Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 86.

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गाथा–८६

कुतो द्विक्रियानुभावी मिथ्याद्रष्टिरिति चेत्–

जम्हा दु अत्तभावं पोग्गलभावं च दो वि कुव्वंति।
तेण दु मिच्छादिट्ठी दोकिरियावादिणो हुंति।। ८६।।

यस्मात्त्वात्मभावं पुद्गलभावं च द्वावपि कुर्वन्ति।
तेन तु
मिथ्याद्रष्टयो द्विक्रियावादिनो भवन्ति।। ८६।।

हवे फरी पुछे छे के बे क्रियानो अनुभव करनार पुरुष मिथ्याद्रष्टि कई रीते छे? तेनुं समाधान करे छेः-

जीवभाव, पुद्गलभाव–बन्ने भावने जेथी करे,
तेथी ज मिथ्याद्रष्टि एवा
द्विक्रियावादी ठरे. ८६.

गाथार्थः– [यस्मात् तु] जेथी [आत्मभावं] आत्माना भावने [च] अने [पुद्गलभावं] पुद्गलना भावने- [द्वौ अपि] बन्नेने [कुर्वंति] आत्मा करे छे एम तेओ माने छे [तेन तु] तेथी [द्विक्रियावादिनः] एक द्रव्यने बे क्रिया होवानुं माननारा [मिथ्याद्रष्टयः] मिथ्याद्रष्टि [भवन्ति] छे.

टीकाः– निश्चयथी द्विक्रियावादीओ (अर्थात् एक द्रव्यने बे क्रिया होवानुं माननारा) आत्माना परिणामने अने पुद्गलना परिणामने पोते (आत्मा) करे छे एम माने छे तेथी तेओ मिथ्याद्रष्टि ज छे एवो सिद्धांत छे. एक द्रव्य वडे बे द्रव्यना परिणाम करवामां आवता न प्रतिभासो. जेम कुंभार घडाना संभवने अनुकूळ पोताना (इच्छारूप अने हस्तादिकनी क्रियारूप) व्यापारपरिणामने (-व्यापाररूप परिणामने) -के जे पोताथी अभिन्न छे अने पोताथी अभिन्न परिणतिमात्र क्रियाथी करवामां आवे छे तेने-करतो प्रतिभासे छे, परंतु घडो करवाना अहंकारथी भरेलो होवा छतां पण (ते कुंभार) पोताना व्यापारने अनुरूप एवा माटीना घट-परिणामने (घडारूप परिणामने) -के जे माटीथी अभिन्न छे अने माटीथी अभिन्न परिणतिमात्र क्रियाथी करवामां आवे छे तेने-करतो प्रतिभासतो नथी; तेवी रीते आत्मा पण अज्ञानने लीधे पुद्गलकर्मरूप परिणामने अनुकूळ पोताना परिणामने-के जे पोताथी अभिन्न छे अने पोताथी अभिन्न परिणतिमात्र क्रियाथी करवामां आवे छे तेने- करतो प्रतिभासो, परंतु पुद्गलना परिणामने करवाना अहंकारथी भरेलो होवा छतां पण (ते आत्मा) पोताना परिणामने अनुरूप


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(आर्या)
यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म।
या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया।। ५१।।

(आर्या)

एकः परिणमति सदा परिणामो जायते सदैकस्य।
एकस्य
परिणतिः स्यादनेकमप्येकमेव यतः।। ५२।।

एवा पुद्गलना परिणामने-के जे पुद्गलथी अभिन्न छे अने पुद्गलथी अभिन्न परिणतिमात्र क्रियाथी करवामां आवे छे तेने-करतो न प्रतिभासो. भावार्थः– आत्मा पोताना ज परिणामने करतो प्रतिभासो; पुद्गलना परिणामने करतो तो कदी न प्रतिभासो. आत्मानी अने पुद्गलनी-बन्नेनी क्रिया एक आत्मा ज करे छे एम माननारा मिथ्याद्रष्टि छे. जड-चेतननी एक क्रिया होय तो सर्व द्रव्यो पलटी जवाथी सर्वनो लोप थई जाय-ए मोटो दोष ऊपजे. हवे आ ज अर्थना समर्थननुं कळशरूप काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [यः परिणमति स कर्ता] जे परिणमे छे ते कर्ता छे, [यः परिणामः भवेत् तत् कर्म] (परिणमनारनुं) जे परिणाम छे ते कर्म छे [तु] अने [या परिणतिः सा क्रिया] जे परिणति छे ते क्रिया छे; [त्रयम् अपि] ए त्रणेय, [वस्तुतया भिन्नं न] वस्तुपणे भिन्न नथी. भावार्थः– द्रव्यद्रष्टिए परिणाम अने परिणामीनो अभेद छे अने पर्यायद्रष्टिए भेद छे. भेदद्रष्टिथी तो कर्ता, कर्म अने क्रिया त्रण कहेवामां आवे छे पण अहीं अभेदद्रष्टिथी परमार्थ कह्यो छे के कर्ता, कर्म अने क्रिया-त्रणेय एक द्रव्यनी अभिन्न अवस्थाओ छे, प्रदेशभेदरूप जुदी वस्तुओ नथी. प१. फरी पण कहे छे केः- श्लोकार्थः– [एकः परिणमति सदा] वस्तु एक ज सदा परिणमे छे, [एकस्य सदा परिणामः जायते] एकना ज सदा परिणाम थाय छे (अर्थात् एक अवस्थाथी अन्य अवस्था एकनी ज थाय छे) अने [एकस्य परिणतिः स्यात्] एकनी ज परिणति-क्रिया थाय छे; [यतः] कारण के [अनेकम् अपि एकम् एव] अनेकरूप थवा छतां एक ज वस्तु छे, भेद नथी. भावार्थः– एक वस्तुना अनेक पर्यायो थाय छे; तेमने परिणाम पण कहेवाय छे अने अवस्था पण कहेवाय छे. तेओ संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजनादिकथी जुदा जुदा प्रतिभासे छे तोपण एक वस्तु ज छे, जुदा नथी; एवो ज भेदाभेदस्वरूप वस्तुनो स्वभाव छे. प२.


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(आर्या)
नोभौ परिणमतः खलु परिणामो नोभयोः प्रजायेत।
उभयोर्न परिणतिः स्वाद्यदनेकमनेकमेव सदा।। ५३।।

(आर्या)
नैकस्य हि कर्तारौ द्वौ स्तो द्वे कर्मणी न चैकस्य।
नैकस्य च क्रिये द्वे एकमनेकं
यतो न स्यात्।। ५४।।

(शार्दूलविक्रीडित)
आसंसारत एव धावति परं कुर्वेऽहमित्युच्चकै–
र्दुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहङ्काररूपं
तमः।
तद्भूतार्थपरिग्रहेण विलयं यद्येकवारं व्रजेत्
तत्किं ज्ञानधनस्य बन्धनमहो भूयो भवेदात्मनः।। ५५।।

वळी कहे छे केः-

श्लोकार्थः– [न उभौ परिणमतः खलु] बे द्रव्यो एक थईने परिणमतां नथी, [उभयोः परिणामः न प्रजायेत] बे द्रव्योनुं एक परिणाम थतुं नथी अने [उभयोः परिणतिः न स्यात्] बे द्रव्योनी एक परिणति-क्रिया थती नथी; [यत्] कारण के [अनेकम् सदा अनेकम् एव] अनेक द्रव्यो छे ते सदा अनेक ज छे, पलटीने एक थई जतां नथी.

भावार्थः– बे वस्तुओ छे ते सर्वथा भिन्न ज छे, प्रदेशभेदवाळी ज छे. बन्ने एक थईने परिणमती नथी, एक परिणामने उपजावती नथी अने तेमनी एक क्रिया होती नथी- एवो नियम छे. जो बे द्रव्यो एक थईने परिणमे तो सर्व द्रव्योनो लोप थई जाय. प३.

फरी आ अर्थने द्रढ करे छेः-

श्लोकार्थः– [एकस्य हि द्वौ कर्तारौ न स्तः] एक द्रव्यना बे कर्ता न होय, [च] वळी [एकस्य द्वे कर्मणी न] एक द्रव्यनां बे कर्म न होय [च] अने [एकस्य द्वे क्रिये न] एक द्रव्यनी बे क्रिया न होय; [यतः] कारण के [एकम् अनेकं न स्यात्] एक द्रव्य अनेक द्रव्यरूप थाय नहि.

भावार्थः– आ प्रमाणे उपरना श्लोकोमां निश्चयनयथी अथवा शुद्धद्रव्यार्थिकनयथी वस्तुस्थितिनो नियम कह्यो. प४.

