Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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धर्मी जाणे छे के आनंदनी साथे रागने भेळववो, बन्नेना एकपणानो विकल्प करवो ते अज्ञानथी छे. आ रीते परने अने पोताने भिन्न जाणे छे. धर्मी जीव स्वपरने भिन्न जाणे छे; रागने अने ज्ञानने भिन्न जाणे छे.

हवे कहे छे-‘तेथी अकृत्रिम (नित्य), एक ज्ञान ज हुं छुं परंतु कृत्रिम (अनित्य), अनेक जे क्रोधादिक ते हुं नथी एम जाणतो थको ‘‘हुं क्रोध छुं’’ इत्यादि आत्मविकल्प जरापण करतो नथी; तेथी समस्त र्क्तृत्वने छोडी दे छे.’

आ शुभाशुभ राग छे ते कृत्रिम, अनित्य अने दुःखरूप छे अने हुं तो अकृत्रिम, नहि करायेली एवी त्रिकाळी सत्त्वरूप नित्य चीज छुं, अहाहा...! एक ज्ञान ज हुं छुं. आ पलटती पर्याय ते हुं नहि एम ज्ञानी जाणे छे. हुं तो अकृत्रिम त्रिकाळी ध्रुव एक ज्ञायक तत्त्व छुं. आ ज्ञानना जे भेद पडे ते मारी चीज नथी. आवा शुद्ध ज्ञायकरूप परमात्माने अंतरंगमां अनुभवे तेनुं नाम धर्म छे.

सर्वज्ञदेव अरिहंत परमात्मानुं आ कथन छे. ते अनादिथी आचार्यो कहेता आव्या छे. भाई! तने खबर नथी एटले नवुं लागे छे पण आ नवुं नथी. आ तो असली पुराणी चाली आवती वात छे. कहे छे-अकृत्रिम एक ज्ञान ज हुं छुं अने कृत्रिम क्रोध, मान, माया, लोभ, पुण्य, पाप आदिना अनेकरूप विकल्प ते हुं नथी एम धर्मी जाणे छे. आ प्रमाणे जाणतो ज्ञानी हुं क्रोध छुं, मान छुं, माया छुं, लोभ छुं इत्यादि किंचित्मात्र विकल्प करता नथी; तेथी समस्त र्क्तृत्वने छोडी दे छे. रागादि जे विकल्प थाय तेनो हुं जाणनार मात्र छुं, कर्ता नहि-एम सकल र्क्तृत्वने छोडी दे छे.

हवे कहे छे-‘तेथी सदाय उदासीन अवस्थावाळो थयो थको मात्र जाण्या ज करे छे; अने तेथी निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञानघन थयो थको अत्यंत अकर्ता प्रतिभासे छे.’

परनो कर्ता अज्ञानथी छे एम जाणे ते रागने छोडी दे छे. रागथी भिन्न निज चैतन्यस्वरूपनुं भान थतां समस्त र्क्तृत्वने छोडी दे छे. तेथी सदाय उदासीन अवस्थावाळो थयो थको मात्र जाण्या ज करे छे. अहाहा...! ज्ञाताद्रष्टा रहेतो थको दया, दान आदि विकल्पनो ज्ञानी कर्ता थतो नथी. हुं दया करुं छुं, हुं दान करुं छुं-एम दया, दानना विकल्पनो ते कर्ता थतो नथी. मात्र जे अल्प कषाय छे तेने ते जाण्या ज करे छे अने स्वरूपस्थिरता वधारीने तेनो पण अभाव करी दे छे. अहाहा...! आनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे.

घरबार, कुटुंब, बैरां-छोकरां ए बधां पोतानां छे एम मानीने अज्ञानी चोफेर घेराई गयो छे. अरे भाई! कोई जीव कयांयथीय आव्यो अने कोई कयांयथी आव्यो. तेमने एकबीजा साथे खरेखर कांई संबंध नथी. पत्नीनो जीव आव्यो होय तिर्यंचमांथी अने पतिनो जीव आव्यो होय स्वर्गथी. बे थई गया भेगा त्यां माने के ‘मारी पत्नी’


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अने ‘मारो पति.’ अरे! धूळेय तारुं नथी. बधा ज्यां भिन्न भिन्न छे त्यां एने अने तारे शुं संबंध? जेम एक झाड उपर सांजे पंखी मेळो भराय अने सवार पडतां सौ पोतपोताना मार्गे चाल्या जाय छे तेम एक कुटुंबमां बधां भेगां थई जाय पण वास्तवमां कोई कोईनुं कांई नथी. कयांयथी आव्या अने कयांय पोताना मार्गे जुदा जुदा चाल्या जशे.

अहीं कहे छे के पर्यायमां जे राग थाय ए पण तारी कोई चीज नथी तो मारो पुत्र, मारी पत्नी, मारा पिता-आवी वात तुं कयांथी लाव्यो? आ शुभाशुभ राग ते पुण्य-पाप तत्त्व छे, आस्रव तत्त्व छे अने तुं भगवान ज्ञायक तत्त्व छो. प्रभु! आ रागथी तारे कांई संबंध नथी तो पुत्र, परिवार आदि पर साथे तारे संबंध कयांथी आव्यो? आचार्यदेव कहे छे के-धर्मी जीव उदासीन अवस्थावाळो थयो थको मात्र जाणनार ज छे. बारमी गाथामां कह्युं छे के ते काळे व्यवहारनय जाणेलो प्रयोजनवान छे.

अहाहा...! आ शास्त्रनी रचना तो देखो! आने सिद्धांत कहेवाय. एक ठेकाणे कांईक, बीजे ठेकाणे बीजुं कहे ते सिद्धांत न कहेवाय. बारमी गाथामां कह्युं छे के सम्यग्द्रष्टिने जे राग आवे ते, ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे. परिज्ञायमानस्तदात्वे प्रयोजनवान् एम त्यां टीकामां शब्दो पडेला छे. राग-व्यवहार ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे, परंतु ते आदरणीय नथी. पूर्ण वीतरागता न थाय त्यां सुधी साधकदशामां व्यवहार-राग होय छे खरो, पण ते जाणेलो प्रयोजनवान छे. अहीं पण कह्युं छे के मात्र जाण्या ज करे छे.

पंचास्तिकायमां (गाथा १३६मां) एम कह्युं छे के अस्थाननो तीव्र रागज्वर छोडवा माटे ज्ञानीने शुभराग आवे छे. ज्ञानीने कोई अशुभ राग पण आवे पण ज्ञानी तेने जाणे ज छे, राग मारो छे एम मानतो नथी. अने तेथी निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञानघन थयो थको अत्यंत अकर्ता प्रतिभासे छे. पर्यायनी अहीं वात छे. द्रव्य तो निर्विकल्प विज्ञानघन छे ज. अहाहा...! आवा द्रव्यनी द्रष्टि जेने थई छे ते सम्यग्द्रष्टि रागनो अत्यंत अकर्ता प्रतिभासे छे.

* गाथा ९७ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जे परद्रव्यना अने परद्रव्यना भावोना र्क्तृत्वने अज्ञान जाणे ते पोते कर्ता शा माटे बने? अज्ञानी रहेवुं होय तो परद्रव्यनो कर्ता बने! माटे ज्ञान थया पछी परद्रव्यनुं कर्तापणुं रहेतुं नथी.’

ज्ञान थया पछी ज्ञानी व्यवहारनो जे राग आवे ते रागनो कर्ता थतो नथी. ज्ञानी


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व्यवहाररत्नत्रयनो कर्ता थतो नथी आ फेंसलो आप्यो. आ कारखानांनी व्यवस्था करवी अने परनां काम करवां ए वात तो कयांय दूर रही गई! ज्ञानी रागनो अने परद्रव्यनो कर्ता नथी.

* * *

हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश प७ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘किल’ निश्चयथी ‘स्वयं ज्ञानं भवन् अपि’ स्वयं ज्ञानस्वरूप होवा छतां-शुं कहे छे? भगवान आत्मा स्वयं त्रण लोकनो जाणनार देखनार छे, जगतनी कोई चीजनो ते कर्ता नथी. आवुं ज तेनुं स्वरूप छे. अहाहा...! मंदिर उपर जेम सोनानो कळश चढावे तेम आचार्यदेवे गाथानी टीका उपर आ कळश चढाव्यो छे. अहा! केट-केटलुं स्पष्ट कर्युं छे! जंगलमां वसनारा दिगंबर मुनिवरने करुणाबुद्धिनो विकल्प आव्यो अने आ शास्त्र रचाई गयां. जगतना प्राणीओने दुःखी-पीडित देखीने ज्ञानी अनुकंपा करवा जता नथी पण एने अंतरमां एम थाय छे के-अरे! आ संसारमां प्राणीओ निज चैतन्यस्वरूपने ओळख्या विना जन्म-मरण करता थका बिचारा दुःखी छे! पंचास्तिकायनी गाथा १३७मां अनुकंपाना स्वरूपनुं कथन कर्युं छे त्यां कह्युं छे के-‘‘ज्ञानीनी अनुकंपा तो नीचली भूमिकाओमां विहरतां (-पोते नीचेनां गुण- स्थानोमां वर्ततो होय त्यारे), जन्मार्णवमां निमग्न जगतना अवलोकनथी (अर्थात् संसार- सागरमां डूबेला जगतने देखवाथी) मनमां जरा खेद थवो ते छे.’’ ज्ञानीने हजु राग छे तेथी हेयबुद्धिए एवो राग आवे छे.

