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पोताना ज्ञान, दर्शन आदि अनंतगुणोथी परिपूर्ण भगवान आत्मा इच्छा-राग अने परद्रव्यथी सदा खाली छे. एवुं ज एनुं स्वरूप छे. एवा पोताना स्वरूपमां द्रष्टि दईने एकाग्र थतां आत्मानुभव प्राप्त थाय छे. ए आत्मानुभवमां ज स्वरूपनी प्रतीतिरूप सम्यग्दर्शन प्रगटे छे. ते काळे कोई विकल्प के विचार न होय. वस्तु पोते निर्विकल्प वीतरागस्वरूप छे; तेथी वीतरागी पर्याय पण निर्विकल्प अनुभवमां -ध्यानमां ज प्राप्त थाय छे. आवी निर्विकल्प वीतरागी सम्यग्दर्शन-ज्ञाननी दशा प्रगट थई छे ते जीव शुद्धदर्शनज्ञानमय आत्माने परद्रव्यथी भिन्न चेततो-अनुभवतो स्थिर थईने अल्पकाळमां पूर्ण परमात्मपदने पामे छे. अहो! पंचम आराना मुनि पूर्ण परमात्मपदनी प्राप्तिरूप मोक्षनी वात कहे छे; एम कहेता नथी के अत्यारे मोक्ष नथी पण आ विधि वडे मोक्ष थाय छे एम द्रढपणे कहे छे.
केटलाक लोको कहे छे के अत्यारे तो शुभ उपयोग ज होय. तेने कहीए छीए के भाई! शुभ उपयोग छे ते पुण्यभाव छे, धर्म नथी. जयसेनाचार्यनी टीकामां आवे छे के-जे कोई आत्माने छोडीने पुण्य करे छे तेने एना फळरूप भोगनी ज अभिलाषा छे. आगळ बंध अधिकारमां लीधुं छे के-अभव्य जीव भोगना निमित्तरूप धर्मने ज श्रद्धे छे, कर्मक्षयना निमित्तरूप धर्मने नहि. अरे भाई! जेने पुण्य वहालुं लागे छे तेने तेना फळरूप पंचेन्द्रियना विषयोनी ज वांछा छे. पुण्यनो अभिलाषी भोगनो ज अभिलाषी छे.
प्रश्नः– ज्ञानीने पण पुण्यभाव तो आवे छे?
उत्तरः– हा, ज्ञानीने पण पुण्यभाव आवे छे, पण तेनी तेने रुचि के प्रेम नथी. ज्ञानीने पुण्यभावमां धर्मबुद्धि के सुखबुद्धि नथी; ज्यारे अज्ञानी पुण्यने भलुं अने धर्मरूप माने छे, तेने पुण्यमां सुखबुद्धि होय छे.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘भेदविज्ञानशक्तया निजमहिमरतानां एषां’ जेओ भेदविज्ञाननी शक्ति वडे निज महिमामां लीन रहे छे तेमने ‘नियतम्’ नियमथी ‘शुद्धतत्त्वोपलंभः’ शुद्ध तत्त्वनी उपलब्धि ‘भवति’ थाय छे.
शुं कह्युं? भगवान पूर्णानंदनो नाथ प्रभु आत्मा त्रिकाळ अकृत्रिम छे अने रागादि सर्व चीजो कृत्रिम छे. जेओ रागथी भेद करीने भेदज्ञानना बळ वडे परम महिमावंत सहज अकृत्रिम निज चैतन्यस्वरूपमां मग्न रहे छे तेमने नियमथी चिदानंदमय शुद्ध तत्त्वनो अनुभव थाय छे. भेदविज्ञाननी शक्ति वडे’-एम कह्युं एटले के
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शुभरागनी सहाय के मददथी नहि पण रागमात्रथी भेद करीने, भिन्न पडीने जेओ शुद्ध दर्शनज्ञानमय आत्मद्रव्यमां निमग्न थईने रहे छे अर्थात् एने ज पोतानुं ज्ञेय बनावी ध्यान करे छे तेमने अवश्य शुद्ध आत्मतत्त्वनी प्राप्ति थाय छे. अहाहा...! वस्तु आत्मा ज्ञाता- द्रष्टास्वरूप छे. जेने ज्ञातानुं ज्ञेय ज्ञाता अने द्रष्टानुं द्रश्य द्रष्टा एवो भगवान आत्मा छे तेने नियमथी शुद्ध आत्मतत्त्वनी - अंतःतत्त्वनी उपलब्धि थाय छे.
‘तस्मिन् सति च’ शुद्ध तत्त्वनी उपलब्धि थतां, ‘अचलितम्–अखिल–अन्यद्रव्य–दूरे– स्थितानां’ अचलितपणे समस्त अन्य द्रव्योथी दूर वर्तता एवा तेमने, ‘अक्षयः कर्ममोक्षः भवति’ अक्षय कर्ममोक्ष थाय छे.
अहाहा...! रागथी भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वरूपनो अनुभव थतां ते स्वरूपमां नियत थई अचलितपणे समस्त अन्यद्रव्योथी दूर रहे छे. समस्त अन्यद्रव्योमां देव, गुरु, शास्त्र, मंदिर, प्रतिमा तथा ते प्रत्येनी भक्तिनो राग इत्यादि बधुं आवी गयुं.
समस्त अन्यद्रव्योथी दूर वर्तता एवा तेमने अक्षय कर्म मोक्ष थाय छे अर्थात् फरीने कदीय कर्मबंध न थाय एवो द्रव्यकर्म-भावकर्मथी छूटकारो थाय छे. भाषा तो जुओ! परद्रव्यथी अने रागथी भिन्न पडीने आत्माना अनुभवना सामर्थ्य वडे अंतःस्थिरतानी जमावट करीने तेओ अल्पकाळमां मुक्ति पामे छे, परम सुखमय एवा सिद्धपदने पामे छे. वच्चे पडी जशे एम वात ज नथी.
भाई! आ तो धीरानां काम छे. तेओने अक्षय कर्ममोक्ष थाय छे एटले के फरीने कर्मबंध थाय नहि तेवो मोक्ष थाय छे; अर्थात् कर्म मूळथी ज विनाश पामी जाय छे अने स्वभावमात्र वस्तु रही जाय छे. ल्यो, आवी वात छे.
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केन क्रमेण संवरो भवतीति चेत्–
मिच्छत्तं अण्णाणं अविरयभावो य जोगो य।। १९०।।
आसवभावेण विणा जायदि कम्मस्स वि णिरोहो।। १९१।।
णोकम्मणिरोहेण य संसारणिरोहणं होदि।। १९२।।
मिथ्यात्वमज्ञानमविरतभावश्च योगश्च।। १९०।।
आस्रवभावेन विना जायते कर्मणोऽपि निरोधः।। १९१।।
नोकर्मनिरोधेन च संसारनिरोधनं भवति।। १९२।।
हवे पूछे छे के संवर कया क्रमे थाय छे? तेनो उत्तर कहे छेः-
–मिथ्यात्व ने अज्ञान, अविरतभाव तेम ज योगने. १९०.
आस्रवभाव विना वळी निरोध कर्मतणो बने; १९१.
नोकर्मना रोधन थकी संसारसंरोधन बने. १९२.
गाथार्थः– [तेषां] तेमना (पूर्वे कहेला रागद्वेषमोहरूप आस्रवोना) [हेतवः] हेतुओ [सर्वदर्शिभिः] सर्वदर्शीओए [मिथ्यात्वम्] मिथ्यात्व, [अज्ञानम्] अज्ञान,
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[अविरतभावः च] अविरतभाव [योगः च] अने योग- [अध्यवसानानि] ए (चार) अध्यवसान [भणिताः] कह्या छे. [ज्ञानिनः] ज्ञानीने [हेत्वभावे] हेतुओना अभावे [नियमात्] नियमथी [आस्रवनिरोधः] आस्रवनो निरोध [जायते] थाय छे, [आस्रवभावेन विना] आस्रवभाव विना [कर्मणः अपि] कर्मनो पण [निरोधः] निरोध [जायते] थाय छे, [च] वळी [कर्मणः अभावेन] कर्मना अभावथी [नोकर्मणाम् अपि] नोकर्मोनो पण [निरोधः] निरोध [जायते] थाय छे, [च] अने [नोकर्मनिरोधेन] नोकर्मना निरोधथी [संसारनिरोधनं] संसारनो निरोध [भवति] थाय छे.
