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ते पोताना चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मस्वरूपने जाणतो नथी. अहाहा...! पोते तो जाणवा- देखवाना स्वभावे शुद्ध चैतन्यचमत्कारमात्र वस्तु छे. एक समयनी निर्मळ ज्ञाननी पर्यायमां आखा लोकालोकने जाणे एवा स्वभावना सामर्थ्यथी भरेलो छे. अरे! पण अज्ञानी रागने ज आत्मा माने छे; तेथी ते शुद्ध आत्माने बीलकुल अनुभवतो नथी, पण रागने ज अनुभवतो थको रागी, द्वेषी अने मोही थाय छे.
‘माटे एम सिद्ध थयुं के भेदविज्ञानथी ज शुद्ध आत्मानी उपलब्धि (अनुभव) थाय छे.’ रागथी भिन्न पडी अंतःअनुभव कर्या विना, भेदज्ञान विना ते रागी थाय छे अने भेदज्ञान थतां ज्ञानी थाय छे. आत्मोपलब्धिनो आ ज मार्ग छे.
भाई! व्यवहारथी निश्चय थाय एम जे माने छे ते रागनो बंधाणी मिथ्याद्रष्टि मोही छे. ते रागने ज आत्मा माने छे अने रागने ज अनुभवे छे. अहीं कहे छे जेमने भेदविज्ञान नथी थयुं तेवा अज्ञानी जीवो प्रतिकूळता आवतां राग-द्वेषमां ज रोकाई जशे अने तेथी मोहने ज प्राप्त थशे पण शुद्धात्माने प्राप्त नहि थाय. रागथी लाभ थाय एम माननार अज्ञानी जीव दया, दान आदि शुभरागमां अने क्रोधादि द्वेषमां रोकाई जशे पण शुद्ध आत्माने बीलकुल अनुभवशे नहि. जुओने शब्द केवा छे? के अज्ञानी शुद्ध आत्माने बीलकुल अनुभवतो नथी ज्यारे ज्ञानी शुद्ध आत्माने ज अनुभवे छे.
व्यवहार होय छे खरो, पण व्यवहारथी भेदज्ञान प्रगटतुं नथी पण व्यवहारथी भेद पाडीने अंतःसन्मुख थतां भेदज्ञान प्रगट थाय छे. तेवी रीते कार्य थवामां निमित्त होय छे खरुं, पण निमित्तथी कार्य थाय छे एम नथी; कार्य तो उपादानथी ज थाय छे.
त्यारे कोई कहे छे-मोक्षमार्गप्रकाशकमां तो एम आवे छे के -जीवमां विकार कर्मना निमित्त विना थाय तो विकार जीवनो स्वभाव थई जाय. (माटे कार्य निमित्तथी थाय छे एम त्यां कहेवा मागे छे).
समाधानः– त्यां आशय एम छे के-विकारना परिणाम निमित्तना लक्षे थाय छे, निमित्त विकार करावे छे एम आशय नथी. वळी विकार छे तो एक समयनी पर्यायनो स्वभाव ज. विकार एक समय माटे धारी राखेलो जीवनो विभाव-स्वभाव छे. विभाव पण पर्यायनो स्वभाव ज छे. स्वभाव एटले अहीं त्रिकाळी स्वभावनी वात नथी. (निमित्त विना थाय तो विकार स्वभाव थई जाय एम जे मोक्षमार्ग प्रकाशकमां कह्युं ते त्रिकाळी स्वभावनी वात छे).
क्रमबद्धथी लईए तो विकार जे काळे थयो छे ते एनो स्वकाळ छे, अने ते पोताथी थयो छे. निमित्तना लक्षे थयो छे एम कहेवुं ए व्यवहार छे. विकारनुं समय-समयनुं परिणमन पोताना षट्कारकोथी स्वतंत्र थाय छे; तेम निर्मळ पर्यायनुं परिणमन
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पण स्वतंत्र पोताना षट्कारकथी थाय छे. मिथ्यात्व, राग-द्वेष आदि जे जे विकारी पर्याय थाय छे ते स्वतंत्रपणे पोताना षट्कारकथी थाय छे; कर्मने लईने के पोताना द्रव्य-गुणने लईने नहि. आ वात पंचास्तिकायमां गाथा ६२ मां लीधी छे. वळी प्रवचनसार गाथा १६ मां पोते ‘स्वयंभू’ थाय छे एनुं व्याख्यान करतां कह्युं छे के केवलज्ञान पण पोताना अभिन्न कर्ता, कर्म, करण आदिथी उत्पन्न थयुं छे, ज्ञानावरणादि कर्मोनो क्षय थयो माटे उत्पन्न थयुं छे एम नथी. निर्मळ परिणति पोताना षट्कारको वडे थई छे, एने परकारकोना अभावनी कोई अपेक्षा नथी. तेवी ज रीते विकारने पण परकारकोना सद्भावनी कोई अपेक्षा नथी.
मोक्षमार्ग प्रकाशकमां ज आवे छे के कर्म अने आत्मा बन्ने एक साथे छे (एकक्षेत्रावगाहे अने समकाळे छे) छतां कर्म आत्मानी पर्यायने करतां नथी अने आत्मा कर्मनी पर्यायने करतो नथी. कोई कोईनुं कर्ता छे ज नहि आ सिद्धांत छे.
तो परस्पर कार्यकारण संबंध छे एम शास्त्रोमां आवे छे ने?
हा, आवे छे; पण एनो अर्थ शुं? एनो अर्थ ए छे कार्य तो उपादानथी ज थाय छे अने त्यारे जे अनुकूळ निमित्त होय छे तेने कारणनो उपचार आपीने व्यवहारथी बीजुं कारण कहेवामां आवे छे. निमित्त कारण एटले निमित्त छे बस एटलुं ज; पण निमित्त कार्यनुं कर्ता छे एम नहि कोई परनुं कर्ता कदीय होई शकतुं नथी ए मूळ सिद्धांत छे. निमित्तथी कार्य थाय तो निमित्त-उपादान एक थई जाय. निमित्त उपादान थई जाय अर्थात् निमित्त रहे ज नहि. (बे भिन्न वस्तुमां कार्यकारणसंबंध कहेवो ए तो उपचारमात्र छे). समजाणुं कांई...?
त्यारे वळी कोई एम कहे छे के-निश्चयथी स्वना आश्रये धर्म थाय अने व्यवहारथी परना आश्रये थाय-जो एम कहो तो अनेकान्त कहेवाय.
अरे भाई! ए अनेकान्त नथी, ए तो मिथ्या अनेकान्त (उभयाभास) छे. सत्य तो आ छे के-रागथी भिन्न पडे तेने भेदज्ञान-सम्यग्ज्ञान थाय अने रागथी न थाय. आनुं नाम साचुं अनेकान्त छे.
अहीं कहे छे-जेने भेदज्ञान नथी ते अज्ञानी जीव रागने पोतानो मानतो थको रागी थाय छे अने द्वेषने पोतानो मानतो थको द्वेषी थाय छे. पंचाध्यायीमां आवे छे के जेटले दरज्जे जीवने अनुकूळतामां राग छे तेटले दरज्जे तेने प्रतिकूळता उपर द्वेष छे. जेम शरीर प्रत्ये जेटलो राग छे तेटलो ज शरीरमां रोग आवतां तेने द्वेष थाय छे. प्रशंसामां जेटले दरज्जे राग छे तेटलो ज निंदाना वचनोमां द्वेष थाय छे. अनुकूळतामां हरख अने प्रतिकूळतामां अणगमानुं दुःख अज्ञानीने भेदज्ञानना अभावे थया विना रहेतुं
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नथी. ज्ञानीने एवां अज्ञानमय सुख-दुःख होतां नथी केमके भेदज्ञानना बळे ते रागी-द्वेषी थतो नथी.
