Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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भिन्न नथी अने परिणाम परिणामीथी भिन्न नथी माटे ते परिणाम बीजाथी थया छे एम बीलकुल नथी. ते ते परिणाम पोताना परिणामी द्रव्यथी ज थया छे.

मोक्षमार्गना परिणामनुं द्रव्य कर्ता नथी एम जे कह्युं छे ए बीजी वात छे. त्यां सामान्य ध्रुव नित्य एकरूप वस्तु पर्यायमां आवती नथी ए अपेक्षाए वात छे. अने अहीं तो ते ते पर्याय द्रव्यनी छे, परनी नथी एम सिद्ध करवुं छे. परिणाम कहो के पर्याय कहो- एक ज वात छे. परिणाम परिणामी द्रव्यना छे, पर-निमित्तना नथी अने निमित्तने लईने थया नथी-एम अहीं कहेवा मागे छे. जुओ, आटामांथी कणेक बदलाईने रोटली थाय छे ते क्रिया छे. ते क्रिया परिणामस्वरूप होवाथी परिणाम ज छे. रोटली परिणाम ज छे. अने रोटलीरूप परिणाम परिणामीथी (आटाना परमाणुथी) भिन्न नथी. माटे परथी एटले के बाईथी के वेलण वगेरेथी रोटली थई छे ए वात रहेती नथी.

आ आगममंदिरना आरसमां अक्षरो कोतरवानुं मशीन परदेशथी आव्युं ते तेनी परिणामस्वरूप क्रिया थई. ते क्रिया परिणामथी भिन्न नथी अने परिणाम परिणामीथी भिन्न नथी. माटे मशीन बीजाने लईने अहीं आव्युं एम छे ज नहि.

प्रश्नः– परंतु बीजो एमां निमित्त तो छे ने?

उत्तरः– भाई! आ निमित्तनी ज वात चाले छे के जे क्रिया थई ते निमित्तथी थई नथी; त्यारे तो एने निमित्त कहेवामां आवे छे.

प्रश्नः– महेनत करी त्यारे मशीन अहीं आव्युं ने?

उत्तरः– महेनत एटले विकल्प कर्यो. ए विकल्प पहेलां न हतो अने थयो ते क्रिया थई. ए क्रिंया परिणामस्वरूप होवाथी परिणामथी एटले विकल्पथी भिन्न नथी. अने ते परिणाम-विकल्प परिणामी द्रव्यथी भिन्न नथी. तेथी ते विकल्पनुं कर्ता जीव द्रव्य छे, पण मशीनना परिणमननो कर्ता जीव नथी. (मशीनने लईने विकल्प नथी अने विकल्पने लईने मशीनना परिणाम नथी).

भाई! नवतत्त्वनी श्रद्धा थई कयारे कहेवाय? अजीवनी पर्याय अजीवना द्रव्य-गुणथी थाय छे, परथी नहि एम निश्चित थाय त्यारे अजीवनी श्रद्धा थई कहेवाय. आ तो व्यवहार श्रद्धा छे. निश्चय श्रद्धा तो ज्यारे परिणाम निज आत्मद्रव्यसन्मुख थईने त्रिकाळी द्रव्यस्वभावनी प्रतीति करे त्यारे प्रगट थाय छे अने ते सम्यग्दर्शन छे. त्यां मिथ्यात्व पलटीने जे सम्यग्दर्शननी पर्याय थई ते क्रिया छे. ते क्रिया परिणामस्वरूप होवाथी परिणाम ज छे, अने परिणाम परिणामी द्रव्यथी अभिन्न छे. माटे सम्यग्दर्शननो कर्ता जीव छे. दर्शनमोहनो अभाव थयो माटे सम्यग्दर्शन प्रगट थयुं एम छे ज नहि.


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घातीकर्मनो क्षय थतां कर्मरूप दशा अकर्मरूप थई ते कारणथी अहीं जीवने केवळज्ञान प्रगट थयुं छे एम नथी. चार ज्ञाननी पर्याय पलटीने केवळज्ञान थयुुं ते क्रिया छे. ते क्रिया परिणामस्वरूप होवाथी परिणामथी भिन्न नथी अने परिणाम एटले केवळज्ञान परिणामी एटले आत्माथी भिन्न नथी. तेथी केवळज्ञान आत्मानुं कार्य छे. घातीकर्मनो क्षय थयो के वज्रवृषभनाराच संहनन अने मनुष्यपर्याय हती माटे केवळज्ञान प्रगट थयुं एम छे ज नहि.

प्रश्नः– दिव्यध्वनिथी आ ज्ञान थयुं छे के नहि?

उत्तरः– ना, दिव्यध्वनिथी ज्ञान थयुं छे एम नथी. ज्ञान पोताथी थयुं छे. दिव्यध्वनिने वेद कहे छे. पंचास्तिकाय अने परमात्मप्रकाशमां तेने वेद कहेल छे. वेद अने शास्त्र बे शब्दो कह्या छे. वेदनो अर्थ दिव्यध्वनि कर्यो छे अने शास्त्रनो अर्थ महामुनिओनी वाणी करेलो छे. त्यां बे शब्दो लईने कह्युं छे के दिव्यध्वनिथी अने महामुनिओना शास्त्रथी ज्ञान थतुं नथी केमके ज्ञाननी अवस्था थई ते प्रथम न हती ते प्रगट थई छे. ते अवस्था पलटीने थई तेथी क्रिया छे. क्रिया परिणामस्वरूप होवाथी परिणामथी भिन्न नथी. अने ते परिणाम परिणामी द्रव्यथी भिन्न नथी. आम ज्ञान पोताथी थयुं छे, दिव्यध्वनिथी नहि. (दिव्यध्वनि तो पुद्गलनी पर्याय छे).

दर्शनपाहुडमां आवे छे के-हे सकर्णा! सम्यग्दर्शन विनानो जीव वंदन योग्य नथी. एटले जेनी श्रद्धामां भूल छे, अने हुं रागनो कर्ता छुं, देहादि परद्रव्यनी क्रिया करी शकुं छुं, देश, कुटुंब आदिने सुधारी शकुं छुं अने देशसेवा ए धर्म छे- एम जेनी मान्यता छे ते सम्यग्दर्शनथी रहित छे. आवा सम्यग्दर्शनथी रहित अज्ञानी वंदन करवा लायक नथी केमके ‘दंसणमूलोधम्मो’ धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे. ‘चरितम् खलु धम्मो’ चारित्र साक्षात् धर्म छे, परंतु जेम मूळ विना वृक्ष होतुं नथी तेम सम्यग्दर्शन विना चारित्र होतुं नथी, तेथी कोईए द्रव्यलिंग धारण कर्युं होय अने पंचमहाव्रतादिनुं पालन करतो होय, परंतु पंचमहाव्रतनी क्रिया हुं करी शकुं छुं, ए मारुं कर्तव्य छे अने एनाथी मने लाभ (धर्म) छे एम जो ते मानतो होय तो ते सम्यग्दर्शन रहित मिथ्याद्रष्टि छे अने ते वंदन योग्य नथी एम भगवाने शिष्योने उपदेशमां कह्युं छे. बहु आकरी वात, भाई! पण आ यथार्थ अने सत्य वात छे.

सूत्रपाहुड गाथा १०मां कह्युं छे-‘ ‘वस्त्र रहित दिगंबर मुद्रास्वरूप अने पाणिपात्र एटले हाथरूपी पात्रमां ऊभा रहीने आहार करवो आवो एक अद्वितीय मोक्षमार्ग तीर्थंकर परमदेव जिनेन्द्रदेवे कह्यो छे. आ सिवाय बीजा बधा अमार्ग छे.” मोक्षमार्ग प्रकाशकना पांचमा अधिकारमां पंडितप्रवर श्री टोडरमलजीए दिगंबरमत सिवायना बीजा सर्वने अन्यमत कह्या छे. ते बधा उन्मार्ग छे. कोईना विरोध माटे आ वात नथी. वस्तुस्थिति ज आवी छे. सूत्रपाहुडनी २३मी गाथामां कह्युं छे के-“वस्त्र धारण


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करवावाळा सीझता नथी एटले के मोक्ष पामता नथी. तीर्थंकर भगवान पण ज्यां सुधी गृहस्थदशामां रहे त्यां सुधी मोक्ष पामता नथी. दीक्षा लईने दिगंबररूप धारण करे त्यारे मोक्ष पामे छे, केमके नग्नपणुं ते मोक्षमार्ग छे, शेष बधां लिंग उन्मार्ग छे.”

वस्त्रसहित मुनिपणुं माने तो एमां नवे तत्त्वनी भूल छे. मुनिनी भूमिकामां आस्रव मंद होय छे, परंतु वस्त्र राखवानो विकल्प तीव्र आस्रव छे. माटे एमां आस्रवनी भूल थई. मुनिनी भूमिकामां संवर उग्र होय छे तेने वस्त्र राखवानो भाव होतो नथी. छतां वस्त्र धारे तो ते संवरनी भूल छे. मुनिनी भूमिकामां कषाय घणो मंद होय छे. त्यां वस्त्रग्रहणनी सहेजे ईच्छा थती नथी. ते स्थितिमां घणी निर्जरा थाय छे. छतां वस्त्रसहितने घणी निर्जरा मानी ते निर्जरा तत्त्वनीभूल छे. छठ्ठा गुणस्थाने वस्त्र राखवानो तीव्र आस्रव जीवने होतो नथी छतां माने तो ते जीवतत्त्वनी भूल छे. छठ्ठा गुणस्थाने वस्त्र-पात्रनो संयोग होय नहि छतां वस्त्रसहित मुनिपणुं माने तो ते अजीवतत्त्वनी भूल छे. त्रण कषायना अभावपूर्वक छठ्ठुं गुणस्थान होय छे. त्यां मुनिने अंतर्बाह्य निर्ग्रंथता होय छे अने तेने वस्त्रग्रहणनी वृत्ति होती ज नथी. अहाहा..! जेने त्रण कषायनो अभाव छे तेवा साचा भावलिंगी मुनिने सदाय बहारमां वस्त्ररहित नग्न दिगंबर दशा ज निमित्तपणे होय छे.

