Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). End; Part 7; Introduction; Content; Gurudev Stuti-1; Gurudev Stuti-2; Samaysaar Stuti; Nirjara Adhikar; Kalash: 133 ; Gatha: 193.

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कहे छे-आत्मा रागनुं कारण नथी तेम ज रागनुं कार्य नथी-ए आ शक्तिनुं कार्य छे. मतलब के व्यवहार जे राग छे ते कार्य अने आत्मा तेनो कर्ता एम नथी. तथा व्यवहार जे राग छे ते कारण (कर्ता) अने वीतरागी परिणाम एनुं कार्य एम पण नथी. आम होवाथी व्यवहार कारण अने निश्चय एनुं कार्य एम छे नहि. व्यवहार नथी एम नहि, व्यवहार छे खरो पण व्यवहार व्यवहारना स्थानमां छे, ते निश्चयने उत्पन्न करे छे एम नथी. समजाणुं कांई...? मार्ग तो आ छे बापा!

* कळश १३१ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अनादि काळथी मांडीने ज्यां सुधी जीवने भेदविज्ञान नथी त्यांसुधी ते कर्मथी बंधाया ज करे छे-संसारमां रझळ्‌या ज करे छे.’

जुओ, अहीं एम नथी कह्युं के व्यवहारनुं आचरण नथी माटे जीव अनंतकाळथी संसारमां रझळे छे. अरे भाई! व्यवहारनुं आचरण करीने तो तुं अनंतवार द्रव्यलिंगी थई नवमी ग्रैवेयक गयो; पण एथी शुं? जन्म-मरण तो मटयां नहि; केमके भेदविज्ञान नहोतुं कर्युं.

हवे कहे छे-‘जे जीवने भेदविज्ञान थाय छे ते कर्मथी छूटे ज छे-मोक्ष पामे ज छे.’ अहाहा...! रागथी भिन्न स्वाश्रये जेने चैतन्यनुं भान थाय छे ते अवश्य कर्मथी छूटी मोक्ष पामे छे. ए ज विशेष खुलासो करे छे-

‘माटे कर्मबंधनुं-संसारनुं मूळ भेदविज्ञाननो अभाव ज छे अने मोक्षनुं प्रथम कारण भेदविज्ञान ज छे. भेदविज्ञान विना कोई सिद्धि पामी शकतुं नथी.’ बीजी रीते कहीए तो स्वाश्रय (स्वरूपना आश्रय) विना मुक्ति थती नथी अने मुक्ति थाय त्यारे स्व-आश्रयथी ज थाय छे. स्व-आश्रय ज मुक्तिनुं प्रथम सोपान छे अने स्व-आश्रयथी ज मुक्ति छे.

अहा! आस्रवनुं यथार्थ ज्ञान पण कोने थाय? शुद्ध चैतन्यघन एवा निज स्वरूपना आश्रये जे आत्मज्ञान थाय छे ते ज्ञानमां आस्रव भिन्न छे एम यथार्थ जणाय छे. तेथी जेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान थयुं छे तेने आस्रवनुं यथार्थ ज्ञान थाय छे. शुद्ध ज्ञायकना आश्रये भगवान ज्ञायकनुं अस्तिपणे ज्ञान थतां आस्रव मारो नथी एम नास्तिपणे आस्रवनुं ज्ञान स्थापित थई जाय छे, कारण के आत्मानो एवो ज स्वपरप्रकाशक स्वभाव छे.

जे जीवने भेदविज्ञान थाय छे ते कर्मथी छूटे ज छे एम जे कह्युं एमां समयसार गाथा ११ मां व्यवहार अभूतार्थ छे अने भूतार्थना आश्रये सम्यग्दर्शन थाय छे-ए वात आवी गई.


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हवे बीजी वातः के भूतार्थ त्रिकाळीना आश्रये सम्यग्दर्शन थयुं एने व्यवहारनयनो विषय छे के नहि? के पछी एकलो निश्चयनो विषय छे?

आनो गाथा १२ मां खुलासो कर्यो के-तेने अपूर्णज्ञान, अशुद्धता, प्रगट थयेली शुद्धता ए बधो व्यवहारनयनो विषय छे; पण ते, ते ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे (आचरेलो नहि). प्रयोजन बस ते काळे जाणवानुं छे अर्थात् व्यवहारनुं ते ते काळे तेने ज्ञान थाय छे. पहेला समय करतां बीजा समये स्थिरता वधी ने अस्थिरता घटी, शुद्धता वधी ने अशुद्धता घटी-तेनुं ज्ञान ते समये थाय छे. हवे ते ज्ञान जाणे छे कई रीते? तो कहे छे के ते काळे ज्ञाननी एवा ज प्रकारे स्वयं स्व-परने प्रकाशती पर्याय उत्पन्न थाय छे. तेमां स्वने जाणतां परनुं ज्ञान सहज ज थई जाय छे. परने जाणवुं एम कहेवुं ए पण खरेखर व्यवहार छे. परने जाणनारुं ज्ञान पोतानी स्वपरप्रकाशक शक्तिथी पोताथी ज थाय छे; राग छे माटे तेनुं ज्ञान थाय छे एम नथी. स्वनुं ज्ञान थतां व्यवहारना पडखानुं पण यथार्थ ज्ञान थई जाय छे. तेथी व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे एम कह्युं छे. समजाणुं कांई...?

अहीं आ कहे छे के-जे व्रत, तप, भक्ति इत्यादि रागना परिणामथी भेदज्ञान करे छे ते कर्मथी अवश्य छूटे ज छे. भाई! भगवान आत्मा सदा अबद्धस्वरूप-मुक्तस्वरूप छे. एवा अबंधस्वरूपना आश्रये अबंध परिणाम थाय अने बंधभावना आश्रये तो बंध ज थाय. बापु! मार्ग तो आवो छे; तेने अंतरमां बेसाडवो जोईए. तुं गमे तेम मानी ले अने साचो पुरुषार्थ थाय एम कदीय बने नहि. समयसार गाथा १प मां कह्युं ने के-जे कोई आत्माने अबद्धस्पृष्ट, भेद आदि रहित जाणे छे ते जिनशासन छे, ते शुद्ध उपयोग जिनशासन छे; शुभ उपयोग कांई जिनशासन नथी. शुभ उपयोगमां तो पर तरफनुं वलण छे अने एमां आत्मा जणातो नथी तो एनाथी आत्मानुभव केम थाय? मुक्ति केम थाय? (न ज थाय). हवे कहे छे-

‘अहीं आम पण जाणवुं के-विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धो अने वेदांतीओ के जेओ वस्तुने अद्वैत कहे छे अने अद्वैतना अनुभवथी ज सिद्धि कहे छे तेमनो, भेदविज्ञानथी ज सिद्धि कहेवाथी, निषेध थयो.’

