Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 184-185.

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भाई! तारो महिमा तें बीजामां-रागमां अने पुण्यमां नाखी दीधो. वळी कांईक शरीर सारुं मळ्‌युं तो एमां तने अधिकता भासे छे. आम पोताना स्वभाव सिवाय परवस्तु तने ठीक रुचिकर लागे छे ते परनो तने महिमा थयो छे. परनो महिमा करीने स्वरूपभ्रांतिने लीधे भाई! तुं अनंतकाळमां दुःखी थयो छुं. अहीं कहे छे-पर-रागादिने, कर्म-नोकर्मने अने आत्माने परस्पर स्वरूपविपरीतता छे, स्वरूपथी ज विरोध छे.

आत्मानुं ज्ञान अने आनंदस्वरूप छे अने रागादि आस्रवो जड अने दुःख स्वरूपे छे. आम आत्मा अने आस्रवोने अत्यंत स्वरूपविपरीतता छे; तेथी बन्नेने परमार्थभूत आधारआधेय संबंध नथी. त्यारे एमांथी कोई काढे के परमार्थभूत आधारआधेय संबंध नथी पण व्यवहारथी तो एवो संबंध छे ने? तेने कहीए छीए के भाई! असद्भूत व्यवहारनयथी एनुं ज्ञान कराववा एवो संबंध कहेवामां आवे छे.

प्रश्नः– कर्मकांडथी ज्ञानकांड थाय एवुं प्रवचनसारमां आवे छे ने?

उत्तरः– हा, आवे छे; पण ए कई अपेक्षाए कथन छे ए जाणवुं जोईए ने? शास्त्रमां एक बाजु ‘हा’ पाडे अने बीजी बाजु ‘ना’ पाडे तो एनो अर्थ शुं ते समजवुं जोईए ने? शास्त्रमां कया नयनुं ए वचन छे ते यथार्थ जाणी तेनो भाव यथार्थ समजवो जोईए. कर्मकांडथी ज्ञानकांड थाय ए व्यवहारनयनुं-असद्भूत व्यवहारनयनुं कथन छे अने ते उपचार छे ज्यारे अहीं कहे छे-क्रियाकांड अने ज्ञानकांड वच्चे परस्पर अत्यंत स्वरूपविपरीतता छे; आ निश्चयनय छे अने ते यथार्थ छे, सत्यार्थ छे.

व्यवहारथी निश्चय थाय एम जयसेनाचार्यनी टीकामां बहु आवे छे. एथी लोको एने वळगी पडे छे. पण भाई! ए असद्भूत व्यवहारनयनुं कथन छे. अहीं कहे छे-व्यवहारने अने आत्माने स्वरूपविपरीतता छे माटे आत्माने अने व्यवहारने (-रागने) आधारआधेय संबंध नथी. ज्यां आधारआधेय संबंध कह्यो होय त्यां ए व्यवहारनयनुं उपचारकथन छे एम समजवुं. राग छे ते आत्मानुं स्वरूप नथी तेथी ते असद्भूत व्यवहारनयनो विषय छे. निश्चयनी साथे ते ते भूमिकामां जे राग होय छे तेनुं ज्ञान कराववा माटे तेने व्यवहारनयथी कहेवामां आवे छे. समयसार गाथा १२ मां ए ज कह्युं छे के-व्यवहार ते ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे.

स्वना आश्रये प्रगट थतां ज्ञान अने आनंद सुखनुं कारण छे अने स्त्री, कुटुंब, परिवार, धंधा-वेपार आदि परना आश्रये थतो राग तथा पर पदार्थोना आश्रये थतुं ज्ञान ए दुःखनुं कारण छे. पं. हुकमचंदजीए लख्युं छे ने के भगवान परण्या नहोता


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केमके स्त्री परणतां अनेक दुर्घटना ऊभी थाय छे. स्त्रीने साचववी, अनेक भोग भोगववा, संतान दीकरा-दीकरी थाय एमने उछेरवां अने रळवुं-कमावुं इत्यादि बधी दुर्घटना ज छे. ए दुर्घटना तो एकलुं पाप छे. एनी अहीं वात नथी. अहीं तो एम वात छे के-देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग, एनुं ज्ञान अने ए रागनुं आचरण ए बधी पराधीनता छे कारण के देव-गुरु- शास्त्र परद्रव्य छे. आवी परना लक्षे थती पराधीन दशा अने स्वभावना लक्षे थती स्वाधीन दशाने परस्पर विरोध छे, स्वरूपविपरीतता छे.

हवे कहे छे-‘वळी ज्ञाननुं स्वरूप जेम जाणनक्रिया छे तेम (ज्ञाननुं स्वरूप) क्रोधादिक्रिया पण छे एम, अने क्रोधादिनुं स्वरूप जेम क्रोधादिक्रिया छे तेम (क्रोधादिकनुं स्वरूप) जाणनक्रिया पण छे एम कोई रीते स्थापी शकातुं नथी; कारण के जाणनक्रिया अने क्रोधादिक्रिया भिन्न भिन्न स्वभावे प्रकाशे छे अने ए रीते स्वभावो भिन्न होवाथी वस्तुओ भिन्न ज छे.’

शुं कह्युं आ? के आत्मा शुद्ध पवित्र चिदानंदघनस्वरूप छे. सर्वज्ञ परमेश्वरे आवो आत्मा जोयो छे. एनुं जे रागथी भिन्न थईने श्रद्धाननी क्रियारूप, शान्तिनी क्रियारूप, आनंदनी क्रियारूप शुद्धपणे परिणमवुं एने जाणनक्रिया कहे छे; अने दया, दान, व्रतादि रागनी रुचिरूपे परिणमवुं तेने क्रोधादिक्रिया कहे छे. ए बन्नेना स्वभाव भिन्न भिन्न छे. जाणनक्रियाथी क्रोधादिक्रिया विरुद्ध छे. जाणनक्रियारूपे परिणमवुं ते मोक्षमार्ग छे अने एनुं फळ मोक्ष एटले अनंत सुख छे. ज्यारे क्रोधादिक्रियारूपे परिणमवुं ए बंधमार्ग छे अने एनुं फळ संसार अने अनंत दुःख छे.

जाणनक्रिया धर्मनी क्रिया छे अने रागनी रुचिरूप जे क्रोधादिक्रिया थाय ते स्वभावथी विरूद्ध होवाथी अधर्मनी क्रिया छे. एक क्षमादिना परिणमनरूप छे अने बीजी क्रोधादिना परिणमनरूप छे. अनादिथी राग साथे एकत्वनी क्रिया छे ते क्रोधादिक्रिया छे अने स्वभाव साथे जे एकत्व थयुं ए जाणनक्रिया सम्यग्दर्शननी क्रिया, आनंदनी क्रिया, शुद्धतानी क्रिया, स्वरूपनी रचनारूप वीर्यनी क्रिया छे अने ते धर्म छे. बापु! आ निर्णय तो कर. आ अंतरनी वातो छे, बहारना क्रियाकांडथी मळे एवी आ चीज नथी. भाई! आ निर्णय करवानां टाणां छे हों.

अहीं सत्यनो पोकार करीने सत्यने जाहेर कर्युं छे. राग होय छे छतां राग साधन नथी. अंदरमां साधन नाम करण नामनो गुण छे. ए साधन थईने निर्मळ जाणनक्रियाना भावे परिणमन थाय त्यारे निमित्तने आरोपथी साधन कहेवामां आवे छे.

शास्त्रमां ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’ एम सूत्र कह्युं छे ने?

हा, तत्त्वार्थसूत्रनुं आ सूत्र छे ते ख्यालमां छे. उपरांत धवलमां अने पंडित सदासुखदासजीए लखेला ‘अर्थप्रकाशिका’ ग्रंथमां आ आवे छे. एमां परस्पर उपग्रह


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एटले एकबीजानुं भलुं करे एवो अर्थ न लेवो. तत्त्वार्थसूत्रमां आवे छे के- शरीर, मन, वाणी, श्वासोच्छ्वास ए पुद्गलनो (जीवने) उपकार छे. एनो अर्थ ए के ए निमित्त छे. कार्यमां निमित्त होय तेने उपकारी कहेवाय पण निमित्त कर्ता छे एम नथी. निमित्तने कारण कहेवुं ए असद्भूत व्यवहारनयनुं कथन छे. शास्त्रमां आवे छे के आत्माने जे सुख, दुःख, जीवन, मरण थाय छे एमां पुद्गलनो उपकार छे. आत्माने शातावेदनीयना उदयकाळे शाता थाय एमां शरीर, मन, वाणी निमित्त छे एथी पुद्गलनो उपकार छे एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे. पंडित सदासुखदासजीए ‘अर्थप्रकाशिका’मां उपकारनो आ ज अर्थ कर्यो छे. उपग्रहनो अर्थ कोईनुं भलुं के भूडुं करे एम नहि; कोई कोईनुं भलुं के भूडुं शुं करे? भला-भूंडाना जे भाव थाय छे एमां पुद्गल निमित्त छे एटले एनो उपग्रह कहेवामां आवे छे. सुखदुःख आदिमां पुद्गल निमित्त छे बस एटलुं. सुखदुःखनी कल्पना तो जीव उपादानपणे थईने पोते करे छे त्यां पुद्गलने निमित्त जोई उपकार करे छे एम कहेवामां आवे छे. निमित्त परना कार्यनो कर्ता छे एम नथी.

