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पोते परिणम्योछे ते अरीसानी स्वच्छतानो विकार छे. त्यां मोर परिणम्यो छे एम नथी. तथा ए दर्पणनी विकृति मोरने लईने थई छे एम नथी. मोर तो निमित्तमात्र छे. तेम आत्मामां जे विकार थाय छे ते आत्मानी पर्याय छे. कर्म त्यां विकारपणे परिणम्युं नथी. कर्मने लईने विकार थयो छे एम नथी. कर्म तो निमित्तमात्र छे. जीवमां विकार तेनी पोतानी योग्यताथी थयो छे. अज्ञानदशामां विकारनी क्रिया करवावाळो जीव छे अने भेदज्ञानपूर्वक सम्यग्दर्शन थतां ज्ञानी द्रव्यद्रष्टिए विकारने परनो जाणे छे कारण के ते चैतन्यनो स्वभाव नथी. आवी वात छे.
प्रश्नः– कर्मनुं जोर छे तो जीव धर्म करी शकतो नथी ने?
उत्तरः– ना, एम नथी. कर्मनुं जोर कर्ममां छे. कर्मनी जीवमां नास्ति छे. पण पोते ऊंधो पुरुषार्थ करीने परवलणना भावो करे तो धर्म थतो नथी अने तेमां कर्म तो निमित्तमात्र छे. पोते पुरुषार्थने सुलटावीने स्ववलण करे तो धर्म अवश्य थाय छे. धर्म करवामां कर्म नडतुं नथी अने विकारपणे परिणमे त्यां पण कर्म कांई करतुं नथी.
एक भाई कहेता हता के भविष्यनुं आयुष्य बंधाई गयुं छे माटे परिणाम सुधरता नथी. जुओ, श्रेणीक राजाने नरकनुं आयुष्य बंधाई गयुं तो चारित्र लई शकया नहि. आ मान्यता बराबर नथी. नरकनुं आयुष्य बंधाई गयुं होय तोपण जीव सम्यग्दर्शन पामे छे. श्रेणीक राजाए सातमी नरकनुं आयुष्य बांध्युं हतुं. पछी सम्यग्दर्शन पाम्या; अने आयुष्यनी स्थिति तूटी गई. गति न फरी, पण आयुष्यनी स्थिति तूटी गई. श्रेणीक राजा क्षायिक समकित पाम्या छे अने त्यां नरकमां क्षणे क्षणे तीर्थंकरगोत्र बांधे छे. नरकगतिनो बंध पडयो माटे चारित्र न लई शकया ए वात बराबर नथी. पोताना एवा ज पुरुषार्थना कारणे चारित्र लई शकया न होता. श्रेणीक राजाने नरकमां जवानी भावना न हती पण कर्म लई गयां एम कोई कहे तो ते वात पण यथार्थ नथी. नरकमां जवानी पोतानी वर्तमान पर्यायनी योग्यताथी ते नरकमां गया छे. नरकनुं आयुष्य बांध्युं माटे नरकमां जवुं पडयुं एम नथी. पोतानी पर्यायनी योग्यताथी क्षेत्रांतर थईने नरकमां गया छे; कर्मना कारणे बीलकुल नहि एम अहीं कह्युं छे.
‘पुद्गलना परमाणुओ पौद्गलिक मिथ्यात्वादि कर्मरूपे परिणमे छे. ते कर्मनो विपाक (उदय) थतां तेमां जे मिथ्यात्वादि स्वाद उत्पन्न थाय छे ते मिथ्यात्वादि अजीव छे; अने कर्मना निमित्तथी जीव विभावरूप परिणमे छे ते विभाव परिणामो चेतनना विकार छे तेथी तेओ जीव छे.’
मरचामां तीखाशनुं जीवने ज्ञान थतां तीखाशनो मने स्वाद आव्यो एवो
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अज्ञानीने भ्रम थाय छे. साकरमां मीठाश छे. ते जडनी अवस्था छे. ते मीठाशनुं जीवने ज्ञान थतां मने मीठाशनो स्वाद आव्यो एम अज्ञानी भ्रमथी माने छे. तेम कर्मनो उदय आवतां तेमां मिथ्यात्वादि स्वाद उत्पन्न थाय छे. अहीं स्वादनो अर्थ एम छे के कर्मना उदयनो जे रस छे ते ज्ञानमां ख्यालमां आवे छे. कर्मना उदयनो रस तो जडनी पर्याय छे. ते जडनो स्वाद आत्मामां केम आवे? कर्मनो विपाक थतां तेमां मिथ्यात्वादि स्वाद उत्पन्न थाय छे एटले उदयना रसनुं जीवने ज्ञान थाय छे त्यां अज्ञानीने एम भ्रम थाय छे के जडना स्वादनुं मने वेदन थाय छे.
पोताना उपयोगमां मिथ्यात्वादिनो रस ख्यालमां आवे छे पण ज्ञानमां एनो रस आवतो नथी. जेम तीखाश, मीठास, खटाश ज्ञानमां ख्यालमां आवे छे पण ते तीखाश, मीठाश, खटाश ज्ञानमां आवती नथी. तेम कर्मना उदयनो रस ज्ञानमां ख्यालमां आवे छे पण ते स्वाद पोतानो नथी; ते स्वाद परनो छे. ते मिथ्यात्वादि अजीव छे, जड छे. जेम तीखाश, मीठाश वगेरे जड छे तेम मिथ्यात्वादि कर्मनो उदय पण जड छे.
जीवने पोताना मिथ्यात्वभावनुं वेदन थाय छे, पण जड मिथ्यात्वनुं (कर्मनुं) वेदन जीवने थतुं नथी. ज्ञानमां जडना रसनो ख्याल आवे छे त्यां जडनो हुं स्वाद लउं छुं एम अज्ञानी माने छे. जडनी पर्याय रूपी छे ते अरूपी जीवमां आवती नथी. ज्ञान जडना रसने- स्वादने जाणे छे पण ते जडनो स्वाद कांई ज्ञानमां आवी जतो नथी. सूक्ष्म वात छे, भाई! पण आ प्रमाणे न मानतां जडनो स्वाद मने आव्यो एवुं मानीने अज्ञानी जीव मिथ्यात्वभावनुं सेवन करे छे. जुओ, लाडु खाय त्यां लाडुना स्वादनुं ज्ञान थाय छे, पण लाडुनो स्वाद ज्ञानमां पेसतो नथी. लाडुनो स्वाद तो जड छे, रूपी छे अने भगवान आत्मा तो चैतन्यस्वरूप अरूपी छे. ए अरूपीने रूपीनो स्वाद केम आवे? न ज आवे. तेम कर्मनो उदय छे ते जड छे. ए जडनो स्वाद ज्ञान जाणे छे. पण अज्ञानीने भेदज्ञान नथी तेथी जडना स्वादनो ज्ञानमां ख्याल आवतां मने जडकर्मनो स्वाद आव्यो एम मानी मिथ्यात्वनुं सेवन करे छे.
