Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 83.

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अहीं स्पष्ट कहे छे के पोताना भाव वडे परभावनुं करावुं अशकय होवाथी पुद्गलभावोनो कर्ता तो जीव कदी नथी ए निश्चय छे. जीव अज्ञानभावे पोताना रागभावोने करे पण एनाथी परभावनुं करावुं अशकय छे. देशनी सेवा करी शके, दीनदुःखियाने आहार, पाणी, ओसड दइ शके-एवी परनी क्रिया आत्मा करी शके ए वात त्रण काळमां शकय नथी. शरीरनी क्रिया आत्मा करी शकतो नथी पछी करवुं के नहि ए प्रश्न ज कयां छे? आ पुस्तकनुं पानुं आम फरे ते क्रिया आंगळीथी थइ शके छे एम नथी. ए परमाणु पोते पोतानी क्रियावती शक्तिने लइने आम गति करे छे.

कळशटीकामां प्रश्न कर्यो छे के-आत्मामां अनंत शक्तिओ छे तो एमां कोइ एवी शक्ति छे के परनुं काम करे? त्यां समाधान कर्युं छे के-भगवान! आत्मा परनुं कांइ करे एवी एनामां शक्ति नथी. हा, आत्मामां एवी शक्ति छे के अज्ञानभावे पर्यायमां रागने करे पण जीव पुद्गलभावोनो कर्ता तो कदी पण नथी ए निश्चय छे. ज्ञानावरणीय कर्म बंधाय, दर्शनावरणीयकर्म बंधाय इत्यादि कर्मनी पर्यायनो कर्ता जीव त्रण काळमां नथी.

प्रश्नः– कर्मरूपी वेरीने हणे ते अरिहंत-आवो अरिहंतनो अर्थ शास्त्रमां कर्यो छे ने?

उत्तरः– हा, शास्त्रमां एवा कथन आवे छे के आत्मा कर्म बांधे, आत्मा कर्म हणे-छोडे; पण ए तो बधां व्यवहारनां कथन छे. अहीं तो कहे छे के आत्मा जड कर्मने हणी शकतो नथी. आत्मा रागद्वेष करे त्यां जे कर्म बंधाय ते एना कारणे अने वीतरागता प्रगट करे त्यां जे कर्म छूटे ते पण एना पोताना कारणे. दरेक वखतेे कर्मनी अवस्था जे थवा योग्य होय ते पोताथी स्वतंत्रपणे थाय छे. अहीं वीतरागभाव प्रगट कर्यो माटे कर्मनी अकर्मरूप अवस्था थइ एम नथी. आवुं ज वस्तु स्वरूप छे.

* गाथाः ८०–८१–८२ भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जीवना परिणामने अने पुद्गलना परिणामने परस्पर मात्र निमित्तनैमित्तिकपणुं छे तो पण परस्पर कर्ताकर्मभाव नथी.’ अहीं मिथ्यात्व अने रागद्वेषने जीवना परिणाम कह्या छे. अज्ञानीनी वात छे ने? भेदज्ञान नथी एवो अज्ञानी जीव स्वतंत्रपणे पोते ज रागद्वेषने करे छे. अज्ञानी जीवना शुभाशुभ विकारी परिणाम अने पुद्गलना परिणाम कहेतां कर्मनो उदय-ए बन्नेने परस्पर मात्र निमित्तनैमित्तिकपणुं छे. जीवना विकारी परिणाम नैमित्तिक पोताना उपादानथी थया त्यारे जड कर्मनो उदय निमित्तमात्र छे. आवुं बन्नेने निमित्तनैमित्तिकपणुं होवा छतां परस्पर कर्ताकर्मपणुं नथी. जीवना विकारी परिणाममां कर्मनुं निमित्त अने कर्म परिणमे छे एमां अज्ञानीना रागद्वेषनुं नुं निमित्त-आम परस्पर निमित्तनैमित्तिकपणुं होवा छतां कर्ताकर्मपणुं नथी. कर्म जीवना रागने करे अने राग छे ते कर्मबंधनी पर्यायने करे एम कदीय नथी.


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प्रश्नः– कर्मनो कांइक प्रभाव तो पडे छे के नहि?

उत्तरः– ना; प्रभावनो अर्थ शुं? प्रभाव द्रव्य छे, गुण छे के पर्याय छे? प्रभाव एटले जडनी पर्याय; एनाथी जीवने विकार थाय एनी अहीं ना पाडे छे. कर्मनो उदय जडना परिणाम छे. ए जीवना विकारी परिणामने करे एनो अहीं निषेध करे छे. कहे छे के जीवना परिणाम अने पुद्गलना परिणामने परस्पर कर्ताकर्मभाव नथी. अज्ञानदशामां जीव पोताना विकारी भावोनो कर्ता छे, पण परभावोनो कर्ता कदी पण नथी.

प्रश्नः– आपना प्रभावथी हजारो माणसो समजे छे ने?

उत्तरः– जेनी जेनी तत्त्वनी वात सांभळवानी अने समजवानी योग्यता होय छे ते पोताना कारणे आवे छे, सांभळे छे अने स्वतंत्र पोतानी तेवी योग्यताथी समजे छे. भाइ! आ निमित्त-उपादाननी स्वतंत्रतानी वात लोकोने समजवी कठण पडे छे; पण अहीं तो स्पष्ट कह्युं छे के-जीवना विकारी परिणाम अने कर्मबंधननी पर्यायने परस्पर निमित्तनैमित्तिक संबंध होवा छतां कर्ताकर्मभाव नथी.

हवे कहे छे-‘परना निमित्तथी जे पोताना भाव थया तेमनो कर्ता तो जीवने अज्ञानदशामां कदाचित् कही पण शकाय, परंतु जीव परभावनो कर्ता तो कदी पण नथी.’ ज्यांसुधी रागथी भगवान आत्मा भिन्न छे एवुं भेदज्ञान थयुं नथी त्यां सुधी अज्ञानदशामां निमित्तना लक्षे मिथ्यात्व अने रागद्वेषना परिणाम जीवे स्वतंत्रपणे पोते कर्या छे-माटे तेनो कर्ता कही शकाय. त्यां दर्शनमोहनो उदय आव्यो माटे मिथ्यात्व थयुं छे एम नथी. निमित्त छे खरुं, पण एनाथी जीवने विकारी परिणाम थया छे एम नथी. तथा विकारी परिणाम थया माटे कर्मबंध थयो छे एम नथी. कर्मबंधनी पर्याय पोताथी जे थवा योग्य हती ते स्वतंत्रपणे थइ छे तेमां रागद्वेषना परिणाम निमित्तमात्र छे, कर्ता नहि. रागद्वेष कर्मबंधनना कर्ता छे अने कर्मबंधन एनुं कार्य छे एम नथी.

आत्मा कर्मने लइने विकार करे छे एम जो कोइ कहेतुं होय तो ते वात तद्न खोटी छे. कर्म छे ए परद्रव्यना परिणाम छे अने विकार छे ए स्वद्रव्यना भूलना परिणाम छे. चाहे तो मिथ्यात्व करे के रागद्वेष करे, ए दोषरूप परिणाम पोताथी स्वतंत्र कर्ता थइने जीव करे छे. स्वतंत्र एटले निमित्तनी एने अपेक्षा नथी, निमित्त हो भले. पंचास्तिकाय गाथा ६२मां आव्युं छे ने के विकारनी पर्याय पोते कर्ता, विकारी पर्याय ते कर्म, विकारी पर्याय ते साधन, विकारी पर्याय ते संप्रदान, ते ज अपादान अने ते ज अधिकरण-एम विकारी परिणमनना षट्कारक पर्यायनां पोताना स्वतंत्र छे. द्रव्य-गुण पण विकारना कर्ता नथी अने परद्रव्य पण विकारनुं कारक नथी. आवी द्रव्यना परिणमननी स्वतंत्रतानी वातनो निर्णय यथार्थपणे करवो पडशे हों. एमां संदिग्धपणुं नहि चाले.