जुओ, विज्ञान-अद्वैतवादी बौद्धो-जगत बस विज्ञान-अद्वैत-एकलुं विज्ञानस्वरूप छे अने एना अनुभवने मुक्ति कहे छे. तथा वेदान्तीओ बधुं एक ज आत्मा छे एम माने छे. तेओने भेदविज्ञान थाय ज नहि केमके एकमां भेदविज्ञान केवुं? बे भिन्न चीजमां तो भेदविज्ञान होय. परमांथी खसी स्वमां आववुं एनुं नाम भेदविज्ञान छे. जेओ अद्वैत कहे छे अने अद्वैतना अनुभवथी सिद्धि कहे छे तेमना मतमां भेदविज्ञान नथी अने तेथी सिद्धि पण नथी.


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‘तुं मुक्त था’ एम कह्युं तो वर्तमानमां दुःख छे के नहि? छे एनाथी मुक्त थवुं छे के नथी एनाथी मुक्त थवुं छे? एटले वर्तमानमां दुःख छे अने आत्मा आनंदस्वरूप छे एम बे चीज सिद्ध थई गई-स्वरूपने समज्यो नथी माटे दुःख छे; एनो अर्थ ज ए थयो के बीजी चीज छे जेना लक्षे एने दुःख थाय छे.

दोरडी होय एमां सर्पनो आभास थाय छे. त्यां पण बेपणानुं ज्ञान सिद्ध थाय छे. सर्प एना लक्षमां छे एनो दोरडीमां आरोप थयो. हवे कहे छे-

‘कारण के सर्वथा अद्वैत वस्तुनुं स्वरूप नहि होवा छतां जेओ सर्वथा अद्वैत माने छे तेमने भेदविज्ञान कोई रीते कही शकातुं ज नथी. ज्यां द्वैत ज-बे वस्तुओ ज मानता नथी त्यां भेदविज्ञान शानुं? जो जीव अने अजीव बे वस्तुओ मानवामां आवे अने तेमनो संयोग मानवामां आवे तो ज भेदविज्ञान बनी शके अने सिद्धि थई शके.’

अरे भाई! जो भूल ज न होय तो आत्मा रखडे केम? भूल न होय तो भूल टाळवानो उपदेश पण शा माटे? दुःखथी मुक्त थाओ-एवा उपदेशनो अर्थ ज ए थयो के दुःख छे अने ते टळी सुख प्रगट थाय छे. भेद छे एने टाळवानी वात करे छे एमां ज भेदरूप मलिनता छे अने स्वभाव पवित्र छे एम सिद्ध थाय छे. आ प्रमाणे द्रव्य अने पर्याय बन्ने सिद्ध थई जाय छे.

ज्यां बे चीज ज माने नहि त्यां भेदज्ञान कोनाथी करे? जीव-अजीव एम बे चीज माने त्यां भेदज्ञान थई शके. बीजी चीज छे अने तेना लक्षे थतो उपाधिभाव छे एम माने तो उपाधिभावरहित थई संवर प्रगट करी शके. माटे स्याद्वादीओने ज बधुंय निर्बाधपणे सिद्ध थाय छे.

संसार अने मोक्ष ए पण बे दशाओ छे. संसारदशा न होय तो मोक्षदशा कयांथी आवी? मोक्षदशा संसारदशानो अभाव थईने थाय छे. जुओ, आमां पण संसार-मोक्ष एम बे सिद्ध थयां.

अहा! संसारमां आ पैसावाळा शेठिया पण बधा दुःखी ज छे. लोको दुनियामां एमने सुखी अने डाह्या कहे पण अहीं कहे छे-रागथी जे भेद करे छे ते भेदज्ञानीओ ज मात्र सुखी अने डाह्या छे. अरे! मोटा भागना जीवोनो तो घणो काळ बायडी-छोकरांनी आळपंपाळमां अने धंधा-वेपारनी प्रवृत्तिना अशुभभावमां-पापभावमां ज चाल्यो जाय छे. सत् सांभळवानो, समजवानो जे भाव छे ते बधो शुभभाव छे. आवा शुभभावनी प्रवृत्तिनो जेमने समय मळतो नथी अने एकांते पापमां राचे छे तेमने पुण्य-पापथी रहित पोतानुं स्वरूप छे एम समजवुं महामुश्केल छे. अरे! भेदज्ञानना अभावे तेओ बिचारा कयां रखडशे? भेदज्ञान ज मुक्तिनुं पहेलुं पगथियुं छे.


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हवे, संवर अधिकार पूर्ण करतां, संवर थवाथी जे ज्ञान थयुं ते ज्ञानना महिमानुं काव्य कहे छेः-

* कळश १३२ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘भेदज्ञान–उच्छलन–कलनात्’ भेदज्ञान प्रगट करवाना अभ्यासथी ‘शुद्ध तत्त्व– उपलम्भात्’ शुद्ध तत्त्वनी उपलब्धि थई, शुद्ध तत्त्वनी उपलब्धिथी...

जुओ, शुं कह्युं? जेने धर्म प्रगट करवो छे, जेने संवर प्रगट करवो छे वा मोक्षमार्ग प्रगट करवो छे तेने भेदज्ञान प्रगट करवानो अभ्यास करवो ज इष्ट छे केमके भेदज्ञान प्रगटवाथी ज शुद्ध तत्त्वनी प्राप्ति-अनुभव थाय छे. रागथी हुं भिन्न छुं एवा अभ्यास वडे पोताने-आत्माने रागथी अने निमित्तथी भिन्न पाडे त्यारे तेने भेदज्ञाननुं ‘उच्छलन’ प्रगटवुं थाय छे अने त्यारे तेने आत्मानी उपलब्धिरूप-अनुभवरूप संवर थाय छे. शुं रागथी संवर थाय? रागथी संवर न थाय; देव-गुरु-शास्त्रनी भक्ति आदिना रागथी संवर न थाय केमके राग तो आस्रव तत्त्व छे. जो रागथी संवर थाय एम कोई माने तो ते आस्रव अने संवरने एक माने छे; पण एनी मान्यता तो मिथ्यात्व छे.

अहीं तो आ एक ज सिद्धांत छे के-निर्मळानंदनो नाथ सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु आत्मा, क्षेत्रथी असंख्य प्रदेशी अने भावथी अनंत अनंत ज्ञान, सुख, वीर्य, आनंद आदिथी अभिन्न एवा तेने निमित्त अने रागथी भिन्न पाडतां अर्थात् निमित्त अने रागनुं लक्ष छोडी देतां भेदज्ञान प्रगटवाथी संवर प्रगट थाय छे. निमित्त अने व्यवहारना रागनो अंतरमां भेद करवाथी संवर प्रगट थाय छे.

तो शुं निमित्त अने व्यवहाररत्नत्रय नथी होतां?

एम कोण कहे छे? निमित्त अने व्यवहाररत्नत्रय हो, पण एनाथी जुदा पडवानी प्रक्रियाथी-भेदनी प्रक्रियाथी संवर प्रगट थाय छे एम वात छे. निमित्त अने व्यवहाररत्नत्रय पोतपोतामां अस्तिपणे सत्य छे पण एनाथी धर्म थाय-संवर थाय एवी मान्यता असत्य छे. समजाणुं कांई...? भाई! अहीं तो आ कहे छे के-व्यवहारना रागथी पण भेद पाडवानो अभ्यास करीने भेदविज्ञान प्रगट करवुं ए धर्मनी पहेलामां पहेली दशा छे. मिथ्याद्रष्टिने अनादिथी राग प्राप्त थतो हतो ते हवे भेदज्ञानना अभ्यास वडे शुद्ध आत्माने प्राप्त थयो एम कहे छे.

