Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 84-85.

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लोकोनो झघडो छे ने के व्यवहारथी निश्चय थाय अने निमित्तथी उपादाननुं कार्य थाय-तेनो अहं खुलासो छे. ‘निमित्तथी’ एम कह्यु एनो अर्थ ज ए छे के निमित्त छे बस. संसार अवस्थामां पुद्गलकर्मनुं निमित्त छे. पण निमित्तथी-कर्मथी जीवनी संसार अवस्था कराई छे एम नथी. मिथ्यत्वादि जे विकार थाय तेमां दर्शनमोहकर्मनो उदय निमित्त छे, पण ए विकारनी आदिमां कर्म नथी, आत्मा छे अहीं आ वात सिद्ध करवी छे के कर्मनो उदय छे माटे विकार थयो छे एम नथी.

परमात्मप्रकाशनी गाथा ६८मां तो एम सिद्ध कर्युं छे के विकारी दशानुं कर्ता पुद्गलकर्मनिमित्त तो नथी ए तो ठीक, एनुं कर्ता आत्मद्रव्य पण नथी. विकारी पर्यायनो कर्ता विकारी पर्याय छे. एक समयमां विकार जे मिथ्यात्वादि परिणाम थाय छे तेमां तेना षट्कारकनुं परिणमन पर्यायमां स्वतंत्र छे; तेने द्रव्य-गुणनी के निमित्तथी अपेक्षा नथी, केमके द्रव्य-गुण त्रिकाळ शुद्ध छे अने निमित्त परवस्तु छे.

जुओ, द्रव्य सिद्ध करवुं होय त्यारे एम कहे के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यो (गुण-पर्यायो) कर्ता अने द्रव्य तेनुं कर्म. प्रवचनसार गाथा ९६मां आ वता लीधी छे. उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यो अर्थात् गुणो अने पर्यायो द्रव्यना कर्ता छे, करण छे, अधिकरण छे, केमके एनाथी द्रव्यथी सिद्ध थाय छे. बीजी अपेक्षाथी कहीए तो गुण-पर्यायोनुं अर्थात् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यनुं कर्ता, करण, अधिकरण द्रव्य छे कारण के द्रव्य तेमां व्यापक छे. त्यां वस्तुनी स्थिति अर्थात् अस्तित्व सिद्ध करवानी वात छे. अहीं ए वात नथी.

अहीं कहे छे के विकारी परिणामनो कर्ता विकारी पर्याय छे छतां अभेदथी कहेतां तेनो कर्ता आत्मा छे. विकारनी आदिमां पर्याय अथवा द्रव्य आत्मा छे. पर्यायने अभेद गणीने आत्माने कर्ता कह्यो छे. तेवी रीते सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निर्विकार पर्याय पोताना षट्कारकथी परिणमे छे छतां भेदथी तेनो कर्ता आत्मा छे एम कह्युं छे. अहीं तो एम सिद्ध करवुं छे के कर्मनो अभाव थयो माटे मोक्षमार्ग के मोक्षपद प्रगट थयुं- एम नथी. चार घाती कर्मन नाश थतां केवळज्ञान प्रगट थयुं एम तत्त्वार्थसूत्रमां आवे छे, पण ए तो त्यां निमित्तथी वात करी छे. खरेखर तो केवळज्ञाननी प्राप्तिना काळमां केवळज्ञान प्रगट थयुं छे. तेनी आदिमां आत्मा छे. एथी सूक्ष्म विचारीए तो केवळज्ञाननी आदिमां खरेखर केवळज्ञाननी पर्याय छे. अरे! लोकोने पोतानी स्वतंत्रता शुं चीज छे ते बेठुं नथी.

निश्चयथी पर्यायनुं कर्ता द्रव्य नथी, केमके पर्यायनी आदिमां पर्याय छे. सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्रनी पर्यायनी आदिमां आत्मा छे ए तो पर्यायने द्रव्यमां अभेद गणीने कह्युं छे. सम्यग्दर्शननी पर्यायमां आखा द्रव्यनी श्रद्धा आवे छे, द्रव्य आवतुं नथी. सम्यग्ज्ञाननी पर्यायमां द्रव्य जेवुं परिपूर्ण छे तेवुं तेनुं ज्ञान आवे छे. खरेखर तो


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द्रव्य संबंधीनुं ज्ञान जे पर्यायमां आवे छे ते पर्यायनुं ज्ञान पर्यायमां आवे छे. वळी द्रव्य छे माटे द्रव्यनुं ज्ञान पर्यायमां थाय छे एम नथी. ज्ञाननी पर्यायमां एटली ताकात छे के द्रव्यनुं ज्ञान, पोतानुं ज्ञान अने लोकालोकनुं ज्ञान ते एक समयमां करी ले छे. श्रुतज्ञानमां पण आवुं सामर्थ्य छे. लोकलोकनुं ज्ञान पण पर्यायमां पोताथी थाय छे, लोकलोक छे माटे पर्यायमां एनुं ज्ञान थाय छे एम नथी. पर्यायमां द्रव्यनुं ज्ञान थाय छतां द्रव्य पर्याय आवतुं नथी अहाहा...! द्रव्य पर्यायने स्पर्शतुं नथी अने पर्याय द्रव्यने स्पर्शती नथी. अहो! वस्तुनी स्वतंत्रतानी आवी अलौकिक वात छे! अहीं वात लीधी नथी. अहीं तो एम बताववुं छे के मोक्षमार्गनी पर्यायमां तेनी आदिमां आत्मा छे पण कर्मनो अभाव के व्यवहारनो राग तेनी आदिमां नथी. व्यवहारनो राग छे तो निश्चय मोक्षमार्ग प्रगटयो छे एम नथी. निश्चयथी तो स्वभावनो आश्रय ले छे ते ज साक्षात् मोक्षमार्गनुं कारण छे.

प्रश्नः– व्यवहारथी थाय एमन मानीए तो एकांत नहि थई जाय? उत्तरः– अरे भगवान! आ सम्यक् एकांत छे. निमित्त देखीने, सहचारी देखीने व्यवहारना रागने उपचारथी मोक्षमार्ग कह्यो छे. पंचास्तिकायमां शुभरागने व्यवहारसाधन कह्युं छे. व्यवहारसाधन अने निश्चय साध्य एमज कह्युं छे ए तो भिन्न साध्यसाधननी अपेक्षाथी कह्युं छे. पण भाई! साधन बे नथी, साधननुं निरूपण बे प्रकारे छे. साधन तो एक ज छे. मोक्षमार्गप्रकाशमां पंडितप्रवर टोडरमलजीए निश्चय-व्यवहारनुं रहस्य अत्यंत स्पष्ट खोली दीधुं छे. त्यां कह्युं छे के - ‘मोक्षमार्ग तो बे नथी पण मोक्षमार्गनुं निरूपण बे प्रकारथी छे. साचुं निरूपण ते निश्चय तथा उपचार निरूपण ते व्यवहार.’ आम यथार्थ मोक्षमार्ग एक ज छे. मोक्षमार्ग कहो, कारण हो, उपाय हो के साधन कहो-ते एक ज छे, बे नथी. आ परम सत्य छे. त्यारे कोई कहे छे के थोडुं तमे ढीलुं मूको अने थोडुं अमे ढीलुं मूकीए तो बंनेनी एकताथई जाय. पण बापु! आमां बांधछोने कयां अवकाश छे? वस्तुना स्वरूपनो निर्णय, सत्यनो निर्णय बांधछोडथी केम थाय? भाई! विवादथी के बांधछोडथी सत्य हाथ न आवे. सत्य तो सत्यने जेम छे तेम समजवाथी ज प्राप्त थाय. प्रश्नः– शास्त्रमां अकलंकदेवे बे कारणथी कार्य थाय एम कह्युं छे? उत्तरः– हा, पण ए तो निमित्तनुं त्यां ज्ञान कराव्युं छे. प्रमाणज्ञानमां निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे पोतानी पर्याय पोताथी थाय छे ए वातनो निषेध करीने निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे एम नथी. निश्चयथी कार्य पोताथी थयुं छे, निमित्तथी नहि ए वातने राखीने प्रमाणमां निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे. अन्यथा प्रमाणज्ञान ज रहेशे नहि. मोक्षमार्गप्रकाशकमां सातमां अधिकारमां अति स्पष्टपणे कह्युं छे के यथार्थ निरूपण ते


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निश्चय अने उपचा निरूपण ते व्यवहार. वळी त्यां कह्युं छे के- व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्यने वा तेना भावोने वा कारण-कार्यादिने कोईना कोईमां मेळवी निरूपण करे छे माटे एवा श्रद्धानथी मिथ्यात्व छे तेथी तेनो त्याग करवो, वळी निश्चयनय तेने ज यथावत् निरूपण करे वे तथा कोईने कोईमां मेळवतो नथी तेथी एवा ज श्रद्धानथी सम्यक्त्व थाय छे माटे तेनुं श्रद्धान करवुं.’