अहाहा...! भगवान आत्मा अकषायस्वभावनो-शांतरसनो पिंड छे. भक्तामर स्तोत्रमां आवे छे के-भगवान! जेम आप परम शांतरसे परिणम्या छो तेम आपनो देह पण जाणे अकषाय शांतिनुं बिंब होय तेम ठरी गयेलुं जणाय छे. भगवान! जाणे जगतमां जेटला शांत-शांत भावे परिणमनारा परमाणुओ छे ते तमाम आपना औदारिक शरीररूपे परिणमी गया छे. आपनुं बिंब आपनी परम शांत वीतरागरसे परिणमेली परिणतिने जाहेर करे छे. भक्तिमां आवे छे ने के-‘उपशमरस वरसे रे प्रभु तारा नयनमां;’ अहाहा...! भगवाननी परिणति जाणे एकली अकषाय शांतरसनुं -आनंदरसनुं ढीम. जेम बरफनी पाट शीतळ- शीतळ-शीतळ होय छे तेम भगवाननी परिणति एकली शांत-शांत-शांत होय छे. आवी शान्ति भेदज्ञानकला वडे प्रगट थाय छे. वस्तु तो परम शान्तस्वभावी छे अने ते भेदविज्ञान थतां प्रगट थाय छे. आवी वात छे.
परना लक्षे जे राग थाय छे तेनो स्वामी भेदज्ञानी आत्मा थतो नथी. धर्मजिनेश्वरना स्तवनमां आवे छे के-
भगवान! एक वीतराग! (पोतानो ज्ञायकदेव) सिवाय मनमंदिरमां बीजाने (- रागने) आववा नहि दउं. आ अमारी-अनंत केवळीओ अने तीर्थंकरोना कुळनी रीत-कुळवट छे.
श्रीमद् राजचंद्रजी ज्ञानी थई गया. तेओ एक भवे मोक्ष जशे. तेमणे कह्युं छे के-‘देह एक धारीने जाशुं स्वरूप स्वदेश रे.’ श्रीमद्ने मोटो झवेरातनो धंधो हतो. परंतु ए तो बधी एमने मन जडनी क्रिया हती. अंदरथी (अभिप्रायमां) तो तेओ रागथी भिन्न पडी गयेला हता. अहो! भेदज्ञानी जीवोनुं अंतरंग कोई पारलौकिक होय छे.
भाई! बधानो सरवाळो आ छे के-भेदज्ञानथी ज शुद्ध आत्मानो अनुभव थाय छे, राग अने व्यवहार करतां करतां नहि. भाई! आ समजवामां तारुं हित छे हों; शरीर अत्यारे जुवान सशक्त होय, कंईक भणी-गणीने पंडित थयो होय, बोलतां सारुं आवडतुं होय अने बहारमां कांईक आबरू होय एटले रोफमां (मिथ्यागर्वमां) आवी जाय पण जुवानी पींखाई जशे बापु! अने बहारनी पंडिताई आत्माना अनुभवना काममां खप नहि लागे. रागथी भिन्न पडीने भेदविज्ञान प्रगट करवाथी ज आत्मानुभवनुं कार्य थशे, रागने साथे राखीने (- स्वामित्व राखीने) ए काम नहि थाय. आवुं ज वस्तुस्वरूप छे.
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‘जेने भेदविज्ञान थयुं छे ते आत्मा जाणे छे के-‘‘आत्मा कदी ज्ञानस्वभावथी छूटतो नथी.’’ ज्यारे ज्ञानस्वरूपी आत्मानो अनुभव थयो त्यारे जाण्युं के आत्मा रागस्वरूप थयो ज नथी; ए तो सदाय ज्ञानस्वभावे ज रहेलो छे. अरे भाई! जो आत्मा शुभाशुभ रागना स्वभावे थई जाय तो भिन्न आत्मानुं ज्ञान कयांथी थाय? एक समय पण जो आत्मा ज्ञानस्वभावने छोडी रागस्वभावे-जडस्वभावे थई जाय तो आत्मज्ञान थाय ज नहि. आत्मा तो अनादिथी रागरहित शुद्ध ज छे. अज्ञानी, हुं रागरूप छुं एम माने छे तेथी पर्यायमां रागादि अशुद्धता छे. पर्यायमां अशुद्धता छे पण वस्तु आखी कयां ते-रूप थई गई छे? पर्यायद्रष्टि छूटी वस्तुद्रष्टि थतां ज वस्तुमां अशुद्धता छे नहि एवुं यथार्थ भान थाय छे. समयसार गाथा ६ मां कह्युं छे के-ज्ञायक ज्ञायक ज छे, प्रमत्त पण नथी, अप्रमत्त पण नथी. वळी त्यां (समयसारमां) गाथा ३४ मां पण आवे छे के-ज्ञानस्वभावथी पोते (आत्मा) छूटयो नथी, माटे प्रत्याख्यान ज्ञान ज छे एम अनुभव करवो.
हवे कहे छे-‘आवुं जाणतो होवाथी ते, कर्मना उदय वडे तप्त थयो थको पण, रागी, द्वेषी, मोही थतो नथी परंतु निरंतर शुद्ध आत्माने अनुभवे छे.’
जुओ, रावण साथेना युद्धमां रावणनी विद्याथी लक्ष्मण वासुदेव मूर्छित थई पडया. रामचंद्रजीने ते काळे एम थयुं के आ शुं थई गयुं? सीताजीने रावण लई गयो, भाई पण गयो; आव्या त्यारे त्रण साथे हता अने जतां हुं एकलो जईश अने माताजी पूछशे तो हुं शुं कहीश? वासुदेव मूर्छामां छे. रामचंद्रजी कहे छे-भाई! एक वार बोल; माताजीने हुं शुं जवाब दईश? अहा! रामचंद्रजीने ते समये पण श्रद्धान तो छे के वासुदेवने राज्य मळे पछी ज मृत्यु थाय छतां रागे एवुं काम कर्युं.
पछी कोईना कहेवाथी भरतना राज्यमांथी त्रिशल्या नामे एक कुमारिका हती तेने बोलावी. त्रिशल्याने सम्यग्दर्शन न हतुं पण पूर्वे एवुं पुण्य बांधेलुं के ते छावणीमां दाखल थई के केटला घायल सैनिकोने रूझ आवी अने तेणीए स्नान करीने पाणी छांटयुं के तरत ज लक्ष्मण मूर्छामांथी जाग्रत थया. रामचंद्रजी आवा प्रसंगे पण धैर्य धारी रह्या; तेमणे पोतानुं ज्ञानपणुं छोडयुं नहि. कर्मना उदयना आकरा घेरावामां पण तेओ अज्ञानभावने प्राप्त न थया, रागी-द्वेषी-मोही न थया, अंतरंगमां आत्माना आश्रये ज्ञानमयपणे ज परिणमता रह्या.
कर्मना उदय वडे तप्त थयो थको पण ज्ञानी रागी, द्वेषी, मोही थतो नथी, परंतु शुद्ध आत्माने ज अनुभवे छे. भले विकल्प हो, पण लब्धज्ञानमां ते आत्माने
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ज अनुभवे छे. ते काळे पण तेने जेटलो आत्मानो आश्रय छे तेटली आत्मानी शांति प्रगट छे. तेने आत्माना आश्रये शुद्ध परिणति निरंतर चालु ज छे.
वळी, ‘जेने भेदविज्ञान नथी ते आत्मा, आत्माना ज्ञानस्वभावने नहि जाणतो थको, रागने ज आत्मा माने छे तेथी ते रागी, द्वेषी, मोही थाय छे परंतु कदी शुद्ध आत्माने अनुभवतो नथी. माटे ए नक्की थयुं के भेदविज्ञानथी ज आत्मानी उपलब्धि थाय छे.’ ल्यो, आ सिद्धांत सिद्ध कर्यो के भेदविज्ञानथी ज आत्मानी प्राप्ति थाय छे; शुभक्रियाथी थाय छे एम नहि.
बीजे शुभक्रियाथी थाय छे एम कह्युं छे ने?
कह्युं छे तो शुं आनाथी कांई विरुद्ध होय? भाई! भगवाननी वाणी पूर्वापर अविरुद्ध होय छे. बीजे ठेकाणे कह्युं छे ए तो त्यां बाह्य सहचर अने निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे के ज्ञानीने आवो राग सहचरपणे होय छे. निमित्तनुं ज्ञान कराववा निमित्तनी मुख्यता करीने कथन कर्युं होय त्यां निमित्तथी कार्य थाय छे एम न समजवुं.
