Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 95-96.

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समयसार गाथा ९४ः मथाळुं

हवे पूछे छे के अज्ञानथी कर्म कई रीते उत्पन्न थाय छे? तेनो उत्तर कहे छेः-

* गाथा ९४ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘खरे खर आ सामान्यपणे अज्ञानरूप एवुं जे मिथ्यादर्शन-अज्ञान-अविरतिरूप त्रण प्रकारनुं सविकार चैतन्यपरिणाम ते, परना अने पोताना अविशेष दर्शनथी, अविशेष ज्ञानथी अने अविशेष रतिथी समस्त भेदने छुपावीने, भाव्यभावकभावने पामेलां एवां चेतन अने अचेतननुं सामान्य अधिकरणथी (जाणे के तेमनो एक आधार होय ए रीते) अनुभवन करवाथी, ‘‘हुं क्रोध छुं’’ एवो पोतानो विकल्प उत्पन्न करे छे.’

जुओ, मिथ्यादर्शन, अज्ञान अने अविरति-एम त्रण प्रकारनुं सामान्यपणे अज्ञानरूप एवुं सविकार चैतन्यपरिणाम छे. गाथा ९३मां रागादि भावने पुद्गलना परिणाम कह्या छे अने अहीं तेने ज सविकार चैतन्यपरिणाम कह्या छे.

परने पोताना मानवारूप, स्वरूपना अज्ञानरूप अने रागद्वेषनी प्रवृत्तिरूप एवा मिथ्यादर्शन-अज्ञान-अविरतिरूप त्रण प्रकारना सविकार चैतन्यपरिणाम छे. ए चैतन्य सविकार परिणाम परने अने पोताने अविशेष दर्शनथी एक माने छे. अज्ञानथी कर्म एटले विकारी परिणाम उत्पन्न थाय छे. ते परिणाम स्व अने परने अविशेष एटले सामान्य-एक माने छे. बे वच्चे विशेष मानतो नथी. विकारी परिणाम अने मारी चीज भिन्न छे एवुं अज्ञानी मानतो नथी. विकार परिणाम अने हुं-बे भिन्न छीए एम विशेष न मानतां बे एक छीए एवुं अविशेषपणे एटले सामान्य माने छे.

राग अने सुखदुःखनी कल्पना अने निज आत्मा-बन्ने एक छे एम सविकार चैतन्यपरिणाम माने छे बे वच्चे भेद-विशेष छे. एवुं अज्ञान वडे जीव मानतो नथी. वळी अविशेष ज्ञान एटले बन्नेनुं एकपणानुं ज्ञान करे छे राग अने हुं एक छीए एम बन्नेने एक जाणे छे. जीवना सविकार परिणाम आवुं बन्नेनुं एकपणुं माने छे, बन्नेनुं एकपणुं जाणे छे, बन्नेनुं एकपणुं आचरे छे. जडकर्मने कारणे आवुं बन्नेनुं एकपणुं जाणे छे, वा माने छे के आचरे छे एम नथी. स्व-परना अज्ञानने लीधे सविकार चैतन्यपरिणाम आवुं माने छे. आवी वात छे.

लोको भगवान समक्ष कहे छे ने के-हे भगवान! दया करो. अरे भाई! तुं पोते ज भगवान छो. माटे तारा उपर तुं दया कर. राग अने विकारने पोताना माने छे ए मान्यता छोडी प्रभु! तुं तारी दया कर. राग अने आत्मा बे एक छे ए मान्यता तारी हिंसा छे. माटे राग अने आत्मा एक छे ए मान्यता छोडी स्वभावमां लीन था. ते तारी स्वदया छे. भाई! तुं परनी हिंसा करी शकतो नथी अने परनी दया पाळी शकतो नथी. आवी ज वस्तुस्थिति छे.


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पुण्यपापना भाव, दया, दान आदि भाव, के सुखदुःखना भाव अने पोतानो त्रिकाळी चैतन्यस्वभावमय आत्मा-ए बेने अज्ञानपणे जीव एक माने छे. कठण पडे छे. पण भाई! सर्वज्ञ वीतरागदेवे पोकारीने कहेलो मार्ग तो आवो ज छे. प्रवचनसारमां छेल्ले ररमा कळशमां कह्युं छे के-‘‘आ रीते (परमागममां) अमंदपणे (जोरथी, बळवानपणे, मोटा अवाजे) जे थोडुंघणुं तत्त्व कहेवामां आव्युं ते बधुं चैतन्यने विषे खरेखर अग्निमां होमायेली वस्तु समान (स्वाहा) थई गयुं.’’ केटलुं कहीए, प्रभु! स्वपरना अज्ञानने कारण मिथ्यादर्शन-अज्ञान- अविरतिरूप जे सविकार चैतन्यपरिणाम छे ते स्वपरने एक माने छे. दर्शनमोहनो उदय छे ते आवुं मनावे छे एम नथी. अरे! अज्ञानीओ तो ज्यां होय त्यां बधे कर्मथी थाय एम लगावे छे, पण एम नथी. कर्म तो बिचारां जड छे. पूजानी जयमालामां आवे छे ने के-

‘‘कर्म बिचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई;
अग्नि सहै घनघात, लोहकी संगति पाई.’’

चैतन्यना विकारी परिणाम, अज्ञानथी एम माने छे के विकारी भाव अने त्रिकाळी आत्मा बे एक छे. अहाहा...! दया, दान, व्रतादि भाव अने शुद्ध निर्मळ आत्मा बे एक छे एम अज्ञानथी माने छे. ज्ञानी तो बन्नेनो विशेष एटले भेद जाणे छे. ज्ञानीने राग तो आवे छे. पांचमा गुणस्थान पर्यंत रौद्रध्यान होय छे, क्षायिक समकिती मुनि होय तेने छठ्ठा गुणस्थाने आर्त्तध्यान होय छे. छठ्ठा गुणस्थाने त्रण शुभ लेश्या होय छे. ए लेश्या पण राग छे. छतां ते राग अने आत्मा बे भिन्न छे एम ज्ञानी माने छे.

परंतु अज्ञानी अज्ञानने कारण राग अने व्यवहाररत्नत्रयनो जे विकल्प अने तेमां खुशीपणानो जे भोक्ताभाव ते हुं छुं, ते भाव मारा छे एम बेने एकपणे माने छे, बेनुं एकपणुं जाणे छे अने रागमां एकपणे लीनता करे छे. शुद्ध चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मानी लीनता छोडी अज्ञानी रागमां लीनता करे छे. आ रीते समस्त भेदने छुपावीने बेने एकपणे माने छे. विकारी परिणाम अने अविकारी शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप आत्मा-ए बेनो समस्त भेद छुपावी दई, ढांकी दई अज्ञानी बेने एकपणे माने छे. अहाहा...! व्यवहाररत्नत्रयनो राग अने हुं एक छीए एम माने ते समस्त भेदने छुपावी दे छे, ढांकी दे छे अने बेना (मिथ्या) अभेदने-एकपणाने प्रगट करे छे. आकरुं लागे पण मार्ग तो आ छे भाई! प्रथम ज श्रद्धामां आ नक्की करवुं पडशे. ज्ञानमां आवो निर्णय तो करे; पछी स्वभावसन्मुखताना प्रयोगनी वात. प्रथम यथार्थ निर्णय करे नहि ते प्रयोग केवी रीते करे?

आ प्रमाणे भाव्यभावकभावने पामेलां एवां चेतन अने अचेतननुं सामान्य अधिकरणथी अनुभवन करवाथी ‘हुं क्रोध छुं’ एवो पोतानो विकल्प उत्पन्न करे छे.


