जेने आत्मदर्शन थयुं नथी अने बाह्य व्यवहारने पाळे छे तेने अनादिरूढ व्यवहारमूढ कह्यो छे. जाणनार जाग्यो नथी तेने व्यवहार केवो? आ वस्तुस्थिति छे.
अहीं कहे छे के-ज्ञानी पोताना परिणामने जाणे छे तोपण प्राप्य, विकार्य अने निर्वत्य एवुं जे व्याप्यलक्षणवाळुं परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म तेने नहि करता एवा ज्ञानीने पुद्गल साथे कर्ताकर्मपणुं नथी. केटली स्पष्टता छे!
गाथा ७६ मां कह्युं हतुं ते अनुसार अहीं पण भावार्थ जाणवो. त्यां गाथा ७६ मां ‘पुद्गलकर्मने जाणतो ज्ञानी’ एम हतुं एने बदले अहीं ‘पोताना परिणामने जाणतो ज्ञानी’ एम कह्युं छे. बस आटलो फेर छे. ल्यो, गाथा ७७ पूरी थई.
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पुद्गलकर्मफलं जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तृकर्मभावः किं भवति किं न भवतीति चेत्–
णाणी जाणंतो वि हु पोग्गलकम्मप्फलमणंतं।। ७८।।
ज्ञानी जानन्नपि खलु पुद्गलकर्मफलमनन्तम्।। ७८।।
हवे पूछे छे के पुद्गलकर्मना फळने जाणता एवा जीवने पुद्गल साथे कर्ताकर्मभाव (कर्ताकर्मपणुं) छे के नथी? तेनो उत्तर कहे छे-
परद्रव्यपर्याये न प्रणमे, नव ग्रहे, नव ऊपजे. ७८.
गाथार्थः– [ज्ञानी] ज्ञानी [पुद्गलकर्मफलम्] पुद्गलकर्मनुं फळ [अनन्तम्] के जे अनंत छे तेने [जानन् अपि] जाणतो होवा छतां [खलु] परमार्थे [परद्रव्यपर्याये] परद्रव्यना पर्यायरूप [न अपि परिणमति] परिणमतो नथी, [न गृह्णाति] तेने ग्रहण करतो नथी अने [न उत्पद्यते] ते-रूपे ऊपजतो नथी.
टीकाः– प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य एवुं, व्याप्यलक्षणवाळुं सुखदुःखादिरूप पुद्गलकर्मफळस्वरूप जे कर्म (कर्तानुं कार्य), तेनामां पुद्गलद्रव्य पोते अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने, तेने ग्रहतुं, ते-रूपे परिणमतुं अने ते-रूपे ऊपजतुं थकुं, ते सुखदुःखादिरूप पुद्गलकर्मफळने करे छे; आम पुद्गलद्रव्य वडे करवामां आवतुं जे सुखदुःखादिरूप पुद्गलकर्मफळ तेने ज्ञानी जाणतो होवा छतां, जेम माटी पोते घडामां अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने, घडाने ग्रहे छे, घडारूपे परिणमे छे अने घडारूपे ऊपजे छे तेम, ज्ञानी पोते बाह्यस्थित एवा परद्रव्यना परिणाममां अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने, तेने ग्रहतो नथी, ते-रूपे परिणमतो नथी अने ते-रूपे ऊपजतो नथी; माटे, जोके ज्ञानी सुखदुःखादिरूप पुद्गलकर्मना फळने जाणे छे तोपण, प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य एवुं जे व्याप्यलक्षणवाळुं परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म, तेने नहि करता एवा ते ज्ञानीने पुद्गल साथे कर्ताकर्मभाव नथी.
भावार्थः– ७६मी गाथामां कह्युं हतुं ते अनुसार अहीं पण जाणवुं. त्यां ‘पुद्गलकर्मने जाणतो ज्ञानी’ एम हतुं तेने बदले अहीं ‘पुद्गलकर्मना फळने जाणतो ज्ञानी’ एम कह्युं छे-एटलुं विशेष छे.
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हवे पूछे छे के पुद्गलकर्मना फळने जाणता एवा जीवने पुद्गल साथे कर्ताकर्मभाव छे के नथी? ७६मी गाथामां पुद्गलकर्म एटले रागने जाणता ज्ञानीनी वात करी हती. अहीं पुद्गलकर्मनुं फळ जे हरख-शोकना भाव तेने जाणता ज्ञानीने पुद्गल साथे कर्ता-कर्मभाव छे के नथी?-ते वात करे छे. जुओ, हरखशोकना भाव ए पुद्गलकर्मनुं फळ छे अने अतीन्द्रिय आनंद ए आत्मानुं फळ छे.
प्रवचनसारमां आवे छे के शुद्धोपयोगरूप कर्मनुं फळ आनंद छे. त्यां शुद्धोपयोगने कर्म कह्युं छे. आत्माना परिणाम शुद्धोपयोग छे, निर्मळ श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र छे. तेनुं कर्मफळ आनंद छे. अहीं रागद्वेषना परिणाम ते पुद्गलकर्म छे. एनुं फळ हरख, शोक, दुःख छे. अरे! भगवानना आ भरतमां विरह पडया! समोसरणस्तुतिमां आवे छे के-रे! रे! सीमंधर जिनना विरहा पडया आ भरतमां’ -अने आ बधो गोटो ऊठयो. शिष्य पूछे छे के पुद्गलकर्म जे शुभाशुभ राग छे एनुं फळ जे सुख-दुःख, हरख-शोक तेने जाणता ज्ञानीने पुद्गल साथे कर्ताकर्मभाव छे के नथी? हरख-शोकना भाव थाय एने जाणे छे एटलो संबंध तो छे, तो एने भोगवे छे के नहि? एनी साथे कर्ताकर्मनो संबंध छे के नहि? आ प्रश्ननो उत्तर गाथामां कहे छे-
जुओ, ‘परदव्वपज्जाए’–परद्रव्यपर्याय शब्द पाठमां पडयो छे. ७६, ७७ अने ७८ त्रणे गाथामां आ शब्द पडयो छे. एटले के दया, दान आदि विकल्पो अने हरख-शोकना परिणाम ए बधा परद्रव्यनी पर्यायरूप परिणाम छे एम अहीं कहे छे. ‘प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य एवुं, व्याप्यलक्षणवाळुं सुखदुःखादिरूप पुद्गलकर्म- फळस्वरूप जे कर्म, तेनामां पुद्गलद्रव्य पोते अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने, तेने ग्रहतुं, ते-रूपे परिणमतुं अने ते-रूपे ऊपजतुं थकुं, ते सुखदुःखादिरूप पुद्गल कर्मफळने करे छे.’ शुं कहे छे? जे हरख-शोकना परिणाम थाय छे ते पुद्गलनुं प्राप्य एटले ध्रुव छे. ध्रुव छे एटले जे परिणाम थवाना छे ते ज थया छे; अने तेने पुद्गल प्राप्त करे छे, आत्मा प्राप्त करतो नथी. जुओ, अहीं द्रव्यद्रष्टि अने स्वभावनी अपेक्षाथी आ वात छे. ज्यारे ज्ञानप्रधान शैली होय त्यारे ए सुख-दुःखना परिणामनुं भोक्तापणुं जीवने छे, तथा राग-द्वेष, सुख-दुःखनी अवस्था जीवनी छे एम कथन आवे. जीव पोते ते-रूपे परिणमे छे अने तेनुं कर्तापणुं जीवने छे एम ज्ञाननय जाणे छे. त्रिकाळी स्वभावनी अपेक्षाए विकारी परिणाम जीवना नथी. परंतु पर्यायनुं ज्ञान करवानी अपेक्षाथी विकारी
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परिणाम जीवनी पर्यायमां पोताथी थया छे. आम ज्यां जे अपेक्षाथी कथन होय त्यां ते प्रमाणे समजवुं जोईए.