कर्मनो विपाक थतां जे मिथ्यात्वादि स्वाद उत्पन्न थाय छे ते मिथ्यात्वादि अजीव छे. अहीं तो जडकर्म अने आत्मा वच्चे भेदज्ञान करवानी, परथी हुं भिन्न छुं एम प्रतीति करवानी वात चाले छे. पछी मिथ्यात्व अने रागद्वेषना विकारी भावोथी स्वना आश्रये भेदज्ञान थाय छे. कर्मना उदयथी विकार थयो अने विकारना कारणे कर्मबंधन थयुं एम माने एने तो व्यवहारश्रद्धानां पण ठेकाणां नथी. हजी व्यवहारश्रद्धानां पण ठेकाणां न होय एने रागथी भिन्न निज चैतन्यस्वरूपनो अनुभव केम थाय? अहो! जैन तत्त्वज्ञान बहु गंभीर अने सूक्ष्म छे!
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भाई! आ तो अंतरनी परम सत्यनी वातो छे; आ कोई कल्पना नथी. कर्मना निमित्तथी जीव विभावरूप परिणमे छे. ते विभाव परिणामो चेतनना विकार छे तेथी तेओ जीव छे. जीवना परिणामो मिथ्यात्वादि थाय छे ते पोताथी थाय छे. अने कर्मनो उदय जे निमित्त छे ते जडना भाव छे तेथी जड छे, अजीव छे. जडना उदयना परिणाम जडमां छे. बे वच्चे निमित्तनैमित्तिक संबंध छे. पण निमित्त (कर्म) कर्ता छे अने विकार एनुं कार्य छे एम त्रणकाळमां नथी. तेम जीवनो विकार कर्ता अने जड कर्मनो बंध एनुं कार्य छे एम पण नथी. भैया भगवतीदासना निमित्त-उपादानना ४७ दोहा छे एमां बधुं घणुं स्पष्ट कर्युं छे.
विकारनी पर्याय पोताना षट्कारक-कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, अधिकरण-थी थाय छे; केमके कर्ता, कर्म आदि शक्ति द्रव्यरूप अने गुणरूप छे तो पर्यायमां पण षट्कारक परिणमन छे. एक समयनी मिथ्यात्वनी पर्यायनो कर्ता मिथ्यात्व, एनुं कर्म मिथ्यात्व, एनुं करण मिथ्यात्व, एनुं संप्रदान मिथ्यात्व अने एनां अपादान अने अधिकरण मिथ्यात्व छे. मिथ्यात्वनुं कर्ता आदि जड कर्म नथी अने जीवना द्रव्य-गुण पण नथी; केमके जड कर्म पर छे अने द्रव्य-गुण त्रिकाळ शुद्ध छे. आमां निमित्तनो अने निश्चय-व्यवहारनो खुलासो आवी जाय छे.
तेवी रीते पोताना द्रव्यनो आश्रय लईने जे सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्ररूप धर्मनी पर्याय प्रगट थई ते पण निरपेक्ष छे. तेमां व्यवहार अने निमित्तनी अपेक्षा नथी. नियमसारनी बीजी गाथामां आ वात आवे छे. अहा! परम वीतरागदेव सर्वज्ञना शासनमां आचार्योए गजब स्पष्ट कर्युं छे. त्यां कह्युं छे-“निज परमात्मतत्त्वनां सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान- अनुष्ठानरूप शुद्धरत्नत्रयात्मक मार्ग परम निरपेक्ष होवाथी मोक्षनो उपाय छे अने ते शुद्ध रत्नत्रयनुं फळ स्वात्मोपलब्धि छे.” अहाहा...! शुद्ध रत्नत्रयात्मक मोक्षनो मार्ग परम निरपेक्ष छे एटले के निमित्तनी अने व्यवहारनी अपेक्षा राख्या विना मोक्षमार्गनी पर्याय पोताना षट्कारकथी प्रगट थाय छे. सम्यग्दर्शन-ज्ञाननी एक समयनी जे परिणति प्रगटी ते पोताना षट्कारक परिणमनथी प्रगटी छे; द्रव्य-गुणथी पण नहि. पर्याय द्रव्यनी सन्मुख थई छे बस एटली वात छे; पण द्रव्य-गुणथी पर्याय प्रगटी छे एम नथी.
मोटा महंत नाम धरावनारा पण अत्यारे आ विषयमां गोटा ऊभा करे छे. अरेरे! भगवाननो विरह पडयो! केवळज्ञान रह्युं नहि अने साथे चार ज्ञानने धारण करनारा गणधरना पण विरह पडया! आवी स्थितिमां शास्त्रना ऊंधा अर्थ करे त्यां कोने कहीए? अरे! भगवाननी हाजरी नहि अने पोतानी मति-कल्पनाथी फावे तेम अर्थ करीने भारे गडबड ऊभी करी छे. जेम पिताना मरण पछी मिल्कतनी वहेंचणीमां छोकराओ अंदर-
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अंदर झघडा करे छे तेम भगवाननो विरह थया पछी मार्गमां अज्ञानीओ मोटी गडबड ऊभी करी रह्या छे. पण भाई! मार्ग तुं कहे छे एवो नथी. आ ज मार्ग छे. व्यवहार छे तो सम्यग्दर्शन थयुं छे एम नथी. सम्यग्दर्शननी पर्याय त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यना आश्रये उत्पन्न थई छे. शुद्धना आश्रये एटले द्रव्यनी सन्मुख थईने ते पर्याय प्रगटी छे; पण द्रव्यना कारणे ते पर्याय प्रगटी छे एम नथी. ते पर्याय पोताथी थई छे एम भगवान पोकार करीने यथार्थ तत्त्व कहे छे. द्रव्य खरेखर तो निर्मळ पर्यायनुं पण कर्ता नथी. द्रव्यस्वभाव छे ते पर्यायनुं कर्ता नथी. अरे भाई! मोक्षमार्गनी पर्यायनुं द्रव्य कर्ता नथी. परमात्मप्रकाश दोहा ६८मां अने समयसारनी गाथा ३२०नी जयसेनाचार्यनी टीकामां आ वात स्पष्टपणे आवे छे. त्यारे प्रवचनसार गाथा १८९मां (टीकामां) एम कह्युं छे के-“रागपरिणाम ज आत्मानुं कर्म छे, ते ज पुण्यपापरूप द्वैत छे, रागपरिणामनो ज आत्मा कर्ता छे, तेनो ज ग्रहनार अने छोडनार छे;-आ, शुद्ध द्रव्यना निरूपण स्वरूप निश्चयनय छे.” पर्याय पोताथी थई छे तेथी तेने निश्चयनय