प्रश्नः– व्यवहार कह्यो छे ने?

उत्तरः– हा, परंतु एनुं फळ संसार छे. समयसार गाथा ११ना भावार्थमां कह्युं छे के- “प्राणीओने भेदरूप व्यवहारनो पक्ष तो अनादिकाळथी ज छे-अने एनो उपदेश पण बहुधा सर्व प्राणीओ परस्पर करे छे. वळी जिनवाणीमां व्यवहारनो उपदेश शुद्धनयनो हस्तावंब जाणी बहु कार्यो छे; पण एनुं फळ संसार ज छे.” जुओ, व्यवहार आवे छे खरो, एनुं अनुसरण करवा लायक नथी केमके एनुं संसार ज छे.

त्यारे कोई कहे छे के आ तो एकांत छे; एकांत छोडी देवुं जोईए.

पण भाई! सम्यक् एकांतनुं ज्ञान थाय त्यारे पर्याय अने रागनुं एटले के अनेकांतनुं यथार्थ ज्ञान थाय छे. सम्यक् एकांतवाळाने सम्यक् अनेकांतनुं साचुं ज्ञान थाय छे. जेने सम्यक् एकांतनुं ज्ञान नथी एने अनेकांतनुं साचुं ज्ञान नथी. श्रीमद् एकांतनुं ज्ञान नथी एने विपरीत ज्ञान छे. एने एनकांतनुं साचुं ज्ञान नथी. श्रीमद् राजचंद्रजीए कह्युं छे- ‘सम्यक् एकांत एवा निजपदनी प्राप्ति सिवाय अनेकांत अन्य हेतुए उपकारी नथी..’ सम्यक् एकांत एवा एटले आत्माना आश्रयथी ज्यां दर्शन-ज्ञान प्रगट थयुं त्यां अनेकांतनुं एटले राग अने पर्यायनुं पण साचुं ज्ञान होय छे.

भाई! आ तो अंतरमां जवानी, पर्यायने अंदर झुकाववानी वात छे. द्रव्यनी सन्मुख थई द्रव्योना आश्रय करवाथी सम्यग्दर्शन थाय छे. पर्यायना के व्यवहारना आश्रये सम्यग्दर्शन थतुं नथी. अरे! निर्मळ पर्यायना आश्रये पण धर्म प्रगट थतो नथी तो पछी रागना के व्यवहारना आश्रये सम्यग्दर्शन थाय ए वात कयां रही?

वादविवाद मूकीने प्रभु! आ समजवा जेवुं छे. भाई! तुं भगवान छो ने! छतां तारी अशुद्धता पण मोटी! अनुभवप्रकाशमां श्री दीपचंदजीए कह्युं छे के - त्रणलोकना नाथ तीर्थंकरद्रवना समोसरणमां अनंतवार गयो छतां ते अुशद्धता न छोडी. त्रणलोकना नाथ अर्हंत परमात्मानी दिव्य वाणी अनंतवार सांभळी. समोसरणमां अनंतवार मणिरत्न्ना दीव, हीराना थाळ अने कल्पवृक्षना फूलथी जिनभगवाननी पूजा करी. ‘जय हो, जय हो-’ एम भगवाननो अनंतवार जयजयकार कर्यो. परमात्माप्रकाशमां पण आवे छ के भवेभवे भगवाननी पूजा करी. पण भाई! परद्रव्यनी पूजानो ए तो


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विकल्प हतो. प्रभु! स्वाश्रय कर्या विना अशुद्धचा केम मटे? महाविदेहक्षेत्रमां ज्यां साक्षात् तीर्थंकर बिराजे छे त्यां अनंतवार जन्म्यो, पण तेथ शुं?

प्रश्नः– महाविदेहमां जाय तो तो धर्म थाय ने?

उत्तरः– भाई! एम नथी. आत्मामां जाय तो धर्म थाय. कह्युं ने के महाविदेहमां अनंतवार गयो पण सम्यग्दर्शन पाम्यो नहि. जुओ, सिद्धक्षेत्रमां ज्यां परमात्मा बिराजने छे तेमना पेटना क्षेत्रमां निगोदना अनंत जीवो अवगाहना लई पडया छे. परंतु बन्नना क्षेत्र अने भाव भिन्न छे. एकना कारणे बीजामां कांई थाय एम ज नहि.

आठमी गाथामां आचार्यदेव शिष्यने आत्मानो बोध करतां कहे छे के -‘दर्शन-ज्ञान- चारित्रने जे हंमेशा प्राप्त होय ते आत्मा छे’ आटलो भेद पडयो माटे व्यवहार छे. पोतानी निश्चय चीजने समजाववामां व्यवहार आवे छे. समज्या विना पोतानुं कार्य शी रीते करे? तेथी व्यवहार आवे छे. पण त्यां ज कह्युं छे के उपदेश करनारे के सांभळनारे व्यवहार अनुसरवा योग्य नथी. वळी पुरुषार्थसिद्धयुपायमां तो एम कह्युं छे के धर्मात्मा संतो अज्ञानीने व्यवहार द्वार निश्चय वस्तुने समजावे छे त्यां जे एकला व्यवहारने पकडे छे ते उपदेश सांभळवाने पात्र ज नथी. भाई! निश्चयने समजाववा माटे व्यवहार कह्यो छे एम यथार्थ समजी द्रव्य उपर द्रष्टि स्थाप. भेदथी छे, समजाव्यु पण भेद उपर लक्ष न आप, अभेदनुं लक्ष कर. अहाहा...! वस्तु तो आवी छे धर्म पण आवो छे अने धर्मी पण आवो होय छे.

प्रश्नः– प्रथम तो व्यवहार ज होय ने?

उत्तरः– ना, व्यवहार पहेलो होतो नथ. ज्यारे निश्चय प्रगट थाय त्यारे जे राग छे तेने व्यवहार कहेवामां आवे छे.

प्रश्नः– व्यवहार करतां करतां धर्मथई जाय एम छे के नहि?

उत्तरः– एम बीलकुल नथी. राग करतां करतां अराग थई जाय एम केम होई शके? रागनी दशानी दिशा पर तरफ छे अने अरागी धर्मनी दशा स्व तरफ छे. अरे! पर तरफ लक्ष करै अने स्व तरफ आवे एम केवी रीते बने? न ज बने. चाले आथमणु अने पहोंचे उगमणे एम बने? न ज बने. राग तो अंधकार छे. ते अधंकारथी चैतन्यमय प्रकाश केम प्राप्त थाय? न ज थाय. भाई! वस्तु ज आवी छे. व्यवहारथी निश्चय थाय ए मान्यता एक मोटुं शल्य छे. ज्यां व्यवहारने साधन कह्युं छे त्यां धर्मीने निश्चय जे प्रगट छे एनो आरोप आपीने उपचारथी कह्युं छे खरेखर व्यवहार ते साधन नथी.

कळश (४०) मां आवे छे के ‘घीनो घडो’ छे ते माटीमय छे, घीमय नथी.


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‘घीनो घडो’ तो व्यवहारथी कह्युं. तेम भाई! तारी चीज-निश्चय वस्तुने समजाववा व्यवहार द्वारा कही. पण त्यां जे एकला व्यवहारने ज पकडे छे ते देशनाने पात्र नथी.

‘आदि-मध्य-अंत’-कहीने आ गाथामां अलौकिक वात करी छे. राग थाय वा सम्यग्दर्शन थाय एनी आदि-मध्य-अंतमां आत्मा छे. कोई व्यवहारनी अपेक्षा राखीने सम्यग्दर्शन थयुं छे एम नथी. तथा निमित्तथी अपेक्षा विकारीथाय छे एम नथी. भावार्थमां घणुं भरी दीधुं छे.

पुद्गलकर्मना निमित्ते संसारयुक्त अथवा संसाररहित अवस्थारूपे आत्मा स्वयं परिणमन करे छे. कर्मनुं निमित्त हो, पण विकाररूपे पोते स्वयं परिणमे छे. प्रवचनसारमां ३४मां ईश्वरनयन आवे छे. त्यां कह्युं छे के-‘आत्मद्रव्य ईश्वरनये परतंत्रता भोगवनार छे.’ पोते स्वतंत्रपणे कर्मने वश थाय छे. कर्म तेने आधीनकरे छे. एम नथी. धावनी दुकाने धवडाववामां आवता मुसाफरना बाळकनी माफक जीव स्वतंत्रपणे परवश थाय छे. निमित्त एने वश करे छे एवुं त्रणकाळमां नथी. मूळ नियम अने सिद्धांत न समजे अने उपर उपरथी पकडे तो सत्य वस्तु समजमां नहि आवे. व्यवहारथी थाय अने निमित्तथी थाय एममानी ले तो निश्चयनुं स्वरूप नहि समजाय.