जुओ, पहेलां एम कह्युं हतुं के क्रोधादि क्रिया अने जाणनक्रिया ए बे वस्तु भिन्न छे कारण के बन्नेना प्रदेश भिन्न छे, माटे तेमनी सत्ता भिन्न छे. तेथी एक बीजामां आधारआधेय संबंध नथी. हवे कहे छे-बन्नेने अत्यंत स्वरूप-विपरीतता छे, अने ते कारणे बन्ने भिन्न भिन्न स्वभावे प्रकाशे छे. अने ए रीते बन्नेना स्वभावो भिन्नभिन्न होवाथी वस्तुओ भिन्न ज छे. आस्रवनी रुचिवाळा क्रोधादिना परिणाम अने आत्माना सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्रना परिणाम बन्ने तद्न भिन्न वस्तुओ छे. हवे छेल्ले सरवाळो कहे छे.

‘आ रीते ज्ञानने अने अज्ञानने (क्रोधादिकने) आधारआधेयपणुं नथी.’

रागनी रुचिनुं परिणमन ए अज्ञान छे; एमां ज्ञान नथी. रागमां ज्ञाननुं किरण नथी. जेम सूर्यनुं किरण श्वेत-सफेद होय तेम भगवान आत्मानुं किरण (परिणमन) ज्ञान अने आनंदमय होय, रागमय न होय. राग तो अज्ञान छे, अंधकार छे.

अरेरे! आवुं मनुष्यपणुं मळ्‌युं अने आटलुं न समजे तो ढोरना अवतारमां अने मनुष्यना अवतारमां कांई फेर नथी. अनंती चैतन्यलक्ष्मीनो-स्वरूपलक्ष्मीनो पोते भंडार छे, एनी रुचिमां कदी आव्यो नहि. अनादिथी ए पैसाना तथा बैरीना रागमां सलवाई गयो- मूर्छाई गयो छे; एकला पापमां गरी गयो छे. एने पुण्यनांय कयां ठेकाणां छे? भाई! पुण्यनी रुचिने छोडी अंतरस्वभावनी रुचि जो न करी तो भगवान! तुं भवसमुद्रमां कयांय खोवाई जईश के पत्तो नहि लागे. माटे पोतानी चैतन्यनिधिनी रुचि करीने अंदर जा; वादमां मा पड.


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नियमसारमां आवे छे के-प्रभु! ज्ञाननी निधि पामीने वादविवादमां पडीश नहि, अने कोई आवा सुंदर मार्गनी निंदा करे तो मार्ग प्रति अभक्ति करीश नहि. आ सत्य वात छे अने लोको तो आम (विरुद्ध) कहे छे एम जोवानुं छोडी देजे.

अहीं कहे छे-ज्ञान अने अज्ञानने-क्रोधादिने आधारआधेयपणुं नथी. अहा! मध्यस्थ थईने एकवार रुचि-विश्वास लावीने सांभळे तो बेडो पार थई जाय एवी आ वात छे. पण पक्ष राखीने सांभळे तो एने एकान्त छे एम लाग्या करे; एने एम थाय के बीजे ठेकाणे व्यवहाररत्नत्रयना रागने साधन कह्युं छे ने? परंतु भाई! वीतराग सर्वज्ञनी वाणीमां पूर्वापर विरोध न होय. ज्यां साधन कह्युं होय त्यां तो निमित्त उपर आरोप दईने साधन कह्युं छे. बाह्य निमित्त छे एम निमित्तनुं ज्ञान करावी एनुं लक्ष छोडाववानुं त्यां प्रयोजन छे-एम जाणवुं; पण निमित्त कार्यनुं कर्ता छे एम न जाणवुं.

प्रवचनसार गाथा १७२ ना अलिंगग्रहणना छठ्ठा बोलमां आवे छे के-आत्मा पोताना स्वभावथी जणाय एवो प्रत्यक्ष ज्ञाता छे केमके जेम आत्मामां श्रद्धा आदि गुण छे तेम एनामां जे वडे प्रत्यक्ष जणाय एवो एक प्रकाश नामनो गुण छे. ‘‘स्वयं प्रकाशमान विशद एवा स्वसंवेदनमयी प्रकाशशक्ति’’ नामनी आत्मामां शक्ति छे जेना कारणे आत्मा स्वसंवेदनमां- स्वानुभवमां प्रत्यक्ष जणाय छे. एने पोताने प्रकाशवामां कोई अन्य साधननी (-रागनी) जरूर छे एम नथी. त्यां आगळ (१७ मा बोलमां) लीधुं छे के आत्माने बहिरंग यतिलिंगोनो अभाव छे; मतलब के यतिनी बाह्यक्रियानो (शुभाचरणरूप क्रियानो) आत्मस्वरूपमां अभाव छे. हवे ज्यां रागादिनो आत्मस्वरूपमां अभाव छे त्यां एना वडे आत्मलाभ-स्वरूपलाभ केम थाय? (न थाय). अरे! भगवानना विरह पडया! पूर्वधर पण रह्या नहि! अवधिज्ञानी पण रह्या नहि! अने शुभथी थाय अने व्यवहारथी थाय एवा विवाद थई गया!

अहीं कहे छे-आत्मपरिणतिने अने रागनी दशाने आधारआधेयपणुं नथी. अहो! आचार्यदेवे भेदविज्ञाननी परम अद्भुत वात करी छे. बापु! एने ज्ञानमां-धारणामां तो ले के वस्तु आवी छे. भाई! तुं धार तो खरो के रागनी क्रियाने अने आत्मानी क्रियाने परस्पर भिन्नता छे.

वळी विशेष समजाववामां आवे छे-

‘ज्यारे एक ज आकाशने पोतानी बुद्धिमां स्थापीने (आकाशनो) आधार-आधेयभाव विचारवामां आवे त्यारे आकाशने बाकीनां अन्य द्रव्योमां आरोपवानो निरोध ज होवाथी (अर्थात् अन्य द्रव्योमां स्थापवानुं अशकय होवाथी) बुद्धिमां भिन्न आधारनी अपेक्षा प्रभवती नथी; अने ते नहि प्रभवतां, एक आकाश ज एक आकाशमां ज प्रतिष्ठित छे एम बराबर समजी जवाय छे अने तेथी एवुं समजी जनारने पर-आधारआधेयपणुं भासतुं नथी.’


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जुओ, ज्ञानमां एक आकाशने ज लक्षमां लई विचार करवामां आवे तो आकाशनो आधार कोई बीजी चीज भासती नथी; अर्थात् बीजा आधारनी अपेक्षा बुद्धिमां बेसती नथी, बीजा आधारनी अपेक्षा ठरी जाय छे, उद्भवती नथी. सर्वव्यापक आकाशने कोनो आधार? आकाश पोते ज आधार अने पोते ज आधेय एम स्पष्ट समजी जवाय छे. खरेखर द्रव्योने आधार कोण? दरेक द्रव्य निश्चयथी पोते पोताना ज आधारे छे. आकाशमां जे द्रव्यो रहेलां छे तेमने आकाशनो आधार कहेवो ए तो निमित्तनी अपेक्षाथी कथन छे; वास्तविक आधार तो कोई द्रव्यने कोई अन्य द्रव्य छे ज नहि.

जेम कोई जगतनो कर्ता ईश्वर छे एम कहे तो पछी ईश्वरने कोणे कर्यो? जो एने बीजाए कर्यो तो पछी ए बीजाने कोणे कर्यो? एम विचारतां कोई थंभाव रहेतो नथी. एनो अर्थ ज ए थयो के वस्तु स्वयंसिद्ध छे; एने कोण करे? (कोई नहि). अनादिथी छे छे ने छे. तेम छये द्रव्यो प्रत्येक पोतपोताना ज आधारे छे. जेम आकाशने कोई आधार नथी तेम छये द्रव्योने निश्चयथी कोई अन्य आधार नथी.

अहीं कहे छे के सर्वव्यापी आकाशने कोई अन्य आधार भासतो नहि होवाथी आकाश ज आकाशमां प्रतिष्ठित छे एम बराबर समजी जवाय छे. आकाशनो आधार आकाश ज छे, अन्य नहि. आवुं समजी जनारने कोई पर आधार अने आकाश आधेय एम पर- आधारआधेयपणुं भासतुं नथी. जुओ, आ आचार्यदेवे द्रष्टांत कह्युं. हवे सिद्धांत कहे छे-

‘एवी रीते ज्यारे एक ज ज्ञानने पोतानी बुद्धिमां स्थापीने (ज्ञाननो) आधारआधेयभाव विचारवामां आवे त्यारे ज्ञानने बाकीनां अन्यद्रव्योमां आरोपवानो निरोध ज होवाथी बुद्धिमां भिन्न आधारनी अपेक्षा प्रभवती नथी; अने ते नहि प्रभवतां, एक ज्ञान ज एक ज्ञानमां ज प्रतिष्ठित छे-एम बराबर समजी जवाय छे अने तेथी एवुं समजी जनारने पर-आधारआधेयपणुं भासतुं नथी. माटे ज्ञान ज ज्ञानमां ज छे, क्रोधादिक ज क्रोधादिकमां ज छे.’

