Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 87.

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करे; जेवी रीते जीव द्रव्य पोताना अशुद्ध चेतनारूप राग-द्वेष-मोहपरिणामने व्याप्यव्यापकपणे करे तेवी ज रीते ज्ञानावरणादि कर्मपिंडने व्याप्यव्यापकपणे करे. उत्तर आम छे के द्रव्यने अनंत शक्तिओ तो छे परंतु एवी शक्ति तो कोई नथी के जेनाथी, जेवी रीते पोताना गुण साथे व्याप्यव्यापकपणे छे तेवी ज रीते परद्रव्यना गुण साथे पण व्याप्यव्यापकपणे थाय.”

प्रश्नः– तो मडदुं केम बोलतुं नथी?

उत्तरः– अरे भाई! आ बोलवानी भाषा छे ए तो जडनी पर्याय छे. जड पुद्गलो व्याप्यव्यापक थईने भाषापणे परिणमे छे, जीव तेमां व्याप्यव्यापकपणे नथी. अरे भगवान! पोतानी पर्याय स्वयंसद्धि पोताथी थाय छे अने परनी पर्याय परथी थाय छे एम जेने निर्णय नथी तेने आत्मा स्वतंत्र आनंदकंद प्रभु कर्मना उदयना संबंधरहित छे (अर्थात् राग रहित छे) ए केम बेसे? द्रव्यने निमित्तनो संबंध नथी; पर्यायमां निमित्तनो संबंध छे. पण द्रव्य तो ते पर्यायथी पण भिन्न छे. आवी वात काने पण भाग्य विना पडती नथी. आ तो दिव्यध्वनिमां आवेली परम सुखनी प्राप्तिनी वात छे.

समये समये जीव जीवनी पर्यायथी युक्त छे अने जड जडनी पर्यायथी युक्त छे. आत्मा पोतानी शुद्ध के अशुद्ध पर्यायथी युक्त छे अने पर पदार्थ पोतानी शुद्ध के अशुद्ध पर्यायथी युक्त छे. आम छे तो एकबीजानी पर्यायने करी दे एम होई शके नहि.

कर्म करे, कर्म करे-एम जैनमां पण मोटी गडबड चाले छे. पण पूजानी जयमालामां तो स्पष्ट आवे छे-

“कर्म
बिचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई
अग्नि सहै घनघात, लोहकी संगति पाई.”

जड कर्म तेनी पोतानी सत्तामां रहे छे. ते मारी सत्तामां आवे तो मने नुकशान करे. पण कर्म मारी सत्तामां तो आवतां नथी. अहाहा...! मारी पर्यायने कर्मनो उदय अडतो पण नथी. एकनी सत्ताने बीजानी सत्ता अडती नथी. आ तो त्रिलोकनाथ सर्वज्ञदेव परमात्माए जोयेली वात छे. दरेक द्रव्य पोतानी पर्यायथी युक्त स्वयंसिद्ध वस्तु छे. अरे भाई! कया समये द्रव्य पोतानी अनंत पर्यायथी युक्त नथी?

संतोए आगमचक्षु कह्या छे. आ आंख छे ए तो जड छे. सर्व जीव ईन्द्रियचक्षु छे, भगवान केवळी ज्ञानचक्षु छे अने छद्मस्थ ज्ञानी आगमचक्षु छे. भाई! आ इन्द्रियप्रत्यक्षनी चीज नथी.

अहीं द्रव्यथी पर्याय भिन्न छे ए वात नथी. द्रव्यनी पर्याय द्रव्य पोते करे छे,


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पर निमित्त नहि -एम अहीं सिद्ध करवुं छे. निश्चयथी तो पर्याय द्रव्यथी भिन्न छे. परमात्मप्रकाशनी गाथा ६८ मां कह्युं छे के जीव बंध अने मोक्षनी पर्यायने करतो नथी. पर्याय पर्यायथी पोताथी थाय छे. अहाहा...! जे (ज्ञाननी) पर्याय द्रव्यने जाणे ते पर्याय द्रव्यमां जती नथी अने द्रव्य पर्यायमां जतुं नथी. पर्याय लोकालोकने जाणे पण ते पर्याय लोकालोकमां जती नथी अने लोकालोक पर्यायमां पेसता नथी, आवी ज्ञाननी पर्याय पोते पोताथी थाय छे. आम प्रत्येक द्रव्यनी पर्याय पोते पोताथी ज थाय छे.

अहीं द्रव्य-पर्यायनी भिन्नतानी वात नथी. अहीं तो एटलुं सिद्ध करवुं छे के पोतानी पर्यायमां व्याप्यव्यापकपणे आत्मा छे अने जडनी पर्यायमां व्याप्यव्यापकपणे जड छे. अहीं तो बे द्रव्योना भेदनी वात छे. आत्मा पोताना परिणामने करे अने परना परिणामने पण करे एम नथी. लोको कहे छे के एक गायनो गोवाळ ते पांच गायोनो गोवाळ. एम जीव पोताना विकारने पण करे अने परनुं कार्य पण करे एम छे नहि. विकारी पर्याय विकाररूप पोताथी छे, परथी नथी. परवस्तु आत्मानी पर्यायने करे, अशुद्धताने करे एवुं जाणपणुं अज्ञान छे अने आत्मा परनुं कार्य करे एम जाणवुं ए पण अज्ञान छे.

ज्ञानावरणीय कर्मथी ज्ञाननी हीणी पर्याय थाय एम छे नहि; केमके ज्ञानावरणीय कर्म परद्रव्य छे अने ज्ञाननी हीणी दशा जीवमां पोतामां पोताथी थाय छे. अहीं सिद्धांत कहे छे के-‘बे द्रव्यो एक थईने परिणमे तो सर्व द्रव्योनो लोप थई जाय.’ विकारी पर्यायनुं सत्त्व पोताथी छे. जो एम न होय तो एक समयनी पर्यायनो लोप थई जाय अने तो द्रव्यनो पण लोप थई जाय, द्रव्य सिद्ध न थाय.

एक समयनी पर्याय चाहे तो मिथ्यात्वनी हो, रागद्वेषनी हो के विषयवासनानी हो-ते पर्याय जो जडकर्मथी थाय तो ते पर्यायनी सत्ता परथी थई. तो पर्यायनी सत्तानो लोप थई गयो. पर्यायनो लोप थतां द्रव्य पण सिद्ध न थयुं. आम सर्वद्रव्योनो लोप थई जाय. अरे भाई! त्रण काळनी पर्यायोनो पिंड अने अनंत गुणोनो पिंड ते द्रव्य छे. माटे पोतानी पर्याय पोताथी थाय, परथी न थाय एम सिद्ध थाय छे अने ते यथार्थ छे.

विकार छे ते एक समयनुं सत् छे, मिथ्यात्व उत्पन्न थाय ते पण ते समयनुं सत् छे. ते जो दर्शनमोहनीय कर्मथी थाय एम माने तो पर्यायनी स्वतंत्रतानो नाश थई जाय, तो द्रव्यनो पण नाश थई जाय. आम सर्व द्रव्योनो लोप थई जाय.

फरी आ अर्थेने द्रढ करे छेः-

* कळश प४ःश्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘एकस्य हि द्वौ कर्तारो न स्तः’ एक द्रव्यना बे कर्ता न होय. एटले के एक


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द्रव्यनी परिणतिना बे कर्ता न होय. द्रव्यनी परिणति ते वस्तु छे अने द्रव्य पण वस्तु छे. द्रव्यनी विकारी पर्याय पण वस्तु छे; ते विकार अवस्तु नथी. पर्याय पण पर्यायपणे वस्तु छे. आत्मानी अशुद्ध परिणति आत्मा पण करे अने जडकर्म पण करे-एम एक परिणतिना बे कर्ता न होय. भाषानी परिणतिने भाषावर्गणा पण करे अने जीव पण करे एम होतुं नथी एम अहीं कहे छे.

‘च’ वळी ‘एकस्य द्वे कर्मणी न’ एक द्रव्यनां बे कर्म न होय. विकारी परिणाम पण जीवनुं कर्म अने जडकर्मनो जे बंध थाय ए पण जीवनुं कर्म एम एक द्रव्यनां बे कर्म न होय. जडकर्मना उदयनी पर्याय थई ते पुद्गलनुं कर्म अने जीवमां जे विकारी परिणाम थया ते पण पुद्गलनुं कर्म एम एक द्रव्य बे द्रव्योनां कार्य न करे. केटली स्पष्टता करी छे! जीव बोलवानो राग पण करे अने बोलवानी भाषा पण करे एम एक द्रव्य बे कार्य न करे एम सिद्धांत कहे छे.

केटलाक अत्यारे एम कहे छे के विकार परथी थाय छे, पोताथी नहि-एम न माने ते मिथ्याद्रष्टि छे. अरे! लोकोने सत्य मळ्‌युं ज नथी त्यां शुं थाय? भाई! आ तो प्रभुनो मार्ग शूरानो छे, कायरनुं काम नथी. श्रीमदे कह्युं छे ने के-

“वचनामृत वीतरागनां, परम शांत रस मूळ;
औषध
जे भवरोगनां, कायरने प्रतिकूळ.”