कह्यो छे. आत्मा विकार करे अने विकार छोडे ए शुद्धनयनुं कथन छे. एटले के विकार पोताथी थाय छे माटे तेने शुद्ध द्रव्यना निरूपण स्वरूप निश्चयनय कह्यो छे. निमित्तनी अपेक्षा विना विकार पोतामां थाय छे माटे तेने शुद्धनय कह्यो छे. निश्चयनय केवळ स्वद्रव्यना परिणामने दर्शावतो होवाथी तेने शुद्ध द्रव्यनुं कथन करनार कह्यो छे. अने व्यवहारनय परद्रव्यना परिणामने आत्मपरिणाम दर्शावतो होवाथी तेने अशुद्ध द्रव्यनुं कथन करनार कह्यो छे. विकारी परिणाम द्रव्यकर्मना निमित्तथी थया छे ए अशुद्धनयनुं कथन छे अने विकारी परिणाम पोताथी थया छे ए शुद्धनयनुं कथन छे. “शुद्धपणे तथा अशुद्धपणे बन्ने प्रकारे द्रव्य प्रतीत कराय छे. परंतु अहीं निश्चयनय साधकतम होवाथी ग्रहण करवामां आव्यो छे; (कारण के) साध्य शुद्ध छे तेथी द्रव्यना शुद्धत्वनो द्योतक होवाने लीधे निश्चयनय ज साधकतम छे, पण अशुद्धत्वनो द्योतक व्यवहारनय साधकतम नथी.” आ ज्ञेय अधिकार छे माटे राग, द्वेष, पुण्य, पाप, दया, दान अने मिथ्यात्वभाव पोतानी पर्यायमां पोताथी थाय छे ते शुद्धनयनुं कथन छे एम कह्युं छे. शुद्धनय साधकतम छे माटे अशुद्धनयनुं लक्ष छोडी दे-एम कहे छे प्रश्नः– द्रव्यसामान्यनुं आलंबन ज उपादेय छे, छतां अहीं रागपरिणामना ग्रहण- त्यागरूप पर्यायोनो स्वीकार करनार निश्चयनयने उपादेय केम कह्यो छे? उत्तरः– ‘रागपरिणामनो करनार पण आत्मा ज छे अने वीतरागपरिणामनो करनार पण आत्मा ज छे; अज्ञानदशा पण आत्मा स्वतंत्रपणे करे छे अने ज्ञानदशा पण आत्मा स्वतंत्रपणे करे छे’-आवा यथार्थ ज्ञाननी अंदर द्रव्यसामान्यनुं ज्ञान गर्भितपणे समाई ज जाय छे.
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जेने पर्यायनी स्वतंत्रतानुं भान नथी तेने द्रव्यनी स्वतंत्रता केम बेसे? कर्मथी विकार थाय एम माननारने हुं ज्ञाता-द्रष्टा छुं एम केम बेसे? कर्मथी विकार माननारे पोतानी पर्यायने पराधीन मानी छे. तेने द्रव्यनी स्वतंत्रतानी वात केम समजाय?
हवे कहे छे-‘अही एम जाणवुं केः- मिथ्यात्वादि कर्मनी प्रकृतिओ छे ते पुद्गलद्रव्यना परमाणु छे. जीव उपयोगस्वरूप छे. तेना उपयोगनी एवी स्वच्छता छे के पौद्गलिक कर्मनो उदय थतां तेना उदयनो जे स्वाद आवे तेना आकारे उपयोग थई जाय छे. अज्ञानीने अज्ञानने लीधे ते स्वादनुं अने उपयोगनुं भेदज्ञान नथी तेथी ते स्वादने ज पोतानो भाव जाणे छे. ज्यारे तेमनुं भेदज्ञान थाय अर्थात् जीवभावने जीव जाणे अने अजीवभावने अजीव जाणे त्यारे मिथ्यात्वनो अभाव थईने सम्यग्ज्ञान थाय छे.’
ज्ञानमां जडना स्वादनो ख्याल आवे छे, पण जडनो स्वाद ज्ञानमां आवतो नथी. कर्मना उदयनो स्वाद आवे एटले के तेना आकारे उपयोग थाय छे. ज्ञाननी पर्यायमां जडनी पर्यायनो ख्याल आवे छे. खरेखर तो विकारने ज्ञान जाणतुं नथी, कर्मना उदयने पण ज्ञान जाणतुं नथी; परंतु ते विकार संबंधीनुं जे ज्ञान पोतामां थयुं तेने ज्ञान जाणे छे.
दरेक पर्याय पोताथी थाय छे अने ते पण क्रमबद्ध थाय छे. जे समये जे थवानी होय ते ज पर्याय ते समये ज थाय छे, आगळ पाछळ थती नथी. सामान्यनुं ते पर्याय विशेष छे. आवुं न माने ते वैशेषिक मतने माननार मिथ्याद्रष्टि छे. पर्यायनी स्थिति एकरूप रहेती नथी. एटले अज्ञानीने भ्रम थई जाय छे के निमित्त आव्युं तो पर्याय बदली गई. पाणी ठंडी अवस्था बदलीने उष्ण थयुं त्यां अज्ञानीने भ्रम थाय छे के अग्नि आवी तो पाणी उनुं थयुं परंतु एम छे नहि. पाणी पोताथी उष्ण थयुं छे, अग्निथी नहि.
समयसार कळश २११मां कह्युं छे के-“वस्तुनी एकरूप स्थिति होती नथी; माटे वस्तु पोते ज पोताना परिणामरूप कर्मनी कर्ता छे”-ए निश्चय सिद्धांत छे. प्रत्येक पदार्थनी एक अवस्था बदलीने बीजी थाय छे ते पोताथी थाय छे, निमित्तथी नहि-एवो वस्तुनो स्वभाव छे.
वस्तु द्रव्यपर्यायस्वरूप होवाथी सर्वथा नित्यपणुं बाधा सहित छे. माटे वस्तु पोते ज पोताना परिणामस्वरूप कर्मनी कर्ता छे. ज्ञाननो स्वभाव स्वपरप्रकाशक छे. एटले रागनुं ज्ञान थाय छे त्यां राग छे तो रागनुं ज्ञान थाय छे एम नथी. ज्ञान स्वने जाणे अने रागने पण जाणे-एवो ज्ञाननी पर्यायनो स्वपरप्रकाशक स्वभाव छे. रागने ज्ञान
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जाणे छे एम कहेवुं ते व्यवहार छे. खरेखर तो आत्मा पोताना ज्ञानने जाणे छे. आ वात गाथा ७पमां आवी गई छे.
अज्ञानीने अज्ञानने लीधे ते स्वादनुं अने उपयोगनुं भेदज्ञान नथी. तेथी ते स्वादने ज पोतानो भाव जाणे छे. अज्ञानीने खबर नथी के आ स्वाद जाणवामां आवे छे ते परचीज छे अने पोतानी पर्यायमां जे मिथ्यात्वादि भाव थाय छे ते मारी चीज छे. आवुं अज्ञानीने भेदज्ञान नथी.