तीर्थंकरदेवने पण वस्त्रसहित गृहस्थदशा होय त्यांसुधी मुनिपणुं नथी अने केवळज्ञान प्रगट थतुं नथी. कोई एम माने के पंचमहाव्रतने दिगंबरमां आस्रव कह्यो छे पण श्वेतांबरमां तेने निर्जरा कही छे तो ते एम पण नथी. तत्त्वार्थसूत्रमां पंचमहाव्रतने पुण्य कहेल छे. महाव्रत ए राग छे. ए धर्मनुं साधन नथी. रागथी बंध थाय छे, पण रागथी अंश पण निर्जरा थती नथी. पंचमहाव्रतने निर्जरानुं कारण कहेवुं ए तद्दन जूठी वात छे. अरे! लोकोए तत्त्वद्रष्टिनो विरोध करीने अन्यथा मान्युं छे ते कयां जशे? आवो अवसर मळ्‌यो अने तत्त्वथी विपरीत द्रष्टि राखीने सत्य न समजे एवा जीवो अरेरे! कयां रखडशे? आ शास्त्रनी गाथा ७४मां एम स्पष्ट कह्युं छे के शुभराग वर्तमानमां दुःखरूप छे अने भविष्यमां पण दुःखनुं कारण छे. त्यां एम केम कह्युं? कारण के शुभराग ते वर्तमान आकुळतारूप छे अने एनाथी जे पुण्य बंधाशे एना फळमां संयोग मळशे अने ते संयोग उपर लक्ष जतां दुःखस्वरूप एवो राग ज थशे.

प्रश्नः– परंतु मंद राग होय तो?

उत्तरः– भले मंदराग होय, ते वर्तमानमां दुःखरूप छे अने भविष्यमां दुःखना कारणरूप ज छे. पुण्यथी कदाचित् वीतरागदेव अने वीतरागनी वाणीनो संयोग मळे तो पण ए संयोगी चीज छे अने एना पर लक्ष जतां राग ज थशे. आ तो जेवुं वस्तुनुं स्वरूप छे तेवुं कहेवाय छे. अहीं कोई पक्षनी वात नथी. छहढालामां कह्युं छे के-

“यह राग-आग दहै सदा, तातैं समामृत सेईये”

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राग चाहे शुभ होय तोपण ते आग छे. माटे समतारूपी अमृतनुं सेवन करो. जन्म- मरणना अंतनो उपाय कोई अलौकिक छे. बापु! कोईने दुःख लागे तो लागे, पण मार्ग आ ज छे. दरेक वात बधाने सारी लागे एम केवी रीते बने? मोक्षमार्गप्रकाशकना पांचमा अधिकारमां कह्युं छे के-“एवो तो कोई उपदेश नथी के जे वडे सर्व जीवोने चेन थाय. वळी सत्य कहेतां विरोध ऊपजावे, पण विरोध तो परस्पर झघडो करतां थाय; पण अमे लडीए नहि तो तेओ पोतानी मेळे ज उपशांत थई जशे. अमने तो अमारा परिणामोनुं ज फळ थशे. मदिरानी निंदा करतां कलाल दुःख पामे, कुशीलनी निंदा करतां वेश्यादिक दुःख पामे तथा खरुं-खोटुं ओळखवानी परीक्षा बतावतां ठग दुःख पामे तो तेमां एम शुं करीए?”

अष्टपाहुडनी २३मी गाथा भावार्थमां कह्युं छे के-श्वेतांबर आदि वस्त्रधारकने पण मोक्ष थवानुं कहे छे ते मिथ्या छे, ते जिनमत नथी. अरे भाई! एक मिथ्यात्वना परिणाम छूटी बीजा मिथ्यात्वना परिणाम थया ते क्रिया छे. ते क्रिया परिणमनस्वरूप होवाथी परिणामथी भिन्न नथी अने ते परिणाम परिणामी आत्माथी भिन्न नथी. मिथ्यात्वना परिणामने पण आत्मा करे छे, दर्शनमोहकर्म नहि. अहीं तो परिणामने परथी भिन्न सिद्ध करवानी वात छे. परिणामथी परिणामी भिन्न छे ए वात अत्यारे अहीं नथी. अहीं तो द्विक्रियावादी मिथ्याद्रष्टिनी वात अहीं सिद्ध करवी छे. अहा! पोताना परिणामनी क्रिया पण आत्मा करे अने परनी क्रिया पण करे एम माननारा द्विक्रियावादी मिथ्याद्रष्टि छे. दयाना रागनी क्रिया पण करे अने परनी दया पण करे एम माननारा द्विक्रियावादी मिथ्याद्रष्टि छे. आवी वात सांभळनारा पण विरल होय छे योगसारमां आवे छे के-

“विरला जाणे तत्त्वने, वळी सांभळे कोई;
विरला ध्यावे तत्त्वने, विरला धारे कोई.”

संयोगद्रष्टिवाळाने लागे के अग्नि आवी तो पाणी गरम थयुं. वेलण फर्युं तो रोटली गोळ थई. पण स्वभावथी जुए तो एनो भ्रम मटी जाय. जुओ आटानी पर्याय बदलीने रोटली थई ते क्रिया छे. ते क्रिया परिणामस्वरूप होवाथी परिणामथी अभिन्न छे अने परिणाम परिणामी आटाथी अभिन्न छे. एमां वेलणे शुं कर्युं? कांई नहि. वेलणमां पण करवानी क्रिया पोतामां थई ते पोताना परिणामस्वरूप छे. ते क्रिया परिणामथी भिन्न नथी अने ते परिणाम (वेलणना) परमाणुओथी भिन्न नथी. तो बीजी चीजे एमां शुं कर्युं? कांई नहि; फक्त बीजी चीज एमां सहचरपणे निमित्त छे बस एटलुं.

माटे एम सिद्ध थयुं के ‘जे कोई क्रिया छे ते बधीय क्रियावानथी (द्रव्यथी) भिन्न नथी.’ अज्ञानीने एम लागे छे के पहेली अवस्था बदलीने बीजी थई ते परथी


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थई, परंतु एम छे नहि. आत्मज्ञानी स्त्री होय ते रोटली बनती वखते निमित्त छे पण निमित्तकर्ता नथी. रोटलीनी अवस्था तो एना कारणे थाय छे. तेमां जोग अने रागनो जे कर्ता छे एवा अज्ञानीने निमित्तकर्ता कहेवामां आवे छे. पण जेने रागनुं कर्तापणुं छूटी गयुं छे अने ज्ञाताद्रष्टास्वरूप भगवान आत्मा द्रष्टिमां आव्यो छे तेवा धर्मी जीवनो राग रोटली थवानी क्रियामां निमित्त छे, निमित्तकर्ता नहि. अने धर्मीने जे ज्ञान थयुं तेमां रोटलीनी पर्याय निमित्त छे. आ वात आगळ गाथा १००मां करेली छे.

आथी कोई एम कहे छे के उपादानवादीओ निमित्तनो आश्रय बहु ले छे अने कहे छे के निमित्तथी कार्य थतुं नथी. जुओने, आ परमागममंदिर २६ लाखना खर्चे थयुं ते शुं निमित्तना आश्रय विना थयुं?

अरे भाई! परने कोण करे? जगतमां आत्मानी के परमाणुनी जे क्रिया छे ते परिणामस्वरूप छे अने ते परिणामथी भिन्न नथी. परिणाम परिणामी द्रव्यथी भिन्न नथी. आ महासिद्धांत छे. माटे जे क्रिया छे ते पोताना द्रव्यथी थई छे अने बीजाथी थई नथी. ७६मी गाथामां प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य कर्मनी वात करी छे. पर्याय जे समये थवानी छे तेने ते समये द्रव्य प्राप्त करे छे माटे ते प्राप्य कर्म छे. ते पर्याय पूर्वनी पर्याय बदलीने थई माटे ते विकार्य कर्म छे; तथा ते नवी उत्पन्न थई माटे ते निर्वर्त्य कर्म छे. ते समये ते ज पर्याय थवानी छे माटे तेने ध्रुव कहे छे. आम परिणामस्वरूप क्रियानो कर्ता द्रव्य पोते छे केमके क्रियाथी द्रव्य अभिन्न छे. माटे क्रिया परथी कदी थती नथी.

आ होठ हले छे ते तेनी उत्पादरूप पर्याय छे. ते पर्याय पूर्वनी पर्याय बदलीने थई छे माटे ते क्रिया छे. ते क्रिया पोताना परिणामथी भिन्न नथी अने ते परिणाम तेना परमाणुथी भिन्न नथी. माटे ते पर्याय जीभथी थई नथी, ईच्छाथी थई नथी, आत्माथी थई नथी. आ श्वास चाले छे ते परमाणुनी क्रिया छे. ते क्रिया परिणामथी भिन्न नथी अने ते परिणाम तेना परमाणुथी भिन्न नथी. आम श्वास चाले छे तेनो कर्ता परमाणु छे, आत्मा नथी. आ मृत्यु समये श्वास अटकी जाय छे ते क्रिया परमाणुथी अभिन्न छे. ऊभो श्वास थाय त्यारे ते नाभिनुं स्थान छोडी दे छे. श्वास हेठो न बेसे अने एकदम देह छूटी जाय छे. पोताने ख्याल आवे के श्वासे स्थान छोडी दीधुं छे पण शुं करे? ते श्वासनी क्रिया उपर आत्मानो अधिकार नथी. जडनी क्रिया ते (आत्मा) केम करी शके?