विकार पर करावे, मारा पुरुषार्थना दोषथी न थाय-एम जे माने ते कायर छे केमके एने पुरुषार्थ ज जाग्रत नहि थाय. ते अज्ञानी कायर छे. अहीं कहे छे के एक द्रव्यनां बे कर्म एटले कार्य न होय. जड कर्म पोतानुं पण कार्य करे अने जीवना विकारनुं कार्य पण करे-एम न होय. अरे प्रभु! समज्या विना ‘जय भगवान, जय भगवान’ करे पण ए मार्ग नथी. तथा आ बहारनी पंडिताईनो मार्ग नथी. आ तो वस्तुना स्वरूपनी यथार्थ द्रष्टि करवानो मार्ग छे. खरेखर तो जे सम्यग्द्रष्टि छे ते ज पंडित छे; स्वामी कार्तिकेये पण एम कह्युं छे.

‘च’ अने ‘एकस्य द्वे क्रिये न’ एक द्रव्यनी बे क्रिया न होय. पूर्वनी पर्याय पलटीने आत्मा विकाररूपे थाय अने जडकर्मरूपे पण थाय एम एक द्रव्यनी बे क्रिया होती नथी. ‘यतः’ कारण के ‘एकम् अनेकम् न स्यात्’ एक द्रव्य अनेक द्रव्यरूप थाय नहि. केटलुं स्पष्ट कर्युं छे! पोतानी पर्याय परद्रव्यरूप न थाय अने परद्रव्यनी पर्याय पोतानी पर्यायरूप अर्थात् जीवरूप न थाय. एक द्रव्य अनेक द्रव्यनी परिणतिने न करे एम कहे छे.

प्रत्येक द्रव्यनी पर्याय एक पछी एक नियमसर थवानी होय ते ज थाय छे. निर्विकारी पर्याय पण पोताथी एक पछी एक क्रमबद्ध थवानी होय ते ज थाय छे. सर्व-


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विशुद्धज्ञान अधिकारमां (गाथा ३०८ थी ३११नी टीकामां) ‘क्रमनियमित’ शब्द पडयो छे. एक द्रव्यनी परिणति बीजा द्रव्यनी परिणतिरूप न थाय. बीजा द्रव्यनी परिणति पोताना द्रव्यरूप न थाय.

स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षामां एवो पाठ छे के-जड कर्मनी कोई अचिंत्य शक्ति छे के ते केवळज्ञानने रोके छे. ए तो पुद्गलमां उत्कृष्ट परिणमन केवुं थाय एनी त्यां वात करी छे. त्यां उपकारनुं-निमित्तनुं प्रकरण छे. एटले जेने केवळज्ञान प्रगट नथी तेने केवळज्ञानावरणीय कर्मनी प्रकृति निमित्त छे एम त्यां कह्युं छे.

वळी कोई एम कहे के विकार थवामां प० टका आत्मानो अपराध अने प० टका कर्मनो अपराध छे-तो एम नथी. सो ए सो टका आत्मा पोताना विकारनो कर्ता छे, अने निमित्तनुं एमां कांई कर्तव्य नथी, एक टको पण नहि. आत्माना सो टका आत्मामां, अने निमित्तना सो टका निमित्तमां छे, केमके तेमनो एकबीजामां अभाव छे. जीवनी विकारी पर्याय थाय एमां कर्मनी पर्यायनो अभाव छे अने कर्मना उदयमां जीवना विकारी परिणामनो अभाव छे. एकबीजामां अभाव होय तो ज भिन्न रही शके.

अहो! दिगंबर आचार्योए अजब-गजबनुं काम कर्युं छे. श्री अमृतचंद्रस्वामीए केवा कळश रच्या छे! लोकोए पोतानी द्रष्टि (अभिप्राय) छोडीने शास्त्र शुं कहे छे ते तरफ पोतानी द्रष्टि लगाववी जोईए.

प्रश्नः– विकार कर्मजनित छे एम शास्त्रमां ठेकठेकाणे आवे छे ने?

उत्तरः– हा, पण ए तो विभाव पोतानो (चैतन्यमय) स्वभाव नथी अने निमित्ताधीन थवाथी थाय छे ए अपेक्षाए एने कर्मजनित कह्यो छे. स्वभावजनित नथी माटे विकारने कर्मजनित कह्यो छे, पण कर्म छे ते पलटीने जीवना विकाररूप परिणम्युं छे एम नथी, कारण के एक द्रव्य अनेक द्रव्यरूप थाय नहि.

* कळश प४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आ प्रमाणे उपरना श्लोकोमां निश्चयनयथी अथवा शुद्ध द्रव्यार्थिकनयथी वस्तुस्थितिनो नियम कह्यो.’

ज्ञानावरणीयकर्म ज्ञानने रोके ए तो व्यवहारनयनुं कथन छे. एटले शुं? एटले एम छे नहि पण निमित्तनुं ज्ञान कराववा एम कहेवामां आव्युं छे. अरे! लोकोने आवो निर्णय करवानी कयां फुरसद छे? परंतु आ मनुष्यभवमां करवा जेवुं आ ज छे. यथार्थ निर्णय न कर्यो तो भाई! अहींथी छूटीने कयां जईश? चोरासीना चक्करमां गोथां खाईश. भाई! एकवार भूतार्थद्रष्टिथी मिथ्यात्वने छेदीने समकित प्रगट कर. आ ज करवा योग्य छे.

अरे भाई! मारी पर्याय पर करे अने परनी पर्याय हुं करुं ए तारी मोटी


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भ्रमणा छे. शुद्धद्रव्यार्थिकनयथी एटले निश्चयथी आ वस्तुस्थिति कही एटले व्यवहारथी बीजुं (अन्यथा) कथन छे एम आवी गयुं. निश्चयथी कह्युं ते सत्यार्थ छे एम निर्णय करवो अने व्यवहारनयथी कह्युं होय ते एम नथी पण निमित्तनुं ज्ञान कराववा एम कह्युं छे, एम समजवुं. ज्ञानावरणीयकर्मथी ज्ञान रोकाय ए तो कथनशैली छे. कथन बे प्रकारे छे, वस्तु तो एक ज छे. व्यवहारना कथनने एम ज (जेम लख्युं होय तेम ज) माननार मिथ्याद्रष्टि छे.

मोक्षमार्ग प्रकाशकना सातमा अधिकारमां कह्युं छे के-“व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्यने वा तेना भावोने वा कारण-कार्यादिने कोईना कोईमां मेळवी निरूपण करे छे माटे एवा श्रद्धानथी मिथ्यात्व छे.” वळी त्यां कह्युं छे के साचुं निरूपण ते निश्चय अने उपचार निरूपण ते व्यवहार. माटे निरूपणनी अपेक्षाए व्यवहारने मोक्षमार्ग कहेवामां आवे छे, पण एम छे नहि. (खरेखर व्यवहार मोक्षमार्ग ते मोक्षमार्ग नथी.) मोक्षमार्ग बे मानवा ते मिथ्यात्व छे. निश्चय अने व्यवहार बन्नेने उपादेय माने ते मिथ्यात्व छे. निश्चय अने व्यवहारनुं स्वरूप तो परस्पर विरुद्ध छे. व्यवहार अभूतार्थ छे, सत्यस्वरूपनुं निरूपण करतो नथी, पण कोई अपेक्षाथी निरूपण करे छे.

शुद्धनय भूतार्थ छे. जेवी वस्तुनी स्थिति होय तेवुं निरूपण करे छे. पंडित श्री टोडरमलजीने आचार्यकल्प कहेवामां आव्या छे. शास्त्रनां रहस्य खोलीने मोक्षमार्ग-प्रकाशकमां भरी दीधां छे. अहीं कहे छे-शुद्ध द्रव्यार्थिकनयथी वस्तुस्थितिनो नियम कह्यो. आनाथी विरुद्ध ते अनियम छे. जेने सम्यग्दर्शन थाय ते स्वाश्रयथी-निश्चयथी थाय, व्यवहारथी के परथी न थाय ए नियम छे, आ सिद्धांत छे.

आत्माने अनादिथी परद्रव्यना कर्ताकर्मपणानुं अज्ञान छे. ते जो परमार्थनयना ग्रहणथी एक वार पण विलय पामे तो फरीने न आवे-एम हवे कहे छेः-

* कळश पपः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘इह’ आ जगतमां ‘मोहिनाम्’ मोही (अज्ञानी) जीवोनो ‘परं अहं कुर्वे’ परद्रव्यने हुं करुं छुं ‘इति महाहंकाररूपं तमः’ एवा परद्रव्यना कर्तृत्वना महा अहंकाररूप अज्ञानांधकार-‘ननु उच्चकैः दुर्वारं’ के जे अत्यंत दुर्निवार छे ते-‘आसंसारतः एव धावति’ अनादि संसारथी चाल्यो आवे छे. शुं कहे छे? हुं देशनी सेवा करुं छुं, परनी दया पाळुं छुं, परने सुखी करुं छुं, परने मारी शकुं छुं अने बचावी शकुं छुं इत्यादि अनेक प्रकारे अज्ञानीओने परद्रव्यना कर्तापणानो अहंकार छे, पण ते अज्ञान छे. कुंभार कहे के घडानी पर्याय माराथी थई, बाई कहे के दाळ-भात आदि रसोई में करी, गुमास्तो कहे के में सारा अक्षरे नामुं लख्युं अने शेठ कहे के में वेपार कर्यो-आ प्रमाणे परद्रव्यनी क्रियानो पोताने कर्ता माने ते बधा अहंकाररूप अज्ञान-अंधकारमां डूबेला मिथ्याद्रष्टि छे.