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कथं शुद्धात्मोपलम्भादेव संवर इति चेत्–
जाणंतो दु असुद्धं असुद्धमेवप्पयं लहदि।। १८६।।
जानंस्त्वशुद्धमशुद्धमेवात्मानं लभते।। १८६।।
हवे पूछे छे के शुद्ध आत्मानी उपलब्धिथी ज संवर कई रीते थाय छे? तेनो उत्तर कहे छेः-
अणशुद्ध जाणे आत्मने अणशुद्ध आत्म ज ते लहे. १८६.
गाथार्थः– [शुद्धं तु] शुद्ध आत्माने [विजानन्] जाणतो-अनुभवतो [जीवः] जीव [शुद्धं च एव आत्मानं] शुद्ध आत्माने ज [लभते] पामे छे [तु] अने [अशुद्धम्] अशुद्ध [आत्मानं] आत्माने [जानन्] जाणतो-अनुभवतो जीव [अशुद्धम् एव] अशुद्ध आत्माने ज [लभते] पामे छे.
टीकाः– जे सदाय अच्छिन्नधारावाही ज्ञानथी शुद्ध आत्माने अनुभव्या करे छे ते, ‘ज्ञानमय भावमांथी ज्ञानमय भाव ज थाय छे’ ए न्याये नवां कर्मना आस्रवणनुं निमित्त जे रागद्वेषमोहनी संतति (परंपरा) तेनो निरोध थवाथी, शुद्ध आत्माने ज पामे छे; अने जे सदाय अज्ञानथी अशुद्ध आत्माने अनुभव्या करे छे ते, ‘अज्ञानमय भावमांथी अज्ञानमय भाव ज थाय छे’ ए न्याये नवां कर्मना आस्रवणनुं निमित्त जे रागद्वेषमोहनी संतति तेनो निरोध नहि थवाथी, अशुद्ध आत्माने ज पामे छे. माटे शुद्ध आत्मानी उपलब्धिथी (अनुभवथी) ज संवर थाय छे.
भावार्थः– जे जीव अखंडधारावाही ज्ञानथी आत्माने निरंतर शुद्ध अनुभव्या करे छे तेने रागद्वेषमोहरूपी भावास्रवो रोकाय छे तेथी ते शुद्ध आत्माने पामेछे; अने जे जीव अज्ञानथी आत्माने अशुद्ध अनुभवे छे तेने रागद्वेषमोहरूपी भावास्रवो रोकाता नथी तेथी ते अशुद्ध आत्माने ज पामे छे. आ रीते सिद्ध थयुं के शुद्ध आत्मानी उपलब्धिथी (अनुभवथी) ज संवर थाय छे.
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ध्रुवमुपलभमानः शुद्धमात्मानमास्ते।
तदयमुदयदात्माराममात्मानमात्मा
परपरिणतिरोधाच्छुद्धमेवाभ्युपैति।। १२७।।
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [यदि] जो [कथम् अपि] कोई पण रीते (तीव्र पुरुषार्थ करीने) [धारावाहिना बोधनेन] धारावाही ज्ञानथी [शुद्धम् आत्मानम्] शुद्ध आत्माने [ध्रुवम् उपलभमानः आस्ते] निश्चळपणे अनुभव्या करे [तत्] तो [अयम् आत्मा] आ आत्मा, [उदयत्–आत्म–आरामम् आत्मानम्] जेनो आत्मानंद प्रगट थतो जाय छे (अर्थात् जेनी आत्मस्थिरता वधती जाय छे) एवा आत्माने [पर–परिणति–रोधात्] परपरिणतिना निरोधथी [शुद्धम् एव अभ्युपैति] शुद्ध ज प्राप्त करे छे.
भावार्थः– धारावाही ज्ञान वडे शुद्ध आत्माने अनुभववाथी रागद्वेषमोहरूप परपरिणतिनो (भावास्रवोनो) निरोध थाय छे अने तेथी शुद्ध आत्मानी प्राप्ति थाय छे.
धारावाही ज्ञान एटले प्रवाहरूप ज्ञान-अतूटक ज्ञान. ते बे रीते कहेवाय छेः-एक तो, जेमां वच्चे मिथ्याज्ञान न आवे एवुं सम्यग्ज्ञान धारावाही ज्ञान छे. बीजुं, एक ज ज्ञेयमां उपयोगना उपयुक्त रहेवानी अपेक्षाए ज्ञाननुं धारावाहीपणुं कहेवामां आवे छे, अर्थात् ज्यां सुधी उपयोग एक ज्ञेयमां ज्ञेययुक्त रहे छे त्यां सुधी धारावाही ज्ञान कहेवाय छे; आनी स्थिति (छद्मस्थने) अंतर्मुहूर्त ज छे, पछी ते खंडीत थाय छे. आ बे अर्थमांथी ज्यां जेवी विवक्षा होय तेवो अर्थ समजवो. अविरतसम्यग्द्रष्टि वगेरे नीचेनां गुणस्थानवाळा जीवोने मुख्यत्वे पहेली अपेक्षा लागु पडे. श्रेणी चडनार जीवने मुख्यत्वे बीजी अपेक्षा लागु पडे कारण के तेनो उपयोग शुद्ध आत्मामां ज उपयुक्त छे. १२७.
हवे पूछे छे के शुद्ध आत्मानी उपलब्धिथी ज संवर कई रीते थाय छे? तेनो उत्तर कहे छेः-
शुद्ध आत्माने एटले पोतानी त्रिकाळी शुद्ध अखंड एकरूप जे वस्तु तेने जाणतो- विजानन्–मूळमां वियाणंतो–एम छे ने?-एटले के जे पर्यायमां रागथी भिन्न
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शुद्ध आत्माने जाणे छे-अनुभवे छे ते शुद्ध आत्माने ज पामे छे अर्थात् तेने शुद्ध आत्मानी उपलब्धि वडे संवर ज थाय छे. अने अशुद्ध आत्माने जाणतो-अनुभवतो-एटले के पर्यायमां जे राग छे ते अशुद्ध आत्मा छे, तेमां-अशुद्ध आत्मामां एकत्व करीने पोतापणे परिणमतो ते अशुद्ध आत्माने ज पामे छे, अर्थात् रागने ज पामे छे; तेने शुद्ध आत्मानो अनुभव थतो नथी. जुओ, जेओ दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा, सम्मेदशिखरनी जात्रा इत्यादि रागने ज अनुभवे छे वा तेने भलो-हितकारी जाणे छे तेओ अशुद्ध आत्माने ज पामे छे एम कहे छे. राग ते हुं अने राग मारुं कर्तव्य एम जाणे छे तेओ अशुद्धताने रागने ज पामे छे.
‘जे सदाय अच्छिन्नधारावाही ज्ञानथी शुद्ध आत्माने अनुभव्या करे छे ते, ‘‘ज्ञानमय भावमांथी ज्ञानमय भाव ज थाय छे’’ ए न्याये नवां कर्मना आस्रवणनुं निमित्त जे रागद्वेषमोहनी संतति तेनो निरोध थवाथी, शुद्ध आत्माने ज पामे छे.’
जुओ, गाथामां ‘सुद्धं वियाणंतो’ शब्द पडयो छे तेनो आ अर्थ कर्यो-के हुं सदाय ज्ञानानंदस्वभावमय छुं एवुं जेने अच्छिन्नधाराए-अतूटधारावाही प्रवाहे ज्ञानमय परिणमन छे अने ते वडे जे सतत शुद्ध आत्माने अनुभव्या करे छे तेने अशुद्धता जे रागद्वेषमोह तेनी संततिनो निरोध थवाथी शुद्ध आत्मानी ज प्राप्ति थाय छे. ‘ज्ञानमयभावमांथी ज्ञानमय भाव ज थाय छे’ -ए न्याये एवा जीवने ज्ञानमयभावमांथी ज्ञान, आनंद अने शांतिमय भाव ज उत्पन्न थाय छे, एने अशुद्धता थती नथी, रागादि विकार थतो नथी.