टीकाः– प्रथम तो जीवने, आत्मा अने कर्मना एकपणानो अध्यास (अभिप्राय) जेमनुं मूळ छे एवां मिथ्यात्व-अज्ञान-अविरति-योगस्वरूप अध्यवसानो विद्यमान छे, तेओ रागद्वेषमोहस्वरूप आस्रवभावनां कारण छे; आस्रवभाव कर्मनुं कारण छे; कर्म नोकर्मनुं कारण छे; अने नोकर्म संसारनुं कारण छे. माटे-सदाय आ आत्मा, आत्माने कर्मना एकपणाना अध्यासथी मिथ्यात्व-अज्ञान-अविरति-योगमय आत्माने माने छे (अर्थात् मिथ्यात्वादि अध्यवसान करे छे); तेथी रागद्वेषमोहरूप आस्रवभावने भावे छे, तेथी कर्म आस्रवे छे; तेथी नोकर्म थाय छे; अने तेथी संसार उत्पन्न थाय छे. परंतु ज्यारे (ते आत्मा), आत्माने कर्मना भेदविज्ञान वडे शुद्ध चैतन्यचमत्कारमात्र आत्माने उपलब्ध करे छे-अनुभवे छे त्यारे मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति अने योगस्वरूप अध्यवसानो के जे आस्रवभावनां कारणो छे तेमनो अभाव थाय छे; अध्यवसानोनो अभाव थतां रागद्वेषमोहरूप आस्रवभावनो अभाव थाय छे; आस्रवभावनो अभाव थतां कर्मनो अभाव थाय छे; कर्मनो अभाव थतां नोकर्मनो अभाव थाय छे; अने नोकर्मनो अभाव थतां संसारनो अभाव थाय छे. आ प्रमाणे आ संवरनो क्रम छे.
भावार्थः– जीवने ज्यां सुधी आत्मा ने कर्मना एकपणानो आशय छे-भेदविज्ञान नथी त्यां सुधी मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति अने योगस्वरूप अध्यवसानो वर्ते छे, अध्यवसानथी रागद्वेषमोहरूप आस्रवभाव थाय छे, आस्रवभावथी कर्म बंधाय छे, कर्मथी शरीरादि नोकर्म उत्पन्न थाय छे अने नोकर्मथी संसार छे. परंतु ज्यारे तेने आत्मा ने कर्मनुं भेदविज्ञान थाय छे त्यारे शुद्ध आत्मानी उपलब्धि थवाथी मिथ्यात्वादि अध्यवसानोनो अभाव थाय छे, अध्यवसानना अभावथी रागद्वेषमोहरूप आस्रवनो अभाव थाय छे, आस्रवना अभावथी कर्म बंधातां नथी, कर्मना अभावथी शरीरादि नोकर्म उत्पन्न थतां नथी अने नोकर्मना अभावथी संसारनो अभाव थाय छे.-आ प्रमाणे संवरनो अनुक्रम जाणवो.
संवर थवाना क्रममां संवरनुं पहेलुं ज कारण भेदविज्ञान कह्युं छे तेनी भावनाना उपदेशनुं काव्य कहे छेः-
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च्छुद्धात्मतत्त्वस्य किलोपलम्भात्।
स भेदविज्ञानत एव तस्मात्
तद्भेदविज्ञानमतीव भाव्यम्।। १२९।।
तावद्यावत्पराच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते।। १३०।।
श्लोकार्थः– [एषः साक्षात् संवरः] आ साक्षात् (सर्व प्रकारे) संवर [किल] खरेखर [शुद्ध–आत्म–तत्त्वस्य उपलम्भात्] शुद्ध आत्मतत्त्वनी उपलब्धिथी [सम्पद्यते] थाय छे; अने [सः] ते शुद्ध आत्मतत्त्वनी उपलब्धि [भेदविज्ञानतः एव] भेदविज्ञानथी ज थाय छे. [तस्मात्] माटे [तत् भेदविज्ञानम्] ते भेदविज्ञान [अतीव] अत्यंत [भाव्यम्] भाववायोग्य छे.
भावार्थः– जीवने ज्यारे भेदविज्ञान थाय छे अर्थात् जीव ज्यारे आत्माने अने कर्मने यथार्थपणे भिन्न जाणे छे त्यारे ते शुद्ध आत्माने अनुभवे छे, शुद्ध आत्माना अनुभवथी आस्रवभाव रोकाय छे अने अनुक्रमे सर्व प्रकारे संवर थाय छे. माटे भेदविज्ञानने अत्यंत भाववानो उपदेश कर्यो छे. १२९.
हवे भेदविज्ञान कयां सुधी भाववुं ते काव्य द्वारा कहे छेः-
श्लोकार्थः– [इदम् भेदविज्ञानम्] आ भेदविज्ञान [अच्छिन्न–धारया] अच्छिन्नधारा थी (अर्थात् जेमां विच्छेद न पडे एवा अखंड प्रवाहरूपे) [तावत्] त्यां सुधी [भावयेत्] भाववुं [यावत्] के ज्यां सुधी [परात् च्युत्वा] परभावोथी छूटी [ज्ञानं] ज्ञान [ज्ञाने] ज्ञानमां ज (पोताना स्वरूपमां ज) [प्रतिष्ठते] ठरी जाय.
भावार्थः– अहीं ज्ञाननुं ज्ञानमां ठरवुं बे प्रकारे जाणवुं. एक तो मिथ्यात्वनो अभाव थई सम्यग्ज्ञान थाय अने फरी मिथ्यात्व न आवे त्यारे ज्ञान ज्ञानमां ठर्युं कहेवाय; बीजुं, ज्यारे ज्ञान शुद्धोपयोगरूपे स्थिर थइ जाय अने फरी अन्यविकाररूपे न परिणमे त्यारे ते ज्ञानमां ठरी गयुं कहेवाय. ज्यां सुधी बन्ने प्रकारे ज्ञान ज्ञानमां न ठरी जाय त्यां सुधी भेदविज्ञान भाव्या करवुं. १३०.
फरीने भेदविज्ञाननो महिमा कहे छेः-
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अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन।। १३१।।
द्रागग्रामप्रलयकरणात्कर्मणां संवरेण।
बिभ्रत्तोषं परमममलालोकमम्लानमेकं
ज्ञानं ज्ञाने नियतमुदितं शाश्वतोद्योतमेतत्।। १३२।।
श्लोकार्थः– [ये केचन किल सिद्धाः] जे कोई सिद्ध थया छे [भेदविज्ञानतः सिद्धाः] ते भेदविज्ञानथी सिद्ध थया छे; [ये केचन किल बद्धाः] जे कोई बंधाया छे [अस्य एव अभावतः बद्धाः] ते तेना ज (-भेदविज्ञानना ज) अभावथी बंधाया छे.
भावार्थः– अनादि काळथी मांडीने ज्यां सुधी जीवने भेदविज्ञान नथी त्यां सुधी ते कर्मथी बंधाया ज करे छे-संसारमां रझळ्या ज करे छे; जे जीवने भेदविज्ञान थाय छे ते कर्मथी छूटे ज छे-मोक्ष पामे ज छे. माटे कर्मबंधनुं-संसारनुं-मूळ भेदविज्ञाननो अभाव ज छे अने मोक्षनुं प्रथम कारण भेदविज्ञान ज छे. भेदविज्ञान विना कोई सिद्धि पामी शकतुं नथी.
अहीं आम पण जाणवुं के-विज्ञानाद्वैतवादी बोद्धो अने वेदान्तीओ के जेओ वस्तुने अद्वैत कहे छे अने अद्वैतना अनुभवथी ज सिद्धि कहे छे तेमनो, भेदविज्ञानथी ज सिद्धि कहेवाथी, निषेध थयो; कारण के सर्वथा अद्वैत वस्तुनुं स्वरूप नहि होवा छतां जेओ सर्वथा अद्वैत माने छे तेमने भेदविज्ञान कोई रीते कही शकातुं ज नथी; ज्यां द्वैत ज-बे वस्तुओज - मानता नथी त्यां भेदविज्ञान शानुं? जो जीव अने अजीव-बे वस्तुओ मानवामां आवे अने तेमनो संयोग मानवामां आवे तो ज भेदविज्ञान बनी शके अने सिद्धि थई शके. माटे स्याद्वादीओने ज बधुंय निर्बाधपणे सिद्ध थाय छे. १३१.
