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भगवान आत्मा ज्ञानानंदस्वभावी प्रभु छे. एनुं भान जेने थयुं एवा ज्ञानीने ज्ञान-श्रद्धा-शांतिना जे परिणाम थया ते एनुं कार्य छे अने आत्मा तेनो कर्ता छे. परंतु साथे व्यवहारनो जे राग छे ते एनुं कार्य अने ज्ञान (आत्मा) एनो कर्ता एम नथी. तथा व्यवहारना-रागना परिणाम कर्ता अने जीवनी स्वपरप्रकाशक जाणवानी जे पर्याय ते काळे थई ए तेनुं कार्य-एम पण नथी. जाणवाना परिणामनी आदि-मध्य-अंतमां प्रभु आत्मा पोते छे. आवा जे धर्मीना ज्ञाता-द्रष्टाना परिणाम तेने राग कर्ता थईने उत्पन्न करी शकतो नथी. अहाहा...! चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मानुं जेने भान थयुं एवा धर्मी जीवना परिणमनमां जे स्वपरने जाणवा-देखवाना परिणाम थया तेनो ते पोते कर्ता छे, पण ते काळे जे व्यवहारनो राग छे ते राग एनो कर्ता छे एम नथी. बापु! आ तो अध्यात्मनी अंतरनी वात छे. ते कांई वादविवादथी पार पडे एवी चीज नथी.
हवे कहे छे-‘पुद्गलद्रव्य जीवने उत्पन्न करी शकतो नथी, परिणमावी शकतुं नथी तेम ज ग्रही शकतुं नथी तेथी तेने जीव साथे कर्ताकर्मपणुं नथी.’
उत्पन्न करी शकतुं नथी ते निर्वर्त्य, परिणमावी शकतुं नथी ते विकार्य अने ग्रही शकतुं नथी ते प्राप्य-एटले के जीवना ज्ञाता-द्रष्टाना वीतरागी परिणाम ते पुद्गलद्रव्यनुं प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य कर्म नथी. अहाहा...! भगवान आत्मा अनंत-अनंत-अनंत ज्ञान, आनंद, शांति आदि शक्तिनो सागर प्रभु छे. एनी द्रष्टि अने आश्रय थतां जे निर्मळ श्रद्धा-ज्ञान-शांतिना परिणाम थया तेने आत्मा उत्पन्न करे छे, ते आत्मानुं प्राप्य छे, पण ते, ते काळे जे रागनी मंदता छे तेनुं प्राप्य नथी. अहा! ए निर्मळ मोक्षमार्गना परिणामनी आदिमां ते वखतनी रागनी मंदता छे एम नथी, तेनी आदिमां तो चैतन्यघन प्रभु आत्मा छे. बापु! आ तो पोते समजीने अंदर (आत्मामां) समाई जवानी वात छे. अंदर ज्ञानस्वरूपी चिदानंद भगवान छे त्यां तुं जा अने तने अतीन्द्रिय आनंदनी अपूर्व अलौकिक दशा थशे एम अहीं कहे छे.
जुओ आ जिनवरनो-जिनेश्वरदेवनो मार्ग! भाई! ए तारो ज मार्ग छे. तुंज निश्चयथी जिन अने जिनवर छे. जिन अने जिनवरमां कांई फरक नथी. ‘जिन अने जिनवरमां किंचित् फेर न जाण’-एम शास्त्रमां आवे छे अहा! आवुं पोतानुं माहात्म्य अने मोटप जेने पर्यायमां बेठी तेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी उत्पत्ति थाय छे. ए निर्मळ मोक्षमार्गना परिणामनी उत्पत्तिमां रागनी किंचित् अपेक्षा नथी एम अहीं कह्युं छे. नियमसारनी बीजी गाथानी टीकामां कह्युं छे के निज परमात्मतत्त्वनां सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप शुद्धरत्नत्रयात्मक मार्ग परम निरपेक्ष छे. अहा! जुओ तो खरा! चारेय बाजुथी एक ज वात सिद्ध थाय छे. भाई! आ सर्वज्ञ वीतरागनो मार्ग ए
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बहारनी पंडिताईनी चीज नथी. आ तो आत्मानो-चैतन्य भगवाननो अंतर अनुभव थईने पंडिताई प्रगटे ते मार्ग छे.
संसारनो-जन्ममरणनी परंपरानो अंत आवे एवी आ वात छे. जेमां संसार अने संसारनो भाव नथी एवी चीज प्रभु आत्माने द्रष्टिमां अने अनुभवमां लेतां निर्मळ रत्नत्रय प्रगट थयां छे एवा धर्मीनी अहीं वात लीधी छे. कहे छे के ज्ञानीने मोक्षमार्गनी पर्यायमां, तेनी आदिमां द्रव्य वस्तु आत्मा पोते छे. राग जाणतो नथी माटे राग तेनी आदि-मध्य-अंतमां प्रसरीने समकित आदिने उत्पन्न करे छे एम नथी. अहा! केटलुं चोक्खेचोक्खुं स्पष्ट कर्युं छे!
लोको कहे छे के ‘व्यवहारथी थाय, व्यवहारथी थाय’-अहीं कहे छे के-ना, एम नथी. व्यवहारथी थाय ए तो निमित्तनुं कथन छे. भाई! वीतरागनां वचन पूर्वापर विरोधरहित होय छे. पुद्गलद्रव्य जीवने उत्पन्न करी शकतुं नथी. एटले के शुभभावरूप जे राग छे ते आत्मानी मोक्षमार्गनी पर्यायने उत्पन्न करी शकतो नथी. अंधकार प्रकाशने केवी रीते उत्पन्न करी शके? राग छे ते अंधकार छे. व्यवहाररत्नत्रयनो राग अंधकार छे, भाई! निश्चय अने व्यवहारनी जात ज जुदी छे. एक चैतन्यप्रकाशमय छे, अने बीजुं अंधकारमय. गाथा ७२मांरागनेजड कह्यो छे. एनामां जाणवानी शक्ति नथी एटले एने अचेतन जड कह्यो छे. एने चिद्विकार कहो, अंधकार कहो के जड कहो-बधुं एक ज छे. अहीं तो ए सिद्ध कर्युं छे के राग छे ते पुद्गलना परिणाम छे अने ते शुद्ध चैतन्यना परिणाम उत्पन्न करी शकतो नथी.
प्रश्नः– अधःकरण, अपूर्वकरण अने अनिवृत्तिकरणना परिणाम होय छे एनाथी सम्यग्दर्शन थाय छे ने?
उत्तरः– भाई! खरेखर एम नथी. करणलब्धिना परिणाम होय छे एनो अभाव थईने सम्यग्दर्शन थाय छे. सम्यग्दर्शननी उत्पत्तिनी आदिमां शुद्ध चैतन्यमय आत्मा छे, तेनी आदिमां करणलब्धिना परिणाम नथी. गोम्मटसारमां आवे छे के पांचलब्धिथी सम्यग्दर्शन थाय छे. पण भाई! ए तो पूर्वे पांच लब्धि हती तेनुं त्यां ज्ञान कराव्युं छे. लब्धिथी सम्यग्दर्शन थाय छे एम एनो अर्थ नथी. अहाहा...! दिव्यशक्तिनो भंडार सच्चिदानंद प्रभु आत्मा-ते पोतानी परिणतिमां बीजानो (रागनो) आधार केम ले? अहीं तो स्पष्ट कहे छे के भेदरत्नत्रयनो राग अभेदरत्नत्रय उत्पन्न करी शकतो नथी. शास्त्रोमां ज्यां ज्ञानीने भेदाभेदरत्नत्रयनो आराधक कह्यो छे त्यां खरेखर ते एक निर्मळ अभेदरत्नत्रयनो ज करनारो अने सेवनारो एवो आराधक छे. ते काळे साथे जे भेदरत्नत्रयनो -रागनी मंदतानो भाव छे तेने सहचर वा निमित्त देखीने उपचारथी तेनो साधक कह्यो छे एम समजवुं. बापु! आ तो वस्तु स्थितिनी वात छे.
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केटलाक कहे छे के-दान आपो, मंदिर बनावो, रथयात्रा काढो, शास्त्र छपावो, शास्त्र सस्ता भावे वेची प्रचार करो-इत्यादि; तेथी तमारुं कल्याण थशे. परंतु भाई! ए तो बधा विकल्प छे. आ श्रवणनो भाव छे ते विकल्प छे. ए विकल्पनी आदिमां पुद्गल छे, आत्मा नहि. तेनाथी आत्मानुं कल्याण थाय एम केम बने? गजब वात छे! तारी बलिहारी छे. नाथ! नाथ! तुं वीतराग स्वभावथी भरेलो प्रभु छो. तने वीतराग परिणतिनी उत्पत्ति माटे परनी-रागनी अपेक्षा केम होय? तारी खाणमां ज परिपूर्ण वीतरागता भरी छे. एनो आश्रय ले, तेथी तने समकित आदि वीतरागी पर्याय प्रगट थशे. (रागने भरोसे नहि थाय).