प्रश्नः– तो चरणानुयोगमां व्रतादि (राग) ना आचरणनुं विधान छे ने?
उत्तरः– भाई! चरणानुयोगमां सम्यग्द्रष्टिने (आत्माना अनुभवी जीवने) व्यवहाररत्नत्रयना जे विकल्पो आवे छे तेनुं भूमिकानुसार कथन कर्युं छे. ज्ञानीने (ज्ञानदशानी साथे) व्रतादिना विकल्पनी दशा होय छे परंतु तेने स्वभावना आश्रये तेनो निषेध वर्ततो होय छे. समजाणुं कांई...?
रागीने रागनी एकतामां अच्छिन्नधाराए रागमय धारा वहे छे, ज्यारे समकिती- ज्ञानीने रागथी भिन्नता थवाथी (भेदविज्ञान थवाथी) अच्छिन्न ज्ञानधारा वहे छे. ज्ञानी सदाय अच्छिन्नधारावाही आत्मानी शुद्धद्रष्टिपणे परिणमतो होवाथी ते अच्छिन्नपणे शुद्ध ज्ञानमय परिणमनने प्राप्त थाय छे. तेना ज्ञान अने आनंदना वेदनरूप परिणमनमां तूट-भंग पडतो नथी.
ज्ञानमयभावमांथी ज्ञानमय ज भाव थाय छे ए न्याये ज्ञानीने नवां कर्म आववानुं जे निमित्त एवा राग-द्वेष-मोहनी संतति-परंपरानो निरोध थाय छे. ल्यो आ संवर
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थयो. ज्ञाननी धारावाही एकाग्रतानी प्रगटता अने रागमय भावनो निरोध थवो एनुं नाम संवर छे. ज्यां अच्छिन्नधाराए ज्ञानस्वरूप भगवान आत्माना अनुभवनी प्रगटता थई त्यां रागद्वेषमोहनी संतति अटकी जाय छे; आनुं नाम संवर छे, धर्म छे. संवर थतां शुद्ध आत्मानो भेटो थाय छे, भगवान निर्मळानंदना आनंदनो अनुभव थाय छे. हवे कहे छे-
‘अने जे सदाय अज्ञानथी अशुद्ध आत्माने अनुभव्या करे छे ते, ‘‘अज्ञानमय भावमांथी अज्ञानमय भाव ज थाय छे’’-ए न्याये नवां कर्मना आस्रवणनुं निमित्त जे रागद्वेषमोहनी संतति तेनो निरोध नहि थवाथी, अशुद्ध आत्माने ज पामे छे.’
शुं कह्युं? के जे सदाय अज्ञानथी एटले के रागथी मने लाभ थशे एवी मिथ्याद्रष्टि वडे अशुद्ध आत्माने अनुभव्या करे छे ते अशुद्ध आत्माने अर्थात् मलिन भावने ज पामे छे. मा- बाप आपणां छे, तेमणे आपणने पाळी-पोषी मोटां कर्यां छे; माटे तेमनी सेवा करवी आपणी फरज छे एवुं माननारा सदाय अज्ञानथी परने अने रागने ज आत्मा मानी अशुद्धताने अनुभव्या करे छे. अज्ञानमय भावमांथी अज्ञानमय भाव ज नीपजे ए न्याये नवा कर्मना आस्रवणनुं निमित जे रागद्वेषमोहनी संतति तेनो निरोध नहि थवाथी तेओ अशुद्धपणाने- मलिनताने ज अनुभवे छे.
कर्ताकर्म अधिकारमां दाखलो आवे छे के-लोढामांथी लोढानां ज हथियार थाय, लोढामांथी सोनानां हथियार न थाय; वळी सोनामांथी लोढानां हथियार न थाय, तेम अज्ञानमय भावमांथी अज्ञानभाव ज थाय छे. अज्ञानी जीव रागद्वेषने पोताना मानीने अनुभवे छे तेथी एमांथी रागमय-अज्ञानमय भाव ज उत्पन्न थाय छे, ते अशुद्धपणाने ज पामे छे.
रत्नत्रयना रागने एकत्वपणे अनुभवे ते अज्ञान छे. देव-गुरु-शास्त्रना श्रद्धान, भक्ति आदिना रागने पोताना मानीने अनुभवे ते मिथ्यादर्शन मिथ्याभाव अने अज्ञान छे. अरे भाई! जेने शुद्ध आत्मानुं ज्ञान नथी तेने व्यवहाररत्नत्रय केवां? तेने व्यवहाररत्नत्रय होतां नथी. विकल्पने पोतानो मानीने अनुभवे त्यां तो मिथ्यात्व अने असामायिकनो भाव छे.
बापु! धर्म तो धीरानां काम छे. जे कोई रागथी भिन्न पडीने आत्माने ज्ञानमय अनुभवे छे तेने शुद्ध आत्मा प्राप्त थाय छे अने जे कोई अज्ञान वडे रागने पोतानो मानी अनुभवे छे एने अशुद्धता-मलिनता प्राप्त थाय छे.
जुओ, अहीं एम न कह्युं के कर्मना उदयथी आत्मा अशुद्ध थयो माटे ते अशुद्ध आत्माने अनुभव्या करे छे. अज्ञानथी अशुद्ध आत्माने अनुभव्या करे छे एम कह्युं छे. कर्म निमित्त हो, पण कर्मने लईने अशुद्धता अनुभवे छे एम नथी.
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पोते कर्ता थईने रागने करे छे, रागरूप परिणमे छे तो अशुद्धताने पामे छे एम वात छे.
अज्ञानी जीव राग मारुं कर्तव्य छे अने रागथी मने लाभ छे एम माने छे. अने तेथी तेने रागद्वेषमोहना भावनी संततिनो निरोध थतो नथी अर्थात् नवा नवा रागद्वेषमोहना भावो निरंतर थया ज करे छे अने ते ज आस्रव-बंध छे. ज्यारे ज्ञानी-धर्मी जीव रागरहित ज्ञानमय आत्माने अनुभवतो होवाथी तेने रागद्वेषमोहनी संततिनो निरोध थाय छे अने तेथी ते शुद्ध आत्माने (पवित्रताने) उपलब्ध करे छे अने ए ज संवर छे. ए ज कहे छे-
‘माटे शुद्ध आत्मानी उपलब्धिथी (अनुभवथी) ज संवर थाय छे.’
अहाहा...! जेने स्वभावसन्मुख द्रष्टि छे अने रागथी भिन्नता थई छे तेने धारावाही निर्मळता-पवित्रता प्रगट थाय छे. एने वर्तमान कर्मनो संवर थाय छे अने संवरपूर्वक पूर्व कर्मनी निर्जरा थाय छे.
त्यारे कोई कहे के-भगवाने तपथी निर्जरा कही छे; अनशन, उणोदर इत्यादि करवाथी तप थाय छे अने एना वडे निर्जरा थाय छे.
समाधानः– भाई! जेने तुं तप कहे छे ते वास्तविक तप कयां छे? एने तो उपचारथी तप संज्ञा कही छे. एवुं (बाह्य) तप कांई निर्जरानुं कारण नथी. भाई! तप कोने कहेवाय तेनी तने खबर नथी. भगवान आत्मामां अंदर उग्र रमणता थवी एनुं नाम तप छे अने ते संवरपूर्वक ज होय छे. अहीं ए ज कह्युं के-रागथी भिन्न शुद्ध आत्माना अनुभवथी रागनुं अटकवुं थाय छे अने ए रागनो निरोध थई संवर थाय छे.
त्यारे केटलाक कहे छे-ए तो निश्चयनी वात छे; व्यवहार पण छे ने?
पण भाई! निश्चय एटले ज सत्य. समयसार बंध अधिकारमां आवे छे के जिनवरे कहेलो व्रतादि बधो व्यवहार राग छे. ज्यां सुधी पूर्ण वीतरागता न थाय त्यां सुधी निश्चयवंतने साधकदशामां एवो व्यवहार होय छे पण ए व्रतादिनो बाह्य व्यवहार छे आस्रव, बंधनुं ज कारण. भाई! राग छे ते बंधनुं ज कारण छे.