हवे, संवर अधिकार पूर्ण करतां, संवर थवाथी जे ज्ञान थयुं ते ज्ञानना महिमानुं काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [भेदज्ञान–उच्छलन–कलनात्] भेदज्ञान प्रगट करवाना अभ्यासथी [शुद्धतत्त्व–उपलम्भात्] शुद्ध तत्त्वनी उपलब्धि थई, शुद्ध तत्त्वनी उपलब्धिथी [राग– ग्रामप्रलयकरणात्] रागना समूहनो विलय थयो, रागना समूहनो विलय करवाथी
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[कर्मणां संवरेण] कर्मनो संवर थयो अने कर्मनो संवर थवाथी, [ज्ञाने नियतम् एतत् ज्ञानं उदितं] ज्ञानमां ज निश्चळ थयेलुं एवुं आ ज्ञान उद्रय पाम्युं- [बिभ्रत् परमम् तोषं] के जे ज्ञान परम संतोषने (अर्थात् परम अतींद्रिय आनंदने) धारण करे छे, [अमल–आलोकम्] जेनो प्रकाश निर्मळ छे (अर्थात् रागादिकने लीधे मलिनता हती ते हवे नथी), [अम्लानम्] जे अम्लान छे (अर्थात् क्षायोपशमिक ज्ञाननी माफक करमायेलुं-निर्बळ नथी, सर्व लोकालोकने जाणनारुं छे), [एकं] जे एक छे (अर्थात् क्षयोपशमथी भेद हता ते हवे नथी) अने [शाश्वत–उद्योतम्] जेनो उद्योत शाश्वत छे (अर्थात् जेनो प्रकाश अविनश्वर छे). १३२.
टीकाः– आ रीते संवर (रंगभूमिमांथी) बहार नीकळी गयो.
भावार्थः– रंग भूमिमां संवरनो स्वांग आव्यो हतो तेने ज्ञाने जाणी लीधो तेथी ते नृत्य करी बहार नीकळी गयो.
राग-द्वेष-विमोह सबही गलि जाय इमै दुठ कर्म रुकाही;
उज्ज्वल ज्ञान प्रकाश करै बहु तोष धरे परमातममाही,
यों मुनिराज भली विधि धारत केवल पाय सुखी शिव जाहीं.
आम श्री समयसारनी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेव प्रणीत श्री समयसार परमागमनी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी टीकामां संवरनो प्ररूपक पांचमो अंक समाप्त थयो.
हवे पूछे छे के संवर कयां क्रमे थाय छे?
रागथी भिन्न पडीने स्वरूपमां लीनता करवी ते संवर छे. एवा संवरनो एटले के शुद्धिनी उत्पत्तिनो क्रम शुं छे? तेना उत्तररूप गाथाओ कहे छेः-
‘प्रथम तो जीवने, आत्मा अने कर्मना एकपणानो अध्यास जेमनुं मूळ छे एवां मिथ्यात्व-अज्ञान-अविरति-योगस्वरूप अध्यवसानो विद्यमान छे, तेओ रागद्वेष-मोहस्वरूप आस्रवभावनां कारण छे;...’
भगवान आत्मा शुद्ध ज्ञायक तत्त्व, परम आनंद तत्त्व छे; ते विकारी भावोथी सदाय भिन्न छे. तेने (विकारथी) भिन्न न मानतां बन्नेने एक मानवां ते मिथ्यात्वरूप महाशल्य छे. भाई! आ अनंत तीर्थंकरोनो-केवळी भगवंतोनो पोकार छे. अहाहा...! गणधरो, इन्द्रो, करोडो मनुष्यो अने देवोनी सभामां भगवाननी जे दिव्य-ध्वनि थई
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तेमां भगवाननो आ उपदेश छे. भगवान! तुं कोण छो? अने आ विकल्प उत्पन्न थाय छे ते शुं छे? तो कहे छे-भगवान! तुं चिदानंदघनस्वरूप वस्तु आत्मा छो अने आ जे विकल्पो उत्पन्न थाय छे ते ताराथी भिन्न परचीज छे. बन्ने भिन्न भिन्न छे. तारी शुद्ध चैतन्यमय स्वचीज अने विकारी कर्म जे परचीज-ए बेनी एकतानो जे अभिप्राय छे ते मिथ्यात्व- अज्ञान-अविरति-योगनुं मूळ छे.
अहा! जेम माता बाळकने सुवाडवा मीठां हालरडां गाय छे तेम अहीं त्रणलोकना नाथ आत्मानां मधुर गाणां गाईने आत्माने जगाडे छे. जाग रे भाई जाग! आवुं मनुष्यपणुं मळ्युं, सर्वज्ञनी वाणी मळी; हवे कयां सुधी तारे सूवुं छे? आगळना जमानामां नाटकमां पण उत्तम द्रश्यो जोवा मळतां. एमां माता बाळकने सुवाडवा हालरडां पण आवां गाती के-बेटा! तुं निर्विकल्प छो, शुद्ध छो, उदासीन छो. ल्यो, नाटकमां पण त्यारे आवुं आवतुं. अत्यारे तो जेने धर्मायतनो कहेवाय त्यां पण आवा शब्दो सांभळवा मळवा दुर्लभ छे.
आचार्यदेव आत्माने भगवान कहीने ज बोलावे छे. आ समयसार गाथा ७२ मां आत्माने त्रण वार भगवान कहीने बोलाव्यो छे. त्यां एम आवे छे के-शुभाशुभ भाव जड छे, अशुचि छे. पंचमहाव्रतना परिणाम राग छे, आस्रव छे अने तेथी तेओ मेलपणे अनुभवाय छे. परना लक्षे उत्पन्न थती कोई पण वृत्ति राग छे. कोई एने धर्म माने तो ते एनी भूल छे. वळी ते जड छे माटे तेनी साथे एकत्वबुद्धि करनार, एनाथी लाभ माननार पण जड छे. अहीं आचार्यदेव कहे छे के-आत्मा अने विकारनी एकपणानी मान्यता मिथ्यात्व-अज्ञान- अविरति-योगस्वरूप अध्यवसाननुं कारण छे, अने ए अध्यवसान रागद्वेषमोहस्वरूप आस्रवभावनां कारण छे.
हवे कहे छे-‘आस्रवभाव कर्मनुं कारण छे; कर्म नोकर्मनुं कारण छे; अने नोकर्म संसारनुं कारण छे.’ मतलब के रागादि आस्रवभावना निमित्ते नवां कर्मनो बंध थाय छे; कर्मना निमित्ते नोकर्म एटले शरीरादि मळे छे अने नोकर्म ए संसारनुं कारण छे.
‘माटे -सदाय आ आत्मा, आत्मा अने कर्मना एकपणाना अध्यासथी मिथ्यात्व- अज्ञान-अविरति-योगमय आत्माने माने छे; तेथी रागद्वेषमोहरूप आस्रवभावने भावे छे, तेथी कर्म आस्रवे छे; तेथी नोकर्म थाय छे; अने तेथी संसार उत्पन्न थाय छे.’
जुओ, आत्मा तो सदा ज्ञान अने आनंदस्वरूप ज छे. परंतु अज्ञानी जीव अज्ञानवश रागने पोतानो मानतो होवाथी रागनी भावना करे छे. तेथी कर्म आस्रवे छे अने तेथी नोकर्म- शरीरादिनो तेने संयोग थाय छे, अने तेथी संसार उत्पन्न
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थाय छे. अनादिथी अज्ञानदशामां आ प्रमाणे थाय छे तेनी आ वात करी. हवे सम्यग्दर्शन थतां शुं थाय छे ते कहे छेः-
‘परंतु ज्यारे (ते आत्मा), आत्मा अने कर्मना भेदविज्ञान वडे शुद्ध चैतन्यचमत्कारमात्र आत्माने उपलब्ध करे छे-अनुभवे छे त्यारे मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति अने योगस्वरूप अध्यवसानो के जे आस्रवभावनां कारणो छे तेमनो अभाव थाय छे;...’
शुं कह्युं? के अनादिथी पर्याय जे पर तरफ वळेली हती ते परथी-रागथी भिन्न पडीने ज्यां स्व तरफ वळी अर्थात् शुद्ध चैतन्यस्वरूपमां ढळी त्यां तेने सम्यग्दर्शन थाय छे अने त्यारे तेने हुं परथी भिन्न छुं एवुं साचुं भान थाय छे अने ते ज भेदज्ञान छे. भेदज्ञानमां आत्मानां सम्यक् प्रतीति अने अनुभव थाय छे. त्यार पछी भेदज्ञानना बळे ज अनुक्रमे अस्थिरताना रागनो त्याग करी, सर्वसंगनो परित्यागी थई अंदर ठरे छे; त्यारे तेने कर्म बंधातां नथी, अने कर्मथी मुक्त थईने मोक्ष पामे छे. ल्यो, आ धर्म अने धर्मनी रीत छे.
