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अथ प्रविशति संवरः।
न्यक्कारात्प्रतिलब्धनित्यविजयं सम्पादयत्संवरम्।
व्यावृत्तं पररूपतो नियमितं सम्यक्स्वरूपे स्फुर–
ज्ज्योतिश्चिन्मयमुज्ज्वलं निजरसप्राग्भारमुज्जृम्भते।। १२५।।
संवरमय आत्मा कर्यो, नमुं तेह, मन धारी.
प्रथम टीकाकार आचार्य महाराज कहे छे के “हवे संवर प्रवेश करे छे” आस्रव रंगभूमिमांथी बहार नीकळी गया पछी हवे संवर रंगभूमिमां प्रवेशे छे.
त्यां प्रथम तो टीकाकार आचार्यदेव सर्व स्वांगने जाणनारा सम्यग्ज्ञानना महिमारूप मंगळ करे छेः-
श्लोकार्थः– [आसंसार–विरोधि–संवर–जय–एकान्त–अवलिप्त–आस्रव–न्यक्का– रात्] अनादि संसारथी मांडीने पोताना विरोधी संवरने जीतवाथी जे एकांत-गर्वित (अत्यंत अहंकारयुक्त) थयो छे एवो जे आस्रव तेनो तिरस्कार करवाथी [प्रतिलब्ध–नित्य–विजयं संवरम्] जेणे सदा विजय मेळव्यो छे एवा संवरने [सम्पादयत्] उत्पन्न करती, [पररूपतः व्यावृत्तं] पररूपथी जुदी (अर्थात् परद्रव्य अने परद्रव्यना निमित्ते थता भावोथी जुदी), [सम्यक्–स्वरूपे नियमितं स्फुरत्] पोताना सम्यक् स्वरूपमां निश्चळपणे प्रकाशती, [चिन्मयम्] चिन्मय, [उज्ज्वलं] उज्ज्वळ (-निराबाध, निर्मळ, देदीप्यमान) अने [निज–रस–प्राग्भारम्] निजरसना (पोताना चैतन्यरसना) भारवाळी-अतिशयपणावाळी [ज्योतिः] ज्योति [उज्जृम्भते] प्रगट थाय छे, फेलाय छे.
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तत्रादावेव सकलकर्मसंवरणस्य परमोपायं भेदविज्ञानमभिनन्दति–
कोहो कोहे चेव हि उवओगे णत्थि खलु कोहो।। १८१।।
उवओगम्हि य कम्मं णोकम्मं चावि णो अत्थि।। १८२।।
तइया ण किंचि कुव्वदि भावं उवओगसुद्धप्पा।। १८३।।
क्रोधः क्रोधे चैव हि उपयोगे नास्ति खलु क्रोधः।। १८१।।
भावार्थः– अनादि काळथी जे आस्रवनो विरोधी छे एवा संवरने जीतीने आस्रव मदथी गर्वित थयो छे. ते आस्रवनो तिरस्कार करीने तेना पर जेणे हंमेशने माटे जय मेळव्यो छे एवा संवरने उत्पन्न करतो, समस्त पररूपथी जुदो अने पोताना स्वरूपमां निश्चळ एवो आ चैतन्यप्रकाश निजरसनी अतिशयतापूर्वक निर्मळपणे उदय पामे छे. १२प.
त्यां (संवर अधिकारनी) शरूआतमां ज, (भगवान कुंदकुंदाचार्य) सकळ कर्मनो संवर करवानो उत्कृष्ट उपाय जे भेदविज्ञान तेनी प्रशंसा करे छेः-
छे क्रोध क्रोध महींज, निश्चय क्रोध नहि उपयोगमां. १८१.
कर्मो अने नोकर्म कंई पण छे नहि उपयोगमां. १८२.
त्यारे न कंई पण भाव ते उपयोगशुद्धात्मा करे. १८३.