आ संवर अधिकारनो छेल्लो कळश छे ने? एटले एमां सार-सार वात कहे छे; कहे छे के-शरीर, मन, वाणी, देव, गुरु, शास्त्र इत्यादि तो बधुं परद्रव्य छे. ए हो भले, पण आत्मा- चैतन्यमहाप्रभु ए सर्वथी भिन्न छे. वळी दया, दान, भक्ति आदिना जे भाव छे ते राग छे. ए हो भले, पण एनाथी पण सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मा भिन्न छे. आ प्रमाणे जेम छे तेम परथी-निमित्तथी अने रागथी


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भेद करीने अंदर स्वमां एकाग्र थवुं ते भेदज्ञान छे अने ए भेदज्ञाननी प्रगटता वडे संवर- धर्म प्रगट थाय छे; आवी वात छे. ल्यो, आमां निमित्तथी अने व्यवहारथी (धर्म) थाय छे ए वात साव उडी गई.

लोको ज्यां-त्यांथी व्यवहारने गोते छे. हमणां ज एक सामायिकमां आव्युं हतुं के अकाळे मृत्यु थाय एम न माने ते जूठा छे भाई! ‘अकाळ मृत्यु’ ए तो निमित्तनुं कथन छे. ए तो अकस्मात आदिथी मरनार जीवने कर्मनां रजकणो ज एवा बंधायां छे जेनी योग्यता एक ज समयमां खरवानी होय छे. खरेखर तो (निश्चयथी तो) देह ज्यारे छूटवानो होय ते समये ज छूटे छे, अकाळे एटले बीजा काळे छूटे छे एम नहि. ‘अकाळ मृत्यु’ कह्युं एमां तो काळनी मुख्यता न करतां अकस्मात् आदि (अकाळ-काळ नहि एवा) अन्य निमित्तनी मुख्यता करीने कथन कर्युं छे. भाई! आ तो व्यवहारनुं (उपचारनुं) कथन छे तेम यथार्थ समजवुं जोईए.

वळी बीजा कोई एम कहे छे के-उपादाननुं कार्य उपादानमां ज थाय पण निमित्त विना न थाय. तेमनी आ वात यथार्थ नथी. कार्य उपादानथी थाय अने निमित्तथी न थाय एम वात यथार्थ छे. निमित्तनी अपेक्षाए निमित्त सत्य छे पण उपादानमां ए कांई (विलक्षणता) करे छे एम मानवुं असत्य छे. निमित्तना कारणे उपादानमां कांई पण थाय वा उपादानमां कार्य थवामां निमित्तनी अपेक्षा रहे छे एवी मान्यता वस्तुस्वरूपथी विपरीत होवाथी अयथार्थ छे.

हवे कहे छे-शुद्धतत्त्वनी उपलब्धिथी ‘रागग्राम–प्रलयकरणात्’ रागना समूहनो विलय थयो; मतलब के आत्मा प्रति ढळतां विकल्पनी उत्पत्ति न थई तो रागनो विलय-नाश थयो एम कहेवामां आव्युं छे. रागना समूहनो विलय करवाथी ‘कर्मणां संवरेण’ कर्मनो संवर थयो अने कर्मनो संवर थवाथी ‘ज्ञाने नियतम् एतद् ज्ञानं उदितं’ ज्ञानमां ज निश्चळ थयेलुं एवुं आ ज्ञान उदय पाम्युं.

शुं कह्युं आ? ज्ञानस्वभावी जे आत्मवस्तु छे एमां वर्तमान ज्ञानपरिणति वडे स्थिर थतां ज्ञानमां ज निश्चळ थयेलुं ज्ञान उदय पाम्युं एटले के शुद्धता प्रगट थई. रागमां एकाग्र हतो त्यारे अशुद्धता प्रगट थती हती ते हवे रागथी भिन्न पडी ज्ञान ज्ञानमां स्थिर थतां शुद्धता प्रगट थई. ल्यो, आ संवर अने धर्म छे.

हवे, आत्मामां निश्चळ थई उदय पामेलुं ते ज्ञान केवुं छे? तो कहे छे-‘बिभ्रत् परमम् तोषम्’ ते ज्ञान परम संतोषने अर्थात् परम अतीन्द्रिय आनंदने धारण करे छे. ज्ञाननी लक्ष्मी प्रगट थतां साथे अतीन्द्रिय आनंद प्रगट थयो एम कहे छे. अहाहा...! ज्ञानानंदस्वरूप आत्मामां एकाग्र थतां प्रगट थयेलुं ज्ञान अतीन्द्रिय आनंदने धारण करे छे. रागथी भिन्न थयो एटले दुःखथी भिन्न थयो अने त्यारे पर्यायमां आनंद-सुख उछळे छे.


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हवे आवी वात कदी सांभळी न होय एटले लोको आ तो एकली निश्चयनी वातो छे एम कही एनी उपेक्षा करे छे. पण भाई! निश्चय एटले ज सत्य. त्रिकाळ सत्यस्वरूप एवा निश्चय ध्रुव आत्मानुं ज शरण लेवा जेवुं छे. व्यवहार हो भले, व्यवहार पोताना स्थाने सत्यार्थ छे, परंतु ते शरण लेवा जेवो नथी. तेवी ज रीते निमित्त पण छे, परंतु एनुं शरण नथी वा ते शरणभूत नथी.

वळी केवुं छे ते ज्ञान? ‘अमल–आलोकम्’ के जेनो प्रकाश निर्मळ छे, जेमां रागना मेलनो भाग नथी, जेमां रागनी भेळ नथी. रागथी भिन्न पडेला ज्ञाननो प्रकाश रागरहित निर्मळ छे.

भाई! ज्ञान ज्ञानमां-आत्मामां स्थित थाय ए ज करवा जेवुं छे. केवी रीते? तो कहे छे के-‘‘परथी खस, स्वमां वस, टुंकुं टच, एटलुं बस.’’ छहढालामां पण एम ज कह्युं छे के-

‘‘लाख बातकी बात यही, निश्चय उर आनो;
तोरि सकल जग-दंद-फंद, निज आतम ध्यावो.’’

जन्म-मरणथी रहित थवानो आ ज उपाय छे, बाकी तो बधां थोथेथोथां छे. परमात्मप्रकाशमां आवे छे के-जे रागने उपादेय माने छे ते पोताना शुद्धात्माने हेय माननारो मिथ्याद्रष्टि छे अने जे शुद्ध आत्मस्वभावने उपादेय माने छे तेने राग हेय छे.

अरे जीव! कोई पुण्यना योगे आवुं मनुष्यपणुं मळ्‌युं, तेमां वळी धर्म समजवानां टाणां मळ्‌यां; हवे आवा टाणे पण आ नहि समजे तो चोरासीना अवतारमां झोलां खाईने कयांय निगोदमां चाल्यो जईश. दुनिया भले आ चीज माने के न माने, मानीने प्रशंसा करे वा न मानीने निंदा करे; तारे एनी साथे शुं काम छे?