बापु! धर्म कोई अद्भुत अलौकिक चीज छे. भले शुभराग हो, पण एनाथी भेदज्ञान करीने स्वभावमां एकाग्रता करवी एनुं नाम धर्म छे. त्रिलोकनाथ सर्वज्ञ वीतरागदेव आने धर्म कहे छे. आनाथी विरुद्ध आत्मानी एकाग्रता छोडी रागमां एकाग्रता करवी ए तो मिथ्यात्वरूपी अधर्म छे; शुभरागमां पण एकाग्रता करवी ते अधर्म छे. आवुं कठण पडे पण भाई! मार्ग तो आ एक ज छे. श्रीमदे कह्युं छे ने के-‘‘एक होय त्रण काळमां परमारथनो पंथ.’’ भेदज्ञान एक ज मोक्षनो मार्ग छे, बीजो कोई मार्ग छे नहि.
भाई! आ कोई व्यक्तिनो मार्ग नथी, वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे. वस्तु आत्मा सदा वीतरागी तत्त्व छे अने राग आस्रव तत्त्व छे. ते बन्नेमां एकपणानी मान्यता ते मिथ्यात्व छे. भाई! कोई एम माने के शुभराग करतां करतां वीतरागता वा धर्म प्रगटशे तो तेनो ए अभिप्राय मिथ्या छे अने तेथी ते मिथ्याद्रष्टि छे.
जुओ, आ कोई पक्षनी वात नथी, तेम कोई पक्षना विरोधनी पण वात नथी. आ तो वस्तुना स्वरूपनी वात छे. अहीं कहे छे-जेने रागनी एकताबुद्धि छे तेने शरीरनी प्राप्ति थशे अने ते संसारमां रझळशे अने जेणे रागथी भिन्नता करीने आत्मानी एकता करी छे ते भेदज्ञानीने आत्मानी प्राप्ति थशे अने ते संसारथी मुक्ति पामशे.
अहाहा...! आत्मा अंदर चैतन्यचमत्कारमात्र वीतरागमूर्ति प्रभु परमात्मा छे. आत्मा जो वीतरागमूर्ति न होय तो पर्यायमां वीतरागता आवे कयांथी? शुं बहारथी
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वीतरागता आवे छे? (ना; एम नथी). आत्मा वीतरागमूर्ति सदाय छे. आवा वीतरागमूर्ति आत्मा अने कर्म-रागना भेदज्ञान वडे चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मा उपलब्ध थाय छे. अहीं आत्माने चैतन्यचमत्कारमात्र केम कह्यो? कारण के एनी पूर्ण ज्ञाननी पर्यायमां त्रणकाळ- त्रणलोकने एक समयमां जाणे एवा महाचमत्कारिक अनुपम सामर्थ्ययुक्त ऋद्धिवाळो आत्मा छे. माटे एने चैतन्यचमत्कार कह्यो छे. आवा आत्मानी प्राप्ति भेदविज्ञान वडे थाय छे. अहो! भेदविज्ञान अनंता जन्म-मरणनो नाश करी मुक्ति पमाडे एवी महा अलौकिक चीज छे! भाई! भेदविज्ञान विना रागनी एकताबुद्धि तने भवसमुद्रमां कयांय ऊंडे डूबाडशे. भवसमुद्र अपार छे; एमां ८४ लाख योनि छे. रागनी एकता करी-करीने एक एक योनिने अनंतवार स्पर्शीने तें अनंत अनंत अवतार कर्या छे भाई! शुभरागने जो तुं धर्म वा धर्मनुं कारण माने छे तो तारा भवना अंत नहि आवे! माटे भेदविज्ञान प्रगट कर.
अहीं कहे छे-भेदविज्ञान वडे ज्यारे आत्मा शुद्ध चैतन्यचमत्कारमात्र आत्माने अनुभवे छे त्यारे मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति अने योगस्वरूप अध्यवसानो के जे आस्रवभावनां कारणो छे तेमनो अभाव थाय छे; अध्यवसानोनो अभाव थतां रागद्वेष-मोहरूप आस्रवभावनो अभाव थाय छे; आस्रवभावनो अभाव थतां कर्मनो अभाव थाय छे; कर्मनो अभाव थतां नोकर्मनो अभाव थाय छे; अने नोकर्मनो अभाव थतां संसारनो अभाव थाय छे. आ प्रमाणे आ संवरनो क्रम छे.
ल्यो, रागनी एकताना अध्यवसाननो अभाव थवो, एनाथी आस्रवनो अभाव थवो, एनाथी कर्मनो अभाव थवो, एनाथी नोकर्म अने संसारनो अभाव थवो-एम संवरनो क्रम छे.
भाई! अंदर आत्मा सदा अबद्धस्वरूप-मुक्तस्वरूप ज छे. गाथा १प मां आवे छे के- जे कोई आत्माने शुद्धोपयोग वडे अबद्ध-स्पष्ट देखे, अनन्य एटले नर-नारकादि अनेरी अनेरी अवस्था रहित सामान्य देखे, नियत अर्थात् हानि-वृद्धिरहित एकरूप देखे, अविशेष अर्थात् गुणभेद विनानो अभेद देखे, अने असंयुक्त अर्थात् पुण्य-पापना कलेशरूप भावथी रहित देखे ते सकल जैनशासनने देखे छे. अहो! वीतरागभाव ए जैनशासन छे. वीतरागस्वरूप निज परमात्मद्रव्यने देखवुं ए जैनशासन छे, ए ज संवर अने धर्म छे.
‘जीवने ज्यां सुधी आत्मा ने कर्मना एकपणानो आशय छे-भेदविज्ञान नथी त्यां सुधी मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति, अने योगस्वरूप अध्यवसानो वर्ते छे, अध्यवसानथी रागद्वेषमोहरूप आस्रवभाव थाय छे, आस्रवभावथी कर्म बंधाय छे, कर्मथी
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शरीरादि नोकर्म उत्पन्न थाय छे अने नोकर्मथी संसार छे.’ जुओ, आ रागनी एकताबुद्धि वडे जीवने अनादिथी संसार केवी रीते छे ते कह्युं.
चोथे गुणस्थाने ज्यारे सम्यग्दर्शन अने आत्मानुभव प्रगट थाय त्यारे अनंत गुणोनी निर्मळ पर्याय अंशे प्रगटे छे, अव्रत अंशे टळे छे, निष्क्रियत्वगुणनी पण अंशे निर्मळ पर्याय प्रगटे छे अर्थात् अंशे अकंपभाव प्रगट थाय छे. सर्वथा योगनो अभाव चौदमे गुणस्थाने थाय छे, पण चोथे गुणस्थाने अंशे योगनो अभाव थाय छे.
‘श्रीमद् राजचंद्र’मां आवे छे के-‘सर्व गुणांश ते सम्यक्त्व.’ पंडितप्रवर श्री टोडरमलजीए रहस्यपूर्ण चिट्ठीमां लीधुं छे के-‘चोथा गुणस्थानवर्ती आत्माने ज्ञानादि गुणो एकदेश प्रगट थया छे’-मतलब के ज्ञानादि सर्व गुणोनी एकदेश प्रगटता थवी ते समकित छे; अने सर्वदेश प्रगटता थवी ते केवळज्ञान छे. आनो अर्थ ज ए थयो के सर्व गुणो चोथे गुणस्थानके अंशे निर्मळतारूपे प्रगट थाय छे. अनंतगुणनो एकरूप पिंड एवा द्रव्यनो जेने अनुभव थयो, एनुं ज्ञान थईने जेने प्रतीति थई तेने सर्व अनंतगुणनो अंश तो निर्मळ प्रगट थाय ज. ज्ञानी समकिती जीव भेदज्ञानना बळे करीने क्रमशः अंतःस्थिरता करीने, अंदर ठरीने सर्वसंग रहित थई कर्मथी मुक्त थई जाय छे. ए ज कहे छे-
‘ज्यारे तेने आत्मा ने कर्मनुं भेदविज्ञान थाय छे त्यारे शुद्ध आत्मानी उपलब्धि थवाथी मिथ्यात्वादि अध्यवसानोनो अभाव थाय छे, अध्यवसानना अभावथी रागद्वेषमोहरूप आस्रवनो अभाव थाय छे, आस्रवना अभावथी कर्म बंधातां नथी, कर्मना अभावथी शरीरादि नोकर्म उत्पन्न थतां नथी अने नोकर्मना अभावथी संसारनो अभाव थाय छे.-आ प्रमाणे संवरनो अनुक्रम जाणवो.’ ल्यो, आ संवरनो अर्थात् धर्म प्रगट थवानो अनुक्रम कह्यो.
