Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 93-94.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 55 of 210

 

PDF/HTML Page 1081 of 4199
single page version

जो शुभाशुभभावरूपे परिणमे तो पोते जड थई जाय; केमके शुभाशुभभाव अचेतन जड छे. जे राग छे ते पोताने जाणे नहि, परने जाणे नहि अने समीपवर्ती आत्माने पण जाणे नहि. राग बीजा द्वारा जणाय छे. तेथी रागने अचेतन जड कह्यो छे. तेथी आत्मा जे ज्ञायकभावरूप छे ते रागद्वेषना अचेतनभावपणे केम थाय?

आत्मा परनो कर्ता थाय अने ते परनुं कार्य करे ए वात तो कयांय रही गई. शरीर, मन, वाणीनी क्रिया अने जगतनी व्यवस्थानां काम आत्मा करे ए वात बाजुए रही. अहीं कहे छे के भगवान आत्मानुं दया, दान, व्रत, भक्ति आदि जे विकल्प थाय ते विकल्पपणे परिणमवुं अशकय छे. पुण्य-पापना जे भाव थाय छे ते अज्ञानभाव छे. एटले के पुण्यपापना भावमां ज्ञानभावनो अंश नथी. ते भाव चैतन्यनी विरुद्ध जातिना विजातीय, जड अने अचेतन छे. भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप छे. अने ज्ञाननुं ज्ञानपणे ज परिणमन थवुं जोईए अने ते ज वास्तविक छे. परंतु पोताना ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि नहि होवाथी मिथ्याद्रष्टि जीवने हुं रागद्वेषपणे, पुण्य-पापना भावपणे परिणमुं छुं एम भासे छे. आ प्रमाणे ज्ञाननुं अज्ञानत्व प्रगट करतो ते रागादि कर्मोनो कर्ता थाय छे. भगवान ज्ञायकनी द्रष्टिनो अभाव छे एवो मिथ्याद्रष्टि जीव हुं स्वयं रागी छुं, पुण्य-पापनो हुं कर्ता छुं, आ शुभाशुभ परिणाम हुं करुं छुं- एम मानतो ते रागादि कर्मोनो कर्ता प्रतिभासे छे.

आ सर्वज्ञ भगवाननी दिव्यध्वनिनो सार भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवे आ शास्त्रमां भर्यो छे. तेनी अमृतचंद्राचार्यदेवे टीकामां विशेष स्पष्टता करी छे. आचार्यदेव कहे छे-भगवान! तुं प्रज्ञा ब्रह्म प्रभु छो. ज्ञान अने आनंद तारुं स्वरूप छे अने ते-रूपे परिणमवुं ए तारुं निजकार्य छे. जेम शीत-उष्णपणे परिणमवुं तारुं कार्य नथी तेम दया दानना रागपणे परिणमवुं ए तारुं कार्य नथी. प्रभु! तारी प्रभुतानी तने खबर नथी! ज्ञान अने आनंदरूपे परिणमवुं ए तारी प्रभुता छे. रागपणे परिणमवुं ए तारी प्रभुता नथी. रागपणे परिणमतां तो ज्ञाननुं अज्ञानत्व प्रगट थाय छे.

ज्ञानरसथी भरेलो भगवान ज्ञायक पोते ज्ञानपणे परिणमे एवी एनी शक्ति छे. व्यवहाररत्नत्रयना रागपणे परिणमे एवी एनी शक्ति नथी. व्यवहाररत्नत्रयना रागपणे ज्ञायक आत्मानुं परिणमवुं अशकय छे. परंतु अरे! आवा निज ज्ञायकभावनी रुचि छोडीने अज्ञानी रागरूपे (अज्ञानपणे) परिणमे छे! ज्ञानस्वरूपे परिणमवाने बदले रागरूपे परिणमे ते एनुं अज्ञानरूप परिणमन छे.

ज्ञानस्वरूपे आत्मा परिणमे तेने ज्ञानरूप परिणमन कहे छे अने रागरूपे परिणमे तेने अज्ञानरूप परिणमन कहे छे. अरे भाई! व्यवहाररत्नत्रयना रागरूपे तो ते अनंतवार परिणम्यो छे. छहढालामां आवे छे ने के-


PDF/HTML Page 1082 of 4199
single page version

‘‘मुनिव्रत धार अनंत वार ग्रीवक ऊपजायो;
पै निज आतमज्ञान बिना, सुख लेश न पायौ.’’

भाई! पंचमहाव्रतना परिणाम, र८ मूळगुणना परिणाम ते राग छे, विभाव छे, झेर छे. भगवान आत्मा अमृतनो सागर छे. अमृतस्वरूप आनंदनो नाथ एवो ते रागना झेरपणे केम थाय? परंतु अज्ञानी पोताना अमृतस्वरूप भगवान ज्ञायकनी द्रष्टि छोडीने पर्यायबुद्धि थईने हुं पुण्यपाप आदि भावोनो कर्ता छुं एम अज्ञानपणे माने छे.

त्रिकाळी ज्ञायकस्वरूपनी द्रष्टि थाय तो रागपणे हुं परिणमुं छुं एवी द्रष्टि रहे नहि. समकितीने ज्ञाताद्रष्टास्वभावनी द्रष्टिनुं परिणमन होय छे. तेने ए ज्ञानरूप परिणमन छे. ज्ञानभाव छोडीने ज्ञानी रागस्वभावे परिणमतो नथी केमके एनी द्रष्टि ज्ञायक उपर स्थिर थई छे. परंतु अज्ञानीनी नजर ज्ञायक उपर नथी तेथी पोते स्वभावथी ज्ञानस्वरूप होवा छतां ज्ञानपणे परिणमवाने बदले ज्ञाननुं अज्ञानत्व प्रगट करतो रागनो कर्ता थईने परिणमे छे. हुं पुण्यपाप आदि करुं छुं एम मानतो पुण्यपाप आदि भावपणे-अज्ञानपणे परिणमतो ते रागादिनो कर्ता थाय छे. अहो! अमृतचंद्राचार्यदेवे अलौकिक टीका करी छे. हुं ज्ञाता छुं एम द्रष्टि करी परिणमे ते ज्ञानपरिणमन छे, केमके एमां ज्ञाननु ज्ञानत्व प्रसिद्ध थाय छे; परंतु हुं रागी छुं एम मानी रागपणे परिणमे ते अज्ञान-परिणमन छे केमके एमां ज्ञाननुं अज्ञानत्व प्रसिद्ध थाय छे. अहो! गजब वात छे! आमां तो जैनदर्शननो सार भरी दीधो छे.

आ पैसा-बैसा तो बधुं थोथां छे. एनी पाछळ तो हेरान थई जवानुं छे. एम ने एम प्रभु! तुं चोरासीना अवतार करी हेरान थई रह्यो छुं. अहीं कहे छे के भगवान आत्मा एकलुं चैतन्यबिंब ज्ञायकभावथी भरपूर अंदर पडयो छे. ते ज्ञानपणे परिणमे, निविंकारपणे परिणमे एवी एनी शक्ति अने सामर्थ्य छे. परंतु आवा चिद्रूप-स्वरूपनी द्रष्टिनो अभाव होवाथी ते पर्यायद्रष्टि थईने जाणे शुभाशुभ राग ज पोतानुं स्वरूप छे एम मानतो थको शुभाशुभभावरूपे परिणमतो अज्ञानने प्रगट करे छे. अज्ञानी पोतानी पर्यायमां जे विकार थाय छे तेमां तद्रूप थई रच्योपच्यो रहे छे अने माने छे के हुं रागी छुं. आ प्रमाणे ते ज्ञाननुं अज्ञानत्व प्रगट करे छे. ‘ज्ञाननुं अज्ञानत्व’ -ए शब्दमां घणी गंभीरता छे. अहा! पोताना चैतन्यस्वरूपने छोडीने जे एकला रागपणे परिणमे छे ते ज्ञाननुं अज्ञानत्व प्रगट करतो रागनो कर्ता थाय छे. अहो! गाथा अलौकिक छे! रागमां ज्ञान नथी अने ज्ञामां राग नथी एवुं सूक्ष्म रहस्य गाथामां प्रगट करेलुं छे.

आ टीकानुं नाम आत्मख्याति छे. आत्मख्यातिमां श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे अमृत भर्यां छे. आत्मख्याति एटले आत्मप्रसिद्धि. शुद्ध चैतन्यना लक्षे आत्मा प्रसिद्ध थाय छे.


PDF/HTML Page 1083 of 4199
single page version

परंतु अज्ञानी पोताना चैतन्यस्वरूप भगवानने भूलीने परलक्षे रागनी-अज्ञाननी प्रसिद्धि करे छे अने तेथी ते रागनो कर्ता थाय छे.