कोई तो वळी मने घणा शिष्यो अने घणा माननारा छे तथा में घणां पुस्तको छपावी धर्म प्रचार कर्यो-इत्यादि मानी बहु संतुष्ट थाय छे, हरखाय छे. तेने कहीए छीए-भाई! ए शिष्यो अने पुस्तको कयां तारां छे? ए तो बधां भिन्न परद्रव्य छे. शिष्यो अने पुस्तको आदि परथी गौरव करे पण परथी गौरव करवुं ए तो चैतन्यने लज्जास्पद छे, कलंक छे. जो परथी भिन्न पडी स्वनो आश्रय करी आनंदमां न आव्यो तो ए बधी उपाधि तने दुःखनुं ज कारण छे. आत्मामां ठरेलुं ज्ञान ज सुखनुं-आनंदनुं कारण छे.

हवे आगळ कहे छे-वळी ते ज्ञान ‘अम्लानम्’ अम्लान छे, क्षायोपशमिक ज्ञाननी माफक करमायेलुं-निर्बळ नथी. छेल्ली वात लीधी छे ने? केवळज्ञान निर्बळ नथी पण सर्व लोकालोकने जाणनारुं छे.

वळी ते ‘एकम्’ एक छे एटले के क्षयोपशममां जे भेद हता ते क्षायिक


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ज्ञानमां भेद नथी. तथा ते ‘शाश्वत–उद्योतम्’ जेनो उद्योत शाश्वत छे तेवुं छे. केवळज्ञान जे प्रगटयुं तेनो उद्योत शाश्वत-अविनश्वर छे.

जुओ, आ संवरनो क्रम! परना भेद-अभ्यासथी आत्मानी प्राप्ति थई ते प्रथम संवर थयो अने आत्मलीनता क्रमे वधारी परिपूर्ण लीनता थतां पूर्ण शुद्धता सहित केवळज्ञान प्रगट थयुं, चैतन्यज्योतिनो शाश्वत एकरूप उद्योत रहे तेवुं ज्ञान प्रगट थयुं.

आ रीते संवर बहार नीकळी गयो.

* कळश १३२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘रंगभूमिमां संवरनो स्वांग आव्यो हतो तेने ज्ञाने जाणी लीधो तेथी ते नृत्य करी बहार नीकळी गयो. ल्यो, संवरनो भेख आव्यो ते मोक्ष थतां बहार नीकळी गयो.

‘‘भेदविज्ञानकला प्रगटै तब शुद्धस्वभाव लहै अपनाही,
राग-द्वेष-विमोह सबही गलि जाय इमै दुठ कर्म रुकाही;
उज्ज्वल ज्ञान प्रकाश करै बहु तोष धरै परमातममांही,
यों मुनिराज भली विधि धारत केवल पाय सुखी शिव जाहीं.’’

आ काव्यमां पंडित श्री जयचंदजीए आखो संवर अधिकार संक्षेपमां कही दीधो. चोथे गुणस्थाने समकितीने भेदज्ञानकला प्रगटे छे. परथी भिन्न पडतां पवित्र स्वभावनी प्राप्ति थाय छे, राग-द्वेष अने मिथ्यात्व नाश पामी जाय छे अने तेथी दुष्ट कर्म रोकाई जाय छे. त्यां उज्ज्वल ज्ञानप्रकाश थतां परमात्मामां (आत्मामां) प्रचुर अतीन्द्रिय आनंद प्रगटे छे. मुनिराज आ रीते भेदविज्ञाननी भावना वडे अतीन्द्रिय आनंदने धारण करी क्रमे केवलज्ञान उपजावी परम सुखमय मोक्षने पामे छे.

आ प्रमाणे श्री कुंदकुंदाचार्यदेव रचित समयसार शास्त्र उपर परम कृपाळु सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीना प्रवचननो पांचमो संवर अधिकार समाप्त थयो.

[प्रवचन नं. २प९ थी २६३ * दिनांक १२-१२-७६ थी १६-१२-७६]


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प्रवचन रत्नाकर
[भाग–७]
परम पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामीनां
श्री समयसार परमागम उपर अढारमी वखत थयेलां प्रवचनो
ः प्रकाशकः
श्री कुंदकुंद–कहान परमागम प्रवचन ट्रस्ट
१७३-१७प मुंबादेवी रोड, मुंबई ४०० ००२
ः निर्देशकः

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क्रम गाथा/कळशप्रवचन नंबरपृष्ठांक
१ कळश-१३३२६३-२६४
२ गाथा-१९३
३ गाथा-१९४१९
४ कळश-१३४२६४-२६प२०
प गाथा-१९प२६प-२६६३२
६ गाथा-१९६२६६-२६७३८
७ कळश-१३प३८
८ गाथा-१९७२६७-२६८४६
९ कळश-१३६४७
१० गाथा-१९८२६८६०
११ गाथा-१९९२६८-२६९६४
१२ गाथा-२००२७० थी २७२७७
१३ कळश-१३७७८
१४ गाथा २०१-२०२२७२ थी २७प१०८
१प कळश-१३८१०९
१६ गाथा-२०३२७प थी २७७१४२
१७ कळश १३९-१४०१४३
१८ गाथा-२०४२७८ थी २८०१६९
१९ कळश-१४११७०
२० कळश-१४२१७१
२१ गाथा-२०प२८१२०प
२२ कळश-१४३२०प
२३ गाथा-२०६२८१-२८२२१४
२४ कळश-१४४२१प
२प गाथा-२०७२८३२३१
२६ गाथा-२०८२८४२३९
२७ गाथा-२०९२८४२प०
२८ कळश-१४प२प०
२९ गाथा-२१०२८४२६२
३० गाथा-२११२८प-२८६२६प
३१ गाथा-२१२२८६२८२

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क्रम गाथा/कळशप्रवचन नंबरपृष्ठांक
३२ गाथा-२१३२८६२८९
३३ गाथा-२१४२९३
३४ कळश-१४६२९४
३प गाथा-२१प३०६
३६ गाथा-२१६२८९-२९०३१९
३७ कळश-१४७३२०
३८ गाथा-२१७२९१ थी २९३३४४
३९ कळश-१४८-१४९३४प
४० गाथा-२१८-२१९२९३ (१९ मी वारना)३७४
४१ कळश-१प०३७प
४२ गाथा २२० थी २२३२९४ थी २९७३९२
४३ कळश १प१-१प२३९४
४४ गाथा-२२४-२२७२९७-२९८४१७
४प कळश-१प३४१९
४६ कळश-१प४४२०
४७ गाथा-२२८२९८ थी ३०२४३८
४८ कळश-१पप४३८
४९ कळश-१प६४३९
प० कळश-१प७-१प८४४०
प१ कळश-१प९४४१
प२ कळश-१६०४४२
प३ कळश-१६१४४३
प४ गाथा-२२९३०२४७९
पप गाथा-२३०३०३४८७
प६ गाथा-२३१३०४४९८
प७ गाथा-२३२३०४प०३
प८ गाथा-२३३३०पप१०
प९ गाथा-२३४३०पप१९
६० गाथा-२३प३०६प२२
६१ गाथा-२३६३०६ थी ३०८प२८
६२ कळश-१६२प२९

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(हरिगीत)

संसारसागर तारवा जिनवाणी छे नौका भली, ज्ञानी सुकानी मळ्‌या विना ए नाव पण तारे नहीं; आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो, मुज पुण्यराशि फळ्‌यो अहो! गुरु क्हान तुं नाविक मळ्‌यो.

