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चेतन भावक साथे एकरूप माने छे; वळी ते, परज्ञेयरूप धर्मादि द्रव्योने पण ज्ञायक साथे एकरूप माने छे, तेथी ते सविकार अने सोपाधिक चैतन्यपरिणामनो कर्ता थाय छे.’
आ आत्मा पोताना स्वरूपना भान विना अचेतन कर्मरूप भावकनुं जे क्रोधादि भाव्य तेने चेतन भावक साथे एकरूप माने छे. शुं कहे छे? अचेतन कर्म छे ते भावक छे अने पुण्यपापना भाव ते एनुं भाव्य छे. स्वभावनी रुचि विना जे शुभाशुभ भाव थाय ते अचेतन मोहकर्मनुं भाव्य छे. परंतु एम न मानतां ते विकारी भाव्यने चेतन भावकनुं भाव्य माने छे. शुभाशुभ भावनो करनार खरेखर तो जडकर्म छे. आ द्रव्यद्रष्टि कराववानी वात छे. पुण्यपापनी परिणति उत्पन्न तो जीवनी पर्यायमां थाय छे अने ते पोताना षट्कारकनी परिणतिथी पोतामां स्वतंत्रपणे थाय छे; ते पर्याय कांई परथी थाय छे एम नथी. पण अहीं द्रव्यद्रष्टि कराववी छे एटले एम कहे छे के पर्यायमां जे विकार थाय छे निमित्तने वश थतां थाय छे. माटे विकारी भाव ते भावक अचेतन कर्मनुं भाव्य छे, ते चेतन भावकनुं भाव्य नथी.
क्रोध, मान, माया, लोभ, पुण्य-पाप इत्यादि रागपरिणाम बधा अचेतन भावकनुं - जडकर्मनुं भाव्य छे. चेतन भावक भगवान आत्मा तो चैतन्यनी अतीन्द्रिय आनंदनी दशानो करनार छे. भगवान आत्मा भावक अने अतीन्द्रिय आनंदनी दशा ए एनुं भाव्य छे. समकित थतां भगवान आत्मा भावक थईने जे निर्मळ वीतरागी आनंदनी दशा प्रगट करे ते चेतननुं भाव्य छे. परंतु अज्ञानी जीव चेतन भावक साथे विकारी भावने एकरूप माने छे. राग मारी चीज छे, मारुं भाव्य छे, मारुं कर्तव्य छे एम ते माने छे. भगवान आत्मा भावक थईने निर्मळ पर्यायने-शुद्धरत्नत्रयने पोतानुं भाव्य करे एवो तेनो स्वभाव छे. परंतु स्वभावने छोडीने जाणे चेतन भावकनुं विकार भाव्य छे एम मानी अज्ञानी जीव विकारनो कर्ता थाय छे.
अहाहा...! चेतन कोण, राग कोण अने पोतानुं स्वरूप शुं? इत्यादि स्पष्ट वात दिगंबर संतो सिवाय कोई ए करी नथी. भगवान आत्मा विज्ञानघन प्रभु अविकारी अनुभूतिमात्र भावक छे. अने तेना लक्षे जे वीतरागी आनंद अने शान्तिनी दशा प्रगट थाय ते एनुं भाव्य छे. वीतरागी आनंदनी पर्याय प्रगट करवी ए सम्यग्द्रष्टिनुं कर्तव्य छे. धर्मी जीव राग अने परनी क्रियानो कदीय कर्ता थतो नथी. बहु सूक्ष्म वात भाई! परंतु आत्माने अनुचित-अशोभनीक एवा विकारी भावने पोताना मानीने अज्ञानी ते भावनो कर्ता थाय छे. सम्यग्दर्शन अने मिथ्यादर्शन शुं चीज छे ए अहीं बताववुं छे. राग अने परवस्तु मारी छे एवुं मानीने भावक जड कर्मनुं भाव्य जे शुभाशुभ विकारी भाव तेनो अज्ञानी कर्ता थाय छे. विकारी भाव जे जडकर्मनुं कर्तव्य छे तेने अज्ञानी पोतानुं कर्तव्य माने छे. रे अज्ञान! धर्मीनुं तो वीतरागी परिणाम कर्तव्य छे.
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पोताना ज्ञायकभावने भूलीने परज्ञेय (छ द्रव्य) मारां छे एम विचारतां जे विकल्प उत्पन्न थाय छे ते कर्मरूपी भावकनुं भाव्य छे. तेने पोतानुं भाव्य मानी अज्ञानी जीव शुभाशुभ विकल्पनो कर्ता थाय छे. शरीरनो कर्ता के देशनो कर्ता तो जीव कदीय छे नहि. स्त्री-कुटुंबनुं पालन करवुं, समाजनी सेवा करवी अने देशनुं रक्षण करवुं इत्यादि कर्तव्य जीवनुं कदीय नथी. छ द्रव्यरूप परज्ञेयने पोताना मानी जे मिथ्यात्व अने रागादिना भाव उत्पन्न करे ते भावनो अज्ञानपणे ते कर्ता थाय छे ते भाव एनुं कर्तव्य छे, पण परद्रव्यनी क्रिया थाय ते एनुं कर्तव्य नथी. निश्चयथी तो ए विकारभाव जडकर्म जे भावक एनुं भाव्य छे. जो ते आत्मानुं भाव्य होय तो ते एनाथी कदीय छूटे नहि. अहीं अचेतन कर्म भावक अने विकारी दशा एनुं भाव्य छे एम कह्युं छे.
प्रश्नः- तो शुं विकार जीवनी पर्याय नथी, जीवनुं कार्य नथी?
उत्तरः– अरे भाई! विकारी परिणाम पोतानी-जीवनी पर्यायमां थाय छे एम जेणे नक्की कर्युं छे तेने स्वभावनी द्रष्टि कराववा माटे विकारी परिणाम तारुं-जीवनुं कर्तव्य नथी एम कह्युं छे. विकारना परिणाम स्वयं पोताना षट्कारकथी जीवनी पर्यायमां थाय छे, ते कर्मनुं कार्य छे वा कर्मना करावेला थाय छे एम बीलकुल नथी, आवो निर्णय जेने थयो छे तेने विकारनुं लक्ष छोडावी द्रष्टिनो विषय जे शुद्ध चैतन्यमय ध्रुव आत्मा तेनो आश्रय कराववा द्रव्यद्रष्टिनी अपेक्षाए तेने जडकर्मरूपी भावकनुं भाव्य कह्युं छे. विकार कर्मना संगे थाय छे अने शुद्ध द्रव्यनी द्रष्टि थतां नीकळी जाय छे तेथी तेने प्रयोजनवश जडकर्मरूपी भावकनुं भाव्य कह्युं छे. भाई! ज्यां जे अपेक्षाथी कथन होय त्यां ते अपेक्षापूर्वक यथार्थ समजवुं जोईए.
अज्ञानीनी द्रष्टि राग अने पर उपर छे. पोते शुद्ध चैतन्यमूर्ति ज्ञायक भगवान छे एना उपर एनी द्रष्टि नथी. तेथी तेने कह्युं के आ जे पर्यायमां राग छे ते अचेतन जडकर्मरूपी भावकनुं भाव्य छे. तुं तो शुद्ध चैतन्यमूर्ति छो. तारुं ए भाव्य केम होय? भाई! दया, दान, व्रतादिना विकल्प हो के अशुभभावना विकल्प हो-ए बधुं पुद्गलनुं -कर्मनुं कार्य छे, चेतननुं कार्य नथी. अज्ञानी ते विकारी भावने चेतन भावकनी साथे एकरूप करीने ते ते प्रकारना विकारी भावनो कर्ता थाय छे.
अहो! आ समयसारशास्त्र कोई अद्भुत, अलौकिक चीज छे! तेने समजवा खूब शांति अने धीरज केळववां जोईए अने तेनो गंभीर जिज्ञासाथी स्वाध्याय करवो जोईए. मात्र उपलक वांची जाय तो ते समजाय एम नथी. दरेक द्रव्यनी विकारी के निर्विकारी पर्याय स्वतंत्रपणे पोताना षट्कारकथी परिणमे छे. त्यां तो पर्यायनुं स्वतंत्र अस्तिपणुं सिद्ध करवानी वात छे. (त्यां पण पर्यायनुं लक्ष छोडावी द्रव्यद्रष्टि कराववानुं प्रयोजन छे). अने अहीं रागने कर्मनुं कार्य कहीने रागथी भेदज्ञान करावी त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यनी द्रष्टि कराववानी वात छे.