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आवो मार्ग श्री सीमंधर भगवाने धर्मसभामां कह्यो छे अने ते ज मार्ग श्री कुंदकुंदाचार्य अहीं लाव्या छे. अज्ञानी माने के ‘परं अहं कुर्वे’ पर द्रव्यने हुं करुं छुं. पण परद्रव्यने कोण करे? परद्रव्यनो अर्थ अहीं परद्रव्यनी पर्याय करवो. अहाहा...! आ शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय, कर्म इत्यादि परद्रव्यनी क्रियाने हुं करुं छुं एम जे माने छे ते अहंकारी, अज्ञानी, मिथ्याद्रष्टि छे. हुं बीजाओने सुंदर वक्तव्य-व्याख्यान वडे समजावी दउं एम अज्ञानी माने छे. बीजाने कोण समजावी दे? अरे भाई! भाषा तो जड छे. ते जडना पोताना कारणे थाय छे. जीभ, होठ आदि हले ते पोताना कारणे हले छे, ते आत्माना विकल्पने कारणे हले छे एम नथी. भाषा जे शब्दनो विकार छे ते तो पोताना कारणे पोते भाषारूप थाय छे. अने समजनार पण पोते पोतानी योग्यताथी पोताना कारणे समजे छे. आवुं ज वस्तुस्वरूप छे. आ मोटां कारखानां चाले ते समये ते ते पुद्गलोनी जे पर्याय थवा योग्य होय ते पुद्गलोथी थाय छे. त्यां बीजो कोई (उद्योगपति आदि) एम कहे के माराथी कारखानां चाले छे तो ते परद्रव्यना कर्तापणाना अहंकाररसथी भरेलो अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे.

अहा! जगतमां मोही अज्ञानी जीवोने परद्रव्यना कर्तापणानो महा अहंकार छे अने ते अज्ञान छे. आवुं अज्ञान तेमने अनादि संसारथी चाल्युं आवे छे अने ते दुर्निवार छे, टाळवुं महा कठण छे. आ अज्ञान महा पुरुषार्थ वडे ज टाळी शकाय एम छे.

हवे कहे छे-‘अहो’ अहो! ‘भूतार्थपरिग्रहेण’ परमार्थनयनुं अर्थात् शुद्ध द्रव्यार्थिक अभेदनयनुं ग्रहण करवाथी ‘यदि’ जो ‘तत् एकवारं विलयं व्रजेत्’ ते एक वार पण नाश पामे ‘तत्’ तो ‘ज्ञानघनस्य आत्मनः’ ज्ञानघन आत्माने ‘भूयः’ फरीथी ‘बन्धनम् किं भवेत्’ बंधन केम थाय? जीव ज्ञानघन छे माटे यथार्थ ज्ञान थया पछी ज्ञान कयां जतुं रहे? न जाय. अने ते ज्ञान न जाय तो फरी अज्ञानथी बंध कयांथी थाय? कदी न थाय.

हुं परद्रव्यनी क्रियाने करुं छुं एवुं मोही जीवोने अनादि संसारथी अज्ञान चाल्युं आवे छे. अनादि संसार एटले द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भव अने भावरूप परावर्तन जीवने अनादिथी छे. शुभाशुभभावनुं परावर्तन एने अनादिथी चाल्युं आवे छे. पण ते अज्ञान छे. आ अज्ञान अत्यंत दुर्निवार छे. रागने घटाडी मंदरागपणे वा शुभराग रूपे परिणमवुं ए तो सहेली वात छे. एवा शुभभाव एणे अनंतवार कर्या छे. पण सम्यग्दर्शन पामवा माटे शुभराग कांई वस्तु नथी. भाई! आ तो धर्मनी पहेली सीडीनी वात छे. अहीं कहे छे के ‘भूतार्थपरिग्रहेण’-अहो! परमार्थनयनुं अर्थात् शुद्धद्रव्यार्थिक अभेदनयनुं ग्रहण करवाथी जो ते एक वार पण नाश पामे तो ज्ञानघन आत्माने फरी बंधन केम थाय? कदी न थाय.


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भूतार्थ नाम त्रिकाळी ध्रुव ज्ञायकभावरूप शुद्ध चैतन्यमय वस्तु. अहाहा! तेनो समस्त प्रकारे एकवार अनुभव करे तो मिथ्यात्वनो नाश थई जाय छे. समयसारनी ११मी गाथा जैनशासननो प्राण छे. त्यां पण एम कह्युं छे के ‘भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो’–भूतार्थ नाम त्रिकाळी शुद्ध ज्ञायकवस्तुनो आश्रय करवाथी निश्चय सम्यग्दर्शन थाय छे. अहाहा...! एक समयमां पूर्णानंदनो नाथ भगवान स्वयंज्योति सुखधाम अंदर पर्याय विनानी पोतानी चीज पडेली छे. तेनो आश्रय करे त्यारे पर्यायमां तेनो अनुभव थाय छे ते सम्यग्दर्शन छे. ते धर्मनुं प्रथम पगथियुं छे. आ सिवाय बीजा बधा क्रियाना विकल्पो फोक छे, निरर्थक छे.

‘भूतार्थपरिग्रहेण’-आने माटे परमार्थनय शब्द कह्यो छे. भूतार्थ नाम परमार्थनय. परमार्थ एटले-परा कहेतां उत्कृष्ट, मा एटले लक्ष्मी एवो जे अर्थ एटले पदार्थ. अहाहा...! भूतार्थ एटले त्रिकाळी छतो पदार्थ जे भगवान आत्मा तेने अहीं उत्कृष्ट लक्ष्मीवंत पदार्थ एटले परमार्थ कह्यो छे. लौकिकमां तो परनुं कांईक करे तेने परमार्थ कहे छे. अहीं तो परनुं करे एने तो अज्ञान कह्युं छे. हुं दान आपुं, हुं आहार आपुं, हुं कपडां आपुं, हुं बीजाने सुखी करुं एवो परनी क्रिया करवानो भाव छे ते अहंकार छे अने ते मिथ्यात्व छे, परमार्थ नथी. उत्कृष्ट लक्ष्मीवंत ज्ञानानंदस्वभावी भगवान आत्मा परमार्थ छे, भूतार्थ छे.

भगवान त्रिलोकनाथ भूतार्थ पदार्थ छे. प्रभु! आ अलौकिक चीज छे! एक समयमां भूतार्थ-छती चीज, पलटाती पर्याय विनानी चीज एवी त्रिकाळी एकरूप चीज तेने अहीं भूतार्थ कही छे. अहीं भूतार्थपरिग्रहेण-एम जे कह्युं छे एना माटे चार शब्द कह्या छे. भूतार्थ एक, परमार्थनय बे, शुद्ध द्रव्यना अनुभवनुं जेमां प्रयोजन छे ते शुद्ध द्रव्यार्थिकनय त्रण अने अभेदनय चार. अहाहा! अभेद एकरूप त्रिकाळी नित्यानंद ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु सद्रशस्वभाव जे प्रत्येक पर्यायमां अन्वयरूप रहे ते सदा एकरूप चीजने अहीं अभेदनय कहेल छे. पर्यायबुद्धि छोडीने त्रिकाळी छता पदार्थनो अनुभव करवानुं अहीं कहेलुं छे, केमके परमार्थरूप भूतार्थनो अनुभव करवाथी सम्यग्दर्शन थाय छे, अरे भाई! पांच परावर्तनरूप संसारमां शुभाशुभभावरूप परावर्तन तुं अनंतवार करी चूकयो छे. शुभभाव तो तुं अनादि संसारथी करतो आव्यो छुं अने में शुभभाव कर्या एवा अहंकाररूपे ज तुं परिणम्यो छुं. भगवान! अंदर पंचपरावर्तनना भावथी भिन्न तारी चीज शुद्ध ज्ञायकभावे पडी छे तेनो आश्रय कर. केमके ते वडे सम्यग्दर्शन थाय छे.

भगवाननो मार्ग अति सुक्ष्म छे. लोको तो बाह्य शुभभावमां अने परद्रव्यनी क्रियामां अनादिकाळथी अहंपणुं करी रह्या छे. पोतानी जे त्रिकाळी शुद्ध वस्तु ‘अहम्’ ते बाजु पर रही गई छे. त्रिकाळी शुद्ध भगवान आत्मा ते ‘अहम्’–हुं एवो


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अनुभव रही गयो छे. गाथा १७-१८मां आवे छे के भगवान आत्मा एक समयमां पूर्णानंद प्रभु बाळगोपाळ सर्वमां बिराजे छे. बाळगोपाळ तो देहनी अवस्था छे, पण अंदर ज्ञायक प्रभु त्रिकाळ छती चीज बिराजे छे. ते ज्ञाननी स्वपरप्रकाशक पर्यायमां जाणवामां आवे छे. पण अज्ञानीनी त्यां द्रष्टि नथी तेथी ते पोताने मानतो नथी, तेने अनादिथी रागनुं ज, शुभाशुभभावनुं परिग्रहण छे. अहीं कहे छे के भाई! रागनुं ग्रहण तो अनंतवार कर्युं, पण ए तो अभूतार्थ चीज छे. भगवान आत्मा ज एक भूतार्थ छे. ए भूतार्थना परिग्रहथी- आश्रयथी सम्यग्दर्शन थाय छे.