संवर थवाना क्रममां संवरनुं पहेलुं ज कारण भेदविज्ञान कह्युं छे तेनी भावनाना उपदेशनुं काव्य कहे छेः-
‘एषः साक्षात् संवरः’ आ साक्षात् (सर्व प्रकारे) संवर ‘किल’ खरेखर ‘शुद्ध– आत्मतत्त्वस्य उपलम्भात्’ शुद्ध आत्मतत्त्वनी उपलब्धिथी ‘सम्पद्यते’ थाय छे.
शुं कह्युं आ? रागथी भिन्न पडी शुद्ध आत्मानो अनुभव करवाथी सर्व प्रकारे-सर्वथा आ साक्षात् एटले प्रत्यक्ष संवर प्रगट थाय छे. जुओ, स्वरूपना आश्रय विना अने परथी- रागथी भिन्न पडया विना कदीय संवर अर्थात् धर्म प्रगट थतो नथी. चैतन्यस्वभावमां ढळतां पुण्य-पापना भाव रोकाई जईने साक्षात् वीतरागपरिणतिरूप संवर प्रगट थाय छे. कळशमां ‘एषः’-‘आ’ शब्द पडयो छे ने? ते प्रत्यक्षपणुं
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बतावे छे. ‘प्रत्यक्ष’ शब्दथी शुं आशय छे? तो कहे छे के-रागरहित आत्मानी जे वीतराग दशा प्रगट थाय छे ते संवर प्रत्यक्ष छे. हवे कहे छे-
अने ‘सः’ ते शुद्ध आत्मतत्त्वनी उपलब्धि ‘भेदविज्ञानतः एव’ भेदविज्ञानथी ज थाय छे.
भाई! व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प पण राग-शुभराग छे; एनाथी आत्मोपलब्धि- आत्मानो अनुभव थतो नथी. देहादि परथी तो भिन्न अने रागादि परभावथी-दया, दान, व्रतादिना रागथी भिन्न पडे त्यारे आत्माने आत्मानी उपलब्धि-अनुभव थाय छे. संवर छे ते रागथी सर्वथा-सर्व प्रकारे भिन्न छे. आवो आत्मानुभवरूप संवर-धर्म भेदविज्ञानथी ज (रागथी नहि) प्रगट थाय छे.
लोको दया, दान, व्रत भक्ति इत्यादि शुभाचरण करीने माने छे के ए वडे कल्याण थशे परंतु ए तेमनो भ्रम छे. अहीं कहे छे-रागथी भेद करीने अंतःएकाग्रता वडे आत्मानो अनुभव करवो ए संवर अने धर्म छे. ‘एषः’ शब्द एम बतावे छे के प्रत्यक्ष-साक्षात् संवर आत्माना अनुभवथी थाय छे, अन्यथा नहि.
पंचास्तिकाय शास्त्र, गाथा १७२ मां चारे अनुयोगनुं तात्पर्य वीतरागता छे-एम कह्युं छे. ए वीतरागता केम प्रगटे? तो कहे छे के-शुभाशुभ रागथी भिन्न पडीने वीतरागस्वरूप निज भगवान आत्मानो आश्रय करे त्यारे पर्यायमां वीतरागता प्रगट थाय छे.
अरे! मोटा भागना जीवोने तो आखो दि’ बाळ-बच्चांनी आळपंपाळ अने रळवा- कमावानी मजुरी करवा आडे आवी भेदज्ञाननी वात सांभळवा पण मळती नथी. तेओ बिचारा शुं करे? कांई खबर मळे नहि एटले भक्ति करे, उपवास करे अने वर्षे दहाडे जात्रा करे अने माने के धर्म थई गयो. पण एथी तो धूळेय धर्म नहि थाय, सांभळने! अहीं तो कहे छे-ए बधा क्रियाकांड तो राग छे, धर्म नथी, धर्मना उपाय पण नथी. ए सर्व क्रियाकांडथी भिन्न पडी अंदर सदा अक्रिय भगवान चैतन्य-महाप्रभु बिराजे छे एक तेनो आश्रय करवो ते संवर-धर्म प्रगट थवानो उपाय छे. समजाणुं कांई...?
भाई! परथी निवृत्ति लीधी ते साची निवृत्ति नथी. राग ए पण प्रवृत्ति छे. ए रागथी निवृत्ति थई अंदर स्वरूपमां प्रवृत्ति करवी ए सम्यक् निवृत्ति छे. रागनी प्रवृत्तिमां तो स्वनी प्रवृत्तिनो अभाव छे. जे रागमां प्रवृत्त छे ते स्वरूपमां निवृत्त छे अने जे स्वरूपमां प्रवृत्त छे ते रागथी निवृत्त ज होय छे. (स्वरूपमां चरवुं एनुं नाम स्वनी प्रवृत्ति छे).
पंचमहाव्रतादिना विकल्परूप जे बाह्य आचरण तेनाथी भिन्न पडतां स्ववस्तु- चिदानंदघनस्वरूप परमात्मा प्रत्यक्ष ज्ञानमां-अनुभवमां आवे छे अने त्यारे एने
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साक्षात् संवर प्रगट थाय छे. शुद्ध आत्मानी उपलब्धि अने निराकुळ आनंददशानी प्राप्ति एक भेदविज्ञानथी ज थाय छे. ‘भेद विज्ञानतः एव’–एम कह्युं छे ने?
त्यारे कोई कहे के-आ तो एकान्त थई गयुं; भेदज्ञानथी पण थाय अने शुभाचरणथी पण थाय एम अनेकान्त करवुं जोईए.
तेने कहीए छीए के-भाई! तारुं मिथ्या अनेकान्त छे, फुदडीवाद छे. भेदविज्ञानथी ज संवर प्रगट थाय अने बीजी कोई रीते (शुभाचरणथी) न थाय ए सम्यक् अनेकान्त छे. समजाणुं कांई...?
हवे कहे छे–‘तस्मात्’ माटे ‘तत् भेदविज्ञानम्’ ते भेदविज्ञान ‘अतीव भाव्यम्’ अत्यंत भाववायोग्य छे.
जुओ आ उपदेश! कहे छे-रागथी भिन्नता अने स्वभावनी एकता जेमां थाय एवुं भेदविज्ञान अत्यंत भाववायोग्य छे अर्थात् भेदविज्ञान वडे सच्चिदानंदमय भगवान आत्माना निराकुळ आनंदनो स्वाद अत्यंत लेवा योग्य छे; भेदविज्ञान द्वारा अंतरंगमां निजानंदस्वरूप अत्यंत स्वाद-ग्राह्य करवा योग्य छे.
भाई! तने अनादिथी रागनो स्वाद छे ते झेरनो स्वाद छे. संसारना भोग आदिना स्वाद के पंचमहाव्रतादि शुभरागना स्वाद ए बधा बे-स्वाद छे, कषायला स्वाद छे; एमां स्वरूपना आनंदनो स्वाद नथी. माटे एक वखत परथी-रागथी भिन्न पडी भेदज्ञान वडे अंतःएकाग्र थई आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद लेवा योग्य छे एम कहे छे. भेदविज्ञानथी ज आत्मोपलब्धि थाय छे माटे ते भेदविज्ञान ज अत्यंत भाववायोग्य छे; रागभाव भाववायोग्य नथी.
भगवान आत्मा आनंदस्वरूप छे, ज्यारे एथी विपरीत रागभाव कलुषतारूप-दुःखरूप छे. छहढाळामां आवे छे ने के-
भाई! तुं हजारो राणीओ छोडी, मुनिव्रत धारण करी, पंचमहाव्रत पाळी अनंतवार ग्रीवकमां उपज्यो. पण एथी शुं? आत्मज्ञान विना अर्थात् शुद्धात्मानी उपलब्धि विना संवर प्रगट थयो नहि अने संसार-परिभ्रमणनो कलेश मटयो नहि. किंचित् सुख न थयुं एम कह्युं; मतलब के दुःख ज रह्युं. एनो अर्थ ज ए थयो के पंचमहाव्रतना परिणाम पण बधा कलेशरूप-दुःखरूप ज रह्या. भाई! आ वस्तुनुं स्वरूप छे. आगमनी व्यवहारपद्धति जे रागरूप छे ते बधी दुःखरूप छे. अहा! गजब वात छे. भेदज्ञानपूर्वक संवर प्रगट थाय ए ज आनंदरूप छे. अहो! भेदज्ञान! अहो संवर!