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अहाहा...! भगवान आत्मा आनंदनो नाथ प्रभु एकला आनंदनुं ढीम-चोसलुं छे. तेना लक्षे प्रगट थतो धर्म धर्मीनुं कर्तव्य छे. धर्मीने लडाईना परिणाम, विषय-वासनाना परिणाम कमजोरीवश थाय छे तोपण धर्मी तेना ज्ञाता रहे छे, कर्ता थता नथी. बहु सूक्ष्म वात भाई! परंतु अज्ञानी पुण्यपापना भाव जे अचेतन मोहकर्मनुं भाव्य छे ते जाणे पोतानुं कर्तव्य छे एम मानतो होवाथी ते ते भावनो ते कर्ता थाय छे. परनुं कार्य हुं करुं, परने मारुं, परने जीवाडुं, परनी रक्षा करुं इत्यादि माननार मिथ्याद्रष्टि मूढ छे. अरे! पोतानी दया पाळे नहि अने परनी दयानो शुभराग आवे तेने पोतानुं कर्तव्य माने छे ते पोतानी हिंसा करे छे. अमृतचंद्रस्वामीए पुरुषार्थ-सिद्धयुपायमां रागने हिंसा कही छे. भाई! तने बहारमां कोई शरण नथी. (अने तुं पण कोई अन्यनुं शरण नथी.) अंतरंगमां प्रगट बिराजमान चैतन्यमूर्ति भगवान आनंदनो नाथ एक ज तने शरण छे. त्यां द्रष्टि कर तो शरण मळे तेम छे. अरहंतादि जे चत्तारि शरण कहेवाय छे ए व्यवहारथी शरण कहेला छे. भाई! आवो ज वीतरागनो मार्ग छे.
‘वळी ते, परज्ञेयरूप धर्मादि द्रव्योने पण ज्ञायक साथे एकरूप माने छे.’ छ द्रव्योना विचारना विकल्पमां एकाकारपणे तल्लीन थाय छे ते परद्रव्यने पोताना माने छे.
भाई! अनंता निगोदना जीव अने अनंता सिद्धोने ज्ञाननी एक पर्याय जाणे ते पर्यायनुं सामर्थ्य केटलुं? निगोदना जीवने बचावी शके के तेमनी दया पाळी शके ए वात नथी; पण अनंतनी सत्ताने अनंतपणे जाणे ए ज्ञाननी पर्यायनुं कोई अद्भुत अचिंत्य सामर्थ्य छे. अरे भाई! अनंता सिद्ध भगवंतो भक्ति करवा योग्य छे माटे शास्त्रमां एनुं कथन छे एम नथी; तेमज जे अनंत निगोदना जीवो छे तेमनी दया पाळवी योग्य छे माटे शास्त्रमां तेमनुं कथन छे एम नथी. तो शी रीते छे? अहाहा...! प्रभु! तारी ज्ञाननी पर्यायमां आटला अनंत ज्ञेयो जाणवामां आवे एवुं तारी ज्ञाननी पर्यायनुं स्वपरप्रकाशक अचिंत्य सामर्थ्य छे ए समजाववा शास्त्रमां आ वात करी छे अनंत परद्रव्य छे ते ज्ञेय छे अने भगवान आत्मा ज्ञायक-ज्ञायक जाणगस्वभावी छे. ज्ञानी अनंता परज्ञेयने जाणतो थको ज्ञाता रहे छे. अने अज्ञानी ज्ञेय अने ज्ञायकने एकरूप करतो थको शुभाशुभ विकल्पोने उपजावतो एवो ते सविकार अने सोपाधिक चैतन्यपरिणामनो कर्ता थाय छे. अहो! गजब वात छे!
क्रोधादिक भाव ते सविकार चैतन्यपरिणाम छे अने धर्मास्तिकाय आदि छ द्रव्य मारां छे एम माने ते सोपाधिक चैतन्यपरिणाम छे. अज्ञानी, राग मारो छे एम मानी
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रागनो कर्ता थाय छे अने परद्रव्य मारां छे एम मानी ते मिथ्या मान्यतानो कर्ता थाय छे. परद्रव्यनो कर्ता तो कदीय कोई जीव थई शक्तो नथी. परनी दया पाळी शके के परने जीवाडी शके ए तो वस्तुनुं स्वरूप ज नथी. ते पर जीवनुं आयुष्य होय तो ते बचे अने तेनुं आयु पूरुं थाय तो देह छूटी जाय. एमां तुं शुं करी शके? शुं तुं एने आयुष्य दई शके छे? शुं तुं एनुं आयुष्य हरी शके छे? ना. तो हुं परजीवने बचावुं के मारुं ए मान्यता तारी मिथ्या छे. भाई! भगवान जिनेश्वरनो मार्ग आखी दुनियाथी जुदो छे. अरे! वाडामां जन्म्या तेने पण मार्गनी खबर नथी! अरेरे! एम ने एम जिंदगी व्यर्थ चाली जाय छे!
प्रश्नः– मुनिराज छ कायना जीवनी रक्षा करे छे एम शास्त्रमां आवे छे ने?
उत्तरः– भाई! शास्त्रमां व्यवहारनयथी ए कथन आवे छे. मुनिराज त्रण कषायना अभावरूप अकषाय परिणतिना स्वदयाना स्वामी छे. तेमने परजीवनी हिंसानो विकल्प होतो नथी अने परजीवनी दयानो विकल्प कदाचित् थाय तेना ते स्वामी थता नथी, मात्र ज्ञाता रहे छे. तेथी व्यवहारथी मुनिराज छ कायना जीवनी रक्षा करे छे एम कथन करवामां आवे छे. ज्यां जे अपेक्षा होय ते यथार्थ समजवी जोईए.
आ रळवुं-कमावुं अने वेपारधंधा करवा तथा बेरां-छोकरांने साचववां इत्यादि प्रवृत्तिमां रोकाई गयो ते मजूरनी जेम पापनी मजूरीमां काळ गुमावे छे. अज्ञानी रागनो कर्ता छे पण बहारनां परनां कार्योनो तो कर्ता कदीय नथी. कारखानामां लादी बने ते जडनी क्रिया छे. ते क्रिया आत्मा करी शके नहि. जडनी क्रियानो स्वामी तो जड छे. तेनो स्वामी शुं जीव थाय? तथापि जडनी क्रियानो स्वामी पोताने माने ते मूढ मिथ्याद्रष्टि छे. भाई! एक द्रव्य बीजा द्रव्यनी क्रिया करे ए त्रणकाळमां संभवित नथी, केमके एक द्रव्यमां बीजा द्रव्यनो अभाव छे. एक द्रव्य बीजा द्रव्यने अडकतुं नथी. पोताना स्वद्रव्यमां परनो, शरीरनो, लक्ष्मीनो अभाव छे. माटे आत्मा परनुं कांई करतो नथी अने परद्रव्यो आत्मानुं कांई करतां नथी. दरेक द्रव्य स्वतंत्र पोताथी टकी रह्युं छे अने परिणमी रह्युं छे. कोई द्रव्य कोई अन्य द्रव्यना परिणामनुं कर्ता त्रणकाळमां नथी. आवी ज वस्तुस्थिति छे. माटे हे भाई! पर विना मारे चाले नहि एवी मान्यता छोडी दे. तने खबर नथी पण अनंतकाळमां तें पर विना ज चलाव्युं छे. पोतानी मान्यता विपरीत छे तेथी अज्ञानीने लागे छे के पर विना चाले नहि.
आत्मा पोताना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावरूप स्वचतुष्टयमां रहेलो छे. परना द्रव्य-क्षेत्र- काळ-भावरूप परचतुष्टयमां आत्मा रहेलो नथी. माटे पर विना ज प्रत्येक जीवे चलाव्युं छे. परनो तारामां अभाव छे. ते अभावथी तारो स्वभाव टके एवुं केम बने? न बने.
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आ एक आंगळी पोताथी टकी छे. तेमां बीजी आंगळीने अभाव छे. भाई! पहेलां आ वातनी हा तो पाड. पर विना चाले नहि ए तो मूढ मिथ्याद्रष्टिनी मान्यता छे; तेने जैनदर्शननी श्रद्धा नथी.
परने सहाय करी शकुं, परने सुखी करी शकुं, परने जीवाडी शकुं-ए बधो मिथ्याद्रष्टिनो भ्रम छे. अज्ञानी पोताना विकारी परिणामनो कर्ता थाय छे पण परद्रव्यनां जे कार्य थाय तेनो कदीय कर्ता नथी.
अहीं, क्रोधादिक साथे एकपणानी मान्यताथी उत्पन्न थतुं र्क्तृत्व समजाववा भूताविष्ट पुरुषनुं द्रष्टांत कह्युं अने धर्मादिक अन्यद्रव्यो साथे एकपणानी मान्यताथी उत्पन्न थतुं र्क्तृत्व समजाववा ध्यानाविष्ट पुरुषनुं द्रष्टांत कह्युं छे.
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ततः स्थितमेतद् ज्ञानान्नश्यति कर्तृत्वम्–
एवं खलु जो जाणदि सो मुंचदि सव्वकत्तित्तं।। ९७ ।।
एवं खलु यो जानाति सो मुञ्चति सर्वकर्तृत्वम्।। ९७ ।।
‘तेथी (पूर्वोक्त कारणथी) ए सिद्ध थयुं के ज्ञानथी कर्तापणानो नाश थाय छे’ एम हवे कहे छेः-
–ए ज्ञान जेने थाय ते छोडे सकल कर्तृत्वने. ९७.