चोथी गाथामां कह्युं छे के-रागनी कथा, बंधननी कथा तो अनंतवार सांभळी छे, एनो परिचय अने एनो अनुभव पण अनादि संसारथी चाल्यो आवे छे. अहीं कहे छे के भगवान! एक वार गुलांट खा. प्रभु! एक वार पलटो खा. भूतार्थने पकडीने भूतार्थनो अनुभव कर. ज्ञाननी पर्यायमां भूतार्थनो अनुभव करवो ते सम्यग्दर्शन छे, अने ते भूतार्थनय छे. अरे भाई! आ मनुष्यपणुं मळ्‌युं अने भगवान आत्मानो पाको निर्णय अने अनुभव न कर्यो तो जिंदगी एम ने एम व्यर्थ चाली जशे. जेवी पोतानी चीज छे तेने अनुसरीने तेनो अनुभव करवो ए ज करवा योग्य छे.

कोई कहे छे के दिगंबर छे तेने समकित तो छे, भेदज्ञान तो छे. हवे व्रत धारण करे तो चारित्र थई जाय. एम न होय प्रभु! लोकोने निश्चय समकितनी खबर नथी अने बहारनी तत्त्वार्थ-श्रद्धा, व्यवहार-श्रद्धाना रागने धर्म माने छे. पण मार्ग एम नथी, भाई! ऊंधुं मानवामां तो आत्मानी छेतरपींडी छे. पूर्णानंदना नाथ भगवान आत्मानो ज्यां अनुभव नथी त्यां जे क्रियाकांड छे ते बधो अज्ञानभाव छे, संसारभाव छे. बहारथी उपवासादि करे पण ए बधां बाळतप छे. आवी क्रिया तो अनंतकाळमां जीवे अनंतवार करी, पण मिथ्यात्व टळ्‌युं नहि तो शुं कर्युं? आवी वात आकरी लागे पण शुं थाय? आचार्यदेव कहे छे के एकवार भूतार्थ पदार्थ तारी परमार्थ त्रिकाळी ध्रुव वस्तुनो अनुभव कर.

कळशटीकामां आवे छे के पठनपाठन, पंचपरमेष्ठीनुं स्मरण, चिंतन, स्तुति इत्यादि बधुं तो जीवे अनंतवार कर्युं छे. लोकोने बिचाराओने अभ्यास नहि; उपरथी थोडुं सांभळी ले, निर्णय करे नहि अने अहोनिश वेपारधंधा इत्यादि अशुभमां व्यर्थ समय गाळे. पण भाई! तुं कयां जईश ए विचारतो नथी! त्यां रळवा माटे जेटलो प्रयत्न करे छे तेथी अधिक आ समजवा माटे प्रयत्न करवो जोईए. अन्यथा माथे अनंत संसारनी डांग ऊभेली ज छे.

जो गुलांट खाय तो एक क्षणमां भूतार्थना आश्रये सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. आचार्य अमृतचंद्रस्वामीए (कळश ३४मां) कह्युं छे के-छ मास अभ्यास कर. एक-


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वार लगनी लगाड; तने तत्त्वनी उपलब्धि थशे. उपलब्धि न थाय एवी तारी वस्तु नथी. छ मास लगातार प्रयत्न कर. जेम मातानी आंगळीथी नानुं बाळक छूटुं पडी जाय अने तेने कोई पूछे के-तारुं नाम शुं? तारुं घर कयुं? तारी शेरी कई? तो बाळक कहे के ‘मारी बा’. माताना विरहे बाळक पण एक बानुं ज चिंतवन करे छे. तेम प्रभु! तने अनंतकाळथी आत्मानो विरह छे. अने आत्मा आत्मा एम चिंतवन न थाय अने एनी समीप तुं न जाय तो आ जीवन व्यर्थ चाल्युं जशे. भाई! सघळां काम छोडीने आ करवा जेवुं छे. स्तुति, वंदना वगेरे बहारनी क्रियाना विकल्पोने तो विषरूप कह्या छे, केमके भगवान अमृतस्वरूप आत्माथी ते विरुद्ध भाव छे. तो ए झेरने छोडी तारी चीजमां ज्यां एकलुं अमृत भर्युं छे त्यां जा, त्यां जा.

शास्त्रमां आवे छे के-जेना दर्शन अने ज्ञानमां आत्मा समीप छे अने राग दूर छे ते ज्ञानी छे. अज्ञानीने राग समीप छे अने आत्मा दूर छे. परमात्मप्रकाश दोहा ३६मां आवे छे के जेने रागनी रुचि छे तेवा अज्ञानीने आत्मा हेय छे अने ज्ञानीने राग हेय छे अने त्रिकाळी शुद्ध भूतार्थ वस्तु उपादेय छे. अरे भगवान! तारी बलिहारी छे, पण तारी तने खबर नथी. आ बहारनी लक्ष्मी, आबरू, विषय, वासना, वगेरे भाव तो पापभाव छे. अने पठन, पाठन, स्तुति, भक्ति वगेरे जे शुभभाव आवे तेने पण भगवान झेर कहे छे. ए झेरथी अमृतनी-आत्मानी प्राप्ति नहि थाय. भगवाननो आ मार्ग छे; लोकोए तेने बगाडी नाख्यो छे. कळश १८९मां कह्युं छे के-‘विषं एत प्रणीतं’–शुभक्रियारूप विकल्पो विष छे. अंदर आनंदनो कंद भगवान आत्मा बिराजे छे ते एकनो ज अनुभव अमृत छे अने ते ज सम्यग्दर्शन छे, धर्म छे. आठ वर्षनी बालिका पण सम्यग्दर्शन पामे छे ते अंदर एक भूतार्थ भगवान आत्मानो अनुभव करीने सम्यग्दर्शन पामे छे. आ ज रीत छे.

मेरु पर्वतथी उपर प्रथम स्वर्ग सौधर्म देवलोक छे. तेमां बत्रीस लाख विमान छे. एक विमानमां असंख्य देव छे. ते स्वर्गनो स्वामी शक्र-इन्द्र एक भव करीने मोक्ष जवानो छे. ते हवे पछी मनुष्यनो देह पामी केवळज्ञान प्रगट करी मोक्षपद पामशे. तेनी स्त्री इन्द्राणी-शची छे. ते जन्मी त्यारे मिथ्याद्रष्टि हती केमके समकित होय तो स्त्री पर्यायमां जन्मे नहि. उपजे त्यारे मिथ्यात्वसहित होय छे, पछी समकितने प्राप्त थाय छे. ते इन्द्राणी पण एक भव करीने मोक्ष पामशे. अन्य संप्रदायमां मल्लिनाथने स्त्री पर्याय ठरावी छे ते जूठुं छे. स्त्री पर्यायमां मोक्ष माने ते बधुं कल्पित छे. अहा! संप्रदायमांथी नीकळवुं लोकोने कठण पडे अने तेमांथी नीकळे तो शुभभावमांथी नीकळवुं कठण पडे. अहीं तो कहे छे के-भूतार्थ शुद्ध चिद्रूप एकरूप वस्तुनुं एकवार ग्रहण कर. भाई! त्रिकाळी शुद्ध ध्रुव वस्तुना अनुभव विना सम्यग्दर्शन नहि थाय. लाख


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क्रियाकांडना विकल्प करे, मुनिपणुं बहारथी ले, पण भूतार्थना अनुभव विना समकित नहि थाय अने समकित विना धर्मनी शरूआत नहि थाय.

दिगंबरमां देव-गुरु-शास्त्र सत्य छे. छतां दिगंबरोने सत्य वस्तुनी खबर नथी. अहीं कहे छे के सर्व विकल्पोने छोडी दे अने त्रिकाळ सच्चिदानंद भगवान आत्मानो एकवार अनुभव कर. अरे भाई! एटलो निर्णय तो प्रथम कर के निर्मळानंदनो नाथ त्रिकाळी शुद्ध चिदानंद प्रभु अंदर बिराजे छे तेना अनुभवथी सम्यग्दर्शन थाय छे. ए सिवाय बहारथी देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धा करवी के नवतत्त्वना भेदनी श्रद्धा करवी ते सम्यग्दर्शन नथी.

कळशटीकामां छठ्ठा कळशमां कह्युं छे केइमाम् नवतत्त्वसन्ततिम् मुक्त्वाजीव- अजीव-आस्रव-बंध-संवर-निर्जरा-मोक्ष-पुण्य-पापना अनादि संबंधने छोडीने जीव पोताना स्वरूपनो अनुभवनशील थाओ. भावार्थ आम छे-संसार अवस्थामां जीवद्रव्य नवतत्त्वरूप परिणम्युं छे ते तो विभावपरिणति छे, तेथी नवतत्त्वरूप वस्तुनो अनुभव मिथ्यात्व छे. नवतत्त्वना भेदवाळी द्रष्टि ए मिथ्यात्व छे.

‘तत्त्वार्थश्रद्धानम् सम्यग्दर्शनम्’–सूत्रमां एकवचन छे. त्यां अभेदनी वात छे. भूतार्थनुं ग्रहण करवाथी नवतत्त्वनी पर्यायनुं ज्ञान यथार्थ थाय छे. अथवा भूतार्थनी श्रद्धा करवाथी आ त्रिकाळी चीज ते भूतार्थ छे अने संवर आदि नवतत्त्व छे ते एमां नथी एवुं यथार्थ ज्ञान-श्रद्धान थाय छे अने ते सम्यग्दर्शन छे.