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हुं भोगवनार भावक अने भोगववा योग्य विकार ते मारुं भाव्य अथवा विकारी भाव भावक अने हुं भोगववा योग्य भाव्य एम भाव्यभावकपणाने पामेलां एवां चेतन अने अचेतननुं- बेनुं जाणे सामान्य अधिकरण-आधार होय तेम अज्ञानथी माने छे. भगवान आत्मा ज्ञायक प्रभु शुद्ध चैतन्यमय छे अने रागमां चैतन्यनो अभाव होवाथी ते अचेतन छे. आ चेतन अचेतन बन्नेनो अज्ञानी एक आधार माने छे. विकारनो उत्पन्न करनार पण हुं अने ज्ञानमां जाणवुं थाय तेनो उत्पन्न करनार पण हुं-एम अज्ञानी बन्नेनुं सामान्य अधिकरण माने छे. बहु सूक्ष्म वात भाई! जैनदर्शन खूब झीणुं छे. भाई! सम्यग्दर्शन कोई अलौकिक वस्तु छे! लोकोए जेवुं कल्प्युं छे एवुं साधारण एनुं स्वरूप नथी. देव-गुरु-शास्त्रनी भेदरूप श्रद्धा करो तो समकित थई गयुं एम माने ते अज्ञानी छे. एवी श्रद्धा तो प्रभु! अनंतवार करी छे. अहीं कहे छे एवा रागना-विकारना परिणाम अने आत्माना ज्ञाननो आधार सामान्य-एक छे एम अज्ञानी माने छे. ज्ञाताद्रष्टानो चैतन्यभाव अने रागना परिणाम बेनुं एक अधिकरण छे एम अनुभवन करवाथी ‘हुं क्रोध छुं’ एम पोतानो विकल्प उत्पन्न करे छे. पोताना ज्ञाताद्रष्टा स्वभावनो अनादर करी राग मारी चीज छे, पुण्य-पापना भाव मारी चीज छे एवुं माने तेने पोताना स्वभाव प्रत्ये अणगमो छे, द्वेष छे, क्रोध छे. हुं रागथी भिन्न ज्ञातास्वरूपे छुं एवुं ज्ञान न करतां अज्ञानथी जे रागादि उत्पन्न थयां ते रागादि अने आत्मा बेनो एक आधार छे एम मानी हुं राग छुं, हुं द्वेष छुं, हुं पुण्य छुं, हुं पाप छुं एवो पोतानो विकल्प उत्पन्न करे छे. आ दया, दान, व्रतादिना विकल्पनो हुं कर्ता छुं एम मानी अज्ञानी पोतानो विकल्प नाम वृत्ति उत्पन्न करे छे. केटली वात करी, देखो! मिथ्यादर्शनादि सविकार चैतन्यपरिणाम छे एक वात. अने ते सविकार चैतन्यपरिणाम एम माने छे के राग अने आत्मा-हुं एक छीए ते दर्शन (अविशेष), राग अने आत्मा-हुं एक छीए एम जाणपणुं ते ज्ञान (अविशेष) अने रागमां तन्मयपणे लीनता करे ते वृत्ति (अविशेष). आ प्रमाणे राग अने आत्माने एक माने छे, एक जाणे छे अने एक अनुभवे छे. अहो! श्री अमृतचंद्रस्वामीए रचेली आ टीका खूब गंभीर छे. घणा गंभीर न्यायो प्रकाश्या छे. टूंका शब्दोमां केटलुं भरी दीधुं छे! जाणे गागरमां सागर! कहे छे-प्रभु! तुं ज्ञायकस्वरूप चैतन्यमात्र वस्तु छो. अने पुण्यपाप, दया, दान अने व्यवहाररत्नत्रयना जे विकल्प ऊठे ते पुद्गलनी अवस्था छे, केमके ते अचेतन छे. अज्ञानपणे जीव तेने करे छे माटे तेने अहीं सविकार चैतन्यपरिणाम कह्या छे. ते सविकार चैतन्यपरिणाम अज्ञानपणे राग अने आत्माने एकपणे माने छे. बे वच्चे भेद नथी


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एम अविशेष दर्शनथी बन्नेने एक माने छे. ९२मी गाथामां अज्ञानीनी वात करी हती. त्यां कर्ताकर्मनी वात हती. अहीं आ गाथामां भाव्यभावकभाव कहीने भोक्तापणानी वात करी छे. अज्ञानी राग अने आत्माने एकपणे अनुभवे छे. रागनो विकल्प अने आत्मा बेनो एक आधार मानी बेनो एकपणे अज्ञानी अनुभव करे छे. एटले के विकारी परिणामनुं अज्ञानी वेदन करे छे. अज्ञानी विकारी परिणामनो भोक्ता थाय छे. भगवान आत्मा जे ज्ञाताद्रष्टा छे तेनो अज्ञानी भोक्ता थतो नथी. ज्यारे ज्ञानी पोताना ज्ञाननो भोक्ता थाय छे. भाई! पोतानो आग्रह छोडी खूब शान्ति अने धीरजथी भगवाने जेम कह्युं छे तेम समजवुं जोईए. अज्ञानी हुं ज्ञाताद्रष्टा छुं एम अनुभववाने बदले राग अने आत्मानो एक आधार मानी हुं राग छुं, हुं क्रोध छुं इत्यादिरूप पोताने अनुभवे छे. चैतन्यस्वभावथी विरुद्ध भावना अनुभवने क्रोध कहेवामां आवे छे. अज्ञानी ‘हुं क्रोध छुं एम पोतानो विकल्प उत्पन्न करे छे. ‘तेथी हुं क्रोध छुं एवी भ्रान्तिने लीधे जे सविकार (विकार सहित) छे एवा चैतन्यपरिणामे परिणमतो थको आ आत्मा ते सविकार चैतन्यपरिणामरूप पोताना भावनो कर्ता थाय छे.’ जुओ, हुं क्रोध छुं एम माने ते भ्रान्ति छे. व्यवहारना रागनो पोताने कर्ता अने भोक्ता माने ते मिथ्याद्रष्टि छे. पोताना आनंदनुं वेदन जेने नथी ते एकलुं रागनुं वेदन करे छे. तेने आत्मा प्रति क्रोध छे. भाई! जिनेश्वर परमात्मानो मार्ग समजवा माटे घणी तत्परता जोईए. कहे छे-‘हुं क्रोध छुं’ एवी भ्रान्तिने लीधे सविकार चैतन्यपरिणामे अज्ञानी परिणमे छे. अने ते आत्मा सविकार चैतन्यपरिणामरूप पोताना भावनो कर्ता थाय छे. जड कर्मनी साथे कांई संबंध नथी. अज्ञानपणे पोताना सविकारी परिणामनो अज्ञानी पोताथी कर्ता थाय छे. जे विकारी भाव थाय ते मारा छे, मारुं कर्तव्य छे एम अज्ञानी माने छे तेथी तेनो ते कर्ता थाय छे. शरीर तो कयांय बहार रही गयुं. ए तो रजकण धूळ छे. एनुं अस्तित्व मारामां नथी. जडकर्म पण मारी चीज नथी. अहीं तो कहे छे के व्यवहाररत्नत्रयनो जे विकल्प आवे तेनुं अस्तित्व पण मारी त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यमय वस्तुमां नथी. आवुं भेदज्ञान जेने नथी एवो अज्ञानी जीव सविकार चैतन्यपरिणामनो कर्ता थाय छे. विकारना परिणाम ते चैतन्यना परिणाम छे. भेदज्ञान करवाना प्रयोजनथी तेने पुद्गलना कह्या छे. परंतु अज्ञानपणे ते भाव पोतानी पर्यायमां थाय छे. रागद्वेषना भाव कांई जडमां थता नथी; प्रयोजनवश तेने जडना कहेला छे.

हवे कहे छे-‘एवी ज रीते ‘क्रोध’ पद पलटावीने मान, माया, लोभ, मोह, राग, द्वेष, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना अने स्पर्शननां सोळ सूत्रो व्याख्यानरूप करवां; अने आ उपदेशथी बीजां पण विचारवां.


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क्रोधनी माफक अज्ञानी हुं मान छुं, हुं माया छुं, हुं लोभ छुं इत्यादि भ्रांतिने लीधे पोताना सविकार परिणामनो कर्ता थाय छे. अहा! बे भिन्न वस्तुनी भिन्नता नहि जाणवाथी बेने एक मानी विकारी परिणाम अने शरीर, मन, वाणी, इन्द्रियो वगेरे हुं छुं एम मानी अज्ञानी जीव कर्ता थाय छे. भ्रान्तिने लईने अज्ञानी परने पोताना माने छे. शरीर, मन, वाणी, इन्द्रियो इत्यादि हुं छुं एम जाणवुं अने मानवुं ते अज्ञान छे. शरीर सारुं होय तो धर्म थाय, शरीरमां रोग थतां मने रोग थयो, शरीर पुष्ट रहेतां हुं पुष्ट छुं इत्यादि अनेक प्रकारे शरीर अने आत्माने एक जाणवा, मानवा अने एमां लीन थवुं ते संसारभाव छे. अज्ञानी अज्ञानपणे तेनो कर्ता थाय छे. मारो कंठ बहु मधुर छे अने हुं सरस बोली शकुं छुं, आ बोले छे ते हुं जीव छुं-एम वाणीने अने आत्माने एक मानी तेमां लीन थवुं ते संसार छे. मन अने स्पर्शादि इन्द्रियो ज्ञानमां निमित्त छे त्यां अज्ञानी माने छे के मन अने इन्द्रियो ते हुं छुं. ते वडे मने ज्ञान थाय छे, मन वडे हुं विचारुं छुं, स्पर्श वडे हुं शीत- उष्ण आदि स्पर्शने जाणुं छुं, जीभ वडे हुं मीठो, खाटो इत्यादि रसने जाणुं छुं, नाक वडे हुं सूंघु छुं, आंख वडे हुं वर्ण-रंगने जाणुं छुं अने कान वडे सांभळुं छुं. आ मन अने इन्द्रियो न होय तो हुं केम करीने जाणुं? आ प्रमाणे मन अने इन्द्रियोने अने आत्माने एक मानी तेमां लीनता करे ते संसार छे. अज्ञानी ते संसारभावनो कर्ता थाय छे. आ प्रमाणे जे चीज आत्माथी भिन्न छे तेने विचारी भेदज्ञान करवुं. राग अने विकल्प पण परवस्तु छे. परवस्तुथी स्ववस्तुने एटले आत्माने लाभ थाय एम बनी शके नहि. आत्मा पोताना जाणगस्वभावथी जाणवामां आवे छे-माटे ते प्रत्यक्ष ज्ञाता छे. प्रवचनसार गाथा १७२मां अलिंगग्रहणना वीस बोल छे. तेमां छठ्ठा बोलमां कह्युं छे के-‘‘लिंग द्वारा नहि पण स्वभाव वडे जेने ग्रहण थाय छे ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता छे एवा अर्थनी प्राप्ति थाय छे.’ आत्मा इन्द्रिय प्रत्यक्ष नथी. इन्द्रियो वडे जणाय एवी चीज आत्मा नथी. अने इन्द्रियो वडे आत्मा जाणे छे एम पण नथी. आ बहारनां धन, संपत्ति, स्त्री, पुत्र, परिवार, दास, दासी इत्यादि जे नोकर्म ते मारां छे एम एकत्वबुद्धिए जाणवां-मानवां अने तेमां एकत्वबुद्धिए लीन थवुं ए बधुं अज्ञान छे. स्त्री अर्धांगना छे अने पुत्र छे ते हुं छुं एम माने पण ए तो धूळेय तारुं नथी. मात्र अज्ञानभाव-संसारभाव छे अने अज्ञानी ते संसारभावनोसविकार चैतन्यपरिणामनो कर्ता थाय छे.