आ परमात्मानी दिव्यध्वनिमां आवेली परम सत्य वात छे. बे चार मास शुद्ध चैतन्यनी वात पण सांभळे तोपण जीवने ऊंचां पुण्य बंधाई जाय छे अने ते पुण्यना उदयथी लक्ष्मी आदि सामग्री मळे छे. अहा! तो रागनुं लक्ष छोडी शुद्ध चैतन्यनी द्रष्टि करे एनी तो शी वात! ए तो न्याल थई जाय छे. एने तो जे वडे जन्म-मरणनो अंत आवे एवुं सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. भाई! पुण्यना योगे बहारनी लक्ष्मी आदि मळे ए तो धूळ छे. तथा पुण्य अने एना फळने पोताना माने ए मिथ्यात्व छे. जीव तो शुद्ध चैतन्यस्वरूप छे, पण पुण्यपाप आदि अजीवने पोताना माने ते मिथ्याद्रष्टि छे. मिथ्याद्रष्टि जीव पोते अज्ञानी थयो थको ‘आ हुं रागी छुं’ इत्यादि विधिथी रागादि कर्मनो कर्ता प्रतिभासे छे. हुं रागी छुं एटले राग मारुं कर्तव्य छे अने हुं रागनो कर्ता छुं एम अज्ञानीने प्रतिभासे छे. ज्यां सुधी द्रष्टि राग उपर छे त्यां सुधी ते रागनो कर्ता छे अने त्यांसुधी मिथ्याद्रष्टि छे. आवो आ वीरनो मार्ग छे! आवे छे ने के-

‘‘वीरनो मारग छे वीरानो, ए कायरना नहि काम जो ने’’

भाई! रागथी धर्म माने ते कायर नपुंसक छे. आत्मामां वीर्य नामनो गुण छे. ए वीर्य गुण तो निर्मळ परिणति उत्पन्न करे तेवो छे. रागनी उत्पत्ति थाय ते वीर्यगुणनुं काम नहि. रागने उत्पन्न करनारी पर्यायने तो नपुंसक कहेवामां आवे छे. समयसार गाथा ३९मां आत्मानुं असाधारण लक्षण नहि जाणवाने लीधे अज्ञानीने नपुंसक कह्यो छे. तेम ज शुभरागनी रुचि करे, शुभरागनी रचना करे तेने पुण्यपाप अधिकारनी १प४मी गाथामां नामर्द एटले नपुंसक कह्यो छे. त्यां कह्युं छे के-‘‘दुरंत कर्मचक्रने पार उतरवानी नामर्दाईने लीधे...पोते स्थूळ लक्ष्यवाळा होईने समस्त कर्मकांडने मूळथी उखेडता नथी.’’ आवा जीवोने नामर्द, नपुंसक एटले हीजडा कह्या छे. पाठमां (टीकामां) ‘क्लीब’ शब्द छे.

आ प्रमाणे ज्ञानानंदस्वभावनी द्रष्टि छोडीने रागपणे परिणमतो अज्ञानी हुं रागी छुं अने आ रागने हुं करुं छुं एवी बुद्धि वडे रागनो कर्ता थाय छे.

* गाथा ९२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘राग-द्वेष-सुख-दुःखादि अवस्था पुद्गलकर्मना उदयनो स्वाद छे; तेथी ते, शीत- उष्णपणानी माफक, पुद्गलकर्मथी अभिन्न छे. अने आत्माथी अत्यंत भिन्न छे. अज्ञानने लीधे आत्माने तेनुं भेदज्ञान नहि होवाथी ते एम जाणे छे के आ स्वाद मारो ज छे; कारण के ज्ञाननी स्वच्छताने लीधे रागद्वेषादिनो स्वाद, शीत-उष्णपणानी माफक ज्ञानमां प्रतिबिंबित थतां, जाणे के ज्ञान ज रागद्वेष थई गयुं होय एवुं अज्ञानीने भासे छे. तेथी ते एम


PDF/HTML Page 1084 of 4199
single page version

माने छे के ‘‘हुं रागी छुं, हुं द्वेषी छुं, हुं क्रोधी छुं, हुं मानी छुं,’’ इत्यादि. आ रीते अज्ञानी जीव राग-द्वेषादिनो कर्ता थाय छे.’

राग-द्वेष, पुण्य-पापना भाव, सुख-दुःख आदि अवसथा-ए बधो पुद्गलकर्मना उदयनो स्वाद छे. ए आत्माना आनंदनो स्वाद नथी. शीतउष्णपणानी माफक ए परिणामो पुद्गलथी अभिन्न छे. भगवान ज्ञायकथी ते परिणाम अत्यंत भिन्न छे. दया, दान, व्रत आदिना परिणाम आत्माथी अत्यंत भिन्न छे. परंतु अज्ञानीने आवुं भेदज्ञान नथी. तेथी ते एम ज जाणे छे के आ स्वाद मारो ज छे. अज्ञानी माने छे के राग मारी चीज छे. अरे भाई! तारी चीज तो ज्ञायक छे. ज्ञायक मारी चीज छे एम मानवाने बदले राग मारी चीज छे एम माने छे ते अज्ञान छे, मिथ्यात्व छे.

ज्ञाननी स्वच्छताने लीधे राग-द्वेषादिनो स्वाद ज्ञानमां प्रतिबिंबित थाय छे. जेवो राग थाय एवुं ज्ञानमां जाणवामां आवे छे. त्यां जाणे के ज्ञान ज रागद्वेषरूप थई गयुं होय एम अज्ञानीने भासे छे. राग तो खरेखर ज्ञाननुं परज्ञेय छे. पण एम न मानतां हुं रागद्वेषपणे ज थई गयो छुं एम अज्ञानीने भासे छे. तेथी ते एम माने छे के हुं रागी छुं, हुं द्वेषी छुं, हुं क्रोधी छुं, हुं मानी छुं इत्यादि. आ रीते अज्ञानी जीव रागद्वेषादि कर्मोनो कर्ता थाय छे; पण पोताना ज्ञाताद्रष्टास्वभावनुं भान प्रगट करतो नथी.

[प्रवचन नं. १प७ (शेष), १प८ * दिनांकः १६-८-७६ अने १७-८-७६]

PDF/HTML Page 1085 of 4199
single page version

ज्ञानात्तु न कर्म प्रभवतीत्याह–

परमप्पाणमकुव्वं अप्पाणं पि य परं अकुव्वंतो।
सो णाणमओ जीवो कम्माणमकारगो होदि।। ९३ ।।
परमात्मानमकुर्वन्नात्मानमपि च परमकुर्वन्।
स ज्ञानमयो जीवः कर्मणामकारको भवति।। ९३ ।।

ज्ञानथी कर्म उत्पन्न थतुं नथी एम हवे कहे छेः-

परने न करतो निजरूप, निज आत्मने पर नव करे,
ए ज्ञानमय आत्मा अकारक कर्मनो एम ज बने. ९३.

गाथार्थः– [परम्] जे परने [आत्मानम्] पोतारूप [अकुर्वन्] करतो नथी [च] अने [आत्मानम् अपि] पोताने पण [परम्] पर [अकुर्वन्] करतो नथी [सः] ते [ज्ञानमयः जीवः] ज्ञानमय जीव [कर्मणाम्] कर्मोनो [अकारकः भवति] अकर्ता थाय छे अर्थात् कर्ता थतो नथी.

टीकाः– ज्ञानथी आ आत्मा परनो अने पोतानो परस्पर विशेष जाणतो होय त्यारे परने पोतारूप नहि करतो अने पोताने पर नहि करतो, पोते ज्ञानमय थयो थको, कर्मोनो अकर्ता प्रतिभासे छे. ते स्पष्टताथी समजाववामां आवे छेः-जेम शीत-उष्णनो अनुभव कराववामां समर्थ एवी शीत-उष्ण पुद्गलपरिणामनी अवस्था पुद्गलथी अभिन्नपणाने लीधे आत्माथी सदाय अत्यंत भिन्न छे अने तेना निमित्ते थतो ते प्रकारनो अनुभव आत्माथी अभिन्नपणाने लीधे पुद्गलथी सदाय अत्यंत भिन्न छे, तेवी रीते ते प्रकारनो अनुभव कराववामां समर्थ एवी रागद्वेषसुखदुःखादिरूप पुद्गलपरिणामनी अवस्था पुद्गलथी अभिन्नपणाने लीधे आत्माथी सदाय अत्यंत भिन्न छे अने तेना निमित्ते थतो ते प्रकारनो अनुभव आत्माथी अभिन्नपणाने लीधे पुद्गलथी सदाय अत्यंत भिन्न छे. ज्यारे ज्ञानने लीधे आत्मा ते रागद्वेषसुखदुःखादिनो अने तेना अनुभवनो परस्पर विशेष जाणतो होय त्यारे, तेओ एक नथी पण भिन्न छे एवा विवेकने लीधे, शीत-उष्णनी माफक (अर्थात् जेम शीत-उष्णरूपे आत्मा वडे परिणमवुं अशकय छे तेम), जेमना रूपे आत्मा वडे परिणमवुं अशकय छे एवां रागद्वेषसुखदुःखादिरूपे अज्ञानात्मा वडे जराय नहि परिणमतो थको, ज्ञाननुं ज्ञानत्व प्रगट करतो,


PDF/HTML Page 1086 of 4199
single page version

पोते ज्ञानमय थयो थको, ‘आ हुं (रागने) जाणुं ज छुं, रागी तो पुद्गल छे (अर्थात् राग तो पुद्गल करे छे)’ इत्यादि विधिथी, ज्ञानथी विरुद्ध एवा समस्त रागादि कर्मनो अकर्ता प्रतिभासे छे.

भावार्थः– ज्यारे आत्मा रागद्वेषसुखदुःखादि अवस्थाने ज्ञानथी भिन्न जाणे अर्थात् ‘जेम शीत-उष्णपणुं पुद्गलनी अवस्था छे तेम रागद्वेषादि पण पुद्गलनी अवस्था छे’ एवुं भेदज्ञान थाय, त्यारे पोताने ज्ञाता जाणे अने रागादिरूप पुद्गलने जाणे. एम थतां, रागादिनो कर्ता आत्मा थतो नथी, ज्ञाता ज रहे छे.

* * *
समयसार गाथा ९३ः मथाळुं

ज्ञानथी कर्म उत्पन्न थतुं नथी एम हवे कहे छेः-

* गाथा ९३ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञानथी आ आत्मा परनो अने पोतानो परस्पर विशेष जाणतो होय त्यारे परने पोतारूप नहि करतो अने पोताने पर नहि करतो, पोते ज्ञानमय थयो थको कर्मोनो अकर्ता प्रतिभासे छे.’