आत्माने अनादिथी परद्रव्यना कर्ताकर्मपणानुं अज्ञान छे ते जो परमार्थनयना ग्रहणथी एक वार पण विलय पामे तो फरीने न आवे, एम हवे कहे छेः-

श्लोकार्थः– [इह] आ जगतमां [मोहिनाम्] मोही (अज्ञानी) जीवोनो


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(अनुष्टुभ्)
आत्मभावान्करोत्यात्मा परभावान्सदा परः।
आत्मैव ह्यात्मनो भावाः परस्य पर एव ते।। ५६।।

[परं अहम् कुर्वे] परद्रव्यने हुं करुं छुं’ [इति महाहङ्काररूपं तमः] एवा परद्रव्यना कर्तृत्वना महा अहंकाररूप अज्ञानांधकार- [ननु उच्चकैः दुर्वारं] के जे अत्यंत दुर्निवार छे ते- [आसंसारतः एव धावति] अनादि संसारथी चाल्यो आवे छे. आचार्य कहे छे केः [अहो] अहो! [भूतार्थपरिग्रहेण] परमार्थनयनुं अर्थात् शुद्धद्रव्यार्थिक अभेद्रनयनुं ग्रहण करवाथी [यदि] जो [तत् एकवारं विलयं व्रजेत्] ते एक वार पण नाश पामे [तत्] तो [ज्ञानधनस्य आत्मनः] ज्ञानघन आत्माने [भूयः] फरी [बन्धनम् किं भवेत्] बंधन केम थाय? (जीव ज्ञानघन छे माटे यथार्थ ज्ञान थया पछी ज्ञान कयां जतुं रहे? न जाय. अने जो ज्ञान न जाय तो फरी अज्ञानथी बंध कयांथी थाय? कदी न थाय.)

भावार्थः– अहीं तात्पर्य एम छे के-अज्ञान तो अनादिनुं ज छे परंतु परमार्थनयना ग्रहणथी, दर्शनमोहनो नाश थईने, एक वार यथार्थ ज्ञान थईने क्षायिक सम्यक्त्व ऊपजे तो फरी मिथ्यात्व न आवे. मिथ्यात्व नहि आवतां मिथ्यात्वनो बंध पण न थाय. अने मिथ्यात्व गया पछी संसारनुं बंधन कई रीते रहे? न ज रहे अर्थात् मोक्ष ज थाय एम जाणवुं. पप.

फरीने विशेषताथी कहे छेः-

श्लोकार्थः– [आत्मा] आत्मा तो [सदा] सदा [आत्मभावान्] पोताना भावोने [करोति] करे छे अने [परः] परद्रव्य [परभावान्] परना भावोने करे छे; [हि] कारण के [आत्मनः भावाः] पोताना भावो छे ते तो [आत्मा एव] पोते ज छे अने [परस्य ते] परना भावो छे ते [परः एव] पर ज छे (ए नियम छे.). प६.

* * *

समयसार गाथा ८६ः मथाळुं

हवे फरी पूछे छे के बे क्रियानो अनुभव करनार पुरुष मिथ्याद्रष्टि कई रीते छे? तेनुं समाधान करे छेः-

* गाथा ८६ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘निश्चयथी द्विक्रियावादीओ आत्माना परिणामने अने पुद्गलना परिणामने पोते करे छे एम माने छे तेथी तेओ मिथ्याद्रष्टि ज छे एवो सिद्धांत छे.’

आत्मा राग पण करे अने बोलवानी भाषानी क्रिया पण करे एम जे माने ते


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मिथ्याद्रष्टि छे. भाई! सत्य समजवुं होय तेना माटे आ न्यायथी -लोजीकथी सिद्ध थती वात छे. विषयवासनाना भाव पण जीव करे अने शरीरनी अवस्था थाय तेने पण जीव करे एम माने छे पण एम छे नहि. श्री मोक्षमार्गप्रकाशकना चोथा अधिकारमां मिथ्यादर्शननुं स्वरूप समजाव्युं छे. त्यां अति स्पष्ट कह्युं छे के-“ जीवने कषायभाव थतां शरीरनी चेष्टा पण ए कषायभाव अनुसार थई जाय छे जेम क्रोधादिक थतां रक्त नेत्रादि थई जाय, हास्यादिक थतां प्रफुल्लित वदनादिक थई जाय, अने पुरुषवेदादि थतां लिंगकाठिण्यादि थई जाय. हवे ए सर्वने एकरूप मानी आ एम माने छे के-‘ए बधां कार्य हुं करुं छुं” आ प्रमाणे निश्चयथी द्विक्रियावादी एम माने छे के आत्माना परिणाम अने पुद्गलना परिणामने स्वयं आत्मा करे छे. पण एम छे नहि. माटे आवुं माननार मिथ्याद्रष्टि ज छे एवो सिद्धांत छे.

हवे कहे छे-‘एक द्रव्य वडे बे द्रव्यना परिणाम करवामां आवता न प्रतिभासो. जेम कुंभार घडाना संभवने अनुकूळ पोताना (ईच्छारूप अने हस्तादिकनी क्रियारूप) व्यापारपरिणामने-के जे पोताथी अभिन्न छे अने पोताथी अभिन्न परिणतिमात्र क्रियाथी करवामां आवे छे तेने-करतो प्रतिभासे छे, परंतु घडो करवाना अहंकारथी भरेलो होवा छतां पण (ते कुंभार) पोताना व्यापारने अनुरूप एवा माटीना घट-परिणामने -के जे माटीथी अभिन्न छे अने माटीथी अभिन्न परिणतिमात्र क्रियाथी करवामां आवे छे तेने-करतो प्रतिभासतो नथी.’

कुंभार घडानी उत्पत्तिने अनुकूळ छे. ते पोतानी पोताथी अभिन्न एवी रागादि क्रिया करे, पण घडानी क्रियाने ते करी शकतो नथी. जुओ, आ भेदज्ञाननी वात छे. घडो माटीए कर्यो छे. माटीमां घडो थवानो काळ हतो, घडानी उत्पत्तिनी जन्मक्षण हती तो घडो माटीमांथी नीपज्यो छे; कुंभारे तेमां कांई कर्युं नथी. स्त्रीओ शीरो बनावे, हलवो, बनावे, सेव बनावे- त्यां लोको एम कहे छे के बाई होशियार होय एने हळवा हाथे करे तो सारुं बने. अहीं कहे छे के ए वात तद्दन जूठी छे. अरे भाई! सेव बनी ते बाईना हाथथी बनी नथी, पाटियाथी बनी नथी अने पाटिया नीचे जे खाटलो होय एनाथी पण बनी नथी. सेव बनवानी जे क्रिया थई एमां कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान अने अधिकरण-ए छ ये कारक पोतामां पोतानां होय छे अने ए वडे सेव बनी छे.

आ चोखा पाके छे ते पाणीथी पाके छे एम नथी. पाणी पोतानी उष्ण पर्यायने करे अने चोखाने पकववानी क्रिया पण करे एम बनतुं नथी. चोखामां पाकवानो काळ हतो तो ते पोताना काळे पाकीने तैयार थया छे. पाणीथी चोखा पाकया छे ज नहि. अरे, पाणी तो चोखाने अडयुंय नथी.


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प्रश्नः– शुं आवी वात सोनगढना बजारमां चाले?

उत्तरः– बजारमां न चाले तेथी शुं? आ तो भगवान आत्माना घरनी वात छे अने देवाधिदेव अरिहंत भगवाननी कहेली छे. ते अनुसार अहीं स्पष्टीकरण थाय छे. अहीं तो समय समयमां आत्मामां अने परमाणुमां पोतपोतानी थवावाळी पर्यायनो परद्रव्य कर्ता नथी, निमित्त कर्ता नथी ए वात सिद्ध करे छे. ‘होता स्वयं जगतपरिणाम, ज्ञाताद्रष्टा आतमराम’ एम अहीं सिद्ध करे छे. परनी क्रिया थाय तेनो आत्मा कर्ता नथी अने आत्मामां जे क्रिया थाय तेनो पर निमित्त कर्ता नथी. आवी वात छे.

घडानी पर्याय थाय तेमां कुंभारना परिणाम अनुकूळ छे. पण ते घडाना परिणाम पोताथी थया छे. घडानी पर्याय कुंभारना परिणामथी थई छे एम त्रणकाळमां सत्य नथी. कह्युं ने के -कुंभार घडो बनाववाना अहंकारथी भरेलो होवा छतां तेना व्यापारने अनुरूप माटीना घट-परिणाम के जे माटीथी अभिन्न छे अने माटीथी अभिन्न परिणतिमात्र क्रियाथी करवामां आवे छे तेने कुंभार करे छे एम प्रतिभासतुं नथी. अहाहा...! कुंभार घडो करे छे एम प्रतिभासतुं नथी. नामुं लखाय त्यां आ होशियार पुरुष सारा अक्षरे नामुं लखे छे एम प्रतिभासतुं नथी. भाई! अक्षरनी पर्याय अक्षरथी पोताथी थई छे, अंगुलिथी नहि, कलमथी नहि अने आत्माथी य नहि ज नहि. भगवान! आवो वीतरागनो अलौकिक मार्ग छे. कोईनी पर्यायमां कोई अन्यनो अधिकार नथी.

बंध अधिकारमां त्यांसुधी वात करी छे के कोई उपदेश देनार एम माने के माराथी बीजा मोक्ष पामे छे तो एम माननार ते मूढ छे. जीवना (मुक्तिना) वीतराग परिणामनो जीव पोते कर्ता छे. ते परिणाम पोताथी अभिन्न छे अने पोताथी अभिन्न परिणतिमात्र क्रियाथी करवामां आवे छे. तेने बीजाए (उपदेशके) कर्या छे एम प्रतिभासतुं नथी एम अहीं कहे छे.