त्यां पंचास्तिकाय गाथा १३६ मां कह्युं छे के-‘‘आ (प्रशस्तराग) खरेखर, जे स्थूळलक्ष्यवाळो होवाथी केवळ भक्ति-प्रधान छे एवा अज्ञानीने होय छे; उपरनी भूमिकामां (-उपरना गुणस्थानोमां) स्थिति प्राप्त न करी होय त्यारे, अस्थाननो राग अटकाववा अर्थे अथवा तीव्र रागज्वर हठाववा अर्थे, कदाचित् ज्ञानीने पण होय छे.’’ प्रशस्तराग कदाचित् ज्ञानीने पण होय छे एटले परिणमननी अपेक्षाथी राग छे पण ज्ञानीने रागमां उपादेयबुद्धि, कर्तव्यबुद्धि होती नथी तेथी ते रागना कर्ता थता नथी.

अज्ञानीने भक्ति, अनुकंपा आदि रागमां उपादेयबुद्धि, कर्तव्यबुद्धि होय छे. ते प्राणीओने दुःखी-पीडित देखीने तेमने हुं आम सुखी करी दउं अने आम जीवाडी दउं-एम अनेक प्रकारे विकल्प करतो थको विकल्पनो कर्ता थाय छे. आ में परनी दया करी ते ठीक कर्युं, तेथी मने धर्म थयो एम अज्ञानीने परमां कर्ताबुद्धि अने रागमां धर्मबुद्धि होय छे तेथी ते कर्ता थाय छे.


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अहीं कहे छे-आत्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप होवा छतां ‘अज्ञानतः तु’ अज्ञानने लीधे ‘यः’ जे जीव, ‘सतृणाभ्यवहारकारी’ घास साथे भेळसेळ सुंदर आहारने खानारा हाथी आदि तिर्यंचनी माफक ‘रज्यते’ राग करे छे (रागनो अने पोतानो भेळसेळ स्वाद ले छे) ‘असौ’ ते ‘दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृद्धया’ दहीं-खांडना अर्थात् शिखंडना खाटा-मीठा रसनी अति लोलुपताथी ‘रसालम् पीत्वा’ शिखंडने पीतां छतां ‘गां दुग्धम् दोग्धि इव नूनम्’ पोते गायना दूधने पीए छे एवुं माननार पुरुषना जेवो छे.

हाथीने घास अने चूरमाना लाडवा भेगा करीने खावा आपो तो ते बन्नेने एक मानीने खाई जाय छे. बेउना स्वादनो भेद छे एवो तेने विवेक होतो नथी. वळी कोई रसनो लोलुपी अत्यंत लोलुपताने कारण शिखंड पीतां छतां हुं गायनुं दूध पीउं छुं एम मानवा लागे छे. समयसार नाटकमां द्रष्टांत आप्युं छे के दारूनो नशो जेने चढयो छे एवा दारूडियाने शिखंड पीवडाववामां आवतां नशाना कारणे स्वाद नहि परखी शकवाथी पोते दूध पी रह्यो छे एम कहे छे. तेम मोहदारूना पानथी जे नशामां छे तेवा अज्ञानीने रागनो (कलुषित) स्वाद अने पोतानो (आनंदरूप) स्वाद भिन्न छे एम भान नथी. तेथी रागनो अने पोतानो भेळसेळ स्वाद ले छे. रागना स्वादने ज ते पोतानो स्वाद माने छे.

* कळश प७ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जेम हाथीने घासना अने सुंदर आहारना भिन्न स्वादनुं भान नथी तेम अज्ञानीने पुद्गलकर्मना अने पोताना भिन्न स्वादनुं भान नथी; तेथी ते एकाकारपणे रागादिमां वर्ते छे. जेम शिखंडनो गृद्धी माणस, स्वादभेद नहि पारखतां, शिखंडना स्वादने मात्र दूधनो स्वाद जाणे तेम अज्ञानी जीव स्वपरना भेळसेळ स्वादने पोतानो स्वाद जाणे छे.’

अज्ञानीने पोताना अने पुद्गलकर्मना भिन्न स्वादनुं भान नथी. अहीं पुद्गल-कर्मनो अर्थ राग थाय छे. दया, दान व्रत, भक्ति आदिनो राग खरेखर पुद्गल ज छे. तेनो स्वाद अने पोतानो स्वाद भिन्न छे एवुं अज्ञानीने भान नथी. रागनो स्वाद अने आत्मानो स्वाद- ए बेने अज्ञानी जुदा पाडी शक्तो नथी.

अरे! आ मनुष्यभवनां टूकां आयुष्य पूरां करीने जीव चोरासीना अवतारमां कयांय चाल्यो जशे. त्रसनी स्थिति तो मात्र बे हजार सागरनी छे. बे इन्द्रियथी पंचेन्द्रिय सुधीना भव करवानी स्थिति बे हजार सागरनी छे. अरे भाई! जो भेदज्ञान प्रगट न कर्युं तो ते स्थिति पूरी थतां जीव निगोदमां जशे! निगोदवास तो अनंतकाळ अने अपार दुःखथी भरेलो छे. हे भाई! विचार कर.

जेम शिखंडना रसलोलुपीने शिखंडमां खाटा-मीठा स्वादनो भेद भासतो नथी


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तेम अज्ञानीने रागनो स्वाद अने पोतानो स्वाद-बे भिन्न छे एम स्वादभेद भासतो नथी. अहा! आवी वीतरागनी वाणी आ काळे दुर्लभ छे. जे वीतरागनी वाणी सांभळवा जातीय वैर भूलीने अति विनयभावथी सिंह, वाघ, बकरां, हाथी, बिलाडी, उंदर आदि प्राणीओ भगवानना समोसरणमां दोडयां आवे छे अने पासे बेसीने खूब जिज्ञासाथी सांभळे छे ते वाणी महा मंगळरूप छे. जेनां भाग्य होय तेना काने पडे एम छे.

अहीं कहे छे के रागनो स्वाद अने पोतानो स्वाद-बन्ने भिन्न छे एम स्वादभेदनुं अज्ञानीने भान नथी तेथी ते शुभाशुभभावना कलुषित स्वादने पोतानो स्वाद माने छे. तेथी ते रागमां एकाकाररूप प्रवर्ते छे. रागथी भिन्न पोते ज्ञातापणे रागनो जाणनार ज छे एवुं अज्ञानी जाणतो नथी एटले रागादि भावमां ते एकाकार थई जाय छे. अज्ञानीने भक्ति आदिनी मुख्यता होय छे तेथी ते भक्ति आदिना रागमां एकाकार थई जाय छे.

ज्ञानीने भक्ति आदिनो राग आवे छे पण ज्ञानी तेमां एकाकार नथी. ज्ञान अने रागना स्वादभेदनो जेने विवेक प्रगट थयो छे ते ज्ञानी स्वावलंबने धर्मने साधे छे. कह्युं छे ने के-

‘‘धर्म वाडीए न निपजे, धर्म हाटे न वेचाय;
धर्म विवेके निपजे, जो करीए तो थाय.’’

अहीं विवेक एटले भेदज्ञान अर्थ थाय छे. परनी दया पाळवी ए विवेक नथी; पण भगवान आत्मा शुभरागना विकल्पथी भिन्न ज्ञायक चैतन्यमय प्रभु छे एवुं भेदज्ञान करवुं ते विवेक छे. शरीरनी गमे ते अवस्था थाय, बरफनी जेम लोही जामी जाय, श्वास रुंधाई जाय, अंदर मुंझवण थाय, अने देह छूटी जाय एवी अवस्थामां पण ज्ञानी रागादिभाव साथे एकाकार थता नथी. आ विवेक-भेदज्ञान छे!

भगवान आत्मा आनंदरसथी, चैतन्यरसथी भरेलो प्रभु छे. तेने द्रष्टिमां लेतां अंदरथी आनंदनां झरणां झरे एवी पोतानी चीज छे; परंतु श्रद्धा नथी तेथी अज्ञानी जीव स्वपरना भेळसेळ स्वादने पोतानो स्वाद जाणे छे.

* * *

अज्ञानथी ज जीवो कर्ता थाय छे एवा अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश प८ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अज्ञानात्’ अज्ञानने लीधे ‘मृगतृष्णिकां जलधिया’ मृगजळमां जळनी बुद्धि थवाथी ‘मृगाः पातुं धावन्ति’ हरणो तेने पीवा दोडे छे. खारीली जमीनमां सूर्यनां किरण पडे तो जळ जेवुं देखाय छे. मृगला दोडता दोडता जळनी आशाए त्यां जाय अने जईने जुए तो त्यां कांई न होय. जळ कयां हतुं ते मळे? तेम अज्ञानी जीव


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स्त्रीमां, मकानमां, पैसामां सुख छे एम भ्रमथी मानी पर वस्तुनी आशाए दोडधाम करी मूके छे. पैसा रळवा माटे कुटुंबने छोडी परदेश जाय, त्यां एकलो रहे. आम अतिशय लोभातुर जेओ पैसा मेळववा बहार दोडी दोडीने जाय छे ते बधा मृगला जेवा छे. कह्युं छे ने के- ‘मनुष्यरुपेण मृगाश्चरन्ति’ मनुष्यना देहमां तेओ मृगनी जेम भटके छे. पोताने भूलीने परमां सुखबुद्धि करे ते हरणिया जेवा ज छे, तेओ संसारमां भटके ज छे.