(अनुष्टुप)
अहो! भक्त चिदात्माना, सीमंधर-वीर-कुंदना!
बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां.
(शिखरिणी)

सदा द्रष्टि तारी विमळ निज चैतन्य नीरखे, अने ज्ञप्तिमांही दरव-गुण-पर्याय विलसे; निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे, निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.

(शार्दूलविक्रीडित)

हैयुं ‘सत सत, ज्ञान ज्ञान’ धबके ने वज्रवाणी छूटे, जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके; परद्रव्य नातो तूटे; -रागद्वेष रुचे न, जंप न वळे भावेंद्रिमां-अंशमां, टंकोत्कीर्ण अकंप ज्ञान महिमा हृदये रहे सर्वदा.

(वसंततिलका)
नित्ये सुधाझरण चंद्र! तने नमुं हुं,
करुणा अकारण समुद्र! तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेघ! तने नमुं हुं,
आ दासना जीवनशिल्पी! तने नमुं हुं.
(स्रग्धरा)
ऊंडी ऊंडी, ऊंडेथी सुखनिधि सतना वायु नित्ये वहंती,
वाणी चिन्मूर्ति! तारी उर-अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;
भावो ऊंडा विचारी, अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी,
खोयेलुं रत्न पामुं, -मनरथ मननो; पूरजो शक्तिशाळी!

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आवी आवी रे, महासुदी अगीयारस,

मारा मंदिरजीनी वरसगांठ रेः
भावी जिनेश्वर जेतपुरने आंगणे पधार्या.

दूर दूर देशथी गुरुदेव पधार्या,

पधार्या छे जेतपुर मोझार,... भावीजिनेश्वर...

वाटुं जोता ता नाथ तमाहरी,

कयारे पधारसे लाखोना तारणहार रे.. भावी....

कंई विधीए वंदु नाथ आपने,

कई विधीए करूरे सन्मानरे... भावी....

कई विधीए पुजु नाथ आपने,

कई विधीए करूं हुं प्रणामरे, भावी....

मोतीचंदभाईना तो चंद छो,

उजमबाना लाडकवाया कहानरे, भावी....

अनंत संसार मा रे आथडया,

कयांय न मळ्‌या आवा भगवंतरे, भावी....

अगीयार बार गाथा समजावता,

अम उपर कर्यो बेडो पार रे, भावी....

शुभ अशुभमां रे रमतां,

तेमां करावी शुद्धात्मानी ओळखाणरे, भावी....

सत्यने मार्गे चडावीया,

केम करीने भुलीये उपकाररे, भावी....

हवे साथ न छोडीये रे आपनो,

सांभळो मारा विदेहीनाथ ना बाळ रे, भावी....

शासन नो सीर ताज छो,

वंदीए अमे वारं वार देव, भावी....

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(हरिगीत)

संसारी जीवनां भावमरणो टाळवा करुणा करी, सरिता वहावी सुधा तणी प्रभु वीर! तें संजीवनी; शोषाती देखी सरितने करुणाभीना हृदये करी, मुनिकुंद संजीवनी समयप्राभृत तणे भाजन भरी.

(अनुष्टुप)

कुंदकुंद रच्युं शास्त्र, साथिया अमृते पूर्या, ग्रंथाधिराज! तारामां भावो ब्रह्मांडना भर्या.

(शिखरिणी)

अहो! वाणी तारी प्रशमरस-भावे नीतरती,

मुमुक्षुने पाती अमृतरस अंजलि भरी भरी; अनादिनी मूर्छा विष तणी त्वराथी ऊतरती, विभावेथी थंभी स्वरूप भणी दोडे परिणति.

(शार्दूलविक्रिडित)

तुं छे निश्चयग्रंथ भंग सघळा व्यवहारना भेदवा, तुं प्रज्ञाछीणी ज्ञान ने उदयनी संधि सहु छेदवा; साथी साधकनो, तुं भानु जगनो, संदेश महावीरनो, विसामो भवक्लांतना हृदयनो, तुं पंथ मुक्ति तणो.

(वसंततिलका)
सुण्ये तने रसनिबंध शिथिल थाय,
जाण्ये तने हृदय ज्ञानी तणां जणाय;
तुं रुचतां जगतनी रुचि आळसे सौ,
तुं रीझतां सकलज्ञायकदेव रीझे.
(अनुष्टुप)
बनावुं पत्र कुंदननां, रत्नोना अक्षरो लखी;
तथापि कुंदसूत्रोनां अंकाये मूल्य ना कदी.

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परमात्मने नमः।
श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत
श्री
समयसार
उपर

परम पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीनां प्रवचनो

श्रीमदमृतचन्द्रसूरिकृता आत्मख्यातिः।
निर्जरा अधिकार
अथ प्रविशति निर्जरा।
(शार्दूलविक्रीडित)
रागाद्यास्रवरोधतो निजधुरां धृत्वा परः संवरः
कर्मागामि समस्तमेव भरतो दूरान्निरुन्धन् स्थितः।
प्राग्बद्धं तु तदेव दग्धुमधुना व्याजृम्भते निर्जरा
ज्ञानज्योतिरपावृतं न हि यतो रागादिभिर्मूर्छति।। १३३।।
रागादिकना रोधथी, नवो बंध हणी संत;
पूर्व उदयमां सम रहे, नमुं निर्जरावंत.

प्रथम टीकाकार आचार्यमहाराज कहे छे के “हवे निर्जरा प्रवेश करे छे”. अहीं

तत्त्वोनुं नृत्य छे; तेथी जेम नृत्यना अखाडामां नृत्य करनार स्वांग धारण करीने प्रवेश
करे छे तेम अहीं रंगभूमिमां निर्जरानो स्वांग प्रवेश करे छे.

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उवभोगमिंदियेहिं दव्वाणमचेदणाणमिदराणं।
जं
कुणदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं।। १९३।।
उपभोगमिन्द्रियैः द्रव्याणामचेतनानामितरेषाम्।
यत्करोति सम्यग्द्रष्टिः तत्सर्व निर्जरानिमित्तम्।। १९३।।

हवे, सर्व स्वांगने यथार्थ जाणनारुं जे सम्यग्ज्ञान छे तेने मंगळरूप जाणीने आचार्यदेव मंगळ अर्थे प्रथम तेने ज-निर्मळ ज्ञानज्योतिने ज-प्रगट करे छेः-

श्लोकार्थः– [परः संवरः] परम संवर, [रागादि–आस्रव–रोधतः] रागादि आस्रवोने रोकवाथी [निज–धुरां धृत्वा] पोतानी कार्य-धुराने धारण करीने (-पोताना कार्यने बराबर संभाळीने), [समस्तम् आगामि कर्म] समस्त आगामी कर्मने [भरतः दूरात् एव] अत्यंतपणे दूरथी ज [निरुन्धन् स्थितः] रोकतो ऊभो छे; [तु] अने [प्राग्बद्धं] जे पूर्वे (संवर थया पहेलां) बंधायेलुं कर्म छे [तत् एव दग्धुम्] तेने बाळवाने [अधुना] हवे [निर्जरा व्याजृम्भते] निर्जरा (-निर्जरारूपी अग्नि-) फेलाय छे [यतः] के जेथी [ज्ञानज्योतिः] ज्ञानज्योति [अपावृतं] निरावरण थई थकी (फरीने) [रागादिभिः न हि मूर्छति] रागादिभावो वडे मूर्छित थती नथी-सदा अमूर्छित रहे छे.