गाथार्थः– [एतेन तु] आ (पूर्वोक्त) कारणथी [निश्चयविद्भिः] निश्चयना जाणनारा ज्ञानीओए [सः आत्मा] ते आत्माने [कर्ता] कर्ता [परिकथितः] कह्यो छे-[एवं खलु] आवुं निश्चयथी [यः] जे [जानाति] जाणे छे [सः] ते (ज्ञानी थयो थको) [सर्वकर्तृत्वम्] सर्व र्क्तृत्वने [मुञ्चति] छोडे छे.
टीकाः– कारण के आ आत्मा अज्ञानने लीधे परना अने पोताना एकपणानो आत्मविकल्प करे छे तेथी ते निश्चयथी कर्ता प्रतिभासे छे-आवुं जे जाणे छे ते समस्त कर्तृत्वने छोडे छे तेथी ते निश्चयथी अकर्ता प्रतिभासे छे. ते स्पष्ट समजाववामां आवे छेः-
आ आत्मा अज्ञानी थयो थको, अज्ञानने लीधे अनादि संसारथी मांडीने मिलित (-एकमेक मळी गयेला) स्वादनुं स्वादन-अनुभवन होवाथी (अर्थात् पुद्गलकर्मना अने पोताना स्वादनुं भेळसेळपणे-एकरूपे अनुभवन होवाथी), जेनी भेदसंवेदननी (भेदज्ञाननी) शक्ति बिडाई गयेली छे एवो अनादिथी ज छे; तेथी ते परने अने पोताने एकपणे जाणे छे; तेथी ‘हुं क्रोध छुं’ इत्यादि आत्मविकल्प (पोतानो विकल्प) करे छे; अने तेथी निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञानघन (स्वभाव)थी भ्रष्ट थयो थको वारंवार अनेक विकल्परूपे परिणमतो थको कर्ता प्रतिभासे छे.
अने ज्यारे आत्मा ज्ञानी थाय त्यारे, ज्ञानने लीधे ज्ञानना आदिथी मांडीने पृथक् पृथक् स्वादनुं स्वादन-अनुभवन होवाथी (अर्थात् पुद्गलकर्मना अने पोताना स्वादनुं
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ज्ञानं स्वयं किल भवन्नपि रज्यते यः।
पीत्वा दधोक्षुमधुराम्लरसातिगृद्धया
गां दोग्धि दुग्धमिव नूनमसौ रसालम्।। ५७ ।।
एकरूपे नहि पण-भिन्नभिन्नपणे अनुभवन होवाथी), जेनी भेदसंवेदनशक्ति ऊघडी गई छे एवो होय छे; तेथी ते जाणे छे के “अनादिनिधन, निरंतर स्वादमां आवतो, समस्त अन्य रसथी विलक्षण (भिन्न), अत्यंत मधुर जे चैतन्यरस ते ज एक जेनो रस छे एवो आ आत्मा छे अने कषायो तेनाथी भिन्न रसवाळा (कषायला-बेस्वाद) छे; तेमनी साथे जे एकपणानो विकल्प करवो ते अज्ञानथी छे;” आ रीते परने अने पोताने भिन्नपणे जाणे छे; तेथी ‘अकृत्रिम (नित्य), एक ज्ञान ज हुं छुं परंतु कृत्रिम (अनित्य), अनेक जे क्रोधादिक ते हुं नथी’ एम जाणतो थको ‘हुं क्रोध छुं’ इत्यादि आत्मविकल्प जरा पण करतो नथी; तेथी समस्त कर्तृत्वने छोडी दे छे; तेथी सदाय उदासीन अवस्थावाळो थयो थको मात्र जाण्या ज करे छे; अने तेथी निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञानघन थयो थको अत्यंत अकर्ता प्रतिभासे छे.
भावार्थः– जे परद्रव्यना अने परद्रव्यना भावोना कर्तृत्वने अज्ञान जाणे ते पोते कर्ता शा माटे बने? अज्ञानी रहेवुं होय तो परद्रव्यनो कर्ता बने! माटे ज्ञान थया पछी परद्रव्यनुं कर्तापणुं रहेतुं नथी.
हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [किल] निश्चयथी [स्वयं ज्ञानं भवन् अपि] स्वयं ज्ञानस्वरूप होवा छतां [अज्ञानतः तु] अज्ञानने लीधे [यः] जे जीव, [सतृणाभ्यवहारकारी] घास साथे भेळसेळ सुंदर आहारने खानारा हाथी आदि तिर्यंचनी माफक, [रज्यते] राग करे छे (अर्थात् रागनो अने पोतानो भेळसेळ स्वाद ले छे) [असौ] ते, [दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृद्धया] दहीं- खांडना अर्थात् शिखंडना खाटा-मीठा रसनी अति लोलुपताथी [रसालम् पीत्वा] शिखंडने पीतां छतां [गां दुग्धम् दोग्धि इव नूनम्] पोते गायना दूधने पीए छे एवुं माननार पुरुषना जेवो छे.
भावार्थः– जेम हाथीने घासना अने सुंदर आहारना भिन्न स्वादनुं भान नथी तेम अज्ञानीने पुद्गलकर्मना अने पोताना भिन्न स्वादनुं भान नथी; तेथी ते एकाकारपणे रागादिमां वर्ते छे. जेम शिखंडनो गृद्धी माणस, स्वादभेद नहि पारखतां, शिखंडना स्वादने मात्र दूधनो स्वाद जाणे तेम अज्ञानी जीव स्व-परना भेळसेळ स्वादने पोतानो स्वाद जाणे छे. प७.
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अज्ञानात्तमसि द्रवन्ति भुजगाध्यासेन रज्जौ जनाः।
अज्ञानाच्च विकल्पचक्रकरणाद्वातोत्तरङ्गाब्धिवत्
शुद्धज्ञानमया अपि स्वयममी कर्त्रीभवन्त्याकुलाः।। ५८ ।।
जानाति हंस इव वाःपयसोर्विशेषम्।
चैतन्यधातुमचलं स सदाधिरूढो
जानीत एव हि करोति न किञ्चनापि।। ५९ ।।
अज्ञानथी ज जीवो कर्ता थाय छे एवा अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [अज्ञानात्] अज्ञानने लीधे [मृगतृष्णिकां जलधिया] मृगजळमां जळनी बुद्धि थवाथी [मृगाः पातुं धावन्ति] हरणो तेने पीवा दोडे छे; [अज्ञानात्] अज्ञानने लीधे [तमसि रज्जौ भुजगाध्यासेन] अंधकारमां पडेली दोरडीमां सर्पनो अध्यास थवाथी [जनाः द्रवन्ति] लोको (भयथी) भागी जाय छे; [च] अने (तेवी रीते) [अज्ञानात्] अज्ञानने लीधे [अमी] आ जीवो, [वातोत्तरङ्गाब्धिवत्] पवनथी तरंगवाळा समुद्रनी माफक [विकल्पचक्रकरणात्] विकल्पोना समूह करता होवाथी- [शुद्धज्ञानमयाः अपि] जोके तेओ शुद्धज्ञानमय छे तोपण-[आकुलाः] आकुळता बनता थता [स्वयम्] पोतानी मेळे [कर्त्रीभवन्ति] कर्ता थाय छे.
भावार्थः– अज्ञानथी शुं शुं नथी थतुं? हरणो झांझवांने जळ जाणी पीवा दोडे छे अने ए रीते खेदखिन्न थाय छे. अंधारामां पडेला दोरडाने सर्प मानीने माणसो डरीने भागे छे. तेवी ज रीते आ आत्मा, पवनथी क्षुब्ध थयेला समुद्रनी माफक, अज्ञानने लीधे अनेक विकल्पो करतो थको क्षुब्ध थाय छे अने ए रीते-जोके परमार्थे ते शुद्धज्ञानघन छे तोपण- अज्ञानथी कर्ता थाय छे. प८.
ज्ञानथी आत्मा कर्ता थतो नथी एम हवे कहे छेः-
श्लोकार्थः– [हंसः वाःपयसोः इव] जेम हंस दूध अने पाणीना विशेषने (तफावतने) जाणे छे तेम [यः] जे जीव [ज्ञानात्] ज्ञानने लीधे [विवेचकतया] विवेकवाळो (भेदज्ञानवाळो) होवाथी [परात्मनोः तु] परना अने पोताना [विशेषम्] विशेषने [जानाति] जाणे छे [सः] ते (जेम हंस मिश्रित थयेलां दूधजळने जुदां
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ज्ञानादेवोल्लसति लवणस्वादभेदव्युदासः।
ज्ञानादेव स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः
क्रोधादेश्च प्रभवति भिदा भिन्दती कर्तृभावम्।। ६० ।।
स्यात्कर्तात्मात्मभावस्य परभावस्य न क्वचित्।। ६१ ।।
करीने दूध ग्रहण करे छे तेम) [अचलं चैतन्यधातुम्] अचळ चैतन्यधातुमां [सदा] सदा [अधिरूढः] आरूढ थयो थको (अर्थात् तेनो आश्रय करतो थको) [जानीत एव हि] मात्र जाणे ज छे, [किञ्चन अपि न करोति] कांई पण करतो नथी (अर्थात् ज्ञाता ज रहे छे, कर्ता थतो नथी).