प्राप्य एटले ध्रुव-एटले के हरख-शोकना परिणाम ते समये जे थवाना छे ते ज थया छे-ते प्राप्य, विकार्य एटले परिणमतुं अने निर्वर्त्य एटले ऊपजतुं, एवुं व्याप्यलक्षणवाळुं सुख-दुःख, हरख-शोक, रति-अरति आदि जे परिणाम छे ते पुद्गलकर्मफळस्वरूप छे एम कहे छे. भगवान आत्मानो पाक तो आनंदस्वरूप छे. एनुं फळ तो आनंद छे. नित्यानंदस्वरूप प्रभु आत्मा-एनुं शुद्धोपयोगरूप जे कर्म तेनुं फळ आनंद छे. पर्यायमां अतीन्द्रिय आनंदनुं फळ आवे ते आत्माना परिणाम छे. अने सुखदुःखना जे विभाव परिणाम छे ते आत्माना परिणाम नहि, ए तो पुद्गलना परिणाम छे. हरख-शोक आदिना परिणाम पुद्गलकर्मफळस्वरूप छे.
प्रश्नः– आप विकारी परिणामने पुद्गलना परिणाम केम कहो छो?
उत्तरः– भाई! विकार छे ते वस्तुना स्वरूपमां नथी. वस्तुमां एटले आत्मामां एवो कोई गुण के शक्ति नथी जे विकारने करे. तेथी तेने पर गणीने पुद्गलना परिणाम कहीने भिन्न पाडी नाख्या, अने चैतन्यस्वरूप आत्माने तेनाथी भिन्न करी नाख्यो छे. चैतन्यस्वरूपने द्रव्य-गुण-पर्यायथी भिन्न पाडी विकारथी भेदज्ञान कराव्युं छे. चैतन्यना द्रव्य-गुणथी तो विकार भिन्न छे ज, परंतु पर्यायथी पण विकारने भिन्न पाडवा तेने पुद्गलना परिणाम कह्या छे. एकांत छोडीने जे अपेक्षा होय ते अपेक्षाथी यथार्थ समजवुं जोईए.
पुद्गलकर्मफळ जे कर्तानुं कार्य थयुं तेनामां पुद्गलद्रव्य अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य- अंतमां व्यापीने ते हरख-शोकरूप पुद्गलकर्मफळने करे छे. हरख-शोकना भाव करे एवी आत्मामां कोई शक्ति नथी. आनंदनो नाथ एवो भगवान आत्मा हरख-शोक आदिरूपे केम परिणमे? ए तो आनंदरूपे परिणमे एवो तेनो स्वभाव छे. धर्म पण आनंदरूप ज छे. ए आनंदना परिणाम ते जीवनुं प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्यरूप कर्म छे अने हरख-शोक आदि विकारना परिणाम पुद्गलनुं कर्म छे. कहे छे के हरख-शोक आदि भावमां पुद्गलद्रव्य अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने तेने करे छे. हरख-शोकनी पर्यायमां, जीवनी नबळाई हती माटे ए भाव थयो एम नहीं. जीवनी नबळाईथी विपरीतपणे परिणम्यो माटे हरखशोक थवामां जीवनो कांईक अंश छे ए वात अहीं नथी. स्वभावमां विभाव छे ज नहि पछी एनो अंश कय ांथी आव्यो? मध्यस्थ थईने पोतानो पक्ष छोडीने समजे तो आ समजाय एवुं छे.
अहो! आचार्य भगवंतोए कमाल काम कर्यां छे. दिगंबर आचार्यो धर्मना स्थंभ हता. तेओए धर्मनी स्थिति यथावत् ऊभी राखी छे. अहीं कहे छे के पुण्य-
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पापना भावनुं फळ जे हरखशोकना परिणाम ए पुद्गलनुं कार्य छे, जीवनुं नहि; स्वद्रव्यस्वरूप भगवान आत्मानुं ए कार्य नहि. पुद्गल तेमां आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने तेने ग्रहे छे, पहोंचे छे. ते काळनुं ते पुद्गलनुं व्याप्य छे, आत्मानुं नहि. पुद्गलकर्म ते-रूपे परिणमतुं, ते-रूपे ऊपजतुं थकुं ते सुखदुःखादि पुद्गलकर्मफळने करे छे.
हवे कहे छे-‘आम पुद्गलद्रव्य वडे करवामां आवतुं जे सुखदुःखादिरूप पुद्गलकर्मफळ तेने ज्ञानी जाणतो होवा छतां, जेम माटी पोते घडामां अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने, घडाने ग्रहे छे, घडारूपे परिणमे छे अने घडारूपे ऊपजे छे तेम, ज्ञानी पोते बाह्यस्थित एवा परद्रव्यना परिणाममां अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने, तेने ग्रहतो नथी, ते-रूपे परिणमतो नथी अने ते-रूपे ऊपजतो नथी.’
