Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). KartaKarma Adhikar 2; Gatha: 90-92.

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३२ गाथा-१२७ - २३१
३३ कळश-६६ - २३२
३४ गाथा १२८-१२९ १८६-१८७ २४०
३प कळश-६७ १८६-१८७ २४१
३६ गाथा १३०-१३१ १८७ २४प
३७ कळश-६८ १८७ २४६
३८ गाथा १३२ थी १३६ १८८-१८९ २पप
३९ गाथा १३७-१३८ १८९ २६३
४० गाथा १३९-१४० १८९ २६६
४१ गाथा-१४१ १८० २७१
४२ गाथा-१४२ १९० थी १९७ २७प
४३ कळश ६९-७० ’’ २७६
४४ कळश ७१-७२ ’’ २७७
४प कळश ७३ थी ७प ’’ २७८
४६ कळश ७६ थी ७८ ’’ २७९
४७ कळश ७९ थी ८१ ’’ २८०
४८ कळश ८२ थी ८४ ’’ २८१
४९ कळश ८प थी ८७ १९० थी १९७ २८२
प० कळश ८८-८९ ’’ २८३
प१ कळश ९०-९१ ’’ २८४
प२ गाथा-१४३ १९७-१९८ ३२८
प३ कळश-९२ ’’ ३२९
प४ गाथा-१४४ १९९ थी २०६ ३४३
पप कळश ९३-९४ ’’ ३४४
प६ कळश-९प ’’ ३४प
प७ कळश ९६-९७ ’’ ३४६
प८ कळश ९८-९९ ’’ ३४७


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परमात्मने नमः।
श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत
श्री
समयसार
उपर
परम पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीनां प्रवचनो
श्रीमदमृतचन्द्रसूरिकृता आत्मख्यातिः।

कर्ताकर्म अधिकार

अथात्मनस्त्रिविधपरिणामविकारस्य कर्तृत्वं दर्शयति–

एदेसु य उवओगो तिविहो सुद्धो णिरंजणो भावो।
जं सो करेदि भावं उवओगो तस्स सो कत्ता।। ९० ।।
एतेषु चोपयोगस्त्रिविधः शुद्धो निरञ्जनो भावः।
यं स करोति भावमुपयोगस्तस्य स कर्ता।। ९० ।।

हवे आत्माने त्रण प्रकारना परिणामविकारनुं कर्तापणुं दर्शावे छेः-

एनाथी छे उपयोग त्रणविध, शुद्ध निर्मळ भाव जे;
जे भाव कंई पण ते करे, ते भावनो कर्ता बने. ९०.

गाथार्थः– [एतेषु च] अनादिथी आ त्रण प्रकारना परिणामविकारो होवाथी, [उपयोगः] आत्मानो उपयोग- [शुद्धः] जोके (शुद्धनयथी) ते शुद्ध, [निरञ्जनः]


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निरंजन [भावः] (एक) भाव छे तोपण- [त्रिविधः] त्रण प्रकारनो थयो थको [सः उपयोगः] ते उपयोग [यं] जे [भावम्] (विकारी) भावने [करोति] पोते करे छे [तस्य] ते भावनो [सः] ते [कर्ता] कर्ता [भवति] थाय छे.

टीकाः– ए प्रमाणे अनादिथी अन्यवस्तुभूत मोह साथे संयुक्तपणाने लीधे पोतानामां उत्पन्न थता जे आ त्रण मिथ्यादर्शन, अज्ञान अने अविरतिभावरूप परिणामविकारो तेमना निमित्ते (-कारणथी) -जोके परमार्थथी तो उपयोग शुद्ध, निरंजन, अनादिनिधन वस्तुना सर्वस्वभूत चैतन्यमात्रभावपणे एक प्रकारनो छे तोपण-अशुद्ध, सांजन अनेकभावपणाने पामतो थको त्रण प्रकारनो थईने, पोते अज्ञानी थयो थको कर्तापणाने पामतो, विकाररूप परिणमीने जे जे भावने पोतानो करे छे ते ते भावनो ते उपयोग कर्ता थाय छे.

भावार्थः– पहेलां कह्युं हतुं के जे परिणमे ते कर्ता छे. अहीं अज्ञानरूप थईने उपयोग परिणम्यो तेथी जे भावरूप ते परिणम्यो ते भावनो तेने कर्ता कह्यो. आ रीते उपयोगने कर्ता जाणवो. जोके शुद्धद्रव्यार्थिकनयथी आत्मा कर्ता छे नहि, तोपण उपयोग अने आत्मा एक वस्तु होवाथी अशुद्धद्रव्यार्थिकनये आत्माने पण कर्ता कहेवामां आवे छे.

* * *
समयसार गाथा ९०ः मथाळुं

हवे आत्माने त्रण प्रकारना परिणामविकारनुं कर्तापणुं दर्शावे छेः-

* गाथा ९०ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘ए प्रमाणे अनादिथी अन्यवस्तुभूत मोह साथे संयुक्तपणाने लीधे पोतानामां उत्पन्न थता जे आ त्रण मिथ्यादर्शन, अज्ञान अने अविरतिभावरूप परिणामविकारो तेमना निमित्ते (कारणथी)-जोके परमार्थथी तो उपयोग शुद्ध, निरंजन, अनादिनिधन वस्तुना सर्वस्वभूत चैतन्यमात्रभावपणे एक प्रकारनो छे तोपण-अशुद्ध, सांजन अनेक भावपणाने पामतो थको त्रण प्रकारनो थईने, पोते अज्ञानी थयो थको कर्तापणाने पामतो, विकाररूप परिणमीने जे जे भावने पोतानो करे छे ते ते भावनो ते उपयोग कर्ता थाय छे.

जुओ! आचार्यदेवे शुं अद्भुत वात करी छे! कहे छे के परमार्थथी उपयोग शुद्ध छे, निरंजन छे, अनादिनिधन वस्तुना सर्वस्वभूत चैतन्यमात्रभावपणे एक प्रकारनो छे. अहाहा.....! आत्मानो त्रिकाळी ज्ञानदर्शननो जे उपयोग छे ते शुद्ध छे. वस्तु-द्रव्य शुद्ध, तेना गुण शुद्ध अने तेनो वर्तमान वर्ततो त्रिकाळी कारणपर्यायरूप अंश पण शुद्ध छे, निरंजन एटले अंजन रहित-मलिनता रहित छे अने अनादि-निधन एटले अनादि अनंत छे. ज्ञानदर्शननो आ उपयोग वस्तुना सर्वस्वभूत छे, संपूर्ण छे. ते उपयोग चैतन्यमात्रभावपणे एक प्रकारनो छे. आम परमार्थथी आत्मा परिपूर्ण शुद्ध छे.


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तोपण अशुद्ध, सांजन, अनेकभावपणाने पामतो थको त्रण प्रकारनो थईने पोते अज्ञानी थयो थको कर्तापणाने पामतो, विकाररूप परिणमीने जे जे भावने पोतानो करे छे ते ते भावनो ते उपयोग कर्ता थाय छे. मिथ्यादर्शन, अज्ञान अने अविरतिरूप परिणामनो कर्ता अज्ञानीनो आत्मा छे, जडकर्म ते भावनो कर्ता नथी.

प्रश्नः– शुं विकार कर्मना निमित्त विना थाय छे?

उत्तरः– हा, विकार थाय छे ते पर अने निमित्तनी अपेक्षा विना पोताथी स्वतंत्र थाय छे. विकार निश्चयथी पोताथी थाय छे; तेमां पर वस्तु निमित्त हो, पण ते निमित्त विकारनुं कर्ता छे एम नथी.

प्रश्नः– विकार परना निमित्त विना थाय तो विकार स्वभाव थई जशे.

उत्तरः– विकार पोताथी स्वतंत्र थाय छे. एम समयनी पर्यायनी ते योग्यता-स्वभाव छे. कर्मनुं निमित्त हो, पण विकार थवामां जडकर्म अकिंचित्कर छे. ज्ञानमां जे हीणी अवस्था थाय छे ते पोतानी योग्यताथी थाय छे; तेमां ज्ञानावरणीय कर्म कांई करतुं नथी. ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञाननी हीणी दशामां निमित्त हो, पण ते कर्ता नथी.

लौकिक जनो जगतकर्ता ईश्वरने माने छे अने कोई जैनो (जैनाभासीओ) जडकर्मने कर्ता माने छे; पण वस्तुस्वरूप एम नथी. शास्त्रमां कथन आवे के ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञान प्रगट थवामां आवरण करे, पण ए तो निमित्तनुं कथन छे. खरेखर जडकर्म आत्माना ज्ञानने आवरण करतुं नथी.