जेम ज्ञानमां आकाशने लक्षमां लेतां आकाशनो बीजो कोई आधार देखातो नथी एम बुद्धिमां ज्ञानने विचारतां ज्ञानने कोई बीजी चीजनो आधार छे एम देखातुं नथी. ज्ञान ज्ञानमां ज प्रतिष्ठित छे अर्थात् आत्मा आत्मामां ज छे कोई अन्यद्रव्यमां नहि. बीजा द्रव्यनो ज्ञानने-आत्माने आधार नथी; आत्मा शरीरमां के रागमां नथी. आत्मा एकला ज्ञानना परिणमनमां के जे आत्मानुं स्वरूप छे एमां छे. राग आधार अने आत्मा आधेय एम छे नहि. भाई! एक वार तुं आवुं यथार्थ श्रद्धान तो कर के ज्ञान ज्ञानमां ज छे, रागमां- क्रोधादिमां नहि अने क्रोधादिक क्रोधादिकमां ज छे, आत्मामां नहि. भाई! आवुं श्रद्धान करे ए तो अंदर (स्वरूपमां) चाल्यो जाय


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एवी आ वात छे. आ समज्या विना पांच-पचास लाखना मंदिर बंधावे तोय शुं? शुभराग होय तो पुण्य बंधाय, बस; बाकी मंदिर तो ए (जीव) कयां करी शके छे? अहीं कहे छे- रागादि आधार अने आत्मा आधेय एम पर-आधारआधेयपणुं भासतुं नथी. तेथी शुद्ध निर्मळ ज्ञाननी परिणति ते आधार अने ज्ञान-आत्मा आधेय एम ज नक्की थाय छे.- समजाणुं कांई...?

वासणना आधारे घी छे के घीना आधारे घी छे? कोई कहे के वासणना आधारे घी छे; नहितर घी ढोळाई जाय. अहीं कहे छे-ए वात तद्न खोटी छे. घीना एक एक रजकणमां आधार (अधिकरण) नामनो गुण रहेलो छे अने एने लईने घी (घीमां) रहेलुं छे, वासणने लईने नहि. तेम ज्ञान ज्ञानमां ज छे.

आ प्रमाणे (ज्ञाननुं अने क्रोधादिक तेम ज कर्म-नोकर्मनुं) भेदविज्ञान भली रीते सिद्ध थयुं. रागनी-क्रोधादिनी क्रिया आत्माथी अन्य वस्तु छे, ज्ञाननी क्रियाथी भिन्न छे एम सिद्ध थयुं.

* गाथा १८१ थी १८३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘उपयोग तो चैतन्यनुं परिणमन होवाथी ज्ञानस्वरूप छे अने क्रोधादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, शरीरादि नोकर्म-ए बधांय पुद्गलद्रव्यना परिणाम होवाथी जड छे; तेमने अने ज्ञानने प्रदेशभेद होवाथी अत्यंत भेद छे.’

उपयोग ए रागथी भिन्न पडीने अंदरमां जे परिणमन थयुं ते चैतन्यनुं परिणमन छे अने ते आत्मस्वरूप-ज्ञानस्वरूप छे. तथा रागनी रुचिरूप क्रोधादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म अने शरीरादि नोकर्म-ए बधां पुद्गलद्रव्यनां परिणाम होवाथी अचेतन जड छे. कर्म अने शरीरादि तो प्रत्यक्ष अचेतन छे ज. अहीं तो रागनी रुचिरूप क्रोधादिने जड कह्यां छे केमके तेमनामां चैतन्यनो अंश नथी. वळी तेमने अने ज्ञानने प्रदेशभेद होवाथी, बन्नेनां क्षेत्र भिन्न भिन्न होवाथी अत्यंत भेद छे.

‘माटे उपयोगमां क्रोधादिक, कर्म तथा नोकर्म नथी अने क्रोधादिकमां, कर्ममां तथा नोकर्ममां उपयोग नथी. आ रीते तेमने पारमार्थिक आधारआधेयसंबंध नथी.’ मतलब के विकारना आधारे आत्मा प्रगटे के आत्माना आधारे विकार थाय एम छे नहि.

‘दरेक वस्तुने आधारआधेयपणुं पोतपोतामां ज छे. माटे उपयोग उपयोगमां ज छे, क्रोध क्रोधमां ज छे.’ चैतन्यना परिणमनना आधारे आत्मा जणायो ए परिणमन आत्मा ज छे, चैतन्यमय ज छे अने रागनी रुचिनुं-मिथ्यात्वनुं परिणमन जड ज छे; दरेकने आधार- आधेयपणुं पोतामां ज छे.


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मोक्षमार्ग प्रकाशकमां शुद्धोपयोगने ग्रहण करे ते मुनि एम मुनिपणानुं लक्षण कह्युं छे. वस्तु तो त्रिकाळ शुद्धद्रव्य छे. हवे परिणमनमां शुद्धोपयोगने ग्रहण करे एनुं नाम मुनिदशा छे. वळी ए शुद्धोपयोगना साधन वडे मुनिवरो घातीकर्मनो नाश करी केवळज्ञान पामे छे एम त्यां कह्युं छे. विभावना-रागना साधन वडे केवळज्ञान पामे छे एम छे नहि. भाई! जेनो जे स्वभाव छे ते स्वभावथी स्वभावनी प्राप्ति थाय ने? यथाख्यातचारित्र पोताना स्वभावनी वीतराग परिणतिथी प्राप्त थाय अने केवळज्ञान ज्ञाननी निर्मळ परिणतिथी प्राप्त थाय पण रागथी न थाय.

माटे उपयोग एटले आत्मा-ज्ञायकभाव उपयोगमां एटले चैतन्यना निर्मळ परिणमनमां ज छे अने क्रोधादि विकार क्रोधादिमां ज छे.

अगाउ गाथा प० थी पप मां (२९ बोलमां) आवी गयुं के मिथ्यात्वादि छे ते अनुभूतिथी भिन्न छे. मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग ए चार प्रत्ययोना भेद तेर गुणस्थानो छे. आस्रव होवाथी ए बधां अचेतन जड छे. अने शुद्ध उपयोग-वीतरागी परिणतिमां आत्मा छे. आ भेदज्ञान छे. भावकर्म, द्रव्यकर्म अने नोकर्मथी उपयोगनो भेद जाणवो ते भेदज्ञान छे अने आवुं भेदज्ञान चोथा गुणस्थानथी होय छे. आ रीते भेदविज्ञान बराबर सिद्ध थयुं.

प्रवचनसारमां (१ थी प गाथामां) आवे छे के शुद्ध आत्माना लक्षे थयेलो परम निरपेक्ष (रागनी अपेक्षा रहित) शुद्धोपयोग तेने प्राप्त थयेला छे ते आचार्य, उपाध्याय अने साधु छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश १२६ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘चैद्रूप्यं जडरूपतां च द्धतोः ज्ञानस्य रागस्य च’ चिद्रूपता धरतुं ज्ञान अने जडरूपता धरतो राग-‘द्वयोः’ ए बन्नेनो, ‘अन्तः’ अंतरंगमां ‘दारुण–दारणेन’ दारुण विदारण वडे ‘परितः विभागं कृत्वा’ चोतरफथी विभाग करीने ‘इदं निर्मलम् भेदज्ञानम् उदेति’ निर्मळ भेदज्ञान उदय पाम्युं छे.

चिद्रूपता धरतुं ज्ञान एटले ज्ञानपणे, श्रद्धापणे, वीतरागतापणे, आनंदपणे परिणमतो आत्मा छे. अने जडरूपता धरतो राग छे. राग जड छे. आगळ क्रोधादि, कर्म अने नोकर्म एम त्रण लीधां हतां. अहीं राग ज लीधो छे. दया, दान, पूजा, भक्ति इत्यादिनो राग छे ते जड छे एम कहे छे. ए बन्नेना (ज्ञान अने रागना) अंतरंगमां दारुण विदारण वडे अर्थात् भेद पाडवाना उग्र अभ्यास वडे चोतरफथी विभाग करीने निर्मळ भेदविज्ञान उदय पाम्युं छे. जुओ, आ भेदविज्ञान केवी रीते


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प्रगटे एनी वात करे छे. कहे छे-परलक्षे थतो जे राग एनाथी भिन्न पडीने स्वलक्षे थता शुद्ध उपयोगने प्रगट करी समस्त प्रकारे राग अने ज्ञानने जुदा करीने भेदज्ञान प्रगट थयुं छे. चोतरफथी एटले द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भाव-एम समस्त प्रकारथी भगवान आत्माने रागथी भिन्न करीने भेदविज्ञान प्रगट थयुं छे. अहाहा...! भेदविज्ञान थतां विभावनो कोई अंश स्वपणे भासतो नथी. भेदविज्ञान आत्माने अने रागने चोतरफथी भिन्न करतुं प्रगट थयुं छे. मतलब के द्रव्यथी भिन्न, क्षेत्र-प्रदेशथी भिन्न, काळथी भिन्न अने भावथी भिन्न-एम रागथी आत्माने सर्व प्रकारे भिन्न करतुं भेदज्ञान प्रगट थयुं छे.