भावार्थः–संवर थया पछी नवां कर्म तो बंधाता नथी. जे पूर्वे बंधायां हतां ते कर्मो ज्यारे निर्जरे छे त्यारे ज्ञाननुं आवरण दूर थवाथी ज्ञान एवुं थाय छे के फरीने रागादिरूपे परिणमतुं नथी-सदा प्रकाशरूप ज रहे छे. १३३.

हवे द्रव्यनिर्जरानुं स्वरूप कहे छेः-

चेतन अचेतन द्रव्यनो उपभोग इंद्रियो वडे;
जे जे करे सुद्रष्टि ते सौ निर्जराकारण बने.
१९३.

गाथार्थः– [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि जीव [यत्] जे [इन्द्रियैः] इंद्रियो वडे [अचेतनानाम्] अचेतन तथा [इतरेषाम्] चेतन [द्रव्याणाम्] द्रव्योनो [उपभोगम्] उपभोग [करोति] करे छे [तत् सर्व] ते सर्व [निर्जरानिमित्तम्] निर्जरानुं निमित्त छे.

टीकाः– विरागीनो उपभोग निर्जरा माटे ज छे (अर्थात् निर्जरानुं कारण थाय छे). रागादिभावोना सद्भावथी मिथ्याद्रष्टिने अचेतन तथा चेतन द्रव्योनो उपभोग बंधनुं निमित्त ज थाय छे; ते ज (उपभोग), रागादिभावोना अभावथी सम्यग्द्रष्टिने निर्जरानुं निमित्त ज थाय छे; आथी (आ कथनथी) द्रव्यनिर्जरानुं स्वरूप कह्युं.

भावार्थः– सम्यग्द्रष्टिने ज्ञानी कह्यो छे अने ज्ञानीने रागद्वेषमोहनो अभाव कह्यो छे; माटे सम्यग्द्रष्टि विरागी छे. तेने इंद्रियो वडे भोग होय तोपण तेने भोगनी


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सामग्री प्रत्ये राग नथी. ते जाणे छे के “आ (भोगनी सामग्री) परद्रव्य छे, मारे अने तेने कांइ नातो नथी; कर्मना उदयना निमित्तथी तेनो अने मारो संयोग-वियोग छे”. ज्यां सुधी तेने चारित्रमोहनो उदय आवीने पीडा करे छे अने पोते बळहीन होवाथी पीडा सही शकतो नथी त्यां सुधी-जेम रोगी रोगनी पीडा सही शके नहि त्यारे तेनो औषधि आदि वडे इलाज करे छे तेम-भोगोपभोगसामग्री वडे विषयरूप इलाज करे छे; परंतु जेम रोगी रोगने के औषधिने भली जाणतो नथी तेम सम्यग्द्रष्टि चारित्रमोहना उदयने के भोगोपभोगसामग्रीने भली जाणतो नथी. वळी निश्चयथी तो, ज्ञातापणाने लीधे सम्यग्द्रष्टि विरागी उदयमां आवेला कर्मने मात्र जाणी ज ले छे, तेना प्रत्ये तेने रागद्वेषमोह नथी. आ रीते रागद्वेषमोह विना ज तेना फळने भोगवतो होवाथी तेने कर्म आस्रवतुं नथी, आस्रव विना आगामी बंध थतो नथी अने उदयमां आवेलुं कर्म तो पोतानो रस दइने खरी ज जाय छे कारण के उदयमां आव्या पछी कर्मनी सत्ता रही शके ज नहि. आ रीते तेने नवो बंध थतो नथी अने उदयमां आवेलुं कर्म निर्जरी गयुं तेथी तेने केवळ निर्जरा ज थइ. माटे सम्यग्द्रष्टि विरागीना भोगोपभोगने निर्जरानुं ज निमित्त कहेवामां आव्यो छे. पूर्व कर्म उदयमां आवीने तेनुं द्रव्य खरी गयुं ते द्रव्यनिर्जरा छे.

*
निर्जरा अधिकार

हवे निर्जरा अधिकार कहे छे. त्यां संवरपूर्वक अशुद्धतानो नाश थवो, शुद्धतानी वृद्धि थवी तथा ते काळे द्रव्यकर्मनुं स्वयं खरी जवुं-निर्जरी जवुं तेने निर्जरा कहे छे. निर्जराना त्रण प्रकारः-

१. आत्मज्ञान थतां स्वरूपमां रमणता थवा वडे जे द्रव्यकर्मनो नाश थाय छे ते द्रव्यनिर्जरा छे.

२. त्यारे जे अशुद्धतानो नाश थाय छे ते भावनिर्जरा छे; आ नास्तिथी निर्जरानुं स्वरूप छे. तथा त्यां

३. जे शुद्धतानी वृद्धि थाय छे ते अस्ति स्वरूपथी भावनिर्जरा छे. शुद्धोपयोग ते भावनिर्जरा छे.

जे कर्मनो नाश थाय छे ते स्वयं तेना कारणे थाय छे; ते कांई वास्तविक निर्जरा नथी; पर्यायमां अशुद्धतानो नाश थई शुद्धिनी वृद्धि थवी ते वास्तविक निर्जरा छे. संवर एटले आत्मामां शुद्धिनी उत्पत्ति थवी अने निर्जरा एटले शुद्धिनी वृद्धि थवी. आत्मामां शुद्धिनी उत्पत्ति थाय ते संवर, शुद्धिनी वृद्धि थाय ते निर्जरा अने शुद्धिनी पूर्णता थवी ते मोक्ष छे.


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हवे अहीं पंडित श्री जयचंदजी मंगलाचरण कहे छे-

“रागादिकना रोधथी, नवो बंध हणी संत;
पूर्व उदयमां सम रहे, नमुं निर्जरावंत.”

पुण्य-पापना भावमां रोकावाथी नवो बंध थाय छे. संत कहेतां साधु पुरुषो शुभाशुभभावनो निरोध करीने नवा बंधने हणी दे छे, अटकावे छे; अने पूर्वना उदयमां सम एटले समताभावपणे रहे छे. आनुं नाम निर्जरा छे. पंडित श्री जयचंदजी कहे छे- आवा निर्जरावंत संत पुरुषोने हुं नमस्कार करुं छुं.