जड कर्मने हुं बांधुं, जड कर्मनो उदय आवे तो रागादि थाय अने कर्मनो अभाव

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थाय, कर्म कांईक मार्ग आपे तो अमे धर्म करीए, गुण प्रगट करीए एम माने ते जडकर्मने अने आत्माने एक माने छे. कर्म ते ज हुं छुं अने कर्मथी मने लाभालाभ छे एम मानवुं, जाणवुं अने एमां लीनता करवी ते अज्ञान छे, अने ते अज्ञानभावनो अज्ञानी जीव कर्ता थाय छे.

* गाथा ९४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

अज्ञानरूप एटले के मिथ्यादर्शन-अज्ञान-अविरतिरूप त्रण प्रकारनुं जे सविकार चैतन्यपरिणाम ते पोताने अने परनो भेद नहि जाणीने ‘‘हुं क्रोध छुं, हुं मान छुं’’ इत्यादि माने छे; तेथी अज्ञानी जीव ते अज्ञानरूप सविकार चैतन्यपरिणामनो कर्ता थाय छे अने ते अज्ञानरूप भाव तेनुं कर्म थाय छे.’ दया, दान अने पुण्यपापना भाव अने पोतानो भेद नहि जाणीने हुं क्रोध छुं, हुं राग छुं, हुं मान छुं, आ रागादि हुं करुं छुं, हुं दया पाळुं छुं-एवुं अज्ञानी माने छे. तेथी सविकार चैतन्यपरिणामरूपे परिणमतो ते पोताना सविकार चैतन्यपरिणामनो कर्ता थाय छे अने ते अज्ञानरूप भाव एनुं कर्म थाय छे. आ प्रमाणे भोक्तापणानी आ गाथामां पण कर्ताकर्मनुं कथन कर्युं. गाथा ९४ पूरी थई. आ वातने ९पमां वधु स्पष्ट करशे.

[प्रवचन नं. १६१ चालु * दिनांक २०-८-७६]

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तिविहो एसुवओगो अप्पवियप्पं करेदि धम्मादी।
कत्ता तस्सुवओगस्स होदि सो अत्तभावस्स।। ९५।।

त्रिविध एष उपयोग आत्मविकल्पं करोति धर्मादिकम्।
कर्ता तस्योपयोगस्य भवति स आत्मभावस्य।। ९५।।

हवे ए ज वातने विशेष कहे छेः-

‘हुं धर्म आदि’ विकल्प ए उपयोग त्रणविध आचरे,
त्यां जीव ए उपयोगरूप जीवभावनो कर्ता बने. ९प.

गाथार्थः– [त्रिविधः] त्रण प्रकारनो [एषः] [उपयोगः] उपयोग [धर्मादिकम्] ‘हुं धर्मास्तिकाय आदि छुं’ एवो [आत्मविकल्पं] पोतानो विकल्प [करोति] करे छे; तेथी [सः] आत्मा [तस्य उपयोगस्य] ते उपयोगरूप [आत्मभावस्य] पोताना भावनो [कर्ता] कर्ता [भवति] थाय छे. टीकाः– खरेखर आ सामान्यपणे अज्ञानरूप एवुं जे मिथ्यादर्शन-अज्ञान-अविरतिरूप त्रण प्रकारनुं सविकार चैतन्यपरिणाम ते, परना अने पोताना अविशेष दर्शनथी, अविशेष ज्ञानथी अने अविशेष रतिथी (लीनताथी) समस्त भेदने छुपावीने ज्ञेयज्ञायकभावने पामेलां एवा स्व-परनुं सामान्य अधिकरणथी अनुभवन करवाथी, ‘हुं धर्म छुं, हुं अधर्म छुं, हुं आकाश छुं, हुं काळ छुं, हुं पुद्गल छुं, हुं अन्य जीव छुं’ एवो पोतानो विकल्प उत्पन्न करे छे; तेथी, ‘हुं धर्म छुं, हुं अधर्म छुं, हुं आकाश छुं, हुं काळ छुं, हुं पुद्गल छुं, हुं अन्य जीव छुं’ एवी भ्रांतिने लीधे जे सोपाधिक (उपाधि सहित) छे एवा चैतन्यपरिणामे परिणमतो थको आत्मा ते सोपाधिक चैतन्यपरिणामरूप पोताना भावनो कर्ता थाय छे. भावार्थः– धर्मादिना विकल्प वखते जे, पोते शुद्ध चैतन्यमात्र होवानुं भान नहि राखतां, धर्मादिना विकल्पमां एकाकार थई जाय छे ते पोताने धर्मादिद्रव्यरूप माने छे. आ प्रमाणे, अज्ञानरूप चैतन्यपरिणाम पोताने धर्मादिद्रव्यरूप माने छे तेथी अज्ञानी जीव ते अज्ञानरूप सोपाधिक चैतन्यपरिणामनो कर्ता थाय छे अने ते अज्ञानरूप भाव तेनुं कर्म थाय छे.


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समयसार गाथा ९पः मथाळुं

हवे ए ज वातने विशेष कहे छेः-

* गाथा ९पः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘खरेखर आ सामान्यपणे अज्ञानरूप एवुं जे मिथ्यादर्शन-अज्ञान-अविरतिरूप त्रण प्रकारनुं सविकार चैतन्यपरिणाम ते, परना अने पोताना अविशेष दर्शनथी, अविशेष ज्ञानथी अने अविशेष रतिथी (लीनताथी) समस्त भेदने छुपावीने ज्ञेयज्ञायकभावने पामेलां एवा स्व-परनुं सामान्य अधिकरणथी अनुभवन करवाथी, ‘‘हुं धर्म छुं, हुं अधर्म छुं, हुं आकाश छुं, हुं काळ छुं, हुं पुद्गल छुं, हुं अन्य जीव छुं’’ एवो पोतानो विकल्प उत्पन्न करे छे.’ ९४मी गाथामां भाव्यभावकभावने पामेलां स्वपरने अज्ञानी एकपणे अनुभवे छे एम लीधुं हतुं. अहीं आ गाथामां ज्ञेयज्ञायकभावने पामेलां स्वपरनुं एकपणे अनुभवन करवाथी ‘हुं धर्म छुं’ एवो पोतानो विकल्प उत्पन्न करे छे एम कह्युं छे. आत्मा ज्ञायक छे अने रागादि, धर्मादि छ द्रव्यो परज्ञेय छे. ते ज्ञेय अने ज्ञायक बन्नेनुं अधिकरण एक छे एम अज्ञानी अनुभवे छे. तेथी ते त्रण प्रकारना सविकार चैतन्यपरिणामनो कर्ता थाय छे. धर्मास्तिकायनो विकल्प आवे छे तो हुं धर्मास्तिकाय छुं एम अज्ञानी माने छे. पोताना शुद्ध चैतन्यमय ज्ञायकस्वरूपनुं ज्ञान छोडी धर्मास्तिकाय आदि छ प्रकारनां जे द्रव्यो छे तेनो विचार करतां ते संबंधीना विकल्पमां तल्लीन थई जाय छे. ते धर्मास्तिकाय आदिने पोतानां माने छे. धर्मास्तिकाय जीव-पुद्गलोने गतिमां निमित्त थाय एवो एक पदार्थ छे. तेनो विचार करतां जे विकल्प आव्यो तेमां अज्ञानी तन्मय थई जाय छे. पोताना ज्ञाताद्रष्टास्वभावनुं भान भूलीने धर्मास्तिकाय हुं छुं’ एम ते माने छे. तेवी रीते अधर्मास्तिकाय जीव-पुद्गलोने गतिपूर्वक स्थितिनुं निमित्त छे. अधर्मास्ति- कायनो विचार करतां तेनो जे विकल्प आवे छे तेमां अज्ञानी तद्रूप-एकाकार थई जाय छे. ते अधर्मास्तिकायने पोतानुं माने छे. पोते सदा ज्ञायकस्वभावी ज्ञाताद्रष्टास्वरूप चैतन्य-तत्त्व छे ए वातने भूलीने ‘हुं अधर्मास्तिकाय छुं’ एम विकल्पमां एकाकार थई अधर्मास्तिकायने अने पोताने एक माने छे. हुं शुद्ध चैतन्यकंद आनंदकंद प्रभु स्वरूपथी ज ज्ञाताद्रष्टा छुं एम जेने भान थयुं नथी एवो अज्ञानी जीव पर पदार्थनो विचार करतां ते काळे आ पर पदार्थ हुं छुं एवो विकल्प साथे तदाकार थईने ते पर पदार्थने पोतानो माने छे. आकाश नामनो एक पदार्थ सर्वत्र व्यापी भगवाने जोयो छे. ते सर्व द्रव्योने अवगाहनमां निमित्त छे. ते आकाशनो विचार करतां जे विकल्प थाय छे तेमां अज्ञानी