जुओ, पुद्गलकर्मफळने ज्ञानी जाणे छे ए व्यवहार कह्यो. ते संबंधीनुं ज्ञान थाय छे तेथी कर्मफळने जाणे छे एम कह्युं. खरेखर तो ज्ञानी पोताने जाणे छे. जेवी सुखदुःखनी कल्पना थई एवुं ज ज्ञान अहीं जाणे छे तेथी एनुं ज्ञान छे एम कह्युं पण ज्ञान तो आत्मानुं छे. जेवो हरखशोकनो भाव थाय तेवुं ते प्रकारनुं अहीं ज्ञान थाय छे. तेथी कह्युं के ज्ञानी पुद्गलकर्मफळने जाणतो, जेम माटी घडामां अंतर्व्यापक थईने घडाने ग्रहे छे तेम, ज्ञानी पोते बाह्यस्थित एवा परद्रव्यना परिणाममां अंतर्व्यापक थईने तेने ग्रहतो नथी. हरखशोकना परिणामने धर्मी जीव ग्रहतो नथी, ते-रूपे परिणमतो नथी, ते-रूपे ऊपजतो नथी. पुद्गलकर्मना उदयमां लक्ष जतां जे सुखदुःखना परिणाम थाय ए पुद्गलना परिणाम छे; भगवान आत्माना ए भाव छे ज नहि. अहीं तो ज्ञानीनी व्याख्या छे ने? धर्मी जीवनी द्रष्टि त्रिकाळी स्वभाव उपर होवाथी, निर्विकारी दशा एनुं प्राप्य, विकार्य, निर्वर्त्य कर्म छे, पण विकार एनुं कर्म नथी. ज्ञानी विकारनो कर्ता नथी.
अहाहा...! माटी घडामां व्यापीने घडाने ग्रहे छे, कुंभार नहि. घडानी आदिमां माटी छे, कुंभार तेनी आदिमां नथी. माटी घडामां अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां प्रसरीने घडाने ग्रहे छे, पण कुंभार घडामां प्रसरे छे एम नथी. घडानी पर्याय ते माटीनुं प्राप्य छे, ध्रुव छे. ते काळे घडानी पर्याय ध्रुव छे एटले चोक्कस छे अने माटी तेने ग्रहे छे. पूर्वनी पर्याय जे पिंडरूप हती तेनो व्यय थईने घडानी पर्याय थई ते माटीनुं विकार्य छे, कुंभारनुं नहि. कुंभारनी पर्यायमां कुंभार होय. कुंभार पोतानी पर्यायमां व्यापीने पोतानी पर्यायनो कर्ता थाय, पण घडानो नहि. परनी पर्यायमां कुंभारनुं व्याप्यव्यापकपणुं कयां छे? (नथी ज)
तेम ज्ञानी पोते बाह्यस्थित एवा परद्रव्यना परिणाममां अंतर्व्यापक थईने, आदि- मध्य-अंतमां व्यापीने तेने ग्रहतो नथी. निर्मळ ज्ञान अने आनंद ए
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भगवान आत्मानी पर्याय छे अने सुख-दुःखना परिणाम ए तो बाह्यस्थित एवा परद्रव्यनी पर्याय छे. एने ज्ञानी जाणतो होवा छतां तेमां पोते अंतर्व्यापक थईने, प्रसरीने ग्रहतो नथी, ते-रूपे परिणमतो नथी, ऊपजतो नथी; केमके भगवान आत्मा पोते ज्ञाता-द्रष्टाना भावस्वरूप छे. बहु झीणी वात, भाई!
आवी सूक्ष्म वात पकडाय नहि एटले शुभभाव करो, शुभभावथी धर्म थशे एम केटलाक माने छे. पण भाई! एवो आ मार्ग नथी. शुभभाव ए आत्मानुं कर्तव्य नथी. ए धर्म नथी, एनाथी धर्म नथी अने ए धर्मनुं कारण पण नथी. आ वात सांभळीने केटलाक कहे छे के आमां कांईक सुधारो करो. अरे भाई! शुं सुधारो करवो? शुभभाव जे कर्मनुं प्राप्य छे, पुद्गलना परिणाम छे तेनाथी जीवना परिणामने लाभ थाय एम केम बने? जे पुद्गलनुं कार्य छे एनाथी आत्माने सम्यग्दर्शननुं कार्य थाय एम कदीय बनी शके खरुं? एम कदीय न बने. केमके सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना वीतरागी परिणाममां तेना आदि-मध्य-अंतमां भगवान आत्मा अंतर्व्यापक थईने तेने ग्रहे छे. ए निर्मळ परिणाम जीवनुं प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य कर्म छे, पुद्गलनुं नहि. निर्मळ परिणामनी आदिमां आत्मा छे, तेनी आदिमां शुभभाव नथी.
शुभभाव तो पूर्वे अनंतवार थया छे. शुभभावनी शुं वात करवी? नवमी ग्रैवेयक जाय एवा शुभभाव पण अनंतवार थया छे. छतां एवो शुभभाव पण धर्मनुं कारण थयो नहि. भाई! धर्मनी वीतरागी पर्याय थाय एनुं कारण तो पोते शुद्ध त्रिकाळी द्रव्य छे. तेना कारण तरीके शुभभावने मानवो ए तो मोटी हिंसा छे. अहीं स्पष्ट कहे छे ने के ज्ञानी पोते बाह्यस्थित एवा परद्रव्यना परिणाममां, हरख-शोकना परिणाममां अंतर्व्यापक थईने तेने ग्रहतो नथी; तेने जाणे छे, ए पण पोतामां रहीने ते काळे जे परिणाम (ज्ञानना) थवाना छे ते प्राप्यने जाणे छे. जेम राग-द्वेषना, सुख दुःखना भाव ते काळे जे ध्रुवपणे-निश्चितपणे जे थवाना छे तेने पुद्गल प्राप्त करे छे तेम भगवान आत्मा ते ज काळे स्व अने परने जाणे एवा जे प्राप्य-ध्रुव छे ते ज ज्ञानपरिणामने प्राप्त करतो, ते-रूपे परिणमतो अने ते-रूपे ऊपजतो पोताना कर्मने-वीतरागी परिणामने करे छे. अरे! जन्म-मरणथी छूटवानो पंथ तो आ छे, भाई! न समजाय अने कठण पडे एटले शुं मार्ग बदलाई जाय? कदी न बदलाय. हरखशोक, सुख-दुःख आदि विकारी दशा ते पुद्गलकर्मनुं फळ छे, ते आत्मानुं फळ नथी.
प्रश्नः– तो शुं ज्ञानीने पर्यायमां दुःख छे ज नहि?