सम्यग्दर्शन थतां हुं ज्ञानानंदस्वरूप भगवान चैतन्यमूर्ति आत्मा छुं अने अचेतन जड रागादि माराथी भिन्न छे एवुं भान थाय छे. दया-दाननो राग हो के पंचमहाव्रतनो राग हो- ए आस्रव छे, दुःखदायक छे; अने एनाथी भिन्न मारी चीज आनंददायक छे. आ प्रमाणे आत्मा अने परनुं अंतर जाणे ते पोते ज्ञानमय थयो थको कर्मोनो अकर्ता प्रतिभासे छे. भेदज्ञान थतां ज्ञानी रागने पोतारूप करतो नथी अने पोताने रागरूप करतो नथी. अहाहा...! त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यस्वभावमय जाणनस्वभावमय वस्तु आत्मा छे. एनी द्रष्टि थतां धर्मी एम जाणे छे के हुं तो ज्ञानमय छुं, रागमय नथी. व्यवहाररत्नत्रयनो जे राग छे ते हुं नथी. ज्ञानीने व्यवहार होय छे खरो, पण ते व्यवहारने ज्ञानी स्वरूपथी भिन्न ज माने छे. हुं तो व्यवहारनो-रागनो जाणनार छुं एम ज्ञानी माने छे. ते ते समये थतो राग ज्ञानीने मात्र जाणेलो प्रयोजनवान छे. आ वस्तुस्थिति छे. अहो! वस्तुस्थितिने कहेनारी भगवान कुंदकुंददेवनी आ अलौकिक वाणी छे!

पोताना ज्ञानानंदस्वभावने रागथी भिन्न करीने जे ज्ञानमय थयो ते एम जाणे छे के हुं तो ज्ञायक-जाणनार छुं; विषयवासनानो राग हो, पण हुं तो तेनो जाणनार ज्ञानस्वरूप छुं. अहा! मारा ज्ञानमां राग नथी अने रागमां मारुं ज्ञान नथी. हुं तो ज्ञानस्वरूप छु अने राग अचेतन छे; आ शुद्ध चैतन्यमूर्ति भगवान अचेतन एवा रागमां


PDF/HTML Page 1087 of 4199
single page version

केम होई शके? अने अचेतन राग शुद्ध चैतन्यमां केम होई शके? आ प्रमाणे भेदज्ञान थतां स्वयं ज्ञानमय थयो थको ते कर्मोनो अकर्ता थाय छे. अहीं ‘स्वयं’ नो अर्थ-कर्म खस्यां माटे ज्ञानमय थयो एम नहि, पण वस्तु अंदर चिदानंदघनस्वरूप पडी छे तेनो आश्रय करवाथी स्वयं ज्ञानमय थयो छे.

अहो! जैनदर्शन ए तो विश्वदर्शन छे अने ए ज विश्वने शरण छे. धर्मी एम माने छे के हुं तो स्वयं ज्ञानमय छुं. राग छे तो रागनुं ज्ञान थयुं छे एम नथी. ज्ञान ज्ञानथी पोताथी थयुं छे, एने कोई परनी अपेक्षा नथी. ज्ञानी स्वयं ज्ञानी थयो थको कर्मोनो अकर्ता प्रतिभासे छे. अहीं जड कर्मनी वात नथी. दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना शुभभावनो ज्ञानी अकर्ता प्रतिभासे छे एम वात छे. समजाणुं कांई? ते स्पष्टताथी समजाववामां आवे छेः-

‘जेम शीत-उष्णनो अनुभव कराववामां समर्थ एवी शीत-उष्ण पुद्गलपरिणामनी अवस्था पुद्गलथी अभिन्नपणाने लीधे आत्माथी सदाय अत्यंत भिन्न छे अने तेना निमित्ते थतो ते प्रकारनो अनुभव आत्माथी अभिन्नपणाने लीधे पुद्गलथी सदाय अत्यंत भिन्न छे.’......

जुओ, शीत-उष्ण अवस्था ते पुद्गलना परिणाम छे. ते पुद्गलथी अभिन्न एटले एकमेक छे. ते कारणथी ते अवसथा आत्माथी सदाय अत्यंत भिन्न छे. शीत-उष्ण अवस्था अनुभव कराववामां समर्थ छे एटले के ते अवस्था ज्ञान करवामां निमित्त छे. तेना निमित्ते थतो ते प्रकारनो अनुभव एटले ते प्रकारनुं ज्ञान आत्माथी अभिन्न छे. शीत-उष्णनुं जे ज्ञान थयुं ते आत्माथी अभिन्न छे. मतलब के शीत-उष्णनुं ज्ञान थयुं ते पोताथी थयुं छे, शीत- उष्ण अवस्था छे माटे थयुं छे एम नथी. शीत-उष्णनुं जे ज्ञान थयुं ते शीत-उष्ण अवस्थाथी सदाय भिन्न छे.

भगवान आत्मा ठंडी अने उनी अवस्थानो अनुभव करवामां समर्थ छे. अनुभवनो अर्थ तेनुं ज्ञान करवामां समर्थ छे. शीत-उष्णनो आत्मा अनुभव करे ए तो अशकय छे जडनी अवस्थानो आत्मा केम अनुभव करे? ठंडी-गरम अवस्थानो अनुभव एटले ज्ञान आत्मा करे छे एम अर्थ छे. आत्मा पोते पोताथी शीत-उष्ण अवस्थानुं ज्ञान करे छे तेमां ते शीत-उष्ण अवस्था निमित्त छे. शीत-उष्ण अवस्था छे माटे ज्ञान थयुं एम नथी, ज्ञान तो पोताथी स्वतंत्र थयुं छे.

शीत-उष्णनुं अहीं जे ज्ञान थयुं ते ज्ञान पण सम्यग्ज्ञानीने यथार्थ होय छे. जेने स्वरूपग्राही ज्ञान थाय तेने शीत-उष्ण अवस्थानुं साचुं ज्ञान थाय छे. कळशटीकामां (कळश ६०मां) आ वात करी छे. जेने स्वरूपग्राही ज्ञान थाय तेने परसंबंधीनुं परप्रकाशक ज्ञान यथार्थ थाय छे.


PDF/HTML Page 1088 of 4199
single page version

भाई! जन्ममरणनो अंत आवी जाय एवो आ अलौकिक मार्ग छे. जेम शीत-उष्णनुं ज्ञान आत्माथी अभिन्न छे अने पुद्गलथी सदाय अत्यंत भिन्न छे, ‘तेवी रीते ते प्रकारनो अनुभव कराववामां समर्थ एवी राग-द्वेष-सुख-दुःखादिरूप पुद्गलपरिणामनी अवस्था पुद्गलथी अभिन्नपणाने लीधे आत्माथी सदाय अत्यंत भिन्न छे अने तेना निमित्ते थतो ते प्रकारनो अनुभव आत्माथी अभिन्नपणाने लीधे पुद्गलथी सदाय अत्यंत भिन्न छे.’

जुओ, शुभाशुभ राग अने हरखशोकना परिणाम बधा पुद्गलना परिणाम छे. जेम शीत-उष्ण अवस्था अचेतन छे तेम रागद्वेष अने सुख-दुःखनी अवस्था पण अचेतन छे. ए रागद्वेष आदि अवस्था पुद्गलजन्य छे. ते अनुभव कराववामां समर्थ छे एटले के ते अवस्था ज्ञानमां निमित्त छे. जेवा राग-द्वेष अने जेवी सुखदुःखनी कल्पना छे एवुं ज्ञान थाय छे. ज्ञाननो स्वभाव छे के जेम होय तेम जाणे. दयादाननो विकल्प छे ते कर्मचेतना छे, अने हरखशोकना परिणाम छे ते कर्मफळचेतना छे. अहीं कहे छे के ए कर्मचेतना अने कर्मफळचेतना पुद्गलना परिणाम छे, अचेतन छे, ते पुद्गलपरिणाम पुद्गलथी अभिन्न छे अने आत्माथी सदाय अत्यंत भिन्न छे. बे वात करी छे; एक बाजु शुद्ध चैतन्यस्वभावमय आत्मा अने बीजी बाजु पुद्गल. दया, दान अने पंचमहाव्रतना परिणाम ते पुद्गलपरिणाम छे, केमके तेमां ज्ञाननो अंश नथी. अहीं तो रागथी भेदज्ञान कराव्युं छे.

ज्ञानमय आत्मा छे ते रागमय नथी, केमके राग अचेतन छे. राग थाय छे चेतननी पर्यायमां, पण निमित्तनी उपाधिपूर्वक राग थाय छे ते अपेक्षाथी रागने पुद्गल कह्यो छे. भगवान आत्मामां राग नथी अने आत्माना स्वभावना लक्षे राग उत्पन्न थतो नथी. आत्मामांथी तो ज्ञान अने आनंदनी उत्पत्ति थाय तेवी एनी शक्ति छे. तेथी रागने पुद्गलपरिणाम कह्या छे.

रागद्वेष अने हरखशोकना परिणामना निमित्ते ते प्रकारनो जे अनुभव एटले ते प्रकारनुं जे ज्ञान थाय छे ते आत्माथी अभिन्न छे. एटले जेवा रागद्वेष अने हरख-शोकना परिणाम थाय छे एवुं अहीं आत्मामां ज्ञान थाय छे. मतलब के ज्ञान ज्ञानथी पोताथी थाय छे तेमां ते ते रागद्वेषादि परिणाम निमित्त छे. ज्ञान ज्ञानमां एकाग्र थाय ते ज्ञानचेतना छे. ते ज्ञानचेतनामां आ रागादि परिणाम निमित्त छे. ते रागादि भाव पुद्गलथी अभिन्न होवाना कारणे जीवथी सदा अत्यंत भिन्न छे. राग आत्मानी चीज होय तो ते नीकळे कई रीते? जे चीज जीवमांथी नीकळी जाय ते चीज जीवनी नथी. माटे रागादि पुद्गलनी चीज छे.