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आम वात छे त्यारे कोइ एम कहे छे के कर्मना कारण विना विकार थाय तो विकार जीवनो स्वभाव थइ जाय. भाइ! पर्यायमां जे विकार थाय छे ते वर्तमान पर्यायनो स्वभाव ज छे. पर्यायना षट्कारक पर्यायथी छे, द्रव्य-गुणथी नहि. द्रव्य-गुण तो त्रिकाळ शुद्ध छे अने आ पर्याय जे विकारी थइ छे ते पोताथी थइ छे.द्रव्य-गुण शुद्ध छे तो पर्यायमां विकार थयो कयांथी? तो कहे छे के वर्तमान पर्यायनी योग्यताथी स्वतंत्रपणे विकार थयो छे, कर्मने कारणे विकार थयो छे एम नथी. अज्ञानदशामां जीव मिथ्यात्व अने रागद्वेषनो कर्ता छे पण परभावनो कर्ता तो कदी पण नथी. कर्मने बांधे कर्मनी पर्याय अने छोडे पण कर्मनी पर्याय; जीव तेनो कर्ता नथी. जीव देहनी अवस्थाने करे एम पण कदी बनतुं नथी. शरीरने आम चलावुं एवा रागने ते अज्ञानवश करे छे तेथी ते रागनो कर्ता छे, पण देहनी अवस्थानो त्रण काळमां ते कर्ता नथी. भाइ! बहु धीरज अने शान्तिथी आ समजवुं. अनादिथी तुं जन्म-मरणना सागरमां गोथां खातो दुःखमां डूबी रह्यो छे. अरे भाइ! सुखनो सागर एवो भगवान आत्मा छे, तेना भान विना तुं दुःखी ज दुःखी छे. प्रश्नः– मिथ्यात्व अने पुण्य पापना भावने अज्ञानपणे जीव परनी अपेक्षा विना स्वतंत्रपणे करे छे एवी स्वतंत्रतानो निर्णय करावीने एने(आत्माने) कयां लइ जवो छे? उत्तरः– आवी स्वतंत्रता सिद्ध करीने एने त्रिकाळी आनंदनो नाथ ज्ञायकस्वरूप भगवान पोते छे त्यां एने लइ जवो छे. शास्त्रनुं तात्पर्य वीतरागता छे ने? पंचास्तिकायमां कह्युं छे के चारे अनुयोगनां शास्त्रोनुं तात्पर्य वीतरागता छे. अहीं पण जे वात चाले छे एनुं पण तात्पर्य वीतरागता छे. जीवमां विकार स्वतंत्र थाय छे एवो निर्णय करावीने एने विकारमां रोकी राखवो नथी, पण विकाररहित शुद्ध चैतन्यस्वभावमय भगवान आत्मा छे त्यां एने लइ जवो छे. स्व-आश्रयमां एने लइ जवो छे, केमके स्व-आश्रयथी वीतरागता छे अने ज्यां सुधी परनो आश्रय छे त्यां सुधी एने राग ज छे. अनंतकाळथी जीव पोतानी स्वच्छंदताथी संसारमां रखडे छे. व्यवहारथी-रागथी लाभ(धर्म) थाय एवी ऊंधी मान्यताथी ते संसारमां रखडे छे. पण बापु! रागथी वीतरागता न थाय. व्यवहारनुं लक्ष छोडीने स्वनुं निज चैतन्यस्वभावमय त्रिकाळी शुद्ध आत्मानुं लक्ष करे त्यारे वीतरागी पर्याय प्रगट थाय. विकार पोते स्वतंत्रपणे करे छे पण विकारथी आत्मा हाथ आवे एवी चीज नथी. ए तो शुद्ध चैतन्यनी निर्विकारी अनुभूतिथी प्राप्त थाय छे अने ते अनुभूति स्वना आश्रय वडे प्रगटे छे. खरेखर तो त्रिकाळी ज्ञायकभाव जे छे ते आत्मा छे.नियमसार गाथा ९१मां आवे छे के-‘मिथ्यारत्नत्रयने छोडीने, त्रिकाळ निरावरण, नित्य आनंद जेनुं एक लक्षण छे एवो, निरंजन निज परमपारिणामिकभावस्वरूप कारणपरमात्मा ते आत्मा छे; तेना स्वरूपनां श्रद्धान-ज्ञान-आचरणनुं रूप ते खरेखर निश्चयरत्नत्रय छे.’ आवा त्रिकाळी


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शुद्ध कारणपरमात्मानी द्रष्टि करी तेमां ज स्थिरता करवी ते सम्यग्दर्शन आदि वीतरागतारूप धर्म छे. बाकी बधां थोथेथोथां छे. आवी वीतराग निर्मळ अनुभूति कराववानुं अहीं प्रयोजन छे. अहो! दिगंबर आचार्योए केवां गजब काम कर्यो छे! कइ पण पानुं (शास्त्रनुं) फेरवो के कोइ पण गाथा लो, बधे एक आत्मा ज घूंटयो छे, अमृत ज घूंटयुं छे. कहे छे-प्रभु तुं कोइ छो? अहाहा...! एक समयनी पर्याय विनानी चीज भगवान! तुं निर्मळ आत्मा छो. एने पोतानी निर्मळ अनुभूतिथी जाणवो ते धर्म छे अने आ सिवाय तेने पामवानो बीजो कोइ उपाय नथी. व्यवहाररत्नत्रयना रागथी ते जाणवामां आवतो नथी; रागरहित निर्विकल्प अनुभूतिथी आत्मा आवो छे एवी एनी प्रतीति थाय छे. आ मुदनी वात छे. (आवा आत्माने प्राप्त करवो होय तो प्रथम पर्यायनी स्वतंत्रता नक्की करवी पडशे).

कोइने हरखनो सन्निपात थयो होय तो खडखड हसे, दांत काढे. पण शुं ते सुखी छे? ना; ते दुःखी ज छे. एम विकार करीने अमे सुखी छीए एम कोइ माने तो ते पागल दुःखी ज छे. त्रिलोकीनाथ सर्वज्ञ परमात्मा कहे छे के तुं अमारी सामे जोइश तो तने राग ज थशे, केमके अमे(तारा माटे) परद्रव्य छीए. माटे तुं तारा स्वद्रव्यमां जो, तेथी तने वीतरागता अने धर्म थशे. अरिहंत परमात्मा कहे छे के अमे ज्यारे मुनिदशामां हता त्यारे अमने आहारदान आपनारने ते दानना भाव वडे पुण्यबंध थयो हतो, धर्म नहीं. (परना आश्रये थता कोइ भावथी धर्म न थाय).

कोई साधुने आहारदान आपवाथी संसार परित थाय एम माने तो ते तद्न खोटी वात छे. शुभभावथी संसार परित थाय एम कदीय बने नहि. हाथीना भवमां ससलानी दया पाळी तेथी संसार परित थयो-आवां बधा कथन सत्य नथी.

अहीं तो कहे छे के विकारी परिणामनो जीव स्वतंत्रपणेकर्ता छे, तेमां परनी- कर्मोदयनी अपेक्षा नथी. आम विकारनुं स्वतंत्रपणुं सिद्ध कर्युं छे. विकार पर्यायमां समये समये पोताना षट्कारकथी नवो नवो थाय छे. अने निर्मळानंदनो नाथ चैतन्यस्वभावी वस्तु त्रिकाळ एवी ने एवी ध्रुव पडी छे तेनो आश्रय लेतां सम्यग्दर्शन आदि धर्म प्रगट थाय छे. भगवान आत्मा स्वना आश्रये जे मोक्षमार्गनी पर्याय प्रगट करे तेनो पण ए स्वतंत्र कर्ता छे. जडकर्मनो अभाव थयो माटे मोक्षमार्ग थयो छे एम नथी. आवी वस्तुस्थित छे ते यथार्थ समजवी जोइए.

[प्रवचन नं. १३७ शेष, १३८, १३९ चालु * दिनांक २६-७-७६ थी २८-७-७६]

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गाथा–८३

ततः स्थितमेतज्जीवस्य स्वपरिणामैरेव सह कर्तृकर्मभावो भोक्तृभोग्यभावश्च–

णिच्छयणयस्स एवं आदा अप्पाणमेव हि करेदि।
वेदयदि पुणो तं चेव जाण
अत्ता दु अत्ताणं।। ८३।।
निश्चयनयस्यैवमात्मात्मानमेव हि करोति।
वेदयते पुनस्तं चैव जानीहि आत्मा त्वात्मानम्।। ८३।।

तेथी ए सिद्ध थयुं के जीवने पोताना ज परिणामो साथे कर्ताकर्मभाव अने भोक्ताभोग्यभाव (भोक्ताभोग्यपणुं) छे एम हवे कहे छेः-

आत्मा करे निजने ज ए मंतव्य निश्चयनय तणुं,
वळी भोगवे निजने ज आत्मा एम निश्चय जाणवुं. ८३.

गाथार्थः– [निश्चयनयस्य] निश्चयनयनो [एवम्] एम मत छे के [आत्मा] आत्मा [आत्मानम् एव हि] पोताने ज [करोति] करे छे [तु पुनः] अने वळी [आत्मा] आत्मा [तं च एव आत्मानम्] पोताने ज [वेदयते] भोगवे छे एम हे शिष्य! तुं [जानीहि] जाण.

टीकाः– जेम उत्तरंग अने निस्तरंग अवस्थाओने पवननुं वावुं अने नहि वावुं ते निमित्त होवा छतां पण पवनने अने समुद्रने व्याप्यव्यापकभावना अभावने लीधे कर्ताकर्मपणानी असिद्धि होवाथी, समुद्र ज पोते अंतर्व्यापक थईने उत्तरंग अथवा निस्तरंग अवस्थाने विषे आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने उत्तरंग अथवा निस्तरंग एवा पोताने करतो थको, पोताने एकने ज करतो प्रतिभासे छे परंतु अन्यने करतो प्रतिभासतो नथी; अने वळी जेम ते ज समुद्र, भाव्यभावकभावना (भाव्यभावकपणाना) अभावने लीधे परभावनुं पर वडे अनुभवावुं अशकय होवाथी, उत्तरंग अथवा निस्तरंगरूप पोताने अनुभवतो थको, पोताने एकने ज अनुभवतो प्रतिभासे छे परंतु अन्यने अनुभवतो प्रतिभासतो नथी; तेवी रीते ससंसार अने निःसंसार अवस्थाओने पुद्गलकर्मना विपाकनो संभव अने असंभव निमित्त होवा छतां पण पुद्गलकर्मने ________________________________________________________________________

१. उत्तरंग = जेमां तरंगो ऊठे छे एवुं; तरंगवाळुं. २. निस्तरंग = जेमां तरंगो विलय पाम्या छे एवुं; तरंग विनानुं. ३. संभव = थवुं ते; उत्पति.