जीवमां विकारनी पर्याय उत्पन्न थाय छे ते एनी जन्मक्षण छे. प्रवचनसार गाथा १०२मां पाठ छे के सर्वद्रव्योमां जे समये जे पर्याय उत्पन्न थाय छे ते एनो स्वकाळ-जन्मक्षण छे. ते पर्याय परथी उत्पन्न थाय छे एम छे नहि. उचित बाह्य निमित्त हो, पण निमित्त द्रव्यना परिणामनुं कर्ता नथी.

तत्त्वार्थराजवार्तिकमां जे बे कारणनी वात आवे छे ए त्यां प्रमाणनुं ज्ञान कराव्युं छे. दरेक कार्य पोताथी स्वतंत्रणे थाय छे ए वात राखीने एमां निमित्त कोण छे एनुं साथे ज्ञान कराव्युं छे. कार्य पोताथी थाय छे ए निश्चयनी वातने निषेधीने शुं कार्यनो कर्ता निमित्त छे एम त्यां कह्युं छे? तो तो प्रमाणज्ञान ज रहेशे नहि. निश्चयथी परिणति पोते पोताथी स्वतंत्रपणे उत्पन्न थाय छे ए वातने सिद्ध राखीने जोडे निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे ते प्रमाणनो विषय छे.

कोई माने के कर्मनुं जोर छे तो विकार करवो पडे तो ते मान्यता बराबर नथी. जीवने विकार थाय छे एमां निमित्तनुं बीलकुल कर्तापणुं नथी. कहे छे ने के-अनादिथी अन्यवस्तुभूत मोह साथे संयुक्तपणाने लीधे पोतानामां उत्पन्न थता जे आ त्रण मिथ्यादर्शन, अज्ञान अने अविरतिभावरूप परिणामविकारो तेना निमित्ते उपयोग त्रण


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प्रकारे थईने, पोते अज्ञानी थयो थको कर्तापणाने पामे छे. विकाररूप परिणमीने जे जे भावने पोतानो करे छे ते ते भावनो ते उपयोग कर्ता थाय छे.

अहाहा...! परमार्थथी तो त्रिकाळी उपयोग शुद्ध, निरंजन, अनादिनिधन छे, ते वस्तुना सर्वस्वभूत छे अने चैतन्यमात्रभावपणे एक प्रकारनो छे. तोपण अशुद्ध, सांजन, अनेकभावपणाने पामतो थको त्रण प्रकारनो थईने पोते अज्ञानी थयो थको कर्तापणाने पामे छे. जुओ, कर्म-निमित्त विकार करावे छे एम नथी. विकारनो कर्ता जड कर्म छे एम नथी. विकाररूप परिणमीने जे जे भावने पोताना करे छे ते ते भावनो ते उपयोग कर्ता थाय छे. मिथ्याद्रष्टि कर्तापणाने पामीने जे जे भावने पोताना करे छे ते ते भावनो ते (उपयोग) कर्ता थाय छे; जडकर्म कर्ता थाय छे एम नथी. कर्म निमित्त हो. निमित्तनी कोणे ना पाडी छे? पण निमित्तना कारणे जीवने पर्यायमां विकार थयो छे एम नथी. स्वयं अज्ञानी थईने उपयोग विकारी भावनो कर्ता थाय छे. उपयोग स्वयं पोताना कारणे अज्ञानी थईने विकाररूप परिणमीने ते ते भावनो कर्ता थाय छे. आवी वात छे. कोई ठेकाणे व्यवहारनुं कथन आवे पण त्यां व्यवहारनुं ज्ञान कराव्युं छे एम समजवुं. व्यवहार निश्चयनुं कर्ता छे एम न समजवुं.

कर्मथी विकार थाय छे ए मोटी गडबड अत्यारे चाले छे. पण ए वात तद्न खोटी छे-एम अहीं सिद्ध करे छे. मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरतिभावरूप विकारी परिणामनो स्वयं अज्ञानी थईने उपयोग कर्ता थाय छे. अन्यमतवाळा कहे छे के जगतना कार्यनो ईश्वर कर्ता छे अने कोई अज्ञानी एम कहे छे के मारा संसार अने विकारनो कर्ता जड कर्म छे-तो आ बन्नेनी मान्यता एक सरखी जूठी छे. अहीं आ दिगंबर संतोनी जे वाणी छे ते परम सत्य छे. नियमसारमां टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव कहे छे के-‘‘मारा मुखमांथी परमागम झरे छे.’’ अहा! आवी सत्य वात कोईने न रुचे तो शुं थाय? पण सत्य तो आ ज छे.

निश्चय, व्यवहार, निमित्त, उपादान अने क्रमबद्धपर्याय आ पांच वात खास समजवा जेवी छे. जे समये जे पर्याय थवानी होय ते पर्याय ते ज काळे क्रमसर थाय छे. मोतीनी माळामां प्रत्येक मोती पोतपोताना स्थानमां छे. तेम द्रव्यनी पर्यायमाळामां प्रत्येक पर्याय पोतपोताना काळ-स्थानमां छे. जे पर्यायनो जे काळ होय त्यारे ते ज पर्याय त्यां प्रगट थाय छे. आगळ-पाछळ नहि. आवो निर्णय करवामां पांचे समवाय आवी जाय छे.

-जे समये जे पर्याय थवानी होय ते ज समये ते पर्याय प्रगट थई त्यां काळ आव्यो. -जे पर्याय थवानी छे ते ज थई-एमां भवितव्य आव्युं. -स्वभावना लक्षे आवो निर्णय कर्यो छे-एमां स्वभाव आव्यो.


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-अने स्वभावसन्मुख पर्याय थई एमां पुरुषार्थ आव्यो. -अने त्यारे कर्मनो अभाव थयो-एमां निमित्त आव्युं.

आम क्रमबद्धनो निर्णय करनारनी द्रष्टि ज्ञायक उपर होय छे. त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य उपर जेनी द्रष्टि होय छे ते ज क्रमबद्धनो यथार्थ निर्णय करी शके छे. क्रमबद्ध जे छे ए तो पर्याय छे. पर्यायना आश्रये पर्यायनो निर्णय थतो नथी. द्रव्यना आश्रये सम्यग्ज्ञान थाय छे. द्रव्यना आश्रये जे सम्यग्ज्ञान थयुं ते क्रमबद्धपर्यायनुं ज्ञान करे छे. पर्यायना आश्रये क्रमबद्धनुं ज्ञान थतुं नथी.

अहीं कहे छे के मिथ्यादर्शन आदि विकारी परिणामनो, उपयोग, स्वयं अज्ञानी थईने, कर्ता थाय छे. जे जे भावने पोताना करे ते ते भावनो उपयोग कर्ता थाय छे. आ पर्यायरूप उपयोगनी वात छे. त्रिकाळी द्रव्यस्थित उपयोग तो एनाथी भिन्न छे अने ए तो शुद्ध निरंजन छे. परंतु पर्यायनो जे उपयोग छे ते ते काळे विकारनो कर्ता थाय छे. जड कर्म एमां निमित्त छे, पण ते विकारनुं कर्ता नथी. मिथ्यादर्शन, अज्ञान अने रागादि पुण्यपापना भावरूप जे जे विकार थाय छे ते विकारनो, पोते विकाररूप परिणमीने, उपयोग कर्ता थाय छे. केटली स्पष्ट वात छे! भाई! वखत लईने, निवृत्ति लईने आ वातनी समजण करवी जोईए. अहीं तो कहे छे के आत्मा कर्मना निमित्तथी निवृत्त छे, केमके कर्मना निमित्तथी विकारी परिणाम उत्पन्न थाय छे एम छे नहि.

अहाहा.....! त्रिकाळी उपयोग शुद्ध, निरंजन, चैतन्यमात्रभावपणे एक प्रकारनो छे; तोपण वर्तमान पर्यायरूप उपयोग अशुद्ध, सांजन अने अनेकपणाने पामतो थको मिथ्यात्वादि त्रण प्रकारनो थाय छे. अज्ञानी जीव अनेक प्रकारना मिथ्यात्वादि भावने प्राप्त थाय छे. वर्तमान उपयोग छे ते अज्ञानी थयो थको त्रण प्रकारे थईने कर्तापणाने पामे छे. जड कर्म विकारना कर्तापणाने पामे छे एम नथी. पुण्य-पाप, दया, दान, विषयवासना इत्यादि जे भाव थाय छे तेमां जड कर्म निमित्त छे, पण ते निमित्तना कारणे ए भाव थाय छे एम नथी. अज्ञानीनो उपयोग त्रण प्रकारे थईने कर्तापणाने पामे छे. अज्ञानी पोते रागनो कर्ता थाय छे. आमां गर्भितपणे एम पण आव्युं के ज्ञानी रागनो कर्ता नथी. ज्ञानी तो रागनो ज्ञाता छे. ज्ञानीने जे राग छे ते रागनो आत्मा कर्ता नथी.