लोकमां पण कहेवाय छे के-भाई! श्वास सगो नहि थाय. कारण के ते जडनी क्रिया छे. आत्मा तो जाणवाना परिणामनो कर्ता छे. श्वासनी क्रिया करवानी आत्मानी शक्ति नथी. भाई! श्वास तारी चीज नथी अने तारी चीजमां श्वास नथी. परमाणुनी क्रिया क्रियावानथी भिन्न नथी. छ ए द्रव्यनी क्रिया कर्ताथी भिन्न नथी, अभिन्न छे. आ


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महासिद्धांत भगवान कुंदकुंदाचार्य, श्री अमृतचंद्राचार्य आदि संतोए जगत पासे जाहेर कर्यो छे. श्वासनी क्रिया ते अजीवनी क्रिया छे. जीव तेने करी शके नहि, तेने हेठे लावी शके नहि. अरे भाई! जो श्वासनी क्रिया पण तुं करी शकतो नथी तो आ जे मोटां कारखानां चाले छे तेनी क्रिया तुं करी शके ए वात ज कयां संभवे छे? परमाणुनी पलटवानी जे क्रिया थाय ते क्रियावान पदार्थथी भिन्न नथी एटले के भिन्न वस्तुथी ते क्रिया थती नथी. आ प्रमाणे ज वस्तुनी स्थिति छे. हवे कहे छे-

‘आम, वस्तुस्थितिथी ज क्रिया अने कर्तानुं अभिन्नपणुं (सदाय) तपतुं होवाथी, जीव जेम व्याप्यव्यापकभावथी पोताना परिणामने करे छे अने भाव्यभावकभावथी तेने ज अनुभवे-भोगवे छे तेम जो व्याप्यव्यापकभावथी पुद्गलकर्मने पण करे अने भाव्यभावकभावथी तेने ज भोगवे तो ते जीव, पोतानी अने परनी भेगी मळेली बे क्रियाथी अभिन्नपणानो प्रसंग आवतां स्व-परनो परस्पर विभाग अस्त थई जवाथी, अनेक द्रव्यस्वरूप एक आत्माने अनुभवतो थको मिथ्याद्रष्टिपणाने लीधे सर्वज्ञना मतनी बहार छे.’

वस्तुनी मर्यादा ज एवी छे के वस्तुनी पर्याय पोतामां पोताथी थाय. ते परथी कदी थती नथी. दरेक पदार्थनी वर्तमान पर्याय बीजा द्रव्यनी पर्यायमां प्रवेश करीने तेने बदली दे एवी वस्तुस्थिति ज नथी. ‘ज’ लगाडयो छे तो एकांत थतुं नथी! ना, आ तो स्याद्वादमार्ग छे. पोतानी पर्याय पोताथी थाय अने परथी न थाय एनुं नाम एकांत छे. कथंचित्त पोताथी थाय अने कथंचित् परथी थाय एवी वस्तुस्थिति नथी. पोताथी पण थाय अने परथी पण थाय ए तो फुदडीवाद छे. गजब वात छे! रोटलीना टुकडा थाय ते परमाणुनी क्रिया छे; आंगळीथी टुकडा थाय एम छे ज नहि. रोटलीना टुकडा थाय ते टुकडा थवानी क्रिया छे. ते क्रियावान परमाणुथी भिन्न नथी; एटले के भिन्न पदार्थ वडे ते क्रिया थई नथी. जुओ, आ भेदज्ञाननी वात. कहे छे के कोईना घरमां कोई प्रवेश करे एवी मर्यादा नथी. पोतानी पर्यायमां बीजानी पर्याय प्रवेश करे अथवा बीजानी पर्यायमां पोतानी पर्याय प्रवेश करे एवी वस्तुनी मर्यादा नथी.

कुंभारथी घडो थाय एवी वस्तुनी मर्यादा नथी. घडानी पर्याय माटीथी थई छे. माटीना परमाणु पलटीने घडानी पर्याय थई ते क्रिया परिणामस्वरूप छे अने ते परिणामथी भिन्न नथी. अने ते घडारूप परिणाम द्रव्यथी (माटीना परमाणुथी) भिन्न नथी. अहो! भगवाननो कोई अद्भूत अलौकिक मार्ग छे! भगवाने मार्ग कर्यो नथी; जेवो छे तेवो मार्ग कह्यो छे. छए द्रव्य पोतपोतानी क्रियाना पोते कर्ता छे, परनो तेमां रंचमात्र हस्तक्षेप नथी. एक परमाणुमां-परमाणुनी क्रिया, क्रियावान भिन्न नथी, अभिन्न छे. आवी वस्तुनी मर्यादा छे. आत्मा रोटलीना टुकडा करी शके, दांत हलावी शके वा परनुं कांई करी शके ए वस्तुस्थिति ज नथी. परनुं कार्य करी शके ए आत्मानी शक्तिमां ज नथी.


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संयोगीद्रष्टिवाळाने देखाय के आत्मा हाथथी रोटलीना टुकडा करे छे; पण ए वस्तुस्थिति नथी. संयोगथी जोनार मिथ्याद्रष्टि वस्तुनी मर्यादाने तोडी नाखे छे. जुओ, भगवाने उपदेश आप्यो एम कहेवुं ए पण व्यवहारनयनुं कथन छे. वाणी वाणीना कारणे नीकळे छे; एमां ज्ञान निमित्त छे. वाणीनी पर्यायनो उत्पाद वाणीना परमाणुथी थाय छे, आत्माथी नहि, ईच्छाथी पण नहि. (भगवानने ईच्छा होती नथी).

धवलमां आवे छे के लोकालोक केवळज्ञानमां निमित्त छे. एनो अर्थ शुं? शुं केवळज्ञाननी पर्याय लोकालोकथी थई छे? ना, एम नथी. एम केवळज्ञाननी पर्याय लोकालोकने निमित्त छे. एटले शुं केवळज्ञान छे माटे लोकालोक छे? एम पण नथी, वळी लोकालोक तो ज्ञाननुं परज्ञेय छे अने स्वज्ञेय तो पोताना द्रव्य-गुण-पर्याय छे. आवुं वस्तुस्वरूप छे.

७पमी गाथामां आवी गयुं के आत्माना ज्ञानपरिणाममां राग निमित्त छे. आवुं जे ज्ञान ते जीवनुं कार्य छे, राग जीवनुं कार्य नथी. आ तो अंदर पोतामां लई जाय छे. ज्ञाननी पर्याय स्वपरप्रकाशक होवाथी ते परिणति स्वने जाणे छे अने रागने जाणे छे. राग छे तो रागने जाणे छे एम नथी. ज्ञाननी पर्याय पोताना स्वपरप्रकाशक सामर्थ्यनी स्वपरने जाणे छे. ज्ञाननी परिणतिमां धर्मी जीवने राग निमित्त छे. छतां धर्मी जीव पोतानी ज्ञाननी परिणतिने जाणे छे, रागने नहि. पोतानी ज्ञाननी पर्याय ते परिणामस्वरूप क्रिया छे, अने ते परिणाम द्रव्यथी अभिन्न छे. तेथी ते पर्यायनुं कर्ता आत्मद्रव्य छे; ते पर्यायनुं कर्ता निमित्त (राग) नथी.

अत्यारे तो मोटी गरबड चाले छे. परथी कार्य थाय ए मान्यता मूळमां ज भूल छे. स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षामां लख्युं छे के प्रत्येक पदार्थनी ते समये थनारी पर्याय पोतानी काळलब्धिथी प्रगट थई छे. पर्यायनी ते जन्मक्षण छे. पर्यायनी उत्पत्तिनो स्वकाळ छे तेथी ते थई छे, निमित्त छे माटे ते थई छे एम नथी. प्रवचनसारनी गाथा १०२मां पर्यायनी जन्मक्षणनी आ ज वात करी छे. द्रव्यनी पलटती अवस्थाना काळे सहचर देखीने ते पर्याय निमित्तने लईने थई छे एवी जे मान्यता तेनो अहीं अति स्पष्ट निषेध कर्यो छे.

जुओ, आ लाकडी ऊंची थाय छे ते तेनी पलटवानी क्रिया छे. ते क्रिया परिणामस्वरूप होवाथी परिणामथी भिन्न नथी, अने परिणाम (लाकडीना) परमाणुथी भिन्न नथी. माटे ते क्रियानो करनारो ते ते परमाणु छे, आंगळी तेनो कर्ता नथी. आत्माए तो नहि, पण आंगळीए आ लाकडी ऊंची करी छे एम नथी. रोटली तावडीमां उनी थाय छे ते परमाणुनी क्रिया छे. ते ते परमाणुनी उष्ण थवानी योग्यताना कारणे रोटली उनी थाय छे; तवाथी नहि, अग्निथी नहि, के रोटलीने तवामां ऊंची-नीची फेरवनार बाईथी नहि. त्यां तावडीमां रोटलीनी ऊंची-नीची फरवानी जे क्रिया छे ते पण ते ते


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परमाणुथी अभिन्न छे; बाई तेने हाथ वडे फेरवे छे एम छे ज नहि. अहो! आवी वस्तुनी अबाधित मर्यादा छे!