अरे! आवुं सत्य बहार आव्युं तो विरोध ऊठया! भगवान ऋषभदेवनी दिव्यध्वनि छूटी ते पहेलां असंख्य अबज वर्षथी एक स्वर्गनी ज गति चाली आवती हती. ते काळे जुगलिया मरीने स्वर्गमां ज जता. पण ज्यां दिव्यध्वनि छूटी त्यां पांचेय गति शरू थई गई. जे पात्र जीवो हता तेओ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र
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प्रगट करीने मोक्ष गया, बीजा साधारण जीवो हता तेओ पुण्य उपजावीने स्वर्ग के मनुष्यमां चाल्या गया अने वाणीनो अने तत्त्वनो विरोध करनारा नरक अने तिर्यंच थईने निगोदमां चाल्या गया. दिव्यध्वनि छूटवाना काळमां आम थयुं एटले व्यवहारे एम कहेवाय पण वाणीना कारणे आ थयुं छे एम नथी. एवी ज जीवोनी योग्यता हती; वाणी तो निमित्तमात्र छे, वाणीथी लाभ के नुकशान थतुं नथी. भाई! मार्ग तो आ छे, कोईने बेसे, न बेसे-एमां सौ स्वतंत्र छे.
वळी कोई कहे छे-कार्य कोई वार उपादानथी थाय अने कोई वार निमित्तथी थाय एम अनेकान्त राखो. कोई वार व्यवहारथी निश्चय थाय अने कोई वार न थाय एम अनेकान्त छे. तेने कहीए छीए के भाई! एवो अनेकान्त नथी, पण ए तो फुदडीवाद छे. अहीं तो आ स्पष्ट वात छे के शुद्ध आत्माना अनुभवथी ज संवर थाय छे अने दया, दान आदि शुभपरिणामथी कदी संवर थतो नथी केमके ते शुभपरिणाम आस्रव छे. कार्य हंमेशां उपादानथी ज थाय अने निमित्तथी न थाय ए सम्यक् अनेकान्त छे.
‘जे जीव अखंडधारावाही ज्ञानथी आत्माने निरंतर शुद्ध अनुभव्या करे छे तेने रागद्वेषमोहरूपी भावास्रवो रोकाय छे तेथी ते शुद्ध आत्माने पामे छे.’
जोयुं? भाषा केवी लीधी? अहा! अखंड द्रष्टिनो विषय जे त्रिकाळी शुद्ध आत्मा तेने द्रष्टिमां लई जे परिणम्यो ते अखंड धारावाही पोताने शुद्ध ज अनुभव्या करे छे. तेने रागद्वेषमोहरूपी भावास्रवो रोकाय छे अर्थात् प्रगटता नथी. तेथी ते शुद्ध आत्माने-शुद्धताने पामे छे अने एनुं नाम संवर छे.
‘अने जे जीव अज्ञानथी आत्माने अशुद्ध अनुभवे छे तेने रागद्वेषमोहरूपी भावास्रवो रोकाता नथी तेथी ते अशुद्ध आत्माने ज पामे छे.’
अज्ञानीने भान नथी के पोतानो शुद्ध चिदानंद भगवान रागरूपे कदीय थयो ज नथी. अहाहा...! पोतानुं परम चैतन्यनिधान संसारना उदयभावरूप थयुं ज नथी. आवुं भान नहि होवाथी अज्ञानीने रागद्वेषमोहरूप भावास्रवो रोकाता नथी अर्थात् ते रागादिभावे ज परिणमे छे. तेथी ते अशुद्ध आत्माने अशुद्धताने ज पामे छे. व्यवहारना रागने पण जे पोताना मानी अनुभवे छे ते अशुद्धताने एटले के मलिनताने ज पामे छे, संसारने ज पामे छे.
आ रीते सिद्ध थयुं के शुद्ध आत्मानी उपलब्धिथी (अनुभवथी) ज संवर थाय छे. ल्यो, आ कोई वार शुभभावथी पण संवर थाय छे एम माननाराओनी मान्यता मिथ्या छे एम अहीं स्पष्ट कर्युं.
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हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘यदि’ जो ‘कथमपि’ कोई पण रीते-तीव्र पुरुषार्थ करीने एटले के रागथी भिन्न पडीने अंतर्द्रष्टि वडे ‘धारावाहिना बोधनेन’ धारावाही ज्ञानथी-जेम पाणीनी धार धारावाही छे तेम रागथी भिन्न पडेलुं ज्ञान अखंड धारावाही ज्ञान छे ते वडे ‘शुद्धम् आत्मानम्’ शुद्ध आत्माने ‘ध्रुवम् उपलभमानः आस्ते’ निश्चळपणे अनुभव्या करे-एटले के हुं परम शुद्ध पवित्र वीतरागस्वरूप चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा छुं एम जे निरंतर धारावाही अनुभव्या करे ‘तत्’ तो ‘अयम् आत्मा’ आ आत्मा ‘उदयत्–आत्म–आरामम् आत्मानम्’ जेनो आत्मानंद प्रगट थतो जाय छे अर्थात् जेनी आत्मस्थिरता वधती जाय छे एवा आत्माने ‘परपरिणतिरोधात्’ पर परिणतिना निरोधथी-रागनी दशाने रोकीने ‘शुद्धम् एव अभ्युपैति’ शुद्ध ज प्राप्त करे छे. ल्यो, आ बहु टूंकामां कह्युं के ज्ञानी अखंडधारावाही ज्ञानमय परिणमनथी निरंतर शुद्ध आत्माने अनुभवतो थको रागनो-विकल्पनो निरोध करीने शुद्ध आत्माने ज प्राप्त करे छे. आनुं नाम संवर छे.
‘धारावाही ज्ञान वडे शुद्ध आत्माने अनुभववाथी रागद्वेषमोहरूप परपरिणतिनो (भावास्रवोनो) निरोध थाय छे अने तेथी शुद्ध आत्मानी प्राप्ति थाय छे.’ रागनी एकताबुद्धिमां धारावाही अशुद्धतानो-पुण्य-पापरूप विकारनो अनुभव हतो अने ज्यां ज्ञान रागथी भिन्न पडी शुद्ध आत्माने अनुभववा लाग्युं त्यां धारावाही ज्ञानमय परिणमन थयुं, अने त्यारे पुण्यपापरूप भावास्रवो अटकी जवाथी शुद्धात्मानी प्राप्ति थाय छे. अहो! आवुं भेदज्ञान अलौकिक वस्तु छे.
अहा! आवा ज्ञानना स्वरूपने समज्या विना कोई माने के अमे धर्म करीए छीए तो ते बाह्य व्रत, तप, त्याग आदि क्रियाकांडने ज जैनधर्म माने छे. ते माने छे के वीतरागनो धर्म निवृत्तिमय छे माटे जेटली बाह्य प्रवृत्ति मटीने निवृत्ति थाय तेटलो धर्म. पण भाई! आ बधो भ्रम छे. समकित विना कोई व्रत के तप साचां होतां नथी. (रागनी रुचिथी निवर्तवुं ते सौ प्रथम धर्म छे अने तेना विना व्रतादि साचां होतां नथी).
अहीं कहे छे-ज्यां अंतरमां रागथी ज्ञान भिन्न पडयुं त्यां शुद्धताना परिणमननी - ज्ञानमय परिणमननी धारा अखंडधारावाही चाले छे. भले साथे कांईक अशुद्धतानुं परिणमन होय, परंतु शुद्धतानी धारा तो निरंतर चाले छे. अहाहा...! ज्ञानानंद-
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स्वभावनी निर्मळ परिणति जे प्रगट थई तेनी धारा तो अखंड-अतूट रहे छे. ए ज कहे छे-
‘धारावाही ज्ञान एटले प्रवाहरूप ज्ञान-अतूटक ज्ञान. ते बे रीते कहेवाय छेः- एक तो, जेमां वच्चे मिथ्याज्ञान न आवे एवुं सम्यग्ज्ञान धारावाही ज्ञान छे.’