अहाहा! आ वस्तु आत्मा जे त्रिकाळ ज्ञान अने आनंदस्वरूप छे तेने परथी-रागथी भेद पाडतां आ प्रत्यक्ष निर्मळ भेदज्ञान प्रगट थयुं छे. भाई! चैतन्यनी मूळ पुंजी ग्रहण करवामां चैतन्यनुं परिणमन कार्य करे, तेमां राग कार्य न करे, व्यवहाररत्नत्रयनो राग पण एमां काम न आवे; केमके ज्ञाननुं परिणमन धरतो आत्मा छे अने जडरूपता धरतो राग छे. बन्नेना भिन्न स्वभाव छे.

प्रश्नः– तो ‘‘मुख्योपचार दु भेद यों बडभागि रत्नत्रय धरैं’’ एम शास्त्रमां आवे छे ने?

उत्तरः– शास्त्रमां कोई ठेकाणे निरुपचार रत्नत्रयनी साथे रहेला व्यवहाररत्नत्रयनुं ज्ञान कराववा तेने आराधतो-धरतो एम पण कहेवामां आव्युं छे. निश्चयनी साथे ते व्यवहार होय छे तेथी निश्चयनो राग उपर आरोप आपी तेने आराधे छे एम शास्त्रमां कहेलुं छे. ज्ञानी आराधे छे तो एक स्वने ज, पण रागमां आराधनानो आरोप करी रागने आराधे छे एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे. हवे आगळ कहे छे-

‘अधुना’ माटे हवे ‘एकम् शुद्ध–ज्ञानघन–ओघम् अध्यासिताः’ एक शुद्ध विज्ञानघनना पुंजमां स्थित अने द्वितीय–च्युताः’ बीजाथी एटले रागथी रहित एवा ‘सन्तः’ हे सत्पुरुषो! ‘मोदध्वम्’ तमे मुदित थाओ.

अनादिथी जे रागमां स्थित हतो ते पर्यायबुद्धि हती, अज्ञानभाव हतो. हवे रागथी भिन्न पडीने भगवान ज्ञानपुंजमां स्थित थयो ते वीतराग-विज्ञानरूप भेदविज्ञान छे, मोक्षमार्ग छे. आवुं भेदविज्ञान ज्ञानना लक्षे थाय छे. रागना लक्षे अंदर भेदविज्ञान न थाय. स्वनुं-ज्ञानपुंज एवा आत्मानुं लक्ष थतां भेदविज्ञाननुं परिणमन थाय छे.

जेम खेतरमां सो सो मणना घासना गंज-पुंज होय छे एम आत्मा ज्ञानघननो पुंज एटले गंज-ढगलो छे. एमां स्थित अने बीजाथी रहित-ते बीजुं कोण? ज्ञानस्वभावथी राग बीजो छे. माटे ज्ञानमां स्थित अने रागथी रहित एवा हे


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सत्पुरुषो! तमे मुदित थाओ अर्थात् आनंदित थाओ, सुखी थाओ, रागनी एकतामां दुःख हतुं ते हवे रागनी भिन्नता करी आत्मस्थित थतां सुखी थाओ-एम कहे छे.

भगवान! तारुं तत्त्व-आनंदनो नाथ अंदर परमात्मस्वरूपे एमने एम पडयुं छे. तें पहेलां मान्युं न हतुं त्यारे तने ए न हतुं पण हवे मान्युं त्यारे ते छे. माटे एमां स्थित थई हवे प्रसन्न थाओ, सुखी थाओ एम आशीर्वाद आपे छे.

ज्ञानना ओघमां ठरेला सत्पुरुषो सुखी थाओ एम कह्युं ने? मतलब के ज्ञानपुंज भगवान आत्मा जे सत् छे एमां ठरे ते सत्पुरुष छे अने असत् एवा रागमां ठरे ते असत्पुरुष छे. रागमां ठरे ते असत्पुरुष दुःखी छे. तेने कहे छे-ज्ञानपुंज भगवान आत्मामां स्थित थईने अर्थात् ज्ञानना परिणमनमां भगवान आत्मा समीप करीने हे सत्पुरुषो! मुदित थाओ, आनंदित थाओ. जे ज्ञानना परिणमनमां आत्मा समीप छे ते ज्ञानने धर्म कहे छे, मोक्षमार्ग कहे छे अने जे ज्ञाननी पर्यायमां राग समीप छे ते अधर्म छे, संसारमार्ग छे.

‘द्वितीयच्युताः’ एम लीधुं छे ने? रागथी भिन्न थईने एनो अर्थ ज ए थयो के स्वअस्तित्वमां ठर्यो एटले परथी-रागथी नास्ति थई. अहा! जेने साची पद्धति-रीतनी खबर ज न होय तेने धर्म केवी रीते थाय? कोई कहे के अमारा बापदादा करता हता माटे अमे करीए छीए. आ तो अमारो कुळनो धर्म छे एम जाणी अमे पाळीए छीए. परंतु भाई! देखादेखी के कुळक्रमने अनुसरनारने तो धर्मबुद्धि ज नथी एम मोक्षमार्ग-प्रकाशकमां पं. श्री टोडरमलजीए कह्युं छे. कुळक्रमथी जैनधर्म नथी पण रागने जीती वीतरागता प्रगट करे ते जैनधर्म छे अने ते निर्मळ भेदविज्ञान वडे प्रगट थाय छे.

अहाहा...! कळश तो कळश छे कांई! कहे छे-रागने जुदा पाडवाना अभ्यास वडे आनंदित थाओ. जुओ आ आनंदित थवानी रीत. बीजाने समजावतां आवडे न आवडे एनी साथे कांई संबंध नथी. लोकमां आ वक्ता बहु प्रसिद्ध छे एम प्रशंसा थाय पण ए कांई चीज नथी. जेने आत्मज्ञान थयुं होय, जे जैनधर्ममां द्रढ श्रद्धावान होय अने जे आत्मरसी होय ते साचो वक्ता छे. जेणे अध्यात्मरस पीधो नथी ते निश्चय वस्तुनी शुं वात करे? मोक्षमार्गप्रकाशकमां कह्युं छे के श्रोताथी वक्तानुं पद ऊंचुं छे. श्रोताओने खुश राखवा वक्ता कांई न कहे, जो एम करे तो एनुं पद नीचुं जई जाय.

अहीं कहे छे-शुद्धज्ञानघन प्रभु आत्मानी द्रष्टि अने एकाग्रता थतां रागनी-पर्यायनी द्रष्टि उडी गई अने अतीन्द्रिय आनंदनी लहर ऊठी. माटे कहे छे के भेदज्ञानना अभ्यास वडे आनंदित थाओ.


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आ बधा दूघपाक आदिना स्वादनी होंशु करे छे ने? अरे भगवान! दूधपाक आदिनो स्वाद तने कयां आवे छे? ए तो जड माटी छे. एना प्रति रागने करीने जे राग करे छे ते रागनो तने स्वाद आवे छे अने ए रागनो स्वाद तो झेरनो-दुःखनो स्वाद छे बापा! ज्ञानी संतो कहे छे-भाई! लाडु वगेरे जडनो स्वाद तो जीवने आवतो नथी पण एना प्रत्येना रागनो कषायलो-कडवो स्वाद अज्ञानी जीवो ले छे. अहीं कहे छे के भाई! रागथी भिन्न पडी अंदर निज चैतन्यघरमां आवतां तने अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवशे. रागनो स्वाद तो परनो झेरनो स्वाद छे; माटे रागथी हठी भगवान आत्माने आस्वादो. आनुं नाम भेदविज्ञान छे, धर्म छे.

* कळश १२६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञान तो चेतनास्वरूप छे अने रागादिक पुद्गलविकार होवाथी जड छे; परंतु अज्ञानथी, जाणे के ज्ञान पण रागादिरूप थई गयुं होय एम भासे छे अर्थात् ज्ञान अने रागादिक बन्ने एकरूप-जडरूप भासे छे.’

जुओ, शुं कहे छे? के भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप छे अने रागादि जड अज्ञानस्वरूप छे. आत्मा चैतन्यस्वभावमय छे अने रागादि विभावस्वरूप छे. आत्मा आनंदस्वरूप छे अने राग दुःखस्वरूप छे. छहढालामां कह्युं छे ने के-

‘राग आग दहै सदा तातैं समामृत सेईए’

जुओ, आमां एम नथी कह्युं के मात्र अशुभ राग ज आग छे. शुभाशुभ बन्ने प्रकारना राग आग छे; कषायमात्र अग्नि छे. भाई! रागना परिणाम चेतननी जातना परिणाम नथी. अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदना परिणाम चैतन्यनी जातिना परिणाम छे. राग तो कजात छे. छतां अज्ञानथी एम भासे छे के जाणे राग आत्मानी जातिनो केम न होय. अज्ञानीने अनादिथी आत्मा अने रागना भाव बन्ने एक जातिना जडरूप भासे छे. तेने एम भासे छे के राग जीवना स्वरूपमय छे. पण अहीं कहे छे के-ज्ञायक भगवान सदा रागथी भिन्न छे अने कदी रागरूप थाय एम नथी.

‘ज्यारे अंतरंगमां ज्ञान अने रागादिनो भेद पाडवानो तीव्र अभ्यास करवाथी भेदज्ञान प्रगट थाय छे त्यारे एम जणाय छे के ज्ञाननो स्वभाव तो मात्र जाणवानो ज छे, ज्ञानमां जे रागादिकनी कलुषता-आकुळतारूप संकल्प-विकल्प भासे छे ते सर्व पुद्गलविकार छे, जड छे.’