परथी थाय एवी मान्यतावाळाने परनो आदर अने स्वनो अनादर छे. अहा! जेने रागनां रुचि अने प्रेम छे तेने निर्विकार निज चैतन्यमय भगवान प्रति द्वेष करे छे. राग- द्वेषनी आवी व्याख्या छे. व्यवहाररत्नत्रयना राग प्रत्ये जेने प्रेम छे तेने भगवान आत्मा प्रति अरुचि अने द्वेष छे. अने जेने भगवान आत्मानी रुचि थई छे तेने रागनी रुचि उडी गई छे. राग रहे छे पण रागनी रुचि उडी गई छे. समयसार गाथा ७३मां आवी गयुं छे के विकारनो स्वामी पुद्गल छे. रागना स्वामीपणे हुं सदाय परिणमतो नथी एवो हुं निमर्म छुं. आ धर्मी समकितीनी वात छे. पण सम्यग्दर्शन थया पहेलां पण विकल्प द्वारा आवो ज निर्णय करे छे के भविष्यमां राग थशे एना स्वामीए हुं नहि परिणमुं. व्यवहार आवशे पण व्यवहारना स्वामीपणे नहि परिणमुं केमके हुं तो निमर्म एटले ममतारहित छुं. प्रभु! तारो मार्ग आवो छे. तुं वीतरागस्वरूप प्रभु छो. व्यवहार तो तारी प्रभुतामां लांछन छे. रागथी तारी प्रभुताने झांखप लागी छे.

चारे बाजुथी देखो तो सत्य सिद्धांत खडो थाय छे. पहेलो व्यवहार आवे छे एम छे नहि. जेने निश्चयना आश्रये धर्म प्रगटयो छे तेना रागने व्यवहार कहेवामां आवे छे कोई जगाए एम वात आवे के व्यवहारथी शुद्धिनी वृद्धि थाय छे. पण एनो अर्थ एम छे के छठ्ठे गुणस्थाने जे निर्मळ परिणतिनी शुद्धि छे ते सातमा गुणस्थानमां


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शुद्धिनी वृद्धि थाय छे. पूर्वनी जे शुद्धि छे ते पछीनी शुद्धिनी वृद्धिनुं कारण छे. त्यां साथे जे राग छे तेने उपचारथी शुद्धिनी वृद्धिनुं कारण कह्युं छे. सर्वत्र निश्चय-व्यवहारनुं लक्षण आ प्रमाणे ज जाणवुं एम श्री टोडरमलजीए कह्युं छे. पंचास्तिकायमां व्यवहार साध्य-साधननी वात करी छे. त्यां आत्मानो स्वनो आश्रय लीधो छे. ते निश्चय साधन छे अने साथे जे राग छे तेने उपचारथी साधन कह्युं छे, पण ते खरुं साधन नथी.

रागथी भिन्न प्रज्ञाछीणी वडे जे अनुभव प्रगट थयो ते अनुभव निश्चय साधन छे; साथे जे राग छे तेने आरोप आपीने उपचारथी साधन कह्युं छे. निश्चय-व्यवहारनो यथार्थ अर्थ न समजे अने बीजो अर्थ करे तो शुं थाय? अनर्थ ज थाय. वस्तुस्थिति तो आवी छे भाई!

आ प्रमाणे आत्मा पोताना रागनो अथवा मोक्षमार्गनो कर्ता-भोक्ता छे, पुद्गलकर्मनो कर्ता-भोक्ता कदी नथी. कर्म निमित्त पण तेकर्म आत्माना रागनुं अथवा मोक्षमार्गनुं कर्ता नथी. आत्मा पोताना विकारी-निर्विकारी परिणमननो कर्ता-भोक्ता छे पण परनो- पुद्गलकर्मने कर्ता-भोक्ता नथी. आवुं ज वस्तुस्वरूप छे.

[प्रवचनं. १३९ शेष, १४० थी १४२ * दिनांद २८-७-७६ थी ३१-७-७६]

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गाथा–८४

अथ व्यवहारं दर्शयति–

ववहारस्स दु आदा पोग्गलकम्मं करेदि णेयविहं।
तं चेव पुणो वेयइ पोग्गलकम्मं
अणेयविहं।। ८४।।

व्यवहारस्य त्वात्मा पुद्गलकर्म करोति नैकविधम्।
तच्चैव
पुनर्वेदयते पुद्गलकर्मानेकविधम्।। ८४।।

हवे व्यवहार दर्शावे छेः-

आत्मा करे विधविध पुद्गलकर्म–मत व्यवहारनुं,
वळी ते ज पुद्गलकर्म आत्मा भोगवे विधविधनुं. ८४.

गाथार्थः– [व्यवहारस्य तु] व्यवहारनयनो ए मत छे के [आत्माः] आत्मा [नैकविधम्] अनेक प्रकारना [पुद्गलकर्म] पुद्गलकर्मने [करोति] करे छे [पुनः च] अने वळी [तद् एव] ते ज [अनेकविधम्] अनेक प्रकारना [पुद्गलकर्म] पुद्गलकर्मने [वेदयते] ते भोगवे छे.

टीकाः– जेम, अंदरमां व्याप्यव्यापकभावथी माटी घडाने करे छे अने भाव्यभावकभावथी माटी ज घडाने भोगवे छे तोपण, बहारमां, व्याप्यव्यापकभावथी घडाना संभवने अनुकूळ एवा (इच्छारूप अने हस्तादिकनी क्रियारूप पोताना) व्यापारने करतो अने घडा वडे करेलो पाणीनो जे उपयोग तेनाथी ऊपजेली तृप्तिने (पोताना तृप्तिभावने) भाव्यभावकभाव वडे अनुभवतो-भोगवतो एवो कुंभार घडाने करे छे अने भोगवे छे एवो लोकोनो अनादिथी रूढ व्यवहार छे; तेवी रीते, अंदरमां व्याप्यव्यापकभावथी पुद्गलद्रव्य कर्मने करे छे अने भाव्यभावकभावथी पुद्गलद्रव्य ज कर्मने भोगवे छे तोपण, बहारमां, व्याप्यव्यापकभावथी अज्ञानने लीधे पुद्गलकर्मना संभवने अनुकूळ एवा (पोताना रागादिक) परिणामने करतो अने पुद्गलकर्मना विपाकथी उत्पन्न थयेली विषयोनी जे निकटता तेनाथी ऊपजेली (पोतानी) सुखदुःखरूप परिणतिने भाव्यभावकभाव वडे अनुभवतो-भोगवतो एवो जीव पुद्गलकर्मने करे छे अने भोगवे छे एवो अज्ञानीओनो अनादि संसारथी प्रसिद्ध व्यवहार छे.

भावार्थः– पुद्गलकर्मने परमार्थे पुद्गलद्रव्य ज करे छे; जीव तो पुद्गलकर्मनी उत्पत्तिने अनुकूळ एवा पोताना रागादिक परिणामोने करे छे. वळी पुद्गलद्रव्य ज पुद्गलकर्मने भोगवे छे; जीव तो पुद्गलकर्मना निमित्तथी थता पोताना रागादिक ________________________________________________________________________ १. संभव=थवुं ते; उत्पत्ति