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अने जीवने व्याप्यव्यापकभावना अभावने लीधे कर्ताकर्मपणानी असिद्धि होवाथी, जीव ज पोते अंतर्व्यापक थईने ससंसार अथवा निःसंसार अवस्थाने विषे आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने ससंसार अथवा निःसंसार एवा पोताने करतो थको, पोताने एकने ज करतो प्रतिभासो परंतु अन्यने करतो न प्रतिभासो; अने वळी तेवी रीते आ ज जीव, भाव्यभावकभावना अभावने लीधे परभावनुं पर वडे अनुभवावुं अशकय होवाथी, ससंसार अथवा निःसंसाररूप पोताने अनुभवतो थको, पोताने एकने ज अनुभवतो प्रतिभासो परंतु अन्यने अनुभवतो न प्रतिभासो. भावार्थः– आत्माने परद्रव्य-पुद्गलकर्म-ना निमित्तथी ससंसार-निःसंसार अवस्था छे. ते अवस्थारूप आत्मा पोते ज परिणमे छे. तेथी ते पोतानो ज कर्ता-भोक्ता छे; पुद्गलकर्मनो कर्ता-भोक्ता तो कदी नथी. * * *

समयसार गाथा ८३ः मथाळुं

तेथी ए सिद्ध थयुं के जीवने पोताना ज परिणामो साथे कर्ताकर्मभाव अने भोक्ताभोग्यभाव छे. बंधमार्ग अने मोक्षमार्ग बन्नेनो कर्ता आत्मा स्वतंत्र छे एम हवे सिद्ध करे छेः- * गाथा ८३ः टीका उपरनुं प्रवचन * जुओ, अप्पाणमेव हि करेदि–एम (गाथामां) पाठमां छे ने? मतलब के विकारी अने निर्विकारी पर्यायने आत्मा करे छे. सवारे एम आव्युं हतुं के आत्मा मोक्षमार्गनी पर्यायने पण करतो नथी. ए तो त्यां वस्तुनो-आत्मानो अकर्तास्वभाव सिद्ध कर्यो छे. अहीं तो कर्तापणानी वात करे छे. आत्मा परनो कर्ता नथी अने पर कर्ता थइने आत्मामां कांइ करतुं नथी ए वात अहीं सिद्ध करवी छे. तेथी कहे छे के मोक्षमार्गनी पर्याय अने रागनी विकारी पर्यायनो कर्ता जीव छे, कर्म नहि. भाइ! आ तारी स्वतंत्रतानो ढंढेरो पीटयो छे. माटे कर्मथी थाय अने रागथी थाय एवी विपरीतता छोडी दे. विपरीत परिणामनुं फळ आकरुं आवशे. बापा! ‘जेम उत्तरंग अने निस्तरंग अवस्थाओने पवननुं वावुं अने नहि वावुं ते निमित्त होवा छतां पण पवनने अने समुद्रने व्याप्यव्यापकभावना अभावने लीधे कर्ताकर्मपणानी असिद्धि छे.’ दरियामां तरंग उठे तेने उत्तरंग कहे छे अने तरंग विलय पामे तेेने निस्तरंग (तरंग रहित) कहे छे. दरियामां तरंग उठे त्यारे पवननुं वावुं निमित्त छे अने ज्यारे तरंग विलय पामे त्यारे पवननुं नहि वावुं निमित्त छे. पवननुं वावुं निमित्त छे एटले ए (पवननुं वावुं) तरंगने उठावे छे एम नथी. तथा पवननुं नहि वावुं तरंगने शमावी दे छे एम नथी. पवन अने समुद्रने व्याप्यव्यापकभावनो अभाव छे. एटले पवन


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व्यापक अने समुद्रनुं तरंग एनुं व्याप्य-एम नथी. माटे त्यां कर्ताकर्मपणानी असिद्धि छे. समुद्रमां तरंग उठयुं ते वेळा पवननुं निमित्त छे पण पवनथी तरंग उठयुं छे एम नथी. अने तरंग शमी गयुं त्यारे पवननो अभाव निमित्त छेे, पण पवनना अभावने कारणे तरंग शमी गयुं छे एम नथी. दरियामां मोजां उठे एमां पवननुं निमित्तपणुं हो. वळी मोजां शमाय एमां पवनना अभावनुं निमित्त हो. (निमित्त नथी एम कोण कहे छे?). एम होवा छतां पवनने लइने मोजुं उत्पन्न थयुं अने पवन नथी माटे मोजुं शमाय गयुं एम नथी. संयोगद्रष्टि वडे जोनारने एम भासे के आ पवन आयो(वायो) माटे मोजां उछळ्‌यां अने पवन वातो बंध थयो माटे मोजां शमी गयां. परंतु भाइ! वस्तु स्वरूप एम नथी. पोताना कारणे मोजुं थयुं छे अने पोताना कारणे शमी गयुं छे. कहे छे ने के पवन अने समुद्रने व्याप्यव्यापकपणानो अभाव होवाथी कर्ताकर्मपणानी असिद्धि छे. पवन मोजाने उत्पन्न करे अने पवननो अभाव मोजाने शमावी दे एम त्रणकाळमां नथी. लोकोने एवुं लागे छे के निमित्तथी परमां कांइ न थाय तो एने निमित्त केम कहीए? अरे भाइ! निमित्त परद्रव्यने अडतुंय नथी. परद्रव्यनी पर्यायने निमित्तनी पर्याय अडती नथी. माटे निमित्तने लइने परद्रव्यमां कांइक थाय एवुं छे ज नहि. ‘समुद्र ज पोते अंतर्व्यापक थइने उत्तरंग अथवा निस्तरंग अवस्थाने विषे आदि- मध्य-अंतमां व्यापीने उत्तरंग अथवा निस्तरंग एवा पोताने करतो थको, पोताने एकने ज करतो प्रतिभासे छे परंतु अन्यने करतो प्रतिभासतो नथी.’

शुं कह्युं? समुद्र ज पोते अंतर्व्यापक थइने उत्तरंग अथवा निस्तरंग अवस्थाने विषे आदि-मध्य-अंतमां व्यापे छे. तरंग उठवानी आदिमां समुद्र छे, मध्यमां समुद्र छे अने एना अंतमां समुद्र छे. एनी आदिमां पवन छे एम नथी. तरंगमां पवन प्रसरेलो छे एम नथी. अहाहा...! तरंगनी उत्पति समुद्र करे छे अने तेनो विलय पण समुद्र पोते करे छे. तरंगना विलयनी आदिमां समुद्र छे, पवननो अभाव नथी. वळी समुद्रनी उत्तरंग वा निस्तरंग पर्यायनी उत्पत्तिमां समुद्र पोताने एकने ज करतो प्रतिभासे छे, निमित्तने करतो प्रतिभासतो नथी. शीतळ हवाने करतो होय-एम अन्यने करतो प्रतिभासतो नथी. ‘अने वळी जेम ते ज समुद्र, भाव्यभावकभावना अभावने लीधे परभावनुं पर वडे अनुभवावुं अशकय होवाथी, उत्तरंग अथवा निस्तरंगरूप पोताने अनुभवतो थको, पोताने एकने ज अनुभवतो प्रतिभासे छे परंतु अन्यने अनुभवतो प्रतिभासतो नथी.’

पर भाव्य नाम थवा योग्य अने भावक नाम थनार पोते-एम भाव्यभावकभावना अभावने लीधे परभावनुं पर वडे अनुभवावुं अशकय छे माटे समुद्र पवनने अनुभवतो


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नथी. समुद्र पोतानी उत्तरंग वा निस्तरंग अवस्थाने अनुभवतो थको पोताने एकने ज अनुभवतो प्रतिभासे छे, पण पवननी अवस्थाने अनुभवतो प्रतिभासतो नथी. आ प्रमाणे समुद्र पोताना भावने करे छे अने पोताना भावने भोगवे छे; परंतु पवननी पर्यायने करतो नथी अने भोगवतो नथी.

भाई! वीतराग मार्ग बहु सूक्ष्म छे. परमात्माए अनंत तत्त्व कह्यां छे. ते अनंत अनंतपणे कयारे सिद्ध थाय? के पोते पोतानी पर्यायथी छे अने परथी नथी एम निश्चत थाय तो. जो पोतानी पर्याय परथी होय तो अनंत अनंतपणे सिद्ध कइ रीते थाय. बधो खीचडो थइ जशे. अहीं द्रष्टांतमां पण ए ज निश्चित कर्युं के समुद्र अन्यने करतो के अनुभवतो प्रतिभासतो नथी.

हवे आत्मामां सिद्धांत लागु करे छे. कहे छे-‘तेवी रीते ससंसार अने निःसंसार अवस्थाओने पुद्गलकर्मना विपाकनो संभव अने असंभव निमित्त होवा छतां पण पुद्गलकर्मने अने जीवने व्याप्यव्यापकभावना अभावने लीधे कर्ताकर्मपणानी असिद्धि छे.’

संसारदशा एटले मिथ्यात्व, राग-द्वेष, कषाय, योग आदि सहित जीवनी दशा तथा निःसंसार अवस्था एटले शुद्ध चैतन्यस्वभावना आश्रये उत्पन्न थती जीवनी सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्गनी अवस्था. तेमां अनुक्रमे पुद्गलकर्मना विपाकनो संभव अने असंभव निमित्त होय छे.

आत्माना मिथ्यात्व अने राग-द्वेषना परिणाम ए एनी संसारदशा छे; कर्मनो विपाक एमां निमित्त छे. निमित्त छे एटले कर्मनो विपाक आत्मानी विकारी संसार दशाने करे छे एम अर्थ नथी. संसार युक्त जीव निगोदमां हो के स्वर्गमां, एने जे मिथ्यात्व अने राग- द्वेष सहित अवस्था छे तेमां कर्मनो विपाक निमित्त होवा छतां जडकर्म कर्ता अने विकारी परिणाम एनुं कार्य एम छे नहि, केमके पुद्गलकर्म अने जीवने परस्पर व्याप्यव्यापकभावनो अभाव होवाथी कर्ताकर्मपणानी असिद्धि छे. जीव स्वयं पोताना अशुद्ध उपादाननी योग्यताथी पोतानी संसारदशाने उत्पन्न करे छे. कर्मनो उदय आवे तो विकार करवो पडे अने कर्म खसे तो सम्यग्दर्शन आदि धर्म थाय एम केटलाक माने छे पण तेमनी आ मान्यता जूठी छे, विपरीत छे एम अहीं कहे छे.