भाई! आ तो वीतरागनो मार्ग छे. समयसार, प्रवचनसार आदि शास्त्रो भगवाननी दिव्यध्वनिनो सार छे. सर्वज्ञ परमात्माए जे कह्युं ते अनुसार चार ज्ञानना धणी, चौद पूर्वनी अंतःमुहूर्तमां रचना करनारा गणधरोए कह्युं छे. तेनो सार आ शास्त्रोमां भर्यो छे. अरे! अज्ञानी अल्पज्ञ जीवो एमां पोतानी मति-कल्पनाथी अर्थ करे ते केम चाले? तेमां जराय फेरफार करे तो एथी मिथ्यात्वनो महा दोष ऊपजे.


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पाणी उष्ण थाय ते पोतानी योग्यताथी थाय छे, अग्निथी नहि. अग्नि तेमां निमित्त छे पण निमित्त कर्ता नथी. सुंदर स्त्रीनुं रूप देखीने जे वासनाना परिणाम थाय ते वासनाना परिणामनो कर्ता अज्ञानी जीव पोते छे. स्त्रीनुं सुंदर रूप तेमां निमित्त छे, पण निमित्तने लईने वासनाना परिणाम थया नथी. ज्ञानावरणीय कर्मने लईने ज्ञाननी हीणी दशा छे एम नथी. ज्ञाननी हीणी दशा स्वयं पोताथी छे अने तेमां ज्ञानावरणीय कर्म निमित्त छे. जीवनी ज्ञान-दर्शननी हीणी पर्याय थाय छे ते भावघातिना कारणे थाय छे, द्रव्यघाति कर्म एमां निमित्त छे. ‘घातिकर्मना निमित्तथी’ एम कथन आवे छे पण ए तो निमित्तनुं कथन छे. जड घातीकर्म आत्मानी पर्यायनो घात करे छे एम नथी. भावघातीकर्मथी पोतानी हीणी पर्याय थाय छे तो द्रव्यघातीकर्मने निमित्त कहेवामां आवे छे. द्रव्यकर्म निमित्त छे, पण ते भावघातीकर्मनुं कर्ता नथी.

* गाथा ९०ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘पहेलां कह्युं हतुं के जे परिणमे ते कर्ता छे. अहीं अज्ञानरूप थईने उपयोग परिणम्यो तेथी जे भावरूप ते परिणम्यो ते भावनो तेने कर्ता कह्यो. आ रीते उपयोगने कर्ता जाणवो.

जे परिणमे ते कर्ता छे. विकाररूपे उपयोग परिणमे छे. तेथी ते उपयोगने विकारनो कर्ता कह्यो; निमित्त कर्ता नथी. ज्ञानावरणीय आदि कर्म परद्रव्य छे. ते आत्मानी पर्यायने अडतुंय नथी, केमके आत्मानी विकारी पर्याय अने कर्मनी पर्याय ए बन्ने वच्चे अत्यंताभाव छे.

आ शरीरमां पीडा थाय ते अशातावेदनीयना निमित्तथी थाय छे. एनो अर्थ शुं? शरीरनी अवस्था तो जे काळे जे थवानी होय ते एनाथी थाय छे, तेमां अशातानो उदय निमित्त छे, पण अशातानो उदय शरीरनी अवस्थानो कर्ता नथी. तथा ते वखते जीवमां पीडानो जे अनुभव थाय छे ते तेनी योग्यताथी स्वतंत्र थाय छे, एमां शरीरनुं के कर्मनुं कांई कर्तव्य नथी. आ पैसा आदि सामग्री मळे छे ते शातावेदनीयना उदयना निमित्ते मळे छे. त्यां उदय तो निमित्तमात्र छे. पैसा पैसाना कारणे आवे छे. पैसानी आववानी क्रिया थई तेनो शातावेदनीय कर्मनो उदय कर्ता नथी, केमके जे परिणमे ते कर्ता छे.

मिथ्यात्व अने रागद्वेष आदि विकाररूपे उपयोग परिणमे छे माटे ते विकारपरिणामनो उपयोग कर्ता छे. अज्ञानरूपे थईने जे भावरूप उपयोग परिणमे ते भावनो उपयोग कर्ता छे.

‘शुद्ध द्रव्यार्थिक नयथी आत्मा कर्ता छे नहि, तोपण उपयोग अने आत्मा एक


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वस्तु होवाथी अशुद्धद्रव्यार्थिकनये आत्माने पण कर्ता कहेवामां आवे छे.’ द्रव्यद्रष्टिथी आत्मा रागादि विकारनो कर्ता नथी. द्रव्यस्वभाव विकारनो कर्ता नथी. तेवी रीते द्रव्यद्रष्टि जेने थई छे एवा द्रव्यस्वभावने अनुभवनारा ज्ञानी रागना कर्ता नथी. शुद्ध द्रव्यार्थिकनये आत्मा कर्ता नथी; पण उपयोग अने आत्मा एक होवाथी अशुद्धद्रव्यार्थिक नयथी आत्माने पण कर्ता कहेवामां आवे छे.

अशुद्धद्रव्यार्थिक नय कहो के अशुद्ध निश्चयनय कहो के व्यवहारनय कहो-ए अपेक्षाए आत्माने कर्ता कहेवामां आवे छे.

[प्रवचन नं. १प६ (शेष) * दिनांक १४-८-७६]

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अथात्मनस्त्रिविधपरिणामविकारकर्तृत्वे सति पुद्गलद्रव्यं स्वत एव कर्मत्वेन परिणमतीत्याह–

जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स।
कम्मत्तं परिणमदे तम्हि सयं पोग्गलं दव्वं।। ९१ ।।
यं करोति भावमात्मा कर्ता स भवति तस्य भावस्य।
कर्मत्वं परिणमते तस्मिन् स्वयं पुद्गलं द्रव्यम्।। ९१ ।।

हवे, आत्माने त्रण प्रकारना परिणामविकारनुं कर्तापणुं होय त्यारे पुद्गलद्रव्य पोतानी मेळे ज कर्मपणे परिणमे छे एम कहे छेः-

जे भाव जीव करे अरे! जीव तेहनो कर्ता बने;
कर्ता थतां, पुद्गल स्वयं त्यां कर्मरूपे परिणमे. ९१.

गाथार्थः– [आत्मा] आत्मा [यं भावम्] जे भावने [करोति] करे छे [तस्य भावस्य] ते भावनो [सः] ते [कर्ता] कर्ता [भवति] थाय छे; [तस्मिन्] ते कर्ता थतां [पुद्गलं द्रव्यम्] पुद्गलद्रव्य [स्वयं] पोतानी मेळे [कर्मत्वं] कर्मपणे [परिणमते] परिणमे छे.

टीकाः– आत्मा पोते ज ते प्रकारे (ते-रूपे) परिणमवाथी जे भावने खरेखर करे छे तेनो ते कर्ता थाय छे-साधकनी (अर्थात् मंत्र साधनारनी) जेम; ते (आत्मानो भाव) निमित्तभूत थतां, पुद्गलद्रव्य कर्मपणे स्वयमेव (पोतानी मेळे ज) परिणमे छे. आ वात स्पष्टपणे समजाववामां आवे छेः-जेम साधक ते प्रकारना ध्यानभावे पोते ज परिणमतो थको ध्याननो कर्ता थाय छे अने ते ध्यानभाव सर्व साध्यभावोने (अर्थात् साधकने साधवायोग्य भावोने) अनुकूळ होवाथी निमित्तमात्र थतां, साधक कर्ता थया सिवाय (सर्पादिकनुं) व्यापेलुं झेर स्वयमेव ऊतरी जाय छे, स्त्रीओ स्वयमेव विडंबना पामे छे अने बंधनो स्वयमेव तूटी जाय छे; तेवी रीते आ आत्मा अज्ञानने लीधे मिथ्यादर्शनादिभावे पोते ज परिणमतो थको मिथ्यादर्शनादिभावनो कर्ता थाय छे अने ते मिथ्यादर्शनादिभाव पुद्गलद्रव्यने (कर्मरूपे परिणमवामां) अनुकूळ होवाथी निमित्तमात्र थतां, आत्मा कर्ता थया सिवाय पुद्गलद्रव्य मोहनीयादि कर्मपणे स्वयमेव परिणमे छे.