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परिणामोने भोगवे छे. परंतु जीव अने पुद्गलनो आवो निमित्तनैमित्तिकभाव देखीने अज्ञानीने एवो भ्रम छे के पुद्गलकर्मने जीव करे छे अने भोगवे छे. आवो अनादि अज्ञानने लीधे अनादि काळथी प्रसिद्ध व्यवहार छे. परमार्थे जीव-पुद्गलनी प्रवृत्ति भिन्न होवा छतां, ज्यां सुधी भेदज्ञान न होय त्यां सुधी बहारथी तेमनी प्रवृत्ति एक जेवी देखाय छे. अज्ञानीने जीव-पुद्गलनुं भेदज्ञान नहि होवाथी उपलक द्रष्टिए जेवुं देखाय तेवुं ते मानी ले छे; तेथी ते एम माने छे के जीव पुद्गलकर्मने करे छे अने भोगवे छे. श्री गुरु भेदज्ञान करावी, परमार्थ जीवनुं स्वरूप बतावीने, अज्ञानीना ए प्रतिभासने व्यवहार कहे छे. * * * समयसार गाथा ८४ः मथाळुं हवे अज्ञानीनो रूढ व्यवहार दर्शावे छे. अज्ञानी शुं माने छे ते स्पष्ट करीने भेदज्ञान करावे छे. * गाथा– ८४ः टीका उपरनुं प्रवचन * ‘जेम, अंदरमां व्याप्यव्यापकभावथी माटी घडाने करे छे अने भाव्यभावकभावथी माटी ज घडाने भोगवे छे तोपण, बहारमां, व्याप्यव्यापकभावथी घडाना संभवने अनुकूळ एवा व्यापारने करतो अने घडा वडे करेलो पाणीनो जे उपयोग तेनाथी ऊपजेली तृप्तिने भाव्यभावकभाव वडे अनुवतो-भोगवतो एवो कुंभार घडाने करे छे अने भोगवे छे एवो लोकोना अनादिथी रूढ व्यवहार छे’- शुं कहे छे? के व्याप्यव्यापकभावथी माटी घडानी पर्यायने करे छे, कुंभार नहि. प्रश्नः– आ वात गळे उतरती नथी ने? उत्तरः– आ वात गळे उतारवी पडशे. वस्तुनुं स्वरूप ज एम छे. अहीं तो कहे छे के व्यवहारनो जे शुभराग छे तेने पोतानुं कर्तव्य मानी तेनो कर्ता थाय छे. तेने आत्मा हेय थई जाय छे. रागने उपादेय माननारे अमृतस्वरूप भगवान आत्माने हेय मान्यो छे. जेम कोई महापुरुष घेर आवे तेने छोडीने नाना बाळक साथे वात करवा लागी जाय तो ते महापुरुषनो अनादर छे. तेम त्रणलोकनो नाथ भगवान अंदर महान चीज पडी छे तेनी सन्मुख न थतां राग सामे लक्ष करीने आनंद माने तो ते भगवान आत्मानो अनादर छे. परमात्मप्रकाश गाथा ३६मां लख्युं छे के -“अत्र सदैव परमात्मा वीतरागनिविकल्प– समाधिरतानामुपादेयो भवत्यन्येषां इति भावार्थः” सदाय वीतराग निर्विकल्प समाधिमां लीन साधुओने तो आत्मा उपादेय छे; मूढोने नहि. अहाहा..! शुं कहे छे? सांभळ, भाई! आत्मा जे शुद्धचैतन्यघन पूर्णानंदस्वरूप भगवान छे ते निर्विकल्प समाधिमां लीन एवा साधुओने सदाय उपादेय छे अने राग हेय छे.


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तथा जे रागने उपादेय मानीने रागनी रुचिमां पडया छे तेमने आत्मा हेय छे. सूक्ष्म वात छे भाई! राग हेय छे एम तो आवे छे पण अहीं तो रागनी रुचिवाळाने आत्मा हेय छे एम कह्युुं छे.

आ अंतरना मार्गनी झीणी वात छे लोको राड नाखे पण शुं थाय? दय, दान, व्रत, भक्ति आदिनो राग विभावभाव छे. ते ते स्वभावथी विपरीत भिन्न चीज छे. ते विभावनो जे कर्ता थाय छे, तेनुं विभावनुं परिणमन नवा कर्मना बंधमां निमित्त थाय छे; त्यां अज्ञानी माने छे के नवां कर्म मे बांध्यां. तेवी ज रीते अज्ञानी जे हरख-शोक भोगवे छे तेमा कर्मनुं निमित्त छे त्यां अज्ञानी माने छे के हुं कर्म भोगवुं छुं. आ तेनी जूठी मान्यता छे.

अहीं बे द्रव्यो वच्चे भेदज्ञान कराववुं छे. रागनुं परिणमन अज्ञानी व्याप्यव्यापकपणे पोतामां पोते करे छे. राग मारुं व्याप्य कर्म अने रागनो हुं व्यापक कर्ता एम अज्ञानी माने तो ते वात अज्ञानपणे ठीक छे. अज्ञानी पोतानी चीजने भूलीने विकारनुं परिणमन व्याप्यव्यापकभावथी करे छे ए वात अज्ञानदशामां तो बराबर छे. परंतु तेनुं विकारी परिणमन नवा कर्मबंधमां निमित्त छे त्यां निमित्त देखीने में कर्म बांध्यां एवुं जे अज्ञानी माने छे ते विपरीत छे. हबखशोकना भोगना काळे कर्म एमां निमित्त छे. तेथी कर्म हुं भोगवुं छुं एम ते माने छे ए विपरीत छे.

अहीं तो परनो कर्ता जीव नथी एवुं भेदज्ञान करावीने कर्मबंधनना काळमां ज्ञानी (आत्मा) तेनुं निमित्त पण नथी ए वात सिद्ध कारवी छे. अहा! कर्मबंधनमां आत्मद्रव्य निमित्त नथी एवो एनो स्वाभव छे. समयसार गाथा १०प मां आवे छे के -‘ ‘आ लोकमां खरेखर आत्मा स्वभावथी पौद्गलिक कर्मने निमित्तभूत नहि होवा छतां पण, अनादि अज्ञानने लीधे पौद्गलकि कर्मने निमित्तरूप थतां एवा अज्ञानभावे परिणमतो होवाथी निमित्तभूत थतां, पौद्गलिक कर्म उत्पन्न थाय छे, तेथी ‘पौद्गलिक कर्म आत्माए कर्युं’ एवो निर्विकल्प विज्ञानघनस्वभावथी भ्रष्ट, विकल्पपरायण अज्ञानीओनो विकल्प छे; ते विकल्प उपचार ज छे, परमार्थ नथी.” अज्ञानी मानीले छे के हुं कर्मबंधननो कर्ता अने भोक्ता छुं खरेखर एम नथी. मात्र उपचारथी ज अज्ञानने कर्मबंधननो कर्ता कहेवामां आवे छे.

आत्मा स्वभावथी पौद्गलिक कर्मनुं निमित्त नथी. द्रव्य निमित्त केम होय? द्रव्य निमित्त नथी तो जेनी द्रष्टि द्रव्य उपर छे एवो ज्ञनी पण नवा कर्मबंधमां निमित्त नथी.

भगवान! वीतरागनो मार्ग बहुं सूक्ष्म छे. आ बहारनां रूपांळां शरीर वगेरेनां जे आकर्षण (रुचि) थाय छे ए बधो मिथ्यात्वभाव छे. अंदर पूर्णानंदनो नाथ परमात्मा त्रिकाळ सुंदर पडयो छे तेनुं आकर्षण (रुचि) छोडीने परवस्तुमां आकर्षण


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थई जाय छे ते अज्ञान छे. अज्ञानी आ बाह्य चीजोनी चमक देखीने तेनी अधिकतामां राजी थई जाय छे पण ए तो हाडकांना फोस्फरसनी चमक छे. अंदर त्रणलोकनो नाथ चैतन्यस्वरूप भगवान छे ते चमत्कारिक वस्तु छे. अहा! आवो शुद्ध चिदानंदस्वरूप भगवान ज्ञायक नवा कर्मबंधनमां निमित्त थाय एवो एनो स्वभाव नथी. जो स्वभावथी आत्मा निमित्त थाय तो आत्म विकारस्वरूप ज थई जाय. कमृबंधननुं उपादान तो कर्म जड छे अने एमां अज्ञानीनो अज्ञानभाव निमित्त छे, पण आत्मद्रव्य निमित्त नथी.

जुओ! आ तो भगवाननी (कहेली) धर्मकथा चाले छे. एमां लक्ष बीजे जाय तो वाणीनो अनादर थई जाय. एकभगवतारी ईन्द्रो जेने सांभळवा आवे छे एवी भगवाननी आ दिव्य वाणी छे. ते कोई महासौभाग्यथी सांभळवा मळे छे. नियमसार गाथा १०८मां आवे छे के -‘ ‘भगवान अर्हंतना मुखारविरंदथी नीकळेलो, (श्रवण माटे आवेल) सकळ जनताने श्रवणनुं सौभाग्य मळे एवो, सुंदर-आनंदस्यंदी (सुंदर-आनंद झरतो), अनक्षरात्मक जे दिव्यध्वनि, तेना परिज्ञानमां कुशळ चतुर्थज्ञानधर (मनःपर्ययज्ञानधारी) गौतममहर्षि ना मुखकमळथी नीकळेली जे चतुर वचनरचना, तेना गर्भमां रहेला रद्धांतादि (सिद्धांतादिा) समस्त शास्त्रोना अर्थसमूहना सास्सर्वस्वरूप शुद्ध-निश्चय-परम-आलोचनाना चार भेदो छे.”

भगवान मुखमांथी वाणी नीकळती नथी. सर्वांगेथी’ ध्वनि उठे छे; परंतु लोकोनी अपेक्षाए ‘मुखारविंदथी’ एम कह्युं छे. सकळ जनताने श्रवणनुं सौभाग्य मळे एवी आनंद झरती वाणी खरे छे. वाणीमां आनंदस्वरूप आत्मानुं निरूपण आवे छे एटले वाणीने आनंद देनारी कही छे. आ निमित्तनुं कथन छे. भगवाननी वाणीमां वीतरागता बतावी छे. वीतरागता कयारे प्रगटे? स्वनो आश्रय करे त्यारे, आनंदनी जे अनुवदशा प्रगटे छे ए जिनवाणीनो सार छे. आ दिव्य वाथी सांभळीने चार ज्ञानना धणी भगवान गणधरदेव सिद्धांतनी गूंथणी करे छे. आवी दिव्यध्वनि जेना काने पडे एनुं पण महा-सौभाग्य छे. ए दिव्यध्वनिनो सार आ पांच परमागमो अहीं उपर-नीचे कोतराई गयां छे. वहा, दिव्यध्वनि वाह!!