प्रश्नः– घनघाती कर्मनो अभाव थाय तेथी केवळज्ञान थाय छे एम शास्त्रमां आवे छे ने?

उत्तरः– ए तो निमित्तनी मुख्यताथी कहेलुं व्यवहारनयनुं कथन छे. घनघाती कर्मनो नाश थयो माटे अर्हंतने केवळज्ञान थयुं छे एम नथी. केवळज्ञाननी पर्यायने अर्हंतना जीवे स्वतंत्रपणे कर्ता थइने करी छे. केवळज्ञान थवामां घनघाती कर्मना


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अभावनी अपेक्षा नथी. केवळज्ञाननी अवस्थामां घनघाती कर्मना अभावनुं निमित्त होवा छतां घातीकर्मनो अभाव थयो माटे केवळज्ञान थयुं छे एम नथी.

गोम्मटसारमां (गाथा १९७मां) आवे छे के पोताना भाव कलंकनी प्रचुरताना कारणे निगोदना जीवो निगोदने छोडी नीकळता नथी. कर्मनुं जोर छे माटे बहार आवता नथी एम त्यां नथी कह्युं. संसारयुक्त अवस्था चाहे भवि जीवनी हो के अभविनी, ते अवस्थानो जीव पोते कर्ता छे अने ते अवस्था जीवनुं पोतानुं कर्म छे एटले कार्य छे. संसार अवस्थामां कर्मना विपाकनुं निमित्त छे, परंतु कर्मनुं निमित्त जीवना मिथ्यात्वादि परिणामनुं कर्ता अने मिथ्यात्वादि परिणाम एनुं कार्य-एम नथी. मिथ्यात्वना भाव छे ते संसारभाव छे अने दर्शनमोहनो उदय तेमां निमित्त छे. परंतु दर्शनमोहनो उदय मिथ्यात्वभावनो कर्ता अने मिथ्यात्वभाव एनुं व्याप्य कर्म-एम कदीय नथी. केटलुं स्पष्ट कर्युं छे! निमित्त हो भले, पण निमित्तथी कार्य थाय छे एम त्रणकाळमां नथी. अहाहा..! घडो माटीथी थयो छे; कुंभारथी थयो छे एम अमे देखता नथी एम आचार्य भगवान कहे छे.

प्रश्नः– आ आपना उपदेशथी अमने समजाय छे ने?

उत्तरः– एम छे नहि. पोते पोतानी योग्यताथी समजे तो समजाय छे, परथी नहि. जो परथी समजाय तो पूर्व भगवानना समोसरणमां अनंतवार गयो, छतां पोते केम ना समज्यो? काळलब्धि पाकी नहि माटे-एम जो कोइ कहे तो एनो अर्थ ज ए थयो के पोते ऊंधो पुरुषार्थ कर्यो माटे समज्यो नहि; ऊंधो परुषार्थ ए एनी काळलब्धि छे अने जीव तेनो स्वतंत्र कर्ता छे. स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षामां आवे छे के प्रत्येक द्रव्यनी प्रत्येक समये जे पर्याय थाय छे-विकारी के अविकारी-ते तेनी काळलब्धि छे, अने ते ज पर्याय त्यां थाय छे. पर्यायनी उत्पत्तिना काळे ते पर्याय पोताथी थाय छे, परना कारणे नहि.

प्रश्नः– कार्य थवामां बे कारण होय छे एम कह्युं छे ने?

उत्तरः– हा, कह्युं छे. परंतु तेमां वास्तविक कारण एक(उपादान) ज छे. बीजुं (निमित्त) तो उपचरित्त कारण छे. जेम अंदर मोक्षमार्ग एक ज छे तेम. पंडितप्रवर श्री टोडरमलजीए मोक्षमार्गप्रकाशकामां अत्यंत स्पष्ट कर्युं छे के-मोक्षमार्ग बे नथी, तेनुं निरूपण बे प्रकारथी छे. पोताना स्वभावना आश्रये जे मोक्षमार्ग जे मोक्षमार्ग प्रगट कर्यो ते निश्चय, अने तेनी साथे जे देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो विकल्प, पंचमहाव्रतनो विकल्प, शास्त्र भणवानो विकल्प इत्यादि निमित्तपणे सहचर होय छे तेने साथे थतो देखीने उपचारथी मोक्षमार्ग कहे छे, पण ते मोक्षमार्ग छे नहि. तेम कथनमां आवे के कार्यनां कारण बे छे, परंतु खरेखर कारण एक(उपादान) ज छे.


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आम छे छतां कोइने आवी तत्त्वनी वात न बेसे तो तेना प्रति विरोध न होय. कोइ पण व्यक्ति हो! अंदर भगवान बिराजे छे, भाइ! एक समयनी पर्यायमां तेनी भूल छे. ए भूलने काढी नाखे तो पोते भगवान छे. ए भूल केम नीकळे एनी अहीं वात चाले छे. अहीं कहे छे के निमित्तथी कार्य थाय, व्यवहारथी(निश्चय) थाय एम छे ज नहि.

लोकोने आवी वात कदी सांभळी न होय एटले आकरी लागे छे. पण मार्ग तो आ ज छे बापु! प्रभु! तुं तारी पर्यायनो स्वतंत्र कर्ता छे. विकारी के अविकारी पर्यायने स्वतंत्रपणे करनारो तुं पोते कर्ता छे; एमां परनी-निमित्तनी रंचमात्र पण अपेक्षा नथी. मिथ्यात्वादिनी विकारी पर्याय स्वयं पोताना षट्कारकरूपे परिणमीने उत्पन्न थाय छे, निमित्तथी नहि अने पोताना द्रव्यगुणथी पण नहि. केमके द्रव्य-गुण त्रिकाळ शुद्ध छे अने मिथ्यात्वादि भाव तो अशुद्ध छे. द्रव्यमां जेम षट्कारको छे तेम पर्यायमां पण पोताना षट्कारक स्वतंत्र छे.

अत्यारे तो घणी गडबड थइ गइ छे. केटलाक कहे छे के-आ तो अभिन्न कारकनी वात छे. पण अभिन्ननो अर्थ शुं? ए ज के विकार थाय छे ते परनी अपेक्षा विना स्वतंत्र पोताथी थाय छे. परकारकथी निरपेक्षपणे विकार पोताथी स्वतंत्र थाय छे एम पंचास्तिकायनी गाथा ६२मां पाठ छे. ए वात अहीं सिद्ध करे छे. भाइ! दिगंबर संतोनी वाणी पूर्वापर विरोध रहित होय छे. पूर्वापर विरोध होय ते वीतरागनी वाणी ज नथी. भाइ! ज्यां जे अपेक्षाथी कथन होय त्यां ते अपेक्षाथी यथार्थ समजवुं जोइए. कह्युं छे ने के- ‘अपनेको आप भूलके हेरान हो गया,’ माटे कर्मने लइने विकार थाय छे एम छे ज नहि. पूजामां आवे छे के-

‘कर्म बिचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई;
अग्नि सहै घनघात लोहकी संगति पाई.’

अग्नि लोहमां प्रवेश करे तो तेना उपर घणना घा पडे छे, भिन्न रहे तो घणना घा पडता नथी. एम भगवान आत्मा निमित्तनो संग करीने विकार करे तो दुःखना घा खावा पडे छे.

जुओ, पोतेे निमित्तनो संग करीने स्वतंत्रपणे पोतानी पर्यायमां मिथ्यात्व अने रागद्वेषना भाव करे छे. विषय वासनानी जे पर्याय थाय छे तेमां वेदनो उदय निमित्त भले हो, पण वासना जे उत्पन्न थइ ते पोतानथी थइ छे. द्रव्य वेदनो उदय कर्ता अने वासना एनुं कार्य एम नथी. पर कर्ता अने पर भोक्ता नथी पण आत्मा स्वयं पोतानी पर्यायने करे छे ए वात अहीं सिद्ध करवी छे.

द्रव्य अने पर्यायनी परस्पर वात होय त्यां तो मिथ्यात्व अने सम्यक्त्व-ए


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बन्ने पर्यायोनुं कर्ता आत्मद्रव्य नथी एम वात आवे. पण अहीं तो पर्यायनो कर्ता द्रव्य पोते छे. पर नथी एम सिद्ध करवुं छे.

प्रश्नः– तो बे मांथी कइ वात अमारे मानवी?

उत्तरः– बन्ने वात अपेक्षाथी सत्य छे. भगवान! एक वार सांभळ. विकारनो कर्ता परद्रव्यने मानी स्वच्छंदी थाय तेने ते मान्यता छोडाववा विकार पोते करे छे एम कह्युं. हवे ज्यारे विकार अने द्रव्य स्वभाव वच्चे भेदज्ञान कराववानी वात होय त्यारे विकारनुं कर्ता द्रव्य नथी, पण पर्याय पोते पोताथी विकार स्वतंत्रपणे करे छे एम वात आवे. बन्नेनुं तात्पर्य एक वीतरागता ज छे.