भावार्थः– आत्मा तो अज्ञानरूप परिणमे छे, कोई साथे ममत्व करे छे, कोई


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साथे राग करे छे, कोई साथे द्वेष करे छे; ते भावोनो पोते कर्ता थाय छे. ते भावो निमित्तमात्र थतां, पुद्गलद्रव्य पोते पोताना भावथी ज कर्मरूपे परिणमे छे. परस्पर निमित्तनैमित्तिकभाव मात्र छे. कर्ता तो बन्ने पोत पोताना भावना छे ए निश्चय छे.

* * *
समयसार गाथा ९१ः मथाळुं

हवे, आत्माने त्रण प्रकारना विकारनुं कर्तापणुं होय त्यारे पुद्गलद्रव्य पोतानी मेळे ज कर्मपणे परिणमे छे एम कहे छेः-

* गाथा ९१ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘आत्मा पोते ज ते प्रकारे परिणमवाथी जे भावने खरेखर करे छे तेनो ते कर्ता थाय छे-साधकनी (अर्थात् मंत्र साधनारनी) जेम; ते (आत्मानो भाव) निमित्तभूत थतां, पुद्गलद्रव्य कर्मपणे स्वयमेव (पोतानी मेळे ज) परिणमे छे.’

आत्मा पोते ज मिथ्याश्रद्धा, मिथ्याज्ञान अने मिथ्याचारित्ररूप परिणमवाथी जे भावने करे छे तेनो ते कर्ता थाय छे. कर्मनो उदय छे तो रागादिरूपे परिणमे छे एम नथी. पुण्यथी धर्म थाय, व्यवहारथी निश्चय थाय, निमित्त छे ते कर्ता छे-इत्यादि मिथ्याश्रद्धारूप आत्मा स्वयं परिणमे छे; कर्म तेने परिणमावे छे एम नथी. भगवान आत्मा पोतानी चीजने भूलीने पोते ज-‘आत्मा हि’ छे ने-मिथ्यात्व, रागद्वेष आदि जे भावने करे छे ते भावनो ते कर्ता थाय छे. मंत्र साधनार साधकनी जेम अज्ञानी पोताना भावनो कर्ता छे. केटलुं स्पष्ट छे! आत्मानो ते भाव निमित्तभूत थतां पुद्गल-द्रव्य स्वयमेव कर्मपणे परिणमे छे.

आत्मा मिथ्यात्वादि विकाररूपे पोताथी थाय छे. विकारभावनो पोते कर्ता अने विकारभाव ते एनुं कर्म छे. विकारनो कर्ता, निमित्त-कर्म (निमित्तपणे रहेलुं कर्म) छे एम त्रणकाळमां छे नहि. जीव चारगतिमां रखडे छे ते पोताना कारणे रखडे छे, कर्मना कारणे नहि. कर्म तो जड छे, परद्रव्य छे. कर्म जीवने हेरान करे छे ए वात यथार्थ नथी.

स्वभावनुं भान नथी त्यांसुधी मिथ्याद्रष्टि मिथ्यात्वभावनो कर्ता छे. आत्मानो ते भाव निमित्तभूत थतां पुद्गलद्रव्य स्वयमेव कर्मपणे परिणमे छे. ‘स्वयमेव’ परिणमे छे-छे स्पष्ट. आत्माना परिणाम निमित्तभूत थतां जे जडकर्म बंधाय ते पोताथी बंधाय छे. ते जडनी पर्याय जडथी थाय छे; आत्मा कर्मनी अवस्थानो कर्ता नथी. कर्म बंधाय तेमां जीवनो विकारी भाव निमित्त होवा छतां पुद्गलद्रव्य स्वयमेव कर्मपणे परिणमे छे. जीव एने कर्मपणे परिणमावे छे एम नथी. जीवे रागद्वेष कर्या माटे कर्मने बंधावुं पडयुं एम नथी.


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भगवान आत्मानो स्वभाव तो ज्ञाताद्रष्टा छे. शुद्ध निरंजन सदा परमानंदस्वरूप भगवान आत्मा अंतर्द्रष्टिनो विषय छे. परंतु तेनी द्रष्टि छोडीने जे पर्याय उपर द्रष्टि मांडे छे ते जीव मिथ्यात्व अने पुण्यपापना भावनो कर्ता थाय छे. अने त्यारे आत्माना ते मिथ्यात्वादि भाव निमित्तभूत थतां पुद्गलद्रव्य कर्मपणे स्वयमेव परिणमे छे. जीवे मिथ्यात्वना परिणाम कर्या माटे त्यां कर्मनी पर्याय दर्शनमोहपणे थई एम नथी. अरे भाई! निमित्त- नैमित्तिकसंबंधनो अर्थ कर्ताकर्म नथी. अज्ञानी जीव विकारनो कर्ता थाय छे त्यां पुद्गलकर्म पोतानी मेळे कर्मरूपे परिणमे छे. आवी स्वतंत्रतानी वात छे. आ वात स्पष्टपणे समजाववामां आवे छे-

‘जेम साधक ते प्रकारना ध्यानभावे पोते ज परिणमतो थको ध्याननो कर्ता थाय छे अने ते ध्यानभाव सर्व साध्यभावोने (साधकने साधवायोग्य भावोने) अनुकूळ होवाथी निमित्तभूत थतां, साधक कर्ता थया सिवाय (सर्पादिकनुं) व्यापेलुं झेर स्वयमेव उतरी जाय छे, स्त्रीओ स्वयमेव विडंबना पामे छे अने बंधनो स्वयमेव तूटी जाय छे.’

जुओ, मंत्रसाधक पोतानी मंत्रसाधनानी-ध्याननी पर्यायनो कर्ता छे, पण जे बीजाने झेर उतरी जाय ते क्रियानो ए कर्ता नथी. कह्युं ने के-तेमां साधकनुं ध्यान अनुकूळ होवाथी निमित्तभूत थतां, साधक कर्ता थया सिवाय सर्पादिकनुं झेर स्वयमेव उतरी जाय छे. अहाहा...! परमां जे परिणति थई ते मंत्रसाधकथी थई नथी. मंत्रसाधकनुं ध्यान निमित्तभूत थतां, ते कर्ता थया सिवाय स्त्रीओ स्वयमेव विडंबना पामे छे. आ स्त्रीओ जे धूणे छे ए धूणवानी अवस्था पोतानी पोताथी छे, एमां मंत्रसाधकनुं कांई कार्य नथी. ए परनी धूणवानी क्रियानो कर्ता मंत्रसाधक नथी. छे ने के स्त्रीओ स्वयमेव विडंबना पामे छे. तेवी ज रीते साधकनुं ध्यान निमित्तभूत थतां बंधनो, साधक कर्ता थया सिवाय, स्वयमेव तूटी जाय छे.

मंत्रनो साधक पोतानी साधनानी पर्यायनो कर्ता छे, पण ते परनी (नैमित्तिक) परिणतिनो कर्ता नथी. अरे! बहु गडबड चाले छे, अत्यारे तो एम माने छे के ज्ञानावरणीय कर्म जीवनुं ज्ञान रोके छे अने चारित्रमोहना उदयथी जीवने राग थाय छे अने व्यवहारथी निश्चय थाय छे इत्यादि. पण एम छे नहि. अहीं तो कहे छे के ज्ञानावरणीय कर्म कर्ता थया सिवाय जीवनी ज्ञाननी हीणी दशा स्वयमेव थाय छे. बहु झीणी वात छे, भाई!

व्यवहार छे ते निश्चयनो कर्ता नथी. चैतन्यस्वभाव उपर द्रष्टि देतां सहजानंद-स्वरूप भगवान आत्मानो अनुभव थईने जे सम्यग्दर्शननी पर्याय प्रगट थाय छे तेनो कर्ता आत्मा छे. खरेखर तो ते निर्मळ पर्यायनो कर्ता पर्याय पोते छे, पण पर्यायनो आत्मा साथे (अभेदपणानो) संबंध गणीने सम्यग्दर्शननी पर्यायनो आत्मा कर्ता कहेवामां आवे छे. परंतु ते सम्यग्दर्शननी पर्यायनो कर्ता व्यवहार समकित नथी. निश्चयरत्नत्रयमां व्यवहार-


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रत्नत्रय निमित्त छे, पण व्यवहाररत्नत्रय निश्चयरत्नत्रयनुं कर्ता नथी. अहीं कह्युं ने के व्यवहाररत्नत्रय कर्ता थया सिवाय जीव स्वयं निश्चयरत्नत्रयपणे स्वभावना लक्षे परिणमे छे. ज्यां व्यवहाररत्नत्रयने मोक्षनुं परंपराकारण कह्युं होय त्यां ते उपचारथी कथन कर्युं छे एम समजवुं अने ते पण ज्ञानीना संदर्भमां वात छे. अज्ञानीना शुभरागमां तो परंपरा-कारणनो अरोप पण आवतो नथी.