केटलाक कहे छे के चोथे गुणस्थाने सराग समकित होय, वीतराग समकित न होय. अरे भगवान! शुं कहे छे तुं आ? सराग समकित तो कोईचीज (समकित) ज नथी. एतो आरोपित चीज छे. समकितनी वीतरागी पर्याय जेने प्रगट छेएने ते काळे जे देव-गुरु- शास्त्रनी श्रद्धानो मंद रागछे तेने आरोप करीने सराग समकित कह्युं छे. पण वीतराग समकित विना सराग समकितनी (आरोपनी) अस्ति केवी? भाई! आ मान्यता तारी मोटी भूलछे. अंदर चिदानंदघनवस्तु वीतरागस्वरूपे विराजे छे. तेनो आश्रय लेतां चोथा गुणस्थाने समकित प्रगट थाय छे अने ते वीतरागी पर्याय छे. अहीं कहे छे के-ते काळे रागनी मंदता छे माटे समकित एनाथी थयुं एवुं कर्ताकर्मपणुं छे ज नहि. अहो! संतोए सत्नो ढंढेरो पीटयो छे! आत्मा अकषायस्वरूप भगवान छे. तेने अकषाय परिणाम थाय ते पोताना कारणे थाय छे. राग मंद होय एनाथी अकषाय परिणाम थाय एम छे ज नहि.
परमार्थे कोई पण द्रव्यने कोई अन्य द्रव्यनी साथे कर्ताकर्मभाव नथी. राग अन्य द्रव्य छे अने निर्मळ परिणति जीवनुं स्वद्रव्य छे. माटे रागनी दशा, जीवनी निर्मळ दर्शाने उत्पन्न करे एवो कर्ताकर्मसंबंध नथी. भाव तो घणा सूक्ष्म छे; पण कथन शैली सादी छे. तेथी समजाय एवी ज आ वात छे.
हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
एकलां अमृत भर्यां छे आ कळशमां; शुं कहे छे? के ‘ज्ञानी’ ज्ञानी तो ‘इमां स्वपरपरिणतिम्’ पोतानी अने परनी परिणतिने ‘जानन् अपि’ जाणतो प्रवर्ते छे. सम्यग्द्रष्टि धर्मी जेने आत्मानुं भान थयुं छे. जेने धर्मनी वीतरागी दशा प्रगट थई छे तेने अहीं ज्ञानी रह्यो छे. ए ज्ञानी पोतानी अने परनी परिणति जाणतो प्रवर्ते छे. जुओ, परिणति शब्द वापर्यो छे पण पोताना द्रव्य, गुण, पर्याय त्रणेयने जाणतो
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प्रवर्ते छे तथा कर्मना (परना) द्रव्य, गुण, पर्याय त्रणेने जाणतो प्रवर्ते छे एम समजवुं. धर्मी एने कहीए जे पोतानी अने परनी परिणतिने जाणतो प्रवर्ते छे. ‘च’ अने ‘पुद्गलः अपि अजानन्’ पुद्गलद्रव्य पोतानी अने परनी परिणतिने नहि जाणतुं प्रवर्ते छे.
जुओ, जाणनार एवो भगवान आत्मा पोताना उत्पाद-व्यय-ध्रुव अर्थात् द्रव्य-गुण- पर्यायने जाणतो अने परना द्रव्य-गुण-पर्यायने जाणतो प्रवर्ते छे, पण परने करतो प्रवर्ते छे एम नथी. रागने करतो ज्ञानी प्रवर्ते छे एम नथी. तथा राग ज्ञाननी अवस्थाने (आत्माने) करतो प्रवर्ते छे एम पण नथी. अहा! आत्मा स्व अने परने जाणवानी दशामां प्रवर्ते छे अने पुद्गल जे राग ते स्व अने परने नहि जाणतुं प्रवर्ते छे.
हवे कहे छे-‘नित्यम् अत्यन्त–भेदात्’ आम तेमनामां सदा अत्यंत भेद होवाथी, ‘अन्तः’ ते बन्ने परस्परअंतरंगमां ‘व्याप्तृव्याप्यत्वम्’ व्याप्यव्यापकभावने ‘कलयितुम् असहौ’ पामवा असमर्थ छे. एटले के रागनी पर्याय ते वयापक अने ज्ञाननी पर्याय ते व्याप्य अथवा ज्ञाननी पर्याय ते व्यापक अने रागनी पर्याय ते व्याप्य एम परसपर व्याप्यव्यापकभाव असंभवित छे. भाई! आ पोताना हितनी वात अंतरमां विचार करीने नक्की करवी पडशे.
धर्मी जीव पोताना ज्ञान अने आनंदना परिणामने उत्पन्न करतो अने जाणतो, तथा रागादिने उत्पन्न नहि करतो अने जाणतो प्रवर्ते छे. स्व-परने जाणनारुं ज्ञान पोते पोताथी परिणम्युं छे ते रागने जाणतुं परिणम्युं छे तोपण ते रागना कारणे जाणवानुं थयुं छे एम नथी. रागने अने पोताने जाणतुं ज्ञान प्रवर्ते छे तेथी ते रागनुं कर्ता छे अने राग एनुं कर्म छे एम नथी. तथा रागपरिणाम (पुद्गलना परिणाम) छे ते आत्मानी निर्मळ पर्यायने (ज्ञानने) उत्पन्न करे छे एम पण नथी.
जुओ, ऊंडे ऊंडे लई जाय छे ज्यां निर्मळानंदनो नाथ चैतन्यघन प्रभु आत्मा विराजे छे. कहे छे-त्यां जा ने! तने तेथी सुख थशे. राग छे ए तो पुद्गलना परिणाम-दुःखना परिणाम छे. ते परिणाम आत्मानी ज्ञान अने आनंदनी परिणतिने केम करे? अहा! जे दुःख छे ते आनंदनी दशाने केम करे? राग जे अजाण छे ते ज्ञाननी पर्यायने केम उत्पन्न करे?
शुभोपयोग छे ते कांई धर्म नथी. ते धर्मनुं कारण पण नथी, शुभोपयोग तो अनादिथी करे छे. धर्म तो चैतन्यनी निर्मळ परिणति छे अने ते शुभोपयोगना कारणे थती नथी. ज्ञाननी स्वपरने जाणवानी पर्याय रागमां भळीने केवी रीते थाय? राग तो परद्रव्य छे अने जाणवा-देखवानी पर्याय स्वद्रव्यनी दशा छे, स्वद्रव्य छे. पुण्य-पाप अधिकारमां आवे छे के आत्मानी मोक्षमार्गनी पर्यायमां द्रव्यातंरनो सहारो नथी.
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रागादिभाव द्रव्यातंर छे, अन्यद्रव्य छे. तेनो सहारो नथी. भगवान आत्माने पोताना स्वभावनो ज सहारो छे. पोताना द्रव्यस्वभावथी उत्पन्न थयेला मोक्षमार्गनी पर्यायनो आत्मा कर्ता अने पर्याय ते एनुं कर्म छे. राग अने व्यवहार छे तेने ज्ञान जाणे छे पण एटला संबंधथी ज्ञान कर्ता अने राग एनुं कार्य तथा राग कर्ता अने ज्ञान रागनुं कर्म एम परस्पर कर्ताकर्मपणुं छे नहि. ज्ञेयज्ञायकसंबंध होवा छतां राग अने आत्माने परस्पर कर्ताकर्मसंबंध नथी.
रागने अने आत्मानी निर्मळ पर्यायने अत्यंत भेद छे. नियमसारनी गाथा ८२मां कह्युं छे के आवो भेद-अभ्यास थतां जीव मध्यस्थ थाय छे अने तेथी चारित्र थाय छे. रागभावथी चारित्र थाय छे एम नथी कह्युं पण रागना भेद-अभ्यासथी अंतरमां चारित्र थाय छे एम कह्युं छे. पहेलां सम्यग्दर्शनना काळमां भेद पडयो छे; पछी विशेष भेदना अभ्यासथी अंतरमां ठरे छे त्यारे चारित्र थाय छे. रागथी चारित्र थाय छे एम नथी. आ प्रमाणे रागने अने स्वपरने जाणनार प्रभु आत्माने अत्यंत भेद छे. रागने अने ज्ञाननी पर्यायने परस्पर अत्यंत भेद होवाथी तेमने व्याप्यव्यापकभावनो अभाव छे. राग छे ते पुद्गल छे अने ज्ञाननी निर्मळ दशा छे ते आत्मा छे. बन्ने भिन्न छे. तेथी तेमने व्याप्यव्यापकपणुं नथी, तेथी कर्ताकर्मपणुं पण नथी.