ज्यारे तेमनुं भेदज्ञान थाय अर्थात् जीवभावने जीव जाणे अने अजीवना भावने अजीव जाणे त्यारे मिथ्यात्वनो अभाव थईने सम्यग्ज्ञान थाय छे. अने त्यारे ज्ञाननी पर्याय स्वने जाणे छे अने रागने पण (भिन्नपणे) जाणे छे. भेदज्ञान थतां ज्ञाननो स्वपरप्रकाशकस्वभाव होवाथी ज्ञान पोतामां रहीने स्वपरने जाणे छे अने ते सम्यग्ज्ञान छे.
[प्रवचन नं. १प२ शेष, १प३, १प४ * दिनांक १०-८-७६ थी १२-८-७६]
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काविह जीवाजीवाविति चेत्–
उवओगो अण्णाणं अविरदि मिच्छं च जीवो दु।। ८८।।
उपयोगोऽज्ञानमविरतिर्मिथ्यात्वं च जीवस्तु।। ८८।।
हवे पूछे छे के मिथ्यात्वादिकने जीव अने अजीव कह्या ते जीव मिथ्यात्वादि अने अजीव मिथ्यात्वादि कोण छे? तेनो उत्तर कहे छेः-
गाथार्थः– [मिथ्यात्वं] जे मिथ्यात्व, [योगः] योग, [अविरतिः] अविरति अने [अज्ञानम्] अज्ञान [अजीवः] अजीव छे ते तो [पुद्गलकर्म] पुद्गलकर्म छे; [च] अने जे [अज्ञानम्] अज्ञान, [अविरतिः] अविरति अने [मिथ्यात्वं] मिथ्यात्व [जीवः] जीव छे [तु] ते तो [उपयोगः] उपयोग छे.
टीकाः– निश्चयथी जे मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि अजीव छे ते तो, अमूर्तिक चैतन्यपरिणामथी अन्य एवुं मूर्तिक पुद्गलकर्म छे; अने जे मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि जीव छे ते, मूर्तिक पुद्गलकर्मथी अन्य एवो चैतन्यपरिणामनो विकार छे.
हवे पूछे छे के मिथ्यात्वादिने जीव अने अजीव कह्या ते जीव मिथ्यात्वादि अने अजीव मिथ्यात्वादि कोण छे? तेनो उत्तर कहे छेः-
‘निश्चयथी जे मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि अजीव छे ते तो, अमूर्तिक चैतन्यपरिणामथी अन्य एवुं मूर्तिक पुद्गलकर्म छे, अने जे मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि जीव छे ते, मूर्तिक पुद्गलकर्मथी अन्य एवो चैतन्यपरिणामनो विकार छे.’
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मिथ्या श्रद्धा, मिथ्याज्ञान अने मिथ्याचारित्र-ए जीवनी पर्याय छे. ते अमूर्तिक चैतन्यना (विकारी) परिणाम छे. अने जे दर्शनमोहनीय, ज्ञानावरणीय अने चारित्र- मोहनीयनी पर्याय छे ते पौद्गलिक कर्म छे, जड छे, मूर्तिक छे. बन्ने चीज परस्पर भिन्न छे. मतलब के मिथ्यादर्शन, अज्ञान अने अविरति जे जीवनी पर्याय छे ते जीवनो पोतानो दोष छे अने ते पोताथी थयो छे, कर्मथी थयो छे एम नथी.
पुद्गलनी अवस्थाथी भिन्न, रागद्वेष रहित एवो आत्मा त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यतत्त्व छे. तथापि हुं रागी-द्वेषी छुं एवी मान्यता ते चैतन्यनो विकार छे अने ते मिथ्यात्व छे. जे ज्ञान पोताना त्रिकाळी शुद्ध स्वद्रव्यने न जाणे अने एकला परद्रव्यने जाणे ते अज्ञान छे. अने रागद्वेषरूपे जे परिणमन छे ते अविरतिरूप दोष छे. आ मिथ्यात्व, अज्ञान अने अविरति ते चैतन्यना विकारी परिणाम छे अने ते पोताथी थया छे, पुद्गलकर्मथी थया छे एम नथी; केमके ते बन्ने भिन्न भिन्न छे.
सम्यग्द्रष्टिने स्वभावसन्मुखतानुं जोर छे. तेथी तेने जे राग आवे छे तेनो तेने खेद होय छे. धर्मी रागनो स्वामी नथी. जुओ, प्रथम स्वर्गनो इन्द्र एकभवतारी छे. ते अष्टाह्निका महोत्सवमां नंदीश्वरद्वीपमां जाय छे. नंदीश्वरद्वीपमां भगवाननी मनोहर शाश्वत प्रतिमाओ छे. त्यां जईने ते भगवाननी पूजा-भक्ति करे छे अने खूब उल्लासथी नाचे छे. ए बधा शुभभाव छे अने ते दुःखरूप छे एम ते जाणे छे. छतां अशुभथी बचवा एवा शुभभाव धर्मीने आवे ज छे. अहाहा...! केवी विचित्रता! बहारथी हरख देखाय छतां अंदरथी तेनो खेद होय छे. धर्मीने जेने अतीन्द्रिय आनंदना नाथनो स्वाद आव्यो छे तेने जे कोई रागादि दोष आवी जाय छे तेनुं अल्प बंधन तेने पण थाय छे, पण ते द्रव्यद्रष्टिनी प्रधानतामां मुख्य नथी.
प्रश्नः– तो ज्ञानीने भोग निर्जरानो हेतु कह्यो छे ने?
उत्तरः– हा, पण कई अपेक्षाए? ज्ञानीनी द्रष्टि निर्मळानंदना नाथ भगवान शुद्ध चैतन्यमय आत्मा उपर स्थिर थई छे अने तेने अनंतानुबंधी आदि कषायनो अभाव वर्ते छे तेथी व्रतादि क्रियामां वा किंचित् भोगाभिलाषनी क्रियाना प्रसंगमां पण तेने ज्ञानभाव ज छे. माटे तेने निरंतर निर्जरा थती होवाथी ज्ञानीने भोग निर्जरानो हेतु छे एम आरोपथी कह्युं छे. शुं भोग ते निर्जरानो हेतु होय? शुं ज्ञानी निरंकुश भोगमां रहे अने निर्जरा थाय? एम नथी, भाई! ज्ञानीने द्रष्टिनी प्रधानता छे. तेने भोगनी इच्छा नथी. ए तो भोग प्रति उदासीन ज होय छे. भोगना स्वामीपणे नहि परिणमता ज्ञानीने भोग निर्जरा हेतु छे एम उपचारथी कह्युं छे. भाई! ज्यां जे अपेक्षा होय ते यथार्थ समजवी जोईए.