प्रश्नः– आ काळमां आपे पण आ सरस काम कर्युं छे! उत्तरः– कोण करे? छये द्रव्योमां, पर्यायनी उत्पत्तिनो काळ होय, ते ते पर्याय प्रगट थाय छे. ते पर्यायनी जन्मक्षण छे. प्रवचनसार गाथा १०२मांआव्युं छे के -द्रव्यनी जे पर्यायनी उत्पत्तिनो काळ होय ते पर्याय स्वकाळे पोताथी उत्पन्न थाय छे. तेनी पर्यायनी उत्पत्ति बीजो करी दे एम छे ज नहि. जन्मक्षण एटले पर्यायनी उत्पत्तिनो काळ होय त्यारे ते स्वतंत्र उत्पन्न थाय छे. आ परमागम-मंदिरना निर्माणनो एनो काळ हतो नथी तेथी तेना काळे ते थयुं छे, बीजाए कोईए कर्युं छे एम छे ज नहि. बीजाए कर्युं एम कहेवुं ए तो ते वखते निमित्त कोण हतुं एनुं ज्ञान करावे छे.


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बे कारण कह्यां छे ने?

हा, एक यथार्थ कारण छे अने बीजुं उपचारथी कारण छे. अज्ञानी व्याप्यव्यापकपणे रागने करे छे. रागनो व्यापक आत्मा अने राग एनुं व्याप्य एम अज्ञानपणे छे. ते राग नवा कर्मबंधमां निमित्त छे. त्यां निमित्त देखीने में कर्म बांध्यां एम अज्ञानी माने छे. अज्ञानीए कर्या छे तो राग-द्वेष; तथापि कर्मबंधने में कह्युं एवो तेनो जे विकल्प छे ते उपचार ज छे, परमार्थ नथी. आ वात गाथा १०प मां आवे छे.

जडकर्मना बंधनी पर्यायनो कर्ता आत्मा छे एम बीलकुल छे ज नहि. कर्मबंधनी जे पर्याय थई ते पुद्गलजनुं व्याप्य छे अने पुद्गल तेमां व्यापक एटले कर्ता छे. ए आत्मानं व्याप्य कर्म छे ज नहि. अज्ञानी जेटला रागद्वेष करे तेटला प्रमाणमां नवा कर्मनो बंध थाय छे. त्यां रागद्वेषमां अज्ञानीने व्याप्यव्यापकपणुं छे पण कर्मबंध साते एने व्याप्यव्यापकपणुं नथी. अज्ञानी रागादि करे छे, पण कर्मबंधननुं काम करे छे एम छे ज नहि. अहीं तो एम सिद्ध करवुं छे के जे राग-द्वेषने उपादेय मानीने परिणमे छे. एवा अज्ञानीनुं परिणमन नवा कर्मबंधनमां निमित्त थाय छे. अरे! जेने भगवान आत्मा हेय थई गयो छे एवो अज्ञानी जीव नवन कर्मबंधननुं निमित्त थाय छे. अरे प्रभु! आवो अवता मळ्‌यो एमां पोतानी शुद्ध त्रिकाळी चीजनी द्रष्टि न थई तो तारा उतारा कयां थशे? पछी तने शरण नहि मे हों! भगवान! हमणां ज आ समजण करी लेवा योग्य छे.

कहे छे-अंदरमां व्याप्यव्यापकभावथी माटी घडाने करे छे अने भाव्यभावकभावथी माटी ज घडाने भोगवे छे. जुओ, माटी ज घडानो कर्ता अने भोक्ता छे, कुंभार नहि. माटी कर्ता थईने घडारूप कार्यने करे छे अने माटी पोते भाव्य नाम भोगववा योग्य घडारूप पर्यायने भावकपणे भोगवे छे. श्री अकलंकदेव तत्त्वार्थराजवार्तिकमां आ वात लीधी छे के पुद्गल पण पुद्गलने भोगवे छे. पुद्गलमां पण भोक्ता नामनी शक्ति छे. पुद्गल पोतानी पर्यायने करे छे अने पोतानी पर्यायने भोगवे छे. अहाहा...! जैनदर्शन बहु सूक्ष्म छे भाई! ते समजवा उपायोग सूक्ष्म राखीने घणो प्रयत्न करवो जोईए. अनंतकाळमां पोतानी वास्तविक चीज शुं छे ते लक्षमां लीधुं नथी एटले दुर्लभ लागे पण अशकय नथी; दुर्लभ तो छे.

माटी घडानी पर्यायने करे छे अने माटी घडानी पर्यायने भोगवे छे. अहीं घडानी पर्याय माटी अंतर्व्यापक कहेल छे एटले बाह्यव्यापक बीजी चीज छे एम अर्थ नथी. बहारमां बीजी चीज-कुंभार तो पोतामां व्याप्यव्यापकभावथी घडानी उत्पत्तिने अनुकूळ एवा, ईच्छारूप अने हस्तादिनी क्रियारूप, पोताना व्यापारनेकरे छे अने घडा वडे करेलो पाणीनो जे उपयोग तेनाथी उपजेली तृप्तिने भाव्यभावकभावथी भोगवे छे.


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आ तो बहु गंभीर शास्त्र छे. समयसार जगतनुं अजोड चक्षु छे. तेने समजवा ध्यानथी बहु अभ्यास करवो जोईए. संसारना भणतरमां बी. ए. एम. ए. आदि थवामां केटलां वर्ष महेनत करे छे! छतां ए तो बधुं अज्ञान ज छे. अरे भाई! अनंतवार ए बधुं कर्युं छे. आ तत्त्वज्ञानना अभ्यास माटे वखत लेवो जोईए. कुंभार घडानी उत्पत्तिमां अनुकूळ एवा ईच्छारूप अने हस्तादिकनी क्रियारूप पोताना व्यापारने करे छे. अने घडाना उपयोगथी उपजेली तृप्तिने कुंभार अनुभवे-भोगवे छे. एवो कुंभार घडाने करे छे अने भोगवे छे एवो लोकोनो अनादिथी रूढ व्यवहार छे. अंदरमां माटी घडानी पर्यायने करे छे अने घडानी पर्यायने भोगवे छे. बहारमां कुंभार पोतानी ईच्छा अने योगना कंपनरूप पोताना कार्यने व्याप्यव्यापकभावथी करे छे अने घडाना उपयोगथी उपजेली तृप्तिने पोते भोगवे छे. आ देखीने अज्ञाननी एम लागे छे के घडानो कर्ता अने घडानो भोक्ता कुंभार छे. आवुं माननार मिथ्याद्रष्टि छे. घडानी पर्यायमां व्याप्यव्यापक अने भाव्यभाक पुद्गल छे. आत्मा (कुंभार) घडाने करे छे अने भाव्यभावकपणे भोगवे छे एम छे ज नहि. आ द्रष्टांत थयुं. हवे सिद्धांत कहे छे. - ‘तेवी रीते, अंदरमां व्याप्यव्यापकभावथी पुद्गलद्रव्य कर्मने करे छे अने भाव्यभावकभावथी पुद्गलद्रव्य ज कर्मने भोगवे छे.’ जुओ, पुद्गल व्यापक अने कर्म एनुं व्याप्य छे. तेथी जडकर्मने व्याप्यव्याकभावे पुद्गल करे छे. अने पुद्गलद्रव्य ज कर्मने भोगवे छे. पुद्गल पोते भाव्य एटले भोगववा योगय कर्मनी अवस्थाने भावकपणे भोगवे छे. पुद्गलद्रव्यमां एवी भोक्ता शक्ति छे जेथी पुद्गल कर्मने भोगवे छे. कर्मनी प्रकृतिबंधना चार प्रकार छेः प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध अने अनुभागबंध. तत्त्वार्थसूत्रमां आवे छे - ‘विपाको अनुभवः’ कर्मना विपाकोना अनुभव जीव करे छे. पण आ तो व्यवहारनुं निमित्तथी कथन छे. खरेखर कर्मनो अनुभव जीव करतो नथी. कर्मनो विपाक तो कर्ममां छे. जीव तो पोताना रागद्वेषनो अनुभव करे छे. अहीं कहे छे के व्याप्यव्यापकभावथी पुद्गल कर्मनुं कर्ता छे अने भाव्यभावकभावथी पुद्गल जडकर्मनुं भोक्ता छे ‘तोपण, बहारमां, व्याप्यापकभावथी अज्ञानने लीधु पुद्गलकर्मना संभवने अनुकूळ एवा पोताना रागादिक परिणामने करतो अने पुद्गकर्मना विपाकथी उत्पन्न थयेली विषयोनी जे निकटता तेनाथी ऊपजेली पोतानी सुखदुःखरूप परिणतिने भाव्यभावकभाव वडे अनुभवतो-भोगवतो एवो जीव पुद्गलकर्मने करे छे अने भोगवे छे एवो अज्ञानीओनो संसारथी प्रसिद्ध व्यवहारछे.’ बहारमां जीव अज्ञाना कारणे व्याप्यव्यापकभावथी पोताना रागादिक परिणामने करे छे, अने विषयोनी निकटताथी ऊपजेली पोतानी सुखदुःखरूप परिणतिने भाव्यभावक-