अहो! भूतार्थ एटले परमार्थनयनुं अर्थात् शुद्धद्रव्यार्थिक अभेदनयनुं ग्रहण करवाथी जो ते (अज्ञान) एक वार पण नाश पामे तो ज्ञानघन आत्माने फरी बंधन केम थाय? एकवार पण स्वसन्मुखपणे अंतर्द्रष्टि थई पछी तेनो नाश थतो नथी. द्रव्यनो नाश थाय तो द्रष्टिनी पर्यायनो नाश थाय. पण द्रव्य तो त्रिकाळ ज्ञानघन सदा मोजुद छे. तेथी अनुभवनी द्रष्टिनो नाश थतो नथी. केटली जोरदार द्रढताथी वात करी छे. (सम्यग्दर्शन) पडी जाय ए वात अहीं लीधी नथी. आ तो वीरनी वातो छे. त्यां कायरनुं काम नथी. कह्युं छे ने के-

जे मार्गे सिंह संचर्या, तरण लागी रज,
ए ऊभा खड सूकशे, नहि चरशे हरण.

समकिती सिंह जे मार्गे विचर्या अने तेनी जे वाणी आवी ते, आ एकांत छे एवां भय अने शंका जेने लागे ते कायर नहि स्वीकारे. बापु! आ वीतरागनी वाणी सांभळवा मळे ए महाभाग्य होय तो मळे छे अने धीर-वीरने ते पचे छे.

अहीं कहे छे-भूतार्थनो अनुभव करतां एक वार मिथ्यात्वनो नाश थाय तो ज्ञानघन आत्माने फरीथी बंध केम थई शके? आवी आ अप्रतिहत सम्यग्दर्शननी वात


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छे. आचार्यदेव छे तो छद्मस्थदशामां पण जोरदार वात करी छे. आ पंचम आराना मुनिनुं कथन छे. अमृतचंद्रदेवे हजार वर्ष पहेलां आ वात करी छे. आत्माने पंचम आराथी शुं संबंध छे? बहु ऊंची वात करी छे. एक तो भूतार्थना परिग्रहनी वात करी अने बीजी वात ए करी के एकवार मिथ्यात्वनो नाश थाय पछी मोह फरीथी उत्पन्न नहि थाय, फरी बंधन नहि थाय. चारित्रना दोषनो थोडो बंध छे पण ते मुख्य नथी. अल्प स्थिति-रस पडे छे तेने बंध गणवामां आव्यो नथी.

प्रभु! तुं जेमां उदयभावनो प्रवेश नथी एवो ज्ञानघन आत्मा छो. एनुं एकवार यथार्थ ज्ञान थया पछी ज्ञान कयां जतुं रहे? न जाय. अने जो ज्ञान न जाय तो फरी अज्ञानथी बंध कयांथी थाय? कदी न थाय. अहाहा...! अप्रतिहत क्षयोपशम समकित छे ते क्षायिक समकित साथे जोडाई जशे. अहीं पडवानी वात करी नथी. जे चडया ते पडे केवी रीते? भगवान चिदानंद पर आरूढ थया ते केम पडे? अरे! आ तो वीरोनो वीरपंथ छे. कायरनां अहीं काम नथी. कोई पडी जाय तो? अरे! अहीं पडवानी कयां मांडी?

मीराबाईना नाटकमां वैराग्यनुं द्रश्य आवे छे. राणो कहे छे के मीरां! तुं मारा राज्यमां आव, तने पट्टराणी बनावुं. त्यारे जवाबमां मीरां कहे छे-

“परणी मारा पियुजीनी साथ, बीजानां मींढळ नहि रे बांधुं,
राणा! बीजानां मींढळ नहि रे बांधुं.”

अहा! आवुं द्रश्य जोईने वैराग्यनी धून चढी जती. एम धर्मी जीव कहे छे के-

“अमने रुचिमां छे आतमदेव, बीजे (रागमां) अमने रुचे नहि”

अमे भगवान आत्मानी प्रतीति करी छे, हवे अमारे बीजानो प्रेम न होय.

सीताजीनुं अपहरण करीने रावण लंकामां लई गयो. पछी त्यां बगीचामां सीताजीने मनाववा जाय छे. त्यारे सीताजी रावणने कहे छे-रामचंद्र सिवाय स्वप्ने पण अमने बीजो पति न होय. रावण! दूर उभो रहेजे; नहितर सतीना मुखमांथी नीकळेलां वचन तने भस्म करी देशे. हुं तो पतिव्रता स्त्री छुं. बीजानुं लक्ष अमने स्वप्ने पण न होय. एम अहीं धर्मी कहे छे के अमने एकवार भेदज्ञान थयुं छे. हवे अमे पडवाना नथी. फरीने अमने बंध नहि थाय. अहाहा...! जगतने उपदेश आपता आचार्यदेव केटला जोरथी वात करे छे!

एकवार सम्यग्ज्ञान प्रगट थया पछी अज्ञान केम आवे? अने फरी बंध कयांथी थाय? कदी न थाय.


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* कळश पपः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अहीं तात्पर्य एम छे के-अज्ञान तो अनादिनुं ज छे. परंतु परमार्थनयना ग्रहणथी, दर्शनमोहनो नाश थईने, एकवार यथार्थ ज्ञान थईने क्षायिक सम्यक्त्व ऊपजे तो फरी मिथ्यात्व न आवे. मिथ्यात्व नहि आवतां मिथ्यात्वनो बंध पण न थाय. अने मिथ्यात्व गया पछी संसारनुं बंधन कई रीते रहे? न ज रहे अर्थात् मोक्ष ज थाय एम जाणवुं.’

पोताना त्रिकाळी स्वभावने भूलीने राग अने परवस्तु मारां छे अने हुं तेनो कर्ता छुं एवुं मोहरूपी अज्ञान अनादिनुं छे. आम तो अज्ञान एक एक समयनुं छे. बीजा समये बीजुं, त्रीजा समये त्रीजुं एम परंपराथी प्रवाहरूपे अज्ञान अनादिनुं छे. अज्ञाननी पर्यायनो प्रवाह अनादिथी छे तेथी अज्ञान अनादिनुं कह्युं छे. एवी पर्यायने ग्रहण करवी ते पर्यायबुद्धि छे. आ पर्यायबुद्धिनो त्याग करीने त्रिकाळी शुद्ध आत्मद्रव्यनुं ग्रहण करवुं ते जैनधर्म छे. जैनधर्म छे ते पर्याय छे पण तेनी द्रष्टि द्रव्य उपर छे-अने तेने परमार्थनयनुं ग्रहण कहे छे. अहीं भावार्थमां परमार्थनयनुं ग्रहण एम एक ज शब्द लीधो छे. टीकामां भूतार्थ, परमार्थ, शुद्ध द्रव्यार्थिक नय अने अभेदनयनुं ग्रहण एम चार शब्द लीधा हता. ते बधानो एक ज अर्थ छे. अहाहा...! वस्तु त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यस्वभावमय छती मोजूदगीवाळी चीज महाप्रभु छे. तेने जेवी छे तेवी ज्ञान अने श्रद्धानमां लईने अनुभव करतां मिथ्यात्वनो नाश थई सम्यक्त्व उपजे छे.

ज्ञाननो स्वभाव ज स्वपरप्रकाशक छे. तेथी अज्ञानीने पण ज्ञाननी पर्यायमां स्व एटले पोतानो आत्मा सदा जाणवामां आवे ज छे. परंतु तेनी द्रष्टि स्व उपर जती नथी. तेनी द्रष्टि राग अने पर्याय उपर ज रहे छे. तेथी पोताने पोते जणातो होवा छतां द्रष्टि अन्यत्र रहेती होवाथी अज्ञानी हुं आ (आत्मा) छुं एम मानतो नथी. तेने कहे छे-भाई! तारी महत्ता अपरंपार छे. त्रणलोकनो नाथ अनंतगुणनी समृद्धिथी भरेलो तुं चिदानंद भगवान छे. तारी द्रष्टि तुं त्यां स्थाप. तेथी मिथ्यात्वनो नाश थईने तने सम्यग्दर्शन थशे अने पछी फरीथी मिथ्यात्व नहि थाय. राग अने पर्याय परथी द्रष्टि हठावीने तारी चैतन्यमय त्रिकाळी चीज प्रति द्रष्टि कर.

श्रद्धानी पर्याय जाणती नथी. जाणे छे तो ज्ञाननी पर्याय. श्रद्धानी पर्याय स्व तरफ झुकवाथी द्रव्यनी श्रद्धा थाय छे. श्रद्धानी पर्याय अनादिथी पर तरफ-राग अने निमित्त तरफ झुकेली छे. ते श्रद्धानी पर्याय त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य तरफ झुके तो द्रव्य ज तेनी श्रद्धामां आवे छे अने तेनुं ज नाम धर्म छे. श्रद्धामां आ द्रव्य छे एवुं ज्ञान नथी. श्रद्धानी पर्याय अंतर्मुख वळी त्यां आ आत्मा ते ज हुं एम भगवान आत्मानी


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प्रतीति थई ते सम्यग्दर्शन धर्मनुं पहेलुं पगथियुं छे. साथे जे अनुभूति छे तेमां एनो ख्याल आवे छे.