ज्ञानीने पण जे किंचित् राग आवे छे ते दोष छे अने ते दुःखरूप छे एम ते
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जाणे छे, केमके राग बंधननुं कारण छे. मुनिने महाव्रतनो जे विकल्प आवे छे ते राग छे, ते जगपंथ छे केमके ते उदयभाव छे. अहा! मुनिना पंचमहाव्रतना भाव पण जो दुःखरूप जगपंथ छे तो अशुभभावनुं तो कहेवुं ज शुं? ए तो नुकशान ज नुकशान छे. मिथ्याद्रष्टिने जे विषयवासना अने परस्त्रीसेवन आदिना तीव्र अशुभभाव थाय छे ते दुर्गतिनुं ज कारण छे.
अहीं कहे छे-मिथ्यादर्शन आदि भाव के जे अजीव छे ते तो मूर्तिक पुद्गलकर्म छे अने ते अमूर्तिक चैतन्यपरिणामथी अन्य छे; अने जे मिथ्यादर्शन आदि भाव जीव छे ते चैतन्यपरिणामनो विकार छे अने ते मूर्तिक पुद्गलकर्मथी अन्य छे. अहाहा...! केटलुं स्पष्ट कर्युं छे! भेदज्ञान करवानी वात छे!
भाई! भेदज्ञान अने सम्यग्दर्शन कोई अलौकिक चीज छे. उपरथी मानी ले तेवी चीज नथी. पोतानो चैतन्य भगवान अनाकुळ शांतरसनो ध्रुवकंद छे. तेनी द्रष्टि करतां रागनी द्रष्टि छूटी जाय छे अने ते सम्यग्दर्शन छे. धर्मीने व्यवहाररत्नत्रयनो राग आवे छे पण एनी रुचि एने छूटी जाय छे. जे भावथी तीर्थंकरनामकर्म बंधाय ते भावनी रुचि धर्मीने छूटी गई होय छे. आवी वात छे. ८८ पूरी थई.
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मिथ्यादर्शनादिश्चैतन्यपरिणामस्य विकारः कुत इति चेत्–
मिच्छत्तं अण्णाणं अविरदिभावो य णादव्वो।। ८९।।
मिथ्यात्वमज्ञानमविरतिभावश्च ज्ञातव्यः।। ८९।।
हवे फरी पूछे छे के मिथ्यादर्शनादि चैतन्यपरिणामनो विकार कयांथी थयो? तेनो उत्तर कहे छेः-
गाथार्थः– [मोहयुक्तस्य] अनादिथी मोहयुक्त होवाथी [उपयोगस्य] उपयोगना [अनादयः] अनादिथी मांडीने [त्रयः परिणामाः] त्रण परिणाम छे; ते [मिथ्यात्वम्] मिथ्यात्व, [अज्ञानम्] अज्ञान [च अविरतिभावः] अने अविरतिभाव ए त्रण) [ज्ञातव्यः] जाणवा.
टीकाः– जोके निश्चयथी पोताना निजरसथी ज सर्व वस्तुओनुं पोताना स्वभावभूत एवा स्वरूप-परिणमनमां समर्थपणुं छे, तोपण (आत्माने) अनादिथी अन्य-वस्तुभूत मोह साथे संयुक्तपणुं होवाथी, आत्माना उपयोगनो, मिथ्यादर्शन, अज्ञान अने अविरति एम त्रण प्रकारनो परिणामविकार छे. उपयोगनो ते परिणामविकार, स्फटिकनी स्वच्छताना परिणामविकारनी जेम, परने लीधे (-परनी उपाधिने लीधे) उत्पन्न थतो देखाय छे. ते स्पष्टपणे समजाववामां आवे छेः- जेम स्फटिकनी स्वच्छतानुं स्वरूप-परिणमनमां (अर्थात् पोताना उज्ज्वळतारूप स्वरूपे परिणमवामां) समर्थपणुं होवा छतां, कदाचित् (स्फटिकने) काळा, लीला अने पीळा एवा तमाल, केळ अने कांचनना पात्ररूपी आधारनो संयोग होवाथी, स्फटिकनी स्वच्छतानो, काळो, लीलो अने पीळो एम त्रण प्रकारनो परिणामविकार देखाय छे, तेवी रीते (आत्माने) अनादिथी मिथ्यादर्शन, अज्ञान अने अविरति जेनो स्वभाव छे एवा अन्य-वस्तुभूत मोहनो संयोग होवाथी, आत्माना उपयोगनो, मिथ्यादर्शन, अज्ञान अने अविरति एम त्रण प्रकारनो परिणामविकार देखवो.
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भावार्थः– आत्माना उपयोगमां आ त्रण प्रकारनो परिणामविकार अनादि कर्मना निमित्तथी छे. एम नथी के पहेलां ए शुद्ध ज हतो अने हवे तेमां नवो परिणामविकार थयो छे. जो एम होय तो सिद्धोने पण नवो परिणामविकार थवो जोइए. पण एम तो थतुं नथी. माटे ते अनादिथी छे एम जाणवुं.
हवे फरी पूछे छे के मिथ्यादर्शनादि चैतन्यपरिणामनो विकार कयांथी थयो? तेनो उत्तर कहे छेः-
‘जोके निश्चयथी पोताना निजरसथी ज सर्व वस्तुओनुं पोताना स्वभावभूत एवा स्वरूप-परिणमनमां समर्थपणुं छे-’ शुं कहे छे? आत्मा अने परमाणु आदि प्रत्येक पदार्थमां पोताना स्वभावना रसथी स्वभावभूत एवा स्वरूपपरिणमनमां समर्थपणुं छे. भगवान आत्मामां निश्चयथी पोताना निजरसथी-ज्ञानरसथी, आनंदरसथी, शांतरसथी निर्विकाररसथी पोताना स्वभावभूत एवा स्वरूपपरिणमनमां समर्थपणुं छे. पुण्य-पापना जे भाव थाय ए तो स्वभावभूत स्वरूपपरिणमन नथी. अहीं कहे छे के भगवान आत्मा पोताना अनाकुळ आनंद, अतीन्द्रिय ज्ञान अने अतीन्द्रिय स्वच्छताना पोताना शुद्ध स्वभावे परिणमे एवुं एमां सामर्थ्य छे. तो विकार केम छे? तो कहे छे-
‘तोपण अनादिथी अन्यवस्तुभूत मोह साथे संयुक्तपणुं होवाथी, आत्माना उपयोगनो, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति एम त्रण प्रकारनो परिणामविकार छे.’ अन्यवस्तुभूत मोह साथे संयुक्तपणुं होवाथी एटले एना संयोगना आश्रयथी विकार उत्पन्न थाय छे. संयोगथी विकार उत्पन्न थाय छे एम नहि, पण जड मोहना संयोगना आश्रयथी, परनो संबंध करवाथी आत्माना उपयोगनो मिथ्यादर्शन, अज्ञान अने अविरति एम त्रण प्रकारनो परिणामविकार छे.