केवळी भगवान निश्चयथी त्रणकाळ त्रणलोकने देखता नथी, पण पर्यायने देखतां तेमां त्रणकाळ त्रणलोक देखवामां आवी जाय छे. जेम रात्रे नदीनुं स्वच्छ जळ होय तेमां चंद्र, ग्रह, नक्षत्रनुं प्रतिबिंब पडे छे. एक चंद्र, अठ्ठावीस नक्षत्र,अठ्ठासी ग्रह, ६६९७प क्रोडाक्रोडी तारा-ए बधुं नदीना स्वच्छ जळने देखतां थइ जाय छे. अंदर जे देखाय छे ते चंद्र, ग्रह, नक्षत्र आदि नथी, देखाय छे ए तो जळनी अवस्था छे. तेम नित्यानंद ज्ञानस्वभावी भगवान आत्माने, पोतानी ज्ञान-अवस्था के जेमां लोकालोक झळकया छे तेने देखे छे त्यां लोकालोक सहज देखाय जाय छे. जेने ते देखे छे ए तो ज्ञाननी अवस्था छे, लोकालोक नथी; पण ज्ञाननी अवस्थामां लोकालोक झळकया छे तेथी भगवान लोकालोकने देखे छे एम असद्भूत व्यवहारनयथी कहेवामां आवे छे. केमके लोकालोक परज्ञेय छे. पोतानी पर्यायने देखतां एमां लोकालोक संबंधीनुं ज्ञान आवी जाय छे. परंतु लोकालोक छे तो केवळज्ञान थयुं छे एम नथी.

शास्त्रमां आवे छे के लोकालोक केवळज्ञानमां निमित्त छे अने केवळज्ञान लोकालोकने निमित्त छे. एनो अर्थ ए छे के लोकालोक संबंधी ज्ञान थयुं ते पोताथी थयुं छे, लोकालोकथी थयुं नथी. लोकालोकने केवळज्ञान निमित्त छे अने केवळज्ञानने लोकालोक निमित्त छे. एम अरसपरस निमित्त छे पण कर्ताकर्मपणुं नथी.

प्रभु! तारी स्वतंत्रता देख! भूलमां पण स्वतंत्र अने मोक्षमार्गमां पण तुं स्वतंत्र छे. भाइ! आवुं मनुष्यपणुं मळ्‌युं अने एमां यथार्थ तत्त्वनुं ज्ञान न कर्युं तो कयां जइश बापु?

प्रश्नः– कर्म बळवान छे ने?

उत्तरः– ना, बीलकुल नहि. भावकर्मने बळवान कह्युं छे. इष्टोपदेशमां आवे छे के भावकर्म एेटले विकारनुं जोर छे त्यारे निर्विकार दशानुं जोर नथी. (परंतु कर्म छे माटे निर्विकारी दशा प्रगट नथी एम नथी).


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प्रश्नः– बन्ने सामसामे बळिया छे एम कहो तो?

उत्तरः– ना, एम नथी. कोई वखते कर्मनुं जोर अने कोई वखते आत्मानुं जोर एम नथी. हा, कोईवार विकारनुं जोर अने कोईवार अविकारनुं जोर एम होय छे, परंतु आत्मानी अवस्थामां कर्मनुं जोर बीलकुल नथी. अरे भाई! तत्त्वज्ञाननी यथार्थ समजण विना धर्म केम थाय?

हवे कहे छे- ‘जीव ज पोते अंतर्व्यापक थईने ससंसार अथवा निःसंसार अवस्थाने विषे आदि-मध्य-अंतमां व्यापीने ससंसार अथवा निःसंसार एवा पोताने करतो थको, पोताने एकने ज करतो प्रतिभासो परंतु अन्यने करतो न प्रतिभासो.’ अहो! दिगंबर संतोए थोडामां घणुं भरी दीधुं छे. मिथ्यात्वादि संसारअवस्थामां आत्मा पोते अंतर्व्यापक थईने तेनी आदि-मध्य-अंतमां व्यापे छे, प्रसरे छे. मिथ्यात्वादि विकार थयो एनी आदिमां निमित्त कर्म प्रसर्युं छे, व्याप्युं छे एम नथी. ते ज प्रमाणे निःसंसार अवस्था एटले सम्यक्त्वादि मोक्षमार्गनी अवस्था जे स्वाश्रये प्रगटी तेनी आदि- मध्य-अंतमां पण आत्मा छे. सम्यक्त्वादि प्रगट थवानी आदिमां कर्मनो अभाव छे एम नथी. कर्मनो अभाव जे निमित्त छे ते कर्ता अने सम्यक्त्वादि प्रगट थयां ते एनुं कर्म एम नथी. वळी सम्यक्त्वादि पर्याय ते कर्ता अने कर्मनो अभाव एनुं कर्म एम पण नथी. अरे प्रभु! तारी स्वतंत्रता तो जो! विकार थवानी आदि-मध्य-अंतमां तारी चीज छे अने मोक्षमार्ग थवानी आदि-मध्य-अंतमां पण तारी चीज छे. पर चीजनो-कर्मनो अभाव थयो तो सम्यक्त्वादि प्रगट थयां छे एम छे नहि.

प्रश्नः– कर्मनो उदयमां जीव भ्रष्ट थाय छे एम प्रवचनसारमां आवे छे नहि ने?

उत्तरः– हा, पण ए तो कथनपद्धति छे. जीव पोतानी योग्यताथी स्वतंत्रपणे भ्रष्ट थाय छे त्यारे कर्मनो उदय निमित्त छे बस. कर्मनो उदय आव्यो माटे भ्रष्ट थयो एम छे ज नहि.

त्यां प्रवचनसारमां ४७ नयनुं वर्णन छे त्यां एम कह्युुं छे के कर्तानये रागनो कर्ता जीव छे. राग-कर्तव्य एटले करवा लायक छे एम मानीने कर्ता थाय ए तो मिथ्याद्रष्टि छे. सम्यग्द्रष्टिने राग करवा लायक कर्तव्य छे एवी कर्ताबद्धिनो अभाव होवा छतां अस्थिरतामां रागनुं परिणमन थाय छे. तेने जे रागनुं परिणमन छे तेनो पोते कर्ता छे एम कह्युं छे. सम्यग्दर्शन थया पछी कर्मनो उदयनो भाव (विकार) आत्मानो (स्वभावनो) छे एम समकिती मानता नथी, परंतु पर्यायमां अस्थिरतानुं जे रागरूप परिणमन छे तेने तेम (ते प्रकारे) जाणे छे अने परिणमन छे ए अपेक्षाए तेने रागनो कर्ता कह्यो छे. ते राग कर्मना कारणे थयो छे एम नथी. अध्यात्म पंचसंग्रहमां लीधुं छे के छठ्ठा गुणस्थानमां चारित्रमोहकर्मनुं जोर छे.


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माटे तीव्र कषाय थाय छे अने सातमामां संज्वलनो मंद उदय छे माटे मंद राग थाय छे. पण ए तो कथनशैली छे. छठ्ठ-सातमां गुणस्थानमां जे व्यक्त-अव्यक्त विकारी परिणमन छे ते पोताथी छे. निमित्तना लक्षे विकार थाय छे माटे निमित्तथी थाय छे एम कोई जग्याए कहेवामां आवे छे, पण ए थाय छे पोताथी, निमित्तथी कर्मथी नहि.

७६मी गाथामां एम कह्युं के- रागथी भिन्न पडीने जेणे भेदज्ञान प्रगट कर्युं, आत्माना आनंदनो अनुभव कर्यो ए भेदज्ञानीने आत्मा व्यापक अने निर्मळ अवस्था एनुं व्याप्य छे. अने एने जे विकार थाय छे तेनुं व्यापक कर्म (द्रव्यकर्म) छे. जुओो, आत्मामां एवी कोई शक्ति नथी के जीवने विकार थाय. माटे स्वभावनो जेने अनुभव थयो तेनुं व्याप्य तो निर्मळ अवस्था छे. मोक्षमार्गनी निर्मळ अवस्था एनुं व्याप्य कर्म छे. विकारथी भिन्न पडी विकारनो ज्ञाता थवाने लीधे, निमित्त कर्म व्याप्क अने विकारी दशा एनुं व्याप्य एम कहीने बेने (जीव अने विकारने) भिन्न करी दीधा छे. भाई! ज्यां जे अपेक्षा होय त्यां ते यथार्थ समजवी जोईए.

प्रश्नः– आत्मानुं परनुं करे एवी कोई शक्ति एनामां छे के नहि?

उत्तरः– ना, परनुं कार्य करे एवी आत्मामां कोई शक्ति नथी. कळशटीका, कळश प४मां श्री राजमलजी कहे छे के - “अहीं कोई मतांतर निरूपशे के द्रव्यनी अनंत शक्तिओ छे, तो एक शक्ति एवी पण हशे के एक द्रव्य बे द्रव्योना परिणामने करे; जेवी रीते जीवद्रव्य पोताना अशुद्धचेतनारूप रागद्वेष मोह परिणामने व्याप्यव्यापकपणे करे तेवी ज रीते ज्ञानावरणादि पिंडने व्याप्यव्यापकपणे करे उत्तर आम छे के द्रव्यने अनंत शक्तिओ तो छे परंतु एवी शक्ति तो कोई नथी के जेनाथी, जेवी रीते पोताना गुण साथे पण व्याप्यव्यापकपणे छे तेवी ज रीते परद्रव्यना गुण साथे पण व्याप्यव्यापकपणे थाय.” परनुं करे एवी कोई शक्ति आत्मामां नथी. पर्यायमां विकारी भावने करे एवी पर्यायमां शक्ति छे, द्रव्य-गुणमां नहि. निर्मळ दशाने करे एवी ज द्रव्य-गुणमां शक्ति छे.