हवे कहे छे-‘अनयोः कर्तृकर्मभ्रममतिः’ जीव-पुद्गलने कर्ताकर्मपणं छे एवी भ्रमबुद्धि ‘अज्ञानात्’ अज्ञानने लीधे ‘तावत् भाति’ त्यांसुधी भासे छे के ‘यावत्’ ज्यांसुधी ‘विज्ञानार्चिः’ विज्ञानज्योति ‘क्रकचवत् अदयं’ क्रकचनी जेम निर्दय रीते ‘सद्यः भेदम् उत्पाद्य’ जीव-पुद्गलनो तत्काळ भेद ऊपजावीने ‘न चकास्ति’ प्रकाशित थती नथी.
रागथी भिन्न करीने ज्ञाननो अनुभव करे त्यारे तेने परनुं कर्ताकर्मपणुं छूटी जाय छे. शब्दो तो थोडा छे पण भाव घणा ऊचां अने गंभीर भरीदीधा छे. द्रष्टि पर्याय उपरथी फेरवी लई द्रव्य उपर लई जाय तेने विज्ञानज्योति प्रगट थाय छे. ज्ञान भले थोडुं होय, पण स्व-परनो भेद पाडी स्वानुभव करे ते विज्ञानज्योति छे. अहाहा...! चैतन्यमूर्ति भगवान आनंदनो नाथ भिन्न छे अने राग भिन्न छे एवो आत्म-अनुभव करे ते विज्ञानज्योति छे. आ विज्ञानज्योति करवतनी जेम निर्दय रीते एटले उग्रपणे जीव-पुद्गलनो तत्काळ भेद ऊपजावीने प्रगट थाय छे. पाणीना दळमां जेम तेलनुं टीपु भिन्न थई जाय छे तेम स्वानुभव करतां रागनी चीकाश अने आत्मानी वीतरागता बन्ने भिन्न थई जाय छे. अहो! शुं कळश अने शुं टीका! आचार्यदेवे गजब काम कर्युं छे.
दया, दान, व्रत आदिना भावथी आत्मा भिन्न छे. माटे व्रतना जे विकल्प छे
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एनाथी अहीं चारित्र प्रगट थयुं छे एम नथी. तेमने परस्पर कर्ताकर्मपणुं छे ज नहि. भगवान आत्मा पोताना निर्मळ श्रद्धान-ज्ञान-चारित्रपणे परिणमे अने ते रागने पण करे एम नथी. वळी राग रागने करे अने राग संबंधी जे ज्ञान थयुं ते ज्ञानने पण करे एम पण नथी. भाई! आ अंतरना मर्मनी वात छे; बहारनी पंडिताई आमां न चाले.
जीव-पुद्गलनो तत्काळ भेद उपजावीने-एटले रागथी ज्यां भिन्न पडयो अने भगवान आत्मानी सन्मुख थयो के तरत ज राग अने चैतन्यनी भिन्नता थई गई अने चैतन्यमूर्ति भगवान प्रकाशमां आव्यो, चैतन्यनी परिणति प्रकाशित थई गई. आवे धर्म कहेवामां आवे छे. आ भगवान सर्वज्ञदेव अरिहंत परमात्मा अने दिगंबर मुनिवरोनां वचन छे. आवी वात अन्यत्र कयांय छे ज नहि.
भाई! तुं जन्म-मरणना चोरासीना फेरा रागनी एकताबुद्धिना कारणे करी रह्यो छे. ते रागथी भिन्न पडी स्वभावसन्मुख थतां अवतार थता नथी. तिर्यंच पण स्वभावने पकडीने सम्यग्दर्शन पामे छे. नव तत्त्वनां नाम भले न आवडे पण आत्माना स्वभावने पकडी अनुभव करतां तेने अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे अने ते संवर छे; तथा जेना आश्रये स्वाद आव्यो ते चैतन्यस्वभावमय जीव छे-एम तेने भाव-भासन थाय छे. आ अंतरनी चीज छे ते कांई वादविवदाथी पार पडे एम नथी. नियमसारमां स्वसमय अने परसमय साथे वादविवादे चढवानी ना पाडी छे. जेम गरीबने बे पांच करोडनी निधि मळी जाय तो ते पछी पोताना वतनमां आवी ते निधि एकलो भोगवे तेम ज्ञाननिधिनी प्राप्ति थई होय तो तेने एकलो भोगवजे पण वादविवाद न करीश. केमके जीवना कर्म घणा प्रकारना, जात पण घणी अने तेमना उघाड पण दरेकना भिन्न भिन्न प्रकारना होय छे. माटे आ वात एना ज्ञानमां न बेसे तो वादविवाद करीश मा.
‘भेदज्ञान थया पछी, जीवने अने पुद्गलने कर्ताकर्मभाव छे एवी बुद्धि रहेती नथी. शरीर, मन, वाणी, कर्म इत्यीद जडनी दशा साथे जीवने अज्ञानपणे पण कर्ताकर्मपणुं नथी. अहीं पुद्गल एटले राग समजवुं. व्यवहारनो जे राग छे एनाथी ज्ञानस्वभावी आत्मा भिन्न छे एवुं ज्यां भेदज्ञान थयुं त्यां जीव-पुद्गलने कर्ताकर्मभाव छे एवी बुद्धि रहेती नथी. अहाहा...! सच्चिदानंद प्रभु निश्चयनो आश्रय लईने रागने ज्यां जुदो पाडयो त्यां शरीर, मन, वाणी इत्यादिनुं कर्तापणुं तो कयांय रह्युं, अंदर दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना जे शुभभाव छे तेनी साथे जीवने कर्ताकर्मपणानी बुद्धि खलास थई जाय छे.
त्यारे कोईवळी एम कहे छे के व्यवहारने आप सर्वथा हेय कहो छो ए एकांत छे, मिथ्यात्व छे. तेने कहे छे के व्यवहारना, दया, दान आदि पुण्यना परिणामनो
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हुं कर्ता अने ते मारुं कर्म एवी जे बुद्धि छे ए मिथ्यात्व अने अज्ञान छे. भाई! व्यवहारना रागथी भेद करी तेने हेय गणीने एक निज ज्ञायकस्वरूप भगवानने उपादेय करी तेनो आश्रय करे त्यारे भेदज्ञान छे. अने त्यारे जीवने पुद्गल साथे कर्ताकर्मपणानो भाव दूर थाय छे. अरे भगवान! आवो ज वीतरागनो मार्ग छे.
जुओने, आजे सवारे केवो गमख्वार प्रसंग बनी गयो? पंदर वर्षना छोकराने हडकायुं कुतरुं करडवाथी हडकवा उपडयो. रबारीनो दीकरो, हजु थोडा ज वखत पहेलां लग्न थयेलां. एनुं दुःख जोनारा ऊभा ऊभा रडे, पण परद्रव्यमां जीव शुं करी शके? परद्रव्यमां तो आत्मा अज्ञानपणे पण कांई न करी शके. एने बिचाराने सांकळे बांध्यो. अररर! केवुं दुःख! जोयुं न जाय. थोडीवारमां ज एनो देह छूटी गयो. देह कयां एनो हतो ते साथे रहे. भाई! आवां मरण जीवे आत्माना भान विना अनंतवार कर्यां छे. बापु! रागने पो्रतानो मानी जे रागमां अटकयो छे एवा अज्ञानीने विना भेदज्ञान आवां अनंत दुःख आवी पडे छे. रागने हेय करी जे आत्माने अनुभवे ते भेदज्ञान छे. प्रभु! ए भेदज्ञान तने शरण छे. अन्य कांई शरण नथी. जे रागने हेय मानी तेनी रुचि छोडे नहि तेने आत्मानी रुचि कयांथी थाय? एक म्यानमां बे तलवार न रहे, भाई! दया, दान, व्रतादिनो राग हेय छे एम प्रथम हा तो पाड.
आ शरीर, मन, वाणी, कुटुंब-कबीला-ए बधुं धूळ-धाणी छे. एनी वात तो कयांय रही, पण अंदर जे शुभराग थाय छे तेथी रुचि छोडवी पडशे. प्रभु! हित करवुं होय तो आ ज मार्ग छे. नहितर मरीने कयांय चाल्यो जईशे. अहा! तारां दुःख जे तें सहन कर्यां तेने जोनारा पण रोया एवां पारवार दुःख तें अज्ञानभावे भोगव्यां छे.
आत्मा पूर्णानंदनो नाथ चैतन्यसंपदाथी पूर्ण भरेलो अंदर त्रिकाळ पडयो छे. अने राग तो क्षणिक मात्र एक समयनी दशा छे. रागथी तारी चीज अंदर भिन्न छे, भगवान! राग आस्रव अने बंध तत्त्व छे, ज्यारे तुं निराळो ज्ञायक अबंध तत्त्व छे, राग अचेतन छे, ज्यारे तुं चैतन्यमय भगवानस्वरूप छे. आवुं रागथी भिन्न आत्मानुं ज्ञान ते भेदज्ञान छे. प्रभु! तुं ज्यां छो त्यां जा, त्यां नजर कर. आ देह तो एनी स्थिति पूरी थतां छूटी जशे. देह कयां तारी चीज छे ते साथे रहे, अने राग पण कयां तारो छे ते साथे रहे! आ मारगडा जुदा छे. प्रभु! दुनिया साथे मेळ करवा जईश तो मेळ नहि खाय. अहीं पोतामां मेळ खाय एम छे.