कहे छेने के -क्रिया अने कर्तानुं अभिन्नपणुं सदाय तपी रह्युं छे एटले के सदाय प्रगट छे. माटे दरेक द्रव्यनी प्रत्येक पर्याय पोताथी थाय छे, परथी नहि एम सिद्ध थाय छे. निमित्तथी थाय ए वात बीलकुल साची नथी. घडानी पर्याय माटीथी थाय छे, कुंभारथी कदी नहि. वस्तु पोतानी पर्यायमां छे अने पर्यायनो कर्ता वस्तु पोते छे. द्रव्य अने पर्यायस्वरूप क्रियानुं अभिन्नपणुं सदाय प्रगट छे. अहाहा...! आ अक्षर जे लखाय छे ते पेन्सीलथी लखाय छे एम नथी; केमके अक्षरनी क्रिया अने पेन्सील भिन्न चीज छे. अक्षर लखाय ते (अक्षरना) परमाणुनी क्रिया छे अने ते, ते ते परमाणुथी अभिन्न छे. अक्षर लखाय छे तेनो कर्ता ते ते परमाणु छे, परंतु आंगळीथी के पेन्सीलथी ते अक्षरनी क्रिया थई छे एम बीलकुल नथी, गजब वात छे!

समयसारना छेल्ला कळशमां श्री अमृतचंद्रसूरि कहे छेके -‘ ‘पोतानी शक्तिथी जेमणे वस्तुनुं तत्त्व सारी रीते कह्युं छे एवा शब्दोए आ समयनी व्याख्या करी छे; स्वरूपगुप्त अमृतचंद्रसूरिनुं (तेमां) कांई ज कर्तव्य नथी.” अहाहा..! कहे छे के आ व्याख्या शब्दोए करी छे, में करी नथी. हुं तो मारा स्वरूपमां गुप्त छुं. भाषानी पर्यायथी शब्द परिणमे छे, तेने हुं (आत्मा) परिणमावी शकतो नथी.

वळी, प्रवचनसार कळश २१मां पण आचार्यदेव कहे छे- (खरेखर पुद्गलो ज स्वयं शब्दरूपे परिणमे छे, आत्मा तेमने परिणमावी शकतो नथी, तेम ज खरेखर सर्व पदार्थो ज स्वयं ज्ञेयपणे-प्रमेयपणे परिणमे छे, शब्दो तेमने ज्ञेय बनावी-समजावी शकता नथी माटे) “आत्मा सहित विश्व ते व्याख्येय छे, वाणीनी गूंथणी ते व्याख्या छे अने अमृतचंद्रसूरि ते व्याख्याता छे-एम मोहथी जनो न नाचो.” अहाहा...! में शब्द कर्या, अने शब्दथी तने ज्ञान थयुं एम मोह वडे मा फुलाओ; केमके ए मान्यता वस्तुस्वरूप नथी. आमां महापुरुषे पोतानी लघुता दर्शावी छे एटलुं ज नहि, वस्तुनी मर्यादा पण प्रगट करी छे. भाई! कोण व्याख्या करे? कोण भाषा करे? अने कोण समजावी शके? भाई! शब्द ते आत्मानुं कार्य नहि अने शब्द सांभळवाथी जीवने ज्ञान थयुं एम पण नहि.

ज्ञानना परिणमननी ते समये जे क्रिया थई ते क्रिया तारी छे. तारो आत्मा ते क्रियानो कर्ता छे, ते क्रियानो कर्ता वाणी नथी. वर्तमान प्रवचन सांभळतां जे ज्ञान थाय छे ते शब्दो सांभळवाथी थतुं नथी. भगवान! आमां कोई विवाद करो तो करो, पण वस्तुनी. मर्यादा ज आवी छे के वस्तुनी पलटवानी क्रिया (वस्तुथी) पोताथी थाय छे, परथी थती नथी. अहो! वस्तुस्वरूप खूब गंभीर छे! आ चश्मां आम ऊंचा थईने आंखे लागेलां छे.


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ते जीव करी शकतो नथी; आंगळीनुं पण ए कार्य नथी. तथा चश्मा छे तो जीव देखे-वांचे छे एम पण नथी. ज्ञाननी पर्याय ज्ञानथी (आत्माथी) थाय छे, परथी नहि. कह्युं ने के - शब्दोथी ज्ञान थाय छे एम मोहथी जनो न नाचो. शब्द काने पडया तो ज्ञान पर्याय थई एम छे ज नहि.

प्रश्नः– स्वामी समंतभद्राचार्ये बाह्यांभ्यंतर बे कारण कह्यां छे?

उत्तरः– हा, स्वामी समंतचंद्राचार्ये बाह्यांभ्यंतर बे कारण कहीने त्यां प्रमाणज्ञान दर्शाव्युं छे. अभ्यंतर कारण ते निश्चय अने बाह्य निमित्तकारण ते व्यवहार- एम बेनुं प्रमाणज्ञान कराव्युं छे. प्रमाणज्ञानमां पण पर्याय पोताथी थाय छे एवा निश्चयने अंदर राखीने वात छे. कार्य अभ्यंतरकारणथी थाय छे ए वात राखीने त्यां बाह्य निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे. निमित्तनुं ज्ञान कराववा बाह्य कारण कह्युं छे, पण निमित्त कार्यनुं वास्तविक कारण छे एम नथी. धवलना छठ्ठा भागमां स्पष्ट कह्युं छे के-अभ्यंतर कारणथी ज सर्व कार्य थाय छे. अंतरंग कारणथी कार्य थाय छे, बाह्य कारणथी नहि एवो त्यां पाठ छे.

भाई! वाणीथी के अन्य (शुभरागादि) निमित्तथी ज्ञान थाय छे एम नथी. ज्ञाननी पर्यायनो स्वपरप्रकाशक स्वभाव छे. तेथी स्वनो अनुभव थाय छे तेमां परनुं पण ज्ञान थाय छे, आवो ज्ञाननी पर्यायनो धर्म छे. अहाहा...! ज्ञाननी पर्यायमां स्वपरने प्रकाशवानुं सहज सामर्थ्य होवाथी पूर्णानंदनो नाथ चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा पर्यायमां जाणवामां आवे छे. परंतु अज्ञानीनी द्रष्टि अंतर्मुख नथी. अनादिथी रागने वश पडेला अज्ञानीनुं लक्ष निज आत्मद्रव्य उपर जतुं नथी. एटले जे राग अने पर्यायने ते बहारमां जाणे छे ते राग अने पर्याय ज हुं छुं एम ते माने छे. आ वात समयसारनी गाथा १७-१८मां आवी गई छे. त्यां कह्युं छे के-

“आवो अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा आबाळगोपाळ सौने सदाकाळ पोते ज अनुभवमां आवतो होवा छतां पण अनादि बंधना वशे पर (द्रव्यो) साथे एकपणाना निश्चयथी मूढ जे अज्ञानी तेने ‘आ अनुभूति छे ते ज हुं छुं’ एवुं आत्मज्ञान उदय थतुं नथी.” अहीं अनुभूतिस्वरूप आत्मा कह्यो ते त्रिकाळी ध्रुवनी वात छे. आवो आत्मा जेनुं स्वपरने प्रकाशवानुं सामर्थ्य छे एवा ज्ञाननी पर्यायमां आबाळगोपाळ सौने जाणवामां आवे छे. अज्ञानीनेे पण वर्तमान ज्ञाननी पर्यायमां पोतानुं द्रव्य अनुभववामां आवे छे. पण अज्ञानीनी त्यां द्रव्य उपर द्रष्टि नथी तेथी ते राग अने पर निमित्त के जेने ते जाणे छे ते हुं छुं एम भ्रमथी माने छे. आम अज्ञानीने द्रव्य द्रष्टि विना आत्मज्ञान उदय थतुं नथी.

अहो! आचार्योए शुं गजब काम कर्युं छे! केवळज्ञानने प्रसिद्ध करी दीधुं छे.


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कहे छे- भगवान! तारी एक समयनी ज्ञानपर्यायमां स्वपरप्रकाशक सामर्थ्य छे के नहि? अरे भाई! अज्ञानमां पण एक समयनी पर्यायमां स्वपरप्रकाशक स्वभाव छे. परप्रकाशक स्वभाव एकलो रहे एम कदी बनतुं नथी. दरेक समये दरेक पर्यायमां स्वपरप्रकाशक स्वभाव होवाथी ज्ञानमां अनुभूतिस्वरूप भगवान जाणवामां आवे छे. पण अज्ञानीनी त्यां द्रष्टि नथी. तेथी राग अने पर्यायने हुं जाणुं छुं एवो तेने भ्रम थाय छे. (खरेखर तो ते ज्ञानने ज जाणे छे).

जुओ, आत्मा राग-द्वेष आदि भाव करे छे ते ज समये कमनो बंध थाय छे. त्यां रागनी क्रिया जे थाय तेनी साथे आत्मा अभिन्न छे. माटे आत्मा रागनी क्रियानो तो कर्ता छे पण ते वखते कर्मबंधननी जे अवस्था थाय ते क्रियानो आत्मा कर्ता नथी. आत्मा जेम पोतानी विकारी पर्यायनो कर्ता छे तेम जो कर्मबंधनी पर्यायनो पण कर्ता थाय तो ते द्विक्रियावादी थई जाय. अर्थात् ते मिथ्याद्रष्टि थई जाय.