भाई! दरेक आत्मा ईश्वर छे. एम जड पण जडेश्वर छे. परमाणु जडेश्वर छे. विभाव जीव स्वतंत्रपणे करे छे माटे तेने विभावेश्वर पण कहे छे. चैतन्य भगवान चेतन ईश्वर छे. भाई! भगवाननुं कहेलुं आ तत्त्वनुं स्वरूप समजवुं पडशे. आमां विरोध करवा जेवुं नथी. तें सांभळ्‌युं न होय एटले सत्य कोई असत्य थई जाय?

मिथ्यात्व अने रागद्वेषनी पर्यायनी आदि-मध्य-अंतमां आत्मा छे, अने सम्यग्दर्शन -ज्ञान-चारित्रनी निर्विकारी दशानी आदि-मध्य-अंतमां आत्मा छे. कर्मनो उदय छे माटे विकार थयो छे एम नथी अने कर्मनो उदयनो अभाव छे माटे सम्यग्दर्शन आदि थयां एम नथी. संसारनी अने मोक्षमार्गनी पर्याय आत्मा स्वयं स्वतंत्रपणे करे छे; एमां कर्मनुं कोई कार्य नथी.


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हवे कहे छे-‘अने वळी तेवी रीते आज जीव, भाव्यभावकभावना अभावने लीधे परभावनुं पर वडे अनुभवावुं अशकय होवाथी, ससंसार अथवा निःसंसाररूप पोताने अनुभवतो थको, पोताने एकने ज अनुवतो प्रतिभासो परंतु अन्यने अनुभवतो न प्रतिभासो.’

जीव संसारदशामां पोताना विकारने भोगवे छे पण परने भोगवतो नथी. आ शरीरीनी अवस्थाने के कर्मने आत्मा भोगवतो नथी. ते पोताना विकारी परिणामने भोगवे के पोताना निर्विकारी परिणमने भोगवे पण परने ते भोगवतो नथी. जीव रागद्वेषनो जेम स्वतंत्र कताृ छे तेम स्वतंत्र भोक्ता छे. जड कर्मनो उदय एमां निमित्त भले हो, पण ते परने-कर्मने भोगवे छे एम नथी. अने जे कर्मनो उदय छे ते विकारनो भोक्ता छे एम पण नथी.

प्रश्नः– आ तो एकांत थयुं!

उत्तरः– हा, एकांत छे, पण सम्यक् एकांत छे. सम्यक् एकांतनुं ज्ञान थाय तेने ज अनेकांतनुं यथार्थ ज्ञान थाय छे. निमित्तनो सद्भाव हो के अभाव हो, जीव स्वयंसिद्ध विकार करे छे अने विकारने भोगवे छे. आम सम्यक् एकांतनुं ज्ञान थयुं तो जोडे निमित्त छे एनुं ज्ञान थयुं ते एकांत छे. बीजी चीजथी त्यां विकार थाय छे एम नथी. बीजी चीज विकार भोगवे छे एम पण नथी. संसारयुक्त अने संसाररहित पोतानी दशाने एकने ज करतो अने एकने ज भोगवतो प्रतिभासो एम अहीं कह्युं छे.

सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्गनी पर्यायनो आत्मा कर्ता थाय छे, पण त्यां कर्मनो उदयना अभावनो जीव कर्ता छे एमनथी. तेम पोतानी निःसंसार अवस्थाने जीव भोगवे छे ते समये कर्मना अभावने पण भोगवे छे एम नथी. अरे भाई! अनादि काळथी जषीवे पोतानी स्वतंत्र चीज तरफ द्रष्टि करी नथी. सूक्ष्मपणे विचारीए तो असंसार अवस्थामां एटले साधकनी मोक्षमार्गनी दशामां आ व्यवहारनो विकल्प जे निमित्तपणे सहचर छे तेनो कर्ता (के भोक्ता) जीव नथी अने ए व्यवहारनो विकल्प आत्मानी निर्मळ पर्यायनो कर्ता नथी.

वर्तमानमां मोटी गरबड चाले छे. मोटो भाग एम माने छे के निमित्तथी (कर्मथी) थाय अने निमित्तने भोगवे पण एम छे नहि. विकारथी अवस्था पोताना स्वकाळे पोताथी थाय छे. तेनो जीव कर्ता अने भोक्ता पोते पोताथी स्वतंत्र छे. ए ज प्रमाणे मोक्षमार्गनी पर्यायने स्वाश्रयपूर्वक पोते स्वतंत्रपणे करे छे तेथी एनो कर्ता अने भोक्ता जीव पोते पोताथी स्वतंत्र छे. आत्मा चैतन्यमूर्ति त्रिकाळ आनंदस्वरूप भगवान छे. एनी द्रष्टि अने रमणता करतां जे अतीन्द्रिय आनंद प्रगट थयो तेनो


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भोक्ता आत्मा छे, पण तरनो भोक्ता नथी. अज्ञानी पण शरीर आदि परने भोगवतो नथी. आ लाडु, लापसी, मैसुब ईत्यादि खाती वखते जीव पोताना रागने भोगवे छे पण ए चीजने (लाडु वगेरेने) भोगवतो नथी. आ भेदज्ञाननी अंतरनी वात छे, भाई! आवो अंतरमा निर्णय कदी कर्यो नहि अने विकार कर्मथी थाय अने कर्म मार्ग आपे तो समकित आदि निर्विकारी दशा थाय एम ते मान्युं छे पण ए बधी बधी जूठी मान्यता छे.

कहे छे-भाव्यभावकभानो अभाव होवाथी परनो आत्मा भोक्ता नथी. भाव्य एटले भोगववा लायक अने भावक एटले भोगवनार. जड कर्म भोगववा लायक अने आत्मा एनो भोगवनार-एवा भावनो अभाव छे. आत्म भावक अने कर्मनो उदय अने शरीरनी अवस्था भोगववा योग्य-एवा भावनो अभाव छे. शरीरनी बिमारी के रोगनी अवस्थाने आत्माने भोगवे छे एम छे ज नहि. ते समये जे राग छे ते रागनो मिथ्याद्रष्टि जीव कर्ता अने भोक्ता छे. जुओ, नरकमां उष्णता एटली छे के ए उष्णतानो एक कण अहीं आवे तो दश योजनमां रहेलां मनुष्यनां मरण थई जाय. आवी उष्णतानो भोक्ता आत्मा नथी केमके उष्णता परद्रव्यनी पर्याय छे. अहाहा...! ए उष्णताना निमित्ते दश जोजनमां स्थित मनुष्यना देह भस्म थई जाय पण ए देहनी भस्म थवानी जे क्रिया थई ते देहथी पोताथी थई छे, अग्नि आवी माटे ते क्रिया थई छे एम नथी. बहु सूक्ष्म वात, भाई!

अरे! लोकोए स्थूळ एवा व्यवहार अने निमित्तने प्रधान मानीने आत्मानी स्वतंत्रता खोई नाखी छे. अहीं कहे छे-भाव्यभावकभावना अभावने कारणे परभाव वडे परभावनो अनुभव थयो अशकय छे. जीव पोते करेला रागभावनो अनुभव करे छे पण ते रागद्वारा निमित्तनो पण अनुभव करे छे एम नथी. परभाव एटले शरीर कर्म वगेरेनो आत्मा वडे अनुभव थाय ए अशकय छे. कर्मनो अनुभाग एम जडनी पर्याय छे, ते आत्माने भोगववो पडे छे ए वात यथार्थ नथी.

प्रश्नः– कर्मनो विपाक जीव अनेभवने एम गोम्मटसारमां आवे छे ने?

उत्तरः–

भाई! ए तो बधां निमित्तनां कथन छे. शास्त्रमां तो एम लख्युं होय छे के

ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञानने रोके. पण ए तो निमित्तनुं कथन छे. परद्रव् जीवना ज्ञानने रोके एम छे नहि. पोतानी ज्ञानपर्यायमां पोते हीणपणे परिणमे छे. तेमां ज्ञानावरणीय कर्मनो उदय निमित्त छे, बस. निमित्ते ज्ञान हीण कर्युं छे एम नथी. तथा निमित्तने आत्मा भोगवे छे एम नथी. आत्मा समयसारनी पर्यायनो स्वतंत्र कर्ता थईने पोतानी पर्यायने भोगवे छे.

जुओ, भोगना काळमां स्त्रीना शरीरने जीव भोगवे छे एम कहो तो ए जूठी


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वात छे. शरीर तो जड माटी छे. एने आत्मा भोगवी शकतो नथी. परंतु ते समये जे विकारी भाव थाय तेने ते भोगवे छे पोतानो विकारी भावअने माने के जड स्त्रीनुं शरीर, लक्ष्मी आदि परने भोगवुं छुं तो ते तद्दन विपरीत द्रष्टि छे. अहा! अज्ञानीने परपदार्थमां सुखनी (मिथ्या) कल्पनां छे; ते ते कल्पनाने भोगवे छे, परपदार्थने नहि.