शुं कह्युं आ? उपयोग भले परमां होय, पण जेमां मिथ्याद्रष्टिपणुं न आवे अने सम्यग्दर्शन रहे एवुं जे सम्यग्ज्ञान ते धारावाही ज्ञान छे, रागथी भिन्न पडेलुं ज्ञान धारावाही अखंड रहे छे. आत्मा रागथी भिन्न छे एवुं जेने अंतर्द्रष्टि वडे भान थयुं तेने भले किंचित् राग आवे पण तेने जे शुद्धता प्रगटी छे ते अखंड धारावाही छे. मिथ्याज्ञान न आवे त्यां सुधी धारावाही ज्ञान छे. मिथ्यात्व न आवे त्यां सुधी सम्यग्दर्शन-ज्ञाननी धारा चाले छे. आ एक प्रकार छे.
हवे बीजो प्रकार-‘बीजुं एक ज ज्ञेयमां उपयोगना उपयुक्त रहेवानी अपेक्षाए ज्ञाननुं धारावाहीपणुं कहेवामां आवे छे, अर्थात् ज्यां सुधी उपयोग एक ज्ञेयमां उपयुक्त रहे छे त्यां सुधी धारावाही ज्ञान कहेवाय छे.’ पोतानो एकरूप जे ज्ञायकभाव तेने ज्ञेय कहीए; तेमां ज उपयोग स्थिर थवानी अपेक्षाए ज्ञाननुं धारावाहीपणुं कहेवाय छे.
पहेला प्रकारमां उपयोगनी (उपयोगमां स्थिर रहेवानी) वात नथी. त्यां सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान होवाथी भेदज्ञाननी-ज्ञानमय परिणमननी धारा अखंड रहे छे.
बीजा प्रकारमां आत्मा पोताना ध्यानमां ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेयना भेदथी रहित एक उपयोगमां पडयो होय-एम आत्मामां ज लीन होय तेने धारावाही ज्ञान कहे छे. आ बीजा प्रकारमां उपयोगनी स्थिरतानी वात छे.
‘आनी स्थिति (छद्मस्थने) अंतर्मुहूर्त ज छे.’ छद्मस्थने ते उपयोग अंतर्मुहूर्त ज रहे छे, वधारे नहि; माटे एटला काळ माटे धारावाही कहेवाय छे. उपयोग अंदर न रही शके त्यारे त्यांथी बहार आवी जाय छे एटले उपयोग खंडित थाय छे. माटे ज्यांसुधी उपयोग अंतरमां लवलीन रहे त्यांसुधी धारावाही ज्ञान कहेवाय छे.
आ बे अर्थमांथी ज्यां जेवी विवक्षा होय तेवो अर्थ समजवो.
अविरत सम्यग्द्रष्टि वगेरे नीचेनां गुणस्थानवाळा अर्थात् चोथा, पांचमा अने छठ्ठा गुणस्थानवाळा जीवोने धारावाही सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान जेमां कह्युं ते पहेली अपेक्षा लागु पडे. उपयोग कोईक वार ज अंतरमां जाय छे एटले त्यां उपयोगनी अपेक्षा लागु न पडे.
श्रेणी चढनार जीवने मुख्यत्वे बीजी अपेक्षा लागु पडे. आम तो तेने अबुद्धिपूर्वकनो राग होय छे पण तेने न गणतां मुख्यपणे तेने उपयोगनी अंतर-
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एकाग्रता होय छे एम कह्युं छे. आठमा गुणस्थानथी उपयोगनी धारा स्थिर थाय; ज्यां उपयोग गयो त्यां रहे, त्यांथी नीकळे नहि ए अपेक्षाए त्यां धारावाही ज्ञान छे.
धर्मनी धाराना बे प्रकारः-१. चोथा, पांचमा, छठ्ठा गुणस्थानवाळाने जे निर्मळ सम्यग्ज्ञान प्रगटयुं ते धारावाही छे. भले उपयोग रागमां-परमां जाय पण अंदर सम्यग्दर्शन- ज्ञान थयुं छे ते खसतुं नथी.
२. उपयोगरूप धारा-नीचेना गुणस्थानवाळाने (चोथे, पांचमे आदि) उपयोग अंदरमां आवे, अंतर्मुहूर्त रहे अने पछी खसी जाय छे.
आठमे गुणस्थानेथी उपयोग अंदरमां आव्यो ते मुख्यत्वे खसी न जाय पण श्रेणी चढीने केवलज्ञानने पामे. आठमेथी उपयोग धारावाही रहे छे अने ते केवलज्ञानने पामे छे.
भाई! तारुं खरेखर स्वरूप नित्यानंद चिदानंदमय छे. तेमां एक ज वखत उपयोग लागे एटले बस. पछी भले थोडो वखत उपयोग खसी जाय तोपण जे सम्यग्ज्ञान थयुं ते तो अखंड धारावाही रहे छे. (पुरुषार्थनी उग्रता करीने ते केवळज्ञानपणे परिणमशे ज). आवी वात छे.
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केन प्रकारेण संवरो भवतीति चेत्–
दंसणणाणम्हि ठिदो इच्छाविरदो य अण्णम्हि।। १८७।।
ण वि कम्मं णोकम्मं चेदा चिंतेदि एयत्तं।। १८८।।
लहदि अचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मपविमुक्कं।। १८९।।
दर्शनज्ञाने स्थितः इच्छाविरतश्चान्यस्मिन्।। १८७।।
नापि कर्म नोकर्म चेतयिता चिन्तयत्येकत्वम्।। १८८।।
लभतेऽचिरेणात्मानमेव स कर्मप्रविमुक्तम्।। १८९।।
हवे पूछे छे के संवर कया प्रकारे थाय छे? तेनो उत्तर कहे छेः-
दर्शन अने ज्ञाने ठरी, परद्रव्यइच्छा परिहरी, १८७.
–नहि कर्म के नोकर्म, चेतक चेततो एकत्वने, १८८.
बस अल्प काळे कर्मथी प्रविमुक्त आत्माने वरे. १८९.
गाथार्थः– [आत्मानम्] आत्माने [आत्मना] आत्मा वडे [द्विपुण्यपापयोगयोः] बे पुण्य-पापरूप शुभाशुभयोगोथी [रुन्ध्वा] रोकीने [दर्शनज्ञाने] दर्शनज्ञानमां
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[स्थितः] स्थित थयो थको [च] अने [अन्यस्मिन्] अन्य (वस्तु) नी [इच्छाविरतः] इच्छाथी विरम्यो थको, [यः आत्मा] जे आत्मा, [सर्वसङ्गमुक्तः] (ईच्छारहित थवाथी) सर्व संगथी रहित थयो थको, [आत्मानम्] (पोताना) आत्माने [आत्मना] आत्मा वडे [ध्यायति] ध्यावे छे- [कर्म नोकर्म] कर्म अने नोकर्मने [न अपि] ध्यातो नथी, [चेतयिता] (पोते) १चेतयिता (होवाथी) [एकत्वम्] एकत्वने ज [चिन्तयति] चिंतवे छे-चेते छे- अनुभवे छे, [सः] ते (आत्मा), [आत्मानं ध्यायन्] आत्माने ध्यातो, [दर्शनज्ञानमयः] दर्शनज्ञानमय अने [अनन्यमयः] २अनन्यमय थयो थको [अचिरेण एव] अल्प काळमां ज [कर्मप्रविमुक्तम्] कर्मथी रहित [आत्मानम्] आत्माने [लभते] पामे छे.