अरे भाई! शुभभावनो तने केम आटलो प्रेम छे? शुभभाव तो अभविने पण थाय छे. निगोदना जीवने पण शुभभाव थता होय छे. शुभभाव ए तो कर्मना संगे थतो विकार छे. लसणनी एक बारीक कटकीमां असंख्य औदारिक शरीर होय छे. अने ते दरेकमां अनंत निगोदिया जीव होय छे. ते दरेक जीवने क्षणे शुभ क्षणे अशुभ एवा भाव थया करे छे. माटे शुभभाव ए कोई नवी अपूर्व चीज नथी. नियमसारमां (श्लोक १२१मां) आवे छे के कथनमात्र एवा व्यवहाररत्नत्रयना परिणामने भवसागरमां डूबेला जीवे अनंतवार कर्या छे. अरे भाई! भवना भाव उपरथी द्रष्टि खसेडीने गुलांट खा. श्रद्धानी पर्याय शुद्ध चैतन्यमय वस्तुमां अंदर जाय ते अपूर्व चीज छे. पलटो खाईने तुं अंतरमां-वस्तुमां ढळी जा. तेथी तने अलौकिक अनुभव सहित सम्यग्दर्शन थशे. आ रागनी मंदता अने परलक्षी जाणपणुं ए कोई चीज नथी. परमार्थनयना ग्रहणथी मिथ्यात्वनो नाश थाय ए मुदनी चीज छे.

भगवान आत्मा शुद्धचैतन्यमय वस्तुमां झुकाव करवाथी जे भूतार्थनो अनुभव थयो ते अनुभवथी मिथ्यात्वनो नाश थाय छे, कषायनी मंदताथी मिथ्यात्वनो नाश थतो नथी. कषायनी मंदता होय तो अनंतानुबंधी अने दर्शनमोहनो रस थोडो पडे छे. पण ए कांई चीज नथी. राग मंद थाय ते कांई वस्तु नथी, केमके शुभना काळमां मिथ्यात्वनो रस मंद हो पण एनाथी कांई मिथ्यात्वनो नाश थतो नथी. आवी ज वस्तुस्थिति छे अने ते अनंत तीर्थंकरोए एम ज जाणी छे अने कही छे.

अहीं आचार्यदेव कहे छे के एकवार अनुभव थयो पछी बंधन केम थाय? स्वरूपनी सावधानीमां अनुभवना काळे दर्शनमोहनो नाश थाय छे. त्यां प्रथम उपशम समकित थईने क्षयोपशम समकित थाय छे. ते क्षयोपशम पण पडवानुं नथी एम कहे छे. द्रव्यनो अभाव थाय तो क्षयोपशम समकित पडी जाय एम जोरदार वात करी छे. मिथ्यात्व गया पछी रागथी अल्पबंधन थाय ते अहीं गणतरीमां नथी, केमके जे भावथी अनंत संसार वधे ते भावने संसार अने बंधन (मुख्यपणे) कहेवामां आव्युं छे.

एकवार ज्ञान थईने क्षायिक समकित ऊपजे तो फरी मिथ्यात्व न आवे. मिथ्यात्व नहि आवतां मिथ्यात्वनो बंध पण न थाय. अने मिथ्यात्व गया पछी संसारनुं बंधन कई रीते रहे? न ज रहे अर्थात् मोक्ष ज थाय एम जाणवुं. मिथ्यात्व छे ए ज आस्रव-बंध छे. शक्तिरूप स्वभावनो-मोक्षस्वरूप स्वभावनो अनुभव थयो तेने व्यक्तिरूप मोक्ष थशे ज थशे, पडवानी वात ज नथी.


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फरीने विशेषताथी कहे छेः- * कळश प६ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन * ‘आत्मा’ आत्मा तो ‘सदा’ सदा ‘आत्मभावान्’ पोताना भावोने ‘करोति’ करे छे अने ‘परः’ परद्रव्य ‘परभावान्’ परना भावोने करे छे; ‘हि’ कारण के ‘आत्मनः भावाः’ पोताना भावो छे ते तो ‘आत्मा एव’ पोते ज छे अने ‘परस्य ते’ परना भावो छे. ते ‘परः एव’ पर ज छे (ए नियम छे). आत्मा कां तो पोताना शुद्ध चैतन्यपरिणामने करे, कां तो पोताना अशुद्ध चैतन्यपरिणामने करे. कां तो पोताना सम्यग्दर्शन-ज्ञान परिणामने करे, कां तो मिथ्यात्वरागद्वेषना परिणामने करे; पण परद्रव्यना परिणामने कदीय न करे. पोताना भावने पोते करे अने परना भावने पर करे छे. ज्ञानावरणीय कर्मना आस्रवना छ कारण तत्त्वार्थसूत्रमां कह्यां छे. त्यां छ कारणरूप जे जीवना परिणाम तेनो कर्ता जीव छे पण ज्ञानावरणीय कर्मनी पर्यायनो कर्ता आत्मा नथी. षोडशकारण भावनाना परिणामनो कर्ता आत्मा छे पण तीर्थंकरप्रकृतिनो जे बंध थाय तेनो कर्ता आत्मा नथी. ज्ञानीने कर्ताबुद्धिथी शुभभाव थता नथी; पण परिणमन छे ते अपेक्षाए तेने कर्ता कहेवाय छे. शुभभाव करवा लायक छे एवी बुद्धि तो समकितीने उडी गई होय छे. तेथी परिणमननी अपेक्षाए ज्ञानी ते शुभभावनो कर्ता हो, पण तीर्थंकरनामकर्मनी प्रकृतिनो जे बंध थाय छे तेनो ते कर्ता नथी. अकर्मदशा हती ते पलटीने तीर्थंकरनाम-कर्मरूप दशा थई तेनो आत्मा कर्ता नथी; तेनो कर्ता कर्म-पुद्गल छे. दया, दान आदिना भाव थाय तेनुं ज्ञानीने परिणमन होय पण ते दयाना भाव वडे परनी दया पाळी शके छे एम नथी. परना परिणामने आत्मा करी शके एम छे ज नहि. परना भावनो कर्ता परद्रव्य छे. बोलवानी भाषानी जे पर्याय छे ते परनो भाव छे. ते ते परमाणु ते भावना कर्ता छे. बोलवाना रागरूप परिणाम थाय तेनो कर्ता आत्मा छे. रागनुं परिणमन थाय छे ते अपेक्षाए ज्ञानीने तेनो कर्ता कहेवामां आवे छे. पण ते राग करवा लायक छे एम ज्ञानी मानता नथी. रागना स्वामीत्वपणे ज्ञानी परिणमता नथी. परद्रव्यना कर्ताकर्मपणानी मान्यताने अज्ञान कहीने एम कह्युं छे के जे एवुं माने ते मिथ्याद्रष्टि छे. परनी सेवा करी शकुं छुं, बीजानुं दुःख टाळी शकुं छुं, बीजाने आहार-पाणी, कपडां इत्यादि दई शकुं छुं. आवुं माने ते मिथ्याद्रष्टि छे. क्षायिक समकिती होय एवा मुनिने पण राग आवे छे, परिणमननी अपेक्षाए ते एना कर्ता छे, पण ए करवा लायक छे एम ते मानता नथी. [प्रवचन नं. १४७ थी १प२ * दिनांक प-८-७६ थी १०-८-७६]


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गाथा–८७

मिच्छत्तं पुण दुविहं जीवमजीवं तहेव अण्णाणं।
अविरदि जोगो मोहो
कोहादीया इमे भावा।। ८७।।
मिथ्यात्वं पुनर्द्विविधं जीवोऽजीवस्तथैवाज्ञानम्।
अविरतिर्योगो मोहः क्रोधाद्या इमे भावाः।। ८७।।

परद्रव्यना कर्ताकर्मपणानी मान्यताने अज्ञान कहीने एम कह्युं के जे एवुं माने ते मिथ्याद्रष्टि छे; त्यां आशंका ऊपजे छे के-आ मिथ्यात्वादि भावो शी वस्तु छे? जो तेमने जीवना परिणाम कहेवामां आवे तो पहेलां रागादि भावोने पुद्गलना परिणाम कह्या हता ते कथन साथे विरोध आवे छे; अने जो पुद्गलना परिणाम कहेवामां आवे तो जेमनी साथे जीवने कांई प्रयोजन नथी तेमनुं फळ जीव केम पामे? आ आशंका दूर करवाने हवे गाथा कहे छेः-

मिथ्यात्व जीव अजीव द्विविध, एम वळी अज्ञान ने
अविरमण,
योगो, मोह ने क्रोधादि उभयप्रकार छे. ८७.

गाथार्थः– [पुनः] वळी, [मिथ्यात्वं] जे मिथ्यात्व कह्युं ते [द्विविधं] बे प्रकारे छे- [जीवः अजीवः] एक जीवमिथ्यात्व अने एक अजीवमिथ्यात्व; [तथा एव] अने एवी ज रीते [अज्ञानम्] अज्ञान, [अविरतिः] अविरति, [योगः] योग, [मोहः] मोह अने [क्रोधाद्याः] क्रोधादि कषायो- [इमे भावाः] आ (सर्व) भावो जीव अने अजीवना भेदथी बब्बे प्रकारे छे.