हवे, ‘प्रथम टीकाकार आचार्य महाराज कहे छे के-“हवे निर्जरा प्रवेश करे छे”. अहीं तत्त्वोनुं नृत्य बताववुं छे ने? आत्मा शुद्धपणे परिणमे ते संवर तत्त्वनुं नृत्य छे अने शुद्धिनी वृद्धिपणे परिणमे ते निर्जरा तत्त्वनुं नृत्य छे. तेथी कहे छे-‘जेम नृत्यना अखाडामां नृत्य करनार स्वांग धारण करीने प्रवेश करे छे तेम अहीं रंगभूमिमां निर्जरानो स्वांग प्रवेश करे छे.’ भाई! आ जेटली पर्याय छे ते बधीय जुदा जुदा स्वांग छे; पर्याय छे ते द्रव्यनो स्वांग छे.

हवे, सर्व स्वांगने यथार्थ जाणनारुं जे सम्यग्ज्ञान छे तेने मंगळरूप जाणीने आचार्यदेव मंगळ अर्थे प्रथम तेने ज-निर्मळ ज्ञानज्योतिने ज-प्रगट करे छेः-

* कळश १३३ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘परः संवरः’ परम संवर, ‘रागादि–आस्रव–रोधतः’ रागादि आस्रवोने रोकवाथी ‘निजधुरां धृत्वा’ पोतानी कार्यधुराने धारण करीने ‘समस्तम् आगामि कर्म’ समस्त आगामी कर्मने ‘भरतः दूरात् एव’ अत्यंतपणे दूरथी ज ‘निरुन्धन् स्थितः’ रोकतो ऊभो छे.

शुं कह्युं? आत्मामां रागनो अभाव थईने वीतरागी परिणतिनुं थवुं ते परम संवर छे. भाई! आ वीतरागी मार्ग छे अने तेथी एमां आत्माना आश्रय जेटली वीतराग परिणति प्रगट थाय छे तेने संवर नाम धर्म कहे छे. आस्रवने रोकतां संवर थाय छे. कोई पंचमहाव्रतना परिणामने धर्म-संवर कहे तो ते बराबर नथी केमके ए तो आस्रवभाव छे. पुण्यना सघळा परिणाम आस्रव छे अने बधाय रागादि आस्रवोने रोकवाथी संवर थाय छे-एम कहे छे.

आवो संवर पोतानी कार्यधुराने धारण करे छे अर्थात् पोताना कार्यने (-फरजने) बराबर संभाळे छे. जेम पगारदार माणसने तेनी डयुटी (-फरज) होय छे ने? तेम संवरनी आ डयुटी (-फरज) छे के-शुद्ध चैतन्यस्वभावनी द्रष्टिपूर्वक पुण्य-पापना भावने रोकीने निर्मळ वीतराग परिणति प्रगट करवी. संवरनी आ कार्यधुरा छे अने


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संवर पोतानी कार्यधुराने बराबर संभाळे छे. कहे छे के-समस्त आगामी-भविष्यनां कर्मने अत्यंतपणे-अतिशयपणे दूरथी ज रोकतो संवर ऊभो छे. आ संवरनी मोटप छे के ते मिथ्यात्वना परिणामने अने नवां कर्मने समीप आववा देतो नथी. अहाहा...! जेमां सम्यग्दर्शन-ज्ञाननी निर्मळ वीतराग परिणति प्रगट थई ते संवर महान् छे, महिमावंत छे. कळशटीकामां एने संवरनी मोटप कही छे. आवी पोतानी मोटपने यथावत् जाळवीने नवां समस्त कर्मने रोकतो संवर ऊभो छे.

अहाहा...! शुद्ध चैतन्यमय भगवान आत्मानी द्रष्टि थतां अर्थात् रागथी भेद करीने शुद्ध चैतन्यनी जागृतदशारूप अनुभव करतां जे संवर प्रगट थयो ते पोतानी कार्यधुराने सावधाना रही संभाळतो ऊभो छे; अने तेथी हवे नवां कर्म आवतां नथी. ‘भरतः दूरात् एव निरुन्धन्’ नवां कर्मने अतिशयपणे दूरथी ज रोकतो संवर ऊभो छे. अहाहा...! संवर प्रगट थतां कर्म-आस्रव अत्यंतपणे रोकाई जाय छे. आ संवरनी मोटप कहेतां महिमा छे. लोकमां ‘आ शेठ छे’ एम महिमा कहे छे ने? तेम आ नवां कर्मने दूरथी ज अतिशयपणे रोकनार संवर छे एम कहीने संवरनो महिमा करे छे. आस्रवने (मिथ्यात्वने) न थवा दे एनुं नाम संवर छे अने ते संवर पोतानी कार्यधुराने बराबर संभाळतो ऊभो छे, प्रगट विद्यमान छे. हवे आवी वात ने आवी भाषा! बापा! मार्ग ज आ छे. रागथी भिन्न पोताना स्वरूपनुं भान नथी तेने संवर ने धर्म धर्म कयांथी थाय? रागथी भिन्न पडीने जेणे अंतरमां भेदज्ञान प्रगट कर्युं, शुद्ध स्वरूपनो आश्रय कर्यो तेने रागनो आस्रव थतो नथी. राग आस्रवे नहि (मिथ्यात्व आवे नहि) ए संवरनुं मुख्य कार्य छे.

अरे! लोको तो राग कर्मने लईने थाय छे एम माने छे. पण भाई! रागभावनुं थवुं ते आत्माना ऊंधा पुरुषार्थथी छे अने तेनुं न थवुं ते आत्माना सवळा पुरुषार्थथी छे; अने ते सवळो पुरुषार्थ कर्मथी ने रागथी भिन्न पडे त्यारे थाय छे. अरे भाई! जो राग कर्मने लईने थतो होय तो कर्म खसे त्यारे ज संवर थाय अने तो जीव रागने टाळे त्यारे संवर थाय एम वात रहे ज नहि. परंतु एम नथी; रागथी भिन्न पडी अंतःपुरुषार्थ करे त्यारे संवर प्रगट थाय छे. आ प्रमाणे आ संवरनी वात करी, हवे निर्जरानी वात ले छे.

संवरपूर्वक निर्जरा होय छे, अर्थात् जेने संवर होय तेने ज निर्जरा होय छे. माटे अज्ञानीने निर्जरा होती नथी. जेने रागना विकल्पथी भिन्न पडतां शुद्धतानी प्राप्ति थई छे तेने संवर होय छे अने तेने निर्जरा होय छे. अहीं कहे छे-

‘तु’ अने ‘प्राग्बद्धं’ जे पूर्वे बंधायेलुं कर्म छे ‘तत् एव दग्धुम्’ तेने बाळवाने ‘अधुना’ हवे ‘निर्जरा व्याजृम्भते’ निर्जरा फेलाय छे.

पूर्वे बंधायेलां जे कर्म छे तेने बाळती निर्जरा फेलाय छे. अहीं बाळवानो


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अर्थ ए छे के-पुद्गलनी जे कर्मरूप पर्याय हती ते हवे निर्जरीने अकर्मरूपे थई जाय छे. कर्मनुं अकर्मरूपे थवुं ते कर्म-पुद्गलनुं कार्य पुद्गलमां छे अने केवळज्ञानादि शुद्धता थवी ते चैतन्यनुं कार्य छे. तेथी घातीकर्म नाश थयां माटे केवळज्ञान थयुं वा केवळज्ञान कर्मनुं कार्य छे एम नथी.