उत्तरः– भाई! एम समजवुं यथार्थ नथी. अहीं तो वस्तु अने तेना स्वभावनी अपेक्षाए वात छे. द्रष्टि अने द्रष्टिना विषयनी अपेक्षाए आ वात छे. पण ते वखते जे ज्ञान थाय छे ते ज्ञान तो त्रिकाळीने पण जाणे छे अने वर्तमान जे दुःखनी परिणति
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छे तेने पण जाणे छे के मारामां मने आ दुःखनी परिणति छे; तेने भोगवे पण छे. आ स्याद्वाद वचन छे. रागने भोगवे छे एवो भोक्ता नय छे अने रागने करे छे ए कर्तानय छे. रंगरेज जेम रंगने करे छे तेम भगवान आत्मा जेटलो रागरूपे परिणमे छे तेटलो ए रागनो कर्ता छे. राग करवा लायक छे एम नहि, पण परिणमे छे माटे कर्ता कहेवामां आवे छे. जुओ तो खरा संतोनी आत्मलीला! जाणे अने वेदे-ज्ञानप्रधान कथनमां एम वात आवे, अने द्रष्टि अने द्रष्टिना विषयनी प्रधानताथी एम कहे के रागनुं परिणाम ते पुद्गलनुं कार्य छे, जीवनुं नहि; केमके द्रष्टि छे ते पूर्णानंदनो नाथ प्रभु शुद्ध चैतन्यघन जे आत्मा छे तेने पकडे छे. एटले एनी परिणति निर्मळ ज थाय.
ज्ञानी, जे अशुद्ध परिणाम थया तेने पोतामां रहीने जाणे पण तेने पकडे नहि, ग्रहे नहि, वेदे नहि. गजब वात करी छे ने! अहाहा...! द्रष्टि पूर्णानंदना नाथने पकडे एटले एना परिणमनमां विकार अने सुखदुःख होई शके नहि. आ अपेक्षाए विकारी परिणामनुं कर्म अने हरखशोकनुं कार्य पुद्गलमां नाखी एने जाणनार राख्यो छे. पण तेथी सर्वथा एम न मानी लेवुं के ज्ञानीने सुखदुःख छे ज नहि. जुओ, टीकाकार आचार्य अमृतचंद्रस्वामी स्वयं त्रीजा कळशमां कहे छे के मारी परिणति हजु (संज्वलन) रागादिनी व्याप्ति वडे कलुषित छे. हजु पर्यायमां कलुषित भाव छे पण आ टीकाना काळमां मारी द्रष्टिनुं जोर निर्मळ चैतन्यस्वभाव पर छे तेथी मने अवश्य परम विशुद्धि थशे. अहो! आचार्यनी कोई गजब गंभीर शैली छे!
पंचास्तिकायमां तो आचार्यदेवे एम सिद्ध कर्युं छे के एनी परिणतिमां जे विकार छे एनुं ज (पर्यायनुं) कर्तव्य छे, पर्यायनुं स्वतंत्र कार्य छे. जेटले दरज्जे राग थाय छे तेटले दरज्जे राग एनो कर्ता, राग एनुं कर्म, रागनुं साधन पण राग पोते, रागनो आधार पण राग इत्यादि. द्रव्य-गुण एनुं कारण नथी. त्यां पर्यायनुं अस्तित्व सिद्ध करवुं छे ने. तेथी कहे छे के सुखदुःखना परिणाम स्वयं षट्कारकरूपे परिणमीने पोताथी स्वतंत्र थाय छे. परंतु अहीं द्रव्यद्रष्टिनी मुख्यताथी वात छे. पर्यायद्रष्टि गई अने द्रव्यद्रष्टि थई त्यारे त्यारे सुख-दुःखना परिणमननुं वेदन ज्ञानीने नथी. वळी ए ज वखते साथे रहेलुं ज्ञान एम जाणे छे के जेटलुं सुखदुःखनुं परिणमन छे एटलुं मारुं कर्तृत्व अने भोक्तृत्व छे. अहा! आवी ज्ञानीनी अजब लीला छे!
अरे प्रभु! तुं कयां छो? तो कहे छे के हुं तो मारा जाणवाना परिणमनमां छुं. जेटलुं रागनुं परिणमन थाय ते पुद्गलनुं छे. हुं तो एनो जाणनार छुं. तथा पर्यायने जोउं छुं तो राग अने सुखदुःखनुं जेटलुं कर्तृत्व अने वेदन छे ते मारामां छे एम जाणुं छुं. आम बंने अपेक्षानुं ज्ञान यथार्थ होय छे.
द्रष्टि अने द्रष्टिना विषयमां तो विकारी परिणमननुं कर्तव्य अने वेदन छे ज नहि. भगवान आत्मा अनंतगुणनो पिंड छे. एमां विकारने करे एवो कयो गुण छे? एकेय
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नहि. ए अपेक्षाए गुणीने पकडतां भगवान आत्मामां रागनुं कर्तव्य अने सुखदुःखनुं वेदन नथी. द्रष्टिनो विषय तो एकलो अभेद छे. द्रष्टिना विषयमां भेद अने पर्याय नथी. द्रष्टि पोते निर्विकल्प छे अने तेनो विषय पण अभेद निर्विकल्प छे. एना विषयमां जे बधा गुणो छे ते पवित्र छे. अहाहा...! आवा पवित्र ध्येयवाळी द्रष्टि एम माने छे के आ रागना दया, दान, व्रतादिना अने सुखदुःखना जे परिणाम थया ते बधुं पुद्गलनुं कार्य छे, हुं तो तेनो जाणनार (साक्षी) छुं, हुं एनो करनारो के एनो भोगवनारो नहि; परंतु द्रष्टिनी साथे जे ज्ञान (प्रमाणज्ञान) छे ते ते काळे त्रिकाळी शुद्धनेय जाणे छे अने वर्तमान थता राग अने सुख-दुःखना वेदननी दशाने पण जाणे छे. जाणे छे एटले के रागनुं वेदन पर्यायमां छे एम जाणे छे.
जुओ, वस्तु अने वस्तुना स्वभावनुं जे परिणमन छे एनाथी सुखदुःखना परिणाम बाह्यस्थित छे. अंतरमां के अंतरनी परिणतिमां ए क्यां छे? (नथी). धर्मी जीव बाह्यस्थित एवा परद्रव्यपरिणाममां अंतर्व्यापक थईने आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने एने ग्रहतो नथी. एटले के ए परद्रव्यपरिणाम एनाथी थया छे एम नथी. शुद्धस्वभावथी सुखदुःखना विकारी परिणाम केम थाय? परंतु पर्यायमां पोतानी योग्यताथी सुखदुःखना जे परिणाम थाय तेने जोनारुं ज्ञान एम जाणे छे के पर्यायमां सुखदुःखनुं वेदन छे. अहाहा...! मार्ग तो आवो छे, प्रभु! आवो भगवाननो अनेकांत मार्ग छे. अनेकांत एटले अनेक अंत-धर्म. स्वभावनी द्रष्टिए रागना परिणाम जीवना नहि अने पर्यायद्रष्टिए जोतां ए परिणाम जीवना छे. भाई! वस्तुनुं स्वरूप आवुं छे. भगवाने कांई कर्युं नथी, भगवाने तो जेवुं जाण्युं तेवुं कह्युं छे.