अहीं कह्युं छे के क्रिया अने क्रियावाननी अभिन्नता सदाय तपे छे, सदाय प्रगट छे. माटे आत्मानी जे पर्याय थाय छे तेमां आत्मा अभिन्न होवाथी तेनो ते कर्ता छे. खरेखर तो एम छे के आत्मामां जे पर्याय थाय छे ते संयोग छे, अने तेनो व्यय थाय ते वियोग छे. पोताना द्रव्यनी जे पर्याय थाय छे ते संयोग छे. त्रिकाळी स्वभावनी अपेक्षाए पर्यायने संयोग कहेवाय छे. वर्तमान पर्याय जे उत्पन्न थई ते संयोग अने व्यय पामी ते वियोग छे. उत्पाद ते संयोग अने व्यय ते वियोग छे. श्री पंचास्तिकायनी १८मी गाथामां आ वात लीधी छे. ज्यां पोतानी पर्यायना उत्पाद-व्ययने संयोग-वियोग कह्या त्यां पर चीजनी तो वात ज शुं? ए तो पर ज छे. अहीं कहे छे के -पोताना आत्मामां जे संयोगी पर्याय उत्पन्न थई तेनो अभिन्नपणे आत्मा कर्ता छे, पण ते समये संयोगी जे पुद्गलकर्म बंधायुं ते कर्मबंधनो कर्ता आत्मा नथी.

जीव जेवो मिथ्यात्व अने रागद्वेषना परिणाम करे छे ते प्रमाणे दर्शनमोह अने चारित्रमोहरूप जड कर्मनो बंध थाय छे. परंतु ते कर्मबंधनी क्रियानो आत्मा कर्ता नथी. क्रिया अने कर्तानुं अभिन्नपणुं सदाय तपतुं होवाथी दरेक आत्मानी अने परनी पर्याय ते ते समये पोतपोताथी उत्पन्न थाय छे, निमित्तथी नहि. जीवे राग कर्यो ते कर्मबंधनमां निमित्त छे, पण निमित्ते ते (कर्मबंधननी) क्रिया करी छे एम नथी.

समयसार गाथा १०पमां तो एम कह्युं छे के -आत्मा जे द्रव्य छे ते नवा कर्मबंधनमां निमित्त नथी. द्रव्यस्वभावनी जेने द्रष्टि थई छे तेने द्रव्य नवा कर्मबंधनमां निमित्त नथी, अर्थात् तेने नवां कर्म बंधाता नथी. परंतु द्रव्यद्रष्टिनो जेने अभाव छे अने जे पुण्य-पापना भावोनो कर्ता थाय छे ते अज्ञानीने राग-द्वेषना भाव कर्मबंधनमां निमित्त थाय छे. पण निमित्तथी कर्मबंधननी परिणति थाय छे एम कदीय नथी.


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कर्ता अने क्रियानी अभिन्नता सदाय प्रगट होवाथी जीव व्याप्यव्यापकभावथी पोताना विकारी परिणामनो कर्ता छे, व्यापक नाम कर्ता द्रव्य अने व्याप्य नाम कर्म-विकारी पर्याय. जीव व्याप्यव्यापकभावथी विकारी परिणामनो कर्ता थाय छे. अने भाव्यभावकभावथी ते विकारी भावनो अनुभव करे छे. भाव्य एटले भोगववा लायक भाव अने आत्मा भावक नाम ते भावनो भोक्ता छे. आ अज्ञानीनी वात छे. तेम जो जीव व्याप्यव्यापकभावथी पुद्गलकर्मने करे तो ते बे क्रियानो कर्ता थई जाय. पोतानी पर्यायनुं कार्य आत्मा जेम व्यापक थईने करे तेम कर्मनी पर्यायनुं कार्य पण व्यापक थईने जीव करे तो ते बे क्रियानो कर्ता थई जाय छे. तो ते मिथ्याद्रष्टि छे केमके बे क्रिया करी शकतो नथी पण एवुं ते मिथ्या माने छे.

जीवने दयानो मंद भाव थाय तो तेना प्रमाणमां ते समये शातावेदनीय कर्म बंधाय. जो तीव्र दयानो भाव थाय तो तेना प्रमाणमां खूब शातावेदनीय कर्म बंधाय. त्यां जे दयाना परिणाम थया तेनो कर्ता आत्मा छे, पण शातावेदनीय कर्म जे बंधायुं तेनो आत्मा कर्ता नथी. जेटला प्रमाणमां जीव विकार करे तेटला प्रमाणमां कर्मनो बंध थाय, छतां कर्मबंधनी पर्यायनो कर्ता आत्मा नथी. तो पछी शरीर, मन, वाणी, खान-पान, धंधो-वेपार आदि परद्रव्यनी पर्यायनो कर्ता आत्मा थाय एम त्रणकाळमां नथी. हाथ पग हले, होठ हले, भाषा बोलाय, ईत्यादि जडनी क्रियानो कदीय आत्मा कर्ता नथी. आत्मा पोतानी रागनी पर्यायने करे अने जडनी पर्यायने पण करे एम कदापि होई शके नहि. बहु सूक्ष्म वात छे, भाई!

पांच वात मुख्यपणे समजवा जेवी छे- उपादान, निमित्त, निश्चय, व्यवहार अने क्रमबद्ध- आ पांचनी खूब चर्चा चाले छे. दिगंबर संतोए जगत समक्ष सत्य जाहेर कर्युं छे. कहे छे-आत्मा (अज्ञानी) रागनो कर्ता अने हरख-शोकनो भोक्ता छे पण जडकर्मनो कर्ता- भोक्ता आत्मा कदीय नथी. तत्त्वार्थसूत्रमां ‘विपाको अनुभवः’ एम जे कह्युं छे ए निमित्तनुं व्यवहारनयथी कथन छे. एवुं ज जो श्रद्धान करे तो ते मिथ्यात्व छे. जीव व्याप्यव्यापकभावथी पुद्गलकर्मने करे वा भाव्यभावकभावथी पुद्गलकर्मने भोगवे तो ते जीवने पोतानी अने परनी भेगी मळेली बे क्रियाथी अभिन्नपणानो प्रसंग आवतां स्वपरनो विभाग अस्त थई जाय छे. बे क्रियानो कर्ता थाय तो पोतानी पर्याय अने परनी पर्याय (भिन्नता) अस्त थई जाय छे. तेथी तेने मिथ्यादर्शन ज थाय छे.

अरे भाई! आ वात समजवी पडशे. रोटली, दाळ, भात, चटणी आदि खावानी ईच्छा थई त्यां ईच्छानो कर्ता आत्मा छे पण रोटली, दाळ, भात, चटणी खावानी जे क्रिया थई तेनो कर्ता आत्मा नथी. ए जडनी क्रिया छे ए ते में करी एम जे माने छे ते द्विक्रियावादी मिथ्याद्रष्टि छे.


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प्रश्नः– ज्ञानावरणीयकर्मनो उदय ज्ञानने रोके छे एम शास्त्रमां आवे छे ने?

उत्तरः– हा, आवे छे; पण एनो अर्थ शुं? ज्ञानावरणीय कर्म जड पुद्गलनी पर्याय छे. ते ज्ञाननी हीणी अवस्थामां निमित्त छे. परंतु ज्ञाननी हीणी अवस्था जड कर्मने लईने थई छे एम नथी. शास्त्रमां तो निमित्तनुं व्यवहारनयथी कथन होय छे. निमित्तथी कार्य थाय एवो चिरकाळनो जीवोने अभ्यास छे एटले आ वात बेसवी कठण पडे छे. पण भाई! शास्त्रमां जे अपेक्षाथी कथन होय छे ते यथार्थ समजवुं जोईए. ज्ञाननी हीनाधिक अवस्था पोतानी पर्यायनी योग्यताथी थाय छे; तेमां ज्ञानावरणीय कर्मनुं कांई कर्तव्य नथी, मात्र निमित्तपणे होय छे ए ज. एवी रीते वीर्यांतरायनो उदय छे माटे आत्मामां वीर्यनी हीणी दशा थइ छे एम नथी. वीर्यांतरायनो उदय एमां कांई करतो नथी.

आ वात चालती नथी एटले लोकोने नवी लागे छे. पण भाई! आ तो भगवानना श्रीमुखेथी नीकळेली सत्य वात छे. कर्मनो उदय जडनी पर्याय छे. ते आत्मानी (हीणी) अवस्थाने केम करे? जीवनी पर्याय कर्मने अडती नथी अने कर्म जीवनी पर्यायने अडतुं नथी. आ वस्तुस्थिति छे.

ज्ञानीने जे विकल्प थाय तेनो ते जाणनार छे. ज्ञानी जाणवानी क्रिया करे अने रागनी क्रिया पण करे-एम नथी. तेवी रीते अज्ञानी रागनी क्रिया करे अने परनी पण क्रिया करे एम नथी. आ घणी गंभीर अने सूक्ष्म वात छे. आ जे समजे नहि तेने मूळमां ज भूल छे. कह्युं छे ने के-‘योग्यता हि शरणम्’ प्रत्येक द्रव्यनी प्रत्येक पर्याय तेनी योग्यताथी थाय छे; परथी नहि. परंतु परथी थाय एम माने तो स्व-परनी क्रियाने अभिन्न माननार तेना मतमां स्व-परनो विभाग नष्ट थई जाय छे, अर्थात् तेनी मान्यतामां स्व-परनुं एकपणुं थई जाय छे. पोतानी पर्यायने करे अने परनी पर्यायने पणकरे एवुं माननार मिथ्याद्रष्टि छे अने ते सर्वज्ञना मतनी बहार छे. कोईने लागे के आ तो एकांत छे. पण भाई! आ सम्यक् एकांत छे. जीव पोतानी पर्यायनो कर्ता छे अने परनी पर्यायनो कर्ता नथी एम सम्यक् एकांत थाय त्यारे साथे निमित्तनुं ज्ञान थाय तेने साचुं अनेकांत कहे छे. निमित्त छे, बस. परंतु निमित्तथी थाय छे एम नथी.