भावार्थः– जे स्व-परनो भेद जाणे ते ज्ञाता ज छे, कर्ता नथी. प९.
हवे, जे कांई जणाय छे ते ज्ञानथी ज जणाय छे एम कहे छेः-
श्लोकार्थः– [ज्वलन–पयसोः औष्णय–शैत्य–व्यवस्था] (गरम पाणीमां) अग्निनी उष्णतानो अने पाणीनी शीतळतानो भेद [ज्ञानात् एव] ज्ञानथी ज प्रगट थाय छे. [लवणस्वादभेदव्युदासः ज्ञानात् एव उल्लसति] लवणना स्वादभेदनुं निरसन (-निराकरण, अस्वीकार, उपेक्षा) ज्ञानथी ज थाय छे (अर्थात् ज्ञानथी ज शाक वगेरेमांना लवणनो सामान्य स्वाद तरी आवे छे अने तेनो स्वादविशेष निरस्त थाय छे). [स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः च क्रोधादेः भिदा] निज रसथी विकसती नित्य चैतन्यधातुनो अने क्रोधादि भावोनो भेद, [कर्तृभावम् भिन्दती] र्क्तृत्वने (कर्तापणाना भावने) भेदतो थको-तोडतो थको, [ज्ञानात् एव प्रभवति] ज्ञानथी ज प्रगट थाय छे. ६०.
हवे, अज्ञानी पण पोताना ज भावने करे छे परंतु पुद्गलना भावने कदी करतो नथी- एवा अर्थनो, आगळनी गाथानी सूचनिकारूप श्लोक कहे छेः-
श्लोकार्थः– [एवं] आ रीते [अञ्जसा] खरेखर [आत्मानम्] पोताने [अज्ञानं ज्ञानम् अपि] अज्ञानरूप के ज्ञानरूप [कुर्वन्] करतो [आत्मा आत्मभावस्य कर्ता स्यात्] आत्मा पोताना ज भावनो कर्ता छे, [परभावस्य] परभावनो (पुद्गलना भावोनो) कर्ता तो [क्वचित् न] कदी नथी. ६१.
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परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम्।। ६२ ।।
ए ज वातने द्रढ करे छेः-
श्लोकार्थः– [आत्मा ज्ञानं] आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, [स्वयं ज्ञानं] पोते ज्ञान ज छे; [ज्ञानात् अन्यत् किम् करोति] ते ज्ञान सिवाय बीजुं शुं करे? [आत्मा परभावस्य कर्ता] आत्मा परभावनो कर्ता छे [अयं] एम मानवुं (तथा कहेवुं) ते [व्यवहारिणाम् मोहः] व्यवहारी जीवोनो मोह (अज्ञान) छे. ६र.
‘तेथी (पूर्वोक्त कारणथी) ए सिद्ध थयुं के ज्ञानथी कर्तापणानो नाश थाय छे’ अज्ञानथी कर्तापणुं छे, ते कर्तापणानो ज्ञान वडे नाश थाय छे. हुं ज्ञाताद्रष्टा भगवान सच्चिदानंदस्वरूप छुं एवा अनुभवथी र्क्तृत्वनो नाश थाय छे अने ते धर्म छे एम हवे कहे छेः-
‘कारण के आ आत्मा अज्ञानने लीधे परना अने पोताना एकपणानो आत्मविकल्प करे छे तेथी ते निश्चयथी कर्ता प्रतिभासे छे-आवुं जे जाणे छे ते समस्त र्क्तृत्वने छोडे छे तेथी ते निश्चयथी अकर्ता प्रतिभासे छे.’
गाथा बहु सरस छे. पोताना शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावनुं भान नहि होवाथी अज्ञानने लीधे जीव राग अने परद्रव्य साथे पोताने एक करीने स्वपरना एकत्वनो आत्मविकल्प करे छे अने तेथी निश्चयथी ते कर्ता प्रतिभासे छे. अज्ञानथी रागनो कर्ता छे एम जे यथार्थ जाणे छे ते सकल र्क्तृत्वने छोडी दे छे अर्थात् ते अकर्ता थई जाय छे.
लोको बहारथी छोडवानुं-त्यागवानुं माने छे. आहारनो त्याग करवो ते उपवास माने छे, पण ए उपवास नथी; ए तो लांघण छे. आत्मामां वसे ते उपवास छे. में आहारनो त्याग कर्यो एम जे माने ते मिथ्याद्रष्टि छे केमके आत्मा परना ग्रहण-त्यागथी शून्य छे. जड रजकणने आत्मा कई रीते ग्रहे अने कई रीते त्यागे? में बैरां-छोकरां, धनसंपत्ति इत्यादिनो त्याग कर्यो एवी मान्यता मिथ्याद्रष्टिनी छे. परिशिष्टमां ४७ शक्तिनुं वर्णन छे. तेमां एक सोळमी त्यागोपादानशून्यत्व शक्ति कहेली छे. त्यां कह्युं छे-‘‘जे घटतुं-वधतुं नथी एवा स्वरूपमां नियतत्वरूप (-निश्चितपणे जेमनुं तेम रहेवारूप) त्यागोपादानशून्यत्व शक्ति.’’ जुओ, आत्मा परनुं ग्रहण अने परनो त्याग करे-एनाथी
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शून्य छे. रजकणोने ग्रह्या नथी अने रजकणोने आत्मा छोडतो नथी. पर्यायमां अज्ञाननुं ग्रहण कर्युं छे अने ते अज्ञानने छोडे छे. परंतु जे परनो त्याग में कर्यो छे एम माने छे तेणे समकित छोडयुं छे अने मिथ्यात्वनुं ग्रहण कर्युं छे.
जैन परमेश्वर देवाधिदेव सर्वज्ञदेव धर्मसभामां-गणधरो अने इन्द्रोनी सभामां जे दिव्यध्वनिमां कहेता हता ते आ वात छे. जेम ज्ञान आत्मानो त्रिकाळी गुण छे तेम परना त्याग-ग्रहणथी शून्य एवी आत्मानी त्रिकाळी शक्ति-गुण छे. माटे आत्मा परने कदीय ग्रहतो छोडतो नथी ए मूळ मुदनी वात छे. आम यथार्थ जाणी जे स्वपरने एक करतो नथी पण परने पररूप जाणी स्वरूपमां-चैतन्यस्वभावमय पोतानी वस्तुमां लीन थाय छे ते पोताने एकने अनुभवे छे अने ए रीते सकल र्क्तृत्वने छोडी दे छे. ते स्पष्ट समजाववामां आवे छेः-
‘आ आत्मा अज्ञानी थयो थको, अज्ञानने लीधे अनादि संसारथी मांडीने मिलित (एकमेक मळी गयेला) स्वादनुं स्वादन-अनुभवन होवाथी (अर्थात् पुद्गलकर्मना अने पोताना स्वादनुं भेळसेळपणे-एकरूपे अनुभवन होवाथी), जेनी भेदसंवेदननी (भेद-ज्ञाननी) शक्ति बीडाई गयेली छे एवो अनादिथी ज छे; तेथी ते परने अने पोताने एकपणे जाणे छे; तेथी ‘‘हुं क्रोध छुं’’ इत्यादि आत्मविकल्प (पोतानो विकल्प) करे छे; अने तेथी निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञानघन (स्वभाव)थी भ्रष्ट थयो थको वारंवार अनेक विकल्परूपे परिणमतो थको कर्ता प्रतिभासे छे.’
पोतानी ज्ञानानंदस्वरूप त्रिकाळी चीजनुं अभान ते अज्ञान छे. आ अज्ञान नवुं नथी पण अनादिथी छे. अनादि संसारथी एणे पोतानी शुद्ध चिद्रूप वस्तुनी द्रष्टि करी नथी. तेथी अज्ञानने कारणे तेने मिलित स्वादनो अनुभव छे. अनादि निगोदथी मांडीने पोतानी ज्ञाननी पर्यायमां रागद्वेषना विकल्पनी आकुळतानो स्वाद अज्ञानीने आवे छे. अज्ञानने कारणे-एम कह्युं छे एटले कर्मने कारणे नहि एम अर्थ छे. जीव अनादिकाळथी अज्ञानने कारणे पुण्यपाप अने शुभाशुभभावनी आकुळतानो-दुःखनो स्वाद लई रह्यो छे. ‘मिलित स्वाद’ एटले कांईक आत्माना आनंदनो स्वाद अने कांईक रागनो-विकल्पनो आकुळतामय स्वाद एम अर्थ नथी. अज्ञानीने आत्मानो आनंद कयां छे? ‘मिलित स्वाद’ एम शब्द छे एनो अर्थ एम छे के ज्ञाननी पर्याय पोतानी छे तेमां शुभाशुभ-रागनो एकमेकपणे जे अनुभव छे ते पौद्गलिक विकारनो स्वाद तेने छे; तेने मिलित स्वाद कह्यो छे.