पंचाध्यायीमां पुण्यपापना भावने आगंतुक कह्यो छे. जेम महेमान आवे छे अने चाल्या जाय छे तेम आत्मा जे चीज छे एमां आ रागद्वेषना भाव थाय


PDF/HTML Page 1089 of 4199
single page version

ते आगंतुक भाव छे. ते रागने अहीं अचेतन कहीने अनुभव कराववामां एटले ज्ञान कराववामां समर्थ एटले निमित्त छे एम कह्युं छे. ज्ञान तो स्वयं पोताथी थाय छे तेमां रागादि भाव निमित्त छे एम कह्युं छे. राग ज्ञानने करे के ज्ञान रागने करे एवी वस्तु नथी. भगवान आत्मा रागथी भिन्न पडीने ज्यां ज्ञानमय थयो त्यां ते कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनाना परिणाम ज्ञानमां (ज्ञेयपणे) निमित्त छे.

पोतानुं जे स्वपरप्रकाशक ज्ञान परिणम्युं ते ज्ञान आत्माथी अभिन्न छे अने परथी- रागादिथी सदाय अत्यंत भिन्न छे. तथा पर्यायमां जे रागादि परिणाम थया ते पुद्गलथी अभिन्न छे अने आत्माथी सदाय अत्यंत भिन्न छे. अहा! जेम करवतथी बे कटका करे तेम अहीं ज्ञान अने राग वच्चे भेदज्ञान करीने बे कटका करवानी वात छे. रागादि परिणाम ज्ञानमां निमित्त छे एनो अर्थ शुं? एनो अर्थ एटलो के ज्ञान पोताथी स्वपरप्रकाशकपणे परिणमे छे एमां ते रागादि भावो परज्ञेयपणे निमित्त छे. त्यां राग छे तो अहीं ज्ञान परिणम्युं छे एम नथी. आत्मा ज्ञान करवामां स्वतंत्र छे. राग थयो माटे रागनुं ज्ञान थयुं एम छे नहि. रागना निमित्ते थतुं ते प्रकारनुं ज्ञान आत्माथी अभिन्नपणाने लीधे पुद्गलथी (रागथी) सदाय अत्यंत भिन्न छे.

जुओ आ परमात्मानी वाणी! संतोनी वाणी! संतोनी वाणी ए परमेष्ठीनी वाणी छे. आचार्य पण परमेष्ठी छे ने! धवलमां ‘‘णमो लोए त्रिकालवर्ती सव्व अरिहंताणं’’ इत्यादि- एवो पाठ छे. त्रिकाळवर्ती पंचपरमेष्ठीना अस्तित्वनो स्वीकार करीने तेमने नमस्कार करवानो जे राग थयो ते पुद्गलना परिणाम छे एम अहीं कहे छे. अने ते पुद्गलपरिणाम ज्ञान कराववामां निमित्तरूपे समर्थ छे, पण छे तो ए पुद्गलपरिणाम, अने ते पुद्गलथी अभिन्न छे. तेनुं जे ज्ञान थयुं ते ज्ञान आत्माथी अभिन्न छे अने ते रागना परिणामथी अत्यंत भिन्न छे.

परद्रव्यने नमस्कारनो भाव ए राग छे, विकल्प छे. स्वना अनुभवमां लीन थवुं, स्वमां नमवुं ए निश्चय नमस्कार छे. स्वाश्रये निर्विकल्पदशा प्रगट करवी ते भावनमस्कार छे. पंचपरमेष्ठीनी वंदनानो जे विकल्प थयो ते कर्मचेतना छे. पंचपरमेष्ठीनी वंदनाना भावमां जे हरख आवी गयो ते कर्मफळचेतना छे. आ कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनाना परिणाम पुद्गलथी अभिन्न छे. अने ते प्रकारना ज्ञानथी ते परिणाम अत्यंत भिन्न छे. अहा! गजब वात छे!

प्रभु! तारी ऋद्धि तो देख! रागनुं ज्ञान करवा तुं समर्थ छो पण राग करे एवी तारी शक्ति नथी, केमके रागनी तारामां नास्ति छे. आ लीमडाना एक पांदडामां असंख्य शरीर छे अने एक शरीरमां एकेक जीव छे. एम ठसाठस जीव भर्या छे. दरेकना कार्माण अने तैजस शरीर भिन्न छे. आवा जीवोना अस्तित्वनो ज्ञानी ज स्वीकार करी शके. (अज्ञानीने एनो स्वीकार होतो नथी). अहा! आम असंख्य जीवो भीडमां


PDF/HTML Page 1090 of 4199
single page version

भींसाईने पडया छे! एक राई जेटली बटाटानी कटकीमां निगोदना जीवोनां असंख्य औदारिक शरीर छे. अने प्रत्येक शरीरमां अनंत एकेन्द्रिय जीवो छे. दरेकना परिणाम भिन्न छे. कोई जीवना परिणाम कोई अन्य जीवने स्पर्शता नथी. अरे प्रभु! तारा ज्ञाननी गंभीरता तो देख! ज्ञान तेने स्वीकारे छे अने ते वस्तु ज्ञानमां निमित्त पण छे. पण तेने स्वीकारतुं ज्ञान पोते पोताथी थयुं छे, पर निमित्तथी थयुं छे एम नथी.

अहाहा...! कहे छे के राग-द्वेष सुख-दुःखादि अवस्था पुद्गलना परिणाम छे. गजब वात छे ने! जे भावथी तीर्थंकरगोत्र बंधाय ए भाव पुद्गलनी दशा छे, केमके तेना निमित्ते पुद्गलकर्म बंधाय छे, तेनाथी पुद्गलनो संयोग थाय छे. ते भाव आत्मभाव नथी तेथी पुद्गलपरिणाम छे. ज्ञानीने तीर्थंकरगोत्रबंधना कारणरूप जे शुभराग आव्यो ते राग ज्ञानमां निमित्त थाय छे. ते शुभराग संबंधी तेने जे ज्ञान थयुं ते ज्ञान आत्माथी अभिन्न छे अने पुद्गलथी-ते शुभरागथी अत्यंत भिन्न छे. अहो! ज्ञाननी पर्यायनो अनंतना अस्तित्वने (अनंतपणे) जाणे एटलो विषय छे छतां परपदार्थ अने राग छे तो ज्ञान जाणे छे एम नथी.

प्रश्नः– शास्त्रमां आ बधी वात छे तो ज्ञान थाय छे ने?

उत्तरः– ना; ज्ञान पोताथी थाय छे. शास्त्रथी थतुं नथी. वळी परने जाणतां जे विकल्प थाय छे ते विकल्प ज्ञानथी भिन्न छे. माटे ते विकल्पथी ज्ञान थाय छे एम नथी.

आवो वीतरागनो मार्ग छे. केटलाक कहे छे समन्वय करो. पण वीतराग धर्मनो कोई साथे समन्वय थई शके एम नथी. कोईनी साथे विरोध के द्वेषनी आ वात नथी. पण कोई साथे समन्वय थाय एवो आ मार्ग नथी. अहा! जे वडे तीर्थंकरगोत्र बंधाय एवो जे राग तेनी साथे पण ज्ञानने एकता नथी. लोकोने एम लागे के तीर्थंकरगोत्र बांध्युं अने ते जीव तीर्थंकर थशे. परंतु तीर्थंकर थशे ए तो पोताना कारणे थशे. रागनो भाव आवतां तीर्थंकरगोत्र बंधाई जाय छे. परंतु पछी स्वनो आश्रय लेतां समस्त राग तूटशे त्यारे केवळज्ञान थतां तीर्थंकरगोत्रनो उदय आवशे. (एमां रागनुं अने कर्मनुं शुं कर्तव्य छे?)

राग मारो अने हुं एनो कर्ता एवी कर्ताबुद्धिथी अज्ञानी जीव दुःखीदुःखी छे. भगवान आत्मा आनंदनो नाथ आनंदमूर्ति प्रभु छे. तेने भूली राग मारो छे एम माननार अज्ञानी जीव चारगतिमां रखडतां महादुःखी छे, केमके राग दुःख छे. अहीं कहे छे ज्यां भेदज्ञान थयुं त्यां रागना परिणाम-दुःखना परिणाम पुद्गल साथे अभिन्न छे; अने ते रागपरिणामना निमित्ते ते प्रकारनुं जे ज्ञान थयुं ते आत्माथी अभिन्न छे अने रागथी भिन्न छे. तथा जे रागना परिणाम थया ते पुद्गलथी अभिन्न छे अने ज्ञानथी भिन्न छे. आवुं भेदज्ञान ज्यांसुधी करशे नहि त्यांसुधी भूलो पडेलो भगवान चार-गतिमां आथडशे.