गोम्मटसारमां आवे छे के- ज्ञानावरणीयथी ज्ञान रोकाय, वीर्यांतरायना उदयथी वीर्य रोकाय, दर्शनमोहना उदयथी मिथ्यात्व थाय, चारित्रमोहना उदयथी रागद्वेष थाय, आयुना उदये अमुक काळ देहमां रहेवुं पडे ईत्यादि. भाई! आ तो बधां व्यवहारनयनां कथन छे. आत्मा पोतानी योग्यताथी विकारपणे परिणमे छे, परना कारणे ते ते पर्यायो थाय छे एम नथी.


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प्रश्नः– शाताना उदयथी लक्ष्मी मळे छे, तो निमित्तथी कार्य थयुं के नहि?

उत्तरः– भाई! ए तो निमित्तनुं कथन छे. पैसा तो एना कारणे आवे छे, एमां शातावेदनीय कर्म निमित्त छे. लक्ष्मी आवे, शरीर निरोगी रहे ईत्यादि ते ते पर्यायनुं पोतानुं कार्य छे, निमित्तथी ते कार्य थयुं छे एम नथी. पूजननी जयमालामां आवे छे ने-

“कर्म बिचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई
अग्नि सहे घनघात, लोहकी संगति पाई.”

कर्म बिचारां जड छे; कर्मने लईने जीवने विकार थतो नथी. पोतानी भूलने लईने जीवमां विकार स्वतंत्र पोताथी थाय छे.

तो- कर्मे राजा, कर्मे रंक;

कर्मे वाळ्‌यो आडो अंक. -एम बोलेे छे एनो अर्थ शुं?

भाई! ए बधां निमित्तनी मुख्यताथी कथन छे. राजा के रंकनी पोतानी पर्याय पोताथी थाय छे; कर्मथी नहि. जुओ, रामचंद्रजी वनवास गया. त्यां सीताजीनुं हरण थयुं. त्यारे सीताजीने शोधवा नीकळ्‌या. पत्थर अने पहाडने रामचंद्रजी पूछे छेः- सीताजीने कयांय जोयां? आ पोतानी पर्यायनो दोष छे, कर्मने लईने नहि. अने पछी विकल्प छूटी गयो ते कर्मना उदयना अभावथी नहि पण पोते निर्विकल्पस्वरूपमां स्थिर थतां विकल्प छूटी गयो छे.

रावण सीताजीनुं हरण करीने विमानमां लई जाय छे त्यारे रस्तामां सीताजी पोतानुं झांझर फेंकी दे छे. ते झांझर लावीने लक्ष्मणजीने बतावीने पूछयुं-शुं आ झांझर सीताजीनुं छे? त्यारे लक्ष्मणे कह्युं-हुं सीतामाताने पगे लागवा जतो त्यारे नीची नजरे पगमां आ झांझर जोयेलुं. ऊंची नजर करीने सीताजी सामे कदी में जोयुं नथी. अहा! जुओ, आ सज्जनता अने नैतिकता! लक्ष्मण त्रण खंडना धणी वासुदेव हता. तेओ सज्जनता अने नैतिकतानी मूर्ति हता. लक्ष्मणजी जंगलमां रामचंद्रजीनी अनेक प्रकारे सेवा करता. रामचंद्रजी बळभद्र हता. लक्ष्मणजी तेमनी सेवा करता एम कहेवुं ए तो व्यवहारनुं कथन छे. सेवानो विकल्प आव्यो माटे बहारनी क्रिया थई एम नथी. तथापि कोई पोतानी क्रिया अने परनी क्रिया-एम बे क्रिया आत्मा करे एवुं माने तो ते द्विक्रियावादी मिथ्याद्रष्टि छे अने तेथी ते सर्वज्ञना मतनी बहार छे. कर्मे ज्ञान रोकी दीधुं अने कर्मनो कर्ता अने भोक्ता जीव छे एवुं माननार मिथ्याद्रष्टि छे अने जिनवरनी आज्ञाथी बहार छे.

अहीं तो आत्मानी वात करी छे. पंचास्तिकायमां कह्युं छे के-एक रजकण पोतानी क्रिया करे अने बीजा रजकणनी पण क्रिया करे एम त्रणकाळमां बनतुं नथी. आ तो


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मूळ सिद्धांत छे अने ते छ ए द्रव्योमां लागु पडे छे. एक द्रव्यनी पर्याय अन्यद्रव्यनी पर्यायने करे नहि ए सिद्धांत द्रव्योनी प्रत्येक पर्यायमां लागु पडे छे. एम न माने ते द्विक्रियावादी मिथ्याद्रष्टि छे. श्री कुंदकुंदाचार्य कहे छे के ते ‘सो जिणावमदम्’ जिनआज्ञाथी बहार छे.

परनी दयानो भाव जीव करे अने परनी दया पण पाळी शके एम माननार जिनवरना मतथी बहार छे. आ वात न समजाय एटले एनो विरोध करे पण खरेखर तो ते पोतानो विरोध करे छे. वळी परनी दयानो जे शुभराग छे ते पण हिंसा छे. पुरुषार्थसिद्धयुपायमां (छंद ४४मां) कह्युं छे के जे भावे तीर्थंकरनामकर्म बंधाय ते भाव हिंसा छे, अपराध छे; केमके बंधन अपराधथी थाय छे. निरपराधथी बंधन न थाय. बंधन थाय ते भाव अपराध छे. अहीं तो विशेष कहे छे के परनी दया हुं पाळी शकुं ए मान्यता मिथ्यादर्शन छे. महाअपराध छे. गजब वात छे!

सोलहकारणभावनाथी तीर्थंकरगोत्र बंधाय छे. ते सोळे प्रकारना भाव राग छे, अपराध छे, गुन्हो छे. अज्ञानीने तीर्थंकर प्रकृतिना बंधना कारणरूप राग होतो ज नथी. ज्ञानीने ते राग आवे छे तेने ते जाणे छे. जेने स्वभाव तरफ झुकाव थयो छे. ते ज्ञानीने अल्प राग बाकी छे तो विकल्प आवतां तीर्थंकरगोत्र बंधाय छे. परंतु ते विकल्प तोडीने अल्पकाळमां मोक्ष जाय छे. त्यां तीर्थंकरप्रकृति बांधी, वा तेवो राग हतो ते कारणे मोक्ष थाय छे एम नथी. भाई! अज्ञानीना मतमां वाते वाते फेर छे. कह्युं छे ने के-

“आनंद कहे परमानंदा, माणसे माणसे फेर
एक लाखे तो न मिले एक त्रांबीआका तेर.”

भगवान सर्वज्ञदेव अने संतो कहे छे के-भाई! अमारी श्रद्धामां अने तारी (अज्ञानीनी) श्रद्धामां वाते वाते फेर छे. अहीं भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव फरमावे छे के -कोई एम माने के जीव पोताना रागनी क्रिया पण करे अने परनी क्रिया पण करे तो एम माननार सर्वज्ञनी आज्ञाथी बहार छे. तेने जैनमतनी श्रद्धा नथी. परनी दया पाळी शकुं, परने जीवाडी शकुं, परने उपदेश दई ज्ञान पमाडी शकुं-एवुं माननार जिनआज्ञाथी बहार छे. बंध अधिकारमां त्यां सुधी वात करी छे के-हुं बीजाने मोक्ष पमाडी दउं एम तुं माने छे तो शुं तेनी वीतराग परिणति विना तुं एने मोक्ष पमाडी दईश? अने तेने वीतराग परिणति होय तो तेनो मोक्ष थशे एमां शुं तें एनी वीतराग परिणति करी छे? एम नथी. भाई! हुं बीजाने बंध करावुं वा मोक्ष पमाडी दउं एम तुं माने ते बधां मिथ्याद्रष्टिनां लक्षण छे.

कोई एम कहे के जो उपदेशथी बीजाने ज्ञान पमाडी शकातुं नथी तो शा माटे


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तेने उपदेश आपी समजावो छो? अरे प्रभु! सांभळ, धीरजथी सांभळ. वाणी वाणीना काळे निकळे छे अने (उपदेशना) विकल्पना काळे विकल्प थाय छे. बन्ने समकाळे छे. पण स्वतंत्र छे. आत्मा तो तेनो जाणनार छे. उपदेशनी वाणीनो आत्मा कर्ता नथी अने वाणी ज्ञाननी पर्यायनो कर्ता नथी. भाषानी पर्याय तो परनी जडनी छे. तेने आत्मा केम करे? अने ते आत्माना ज्ञानने केम करे? द्रव्य पोतानुं कार्य करे अने परनुं पण कार्य करे एम माने ते मिथ्याद्रष्टि छे, जिनआज्ञाथी बहार छे.

प्रवचनसारना छेल्ला २२मा श्लोकमां एम कह्युं छे के - “आ रीते (आ परमागममां) अमंदपणे (जोरथी, बळवानपणे, मोटे अवाजे) जे थोडु घणुं तत्त्व कहेवामां आव्युं, ते बधुं चैतन्यने विषे खरेखर अग्निमां होमायेली वस्तु समान (स्वाहा) थई गयुं” भाई! समजनार पोताना कारणे समजे छे; वाणी तो तेमां निमित्तमात्र छे. वाणीना कारणे ज्ञान थाय छे एम नथी. लोकोने अटपटुं लागे, पण शुं थाय? वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे. द्रव्य पोतानी पर्यायने करे अने अन्यद्रव्यनी पर्यायने पण करे एम त्रणकाळमां नथी.