सुख काजे बहार परदेशमां जाय पण भाई! सुख बहारमां कयांय नथी. कस्तूरी मृगनी नाभिमां कस्तूरी होय छे. पवनना झकोरे सुगंध प्रसरे त्यां सुगंध बहारथी आवे छे तेम ते मृग माने छे. एने खबर नथी के एनी नाभिमां कस्तूरी भरी छे त्यांथी सुगंध आवे छे. तेथी ते जंगलमां दोडादोड करी थाकीने पडे छे अने महा कष्टने प्राप्त थाय छे. तेम आत्माना अंर्तस्वभावमां सुख भर्युं छे. अज्ञानीने एनी खबर नथी तेथी बाह्य अनुकूळ सामग्रीमांथी सुख लेवा तेना भणी दोट मूके छे. पण सुख तो मळतुं नथी, मात्र जन्म-मरणना कष्टने प्राप्त थाय छे. परमां सुख छे एवुं ते माने छे ते अज्ञानना कारणे छे. पोताना सच्चिदानंदस्वरूपने छोडीने, मृगजळ समान रागमां सुखबुद्धि करे छे ते अज्ञानथी छे. आत्मानो अतीन्द्रिय आनंदनो रस अने रागनो दुःखरूप रस ए बेनो भेद न जाणतां रागना रसनो अति कलुषित स्वाद अनादिथी लई रह्यो छे ते अज्ञानना कारणे छे.

वळी, ‘अज्ञानात्’ अज्ञानने लीधे ‘तमसि रज्जौ भुजगाध्यासेन’ अंधकारमां पडेली दोरडीमां सर्पनो अध्यास थवाथी ‘जनाः द्रवन्ति’ लोको भागी जाय छे. जुओ, छे तो दोरडी ज; पण अंधारामां नहि जणावाथी सर्प छे एम भय पामी लोको दूर भागी जाय छे. तेम आत्मा परमानंदमय परम सुखस्वरूप पदार्थ छे. जरा शांत थई स्वसन्मुख थाय तो अतीन्द्रिय आनंद प्राप्त थाय तेम छे. परंतु अनादिथी जे आ विषयसुख छे ते पण कदाच नाश पामशे एवा भयथी अज्ञानने लीधे संसारी जीव पोताना आत्माथी दूर ने दूर भागे छे. रे अज्ञान!

‘च’ अने (तेवी रीते) ‘अज्ञानात्’ अज्ञानने लीधे ‘अमी’ आ जीवो ‘वातोत्तरंङ्गाब्धिवत्’ पवनथी तरंगवाळा समुद्रनी माफक ‘विकल्पचक्रकरणात्’ विकल्पोना समूह करता होवाथी –‘शुद्धज्ञानमयाः अपि’ जोके तेओ शुद्धज्ञानमय छे तोपण-‘आकुलाः’ आकुलित बनता थका ‘स्वयम् कर्त्रीभवन्ति’ पोतानी मेळे कर्ता थाय छे.

विकल्पनो जे कर्ता थाय छे ते अज्ञानथी छे एम अहीं बताववुं छे. लोकोने लागे के व्यवहार विना कोई रस्तो नथी; व्यवहारथी निश्चय थाय. अरे प्रभु! व्यवहार तो राग छे, दुःख छे. ते दुःखथी आत्माना आनंदनो अनुभव केम थाय? शास्त्रमां कह्युं छे


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ए तो निमित्तनुं ज्ञान कराववा कह्युं छे. जो आम न माने तो पूर्वापर विरोध थई जाय छे.

आत्मा आनंदरसथी भरेली चीज छे. तेनो अनुभव करवो ते मोक्षमार्ग छे. समयसार नाटकमां आवे छे के-

‘‘अनुभव चिंतामनि रतन, अनुभव है रसकूप;
अनुभव मारग मोखकौ अनुभव मोख सरूप.’’

त्यां एम न कह्युं के व्यवहारनो राग मोक्षमार्ग छे. व्यवहार होय छे, आवे छे; पण एनाथी आत्माना आनंदनो अनुभव थाय छे ए विपरीत मान्यता छे. जीवने व्यवहारना पक्षनुं आ अनादि-शल्य पडयुं छे. अरे! आत्माना आनंदनी अनुभव दशा प्रगट करवामां व्यवहारनी अपेक्षा नथी एवुं जेने श्रद्धान नथी ते व्यवहारने छोडी अनुभव केम प्रगट करी शकशे?

पवनथी तरंगवाळा समुद्रनी माफक, अज्ञानने लीधे आ जीवो विकल्पोना समूहने करे छे. जीव अज्ञानथी शुभाशुभरागना विकल्पनो कर्ता थईने विकल्पो करे छे एम अहीं बताववुं छे. जोके आत्मा शुद्धज्ञानमय छे तोपण आकुळित बनतो थको पोतानी मेळे कर्ता थाय छे.

समयसार कळशटीकामां आ श्लोकना अर्थमां एम कह्युं छे के-‘‘सर्व संसारी मिथ्याद्रष्टि जीव सहजथी शुद्धस्वरूप छे तोपण मिथ्याद्रष्टिने लीधे आकुलित थता थका बळजोरीथी ज कर्ता थाय छे.’’ राग-दया, दान, भक्ति आदिना जे विकल्प ते अंदर वस्तुमां नथी, परंतु पोताना ऊंधा जोरनी बळजोरीथी राग उत्पन्न थाय छे. आत्मा वस्तु तो शुद्ध ज्ञानघन, आनंदघन निर्विकारी प्रभु छे. ते रागनो कर्ता केम थाय? जेम समुद्रमां तरंग ऊठे छे तेम जीव अनेक विकल्प करे छे ते अज्ञाननी बळजोरी छे. अज्ञानना बळथी जीव विकाररूपे परिणमे छे. आत्मा एवो छे नहि, आत्मा तो स्वभावथी शुद्ध चैतन्यघन प्रभु छे. तोपण आत्मद्रष्टि नहि होवाथी आकुलित थतो थको बळजोरीथी ज कर्ता थाय छे. आत्मा ज्ञाननो पिंड प्रभु एकलो जाणग- जाणगस्वभावी छे ते कर्ता केम थाय छे? अनादि अज्ञानने लीधे बळजोरीथी शुभाशुभ रागनो, विकल्पोना समूहनो कर्ता थाय छे. आ में दया पाळी, व्रत कर्यां, भक्ति करी, पूजा करी, मंदिर बांध्युं, ने प्रतिष्ठा करी इत्यादि रागनो मिथ्या श्रद्धाना जोरथी अज्ञानी कर्ता थाय छे.

आत्मानुं स्वरूप तो सहज शुद्धज्ञानमय छे. ते जाणवानुं काम करे के रागनुं अने परनुं काम करे? सर्वज्ञ परमात्मा कहे छे के-अमे सर्वज्ञ थया ते अमारा स्वभावमां सर्वज्ञपणुं हतुं एमां एकाग्र थईने सर्वज्ञ थया छीए; राग अने व्यवहारथी सर्वज्ञ थया नथी.


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लोकोने एकान्त छे, निश्चयाभास छे एवुं बहारथी लागे, पण भाई! आ सम्यक् एकान्त छे. निश्चय साथे व्यवहार हो, पण व्यवहार धर्म नथी. साधकने यथापदवी व्यवहार होय छे, पण ते धर्म नथी एम ते यथार्थ जाणे छे. रात्रिभोजननो धर्मीने त्याग होय छे. जैन नाम धरावनारने पण रात्रिभोजन आदि न होय. रात्रे भोजन करवामां तीव्र लोलुपतानो अने त्रसहिंसानो महादोष आवे छे. माटे जैन नामधारीने पण रातनां खान-पान इत्यादि न होय. केरीनां अथाणां इत्यादि जेमां त्रसजीवोनी उत्पत्ति थई जाय एवो आहार पण जैनने होई न शके. आ बधा व्यवहारना विकल्प हो, पण ए धर्म नथी.

अहीं तो कहे छे के पोताना शुद्ध आनंदना रसने भूली विकल्पना रसमां जे निमग्न छे तेने आकुळताना स्वादनुं वेदन होय छे. बहु सूक्ष्म वात. भाई!

दरेक प्राणी सुखने इच्छे छे पण सुखना कारणने इच्छतो नथी; तथा दुःखने इच्छतो नथी पण दुःखना कारणने छोडतो नथी. आनंदनो नाथ प्रभु आत्मा सुखथी भरेलो छे. त्यां द्रष्टि करतो नथी अने दुःख जेनुं स्वरूप छे एवा व्यवहारना रागमां सुखबुद्धि करे छे. अहा! अज्ञानीनी विचित्र गति छे! पण भाई! रागथी-दुःखथी आत्माना आनंदनी प्राप्ति कदी न थई शके. आत्मानो निर्मळ आनंद तेना अनुभवथी प्राप्त थाय छे. कह्युं छे ने के-

‘‘वस्तु विचारत ध्यावतैं, मन पावै विश्राम;
रस स्वादत सुख ऊपजै, अनुभौ याकौ नाम.’’

आत्मा शुद्ध चिदानंदघन वस्तु प्रभु-तेनो विचार करतां ध्याननी धून चढी जाय अने अंदर विश्राम लेतां विकल्पो ठरी जाय, मटी जाय तेने आनंदरसना स्वादथी सुख ऊपजे छे. आनुं नाम अनुभव छे अने एनाथी सुख छे. अरे भाई! तने सत्यनुं शरण लेवुं केम कठण पडे छे? स्वभावना पक्षमां आवी सत्यनी प्रतीति तो कर! शुभभावथी कल्याण थाय एम मानीने तो अनंतकाळ गुमाव्यो छे.