अज्ञानीने व्यवहार होतो नथी. अज्ञानीने तो व्यवहारमूढ कह्यो छे. समयसार गाथा ४१३मां त्रण शब्द कह्या छे-अनादिरूढ, व्यवहारमां मूढ, निश्चय पर अनारूढ वर्तता थका परमार्थसत्य भगवान समयसारने देखता-अनुभवता नथी. ‘‘हुं श्रमण छुं, हुं श्रमणोपासक छुं एम द्रव्यलिंगमां ममकार वडे मिथ्या अहंकार करे छे, तेओ अनादिरूढ, व्यवहारमां मूढ, प्रौढ विवेकवाळा निश्चय पर अनारूढ वर्तता थका परमार्थ-सत्य भगवान समयसारने देखता- अनुभवता नथी.’’ अरे भाई! रागनी मंदता तो जीव अनादिथी करतो आव्यो छे, एमां कांई नवुं नथी. सम्यग्दर्शन विना कथनमात्र व्यवहाररत्नत्रयनुं जीवे अनंतवार पालन कर्युं छे. नियमसार कळश १२१मां कह्युं छे के-जे कथनमात्र व्यवहाररत्नत्रय छे तेने भवमां डूबेला जीवे अनंतवार आचर्युं छे, परंतु अरेरे! ज्ञानस्वरूप जे एक परमात्मतत्त्व छे एनुं आचरण कर्युं नथी. सम्यग्दर्शन विना भेदज्ञानरहित व्यवहारमां जे लीन छे ते व्यवहारमूढ छे. सम्यग्दर्शन प्रगट थतां ज्ञानीने जे व्यवहार आवे छे तेनो ते ज्ञाता थाय छे, कर्ता थतो नथी.

त्यां गाथा ४१३ना भावार्थमां स्पष्ट कर्युं छे के-‘‘अनादि काळनो परद्रव्यना संयोगथी थयेलो जे व्यवहार तेमां ज जे पुरुषो मूढ अर्थात् मोहित छे, तेओ एम माने छे के-‘आ बाह्य महाव्रतादिरूप भेख छे ते ज अमने मोक्ष प्राप्त करावशे,’ परंतु जेनाथी भेदज्ञान थाय छे एवा निश्चयने तेओ जाणता नथी. आवा पुरुषो सत्यार्थ, परमात्मरूप, शुद्धज्ञानमय समयसारने देखता नथी.’’ आ प्रमाणे अज्ञानीनो व्यवहार निष्फळ छे, निरर्थक छे. ज्यारे ज्ञानी निश्चय पर आरूढ छे; ते व्यवहारमां मूढ नथी पण व्यवहारना ज्ञाताद्रष्टा छे. जेने आत्मज्ञाननी दशा प्रगट अनुभवमां आवी छे तेवा पंचमगुणस्थानवाळा अने छठ्ठा गुणस्थानवाळा ज्ञानीने शुभभावना काळमां अशुभ टळे छे तेथी तेना शुभरागने व्यवहार कहेलो छे. पण ते व्यवहार ते कांई निश्चयनुं वास्तविक साधन नथी. बाह्य निमित्त हो, पण ते निश्चयनो कर्ता नथी. ज्यां एने साधन कह्युं छे ते उपचारथी कह्युं छे-एम समजवुं.

जड अने चेतननी पर्याय थाय ते वखते ज्ञानीनी त्यां उपस्थिति (बाह्य व्याप्ति) होय तो ज्ञानी तेमां निमित्त कहेवामां आवे छे, निमित्तकर्ता नहि. निमित्त अने निमित्त-कर्तामां फेर छे. अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि जीव जे रागद्वेषनो कर्ता थाय छे तेनो राग, भोग आदि जे क्रिया थाय तेनो निमित्तकर्ता कहेवामां आवे छे. मिथ्याद्रष्टिने निमित्तकर्ता


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कहेवामां आवे छे. ज्ञानीने पोताना ज्ञाता-द्रष्टास्वभावनुं भान थयुं छे. तेने जे राग छे ते ज्ञाननी पर्यायमां निमित्त छे. ज्ञाननी जाणवानी पर्यायनुं उपादान ते पर्याय पोते छे, तेमां राग निमित्त छे. ज्ञानीने ज्ञाननी स्वपरप्रकाशक पर्याय पोताथी थाय छे. ते पर्यायमां राग निमित्त छे, पण राग निमित्त छे माटे त्यां ज्ञाननी पर्याय थई छे एम नथी. राग कर्ता थया सिवाय, ज्ञान स्वयं ज्ञानरूपे परिणमे छे.

जेने शुद्ध चिदानंद चैतन्यमय प्रभु आत्मानी द्रष्टि करतां सम्यग्दर्शन प्रगट थयुं छे, आनंदनो स्वाद आव्यो छे ए ज्ञानीने राग आवे छे. पण ते रागनो ज्ञानी कर्ता नथी. राग ए ज्ञानीनुं कर्तव्य नथी केमके राग करवा लायक छे एम ते मानतो नथी. तथापि परिणमन छे ए अपेक्षाए तेने कर्ता कहेवामां आवे छे. प्रवचनसारमां ४७ नयना अधिकारमां आवे छे के-जेम रंगरेज रंगनो कर्ता छे तेम ज्ञानी परिणमननी अपेक्षाए रागनो कर्ता छे. करवा लायक छे एम नहि, पण परिणमन छे ए अपेक्षाए कर्ता कहेवाय छे.

पोतानी कमजोरीथी ज्ञानीने राग आवे छे. ते रागना काळे ज्ञाननी स्वपरप्रकाशक पर्याय पोताथी प्रगट थाय छे. द्रव्यनुं ज्ञान पर्यायमां आवे ते स्वप्रकाशक अने पर-राग संबंधी पोतानुं ज्ञान पोताथी पर्यायमां थाय ते परप्रकाशक. त्यां रागथी ज्ञाननी स्वपर-प्रकाशक पर्याय थई छे एम नथी. स्वपरप्रकाशक ज्ञाननी पर्याय तो पोताथी थई छे, तेमां राग निमित्त छे. ज्ञाननी जे परिणति प्रगट थई तेनो कर्ता पोतानो आत्मा छे, तेमां राग निमित्त छे, निमित्तकर्ता नहि. आवो वीतरागनो मार्ग अति सूक्ष्म छे.

अहीं कहे छे-जेम मंत्रसाधक पोताना ध्याननो कर्ता थाय छे अने ते ध्यानभाव सर्व साध्यभावोने अनुकूळ होवाथी निमित्तभूत थतां, साधक कर्ता थया सिवाय सर्पादिकनुं व्यापेलुं झेर स्वयमेव उतरी जाय छे; ‘तेवी रीते आ आत्मा अज्ञानने लीधे मिथ्या-दर्शनादिभावे पोते ज परिणमतो थको मिथ्यादर्शनादिभावनो कर्ता थाय छे अने ते मिथ्यादर्शनादिभाव पुद्गलद्रव्यने (कर्मरूपे परिणमवामां) अनुकूळ होवाथी निमित्तमात्र थतां, आत्मा कर्ता थया सिवाय पुद्गलद्रव्य मोहनीयादि कर्मपणे स्वयमेव परिणमे छे.’

आत्मा पोतामां जे राग थाय छे तेनो कर्ता छे. ते समये समीपमां जे कार्मण-वर्गणा छे ते स्वयं जड कर्मपणे परिणमे छे. ते कर्मपरिणामनो राग कर्ता नथी. नजीकमां एकक्षेत्रावगाह रहेली पुद्गलकर्मवर्गणा जड कर्मपणे परिणमे तेनो जो आत्मा कर्ता नथी तो आत्मा परनो- मकानादिनो कर्ता थाय ए वात प्रभु! कयां रही?

कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, अधिकरण-एम छ शक्तिओ परमाणु आदि छए द्रव्योमां छे. भगवान कहे छे के प्रत्येक द्रव्यमां षट्कारकरूप शक्तिओ पडी छे. ए शक्तिओ पोताथी पोतानुं कार्य करे छे, परने लईने कोईनुं कार्य थतुं नथी.