आगळ कहे छे-‘तेवी रीते आत्मा पण अज्ञानने लीधे पुद्गलकर्मरूप परिणामने अनुकूळ पोताना परिणामने -के जे पोताथी अभिन्न छे अने पोताथी अभिन्न परिणतिमात्र क्रियाथी करवामां आवे छे तेने करतो प्रतिभासो, परंतु पुद्गलना परिणामने करवाना अहंकारथी भरेलो होवा छतां पण (ते आत्मा) पोताना परिणामने अनुरूप एवा पुद्गलना परिणामने-के जे पुद्गलथी अभिन्न छे अने पुद्गलथी अभिन्न परिणतिमात्र क्रियाथी करवामां आवे छे तेने-करतो न प्रतिभासो.’

जीव पोताना राग परिणामने करे छे. ए राग पुद्गलकर्मना बंधनमां निमित्त छे. पण ते पुद्गलकर्मना परिणामने जीव करे छे एम नथी. अहीं कहे छे के जीव पोताना पोताथी अभिन्न एवा राग परिणामने करे छे एम प्रतिभासो पण कर्मबंधननी


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पर्यायने के जे पुद्गलथी अभिन्न छे तेने जीव करे छे एम न प्रतिभासो. आत्मा पुद्गलकर्मने बांधे वा कर्मनो नाश करे एम छे ज नहि. जीव पोताना परिणाममां रागनो नाश करीने वीतरागता प्रगट करे ते वखते कर्मनो नाश थई जाय छे, परंतु कर्मनाशनी ते क्रिया आत्माए करी एम नथी.

* गाथा ८६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आत्मा पोताना ज परिणामने करतो प्रतिभासो; पुद्गलना परिणामने करतो तो कदी न प्रतिभासो.’ जीव रागनी क्रियाने करे छे, पण परनी क्रियाने करतो नथी. शरीर चाले त्यां अज्ञानी माने छे के हुं शरीरने चलावुं छुं. परंतु ए तेनी विपरीत मान्यता छे. श्री मोक्षमार्गप्रकाशकना चोथा अधिकारमां मिथ्यादर्शननुं स्वरूप कह्युं छे. त्यां लख्युं छे के -“ जीवना ज्ञानादिक वा क्रोधादिकनी अधिकता-हीनतारूप अवस्थाओ थाय छे तथा पुद्गल परमाणुओनी वर्णादि पलटावारूप अवस्थाओ थाय छे-ते सर्वने पोतानी अवस्था मानी तेमां ‘आ मारी अवस्था छे’ एवी ममकारबुद्धि करे छे वळी जीवने अने शरीरने निमित्तनैमित्तिक संबंध छे तेनाथी जे क्रिया थाय छे तेने पोतानी माने छे. पोतानो स्वभाव दर्शन-ज्ञान छे, तेनी प्रवृत्तिने निमित्तमात्र शरीरनां अंगरूप स्पर्शनादिक द्रव्य ईन्द्रियो छे. हवे आ जीव ते सर्वने एकरूप मानी एम माने छे के-हाथ वगेरे स्पर्श वडे में स्पर्श्युं, जीभ वडे में चाख्युं, नासिका वडे में सूघ्युं, नेत्र वडे में दीठुं, कान वडे में सांभळ्‌युं!” ईत्यादि अज्ञानीनी विपरीत मान्यता छे.

शरीरनी क्रिया, खावापीवानी क्रिया जे थाय ते जडनी क्रिया जडथी थाय छे. आंख आम मटकुं मारे ते बधी जडनी क्रिया जडथी थाय छे. परंतु अज्ञानी माने छे के ते क्रिया माराथी थाय छे. तेनी आ मान्यता जूठ छे. जीभ, कान आदि ईन्द्रियो जड छे. जीभथी स्वाद चाख्यो अने कानथी सांभळ्‌युं एम माने ते अज्ञान छे, मिथ्यादर्शन छे, केमके ईन्द्रियोथी ते जाणतो नथी, ज्ञाननी पर्यायथी जाणे छे. जाणवुं छे ते जीवनी ज्ञानपर्यायथी छे. ईन्द्रियो वडे हुं जाणुं छुं एम माने ते मिथ्यात्व छे. ईन्द्रियो निमित्त छे, पण निमित्तनो अर्थ शुं? परमां कांईन करे एनुं नाम निमित्त छे. अहा! वीतरागनो मार्ग बहु सूक्ष्म छे!

प्रश्नः– आवुं कोण माने?

उत्तरः– माने, न माने; पण वस्तुस्थिति आ ज छे. जेने सम्यक्स्वरूपनी जिज्ञासा छे ते अवश्य मानशे. शरीरथी स्त्रीना शरीरने में स्पर्श कर्यो एम माने पण ए तो जडनी क्रिया छे; जाणनार तो त्यां आत्मा छे, जड ईन्द्रिय नहि. भाई! समये समये जीवने मिथ्यात्वभाव केम थाय छे एनी आ वात छे. सुगंधने जाणे छे त्यां माने छे के नासिका वडे में सूंघ्युं. पण आ शरीर अने ईन्द्रियो तो जड छे, माटी छे. शुं


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एनाथी ते जाणे छे? ना, आत्मा ज्ञानथी जाणे छे; शरीर के ईन्द्रियोथी जाणतो नथी. अरे भाई! जड अने चेतनना बंनेना स्वभाव प्रगट भिन्न छे छतां अज्ञानी माने छे के नाक वडे में सूंघ्युं, पण ए जूठुं छे. वळी द्रव्यमन तथा ज्ञानने एकरूप मानी एम माने छे के में ‘मन वडे जाण्युं,’ पण स्मरण तो ज्ञाननी पर्याय छे. ते कांई जड मनथी थती नथी. वळी पोताने बोलवानी ईच्छा थाय त्यारे पोताना प्रदेशोने जेम बोलवानुं बने तेम हलावे छे त्यारे एकक्षेत्रावगाह संबंधथी शरीरनुं अंग पण हालतां भाषावर्गणारूप पुद्गलो वचनरूप परिणमे छे; ए बधाने एकरूप मानी आ एम माने छे के ‘हुं बोलुं छुं.’ पण आ बधुं एनुं अज्ञान छे.

अरे! अज्ञानीने आ चोवीस कलाकनी बिमारी छे. आत्मसिद्धिमां आवे छे के-

“आत्मभ्रान्ति सम रोग नहि, सद्गुरु वैद सुजाण
गुरुआज्ञा सम पथ्य नहि, औषध विचार ध्यान.”

सूक्ष्म वात छे, भाई! लोकोने बहारनी जडनी क्रियामां पोतानुं कर्तापणुं भासे छे ते रोग छे, बिमारी छे. ते स्वरूपनी समजण वडे ज दूर करी शकाय छे.

त्यारे कोई तो वळी एम कहे छे के- परनो कर्ता न माने ते दिगंबर नथी. अरे भाई! तुं शुं कहे छे? एम न होय, भाई! जीव परनो कर्ता त्रण काळमां नथी एम अहीं श्रेष्ठ दिगंबराचार्य सिद्ध करे छे. सम्यक्द्रष्टि चक्रवर्तीने छ खंडनुं राज्य होय छे, छन्नु हजार राणीओ होय छे. पण ए तो माने छे के रागनो एक कण पण मारो नथी. तो बहारना जड रजकणनी क्रिया मारी ए वात प्रभु? कयां कही? श्रेणीक राजा, भरत चक्रवर्ती क्षायिक समकिती हता. ते एम मानता के हुं परनी क्रियानो जाणनारो छुं, हुं तेनो कर्ता नथी. परनो कर्ता माने तो बे द्रव्योनी एकताबुद्धि थई जाय छे ते मोटी मूळमां ज भूल छे.

एक ने एक त्रण-एम कहे तो ते मूळमां भूल छे. पछी ए भूल आगळ बधे विस्तरे छे. तेम जडकर्मनो हुं कर्ता अने शरीरादि परद्रव्यनी क्रिया हुं करुं छुं एम जे माने तेने बे द्रव्यनी एकताबुद्धिनी मूळमां भूल छे. ते मिथ्यादर्शन छे, दुःखनो पंथ छे. भाई! सम्यग्दर्शन कोई अपूर्व चीज छे. सम्यग्दर्शन थाय तेने भवनो अंत आवी जाय छे. अनादि मिथ्यात्वनी गांठ तोडीने जेणे परथी भिन्न ज्ञातास्वरूप भगवान आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव कर्यो छे ते सुखना-मोक्षना पंथे पडया छे. ए सिवाय आ कारखानां जे चाले, वेपारनी मोटी पेढीओ चाले-ईत्यादि बधी जडनी क्रिया थाय ते हुं करुं छुं एम जे माने ते मिथ्याद्रष्टि छे, ते भवना पंथे छे, दुःखना पंथे छे.