PDF/HTML Page 1091 of 4199
single page version

लोको बिचारा वेपारधंधामां रळवा कमावामां गरी गया होय तेमने आ नक्की करवानी कयां फुरसद छे? पण दुःखथी बचवुं होय तो आ समज्या विना छूटको नथी, भाई! आ खेती नथी करता? खेतीमां बाजरी, जुवार, कपास वगेरे मोल पाके तेने जोईने खूब हरखाई जाय, राजी राजी थई जाय. गुजरातमां कपास ढगलाबंध पाके तो कहे के-काचुं सोनुं पाकयुं छे. अरे भाई! खेतीनो मोल छे ए तारी चीज नथी, ए तो परवस्तु छे. ते संबंधीनो जे विकल्प आव्यो ते तीव्र राग-दुःखरूप छे. ते रागना-दुःखना परिणाम निश्चयथी जीवथी भिन्न छे अने तेनुं ज्ञान थयुं ते आत्माथी अभिन्न छे. आ भेदज्ञाननी वात छे, अने ते ज दुःख दूर करवानो उपाय छे.

शीत-उष्णनी माफक पुण्य-पापना भावने अहीं पुद्गलमां नाखी दीधा छे. शीत-उष्ण छे ए परमाणुनी अवस्था छे अने आ रागद्वेष तो जीवनी पर्याय छे. तेने अहीं अचेतन कहीने पुद्गलपरिणाम कह्या छे. अचेतन छे पण तेमां स्पर्श, रस, गंध, वर्ण नथी. जडकर्मनी अवस्थामां स्पर्श, रस, गंध, वर्ण छे अने आ रागादि अवस्थामां स्पर्श, रस, गंध, वर्ण नथी. परंतु रागादिनी पर्यायमां ज्ञाननो अंश नथी माटे तेने अचेतन कहीने पुद्गलपरिणाम कह्या छे. अहो! आ समयसार जगतनुं अजोड, अद्वितीय चक्षु छे! भरतक्षेत्रनो भगवान छे! शीत- उष्णनुं पोतामां ज्ञान थाय छे तो ए शीत-उष्ण अवस्थाने ज्ञान कराववामां समर्थ कहेल छे. समर्थनो अर्थ अहीं निमित्त थाय छे. तेम रागद्वेषनी अवस्था ज्ञान कराववामां समर्थ छे एटले निमित्त छे. ज्ञान तो पोताथी थाय छे, निमित्त छे तो ज्ञान थाय छे एम नथी.

मोटां मकान, बंगला होय अने एमां मखमलना गालीचा अने लाखोनुं फर्नीचर होय, पण एमां तारे शुं भाई! ए तो बधी बहारनी धूळ छे अने ते अनंतवार संयोगमां मळी छे. एनी ममताबुद्धि होय तो एमांथी नीकळवुं बहु भारे पडशे भाई! तारे आत्मानी चैतन्यलक्ष्मी जोईती होय तो अहीं कहे छे के जे भावथी तीर्थंकरगोत्र बंधाय ते भाव अचेतन पुद्गलपरिणाम छे एम नक्की कर. ज्ञानस्वभावनो अभाव छे माटे ते भाव पुद्गलपरिणाम छे. अरे भाई! जे भाव अचेतन छे ते निश्चयनुं कारण केम थाय? चेतननी निर्मळ पर्याय थवामां अचेतन राग कारण थाय एम केम बने? ते भाव ज्ञानमां निमित्त हो, पण एनाथी निश्चय मोक्षमार्ग प्रगटे एम कदीय बने नहि. अचेतन राग कारण अने चैतन्यनी पर्याय कार्य एम कदी होय नहि.

द्रष्टिनी अपेक्षाए तो स्वानुभवनी जे निर्विकल्प दशा ए पण जीव नथी. ए दशा तो जीवनो पर्यायभाव छे. पर्यायनो भाव छे ते त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यमां नथी. सम्यग्दर्शननो विषय तो त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य छे. सम्यग्दर्शननी पर्याय के मोक्षमार्गनी पर्याय ते सम्यग्दर्शननो विषय नथी. मोक्षमार्गनी पर्याय ते मोक्षमार्गनो विषय नथी. अनुभूतिनी पर्याय त्रिकाळी ध्रुव सामान्यने विषय करे छे. आवुं वस्तुस्वरूप छे.


PDF/HTML Page 1092 of 4199
single page version

प्रश्नः– व्यवहाररत्नत्रयने परंपरा कारण कह्युं छे ने?

उत्तरः– हा, व्यवहाररत्नत्रयनो शुभराग ज्ञानीने मोक्षनुं परंपरा कारण व्यवहारथी कहेल छे. एनो अर्थ ज ए थयो के व्यवहाररत्नत्रय मोक्षमार्गनुं वास्तविक कारण नथी. रागथी भिन्न पडीने पोताना ज्ञायकस्वरूपनो जेने अनुभव थयो छे एवा समकिती धर्मी जीवने शुभना काळे अशुभ टळे छे अने स्वाश्रये तेने शुभ टळीने शुद्ध दशा प्रगट थशे ए अपेक्षाए ज्ञानीना व्यवहाररत्नत्रयने मोक्षनुं परंपरा कारण व्यवहारथी कहेल छे.

यथार्थ सिद्धांत आ एक ज छे के व्यवहारथी निश्चय न थाय, केमके व्यवहारनो शुभराग अचेतन छे, पुद्गलना पीरणामरूप छे. ते भगवान चैतन्यस्वरूप आत्मानी निर्मळ परिणतिनुं कारण थाय एम बनी शके नहि. ते ज्ञानमां निमित्त छे अने ज्ञान तेनुं जाणनार छे; एवुं ज्ञाननुं स्वपरप्रकाशक सहज सामर्थ्य छे. हवे कहे छे-

‘ज्यारे ज्ञानने लीधे आत्मा ते राग-द्वेष-सुख-दुःखादिनो अने तेना अनुभवनो परस्पर विशेष जाणतो होय त्यारे, तेओ एक नथी पण भिन्न छे एवा विवेकने लीधे, शीत- उष्णनी माफक, जेमना रूपे आत्मा वडे परिणमवुं अशकय छे एवां रागद्वेषसुख-दुःखादिरूपे अज्ञानात्मा वडे जराय नहि परिणमतो थको, ज्ञाननुं ज्ञानत्व प्रगट करतो, पोते ज्ञानमय थयो थको, ‘‘आ हुं (रागने) जाणुं ज छुं, रागी तो पुद्गल छे (अर्थात् राग तो पुद्गल करे छे)’’ इत्यादि विधिथी, ज्ञानथी विरुद्ध एवा समस्त रागादि कर्मनो अकर्ता प्रतिभासे छे.’

भेदज्ञान थवाथी धर्मी जीव रागद्वेष, सुखदुःखनी कल्पना अने ज्ञान ए बे वच्चेनुं परस्पर अंतर जाणे छे. जुओ, सुंदर युवान स्त्रीने देखी अज्ञानी राग करे छे अने तेमां आनंद माने छे. ज्यारे ज्ञानीने एवा प्रसंगमां राग थाय तेनो खेद थाय छे. खरेखर ज्ञानीने तो ए राग ज्ञानमां निमित्त छे. ज्ञानी तो जाणे छे के आ राग दुःखरूप छे. इन्द्रियोना विषयोथी निवृत्त न होय एवा ज्ञानीने चारित्रना दोषथी राग आवे छे. पांचमा गुणस्थान सुधी रौद्रध्यान पण थाय छे. परंतु रौद्रध्यानना परिणाम ज्ञान कराववामां निमित्त छे.

आवी वात लोकोने सांभळवा मळी नथी एटले नवी लागे छे. पण आ कांई नवी नथी. अनादिथी मार्ग चाल्यो आवे छे ते ज आ वात छे. अरे प्रभु! तुं चैतन्यनो नाथ छो; तेने तारी पर्यायमां पधराव ने! भगवान! एमां तारी शोभा छे अने एमां तने आनंद थशे. भगवानने तुं अंतरमां बेसाड. अज्ञानीने अनादिथी पर्याय उपर द्रष्टि छे तेथी तेने शुद्ध चैतन्यतत्त्वनो-त्रिकाळी द्रव्यनो महिमा आवतो नथी. पण प्रभु! तुं शुद्ध चेतनासिंधु ज्ञाननो दरियो छुं. तेमांथी तो ज्ञाननी पर्याय उछळे. नदीमां तरंग ऊठे तो पाणीना तरंग ऊठे, कांई रेतीना तरंग ऊठे? तेम


PDF/HTML Page 1093 of 4199
single page version

ज्ञाननो दरियो प्रभु आत्मा छे. तेमां तो ज्ञाननी पर्यायना कल्लोलो ऊछळे; तेमांथी रागनी पर्याय न ऊछळे. आवुं ज वस्तुनुं स्वरूप छे.

सूक्ष्म तो छे प्रभु! पण शुं थाय? मार्ग तो आ छे. अनंत तीर्थंकरोए कह्यो ते मार्ग दिगंबर संतोए जगत समक्ष जाहेर कर्यो छे. संतो भगवानना आडतिया थईने आ माल तारा माटे लाव्या छे. प्रभु! तारी महत्ता तो तुं देख! जगतमां अनंता रजकण अने अनंता जीव छे. प्रत्येक रजकण अने प्रत्येक जीव प्रत्येक समये अनंत गुण-पर्याय सहित छे. तेनी सत्तानो स्वीकार करे तेवी ज्ञाननी एक समयनी पर्यायनी अद्भुत ताकात छे.