अहाहा...! आत्मामां निजरसथी चैतन्यमयस्वभावनो अनुभव थईने परिणमन थाय एवुं एनुं सामर्थ्य छे. आत्माना द्रव्य-गुण अने तेनो वर्तमान वर्ततो अंश कारणशुद्धपर्याय तो शांतरस, चैतन्यरस, अकषायरस वडे शुद्ध, पवित्र छे. अने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी निर्मळ परिणतिरूपे परिणमन करे एवुं एनुं सामर्थ्य छे. अहाहा...! भगवान आत्मा तो अतीन्द्रिय आनंदरस अने अतीन्द्रिय ज्ञानरसनो स्वामी थईने अतीन्द्रिय आनंदरूपे परिणमे एवुं एनुं सामर्थ्य छे. तथापि अनादि काळथी अन्य वस्तु जे जड मोह तेनी साथे संबंध कर्यो छे ते कारणे तेना उपयोगमां विकारपरिणाम
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उत्पन्न थाय छे. भगवान आत्मानो जाणवा-देखवानो उपयोग तो सदा निर्मळ, शुद्ध छे. तेमां अनादि मोहकर्मना संयोगना वशे मिथ्यात्व, अज्ञान अने अविरति-एम त्रण प्रकारे विकारपरिणामनी पोताथी उत्पत्ति छे.
समयसार कळश १७पमां कह्युं छे के-सूर्यकांतमणि पोताथी ज अग्निरूपे परिणमतो नथी, तेना अग्निरूप परिणमनमां सूर्यनुं बिंब निमित्त छे. तेम आत्मा पोताने रागादिकनुं निमित्त कदी पण थतो नथी, तेमां निमित्त परसंग ज-परद्रव्यनो संग ज छे. आवो वस्तुस्वभाव प्रकाशमान छे. विकार परसंगथी नहि पण परद्रव्यनो संग पोते करे छे तो थाय छे. मिथ्यात्वादि परिणाम पोताना षट्कारकना परिणमनथी थाय छे एम श्री पंचास्तिकायनी गाथा ६२मां कह्युं छे. शुद्ध चैतन्यस्वभावमय स्वनो संग छोडी जीव कर्मनो संग करे छे तो पोतामां विकारभाव पोताथी उत्पन्न थाय छे. आ महा सिद्धांत छे.
भगवान वीतरागदेवनो आ अलौकिक मार्ग छे. गणधरदेवो अने एकावतारी इन्द्रोए जेनो स्वीकार कर्यो छे ते आ मार्ग छे. मध्यलोकमां असंख्य द्वीप-समुद्र छे, तेमां छेल्लो स्वयंभूरमण नामनो समुद्र छे. तेमां हजार जोजन लांबा शरीरवाळा मगरमच्छ छे. तेमां पंचम गुणस्थानवाळा जीवो पण छे. आत्मा छे ने! अंतर्द्रष्टि करतां आत्मानुं भान प्रगट थई गयुं होय छे. अहीं कहे छे-आत्मा तो चैतन्यनी झळहळ ज्योतिस्वरूप शांतिनो सागर छे. तेमां आ राग कयांथी आव्यो? तो कहे छे-पर्यायमां पोते परनो संग कर्यो तो राग उत्पन्न थयेलो छे. पोतानो संग करे तो राग उत्पन्न न थाय. पोतानो स्वभाव सदा शुद्ध छे. तेनो संग करे, तेनुं लक्ष करे तो शुद्धता ज उत्पन्न थाय.
भाई! आ सांभळीने वस्तुतत्त्वनो अंदर निर्णय करवो. कोई तो एवा होय छे के अहीं सांभळे एटले आ वातनी हा पाडे अने वळी बीजे बीजी वात सांभळे तो तेनी पण हा पाडे. एम के सौनां मन राजी राखवां पडे. भाई! गंगा किनारे गंगादास अने जमना किनारे जमनादासनी रीतथी सौ राजी थशे पण आत्मा राजी नहि थाय. सांभळवानुं तात्पर्य तो अंदर रागथी भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वभावमय परिपूर्ण प्रभु आत्मा बिराजे छे तेनो निर्णय करी तेनी प्रतीति करवी, तेनो अनुभव करवो ए छे. आ कांई लोकरंजननी वात नथी; आ तो आत्माना हितनी वात छे, अने आत्माना हित माटे कहेवाय छे.
अहीं कहे छे के सर्व पदार्थो पोताना निजरसथी पोताना स्वभावभूत स्वरूप- परिणमनमां समर्थ छे. परमाणुमां ते छूटो होय त्यारे शुद्ध परिणमन थाय एवुं एनुं सामर्थ्य छे. परंतु ते (परमाणु) बीजा स्कंधना संगमां जाय तो विभावपर्याये थाय छे. बे परमाणुथी मांडी अनंत परमाणुओना स्कंधमां विभावपर्याय उत्पन्न थाय छे. ते विभाव परसंगथी
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पोताना कारणे थाय छे. धर्मास्तिकाय आदि चार द्रव्यमां तो द्रव्य, गुण अने पर्याय त्रणे शुद्ध छे. तेमां विभाव परिणाम थता नथी. परमाणु अने आत्मा-आ बे द्रव्यमां विभाव परिणाम थाय छे.
आत्माना उपयोगनुं पर उपर लक्ष होवाथी मिथ्याश्रद्धा, अज्ञान अने अविरति एम त्रण प्रकारना विकार उत्पन्न थाय छे. परना कारणे नहि पण परनो संग करवाथी त्रण प्रकारना विकारी परिणाम पोतामां पोताथी उत्पन्न थाय छे. अरे! आटली स्वतंत्रता न बेसे तो ते अंदरमां केम जई शके?
‘उपयोगनो ते परिणामविकार, स्फटिकनी स्वच्छताना परिणामविकारनी जेम, परने लीधे (परनी उपाधिने लीधे) उत्पन्न थतो देखाय छे. ते स्पष्टपणे समजाववामां आवे छेः- ’
स्फटिकमणिमां काळी, पीळी, लीली आदि झांय देखाय छे ते परना संयोगना संगथी पोतामां पोताना कारणे उत्पन्न थाय छे. लोखंडनो चार हाथनो लांबो सळियो एक छेडे गरम थतां बीजे छेडे गरम थई जाय छे; ते पोतानी योग्यताथी थाय छे, अग्निना कारणे नहि. लाकडु चार हाथ लांबु होय तेनो एक छेडो गरम थतां बीजो छेडो गरम थतो नथी, केमके लाकडानी पर्यायनी एवी योग्यता नथी.