मोक्षमार्गप्रकाशकना चोथा अधिकारमां बहु सरस वात करी छे. त्यां कह्युं छे- “ शरीरनो संयोग थवा अने छूटवाथी जन्म-मरण होय छे-तेने पोतानां जन्म-मरण


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मानी ‘हुं उपज्यो, हुं मरीश’ एम माने छे. वळी शरीरनी ज अपेक्षाए अन्य जीवोथी संबंध माने छे. जेमके -जेनाथी शरीर नीपज्युं तेने पोतानां मात-पिता माने छे, शरीरने रमाडे तेने पोतानी रमणी माने छे. शरीर वडे नीपज्यां तेने पोतानां दीकरा-दीकरी माने छे, शरीरने जे उपकारक छे तेने पोतानो मित्र माने छे तथा शरीरनुं बूरुं करे तेने पोतानो शत्रु माने छे. ईत्यादिरूप तेनी मान्यता होय छे. घणुं शुं कहीए? हरकोई प्रकार वडे पोताने अने शरीरने ते एकरूप ज माने छे.” आनाथी जुदी ज वात त्यां प्रवचनसारमां चरणानुयोग अधिकारमां आवे छे. दीक्षा माटे तैयार थयेलो वैराग्यप्राप्त समकिती एम कहे छे-“अहो आ पुरुषना शरीरनी जननीना आत्मा! आ पुरुषनो आत्मा तमाराथी जनित नथी एम निश्चयथी तमे जाणो. तेथी आ आत्माने तमे छोडो. जेने ज्ञानज्योति प्रगट थई छे एवो आ आत्मा आजे आत्मारूपी जे पोतानो अनादि जनक तेनी पासे जाय छे. अहो आ पुरुषना शरीरनी रमणीना आत्मा! आ पुरुषना आत्माने तुं रमाडतो नथी एम निश्चयथी तुं जाण. तेथी आ आत्माने तुं छोड. जेने ज्ञानज्योति प्रगट थई छे एवो आ आत्मा आजे स्वानुभूतिरूप जे पोतानी अनादि रमणी तेनी पासे जाय छे.” आवो समकिती अने मिथ्याद्रष्टिनी मान्यतामां आसमान-जमीन जेटलो फरक छे.

कोई मकानमां पांच-पचीस वरस रहे तो अज्ञानी मानवा लागे के आ मारुं मकान छे. ते में बनाव्युं छे. तेनी वृत्ति मकानना आकारे थई जाय छे. पण भाई! मकान कोण बनावे? आ आगममंदिर बन्युं ते कोणे बनाव्युं? ए तो पुद्गलोए बनाव्युं छे. संस्थानो वहिवट चाले तो कहे के माराथी चाले छे; पण एम छे नहि. ए तो बधी बोलवानी कथनपद्धति छे. संस्थानो वहिवट चाले ते आत्मा करतो नथी. आत्मा तेनुं ज्ञान करे, पण त्यां जडनी क्रिया जे थाय तेने आत्मा करतो नथी. ज्ञानी परद्रव्यने अंतरमां पोतानुं मानता नथी. समकितीने छ खंडना राज्यनो बहारमां संयोग होय पण ए राज्यनो हुं स्वामी छुं एम ते मानता नथी. पहेलां ७३मी गाथामां आवी गयुं के विकल्प द्वारा पण एवो निर्णय कर के रागद्वेषनो हुं स्वामी नथी. रागना स्वामीपणे सदा नहि परिणमनारो एवो हुं निर्मम छुं. भविष्यमां राग थशे, पण एना स्वामीपणे परिणमनारो हुं नथी. हुं तो निर्मम छुं. स्त्रीनो स्वामी, मकाननो स्वामी, राज्यनो स्वामी हुं नथी; ज्ञानी आम समजे छे. बहु संपत्ति होय ते लखपति कहेवाय छे ने. तो शुं आत्मा लखपति एटले जडनो पति छे? जेम भेंसनो पति पाडो होय तेम जडनो पति जड होय छे. बापु! आत्मा जडनो स्वामी नथी. पुण्यनो स्वामी पोताने माने ते पण जड छे. ४७ शक्तिओमां छेल्ली स्वस्वामी संबंधरूप शक्ति छे. धर्मी माने छे के हुं तो मारा शुद्ध द्रव्य-गुण अने निर्मळ पर्यायनो स्वामी छुं अने तेमारुं स्व छे. रागनो स्वामी थाय,


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पत्नीनो स्वामी थाय, राज्यनो स्वामी थाय, संस्थानो स्वामी थाय ए बधा मिथ्याद्रष्टि छे. तथा बोलवानी, चालवानी, खावानी, पीवानी, हरवा-फरवानी ईत्यादि शरीरनी अनेक क्रियाओ थाय त्यां जे शरीरनी क्रियाने अने पोताने एक माने छे ते मिथ्याद्रष्टि छे.

आत्मानी अने पुद्गलनी-बन्नेनी क्रिया एक आत्मा ज करे छे एम माननारा मिथ्याद्रष्टि छे. जड-चेतननी एक क्रिया होय तो सर्व द्रव्यो पलटी जवाथी सर्वनो लोप थई जाय-ए मोटो दोष ऊपजे. आत्माना परिणाम अने शरीर, मन, वाणी, पैसाना परिणाम जो एक होय तो सर्व द्रव्यो पलटी जवाथी सर्वनो लोप थई जाय. मारुं अस्तित्व परथी अने परनुं अस्तित्व माराथी-एम होय तो बधां द्रव्योनो लोप थई जाय ए मोटो दोष उपजे. माटे एम छे नहि एम यथार्थ स्वीकारवुं.

हवे आ ज अर्थना समर्थननुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश प१ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘यः परिणमति सः कर्ता’ जे परिणमे छे ते कर्ता छे, ‘यः परिणामः भवेत् तत् कर्म’ (परिणमनारनुं) जे परिणाम छे ते कर्म छे. जे द्रव्य परिणमन करनार छे ते परिणामनुं कर्ता छे. जडना परिणामनो कर्ता जड छे. खावापीवाना परिणमननी क्रियानुं कर्ता जड द्रव्य छे. परिणमे ते कर्ता छे. आ आंगळी हले ते क्रिया पुद्गलनी छे. तेनो आधार आत्मा नथी. पोताना द्रव्य-गुण-पर्यायनो आधार पोतानो आत्मा छे. परना परिणामनो आधार ते ते परमाणु छे. देहनो आधार आत्मा छे एम माने ते जूठुं छे. लोको कहे छे के जीव छे त्यां सुधी शरीर चाले. पण अहीं कहे छे के शरीरने जीवनो आधार नथी. शरीर शरीरना आधारे छे; आत्माना आधारे शरीर नथी. भाई! आत्मा परनुं कार्य नथी तेम आत्मा परना परिणामनो कर्ता नथी, कारण के जे परिणमे ते कर्ता छे.

दुनिया आवुं माने छे के होशियार माणस दुकानना थडे बेसे तो वेपार-धंधा सारा चाले छे. अहीं कहे छे के वेपारनी क्रिया थाय तेनो कर्ता आत्मा नथी, केमके आत्मा वेपारनी क्रियारूप परिणमतो नथी. रेल्वेमां मालनां वेगन आवे त्यां मालनां रजकणो पोतानी क्रियावती शक्तिथी कार्य करे छे. रेलना डबाना कारणे ते माल आव्यो छे एम नथी. मालनी क्रिया मालमां अने डबानी क्रिया डबामां पोतपोताना कारणे स्वतंत्र थाय छे. आत्मा तो तेनो जाणनार छे, कर्ता नथी. ते पण खरेखर परने जाणतो नथी पण परसंबंधीनुं पोतानुं ज्ञान थयुं तेने जाणे छे. समयसार गाथा ७पमां आवी गयुं के राग थाय तेनुं जे ज्ञान थयुं ते ज्ञान रागनुं नथी पण ते ज्ञान पोतानुं छे. आत्मा पोताने जाणे छे. त्यां सामे जेवी चीज छे तेवुं अहीं ज्ञान थयुं ते ज्ञान पोताथी थयुं छे. राग अने शरीर छे तो तेना कारणे ज्ञान थयुं छे एम नथी. ते चीज संबंधीना ज्ञाननी


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उत्पत्ति काळमां आत्मा ज्ञानना स्वपरप्रकाशक स्वभावना कारणे परने पण जाणे छे ज्ञानमां परने प्रकाशवानुं सामर्थ्य परने लईने नथी.

अहीं कहे छे के जे परिणमे छे ते कर्ता छे. आ शरीर परिणमित थाय तेनो कर्ता शरीर छे. पर जीवनी दया पाळवाना भाव थाय ते जीवनुं परिणमन छे अने तेनो कर्ता जीव छे. अने ते दयाना परिणाम कर्म छे.

परिणमे ते कर्ता छे अने परिणाम कर्म छे; कर्म एटले कार्य छे. ‘तु’ अने ‘या परिणति सा क्रिया’ जे परिणति छे ते क्रिया छे. प्रथमनी पर्याय पलटीने वर्तमान पर्याय थई ते क्रिया छे. ‘त्रयम् अपि’ ए त्रणेय ‘वस्तुतया भिन्नम् न’ वस्तुपणे भिन्न नथी. पर्यायद्रष्टिथी त्रण भेद पडे छे, वस्तुपणे भेद नथी. समयसार कळशटीकाना ४९मा श्लोकमां तो एम कह्युं छे के द्रव्य कर्ता अने तेना परिणाम ए तेनुं कर्म ए पण उपचारथी छे. अने द्रव्य परनो कर्ता तो उपचारथी पण नथी. , व्यवहारथी पण नथी. पोताना ज्ञान परिणाम ते कार्य अने तेनो कर्ता आत्मा एवो भेद उपचार छे. निश्चयथी तो परिणाम अने परिणामी अभेद छे.