जेनी एक समयनी ज्ञाननी पर्यायनुं आवुं अचिंत्य सामर्थ्य छे, ते आत्मा तो त्रिकाळी ज्ञाननो पिंड प्रभु छे. द्रष्टि अपेक्षाए तो एक समयनी पर्याये नथी तेवो एकलो परम- पारिणामिकभावरूप तेनो स्वभाव छे. औदयिक आदि जे चार भावो छे तेमां कर्मना सद्भावनी वा अभावनी अपेक्षा आवे छे. पांचमो पारिणामिक भाव छे ते परम निरपेक्ष छे. तेमां निमित्तनी अपेक्षा नथी. आवा स्वभावनुं भान थईने जेने भेदज्ञान थयुं ते धर्मीने, ज्ञान पर्यायमां सहज स्वपरप्रकाशक सामर्थ्य प्रगटे छे. तेने तीर्थरक्षानो जे अनुराग थाय ते राग तेना ज्ञानमां निमित्त छे. ते राग पुद्गल साथे अभिन्न छे अने ते संबंधी जे ज्ञान थयुं ते ज्ञान आत्माथी अभिन्न छे. ज्ञानीने जे अनुराग थयो ते जाणेलो प्रयोजनवान छे बस.

ज्ञानीने दया, दान, व्रत आदिनो राग हो; ए राग आवे ते कांई धर्म नथी. ए राग तो ज्ञानमां जाणवालायक छे. ए राग ज्ञानथी भिन्न छे अने पुद्गलथी अभिन्न छे. निश्चयथी आत्मानो ज्ञायकस्वभाव छे. तेनी अनंत शक्तिनो शुद्ध अने पवित्र छे. पवित्रतापणे परिणमवुं ते शकय छे पण राग अने विकार के जे पुद्गलपरिणाम छे ते-रूपे आत्मा वडे परिणमवुं अशकय छे.

मुनिदशामां जे पंचमहाव्रतादिनो राग आवे छे ते द्रव्यलिंग छे. जेम नग्नदशा ए जडनी दशा छे अने ते द्रव्यलिंग छे तेम पंचमहाव्रतादिना परिणाम पण द्रव्यलिंग छे. ते आत्मानी पर्याय नथी. ते द्रव्यलिंगपणे आत्मा वडे परिणमवुं अशकय छे. गजब वात छे! भाई! आ समजवा माटे खूब धीरज जोईए. अने समजीने अंतर्मुख थवामां अनंतगुणो पुरुषार्थ जोईए. अहो! आचार्यदेवे केवी अलौकिक वात करी छे!

रागथी भिन्न पडीने स्वभावसन्मुख थवुं अने स्वभावने (रागथी) अधिक जाणवो ते सम्यग्ज्ञान छे. चैतन्यस्वभावथी विभावने अधिक-भिन्न जाणवो ते आत्मानो मार्ग छे. गाथा १७-१८मां आवे छे के आ बाळगोपाळ सौने ज्ञानमां पोतानो आत्मा जणाई रह्यो छे. ज्ञाननी पर्यायनो स्वपरप्रकाशपणानो स्वभाव छे. तेथी ज्ञाननी पर्यायमां पोतानो द्रव्यस्वभाव अनुभववामां-जाणवामां आवे छे. परंतु अज्ञानीनी द्रष्टि


PDF/HTML Page 1094 of 4199
single page version

पोताना त्रिकाळी द्रव्यस्वभाव उपर जती नथी. राग अने व्यवहार उपर एनी द्रष्टि रहेली छे. तेथी ‘आ रागने हुं जाणुं छुं’ एम भ्रान्तिथी ते जाणे छे.

अहीं तो ज्ञानीनी वात छे. धर्मी-समकितीनी द्रष्टि द्रव्यस्वभाव उपर स्थिर थई गई छे. तेथी ते ज्ञानस्वभावरूपे परिणमे छे. ते रागनी परिणतिथी भिन्नपणे परिणमे छे. आ शरीर तो जड माटी छे, मसाणनां हाडकां छे. अने अंदर जे शुभराग अने पुण्यना परिणाम थाय ते पुद्गलपरिणाम छे एम ज्ञानी जाणे छे. कोईने बेसे न बेसे ते जुदी वात छे, परंतु राग ते पुद्गलना परिणाम छे केमके ते ज्ञान साथे तन्मय नथी, पण ज्ञानथी भिन्न छे.

ते ज्ञाननी पर्यायमां पोतानुं द्रव्य जणाय छे. परंतु अज्ञानीनी द्रव्य उपर द्रष्टि नथी. अज्ञानीनी द्रष्टि अनादिथी राग अने पर्याय उपर पडी छे. एटले में दया पाळी, में व्रत कर्यां, में भक्ति करी, पूजा करी एम जाणतो ते पोताने एकलो परप्रकाशक माने छे. स्वपरप्रकाशक ज्ञानने एकलुं परप्रकाशक माने ते मिथ्यात्व छे. रागने मानवो अने स्वभावने न मानवो ते एकान्तमिथ्यात्व छे, मिथ्या भ्रान्ति छे.

अरे प्रभु! तुं कोण छो? अहाहा...! अनंतगुणोथी अविनाभावी ज्ञानस्वरूप आत्मा छो. ज्ञानथी अविनाभावी अनंतगुणनो पिंड प्रभु तुं आत्मा छो. आवा शुद्ध चैतन्यमय आत्मानी जेने द्रष्टि थई छे ते ज्ञानीनुं परिणमन ज्ञानमय छे. तेने जे राग थाय छे तेने ज्ञान जाणे छे एम कहेवुं ए व्यवहार छे. खरेखर पोतानुं ज्ञान थयुं त्यारे ते पर्यायमां स्वपरप्रकाशकपणानुं सामर्थ्य प्रगट थयुं तो राग ज्ञानमां जणाई जाय छे. ज्ञान रागने जाणे छे ए उपचार कथन छे. वास्तविक तो ए छे के स्वपरप्रकाशक पर्यायने पोते जाणे छे.

ज्ञान अने राग एक समयमां एक साथे उत्पन्न थाय छे. त्यां हुं रागस्वरूप छुं एम अज्ञानी मानी ले छे. मोक्षमार्गप्रकाशकमां (चोथा अधिकारमां) कह्युं छे के-जे समये ज्ञान उत्पन्न थाय छे ते समये राग उत्पन्न थाय छे. बन्नेनो एक काळ छे. तो अज्ञानीने एम भासे छे के राग मारी चीज छे. बेना भाव भिन्न छे एवुं तेने भान नथी.

अहो! कुंदकुंदाचार्यदेवे जगतने न्याल करी दीधुं छे. तेओश्री विदेहमां साक्षात् सदेहे पधार्या हता. आ वात पंचास्तिकाय, षट्पाहुड अने दर्शनसार-आ त्रणे शास्त्रोमां छे. भगवान कुंदकुंदाचार्य विदेहक्षेत्रमां सीमंधरभगवानना समोसरणमां गया हता अने त्यांथी आवीने आ समयसार आदि शास्त्रोनी रचना करी छे. आ वात प्रमाणभूत अने परम सत्य छे.


PDF/HTML Page 1095 of 4199
single page version

अहीं कहे छे-रागथी भिन्न पडीने जेणे भेदज्ञान प्रगट कर्युं छे ते ज्ञानी राग- द्वेषसुखदुःखादि अने तेना अनुभवनो परस्पर विशेष जाणे छे, परस्पर बन्नेनुं अंतर जाणे छे. पोतानो स्वभाव ज्ञान छे अने रागनो स्वभाव जडपणुं छे; पोते आत्मा त्रिकाळ सत्तारूप छे अने राग एक समयनुं अस्तित्व छे, पोते नित्यानंदस्वरूप प्रभु छे अने राग दुःखरूप छे-आ प्रमाणे ज्ञानी परस्पर बन्नेनुं अंतर जाणे छे. अहाहा...! रागथी भिन्न भगवान आत्माने ज्यां स्वलक्षे अनुभव्यो त्यां ज्ञान रागथी भिन्न पडी गयुं. आनुं नाम भेदज्ञान अने आ सम्यग्दर्शन छे.

आमां वादविवाद करे अने सत्यने असत्य करीने स्थापे अने असत्यने सत्य करीने स्थापे एना फळमां दुःख थशे. दुःखना संयोगो बहु कठण पडशे भाई! राग अने भगवान आत्मा एक नथी. जेम अडदनी दाळ अने उपरनुं फोतरुं एक नथी एम आत्मा अने राग एक नथी. भगवान आत्मा एकला आनंदनुं दळ छे अने राग फोतरा समान छे. बन्ने भिन्न छे. आत्मानी ज्ञानपर्याय अने ते ज काळे उत्पन्न थयेली जे रागनी पर्याय ते बन्नेनुं परस्पर अंतर जाणतो ज्ञानी परने पोतारूप जाणतो नथी अने पोताने पररूप जाणतो नथी. रागथी द्रष्टि उठावी लीधी अने भगवान आत्मा उपर द्रष्टि स्थापी एनुं नाम विवेक एटले भेदज्ञान छे, अने ते वडे धर्म छे कह्युं छे ने के-

‘धर्म विवेके निपजे, जो करीए तो थाय.’

समयसार कळश १३१मां कह्युं छे के-

भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन।
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन।।

जे कोई आज सुधी मुक्ति पाम्या ते भेदविज्ञानथी पाम्या छे अने जे कोई बंधाया छे ते भेदविज्ञानना अभावथी बंधाया छे. अहो! भेदज्ञाननो महिमा अपरंपार छे!

कहे छे के-शीत-उष्णनी माफक आत्मा वडे रागद्वेषसुखदुःखादिरूपे परिणमवुं अशकय छे. शीत-उष्ण अवस्था छे ते परमाणुनी अवस्था छे. ते परमाणुथी अभिन्न छे. ते शीत-उष्ण अवस्था आत्मा द्वारा करावी अशकय छे. तेम पुण्यपापना शुभाशुभभावपणे आत्मानुं परिणमवुं अशकय छे, केमके पुण्यपाप आदि भावो अचेतन जड छे अने भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यमय ज्ञायकभावमात्र छे. अहाहा...! आत्मा जे ज्ञायकभावरूप चैतन्यस्वरूप वस्तु छे ते रागद्वेषना अचेतनभावपणे केम परिणमे?