गाथार्थः– [उपयोगः] उपयोग [उपयोगे] उपयोगमां छे, [क्रोधादिषु]
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उपयोगे च कर्म नोकर्म चापि नो अस्ति।। १८२।।
एतत्त्वविपरीतं ज्ञानं यदा तु भवति जीवस्य।
तदा न किञ्चित्करोति भावमुपयोगशुद्धात्मा।। १८३।।
क्रोधादिकमां [कोऽपि उपयोगः] कोई उपयोग [नास्ति] नथी; [च] वळी [क्रोधः] क्रोध [क्रोधे एव हि] क्रोधमां ज छे, [उपयोगे] उपयोगमां [खलु] निश्चयथी [क्रोधः] क्रोध [नास्ति] नथी. [अष्टविकल्पे कर्मणि] आठ प्रकारनां कर्म [च अपि] तेम ज [नोकर्मणि] नोकर्ममां [उपयोगः] उपयोग [नास्ति] नथी [च] अने [उपयोगे] उपयोगमां [कर्म] कर्म [च अपि] तेम ज [नोकर्म] नोकर्म [नो अस्ति] नथी.- [एतत् तु] आवुं [अविपरीतं] अविपरीत [ज्ञानं] ज्ञान [यदा तु] ज्यारे [जीवस्य] जीवने [भवति] थाय छे, [तदा] त्यारे [उपयोगशुद्धात्मा] ते उपयोग स्वरूप शुद्धात्मा [किञ्चित् भावम्] उपयोग सिवाय अन्य कोई पण भावने [न करोति] करतो नथी.
टीकाः– खरेखर एक वस्तुनी बीजी वस्तु नथी (अर्थात् एक वस्तुनी बीजी वस्तु कांई संबंधी नथी) कारण के बन्नेना प्रदेशो भिन्न होवाथी तेमने एक सत्तानी अनुपपत्ति छे (अर्थात् बन्नेनी सत्ता जुदी जुदी छे); अने ए रीते एक वस्तुनी बीजी वस्तु नहि होवाथी एक साथे बीजीने आधाराधेयसंबंध पण नथी ज. तेथी (दरेक वस्तुने) पोताना स्वरूपमां प्रतिष्ठारूप (द्रढपणे रहेवारूप) ज आधाराधेयसंबंध छे. माटे ज्ञान के जे जाणनक्रियारूप पोताना स्वरूपमां प्रतिष्ठित (-रहेलुं) छे ते, जाणनक्रियानुं ज्ञानथी अभिन्नपणुं होवाने लीधे, ज्ञानमां ज छे; क्रोधादिक के जे क्रोधादिक्रियारूप पोताना स्वरूपमां प्रतिष्ठित छे ते, क्रोधादिक्रियानुं क्रोधादिथी अभिन्नपणुं होवाने लीधे, क्रोधादिकमां ज छे. (ज्ञाननुं स्वरूप जाणनक्रिया छे, माटे ज्ञान आधेय अने जाणनक्रिया आधार छे. जाणनक्रिया आधार होवाथी एम ठर्युं के ज्ञान ज आधार छे, कारण के जाणनक्रिया अने ज्ञान जुदां नथी. आ रीते एम सिद्ध थयुं के ज्ञान ज्ञानमां ज छे. एवी ज रीते क्रोध क्रोधमां ज छे.) वळी क्रोधादिकमां, कर्ममां के नोकर्ममां ज्ञान नथी अने ज्ञानमां क्रोधादिक, कर्म के नोकर्म नथी कारण के तेमने परस्पर अत्यंत स्वरूप- विपरीतता होवाथी (अर्थात् ज्ञाननुं स्वरूप अने क्रोधादिक तेम ज कर्म-नोकर्मनुं स्वरूप अत्यंत विरुद्ध होवाथी) तेमने परमार्थभूत आधाराधेयसंबंध नथी. वळी ज्ञाननुं स्वरूप जेम जाणनक्रिया छे तेम (ज्ञाननुं स्वरूप) क्रोधादिक्रिया पण छे एम, अने क्रोधादिकनुं स्वरूप जेम क्रोधादिक्रिया छे तेम (क्रोधादिकनुं स्वरूप) जाणनक्रिया पण छे एम कोई रीते स्थापी शकातुं नथी; कारण के जाणनक्रिया अने क्रोधादिक्रिया भिन्न भिन्न स्वभावे प्रकाशे छे अने ए रीते स्वभावो भिन्न होवाथी वस्तुओ भिन्न ज छे. आ रीते ज्ञानने अने अज्ञानने (क्रोधाकिने) आधाराधेयपणुं नथी.