आत्मा शुद्धज्ञानमय वस्तु होवा छतां तेनुं भान नहि होवाथी अज्ञानी विकल्पोना समूहना चक्रावे चढेलो छे. में व्रत कर्यां, तप कर्यां, दया पाळी, भक्ति करी-एम विकल्पोना चक्रावे चढी गयो छे तेथी ते रागनो कर्ता थाय छे जीवननो केटलोक काळ तो स्त्री, कुटुंब, परिवार, धंधापाणी इत्यादि पापमां काढे छे. बाकीना सात-आठ कलाक ऊंघवामां गाळे छे. आ प्रमाणे परमां सुखबुद्धि करीने अज्ञानी रागादिनो कर्ता थाय छे, घडियाळनां कारखानां, लादीनां कारखानां इत्यादि मोटा वेपार-उद्योग चालता होय त्यां अज्ञानी राजीराजी थई जाय छे! अरे भाई! ए बधो अशुभराग तो तीव्र आकुळता छे. त्यां सुख केवुं?


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आत्मानो स्वभाव तो त्रणकाळ त्रणलोकने जाणवा-देखवानो छे. भले वर्तमानमां श्रुतज्ञान हो, पण आत्मा राग अने रजकणथी भिन्न बधानो ज्ञाताद्रष्टा छे. अहाहा...! आत्मा पवित्र ज्ञानमय प्रभु चैतन्यप्रकाशस्वरूप त्रिकाळ आनंदस्वरूप छे. तोपण अरेरे! अज्ञानथी आकुलित बनीने अज्ञानी पोतानी मेळे कर्ता थाय छे.

* कळश प८ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अज्ञानथी शुं शुं नथी थतुं? हरणो झांझवाने जळ जाणी पीवा दोडे छे अने ए रीते खेदखिन्न थाय छे. अंधारामां पडेला दोरडाने सर्प मानीने माणसो डरीने भागे छे. तेवी ज रीते आ आत्मा, पवनथी क्षुब्ध थयेला समुद्रनी माफक, अज्ञानने लीधे अनेक विकल्पो करतो थको क्षुब्ध थाय छे अने ए रीते-जोके परमार्थे ते शुद्धज्ञानघन छे तोपण-अज्ञानथी कर्ता थाय छे.’

अज्ञानथी शुं शुं नथी थतुं? अज्ञानथी अनेक अनर्थ थाय छे. जुओ, सिंहणनुं बच्चुं सिंहणथी नथी डरतुं. तेनी पासे जईने ते धावे छे, केमके खबर छे के ते माता छे. परंतु कुतराथी ते डरे छे केमके अज्ञान छे. तेवी ज रीते पवनथी डोलता दरियानी जेम आत्मा अज्ञानने लीधे अनेक विकल्पो करतो थको क्षुब्ध थाय छे, खळभळी ऊठे छे. प्लेगनो रोग थाय तो बिचारो भयथी खळभळी ऊठे के हवे बे त्रण दिवसमां मोत थशे. अरेरे! अनादि अनंत पोतानी चीजना भान विना आवा अनंत दुःखो जीवे सहन कर्यां, पण हुं आत्मा ज्ञानमय छुं एवो अनुभव न कर्यो! अरे! जगत आखुं मोहनी मायाजाळमां फसाई रह्युं छे! आ जगत तद्न माया (मा या) छे एम नथी. जगत तो जगतमां छे. पण जगत मारामां नथी अने हुं जगतमां नथी. आवुं भेदज्ञान नहि होवाथी परद्रव्य मारुं छे एवी मान्यता वडे जगत मोहपाशमां बंधाई गयुं छे. भाई! वेदांत सर्वथा अद्वैत ब्रह्म माने छे तेवुं वस्तुनुं स्वरूप नथी. बधुं मळीने एक आत्मा छे ए मान्यता यथार्थ नथी.

भगवान आत्मा परमार्थथी विज्ञानघन छे. दश मण बरफनी शीतळ पाट होय छे ने! तेम आत्मा आनंदनी पाट छे. बरफनी पाट तोलदार छे, पण आ आत्मपाट तो अरूपी चैतन्यबिंब छे. अहाहा...! अंतरमां देखो तो आत्मा राग विनानी चीज एकला ज्ञान अने आनंदनुं अरूपी बिंब छे तोपण अज्ञानथी जीव अनेक विकल्पोथी क्षुब्ध थयो थको कर्ता थाय छे. अनादिथी जीव कर्ता थईने दुःखी थाय छे. सम्यग्ज्ञान थाय तो कर्तापणुं मटे छे अने ज्ञातापणे रहे छे. श्लोक प८ पूरो थयो.

* * *

ज्ञानथी आत्मा कर्ता थतो नथी एम हवे कहे छेः-


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* कळश प९ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘हंसः वाः पयसोः इव’ जेम हंस दूध अने पाणीना विशेषने (तफावतने) जाणे छे- जुओ, हंसनी चांचमां खटाश होय छे. तेथी दूधमां चांच बोळे त्यां दूध अने पाणी जुदा पडी जाय छे. अहीं कहे छे के आ आत्मा परमहंस छे, अने राग छे ते पाणी छे. हंस जेम पाणी अने दूधने जुदा पाडी दे छे तेम आ आतम-हंसलो दूधसमान पोतानो ज्ञानस्वभाव अने जळसमान जे राग ते बन्नेने भिन्न करी दे छे. अने तेने आत्महंस कहीए; बाकी तो कौआ- कागडा कहेवामां आवे छे. प्रभु! तारी मोटपनी तने खबर नथी!

आत्मा अरूपी छे. अरूपी छे छतां ते वस्तु छे. जेम रूपी वस्तु छे तेम अरूपी पण वस्तु छे. अरूपी एटले कांई नहि एम नथी. अरूपी एटले रूपी नहि पण वस्तु तो छे. अहाहा...! अनंत ज्ञान, अनंत आनंद, अनंत शांति इत्यादि अनंत अनंत गुणनो त्रिकाळी पिंड प्रभु आत्मा छे. आत्मा अरूपी महान पदार्थ छे. हवे-

हंसनी जेम ‘यः’ जे जीव ‘ज्ञानात्’ ज्ञानने लीधे ‘विवेचकतया’ विवेकवाळो होवाथी ‘परात्मनोः तु विशेषम् जानाति’ परना अने पोताना विशेषने जाणे छे ‘सः’ ते ‘अचलम् चैतन्यधातुम् सदा अधिरूढः’ अचळ चैतन्यधातुमां सदा आरूढ थयो थको ‘जानीत एव हि’ मात्र जाणे ज छे, ‘किञ्चन अपि न करोति’ कांई पण करतो नथी.

धर्मात्मा पोतानुं स्वस्वरूप जे ज्ञान अने पर जे राग ते बन्नेने भिन्न जाणे छे अने तेथी ते भेदज्ञानसहित होवाथी, हंस जेम दूध अने पाणीने जुदा करी दे छे तेम ज्ञान अने रागने जुदा करी दे छे; राग अने आत्माने एक करतो नथी. रागनो जे कर्ता थाय ते ज्ञाता रही शक्तो नथी अने जे ज्ञाता थाय ते रागनो कर्ता थतो नथी. आवी ज वस्तुस्थिति छे. समयसार नाटकमां आवे छे के-

‘‘करै करम सोई करतारा, जो जानै सो जाननहारा;
जो करता नहि जानै सोई, जानै सो करता नहि होई.’’

बहारनी शरीर, मन, वाणी आदिनी क्रिया तो जडनी क्रिया छे; पण अंदर जे शुभराग आवे छे तेनो ज्ञानी कर्ता नथी. ज्ञानी ज्ञानने लीधे राग जे विकार अने पोतानो अविकारी शुद्ध ज्ञानघन-आनंदघन स्वभाव-ए बेना विशेषने जाणे छे. हुं तो चिदानंद-स्वभावी वस्तु छुं अने राग तो आकुळतास्वभाव छे-आवो बन्नेनो भेद ज्ञानी जाणे छे. आनुं नाम भेदज्ञान छे. भेदज्ञानना बळे अचळ निज चैतन्यस्वरूपनो आश्रय करतो थको ते मात्र जाणे ज छे. आनुं नाम धर्म छे.

आत्मा अचळ चैतन्यधातु छे. जे चैतन्यने धारे ते चैतन्यधातु छे. एमां अचेतन


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राग धारेलो नथी, एकली चैतन्य-चैतन्यमय वस्तु छे. आवी शुद्ध चैतन्यमय वस्तुमां आरूढ थतां एटले के तेनो आश्रय करतां आत्मा रागथी भिन्न थईने मात्र जाणनार ज रहे छे. जुओ आ भेदज्ञानने प्राप्त समकितीनुं स्वरूप! निज चैतन्यधातुनो आश्रय करतो थको ज्ञानी किंचित्मात्र कर्ता थतो नथी; ज्ञाता ज रहे छे रागना सूक्ष्म अंशनो पण ज्ञानी कर्ता नथी. जे भावे तीर्थंकरगोत्र बंधाय ते षोडशकारण भावनाना रागनो ज्ञानी किंचित्मात्र कर्ता नथी; ज्ञानमां तेने ते भिन्नरूपे मात्र जाणे ज छे.

* कळश प९ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जे स्वपरनो भेद जाणे ते ज्ञाता ज छे, कर्ता नथी.’