अहीं तो परथी भिन्न पाडवानी वात छे एटले एम कह्युं के जे परिणमे छे ते कर्ता अने जे परिणाम छे ते कर्म छे. खरेखर तो जे परिणमे छे ते पर्याय छे, द्रव्य तेनुं कर्ता नथी. परिणतिनो कर्ता परिणति पोते छे, केमके एक समयमां जे परिणति थई ते पोताना षट्कारकथी थई छे. परिणति थई ते द्रव्य-गुणना आलंबनथी थई नथी, परना आलंबनथी पण थई नथी. शुद्ध परिणति हो के अशुद्ध परिणति हो, ते समय समयना पोताना षट्कारकथी थाय छे. ते क्रियानुं कारण द्रव्य नथी. परिणतिनुं उपादान कारण परिणति पोते छे; परिणति ध्रुवथी थइ छे एम नथी. परिणति परिणतिथी थई छे.

अहा! परिणमे ते कर्ता, परिणाम ते कर्म अने परिणति ते क्रिया-एम त्रण भेद पाडवा ते उपचार छे. त्यारे लोको व्रत, तप, भक्ति अने ब्रह्मचर्य पाळवुं एमां धर्म माने छे, परंतु ए मान्यता तो मिथ्यात्व छे. व्रतादि छे ते आस्रव छे. आस्रवनुं पालन करवुं ते मिथ्यात्व छे. रागने पाळवो-रागनी रक्षा करवी ते मिथ्यात्व छे. वर्तमानमां आ बधी खूब गडबड चाले छे. पण भाई! तत्त्व तो आ छे. परिणति ते क्रिया, परिणमे ते कर्ता अने परिणाम ते कर्म- ए त्रणेय वस्तु छे, वस्तुथी भिन्न नथी.

परनुं कार्य पोताथी थाय अने पोतानुं कार्य परथी थाय ए वस्तुस्वरूप नथी. कहे छे ने के खेडूतो खेतीनां काम करे छे; पण एम छे नहि. खेतीनां काम तो एना कारणे थाय छे, जीवथी ते थतां नथी. खेतीनी पेदाश जीव करे छे एम छे ज नहि. आत्मामां आनंदनी उत्पत्ति थाय ते आत्मानी पेदाश छे. खेतीनी पेदाश कोण करे? खेतीनी पेदाश हुं करुं छुं एम माने ते मिथ्याद्रष्टि छे, ए दुःखना भाव छे.


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*कळश प१ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘द्रव्यद्रष्टिए परिणाम अने परिणामी अभेद छे, अने पर्यायद्रष्टिए भेद छे. शुद्ध परिणाम हो के अशुद्ध परिणाम हो, रागना परिणाम हो के अरागना परिणाम हो, द्रव्यद्रष्टिथी परिणाम अने परिणामी अभेद छे, अने पर्यायद्रष्टिथी भेद छे.

श्री पंचास्तिकायनी गाथा १पमां आवे छे के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनंद आदि बधा गुणो ध्रुव छे, परंतु पर्यायद्रष्टिए गुणो परिणमे छे एम कहेवाय छे. द्रव्यद्रष्टिथी गुण गुणमां ध्रुव छे अने पर्यायद्रष्टिथी गुण परिणमे छे. आ बधां पडखाने जाणी यथार्थ निर्णय वडे पर्यायबुद्धि छोडीने द्रव्यबुद्धि करे तो क्षणमां सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. पर्यायबुद्धि छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. प्रवचनसार गाथा ९३मां कह्युं छे के –‘पज्जयमूढा हि परसमया’ पर्यायमूढ जीवो परसमय छे.

त्यारे कोई वांधो ले छे के पर्याय तो पोतानी छे. तेने माने ते मूढ केम कहेवाय? तेने कहे छे- अरे भाई! एक समयनी पर्यायने पोतानुं स्वरूप माने ते परसमय छे केमके पर्याय जेटलो ज त्रिकाळी आत्मा नथी. पर्याय जेटलो आत्माने माने अने त्रिकाळी द्रव्यने न माने ते पर्यायमां मूढ छे, ते परसमय छे, मिथ्याद्रष्टि छे. समकिती जीवनी प्रशंसा करतां नाटक समयसारमां बनारसीदास कहे छे के-

“स्वारथके साचे परमारथके साचे चित्त,
साचे साचे बैन कहैं साचे जैनमती हैं,
काहूके विरुद्धि नाहि परजायबुद्धि नाहि,
आतमगवेषी न गृहस्थ हैं न जती हैं.
सिद्धि रिद्धि वृद्धि दीसै घटमैं प्रगट सदा,
अंतरकी लच्छिसौं अजाची लच्छपती हैं;
दास भगवंतके उदास रहैं जगतसौं,
सुखिया सदैव ऐसे जीव समकिती है.”

समकितीने पर्यायबुद्धि होती नथी. धर्मात्मा तो स्वरूपना लक्षना लक्षपति छे. धनादि संपत्तिना स्वामी लखपति ए वात नहि. निज चैतन्यस्वरूप लक्ष्मीनुं जेने लक्ष छे ते लक्षपति छे. अजाची लक्षपति छे एटले परथी पोतानुं कार्य थाय एम मानता नथी. अहाहा..! गृहस्थाश्रममां रहेला समकिती आवा होय छे. मुनिपणानी तो शी वात! अहो मुनिपणुं! धन्य क्षण! धन्य अवतार! मुनिपणुं ए तो साक्षात् चारित्रनी आनंददशा! लोको सम्यग्दर्शन विना व्रतादि ग्रहीने चारित्र माने छे, पण एमार्ग नथी.

अहीं कहे छे-द्रव्यद्रष्टिए परिणाम अने परिणामी अभेद छे अने पर्यायद्रष्टिए भेद छे. ‘भेदद्रष्टिथी तो कर्ता, कर्म अने क्रिया त्रण कहेवामां आवे छे पण अहीं


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अभेदद्रष्टिथी परमार्थ कह्यो छे के कर्ता कर्म अने क्रिया -त्रणेय एक द्रव्यनी अभिन्न अवस्थाओ छे, प्रदेशभेदरूप जुदी वस्तुओ नथी.’ परना प्रदेश भिन्न छे अहीं ए अपेक्षाए कथन छे. निश्चयथी पर्यायना प्रदेश भिन्न कहेवामां आवे छे. अहीं तो परना प्रदेशथी पोताना प्रदेश भिन्न सिद्ध करवानी वात छे.

निश्चयथी तो पर्यायनुं क्षेत्र भिन्न छे अने ध्रुव द्रव्यनुं क्षेत्र भिन्न छे. जेटला क्षेत्रथी पर्याय ऊठे छे एटलुं क्षेत्र ध्रुवथी भिन्न गणवामां आव्युं छे. बहु सूक्ष्म वात छे, भाई! पोतानी केवळज्ञाननी पर्याय, पोतानी सम्यग्दर्शननी पर्यायनुं क्षेत्र द्रव्यना क्षेत्रथी भिन्न छे. बे वच्चे भेद छे. द्रव्यनो धर्म अने पर्यायनो धर्म बन्ने भिन्न छे, स्वतंत्र छे. समयसारना संवर अधिकारमां कह्युं छे के- विकल्पनुं क्षेत्र भिन्न छे अने स्वभावनुं क्षेत्र भिन्न छे. विकल्प चीज भिन्न छे अने भगवान आत्मा भिन्न छे. त्यां तो एटली वात छे पण बीजे एम वात आवे छे के निर्मळ परिणतिनुं क्षेत्र भिन्न, तेनी शक्ति भिन्न; पर्यायनो कर्ता पर्याय, कर्म पर्याय, साधन पर्याय अने तेनो आधार पण ते पर्याय. अहो! आवुं अति सूक्ष्म भेदज्ञाननुं स्वरूप छे.

समयसार कळश १३१ मां कह्युं छे के-

भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन।
अस्यैवाभावतः बद्धा बद्धा ये किल
केचन।।

जे कोई सिद्ध थया छे ते भेदविज्ञानथी सिद्ध थया छे; जे कोई बंधाया छे ते एना ज अभावथी बंधाया छे. भेदज्ञानना अभावथी बंधाया छे एम कह्युं छे पण कर्मना कारणे बंधाया छे एम नथी कह्युं. तेम व्यवहारना रागथी सिद्धपद पाम्या छे एम नथी पण एनाथी भिन्नपणानुं भेदज्ञान करीने मुक्ति पाम्या छे.

लोकोने सत्य वात सांभळवा मळी नथी एटले ‘चोर कोटवाळने दंडे’ ए न्याये सत्य वातने जूठी ठराववा लाग्या छे; शुं थाय? अहीं कहे छे के -अज्ञानभावे विकारना परिणामनो कर्ता आत्मा छे अने ज्ञानभावे सम्यग्दर्शनादि निर्मळ पर्यायनो कर्ता आत्मा छे. कर्ता अने कर्म बे भिन्न पाडवा ते भेदकथन छे, उपचार छे. पर्यायनो कर्ता आत्मा अने पर्याय एनुं कर्म एम भेद करवो ते उपचार छे. आत्मा रागनो कर्ता अने परनो कर्ता-ए तो कयांय रही गयुं. भाई! आवो भेदज्ञाननो अति सूक्ष्म मार्ग छे.