अहो! संतोनी केवी करुणा छे! केटलुं स्पष्ट कर्युं छे! परंतु अरे! जीवोने समजवानी दरकार नथी! दुनिया समजे तो मने लाभ छे एम संतोने नथी तथापि विकल्प आव्यो छे तो जगत समक्ष सत्य वात जाहेर करी छे. कहे छे-
‘जेम स्फटिकनी स्वच्छतानुं स्वरूप-परिणमनमां (अर्थात् पोताना उज्ज्वळतारूप स्वरूपे परिणमवामां) समर्थपणुं होवा छतां, कदाचित् स्फटिकने काळा, लीला अने पीळा एवा तमाल, केळ अने कांचनना पात्ररूपी आधारनो संयोग होवाथी, स्फटिकनी स्वच्छतानो, काळो, लीलो, अने पीळो एम त्रण प्रकारनो परिणामविकार देखाय छे.’ जुओ, स्फटिक तो स्वच्छताना स्वरूपपरिणमनमां समर्थ छे. छतां परना संगथी काळा, लीला, पीळा रंगरूपे पर्यायमां परिणमन थाय छे. स्फटिकमां जे काळी झांय देखाय छे ते खरेखर तो पोताना षट्कारकना परिणमनथी थई छे; परना कारणे नहि अने पोताना द्रव्य-गुणना कारणे पण नहि. मार्ग सूक्ष्म छे प्रभु! संतो पोकार करे छे के तारा अपराधथी तारामां राग परिणाम थाय छे, परना कारणे नहि.
कोई कहे के बीजाए गाळ आपी तो मने क्रोध थयो तो ए वात खोटी छे. गाळ तो परचीज छे. तने क्रोध थयो ते तारा कारणे थयो छे, गाळना कारणे नहि. प्रवचनसार गाथा ६७मां कह्युं छे के-रागद्वेष उत्पन्न थवामां विषयो अकिंचित्कर छे. विषयो तो जड छे; तेओ जीवने राग उत्पन्न केम करे? राग पोताथी उत्पन्न थाय छे.
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परपदार्थो जीवने राग थवामां अकिंचित्कर छे. पांच इन्द्रियना विषयो जीवने राग उत्पन्न करावता नथी. गाळना शब्दो काने पडया माटे द्वेष उत्पन्न थयो अने कोईए प्रशंसा करी माटे हरख थयो ए वात बीलकुल नथी. मैसूब अने रसगुल्लां खावानो राग थयो तेमां मैसूब तथा रसगुल्लां राग थवामां अकिंचित्कर छे. राग थवामां विषयो बीलकुल कारण नथी.
त्यां प्रवचनसार गाथा ६७ना भावार्थमां कह्युं छे के-“संसारमां के मोक्षमां आत्मा पोतानी मेळे ज सुखरूप परिणमे छे; तेमां विषयो अकिंचित्कर छे अर्थात् कांई करता नथी. अज्ञानीओ विषयोने सुखनां कारण मानीने नकामा तेमने अवलंबे छे!” स्त्री रागनो विषय छे; ते विषय तेना प्रत्ये राग थवामां अकिंचित्कर छे. स्त्रीनुं कोमळ शरीर देखीने राग थयो एमां स्त्रीनुं शरीर अकिंचित्कर छे. निमित्तने अकिंचित्कर कहेवामां आव्युं छे.
समयसार कळश २२१मां एम कह्युं छे के-“जेओ रागनी उत्पत्तिमां परद्रव्यनुं ज निमित्तपणुं (कारणपणुं) माने छे, (पोतानुं कांई कारणपणुं मानता नथी) तेओ-जेमनी बुद्धि शुद्धज्ञानरहित अंध छे एवा (अर्थात् जेमनी बुद्धि शुद्धनयना विषयभूत शुद्ध आत्मस्वरूपना ज्ञानथी रहित अंध छे एवा)-मोहनदीने पार ऊतरी शकता नथी.” जीवने राग पोताना कारणे थाय छे. एमां परवस्तु अकिंचित्कर छे. शेरडीनो रस देखीने ते संबंधी जे राग थयो ते पोताथी स्वतंत्रपणे थयो छे, रसना कारणे नहि. स्फटिकनी स्वच्छतानो, काळो, लीलो अने पीळो एम त्रण प्रकारनो परिणामविकार देखाय छे त्यां तमाल, केळ, अने कांचनना पात्ररूपी आधारनो जे संयोग छे ते निमित्त छे; पण ते निमित्तकर्ता नथी. काळी झांय देखाय छे ते तमालना कारणे नथी. आ द्रष्टांत प्रमाणे हवे सिद्ध कहे छे-
‘तेवी रीते (आत्माने) अनादिथी मिथ्यादर्शन, अज्ञान अने अविरति जेनो स्वभाव छे एवा अन्यवस्तुभूत मोहनो संयोग होवाथी, आत्माना उपयोगनो, मिथ्यादर्शन, अज्ञान अने अविरति एम त्रण प्रकारनो परिणामविकार देखवो.’
जुओ, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति छे ते अन्यवस्तुभूत मोहनो स्वभाव छे; ते मोहनो संयोग एटले निमित्त होवाथी आत्मामां मिथ्यादर्शन आदि परिणाम थाय छे. संयोग निमित्त छे पण संयोगना कारणे मिथ्यात्वादि विकारपरिणाम थाय छे एम नथी. जेम स्फटिकमां काळी, लीली, पीळी झांय देखाय छे ते वासणना कारणे नथी; वासण तो निमित्त छे, निमित्तकर्ता नथी. स्फटिकमां जे काळी, लीली, पीळी झांय देखाय छे ते स्फटिकनी पर्यायनी योग्यताथी थई छे, वासणे करी छे एम नथी. तेम जीवमां थता मिथ्यात्वादि भावो जीवनी पर्यायनी योग्यताथी थया छे, जड मोहकर्मे कर्या छे एम नथी. जडमोह तो निमित्त छे बस.
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लोढाना सळियानी उष्ण अवस्था थाय छे तेनो कर्ता लोढानी पर्याय छे (अभेदथी कहेतां ते द्रव्य छे), पण अग्नि एनो कर्ता नथी. आ विषयो-रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द-ते सुखदुःख थवामां निमित्त छे पण ते कांई सुखदुःख ऊपजावतां नथी. प्रवचनसार गाथा ६६मां कह्युं छे के-“एकांते अर्थात् नियमथी स्वर्गमां पण देह देहीने (आत्माने) सुख करतो नथी; परंतु विषयोना वशे सुख अथवा दुःखरूप स्वयं आत्मा थाय छे.” स्वर्गमां जे सुख थाय छे ते सुखनो कर्ता देह नथी. देह सुखमां निमित्त छे. एनो अर्थ शुं? के सुखनी जे कल्पना थई ते सुंदर वैक्रियक देहना कारणे थई नथी. ते सुखनी कल्पनानो कर्ता ते ते परिणति छे. अहो! दिगंबर मुनिओ द्वारा रचायेलां शास्त्रोमां परम सत्यनुं निरूपण थयेलुं छे. भाई! आ सर्वज्ञनी वाणी छे. वाणीनी पर्याय निश्चयथी वाणीनी कर्ता छे, वाणीना कर्ता सर्वज्ञ नथी; निमित्त हो; पण निमित्त उपादानना कार्यमां अकिंचित्कर छे.