लोको कहे छे ने के करवुं शुं? तो कहे छे के आ भेदज्ञान प्रगट करवुं ते करवानुं छे. भेदज्ञान करे नहि अने रागनी मंदता करे तो एथी कांई साध्य नथी. रागनी मंदता तो अनादिथी करतो आव्यो छे. एमां नवुं शुं छे? अरे भाई! पहेलां श्रद्धामां तो पक्षकर के ज्ञानमय भगवान आत्मा अने रागमय विकार ते बन्ने तद्न भिन्न चीज छे. ते बन्नेने एक मानवा ते मिथ्यात्व अने अज्ञान छे. रागथी भिन्न ज्यां ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मानुं भान थयुं त्यां ज्ञानी रागने जाणे ज छे, तेनो कर्ता थतो नथी.

एक वणिक हतो. तेने एक छोकरो हतो. ते वणिकनी पहेली पत्नी गुजरी जतां तेणे नवी बाई साथे लग्न कर्युं. एक वार ते नवी मा, दीकरानी वहुनो साल्लो पहेरीने ओरडामां सूती हती. छोकराने खबर नहि के कोण सूतुं छे. छोकराने विषयनो राग थई आवतां अंदर ओरडामां जईने हाथ अडाडयो. त्यां मा जागी गई अने बोली-‘बेटा वहु न्हावा गयां छे.’ छोकराने ज्ञान थयुं के अहा! आ तो माता छे, पत्नी नहि! आम ज्ञान थतां ज फडाक वृत्ति बदलाई गई. तत्क्षण विषयनो राग नाश पामी गयो. तेम आत्मा रागथी भिन्न प्रभु आनंदनो नाथ छे एवुं ज्यां अंतर एकाग्र थतां ज्ञान थयुं के भेदज्ञान प्रगट थाय छे अने तत्काल रागनी द्रष्टि छूटी जाय छे. ते रागनो कर्ता मटीने ज्ञाता थई जाय छे. आवो ज्ञान- भेदज्ञाननो अलौकिक महिमा छे.

भाई! जन्म-मरणनां दुःखनो अंत केम आवे एनी आ वात छे. ८४ लाख योनिमां सहन न थाय एवां दुःख तें सहन कर्यां छे. अनंत भवमां अनंत माताओनो तने संयोग थयो छे. मरण वखते ते माताओनां रूदननां आंसु एकठां करीए तो अनंत समुद्र भराय एटला भव तुं करी चूकयो छे. तारा भवनो अंत केम आवे एनी अहीं आचार्यदेवे वात करी छे. कहे छे के शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावी पोतानी वस्तुने छोडी रागनी-संयोगी भावथी एक्ता करवी ते व्यभिचार छे, केमके राग तारी स्वभावभूत चीज नथी. प्रभु! रागना कर्तापणे परिणमवुं ते व्यभिचार छे; ते तने न शोभे. जो; ज्ञानी तो पोताना ज्ञाताद्रष्टास्वभावनी द्रष्टि करीने मात्र जाणनार ज रहे छे, किंचित्मात्र कर्ता थता नथी.


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अरे! अज्ञानी करोळियानी जेम जाळमां फसाई गयो छे. मनुष्यने बे पग छे. पछी ते परणे एटले चार पग थाय, एटले के ते ढोर थाय. पछी एने छोकरो थाय एटले ते छपगो भमरो थाय. भमराने छ पग होय छे. अज्ञानी भमरानी जेम ज्यां-त्यां गुंजे-आ मारी बायडी; आ मारो छोकरो एम गुंजे. पछी छोकरो मोटो थाय एटले एने परणावे. छोकरानी वहु घरमां आवे एटले आठपगो करोळियो थाय. करोळियाने आठ पग होय छे. करोळियानी जेम मनुष्य पोते ज जाळ करी करीने तेमां फसाई जाय छे. वरघोडियां पगे लागवा आवे एटले अज्ञानी खुशी खुशी थई जाय, पण एने खबर नथी के आ दुःखनी जाळ रची छे. अरे भाई! संसारमां सुख केवुं? संसारमां-रागमां तुं दुःखी ज छो.

कन्याने सासरे वळावे त्यारे विरहना भारथी कन्या रडे छे, एनी माता पण रडे छे. बहारथी विरहना दुःखमां रडे छे पण अंदर कन्याने सासरे जवानो हरख होय छे. तेम राग ज्ञानीने आवे छे पण रागनो ज्ञानीने आदर नथी. धर्मीने तो पोताना स्वरूपमां ठरवानो उल्लास छे; पण ठरी न शके तो राग आवे छे. परंतु रागनो ज्ञानी किंचित्मात्र कर्ता थतो नथी, ज्ञाता ज रहे छे, केमके ज्ञानीनी द्रष्टि चैतन्यस्वभाव पर चोंटेली छे. ज्ञानीने जेटलुं रागनुं परिणमन छे एटलुं परिणमननी अपेक्षाए कर्तापणुं छे, पण परमार्थे ते ज्ञाता ज छे केमके राग कर्तव्य छे, करवा योग्य छे एम ज्ञानी मानतो नथी. ज्ञानी स्वपरनो भेद जाणे छे माटे ते रागनो कर्ता नथी, ज्ञाता ज छे. समयसार नाटकमां आवे छे के-

‘‘स्वपर प्रकासक सकति हमारी, तातैं वचन भेद भ्रम भारी;
ज्ञेय दशा दुविधा परगासी, निजरूपा पररूपा भासी.’’

अहा! निजरूप ते स्वज्ञेय अने रागादि ते परज्ञेय छे. ज्ञान परने-रागने जाणे एम कहेवुं ए खरेखर व्यवहार छे; वास्तवमां तो ते काळे ज्ञान पोते पोताने जाणे छे. स्वपरना भेदने जे जाणे ते ज्ञाता ज छे, कर्ता नथी. प९ कळश पूरो थयो.

* * *

हवे, जे कांई जणाय छे ते ज्ञानथी ज जणाय छे एम कहे छेः-

* कळश ६०ः श्लोकार्थ उपरनुं् प्रवचन *

‘ज्वलन–पयसोः औष्ण्य–शैत्य–व्यवस्था’ (गरम पाणीमां) अग्निनी उष्णतानो अने पाणीनी शीतळतानो भेद ‘ज्ञानात् एव’ ज्ञानथी ज प्रगट थाय छे. आनो अर्थ करतां कळशटीकामां एम कह्युं छे के-‘‘जेम अग्नि अने पाणीना ऊष्णपणा अने शीतपणानो भेद निजस्वरूप ग्राही ज्ञानथी प्रगट थायछे तेम.’’


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भावार्थ आम छे के जेम अग्नि संयोगथी पाणी ऊनुं करवामां आवे छे, कहेवामां पण ‘ऊनुं पाणी’ एम कहेवाय छे, तोपण स्वभाव विचारतां (पाणी अने अग्निना स्वभावने लक्षमां लेतां) ऊष्णपणुं अग्निनुं छे, पाणी तो स्वभावथी शीतळ छे-आवुं भेदज्ञान विचारतां उपजे छे. (जेने आत्मानो अनुभव थयो छे तेवा सम्यग्ज्ञानीने आवो यथार्थ ख्याल आवे छे. संयोग आधीनद्रष्टिवाळा अज्ञानीने ‘गरम पाणीमां’ उष्णता अग्निनी छे अने पाणी स्वभावथी शीतळ छे एवो ख्याल आवतो नथी).

बीजुं द्रष्टांत-जेम खारो रस, तेना (खारा लवणना रसना) व्यंजनथी (शाकथी) भिन्नपणा वडे ‘खारो लवणनो स्वभाव’ एवुं जाणपणुं तेनाथी ‘व्यंजन खारूं’ एम कहेवातुं- जणातुं ते छूटयुं; भावार्थ आम छे के जेम लवणना संयोगथी व्यंजननो संभार करवामां आवे छे. (शाक बनाववामां आवे छे). त्यां ‘खारूं व्यंजन’ एम कहेवाय छे, जणाय पण छे, स्वरूप विचारतां खारूं लवण छे, व्यंजन जेवुं छे तेवुं ज छे. हवे सिद्धांत-

ए प्रमाणे शुद्ध स्वरूपमात्र वस्तुनो अनुभव करतां ज चेतना स्वरूपथी प्रकाशमान छे, अविनश्वर छे, -एवुं जे शुद्धस्वरूप छे तेनुं अने समस्त अशुद्ध चेतनारूप रागादि परिणामनुं भिन्नपणुं थाय छे.

भावार्थ आम छे के-(प्रश्न) साम्प्रत (हालमां) जीवद्रव्य रागादि अशुद्ध चेतनारूपे परिणम्युं छे त्यां तो एम प्रतिभासे छे के ज्ञान क्रोधरूप परिणम्युं छे तेथी ज्ञान भिन्न, क्रोध भिन्न-एवुं अनुभववुं घणुं ज कठण छे. उत्तर आम छे के साचे ज कठण छे, परंतु वस्तुनुं शुद्ध स्वरूप विचारतां भिन्नपणारूप स्वाद आवे छे. केवुं छे भिन्नपणुं! ‘कर्मनो कर्ता जीव’ एवी भ्रान्ति तेने मूळथी दूर करे छे-

परनुं वास्तविक ज्ञान जेने सम्यग्ज्ञान प्रगट थयुं छे एवा ज्ञानीने ज होय छे. (शिखंड मीठो छे एम कहेवामां आवे छे त्यारे पण) शिखंडमां जे खटाश छे ते दहींनी छे अने मीठाश खांडनी छे-एम बेनी भिन्नतानुं यथार्थ ज्ञान जेने स्वना आश्रये सम्यग्ज्ञान थयुं छे तेने होय छे.