टीकाः– जे जीव रागद्वेषमोह जेनुं मूळ छे एवा शुभाशुभ योगमां वर्तता आत्माने द्रढतर (अति द्रढ) भेदविज्ञानना अवलंबनथी आत्मा वडे ज अत्यंत रोकीने, शुद्धदर्शनज्ञानरूप आत्मद्रव्यमां सारी रीते प्रतिष्ठित (स्थिर) करीने, समस्त परद्रव्यनी इच्छाना त्याग वडे सर्व संगथी रहित थईने, निरंतर अति निष्कंप वर्ततो थको, कर्म-नोकर्मनो जरा पण स्पर्श कर्या विना पोताना आत्माने ज आत्मा वडे ध्यातो थको, पोताने सहज चेतयितापणुं होवाथी एकत्वनेज ३चेते छे (-ज्ञानचेतनारूप रहे छे), ते जीव खरेखर, एकत्व-चेतन वडे अर्थात् एकत्वना अनुभवन वडे (परद्रव्यथी) अत्यंत भिन्न चैतन्यचमत्कारमात्र आत्माने ध्यातो, शुद्धदर्शनज्ञानमय आत्मद्रव्यने प्राप्त थयो थको, शुद्ध आत्मानी उपलब्धि (प्राप्ति) थतां समस्त परद्रव्यमयपणाथी अतिक्रांत थयो थको, अल्प काळमां ज सर्व कर्मथी रहित आत्माने पामेछे. आ संवरनो प्रकार (रीत) छे.
भावार्थः– जे जीव प्रथम तो रागद्वेषमोह साथे मळेला मनवचनकायाना शुभाशुभ योगोथी पोताना आत्माने भेदज्ञानना बळ वडे चळवा न दे, पछी तेने शुद्धदर्शनज्ञानमय आत्मस्वरूपमां निश्चळ करे अने समस्त बाह्य-अभ्यंतर परिग्रहथी रहित थइने कर्म-नोकर्मथी भिन्न पोताना स्वरूपमां एकाग्र थइ तेने ज अनुभव्या करे अर्थात् तेना ज ध्यानमां रहे, ते जीव आत्माने ध्यावाथी दर्शनज्ञानमय थयो थको अने परद्रव्यमयपणाने ओळंगी गयो थको अल्प काळमां समस्त कर्मथी मुक्त थाय छे. आ संवर थवानी रीत छे.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः- _________________________________________________________________ १. चेतयिता = चेतनार; देखनार-जाणनार. र. अनन्यमय = अन्यमय नहि एवो ३. चेतवुं = अनुभववुं; देखवुं-जाणवुं.
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भवति नियतमेषां शुद्धतत्त्वोपलम्भः।
अचलितमखिलान्यद्रव्यदूरेस्थितानां
भवति सति च तस्मिन्नक्षयः कर्ममोक्षः।। १२८।।
श्लोकार्थः– [मेदविज्ञानशक्तया निजमहिमरतानां एषां] जेओ भेदविज्ञाननी शक्ति वडे निज (स्वरूपना) महिमामां लीन रहे छे तेमने [नियतम्] नियमथी (चोक्कस) [शुद्धतत्त्वोपलम्भः] शुद्ध तत्त्वनी उपलब्धि [भवीत] थाय छे; [तस्मिन् सति च] शुद्ध तत्त्वनी उपलब्धि थतां, [अचलितम् अखिल–अन्यद्रव्य–दूरे–स्थितानां] अचलितपणे समस्त अन्यद्रव्योथी दूर वर्तता एवा तेमने, [अक्षयः कर्ममोक्षः भवति] अक्षय कर्ममोक्ष थाय छे (अर्थात् फरीने कदी कर्मबंध न थाय एवो कर्मथी छुटकारो थाय छे). १र८.
हवे पूछे छे के संवर कया प्रकारे थाय छे? संवर एटले धर्मनी पहेली सीडी. अनादिथी एने रागनी अशुद्धि छे, ते अशुद्धिनो निरोध थई शुद्धि कया प्रकारे थाय तेना उत्तररूप गाथा कहे छेः-
‘जे जीव रागद्वेषमोह जेनुं मूळ छे एवा शुभाशुभ योगमां वर्तता आत्माने द्रढतर (अति द्रढ) भेदविज्ञानना अवलंबनथी आत्मा वडे ज अत्यंत रोकीने,.. .’
शुं कह्युं आ? के शुभाशुभभावनुं मूळ रागद्वेषमोह एटले मिथ्यात्व अने रागद्वेष छे. मिथ्यात्व अने रागद्वेष (परद्रव्यो बधां एक सरखां ज्ञेय छे तोपण आ ज्ञेय ठीक अने आ अठीक छे एवो भ्रम). ते शुभाशुभभावनी उत्पत्तिनुं मूळ छे. एवा शुभाशुभभावमां वर्तता आत्माने अति द्रढ भेदज्ञानना अवलंबनथी आत्मा वडे ज अत्यंत रोकाय छे. शुभाशुभभाव केम रोकाय? तो कहे छे के रागथी भिन्न पडेला ज्ञाने करीने भगवान आत्माना आश्रय वडे ज शुभाशुभभाव रोकाय छे. शुभाशुभभावमां वर्तता आत्माने रोकवो ए तो उपदेशनी कथनशैली छे. खरेखर तो उपयोगने आत्मामां रोकवाथी-एकाग्र करवाथी संवर प्रगट थाय छे. अर्थात् आत्मा वडे आत्मामां एकाग्र थतां संवर थाय छे.
आत्मा केवो छे? शुद्ध दर्शनज्ञानरूप भगवान आत्मा छे. आ दया, दान आदिना विकल्प ते आत्मा नहि, ए तो अनात्मा छे. आत्मा कोने कहीए? जे शुद्धज्ञानदर्शन-
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स्वरूप-ज्ञाताद्रष्टास्वरूप छे ते आत्मा छे. आवा परम पवित्र ज्ञानदर्शनरूप आत्मद्रव्यमां सारी रीते प्रतिष्ठित करीने एटले के स्थित करीने संवर-निजस्वरूप प्रगट थाय छे. अहाहा...! आचार्य अंतरनी केवी वात करे छे! के शुभाशुभभाव जे अशुद्ध छे तेने भेदज्ञानना अभ्यासथी रोकीने पोताने ज्ञानस्वरूप आत्मद्रव्यमां सुप्रतिष्ठित-सुस्थित करवाथी धर्म-संवर प्रगट थाय छे. वळी कहे छे-
‘समस्त परद्रव्यनी इच्छाना त्याग वडे सर्व संगथी रहित थईने,’...
जुओ, पोताना शुद्ध आत्मा सिवाय जे कोई पर आत्माओ अने परद्रव्यो छे ते सर्वनी इच्छानो त्याग जे करे छे तेने धर्म प्रगट थाय छे.
त्यारे माणसो कहे छे-आवुं तो बावो थाय त्यारे थई शके.
तेने कहीए छीए-भगवान! तुं ज्यां होय त्यां परथी रहित ज तमारुं स्वरूप छे अर्थात् खरेखर तुं स्वरूपथी बावो (परद्रव्यथी रहित) ज छो. पोताना द्रव्यमां नजर करतां जणाशे के इच्छा तारामां छे ज नहि, तो पछी तेने रोकवी-त्यागवी ए वात कयां रही? अहाहा...! भगवान चिदानंदस्वरूपमां स्थिर थतां इच्छा उत्पन्न थती नथी एटले इच्छाने रोकी-त्यागी एम कहेवाय छे. आ प्रमाणे इच्छाना-आस्रवना निरोधपूर्वक संवर प्रगट थाय छे.
जुओ, देव-गुरु-शास्त्र-ए पण परद्रव्य छे. ए समस्त परद्रव्य प्रत्येनी इच्छानो त्याग करतां सर्वसंगरहित थाय छे. अंतरमां (अभिप्रायमां) सर्व रागथी रहित थवानुं नाम सर्वसंगरहितपणुं छे. देव-गुरु-शास्त्र प्रत्येनो शुभराग पण कर्तव्य के भलो छे एम नथी एम अभिप्राय थतां सर्वसंगरहित थाय छे. वळी कहे छे-
जे ‘निरंतर अति निष्कंप वर्ततो थको, कर्म-नोकर्मनो जरा पण स्पर्श कर्या विना पोताना आत्माने ज आत्मा वडे ध्यातो थको, पोताने सहज चेतयितापणुं होवाथी एकत्वने ज चेते छे ते जीव...’
अहाहा...! भाषा तो जुओ! अति निष्कंप-निश्चल थयो थको, वळी शरीर, मन, वाणी, कर्म इत्यादिनो जरा पण संग कर्या विना, जरा पण स्पर्श कर्या विना पोताना शुद्ध ज्ञानदर्शनमय आत्माने ज शुद्ध पर्याय वडे ध्यावे छे.