टीकाः– मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि जे भावो छे ते प्रत्येक, मयूर अने दर्पणनी जेम, अजीव अने जीव वडे भाववामां आवता होवाथी अजीव पण छे अने जीव पण छे. ते द्रष्टांतथी समजाववामां आवे छेः-जेम घेरो वादळी, लीलो, पीळो आदि (वर्णरूप) भावो के जेओ मोरना पोताना स्वभावथी मोर वडे भाववामां आवे छे (-बनावाय छे, थाय छे) तेओ मोर ज छे अने (दर्पणमां प्रतिबिंबरूपे देखाता) घेरो वादळी, लीलो, पीळो इत्यादि भावो के जेओ (दर्पणनी) स्वच्छताना विकारमात्रथी दर्पण वडे भाववामां आवे छे तेओ दर्पण ज छे; तेवी ज रीते मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि भावो के जेओ अजीवना पोताना द्रव्यस्वभावथी अजीव वडे भाववामां ________________________________________________________________________ * ८६ मी गाथामां द्विक्रियावादीने मिथ्याद्रष्टि कह्या हता तेनी साथे संबंध करवाने अहीं ‘पुनः’ शब्द छे.


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आवे छे तेओ अजीव ज छे अने मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि भावो के जेओ चैतन्यना विकारमात्रथी जीव वडे भाववामां आवे छे तेओ जीव ज छे. भावार्थः– पुद्गलना परमाणुओ पौद्गलिक मिथ्यात्वादि कर्मरूपे परिणमे छे. ते कर्मनो विपाक (उदय) थतां तेमां जे मिथ्यात्वादि स्वाद उत्पन्न थाय छे ते मिथ्यात्वादि अजीव छे; अने कर्मना निमित्तथी जीव विभावरूप परिणमे छे ते विभाव परिणामो चेतनना विकार छे तेथी तेओ जीव छे. अहीं एम जाणवुं केः-मिथ्यात्वादि कर्मनी प्रकृतिओ छे ते पुद्गलद्रव्यना परमाणु छे. जीव उपयोगस्वरूप छे. तेना उपयोगनी एवी स्वच्छता छे के पौद्गलिक कर्मनो उदय थतां तेना उदयनो जे स्वाद आवे तेना आकारे उपयोग थई जाय छे. अज्ञानीने अज्ञानने लीधे ते स्वादनुं अने उपयोगनुं भेदज्ञान नथी तेथी ते स्वादने ज पोतानो भाव जाणे छे. ज्यारे तेमनुं भेदज्ञान थाय अर्थात् जीवभावने जीव जाणे अने अजीवभावने अजीव जाणे त्यारे मिथ्यात्वनो अभाव थईने सम्यग्ज्ञान थाय छे. * * * समयसार गाथा ८७ः मथाळुं परद्रव्यना कर्ताकर्मपणानी मान्यताने अज्ञान कहीने एम कह्युं के जे एवुं माने ते मिथ्याद्रष्टि छे; त्यां आशंका ऊपजे छे के-आ मिथ्यात्वादि भावो शी वस्तु छे? जो तेमने जीवना परिणाम कहेवामां आवे तो पहेलां रागादि भावोने पुद्गलना परिणाम कह्या हता ते कथन साथे विरोध आवे छे; अने जो पुद्गलना परिणाम कहेवामां आवे तो जेमनी साथे जीवने कांई प्रयोजन नथी तेमनुं फळ जीव केम पामे? आ आशंका दूर करवाने हवे गाथा कहे छेः- * गाथा ८७ः टीका उपरनुं प्रवचन * मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि जे भावो छे ते प्रत्येक, मयूर अने दर्पणनी जेम, अजीव अने जीव वडे भाववामां आवता होवाथी अजीव पण छे अने जीव पण छे. ते द्रष्टांतथी समजाववामां आवे छेः- जेम घेरो वादळी, लीलो, पीळो आदि (वर्णरूप) भावो के जे मोरना पोताना स्वभावथी मोर वडे भाववामां आवे छे (-बनावाय छे, थाय छे) तेओ मोर ज छे अने (दर्पणमां प्रतिबिंबरूपे देखाता) घेरो वादळी, लीलो, पीळो इत्यादि भावो के जेओ (दर्पणनी) स्वच्छताना विकारमात्रथी दर्पण वडे भाववामां आवे छे तेओ दर्पण ज छे.’ जुओ, लीलो, पीळो, वादळी जे मोरनो रंग छे ते मोरनो भाव छे माटे तेओ मोर ज छे. दर्पणमां जे प्रतिबिंब देखाय छे ते मोरनी पर्याय नथी; ते दर्पणनी स्वच्छतानो विकारमात्र छे; माटे ते दर्पण ज छे. अरीसामां जे अवस्था थई ते अरीसाथी


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थई छे, मोरने लईने ते थई नथी. मोरमां जे रंग देखाय छे ते मोर छे अने अरीसामां जे छे ते अरीसानी स्वच्छताना विकारमात्रथी थयेली अरीसानी अवस्था छे. मोर मोरमां छे अने अरीसामां जे देखाय छे ते अरीसानी स्वच्छतानो विकार छे.

प्रश्नः– मोर निमित्त तो छे?

उत्तरः– हा, मोर निमित्त छे एनो अर्थ ज ए के अरीसानी अवस्था मोरथी थई नथी. अने त्यारे तो ते निमित्त कहेवामां आवे छे; मोरथी जो ते अरीसानी अवस्था थई छे एम कहो तो मोर अरीसानी अवस्थानुं उपादान थई जाय.

अन्यमतवाळा इश्वरने कर्ता माने छे अने कोई जैनो विकारनो कर्ता कर्मने माने छे तो ते बन्ने मान्यता एक सरखी जूठी छे. अरीसानी अवस्था अरीसानी स्वच्छताना विकारने लईने थई छे, मोरने लईने ते थई नथी.

‘तेवी ज रीते मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि भावो के जेओ अजीवना पोताना द्रव्यस्वभावथी अजीव वडे भाववामां आवे छे तेओ अजीव ज छे अने मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि भावो के जेओ चैतन्यना विकारमात्रथी जीव वडे भाववामां आवे छे तेओ जीव ज छे.’

ज्ञानावरणीय आदि कर्म ते जडनी पर्याय छे. जडनी पर्यायनो भाव जडरूप छे. मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति ए जडनी अवस्था जडमां थाय छे. मिथ्यादर्शन ते दर्शनमोहनीय कर्मनी पर्याय, अज्ञान ते ज्ञानावरणीय कर्मनी पर्याय अने अविरति ते चारित्रमोहनीय कर्मनी पर्याय छे. क्रोध, मान, माया अने लोभ ते चारित्रमोहनीय कर्मनी पर्याय छे. कर्मनो उदय आवे ते जडनी पर्याय छे. कर्मना उदयथी जीवमां विकार थाय छे एम नथी. दर्शनमोहनीय कर्मनी पर्याय ते अजीवना द्रव्यस्वभावथी थई छे. जीवे मिथ्यात्वना भाव कर्या तो त्यां दर्शनमोहनीय कर्मनी पर्याय थई एम नथी. अने दर्शनमोहकर्मनो त्यां जडमां उदय आव्यो तो अहीं जीवमां मिथ्यात्वनी पर्याय थई एम नथी. परमाणुनी पर्याय त्यां पोताना द्रव्यस्वभावथी थई छे, अजीव वडे थई छे माटे ते अजीव ज छे.

जीवमां मिथ्या श्रद्धा अने राग द्वेषना परिणाम थाय ते जीव वडे थाय छे माटे ते जीव ज छे. अज्ञानीने भेदज्ञान नथी तेथी ते माने छे के राग थाय छे ते कर्मकृत छे. अहीं तो चोकखी वात करी छे के पाणी उनुं थाय छे ते अग्नि विना उनुं थाय छे. अग्निनी पर्याय अग्निमां छे ते अग्नि ज छे अने पाणीनी उष्ण पर्याय पाणीमां छे. पाणी अग्निथी उष्ण थयुं छे एम नथी. चोखा पाके छे ते चोखानी पोतानी पर्याय छे, उना पाणीथी चोखा पाके छे एम छे नहि.


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केटलाक कहे छे के-विकार कर्मथी थाय अने पोताथी पण थाय एम मानीए तो अनेकांत थाय. अरे भाई! ए अनेकांत छे ज नहि. विकार पोताथी थाय अने कर्मथी न थाय ए साचुं अनेकांत छे. जेम कुंभारथी घडो थयो नथी, अग्निथी पाणी उष्ण थयुं नथी तेम निमित्तथी जीवमां विकार थयो नथी. (निमित्तथी उपादानमां कांई थतुं नथी).

लोकोने लागे के आ तो साधारण भूल छे. पण भाई! आ तो मोटी मूळमां भूल छे. चारित्रमोहनो उदय छे माटे अहीं अव्रतना परिणाम थाय छे एम नथी. अविरति आदि भाव पोताथी थाय छे. कर्मना उदयथी अज्ञान थाय छे, कर्मना उदयथी मिथ्यात्व थाय छे के कर्मना उदयथी अविरति-विषयवासनाना भाव थाय छे एम छे नहि. दर्शनमोहनी पर्याय ते अजीवनो भाव छे अने तेथी अजीव ज छे. ज्ञानावरणीय कर्म ते अजीवनो भाव छे अने तेथी ते अजीव ज छे. अने जीवमां अज्ञान थाय ते जीवथी पोताथी थाय छे माटे ते जीव ज छे. मिथ्याश्रद्धा जीवनी पर्यायमां जीवथी थाय छे माटे ते जीव छे अने दर्शनमोहकर्मनी पर्याय छे ते अजीव छे.