राग छे ते पुद्गलनी अवस्था छे. अज्ञानी ते रागनो स्वाद ले छे, ते जगतनी अन्य चीजोनो स्वाद लेतो नथी. लाडु, जलेबी, मैसुब, द्राक्ष, मोसंबी, स्त्रीनुं शरीर इत्यादि परचीजोनो स्वाद जीवने होतो नथी, पण परचीजने ठीक-अठीक मानी जे रागद्वेष करे ते रागद्वेषनो ते स्वाद ले छे. पोताना चैतन्यस्वभावथी भ्रष्ट थईने दया, दान, व्रत,
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भक्ति आदि शुभभाव जे दुःखरूप छे तेनो स्वाद जे ले छे ते मूढ मिथ्याद्रष्टि छे. शुभराग ए कांई चैतन्यनी स्वभावरूप अवस्था नथी अने तेथी तेने पुद्गलनी अवस्था कही छे. अज्ञानी जीव पुद्गलनी अवस्था एटले के रागद्वेषना जे भाव तेनो स्वाद ले छे. आवुं ज मिथ्याद्रष्टिनुं लक्षण छे.
अगियार अंग अने नवपूर्वनुं ज्ञान भले होय, पण ज्यां सुधी रागना स्वादनो अनुभव करे छे त्यां सुधी ते मिथ्याद्रष्टि छे. भगवान आत्मा त्रिकाळी चिदानंदस्वरूप प्रभु छे. तेनी सन्मुख थई झुकाव कदी कर्यो नथी एवो अज्ञानी पांचमहाव्रत, पांच समिति, त्रण गुप्ति आदि अठ्ठावीस मूलगुण पाळे तोपण ते बधो शुभराग होवाथी ते दुःखनो स्वाद अनुभवे छे, लेशमात्र सुखनो स्वाद तेने नथी. छहढालामां कह्युं छे के-
अहाहा...! नवमी ग्रीवक जाय एवा शुभभाव एणे अनंतवार कर्या पण शुद्ध चैतन्यस्वरूपनुं भान कर्या विना अनंतकाळमां ते लेश पण सुख न पाम्यो. मतलब के दुःख ज पाम्यो. अरे भाई! शुभभाव करीने पण एणे अनादिथी दुःखनो ज स्वाद अनुभव्यो छे.
प्रश्नः– आ बधा शेठीआ अने स्वर्गना देव तो सुखी छे ने?
उत्तरः– अरे भाई! आ बधा शेठीआ अने स्वर्गना देव विषयोनी चाहना दाहथी बळी रह्या छे. तेओ बिचारा दुःखी ज दुःखी छे. जेने पोताना आनंदस्वरूप आत्मानुं भान नथी ते बधाने पुण्यपापना भावनो स्वाद आवे छे अने ते आकुळतामय दुःखनो ज स्वाद छे.
पुद्गलकर्मना अने पोताना स्वादनुं भेळसेळपणे-एकरूपे अनुभवन होवाथी अज्ञानीनी भेदसंवेदननी शक्ति बिडाई गई छे. अज्ञानीने आत्माना स्वादनो (ज्ञाननो) तो अंश पण नथी. रागने-पुण्यपापना भावने अने पोताने (ज्ञानने) एकमेक करतो होवाथी तेने बन्नेना भेदसंवेदननी शक्ति अस्त थई गई छे. रागथी भिन्न निर्मळ ज्ञानानंदस्वभावी पोतानी चीज छे एवुं भेदज्ञान करवानी एनी शक्ति बिडाई गई छे. एटले के तेने रागमां एक्ता थई गई छे. परंतु राग चाहे शुभ हो के अशुभ हो-ते आकुळता उपजावनारो दुःखस्वरूप ज छे. अहीं शुभरागनी प्रधानताथी वात छे केमके शुभमां धर्म मानीने अज्ञानी अनंतकाळथी दुःखी थई रह्यो छे.
बाह्य तपश्चर्यामां जे राग छे ते आकुळतानो स्वाद छे, दुःख छे. ते कांई खरी तपश्चर्या नथी. जेमां स्वभावनुं प्रतपन थईने निराकुळ आनंदनो स्वाद आवे तेनुं नाम तप छे. शुद्ध चैतन्यस्वरूपनुं भान न होय अने महिना-महिनाना बहारथी उपवास करे
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तो ते कांई तप नथी. ए तो राग छे, अपवास छे. एकला शुभरागमां रोकाई रहे ए तो अपवास एटले माठो वास छे, दुःखमां वास छे.
आत्माना आनंदना अनुभव विना अर्थात् सम्यग्दर्शन विना जेटलो क्रियाकांडनो राग छे ते बधो दुःखरूप छे अने ते पुद्गलनो स्वाद छे. अज्ञानीने रागनी एक्ताबुद्धि आडे रागथी भिन्न थवानी भेदज्ञानशक्ति संकोचाई गई छे. पोते निर्मळ आनंदस्वरूप भगवान ज्ञायक छे अने राग तो दुःखस्वरूप छे एम बेने भिन्न पाडनारी भेदज्ञानशक्ति अनादिथी ढंकाई गई छे. आत्मा अने राग एक छे एवी अभेदद्रष्टि एने थई गई छे.
भगवान आत्मा ज्ञायक तत्त्व छे अने शुभाशुभ भाव ते पुण्य-पापरूप आस्रव तत्त्व छे. बन्ने तत्त्व भिन्न भिन्न छे. एक तत्त्व बीजा तत्त्वरूप नथी एम माने तो नव तत्त्व सिद्ध थाय. परंतु अज्ञानीने नव तत्त्वोने भिन्न करवानी शक्ति ढंकाई गई छे. आस्रवथी ज्ञायकने भिन्न पाडवानी एनी शक्ति बीडाई गई छे केमके ते ज्ञायकने अने आस्रवने एकरूप करे छे.
जुओ, आ मुदनी रकमनी वात चाले छे. कोई पंचमहाव्रत पाळे, हजारो राणीओ छोडी जंगलमां रहे पण अंदर रागथी भिन्न पोतानी चीज छे एनुं भान न करे तो ते मिथ्याद्रष्टि छे. अरे भाई! शुभराग करीने तुं अनंतवार नवमी ग्रैवेयक गयो पण अनंतकाळमां आज पर्यंत जे विरस छे एवो रागनो ज तने स्वाद आव्यो छे. जे अशुभ राग छे तेनो स्वाद तो तीव्र महादुःखमय छे. पण पंचमहाव्रतादि जे शुभ-राग छे तेनो स्वाद पण दुःखमय ज छे. अरेरे! पुण्यपापना भावमां एकाकार थईने अज्ञानी जीवो रोकाई गया छे अने आनंदकंद सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु अंतरमां बिराजमान छे ते मूळ रकमने भूली गया छे!
भगवान जिनेश्वरदेव धर्मसभामां गणधरो अने इन्द्रोनी उपस्थितिमां जे वात कहेता हता ते वात संतो तेमना आडतिया थईने जगत पासे जाहेर करे छे. कहे छे-प्रभु! तुं शाश्वत आनंदधाम, त्रिकाळी सुखधाम छो, अने आ क्षणिक रागनो रस छे ते आकुळतामय, दुःखमय छे. तने स्वपरना स्वादनी जुदाईनो विवेक नहि होवाथी अर्थात् भेदसंवेदनशक्ति बिडाई गई होवाथी तुं पोताने (ज्ञानने) अने रागने अनादिथी एकमेक करी जाणे छे अने माने छे. प्रभु! आ तें शुं कर्युं? निराकुळ आनंदनो नाथ एवो तुं रागना-दुःखना विरस स्वादमां कयां रोकाई गयो? हे भाई! रागना क्रियाकांडथी मने धर्म थशे एवी मान्यता छोडी अंतर्द्रष्टि कर. पर्यायबुद्धि छोडीने द्रव्यद्रष्टि प्रगट कर.
भगवान पूर्णानंदनो नाथ अनंतसुखनिधान ज्ञायकस्वरूप प्रभु अंतरंगमां सदा विराजमान छे. परंतु अज्ञानीए अंतर्द्रष्टि करी नहि तेथी तेने अनादिथी एकला रागनो स्वाद आवी रह्यो छे. अरे! रागनो स्वाद बेस्वाद छे तोपण तेमां अटकी गयेलो ते
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स्वपरने एकपणे जाणे छे अने तेथी ‘हुं क्रोध छुं’ इत्यादि आत्मविकल्प करे छे. तेथी निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञानघनस्वभावथी भ्रष्ट थयो थको वारंवार अनेक शुभाशुभ रागना विकल्परूपे परिणमतो ते कर्ता प्रतिभासे छे.