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परमार्थ वचनिकामां आवे छे के-आगमअंग जे बाह्यक्रियारूप-रागरूप प्रत्यक्ष (स्थूळ) जणाय छे तेनुं स्वरूप साधवुं अज्ञानीओने सुगम-सहेलुं लागे छे. तेथी दया, दान, पंचमहाव्रत, तप आदि बाह्य क्रिया ते लोको करे छे अने पोताने मोक्षमार्गी माने छे. परंतु अंतगर्भित जे अध्यात्मरूप क्रिया ते अंतर्द्रष्टिग्राह्य छे अने तेने मूढ जीव जाणतो नथी. त्रिकाळी शुद्ध आत्माना आश्रये जे निर्मळ दशाओ प्रगट थाय छे ते अध्यात्मनो व्यवहार छे अने अज्ञानी लोको अंतर्द्रष्टि विना-भेदविज्ञान विना तेने जाणता नथी. तेथी तेओ मोक्षमार्ग साधवा असमर्थ रहे छे अर्थात् बाह्यक्रियामां राचता तेओने संसार-परिभ्रमण मटतुं नथी.
प्रवचनसार गाथा १७२ ना अलिंगग्रहणना १७ मा बोलमां लीधुं छे के-यतिनी शुभक्रियाना विकल्पोनो जेमां अभाव छे एवो आत्मा अलिंगग्रहण छे. त्यां अलिंगग्रहण एवा शुद्ध आत्मानी अपेक्षाए वात छे. अहीं संवरनी अपेक्षाए वात छे के-परथी -शुभाचरणथी भिन्न पडतां सच्चिदानंदस्वरूप शुद्ध आत्मतत्त्वनी प्राप्ति थवी-प्रत्यक्ष अनुभव थवो ते संवर छे, यतिनी बाह्यक्रिया-व्रताचरणादि संवर छे वा संवरनुं कारण छे एम नथी.
प्रश्नः– तो शास्त्रमां पुण्य परिणामरूप-शुभाचरणरूप व्यवहारने धर्म कह्यो छे?
उत्तरः– समाधान ए छे के जेने स्वभावना आश्रये धर्म प्रगट थयो छे ते धर्मी जीवने ते काळे जे व्रतादि राग छे तेने सहचर वा निमित्त जाणी उपचारथी धर्म कह्यो छे; खरेखर ए धर्म छे एम नथी पण निश्चय धर्म प्रगट थयो छे तेनो शुभरागमां आरोप करीने शुभरागने व्यवहार धर्म कहेवामां आव्यो छे. अज्ञानीने व्यवहार धर्म नथी केमके तेने निश्चय प्रगट थयो नथी. एने तो जे छे ते व्यवहाराभास छे.
कोई घणां शास्त्र भणे पण शास्त्रनुं तात्पर्य जे वीतरागता ते प्रगट करे नहि तो तेने धर्म केम थाय? (न थाय). देव-गुरु-शास्त्र प्रत्येना राग भणी झुकवानुं छोडी दई स्वद्रव्यमां झुके तो धर्म प्राप्त थाय अने त्यारे देव-गुरु-शास्त्र निमित्त कहेवाय. परनुं लक्ष छोडी दई स्वनुं लक्ष करे त्यारे ज वीतरागता-धर्म प्रगट थाय छे.
अनादिथी वर्तमान वर्तती पर्याय पर्यायबुद्धिमां रमी रही छे. ते (ज्ञाननी पर्याय) रागादिमां झुकेली छे तेथी ते अंतरमां झुकी शकती नथी. परंतु रागना झुकावनो त्याग करी भेदज्ञान वडे ज्यारे ते अंदर ध्रुवमां-शुद्ध चैतन्यमां झुके छे त्यारे धर्म कहो वा संवर कहो ते प्रगट थाय छे. आ प्रमाणे महा महिमावंत एवुं भेदज्ञान ज धर्म प्रगटवानुं कारण छे.
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‘जीवने ज्यारे भेदविज्ञान थाय छे अर्थात् जीव ज्यारे आत्माने अने कर्मने यथार्थपणे भिन्न जाणे छे त्यारे ते शुद्ध आत्माने अनुभवे छे.’
जुओ, जीव ज्यारे आत्माने अने कर्मने एटले रागने यथार्थपणे भिन्न जाणे छे- यथार्थपणे एटले हुं रागथी भिन्न छुं एवी धारणा मात्र नहि पण अंदर अंतर्द्रष्टि करी भिन्न जाणे छे त्यारे ते शुद्ध आत्माने अनुभवे छे एटले के त्यारे ते अतीन्द्रिय आनंदना स्वादने प्राप्त थाय छे.
स्वाद तो लाडवा, मैसूब इत्यादिना रसनो जे आवे तेने कहेवाय? आ स्वाद वळी केवो?
अरे भाई! लाडवा, मैसूब, मोसंबी आदिनो रस तो जड पुद्गलनी चीज छे. ए पुद्गलनो (धूळनो) स्वाद जीवने होतो नथी. शुं चेतनने जडनो स्वाद आवे? (न आवे). अज्ञानी लाडवा आदि तरफ लक्ष करी ए ठीक छे एवो राग करे छे, ए रागनो स्वाद एने आवे छे. पण ए रागनो स्वाद तो कषायलो दुःखनो स्वाद छे भाई! तेथी धर्मी जीव एनाथी भेदज्ञान करी अंतर्द्रष्टि करी शुद्ध आत्मतत्त्वनी पर्यायमां प्राप्ति करी अतीन्द्रिय आनंदरसनो स्वाद ले छे. आत्मानुभवना काळमां जे निराकुळ आनंदरस प्रगटे छे तेनो धर्मी जीवने स्वाद आवे छे.
आत्मा अनंतगुणनी लक्ष्मीथी भरेलो भंडार छे. अज्ञानी जीव तेने नहि जाणवाथी बहारनी धनसंपत्तिमां आसक्त थईने दुःखी-दुःखी थाय छे. आ करोडपति अने अबजोपति बधा दुःखी छे भाई! अरे आवी संपत्तिनो संयोग तो तने अनंतवार थयो पण सुख थयुं नहि, केमके एमां कयां सुख छे? सुखनो भंडार तो भगवान आत्मा छे एम जाणी जे धनादि परथी अने रागथी भिन्न पडी जे सर्वथा प्रकारे अंदर आत्मामां झुके छे तेने आत्मानुभवपूर्वक सुखनो लाभ थाय छे. अहो! भेदज्ञानथी सुखनी प्राप्ति थाय एवी ए अलौकिक चीज छे.
आगळ कहे छे-‘शुद्ध आत्माना अनुभवथी आस्रवभाव रोकाय छे अने अनुक्रमे सर्वप्रकारे संवर थाय छे. माटे भेदविज्ञानने अत्यंत भाववानो उपदेश कर्यो छे.’
शुद्ध आत्मानो अनुभव अर्थात् संवर साक्षात् भेदविज्ञानथी ज थाय छे. माटे भेदविज्ञान अत्यंत भाववायोग्य छे. रागथी अत्यंत भिन्न पोतानी चैतन्यमात्र वस्तुनी भावना करवा योग्य छे. ल्यो, आ ज करवा योग्य छे; रागमां एकत्वबुद्धि करवा योग्य नथी.
शुद्ध आत्माना अनुभवथी आस्रवभाव रोकाय छे एटले शुभाशुभभाव अटकी जाय छे. रोकाय छे एटले आवता हता अने रोकाई गया एम नहि पण शुद्धात्मानुं लक्ष थतां ते आस्रवो उत्पन्न थता नथी एने रोकाय छे एम कह्युं छे. आ प्रकारे
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अनुक्रमे सर्व प्रकारे संवर थाय छे माटे भेदविज्ञान अत्यंत भाववायोग्य छे. आ कागळमां लखता नथी के-‘थोडुं लख्युं घणुं करीने मानजो’? तेम आचार्यदेवे अहीं टूंकमां कह्युं के-शुद्ध आत्मानो अनुभव भेदविज्ञानथी ज थाय छे, माटे भेदविज्ञान अत्यंत भाववायोग्य छे. हे भाई! आ थोडुं कह्युं घणुं करीने मानजे.
हवे भेदविज्ञान कयां सुधी भाववुं ते काव्य द्वारा कहे छेः-
‘इदम् भेदविज्ञानम्’ आ भेदविज्ञान एटले रागथी भिन्न पोताना स्वरूपनो अनुभव एवुं भेदज्ञान ‘अच्छिन्न धारया’ अच्छिन्नधाराथी-तूटे नहि-विक्षेप पडे नहि ए रीते अखंड प्रवाहरूपे ‘तावत्’ त्यांसुधी ‘भावयेत्’ भाववुं ‘यावत्’ के ज्यांसुधी ‘परात्च्युत्वा’ परभावोथी छूटी एटले रागथी छूटी ‘ज्ञानं’ ज्ञान ‘ज्ञाने’ ज्ञानमां ज (पोताना स्वरूपमां ज) ‘प्रतिष्ठते’ ठरी जाय. ज्ञाननी निर्मळ पर्याय ध्रुव आत्मस्वरूपमां ज ठरी जाय त्यांसुधी भेदज्ञान भाववुं. ज्ञान ज्ञानमां निश्चलता पामे नहि त्यांसुधी व्यवहाररत्नत्रय करवुं एम नथी कह्युं; समजाणुं काई...?