जुओ, अहीं निर्जरानी व्याख्या करी छे के पूर्वे (संवर थया पहेलां) बंधायेलां कर्मोनो नाश करीने निर्जरा एटले आत्मानुं शुद्धतारूप परिणमन फेलाय छे एटले वृद्धि पामे छे. अहाहा...! चैतन्यप्रकाशनो पुंज-अनंत चैतन्यप्रकाशनो सागर प्रभु आत्मा छे. तेने, पूर्वना कर्मोनो नाश करीने अर्थात् पर्यायमां रहेली अशुद्धतानो नाश करीने पूर्ण शुद्धतानो प्रकाश-ज्ञानज्योति प्रगट थाय छे. ए ज कहे छे-

जे पूर्वे बंधायेलुं कर्म छे तेने बाळवाने हवे निर्जरा फेलाय छे ‘यतः’ के जेथी ‘ज्ञानज्योतिः’ ज्ञानज्योति ‘अपावृत्तं’ निरावरण थई थकी ‘रागादिभिः न हि मूर्छति’ रागादिभावो वडे मूर्छित थती नथी-सदा अमूर्छित रहे छे.

पहेलां (मिथ्यात्वदशामां) रागमां ते मूर्छित थई हती ते हवे (संवर-निर्जरा प्रगटतां) मूर्छित थती नथी; अरे अस्थिर पण थती नथी, अर्थात् राग-विकल्प थतो नथी एम कहे छे. राग कोने कहेवो? के आत्मामां पर तरफना वलणवाळी वृत्तिनुं उत्थान थवुं ते राग छे. हवे पर तरफना वलणवाळी वृत्ति नाश पामी जतां जे ज्ञान छे ते निश्चल थई अंदर स्वभावमां ठर्युं छे-स्थित थयुं छे. जुओ, आनुं नाम भेदविज्ञान छे, संवर छे अने संवरपूर्वक निर्जरा छे.

पुण्य ने पापना भावथी भिन्न भगवान आत्मानुं अवलंबन लेतां जे शुद्धि प्रगट थई अने जे वडे नवां कर्म आवतां रोकायां ते संवर छे. आवो संवर थया पछी नवां कर्म बंधातां नथी अने जे पूर्वे बंधायां हतां ते कर्मो निर्जरी जाय छे, खरी जाय छे. अने ज्यारे कर्म खरी जाय छे त्यारे ज्ञानज्योति निरावरण थाय छे अर्थात् ज्ञाननुं आवरण दूर थाय छे. भाषा तो व्यवहारथी एम छे के-ज्ञानस्वरूपी चैतन्य-भगवान आत्मानुं आवरण दूर थाय छे. वास्तवमां तो ज्ञान, ज्ञेयपणे (रागादिपणे) परिणमे ते ज एनुं खरुं आवरण छे. ज्ञाननुं विपरीतपणे परिणमवुं ए तेनुं भाव-आवरण छे, अने द्रव्यआवरण (जडकर्म) तो एमां निमित्तमात्र छे. ज्यारे ज्ञान ज्ञानमां स्थित थई ज्ञानभावे परिणमे छे त्यारे भावआवरण दूर थई जाय छे अने त्यारे स्वयं द्रव्य-आवरण (जडकर्म) पण दूर थई जाय छे.

‘ज्ञानज्योति निरावरण थई थकी’ अर्थात् ज्ञाननुं आवरण दूर थवाथी-एम पाठमां वांचीने-सांभळीने अज्ञानी दलील करे छे के-जुओ! आ शुं कह्युं छे अहीं?


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के पूर्वे बंधायेलां कर्मो जे हतां ते ज्यारे निर्जरे छे त्यारे ज्ञाननुं आवरण दूर थाय छे. आवुं स्पष्ट लखेलुं तो छे?

अरे भाई! ए तो निमित्तनी प्रधानताथी करेलुं कथन छे. भाषा टूंकी करवा अने निमित्तनुं ज्ञान कराववा आम बोलाय छे. खरेखर तो परिणमननी अशुद्धता (भाव- आवरण) नाश थईने शुद्धता प्रगट थई छे अने त्यारे निमित्तनी मुख्यताथी ‘आवरण दूर थयुं’ एम कहेवाय छे.

अहाहा...! कहे छे के-ज्ञानज्योति निरावरण थवाथी आत्मा एवो प्रगट थयो के फरीने हवे रागादिभावे परिणमतो नथी. परिणमन निर्मळ थयुं ते थयुं, हवे फरीने रागमय (अज्ञानमय) परिणमन थतुं नथी. आ तो पूर्णतानी वात छे, परंतु अहीं शैली तो एवी छे के अधूरा परिणमनना काळे पण एम ज छे अर्थात् आत्माने जे शुद्ध स्वरूपनी प्राप्तिरूप निर्मळ परिणमन थयुं ते हवे फरीने रागमय परिणमन थवानुं नथी. अहो! आ कळशमां अद्भुत वात छे. आवा निकृष्ट काळमां पण जेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान थयुं तेने ते हवे पडी जईने फरीने मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान थशे नहि एवा अप्रतिहत पुरुषार्थनी शैलीथी अहीं वात छे. कहे छे के-ज्ञानानंदना स्वभावे जे आत्मा प्रगट थयो ते हवे सदाय एवो ने एवो ज रहे छे, सदा चैतन्यना निर्मळ प्रकाशरूप ज रहे छे, हवे ते रागादिभाव साथे मूर्छित थतो नथी अर्थात् रागना अंधकाररूप परिणमतो नथी.

आम छे छतां रागथी लाभ थाय, धर्म थाय एम माननारा अज्ञानीओ कहे छे के-व्यवहारने हेय न कहेवाय.

तेने कहीए छीए के-भाई! पंडित श्री टोडरमलजी साहेबे ठेकठेकाणे लख्युं छे के रागनुं-रागथी लाभ थवानुं जे तने श्रद्धान छे ते विपरीत होवाथी मिथ्या श्रद्धान छे. राग हो भले, परंतु भाई! तुं श्रद्धान तो एवुं ज कर के-आ पण बंधनुं-दुःखनुं ज कारण छे अने तेथी हेय ज छे. ज्यांसुधी राग छे त्यांसुधी ते हेय ने हेय ज छे अने एक भगवान आत्मा ज उपादेय छे. परमात्मप्रकाशमां पण रागने हेय अने एक आत्माने ज उपादेय कह्यो छे.

भावार्थः– संवर थया पछी नवां कर्म तो बंधातां नथी. जे पूर्वे बंधायां हतां ते कर्मो ज्यारे निर्जरे छे त्यारे ज्ञाननुं आवरण दूर थवाथी अर्थात् अशुद्धतानो नाश थवाथी ज्ञान एवुं थाय छे के फरीने रागादिरूपे परिणमतुं नथी-सदा प्रकाशरूप ज रहे छे.

समयसार गाथा १९३ः मथाळुं

हवे द्रव्यनिर्जरानुं स्वरूप कहे छेः-