द्वेषमां क्रोध अने मान समाय छे अने रागमां माया अने लोभ आवी जाय छे. पोताना चैतन्यस्वरूपने भूलीने रागमां तन्मय थाय तेने आत्मा प्रति द्वेष-क्रोध छे. जे स्वभावद्रष्टिथी खाली छे अने शुभरागनी द्रष्टिथी सहित छे तेणे पोताने कषायरूप करी दीधो छे. स्वपरने एकपणे माननारो ते हुं क्रोध छुं, मान छुं, माया छुं, लोभ छुं, देह छुं, रूपाळो छुं, गोरो छुं, धोळो छुं इत्यादि पर वस्तुमां आत्मविकल्प करे छे. अने तेथी सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्माथी भ्रष्ट थयो थको ते अनेक विकल्परूपे परिणमतो ते ते विकल्पनो कर्ता थाय छे.
भगवान आत्मा निर्विकल्प, अकृत्रिम, विज्ञानघनस्वभावरूप छे. तथा रागने पोतानो जे माने ते निज निर्विकल्प विज्ञानघनस्वभावथी भ्रष्ट छे. शुभरागना क्रियाकांडथी धर्म थाय एम माने ते भगवान चैतन्यस्वभावी आत्माथी भ्रष्ट छे. धर्म वस्तु बहु सूक्ष्म छे भाई! अहा! जैनदर्शनमां सम्यग्दर्शन शुं छे एनी लोकोने खबर नथी. सम्यग्दर्शन विना ज्ञान अने चारित्र होतां नथी. आत्मा अने अनात्माना भेदज्ञान विना समस्त क्रियाकांड अर्थहीन छे, दुःखनो आकुळतानो स्वाद उपजावनारा छे. भाई! क्रियाकांडथी धर्म थाय ए मान्यता हवे जवा दे अने स्वभावसन्मुखतानो पुरुषार्थ कर. अरे भाई! जन्ममरणनो अंत लाववानी आ वात छे.
प्रश्नः– कळशटीकामां (चोथा कळशमां) तो एम कह्युं छे के-‘काळलब्धि विना करोड उपाय जो करवामां आवे तोपण जीव सम्यक्त्वरूप परिणमनने योग्य नथी एवो नियम छे. आथी जाणवुं के सम्यक्त्ववस्तु यत्नसाध्य नथी, सहजरूप छे.’
उत्तरः– भाई! त्यां कळशटीकामां काळलब्धिनी मुख्यताथी वात करी छे. पण एनो अर्थ शुं? एनो अर्थ ए छे के स्वभावसन्मुख थवानो पुरुषार्थ करे अने स्वानुभव प्रगट करे त्यारे काळलब्धि पाकी एवुं साचुं ज्ञान थाय छे. स्वभावनुं भान प्रगट थाय त्यारे ते समयनी काळलब्धिनुं पण ज्ञान यथार्थ थाय छे. भाई! जे स्वभाव-सन्मुखनो पुरुषार्थ करे तेने काळलब्धि पाकी गई छे. श्री मोक्षमार्गप्रकाशकमां पण ए ज कह्युं छे के ‘जे जीव श्री जिनेश्वरना उपदेश अनुसार पुरुषार्थपूर्वक मोक्षनो उपाय करे छे तेने तो काळलब्धि वा भवितव्य पण थई चूकयां.’ जे पुरुषार्थ वडे मोक्षनो उपाय करे छे तेने तो सर्व कारणो मळे छे अने अवश्य मोक्षनी प्राप्ति थाय छे एवो निश्चय करवो.’ श्रीमद् राजचंद्रे पण कह्युं छे के- ‘भवस्थिति आदि नाम लई, छेदो
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नहि आत्मार्थ.’ खाली काळलब्धि, काळलब्धि-एम धारणानी वात करे एने काळलब्धिनुं साचुं ज्ञान नथी.
प्रश्नः– भगवान केवळीए दीठुं होय त्यारे सम्यग्दर्शन थशे ए वात शुं बराबर नथी?
उत्तरः– भगवान केवळीए दीठुं होय त्यारे सम्यग्दर्शन थशे एम तुं कहे छे पण एक समयमां त्रणकाळ त्रणलोकने जाणे एवी केवळज्ञाननी पर्यायनो तने स्वीकार छे? जो केवळज्ञाननी सत्तानो स्वीकार छे तो कोनी सन्मुख थई ए स्वीकार कर्यो छे; द्रव्यस्वभावनी के पर्यायनी? पर्याय उपर द्रष्टि करतां तेनी सत्तानो स्वीकार थतो नथी केमके वर्तमान पर्याय अल्पज्ञ छे. तेनो स्वीकार द्रव्यसन्मुख द्रष्टि करतां थाय छे केमके द्रव्यस्वभाव ज्ञ-स्वभाव सर्वज्ञस्वभावरूप छे. अहो! ज्ञ-स्वभावी-केवळज्ञानस्वभावी आत्मा अंतरंगमां प्रत्यक्ष प्रगट छे तेनी सन्मुख द्रष्टि करतां पोताना सर्वज्ञस्वभावनी प्रतीति सहित सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे अने ए ज अपूर्व पुरुषार्थ छे; एने ज केवळज्ञाननी सत्तानो यथार्थ निर्णय थाय छे. (पर सन्मुखताथी केवळज्ञाननी सत्तानो सम्यक् निर्णय थतो नथी). प्रवचनसार गाथा ८०मां पण एम ज कह्युं छे के-
जे अरहंतनां द्रव्य-गुण-पर्यायने जाणे छे तेनी परिणति पोताना शुद्ध द्रव्यस्वभावमां -ज्ञस्वभावमां झुकी जाय छे अने तेनो मोह नाश पामे छे अर्थात् ते सम्यग्दर्शनने प्राप्त थाय छे. भाई! पोताना शुद्ध चैतन्यस्वभावनी द्रष्टिपूर्वक ज केवळज्ञाननी सत्तानो सम्यक् निर्णय थाय छे अने ए ज सम्यक् पुरुषार्थ छे.
अहीं कहे छे के हुं सर्वज्ञस्वभावी ज्ञाताद्रष्टा शुद्ध चैतन्यस्वभावमय आत्मा छुं ए वातने अज्ञानी भूली गयो छे अने तेथी पोताना विज्ञानघनस्वभावथी भ्रष्ट थईने वारंवार अनेक विकल्परूपे परिणमतो थको ते विकारनो कर्ता प्रतिभासे छे. आ अज्ञानीनी वात करी. हवे गुलांट खाईने द्रव्यद्रष्टि वडे जेणे सम्यग्दर्शन प्रगट कर्युं छे एवा ज्ञानीनी वात करे छे-
‘अने ज्यारे आत्मा ज्ञानी थाय त्यारे, ज्ञानने लीधे ज्ञाननी आदिथी मांडीने पृथक् पृथक् स्वादनुं स्वादन-अनुभवन होवाथी (अर्थात् पुद्गलकर्मना अने पोताना स्वादनुं-एकरूपे नहि पण-भिन्नभिन्नपणे अनुभवन होवाथी), जेनी भेदसंवेदनशक्ति ऊघडी गई छे एवो होय छे.’
पोते आत्मसन्मुख पुरुषार्थ करवाथी ज्ञानी थयो त्यारे तेने पृथक् पृथक् स्वादनुं स्वादन होय छे. कर्मे मार्ग आप्यो माटे ज्ञानी थयो छे एम नथी. पोताना शुद्ध
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चैतन्यस्वभावनी सन्मुखतानो पुरुषार्थ करीने ज्ञानी थयो छे. आ प्रमाणे आत्मज्ञान प्रगट थतां ज्ञानने लीधे ज्ञाननी आदिथी धर्मीने स्वभावना आनंदना स्वादनुं अने रागना कषायेला स्वादनुं पृथक् पृथक् एटले भिन्नभिन्न वेदन होय छे. स्वरूपनुं संवेदन थतां सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. एवो समकिती ज्ञानी छे. ते ज्ञानी ज्ञानने लीधे विकारना विरस स्वादनो अने चैतन्यना आनंदना स्वादनो पृथक् पृथक् अनुभव करे छे, केमके तेने भेदसंवेदनशक्ति ऊघडी गई छे.
कोई एम कहे के ज्ञानीने दुःखनुं वेदन छे ज नहि तो ते वात बराबर नथी. (भूमिका अनुसार) ज्ञानीने ज्ञाननुं-आनंदनुं वेदन छे अने रागनुं-दुःखनुं पण वेदन छे. जेटलो राग छे तेटलुं दुःखनुं वेदन छे. बन्नेनुं पृथक् पृथक् वेदन होय छे, एकरूप नहि. द्रव्यानुयोगमां अध्यात्मतत्त्वनी मुख्यताथी निरूपण होय छे. ज्यां द्रष्टिना विषयनुं निरूपण होय त्यां ज्ञानीने आनंदनुं वेदन छे एम कहेलुं होय छे. त्यां राग गौण छे. परंतु ज्यां ज्ञाननी प्रधानताथी वात होय त्यां एम कहे के ज्ञानीने ज्ञाननुं-आनंदनुं अने रागनुं पृथक् पृथक् वेदन होय छे.