खरेखर परपदार्थमां सुख छे ज नहि. धर्मी समकिती जीवने पैसा, आबरू, स्त्री ईत्यादि परमांथी सुखबुद्धि उडी गई छे. परमां-रागमां, लक्ष्मीमां, स्त्रीसंगमां सुख नथी एम एने निश्चय थयो छे. ए तो माने छे के त्रिकाळ आनंदस्वरूप मारुं स्वरूप छे अने एना आश्रये प्रगट जे अतीन्द्रिय आनंद तेनो हुं भोक्ता छुं. सम्यग्दर्शनमां ज्ञानीने सत्नुं दर्शन थयुं छे. सत नाम पूर्णानंदनो नाथ चैतन्यस्वभावमय वस्तु जे त्रिकाळ सत्नुं छे तेनां प्रतीति अने ज्ञान थयां छे. अहाहा..! सम्यक् श्रद्धान-ज्ञाननी एनी एक समयनी पर्यायमां परिपूर्ण वस्तुनी प्रतीतिमां अने एनुं ज्ञान आव्यां छे. परिपूर्ण वस्तु पर्यायमां आवी नथी पण एनुं समार्थ्य प्रतीतिमां अने ज्ञानमां आव्युं छे. आवो समकिती जीव त्रिकाळ आनंदस्वरूप स्वयंज्योति सुखधाम एवा भगवान आत्माना आनंदने भोगवे छे.

ज्ञानीने साधकदशामां रागनुं जे परिणमन छे ते द्रष्टिनो विषय नथी. द्रष्टि अने द्रष्टिनो विषय तो अभेद निर्विकल्प छे. अभेद चीजनी द्रष्टि थतां साथे जे ज्ञान थयुं ते ज्ञाननी पर्यायमां तेने क्षणेक्षणे जे विकल्प उठे छे तेने ते जाणे छे. आटलुं रागनुं परिणमन छे एम ते जाणे छे. एटले अंशे ते रागने भोगवे पण छे. छतां राग भोगववा लायक छे एम एने बुद्धि नथी. एकाकोर कहो छो ज्ञानी आनंदने भोगवे छे अने वळी बीजी बाजु कहो छो रागने भोगवे छे-एम आ केवी वात! भाई! वस्तुद्रष्टिनी अपेक्षाए ज्ञानी (आत्मा) रागनो कर्ता नथी, भोक्ता पण नथी. परंतु द्रष्टिी साथे जे ज्ञान थयुं छे ते ज्ञान त्रिकाळने पण जाणे छे अने पर्यायमां जेटलुं रागनुं परिणमन छे तेने पण जाणे छे. जेटलुं रागनुं परिणमन छे तेटला अंशे पोते रागनो कर्ता-भोक्ता छे. राग करवा लायक अने भोगववां लायक छे एम ज्ञानीने बुद्धि नथी. पण रागनुं परिणमन छे ए अपेक्षाए ते रागने भोगवे छे. आम जे अपेक्षाए ज्यां जेम वात होय त्यां ते यथार्थ समजवी जोईए.

द्रष्टि अने द्रष्टिना विषयनी अपेक्षाए ज्ञानी आनंदनो भोक्ता छे. आत्माना स्वभावमां विकार करे एवी कोई शक्ति नथी. तेथी स्वभावनी अपेक्षाए निश्चयथी आत्मा रागनो कर्ता नथी, भोक्ता पण नथी. परंतु पर्यायनुं ज्ञान करे तो पर्यायमां जे रागनुं परिणमन छे ते पोताने एम ज्ञान जाणे छे. तथा पोतानी पर्यायमां जे हरख-शोक थाय छे तेने पोते भोगवे छे एम पण ज्ञानी जाणे छे. पर्यायमां जे राग छे तेने कर्म


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करे छे अने कर्म भोगवे छे एम (एकांते) नथी. ज्ञान अपेक्षाए ज्ञानी रागनो पण भोक्ता छे. परंतु परनो भोक्ता कदीय नथी. प्रवचनसारमां नयअधिकारमां द्रष्टांत आप्युं छे के जेम रंगरेज रंगकाम करे छे तेम जो के ज्ञानी स्वभावनी द्रष्टिए स्वभावनो भोक्ता छे तोपण कमजोरथी जे रागनुं परिणमन छे तेनो करनार पोते छे; करवा योग्य छे एम नहि पण परिणमन छे ते अपेक्षाए कर्ता-भोक्ता छे. तेथी जो कोई एकांते एम कहे के ज्ञानीने रगनुं- दुःखनुं वेदन छे ज नहि तो ते यथार्थ नथी.

स्वभावसन्मुख थतां सम्यक्दर्शन-ज्ञानपूर्वक जे अतीन्द्रिय आनंद प्रगट थयो ते आनंदनो ज्ञानी भोक्ता छे. पण साथे जेटलुं रागनुं दुःख छे तेने पण ते कथंचित् भोगवे छे. परनो-शरीरीनो के कर्मनो ते कदीय भोक्ता नथी. आवो भगवाननो मार्ग छे. बीजी रीते कहीए तो आत्मा निश्चयथी मोक्षमार्गमांनो कर्ता अने भोक्ता छे. पण ते रागनो कर्ता अने भोक्ता (सर्वथा) छे ज नहि एमकोई माने तो ते एम नथी. निश्चयनी द्रष्टिए जीव रागनो कर्ता अने भोक्ता नथी केमके वस्तुस्वभावमां विकार करे एवी कोई शक्ति नथी. वळी बधी शक्तिओ निर्विकारी छे तेथी निर्विकारी पर्यायपणे थवुं ए ज एनुं स्वरूप छे तोपण पर्यायमां जे विकार थाय छे तेनो परिणमननी अपेक्षाए कर्ता अने भोक्ता पोते छे एम ज्ञानी यथार्थपणे जाणे छे.

द्रष्टिनो विषय पर्याय नथी. द्रष्टिनो विषय तो त्रिकाळी अभेद चीज छे. पण तेथी जो कोई एम कहे के पर्याय छे ज नहि तो एम वात नथी. पर्याय् न होय तो संसार, मोक्षमार्ग अने सिद्धपद-कांई सिद्ध नहि थाय. आ बधी पर्याय तो छे! हा, भगवान आत्मा परिपूर्ण चीज छे ते पर्यायमां आवे नहि ध्रुव छे ते पर्यायमां कयांथी आवे? पण पर्याय पर्यायपणे नथी एम छे? ना, एम नथी. भगवान पूर्णानंदनो नाथ सामान्य-सामान्य एकरूप वस्तु ते विशेषमां-पर्यायमां केम आवे? विशेषमां आवे तो पर्यायनो बीजे समये नाश थतां एनो (द्रव्यनो) पण नाश थई जाय, केमके पर्याय प्रतिसमय उत्पाद-व्ययरूप छे. समयसार गाथा ३२०नी आचार्य जयसेननी टीकामां आवे छे के ध्यान जे मोक्षमार्गनी पर्याय छे तेनाथी आत्मा कथंचित् भिन्न छे.

अहाहा...! द्रव्य जे त्रिकाळी ध्रुव छे ते पोतानी के परद्रव्यनी पर्यायनुं कर्ता नथी, राग छे ते पण परद्रव्यनी अवस्थानुं कर्ता नथी, द्रव्यद्रष्टि थतां जे निर्मळ पर्याय प्रगट थई ते रागनी कर्ता नथी अने राग निर्मळ पर्यायनो कर्ता नथी, तथा द्रव्य निर्मळ पर्यानुं कर्ता नथी. आवो वीतरागनो अलौकिक मार्ग छे! अहो! दिगंबरदर्शन ए ज जैनदर्शन छे. संप्रदायवाळाने दुःख लागे पण मार्ग तो आ एक ज छे. भाई! दिगंबर कोई पक्ष के वाडो नथी. वस्तुनु स्वरूप ते दिगंबर धर्म छे.

अहाहा...! आ जैनदर्शनमां एम कहे छे के प्रभु! तुं परनो कर्ता अने भोक्ता


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नथी. शरीरनो कर्ता अने शरीरनो भोक्ता तुं नथी. एवी ज रीते कर्मनो कर्ता-भोक्ता पण तुं नथी. तथा कर्मनी पर्याय तारा (आत्मानाा) विकारी परिणमनी कर्ता अने भोक्ता नथी. कर्मनी पर्याय भावक अने आत्मानो विकार भाव भाव्य-एम नथी. अहो! आवो वीतरागनो मार्ग भगवान सर्वज्ञदेवथी सिद्ध थयेलो छे. जेना मतमां सर्वज्ञ नथी तेमां धर्म नथी. धर्मनुं मूळ सर्वज्ञ छे.

प्रवचनसार गाथा ८० मां कह्युं छे के- जे कोई आत्मा सर्वज्ञ परमेश्वर अरिहंत प्रभुना द्रव्य-गुण-पर्यायने जाणे छे ते पोताना आत्माने जाणे छे. अहाहा..! सर्वज्ञ भगवानने केवळज्ञान छे एवो निर्णय करनारी पर्याय पोताना सर्वज्ञस्वभाव तरफ झूकी जाय छे अने त्यां पोताना दर्शनमोहनो क्षय थई जाय छे अने सम्यग्दर्शननी पर्याय प्रगट थाय छे. आवो सर्वज्ञनो मार्ग छे. जेनामां सर्वज्ञ नथी एमां धर्म संभवित नथी.

अहीं कहे छे के संसारसहित अथवा संसाररहित दशामां परनो भोक्ता आत्मा नथी. संसारदशामां पोताना रागनो भोक्ता छे अने निःसंसार दशामां पोतानी निर्विकल्प निर्मळ अनुभूतिनो भोक्ता छे. परंतु कोई अवस्थामां परनो भोक्ता नथी. अज्ञानभावे पण परनो भोक्ता नथी.