हवे कहे छे-‘माटे, जोके ज्ञानी सुखदुःखादिरूप पुद्गलकर्मना फळने जाणे छे तोपण, प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य एवुं जे व्याप्यलक्षणवाळुं परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म, तेने नहि करता एवा ज्ञानीने पुद्गल साथे कर्ताकर्मभाव नथी.’ हरखशोकना भावने ज्ञानी करतो नथी एम कहे छे. तेने जाणे भले, पोतानी ज्ञानपर्यायनी आदिमां ज्ञाता छे तेथी जाणे भले, पण एने करे अने भोगवे ते ज्ञानीनुं स्वरूप नथी.
७६मी गाथामां कह्युं हतुं ते अनुसार अहीं पण भावार्थ जाणवो. त्यां ‘पुद्गलकर्मने जाणतो ज्ञानी’ एम कह्युं हतुं तेने बदले अहीं ‘पुद्गलकर्मना फळने जाणतो ज्ञानी’ एम कह्युं छे-एटलुं विशेष छे. गाथा ७८ पूरी थई.
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जीवपरिणामं स्वपरिणामं स्वपरिणामफलं चाजानतः पुद्गलद्रव्यस्य सह जीवेन कर्तृकर्मभावः किं भवति किं न भवतीति चेत्–
पोग्गलदव्वं पि तहा परिणमदि सएहिं भावेहिं।। ७९।।
पुद्गलद्रव्यमपि तथा परिणमति स्वकैर्भावैः।। ७९।।
हवे पूछे छे के जीवना परिणामने, पोताना परिणामने अने पोताना परिणामना फळने नहि जाणता एवा पुद्गलद्रव्यने जीव साथे कर्ताकर्मभाव (कर्ताकर्मपणुं) छे के नथी? तेनो उत्तर कहे छेः-
परद्रव्यपर्याये न प्रणमे, नव ग्रहे, नव ऊपजे. ७९.
गाथार्थः– [तथा] एवी रीते [पुद्गलद्रव्यम् अपि] पुद्गलद्रव्य पण [परद्रव्यपर्याये] परद्रव्यना पर्यायरूप [न अपि परिणमति] परिणमतुं नथी, [न गृह्णाति] तेने ग्रहण करतुं नथी अने [न उत्पद्यते] ते-रूपे ऊपजतुं नथी; कारण के ते [स्वकैः भावैः] पोताना ज भावोथी (-भावोरूप) [परिणमति] परिणमे छे.
टीकाः– जेम माटी पोते घडामां अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने घडाने ग्रहे छे, घडारूपे परिणमे छे अने घडारूपे ऊपजे छे तेम जीवना परिणामने, पोताना परिणामने अने पोताना परिणामना फळने नहि जाणतुं एवुं पुद्गलद्रव्य पोते परद्रव्यना परिणाममां अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने, तेने ग्रहतुं नथी, ते-रूपे परिणमतुं नथी अने ते-रूपे ऊपजतुं नथी; परंतु प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य एवुं जे व्याप्यलक्षणवाळुं पोताना स्वभावरूप कर्म (कर्तानुं कार्य), तेनामां (ते पुद्गलद्रव्य) पोते अंतर्व्यापक थईने आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने, तेने ज ग्रहे छे, ते-रूपे ज परिणमे छे अने ते-रूपे ज ऊपजे छे; माटे जीवना परिणामने, पोताना परिणामने अने पोताना परिणामना फळने नहि जाणतुं एवुं पुद्गलद्रव्य प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य एवुं जे व्याप्यलक्षणवाळुं परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म, तेने नहि करतुं होवाथी, ते पुद्गलद्रव्यने जीव साथे कर्ताकर्मभाव नथी.
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अज्ञानात्कर्तृकर्मभ्रममतिरनयोर्भाति तावन्न यावत्
भावार्थः– कोई एम जाणे के पुद्गल के जे जड छे अने कोईने जाणतुं नथी तेने जीवनी साथे कर्ताकर्मपणुं हशे. परंतु एम पण नथी. पुद्गलद्रव्य जीवने उत्पन्न करी शकतुं नथी, परिणमावी शकतुं नथी तेम ज ग्रही शकतुं नथी तेथी तेने जीव साथे कर्ताकर्मपणुं नथी. परमार्थे कोई पण द्रव्यने कोई अन्य द्रव्यनी साथे कर्ताकर्मभाव नथी. हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [ज्ञानी] ज्ञानी तो [इमां स्वपरपरिणतिं] पोतानी अने परनी परिणतिने [जानन् अपि] जाणतो प्रवर्ते छे [च] अने [पुद्गलः अपि अजानन्] पुद्गलद्रव्य पोतानी अने परनी परिणतिने नहि जाणतुं प्रवर्ते छे; [नित्यम् अत्यन्त–भेदात्] आम तेमनामां सदा अत्यंत भेद होवाथी (बन्ने भिन्न द्रव्यो होवाथी), [अन्तः] ते बन्ने परस्पर अंतरंगमां [व्याप्तृव्याप्यत्वम्] व्याप्यव्यापकभावने [कलयितुम् असहौ] पामवा असमर्थ छे. [अनयोः कर्तृकर्मभ्रममतिः] जीव-पुद्गलने कर्ताकर्मपणुं छे एवी भ्रमबुद्धि [अज्ञानात्] अज्ञानने लीधे [तावत् भाति] त्यां सुधी भासे छे (-थाय छे) के [यावत्] ज्यां सुधी [विज्ञानार्चिः] (भेदज्ञान करनारी) विज्ञानज्योति [क्रकचवत् अदयं] करवतनी जेम निर्दय रीते (उग्र रीते) [सद्यः भेदम् उत्पाद्य] जीव-पुद्गलनो तत्काळ भेद उपजावीने [न चकास्ति] प्रकाशित थती नथी. भावार्थः– भेदज्ञान थया पछी, जीवने अने पुद्गलने कर्ताकर्मभाव छे एवी बुद्धि रहेती नथी; कारण के ज्यां सुधी भेदज्ञान थतुं नथी त्यां सुधी अज्ञानथी कर्ताकर्मभावनी बुद्धि थाय छे.