रागथी भिन्न पडीने आत्मानो अनुभव थाय त्यारे जे राग छे तेने जाणे तेने व्यवहार कहेवाय छे. रागथी भेद पाडया विना जे रागमां रहे छे ए तो व्यवहारविमूढ छे. समयसार गाथा ४१३ मां तेने माटे त्रण शब्दो कह्या छे. जे अनादिरूढ, व्यवहारमूढ,
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निश्चयमां अनारूढ छे ते भगवान समयसारने अनुभवता नथी एम त्यां कह्युं छे. अहो! कुंदकुंदाचार्य अने अमृतचंद्राचार्य भगंवतोए अपार करुणा करी छे. तेमने करुणानो विकल्प ऊठयो अने कोई धन्य पळे आ शास्त्रो लखाई गयां छे. भव्य जीवोनां महाभागय के आवी चीज भरतमां रही गई.
एमां कहे छे के व्यवहारनो जे राग छे तेनाथी ज्ञानस्वरूप मारी चीज भिन्न छे एम जे जाणे छे तेने जीव-पुद्गलना कर्ता-कर्मपणानी बुद्धि रहेती नथी. पुद्गलनो अर्थ अहीं राग थाय छे. ७प मी गाथामां जडनी दशा अने राग ए बधाने पुद्गलपरिणाम कह्या छे. धर्मी जीवने भेदज्ञान थयुं छे तेथी राग जे थाय तेने ते जाणे छे, पण राग मारु कार्य छे अने हुं तेनो कर्ता छुं एम ते मानतो नथी.
जुओ, एक शेठ हता. तेमने रोज चुरमाना लाडु ज खावानी टेव. एकवार घरमां जुवान दीकरानुं मरण नीपजयुं. रोटला-रोटली शेठने जराय अनुकूळ नहि. एटले घरनां कुटुंबीओ कहे के भाई! तमारा स्वास्थ्यने लाडु सिवाय बीजुं कांई अनुकूळ नथी माटे लाडु जमो. अहा! एक बाजु जुवान दीकरो मरी गयो छे, आंखमां आंसुनी धारा छे अने ए चुरमाना लाडु खाय छे. पण ते वखते लाडु उपर प्रेम नथी. एम धर्मीने राग आवे पण ए रागनो एने प्रेम नथी. परनो प्रेम तो होय ज शेनो? अहाहा...! अंदर चैतन्यमूर्ति भगवान ज्ञायकस्वरूप अनंत आनंदनी संपदाथी भरेलो प्रभु छे. एनी रुचिमां ज्ञानने रागथी जुदुं पाडयुं छे तेथी राग मारुं कर्तव्य अने रागनो हुं कर्ता एवी बुद्धि एने उडी गई छे. भाई! आ भवमां समजवानुं अने करवानुं आ छे.
प्रश्नः– आप व्यवहार बधो करो छो अने वळी व्यवहारने हेय पण कहो छो ए केवी रीते छे?
उत्तरः– अरे भगवान व्यवहार कोण करे? तथापि व्यवहार आवे तो खरो ने? भगवाननां पूजा-भक्ति करवां, शास्त्र स्वाध्याय करवुं इत्यादि यथासंभव होय तो खरां पण ए बधुं हेयबुद्धिए होय छे एम वात छे. जुओने, केटलुं कह्युं छे! राग साथे एकताबुद्धि रहे त्यां सुधी रागनो हुं कर्ता अने राग मारुं कर्तव्य एवी मिथ्या मान्यता होय छे. परंतु रागथी भिन्न पडीने ज्यां शुद्ध आत्माने-भगवान ज्ञायकने जाण्यो त्यां भेदज्ञानना काळमां जीव अने पुद्गल एटले राग साथे एने कर्ताकर्मपणानी बुद्धि रहेती नथी. भाई! राग धर्मीने होय खरो, पण रागनो प्रेम-आदर एने होतां नथी. माटे हे भाई! व्यवहारथी लाभ (धर्म) थशे एवी मान्यता तुं छोडी दे. व्यवहारनी रुचि ज्यां लगी छूटशे नहि त्यां लगी भेदज्ञान प्रगट थशे नहि.
बंध अधिकारमां कळश १७३ मां आवे छे के-“सर्व वस्तुओमां जे अध्यवसान थाय छे ते बधांय जिन भगवानोए पूर्वोक्त रीते त्यागवा योग्य कह्यां छे तेथी अमे
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एम मानीए छीए के ‘पर जेनो आश्रय छे एवो व्यवहार ज सघळोय छोडाव्यो छे.’ तो पछी, आ सत्पुरुषो एक सम्यक् निश्चयने ज निष्कंपपणे अंगीकार करीने शुद्धज्ञानस्वरूप निज महिमामां स्थिरता केम धरता नथी?” हुं बीजाने जीवाडुं, मारुं, सुखी-दुःखी करुं-एवो जे अध्यवसान छे ते बधोय जिनभगवानोए त्यागवा योग्य कह्यो छे. बीजाने जीवाडी शकुं, मारी शकुं, सुख-दुःखना संयोग आपी शकुं-एवी मान्यता छे ए तो मिथ्यात्व छे केमके तुं परनुं कांई करी शकतो ज नथी ए सिद्धांत छे. तारो आ अध्यवसान मिथ्या छे तेथीए मान्यता पण मिथ्या छे. आचार्यदेव कहे छे के जिनभगवानोए अध्यवसान सघळाय त्यागवायोग्य कह्या छे माटे अमे एम मानीए छीए के पर जेनो आश्रय छे एवो व्यवहार ज सघळोय छोडाव्यो छे. व्यवहाररत्नत्रयनो राग पण पराश्रयभाव होवाथी छोडव्यो छे. आवी वात छे त्यां बीजी वात (व्यवहारथी लाभ थाय एवी वात) कई रीते करवी भाई?
शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय इत्यादि तो पर छे. एने आत्मा निश्चयथी ग्रहतोय नथी अने छोडतोय नथी. आत्मा परना ग्रहण-त्यागथी शून्य छे एवी त्याग-उपादानशून्यत्व नामनी आत्मामां एक शक्ति छे. माटे आत्मा परना ग्रहण-त्यागथी रहित छे. माटे परना ग्रहण-त्यागनो जे राग छे ए मिथ्याबुद्धि छे. अहाहा...! अनंता तीर्थंकरोए आम कह्युं छे. कह्युंछे ने के व्यवहार सघळोय जिनदेवोए छोडाव्यो छे तो सत्पुरुषो एक सम्यक् निश्चयने ज निष्कंपपणे अंगीकार करीने शुद्ध ज्ञानघनरूप पोताना महिमामां स्थिति केम करता नथी? निष्कंपपणे एटले अति द्रढपणे पोताना स्वरूपमां केम स्थिरता करता नथी? पराश्रयथी लाभ थशे ए वात हवे जवा दे भाई! तारो मार्ग आ एक ज छे प्रभु! के ज्ञानानंदस्वरूप निज शुद्ध चैतन्य भगवान छे तेमां स्थिति कर.
श्री मोक्षमार्गप्रकाशकमां पंडितप्रवर श्री टोडरमलजीए पण आ ज कह्युं छे के-‘निश्चयनय वडे जे निरूपण कर्युं होय तेने सत्यार्थ मानी तेनुं श्रद्धान अंगीकार करवुं तथा व्यवहारनय वडे जे निरूपण कर्युं होय तेने असत्यार्थ मानी तेनुं श्रद्धान छोडवुं.’ हवे आमां व्यवहार आदरणीय छे ए वात कयां रही? पूर्ण वीतरागभाव न थाय त्यां सुधी निश्चयनी साथे व्यवहारनो राग होय खरो, पण ते आदरणीय छे के तेनाथी लाभ थाय छे-एम वात ज नथी.
पहेलां सांभळ्युं न होय एटले घणाने आ मार्ग नवो लागे छे, पण आ तो अनादिथी चाल्यो आवतो मार्ग छे. अनंता जिन भगवानोए कहेलो ए आ ज मार्ग छे. मोक्षमार्गप्रकाशकमां पान २पप पर कह्युं छे के- ‘जे व्यवहारमां सूता छे ते योगी पोताना कार्यमां जागे छे तथा जे व्यवहारमां जागे छे ते पोताना कार्यमां सूता छे.’ अहा! रागना भावमां जे जाग्रतपणे ऊभा छे ते निजकार्यमां सूता छे. माटे व्यवहारनुं श्रद्धान छोडी निश्चयनुं श्रद्धान करवुं योग्य छे. वळी त्यां कह्युं छे के-‘व्यवहारनय
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स्वद्रव्य-परद्रव्यने वा तेना भावोने वा कारण-कार्यादिने कोईना कोईमां मेळवी निरूपण करे छे माटे एवा श्रद्धानथी मिथ्यात्व छे तेथी तेनो त्याग करवो, वळी निश्चयनय तेने ज यथावत् निरूपण करे छे तथा कोईने कोईमां मेळवतो नथी तेथी एवा ज श्रद्धानथी सम्यक्त्व थाय छे माटे तेनुं श्रद्धान करवुं.’ शुभरागथी आत्माने लाभ थाय, व्यवहार साधन अने निश्चय साध्य-एम व्यवहारनय कथन करे पण एवा श्रद्धानथी मिथ्यात्व छे एम त्यां कह्युं छे. माटे एवुं श्रद्धान त्यागवुं.