अहीं रागने पुद्गलविकार कह्यो माटे ते (राग) पुद्गलथी थया छे एम नथी. विकार- राग छे तो एनी (जीवनी) परिणतिमां, पण ते चैतन्यनी जातनो नथी तेथी ते जड अचेतन छे एम सिद्ध कर्युं छे केमके रागमां चेतनना किरणनो एक अंश


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पण नथी. आ प्रमाणे ज्ञान अने रागादिना भेदनुं भान थाय छे त्यारे-भेदनो उग्र अभ्यास करवाथी आनंदना स्वाद सहित आत्मानो अनुभव थाय छे. आनुं नाम भेदज्ञान छे.

‘ज्यारे आवुं भेदज्ञान थाय त्यारे आत्मा आनंदित थाय छे कारण के तेने जणाय छे के ‘‘पोते सदा ज्ञानस्वरूप ज रह्यो छे, रागादिरूप कदी थयो नथी.’’

जुओ, आमां केटली धीरज जोईए. आ कांई क्रियाकांड छे के झट दईने करी नाखे! पहेलां रागनो स्वाद हतो त्यारे आनंदनो स्वाद न हतो. रागना विकल्पथी भेदनो अभ्यास करी ज्यारे भेदज्ञान कर्युं त्यारे आत्माना आनंदनो स्वाद आव्यो अने त्यारे एने जणायुं के- अहो! हुं तो सदा ज्ञायक ज रह्यो छुं, रागरूप कदी थयो ज नथी.’’ मान्यो हतो पण भगवान आत्मा रागरूपे शी रीते थाय?

जुओ, पोते सदा ज्ञानस्वरूपे ज रह्यो छे. कथंचित् ज्ञानस्वरूपे अने कथंचित् रागस्वरूपे-विकारस्वरूपे छे एम नहि. अहाहा...! भगवान ज्ञायकमूर्ति प्रभु कदीय दया, दान आदिना स्वभावे थयो ज नथी. प्रवचनसार गाथा २०० मां कह्युं छे के-भगवान आत्मा अनादिनो ज्ञायकभावे ज रह्यो छे, परंतु एने बीजी रीते अध्यवसित कर्यो छे-मान्यो छे. राग ते हुं, पुण्य ते हुं एम बीजी रीते मिथ्यापणे मान्युं छे.

केटलाक कहे छे के-पुण्यथी पण धर्म थाय एम मानो तो अनेकान्त थाय.

भाई! खरेखर एम नथी. स्वभावना आश्रये धर्म थाय अने पुण्यथी न थाय एनुं नाम सम्यक् अनेकान्त छे. निश्चयथी लाभ थाय अने व्यवहारथी पण लाभ थाय एवुं अनेकान्त छे ज नहि.

तेथी तो आचार्य कहे छे-हे सत्पुरुषो! जे काळ गयो ते गयो, पण हवे रागथी भेदना उग्र अभ्यास वडे भेदज्ञान प्रगट करीने आनंदने पामो, मुदित थाओ.

* * *
टीकाना हवेना अंश उपरनुं प्रवचनः (गाथा १८१ थी १८३)

अनादिकाळथी शुभाशुभ राग मारो छे एम मानीने तेमां रमी रह्यो छे ते मिथ्यात्वभाव छे अने एमां ज अनंत भवनुं बीज पडयुं छे. शुभाशुभ रागना विभावथी भिन्न पडी अंतरमुखवलण वडे जेणे आत्मानुभव कर्यो ते बंधनथी छूटे छे केमके तेने निर्मळ भेदविज्ञान प्रगट थाय छे. ए ज कहे छे-

‘आ रीते आ भेदविज्ञान ज्यारे ज्ञानने अणुमात्र पण विपरीतता नहि पमाडतुं थकुं अविचळपणे रहे छे, त्यारे शुद्ध उपयोगमयात्मकपणा वडे ज्ञान केवळ ज्ञानरूप ज रहेतुं थकुं जरा पण रागद्वेषमोहरूप भावने करतुं नथी,.. .’


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जुओ, रागनी रुचिरूप विपरीतताथी भिन्न पडीने भेदज्ञानना बळ वडे ज्ञानमां अविचलपणे रहे छे ते आत्मा सुखने प्राप्त करे छे. ते जीव समकिती छे अने तेने शुद्धोपयोगात्मकपणुं छे. सम्यक्दर्शन शुद्धोपयोगना काळमां थाय छे. भेदज्ञान थतां दया, दान, भक्ति आदिना रागथी रंजित मलिन उपयोगथी खसीने ज्ञान केवळ ज्ञानरूप ज रहेतुं थकुं शुद्धोपयोगपणे परिणमे छे. अंतरमां ज्ञाननी वर्तमान पर्यायने द्रव्य उपर स्थापतां आत्मा शुद्धभावरूपे परिणमे छे. रागथी भिन्न पडेलुं ज्ञान अहिंसकपणे रही विपरीतपणे-रागपणे नहि थतुं थकुं जरा पण रागद्वेषमोहने करतुं नथी. ल्यो? आवी वात!

हवे अत्यारे तो आखा मार्गनो लोप थई गयो छे. लोको उपवास करवो, ने रसत्याग करवो इत्यादि बाह्य क्रियाओने धर्म मानवा लाग्या छे. पण भाई! व्रत, तप आदि क्रियाकांड कांई धर्म नथी, ए तो राग छे, दुःख छे. एना वडे धर्म मानतां तो आत्मा विपरीतपणाने पामे छे. अहीं कहे छे-भेदज्ञान आत्माने जरा पण विपरीतताने पमाडतुं नथी अने तेथी ज्ञान ज्ञानमां-ज्ञानमय भावमां रहे छे.

भाई! रागनी रुचिनी मूर्खाईमां तुं चोरासीना अवतारमां रझळी-रखडी रह्यो छे. ए रझळपट्टीने मटाडवानो आ भेदज्ञान एक ज उपाय छे. पुण्यना भावनी रुचि भगवान! परिभ्रमणनुं कारण छे.

केटलाक पंडितो ‘पुण्यफला अरहंता’ इत्यादि प्रवचनसारनी गाथा ४प नो अर्थ एम करे छे के-‘अरिहंतपणुं ए पुण्यनुं फळ छे.’ एनी टीकामां भाव प्रगट कर्यो छे ते जोता नथी. टीकामां तो एम छे के-‘पुण्यनो विपाक-उदय आत्माने अकिंचित्कर छे;’ अर्थात् आत्माने ते लाभ के हानि करतुं नथी. पूर्वे जे पुण्य बांध्युं हतुं ते उदयमां आवतां एनुं जे फळ दिव्यध्वनि, समोसरण इत्यादि अतिशयो आत्माने (अरिहंतने) अकिंचित्कर छे. उदय छे ते खरी जाय छे. त्यां (प्रवचनसारमां) गाथा ७७ मां तो अति स्पष्ट कह्युं के-दया, दान आदि पुण्यभाव अने हिंसादि पापभाव-ए बेमां फेर नथी एम जे मानतो नथी ते मोहाच्छादित वर्ततो थको घोर अपार संसारमां परिभ्रमण करे छे.

अहीं कहे छे-दुःखरूप राग अने आनंदस्वरूप भगवान आत्मा ए बे वच्चेनुं भेदज्ञान करतां ज्ञान पोतापणे-शुद्धोपयोगपणे रहेतुं रागने जरीय करतुं नथी. जुओ, परनी दया पाळवानो भाव राग होवाथी हिंसा छे. एनाथी भिन्न भगवान आत्मा अहिंसक- वीतरागस्वभावमय छे. ए बे वच्चे भेदज्ञान करीने वीतरागपणे रहेनार शुद्धोपयोगमय आत्मा रागने जरीय करतो नथी. ज्ञान रागने भळवा देतुं ज नथी. अहा! राग आवे पण भेदज्ञानी कर्ताबुद्धिथी रागने करतो नथी. जेनाथी भेद थयो


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तेने ते केम करे? ज्ञान तो मात्र जाणे, रागने करवो एवो एनो स्वभाव ज कयां छे? स्वभावने ग्रहण कर्यो पछी रागनुं करवापणुं रहे ज कयांथी?

‘तेथी एम सिद्ध थयुं के भेदविज्ञानथी शुद्ध आत्मानी उपलब्धि थाय छे अने शुद्धआत्मानी उपलब्धिथी रागद्वेषमोहनो अभाव जेनुं लक्षण छे एवो संवर थाय छे.’

शुं कह्युं आ? के दया, दान आदिना रागथी भेद करीने भेदज्ञान वडे आत्मानी उपलब्धि कहेतां अनुभव थाय छे. ल्यो, आ विधि कही. भाई! आ विधि विना आत्मानो अनुभव थतो नथी. राग ए तो परघर छे अने परघरमां जवुं ए तो व्यभिचार छे. रागथी भिन्न पडेलुं ज्ञान, शुद्ध ज्ञानमयपणे परिणमतुं, जरीय रागयुक्तपणे नहि थतुं थकुं, ज्ञानपणे ज रहे छे अने अतीन्द्रिय आनंदने अनुभवे छे. आ विधिए आत्मानी उपलब्धि थाय छे.