हवे आवो मार्ग सांभळवा मळे नहि अने कदाचित् सांभळवा मळे तो समजाय नहि एटले घणा लोकोने अज्ञानमां दया पाळवी, व्रत करवां इत्यादि बाह्य क्रिया सहेली लागे छे. परमार्थ वचनिकामां बनारसीदासे कह्युं छे के-‘‘ज्ञाता तो मोक्षमार्ग साधी जाणे; मूढ मोक्षमार्ग साधी जाणे नहि. शा माटे? ते सांभळोः-मूढ जीव आगमपद्धतिने व्यवहार कहे, अने अध्यात्मपद्धतिने निश्चय कहे; तेथी ते एकान्तपणे आगमअंगने साधी तेने मोक्षमार्ग दर्शावे छे, अध्यात्म-अंगना व्यवहारने जाणतो नथी. ए मूढद्रष्टिनो स्वभाव छे. तेने ए प्रमाणे सूझे ज कयांथी? कारण के आगमअंग बाह्यक्रियारूप प्रत्यक्ष-प्रमाण छे तेनुं स्वरूप साधवुं सुगम छे; ते बाह्यक्रिया करतो थको मूढ जीव पोताने मोक्षमार्गनो अधिकारी माने छे, पण अंतर्गर्भित जे अध्यात्मरूप क्रिया ते अंतर्द्रष्टिग्राह्य छे ते क्रियाने मूढ जीव जाणतो नथी. अंतर्द्रष्टिना अभावथी अंतःक्रिया द्रष्टिगोचर थाय नहि. तेथी मिथ्याद्रष्टि जीव मोक्षमार्ग साधवाने असमर्थ छे.’’
जुओ, अध्यात्ममां निश्चय द्रव्य छे अने निर्मळ परिणति ते व्यवहार छे. अंतर्गर्भित अध्यात्मनी क्रिया एटले रागथी भिन्न आत्मानी स्वभावपरिणतिरूप निर्मळ क्रिया ते अध्यात्मनो व्यवहार छे. अंतर्द्रष्टिना अभावे अर्थात् भेदविज्ञानना अभावे मिथ्याद्रष्टि जीव गमे तेटली बाह्यक्रिया करे तोपण मोक्षमार्ग साधी शकतो नथी. तेथी बाह्यक्रियानी द्रष्टि छोडी ज्ञान ज्ञानमां-आत्मामां ज स्थित थई जाय त्यांसुधी भेदज्ञान भाववुं एम उपदेश छे.
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‘अहीं ज्ञाननुं ज्ञानमां ठरवुं बे प्रकारे जाणवुं. एक तो मिथ्यात्वनो अभाव थई सम्यग्ज्ञान थाय अने फरी मिथ्यात्व न आवे त्यारे ज्ञान ज्ञानमां ठर्युं कहेवाय.’
आत्मा ज्ञानानंद सहजानंदस्वरूप छे. एने रागथी भिन्न जाणतां जे भेदज्ञान प्रगट थाय ते अखंडधाराए रहे; वचमां मिथ्यात्व न आवे-फरीने मिथ्यात्व न आवे त्यारे ज्ञान ज्ञानमां ठर्युं कहेवाय. आ एक प्रकार कह्यो.
बीजो प्रकारः-‘ज्यारे ज्ञान शुद्धोपयोगरूपे स्थिर थई जाय अने फरी अन्य विकाररूपे न परिणमे त्यारे ते ज्ञानमां ठरी गयुं कहेवाय.’
ज्यारे ध्यान-ध्याता-ध्येयना विकल्पने छोडी उपयोग एकला अंदर आत्मस्वरूपमां स्थिर लाग्यो रहे अने फरी अन्यविकाररूपे न परिणमे-अन्य अन्य ज्ञेयमां न भमे वा विकल्परूप न थाय त्यारे ज्ञान ज्ञानमां ठरी गयुं कहेवाय.
भगवान आत्मा चिदानंद प्रभु ज्ञानमात्र वस्तु छे. पोतानी चैतन्यमय वस्तु शुं छे एनी खबर न करे अने बहारनी बधी मांडे ए तो ‘घरनां छोकरां घंटी चाटे अने पाडोशीने आटो’ एना जेवी वात छे. अहा! पोतानुं आत्मकल्याण केम थाय एनी खबर न करी अने बीजानुं करवामां रोकाई गयो! भाई! परथी-रागथी भेदज्ञान कर्या विना आत्मकल्याण नहि थाय.
तेथी कहे छे-‘ज्यां सुधी बन्ने प्रकारे ज्ञान ज्ञानमां ठरी न जाय त्यां सुधी भेदविज्ञान भाव्या करवुं.’
श्रीमद् (राजचंद्र) गृहस्थाश्रममां होवा छतां ज्ञानी हता. बहारमां लाखो रूपियानो झवेरातनो धंधो हतो पण अंदरमां तेओ ज्ञानमां तेना भिन्न जाणनारमात्र हता. जेम नाळियेरमां गोळो छूटो पडी जाय तेम रागथी भिन्न पडी आत्मज्ञान-भेदज्ञान करवाथी अंदर चैतन्यगोळो छूटो पडी गयो हतो. भगवान आत्माना अखंड एकरूप चैतन्यरसने बतावतां श्रीमदे कह्युं छे के-
भगवान आत्मा शुद्ध-पवित्र चिदानंदमय ज्ञाननो पिंड छे, चैतन्यघन कहेतां असंख्यप्रदेशी छे, स्वयंज्योति-चैतन्यबिंब भगवान स्वयंसिद्ध वस्तु छे अने आनंदनुं धाम- सुखनुं धाम प्रभु छे. आवो आत्मा भेदज्ञान वडे ज उपलब्ध थाय छे.
अहा! आत्मा पोते सुखनुं धाम होवा छतां लोको सुखने माटे बहार फांफां
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मारे छे. जुओ, एक डोशीमानी अंधारामां सोय खोवाणी. तेने अंधारमां शोधतां ते जडी नहि. एटले डोशीमा अजवाळामां शोधवा लाग्यां. त्यारे कोईए पूछयुं- माजी शुं करो छो? तो कहे-हुं मारी सोय शोधुं छुं. ते कयां खोवाणी छे? त्यारे कहे के-अंधारामां खोवाणी छे. पेला भाईए समज पाडी कह्युं-ज्यां खोवाणी छे त्यां शोधो तो मळे, बीजेथी नहि मळे. पण डोशीमा समज्यां नहि; तो सोय केम मळे? तेम अनादिथी आ आत्मा रागमां-विकल्पमां आखो खोवाई गयो छे, अने तेने ते रागमां ज शोधे छे. विवेकी पुरुषो अहीं कहे छे-भाई! आत्मा ज्यां छे त्यां शोध तो जडशे, नहि तो नहि मळे. पण ते समजतो नथी अने पुण्य-पापना विकल्पमां ज एकता करी त्यां पोताने मानी रह्यो छे, पण भाई! रागमां के विकल्पमां तारो भगवान छे नहि तो ते केम हाथ आवे? (न ज आवे). ज्यां नथी त्यांथी भिन्न पडी ज्यां छे त्यां चेतनामात्र वस्तुमां जा तो तने तारी वस्तु हाथ आवे अने आनंद थाय.
माटे कह्युं के-ज्ञान ज्ञानमां ठरी न जाय त्यां सुधी बे प्रकारे भेदविज्ञान भाव्या करवुं. अहाहा...! उपयोग उपयोगमां-स्वरूपमां संपूर्ण ठरी जाय त्यां सुधी अखंडधाराए भेदज्ञान भाववुं. अहो! शुं कळश छे! सरस, सरस!!
फरीने भेदविज्ञाननो महिमा कहे छेः-
‘ये केचन किल सिद्धाः जे कोई सिद्ध थया छे ‘भेदविज्ञानतः सिद्धाः’ ते भेदविज्ञानथी सिद्ध थया छे.’ भाई! रागरूप जे व्यवहार तेनाथी भिन्न पडी भेदविज्ञान करवुं ए मुक्तिनुं प्रथम कारण छे, राग नहि.