हवे पूछे छे के जीवना परिणामने, पोताना परिणामने, पोताना परिणामना फळने नहि जाणता एवा पुद्गलद्रव्यने जीव साथे कर्ताकर्मभाव छे के नथी? अहीं जीवना परिणाम एटले वीतरागी निर्मळ परिणाम, पोताना परिणाम एटले रागादि परिणाम अने पोताना परिणामनुं फळ एटले सुखदुःखना परिणाम-आ बधाने नहि जाणतुं एवुं जे पुद्गलद्रव्य तेने जीव साथे कर्ताकर्मभाव छे के नथी? जुओ, जीवने स्वभावनी द्रष्टि थतां जे स्वभावनुं निर्मळ परिणमन थयुं तेने पुद्गल जाणतुं नथी. तेम पुद्गलपरिणाम जे रागादि भाव तेने पुद्गल जाणतुं नथी. तेम
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पुद्गलपरिणामनुं फळ जे सुखदुःखादि तेने पुद्गल जाणतुं नथी. आम आत्माना परिणाम, पुद्गलना परिणाम अने पुद्गलपरिणामना फळने-ए त्रणेने पुद्गल जाणतुं नथी; केमके ए जड छे. तो आवा पुद्गलद्रव्यने जीव साथे कर्ताकर्मभाव छे के नथी?
आगळनी ७६-७७-७८ गाथाओमां एम हतुं के-
पुद्गलकर्मना भावने जाणता एवा आत्माने पुद्गल साथे कर्ताकर्मभाव छे के नथी? आ एक वात करी.(७६)
पोताना निर्मळ परिणामने जाणता एवा जीवने पुद्गल साथे कर्ताकर्मभाव छे के नथी? आ बीजी वात करी.(७७)
पुद्गलकर्मना फळने जाणता एवा जीवने पुद्गल साथे कर्ताकर्मभाव छे के नथी? आ त्रीजी वात करी.(७८)
हवे अहीं चोथी वात करे छे के जीवना परिणामने, पोताना परिणामने अने पोताना परिणामना फळने नहि जाणता एवा पुद्गलद्रव्यने जीव साथे कर्ताकर्मभाव छे के नथी? राग कर्ता अने आत्मा रागनुं कार्य-एवो कर्ताकर्मभाव छे के नथी? आवुं समजवानी जिज्ञासा थई छे एवा शिष्यने अहीं उत्तर आपे छेः-
जुओ, अहीं आ गाथामां ‘परद्रव्यनी पर्याय’ एम शब्द छे एनो अर्थ आत्मानी निर्मळ पर्याय एम थाय छे. आ पहेलांनी त्रण गाथाओमां ‘परद्रव्य पर्याय’ एटले राग अने हरखशोकनी पर्यायनी वात हती. अहा! संतोए केवी करुणा करीने सत्य जाहेर कर्युं छे! सर्वज्ञ भगवाने कहेली वात जगत समक्ष जाहेर करी छे. कहे छे-
‘माटी पोते घडामां अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने घडाने ग्रहे छे, घडारूपे परिणमे छे अने घडारूपे ऊपजे छे.’ माटे माटी कर्ता छे अने घडो माटीनुं कर्म छे, कुंभारनुं नहि. केटलाक कहे छे के बे कर्ता होय त्यारे सामग्री पूरी थाय छे. घडाना बे कर्ता-एक माटी अने बीजो कुंभार-आम बे कर्ता वडे घडारूपी कार्य थाय एम कहे छे तेनो अहीं निषेध करे छे. घडारूपी कार्य माटीथी पोताथी ज थयुं छे तेमां कुंभार जे निमित्त छे तेने तो आरोप करीने कर्ता कहेवामां आवे छे. खरेखर निमित्ते कार्य कर्युं छे एम छे ज नहि. वास्तविकपणे निमित्त परना कार्यनो कर्ता छे ज नहि.
घडानो कर्ता कुंभार त्रणकाळमां नथी. तेम शरीरनी, भाषानी जे अवस्था थाय, दाळ, भात, रोटलीनी खावानी जे क्रिया थाय ते क्रियाने ते ते काळे ज्ञानी ते प्रकारना पोताना ज्ञानना परिणामथी जाणे छे, परंतु ते कार्यनो ते कर्ता नथी. जुओ, आ पुस्तक
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आम ऊंचुं थयुं, आ भाषा बोलाई-ए बधुं कांई जीवनुं कार्य नथी. आ चश्माथी जीव देखे- जाणे छे-एम नथी. जीव पोताना ज्ञानथी जाणे छे, चश्माथी नहि. पोते पोतानी पर्यायथी जीव जाणे छे.
अनादिनो ऊंधो अभ्यास छे एटले लोकोने आ समजवुं कठण पडे छे. एक भाई कहे के आ विषय उपर चर्चा करो. अरे भाई! चर्चा कोनी साथे करवी? आ तो पोताना हित माटे समजवानी वात छे. तेणे कह्युं के आ चश्माथी जणाय छे के नहि? शुं चश्मा विना जणाय छे? त्यारे कह्युं के बापु! चर्चा आवी गई. (थई गई). भाई! आ मारगडा तद्न जुदा छे. अहाहा...! उपादान अने निमित्त बन्ने स्वतंत्र छे. ज्ञान पोते ज्ञानथी जाणे छे, चश्माथी नहि, अने इन्द्रियोथी पण नहि.
अन्यमतवाळा इन्द्रियोने प्रमाणमां गणे छे. इन्द्रियो अने पदार्थ बन्ने मळीने तेओ प्रमाण कहे छे. पण एम छे नहि. जेमां ज्ञान नथी ते प्रमाण केवुं? इन्द्रियादि प्रमाण छे ज नहि. आत्मानुं ज्ञान स्व-परने जाणे छे ते प्रमाणज्ञान छे. अरे! लोकोने कयां खबर छे! स्वयंसिद्ध स्वतंत्र वस्तु पोते-तेने पराधीन मानी बेठा. अरे! ए तो महा विपरीत द्रष्टि छे. तेओ कहे छे-शुं चश्मा विना जणाय? आंखो बंध करो तो जणाय? इत्यादि. अरे भाई! आंखो बंध थाय के खुल्ली थाय-ए क्रिया तो जडनी छे. एने शुं आत्मा करी शके छे? बीलकुल नहि.
अहीं कहे छे-माटी पोते घडामां अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने घडाने ग्रहे छे. एटले के घडानी पर्याय ते काळे माटीनुं प्राप्य छे. माटीनी पिंड अवस्था पलटीने घडारूपे परिणमे छे ते माटीनुं विकार्य छे अने माटी घडारूपे ऊपजे छे ते माटीनुं निर्वर्त्य छे. अहा! माटीनुं घडारूपे थवुं, परिणमवुं अने निपजवुं ते एकली माटीनुं कार्य छे. आ द्रष्टांत आपीने हवे सिद्धांत समजावे छे.