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भावथी जीव भोगवे छे. जेम घडानी अवस्थामां कुंभारनो राग व्यापक छे एम नथी तेम पुद्गलकर्मनी अवस्थामां जीवनो राग व्यापक थईने पुद्गलकर्म करे छे एम नथी. पुद्गलद्रव्य ज व्याप्यव्यापकपणे कर्म करे छे अने पुद्गलद्रव्य ज भाव्यभावकभावथी जड कर्मने भोगवे छे. जे काळे जडकर्मनो पुद्गलकर्ता अने भोक्ता थाय छे ते काळमां जीव तेने अनुकूळ राग-द्वेष करे छे. निमित्तने अनुकूळ कहेवामां आवे छे, अने सामेनी चीज उपादानने अनुरूप कहेवामां आवे छे. गाथा ८६मां अनुकूळ अने अनुरूपनी वात आवे छे. नैमित्तिकने अनुरूप कहे छे. कर्म पोताथी बंधाय छे तेमां अज्ञानीना राग-द्वेष अनुकूळ छे एटले निमित्त छे.

आ तो सिद्धांतनी भाषा छे. थोडा शब्दोमां गंभीर भावो भर्या छे. जडकर्म पोतामां पोताना कारणे व्याप्यव्यापकपणे एटले कर्ताकर्मपणे परिणमे छे. तेमां जीवना विकारी परिणाम अनुकूळ निमित्त छे. तेम जडकर्म पोतामां भाव्यभावकपणे पोताने भोगवे छे. त्यां जीवना विकारी परिणाम अनुकूळ निमित्त छे. कर्ता-भोक्तापणे पुद्गलकर्मनी अवस्था तो पोते पोताथी थई छे ते काळे जीवना रागादि परिणाम अनुकूळ निमित्त छे. निमित्त छे तो पुद्गलकर्मनी पर्याय थई छे एम नथी. आवी वस्तु छे, भाई! थोडो न्याय फरे तो आखी वस्तु फरी जाय. जेम कोई नदीना कांठे ऊभो रहीने पाणीने जुए तेम पुद्गलमां ज्यारे कार्य थाय छे त्यारे नजीकमां कांठे रहेली जे भिन्न चीज छे तेने एनुं निमित्त कहेवामां आवे छे. आवी सर्वज्ञ परमेश्वरनी दिव्यध्वनिमां आवेली आ वात छे.

प्रथम माटीनुं द्रष्टांत आपीने सिद्धांत समजाव्यो छे. कर्मनी ज्ञानावरणरूप जे अवस्था थाय तेमां परमाणु पोते अंतर्व्यापक थईने व्याप्य कर्मनी पर्यायने करे छे, तेमां जीवनो राग निमित्त छे. तेम विपाकने प्राप्त थयेली ते कर्मनी पर्याय छूटी जाय छे त्यां पुद्गल ते कर्मनी पर्यायने भोगवे छे. कर्मनी अवस्था भाव्य अने पुद्गल तेनुं भावक छे; अने तेमां अज्ञानीनो राग तेने अनुकूळ निमित्त छे. ते रागने करतो अने विषयोनी निकटताथी ऊपजेली पोतानी सुखदुःखरूप परिणतिने भोगवतो (अज्ञानी) जीव पुद्गलकर्मने करे छे अने भोगवे छे एवो अज्ञानीओनो अनादि संसारथी प्रसिद्ध व्यवहार छे, अने ते जूठो व्यवहार छे.

जुओ, अज्ञानी भाव्यभावकभावथी विषयोनी निकटताथी ऊपजेली पोतानी सुखदुःखरूप परिणतिने भोगवे छे पण विषयोने भोगवतो नथी. स्त्रीना शरीरने, दाळ- भात-लाडुने के मोसंबी ना रसने ते भोगवतो नथी. स्त्री, शरीर, कुटुंब, धनसंपत्ति ईत्यादि जे निकट आव्यां छे तेमां लक्ष करीने अज्ञानी पोताना हरखशोकना परिणामने भाव्यभावकपणे भोगवे छे पण ते पर पदार्थोने भोगवतो नथी. वींछीना डंखने ते भोगवतो


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नथी पण ते डंख -समये जे द्वेष ना विकारी परिणाम थाय तेने ते भोगवे छे. कर्मविपाकने अनुकूळ जे जे कल्पना थाय तेने ते अनुभवे छे. अनुकूळनो अर्थ निमित्त छे, पण निमित्त कर्ता नथी. ईष्टोपदेश गाथा ३प मां आवे छे के कार्यनी उत्पत्तिमां जे अनुकूळ निमित्त होय छे ते बधां धर्मास्तिकायवत् उदासीन निमित्त छे. प्रेरक निमित्त हो के उदासीन. कार्यनी उत्पत्तिमां ते उदासीन निमित्त ज छे. परने निकट देखीने हुं परने भोगवुं छुं एवी मान्यता अज्ञान छे, मिथ्यात्व छे.

आवी परम सत्य वात बहार आवी छे. कोई न माने तो न मानो, वा आ तो निश्चय छे एम कही निंदा करे तो करो; पण मार्ग तो आज छे भाई! नियमसारमां (गाथा १८६मां) आवे छे के लोकात्तर एवो जिनेश्वरभगवाननो मार्ग जेने न बेसे ते स्वरूपविकळ लोको मार्गनी निंदा करे तो तुं मार्गनी अभक्ति करीश नही; भक्ति ज करजे.

एक छोकरो हतो. एक बीजा छोकराए तेने थपाट मारी. त्यारे त्यांथी पसार थता कोई सज्जन पुरुषे तेने ठपको आप्यो. तो ते बीजो छोकरो कहेवा लाव्यो. - “शास्त्रमां तो एम आवे छे के कोइ कोईने मारी शकतुं नथी.” अरे भाई! आवा कुतर्क न शोभे. मारवानो जे भाव (क्रोधनो) थयो ते आत्मानुं कार्य छे अने ते आत्मानी पोतानी हिंसानो ज भाव छे. परद्रव्योनो आत्मा कर्ता-भोक्ता नथी पण पोताना रागद्वेष परिणामोनो तो अज्ञानी अवश्य कर्ता-भोक्ता छे.

* गाथा ८४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘पुद्गलकर्मने परमार्थे पुद्गलद्रव्य ज करे छे; जीव तो पुद्गलकर्मनी उत्पत्तिने अनुकूळ एवा पोताना रागादिक परिणामोने करे छे.’

जुओ, पुद्गलकर्म छे ते पर्याय छे अने तेने पुद्गलद्रव्य ज करे छे, जीव नहि. जीव तो पुद्गलकर्मनी उत्पत्तिने अनुकूळ एवा पोताना राग-द्वेषना परिणामने करे छे. कर्मनो बंध थाय एमां जीवना रागादि परिणाम निमित्त छे; पण एनाथी पुद्गलकर्मनी पर्याय थाय छे एम नथी. ल्यो, अहीं तो निमित्तथी थतुं नथी एम स्पष्ट कह्युं छे.

‘वळी पुद्गलद्रव्य ज पुद्गलकर्मने भोगवे छे; जीव तो पुद्गलकर्मना निमित्तथी थता पोताना रागादिक परिणामोने भोगवे छे.’ अहीं एम कह्युं के पुद्गलकर्मना निमित्तथी थता पोताना परिणामोने जीव भोगवे छे. जीव पोताना विकारी परिणामने करे छे अने ते परिणाम भोगवे छे. जीव कर्मने भोगवे छे एम छे ज नहि पुद्गलद्रव्य ज पुद्गलकर्मने भोगवे छे.

‘परंतु जीव अने पुद्गलनो आवो निमित्तनैमित्तिकभाव देखीने अज्ञानीने एवो भ्रम छे के पुद्गलकर्मने जीव करे छे अने भोगवे छे’ हुं रागद्वेष करुं छुं तो पुद्गल-


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कर्मनो बंध थाय छे एम अज्ञानी भ्रमथी माने छे में रागद्वेष कर्यो तेथी कर्मने बंधावुं पडयुं एम अज्ञानी माने छे. पण एम छे नहि. ते समये कर्मनी पर्याय जे थवा योग्य हती ते पुद्गलथी थई छे. तेनी उत्पत्तिनी ते जन्मक्षण छे. राग कर्यो माटे चारित्रमोहनो बंध थयो एम छे ज नहि. कर्मनुं परिणमन पोताथी स्वकाळे स्वतंत्र थयुं छे. आम वस्तुस्थिति छे. छतां जीव पुद्गलकर्मने करे छे अने भोगवे छे. एवो अज्ञानीनो अनादिकाळथी प्रसिद्ध व्यवहार छे.