केटलाक लोको माने छे के प्रथम निमित्त के व्यवहार होय, पछी निश्चय थाय. पण आ मान्यता जूठी-अयथार्थ छे. अहीं भावार्थमां कहेशे. के मोक्षनुं प्रथम कारण भेदविज्ञान ज छे. पुण्य-पापना भावथी भिन्न पडी चेतनस्वरूप भगवान आत्मामां एकता करवी ए मुक्तिनुं प्रथम कारण छे. ल्यो, आ टूंकुं ने टच के भेदज्ञान भज. वळी विशेष स्पष्ट करे छे के-
‘ये केचन किल बद्धाः’ जे कोई बंधाया छे अर्थात् जेओ संसारमां चार गतिमां रझळे छे ते ‘अस्य एव अभावतः बद्धाः’ तेना ज (भेदविज्ञानना ज) अभावथी बंधाया छे; आस्रवना परिणामनी एकपणानी मान्यताथी ज बंधाया छे; पण कर्मना उदयथी बंधाया छे एम खरेखर नथी.
प्रश्नः– तो शास्त्रमां आस्रवभाव वडे ज्ञानावरणीय आदिनो द्रव्यबंध थाय छे अने तेनो उदय आवता ज्ञानदर्शननुं हीणपणुं थाय छे एम आवे छे ने?
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उत्तरः– हा, आवे छे; मोक्षमार्गप्रकाशकमां आवे छे के आस्रवभावना कारणे ज्ञानावरणीय आदिनो बंध थाय छे अने तेनो उदय आवतां ज्ञानदर्शननुं हीणपणुं थाय छे. वळी एवी ज रीते मिथ्यात्वरूप परिणमनना कारणे मोहनीयनो बंध थाय छे. जो कर्मना निमित्तपणाथी वात लईए तो इच्छानुसार न बनवुं ते अंतराय कर्मना कारणे, सुखदुःखनां कारणो मळवां ते वेदनीय कर्मना कारणे, शरीरनो संबंध रहेवो ते आयुकर्मना कारणे, गति, जाति आदिनी प्राप्ति थवी ते नामकर्मना कारणे इत्यादि. पण आ तो बधां निमित्तनुं ज्ञान करावनारां निमित्तनी मुख्यताथी करेलां कथन छे. खरेखर तो पोतानी हीणी दशानो काळ छे तेथी हीणी दशा थाय छे, कर्मथी-निमित्तथी हीणी दशा थाय छे एम नथी.
अहीं कहे छे-जे कोई बंधाया छे ते भेदज्ञानना अभावथी अर्थात् आस्रवभावथी बंधाया छे. आत्मा सच्चिदानंद प्रभु अतीन्द्रिय अनाकुळ ज्ञान अने आनंदनो भंडार छे. आवा आत्माने पुण्य-पापना भाव वडे पर्यायमां बंध थाय छे. आ दया, दान, भक्ति इत्यादिनो भाव बधो राग छे, आस्रव छे, विकार छे, विभाव छे अने ए ज बंध छे, एक आत्मज्ञान ज अबंध छे.
संसारमां जीव रखडे छे केम? अने तेनी मुक्ति केम थाय?-एनी टूंकामां आ कळशमां वात करी छे. कहे छे-भेदज्ञानना अभावथी अर्थात् रागनी एकताबुद्धि सहित परिणमनथी जीवो अनादिथी बंधाया छे अने जे कोई सिद्ध थया छे ते बधा भेदज्ञानथी ज थया छे. ‘किल’ शब्द पडयो छे ने? एटले निश्चयथी बंधावामां अने मुक्त थवामां अनुक्रमे भेदविज्ञाननो अभाव अने सद्भाव ज कारण छे. जे कोई निगोदादिना जीवो अत्यार सुधी निश्चयथी बंधाया छे ते भेदज्ञानना अभावथी ज बंधाया छे, कर्मथी बंधाया छे एम नहि. निगोदना जीव पण कर्मनुं जोर छे तेथी रोकाया छे एम नथी. गोम्मटसारमां (गाथा १९७ मां) आवे छे के निगोदना जीवो प्रचुर भावकर्मकलंकने लईने निगोदमां रह्याछे. भाई! निमित्त छे खरुं, पण निमित्त कांई परमां करे छे ए वात मिथ्या छे; निमित्त जो करे तो ते उपादान थई जाय. निगोदना जीवने विकारनी प्रवृत्ति स्वयं एना क्रममां छे अने निमित्तनी उपस्थिति स्वयं एना क्रममां छे. (कोई कोईनाथी छे एम छे ज नहि). समजाणुं कांई...?
केटलाक लोकोने निमित्त-उपादान, निश्चय-व्यवहार अने क्रमबद्ध संबंधी अहींनी प्ररूपणा विरुद्ध वांधा छे. भाई! जे काळे द्रव्यनी जे पर्याय थवानी होय ते क्रमबद्ध तेना काळे ज थाय छे. निमित्त आव्युं माटे थाय छे एम नथी. छतां जो कोई एम माने छे के निमित्त आव्युं माटे परद्रव्यनी पर्याय थई तो तेना एवा निर्णयमां भेदज्ञाननो अभाव छे, केमके ए जीव तो रागनी निमित्तनी एकतामां पडयो छे, पण रागथी-परथी भिन्न पडयो नथी. तेथी निमित्तथी परमां कार्य थाय छे एम जेनी
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मान्यता छे ते जीव त्यां रागमां ज बंधाणो छे; तेनी मुक्ति थती नथी. तेवी रीते व्यवहारथी निश्चय प्रगटे एम माननार पण रागना एकत्वमां पडयो छे अने ए भेदज्ञानना अभावे बंधाय ज छे.
वळी केटलाक एम तो कहे छे के-‘काळलब्धि पाके त्यारे कार्य थाय’ पण तेमने काळलब्धिनुं यथार्थ ज्ञान होतुं नथी. भाई! काळलब्धिनुं यथार्थ ज्ञान कोने थाय? जे जीव आस्रवथी भिन्न पडीने स्वभावमां अंतःसन्मुख थई सम्यग्दर्शन प्रगट करे तेने काळलब्धिनुं साचुं ज्ञान थाय छे. शास्त्रमांथी मात्र बहारथी धारणा करी ले एने काळलब्धिनुं यथार्थ ज्ञान नथी.
प्रश्नः– तो कळशटीकामां राजमलजीए लीधुं छे के-‘काळलब्धि विना करोड उपाय जो करवामां आवे तोपण जीव सम्यक्त्वरूप परिणमनने योग्य नथी एवो नियम छे’ ए केवी रीते छे?
उत्तरः– भाई! कार्य थवामां तो पांचे कारणो एक साथे होय छे, पण तेना कथनमां कोई एकनी विवक्षा बने छे. त्यां कळशटीकामां काळलब्धिनी मुख्यताथी कथन कर्युं छे; पण ज्यां एक होय त्यां पांचे होय ज छे एवो सम्यक् अभिप्राय समजवो.
मोक्षमार्ग प्रकाशकमां (नवमा अधिकारमां) लीधुं छे के-काळलब्धि अने भवितव्यता कोई वस्तु नथी. जे काळमां कार्य थयुं ते ज एनी काळलब्धि अने जे थवा योग्य हतुं ते ज थयुं ए भवितव्य. वळी कर्मना उपशमादिक छे ते तो पुद्गलनी शक्ति छे, तेनो कर्ताहर्ता आत्मा नथी, तथा पुरुषार्थपूर्वक उद्यम करवामां आवे छेे ते आत्मानुं कार्य छे, माटे पुरुषार्थपूर्वक उद्यम करवानो उपदेश छे. वळी त्यां आगळ जतां कह्युं छे के-जे जीव श्री जिनेश्वरना उपदेश अनुसार पुरुषार्थ पूर्वक मोक्षनो उपाय करे छे तेने तो काळलब्धि वा भवितव्य थई चूकयां तथा कर्मनां उपशमादि थयां छे त्यारे तो ते आवो उपाय करे छे, माटे जे पुरुषार्थ वडे मोक्षनो उपाय करे छे तेने तो सर्व कारणो मळे छे अने अवश्य मोक्षनी प्राप्ति थाय छे-एवो निश्चय करवो.
अहा! लोको पोतानो हठाग्रह राखीने शास्त्रो वांचे छे तेथी तेओ शास्त्रना अभिप्रायने यथार्थ समजता नथी. परंतु भाई! ते हितनो मार्ग नथी. पोतानो दुराग्रह छोडी शास्त्र शुं कहेवा मागे छे ते समजवा पोतानी द्रष्टि केळववी जोईए. (तत्त्वज्ञान पामवानी आ ज रीत छे).
जुओ, आत्मामां जेम ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, आनंद आदि शक्तिओ छे तेम तेमां एक ‘अकार्यकारणत्व’ नामनी शक्ति छे. आ शक्तिनुं कार्य शुं? तो