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कोई कहे छे के आ तो एकान्त छे. तेने कहे छे-सांभळ, भाई! आ सम्यक् एकान्त छे. जडनी पर्याय जडथी स्वतंत्रपणे थाय छे, तेनो कर्ता आत्मा नथी. जेटला प्रमाणमां जीव रागद्वेष करे छे तेटला प्रमाणमां त्यां चारित्रमोहकर्म बंधाय छे. छतां रागद्वेषना जे परिणाम थाय छे ते चारित्रमोहकर्मना बंधना कर्ता नथी. अहीं कह्युं छे ने के जीवना मिथ्यादर्शनादि भाव पुद्गलद्रव्यने कर्मरूपे परिणमवामां अनुकूळ होवाथी निमित्तमात्र थतां, आत्मा तेनो कर्ता थया सिवाय पुद्गलद्रव्य स्वयमेव मोहनीयादि कर्मपणे परिणमे छे. मोहनीयरूपे कर्मनी पर्याय थाय तेनो आत्मा कर्ता नथी. आत्मा जड कर्मनो कर्ता नथी. कर्मनी पर्याय पोताना कर्ता गुणथी पोतानी कर्मपरिणतिनो कर्ता थाय छे.

* गाथा ९१ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आत्मा तो अज्ञानरूप परिणमे छे, कोई साथे ममत्व करे छे, कोई साथे राग करे छे, कोई साथे द्वेष करे छे; ते भावोनो पोते कर्ता थाय छे.’ अहीं अज्ञानीनी वात छे. सम्यग्द्रष्टि रागनो कर्ता नथी. नाटक समयसारमां आवे छे ने के-

‘‘करे करम सोई करतारा, जो जानै सो जाननहारा,
जो करता नहि जानै सोई, जानै सो करता नहि होई.’’

दया, दान, व्रत आदि शुभभावनो जे कर्ता थाय ते मिथ्याद्रष्टि छे. ज्ञानी तो शुभभावनो जाणनहारो छे. आत्मा स्वभावे ज्ञाननो कंद प्रभु छे. माटे आत्मा जाणवानुं काम करे. रागनुं काम थाय तेनो ज्ञानी कर्ता नथी. समकितीने चोथे गुणस्थाने जे राग थाय तेनो ते जाणनार छे, कर्ता नथी. आत्मानी शक्तिओ सर्व शुद्ध छे. धर्मीनी द्रष्टि शुद्ध शक्तिवान चैतन्यघन प्रभु आत्मा उपर छे. तेथी जे आ रागादि विकार थाय तेनो ए जाणनार छे, कर्ता नथी. तेने रागनुं परिणमन छे ए अपेक्षाथी कर्ता कहेवामां आवे छे. परंतु शुद्ध द्रष्टिनी अपेक्षाए ज्ञानी रागनो कर्ता नथी.

अहो! आवुं सत्य निरूपण एक दिगंबरमां ज छे, बीजे कयांय नथी. वेदांत आदि आत्माने सर्वव्यापक कहे छे अने भूलने मायाजाळ माने छे. पण एम नथी. मायाजाळ पण वस्तु छे अने तेने पोतानी माने ते मूढ छे.

आत्मा रागना कर्तापणे परिणमे ते अज्ञानभाव छे. ते अज्ञानवश कोई साथे ममत्व- मिथ्यात्वनो भाव करे छे, कोई साथे राग करे छे, कोई साथे द्वेष करे छे. ते ते भावोनो ते स्वयं कर्ता थाय छे. मारी लक्ष्मी, मारुं मकान, मारुं सोनुं-झवेरात, मारो पुत्र, मारी आबरू इत्यादि माने ते ममता-मिथ्यात्व छे. अने ते बाह्य पदार्थो ने देखी तेमने अनुकूळ-प्रतिकूळ जाणी तेमां प्रीति-अप्रीति करे ते रागद्वेष छे. त्यां ए बाह्य चीज


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रागद्वेषनुं कारण नथी, केमके परचीज तो ज्ञेय छे. तेमने अनुकूळ-प्रतिकूळ जाणी स्वयं रागद्वेषपणे परिणमे छे. वीतरागनो मार्ग सूक्ष्म छे, भाई!

आ आत्मा आनंदनो नाथ नित्यानंद प्रभु सहजानंद परमानंद सदानंदस्वरूप छे. एवी पोतानी चीजनी अंतरमां द्रष्टि थतां अनुभवमां जे अतीन्द्रिय निराकुळ आनंद आव्यो ते आनंद सम्यक्द्रष्टिना अनुभवनी महोर-छाप छे. अतीन्द्रिय आनंद ए स्वानुभवनो ट्रेडमार्क छे. सम्यक्द्रष्टि आनंदनी दशानुं वेदन करे छे. तेने जे राग आवे तेने ते जाणे छे पण द्रष्टिना सामर्थ्यथी तेनो ए कर्ता अने भोक्ता थतो नथी. अहो! सम्यग्दर्शन अलौकिक छे!

धर्मीने शुभराग आवे छे, पण धर्मी रागने दुःखरूप हेय जाणे छे. अज्ञानी रागने पोतानुं कर्तव्य अने एनाथी पोताने सुख थवानुं माने छे. बेनी मान्यतामां आसमान- जमीननो फेर छे. तेथी अज्ञानी विकारना कर्तापणे परिणमे छे, तो ज्ञानी विकारना कर्तापणे परिणमता नथी. अहो! शुं द्रष्टिनुं माहात्म्य!

अहीं कह्युं के-साधक मंत्रनो कर्ता छे, पण जे स्त्रीओ स्वयमेव विडंबना पामे छे के जे सर्पनुं झेर उतरी जाय छे-इत्यादि ते बधी परद्रव्यनी क्रियानो साधक कर्ता नथी. एम देव-गुरु- शास्त्रनी श्रद्धानो राग, पंचमहाव्रतना परिणाम, शास्त्रनुं ज्ञान ए बधां निमित्त हो, पण ए निमित्त आत्माने जे सम्यग्दर्शन थाय एना कर्ता नथी. जेम निमित्त परनो कर्ता नथी तेम व्यवहाररत्नत्रय निश्चयरत्नत्रयना कर्ता नथी.

अहा! जगतना जीवोमां मिथ्याश्रद्धानां शल्य पडयां छे ने माने छे के अमे धर्म करीए छीए!

अहीं कहे छे-‘जीवना भावो निमित्तमात्र थतां, पुद्गलद्रव्य पोते पोताना भावथी ज कर्मरूपे परिणमे छे. परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभाव मात्र छे. कर्ता तो बन्ने पोतपोताना भावना छे. ए निश्चय छे.’

[प्रवचन नं. १प६-१प७ (चालु) * दिनांकः १प-८-७६ अने १६-८-७६]

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अज्ञानादेव कर्म प्रभवतीति तात्पर्यमाह–

परमप्पाणं कुव्वं अप्पाणं पि य परं करिंतो सो।
अण्णाणमओ जीवो कम्माणं कारगो होदि।। ९२ ।।
परमात्मानं कुर्वन्नात्मानमपि च परं कुर्वन् सः।
अज्ञानमयो जीवः कर्मणां कारको भवति।। ९२ ।।

हवे, अज्ञानथी ज कर्म उत्पन्न थाय छे एम तात्पर्य कहे छेः-

परने करे निजरूप ने निज आत्मने पण पर करे,
अज्ञानमय ए जीव एवो कर्मनो कारक बने. ९२.

गाथार्थः– [परम्] जे परने [आत्मानं] पोतारूप [कुर्वन्] करे छे [च] अने [आत्मानम् अपि] पोताने पण [परं] पर [कुर्वन्] करे छे [सः] ते [अज्ञानमयः जीवः] अज्ञानमय जीव [कर्मणां] कर्मोनो [कारकः] कर्ता [भवति] थाय छे.