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एकाकार थई जाय छे. हुं आकाश छुं एवा विकल्प साथे एकाकार थईने ते आकाशने अने पोताने एक माने छे. आ प्रमाणे विकल्पनो कर्ता थाय छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. लोकाकाशना एक एक प्रदेश उपर एक एक स्थित एम लोकप्रमाण असंख्यात काल द्रव्यो छे, ते जीवादि सर्व द्रव्योना प्रतिसमय थता परिणमनमां निमित्त छे. ते काळद्रव्यना विचारना काळे जे विकल्प थाय छे ते विकल्पमां अज्ञानी तल्लीन थई जाय छे. तेथी हुं काळ छुं एवा विकल्पमां लीन थयेलो ते काळ द्रव्यने अने पोताने एक माने छे अने ए विकल्पनो ते कर्ता थाय छे. ए ज प्रमाणे शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय, धनसंपत्ति इत्यादि पुद्गलो संबंधी विचारमां थता विकल्पो साथे एकाकार थईने आ पुद्गल हुं छुं एम अज्ञानपणे माने छे ते पण मिथ्याद्रष्टि छे. वळी अन्य जीव ते हुं छुं एम अज्ञानी माने छे. देव अने गुरु जे अन्य जीव छे ते देव-गुरुना विचारना काळमां जे विकल्प ऊठे छे ते विकल्पमां अज्ञानी तन्मयपणे लीन थई जाय छे. तेथी आ मारा देव छे, आ मारा गुरु छे अने ते मने धर्म करी देनारा छे इत्यादि अनेक विकल्पमां लीन थयेलो मिथ्याद्रष्टि जीव ते ते विकल्पनो कर्ता थाय छे. अरे! लोकोने जैनदर्शननी आवी सूक्ष्म वात कदी सांभळवा मळी नथी. पोतानी योग्यता नहि तेथी कोई संभळावनार मळ्‌या नहि. भगवान महाविदेहमां बिराजे छे त्यां जन्मे अने सांभळवानी योग्यता होय तो त्यां जाय. छतां भगवाननी वाणी सांभळे माटे पोतानुं कल्याण थई जाय एम वात नथी. भगवाननी वाणी सांभळवामां राग आवे छे. ते रागमां तन्मय-एकाकार थई जाय ते मिथ्याद्रष्टि छे. समोसरणमां जीव अनंतवार गयो छे पण तेथी शुं थयुं? मिथ्याद्रष्टि जैन साधु पण समोसरणमां होय छे, पण निमित्त शुं करे? अहाहा...! भगवान आत्मा चैतन्यस्वभावमय वस्तु त्रिकाळ अबद्धस्पृष्ट छे एम जे भगवाने कह्युं तेनो पोते अंतरमां द्रष्टि करी स्वीकार करे, देव-गुरुनुं लक्ष छोडी अंतर्मुख द्रष्टि करीने स्वरूपनुं लक्ष करे तो धर्म प्रगट थाय छे. देव-गुरुनी श्रद्धानो विकल्प पण छूटी जाय अने आत्मानो साक्षात् अनुभव थाय, स्वरूप-लीनता थाय एनुं नाम धर्म छे. गुरुनी भक्ति करो तो धर्म थई जशे एवी एकान्त मान्यता मिथ्यादर्शन छे. पोताना स्वरूपना लक्षे धर्म प्रगट थाय छे ते यथार्थ छे. मोक्षमार्ग प्रकाशकमां आवे छे के देव-गुरुनुं वास्तविक स्वरूप जाणे एने अवश्य सम्यग्दर्शन थाय छे. तथा शास्त्रमां कहेला अनेकान्त-स्वरूपने यथार्थ समजे तो धर्म प्रगट थाय छे. एनो अर्थ शुं? एनो अर्थ ए छे के देव-गुरु-शास्त्रने जाणी तेनुं लक्ष छोडी अंदर स्वरूपमां-शुद्ध चैतन्यमां एकाकार थाय तेने धर्म थाय छे. बाकी देव-गुरु-शास्त्र मने धर्म प्रगट करी देशे एम माने ए तो मिथ्यादर्शन छे. अहाहा...!


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भगवान आत्मा निर्मळानंद प्रभु शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप वस्तु छे. तेनो आश्रय लेवाथी अंतरंगमां जे निर्विकल्प द्रष्टि अने निर्विकल्प ज्ञान प्रगट थाय छे ते ज्ञानथी आत्मा जाणवामां आवे छे. परमात्मप्रकाशमां कह्युं छे के दिव्यध्वनिथी भगवान आत्मा जाणवामां आवतो नथी. गणधरादि महासंतोए रचेलां शास्त्रोथी आत्मा जाणवामां आवतो नथी. देव-गुरु-शास्त्रनी भक्तिनो भाव तो राग छे. तो रागथी शुं धर्म थाय? ना, बीलकुल नहि. धर्मनी पर्याय तो पोताना त्रिकाळी सच्चिदानंदस्वरूप अबद्धस्पृष्टस्वभावी भगवान आत्माना आश्रयथी प्रगट थाय छे. आवुं ज वस्तुस्वरूप छे. अन्य जीव-स्त्री, पुत्रादिक हुं छुं एम माने ते मिथ्याद्रष्टि छे. अरे भाई! स्त्रीनो आत्मा जुदो ने तारो आत्मा जुदो, स्त्रीनुं शरीर जुदुं अने तारुं शरीर जुदुं; बन्ने द्रव्यो साव जुदेजुदां छे. स्त्री कयांयथी आवी अने कयांय जशे, तुं कयांयथी आव्यो अने कयांय जईश; बन्नेनो कयांय मेळ नथी. हुं अने परनो आत्मा एक वाडना वेला छीए एवी तारी एकपणानी मान्यता तद्न अज्ञान छे. तुं भ्रान्तिवश एकपणुं मानी अज्ञानता सेवी रह्यो छे. अरे भाई! बधां द्रव्यो भिन्न भिन्न छे, अने त्रणकाळमां तेमनुं एकपणुं थवुं संभवित नथी. तने जे आ एकपणानी भ्रान्ति छे ते संसारमां रखडवानुं कारण छे. परवस्तु तो जाणवा योग्य ज्ञेय-परज्ञेय छे अने तुं भगवान ज्ञायक छे. भ्रमवश बन्नेनो आधार एक छे एम तें मान्युं छे. अन्य जीव-परद्रव्यनो विचार करतां जे विकल्प उठे छे ते विकल्पमां तन्मयपणे एकाकार थयेलो तुं अज्ञानपणे ते विकल्पनो कर्ता थाय छे अने ते मिथ्यादर्शन छे. हवे कहे छे-‘तेथी हुं धर्म छुं, हुं अधर्म छुं, हुं आकाश छुं, हुं काळ छुं, हुं पुद्गल छुं, हुं अन्य जीव छुं-एवी भ्रान्तिने लीधे जे सोपाधिक (उपाधि सहित) छे एवा चैतन्यपरिणामे परिणमतो थको आ आत्मा सोपाधिक चैतन्यपरिणामरूप पोताना भावनो कर्ता थाय छे.’ जुओ, विकल्पने-विकारने अहीं सोपाधिक-उपाधि सहित चैतन्यपरिणाम कह्या छे. बीजे तेने पुद्गलना परिणाम कह्या छे त्यां भेदज्ञान कराववानुं प्रयोजन छे. परंतु अहीं तो अज्ञानीनी वात चाले छे ने! जेने भेदज्ञान नथी एवो अज्ञानी जीव अज्ञानपणे विकल्पने- विकारने उत्पन्न करे छे तेथी तेने अहीं सोपाधिक चैतन्यपरिणाम कह्या छे. आत्मा ज्ञाताद्रष्टा सहजानंदस्वरूप ज्ञायक भगवान छे. तेने ज्ञानमां नहि जाणवाथी अज्ञानीने परद्रव्यसंबंधी जे विकल्प थाय छे ते विकल्पमां ते पर्यायबुद्धि वडे स्वार्पणता करी दे छे अने तेथी ते विकल्पनो कर्ता थाय छे. त्रिकाळी स्वरूपनी द्रष्टि विना अज्ञानी विकल्पनो कर्ता थाय छे, अने स्वरूपनी द्रष्टि थई छे तेवो ज्ञानी तेनो ज्ञाता रहे छे. आ कर्ताकर्मनुं स्वरूप बहु सूक्ष्म छे भाई! नाटक समयसारमां आवे छे ने के-


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‘‘करै करम सोई करतारा, जो जानै सो जाननहारा;
जो करता नहि जानै सोई, जानै सो करता नहि होई.’’

छ द्रव्य जे परद्रव्य छे तेनो विचार करतां जे विकल्प उत्पन्न थाय छे ते विकल्पनो जे कर्ता थाय छे ते ज्ञाताद्रष्टारूपे परिणमतो नथी; अने जे विकल्पनो जाणनार रहे छे ते विकल्पनो कर्ता थतो नथी. चिदानंद चैतन्यस्वरूप आनंदनो नाथ भगवान आत्मा छे. तेनुं अंतरमां लक्ष करी तेने जाणीने निर्विकल्प आनंद प्रगट न करे त्यां सुधी तेणे कांई जाण्युं नथी.