‘तेम जीवना परिणामने, पोताना परिणामने अने पोताना परिणामना फळने नहि जाणतुं एवुं पुद्गलद्रव्य पोते परद्रव्यना परिणाममां अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने, तेने ग्रहतुं नथी, ते-रूपे परिणमतुं नथी अने ते-रूपे ऊपजतुं नथी.’
जुओ, जीवना सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना वीतरागी परिणाम ते अहीं परद्रव्यना परिणाम छे अने राग-द्वेष तथा हरख-शोकना परिणाम ते पुद्गलद्रव्यना पोताना परिणाम छे. ते बधाने पुद्गलद्रव्य जाणतुं नथी, केमके ते जड छे. नहि जाणतुं एवुं ए पुद्गलद्रव्य, जीवना जे ज्ञाता-द्रष्टाना शुद्धरत्नत्रयना परिणाम तेमां अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने तेने ग्रहतुं नथी, पहोंचतुं नथी. जीवना सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना परिणाम पुद्गलनी अपेक्षाए अहीं परद्रव्यना परिणाम छे. ते परिणाममां (शुद्ध रत्नत्रयमां) अंतर्व्यापक थईने पुद्गल तेने ग्रहतुं नथी. अहाहा...! पुद्गल-
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द्रव्यना जे रागना परिणाम, हरख-शोकना परिणाम-ते जीवना शुद्ध ज्ञाता-द्रष्टाना परिणामने ग्रहता नथी, पहोंचता नथी, ते-रूपे परिणमता नथी. गजब वात छे! जीवना परिणाम (ज्ञाता-द्रष्टाना भाव) जे जीवनुं प्राप्य छे तेने पुद्गल प्राप्त करतुं नथी. पोताना परिणाम जे रागादि भाव अने हरख-शोकना परिणाम तेने पुद्गल प्राप्त करे छे; जाणतुं नथी छतां पुद्गल पोताना परिणामने प्राप्त करे छे, परंतु परद्रव्यना-जीवना परिणामने प्राप्त करतुं नथी. जो ते (पुद्गल) जाणे तो ते चेतनद्रव्य थई जाय. पण एम नथी. पांच अजीव द्रव्यो जाणतां नथी छतां ते काळे तेना जे परिणाम थाय ते तेनुं प्राप्य कर्म छे. जडनी-पुद्गलनी जे अवस्था थाय ते तेनुं-पुद्गलनुं प्राप्य कर्म छे. जे अवस्था थवाना काळे थई तेने परमाणुए प्राप्त करी छे, परमाणु तेने पहोंची वळ्युं छे, आत्मानुं ज्ञान त्यां पहोंची वळ्युं नथी. तेम पुद्गलद्रव्य एटले रागादि विकारना परिणाम (शुभभाव) पोते अंतर्व्यापक थईने जीवना शुद्ध वीतरागी परिणामने पहोंचता नथी, ते-रूपे परिणमता के ऊपजता नथी. बापु! आवो वीतरागनो पंथ एक ज हितरूप अने आराध्य छे. श्रीमदे कह्युं छे ने- ‘सर्वज्ञनो
आवो भगवाननो मार्ग छे. तेनुं शरण ले. ते विना बीजुं कांई शरण नथी. भाई! पुद्गलना रागपरिणाम, पुद्गलकर्मनुं फळ एवा हरखशोकना परिणाम-एने पुद्गल जाणतुं नथी. एवुं पुद्गलद्रव्य परद्रव्यना एटले आत्माना जे ज्ञाता-द्रष्टास्वरूप परिणाम तेमां अंतर्व्यापक थईने तेने ग्रहतुं नथी, ते-रूपे परिणमतुं नथी, ते-रूपे ऊपजतुं नथी. ‘परंतु प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य एवुं जे व्याप्यलक्षणवाळुं पोताना स्वभावरूप कर्म, तेनामां (ते पुद्गल द्रव्य) पोते अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने, तेने ज ग्रहे छे, ते-रूपे ज परिणमे छे अने ते-रूपे ज ऊपजे छे.’ कर्तानुं जे कार्य-रागादि अने हरखशोकना परिणाम तेमां पुद्गल अंतर्व्यापक थईने, आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने तेने ग्रहे छे, ते-रूपे परिणमे छे अने ते-रूपे ऊपजे छे, परंतु आत्माना निर्मळ वीतरागी परिणामने ते ग्रहतुं नथी, पहोंचतुं नथी. हवे कहे छे-‘माटे जीवना परिणामने, पोताना परिणामने अने पोताना परिणामना फळने नहि जाणतुं एवुं पुद्गलद्रव्य प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य एवुं जे व्याप्यलक्षणवाळुं परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म, तेने नहि करतुं होवाथी, ते पुद्गलद्रव्यने जीव साथे कर्ताकर्मभाव नथी.’