टीकाः– अज्ञानथी आ आत्मा परनो अने पोतानो परस्पर विशेष (तफावत) न जाणतो होय त्यारे परने पोतारूप करतो अने पोताने पर करतो, पोते अज्ञानमय थयो थको, कर्मोनो कर्ता प्रतिभासे छे. ते स्पष्टताथी समजाववामां आवे छेः-जेम शीत-उष्णनो अनुभव कराववामां समर्थ एवी शीत-उष्ण पुद्गलपरिणामनी अवस्था पुद्गलथी अभिन्नपणाने लीधे आत्माथी सदाय अत्यंत भिन्न छे अने तेना निमित्ते थतो ते प्रकारनो अनुभव आत्माथी अभिन्नपणाने लीधे पुद्गलथी सदाय अत्यंत भिन्न छे, तेवी रीते ते प्रकारनो अनुभव कराववामां समर्थ एवी राग-द्वेष-सुख-दुःखादिरूप पुद्गलपरिणामनी अवस्था पुद्गलथी अभिन्नपणाने लीधे आत्माथी सदाय अत्यंत भिन्न छे अने तेना निमित्ते थतो ते प्रकारनो अनुभव आत्माथी अभिन्नपणाने लीधे पुद्गलथी सदाय अत्यंत भिन्न छे. ज्यारे अज्ञानने लीधे आत्मा ते राग-द्वेष-सुख-दुःखादिनो अने तेना अनुभवनो परस्पर विशेष न जाणतो होय त्यारे एकपणाना अध्यासने लीधे, शीत-उष्णनी माफक (अर्थात् जेम शीत-उष्णरूपे आत्मा वडे परिणमवुं अशकय छे तेम), जेमना रूपे आत्मा वडे परिणमवुं अशकय छे एवां रागद्वेषसुखदुःखादिरूपे अज्ञानात्मा वडे परिणमतो थको (अर्थात् परिणम्यो होवानुं मानतो थको), ज्ञाननुं अज्ञानत्व प्रगट करतो, पोते अज्ञानमय थयो थको, ‘आ हुं रागी छुं (अर्थात् आ हुं राग करुं छुं)’ इत्यादि विधिथी रागादि कर्मनो कर्ता प्रतिभासे छे.


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भावार्थः– रागद्वेषसुखदुःखादि अवस्था पुद्गलकर्मना उदयनो स्वाद छे; तेथी ते, शीत- उष्णपणानी माफक, पुद्गलकर्मथी अभिन्न छे अने आत्माथी अत्यंत भिन्न छे. अज्ञानने लीधे आत्माने तेनुं भेदज्ञान नहि होवाथी ते एम जाणे छे के आ स्वाद मारो ज छे; कारण के ज्ञाननी स्वच्छताने लीधे रागद्वेषादिनो स्वाद, शीतउष्णपणानी माफक, ज्ञानमां प्रतिबिंबित थतां, जाणे के ज्ञान ज रागद्वेष थई गयुं होय एवुं अज्ञानी ने भासे छे. तेथी ते एम माने छे के ‘हुं रागी छुं, हुं द्वेषी छुं, हुं क्रोधी छुं, हुं मानी छुं’ इत्यादि. आ रीते अज्ञानी जीव रागद्वेषादिनो कर्ता थाय छे.

* * *
समयसार गाथा ९२ः मथाळुं

हवे, अज्ञानथी ज कर्म उत्पन्न थाय छे एम तात्पर्य कहे छेः-

* गाथा ९२ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘अज्ञानथी आ आत्मा परनो अने पोतानो परस्पर विशेष (तफावत) न जाणतो होय त्यारे परने पोतारूप करतो अने पोताने पर करतो, पोते अज्ञानमय थयो थको, कर्मोनो कर्ता प्रतिभासे छे.’

अज्ञानथी आत्मा पर एटले राग-व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प अने पोतानी जुदाई जाणतो नथी. एटले ते परने-रागने पोतारूप करतो अने पोताने पररूप एटले रागरूप करतो, अज्ञानमय थयो थको, कर्मोनो एटले विकारी परिणामोनो कर्ता प्रतिभासे छे. अहीं जडकर्मोनी वात नथी. ते स्पष्टताथी समजाववामां आवे छेः-

‘जेम शीत-उष्णनो अनुभव कराववामां समर्थ एवी शीत-उष्ण पुद्गलपरिणामनी अवस्था पुद्गलथी अभिन्नपणाने लीधे आत्माथी सदाय अत्यंत भिन्न छे अने तेना निमित्ते थतो ते प्रकारनो अनुभव आत्माथी अभिन्नपणाने लीधे पुद्गलथी सदाय अत्यंत भिन्न छे.’

शुं कहे छे? ठंडी अने गरम ए पुद्गलनी जडनी अवस्था छे. ते अवस्था पुद्गलथी अभिन्न छे अने आत्माथी सदाय अत्यंत भिन्न छे. ठंडी अने गरम अवस्था भगवान आत्माथी अत्यंत भिन्न छे. आत्मा कदीय ठंडो के गरम थतो नथी. आ मरचु खाय त्यारे तीखाशरूपे आत्मा थतो नथी. तीखो स्वाद ए तो जडनी पर्याय छे. अज्ञानी माने छे के हुं तीखाशरूपे थई गयो, पण आत्मा तीखा रसपणे थतो नथी. ठंडी अने गरम अवस्था पुद्गलथी अभिन्नपणाने लीधे आत्माथी भिन्न छे. परंतु ठंडी अने गरम अवस्थानुं ज्ञान पोतामां-आत्मामां थाय छे. ए ज्ञानथी अभिन्न छे. ठंडी अने गरम अवस्थानुं जे ज्ञान थाय एनाथी आत्मा अभिन्न छे अने ते ज्ञान पुद्गलथी सदाय भिन्न छे.


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आ द्रष्टांत कह्युं. हवे सिद्धांत कहे छे-‘तेवी रीते ते प्रकारनो अनुभव कराववामां समर्थ एवी राग-द्वेष-सुख-दुःखादिरूप पुद्गलपरिणामनी अवस्था पुद्गलथी अभिन्नपणाने लीधे आत्माथी सदाय अत्यंत भिन्न छे अने तेना निमित्ते थतो ते प्रकारनो अनुभव आत्माथी अभिन्नपणाने लीधे पुद्गलथी सदाय अत्यंत भिन्न छे.’

दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना परिणाम ते पुद्गलपरिणाम छे. जेम शीत-उष्ण पुद्गलना परिणाम छे तेम पुण्य अने पाप, दया अने दान, व्रत अने भक्ति, काम अने क्रोध इत्यादि भाव बधा पुद्गलना परिणाम छे. पहेलां गाथा ९१मां रागद्वेषादि भावनो कर्ता अज्ञानभावे आत्मा छे एम कह्युं अने अहीं ए परिणाम जडमां नाखी दीधा. अहीं तो विभावने स्वभावथी भिन्न करवो छे ने! रागादिभाव जीवना स्वभावमां तो नथी अने परसंगे पुद्गलना निमित्ते उत्पन्न थयेला छे तेथी ते पुद्गलना परिणाम छे एम कह्युं छे. परना संगमां ऊभा रहीने उत्पन्न थयेला परिणाम परना ज-पुद्गलना ज छे एम अहीं वात छे. ते राग-द्वेष-सुख-दुःख आदि परिणाम जीवने ज्ञान कराववामां समर्थ एटले निमित्त छे. ज्ञान तो आत्मा पोते पोताथी करे छे. ज्ञानमां स्व-परने प्रकाशवानुं सहज सामर्थ्य छे. तेथी स्व-परनुं ज्ञान करनारो जीव पोते छे अने ते ज्ञानमां रागद्वेषादि पर पदार्थ निमित्त छे. एटले रागादिने जाणनारी ज्ञाननी अवस्था पोताथी थई छे, रागादिथी थई छे एम नथी.

भाई! खूब शांति अने धीरज केळवी सांभळवा जेवी आ सूक्ष्म वात छे. शीत-उष्ण अवस्था पुद्गलथी अभिन्न छे. ते शीत-उष्ण अवस्था ज्ञानमां निमित्त छे. शीत-उष्ण अवस्था ज्ञाननी पर्यायनी कर्ता नथी, अने ज्ञाननी पर्याय शीत-उष्ण अवस्थानी कर्ता नथी. तेम भगवान आत्मामां दया, दान, व्रत, भक्तिना परिणाम तथा हिंसा, जूठ, चोरी आदिना परिणाम अने सुख-दुःखनी जे कल्पना थाय ते सघळा पुद्गलना परिणाम छे; केमके ते शुद्ध चैतन्यनी-आत्माथी जात नथी. पुण्य-पापना पुद्गलपरिणाम ते पुद्गलथी अभिन्न छे अने आत्माथी ते परिणाम सदाय भिन्न छे. अने तेना निमित्ते थतो ते प्रकारनो अनुभव एटले ज्ञान आत्माथी अभिन्नपणाने लीधे पुद्गलथी सदाय अत्यंत भिन्न छे.

भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यमय प्रभु आनंदनो नाथ छे. तेना द्रव्य-गुणमां तो राग नथी. पर्यायमां जे राग थाय छे तेने अहीं पुद्गलना परिणाममां नाख्या छे. निमित्तने आधीन थतां जे दया, दान, काम, क्रोधादि शुभाशुभ भाव थाय ते पुद्गलना परिणाम छे. ते पुद्गलथी अभिन्न-एकमेक छे. आत्माथी ते परिणाम अत्यंत भिन्न छे. अज्ञानी पुण्य-पाप आदि भावोनो अज्ञानभावे कर्ता छे, पण ज्ञान थतां ज्ञानी ते पुद्गलपरिणामनो कर्ता नथी एम अहीं सिद्ध करवुं छे. राग अने ज्ञाननुं भेदज्ञान


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अहीं कराववुं छे. राग-द्वेषना परिणाम ज्ञान थवामां निमित्त छे पण रागद्वेषना परिणाम ते जीवनुं कार्य नथी. आत्मा रागद्वेषनो कर्ता थाय एवी कोई शक्ति आत्मामां नथी.

रागद्वेषादि परिणाम जीवनी-चैतन्यनी जातिना नथी माटे तेने पुद्गलना परिणाम कह्या छे. ७२मी गाथामां तेने अचेतन जड कह्या छे. त्यां गाथा ७२मां कह्युं छे के-शुभाशुभ परिणाम अशुचि छे, भगवान आत्मा अत्यंत शुचि छे; पुण्य-पापना भाव जड छे, भगवान आत्मा शुद्ध विज्ञानघन छे; पुण्य-पापना भाव दुःखरूप छे, भगवान आत्मा सदा आनंदरूप छे. अरेरे! एने खबर नथी के आत्माने विज्ञानघन भगवान कहीने बोलाव्यो छे. माता बाळकने पारणामां सुवाडे त्यारे तेनां वखाण करीने सुवाडे छे. ‘‘मारो दीकरो डाह्यो ने पाटले बेसी नाह्यो’’ एम प्रशंसा करीने सुवाडे छे. जो ठपकावे तो बाळक घोडियामां न सूवे. तेम अहीं त्रिलोकनाथ तीर्थंकरदेव अने वीतरागी संतो जगतना जीवोने जगाडवा ‘भगवान’ कहीने बोलावे छे. कहे छे-

अरे भगवान! तुं त्रणलोकनो नाथ छुं! आ रागद्वेषादि परिणाम छे ए तो पुद्गलना परिणाम छे, तारी चैतन्यजातिनी ए चीज नथी. आ व्यवहाररत्नत्रयना परिणाम जड, अचेतन पुद्गलना परिणाम छे. जेम शीत-उष्ण अवस्था जडनी साथे अभेद छे तेम व्यवहाररत्नत्रयना परिणाम जड पुद्गलनी साथे अभेद छे. सांभळीने लोको राड नाखी जाय छे! पण भाई! जे व्यवहाररत्नत्रयने तुं साधन माने छे तेने तो अहीं पुद्गलना परिणाम एटले जड-अचेतन कह्या छे. ते मोक्षमार्गनुं साधन केम होय?

अहो! श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे शुं गजब काम कर्युं छे! आत्मा तो आत्माराम छे. ‘निजपद रमे सो राम कहीए.’ अतीन्द्रिय आनंदमां रमे ते आत्माराम छे. अने जे रागमां रमे ते अनात्मा हराम छे. रागमां रमे ते आत्मा-राम नथी, हराम छे. ७२मी गाथामां रागने अनात्मा जड कह्यो छे अने जीव-अजीव अधिकारमां दया, दान, व्रत आदि परिणामने अजीव कह्या छे.

अहीं पण ए ज कहे छे के-राग-द्वेष-सुख-दुःखादि पुद्गलपरिणामनी अवस्था पुद्गल साथे अभिन्नताना कारणे आत्माथी अत्यंत भिन्न छे. अहाहा! दया, दान अने व्यवहाररत्नत्रयना परिणाम पुद्गलथी अभिन्न छे अने आत्माथी अत्यंत भिन्न छे. बहु सूक्ष्म वात, भाई.

अरे! रळवा-कमावामां आ जिंदगी (व्यर्थ) चाली जाय छे भाई! कदाच पांच-पचास लाख मळी जशे, पण मूळ वस्तु (आत्मा) हाथ नहि आवे, भाई! आम ने आम तुं रखडीने मरी गयो (दुःखी थयो) छुं! आवी सूक्ष्म वात सांभळवा मांड मळी छे तो धीरजथी सांभळीने निर्णय कर. अहीं कहे छे के देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो


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राग अने व्यवहाररत्नत्रयनो राग पुद्गलथी अभिन्न छे अने ताराथी भिन्न छे. शुद्ध चैतन्यना लक्षे जे आत्माना आनंदनो अनुभव थाय तेमां ते निमित्त हो, पण एनाथी अनुभवनी दशा थई नथी. शुं पुद्गलपरिणामथी चैतन्यनी दशा थाय? न थाय.

भगवाने नव तत्त्व कह्यां छे. ते बधां भिन्न भिन्न छे. आस्रव तत्त्व जीव तत्त्वथी भिन्न छे. जो एम न होय तो नव तत्त्व सिद्ध नहि थाय. पुण्य तत्त्व जो जीवनुं थई जाय तो बन्ने एक थई जाय. तो नव तत्त्व रहे नहि. भगवान आत्मा ज्ञायक तत्त्व छे. ते पुण्य तत्त्वरूप केम थाय?

पुण्य-पाप-सुख-दुःखादिनुं जे ज्ञान थाय ते ज्ञान आत्माथी अभिन्न छे अने पुण्य- पाप आदि भाव आत्माथी भिन्न छे. आत्मा स्वपरप्रकाशक ज्ञानरूपे पोताथी परिणमे छे. तेमां दया, दान आदि पुण्य-पापना भाव निमित्तमात्र छे. निमित्तनो अर्थ उपस्थिति छे. ज्ञान तो पोताथी थयुं छे, निमित्तथी नहि.

हवे कहे छे-‘ज्यारे अज्ञानने लीधे आत्मा ते राग-द्वेष सुख-दुःखादिनो अने तेना अनुभवनो परस्पर विशेष न जाणतो होय त्यारे एकपणाना अध्यासने लीधे, शीत-उष्णनी माफक (अर्थात् जेम शीत-उष्णरूपे आत्मा वडे परिणमवुं अशकय छे तेम), जेमना रूपे आत्मा वडे परिणमवुं अशकय छे एवां राग-द्वेष-सुख-दुःखादिरूपे अज्ञानात्मा वडे परिणमतो थको (अर्थात् परिणम्यो होवानुं मानतो थको), ज्ञाननुं अज्ञानत्व प्रगट करतो, पोते अज्ञानमय थयो थको, ‘‘आ हुं रागी छुं (अर्थात् आ हुं राग करुं छुं)’’ -इत्यादि विधिथी रागादि कर्मनो कर्ता प्रतिभासे छे.’

अज्ञानीने दया, दानना परिणाम अने आत्मानी एक्तानो अध्यास छे. तेथी ए बे वच्चेनी भिन्नतानुं एने भान नथी. पुण्य-पापना परिणाम माराथी भिन्न छे अने ते संबंधीनुं ज्ञान माराथी अभिन्न छे एवुं अज्ञानीने भान नथी. जेम शीत-उष्ण अवस्था आत्मा द्वारा करावी अशकय छे तेम राग-द्वेषादि अवस्था आत्मा द्वारा करावी अशकय छे. दया, दान आदि परिणामरूपे आत्मानुं परिणमवुं अशकय छे. अहाहा...! हुं जाणनार-जाणनार एक ज्ञायक छुं एवुं भान नहि राखतां दया-दान-पुण्य-पापरूपे अज्ञानात्मा वडे परिणमतो थको एटले ते-रूपे पोते परिणम्यो होवानुं मानतो, अज्ञानी थयो थको आ हुं दया-दान आदि करुं छुं इत्यादि भाव वडे रागादि कर्मनो अज्ञानी कर्ता प्रतिभासे छे.

भगवान आतमा ज्ञायकस्वभावी चैतन्यबिंब प्रभु छे. अने पुण्य-पापना भाव, मिथ्यात्वना भाव अचेतन जड छे. शुभाशुभभाव छे ते मलिन आस्रवभाव छे. ते विपरीतस्वभाववाळा अचेतन जड छे. ते शुभाशुभभावपणे आत्मानुं परिणमवुं अशकय छे. छठ्ठी गाथामां आवे छे के-ज्ञायक आत्मा शुभाशुभभावोना स्वभावे परिणमतो नथी.