जेम कोईने शीरो बनाववो होय तो पहेलां लोटने घीमां शेके, पछी गोळनुं पाणी एमां नाखे. पण कोई घीनी बचत करवा खातर पहेलां लोटने गोळना पाणीमां नाखे अने पछी घीमां शेके तो शीरो तो शुं लोपरी-पोटीस पण नहि थाय. एनां घी, लोट, गोळ बधुंय नकामुं जशे. एम कोई पहेलां दया, दान, व्रतादिना क्रियाकांड करे, केमके ए सहेलुं पडे छे अने पछी स्वरूपनां श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र आदि थशे एम माने तेने कहे छे-भाई! तारा व्रतादिना बधा क्रियाकांड फोगट जशे. भाई! भेदज्ञानथी निर्मळ रत्नत्रय थाय पण भेदरत्नत्रयथी आत्मानुभव कदीय न थाय. भेदरत्नत्रय पाळतां पाळतां निश्चय निरुपचार रत्नत्रय प्रगटे एम कोई माने तो एने मोटुं मिथ्यात्वनुं शल्य छे.

प्रश्नः– तो प्रवचनसारमां आवे छे के ज्ञानी समकिती ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, वीर्याचार, तपाचार आदि व्यवहारने करे छे?

उत्तरः– भाई! ज्यां सुधी पूर्णता न पमाय त्यां सुधी समकिती ज्ञानीने आवो व्यवहार होय छे एम त्यां कहेवुं छे. ज्ञानी तेने पोतानुं कर्तव्य जाणी करे छे एम नथी; ज्ञानी तो ए सर्व व्यवहारने स्वरूपथी भिन्न हेयपणे जाणे ज छे, करतो नथी. भाई! चरणानुयोगमां कथननी आवी व्यवहारनी शैली छे तेने यथार्थ समजवी.

अरे! ए समजे कयारे? बिचारो आखो दि’ बैराने, छोकरांने, कुटुंबने पाळवा- पोषवानो अने रळवानो एकलो पापनो उद्यम करवाथी नवरो पडे तो ने? एने पापनी मजुरीमांथी नवराश कयां छे?

त्यारे ते कहे छे-अमे तो अमारी कुटुंब प्रत्येनी फरज बजावीए छीए. कुटुंब प्रत्येनी फरज तो बजाववी जोईए ने? तेने कहीए छीए-


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भगवान! कुटुंब प्रत्ये तारी फरज केवी? कुटुंब तो प्रत्यक्ष भिन्न पर वस्तु छे. तारी फरज तो तारामां होय के परमां-कुटुंबमां? आत्माने पर प्रत्ये फरज नथी. पर प्रत्ये फरज माननार मूढ मिथ्याद्रष्टि छे अने ते अनंत संसारमां रखडनारा छे. भगवान! तारे पोतानुं हित करवुं छे के नहि? जो तारे पोतानुं हित करवुं होय तो धर्म प्रगट कर. ए धर्म केम थाय? तो कहे छे के पुण्य-पापना भावने अने भगवान आत्माने भिन्न जाणे त्यारे थाय. भाई! तुं अनादि काळथी जन्म-मरणना भावमां झोला खातो दुःखी थई रह्यो छे. भगवान! तें कह्यां न जाय अने सह्यां पण न जाय एवां महा कष्ट-दुःख उठाव्यां छे.

जुओ, लाठीमां एक अढार वर्षनी छोडी हती. नवी नवी परणेली. तेने शीतळा नीकळ्‌या. शरीरना रोम रोम पर शीतळाना दाणा अने दाणेदाणे ईयळो पडेली. बिचारीने पारावार वेदना; तळाईमां पासुं पलटे त्यां चीस पाडी उठे; बिचारी रूवे-रूवे, भारे आक्रन्द करे, तेनी माने ते कहे-बा, आ ते शुं थयुं? आवां पाप में आ भवमां तो कर्यां नथी, आवुं दुःख ते केम सहन थाय? रडती, भारे ककळाट करती विलापनी दशामां बिचारीनो देह छूटी गयो. भाई! आवां तो शुं आनाथी अनेकगणां दुःख तें भूतकाळमां उठाव्यां छे. तुं जाणे के आ बीजानी वात छे पण एम नथी भाई! आवा तो अनंत अनंतवार पोताने पण भव थया छे. मिथ्यात्वना फळमां चार गतिना, अने निगोदना भव तने अनंतवार थया छे. भगवान! आ तारा ज दुःखनी कथा छे.

अहीं कहे छे-रागथी-क्रियाकांडथी धर्म माननारने संसारनुं-दुःखनुं परिभ्रमण नहि मटे; भवनो अभाव नहि थाय. तो केवी रीते थाय? तो कहे छे-भाई! क्रियाकांडना रागथी भगवान आत्मा भिन्न छे एम भेदनो अभ्यास करी, रागथी लक्ष छोडी भेदज्ञान वडे अविचलपणे ज्ञानने ज्ञानमां राखीने शुद्धोपयोगपणे परिणमतां धर्म थाय छे अने भवनो अभाव करवानी आ ज रीते छे. आवी भेदज्ञाननी भूमिकामां समकिती ज्ञानी रागनो जराय कर्ता थतो नथी, ज्ञाता रहे छे अने एकला ज्ञानमयभावे परिणमतो थको ते सर्वथा रागरहित थई भवमुक्त थई जाय छे. अहो! भेदविज्ञान कोई अलौकिक चीज छे. बनारसीदासे कह्युं छे ने के-

‘‘भेदज्ञान संवर जिन्ह पायौ, सो चेतन शिवरूप कहायौ.’’

भेदज्ञानथी आत्मानो अनुभव थाय छे. आत्माना अनुभवथी रागद्वेषमोहनो नाश थाय छे अर्थात् रागद्वेषमोहादि आस्रवनो अभाव जेनुं लक्षण छे एवो संवर थाय छे. रागद्वेषमोह आस्रव छे. तेना अभावस्वरूप संवर छे. ते संवर आत्मानी शुद्ध चैतन्यमय परिणतिरूप धर्म छे. ल्यो, आम भेदविज्ञान ज धर्मनुं मूळ छे. समजाणुं कांई...?

[प्रवचन नं. २प२ थी २प४ * दिनांक प-१२-७६ थी ७-१२-७६]

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कथं भेदविज्ञानादेव शुद्धात्मोपलम्भ इति चेत्–

जह कणयमग्गितवियं पि कणयभावं ण तं परिच्चयदि।
तह कम्मोदयतविदो ण जहदि णाणी दु णाणित्तं।। १८४।।
एवं जाणदि णाणी अण्णाणी मुणदि रागमेवादं।
अण्णाणतमोच्छण्णो आदसहावं अयाणंतो।। १८५।।
यथा कनकमग्नितप्तमपि कनकभावं न तं परित्यजति।
तथा कर्मोदयतप्तो न जहाति ज्ञानी तु ज्ञानित्वम्।। १८४।।

एवं जानाति ज्ञानी अज्ञानी मनुते रागमेवात्मानम्।
अज्ञानतमोऽवच्छन्नः आत्मस्वभावमजानन्।। १८५।।

हवे पूछे छे के भेदविज्ञानथी ज शुद्ध आत्मानी उपलब्धि (अनुभव) कई रीते थाय छे? तेना उत्तररूप गाथा कहे छेः-

ज्यम अग्नितप्त सुवर्ण पण निज स्वर्णभाव नहीं तजे,
त्यम कर्मउदये तप्त पण ज्ञानी न ज्ञानीपणुं तजे. १८४.
जीव ज्ञानी जाणे आम, पण अज्ञानी राग ज जीव गणे,
आत्मस्वभाव–अजाण जे अज्ञानतम–आच्छादने. १८प.

गाथार्थः– [यथा] जेम [कनकम्] सुवर्ण [अग्नितप्तम् अपि] अग्निथी तप्त थयुं थकुं पण [तं] तेना [कनकभावं] सुवर्णपणाने [न परित्यजति] छोडतुं नथी [तथा] तेम [ज्ञानी] ज्ञानी [कर्मोदयतप्तः तु] कर्मना उदयथी तप्त थयो थको पण [ज्ञानित्वम्] ज्ञानीपणाने [न जहाति] छोडतो नथी.- [एवं] आवुं [ज्ञानी] ज्ञानी [जानाति] जाणे छे, अने [अज्ञानी] अज्ञानी [अज्ञानतमोऽवच्छन्नः] अज्ञान-अंधकारथी आच्छादित होवाथी [आत्मस्वभावम्] आत्माना स्वभावने [अजानन्] नहि जाणतो थको [रागम् एव] रागने ज [आत्मानम्] आत्मा [मनुते] माने छे.