बहु स्पष्ट वात छे के कर्मथी जीवने विकार थतो नथी. कर्मने लईने जो जीवनी भूल होय तो कर्म टळे तो भूल मटे; पोताना पुरुषार्थथी भूल मटे एम न रह्युं! पण एम छे नहि. पोताना पुरुषार्थथी भूल मटे छे.

राग द्वेषने कथंचित् पुद्गलना परिणाम कह्या छे ए बीजी वात छे. त्यां तो पोताना स्वभावमां राग उत्पन्न थाय एवी कोई शक्ति नथी. राग जीवनो स्वभाव नथी, विभाव छे. एटले रागथी भगवान आत्मा भिन्न छे एवुं भेदज्ञान थतां (सम्यग्दर्शन थतां) समकितीने आत्मा व्यापक अने निर्मळ पर्याय तेनुं व्याप्य छे. वळी राग एनी पर्यायमांथी भिन्न पडी जाय छे. एटले कर्म व्यापक अने राग तेनुं व्याप्य-एम गणीने निमित्तनी मुख्यताथी रागने पुद्गलना परिणाम कह्या छे.

अहीं कहे छे के ज्यां सुधी मिथ्यात्वना भाव छे त्यां सुधी मिथ्यादर्शन, अज्ञान अने राग द्वेष ते जीवनी पर्याय छे. ते जीव ज छे. परना कारणे, कर्मना कारणे बीलकुल ते पर्याय थई नथी. कुंभारथी घडो बीलकुल थयो नथी. गाथा ३७२ मां स्पष्ट कह्युं छे के-“जीवने परद्रव्य रागादिक उपजावे छे एम शंका न करवी; कारण के अन्य द्रव्य वडे अन्य द्रव्यना गुणनो उत्पाद करावानी अयोग्यता छे.” अन्य द्रव्यथी अन्य द्रव्यना गुणनी उत्पत्ति करी शकाती नथी. तेथी ए सिद्धांत छे के सर्व द्रव्यो पोतपोताना स्वभावथी ऊपजे छे. अहीं गुणनो अर्थ पर्याय थाय छे. पोतानी पर्यायनी योग्यताथी ते पर्याय उत्पन्न थाय छे. मिथ्यादर्शननी पर्याय पण पर्यायनी योग्यताथी पोतामां उत्पन्न थाय छे; परथी के कर्मथी बीलकुल नहि. तेम


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आत्माथी कर्मबंधननी पर्याय उत्पन्न करावानी अयोग्यता छे. कर्मबंधनी पर्याय पोतानी योग्यताथी कर्मबंधपणे उत्पन्न थाय छे.

त्यारे कोई एम कहे के विकार थवामां प० टका कर्मना अने प० टका जीवना राखो. अहीं कहे छे के सो ए सो टका विकार जीवना परिणाममां पोताथी थाय छे; कर्मना कारणे एक टको पण नहि. उपादानना सो ए सो टका उपादानमां अने निमित्तना सो ए सो टका निमित्तमां छे. आत्मामां मिथ्यात्वनो भाव थयो ते सो ए सो टका पोताथी थयो छे; एक टको पण निमित्तना-दर्शनमोहकर्मना कारणे जीवमां मिथ्यात्वभाव थयो नथी.

लोको तो खावुं, पीवुं, रळवुं इत्यादि बहारमां अशुभमां रोकाई गया छे. तेमने आनो निर्णय करवानी कयां फुरसद छे? पण भाई! आनो यथार्थ निर्णय कर्या विना तने केटलुं नुकशान थई रह्युं छे तेनी तने खबर नथी. अरे! पछी तुं सर्वशक्ति (निर्णय करवानी) खोई बेसीश. अहीं निर्णय करावे छे के-जीव पोताना ऊंधा पुरुषार्थथी मिथ्यात्वादिपणे परिणमे छे अने पोताना सवळा पुरुषार्थथी मिथ्यात्वादिना नाशपणे (सम्यक्त्वादिपणे) परिणमे छे; तेमां परद्रव्यनुं रंचमात्र पण कारण नथी. परद्रव्य परद्रव्यमां स्थित छे. ते पोतानी सत्तामां आवतुं नथी. परद्रव्यनी सत्ता पोतामां आवी जाय तो परद्रव्यनी सत्तानो नाश थई जाय. आत्मा परद्रव्यनी सत्तामां प्रवेश करे तो परद्रव्यनी पर्याय करी शके. परंतु परद्रव्यनी सत्तामां आत्मा जाय तो पोतानी सत्तानो नाश थई जाय. पण एम कदीय बनतुं नथी. (कोई द्रव्य पोतानी सत्ता छोडतुं नथी). एक समयनी पर्यायसत्ता पण पोतानी पोतामां रहे छे. आवी ज वस्तुस्थिति छे. माटे पोते परनुं कांई करे अने पर पोतानुं कांई करे ए वात त्रणकाळमां संभवित नथी.

निगोदना जीवथी मांडी परमाणु आदि सर्वद्रव्यो पोताना स्वभावथी ज उत्पन्न थाय छे. पोतानी पर्यायनी योग्यताथी विकार आदि उत्पन्न थाय छे, परने लईने बीलकुल उत्पन्न थतो नथी. पूजानी जयमालामां आवे छे के-

“कर्म बिचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई.”

कर्म छे ए तो जडनी पर्याय छे. भूल तो पोतामां पोताना कारणे थाय छे. कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, अधिकरण एवा पोताना षट्कारकथी जीवमां विकार थाय छे. निश्चयथी विकार परकारकोनी अपेक्षा विना पोताथी थाय छे. जेम कुंभार वडे घडो करावानी अयोग्यता छे तेम कर्म वडे जीवनो विकार करावानी अयोग्यता छे.

माटी पोताना स्वभावने नहि उल्लंघती होवाने लीधे, कुंभार घडानो उत्पादक छे ज नहि; माटी ज कुंभारना स्वभावने नहि स्पर्शती थकी, पोताना स्वभावथी कुंभभावे


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ऊपजे छे. तेवी ज रीते मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि भावो के जेओ अजीवना पोताना द्रव्यस्वभावथी अजीव वडे भाववामां आवे छे तेओ अजीव ज छे अने मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि भावो के जेओ चैतन्यना विकारमात्रथी जीव वडे भाववामां आवे छे तेओ जीव ज छे.

अरे! जेने बे द्रव्यो वच्चे भिन्नता करवानी ताकात नथी तेने राग अने स्वभावने भिन्न करवानी ताकात कयांथी आवशे? रागथी भिन्न अंदर ज्ञायकस्वरूप चैतन्यस्वभावमय अतीन्द्रिय आनंदनो कंद भगवान आत्मा बिराजे छे. तेनो आश्रय करवाथी धर्मनी दशा- आनंदनी दशा उत्पन्न थाय छे. व्यवहारथी के रागथी धर्मनी दशा उत्पन्न थाय एम अमे देखता नथी एम आचार्यदेव कहे छे.

कोई एम कहे के सम्यग्दर्शन थया पछी जे अव्रतना परिणाम थाय छे ते चारित्रमोहकर्मना कारणे थाय छे; तेने कहे छे के एम नथी. जुओ, बळदेवे वासुदेवनुं मडदुं छ मास माटे खभे फेरव्युं त्यां चारित्रमोहना उदयना कारणे ते भाव आव्यो हतो एम नथी. ते भाव स्वयं पोताना कारणे थयेलो छे, चारित्रमोहनो उदय तो निमित्तमात्र छे.

एक छूटो परमाणु सूक्ष्म छे. ते स्थूळ स्कंधमां भळतां स्थूळताने धारण करे छे. तो ते स्थूळने लईने सूक्ष्ममांथी स्थूळ थयुं एम बीलकुल नथी. पोतानी पर्यायनी योग्यताथी सूक्ष्ममांथी स्थूळ थाय छे. बीजा परमाणुमां बीजाने स्थूळ करवानी अयोग्यता छे. ते परमाणुनी स्थूळ थवानी पोतानी योग्यता छे माटे ते सूक्ष्म पलटीने स्थूळ थाय छे.

रागथी आत्माने लाभ थाय, व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय ए मान्यता मिथ्यादर्शन छे. पंचास्तिकायमां भिन्न साध्य-साधननी वात करी छे ते उपचारथी करी छे. वळी राग पोते करे अने नाखे कर्मना माथे तो ते पण अनीति-अन्याय छे. श्रीमद् राजचंद्रजीए कह्युं छे के तारो संसार तारा अपराधथी छे; तारो अपराध एटलो के पोताने भूलीने परने तुं पोतानुं माने छे. श्रीमद् राजचंद्रजी सम्यग्दष्टि अनुभवी पुरुष हता. अल्पकाळमां मोक्ष जवाना छे. तेमनी क्षयोपशम शक्ति अजब हती. तेमणे संक्षेपमां कह्युं छे के-जीव पोताना अपराधथी संसारमां रखडे छे, कर्मना कारणे रखडे छे एम नथी.

अहो! दिगंबर संतोए अलौकिक मार्ग कह्यो छे. कहे छे के-मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि भावो के जे चैतन्यना विकारमात्रथी जीव वडे भाववामां आवे छे ते जीव ज छे. विकारमात्रथी एटले पोतानी विकृत अवस्थाथी जीवमां विकार थयो छे, निमित्तथी थयो छे एम बीलकुल नथी. जेम लीली, पीळी आदि अवस्थापणे अरीसो