आत्मा शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय इत्यादि परनी क्रियानो कर्ता थाय अने ते परनुं कार्य करे ए वात तो कयांय रही गई. अहीं तो कहे छे के दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा इत्यादि जे विकल्प थाय ते विकल्पपणे आत्मा वडे परिणमवुं अशकय छे. पुण्यपापना जे भाव थाय छे ते जड अचेतन छे केमके तेमां चैतन्यनो अंश नथी.


PDF/HTML Page 1096 of 4199
single page version

७३मी गाथामां कह्युं छे के रागनुं स्वामी पुद्गल छे. त्यां कह्युं छे के-‘‘पुद्गलद्रव्य जेनुं स्वामी छे एवुं जे क्रोधादिभावोनुं विश्वरूपपणुं तेना स्वामीपणे पोते सदाय नहि परिणमतो होवाथी ममतारहित छुं.’’ आम रागनो स्वामी आत्मा नथी, पुद्गल छे एम प्रथम निर्णय कर एम त्यां कह्युं छे. अहीं कहे छे-जेम शीत-उष्णपणे आत्मा वडे परिणमवुं अशकय छे. अहाहा...! गजब वात छे! रागपणे परिणमवुं ते आत्मानो स्वभाव नथी. ज्ञान अने आनंदस्वरूपे परिणमवुं ते आत्मानो स्वभाव छे.

पुरुषार्थसिद्धउपाय शास्त्रमां भगवान अमृतचंद्राचार्य देव पोकारीने कहे छे के-जे भावे तीर्थंकरगोत्र बंधाय ते भाव अपराध छे. रागभाव थाय ते आत्मानी हिंसा छे. जुओ, पांच पांडवो ध्यानस्थ हता. त्यां उपसर्ग थतां नाना बे भाईओ सहदेव अने निकुलने त्रण मोटाभाई (मुनिवरो) प्रत्ये लक्ष गयुं के-अरे! मुनिवरोने आवो उपसर्ग! साधर्मी अने सहोदर प्रत्ये आटलो रागनो ज विकल्प आव्यो ते शुभ विकल्पथी सर्वार्थसिद्धि देवलोकनुं आयुष्य बंधाई गयुं अने केवळज्ञान दूर थई गयुं. त्रण पांडवो तो ध्यानमां लीन थई गया तो केवळज्ञान प्रगट करीने मोक्षपद पाम्या जे विकल्पथी स्वर्गना भवनो बंध थयो अने केवळज्ञान न थयुं ते विकल्पथी लाभ थाय एम केम बनी शके? अनंत तीर्थंकरो, अनंत केवळीओ अने अनंत भावलिंगी संतोए प्रकाशेलो आवो आ वीतराग मार्ग छे.

मंगलं भगवान वीरो, मंगलं गौतमो गणी,
मंगलं कुंदकुंदार्यो, जैन धर्मोस्तु मंगलं.

जुओ, प्रथम श्री महावीरस्वामी अने बीजा गणधरदेव श्री गौतमस्वामी पछी तरत ज त्रीजा स्थाने भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवनुं नाम आवे छे. जेमणे जैनशासनने जीवित राख्युं छे एवा ए महासमर्थ आचार्यनी आ वाणी छे. तेओ कहे छे के जेमनारूपे आत्मा वडे परिणमवुं अशकय छे एवां रागद्वेषसुखदुःखादिरूपे अज्ञानात्मा वडे जराय नहि परिणमतो थको ज्ञाननुं ज्ञानत्व प्रगट करतो पोते ज्ञानमय थयो थको आ हुं रागने जाणुं ज छुं, रागी तो पुद्गल छे, राग तो पुद्गल करे छे इत्यादि विधिथी, ज्ञानथी विरुद्ध एवा समस्त रागादि कर्मनो अकर्ता प्रतिभासे छे.

९२मी गाथामां ज्ञाननुं अज्ञानत्व प्रगट करतो-एम कह्युं हतुं अने अहीं ज्ञाननुं ज्ञानत्व प्रगट करतो पोते ज्ञानमय थईने, रागनो अकर्ता प्रतिभासे छे एम कह्युं छे. अज्ञान शब्दथी अहीं राग समजवुं. रागमां ज्ञान नथी तेथी तेने अज्ञान कह्युं छे. अज्ञान एटले मिथ्यात्व एम नहि पण अज्ञान एटले राग एम अर्थ समजवो. रागादि अज्ञानपणे परिणमवुं ते अज्ञानात्मा छे अने रागपणे न परिणमतां ज्ञानरूपे परिणमवुं ते ज्ञानात्मा छे. अहो! भगवाननो विरह भूलावे एवी आ वाणी छे.


PDF/HTML Page 1097 of 4199
single page version

कहे छे-धर्मीजीव किंचित्मात्र रागपणे परिणमतो नथी. रागमां ज्ञाननो अंश नथी. राग तो अज्ञान छे. अने भगवान आत्मा ज्ञाननी मूर्ति चैतन्यना प्रकाशना नूरनुं पूर छे. ते ज्ञानपणे परिणमे एवो तेनो स्वभाव अने सामर्थ्य छे. धर्मी जीवने द्रव्य-सन्मुखनुं परिणमन थई गयुं छे एटले तेने रागसन्मुखनुं परिणमन छे नहि. जे राग आवे छे तेनो धर्मी जीव ज्ञाताद्रष्टा रहे छे. ज्ञानीने खरेखर ज्ञाताद्रष्टानुं ज परिणमन छे. आ सम्यग्दर्शन अने भेदज्ञाननी वात छे. अने चारित्र! चारित्र तो कोई अलौकिक चीज छे भाई! अहाहा...! सम्यग्दर्शन सहित अंतरमां आनंदनी रमणता एनुं नाम चारित्र छे. एवा चारित्रवंत भावलिंगी मुनिवरोनां दर्शन पण आ काळमां महादुर्लभ थई पडयां छे.

एक वार जंगलमां गया हता त्यां एम थई आव्युं के अहा! कोई भावलिंगी मुनिवर उतरी आवे तो! अहो! ए धन्यदशानां साक्षात् दर्शन थाय तो! अहाहा...! मुनिपद तो परमेश्वर पद छे. नियमसारमां टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक कळशमां (कळश २प३मां) एम कहे छे के मुनिमां अने केवळीमां किंचित् फेर माने ते जड छे. अहाहा...! आवुं मुनिपद ते परमेष्ठीपद छे. पद्मप्रभमलधारिदेव अहींथी वैमानिक देवलोकमां गया छे अने त्यांथी मनुष्यपणामां आवी केवळज्ञान पामीने सिद्धपद पामशे. आवुं अलौकिक छे मुनिपद!

अहीं कहे छे-धर्मीने द्रव्यस्वभावसन्मुखनुं परिणमन थई गयुं छे एटले एनुं ज्ञाताद्रष्टापणे ज परिणमन छे. छेल्ले परिशिष्टमां ४७ शक्तिओनुं वर्णन छे. तेमां अशुद्धपरिणमननी वात ज लीधी नथी. भगवान आत्मा क्रमरूप शुद्धपणे परिणमे छे. त्यां क्रम (पर्याय) शुद्ध अने अक्रम (गुण) शुद्ध-एम कह्युं छे. द्रव्यनी शक्ति शुद्ध छे त्रिकाळी शुद्ध शक्तिवान द्रव्यनी सन्मुख थतां शक्तिनी प्रतीति आवी जाय छे अने तेनी पर्यायमां शुद्धतानो क्रम चालु थई जाय छे. पछी पर्यायना क्रममां अशुद्धता आवे ज नहि. द्रव्यनी शक्तिनुं वर्णन छे एटले द्रष्टिप्रधान कथनमां क्रम निर्मळ छे एम कह्युं छे. प्रवचनसारमां ज्ञानप्रधान कथन छे. त्यां कह्युं छे के मुनिराजने जेटलो राग छे ते परिणमनना ते कर्ता छे. परिणमन छे ए अपेक्षाए त्यां कर्ता कहेल छे. भाई! ज्यां जे अपेक्षाए कथन होय ते अपेक्षाए यथार्थ समजवुं जोईए.

द्रष्टि अने द्रष्टिनो विषय पवित्र छे तो कहे छे के ज्ञानी किंचित्मात्र रागपणे परिणमता नथी; रागना स्वामीपणे परिणमता नथी, रागथी भिन्नपणे ज्ञाताद्रष्टारूपे परिणमे छे. भगवान आत्मा ज्ञाताद्रष्टा छे अने ते ज्ञानपणे परिणमे ते ज्ञाननुं ज्ञानत्व छे. अज्ञानी रागपणे परिणमे छे ते ज्ञाननुं अज्ञानत्व प्रगट करे छे. आत्मा ज्ञान अने आनंदपणे परिणमे ते ज्ञाननुं ज्ञानत्व छे.

अहीं कहे छे-ज्ञाननुं ज्ञानत्व प्रगट करतो, पोते ज्ञानमय थयो थको, आ हुं


PDF/HTML Page 1098 of 4199
single page version

रागने जाणुं ज छुं इत्यादि विधिथी रागनो अकर्ता प्रतिभासे छे. ‘पोते ज्ञानमय थयो थको’- एटले राग छे तो रागनुं ज्ञान थयुं छे एम नथी. स्वयं अभेद ज्ञानपणे परिणमतो आ हुं रागने जाणुं ज छुं एम धर्मी माने छे. रागथी लाभ (धर्म) थाय अथवा राग मारुं कर्तव्य छे एम धर्मी जीव मानतो नथी. व्यवहारथी निश्चय थाय ए तो निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटे वात करी छे. बाकी रागथी वीतरागता थाय एम कदी होय शके नहि. ज्ञानी तो माने छे के हुं रागने जाणुं ज छुं. (करुं छुं एम नहि).