जुओ, रागना विकल्पथी भिन्न आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप भगवान छे. एनो अनुभव थतां भेदज्ञान प्रगट थवाथी ज्ञानीने पुद्गल एटले राग साथे कर्ताकर्मपणानी बुद्धि रहेती नथी; तथापि ज्यांसुधी भेदज्ञान थतुं नथी त्यांसुधी जीवने अज्ञानथी कर्ताकर्मभावनी बुद्धि थाय छे. अहा! ज्ञायकस्वरूप भगवान आत्मा अने रागभाव ए बेनी ज्यांसुधी जीवने एकत्वबुद्धि छे त्यांसुधी राग मारुं कर्तव्य अने हुं एनो कर्ता एवुं अज्ञानपूर्वक जीव माने छे. भाई! आ तो सीधी वात छे. पोतानो दुराग्रह छोडी दे तो पकडाय एम छे. आवुं अनादिनुं अज्ञान छे ते भेदज्ञान प्रगट करी दूर करवुं जोईए एम अहीं आशय छे.
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जीवपुद्गलपरिणामयोरन्योऽन्यनिमित्तमात्रत्वमस्ति तथापि न तयोः कर्तृकर्मभाव इत्याह–
पोग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि।। ८०।।
अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणामं जाण दोण्हं पि।। ८१।।
पोग्गलकम्मकदाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं।। ८२।।
जोके जीवना परिणामने अने पुद्गलना परिणामने अन्योन्य (परस्पर) निमित्तमात्रपणुं छे तोपण तेमने (बन्नेने) कर्ताकर्मपणुं नथी एम हवे कहे छेः-
अन्योन्यना निमित्तथी परिणाम बेउ तणा बने. ८१.
गाथार्थः– [पुद्गलाः] पुद्गलो [जीवपरिणामहेतुं] जीवना परिणामना निमित्तथी [कर्मत्वं] कर्मपणे [परिणमन्ति] परिणमे छे, [तथा एव] तेम ज [जीवः अपि] जीव
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पण [पुद्गलकर्मनिमित्तं] पुद्गलकर्मना निमित्तथी [परिणमति] परिणमे छे. [जीवः] जीव [कर्मगुणान्] कर्मना गुणोने [न अपि करोति] करतो नथी [तथा एव] तेम ज [कर्म] कर्म [जीवगुणान्] जीवना गुणोने करतुं नथी; [तु] परंतु [अन्योऽन्यनिमित्तेन] परस्पर निमित्तथी [द्वयोः अपि] बन्नेना [परिणामं] परिणाम [जानीहि] जाणो. [एतेन कारणेन तु] आ कारणे [आत्मा] आत्मा [स्वकेन] पोताना ज [भावेन] भावथी [कर्ता] कर्ता (कहेवामां आवे) छे [तु] परंतु [पुद्गलकर्मकृतानां] पुद्गलकर्मथी करवामां आवेला [सर्वभावानाम्] सर्व भावोनो [कर्ता न] कर्ता नथी.
टीकाः– ‘जीवपरिणामने निमित्त करीने पुद्गलो कर्मपणे परिणमे छे अने पुद्गलकर्मने निमित्त करीने जीव पण परिणमे छे’-एम जीवना परिणामने अने पुद्गलना परिणामने अन्योन्य हेतुपणानो उल्लेख होवा छतां पण जीव अने पुद्गलने परस्पर व्याप्यव्यापकभावना अभावने लीधे जीवने पुद्गलपरिणामो साथे अने पुद्गलकर्मने जीवपरिणामो साथे कर्ताकर्मपणानी असिद्धि होईने, मात्र निमित्त-नैमित्तिकभावनो निषेध नहि होवाथी, अन्योन्य निमित्तमात्र थवाथी ज बन्नेना परिणाम (थाय) छे; ते कारणे (अर्थात् तेथी), जेम माटी वडे घडो कराय छे तेम पोताना भाव वडे पोतानो भाव करातो होवाथी, जीव पोताना भावनो कर्ता कदाचित् छे, परंतु जेम माटी वडे कपडुं करी शकातुं नथी तेम पोताना भाव वडे परभावनुं करावुं अशकय होवाथी (जीव) पुद्गलभावोनो कर्ता तो कदी पण नथी ए निश्चय छे.
भावार्थः– जीवना परिणामने अने पुद्गलना परिणामने परस्पर मात्र निमित्तनैमित्तिकपणुं छे तोपण परस्पर कर्ताकर्मभाव नथी. परना निमित्तथी जे पोताना भाव थया तेमनो कर्ता तो जीवने अज्ञानदशामां कदाचित् कही पण शकाय, परंतु जीव परभावनो कर्ता तो कदी पण नथी.
जोके जीवना परिणामने अने पुद्गलना परिणामने अन्योन्य निमित्तपणुं छे तोपण कर्ताकर्मपणुं नथी एम हवे कहे छे. अहीं अज्ञानीनी वात छे. आगळनी गाथाओमां भेदज्ञानीनी वात हती. अहीं जीवना परिणाम कहेतां विकारी परिणामनी वात छे. पहेलांनी गाथाओमां जीवना परिणाम एटले निर्मळ वीतरागी परिणामनी वात हती.
पहेलां ‘पोताना परिणामने जाणतो आत्मा’-एम कहेलुं ए जीवना वितरागी निर्मळ परिणामनी वात हती; अने‘पुद्गल परना परिणामने जाणतुं नथी’-एम कहेलुं त्यां पण परना परिणाम एटले जीवना निर्मळ वीतरागी परिणामनी वात हती. आ वात गाथा ७प थी ७९ सुधीमां आवी गइ छे.
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अहीं अज्ञानीनी वात छे. एटले मिथ्यात्व अने राग-द्वेषना परिणामने अहीं जीवना परिणाम कह्या छे; अने पुद्गल परिणाम एटले जड कर्मनी दशानी वात छे. ते बन्नेने परस्पर निमित्तमात्रपणुं छे. एटले जीवना विकारी परिणाम ते पुद्गलकर्मना परिणामनुं निमित्त छे अने पुद्गलकर्मनो उदय ते जीवना राग-द्वेष परिणामनुं निमित्त छे. छतां ते बन्नेने कर्ताकर्मपणुं नथी एम कहे छे.
कर्म बंधाय एमां जीवनुं (विकारनुं) निमित्तपणुं छे. पण निमित्तपणुं एटले शुं? के निमित्त होय छे, बस. निमित्त छे माटे कर्म बंधाय छे एम एनो अर्थ नथी. कर्मना परमाणुओनो परिणमन-काळ छे तेथी ते कर्मरूपे परिणमे छे त्यार जीवना मिथ्यात्व अने राग-द्वेषना परिणाम निमित्तमात्र छे. निमित्तमात्र एटले भिन्नपणे उपस्थित छे.
पंचास्तिकाय गाथा ६२मां एम कह्युं छे के समय समयना जीवना विकारी परिणाम स्वयं पोताना षट्कारकथी थाय छे. तेमां पर कारकोनी अपेक्षा नथी. जीवना विकारी परिणाम पोते पोताथी-पोताना षट्कारकरूप परिणमन थाय छे एमां जडकर्मना कारकनी बीलकुल अपेक्षा नथी. आ विषय पर वर्षा पहेलां चर्चा चालेली. तो सामे पक्षेथी कहे के ए तो अभिन्न कारकनी वात छे. पण अभिन्ननो अर्थ शुं? भाइ! विकारी परिणाम पोते पोताथी स्वतंत्र थाय छे एम एनो अर्थ छे. लोकोने स्वतंत्रपणुं बेसे नहि एटले शुं थाय? भाइ! स्वरूप बहु सूक्ष्म छे. निमित्त छे माटे जीव विकारपणे परिणमे छे एम नथी. अहीं तो निमित्तपणुं छे बस एटलुं ज सिद्ध करवुं छे.
‘जीवपरिणामने निमित्त करीने पुद्गलो कर्मपणे परिणमे छे अने पुद्गलकर्मने निमित्त करीने जीव पण परिणमे छे.’