‘लवणस्वादभेदव्युदासः ज्ञानात् एव उल्लसति’ लवणना स्वादभेदनुं निरसन (निराकरण, अस्वीकार, उपेक्षा) ज्ञानथी ज थाय छे (अर्थात् ज्ञानथी ज शाक वगेरेमांना लवणनो सामान्य स्वाद तरी आवे छे अने तेनो स्वाद विशेष निरस्त थाय छे).’

लवण अने शाक-ए बेना स्वादना भेदनी भिन्नतानुं ज्ञान ज्ञानीने होय छे. अज्ञानीने स्वना ज्ञाननुं परिणमन नथी तो परने प्रकाशतुं परप्रकाशक ज्ञान यथार्थ कयांथी होय? न ज होय. (शाक खारूं छे एम कहेवामां आवे ते काळे पण) लवणना स्वादथी शाकनो स्वाद सर्वथा भिन्न छे एवुं ज्ञान ज्ञानथी ज प्रगट थाय छे. कोने? के


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जेने पोताना ज्ञाननुं ज्ञान प्रगट थयुं छे तेने शाक अने लवणना-बंनेना भिन्नस्वादनुं ज्ञान प्रगट थाय छे. आ द्रष्टांतमां ज सिद्धांत छे.

‘स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः च क्रोधादेः भिदा’ निजरसथी विकसती नित्य चैतन्यधातुनो अने क्रोधादि भावोनो भेद, ‘कर्तृभावम् भिन्दती’ र्क्तृत्वने (कर्तापणाना भावने) भेदतो थको-तोडतो थको ‘ज्ञानात् एव प्रभवति’ ज्ञानथी ज प्रगट थाय छे.’

आत्मा नित्य चैतन्यधातु छे ते पर्यायमां विकसित थाय छे. जेम कमळनुं फूल खीले तेम आत्मा नित्य चैतन्यधातु निजरसथी पर्यायमां खीली जाय छे. ते वखते व्यवहाररत्नत्रयनो राग होय तेने ज्ञान (पर ज्ञेयपणे) जाणे छे. निजरसथी विकसित थयेली पर्यायथी रागने जाणे छे. राग छे तो रागने जाणे छे एम नथी कह्युं. निजरसथी विकसित थयेली स्वपरप्रकाशक ज्ञाननी पर्यायथी रागादि भावने जाणे छे एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे. अहाहा! गजब वात छे! बे द्रष्टांत आप्यां छे; आ सिद्धांत छे. आ ज वातने बारमी गाथामां बीजी रीते कही के-व्यवहार ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे. पोताना त्रिकाळी भूतार्थ भगवानना आश्रये जे ज्ञान प्रगट थयुं ते ज्ञान निजरसथी विकसित थयुं छे. ते ज्ञानपर्याय पोताथी विकसित थई छे. राग छे तो रागने जाणतुं ज्ञान अहीं पर्यायमां प्रगट थयुं छे एम नथी.

प्रभु! तारो स्वभाव एवो छे के ते निजरसथी विकसित थाय छे. नित्य चैतन्य-धातुनुं पर्यायमां परिणमन थतां क्रोधादि भावोना र्क्तृत्वने तोडतुं ज्ञान प्रगट थाय छे. व्यवहारनो राग आवे तेने ज्ञान परज्ञेयपणे जाणे छे अने तेथी तेना र्क्तृत्वने भेदे छे. (नाश करे छे.) रागनुं र्क्तृत्व उडावी दे छे, अने निजरसथी जे ज्ञान-स्वपरप्रकाशक ज्ञान प्रगट थयुं ते ज्ञाननो कर्ता थाय छे.

भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यधातु छे. तेनी स्वपरप्रकाशक पर्याय जे प्रगट थई ते निजरसथी-निजशक्तिथी प्रगट थई छे. ते ज्ञाननी पर्याय क्रोधादिभाव एटले विकारीभावना र्क्तृत्वने छेदती पोतानी स्वपरप्रकाशक शक्तिथी क्रोधादि भावने जाणे छे. ज्ञाननी पर्याय जे पोताना निजरसथी प्रगट थाय छे तेने पोतानी न मानतां रागने पोतानो माने तो तेनुं र्क्तृत्व थई जाय. रागने भिन्न जाणनार ज्ञान रागना र्क्तृत्वने छेदीने रागनुं ज्ञाता थई जाय छे.

व्यवहारनो राग ते क्रोध छे. स्वरूपमां नथी अने स्वभावथी विरुद्ध छे माटे तेने क्रोध कहे छे. क्रोध एटले राग-तेने भिन्न जाणतुं ज्ञान र्क्तृत्वने छेदतुं प्रगट थाय छे. रागने भिन्न जाण्यो एटले परनुं र्क्तृत्व न रह्युं; परने जाणनारुं ज्ञान छे पण ते परथी थयुं छे वा पर छे माटे थयुं छे एम नथी. अहाहा! ते समयनी स्वपरप्रकाशक शक्तिना विकासथी ज्ञान थयुं छे अने ते स्वने जाणतां परने-रागने जाणे छे.


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भगवान! तारा स्वभावनुं बळ, सामर्थ्य अचिंत्य बेहद छे. तें पामरपणुं अज्ञानथी मानी लीधुं छे. ज्ञान अने राग भिन्न छे एम जाणतां आत्मा र्क्तृत्वने छोडी दे छे. ११मी गाथामां कह्युं के पोतानी त्रिकाळी चीज अस्ति छे तेना आश्रये सम्यग्दर्शन थाय छे-ते निश्चय अने पर्यायमां जे राग अने अल्प शुद्धता छे तेने जाणवुं ते व्यवहार. बारमी गाथामां कह्युं ने के ते ते काळे व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे. अर्थात् ते समयनुं ते प्रकारनुं ज्ञान ज स्वपरप्रकाशकपणे परिणम्युं छे. तेथी ते ज्ञान परने जाणे छे एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे.

आ तो धीरानां काम छे बापु! छोकरां मारां छे ए वात तो नहि; परंतु छोकरानुं जे ज्ञान थाय छे ते ज्ञान स्वपरप्रकाशकशक्तिना सहज विकासथी छे, छोकरां छे माटे छोकरांने जाणे छे एम नथी. परज्ञेयनुं जे ज्ञान थाय छे ते सहज पोताना कारणे थाय छे, परज्ञेयना कारणे नहि. अहा! तारी शक्तिनुं सामर्थ्य ज एवुं छे के ते समयमां स्वपरप्रकाशक ज्ञान सहज प्रगट थाय छे. राग अने ज्ञान पर्यायमां एक ज समये थाय छे, आगळ पाछळ नहि. बंनेनां क्षेत्र पण एक छे. माटे राग आव्यो तो अहीं ज्ञान थयुं एम कयां रह्युं? एम छे ज नहि. बापु! मारग जुदो छे. रागना काळे रागने जाणे अने ते काळे स्वने जाणे एवी शक्ति निजरसथी एटले पोताना स्वभावथी सहज प्रगट थई छे.

प्रश्नः– तो शुं निमित्त छे ज नहि?

उत्तरः– बापु! निमित्त छे एनी कोण ना पाडे छे. अहीं तो एम वात छे के ज्ञान रागने जाणे एमां राग निमित्त छे तो रागने जाणे छे एम नथी. निमित्त हो, पण निमित्तथी ज्ञान थयुं छे एम नथी.

भगवान आत्मा पूणानंदनो नाथ प्रभु ज्ञाननो दरियो अंदर पोतानी शक्तिथी डोली रह्यो छे. एनुं जे ज्ञान पोताथी थयुं ते ज्ञान क्रोधादिने जाणतुं, तेना र्क्तृत्वने भेदतुं सहज प्रगट थयुं छे. राग मारी चीज नथी एम रागने भिन्नपणे जाणतां रागनुं र्क्तृत्व छूटी जाय छे. बहु सूक्ष्म वात छे भाई! शुं रागतत्त्वना कारणे अहीं ज्ञानतत्त्व छे? ना. तो रागने ज्ञान जाणे छे एम कहेतां ज रागनी एक्ता तूटी गई अर्थात् रागनुं र्क्तृत्व छूटी गयुं. राग अने ज्ञानने समकिती भिन्न जाणे छे. स्वपरप्रकाशक ज्ञाननी पर्यायमां पोतानुं अने जे प्रकारना रागद्वेष होय तेनुं ते प्रकारनुं ज्ञान पोताथी स्वयं प्रकाशे छे.

कुंदकुंदाचार्यदेव गाथा ३७२मां कहे छे के-सर्व द्रव्यो पोतपोताना स्वभावथी ऊपजे छे. अन्य द्रव्यथी अन्य द्रव्यने गुणनी उत्पत्ति करी शकाती नथी. गुणनो अर्थ त्यां पर्याय थाय छे. सर्वद्रव्योनी पर्याय पोताथी थाय छे. निमित्त हो, पण निमित्तथी कोई अन्य द्रव्यनी पर्याय कराती नथी. माटीना स्वभावथी घडानी पर्याय उत्पन्न थाय छे, कुंभारना स्वभावथी नहि. अहो! गजब वात करी छे!