‘परमार्थे जीव-पुद्गलनी प्रवृत्ति भिन्न होवा छतां, ज्यां सुधी भेदज्ञान न होय त्यां सुधी बहारथी तेमनी प्रवृत्ति एक जेवी देखाय छे.’ रागना निमित्ते कर्मबंधन थयुं त्यां निमित्तने देखनाराओने पोताथी परमां कार्य थयुं एम देखाय छे, अज्ञानीने जीव-पुद्गलनुं भेदज्ञान नहि होवाथी, बन्नेनी भिन्नता नहि भासी होवाथी उपलक ‘द्रष्टिए जेवुं देखाय तेवुं मानी ले छे; तेथी ते एम माने छे के जीव पुद्गलकर्मने करे छे अने भोगवे छे.

‘श्री गुरु भेदज्ञान करावी, परमार्थ जीवनुं स्वरूप बतावीने, अज्ञानीना ए प्रतिभासने व्यवहार कहे छे.’ कर्मनी पर्यायने आत्मा करतो नथी अने कर्मनी पर्याय विकार उत्पन्न करती नथी. - आवुं समजाववानुं प्रयोजन परथी स्वनुं भेदज्ञान कराववानुं छे. अहा! जडकर्मनो कर्ता तो आत्मा नथी पण ए समये जे राग थाय छे ते रागनो कर्ता निश्चये आत्मा नथी.

श्री गुरु भेदज्ञान करावे छे एटले भेदज्ञान करवानो उपदेश आपे छे. करावे कोण? अने उपदेश आपे छे एम कहेवुं ए पण व्यवहारनुं वचन छे. वाणीना काळे वाणी थाय छे. वाणीनी उत्पत्तिनी ते जन्मक्षण छे तेथी वाणी उत्पन्न थई छे. विकल्प थयो के हुं बोलुं तेथी भाषानी पर्याय थई छे एम नथी. श्री गुरु भेदज्ञान कराववा समजावे छे के-भाई! राग तारुं कर्तव्य नथी. रागनुं कर्तव्य माने त्यां सुधी अज्ञान छे. रागना निमित्ते कर्म बंधाय त्यां ते काळे पुद्गलमां कर्मपर्याय थवानो काळ छे तेथी कर्मबंधनी दशा थई छे, तारा कारणे थई नथी. तें राग कर्यो माटे त्यां कर्मबंधन थयुं एम माने ए मिथ्यात्व छे.

अज्ञानीना ए प्रतिभासने व्यवहार कहे छे. हवे अज्ञानीना आ व्यवहारने दूषण दे छे. हुं परनो कर्ता-भोक्ता छुं एवो अज्ञानीनो जे व्यवहार छे ते सदोष छे. मिथ्यात्वसहित छे एम कहे छे.

प्रश्नः– अज्ञानीने तो व्यवहार होतो नथी?

उत्तरः– हा, ज्ञानी के जेने निज चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मानुं भान थयुं छे तेने सहचरपणे जे राग होय छे तेने व्यवहार कहेवामां आवे छे. पण ए वात अहीं नथी.


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अहीं तो अज्ञानीना रागने व्यवहार कह्यो छे. एनो अर्थ एम छे के अज्ञानी अनादिथी रूढपणे हुं परद्रव्यनो कर्ता-भोक्ता छुं एवी विपरीत मान्यता सहित जे एनी रागादि प्रवृत्ति छे तेने अज्ञानीओनो अहीं प्रसिद्ध व्यवहार छे एम कह्युं छे. अहा! जे राग थयो ते पोतानी जीवनी पर्याय छे अने तेना निमित्ते जे कर्मबंधन थयुं ते जड पुद्गलनी पर्याय छे. आम होवा छतां अनादि संसारथी अज्ञानीओ भ्रमथी माने छे के मने राग थयो तो कर्मबंधन थयुं. आवा विपरीत अज्ञानमय विकल्पने अहीं अज्ञानीनो प्रसिद्ध व्यवहार कह्यो छे.

[प्रवचन नं. १४३, १४४ * दिनांक १-८-७६ थी २-८-७६]
ॐ ॐ ॐ ॐ

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गाथा–८प

अथैनं दूषयति–

जदि पोग्गलकम्ममिणं कुव्वदि तं चेव वेदयदि आदा।
दोकिरियावदिरित्तो
पसज्जदे सो जिणावमदं।। ८५।।

यदि पुद्गलकर्मेदं करोति तच्चैव वेदयते आत्मा।
द्विक्रियाव्यतिरिक्तः
प्रसजति स जिनावमतम्।। ८५।।

हवे आ व्यवहारने दूषण दे छेः-

पुद्गलकरम जीव जो करे, एने ज जो जीव भोगवे,
जिनने
असंमत द्विक्रियाथी अभिन्न ते आत्मा ठरे. ८प.

गाथार्थः– [यदि] जो [आत्मा] आत्मा [इदं] [पुद्गलकर्म] पुद्गलकर्मने [करोति] करे [च] अने [तद् एव] तेने ज [वेदयते] भोगवे तो [सः] ते आत्मा [द्विक्रियाव्यतिरिक्तः] बे क्रियाथी अभिन्न [प्रसजति] ठरे एवो प्रसंग आवे छे- [जिनावमतं] जे जिनदेवने संमत नथी.

टीकाः– प्रथम तो, जगतमां जे क्रिया छे ते बधीये परिणामस्वरूप होवाथी खरेखर परिणामथी भिन्न नथी (-परिणाम ज छे); परिणाम पण परिणामीथी (द्रव्यथी) भिन्न नथी कारण के परिणाम अने परिणामी अभिन्न वस्तु छे (-जुदी जुदी बे वस्तु नथी). माटे (एम सिद्ध थयुं के) जे कोई क्रिया छे ते बधीये क्रियावानथी (द्रव्यथी) भिन्न नथी. आम, वस्तुस्थितिथी ज (अर्थात् वस्तुनी एवी ज मर्यादा होवाने लीधे) क्रिया अने कर्तानुं अभिन्नपणुं (सदाय) तपतुं होवाथी, जीव जेम व्याप्यव्यापकभावथी पोताना परिणामने करे छे अने भाव्यभावकभावथी तेने ज अनुभवे-भोगवे छे तेम जो व्याप्यव्यापकभावथी पुद्गलकर्मने पण करे अने भाव्यभावकभावथी तेने ज भोगवे तो ते जीव, पोतानी अने परनी भेगी मळेली बे क्रियाथी अभिन्नपणानो प्रसंग आवतां स्व-परनो परस्पर विभाग अस्त थई जवाथी (नाश पामवाथी), अनेकद्रव्यस्वरूप एक आत्माने अनुभवतो थको मिथ्याद्रष्टिपणाने लीधे सर्वज्ञना मतनी बहार छे.

भावार्थः– बे द्रव्योनी क्रिया भिन्न ज छे. जडनी क्रिया चेतन करतुं नथी, चेतननी क्रिया जड करतुं नथी. जे पुरुष एक द्रव्यने बे क्रिया करतुं माने ते मिथ्याद्रष्टि छे, कारण के बे द्रव्यनी क्रिया एक द्रव्य करे छे एम मानवुं ते जिननो मत नथी.


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समयसार गाथा ८पः मथाळुं

हवे आ व्यवहारने दूषण दे छे.

* गाथा ८पः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘प्रथम तो, जगतमां जे क्रिया छे ते बधीय परिणामस्वरूप होवाथी खरेखर परिणामथी भिन्न नथी (-परिणाम ज छे)’

अहीं क्रिया एम केम कह्युं? परिणाम न कहेतां क्रिया कहेवानो आशय एम छे के वस्तुमां सहजपणे पलटती अवस्था-परिणाम होय छे; ते पलटती अवस्था-पर्यायने क्रिया कहेवामां आवे छे. कह्युं छे ने के-

“कर्ता परिनामी दरव, करमरूप परिनाम,
किरिया परजयकी फिरनी, वस्तु एक त्रय नाम.”

प्रश्नः– पलटती अवस्थामां एक मटीने बीजी अवस्था थई त्यां निमित्त छे तो बीजी अवस्था थईने?

उत्तरः– ना, एम नथी. क्रिया कहेतां परिणामनुं पलटवुं वस्तुनुं स्वरूप छे. एक अवस्था बदलीने बीजी थाय छे त्यां लोकोने भ्रमथी एम लागे छे के निमित्त आव्युं माटे अवस्था बदलीने बीजी अवस्था थई छे; परंतु एम छे ज नहि. अहीं कह्युं ने के -प्रथम तो जगतमां जे क्रिया छे ते परिणामस्वरूप छे अने ते परिणाम ज छे. जड अने चेतननी पलटती अवस्थारूप जे क्रिया छे ते बधी परिणामस्वरूप छे.