कोई श्रावक हो के साधु हो, पण जो ते एम माने के हुं दयानो भाव पण करुं छुुं अने पर जीवोनी दया पण पाळुं छुं तो ते बे (द्रव्योनी) क्रियानो कर्ता थयो अने तेथी ते मिथ्याद्रष्टि छे. “जीवो अने जीववा दो” ए वीतरागनी वाणी नथी. ए तो अज्ञानीनुं वचन छे. भगवान तो कहे छे के तारा दयाना भावथी बीजो जीव जीवे, सुखी-दुःखी थाय एम त्रणकाळमां नथी. ते पोताना आयुष्यनी स्थितिथी जीवे छे; तुं एने जीवाडी शकतो नथी. बंध अधिकारमां आवे छे के-हुं परने मारुं अने जीवाडुं एम माननार मिथ्याद्रष्टि छे, जिनआज्ञाथी बहार छे. परनी हिंसा जीव करी शकतो नथी. भाव आवे छे तेनो ते कर्ता छे, पण परनी साथे एने संबंध नथी. पुरुषार्थसिद्धयुपायमां कह्युं छे के-रागनो भाव थाय ते हिंसा छे. शुभरागनो भाव पण आत्मानी हिंसा करनारो छे. पंचमहाव्रतना परिणामनो राग धर्मात्माने आवे, पण ते आस्रव छे, हिंसा छे. तत्त्वार्थसूत्रमां शुभरागने आस्रव कह्यो छे. आम रागादि परिणाम ते हिंसा छे, परनी दया के हिंसा तो आत्मा करी शकतो नथी.

* गाथा ८पः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘बे द्रव्योनी क्रिया भिन्न ज छे. जडनी क्रिया चेतन करतुं नथी, चेतननी क्रिया जड करतुं नथी. जे पुरुष एक द्रव्यने बे क्रिया करतुं माने ते मिथ्याद्रष्टि छे, कारण के बे द्रव्यनी क्रिया एक द्रव्य करे छे एम मानवुं ते जिननो मत नथी.’

जगतमां जीव अनंत छे अने जड पुद्गलो अनंतानंत छे. एमां प्रत्येक पदार्थनी परिणतिनी क्रिया प्रत्येक समये भिन्न भिन्न छे. कोई द्रव्यनी क्रिया कोई बीजो करी


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शके ए वात त्रणकाळमां संभवित नथी. बीजानुं जीवन ते परद्रव्यनी क्रिया छे. ते पोताना आयुनी स्थितिथी जीवे छे, आयुना क्षयथी मरे छे. माटे बीजो बीजाने जीवाडे, वा बीजानी दया पाळे एम छे ज नहि. तेवी रीते आत्मा भाषा-सत्य के जूठ बोली शके एम छे ज नहि. आत्मा पोतानी पर्यायने करे, पण ते परनी पर्यायने केम करी शके? सूक्ष्म वात, भाइ! आत्मा जाणे, पण भाषाने करे एम छे ज नहि. भाषामां स्वपरने कहेवानी स्वतः ताकात छे अने आत्मामां स्वपरने जाणवानी स्वतः ताकात छे.

भाषामां स्वपरनुं कथन करवानी शक्ति स्वतः पोताथी छे, आत्माना कारणे नहि. अरे भाई! आ उपदेश सांभळवामां वचननी क्रिया भिन्न छे अने अंदर आत्मानी ज्ञाननी क्रिया भिन्न छे. बोधपाहुडनी ६१मी गाथामां आवे छे के-“शब्दना विकारथी उत्पन्न अक्षररूप परिणमेल भाषासूत्रोमां जिनदेवे कह्युं, ते श्रवणमां अक्षररूप आव्युं अने जे रीते जिनदेवे कह्युं ते रीते परंपराथी भद्रबाहु नामना पांचमा श्रुतकेवलीए जाण्युं...”

अरे भाई! भाषानी पर्यायने भगवान पण करी शकता नथी. दिव्यध्वनि छूटे छे ए तो शब्दनो विकार छे. तेना काळे ते वाणी छूटे छे, केवळीने लईने वाणी छूटती नथी; केमके बे द्रव्योनी क्रिया भिन्न भिन्न छे. भाषानी क्रिया-शब्दनो विकार भिन्न छे अने ज्ञाननी क्रिया-आत्मानी परिणति भिन्न छे. माटे ज्ञाननी परिणतिथी शब्दना विकाररूप भाषानी परिणति थई ए वात त्रणकाळमां नथी. भाषा कोण बोले? शुं आत्मा बोले? अरे! बोले ते बीजो, आत्मा नहि. कुंदकुंदाचार्यदेवे कह्युं ने के -भाषा शब्दना विकारथी बनी छे. अमाराथी नहि, केवळीथी नहि, संतोथी नहि. तेने निमित्तनी अपेक्षा नथी. श्री अमृतचंद्रदेवे प्रवचनसारनी टीका पूरी करतां छेल्ले कह्युं ने के-आ शास्त्र में बनाव्युं छे एवा मोहथी जनो न नाचो; अने एनाथी (शब्दोथी) तमने ज्ञान थाय छे एम मोहथी न नाचो. आ तो अबाधित सिद्धांत छे के एक द्रव्य बे (द्रव्योनी) क्रिया करी शके ज नहि; अन्यथा बधुं एक थई जाय-जे सर्वज्ञनी आज्ञाथी बहार छे. जे बहु-क्रियावादी छे ते मिथ्याद्रष्टि छे.

अहीं कहे छे के जडनी क्रियाने चेतन करतुं नथी. भाषानी क्रियाने आत्मा करतो नथी. तेम जडकर्मनो उदय पोतानी पर्यायने करे जीवना रागने पण करे एम बनतुं नथी. अरे! बे तत्त्व भिन्न भिन्न छे, तेनी पर्याय पण भिन्न भिन्न छे. दरेक द्रव्य पोतानी क्रिया करवा समर्थ छे अने पर माटे ते पांगळुं छे.

अजीव अधिकारमां कळश ४३मां कह्युं छे के -आ अविवेकना नाटकमां पुद्गल नाचे छे तो नाचो, हुं तो आत्मा ज्ञायकस्वरूप छुं. अहाहा...! भगवान आत्मा चैतन्यसूर्य जाणगस्वभावना नूरनुं पूर छे. ते भाषाने केम करे? शरीरने ते केम चलावे?


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भाई! पूजा वखते जे ‘स्वाहा, स्वाहा’ इत्यादि बोलाय छे ते आत्मानी क्रिया नथी. हाथ ऊंचोनीचो थाय ते आत्मानुं कार्य नथी.

दरेक तत्त्व भिन्न भिन्न छे वेदांतनी जेम बधुं एक नथी. प्रवचनसारमां १७२मी गाथाना अलिंगग्रहणना १पमा बोलमां कह्युं छे के- “लिंग वडे एटले के अमेहनाकार वडे जेनुं ग्रहण एटले के लोकमां व्यापवापणुं नथी ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्मा पाखंडीओने प्रसिद्ध साधनरूप आकारवाळो-लोकव्याप्तिवाळो नथी एवा अर्थनी प्राप्ति थाय छे.” बधा मळीने एक आत्मा छे एवो पाखंडीओनो प्रसिद्ध मत छे. ए मान्यता अज्ञानीनी छे. कोई कहे के आ निश्चयनी वात वेदांत जेवी लागे छे तो तेना अहीं निषेध करे छे. आत्मा सर्वव्यापक छे एम माननारनी वात साची नथी. बधा आत्माओ जाति अपेक्षाए समान छे. पण बधा मळीने एक आत्मा नथी.

अहीं कहे छे के जडनी क्रियाने चेतन करतुं नथी अने चेतननी रागद्वेषनी क्रिया के ज्ञाननी क्रियाने कर्मनो उदय करतो नथी. जे पुरुष एक द्रव्यने बे क्रियानो कर्ता माने छे ते जैन नथी, मिथ्याद्रष्टि छे. घातीकर्मोनो अरिहंत भगवाने नाश कर्यो अने ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञाननो घात करे छे ईत्यादि कथन निमित्तनां व्यवहारनयनां छे. वस्तुस्वरूप तेम नथी. परद्रव्य शुं ज्ञानना घातनी क्रिया करी शके? आत्मा शुं कर्मनो नाश करी शके? ना; बीलकुल नहि.

प्रवचनसार गाथा १६नी टीकामां घातीकर्मना बे प्रकार कह्या छे-द्रव्यघाती अने भावघाती. पोतानी पर्याय ते भावघाती छे अने द्रव्यघाती तो निमित्त छे. भावघाती (कर्म) पर्यायनो घात करे छे त्यारे कर्मबंधन थाय छे. ते जडकर्मनी अवस्था आत्मा करतो नथी. केवळज्ञान थाय त्यारे जीव घातीकर्मोनो नाश करे छे ए वात यथार्थ नथी. जीव केवळज्ञाननी क्रिया करे अने घातीकर्मोना नाशनी पण क्रिया करे तो बे क्रियानो कर्ता थई जाय. पण एम छे नहि. भाई आ अति गंभीर अने सूक्ष्म वात छे.

बापु! हुं शुं करी शकुं अने शुं ना करी शकुं एनी पण जेने खबर नथी तेने आत्म- अनुभव केम थाय? अहीं तो अति स्पष्ट कहे छे के बे भिन्न द्रव्योनी क्रियानुं कर्ता एक द्रव्यने माने ते भगवान जिनेन्द्रदेवना मतथी बहार छे; तेने सम्यग्दर्शन नथी. दुकानना थडे बेसीने मनमां अभिमान करे के में वेपार-धंधानो राग पण कर्यो अने दुकानना वेपारनी बाह्य प्रवृत्ति पण करी तो ते मिथ्याद्रष्टि छे.