-जुओ, केवळीने एकला ज्ञान अने आनंदनुं वेदन होय छे, -मिथ्याद्रष्टि अज्ञानीने एकला राग अने दुःखनुं वेदन होय छे, -अने समकिती ज्ञानीने ज्ञाननो अने रागनो भिन्न भिन्न स्वाद होय छे. ज्यारथी सम्यग्दर्शन-ज्ञान थयां त्यारथी ज्ञानी स्वरूपसंवेदनथी प्राप्त आनंदनो स्वाद अने पर्यायमां जे अल्प राग छे तेनो स्वाद पृथक् पृथक् अनुभवे छे. एक समयमां बेनो भिन्न भिन्न स्वाद ज्ञानी अनुभवे छे. अहाहा...! ज्यां सुधी पूर्ण वीतरागता अने पूर्ण आनंदनी प्राप्ति न थाय त्यां सुधी वीतराग परिणतिथी प्राप्त आनंदनी साथे जेटलो राग छे तेटला दुःखनुं पण भिन्नपणे ज्ञानीने अनुभवन होय छे. ज्ञानीने एकला आनंदनो ज स्वाद होय छे एम नथी.
ज्ञानीने सुख अने दुःख बन्नेनो पृथक् पृथक् स्वाद होय छे. भाई! आ वीतरागनो मार्ग छे. एमां कल्पनानी वात न चाले. न्यालचंदभाई सोगानीजीए शुभभावनो स्वाद भट्ठी समान कह्यो छे. चोथा गुणस्थाने समकितीने मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधीनो अभाव थयो एटलो आनंद छे अने त्रण कषाय जे बाकी छे एटलुं दुःख पण छे. बन्नेनो स्वाद एने पृथक् पृथक् होय छे. तेवी रीते पंचम गुणस्थानवाळाने जेटली वीतराग परिणति थई छे तेटलो ज्ञाननो सुखरूप अने आनंदरूप स्वाद छे अने ते ज समये जे बे कषाय विद्यमान छे तेटलो रागनो दुःखरूप स्वाद छे. बन्नेनुं भिन्न भिन्न अनुभवन होय छे. एक समयमां शान्ति पण वेदे छे अने जेटलो राग बाकी छे तेटलुं दुःख पण पृथक्पणे वेदे छे. अहो! वीतरागनो मार्ग खूब गंभीर छे!
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भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवे पंचम आरामां तीर्थंकर जेवुं काम कर्युं छे. अने अमृत- चंद्राचार्यदेवे एमना गणधर जेवुं काम कर्युं छे. मूळ गाथासूत्रोनां गंभीर रहस्यो टीका द्वारा खुल्लां कर्यां छे. कहे छे-धर्मीने ज्ञान अने रागनुं पृथक् पृथक् अनुभवन होवाथी, जेनी भेदसंवेदनशक्ति ऊघडी गई छे एवो होय छे. ज्ञाननुं वेदन अने रागनुं वेदन ए बन्नेनो भेद-विवेक करवानी शक्ति ज्ञानीने प्रगट थई गई छे. अहाहा...! आ टीका तो देखो! अमृतचंद्रे एकलां अमृत वहेवडाव्यां छे! रागनो स्वाद दुःखरूप होय छे अने स्वरूपसंवेदन वडे प्राप्त ज्ञाननो स्वाद सुखरूप होय छे-एम बेना स्वादने भिन्न करवानी भेदसंवेदनशक्ति जेने खीली गई छे एवो ज्ञानी होय छे. अहाहा...! दिगंबर संतोए जगतने शुं न्याल करी दीधुं छे!
अरे भाई! आ वातने सांभळवामां पण ऊंचां पुण्य बंधाई जाय छे. आवी परम सत्य वात धीरजथी वारंवार सत्समागमे सांभळे तो शुभभावना निमित्ते तेने ऊंचां पुण्य बंधाय छे जेना फळरूपे बाह्य लक्ष्मी आदि वैभव प्राप्त थाय छे.
प्रश्नः– आप आ जादुई लाकडी फेरवो छो तेनाथी पैसा वगेरे सामग्री मळे छे एम लोको कहे छे ए शुं साचुं छे?
उत्तरः– ना; लाकडीथी कांई मळतुं नथी. वीतरागदेवनी आ परम सत्य वाणी छे ते सांभळनारने शुभभावथी ऊंचां पुण्य बंधाई जाय छे. वळी कोई पूर्वनां पापकर्म संक्रमित थईने आ भवमां उदयने प्राप्त थई जाय तो पुण्यना निमित्ते अनुकूळ बाह्य सामग्री सहेजे मळी जाय छे. बाकी ईलमनी लकडी-बकडी एवुं कांई अहीं छे नहि. एकवार आवी एक लाकडी चोराई गई हती. ए लाकडीमां शुं माल छे? माल तो भगवान आत्मा शुद्ध चिदानंदमय वस्तुमां छे. ए परमानंदना नाथ प्रभु आत्मानी आ परम सत्य वात काने पडतां पुण्यानुबंधी पुण्य बंधाई जाय छे. तेना फळमां लक्ष्मी आदि बाह्य वैभव मळे छे, पण ते कोई चीज नथी. अहाहा...! रागथी भिन्न पडीने आत्माना स्वानुभवमंडित आनंदनो अनुभव करवो ए चीज छे.
अहो! कुंदकुंदाचार्यदेवनी कथनपद्धति अलौकिक छे. कविवर वृंदावनजीए तो कह्युं छे के-
कुंदकुंदाचार्यदेव साक्षात् सदेहे भगवान पासे विदेहक्षेत्रमां गया हता. श्रुतकेवळीओ साथे चर्चा करी हती. भगवाननी वाणी सवारे, बपोरे, सांजे छ छ घडी नीकळे तेनुं श्रवण कर्युं हतुं. पछी भरतमां पधारीने पांच परमागमोनी रचना करी छे. तेओ विदेहमां गया हता ए सत्य वात छे. एमां रंचमात्र पण शंकाने स्थान नथी.
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ज्ञानीने भेदसंवेदननी शक्ति ऊघडी गई छे; तेथी ते जाणे छे के ‘‘अनादिनिधन, निरंतर स्वादमां आवतो, समस्त अन्य रसथी विलक्षण (भिन्न), अत्यंत मधुर जे चैतन्यरस ते ज एक जेनो रस छे एवो आ आत्मा छे अने कषायो तेनाथी भिन्न रसवाळा (कषायला- बेस्वाद) छे; तेमनी साथे जे एकपणानो विकल्प करवो ते अज्ञानथी छे.’’
भगवान आत्मा आनंदरसकंद छे. तेनां प्रतीति अने ज्ञान थतां शक्तिरूप जे आनंद अंदर छे तेनो अंश व्यक्त थाय छे अने आनंदनो अनुभव थाय छे. ते धर्मीने आत्माना आनंदनो अनुभव अने रागना कलेशनो अनुभव बन्ने एकसाथे पृथक् पृथक् छे. आत्मानो चैतन्यरस रागना रसथी विलक्षण छे एम ते जाणे छे. धर्मीने रागनो स्वाद अने पोतानो स्वाद बेने भिन्न करवानी भेदविज्ञाननी शक्ति प्रगटी होय छे. ज्यारे अज्ञानी रागनो स्वाद अने पोतानी पर्यायनो स्वाद एकमेक माने छे. अगियार अंग अने नवपूर्वना ज्ञाननी लब्धि प्रगटी होय, पण ज्यां सुधी रागनो स्वाद अने पोतानो स्वाद-ए बन्नेनो स्वाद एक भासे त्यां सुधी ते मिथ्याद्रष्टि छे.
ज्यारथी ज्ञान प्रगट थाय छे त्यारथी आनंदनो स्वाद आवे छे. समकितीने बधा गुणनी एक समयमां अंशे निर्मळ पर्याय प्रगट थाय छे. श्रीमदे कह्युं छे के ‘सर्वगुणांश ते समकित.’ मोक्षमार्गप्रकाशकमां रहस्यपूर्णचिठ्ठीमां कह्युं छे के-‘‘चोथा गुणस्थानवर्ती आत्माने ज्ञानादि गुणो एकदेश प्रगट थया छे.’’ आत्माने संख्याए अनंत गुण छे. ते बधा गुणोनी शुद्ध पर्याय प्रगट थाय छे. सर्वगुणोनो अंश प्रगट वेदनमां आवे तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे.
रहस्यपूर्णचिठ्ठीमां आवे छे के-‘‘वळी भाईश्री! तमे त्रण द्रष्टांत लख्या अथवा द्रष्टांत द्वारा प्रश्न लख्या, पण द्रष्टांत सर्वांग मळतां आवे नहि. द्रष्टांत छे ते एक प्रयोजन दर्शावे छे. अहीं बीजनो चंद्र, जळबिंदु, अग्निकण ए द्रष्टांत तो एकदेश छे अने पूर्णिमानो चंद्र, महासागर तथा अग्निकुंड ए सर्वदेश छे; ए ज प्रमाणे चोथा गुणस्थानवर्ती आत्माने ज्ञानादि गुणो एकदेश प्रगट थया छे तेनी तथा तेरमा गुणस्थानवर्ती आत्माने ज्ञानादि गुणो सर्वदेशरूप प्रगट थया छे तेनी एक ज जाति छे. (एम समजवुं).’’