टीकाः– जेने उपर कह्युं तेवुं भेदविज्ञान छे ते ज तेना (भेदविज्ञानना) सद्भावथी ज्ञानी थयो थको आ प्रमाणे जाणे छेः-जेम प्रचंड अग्नि वडे तप्त थयुं


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थकुं पण सुवर्ण सुवर्णत्व छोडतुं नथी तेम प्रचंड कर्मोदय वडे घेरायुं थकुं पण (अर्थात् विध्न करवामां आवतां छतां पण) ज्ञान ज्ञानत्व छोडतुं नथी, केम के हजार कारणो भेगां थवा छतां स्वभावने छोडवो अशकय छे; कारण के तेने छोडतां स्वभावमात्र वस्तुनो ज उच्छेद थाय, अने वस्तुनो उच्छेद तो थतो नथी कारण के सत्ना नाशनो असंभव छे. आवुं जाणतो थको ज्ञानी कर्मथी आक्रांत (घेरायेलो, आक्रमण पामेलो) होवा छतां पण रागी थतो नथी, द्वेषी थतो नथी, मोही थतो नथी, परंतु शुद्ध आत्माने ज अनुभवे छे. अने जेने उपर कह्युं तेवुं भेदविज्ञान नथी ते तेना अभावथी अज्ञानी थयो थको, अज्ञान-अंधकार वडे आच्छादित होवाथी चैतन्य- चमत्कारमात्र आत्मस्वभावने नहि जाणतो थको, रागने ज आत्मा मानतो थको, रागी थाय छे, द्वेषी थाय छे, मोही थाय छे, परंतु शुद्ध आत्माने बिलकुल अनुभवतो नथी. माटे एम सिद्ध थयुं के भेदविज्ञानथी ज शुद्ध आत्मानी उपलब्धि (अनुभव) थाय छे.

भावार्थः– जेने भेदविज्ञान थयुं छे ते आत्मा जाणे छे के ‘आत्मा कदी ज्ञानस्वभावथी छूटतो नथी.’ आवुं जाणतो होवाथी ते, कर्मना उदय वडे तप्त थयो थको पण, रागी, द्वेषी, मोही थतो नथी परंतु निरंतर शुद्ध आत्माने अनुभवे छे. जेने भेदविज्ञान नथी ते आत्मा, आत्माना ज्ञानस्वभावने नहि जाणतो थको, रागने ज आत्मा माने छे तेथी ते रागी, द्वेषी, मोही थाय छे परंतु कदी शुद्ध आत्माने अनुभवतो नथी. माटे ए नक्की थयुं के भेदविज्ञानथी ज शुद्ध आत्मानी उपलब्धि थाय छे.

* * *
समयसार गाथा १८४–१८पः मथाळु

हवे पूछे छे के भेदविज्ञानथी ज शुद्ध आत्मानी उपलब्धि (अनुभव) कई रीते थाय छे? तेना उत्तररूप गाथा कहे छेः-

शिष्य पूछे छे के-भगवान्! शुं भेदविज्ञानथी ज शुद्ध आत्मानो लाभ थाय एम एकान्त ज छे? गुरु उत्तर आपे छे के-हा; भेदविज्ञानथी ज आत्मलाभ थाय छे. भेदविज्ञानथीय थाय अने रागथीय आत्मलाभ थाय एम जो कोई माने तो ते यथार्थ नथी एम हवे उत्तररूप गाथा कहे छेः-

* गाथा १८४–१८पः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जेने उपर कह्युं तेवुं भेदविज्ञान छे ते ज तेना (भेदविज्ञानना) सद्भावथी ज्ञानी थयो थको आ प्रमाणे जाणे छे...’


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जोयुं? जेने भेदविज्ञान थयुं छे अर्थात् रागथी भिन्न पडीने शुद्ध आत्मानो जेने अनुभव थयो छे ते ज ए भेदविज्ञानना सद्भावथी ज्ञानी थयो छे; राग के व्यवहाररत्नत्रयने लईने ज्ञानी थयो छे एम नथी.

प्रवचनसार गाथा २३६ मां आवे छे के जे काया ने कषायने पोताना माननारो छे ते छकायना जीवनो घाती-हिंसक अने पांच इन्द्रियोना विषयोनो अभिलाषी छे. अहाहा...! नग्न दिगंबर मुनि थयो होय तोपण जेनी मान्यता छे के शरीरनी क्रिया मारी छे अने व्रतादिनो राग मारुं कर्तव्य छे ते एकेन्द्रिय जीवोने न हणतो होवा छतां छकायनो हिंसक छे अने इन्द्रियना विषयोनो अभिलाषी छे. गंभीर वात छे प्रभो! काय एटले अजीव अने कषाय एटले आस्रव-ए बन्नेने जे पोताना माने छे ते मिथ्याद्रष्टि छे.

त्यारे कोई कहे छे-निरर्गल पापमां रच्यापच्या छे एमने बिचाराओने कांईक पुण्य तो करवा दो; धर्म तो पछी (ए वडे) थशे.

अरे भाई! पुण्य हुं करुं, पुण्य मारुं कर्तव्य एवी जे मान्यता ते महा मिथ्यात्व छे. अने मिथ्यात्व ए शुं पाप नथी? मिथ्यात्व ए ज महापाप छे अने मिथ्यात्वने वश थईने ज जीव पाप करे छे.

अष्टपाहुडमां दर्शनपाहुडनी त्रीजी गाथामां स्पष्ट कह्युं छे के-जे जीव दर्शनथी भ्रष्ट छे ते मुक्तिने पामतो नथी; जे जीव दर्शनथी भ्रष्ट छे ते ज्ञानथी अने चारित्रथी पण भ्रष्ट छे; ते भ्रष्टमां भ्रष्ट छे. तथा जेने दर्शनशुद्धि छे पण चारित्र नथी ते मुक्तिने पामशे; हमणां चारित्ररहित छे पण दर्शनशुद्धिना बळे ते चारित्रने प्राप्त थईने सीझशे-मुक्तिने पामशे. आवी वात छे. भाई! व्रत, तप, भक्ति आदिना रागथी मने लाभ (आत्मलाभ) थशे एम मानी जे प्रवर्ते छे ते मूढ महाभ्रष्ट-सर्वभ्रष्ट मिथ्याद्रष्टि छे. समजाणुं कांई...?

अहीं कहे छे-जीव भेदज्ञानना सद्भावथी ज्ञानी थयो थको आ प्रमाणे जाणे छेः-‘जेम प्रचंड अग्नि वडे तप्त थयुं थकुं पण सुवर्ण सुवर्णत्व छोडतुं नथी तेम प्रचंड कर्मोदय वडे घेरायुं थकुं पण ज्ञान ज्ञानत्व छोडतुं नथी.’

जयसेनाचार्यदेवनी टीकामां आ समजवा पांडव आदिनुं द्रष्टांत आपेलुं छे.

पांच पांडवो पूर्वे राजकुमार हता अने पाछळथी जेओ महामुनि थया तेओनुं नाजुक सुंदर शरीर हतुं. एक वार शत्रुंजय पर्वत पर धर्मात्माओ बधा आत्माना अति प्रचुर आनंदना वेदनमां सुख निमग्न हता त्यारे दुर्योधननो भाणेज त्यां आव्यो अने पूर्वनुं वेर याद करीने लोखंडनां धगधगतां कडां वगेरे तेमना शरीर पर पहेराव्यां.


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अहा! आवा प्रचंड कर्मोदय वडे घेरायेला होवा छतां ते महामुनिओ-भावलिंगी संतो आनंदमां मग्न रह्या. ते काळे पण ज्ञाने ज्ञानत्व छोडयुं नहि. त्रण पांडवो तो (एवा प्रसंगे पण श्रेणी मांडीने) केवळज्ञान पामी मोक्षे पधार्या. नकुळ अने सहदेवने, अरे! साधर्मी मोटाभाईओने केम हशे-एवो शुभ विकल्प आव्यो तो एना फळमां एमने सर्वार्थसिद्धिनुं आयुष्य बंधाई गयुं अने देवगतिने पाम्या. अहा! केवळज्ञान तेत्रीस सागरोपमथी कांईक अधिक दूर थई गयुं केमके फरीने मनुष्यपणे जन्म्या पछी पण आठ वर्ष पहेलां केवळज्ञान नहि थाय.

कोईने थाय के -अरे! पांडवो -धर्मात्माओने पण आवा प्रसंगो!

भाई! कर्मना उदयनी सामग्री एना काळे स्वयं उदयमां आवे तेने कोण रोके?

त्यारे प्रश्न थाय के कोई देव केम वहारे न आव्या? शुं देवने पण खबर न पडी?

देवने खबर पडे तोय आ जीवनो पुण्यनो उदय होय त्यारे आवे ने? देवने पण ज्यारे तीव्र कषाय होय त्यारे खबर पडती नथी (उपयोग एमां जतो नथी) अने मंद कषाय होय अने ख्यालमां आवे तोपण ते प्रकारनी शक्ति न होय तो शुं करे? मोक्षमार्ग प्रकाशकमां आ वात लीधी छे. देव पण कांई न करे. (भवितव्य कोई न निवारी शके).

शास्त्रमां बीजुं द्रष्टांत बंधक आदि पांचसो मुनिओनुं आवे छे. बंधक आदि पांचसो मुनिओ हता. एक वखत मुनि राजानी राणी साथे वात करता हशे तो कोईए राजाने भरमाव्युं के मुनिओ आवा ज (व्यभिचारी) छे. तेथी राजाने शंका पडी-वहेम पडयो. राजाए हुकम कर्यो के बधा मुनिओने घाणीमां पीलो. आवा भारे उपसर्गना प्रसंगमां पण मुनिवरो अतीन्द्रिय आनंदना प्रचुर स्वसंवेदनमां झूलता हता; ते काळे पण ज्ञान धीर थईने ज्ञानपणे कायम अविचल रह्युं.