गौतम गणधर पधार्या तो भगवाननी दिव्यध्वनि छूटी एम छे ज नहि. गौतम भगवानने ईन्द्रे पहेलां उपस्थित केम न कर्या? त्यां कह्युं के काळलब्धि विना ईन्द्र तेमने लाववा समर्थ नथी. स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा २२०० वर्ष पुराणो ग्रंथ छे. समयसारथी पण पहेलांनो जूनो ग्रंथ छे. छये द्रव्यो जे अनंत छे ते प्रत्येकनी समय समयनी जे


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पर्याय थवानी होय ते ते क्षणे थाय ते एनी काळलब्धि छे एम तेमां कह्युं छे. प्रवचनसार, ज्ञेय अधिकारनी गाथा १०२मां प्रत्येक द्रव्यनी समय समयनी पर्यायनी जन्मक्षणनी वात कही छे. जे समये जे पर्याय थवानी होय ते थाय ते एनी जन्मक्षण छे. त्यां गाथा ९९मां पण कह्युं छे के दरेक पर्याय पोताना स्वअवसरे थाय छे, आगळपाछळ नहि. मोतीना हारनुं द्रष्टांत आपी त्यां समजाव्युं छे के -ज्यां ज्यां जे जे मोती छे त्यां त्यां पोताना स्थानमां छे, आगळपाछळ नथी. तेम आत्मामां अने जडमां क्रमसर जे जे पर्याय जे समये थवानी होय तेज ते समये थाय छे. मोती आगळपाछळ थतां नथी तेम द्रव्यनी प्रत्येक पर्याय आगळपाछळ थती नथी. आवुं वस्तुस्वरूप छे.

योगथी कंपननी क्रिया थाय अने प्रकृति-प्रदेश बंध थाय एम बे क्रिया एक द्रव्य करे एम बनतुं नथी. योगथी प्रकृति-प्रदेश बंध थाय छे अने कषायथी स्थिति-अनुभाग बंध थाय छे ए बधां निमित्तनां कथन छे. कर्मनुं संक्रमण थाय ते तेनी पोतानी योग्यताथी थाय छे, आत्माथी थतुं नथी. केवळज्ञान थाय त्यारे घातीकर्मोनी कर्मअवस्था बदली अकर्मरूप अवस्था थाय ते पोताथी थाय छे, ते क्रिया आत्मा करतो नथी.

अरे! भगवान! अत्यारे तो आनाथी आ थाय अने आनाथी ते थाय एवी गडबड ऊभी थई छे. पण भाई! ए मार्ग नथी. संतोए तो स्वतंत्रतानो ढंढेरो पीटयो छे. अहा! केवळज्ञाननी पर्याय ते काळे पोताथी उत्पन्न थवानी हती ते पोताना कारणे उत्पन्न थई छे. मोक्षमार्गना कारणे मोक्षनी पर्याय थई छे एम पण नथी. मोक्षमार्गनो व्यय थवानो क्रम हतो अने ते ज समये मोक्षपर्यायनो प्रगट थवानो क्रम हतो. त्यां मोक्षपर्याय स्वतंत्रपणे थई छे. शास्त्रमां एम आवे के पूर्वनी पर्याय पछीनी पर्यायनुं उपादान छे, एनो अर्थ शुं? पूर्वपर्यायनो व्यय थईने वर्तमान पर्याय प्रगट थई छे ते स्वतंत्रपणे थई छे. जैनतत्त्वमीमांसामां बहु सारुं स्पष्टीकरण कर्युं छे. पूर्वनी पर्यायनो व्यय थई पछीनी पर्याय प्रगटी छे ते कार्य छे अने पूर्वनी पर्याय तेनुं कारण छे-ए व्यवहारनयनुं कथन छे. बाकी तो जे द्रव्यनी जे पर्याय जे समये थवानी होय ते पोताना षट्कारकना परिणमनथी थाय छे. ते पर्याय द्रव्य-गुणथी थई नथी, पर निमित्तथी थई नथी अने पूर्वपर्यायना कारणे पण थई नथी. आवो स्वतंत्रतानो मार्ग छे!

जे काळे जे पर्याय थवानी होय ते काळे ते ज थाय एवो निर्णय कोने थाय? के जे पोताना ज्ञायकस्वभावनी सन्मुख थाय तेने आवो यथार्थ निर्णय थाय छे.

एक प्रश्न थयेलो के-भगवाने जोयुं छे ते प्रमाणे भव घटशे, आपणे शुं करी शकीए? अरे भाई! भगवाने जोयुं छे एम थशे एवो निर्णय कोणे कर्यो? जे केवळज्ञाननी एक समयनी पर्यायनी सत्तानो पोताना ज्ञानमां स्वीकार करे तेने स्वसन्मुखता थाय छे अने तेने भव होतो नथी. भगवाने तेना भव जोया नथी. केवळज्ञानीए जोयुं


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छे ते प्रमाणे थशे ए वात तो पछी, जगतमां केवळज्ञाननी सत्तानो तने स्वीकार छे? प्रभु! ए सत्तानो स्वसन्मुख थईने स्वीकार नथी त्यां सुधी केवळीए जोयुं तेम भव घटशे ए वात ज रहेती नथी. भगवान त्रणकाळ त्रणलोकने जाणे छे ए तो व्यवहारनुं कथन छे. खरेखर तो ते पोतानी पर्यायने जाणे छे जेमां त्रणकाळ त्रणलोक जणाय छे.

जे एक समयनी पर्यायमां त्रणकाळ त्रणलोक प्रतिभासे, जेमां अनंता केवळी जणाय ते पर्यायनुं सामर्थ्य केटलुं? आवा अनंत अनंत सामर्थ्ययुक्त केवळज्ञाननो जेणे स्वीकार कर्यो ते पर्याय अल्पज्ञ छे अने सर्वज्ञ छे ते पर छे. केवळज्ञाननो स्वीकार अल्पज्ञ पर्याय के पर सर्वज्ञनी सामुं जोवाथी थतो नथी. तो तेनी सत्तानो स्वीकार केवी रीते थाय? के ज्यारे शुद्ध चैतन्यस्वभावमय निज ज्ञायकस्वभावनी सन्मुख थई तेनी द्रष्टि थाय त्यारे तेनो यथार्थ स्वीकार थाय छे अने ते अनंतो पुरुषार्थ छे. अहाहा...! केवळज्ञाननी पर्याय जेने पोताना ज्ञानमां बेठी तेनी द्रष्टि स्वभावसन्मुख होय छे. प्रवचनसारनी गाथा ८०मां कह्युं छे के-जे अरिहंतने द्रव्य, गुण अने पर्यायथी जाणे छे तेने आत्मानी सन्मुख लक्ष थईने मोहनो क्षय थाय छे.

अहाहा...! जे पर्यायमां त्रिकाळवर्ती अनंता सिद्धो अने केवळीओ प्रत्यक्ष जणाय ए केवळज्ञाननी परम अद्भुत ताकात छे. एनी शुं वात! तेनो स्वीकार करतां द्रष्टि द्रव्य उपर जाय छे अने तेमां स्वभावसन्मुखतानो अनंत पुरुषार्थ आवी जाय छे. त्यां एक समयमां पांचेय समवाय-स्वभाव, नियत, काळ, पुरुषार्थ अने निमित्त-एम पांचेय समवाय होय ज छे. कार्यसिद्धिमां पांचेय समवाय होय छे.

गजसुकुमार भगवान पासे वाणी सांभळवा गयेला. हाथीना ताळवा जेवुं एमनुं कोमळ शरीर हतुं. भगवाननी वाणी सांभळीने बोल्या-‘प्रभु! हुं दीक्षा अंगीकार करवा मागुं छुं.’ दीक्षा धारण करीने द्वारिकाना स्मशानमां ध्यान करवा लाग्या. त्यां जे कन्या साथे सगपण थयेलुं तेनो पिता आवी उपसर्ग करवा लाग्यो. माथा उपर माटीनी पाळ करी अंदर धगधगता अंगारा भर्या. मुनिराज स्वरूपना ध्यानमां एटला लीन थई गया के उपसर्ग टळीने त्यां केवळज्ञान पामी मोक्ष पधार्या. जुओ पुरुषार्थनी गति! भगवाननी वाणीमां पुरुषार्थनी वात आवी छे. पुरुषार्थहीनतानी वात करे ते भगवाननो मार्ग नथी. अहीं पण कहे छे के एक द्रव्य बे द्रव्योनी क्रियाने करे ए मान्यता भगवाननो मार्ग नथी. ए तो सर्वज्ञनी आज्ञाथी बहार छे.

एक परमाणु बीजा परमाणुनुं कार्य न करे, केमके बे द्रव्य वच्चे अत्यंताभाव छे. एक परमाणु बीजा परमाणुने स्पर्शतोय नथी. शास्त्रमां आवे छे के चार गुण चिकाशवाळो परमाणु छ गुण चिकाशवाळा साथे भळे तो ते बदलीने छ गुण चिकाश


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थई जाय छे. पण ए तो निमित्तनुं कथन छे. चार गुण चिकाशवाळो छ गुण चिकाशरूपे परिणमे ते पोताथी स्वतंत्र परिणमे छे. छूटो परमाणु जे सूक्ष्म परिणम्यो छे ते स्थूळ स्कंधमां भळे त्यां स्थूळ थई जाय छे ते पोताना कारणे स्थूळ थाय छे, संयोगने लीधे स्थूळ थाय छे एम छे ज नहि. अहाहा..! बे द्रव्यनी क्रिया एक द्रव्य करे एम मानवुं ए जिनमत नथी. आवी वात छे. ल्यो, ८प गाथा पूरी थई.

[प्रवचन नं. १४४ शेष, १४प, १४६, १४७ चालु * दिनांक २-८-७६ थी प-८-७६]