अहाहा...! ए भेदज्ञाननुं फळ शुं? तो कहे छे अनंत ज्ञान अने अनंत आनंद पर्यायमां प्रगटे ते एनुं फळ छे. श्रीमदे कह्युं छे ने के-

“सादि अनंत अनंत समाधि सुखमां”

भेदज्ञानना फळमां सादि, अनंतकाळ जीव अनंत सुख-समाधिदशामां रहेशे.


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भूतकाळथी भविष्यनो काळ अनंतगुणो अधिक छे. ते अनंतकाळ पर्यंत जीव अनंत सुखमां समाधिस्थ रहेशे ए भेदज्ञाननुं फळ छे. अहो भेदज्ञान!

प्रश्नः– व्यवहारने मुक्तिनुं साधन कह्युं छे ने?

उत्तरः– हा, पण ए उपचारथी कह्युं छे. अने ते कथन अज्ञानीना रागने लागु पडतुं नथी. जेने निश्चयना भानपूर्वक अभेदरत्नत्रय प्रगट थयेल छे ते ज्ञानीने जे भेदरत्नत्रयनो विकल्प सहचरपणे छे तेने आरोप आपीने व्यवहारथी साधन कह्यो छे. भेदरत्नत्रयना रागनो अभाव करीने मुक्ति पामशे ए अपेक्षाए तेने परंपरा कारण कह्युं छे. बाकी व्यवहारथी परंपरा मुक्ति थशे ए व्यवहारनयनुं कथन छे अने ते असत्यार्थ छे.

मुक्तिनुं साक्षात् कारण तो अभेदरत्नत्रय छे केमके अभेदरत्नत्रयनी पर्यायनो व्यय थई केवळज्ञाननी पर्याय उत्पन्न थाय छे. खरेखर तो अभेदरत्नत्रयथी केवळज्ञान थयुं एम कहेवुं ए पण व्यवहार छे. तथा त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यने तेनुं कारण कहेवुं ए पण उपचार छे. केवळज्ञाननी पर्यायनुं वास्तविक कारण केवळज्ञाननी पर्याय ज छे, द्रव्य-गुण नहि, पूर्वनी अभेदरत्नत्रयनी पर्याय पण नहि अने भेदरत्नत्रयनो राग पण नहि. बहु झीणी वात, प्रभु! भरतक्षेत्रमां भगवाननी गेरहाजरी छे अने लोको व्यवहारथी धर्म थाय एम मानवा लाग्या छे. शुं थाय भाई? संतोनो अने वीतरागनो ए अभिप्राय नथी.

अहीं कहे छे-कर्ता, कर्म क्रिया-त्रणेय एक द्रव्यनी अभिन्न अवस्थाओ छे, प्रदेशभेदरूप जुदी वस्तु नथी. असंख्य प्रदेशमां पर्याय उत्पन्न थाय छे, प्रदेशभेद नथी. बीजे एम आवे छे के पर्यायनुं क्षेत्र भिन्न अने ध्रुवनुं क्षेत्र भिन्न छे. ए तो द्रव्य-पर्यायनी परस्पर भिन्नतानी वात छे. धर्म अने धर्मी बन्ने निरपेक्ष छे एम सिद्ध करवानी वात छे. परंतु अहीं तो स्वद्रव्य-परद्रव्यनी भिन्नतानी वात छे. द्रव्यना परिणाम द्रव्यथी अभिन्न छे, परद्रव्यथी भिन्न छे; परद्रव्य एमां कांई करतुं नथी.

निमित्तना, व्यवहारना अने क्रमबद्धपर्यायना लोकोने वांधा छे पण क्रमबद्धपर्याय ए तो वस्तुनी स्थिति छे. एक पछी एक जे समये जे पर्याय थवानी होय तेमां द्रव्य पण फेरफार करी शकतुं नथी. क्रमबद्धपर्याय थाय तेने द्रव्य जाणे पण तेमां फेरफार द्रव्य करी शकतुं नथी. आत्मा अनंत शक्तिओनो पिंड छे. शक्तिवान द्रव्य शुद्ध छे, तेना गुणो शुद्ध छे. अने तेनी द्रष्टि थतां पर्याय पण क्रमसर निर्मळ परिणमे छे. शक्तिना वर्णनमां विकारी परिणामनी वात नथी केमके अशुद्धता थाय एवी द्रव्यमां कोई शक्ति ज नथी. गुणो अक्रमे वर्ते छे अने पर्यायो क्रमे वर्ते छे. शक्तिवान द्रव्यनी जेने द्रष्टि थाय तेने निर्मळ पर्यायो क्रमसर एक पछी एक थया ज करे छे.

अहीं एम कहे छे के कर्ता, कर्म, क्रिया-त्रणेयना प्रदेशो अभिन्न छे, ते त्रण प्रदेशभेदरूप जुदी वस्तुओ नथी. आ प्रमाणे परद्रव्यथी भिन्नता कही.


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फरी पण कहे छे केः-

* कळश परः श्लोकार्थ *

‘एकः परिणमति सदा’ वस्तु एक ज सदा परिणमे छे, ‘एकस्य सदा परिणामः जायते’ एकना ज सदा परिणाम थाय छे अर्थात् एक अवस्थाथी अन्य अवस्था एकनी ज थाय छे. अने ‘एकस्य परिणतिः स्यात्’ एकनी ज परिणति-क्रिया थाय छे; ‘यत’ कारण के‘एकम् अनेकम् न स्यात्’ एक द्रव्य अनेक द्रव्यरूप थाय नहि.

* कळश परः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘एक वस्तुना अनेक पर्यायो थाय छे; तेमने परिणाम पण कहेवाय छे अने अवस्था पण कहेवाय छे.’

प्रत्येक आत्मा अने प्रत्येक परमाणु समयसमयमां अनेक पर्याययुक्त छे. एटले के प्रत्येक द्रव्य पोतानी अनेक पर्यायथी युक्त छे. माटे अन्य द्रव्य तेनी पर्याय करे एम नथी. प्रत्येक द्रव्यमां अनंत गुणो छे. तेथी एक समयमां तेनी पर्यायो पण अनंत होय छे. माटे अनंत पर्यायरहित कोई द्रव्य होतुं नथी. जेम आत्मद्रव्य अनेक पर्याययुक्त छे तेम अन्य द्रव्य पण अनेक पर्याययुक्त छे. तो पछी अनेक पर्याययुक्त बीजा द्रव्यनी पर्यायने आत्मा केम करे?

द्रव्य अनेक पर्याययुक्त होय छे. तेने परिणाम पण कहे छे. आत्मा पोतानी पर्याय प्रसिद्ध करे तेने परिणाम कहेवाय छे. अहीं संसार पर्यायनी ज वात नथी. दरेक आत्मा शुद्ध के अशुद्ध अनंत पर्याययुक्त होय छे. अशुद्ध वखते पोतानी अशुद्ध अनंत पर्याययुक्त आत्मा होय छे. तो ते अशुद्ध पर्यायने अन्य द्रव्य केम करे?

पर्यायने अवस्था पण कहे छे. प्रत्येक द्रव्य पोताना अनंत गुणनी अवस्थारूपे परिणमन करे छे. पर्यायने परिणाम पण कहे छे, अवस्था पण कहे छे. हवे कहे छे- ‘तेओ संज्ञा, संख्या लक्षण, प्रयोजनादिकथी जुदा जुदा प्रतिभासे छे तोपण एक वस्तु ज छे, जुदा नथी.; एवो ज भेदाभेदस्वरूप वस्तुनो स्वभाव छे.’

द्रव्यनुं नाम अने पर्यायनुं नाम जुदुं छे माटे संज्ञाभेदे भेद छे. द्रव्य एक अने पर्याय अनेक-एम संख्याभेद छे. द्रव्य त्रिकाळ रहे छे अने पर्याय एक समय, माटे लक्षणभेद छे. अने द्रव्य-पर्यायनुं प्रयोजन भिन्न छे, माटे प्रयोजनथी पण भेद छे. तोपण एक वस्तु ज छे. द्रव्यपर्याय एक वस्तु ज छे. एवो ज भेदाभेदस्वरूप वस्तुनो स्वभाव छे. आत्मा अभेदस्वरूप छे एम शास्त्रमां आवे छे. अहीं भेदाभेद स्वरूप लीधुं छे.


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समयसारनी सातमी गाथामां लीधुं छे के वस्तु भेदाभेदस्वरूप छे. समजाववामां जे भेद पडे छे ते अंदर भेद छे. परथी भिन्न पाडवानी अपेक्षाए अभेद कहेवाय पण वस्तुमां गुण अने पर्यायनो भेद छे. अभेदनी द्रष्टिए द्रव्य-गुण-पर्याय अभेद छे. भेदथी जुओ तो त्रणनो भेद छे. वस्तु भेदाभेदस्वरूप छे. कई अपेक्षाए कथन छे ते यथार्थ जाणवुं जोईए. एकांते अभेद कहो तो गुण-पर्यायनो भेद सिद्ध नहि थाय अने एकांत भेद कहो तो अभेद सिद्ध नहि थाय. माटे भेदाभेदस्वरूप वस्तुनो स्वभाव छे. सातमी गाथाना भावार्थमां छेल्ले कह्युं छे के- “वीतराग थया बाद भेदाभेदरूप वस्तुनो ज्ञाता थई जाय छे.”