थोडा प्रदेश सर्वथा निर्मळ थई जाय एम नहि परंतु सर्व प्रदेशमां एक अंश निर्मळ थाय छे. चोथा गुणस्थानमां ज्ञानादि गुणो एकदेश प्रगट थई जाय छे अने तेरमा गुणस्थाने सर्वदेशरूप प्रगट थई जाय छे. आत्मामां अनंत गुणो छे. सम्यग्दर्शन थतां तेनी प्रतीति थई त्यां जेटला गुण छे ते बधानो एक अंश पर्यायमां प्रगट अनुभवमां आवे छे. तेथी ते जाणे छे के-‘अनादिनिधन, निरंतर स्वादमां आवतो समस्त अन्यरसथी विलक्षण, अत्यंत मधुर जे चैतन्यरस ते ज एक जेनो रस छे
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एवो आ आत्मा छे अने कषायो तेनाथी भिन्न रसवाळा छे; तेमनी साथे जे एकपणानो विकल्प करवो ते अज्ञानथी छे.’
अनादिनिधन निरंतर स्वादमां आवतो चैतन्यरस समस्त अन्यरसथी विलक्षण छे. अहीं आ पर्यायनी वात छे हों. आत्मा प्रभु आनंदनो रसकंद छे. तेनी सन्मुखता करवाथी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान प्रगट थाय छे. ते समकितीने भेदज्ञाननी शक्ति प्रगटी गई छे तेथी ते रागनो स्वाद अने पोतानो स्वाद भिन्न भिन्न जाणे छे. अहीं तो स्वादनी मुख्यताथी वात करी छे. बाकी तो चोथा गुणस्थाने आत्मामां जे अनंत गुणो छे ते बधा गुणोनी एक समयनी पर्यायमां एक अंश प्रगट थाय छे.
मार्ग आवो छे, पण रुचे नहि एटले केटलाकने एम लागे के आ वळी नवो पंथ नीकळ्यो! पण आ नवो पंथ नथी. बापु! भगवान सर्वज्ञदेवनी परंपराथी चाल्यो आवतो आ ज एक मार्ग छे. कहे छे-चैतन्यरस, अन्यरसथी विलक्षण एवो अत्यंत मधुर रस, अमृतमय रस छे. अनुभवमां स्वादनी मुख्यता छे. श्री दीपचंदजीनो ‘अनुभव प्रकाश’ नामनो ग्रंथ छे. त्यां पण अनुभवना स्वादनी वात करी छे. स्वरूपनुं सत्यज्ञान -सम्यग्ज्ञान प्रगट थाय तेने पोताना चैतन्यना आनंदनो स्वाद प्रत्यक्ष भासे छे. अहाहा...! आवो मधुर चैतन्यरस ए एक ज जेनो रस छे एवो आत्मा छे-एम ज्ञानी जाणे छे. ज्ञान विशेष होय के न होय, तेनी साथे संबंध नथी. पण आत्मानो अनुभव थतां आनंदनो स्वाद आवे ए मुख्य चीज छे. बनारसीदासे कह्युं छे ने के-
अरे भाई! आवा आनंदना स्वाद पासे इन्द्रनां इन्द्रासन अने भोग अने चक्रवर्तीनो वैभव सडेला घासना तरणा जेवां भासे छे. समकिती इन्द्रने इन्द्राणीना भोग सडेला मडदा जेवा भासे छे. ज्ञानीने राग आवे छे पण एमां एने दुःखनो स्वाद प्रतीत थाय छे. ज्ञानीने विषयवासनानो जे राग आवे छे ते काळा नाग जेवो देखाय छे. अज्ञानीने जेमां सुख भासे छे ते विषयभोगो ज्ञानीने रोग जेवा भासे छे. सम्यग्ज्ञान कोने कहेवाय भाई? ए कांई बहारनी पंडिताईथी मळे एवी चीज नथी.
अहाहा...! अत्यंत मधुर रस ते एक ज जेनो रस छे एवो आत्मा छे अने कषायोनो तेनाथी भिन्न कषायलो स्वाद छे-एम ज्ञानीने भासे छे. शुभाशुभ रागनो आकुळतामय स्वाद छे. चैतन्यरसथी एनो रस भिन्न बेस्वाद-विरस छे. सोगानीजीने लख्युं छे के-शुभराग तो धधक्ती भट्ठी समान लागे छे. अरे! कोईने आ वात ठीक न पडे तो शुं थाय? अहीं तो चोकखे-चोकखी वात छे के शुभभाव हो के अशुभभाव हो-ए बधो कषायलो कलुषित रस छे.
भाई! एक सेकन्डनो धर्म प्रगटे ए पण कोई अलौकिक चीज छे. अहा! जेनी पूर्वे कदीय सूझ पडी नथी, जेनुं पूर्वे कदीय ज्ञान थयुं नथी एवी आ अपूर्व वात छे.
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पूर्वे सांभळवा मळ्युं पण स्वभाव तरफ द्रष्टि कदी करी नहि! रागनी साथे एकत्व मानी विकल्प कर्या, पण ए तो अज्ञान छे. अत्यंत मधुररस, चैतन्यरस ते पोतानी चीज छे तेनी साथे रागना कलुषित भावनुं एकत्व करवुं ते अज्ञान छे एम ज्ञानी जाणे छे.
जुओ, सर्वज्ञ परमात्मा अरहंतदेवने ज्ञाननी दशा परिपूर्ण खीली गई छे. तेओ एक समयनी ज्ञाननी अवस्था जे केवळज्ञान ते वडे त्रणकाळ त्रणलोकने युगपत् जाणे छे एम कहेवुं ए असद्भूत व्यवहारनय छे, केमके भगवानने जे ज्ञान प्रगट थयुं ते पोताथी प्रगट थयुं छे, लोकालोकथी नहि. ए रीते भगवानने दर्शन, सुख, वीर्य इत्यादि अनंतचतुष्टय प्रगट थई गया छे. शक्तिरूपे तो अनंतचतुष्टय सर्व जीवोमां छे. परंतु शक्तिनी परिपूर्ण व्यक्ति पर्यायमां जेने थाय ते सर्वज्ञ छे; तथा शक्तिनी पर्यायमां एकदेश व्यक्ति थाय एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे.
सम्यग्दर्शन थतां समकितीने अनंतगुणोनो अंश पर्यायमां व्यक्त थाय छे. तेमां आनंदनुं वेदन मुख्य छे एनी अहीं वात छे. सम्यग्द्रष्टिने परमांथी सुखबुद्धि ऊडी गई छे. इन्द्रना इन्द्रासनमां के चक्रवर्तीना बाह्य वैभवमां समकितीने सुखबुद्धि नथी. चक्रवर्तीने ९६००० राणीओ होय छे. तेमां तेनी जे पट्टराणी छे तेनी एक हजार देवो सेवा करे छे. तेना प्रति कमजोरीथी विषयनो राग आवे छे पण समकितीने ते काळकूट झेर समान भासे छे. अहाहा...! निज चैतन्यरसना आनंदना अमृतमय स्वादनी पासे ज्ञानीने रागनो स्वाद झेर जेवो भासे छे. पोताना आनंदना स्वाद साथे रागना स्वादना एकत्वनो विकल्प करवो ए अज्ञानथी छे एम ज्ञानी यथार्थ जाणे छे.
जेम मण दुधपाकमां झेरनी एक झीणी कणी पडी जाय तो बधो दुधपाक झेर थई जाय. एमांथी मीठा दूधनो स्वाद न आवे पण झेरनो स्वाद आवे. तेम आत्मा आनंदनो नाथ नित्यानंदस्वरूप चैतन्य प्रभु छे. तेना आनंदना परिणाम साथे रागनुं थोडुं झेर पडे तो आनंदनुं उलटुं परिणमन थई जाय. एमांथी आनंदनो स्वाद न आवे पण रागनो कषायलो कलुषित स्वाद ज आवे. परंतु धर्मी तो एम जाणे छे के अत्यंत मधुर अमृतमय आनंदनो रस ते मारो रस छे अने रागनो कलुषित रस ते मारी चीज नथी, ए तो पुद्गलनो रस छे. धर्मी ज्ञानना स्वादथी रागनो स्वाद भिन्न पाडी दे छे. ते जाणे छे के पोताना ज्ञानना-चैतन्यना स्वादनी साथे रागना स्वादना एकपणानो विकल्प करवो ते अज्ञान छे. अहो! आ वीतरागनो मार्ग ए शूरानो मार्ग छे. कह्युं छे ने के-
अहाहा...! पोताना शुद्ध चैतन्यस्वभावनी समीप जईने भेटो करतां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे एवो परमात्मा प्रभु पोते छे. आवा शुद्ध चिदानंदरसनो आस्वादी