भाई! आ तो तत्त्वज्ञाननी मूळ प्रयोजनभूत वात छे. बीजी वातने जाणो के न जाणो, पण आ प्रयोजनभूत तत्त्वनी वात तो अवश्य जाणवी जोईए. कहे छे के -जे क्रिया छे ते परिणामस्वरूप छे अने ते परिणाम ज छे. पलटती क्रिया ते द्रव्यनुं कर्म एटले कार्य छे. परिणाम कहो, कर्म कहो, कार्य कहो के व्याप्य कहो- ए बधुं एक ज छे. वास्तवमां परिणामस्वरूप क्रिया परिणामथी भिन्न नथी. आ शरीरना हालवाचालवानी बदलती अवस्थारूप जे क्रिया थई ते शुं आत्माए विकल्प कर्यो माटे त्यां शरीरमां क्रिया थई? तो कहे छे के ना, एम नथी. ए पलटवारूप क्रिया पोताना (द्रव्यना) परिणामस्वरूप छे. अहाहा...! आ आंगळीनी हलवानी जे क्रिया थई ते क्रिया पोताना परिणामस्वरूप छे. अहीं क्रिया अने परिणाम भिन्न नथी एम बताव्युं छे.

वळी, ‘परिणाम पण परिणामीथी (द्रव्यथी) भिन्न नथी कारण के परिणाम अने परिणामी अभिन्न वस्तु छे.’ जुओ, जड अने चेतनमां जे क्रिया छे ते बधीय परिणामस्वरूप छे अने ते परिणामथी भिन्न नथी; अने ते परिणाम परिणामीथी भिन्न नथी, परिणामी ज छे.


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प्रश्नः– परिणाम परिणामीथी भिन्न छे एम आवे छे ने?

उत्तरः– हा, पण ए वात अहीं नथी. अहीं तो परथी भिन्न पाडवानी वात छे. समयसार गाथा ३२०नी टीकामां अने परमात्मप्रकाश गाथा ६८मां जे एम कह्युं छे के आत्मा मोक्षपरिणामनो कर्ता नथी ए तो त्यां त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यस्वरूपनी द्रष्टि कराववानी अपेक्षाथी परिणाम अने परिणामीने भिन्न कह्या छे. ज्यारे अहीं परथी भिन्न अने पोताना द्रव्य-पर्यायथी अभिन्न वस्तु छे एम सिद्ध करवुं छे. तेथी कहे छे -क्रिया परिणामस्वरूप होवाथी परिणामथी भिन्न नथी अने परिणाम पण परिणामीथी भिन्न नथी. परिणाम अने परिणामी अभिन्न वस्तु छे, बे जुदी जुदी वस्तु नथी. परिणाम परिणामीए कर्या छे, कोइ परवस्तु एनो कर्ता छे एम नथी यआ वस्तुस्थिति अहीं सिद्ध करी छे.

प्रवचनसारमां (गाथा ९६मां) एम कह्युं छे के-उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य द्रव्यना कर्ता, करण अने अधिकरण छे. द्रव्य छे ते उत्पाद-व्ययनुं कर्ता छे एम वात तो आवे छे पण त्यां तो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य द्रव्यना कर्ता अने द्रव्य कार्य छे एम कह्युं छे. ए तो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य वडे द्रव्यना अस्तित्वनी सिद्धि करवानी त्यां वात छे. भाई! जे अपेक्षाथी ज्यां जे वात होय ते अपेक्षाथी त्यां यथार्थ समजवुं जोईए.

अहीं परिणाम अने परिणामी भिन्न नथी एम सिद्ध करवुं छे. अहीं परिणाम परथी भिन्न छे अने परथी परिणाम थतां नथी ए वात सिद्ध करवा मागे छे. क्रिया परिणामथी भिन्न नथी अने परिणाम परिणामीथी भिन्न नथी. जुओ, माटीना पिंडमांथी जे घडो थयो ते क्रिया थई. ते क्रिया परिणामस्वरूप छे, माटीना कर्मस्वरूप एटले के कार्यस्वरूप छे. ए क्रिया परिणामस्वरूप होवाथी परिणाम ज छे. अने ते घडारूप परिणाम (परिणामीथी) माटीथी अभिन्न छे. तथापि ते घडारूप परिणाम कुंभारथी भिन्न छे. कुंभारथी घडो थयो छे एम छे ज नहि. तेवी रीते चोखा जे पाके छे ते पाणीथी पाके छे एम नथी. चोखा पाकवानी जे अवस्था थई ते पलटती क्रिया छे. ते क्रिया परिणामस्वरूप छे अने परिणाम छे ते परिणामी द्रव्यथी अभिन्न छे. माटे चोखा पाकवाना परिणामनुं कर्ता (चोखानुं) द्रव्य छे, पाणी नहि. भाई! आ तो अध्यात्मनुं कोई अलौकिक लोजीक छे!

प्रश्नः– पाणी अग्निथी उनुं थतुं देखाय छे ने?

उत्तरः– एम नथी; अग्निथी पाणी उनुं थयुं नथी. पाणीनी पर्याय पहेलां शीतरूप हती ते पलटीने गरम थई. ते क्रिया परिणामस्वरूप छे अने परिणामथी अभिन्न ज छे. वळी ते परिणाम पण परिणामीथी भिन्न नथी; पण अग्निथी भिन्न ज छे. माटे अग्निथी पाणी उनुं थयुं छे एम छे ज नहि.

विश्वमां अनंत द्रव्यो छे. ते अनंत अनंतपणे कयारे रहे? पोताना परिणामने


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पोते उपजावे तो अनंत अनंतपणे रही शके. परथी उपजे तो बधो खीचडो थई जाय अने अनंत अनंतपणे न रहे.

प्रश्नः– तो शुं अग्नि विना पाणी उनुं थयुं छे? उत्तरः– हा, अग्नि विना पाणी उनुं थयुं छे; केमके अग्निनी पर्याय अने पाणीनी पर्याय वच्चे अन्योन्याभाव छे. जेम बे द्रव्यो-जड अने चेतन द्रव्यो वच्चे अत्यंताभाव छे तेम परमाणु, परमाणुनी पर्याय वच्चे अन्योन्याभाव छे. बापु! आ तो धर्मनी अति सूक्ष्म वात छे. एने समजवा बुद्धिने सूक्ष्म करवी जोईए. कह्युं छे ने के- ‘हुं करुं, हुं करुं ए ज अज्ञानता शकटनो भार जेम श्वान ताणे.’ जेम भरेलुं गाडुं चाल्युं जतुं होय त्यां एनी नीचे चालता कुतरानुं माथुं उपर गाडाने अडके एटले कुतरुं मानी ले के गाडानो भार हुं खेंचुं छुं. तेम दुकाने बेसी मालनी ले-वेचना विकल्प करे त्यां माने के आ वेपारनी बधी क्रिया माराथी थाय छे. ते अज्ञानी पण आ कुतराना जेवी मिथ्या कल्पना करे छे.

प्रश्नः– हा, पण गाडु बळदथी तो चाले छे ने? उत्तरः– ना, गाडु बळदथी चालतुं नथी पण ते पोताथी चाले छे. एक एक रजकण पोतानी पर्यायथी स्वतंत्र गति करे छे. परना कारणे गति थती नथी. प्रश्नः– मोटर पेट्रोलथी चाले छे ए तो देखीतुं सत्य छे ने?

उत्तरः– ना, मोटर पेट्रोलथी चाले छे एम बीलकुल नथी. मोटरनो एक एक परमाणु पोतानी क्रियावर्ती शक्तिथी स्वतंत्र गति करे छे. भाई! आवा शुद्ध निर्भेळ तत्त्वनी खबर विना कोई बहारथी व्रत -पडिमा लई ले अने तेथी धर्म थशे एम माने पण एथी तो मिथ्यात्व थाय छे. आवी वात छे.

प्रश्नः– मोटर चाले एने लईने अंदरना मुसाफरनी गति थाय छे ए तो बराबर छे ने?

उत्तरः– ना, एम नथी. मोटरनी गति मोटरना कारणे थाय छे अने मुसाफरनी गति मुसाफरना पोताना कारणे थाय छे. कोईनाथी कोईनी गति छे एम छे ज नहि. समजाय छे कांई? हा, समजाय तो छे पण अंदर वात बेसती नथी. समजीने बेसाडे तो बेसे एम छे. दरेक परमाणु अने दरेक जीवनी अवस्था प्रथम हती ते पलटीने बीजी थई ते क्रिया छे. ते क्रिया परिणामस्वरूप होवाथी परिणामथी