जुओ कर्मरूपे परिणमवानो पुद्गलनो काळ हतो तेज वखते अहीं जीवमां जे शुभाशुभ रागना परिणाम हता तेने निमित्त कहेवामां आवे छे. निमित्ते तेने परिणमाव्या छे एम नथी. जो निमित्त परिणमावी दे तो निमित्त निमित्त रहे नहि, पण उपादान थइ जाय. कर्म अने आत्मा बन्ने एक थइ जाय. अहीं जे जीव परिणाम कह्या छे ते विकारी परिणामनी वात छे. गाथा ७प थी ७८मां जे जीवपरिणाम कह्या हता ते निर्मळ वीतरागी परिणामनी वात हती. त्यां भेदज्ञानीना परिणामनी वात हती. आ अज्ञानीना परिणामनी वात छे. ज्यां जे जे जेम छे त्यां ते तेम समजवुं जोइए. अहीं कहे छे के जीवना परिणामने निमित्त करीने एटले के जीवना जे मिथ्यात्व अने रागद्वेषना परिणाम छे तेने निमित्त करीने पुद्गलो कर्मरूपे परिणमे छे. परमाणुओ जे
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अकर्म अवस्थाए हता ते कर्मअवस्थारूपे थया ए परमाणुओनो स्वकाळ छे, ए एनी निज क्षण छे, जन्मक्षण छे. निमित्तने लइने एटले विकारने लइने पुद्गलोना परिणमननो काळ थयो छे एम नथी.
जीवमां पण मिथ्यात्व अने राग-द्वेषना परिणाम थवानी निजक्षण छे, अने त्यारे कर्मनो उदय कहेवाय छे. जीवने विकारभावे परिणमवानो काळ छे त्यारे कर्मनो उदय एमां निमित्त छे. कर्मनो उदय(निमित्त) हतो माटे जीवमां राग-द्वेषना विकारी परिणाम थवा अथवा माटे जीवने रागद्वेषभावे परिणमवुं पडयुं एम छे ज नहि. जो एम होय तो निमित्त अने उपादान एटले के कर्म अने जीव बन्ने एक थइ जाय.
अहाहा...! आत्मा अद्भुत चैतन्यचमत्काररूप हीरलो छे. एनी जेने किंमत जणाइ नथी ए जीव मिथ्यात्व अने रागद्वेषपणे परिणमे छे. ते विकारी भावनुं ज्यारे हाजरपणुं छे ते वखते पुद्गलनी जे कर्मरूप अवस्था थाय छे ते पुद्गलनुं स्वतंत्र परिणमन छे. त्यारे कोइ कहे के रागद्वेष न कर्या होत तो कर्मबंध न थात? पण भाइ! ए प्रश्न ज कयां छे? (एक अवस्थामां बीजी अवस्थानी कल्पनानो प्रश्न ज कयां छे?) अहीं तो एम वात छे के जीवे राग-द्वेष कर्या माटे पुद्गलने कर्मरूपे परिणमवुं पडयुं एम छे ज नहि.
जीवना परिणामने निमित्त करीने पुद्गलो कर्मपणे परिणमे छे. अहीं ‘निमित्त करीने’-एम शब्द वापर्यो छे. पण एनो अर्थ शुं? निमित्त छे माटे पुद्गल कर्मपणे परिणमे छे एम अर्थ नथी. शुं एने खबर छे के जीवमां राग छे माटे कर्मपणे परिणमुं? अहीं राग छे माटे पुद्गलो दर्शनमोहपणे परिणमे छे एम छे ज नहि. ते काळे परमाणुनी लायकातथी ते ते कर्मनी पर्याय थाय छे. अने त्यारे जीवना विकारी परिणाम एनुं निमित्त कहेवामां आवे छे.
तेवी रीते पुद्गलकर्मने निमित्त करीने जीव पण परिणमे छे. एटले के जीव स्वयं स्वाधीनपणे रागद्वेषरूपे परिणमे त्यारे जड कर्मनो उदय निमित्तमात्रपणे छे. कर्मनो उदय निमित्त छे माटे जीव रागद्वेषपणे परिणमे छे एम नथी. ते काळे जीवने रागद्वेषरूपे थवानो स्वकाळ छे अने त्यारे कर्मनो उदय निमित्त छे बस. निमित्त करीने एटले के त्यां निमित्तपणुं छे, हाजरी छे बस एटली वात छे. जुओ बन्नेनो काळ एक ज छे. तो पछी आ छे तो आ थयुं एम कयां रह्युं? फकत निमित्त छे एटली वात छे. जीवना परिणाम एक समयनुं सत् पोताथी छे. कर्मपरिणामनो उत्पाद थयो माटे छे एम नथी. अने जीवना रागद्वेषना परिणामनो उत्पाद थयो माटे ते काळे कर्मना परिणाम थया एम पण नथी. ‘निमित्त करीने’ जे कह्युं छे एनो अर्थ एटलो ज छे के निमित्त होय छे.
जेटला प्रमाणमां जीवने रागद्वेष परिणाम होय तेटला प्रमाणमां चारित्रमोहनीय कर्म बंधाय छे. मिथ्यात्वना पण अनंत रस छे. जेटला प्रमाणमां मिथ्यात्वनो भाव
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होय तेटला प्रमाणमां दर्शनमोह कर्म बंधाय छे. छतां आने लइने कर्म बंधाय छे एम नथी. हवे कहे छे-‘एम जीवना परिणामने अने पुद्गलना परिणामने अन्योन्य हेतुपणानो उल्लेख होवा छतां पण जीव अने पुद्गलने परस्पर व्याप्यव्यापकभावना अभावने लीधे जीवने पुद्गलपरिणामो साथे अने पुद्गलकर्मने जीवपरिणामो साथे कर्ता कर्मपणानी असिद्धि होइने, मात्र निमित्तनैमित्तिकभावनो निषेध नहि होवाथी, अन्योन्य निमित्तमात्र थवाथी ज बन्नेना परिणाम थाय छे. जीव-पुद्गलना परिणामनो परस्पर निमित्तपणानो उल्लेख होवा छतां व्याप्यव्यापकभावनो अभाव छे. एटले जीव विकार करे ते व्यापक अने जड कर्मनी अवस्था थाय ते व्याप्य एम नथी. ते ज प्रमाणे कर्मनो उदय ते व्यापक अने जीवना परिणाम ते एनुं व्याप्य एम पण नथी. परस्पर व्याप्यव्यापकभावनो अभाव होवाथी जीवने पुद्गल परिणाम साथे अने पुद्गलने जीवपरिणाम साथे कर्ताकर्मपणानी असिद्धि छे. कर्मनुं निमित्त छे तेणे जीवने राग कराव्यो अने जीवे राग कर्यो माटे जडकर्म बंधायुं-एम कर्ताकर्म भावनो बन्नेने अरसपरस अभाव छे. मात्र निमित्तनैमित्तिकभावनो निषेध नथी. एकबीजाने निमित्तनैमित्तिकभाव छे. अन्योन्य निमित्तमात्र थवाथी ज बन्ने ना परिणाम थाय छे. प्रथम पोतानी वस्तु स्वतंत्र छे एनी खबर विना धर्म केम थाय? धर्म करनारने प्रथम ख्याल होवो जोइए के अज्ञानभावे जेटला विकारी परिणाम थाय छे ते माराथी स्वतंत्र थाय छे; अने ते काळे जड कर्मनी परिणतिनुं कार्य पुद्गलथी त्यां स्वतंत्र थाय छे. मने राग- द्वेष थया माटे त्यां जडकर्मनुं परिणमन थाय छे एम नथी. प्रथम पर्यायमां विकारनी स्वतंत्रता माराथी छे अने कर्मनी पर्यायमां कर्मनी स्वतंत्रता छे एम लक्षमां आववुं जाइए. जीव अने पुद्गलने परस्पर व्याप्यव्यापकभावनो अभाव छे. तेथी एकबीजाना निमित्तपणानो उल्लेख एटले कथन होवा छतां परस्पर कर्ताकर्मभाव नथी. जीवना राग-द्वेष कर्ममां निमित्त हो, तेम कर्मनो उदय जीवना रागद्वेषनुं निमित्त हो; परंतु जीवे जे विकारी परिणाम कर्या ते कर्मबंधननी पर्यायनो कर्ता छे एम नथी तथा कर्मनो उदय विकारी भावनो कर्ता छे एम पण नथी. जीवे पोताना मिथ्यात्व अने रागद्वेषना परिणाम स्वतंत्रपणे कर्या त्यारे पुद्गल स्वयं स्वतंत्रपणे कर्मपर्यायपणे थया छे. ते ज प्रमाणे कर्म पोते स्वतंत्रपणे उदयरूप थया त्यारे जीव स्वतंत्रपणे मिथ्यात्व अने रागद्वेषरूपे परिणम्यो छे. आम बन्नेनुं परिणमन स्वतंत्र छे. भाइ! हजु पर्यायनी स्वतंत्रता जेने बेसती नथी तेने द्रव्य जे व्यक्त नथी तेनी स्वतंत्रतानी वात केम बेसे? पोतानी जे प्रगट पर्याय ते स्वतंत्र छे, परने लइने नथी.