वळी सीताजीनी पण वात आवे छे ने? भगवान रामचंद्र तद्भव मोक्षगामी चरम शरीरी धर्मात्मा हता. सीताजी रावणने त्यां रहेला अने रामचंद्रे स्वीकार्यां एवो लोकापवाद थतां धर्मात्मा अने साधर्मी सीताजीने पोताना शीलनी परीक्षा आपवा धगधगता अग्निकुंडमां प्रवेश करवा रामचंद्रे आज्ञा करी. सीताजी अग्निपरीक्षामां उतरतां पहेलां अग्निने कहे छे-हे अग्नि! जो में राम सिवाय पति तरीके कोई बीजानो विकल्प कर्यो होय तो मने भस्म करी दे; हा, पण जो बीजानो विकल्प न आव्यो होय तो ध्यान राखजे, अन्यथा जगतमां हांसी थशे. ते वेळा सीताजीनो पुण्यनो उदय हतो एटले सिंहासन रचाई गयुं अने कसोटीमां पार उतर्यां जुओ, आ धर्मात्मा! आवा विषय प्रसंगे पण सीताजीए ज्ञानत्व न छोडयुं. अहो ज्ञान! अहो भेदज्ञान!


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द्रौपदीनी पण वात आवे छे ने? दुर्योधनना माणसोए सभामां द्रौपदीनी साडी खेंची; एक खेंची त्यां बीजी थई गई, बीजी खेंची त्यां त्रीजी थई गई-आवुं. पुण्यकर्मनो उदय छे ने? तो द्रौपदीना शीलनी रक्षा थई. पण कदाच (पापनो उदय होय तो एवुं न पण थाय, तोपण ज्ञानीने ज्ञानत्व छूटतुं नथी. पांडवो वचनथी बंधायेला हता एटले आवी चेष्टाने जोई रह्या; बीजुं करे पण शुं? अहीं कहे छे-

जेम सुवर्ण अग्निमां तपाववा छतां सुवर्णपणाने छोडतुं नथी तेम भेदज्ञानथी युक्त आत्मानुं ज्ञानमय परिणमन प्रचंड कर्मोदयना घेरावामां छूटतुं नथी; ज्ञान ज्ञानत्व छोडतुं नथी, निर्मळ परिणति छोडतुं नथी. भाई! आ वर्तमान परिणतिनी वात छे, त्रिकाळी स्वभावनी वात नथी. त्रिकाळी स्वभाव तो अज्ञानीने पण सदा एवो ने एवो ज छे. अहीं तो जेणे त्रिकाळीना आश्रये रागथी भिन्न ज्ञाननो अनुभव कर्यो एवा भेदज्ञानी जीवनुं ज्ञान (परिणमन) प्रचंड कर्मोदयथी घेराई जाय तोपण ज्ञानत्वने छोडतुं नथी एम वात छे. एनुं कारण आपतां कहे छे-

‘केमके हजार कारणो भेगां थवा छतां स्वभावने छोडवो अशकय छे; कारण के तेने छोडतां स्वभावमात्र वस्तुनो ज उच्छेद थाय, अने वस्तुनो उच्छेद तो थतो नथी कारण के सत्ना नाशनो असंभव छे.’

अहीं ‘हजार कारणो’ कहीने संख्यानी अपरिमितता बताववी छे. मतलब के लाखो, करोडो, अनंता कारणो भेगां थई आवे छतां स्वभावने छोडवो अशकय छे. अहाहा...! रागथी भिन्न पडीने जे ज्ञानमय परिणमन थयुं तेने बीजी चीज (कर्मोदय) शुं करी शके? (कांई नहि). बापु! बहारमां (कर्मोदयमां) तो जे थवानुं होय ते थाय, तेमां बीजो (-आत्मा) शुं करी शके? अहाहा...! जुओ आ वस्तुना परिणमननी स्वतंत्रता! प्रतिकूळताना गंजना गंज पण आत्माना-ज्ञानना ज्ञानत्वने छोडावी शकती नथी.

भगवान आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु पूर्ण ज्ञान अने आनंदना स्वभावे भरेलो छे. समकितीने एनी दशामां, आत्मामां जे आनंदस्वभाव छे तेनो अंश ज प्रगट छे; छे ए सिद्धनी जातनो हों. अने मुनिने? अहाहा...! जे मुनि छे एने तो आनंदना प्रचंड फुवारा फूटे छे. जेम फुवारामांथी पाणी फूटे तेम अंदर आनंदना नाथमां जे अंतर-एकाग्र थया छे एवा मुनिराजने अतीन्द्रिय आनंदनी प्रचंड धारा फूटे छे. एने कर्मनो घेरावो शुं करे? (कांई नहि). एनुं ज्ञान ज्ञानत्त्व छोडतुं नथी अर्थात् आत्मा वीतरागी शांतिनी परिणतिने छोडतो नथी. अशाताना उदयमां घेरायेलो होय छतां वीतरागपणुं-आनंदपणुं छूटतुं नथी; केमके अनंता कारणो मळवा छतां स्वभावने छोडवो अशकय छे, केमके स्वभावने छोडतां स्वभावमात्र वस्तुनो ज नाश थाय. वीतराग परिणति छूटे तो वस्तुनो ज नाश थई जाय.


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अहाहा...! वीतरागभावनो रंग चढयो छे ने? रागना रंगे चढेलाने वीतरागता दुर्लभ छे अने वीतरागताना रंगे चढेलाने राग दुर्लभ छे. नियमसारमां आवे छे के ज्ञानीओने विकल्प दुर्लभ छे, धर्मात्माओने राग दुर्लभ छे अने अज्ञानीने वीतरागपणुं दुर्लभ छे. रागथी भिन्न पडी ज्यां अतीन्द्रिय आनंदमय आत्मानो अनुभव थयो, आत्माने जाण्यो अने ओळख्यो अने त्यारे जे वीतरागतामय-आनंदमय परिणमन थयुं ते कर्मना घेरावमां पण छूटतुं नथी; जो ए छूटे तो कहे छे स्वभाव ज छूटी जाय अने तो वस्तुनो ज नाश थई जाय. पण स्वभाव कोई दिवस छूटे नहि कारण के सत्नो नाश असंभव छे. जुओ, आ न्याय छे. वीतरागस्वभावी प्रभु आत्मानां द्रव्य, गुण अने पर्याय त्रणे सत् छे. वीतरागस्वभावी सत्तानुं परिणमन पण सत् छे भाई! अने ते अहेतुक छे; द्रव्य-गुण पण एनुं कारण नथी. हवे आम ज्यां एनी उत्पत्तिमां द्रव्य-गुण पण कारण नथी त्यां जगतना प्रतिकूळ संजोगो एनो नाश केवी रीते करे? (न करी शके). हवे कहे छे-

‘आवुं जाणतो थको ज्ञानी कर्मथी आक्रांत होवा छतां पण रागी थतो नथी, द्वेषी थतो नथी, मोही थतो नथी, परंतु शुद्ध आत्माने ज अनुभवे छे.’

ज्ञानी तो जाणे छे के हुं तो सदा ज्ञाता-द्रष्टा जाणवा-देखवाना स्वभावे रहेलो छुं. प्रतिकूळ संयोगोनो पण हुं तो जाणनार-देखनार मात्र छुं. आ प्रमाणे जाणतो थको ज्ञानी कर्मथी घेराई जाय छतां परिषहनी भींस वच्चे पण धीरज खोईने राग-द्वेष-मोहभावने प्राप्त थतो नथी, अज्ञानपणे परिणमतो नथी; शुद्ध आत्माने ज अनुभवे छे. धर्मी रागी-द्वेषी थतो नथी ए मिथ्यात्वपूर्वकना रागद्वेषनी वात छे.

समाधिशतकमां आवे छे के प्रतिकूळ संयोगो आत्माने दुःखनुं कारण नथी; माटे हे आत्मन्! सहन करवानी (भेदज्ञानना अभ्यासथी धैर्य केळववानी) टेव पाड. सुख-सगवडथी (विषयोथी) जो तुं टेवाई गयो होईश तो परिषहनी भींसमां अगवडता आवशे त्यारे थीजाई जईश; माटे प्रतिकूळता वखते पण सहन-शीलता कायम रहे एवो अभ्यास कर. अहो! आचार्योए तो गजबनां काम कर्या छे! शाताशीळिया न रहेतां अंतरपुरुषार्थने पुष्ट करवानी प्रेरणा करी छे जेथी सहनशीलता अने धैर्य कायम बनी रहे.

हवे कहे छे-‘जेने उपर कह्युं तेवुं भेदविज्ञान नथी ते तेना अभावथी अज्ञानी थयो थको, अज्ञान-अंधकार वडे आच्छादित होवाथी चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मस्वभावने नहि जाणतो थको, रागने ज आत्मा मानतो थको, रागी थाय छे, द्वेषी थाय छे, मोही थाय छे, परंतु शुद्ध आत्माने बीलकुल अनुभवतो नथी.’

जुओ, जेने भेदविज्ञान नथी ते अज्ञानी छे. शुभराग मारो छे अने एनाथी मने लाभ थशे एवी राग साथेनी एकत्वबुद्धिना अंधकारथी ढंकाई गयेलो होवाथी