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तेम परमात्मा अहीं एम कहे छे के पोतानुं स्वरूप ज्यां द्रष्टिमां आव्युं त्यां ज्ञाननी स्वपरप्रकाशक पर्याय प्रगट थई. ते ज्ञाननी पर्याय रागने जाणे छे; पण राग छे माटे तेने जाणे छे एम नथी. ज्ञानीने कोई क्रोधना परिणाम थई गया त्यां तेनुं ज्ञान थयुं ते क्रोधने लईने थयुं एम नथी. भाई! ज्ञान पोताथी थाय तेमां राग निमित्त छे, पण निमित्तथी ज्ञान थाय छे एम नथी. राग रागमां अने ज्ञान ज्ञानमां छे.

रागथी ज्ञान थाय छे एम माने ते ज्ञानना सामर्थ्यनो नाश करे छे. कुंभारथी जो घडो थाय तो माटीमां जे घडो थवानुं सामर्थ्य छे तेनो नाश थाय छे. अहा! एकावतारी इन्द्रो अने ए ज भवे मोक्ष जनारा गणधरदेवो जे वाणी सांभळे ते वाणी केवी होय बापु! सत्ना सिद्धांत प्रसिद्ध करनारी ते वाणी अति विलक्षण पारलौकिक होय छे.

केवळी भगवान लोकालोकने जाणे ते असद्भूत व्यवहारनयनुं कथन छे. लोकालोक छे माटे भगवानने केवळज्ञान छे एम नथी.

प्रश्नः– तो शुं केवळी परने जाणता नथी?

उत्तरः– निश्चयथी परने जाणता नथी. निश्चयथी परने जाणे तो परनी साथे तन्मय थई जाय. जेम पोताना आत्माने तन्मयपणे जाणे छे तेम परद्रव्यने तन्मयीपणे जाणता नथी. भिन्नस्वरूप जाणे छे-तेथी व्यवहारनयथी जाणे छे एम कह्युं छे. जाणवानो अभाव छे तेथी व्यवहारनय कह्यो छे एम नथी. परमां तन्मय थईने जाणता नथी तेथी व्यवहारनय कह्यो छे.

अहाहा...! संतोए सत्नी प्रसिद्धिनो अलौकिक ढंढेरो पीटयो छे. प्रभु! एक वार तुं बहारनी वातो भूली जा अने तारो जे ज्ञानस्वभाव छे तेनो आश्रय कर. तेना आश्रये जे पर्याय प्रगट थाय ते आत्मदर्शन अने आत्मज्ञान छे; बाकी बधो व्यवहार छे. ज्ञान व्यवहारने जाणे छे तोपण ते पोतानी पर्यायनी ताकातथी जाणे छे. ते समयनी ज्ञाननी पर्याय ते ज प्रकारना उत्पादरूपे पोताथी उत्पन्न थती होय छे. द्रव्यना लक्षे जे ज्ञाननी स्वपरप्रकाशक पर्याय उत्पन्न थाय ते पोताथी थाय छे.

नित्य चैतन्यधातु ते ध्रुव अने निजरसथी विकसित थई जे दशा ते पोतानी पर्याय छे. परना कर्तानी तो वातेय नथी अने रागना कर्तानी पण वात नथी. रागनुं ज्ञान थयुं ते पण रागना कारणे नहि. ज्ञाननी पर्याय रागने जाणे छे एम कहेवुं ते व्यवहारनयथी छे, केमके रागमां ज्ञान तन्मय नथी. जो रागमां तन्मय थईने ज्ञान जाणे तो रागनुं कर्तापणुं थई जाय, ज्ञातापणुं न रहे. माटे पोतामां तन्मय थईने जाणे ते ज्ञान रागना र्क्तृत्वने छोडतुं पोताथी प्रगट थाय छे-एम सिद्धांत छे. अहो! स्वरूपग्राही ज्ञान कहीने राजमलजीए कमाल काम कर्युं छे! गृहस्थाश्रममां रहीने


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आवुं अद्भुत काम कर्युं छे. अहा! आत्मामां कयां गृहस्थाश्रम छे? आ शास्त्रना आधारे पंडित श्री बनारसीदासे समयसार नाटक बनाव्युं छे.

पंडित श्री बनारसीदास विषे कोई एम कहे छे के एमणे अध्यात्मनी भांग पीधी छे! अरे प्रभु! आम कहेवुं तने शोभे नहि. आवा (विराधनाना) भावना फळमां तेने दुःख वेठवां कठण पडशे भाई! स्वतंत्र सुखनो पंथ छोडीने परतंत्रताना पंथे जतां तने वर्तमानमां दुःख थशे अने भविष्यमां पण दुःख थशे.

भगवान आत्मा अबद्धस्पृष्ट छे. तेने जे जाणे ते पर्याय जैनशासन छे. अबद्ध-स्पृष्ट आत्माना आश्रये जे वीतरागी पर्याय प्रगट थाय ते जैनशासन छे. बार अंग अने समस्त जैन शासननुं तेने ज्ञान थयुं एम कह्युं छे; केमके बार अंगमां जे कहेवा मागे छे ते एणे जाणी लीधो छे. बार अंगनो अभ्यास भले न होय, पण अबद्ध-स्पृष्टनी द्रष्टि थतां जे आत्मानुभूति प्रगट थई ते जैनशासन छे. आवी जैनशासननी पर्याय चोथे गुणस्थाने प्रगट थाय छे. ते वखते ज्ञाननी स्वपरप्रकाशक जे पर्याय प्रगटी ते पोताने अने रागने जेम छे तेम जाणे छे. त्यां राग छे तो रागनुं ज्ञान थयुं छे एम नथी.

भाई! समजाय एटलुं समजवुं. त्रणलोकना नाथ सर्वज्ञ परमात्मानां आ वेण छे. दिव्यध्वनिमां भगवाने सत्ने सत्पणे प्रसिद्ध कर्युं छे, ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्’- -अहा! ज्ञान ध्रुव सत् अने ज्ञाननी पर्याय जे उत्पन्न थई ते उत्पाद सत् छे. ते पर्याय सत् प्रगट थई ते पोताथी थई छे, व्यवहारनो राग छे माटे प्रगट थई छे एम नथी. अहा! आवी वात जेनां भाग्य होय तेने सांभळवा मळे छे. आवी वात बीजे कयांय छे नहि. आ तो सत्ना भणकार लईने नीकळेली वाणी छे. अहा! आत्मा सत्, तेनो स्वभाव सत् अने तेनी निजरसथी विकसित थती ज्ञाननी पर्याय सत्. त्रणेय सत् स्वतः सिद्ध छे, परने लईने नथी. अहा! चैतन्यनी जे पर्याय स्वभावना आश्रये प्रगट थई ते चैतन्यधातु अने क्रोधादिने भिन्न जाणे छे अने तेथी क्रोधादिनुं र्क्तृत्वने छोडती ते ज्ञातापणे परिणमे छे. अहो! आ तो वीतरागना मंत्रो छे! आमां पंडिताई काम लागे तेम नथी; आने समजवा अंतरंग रुचिनी जरूर छे.

एक बाजु शुद्ध चैतन्यधातु अने एक बाजु क्रोधादिक रागना परिणाम-ए बंनेनो ज्ञान भेद जाणे छे. तेथी ज्ञान रागनुं र्क्तृत्व छोडतुं ज्ञातापणे परिणमे छे. व्यवहार-रत्नत्रयनो राग मारो अने हुं तेनो कर्ता एवी कर्तापणानी बुद्धि छूटी जाय छे व्यवहारना रागनुं मात्र ज्ञान करे छे. ए पण अपेक्षाथी वात छे. ‘ज्ञानात् एव प्रभवति’-एटले के ज्ञान अने रागनो भेद (स्वरूपग्राही) ज्ञानथी ज प्रगट थाय छे. श्लोक ६० पूरो थयो.

* * *

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हवे, अज्ञानी पण पोताना ज भावने करे छे परंतु पुद्गलना भावने कदी करतो नथी- एवा अर्थनो, आगळनी गाथानी सूचनिकारूप श्लोक कहे छेः-

* कळश ६१ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘एवं’ आ रीते ‘अञ्जसा’ खरेखर ‘आत्मानम्’ पोताने ‘अज्ञानं ज्ञानं अपि’ अज्ञानरूप के ज्ञानरूप ‘कुर्वन्’ करतो ‘आत्मा आत्मभावस्य कर्ता स्यात्’ आत्मा पोताना ज भावनो कर्ता छे, ‘परभावस्य’ परभावनो (पुद्गलना भावोनो) कर्ता तो ‘क्वचित् न’ कदी नथी.

परनी दया पाळवी ते धर्म छे एम घणा माने छे. सामो प्राणी जीवे ते उपादान अने जीवाडनारनो भाव ते निमित्त-आ बंने मळीने त्यां कार्य थाय छे एम केटलाक माने छे पण ए बराबर नथी केमके एम छे नहि. परवस्तु निमित्त छे पण निमित्तथी कार्य थाय छे एम नथी. निमित्तथी कार्य थाय तो निमित्त अने उपादान एक थई जाय. निमित्त होय छे पण ते परना कार्यनुं कर्ता नथी. निमित्तने अनुकूळ कहेल छे. पाणीनो प्रवाह वही जतो होय तेने किनारो अनुकूळ छे; पण किनारो छे तो प्रवाह तेनाथी चाले छे एम नथी. पाणीनो प्रवाह वही जाय छे ते उपादान अने किनारो छे ते अनुकूळ निमित्त तटस्थ छे. भाई! तारा सत्नी बलिहारी छे. तुं केवो छो, कयां छो, केम छो-ते अहीं बतावे छे. कहे छे-हुं ज्ञानस्वरूप छुं अने जे राग थाय तेने जाणुं ज छुं. ज्ञाननी स्वपरप्रकाशक पर्याय पोतानी ताकातथी स्वपरने जाणे छे. हुं मारी स्वयं प्रगट थयेली ज्ञानपर्यायथी रागने जाणुं ज छुं. अहाहा...! खूब सूक्ष्म वात छे!