वळी त्यां कह्युं छे-“अहीं कोई कहे के पर्याय पण द्रव्यना ज भेद छे, अवस्तु तो नथी; तो तेने व्यवहार केम कही शकाय? तेनुं समाधानः- ए तो खरुं छे पण अहीं द्रव्यद्रष्टिथी अभेदने प्रधान करी उपदेश छे. अभेदद्रष्टिमां भेदने गौण कहेवाथी ज अभेद सारी रीते मालूम पडी शके छे, तेथी भेदने गौण करीने भेदने तेने व्यवहार कह्यो छे. अहीं एवो अभिप्राय छे के भेदद्रष्टिमां निर्विकल्प दशा नथी थती अने सरागीने विकल्प रह्या करे छे; माटे ज्यां सुधी रागादिक मटे नहि त्यां सुधी भेदने गौण करी अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव कराववामां आव्यो छे.”

जुओ आ एकांत! एकांत अभेद ए ज सम्यग्दर्शननो विषय छे. अनेकांत लक्षमां होवा छतां सम्यक् एकांत जे त्रिकाळ शुद्ध द्रव्य अभेद एकरूप अखंडानंदरूप चैतन्य भगवान छे ए ज द्रष्टिनो विषय छे. समयसारनी १४ मी गाथामां पण सम्यक् एकांतनुं कथन आवे छे के- “जे पोते एकांत बोधरूप (ज्ञानरूप) छे एवा जीवस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां संयुक्तपणुं अभूतार्थ छे-असत्यार्थ छे.” एकांत ज्ञायकस्वरूप भगवान आत्मानी द्रष्टि थया विना सम्यग्दर्शन थतुं नथी. अनेकांत उपर द्रष्टि रहे एटले के द्रव्य अने पर्याय बन्ने उपर द्रष्टि रहे तो सम्यग्दर्शन न थाय.

वस्तु अभेद छे एम वात आवे ते अपेक्षाथी कथन छे. परथी भेद छे माटे पोतानी अपेक्षाए अभेद कह्युुं छे. त्यां सातमी गाथामां तो एम कह्युं के अभेद जे त्रिकाळी वस्तु छे तेमां पर्याय नथी, ज्ञान नथी, दर्शन नथी, चारित्र नथी, भेद व्यवहार पण नथी. ए तो अभेदनी द्रष्टि कराववाना प्रयोजनथी पर्यायादि नथी एम कह्युं छे. वस्तु तो भेदाभेदस्वरूप छे. वीतराग थया बाद भेदाभेदनो ज्ञाता थई जाय छे. त्यारे द्रव्यने जाणे छे, पर्यायने पण जाणे छे. पण ज्यां सुधी रागादिक मटे नहि त्यां सुधी भेदने गौण करीने अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव कराववामां आव्यो छे.

रागी प्राणीने भेद उपर लक्ष जाय तो राग ज थाय. भेदनुं ज्ञान तो केवळज्ञानीने पण छे. केवळी भगवान भेद-अभेद बधुं जाणे छे. भेदने जाणवुं ते रागनुं कारण नथी, पण रागी प्राणीने भेदनुं लक्ष थतां राग थाय छे.


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अभेदद्रष्टिमां भेद मालूम पडतो नथी माटे अभेदनी द्रष्टिमां भेद नथी एम कह्युं छे. अंदर गुण-पर्यायनो भेद छे तो खरो, पण अभेदनी द्रष्टिमां भेद मालूम पडतो नथी. माटे भेदने गौण करीने-अभाव करीने नहि -व्यवहार कहेल छे. एकांत अने अनेकांतना भारे गोटा ऊठया छे. अहीं तो अभेदद्रष्टि कराववा एकांत भणी लई जाय छे. पर्याय अने भेदनुं लक्ष छोडाववा भेदने गौण करी अभूतार्थ कहेल छे.

त्यारे कोई कहे के भेदद्रष्टिथी अभेदद्रष्टि थाय अने अभेदनी द्रष्टिथी पण अभेदनुं लक्ष थाय एम अनेकांत करवुं जोईए. तेने कहे छे के भाई! एवुं अनेकांतनुं स्वरूप नथी. भेदद्रष्टिमां निर्विकल्प दशा थती नथी. सरागीने भेदना लक्षे विकल्प थाय छे. भेदने जाणवाथी राग थाय एम नहि. पण सरागी प्राणी छे तेने भेद उपर लक्ष जाय तो राग थाय छे. तेथी निर्विकल्प दशा कराववा माटे त्रिकाळी अभेद एकरूप चीजनी द्रष्टि करो एम सम्यक् एकांत कह्युं छे.

अभेदद्रष्टिथी सम्यग्दर्शन थाय अने भेदद्रष्टिथी न थाय एनुं नाम अनेकांत छे. लोकोए एकांत-अनेकांतने समज्या विना मोटी गडबड करी दीधी छे. जेने सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं होय तेणे अभेद उपर द्रष्टि मूकवी जोईए. भेद अने पर्याय होवा छतां एकांत अभेदनी द्रष्टि करवाथी सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. कथंचित् भेदना लक्षथी अने कथंचित् अभेदना लक्षथी सम्यग्दर्शन थाय एम छे ज नहि. ए अनेकांत नथी, ए तो फुदडीवाद छे.

जुओ, शुं कह्युं? वस्तुनुं स्वरूप तो भेदाभेद छे. वीतराग थया पछी अभेदने जाणे, भेदने पण जाणे. पण सरागी प्राणीने भेद उपर लक्ष जाय तो राग थाय छे. माटे भेदने गौण करीने एक अभेद उपर द्रष्टि स्थापित करवी. आवो ज वीतरागनो मार्ग छे. श्रीमद् राजचंद्रजीए पण कह्युं छे के-अनेकांत पण सम्यक् एकांत एवा निजपदनी प्राप्ति सिवाय अन्य हेतुए उपकारी नथी. भाई! अंदर त्रिकाळी शुद्ध अभेद चीज पडी छे. एना उपर द्रष्टि आप्या विना कोई व्रतादिना विकल्पथी, रागथी, भेदथी के निमित्तथी सम्यग्दर्शन प्रगट थाय एम त्रणकाळमां बनतुं नथी. वळी श्रीमद् कहे छे -

अनेकांतद्रष्टियुक्त एकांतनी जे सेवा करे छे एटले के पर्यायादि भेदनुं ज्ञान करीने जे अभेदनुं सेवन करे छे ते सम्यक्पणे सर्वथी सर्व प्रकारे हुं भिन्न छुं एम जाणे छे. एक केवळ शुद्ध चैतन्यस्वरूपमात्र एकांत शुद्ध अनुभवरूप हुं छुं, हुं एकांत शुद्ध आनंदस्वरूप छुं. जुओ, दुःख छे, अशुद्धता छे ए वात करी नथी. सम्यग्दर्शनमां सम्यक् एकांत होय छे. अहाहा..! अचिंत्य सुख परमोत्कृष्ट सुखमात्र एकांत शुद्ध अनुभवरूप हुं छुं. त्यां निक्षेप शुं? विकल्प शुं? भय शुं? खेद शुं? बीजी अवस्था शुं? हुं तो मात्र निर्विकल्प निजस्वरूपमय उपयोग कर्ता छुं. तन्मय था तो शांति, शांति, शांति.


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पर्यायमां अशुद्धता छे अने भेद छे ए बधुं अहीं उडाडी दीधुं छे. द्रष्टिनो विषय आम एकांत होय छे.

बे कारणथी कार्य थाय एम नथी. पोताना स्वरूपना लक्षथी ज सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. कारण एक ज छे; परंतु प्रमाणज्ञानमां बीजुं निमित्त कोण छे एनुं ज्ञान कराववा उपचारथी एने कारण कहेवाय छे.

नयचक्रमां आवे छे के-शिष्ये प्रश्न कर्यो के प्रभु! निश्चयमां तो एकलुं द्रव्य आवे छे, ज्यारे प्रमाणनो विषय तो द्रव्य अने पर्याय बन्ने छे. माटे निश्चय करतां प्रमाण पूज्य छे? तेना जवाबमां कह्युं के -नहि, प्रमाण पूज्य नथी. तेमां पर्यायनो निषेध न आवे ते पूज्य नथी. आवो मार्ग छे.

वळी कहे छे केः-

* कळश प३ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘न उभौ परिणमतः खलु’ बे द्रव्यो एक थईने परिणमतां नथी, ‘उभयोः परिणामः न प्रजायेत’ बे द्रव्योनुं एक परिणाम थतुं नथी अने ‘उभयोः परिणतिः न स्यात्’ बे द्रव्योनी एक परिणति -क्रिया थती नथी.

शुं कहे छे? आत्मामां जे अशुद्ध राग-द्वेषादि परिणाम थाय ते पोताथी पण थाय अने कर्मथी पण अशुद्धरूप चेतना थाय एम नथी. बे द्रव्योनी एक परिणति होती नथी. कर्मथी विकार थाय छे ए मान्यता खोटी छे. पोतानुं अशुद्ध परिणमन पोताथी थाय छे. कर्म पण (जीवनुं) अशुद्ध परिणमन करी दे छे एम नथी. जीवद्रव्य पोतानी शुद्ध चेतनारूप अथवा अशुद्ध चेतनारूप व्याप्यव्यापकभावथी परिणमे छे. पुद्गलद्रव्य पण पोताना अचेतनलक्षण परिणामरूप अथवा ज्ञानावरणादि कर्मरूपे परिणमे छे. वस्तु तो आम छे. पण जीवद्रव्य अने पुद्गलद्रव्य बन्ने मळीने अशुद्ध चेतनारूप परिणमे छे एम नथी.