परद्रव्य मारुं छे एम मानतां जे विकल्प थाय ते विकल्प दुःख छे. विकल्पनो जे कर्ता थाय ते दुःखनो कर्ता थाय छे. भगवान आत्मा तो आनंदनो सागर छे. एनी द्रष्टि करतां अतीन्द्रिय आनंद प्रगट थाय तेवो छे. तेमां राग नथी अने ते रागनो कर्ता नथी. पण छ द्रव्य ते हुं छुं एवी भ्रान्तिने लीधे अज्ञानी सोपाधिक चैतन्यपरिणामरूपे परिणमे छे अने तेथी ते सोपाधिक चैतन्यपरिणामरूप पोताना भावनो कर्ता थाय छे. परद्रव्यने पोतानुं माने ते एवा विकल्पनो अज्ञानपणे कर्ता थाय छे अने ते चारगतिमां प्राप्त दुःखनुं कारण थाय छे.

* गाथा ९पः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘धर्मादिना विकल्प वखते जे, पोते शुद्ध चैतन्यमात्र होवानुं भान नहि राखतां, धर्मादिना विकल्पमां एकाकार थई जाय छे ते पोताने धर्मादिद्रव्यरूप माने छे.’

छ द्रव्यना विचार वखते अज्ञानी ते विकल्पमां एकाकार थई जाय छे. ते धर्मास्तिकाय आदि छ द्रव्यरूप पोताने माने छे. हुं स्वभावे ज्ञाताद्रष्टा छुं एवी द्रष्टिथी भ्रष्ट थई मिथ्याद्रष्टि विकल्पनो कर्ता थाय छे.

‘आ प्रमाणे अज्ञानरूप चैतन्यपरिणाम पोताने धर्मादिद्रव्यरूप माने छे तेथी अज्ञानी जीव ते अज्ञानरूप सोपाधिक चैतन्यपरिणामनो कर्ता थाय छे अने ते अज्ञानरूप भाव तेनुं कर्म थाय छे.’

छ द्रव्यना विचारना काळे जे राग छे ते अज्ञानरूप भाव छे. जे राग छे ते ज्ञाताना परिणाम नथी. भाई! जे एम माने के मारा देव-गुरु मने तारी देशे ते विकल्पनो कर्ता थईने मिथ्याद्रष्टि थाय छे. एकदम सार सार वात छे.

अज्ञानरूप चैतन्यपरिणाम पोताने छ द्रव्यरूप माने छे. माटे अज्ञानी जीव ते अज्ञानरूप सोपाधिक चैतन्यपरिणामनो कर्ता थाय छे; अने ते अज्ञानरूप भाव तेनुं कर्म कहेतां कार्य थाय छे. राग ते अज्ञानीनुं कार्य छे. ल्यो, ९प पूरी थई.

[प्रवचन नं. १६१ शेष, १६२ चालु * दिनांक २१-८-७६]

गाथा–९६

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ततः स्थितं कर्तृत्वमूलमज्ञानम्।

एवं पराणि दव्वाणि अप्पयं कुणदि मंदबुद्धीओ।
अप्पाणं अवि य परं करेदि अण्णाणभावेण।। ९६ ।।

एवं पराणि द्रव्याणि आत्मानं करोति मन्दबुद्धिस्तु।
आत्मानमपि च परं करोति अज्ञानभावेन।। ९६ ।।

‘तेथी कर्तापणानुं मूळ अज्ञान ठर्युं’ एम हवे कहे छेः-

जीव मंदबुद्धि ए रीते परद्रव्यने निजरूप करे,
निज आत्मने पण ए रीते अज्ञानभावे पर करे. ९६.

गाथार्थः– [एवं तु] आ रीते [मन्दबुद्धिः] मंदबुद्धि अर्थात् अज्ञानी [अज्ञानभावेन] अज्ञानभावथी [पराणि द्रव्याणि] पर द्रव्योने [आत्मानं] पोतारूप [करोति] करे छे [अपि च] अने [आत्मानम्] पोताने [परं] पर [करोति] करे छे.

टीकाः– खरेखर ए रीते, ‘हुं क्रोध छुं’ इत्यादिनी जेम अने ‘हुं धर्मद्रव्य छुं’ इत्यादिनी जेम आत्मा परद्रव्योने पोतारूप करे छे अने पोताने पण परद्रव्यरूप करे छे; तेथी आ आत्मा, जोके ते समस्त वस्तुओना संबंधथी रहित बेहद शुद्ध चैतन्यधातुमय छे तोपण, अज्ञानने लीधे ज सविकार अने सोपाधिक करायेला चैतन्यपरिणामवाळो होवाथी ते प्रकारना पोताना भावनो कर्ता प्रतिभासे छे. आ रीते, भूताविष्ट (जेना शरीरमां भूत प्रवेश्युं होय एवा) पुरुषनी जेम अने ध्यानाविष्ट (ध्यान करता) पुरुषनी जेम, आत्माने कर्तापणानुं मूळ अज्ञान ठर्युं. ते प्रगट द्रष्टांतथी समजाववामां आवे छेः-

जेम भूताविष्ट पुरुष अज्ञानने लीधे भूतने अने पोताने एक करतो थको, मनुष्यने अनुचित एवी विशिष्ट चेष्टाना अवलंबन सहित भयंकर *आरंभथी भरेला अमानुष व्यवहारवाळो होवाथी ते प्रकारना भावनो कर्ता प्रतिभासे छे; तेवी रीते आ आत्मा पण अज्ञानने लीधे ज भाव्य-भावकरूप परने अने पोताने एक करतो थको, अविकार अनुभूतिमात्र जे भावक तेने अनुचित एवा विचित्र भाव्यरूप क्रोधादि विकारोथी मिश्रित चैतन्यपरिणामविकारवाळो होवाथी ते प्रकारना भावनो कर्ता प्रतिभासे * आरंभ = कार्य; व्यापार; हिंसायुक्त व्यापार.


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छे. वळी जेम अपरीक्षक आचार्यना उपदेशथी महिषनुं (पाडानुं) ध्यान करतो कोई भोळो पुरुष अज्ञानने लीधे महिषने अने पोताने एक करतो थको, ‘हुं गगन साथे घसातां शिंगडांवाळो मोटो महिष छुं’ एवा अध्यासने लीधे मनुष्यने योग्य एवुं जे ओरडाना बारणामांथी बहार नीकळवुं तेनाथी च्युत थयो होवाथी ते प्रकारना भावनो कर्ता प्रतिभासे छे; तेवी रीते आ आत्मा पण अज्ञानने लीधे ज्ञेयज्ञायकरूप परने अने पोताने एक करतो थको, ‘हुं परद्रव्य छुं’ एवा अध्यासने लीधे मनना विषयरूप करवामां आवेलां धर्म, अधर्म, आकाश, काळ, पुद्गल अने अन्य जीव वडे (पोतानी) शुद्ध चैतन्यधातु रोकायेली होवाथी तथा इंद्रियोना विषयरूप करवामां आवेला रूपी पदार्थो वडे (पोतानो) केवळ बोध (-ज्ञान) ढंकायेल होवाथी अने मृत कलेवर (-शरीर) वडे परम अमृतरूप विज्ञानघन (पोते) मूर्छित थयो होवाथी ते प्रकारना भावनो कर्ता प्रतिभासे छे.

भावार्थः– आ आत्मा अज्ञानने लीधे, अचेतन कर्मरूप भावकनुं जे क्रोधादि भाव्य तेने चेतन भावक साथे एकरूप माने छे; वळी ते, पर ज्ञेयरूप धर्मादिद्रव्योने पण ज्ञायक साथे एकरूप माने छे. तेथी ते सविकार अने सोपाधिक चैतन्यपरिणामनो कर्ता थाय छे.

अहीं, क्रोधादिक साथे एकपणानी मान्यताथी उत्पन्न थतुं कर्तृत्व समजाववा भूताविष्ट पुरुषनुं द्रष्टांत कह्युं अने धर्मादिक अन्यद्रव्यो साथे एकपणानी मान्यताथी उत्पन्न थतुं कर्तृत्व समजाववा ध्यानाविष्ट पुरुषनुं द्रष्टांत कह्युं.

* * *
समयसार गाथा ९६ः मथाळुं

कर्तापणानुं मूळ अज्ञान ठर्युं एम हवे कहे छेः-

* गाथा ९६ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘खरेखर ए रीते, ‘‘हुं क्रोध छुं’’ इत्यादिनी जेम अने ‘‘हुं धर्मद्रव्य छुं’’ इत्यादिनी जेम आत्मा परद्रव्योने पोतारूप करे छे अने पोताने पण परद्रव्यरूप करे छे.’

जुओ, आ अज्ञानीनी वात चाले छे. ‘हुं क्रोध छुं’ एम मानतो थको पोताना सविकार चैतन्यपरिणामनो आत्मा कर्ता थाय छे ए वात गाथा ९४मां लीधी. अने हुं धर्मादि छ द्रव्य छुं एम मानतो थको पोताना सोपाधिक चैतन्यपरिणामनो आत्मा कर्ता थाय छे-एम गाथा ९पमां लीधुं छे. एकमां सविकार चैतन्यपरिणामनो कर्ता अने बीजामां सोपाधिक चैतन्यपरिणामनो कर्ता-एम बेमां फरक पाडयो छे. हुं क्रोध छुं, मान छुं, माया छुं, लोभ छुं, राग छुं, द्वेष छुं इत्यादि गाथा ९४मां सोळ बोल लीधा छे.