अन्यवस्तुभूत मोहना संयोगथी जीवमां विकारपरिणाम थाय छे. जडकर्म मिथ्यादर्शन एटले दर्शनमोह, अज्ञान एटले ज्ञानावरणीय कर्म अने अविरति नाम चारित्रमोहनीय कर्म- ते जेनो स्वभाव छे एवा अन्यवस्तुभूत मोहना संयोगथी-निमित्तथी आत्माना उपयोगमां मिथ्याद्रर्शन, अज्ञान अने अविरति एवा त्रण प्रकारना विकारपरिणाम थाय छे. ९०मी गाथामां विशेष खुलासो करशे.
केवळज्ञानमां लोकालोक निमित्त छे; एटले शुं लोकालोक केवळज्ञाननुं कर्ता छे? बीलकुल नहि. वळी केवळज्ञान लोकालोकने निमित्त छे; तो शुं केवळज्ञान लोकालोकनुं कर्ता छे? नहि; बीलकुल नहि.
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धरत्नत्रयना परिणाम ते निश्चय मोक्षमार्ग छे अने ते ज यथार्थ मोक्षमार्ग छे. पण साथे व्यवहाररत्नत्रयनो जे राग छे तेने सहचर वा निमित्त देखीने उपचारथी मोक्षमार्ग कहेवामां आव्यो. आ वात मोक्षमार्गप्रकाशकना सातमा अधिकारमां कही छे. व्यवहाररत्नत्रयने निमित्त देखीने आरोपथी मोक्षमार्ग कह्यो छे. पण ते निमित्त छे ते निश्चय मोक्षमार्गनुं कर्ता छे एम नथी. व्यवहाररत्नत्रय छे ते शुद्धरत्नत्रयनुं कर्ता नथी.
आ लाकडी ऊंची थाय तेमां आंगळी निमित्त छे, पण लाकडी जे ऊंची थई ते क्रियानो आंगळी कर्ता नथी. आ भाषा जे बोलाय छे तेमां जीवनां राग अने ज्ञान निमित्त छे; पण ते राग अने ज्ञान भाषानी पर्यायना कर्ता नथी. त्रणेकाळ निमित्त अने उपादाननी स्वतंत्रता छे एवो आ स्पष्ट खुलासा भर्यो ढंढेरो छे.
‘आत्माना उपयोगमां आ त्रण प्रकारनो परिणामविकार अनादि कर्मना निमित्तथी छे.’ आत्मवस्तु स्वभावथी तो त्रिकाळ शुद्ध छे. पण तेनी अवस्थामां अनादिथी विकार
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छे अने तेमां मोहकर्म निमित्त छे. निमित्त छे एटले कर्मे विकार कराव्यो छे एम नथी. कर्म जीवना विकारनुं कर्ता नथी. पण जीवमां विकार पोताथी छे एमां मोहकर्म निमित्त छे. आत्मामां अनादि मिथ्यात्वदशा छे तेमां दर्शनमोहकर्म निमित्त छे; पण दर्शनमोहकर्म मिथ्यात्वदशानुं कर्ता नथी.
‘एम नथी के पहेलां ए शुद्ध ज हतो अने हवे तेमां नवो परिणामविकार थयो छे.’ पर्यायमां विकार अनादिनो छे अने कर्मनुं निमित्त पण अनादिनुं छे. समय समय थईने अनंतकाळथी प्रवाहरूपे आत्मानी पर्यायमां विकार छे. शरीर मारुं, इन्द्रियो मारी, राग मारो एवी मान्यता सहित जीवने अनादि परंपराथी विकार छे. आ परिणामविकार कांई नवो नथी. जो एम होय तो सिद्धोने पण नवो परिणामविकार थवो जोईए, पण एम तो थतुं नथी. माटे ते अनादिथी छे एम जाणवुं.
प्रश्नः– स्फटिकमां जे लाल झांय देखाय छे ते प्रत्यक्ष लाल वासणने लीधे देखाय छे ने?
उत्तरः– नहि. स्फटिकमां जे लाल झांय देखाय छे ते लाल वासणने लीधे नथी. स्फटिक पोते पोतानी उज्ज्वळ अवस्था पलटीने लाल झांयनी अवस्थापणे परिणम्यो छे. लाल वासणनो संयोग छे ए तो निमित्त छे अने ते स्फटिकनी लाल झांयनी अवस्थानो कर्ता नथी. पोतानी लाल झांयनी अवस्थानो कर्ता स्फटिक पोते छे. तेवी ज रीते जीवना विकारनो कर्ता दर्शनमोहकर्म नथी. दर्शनमोहकर्म तो निमित्तमात्र छे. जीवना विकारनो कर्ता निश्चयथी विकार पोते छे. (अने अभेदथी कहीए तो जीव पोते छे).
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सरिता वहावी सुधा तणी प्रभु वीर! तें संजीवनी;
शोषाती देखी सरितने करुणाभीना हृदये करी,
मुनिकुंद संजीवनी समयप्राभृत तणे भाजन भरी.
ग्रंथाधिराज! तारामां भावो ब्रह्मांडना भर्या.
मुमुक्षुने पाती अमृतरस अंजलि भरी भरी;
अनादिनी मूर्छा विष तणी त्वराथी ऊतरती,
विभावेथी थंभी स्वरूप भणी दोडे परिणति.
तुं प्रज्ञाछीणी ज्ञान ने उदयनी संधि सहु छेदवा;
साथी साधकनो, तुं भानु जगनो, संदेश महावीरनो,
विसामो भवक्लांतना हृदयनो, तुं पंथ मुक्ति तणो.
जाण्ये तने हृदय ज्ञानी तणां जणाय;
तुं रुचतां जगतनी रुचि आळसे सौ,
तुं रीझतां सकलज्ञायकदेव रीझे.
तथापि कुंदसूत्रोनां अंकाये मूल्य ना कदी.
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ज्ञानी सुकानी मळ्या विना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळ्यो अहो! गुरु क्हान तुं नाविक मळ्यो.
बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां.
अने ज्ञप्तिमांही दरव-गुण-पर्याय विलसे;
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके; परद्रव्य नातो तूटे;
-रागद्वेष रुचे न, जंप न वळे भावेंद्रिमां-अंशमां,
टंकोत्कीर्ण अकंप ज्ञान महिमा हृदये रहे सर्वदा.
करुणा अकारण समुद्र! तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेघ! तने नमुं हुं,
आ दासना जीवनशिल्पी! तने नमुं हुं.
वाणी चिन्मूर्ति! तारी उर-अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;
भावो ऊंडा विचारी, अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी,
खोयेलुं रत्न पामुं, -मनरथ मननो; पूरजो शक्तिशाळी!
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