जुओ, आ निष्कर्ष काढयो के परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म एटले जीवना ज्ञाता-द्रष्टाना जे शुद्ध वीतरागी परिणाम तेने पुद्गलद्रव्य करतुं नथी माटे पुद्गलद्रव्यने जीवनी साथे
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कर्ताकर्मभाव नथी, एटले के राग अने हरखशोकना परिणाम ते ज्ञाताना वीतरागी परिणामना कर्ता अने ज्ञाताना जे वीतरागी परिणाम थया ते एनुं कर्म एम छे नहि. अहाहा...! व्यवहाररत्नत्रयना परिणाम निश्चयथी ज्ञाताना वीतरागी परिणामना कर्ता नथी. व्यवहाररत्नत्रयना परिणाम ते पुद्गलना परिणाम छे. ते पुद्गलना परिणाम पोताने जाणे नहि, पोताना परिणामना फळने जाणे नहि अने ज्ञाता-द्रष्टाना वीतरागी परिणामने य जाणे नहि. ए बधाने नहि जाणता एवा व्यवहाररत्नत्रयना परिणामना काळमां जीवना ज्ञाता-द्रष्टाना वीतरागी परिणाम थया माटे ते व्यवहाररत्नत्रयना-रागना परिणाम कर्ता अने ज्ञाता-द्रष्टाना परिणाम कर्म एम छे नहि. अहो! अद्भुत वात छे! प्रश्नः– ‘हेतु नियतको होई’ एम कह्युं छे ने? उत्तरः– भाई! व्यवहाररत्नत्रयने ज्यां कारण कह्युं होय त्यां निमित्तनुं ज्ञान कराववा सहचर देखीने आरोपथी उपचार करीने कथन कर्युं छे एम समजवुं. निश्चय सम्यग्दर्शन पोताना (स्वभावना) आश्रये प्रगट थयुं ते काळे जे देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग छे ते समकित नथी. ते समकितनी पर्याय नथी छतां निश्चय समकितनो सहचर देखीने तेने व्यवहारथी समकित कह्युं छे. छे तो बंधनुं ज कारण तोपण उपचारथी समकित कहीने हेतु कह्यो छे. निश्चय-व्यवहारनुं सर्वत्र आवुं ज स्वरूप छे. एनुं मोक्षमार्गप्रकाशकमां खूब स्पष्टीकरण कर्युं छे. जुओ, भेदाभेदरत्नत्रयना आराधक जीवोने गृहस्थ आहार-पाणी आपे छे एवुं शास्त्रमां आवे छे. भावलिंगी मुनि छे ते भेदाभेदरत्नत्रयना आराधक छे एटले शुं? तेनो सेवे छे तो एक अभेदरत्नत्रयने; परंतु त्यां रागनो-व्यवहारनो भाव जे भूमिका अनुसार छे तेने आरोपथी रत्नत्रय कह्या छे. अहाहा...! महामुनिवर संत अंदर अभेद अंतर-आनंदनी रमतमां रमे छे, त्यां तेमने देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो जरा विकल्प छे. तेने निश्चयरत्नत्रयनो सहचर देखीने, तेने ते आराधे छे एम कह्युं छे. आराधे छे तो निश्चयरत्नत्रयने, पण तेओ सहचर देखीने भेदरत्नत्रयने आराधे छे एम उपचारथी कह्युं छे. अहीं खरेखर तो आहार वखते पण मुनिने भेदाभेद रत्नत्रय छे, एकलो व्यवहार छे एम नथी-एम सिद्ध करवुं छे. आहार लेती वखते पण अभेदरत्नत्रय छे वात त्यां कहेवी छे. अहीं कहे छे के जे भेद छे, राग छे ए तो पुद्गलनुं कार्य छे. तेने आत्मा (मुनिवर) केम आराधे? धर्मीने तो अभेद चैतन्यना आश्रयनो अनुभव वेदनमां छे. ते काळे जे राग छे तेने व्यवहारथी आरोप करीने आराधे छे एम कह्युं छे. आराधे छे तो अभेदने एकने ज, पण बीजी चीजमां (निमित्तमां) आराधनानो आरोप आपीने तेने आराधे छे एम कह्युं छे. मोक्षमार्गप्रकाशकमां पंडितप्रवर श्री टोडरमलजीए, निश्चय-व्यवहारनी बहु सरस वात करी छे. त्यां स्पष्ट कह्युं छे के-‘मोक्षमार्ग तो बे
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नथी पण मोक्षमार्गनुं निरूपण बे प्रकारथी छे.’ तेम आराधकपणुं बे प्रकारे नथी, तेनुं कथन बे प्रकारे छे. एम साधकपणुं बे नथी, साधकपणानुं कथन बे प्रकारे छे. आत्मानो अनुभव ते निश्चय साधन छे अने ते काळे रागनी मंदतानो जे भाव तेने सहचर देखी उपचारथी साधन कह्युं छे; खरेखर ते साधन नथी.
अहीं कहे छे के पुद्गलद्रव्यने जीव साथे कर्ताकर्मभाव नथी. एटले के पुद्गलद्रव्यना परिणाम जे रागादि भाव, हरखशोकना भाव ते ज्ञानानंदस्वभावी प्रभु आत्माना निर्मळ वीतरागी परिणामने ग्रहता नथी, पहोंंचता नथी, ते-रूपे परिणमता नथी अने ते-रूपे ऊपजता नथी. रागभाव कर्ता अने ज्ञानानंदना परिणाम तेनुं कर्तव्य-एवो कर्ताकर्मसंबंध छे ज नहि.
व्यवहाररत्नत्रय कारण अने निश्चयरत्नत्रय कार्य-एवां कथन शास्त्रमां आवे छे. आचार्यश्री जयसेननी टीकामां पण बहु आवे छे. पण ए तो (व्यवहारनी) कथननी शैली छे. भाई! वीतरागनां वचनो पूर्वापर विरोधरहित होय छे. एक तरफ कहे के रागना परिणाम ते जीवना मोक्षमार्गना परिणामने करे नहि अने बीजी तरफ कहे के व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चय मोक्षमार्गनुं कारण छे-आम परस्पर विरोधी कथनो जे अपेक्षाथी छे ते अपेक्षाथी यथार्थ समजवां जोईए. अपेक्षाथी यथार्थ समजतां विरोध रहेशे नहि.
‘कोई एम जाणे के पुद्गल के जे जड छे अने कोईने जाणतुं नथी तेने जीवनी साथे कर्ताकर्मपणुं हशे. परंतु एम पण नथी.’ पुद्गल तो जड छे ज. पण आत्मामां व्यवहारश्रद्धानो जे राग थाय ते पण अचेतन, जड छे. पंचमहाव्रतनो भाव के शास्त्र भणवानो विकल्प-ए बधा चेतन नथी, जड छे. राग छे ते रागने (पोताने) जाणतो नथी अने ते आत्माने य जाणतो नथी. तेथी ते जड छे. आवा अचेतन रागने जीवनी साथे कर्ताकर्मपणुं हशे एम कोई जाणे तो एम नथी. रागना परिणाम ते कर्ता अने धर्मीना जाणवाना परिणाम ते रागनुं कर्म-एवुं कोई माने तो ते एम नथी एम कहे छे. पुद्गलद्रव्य जीवने उत्पन्न करी शकतुं नथी अर्थात् रागनो भाव ते जीवनी सम्यग्दर्शन-ज्ञाननी पर्यायने उत्पन्न करी शकतो नथी.
आत्मा तो ज्ञानस्वरूप छे. माटे रागनी पर्यायनुं ज्ञान कर्ता अने राग तेनुं कर्म-एम भले न होय. पण जड पुद्गल तो जाणतुं नथी; तो एने आत्मा साथे कर्ताकर्मसंबंध छे के नहि? व्यवहाररत्नत्रयनो राग जे शुभोपयोगरूप छे ते कर्ता अने धर्मीना स्वने आश्रये थयेला जे स्वपरने जाणवाना परिणाम ते एनुं कार्य-आम कर्ताकर्मपणुं छे के नहि? तो कहे छे के-ना, एवुं कर्ताकर्मपणुं नथी. झीणी वात, भाई. समजवी कठण पडे पण शुं थाय?