पोते सहज चेतयिता छे. पहेलां दर्शनज्ञानरूप कह्यो हतो, अहीं बन्नेने भेगा करी चेतयिता कह्यो. अहाहा...! भगवान आत्मा चेतयिता मात्र चेतनार एटले जाणनार-देखनार छे; जगतनो बनावनार के जगतमां भळनार नथी. गंभीर वात छे प्रभु! पोते जगतथी निराळो भगवान चेतयिता मात्र चेतनारो छे. सहज चेतयितापणुं
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होवाथी एकत्वने ज चेते छे. ज्ञानस्वरूपी आत्मा एकला ज्ञानने ज चेते छे-अनुभवे छे, पण रागने चेते छे-अनुभवे छे एम नहि.
त्यारे कोई कहे छे-आ बधी मोटी मोटी वातोमां सौ पहेलां शुं करवुं ते कहो.
भाई! सौ पहेलां आ ज करवानुं छे. समयसार गाथा १७-१८ मां ए ज कह्युं छे के- प्रथम आत्माने जाणवो. पहेलां नय-निक्षेपथी जाणवुं एमेय कह्युं नथी; आत्माने जाणवो (अनुभववो) ए प्रथम कर्तव्य छे. भाई! तुं भगवान आत्माने अनादिथी भूल्यो छुं तेने प्रथम जाण. भगवान! तें तने न जाणवानी भूल करी छे ते भूल सुधारीने तुं तने (-पोताने) जाण अने तेमां एकाकार था.
जगतनी बधी चीजो परज्ञेय छे. एमां कोई ठीक नथी, अठीक पण नथी. अहीं कहे छे- आत्माने सहज चेतयितापणुं होवाथी एकत्वने ज चेते छे. अहाहा...! ते बधा ज्ञेयोने एकपणे- समानपणे परज्ञेय तरीके जाणे छे. भगवान पंचपरमेष्ठी ठीक एवो भेद ज्ञेयमां नथी अने जाणनारना ज्ञानमां पण नथी. एकरूपे बधी चीजो ज्ञेयपणे भासे छे, अर्थात् पोते पोताने चेततो-अनुभवतो थको ज्ञान चेतनापणे रहे छे, ज्ञेय प्रति रागने प्राप्त थतो नथी.
अहा! कर्मचेतना-रागने करवुं अने कर्मफळचेतना-रागने भोगववुं-ए-रूपे अनादिथी परिणमतो आव्यो छे; परंतु ए तो संसार छे, दुःख छे. मोटो अबजोपति होय, मोटो राजा होय के मोटो स्वर्गनो देव होय तोपण ते कषायने-दुःखने ज वेदे छे. अहीं कहे छे के-पोतानो सहज जाणवा-देखवानो स्वभाव छे तेमां एकाग्र थई शुद्ध एकत्वना निर्विकल्प अनुभव वडे तेने छोडी दे केमके भगवान आत्मामां विकल्प के बीजी कोई चीज नथी.
अरे! आखो दि’ बैरां-छोकरां साचववामां अने दुकानना वेपार-धंधामां -पापनी मजुरीमां गुंथाएलो अने गुंचाएलो रहे अने एकाद कलाक मांड सांभळवा जाय पण तेथी शुं वळे? भाई! ए तो एरणनी चोरी अने सोयना दान बराबर छे. एमां धर्म थवो तो एक बाजुए रह्यो, पुण्य पण सारां बंधातां नथी. अरेरे! मोहे जगतने मारी नाख्युं छे! माटे अहीं कहे छे-मोहरहित थईने परद्रव्यथी भिन्न निज चैतन्यचमत्कारने ध्यावो. जेनी ज्ञाननी दशामां अनंतु जाणवुं थाय, जेना दर्शनमां अनंतु देखवुं थाय एवो चैतन्यचमत्कार भगवान आत्मा छे. जगतना बीजा चमत्कार तो थोथेथोथां छे. समजाणुं कांई...?
अहाहा...! कहे छे-जे जीव भेदज्ञानना अभ्यास वडे शुभाशुभभावने रोकीने, सर्वसंगरहित थईने पोते सहज चेतयिता होवाथी एकत्वने ज चेते छे ते जीव,
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‘खरेखर एकत्व-चेतन वडे अर्थात् एकत्वना अनुभवन वडे अत्यंत भिन्न चैतन्यचमत्कारमात्र आत्माने ध्यातो, शुद्धदर्शनज्ञानमय आत्माने प्राप्त थयो थको, शुद्ध आत्मानी उपलब्धि थतां समस्त परद्रव्यमयपणाथी अतिक्रान्त थयो थको, अल्पकाळमां ज सर्व कर्मथी रहित आत्माने पामे छे.’
अहाहा...! परद्रव्यनी इच्छाथी ज्यां खस्यो त्यां ते शुद्धज्ञानदर्शनमय स्वद्रव्यमां वस्यो अने त्यारे तेने शुद्ध आत्मद्रव्यनी उपलब्धि थई. परद्रव्यनी द्रष्टि छोडीने अंतःएकाग्र थतां शुद्ध आत्मानी प्राप्ति थई त्यारे ते परद्रव्यथी अतिक्रान्त थयो थको-वेगळो पडयो थको शुद्धस्वरूपमां एवो मग्न थयो के द्रष्टि अने ज्ञान त्यां ज (आत्मामां ज) जामी गयां. एटले ‘अचिरेण एव’ अल्पकाळमां ज ते परमात्मा थाय छे. आवी वात छे. अचिरेण कह्युं छे ने?
तो कोईने प्रश्न थाय के आमां क्रमबद्ध कयां रह्युं?
अरे भाई! आवी स्थिति अंदरमां थाय तेने केवळज्ञान पामवाने लांबो काळ होय नहि एम अहीं कहे छे. आत्मानो अनुभव करे तेना क्रममां केवळज्ञान लेवाने अल्पकाळ ज होय छे. ते अल्पकाळमां सर्व कर्मथी रहित आत्माने पामे छे. (आमां क्रमबद्ध विरुद्ध तो कांई नथी).
‘आ संवरनो प्रकार छे.’ ल्यो, आ संवर अने तेने प्रगट करवानी रीत कही.
‘जे जीव प्रथम तो रागद्वेषमोह साथे मळेला मनवचनकायाना शुभाशुभ योगोथी पोताना आत्माने भेदज्ञानना बळ वडे चळवा न दे, पछी तेने शुद्ध दर्शनज्ञानमय आत्मस्वरूपमां निश्चळ करे अने समस्त बाह्य-अभ्यंतर परिग्रहथी रहित थईने कर्म-नोकर्मथी भिन्न पोताना स्वरूपमां एकाग्र थई तेने ज अनुभव्या करे अर्थात् तेना ज ध्यानमां रहे, ते जीव आत्माने ध्याववाथी दर्शनज्ञानमय थयो थको अने पर द्रव्यमयपणाने ओळंगी गयो थको अल्पकाळमां समस्त कर्मथी मुक्त थाय छे.’
जुओ, स्त्री-कुटुंब परिवार, धनसंपत्ति, राजपाट, देवगुरुशास्त्र इत्यादि बधां परद्रव्यो छे. खरेखर तो आत्मा सर्व परद्रव्योथी सदा जुदो ज छे. परंतु अनादिथी परद्रव्यो प्रति इच्छा वडे ते मूर्छित छे. भेदज्ञानना बळ वडे ज्यारे ते तरफनी इच्छा छूटी गई त्यारे ते बधा परद्रव्योथी छूटी गयो एम अहीं कह्युं छे. अहो! जुओ आ मुनिदशा! स्वरूपमां स्थित निर्ग्रंथ मुनिवरो आवा होय छे. तेओ स्वरूपमां एकाग्रचित्त थई, तेमां ज ध्यान मग्न रहीने परद्रव्यमयपणाने ओळंगी जाय छे अने अल्पकाळमां समस्त कर्मथी मुक्त थाय छे.