प्रश्नः- रागने जाणुं पण छुं अने रागने करुं पण छुं एम अनेकान्त करो तो?

उत्तरः- भाई! ए अनेकान्त नथी; हुं रागने एकांते जाणुं छुं अने रागपणे परिणमतो नथी एनुं नाम सम्यक् अनेकान्त छे.

रागी तो पुद्गल छे. व्यवहाररत्नत्रयनो राग पुद्गल छे. रागी तो पुद्गल छे एटले के जीव स्वरूपथी रागी नथी केमके जीव तो चैतन्यस्वरूप छे. रागी तो पुद्गल छे अर्थात् रागनो कर्ता पुद्गल छे इत्यादि विधिथी ज्ञानथी विरुद्ध समस्त रागादि कर्मनो ज्ञानी अकर्ता प्रतिभासे छे. जुओ, आ भेदज्ञाननी विधि! धर्मी रागनुं ज्ञान करे छे ते ज्ञाननुं ज्ञानत्व प्रगट करे छे. राग प्रगट करवो ते आत्मानो स्वभाव नथी. आ प्रमाणे ज्ञानी रागनो अकर्ता प्रतिभासित थाय छे.

* गाथा ९३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ज्यारे आत्मा रागद्वेषसुखदुःखादि अवस्थाने ज्ञानथी भिन्न जाणे अर्थात् ‘जेम शीत- उष्णपणुं पुद्गलनी अवस्था छे तेम रागद्वेषादि पण पुद्गलनी अवस्था छे’ एवुं भेदज्ञान थाय, त्यारे पोताने ज्ञाता जाणे अने रागादिरूप पुद्गलने जाणे. एम थतां, रागादिनो कर्ता आत्मा थतो नथी, ज्ञाता ज रहे छे.’

अहो! शुं अलौकिक वातो छे! भाई! बहु धीरजथी आ सांभळवुं जोईए. कहे छे- ज्ञानी रागद्वेष अने सुखदुःखी अवस्थाने ज्ञानथी भिन्न जाणे छे. पोतानी पर्यायमां जे पुण्यपापना भाव अने सुखदुःखनी कल्पना आदि विकारी भाव थाय छे ते पुद्गलनी अवस्था छे अने धर्मी तेने ज्ञानथी भिन्न जाणे छे. परमां सुख छे एवो विकल्प, परमां दुःख छे एवो विकल्प अने पुण्यपापना विकल्प-ते बधाने अहीं पुद्गलनी अवस्था कहेवामां आवी छे. हवे आवी वात कोईने न बेसे तो शुं थाय?

अरे भाई! व्यवहारथी निश्चय थाय एम छे ज नहि. व्यवहार छे खरो; ज्यां सुधी पूर्ण वीतराग थई केवळज्ञान न पामे त्यां सुधी पोताना चारित्रमां अधूराश छे. स्वना आश्रयमां कचाश छे एटले राग आवे छे, देव-गुरु-शास्त्रनी भक्तिनो भाव आवे छे पण ते बधी पोतानी चीज नथी एम वात छे. जे भावथी तीर्थंकरगोत्र बंधाय ते


PDF/HTML Page 1099 of 4199
single page version

भाव पुद्गलनी अवस्था छे एम अहीं कहे छे; केमके शुभरागथी पुद्गलकर्म बंधाय छे अने तेना फळमां पुद्गलना संयोगो मळे छे.

वात तो आ छे पण लोकोने मळी न हती एटले नवी लागे छे; पण आ वात नवी नथी. भाई! आ तो अनादिनी चीज छे अने अनंत तीर्थंकरोए कहेली छे. विभावथी विमुख थई स्वभावसन्मुख थतां रागथी आत्मा भिन्न छे एवुं भेदज्ञान थाय छे. त्यारे ते पोताने ज्ञाता जाणे छे. भेदज्ञान अने सम्यग्दर्शन थया पछी धर्मीने राग आवे छे, सुखदुःखनी कल्पना थाय छे, व्यवहार होय छे पण ते तेनो जाणनार ज्ञाताद्रष्टा कहे छे.

आत्मा सदा वीतरागस्वभावी छे अने वीतरागता प्रगट करवी ते मोक्षमार्ग छे. राग के जे पुद्गलनी अवस्था छे ते वीतरागतानुं कारण केम थाय? अरे! जेने व्यवहारनी यथार्थ समजण नथी तेने निश्चयनी प्राप्ति केम थई शके? निश्चय छे तेने व्यवहार होय छे. ज्ञानीने दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा आदि व्यवहार होय छे पण ए तेनो ज्ञाता-जाणनारो छे. व्यवहार मारो छे एम ज्ञानी मानता नथी. भेदज्ञान थाय त्यारे जीव पोताने ज्ञाता जाणे छे अने रागद्वेषने पुद्गल जाणे छे. राग पोतानी चीज नथी पण पोताथी भिन्न छे एम ते जाणे छे.

अहाहा...! वस्तु चैतन्यस्वभाव ज्ञायकभाव एकला आनंदथी भरेलो छे. आत्मा नित्यानंद, सहजानंद, परमानंदस्वरूप प्रभु छे. तेनुं रागथी भिन्न पडीने जेणे भेदज्ञान कर्युं ते सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा राग अने सुखदुःखनी कल्पनाने ज्ञातापणे जाणे छे, तेने पोतानी चीज अने पोतानुं कर्तव्य मानता नथी.

९२मी गाथामां अज्ञानीनी वात करी छे. अज्ञानी ज्ञाननुं अज्ञानत्व प्रगट करे छे. अहीं गाथा ९३मां ज्ञानीनी वात छे. धर्मी जीव ज्ञाननुं ज्ञानत्व प्रगट करे छे. धर्मी रागनो कर्ता नथी पण ज्ञाताद्रष्टा छे. समकिती चक्रवर्ती राजा होय, लडाईमां पण जाय, तेने लडाईनो विकल्प आवे पण ते विकल्पनो ते ज्ञाता ज रहे छे, कर्ता थतो नथी. आवी वात छे. ल्यो, ९३ पूरी थई.

[प्रवचन नं. १प९, १६०, १६१ चालु * दिनांक १८-८-७६ थी २०-८-७६]

PDF/HTML Page 1100 of 4199
single page version

कथमज्ञानात्कर्म प्रभवतीति चेत्–

तिविहो एसुवओगो अप्पवियप्पं करेदि कोहोऽहं।
कत्ता तस्सुवओगस्सं होदि सो अत्तभावस्स।। ९४ ।।
त्रिविध एष उपयोग आत्मविकल्पं करोति क्रोधोऽहम्।
कर्ता तस्योपयोगस्य भवति स आत्मभावस्य।। ९४ ।।

हवे पूछे छे के अज्ञानथी कर्म कई रीते उत्पन्न थाय छे? तेनो उत्तर कहे छेः-

‘हुं क्रोध’ एम विकल्प ए उपयोग त्रणविध आचरे.
त्यां जीव ए उपयोगरूप जीवभावनो कर्ता बने. ९४.

गाथार्थः– [त्रिविधः] त्रण प्रकारनो [एषः] [उपयोगः] उपयोग [अहम् क्रोधः] ‘हुं क्रोध छुं’ एवो [आत्मविकल्पं] पोतानो विकल्प [करोति] करे छे; तेथी [सः] आत्मा [तस्य उपयोगस्य] ते उपयोगरूप [आत्मभावस्य] पोताना भावनो [कर्ता] कर्ता [भवति] थाय छे.

टीकाः– खरेखर आ सामान्यपणे अज्ञानरूप एवुं जे मिथ्यादर्शन-अज्ञान-अविरतिरूप त्रण प्रकारनुं सविकार चैतन्यपरिणाम ते, परना अने पोताना अविशेष दर्शनथी, अविशेष ज्ञानथी अने अविशेष रतिथी समस्त भेदने छुपावीने, भाव्य-भावकभावने पामेलां एवां चेतन अने अचेतननुं सामान्य अधिकरणथी (-जाणे के तेमनो एक आधार होय ए रीते) अनुभवन करवाथी, ‘हुं क्रोध छुं’ एवो पोतानो विकल्प उत्पन्न करे छे; तेथी ‘हुं क्रोध छुं’ एवी भ्रांतिने लीधे जे सविकार (विकारसहित) छे एवा चैतन्यपरिणामे परिणमतो थको आ आत्मा ते सविकार चैतन्यपरिणामरूप पोताना भावनो कर्ता थाय छे. एवी ज रीते ‘क्रोध’ पद पलटावीने मान, माया, लोभ, मोह, राग, द्वेष, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, ध्राण, रसन अने स्पर्शननां सोळ सूत्रो व्याख्यानरूप करवां; अने आ उपदेशथी बीजां पण विचारवां.

भावार्थः– अज्ञानरूप एटले के मिथ्यादर्शन-अज्ञान-अविरतिरूप त्रण प्रकारनुं जे सविकार चैतन्यपरिणाम ते पोतानो अने परनो भेद नहि जाणीने ‘हुं क्रोध छुं, हुं मान छुं’ इत्यादि माने छे; तेथी अज्ञानी जीव ते अज्ञानरूप सविकार चैतन्यपरिणामनो कर्ता थाय छे अने ते अज्ञानरूप भाव तेनुं कर्म थाय छे.