अहीं कहे छे के आत्मा कां तो ज्ञान करे, वा अज्ञान करे पण परभावनो कर्ता तो आत्मा कदी नथी. रागनो कर्ता थाय ए पण पोताथी अने रागनो जाणनार थाय ए पण पोताथी छे. आ सिवाय कोई पण परवस्तुनो कर्ता आत्मा (अज्ञानीपण) कदी नथी. भाई! आ शरीर, मन, वाणी, कर्म, अने नोकर्मनो के देश अने समाजनी सेवानां कार्योनो कर्ता आत्मा कदी नथी. आत्मा पोताने ज्ञानरूप व अज्ञानरूप करे छे अने ते ते पोताना भावोनो कर्ता थाय छे पण परभावोनो कर्ता ते कदापि नथी. अहीं अज्ञानने, विकारीभावने पोतानो भाव कह्यो छे केमके ते पोतानी पर्याय छे. तथा परभाव शब्दनो अर्थ अहीं विकारी भाव नहि पण जड पुद्गलना अने परद्रव्यना भाव एम करवो. पुद्गलना अने परद्रव्यना भावोनो कर्ता आत्मा कदी नथी. आ वाणी बोलाय, शरीरनुं हलनचलन थाय, मंदिर आदिनुं निर्माण थाय के कर्मबंधननी पर्याय थाय इत्यादि सर्व परद्रव्योना भावोनो कर्ता आत्मा त्रणकाळमां नथी.

प्रश्नः– आत्मा ज्ञानभावे तो परनुं कांई न करे पण विभावभाव वडे तो परनुं कांई करे के नहि?


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उत्तरः– कह्युं ने के आत्मा पोताने ज्ञानरूप करे के अज्ञानरूप करे अने ते ते पोताना भावोनो ते कर्ता छे, पण परद्रव्यना भावोनो ते कदीय कर्ता नथी. आत्मा अज्ञानपणे विभावभावने करे पण ते विभाव वडे ते परद्रव्यना भावोने त्रणकाळमां न करी शके. आवी ज वस्तुस्थिति छे.

कार्य थवामां उपादान अने निमित्त एम बे कारणो होय छे एम जे कह्युं छे ए तो निमित्तनुं ज्ञान कराववा कह्युं छे. वास्तविक कारण तो एक उपादान ज छे; निमित्त वास्तविक कारण नथी. माटे परनो आत्मा कदीय कर्ता नथी एम नक्की करवुं.

* * *

ए ज वातने द्रढ करे छेः-

* कळश ६२ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आत्मा ज्ञानं’ आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, ‘स्वयं ज्ञानं’ पोते ज्ञान ज छे; ‘ज्ञानात् अन्यत् करोति किं’ ते ज्ञान सिवाय बीजुं शुं करे?

आत्मा ज्ञानमूर्ति, चैतन्यघन, आनंदरसनो कंद ज्ञानस्वरूप प्रभु छे. आ स्वभाव कह्यो. वळी अभेदथी कह्युं के पोते ज्ञान ज छे. ते ज्ञान सिवाय बीजुं शुं करे? शुं ते अचेतन पुद्गलना कर्म करे? कदी न करे. आ शरीरनी क्रिया, भाषानी बोलवानी क्रिया, पुद्गलकर्मबंधनी क्रिया आत्मा करतो नथी. परनुं कार्य करवामां आत्मा पांगळो एटले असमर्थ छे. आ वकीलो कोर्टमां छटादार भाषामां दलीलो करे छे ने? अहीं कहे छे ए भाषानो कर्ता आत्मा नथी.

अहीं त्रण शब्दो कह्या छे- आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, पोते ज्ञान ज छे, ते ज्ञान सिवाय बीजुं शुं करे? गजब वात छे! आ रूपिया रळीने भेगा करवा अने तेने बहारना कामोमां वापरवा इत्यादि क्रियानो आत्मा कर्ता नथी. रूपिया आववा अने जवा ए तो एनुं जडनुं क्षेत्रांतररूप पोतानुं कार्य छे. एनो कर्ता आत्मा नथी. तो लोकमां कहेवाय छे ने?

‘आत्मा परभावस्य कर्ता’ आत्मा परभावनो कर्ता छे ‘अयं’ एम मानवुं (तथा कहेवुं) ते ‘व्यवहारिणाम् मोहः’ व्यवहारी जीवोनो मोह (अज्ञान) छे. आत्मा परभावनो - शरीर, मन, वाणी, कर्म, नोकर्मनी क्रियानो, पैसा लेवा-देवा इत्यादि क्रियाओनो कर्ता मानवो अने कहेवो ए व्यवहारी जीवोनो मोह एटले मूढता छे. वळी कोई एवुं कहे छे के आत्माने परनो कर्ता माने नहि ते दिगंबर नहि! अरे भाई! तने आ शुं थयुं? आवी वात तुं कयांथी लाव्यो? अहीं तो आचार्य एम


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कहे छे के आत्माने परभावनो कर्ता माने ते दिगंबर नहि. परनो-जडना कार्यनो पोताने कर्ता माने ते मूढ अने मोही प्राणी छे. आत्मा बोले ने आत्मा खाय-पीवे इत्यादि जडनी क्रियाओ आत्मा करे एम कहेवुं अने मानवुं ए अज्ञान छे, मूढता छे.

पंचास्तिकाय गाथा १४६नी टीकामां बे गाथाओनो आधार टांकीने कह्यु छे के-‘‘हमणां पण त्रिरत्न शुद्ध जीवो (-आ काळे पण सम्यक्दर्शनज्ञानचारित्ररूप त्रण रत्नोथी शुद्ध एवा मुनिओ) आत्मानुं ध्यान करीने इन्द्रपणुं तथा लोकांतिक-देवपणुं पामे छे अने त्यांथी च्यवीने (मनुष्यभव पामी) निर्वाणने प्राप्त करे छे.’’

अहाहा...! आत्मा परनुं कर्तापणुं छोडी पोताना ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप रत्नत्रय - शुद्धरत्नत्रय हों-नुं आराधन करीने निर्वाणने प्राप्त करे छे. आत्मानुं ध्यान करीने निर्वाण पामे छे; व्यवहाररत्नत्रयनुं आराधन करीने नहि. मोक्षपद जे प्राप्त थाय ते अंतरस्वरूपना ध्यानथी प्राप्त थाय छे; व्यवहाररत्नत्रय कांई मोक्षनुं कारण नथी. अहाहा...! समोसरणमां तीर्थंकर केवळी भगवान बिराजमान होय अने दिव्यध्वनि छूटे ते सांभळी मुनिराज एकदम अंतरस्वरूपमां उतरी जाय छे. आ वीजळीना तांबाना तार होय छे ने! बटन दबावतां वेंत तांबाना तारमां सररराट एकदम वीजळी उतरी जाय छे. तेम भगवाननी दिव्यध्वनि सांभळतां वेंत सररराट एकदम मुनिराज अंतरस्वरूपमां उतरी जाय छे. परिणति भगवान आनंदना नाथने तेना तळमां पहोंचीने पकडे छे. मुनिराज स्वरूपनुं उग्र ध्यान करीने केवळज्ञान उपजावे छे अने पछी मोक्ष पामे छे. अहा! भगवान तो हजु अरिहंतपदे छे अने मुनिराजने सिद्धपद! आवो स्वरूपना ध्याननो अचिंत्य महिमा छे. परंतु व्यवहाररत्नत्रयनो राग करोडो वर्ष पर्यंत करे तोपण तेणे कांई कर्युं नथी. (मतलब के निरर्थक छे). आवी वात छे.

पंचास्तिकाय गाथा १४६नी टीकामां त्यां बीजी गाथानुं अवतरण टांकीने अमृतचंद्राचार्य एम कहे छे-‘‘श्रुतिओनो अंत नथी (-शास्त्रोनो पार नथी), काळ थोडो छे अने आपणे दुर्मेध छीए; माटे ते ज केवळ शीखवा योग्य छे के जे जरा- मरणनो क्षय करे.’’

प्रभु! शास्त्रोनो पार नथी. श्रुतनो तो अगाध दरियो छे. अने अमे दुर्मेध छीए एटले के एटलुं बधुं ज्ञान अमने नथी. अमारी बुद्धि मंद ठोठ निशाळिया जेवी छे. अहा! अमृतचंद्राचार्य जेवा मुनिराज के जेमणे समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय जेवा शास्त्रोनी अजोड अद्भुत टीका करी छे ते महान दिगंबर संत एम कहे छे के अमे तो मंदबुद्धि ठोठ छीए! अहा! कयां केवळज्ञान, कयां बार अंगनुं ज्ञान अने कयां अमारुं अल्पज्ञान? शास्त्रोनो पार नथी, काळ थोडो छे, बुद्धि मंद छे; माटे ते ज केवळ शीखवा योग्य छे के जे जरामरणनो क्षय करे.

शुं करवा योग्य छे? कहे छे-परनां कार्य तो तुं करी शक्तो नथी अने