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अने हुं अन्य जीव छुं, पुद्गल छुं, इत्यादि छ द्रव्य छुं एम गाथा ९पमां लीधुं छे. आ दीकरो मारो छे, पत्नी मारी छे, कन्या मारी छे, मकान मारुं छे, धन-संपत्ति मारां छे एम अज्ञानी माने छे अने ए प्रमाणे ते परद्रव्योने पोतारूप करे छे अने पोताने पण परद्रव्यरूप करे छे.

भाई! आ वीतरागमार्गनी वात खूब धीरज अने शांतिथी सांभळवी जोईए. एटलुं ज नहि तेनो घरे स्वाध्याय अने मनन करवां जोईए. घरे चोपडा (नामाना) फेरवे पण ए तो एकलो पापनो वेपार छे. आ बैरां छोकरां सारु रळीए अने कमाईए अने एमनुं पालनपोषण करीए एम जे माने छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. अरे भाई! कुटुंब सारु पैसा कमाईए एम तुं समजे छे पण कोनुं कुटुंब? कोण कमाय? अने कोना पैसा? कुटुंब तो बधा अन्य जीव छे अने पैसा तो जडना छे. बधुं भिन्न भिन्न छे. अहा! स्वद्रव्य अने परद्रव्यनी भिन्नता जाणवी ए अलौकिक चीज छे अने जेने भेदज्ञान थई जाय तेने तो मानो मुक्ति हाथ आवी गई. परंतु अज्ञानी परद्रव्योने पोतारूप अने पोताने पण परद्रव्यरूप करे छे!

अज्ञानी जीव स्वद्रव्य-परद्रव्यने एक माने छे. ‘तेथी आ आत्मा, जोके ते समस्त वस्तुओना संबंधथी रहित बेहद शुद्ध चैतन्यधातुमय छे तोपण, अज्ञानने लीधे ज सविकार अने सोपाधिक करायेला चैतन्यपरिणामवाळो होवाथी ते प्रकारना पोताना भावनो कर्ता प्रतिभासे छे.’

अहाहा...! भगवान आत्मा समस्त वस्तुना संबंधथी रहित बेहद शुद्ध चैतन्य-धातुमय छे. आत्मा राग, पुण्य, पाप, शरीर, मन, वाणी, देव, गुरु, शास्त्र इत्यादि सर्व वस्तुओना संबंधथी रहित शुद्ध चैतन्यमय प्रभु छे. अहाहा...! जेणे शुद्ध चैतन्यने धारी राख्युं छे एवो पोते चैतन्यधातुमय छे. आत्मा आवो होवा छतां अज्ञानना कारणे हुं क्रोध, मान, माया, लोभ छुं अने हुं धर्मास्तिकाय आदि छ द्रव्यस्वरूप छुं एम माने छे. ते जीव सविकार अने सोपाधिक चैतन्यपरिणामवाळो होवाथी ते प्रकारना पोताना भावनो कर्ता प्रतिभासे छे. आ अज्ञानीनी वात छे एटले सविकार अने सोपाधिक चैतन्यपरिणामने पोताना भाव कह्या छे अने ते प्रकारना पोताना भावनो ते कर्ता प्रतिभासे छे एम कह्युं छे. ज्ञायक तो ज्ञायक छे पण अज्ञानमां आवो प्रतिभास थाय छे के विकारी भावनो हुं कर्ता छुं अने ते भाव मारुं कर्तव्य छे. (शुद्ध निश्चयथी विकारी परिणाम आत्माना नथी).

‘आ रीते, भूताविष्ट (जेना शरीरमां भूत प्रवेश्युं होय एवा) पुरुषनी जेम अने ध्यानाविष्ट (ध्यान करता) पुरुषनी जेम आत्माने कर्तापणानुं मूळ अज्ञान ठर्युं’ अहीं सविकार चैतन्यपरिणामने समजाववा भूताविष्ट पुरुषनुं द्रष्टांत आप्युं छे अने


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सोपाधिक चैतन्यपरिणामनुं स्वरूप समजाववा ध्यानाविष्ट पुरुषनुं द्रष्टांत आप्युं छे. रागादि परिणाम मारां छे अने छ द्रव्य मारां छे एवुं जे अज्ञान ते रागना कर्तापणानुं मूळ छे एम सिद्ध थयुं. आत्मा शुद्ध चैतन्यस्वभावमय ज्ञाताद्रष्टास्वरूप छे. तेनुं भान नहि होवाथी हुं राग छुं, हुं परद्रव्यस्वरूप छुं एवी मान्यता वडे उत्पन्न थयेलुं अज्ञान ते रागना कर्तापणानुं मूळ छे, परद्रव्य नहि-ए वात द्रष्टांतथी समजाववामां आवे छे.

‘जेम भूताविष्ट पुरुष अज्ञानने लीधे भूतने अने पोताने एक करतो थको, मनुष्यने अनुचित एवी विशिष्ट चेष्टाना अवलंबन सहित भयंकर आरंभथी भरेला अमानुष व्यवहारवाळो होवाथी ते प्रकारना भावनो कर्ता प्रतिभासे छे...’

भूताविष्ट पुरुष अज्ञानना कारणे भूतने अने पोताने एक माने छे. भूत शरीरमां प्रवेश करीने जे अनेक प्रकारे चेष्टा करे ते हुं छुं एम ते माने छे. तेम पर्यायमां जे पुण्य- पापना भाव थाय ते हुं छुं एम अज्ञानी माने छे. वास्तवमां भूतनी जेम ते पुण्य-पापना भाव आत्मा नथी. पुण्य-पापना भाव हुं छुं एम मानवावाळो अज्ञानी जीव भूताविष्ट पुरुष समान छे.

जुओ, रामचंद्रजी क्षायिक समकिती हता. बार बार वर्षथी जंगलमां सीताजी अने लक्ष्मणनी साथे रहेता हता. लक्ष्मण मोटाभाई रामनी अने सीताजीनी अनेक प्रकारे सेवा करता. एकवार ज्यारे सीताजीने रावण अपहरण करीने लई गयो त्यारे खूब व्यग्र थयेला रामचंद्रजी जंगलना वृक्ष अने वेलने, पहाड अने पत्थरने पण पूछवा लाग्या के-सीताने कयांय जोई? जुओ, आ चारित्रमोहना रागनी विचित्र चेष्टा! हाथमां नूपुर बतावीने लक्ष्मणने पूछवा लाग्या-आ नूपुर कोनुं छे? शुं आ नूपुर सीताजीनुं छे? त्यारे लक्ष्मणे कह्युं-बंधुवर! सीताजीनां दर्शन करवा एकवार हुं गयेल तो पग उपर मारी नजर गयेली त्यारे सीताजीना पगे पहेरेलुं नूपुर में जोयेलुं. माटे आ नूपुर सीताजीनुं लागे छे. अहाहा...! केवुं नैतिक पवित्र जीवन!

युद्धमां रावणे विद्यामय बाण मार्युं तो लक्ष्मण मूर्छित थई पडी गया. खबर हती के लक्ष्मण वासुदेव छे तोपण राम खेद करवा लाग्या-हे भाई! हे लक्ष्मण! एकवार तो बोल. मने एकलाने जोई माता कौशल्या पूछशे के सीता अने लक्ष्मण कयां छे? तो हुं माताने शुं जवाब दईश? बंधु मारा-भाई लक्ष्मण! एकवार तुं बोल. त्यारपछी जे ब्रह्मचारिणी हती अने जेने लब्धि प्रगट थई हती एवी त्रिशल्याना स्नाननुं जळ छांटवाथी लक्ष्मणनी मूर्छा उतरी गई अने लक्ष्मण जागृत थया त्यारे राम आनंदित थया. जुओ! चारित्रमोहना रागनी आ केवी विचित्र लीला छे! चारित्रनी कमजोरीना कारणे आवा अनेक प्रकारे समकितीने राग आवे छे पण कोई पण रागने धर्मी पोताना मानता नथी. राम तो पुरुषोत्तम हता, तद्भवमोक्षगामी हता. आवा


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विचित्र रागने प्राप्त थया तेम छतां ते रागने अने परद्रव्यने पोताना समजता न हता. भेदज्ञाननो कोई एवो अचिंत्य महिमा छे. अहो भेदज्ञान!

अहीं कहे छे-भाई! तारी त्रिकाळी चैतन्यमय चीजने भूलीने तुं राग अने परद्रव्यमां एकाकार थयो छे अने पुण्यपापना भावोने पोतानां माने छे ते तारी चेष्टा भूताविष्ट पुरुषना जेवी छे. पुण्यपापना भाव अने परद्रव्य मारां छे एम तुं माने ते भूताविष्ट पुरुषनी जेम तारुं पागलपणुं, गांडपण अने बेभानपणुं छे.