श्री जयसेनाचार्यनी टीकामां एम आव्युं छे के -जेम मातापिता विना पुत्र थतो नथी तेम आत्मा अने कर्म विना अशुद्धता थती नथी. परंतु ए तो त्यां प्रमाणनुं ज्ञान कराववा एम वात करी छे. अहीं कहे छे के जेम आत्मा अशुद्धतारूपे व्याप्यव्यापकभावथी परिणमे छे तेम पुद्गल पण आत्माने अशुद्धतारूपे परिणमावी दे छे एम कोई माने तो ते एम नथी. जीवद्रव्य अने पुद्गलद्रव्य बन्ने मळीने एक पर्यायपणे परिणमे एम छे नहि. जडकर्म कर्मनी पर्यायने करे अने जीवना अशुद्ध परिणामने पण करे एम छे नहि.

लोको मोटा वांधा उठावे छे. पण अहीं कहे छे के ज्ञानावरणादि कर्म जीवमां कांई करतुं नथी. विकार पोतानी पर्यायथी पोताना कारणे थाय छे. पोतानी षट्कारकनी


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परिणतिथी ते पर्याय थाय छे. तो कोई कहे छे के जो कर्मना निमित्त विना विकार थाय तो ते स्वभाव थई जाय! अरे भाई! विभावरूपे थाय ते पण जीवनो पोतानो पर्यायस्वभाव छे. ‘स्वस्य भवनम् स्वभावः’ पोतानी शुद्ध-अशुद्ध पर्यायरूपे परिणमन थाय ते पोतानो स्वभाव छे. आ त्रिकाळी स्वभावनी वात नथी. आ तो पर्यायस्वभावनी वात छे. पर्याय विभावरूप थाय ते पर्यायनो स्वभाव छे.

प्रश्नः– तो शुं कर्म विना विकार थाय छे?

उत्तरः– हा, निश्चयथी कर्म विना विकार पोताथी थाय छे. कर्मनी पर्याय कर्मथी थाय छे. जीवद्रव्य अने पुद्गलद्रव्य बंने मळीने एक पर्यायरूप परिणमतां नथी. जीवनी पर्यायने जीव करे अने जडकर्म पण करे एम छे नहि. कळशटीकामां कह्युं छे के- “भावार्थ आम छे के जीवद्रव्य-पुद्गलद्रव्य भिन्न सत्तारूप छे ते जो पहेलां भिन्न सत्तापणुं छोडी एक सत्तारूप थाय तो पछी कर्ता -कर्म-क्रियापणुं घटे. ते तो एकरूप थतां नथी तेथी जीव-पुद्गलनुं परस्पर कर्ता-कर्म-क्रियापणुं घटतुं नथी.

अशुद्ध परिणाम एकांत पोताथी थाय छे, कर्मथी बीलकुल नहि-आनुं नाम अनेकांत छे. कर्म पोतानी भिन्न सत्ता छोडी आत्मामां आवी जाय तो ते अशुद्ध परिणामने करे; पण एम बनतुं नथी. तेम जीव पोतानी सत्ता छोडी जडकर्मरूपे थाय तो ते कर्मपरिणामने करे. परंतु पोतानी सत्ता कोई द्रव्य त्रणकाळमां छोडतुं नथी. माटे जीव-पुद्गलनुं परस्पर कर्ता- कर्म-क्रियापणुं घटतुं नथी. पंडित राजमलजीए केटलुं स्पष्ट कर्युं छे. अहो! पहेलांना पंडितोए बहु सरस काम कर्युं छे.

पंडित बनारसीदास तो श्वेतांबरमां जन्मेला. पण दिगंबरनी वात सांभळी त्यां थई गयुं के मार्ग तो आ ज सत्य छे. अहीं कहे छे-बे द्रव्यनी एक परिणति थती नथी; ‘यतः’ कारण के ‘अनेकम् सदा अनेकम् एव’ अनेक द्रव्यो छे ते सदा अनेक ज रहे छे, पलटीने एक थई जतां नथी.

कळशटीकामां कळश पर ना भावार्थमां कह्युं छे के-“ ज्ञानावरणादि द्रव्यरूप पुद्गलपिंड-कर्मनो कर्ता जीव-वस्तु छे एवुं जाणपणुं मिथ्याज्ञान छे, केमके एक सत्त्वमां कर्ता- कर्म-क्रिया उपचारथी कहेवाय छे; भिन्न सत्त्वरूप छे जे जीवद्रव्य अने पुद्गलद्रव्य तेमने कर्ता-कर्म-क्रिया कयांथी घटशे?

आत्मा कर्मबंधननी पर्यायने करे अने जडकर्म जीवना विकारी परिणामने करे एवुं जाणपणुं ए मिथ्याज्ञान छे. एक सत्तामां पण कर्ता-कर्म ना भेद जो उपचार छे तो पर सत्तामां आत्मा करे अने आत्मानी सत्तामां पर करे ए वात त्रणकाळमां सत्य नथी. कर्मथी विकार थाय ए वात तद्दन खोटी छे. अन्यमतवाळा ईश्वरने कर्ता माने अने जैनो जडकर्मने कर्ता माने -ए बधुं समान रीते अज्ञान ज छे. अहीं तो कहे छे के


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अनेक द्रव्यो सदा अनेक ज रहे छे. जीव अने जड द्रव्यो भिन्न भिन्न अनेक छे ते अनेक ज रहे छे, पलटीने एक थई जतां नथी.

आ बधा अमे कार्यकर्ता छीए एम कहे छे ने! अरे भाई! परनुं कार्य तुं कदी करी शकतो ज नथी एम अहीं सिद्ध करे छे. * कळश प३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन * ‘बे वस्तुओ छे ते सर्वथा भिन्न ज छे, प्रदेशभेदवाळी ज छे. बन्ने एक थईने परिणमती नथी, एक परिणामने उपजावती नथी अने तेमनी एक क्रिया होती नथी- एवो नियम छे.’

परवस्तु जो पोतानी सत्तामां आवे तो पोतानुं कार्य करे; अने पोते पोतानो अभाव करी बीजानी सत्तामां प्रवेशे तो परनी क्रिया करे. पण एम छे नहि. बे वस्तुओ छे ते सर्वथा भिन्न ज छे. बेने प्रदेशभेद छे. परद्रव्यना प्रदेश अने स्वद्रव्यना प्रदेश भिन्न भिन्न ज छे. आत्मा पोताना असंख्य प्रदेशमां छे अने परमाणु पोताना एक प्रदेशमां छे. शुं कोईना प्रदेशमां कोई पेसे छे? ना; पोतानी सत्तामां परनी सत्तानो अभाव छे अने परनी सत्तामां पोतानी सत्तानो अभाव छे. हवे अभाव छे ते भावने कई रीते करे? भाई आ तो न्यायथी समजवानी वात छे. आ कारखानां चाले ते कार्य आत्मा करतो नथी. पोते (आत्मा) परमां जाय तो परवस्तुनुं कार्य करे, पण एम तो छे नहि. भाई! परनी अवस्था परथी थाय छे. आत्माथी कदी नहि. दूध छे ते अग्निथी उनुं थतुं नथी. अग्नि पोतानी सत्ता छोडी दूधमां प्रवेश करे तो दूधनी गरम अवस्थाने करे. पण अग्नि पोतानी सत्तामां रहे छे अने दूध दूधनी सत्तामां रहे छे. माटे दूध पोताथी उनुं थयुं छे, अग्निथी नहि. प्रश्नः– पाणी अग्निथी उनुं थयुं एम प्रत्यक्ष देखाय छे ने? उत्तरः– ना; पाणी अग्निथी उनुं थयुं नथी. तुं शुं देखे छे भाई? तुं अग्निने देखे छे के पाणीनी पोतानी अवस्थाने? अग्नि पाणीमां पेठी ज नथी. तारी द्रष्टिमां फेर छे, भाई! बे वस्तु सर्वथा भिन्न छे. बन्नेने प्रदेशभेद छे. माटे बेनुं मळीने एक परिणाम थतुं नथी. (पाणी पाणीनी गरम अवस्थाने करे अने अग्नि पण पाणीनी गरम अवस्थाने करे एम छे ज नहि.) तेम आत्मा अने कर्म बे एक थईने एक परिणामने ऊपजावतां नथी. अशुद्ध परिणामने आत्मा पण करे अने ज्ञानावरणादि कर्म पण करे एम त्रणकाळमां बनतुं नथी. जीवमां विकार थाय छे ते पोताथी थाय छे, कर्मथी नहि. भाई! शुं थाय, वस्तुनुं स्वरूप ज आम छे. कळश प४ मां कळश टीकाकारे कह्युं छे के- “ अहीं कोई मतान्तर निरूपशे के द्रव्यनी अनंत शक्तिओ छे, तो एक शक्ति एवी पण हशे के एक द्रव्य बे द्रव्योना परिणामने