द्रव्यमां सामान्य अने विशेष एम बे धर्मो स्वतंत्र सिद्ध करवा होय त्यारे एम आवे द्रव्य अनुभूतिनी पर्यायने पण करतुं नथी. ध्रुव त्रिकाळी छे ते उत्पाद-व्यय करतुं नथी. ज्यारे अहीं तो परनो भोक्ता नथी परंतु पोताना रागनो भोक्ता अथवा अनुभूतिनी पर्याय भोक्ता आत्मा छे एम सिद्ध करवुं छे. भगवान! तारी अनुभूतिनो तुं भोक्ता छे पण कर्म अने शरीरनो तुं भोक्ता नथी.

द्रष्टि अपेक्षाए अनुभूति जेने प्रगट थई छे एवो ज्ञानी रागनो भोक्ता नथी. तथापि अल्पकाळमां जेमने केवळज्ञान थवानुं छे एवा भावलिंगी संत छठ्ठ गुणस्थाने होय त्यारे जाणे छे के जेटलुं रागनुं परिणमन थई रह्युं छे तेनो कर्ता अने भोक्ता हुं पोते छुं; पण परनो हुं कर्ता के भोक्ता नथी. संसार सहित अथवा संसार रहित अवस्थामां पोताने एकने ज अनुभवनो प्रतिभासो, अन्यने एटले कर्म आदिने अनुभवतो न प्रतिभासो एम अहीं एम अहीं कहे छे. आवो सूक्ष्म गंभीर मार्ग छे. एनी गंभीरता भासे नहि तो धर्म केम थाय? न थाय.

कर्मप्रकृतिना बंधना चार भेद आवे छे- प्रकृति बंध, प्रदेश, बंध, स्थिति बंध, अनुभाग बंध; प्रकृति एटले स्वभाव, प्रदेश एटले परमाणुनी संख्या, स्थिति नाम काळनी मुदत अने अनुभाव एटले फळ देवान शक्ति भाई! अनंद अने दुःख ते कर्मनुं फळ छे एम नथी.

प्रश्नः– विपाको अनुभवः एम तत्त्वार्थसूत्रमां आवे छे ने?


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उत्तरः– हा, पण ए तो व्यहारनयनी वात करी छे. अहीं कहे छे के कर्मना विपाकने आत्मान अनुभवतो नथी. जीव रागनो अनुभव करे छे अथवा पोतानी अनुभूतिनो अनुभव करे छे, पण परनो कदीय अनुभव करतो नथी.

अरे! वाणिया आखो दि’ वेपार-धंधामां रच्या-पच्या रहे एटले आवी वात कठण पडे, परंतु भाई! वेपार-धंधा कोई आतमा करतो नथी. आत्मा व्यापक अने वेपारादि काम एनुं व्याप्य एम त्रणकाळमां नथी. परनी पर्यायने कोण करे? लक्ष्मीनी लेवदेवडना समये जे भाव थाय छे ते भावनो जीव कर्ता छे पण लेवडदेवडनी जे क्रिया थाय एनो कर्ता आत्मा नथी. अज्ञानी विकल्पनी जाळनो कर्ता-भोक्ता थाय छे पण परनो कर्ता-भोक्ता कदीय नथी. ज्यारे द्रव्य अने पर्याय एबे वच्चे भेद करवो होय त्यारे तो द्रव्य पर्यायनुं पण कर्ता नथी, पर्यायनी कर्ता छे एम आवे. भाई! आ तो भेदज्ञाननी वात छे; सिद्धि छे. समयसार- कळशमां कह्युं छे ने के-

भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन।
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल
केचन।। १३१।।

अनंतकाळमां जेटला सिद्ध थया ते बधा भेदविज्ञानथी सिद्ध थया छे; रागथी व्यवहारथी सिद्ध थया छे एम नथी. व्यवहारथी भिन्नपणारूप ज्ञान करीने सिद्ध थया छे. अहीं तो पोतान परथी भिन्न करवानी वात छे. रागथी भिन्न पडीने जेणे स्वाश्रये निर्मळ पर्याय प्रगट करी ते साधक छे. परंतु राग-व्यहार मने लाभ कर्ता छे एम राग साथे जे एकता करेतेने भेदज्ञान नथी अने ते चारगतिरूप संसारमां रखडशे.

परथी भिन्न अने पोताथी अभिन्न एनुं नाम भेदज्ञान छे. व्यवहारथी-रागथी भिन्न थवुं ते भेदज्ञान छे, व्यवहारना सहारे भेदज्ञान नथी. जेनाथी भिन्न पडवुं छे ते व्यवहार भेदज्ञाननुं साधन केम थाय? न ज थाय. जे स्वभावसन्मुख थाय छे ते व्यवहारथी भिन्न पडीने अंदर जाय छे. अरे भाई! व्यवहार तो शुभराग छे, उदयभाव छे, संसार छे, झेर छे, अमृत-स्वरूप भगवान आत्माथी विपरीत स्वभावरूप छे. मोक्ष अधिकारमां प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहरण आदि शुभभावने विषकुंभ एटले झेरनो घडो कह्यो छे सम्यग्द्रष्टिनो व्यवहार विषकुंभ छे.

अज्ञानीना शुभरागने व्यवहारने कहेवातो नथी. रागथी भिन्न पडी जेणे स्वभावनो अनुभव कर्यो तेने जे राग बाकी छे एने व्यवहार कहे छे. जे शुभरागमां ज सावधान छे एवा अज्ञानीने व्यवहार केवो? एने तो व्यवहारमूढ कह्यो छे. समयसार गाथा ४१३मां कह्युं छे के-‘जेओ खरेखर हुं श्रमण छुं- एम द्रव्यलिंगमां ममकार वडे मिथ्या अहंकार करे छे तेओ अनादिरूढ व्यवहारमां मूढ वर्तता थका, प्रौढ विवेकवाळा निश्चयनय पर अनारूढ वर्तता थका, परमार्थसत्य भगवान समयसारने देखता नथी-अनुभवता नथी.’


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भाई! रागनी मंदता तो अनादिकाळथी करे छे. निगोदमां पण क्षणमां शुभ अने क्षुणमां अशुभ थाय छे. एमां नवुं शुं छे? जेने शुभरागनी-व्यवहारने रुचि छे तेने पोताना आत्मानो द्वेष छे. स्तुतिकारे भगवान संभवनाथनी स्तुतिमां कह्युं छे- ‘द्वेष अरोचक भाव’ अहाहा...! त्रणलोकनो नाथ सच्चिदानंद प्रभु भगवान अंदर बिराजे छे. तेनो जेने आदर अने सत्कार नथी अने रागनो आदर छे तेन पोताना प्रत्ये ज द्वेष छे. बापु! दुनिया माने छे एनाथी आ तद्दन जुदी वात छे. जेने निज स्वभावनी रुचि थई तेने व्यवहारनी- शुभरागनी रुचि होई शकती नथी. अहीं कहे छे. - संसाररहित अथवा संसाररहित दशामां आत्मा पोताने एकने ज अनुभवतो प्रतिभासो, अन्यने अनुभवतो न प्रतिभासो. जीव कां तो रागने अनुभव कां तो पोतानी अनुभूतिने अनुभवे; पण परने ते अनुभवे छे एम छे ज नहि. शेरडीना रसने जीव अनुभवे छे. एम छे ज नहि. तेना प्रति एने जे राग छे ते रागने ते अनुभवे छे. मीरनी तीखाशनो जीवने अनुभव नथी. तीखाश तो जड छे. पण ते ठीक छे एवो जे एना प्रत्ये राग छे तेने जीव अनुभवे छे. वींछी के सापना करडनो (डंखनो) जीवने अनुभव नथी, ए तो जडनी पर्याय छे. ते वखते अठीकपणानो जे द्वेषनो भाव थाय छे त द्वेषने जीव अनुभव छे. साकरनी मीठाश अने अफीणनी कडवाशनो जीव भोक्ता नथी. जे ते समये जे रा-द्वेषादि विकारी थाय छे ते विकारी भावनो जीव भोक्तानो जीव भोक्ता थाय छे. आवी वात छे. * गाथा ८३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आत्माने परद्रव्य-पुद्गलकर्म-ना निमित्तथी संसार -निःसंसार अवस्था छे. ते अवस्थारूप आत्मा पोते ज परिणमे छे. तेथी ते पोतानो ज कर्ता-भोक्ता छे. पुद्गलकर्मनो कर्ता-भोक्ता तो कदी नथी. पुद्गलकर्मना निमित्तथी संसार अवस्था छे. जुओ, अहीं ‘निमित्तथी’ एम कह्युं छे. एना अर्थ शुं? एटलो ज के निमित्तथी छे, निमित्त होय छे-बस एटली वात छे. निमित्त वडे अहीं जीवमां विकार करायो छे एम अर्थ नथी. विकारनी-संसारनी आदि-मध्य-अंतमां निमित्त-कर्म प्रसर्युं छे एम नथी. जीवमां मिथ्याच्वादि संसार अवस्था पोताथी छे त्यारे कर्म निमित्त छे बस एटलुं. ते ज प्रमाणे आत्मामां संसाररहित अवस्था थाय छे एमां कर्मनो अभाव निमित्त छे. पण कर्मनो अभाव छे माटे मोक्षमार्गनी पर्याय जीवने थई छे एम नथी. सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्गनी वीतराग अवस्थानी आ-मध्य-अंतमां आत्मा छे. आत्माए पोते स्वतंत्रपणे कर्ता थईने मोक्षमार्गनी पर्याय उत्पन्न करी छे. व्यवहारनयना परिणाम छे तो मोक्षमार्गनी पर्याय प्रगटी छे एम पण नथी, केमके मोक्षमार्गनी पर्यायनी आदिमां व्यवहाररत्नत्रयनो राग नथी, पण आत्मा छे.