भूताविष्ट पुरुष अज्ञानना कारणे अमानुष अनुचित चेष्टा करे छे. जेने भूतनो प्रवेश थयो होय तेने हुं मनुष्य छुं अने आ भूत छे एवुं (विवेकयुक्त) भान रहेतुं नथी. मनुष्यने न शोभे एवी ते चेष्टाओ करे छे अने ते बधी पोतानी माने छे. घडीकमां दांत काढे, घडीकमां हाथ पग पछाडे, वळी धूणवा लागी जाय, दोडे, भागे, बूम बराडा पाडे एम अनेक प्रकारे धमाचकडी करी मूके छे. आ प्रमाणे भूताविष्ट पुरुष मनुष्यने न शोभे तेवी विशिष्ट चेष्टाना अवलंबन सहित भयंकर आरंभथी भरेला अमानुष व्यवहारवाळो होवाथी ते प्रकारना भावनो कर्ता प्रतिभासे छे. आ द्रष्टांत कह्युं. हवे सिद्धांत कहे छेः-

‘तेवी रीते आ आत्मा पण अज्ञानने लीधे ज भाव्य-भावकरूप परने अने पोताने एक करतो थको, अविकार अनुभूतिमात्र जे भावक तेने अनुचित एवा विचित्र भाव्यरूप क्रोधादि विकारोथी मिश्रित चैतन्यपरिणामविकारवाळो होवाथी ते प्रकारना भावनो कर्ता प्रतिभासे छे.’

आ आत्मा अज्ञानना कारणे भाव्य-भावकरूप परने अने पोताने एक करे छे. मोहकर्म ते भावक अने पुण्यपापना विकारी भाव ते एनुं भाव्य-ए बेने अज्ञानी पोतानाथी एकरूप माने छे. निश्चयथी कर्म भावक अने शुभाशुभ राग तेनुं भाव्य छे. परंतु हुं भावक अने शुभाशुभ राग मारुं भाव्य छे एम अज्ञानी माने छे. रागथी भिन्न शुद्ध चैतन्यमय ज्ञायकमात्र हुं छुं एवी जेने द्रष्टि थई नथी ते अज्ञानी दया, दान, व्रतादिना अने हिंसादिना जे अनेक विकल्पो थाय ते विकल्परूप चेष्टा मारी छे एम माने छे.

पुण्यपापना भाव ते मोहकर्मनुं भाव्य छे. छतां आ विकारी भाव पोतानुं (आत्मानुं) भाव्य छे एवी मान्यताना वळगाडथी भूताविष्ट पुरुषनी जेम अज्ञानी जीव पागल-गांडो थई गयो छे. जेने भूत वळग्युं होय तेने तो मर्यादित काळनुं अने वधारेमां वधारे एक भवनुं गांडपण रहे छे. पण आ शरीरादि मारां अने पुण्यपापना भाव मारा एम जेणे मान्युं छे एनुं गांडपण तो अनादिनुं छे, अनंतकाळथी छे. हे भाई! आ मनुष्यभवमां जो आ गांडपण न गयुं तो भुंडा हाल थशे. आ गांडपणनुं


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फळ तो चार गतिनी रखडपट्टी छे. आवुं गांडपण भेदज्ञान वडे ज दूर थाय छे. परमां सुखबुद्धि छे तेथी परने पोतानुं मानवारूप भाव छे. परंतु शुद्ध चैतन्यमय सुखधाम एवा स्वरूपमां सुखबुद्धि थतां परने पोतानुं मानवारूप गांडपण दूर थई जाय छे. मनुष्यभवनी सार्थकता विचारी हे भाई! भेदज्ञान प्रगट कर.

अज्ञानी रागने अने पोताने एक करतो थको अनुभूतिमात्र जे भावक तेने अनुचित एवा विचित्र भाव्यरूप क्रोधादि विकारोथी मिश्रित चैतन्यपरिणामविकारवाळो होवाथी ते प्रकारना भावनो कर्ता प्रतिभासे छे. जुओ, पुण्य अने पापना भाव पोताना अविकार अनुभूतिमात्र भावकने अनुचित भाव्य छे. भगवान आत्मा निर्मळ ज्ञान अने आनंदनी मूर्ति छे. तेने तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान अने अतीन्द्रिय आनंदनी निर्मळ अवस्थारूपे थवुं शोभे. निर्मळ वीतरागी शान्तिनुं वेदन करवुं ए ज तेनुं उचित भाव्य छे. जेम भूतनी चेष्टा ते मनुष्यने योग्य चेष्टा नथी तेम पुण्य-पापना भावनी जे चेष्टा थाय ते भगवान आत्माने योग्य चेष्टा नथी. ते अनुभूतिस्वरूप भावकनुं अनुचित भाव्य छे. पुण्यपापना भावनी चेष्टा प्रगट थतां जेवुं निर्विकार चैतन्यस्वरूप छे तेवी निर्विकारी अवस्था न रहेतां चैतन्यनी पर्यायमां विकारनुं मिश्रितपणुं थई जाय छे.

अज्ञानीने क्रोधादि भावो, पुण्यपापना भावो पोताना भासे छे, पण ते भावोथी भिन्न हुं चैतन्यमूर्ति भगवान ज्ञायक छुं एम तेने भासतुं नथी. हुं तो मारा निर्मळ ज्ञान-सुखादि स्वरूपनो अनुभव करनार छुं एम अज्ञानीने पोतानुं स्वरूप भासतुं नथी. तेथी ते पोताथी एकरूप कहेला पुण्य-पाप आदि विकारी भावोनो, सविकार चैतन्यपरिणामनो कर्ता थाय छे. आवो मार्ग लोकोने सांभळवो पण कठण पडे तो ते पोतामां प्रगट केम करीने करे? अहो! जेना जन्म-मरणनो अंत नजीक आवी गयो छे तेने ज आ वात बेसे एम छे.

आ प्रमाणे ९४मी गाथामां सोळ बोल द्वारा जे कह्या ते सघळा सविकार चैतन्यपरिणामनो अज्ञानी कर्ता प्रतिभासे छे, केमके तेने शुद्ध चैतन्यस्वरूप भासतुं नथी. तेना कर्तापणानुं मूळ अज्ञान छे एम अहीं सिद्ध कर्युं.

हवे छ द्रव्यने मारां माने छे ए सोपाधिक चैतन्यपरिणामनुं स्वरूप समजवा ध्यानाविष्ट पुरुषनुं द्रष्टांत कहे छे-

‘वळी जेम अपरीक्षक आचार्यना उपदेशथी महिषनुं (पाडानुं) ध्यान करतो कोई भोळो पुरुष अज्ञानने लीधे महिषने अने पोताने एक करतो थको ‘‘हुं गगन साथे घसातां शिंगडांवाळो मोटो महिष छुं’’ एवा अध्यासने लीधे मनुष्यने योग्य एवुं जे ओरडाना बारणामांथी बहार नीकळवुं तेनाथी च्युत थयो होवाथी ते प्रकारना भावनो कर्ता प्रतिभासे छे....’


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जुओ, कोई अपरीक्षक एटले अणघड गुरुए कोई भोळा पुरुषने पोताने इष्ट होय तेनुं ध्यान करवा कह्युं. त्यां ते भोळो पुरुष पोताने इष्ट एवा पाडानुं ध्यान करवा लाग्यो. पाडो आवो पुष्ट शरीरवाळो, भारे माथावाळो अने खूब मोटां शिंगडांवाळो छे एम ध्यान करतां करतां अज्ञानने लीधे ते पाडाने अने पोताने एक मानवा लाग्यो. पाडो आवो, पाडो तेवो एम विचार करतां करतां हुं ज आवो गगनचुंबी शिंगडांवाळो मोटो महिष छुं एम एने थई गयुं. अरे! आ बारणुं नानुं अने शिंगडां मोटां छे. हवे हुं बारणामांथी बहार केम करीने नीकळुं? पोते मनुष्य छे अने मनुष्यने योग्य बहार नीकळी शकाय एवुं बारणुं छे ए भूली गयो. पोते बारणामां थई ओरडामां पेठो ते मनुष्य ज हतो, पण हुं मोटा शिंगडांवाळो पाडो ज छुं एम अध्यास थई जवाथी मनुष्यने योग्य एवुं जे ओरडाना बारणामांथी बहार नीकळवुं तेनाथी ते च्युत थई गयो होवाथी हुं पाडो छुं ते प्रकारना भावनो ते कर्ता प्रतिभासे छे.

एम अज्ञानीने परद्रव्य मारां छे एवी चिरकाळनी मान्यताना कारणे परद्रव्यमांथी नीकळवुं मुश्केल थई पडयुं छे. आ स्त्री, पुत्र, परिवार, मकान, धनसंपत्ति, देव, गुरु इत्यादि बधां परद्रव्य मारां छे एवुं एणे ध्यान कर्युं छे अने जाणे के पोते ते-रूप थई छे गयो एम मानवा लाग्यो छे. एटले हवे एमांथी छूटवुं एने भारे मुश्केल थई गयुं छे. परद्रव्यना विचारमां ते एवो तो एकाकार थई गयो छे के हुं शुद्ध चैतन्यमय आत्मा छुं ए भूली गयो छे अने हुं परद्रव्यस्वरूप छुं एम मानवा लाग्यो छे. पोताने भूलीने परद्रव्यना ध्यानमां मश्गुल थयेला तेने हवे परद्रव्यथी खसवुं अत्यंत मुश्केल थई पडयुं छे. अहो! आचार्यदेवे अपार करुणा करीने आवी वात करी छे. कहे छे-परद्रव्यने पोताना माने तेने तेमांथी बहार नीकळवुं भारे कठण पडे छे. देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो विकल्प ते राग छे. अने ते राग भलो छे एम माने तेने एनाथी भिन्न थवुं मुश्केल छे.