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अने कर्मनुं बंधन थाय ते कर्मने लइने छे, जीवने लइने नथी. आवी समयसमयनी पर्यायनी स्वतंत्रतानी वात जेने न बेसे तेने आनंदकंद प्रभु त्रिकाळी शुद्ध सूक्ष्म चैतन्यस्वभावनी स्वतंत्रता द्रष्टिमां नहि बेसे अने तेने सम्यग्दर्शन प्रगट नहि थाय. जे प्रगट दशा छे एनो कर्ता पर छे एम माने एने पर्यायना स्वतंत्र परिणमननी खबर नथी. अहीं तो अज्ञानपणामां जीव पोते विकारी परिणामनो स्वतंत्र कर्ता थइने ते परिणामने करे छे अने ए वात सिद्ध करी छे. भेदज्ञान थया पछी आत्मा रागनो कर्ता अने राग एनुं कार्य एवी कर्ताकर्मबुद्धि रहेती नथी.
श्री कुंदकुंदाचार्यदेवनी बार अनुप्रेक्षामां आवे छे के कर्मना आस्रवनुं (निमित्त) कारण एवो जे विकारीभाव तेना कारणे आत्मा संसारमां डूबे छे. शुभभावथी पण जीव संसारसागरमां डूबी जाय छे. दया, दान आदि पुण्यना भाव छे ते आस्रव छे अने ते मोक्षनुं कारण नथी. सम्यग्दर्शन विना अज्ञाननी जेटली बाह्य क्रिया छे ते सघळी संसारमां रखडवानी क्रिया छे. आस्रवभाव तो निंदनीय ज छे, अनर्थनुं कारण छे.
प्रश्नः– जिनवाणीमां व्यवहारने मोक्षनुं परंपरा कारण कह्युं छे ने?
उतरः– हा, पण कोने? जेणे रागथी भिन्न पडीने चैतन्यस्वरूप आत्मानो अनुभव कर्यो छे एना मंदरागना परिणामने परंपरा मोक्षनुं कारण कह्युं छे. जेने अनुभवमां ज्ञान अने आनंदनी दशा प्रगटी छे तेना शुभभावमां अशुभ टळ्यो छे अने हवे पछी शुद्ध चैतन्यस्वरूप स्वनो उग्र आश्रय लइने शुभने पण टाळी मोक्षपद पामशे तेथी तेना शुभ रागने परंपरा कारण कहेवामां आव्युं छे. खरेखर तो राग मिथ्याद्रष्टिने के सम्यग्द्रष्टिने मोक्षनुं कारण छे ज नहि.
समयसार नाटकमां पंडित बनारसीदासे कह्युं छे के छठ्ठागुणस्थाने पंचमहाव्रतनो के समिति, गुप्ति इत्यादिनो जे रागभाव थाय ते संसारपंथ छे, जगपंथ छे.
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना धारक साचा संत मुनिराजने जे शुभराग छे ते प्रमाद छे अने ते जगपंथ छे, मोक्षपंथ नथी. अंतरमां आनंद स्वरूप भगवान आत्माना आश्रयथी जे वीतरागता प्रगटी छे ते मोक्षपंथ छे. अहाहा...! छठ्ठेगुणस्थाने मुनिराजने जे व्रतादिनो विकल्प छे ते जगपंथ छे. भाइ! वीतराग मार्ग वीतरागभावथी ऊभो थाय छे, रागथी नहि, राग तो संसार भणी झुके छे. अहा! ज्ञानीने तो राग साथे कर्ताकर्मभावनो अभिप्राय ज नथी, छतां जे राग छे ते जगपंथ छे. आ जिनवचन छे.
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पंडित बनारसीदासजीए जिनवाणी विषे काव्य लख्युं छे. एमां कहे छे के-
आ ॐकारवाणी-जिनवाणी अमूल्य छे, चूल एटले मनोहर छे अने सांभळनारने आनंदरसनी देनारी छे. आ ॐध्वनि मुखनी शोभा छे.
जे ॐकारध्वनिमां बार अंगना विचार भर्यो छे ए भगवाननी वाणी एम कहे छे के-जीवना विकारी परिणाम पोताथी स्वतंत्र थाय छे त्यारे ते काळे पुद्गलो स्वयं जडकर्मनी पर्यायपणे परिणमे छे. विकारी परिणाम तेमां निमित्तमात्र छे, परंतु ए निमित्तने लइने कर्मबंधन थयुं छे एम नथी, कर्ताकर्मभाव नथी.
तत्त्वार्थसूत्रमां आवे छे के छ प्रकारना परिणाम जीव करे एनाथी ज्ञानावरणीय कर्म बंधाय छे. एनो अर्थ ए छे के जीवना परिणाम अने पुद्गलना परिणामने निमित्तनैमित्तिक संबंध छे. एटले के कर्मबंधननी परिणती स्वकाळे पोताथी थइ तो रागद्वेषना परिणाम त्यां निमित्त छे-बस एटली वात छे. परंतु जीवने रागद्वेष थया माटे कर्मबंधन थयुं एम नथी. भाइ! ॐकार ध्वनिमां आवेली वात छे.
कहे छे के मात्र निमित्तनैमित्तिकभावनो निषेध नहि होवाथी अन्योन्य निमित्तमात्र थवाथी ज बन्नेना परिणाम थाय छे. आत्मा कर्मरूप पुद्गलना गुणोने करतो नथी, तेवी रीते कर्म आत्माना रागद्वेषादि शुभाशुभ भावोने करतुं नथी. बन्नेना परिणाम परस्पर निमित्तमात्र थवाथी ज थाय छे, कर्ता नहि. जीवना विकारी परिणाममां कर्मनो उदय निमित्तमात्र छे, कर्ता नहि.
प्रश्नः– कर्मनो उदय आवे तो विकार करवो ज पडे ने?
उत्तरः– कर्मनो उदय आवे तो विकार करवो ज पडे ए मान्यता यथार्थ नथी. श्री जयसेनाचार्यनी टीकामां (प्रवचनसार गाथा ४पमां) आव्युं छे के कर्मनो उदय होवा छतां शुद्ध उपादानपणे आत्मा परिणमे तो कर्मनो उदय छूटी जाय छे, नवीन बंध थतो नथी. जीव स्वभाव सन्मुखता करे, स्वमां झुके तो कर्मनो उदय होवा छतां कर्मनी निर्जरा थइ जाय छे. जो कर्मना उदयथी बंध थाय तो संसारीओनो कर्मनो उदय सदाय रहेतो होवाथी सदा बंध ज रहे, मोक्ष न थाय; पण एम नथी.
हवे कहे छे-‘ते कारणे, जेम माटी वडे घडो कराय छे तेम पोताना भाव वडे पोतानो भाव करातो होवाथी, जीव पोताना भावनो कर्ता कदाचित् छे, परंतु जेम
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माटी वडे कपडुं करी शकातुं नथी तेम पोताना भाव वडे परभावनुं करावुं अशकय होवाथी पुद्गलभावोनो कर्ता तो कदी पण नथी ए निश्चय छे.’
जुओ, जेटला प्रमाणमां राग करे तेटला प्रमाणमां कर्म बंधाय छतां राग कर्मनी अवस्थानो कर्ता नथी. आ आंगळी ऊंची नीची थाय ते एनी पोतानी पर्यायथी थाय छे, एमां विकल्प निमित्त छे; पण विकल्पना (निमित्तना) कारणे ए कार्य त्यां जडमां थयुं छे एम नथी. लोको माने छे के-अमे देशसेवानां काम करीए छीए, समाजने सुधारी दइए छीए, कुटुंबने ऊंचु लावीए छीए. पण ए बधुं कोण करे, भाइ? तने खबर नथी के जीव कर्ता थइने कदाचित् पोताना विकारी परिणामने करे पण परनो कर्ता थइ शके नहि. अज्ञानी विकारी परिणाम ते मारुं कार्य एम माने पण परनो कर्ता थइ शके नहि. जेम माटी वडे घडो कराय छे तेम पोताना भाव वडे पोतानो भाव करातो होवाथी पोताना विकारी भावनो जीव कर्ता छे. अहीं विकारी भाव जीवना छे एम सिद्ध करीने पछी ज्ञानभाव सिद्ध करवो छे.
पोताना भाव वडे पोतानो भाव करातो होवाथी-एटले के विकारी भाव जीवमां पोताथी थाय छे. परने लइने ते थतो नथी. शास्त्रमां एम पण आवे छे के सम्यग्दर्शननी पर्यायनो आत्मा कर्ता नथी. ए तो त्यां पर्यायद्रष्टि छोडावी द्रव्यद्रष्टि कराववानी वात छे. ज्यारे अहीं अज्ञानीनी मुख्यताथी वात छे. माटे जीव अज्ञानपणे पोताना विकारी भावनो कर्ता छे एम कह्युं छे. अहीं विकारी भावनो अज्ञानी कर्ता छे एम सिद्ध करवानी वात छे.