हवे कहे छे-ध्यानाविष्ट पुरुष जेम ते प्रकारना भावनो कर्ता प्रतिभासे छे ‘तेवी रीते आ आत्मा पण अज्ञानने लीधे ज्ञेयज्ञायकरूप परने अने पोताने एक करतो थको ‘‘हुं परद्रव्य छुं’’ एवा अध्यासने लीधे मनना विषयरूप करवामां आवेलां धर्म, अधर्म, आकाश, काळ, पुद्गल अने अन्य जीव वडे (पोतानी) शुद्ध चैतन्यधातु रोकायेली होवाथी तथा इंद्रियोना विषयरूप करवामां आवेला रूपी पदार्थो वडे (पोतानो) केवळ बोध (-ज्ञान) ढंकायेल होवाथी अने मृतक कलेवर (शरीर) वडे परम अमृतरूप विज्ञान-घन (पोते) मूर्छित थयो होवाथी ते प्रकारना भावनो कर्ता प्रतिभासे छे.’

धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, काळ, पुद्गल अने अन्य जीव देव-गुरु इत्यादि खरेखर ज्ञानना ज्ञेय छे. ते परद्रव्यो आत्मामां नथी. पोते ज्ञायक छे अने ते


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बधां परज्ञेय छे. अज्ञानी ज्ञायक अने ज्ञेयने एक करे छे. देव, गुरु, शास्त्र इत्यादि ज्ञेयनो विचार-ध्यान करतां हुं ज्ञेयरूप छुं एम तेने भ्रम ऊपजे छे. ज्ञानमां देव-गुरु-शास्त्र आदि परद्रव्य जणायां त्यां ते परद्रव्योथी मारुं ज्ञान छे, ते परद्रव्य विना मारुं ज्ञान उघडे नहि एम ते परज्ञेयने अने पोताने एक करे छे. स्त्री, कुटुंब, मित्र, देव-गुरु-शास्त्र इत्यादि हुं छुं अने ए मारां छे एवी मान्यता मिथ्यादर्शन छे अने एवी मान्यता वडे मिथ्याद्रष्टि जीव पोताना अज्ञानभावनो कर्ता थाय छे.

मनना विषयरूप छ द्रव्यो छे. धर्मास्तिकाय आदि छ द्रव्यो मनना विषय छे. स्त्री, पुत्र, परिवार, देव-गुरु-शास्त्र, भगवान तीर्थंकरदेव सुद्धां सघळा परपदार्थ मनना विषय छे. सहज चैतन्यस्वभाव, ज्ञायकस्वभाव अतीन्द्रियज्ञाननो विषय छे. आत्माना निर्मळ स्वसंवेदनना पुरुषार्थना समये मन उपस्थित छे पण ते मुख्य नथी; आत्मा ज मुख्य छे. आत्मानुं भान आत्मा वडे ज थाय छे. त्यां मन तो उपस्थितिमात्र छे. खरेखर तो मननो विषय परवस्तु छे. छ द्रव्यरूप परनो विचार करतां मनना निमित्ते शुभाशुभ विकल्प उत्पन्न थाय छे अने ए विकल्पमां पोतानी शुद्ध चैतन्यधातु रोकाई जाय छे. ज्ञायकभावस्वरूप भगवान आत्माने छोडी परद्रव्यना विकल्पमां रोकाय छे तेने पर वडे शुद्ध चैतन्यधातु रोकायेली छे एम कहेवामां आवे छे. परद्रव्यना विचारमां रोकायेलो अज्ञानी जाणे हुं पररूप थई गयो एम भ्रमथी माने छे.

पोताना ज्ञायकस्वभावने ज्ञानवडे धारी राखवो जोईए तेने बदले अज्ञानीने मनना विषयमां शुद्ध चैतन्यधातु रोकाई जाय छे. सिद्ध भगवान, अरहंत भगवान, आचार्य भगवान आदि पंचपरमेष्ठी अरूपी छे. तथा धर्म, अधर्म, आकाश अने काळ पण अरूपी द्रव्यो छे. ते सघळा मनना विषय छे. परंतु ए सौथी भिन्न चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा हुं छुं एम अंतर्द्रष्टि नहि थवाथी अज्ञानी मनने अने मनना विषयने एक करतो त्यां ज रोकायेलो होवाथी ज्ञेय-ज्ञायकने एक करे छे. ज्यारे हुं शुद्ध ज्ञायकमूर्ति भगवान आत्मा छुं एम जेने भान थयुं छे एवो ज्ञानी-धर्मी जीव जीवादि परद्रव्यना विचार समये पण हुं परद्रव्यथी भिन्न छुं एवुं भान वर्ततुं होवाथी ज्ञेयज्ञायकने एक करतो नथी. झीणी वात छे भाई!

मनना विषयनी वात करी. हवे इन्द्रियोना विषयनी वात करे छे. इन्द्रियना विषयरूप स्पर्श, रस, गंध, रूप अने शब्द वडे केवळबोधस्वरूप निज आत्मा ढंकाई गयो छे. इन्द्रिय विषयना लक्षे भगवान आत्मा ढंकाई गयो छे. रूपी पदार्थना लक्षे राग थाय छे. अने ते रागने अने विषयने पोतानां मानवाथी केवळज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा ढंकाई जाय छे. ढंकाई जाय छे एटले अनुभवमां आवतो नथी. जुओ, अहीं केवळज्ञान पर्यायनी वात नथी. इन्द्रियना विषयो मारा छे एवा विकल्पो वडे शुद्ध ज्ञानस्वरूप परमात्मा पोते छे ते अनुभवमां आवतो नथी एटले ढंकाई जाय छे एम अहीं वात छे.


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हवे त्रीजी वात कहे छे के मृतक कलेवर वडे परम अमृतस्वरूप विज्ञानघन पोते मूर्छित थई गयो छे. जुओ, आ शरीर मृतक कलेवर एटले मडदुं छे एम अहीं कह्युं छे.

प्रश्नः– पण कयारे?

उत्तरः– अत्यारे हमणां ज. शरीर तो स्वरूपथी अचेतन मडदुं ज छे पण जीवना संयोगनी अपेक्षाए तेने उपचारथी सचेत-जीवित कहेवामां आवे छे. वास्तवमां तो जीव होवा छतां पण शरीर तो मृतक कलेवर ज छे, केमके शरीर कदीय जीवरूप-चैतन्यरूप थतुं नथी अने जीव कदीय शरीररूप थतो नथी. जीव सदा जीव ज छे अने शरीर सदा शरीर ज छे. तेथी तेने मृतक कलेवर अर्थात् मडदुं अहीं कह्युं छे.

अहीं कहे छे के परम अमृतरूप विज्ञानघन प्रभु आत्मा अज्ञानने लईने शरीररूप मृतक कलेवरमां-मडदामां मूर्छायो छे. अरे! रातदिवस एने ए मडदानी केटली चिंता! खवडाववुं, पीवडाववुं, ऊंघाडवुं अने एने पुष्ट राखवुं-एम एनी ज संभाळ कर्या करे छे. ए शरीरना लक्षे मूर्छाई गयो छे, बेहोश थई गयो छे. आचार्य कहे छे-भाई! तुं आ मडदे केम मूर्छायो छे? तुं तो अमृतस्वरूप आनंदनो नाथ विज्ञानघन प्रभु छो ने! जागृत था अने स्वरूपनुं भान करी एमां ठरी जा.

आत्मा एकलो ज्ञानस्वरूप अमृतरसनो सागर छे. प्रभु! एनी द्रष्टि छोडी आ देहना- मडदाना रखोपामां कयां रोकायो? चा, दूध, उकाळा, रोटली, दाळ, भात, लाडु वगेरेना खानपानमां तुं एकाकार थई गयो छे ते तारुं अज्ञान छे. चा पीधी होय तो मगज तर रहे अने बीडी पीधी होय तो बराबर केफ रहे. अरे भाई! तुं आ शुं माने छे? आ तो मूढपणुं छे. भगवान! तुं तो सच्चिदानंद प्रभु अमृतनो सागर छुं. तने आ शुं थयुं? शरीरनी सर्व चिंता छोडीने अमृतस्वरूप आत्मानुं भान कर.

जुओ, त्रण वात करी- मनना विषयमां-छ पदार्थना विचारमां चैतन्यधातु रोकाई गई ए एक वात. पांच इन्द्रियना विषयमां केवळ बोध ढंकाई गयो ए बीजी वात.

अने परम अमृतरूप विज्ञानघनस्वभाव मृतक कलेवरमां मूर्छाई गयो ए त्रीजी वात. आ प्रमाणे अज्ञानने लीधे जीव इन्द्रियना विषयमां, मनना विषयमां अने शरीरमां मूर्छाभावने पामेलो होवाथी ते प्रकारना भावनो ते कर्ता प्रतिभासे छे. एटले जे जे प्रकारनो शुभाशुभ राग आवे छे तेनो ते कर्ता थाय छे.

* गाथा ९६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आ आत्मा अज्ञानने लीधे, अचेतन कर्मरूप भावकनुं जे क्रोधादि भाव्य तेने