परनो कर्ता आत्मा नथी. वळी रागनो कर्ता जे पोताने माने ते पण वास्तवमां जैन नथी. जे रागनो कर्ता पोताने माने ते मिथ्याद्रष्टि छे, जैन नथी. धर्मी जैन तो आनंदनो कर्ता थइने आनंदने भोगवे, अनुभवे छे. भाइ! जैन कोइ संप्रदाय नथी, ए तो वस्तुनुं स्वरूप छे. कह्युं छे ने के- ‘जिन सो ही है आत्मा, अन्य सो ही है कर्म,
वीतरागस्वरूप भगवान आत्मा छे. एनी ज्यां द्रष्टि अने अनुभव थयो तो ज्ञानी रागनो कर्ता थतो नथी, परंतु तेनो जाणनार ज्ञाता रहे छे; अने ते जैन छे.
राग समकितीने, मुनिने थाय छे खरो, पण ते काळे ते जाणेलो प्रयोजनवान छे. बारमी गाथामां ते आवे छे के ते ते काळे जे जे प्रकारना रागनी दशा छे तेने ते ते प्रकारे ज्ञान पोताथी जाणे छे. राग छे माटे जाणे छे एम नहि, पण परने पण जाणवानुं पोताना ज्ञाननुं स्वतंत्र परिणमन छे माटे जाणे छे.
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अहीं कहे छे के-जेम माटी वडे घडो कराय छे तेम पोताना भाव वडे पोतानो भाव करातो होवाथी, जीव पोताना भावनो कर्ता कदाचित् छे. विकारी भावनो कर्ता कदाचित् जीव छे. कदाचित् एटले ज्यांसुधी रागथी भिन्न पडी सम्यग्दर्शन प्रगट न करे त्यां सुधी अज्ञानभावे अज्ञानी जीव रागनो कर्ता थाय छे. कदाचित् एटले अज्ञानदशामां जीव रागनो कर्ता छे. (सम्यग्दर्शन थया पछी ज्ञानी धर्मी जीव ज्ञान परिणामनो कर्ता थाय छे).
अरे जीव! तुं केटकेटला दुःखमां अनादिथी घेराइ गयो छे! भावपाहुडमां तो एम कह्युं छे के-प्रभु! अज्ञानना कारणे तारां एटलां मरण थयां के तारा मरणना काळे तारां दुःख जोइने तारी माताए रडीने जे आसुं सार्यां ते एकठां करीए तो दरियाना दरिया भराय. आवा तो मनुष्यपणाना अनंत भव कर्या. तेम नरकमां, स्वर्गमां, ढोरमां, तिर्यंचमां, निगोदादिमां अनंत-अनंत भव कर्या. अहा! दुःख ज दुःखमां तारो अनंतकाळ निजस्वरूपना भान विना गयो. अंदर सच्चिदानंदस्वरूप भगवान छेे; तेनी द्रष्टि करी नहि अने मिथ्यात्व अने राग-द्वेषना भाव करी करीने तें अनंत दु‘ख सह्यां. ए दुःखनी वात केम करवी! माटे हे भाइ! तुं अंतर्दष्टि कर, जिनभावना भाव.
वळी, जेम माटी वडे कपडुं करी शकातुं नथी तेम पोताना भाव वडे परभावनुं करावुं अशकय होवाथी, जीव पुद्गलभावोनो कर्ता तो कदी पण नथी ए निश्चय छे. माटी पोतानो भाव एटले घडानी पर्यायने करे छे, पण माटी वडे कपडुं करी शकातुं नथी. माटी कर्ता अने कपडुं एनुं कार्य एम बनतुं नथी. केवुं द्रष्टांत आप्युं छे! तेम जीव विकारना भावने करे पण कर्मनी पर्यायने करे ए अशकय छे. तेम जड कर्मना भाव वडे कर्मनो भाव थाय पण कर्मना भाव वडे जीवनो विकारी भाव करावो अशकय छे. सीमंधर भगवाननी पूजामां आवे छे के-
एकली अग्निने कोइ मारतुं नथी, पण लोहनो संसर्ग करे तो अग्निने घणना घा खावा पडे छे. तेम एकलो आत्मा, परनो संबंध करी राग-द्वेष न करे तो दुःखने पाप्त न थाय. पण निमित्तना संगे पोते राग द्वेष करे तो चारगतिना दुःखना घण खावा पडे, चारगतिमां रझळवुं पडे. अरे भाइ! रागद्वेषनी एकतानुं अनंत दुःख छे अने एवां अनंत दुःख तें भोगव्यां छे.
अहीं तो स्पष्ट वात छे के आत्मा पोताना भावने करतो होवाथी विकारीभावोनो कर्ता अज्ञानपणे आत्मा छे. परंतु जेम माटी वडे कपडुं करी शकातुं नथी तेम पोताना विकारीभाव वडे कर्मबंधन थतुं नथी. तेवी ज रीते जड कर्मना भाव वडे कर्मनो भाव
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थाय पण कर्मना भाव वडे जीवनो विकारी भाव थतो नथी. कर्मने लइने जीवमां विकार थाय अने विकारने लइने कर्मबंधन थाय एम केेटलाक माने छे पण ए यथार्थ नथी.
पंचास्तिकाय गाथा ६२मां तो एम कह्युं छे के पर्यायमां जे विकार थाय छे ते पोताना षट्कारकथी थाय छे, तेमां परना षट्कारकनी अपेक्ष नथी. आ वात सांभळीने लोकोने खळभळाट थइ जाय छे. तेओ एम कहे छे के कर्मथी विकार न थाय तो विकार जीवनो स्वभाव थइ जाय छे. अरे भाइ! एम नथी. विकार पर्यायमां पोताथी थाय छे. परनी अपेक्षा तो नहि, पण पोताना द्रव्य-गुणनी पण अपेक्षा विना स्वतंत्रपणे एक समयनी पर्यायमां षट्कारकनुं परिणमन थइने विकार स्वयंसिद्ध थाय छे, परथी नहि. जेम माटीथी कपडुं न थाय तेम कर्मना उदयथी विकार न थाय अने विकारना कारणे कर्म बंध न थाय. जीवना पोताना विकारना परिणमनमां बीजी चीज (कर्मनो उदय) निमित्त हो भले, पण निमित्तने लइने विकार थयो छे एम नथी. अहीं पोतामां पोताथी विकार थयो त्यार बीजी चीजने (कर्मना उदयने) निमित्त कहेवामां आवे छे. विकार परथी थाय एम जे माने तेने अंदर एकलो आनंदघन प्रभु ज्ञानस्वभावनो रसकंद स्वयंज्योति भगवान पडयो छे ए केम बेसे?
अहाहा...! माटी वडे जेम कपडुं करी शकातुं नथी तेम पोताना विकारी भाव वडे परभावनुं करावुं, कर्मबंधननुं करावुं अशकय छे. गजब वात छे! स्थूळबुद्धिवाळाने समजवुं कठण पडे. व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादि रागमां जे होंश करी उत्साहथी रोकाइ रह्यो छे तेने अहीं कहे छे के भाइ! पूजाना शब्दोनी भाषानो कर्ता आत्मा नथी तने शुभभावनो विकल्प आवे छे माटे ‘स्वाहा’ इत्यादि शब्दो बोलाय छे एम नथी. भाइ! माटी वडे घडो थाय, पण माटी वडे शुं कपडुं थाय? न थाय. तेम पोताना भाव वडे पोतानो भाव थाय, पण पोताना भाव वडे शुं परनो भाव थाय? न थाय. पहेलां अस्तिथी कह्युं छे के पोताना भाव वडे पोतानो भाव कराय छे अने हवे नास्तिथी कह्युं के पोताना भाव वडे परनो भाव कदी करी शकातो नथी. भाइ! आ आंगळी हले छे एनो कर्ता आत्मा नथी. भाषा बोलती वेळा होठ हले एनो कर्ता आत्मा नथी. एक रजकणनी पण जे समये जे पर्याय थवानी योग्यता छे ते तेनाथी स्वतंत्रपणे थाय छे, एने आत्मा करे एम त्रणकाळमां छे नहि.
अज्ञानी जीव पोताना राग वडे रागने करे, पण राग वडे भाषा करे के आंगळी हलावे एम छे नहि. परमां लेवा-देवानुं कार्य थयुं ते एने राग छे माटे थयुं एम नथी. कोइने अनाज आपवानो शुभराग थयो माटे ए भावथी बीजाने अनाज आपी शकाय एम छे नहि. परना कार्यमां प्रभु आत्मा पांगळो छे, केमके ते परनुं कार्य करी शकतो नथी. शुभाशुभभाव थयो एनाथी कर्म बंधायुं अने एनाथी गति प्राप्त थइ एम व्यवहारथी कहेवाय छे, पण वस्तुस्वरूप एम नथी.