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रन्तर्दारुणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च।
भेदज्ञानमुदेति निर्मलमिदं मोदध्वमध्यासिताः
शुद्धज्ञानघनौघमेकमधुना सन्तो द्वितीयच्युताः।। १२६।।
वळी विशेष समजाववामां आवे छेः-ज्यारे एक ज आकाशने पोतानी बुद्धिमां स्थापीने (आकाशनो) आधाराधेयभाव विचारवामां आवे त्यारे आकाशने बाकीनां अन्य द्रव्योमां आरोपवानो निरोध ज होवाथी (अर्थात् अन्य द्रव्योमां स्थापवानुं अशकय ज होवाथी) बुद्धिमां भिन्न आधारनी अपेक्षा प्रभवती नथी (-फावी शकती नथी. ठरी जाय छे, उद्भवती नथी); अने ते नहि प्रभवतां, ‘एक आकाश ज एक आकाशमां ज प्रतिष्ठित छे’ एम बराबर समजी जवाय छे अने तेथी एवुं समजी जनारने पर-आधाराधेयपणुं भासतुं नथी. एवी रीते ज्यारे एक ज ज्ञानने पोतानी बुद्धिमां स्थापीने (ज्ञाननो) आधाराधेयभाव विचारवामां आवे त्यारे ज्ञानने बाकीनां अन्य द्रव्योमां आरोपवानो निरोध ज होवाथी बुद्धिमां भिन्न आधारनी अपेक्षा प्रभवती नथी; अने ते नहि प्रभवतां, ‘एक ज्ञान ज एक ज्ञानमां ज प्रतिष्ठित छे’ एम बराबर समजी जवाय छे अने तेथी एवुं समजी जनारने पर- आधाराधेयपणुं भासतुं नथी. माटे ज्ञान ज ज्ञानमां ज छे, क्रोधादिक ज क्रोधादिकमां ज छे.
आ प्रमाणे (ज्ञाननुं अने क्रोधादिक तेम ज कर्म-नोकर्मनुं) भेदविज्ञान भली रीते सिद्ध थयुं.
भावार्थः– उपयोग तो चैतन्यनुं परिणमन होवाथी ज्ञानस्वरूप छे अने क्रोधादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, शरीरादि नोकर्म-ए बधांय पुद्गलद्रव्यना परिणाम होवाथी जड छे; तेमने अने ज्ञानने प्रदेशभेद होवाथी अत्यंत भेद छे. माटे उपयोगमां क्रोधादिक, कर्म तथा नोकर्म नथी अने क्रोधादिकमां, कर्ममां तथा नोकर्ममां उपयोग नथी. आ रीते तेमने पारमार्थिक आधाराधेयसंबंध नथी; दरेक वस्तुने पोतपोतानुं आधाराधेयपणुं पोतपोतामां ज छे. माटे उपयोग उपयोगमां ज छे, क्रोध क्रोधमां ज छे. आ रीते भेदविज्ञान बराबर सिद्ध थयुं (भावकर्म वगेरेनो अने उपयोगनो भेद जाणवो ते भेदविज्ञान छे.)
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [चैद्रूप्यं जडरूपतां च दधतोः ज्ञानस्य रागस्य च] चिद्रूपता (चैतन्यरूपता) धरतुं ज्ञान अने जडरूपता धरतो राग- [द्वयोः] ए बन्नेनो, [अन्तः] अंतरंगमां [दारुण–दारणेन] दारुण विदारण वडे (अर्थात् भेद पाडवाना उग्र अभ्यास
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वडे), [परितः विभागं कृत्वा] चोतरफथी विभाग करीने (-समस्त प्रकारे बन्नेने जुदां करीने- ), [इदं निर्मलम् भेदज्ञानम् उदेति] आ निर्मळ भेदज्ञान उदय पाम्युं छे; [अधुना] माटे हवे [एकम् शुद्ध–ज्ञानघन–ओधम् अध्यासिताः] एक शुद्ध विज्ञानघनना पुंजमां स्थित अने [द्वितीय–च्युताः] बीजाथी एटले रागथी रहित एवा [सन्तः] हे सत्पुरुषो! [मोदध्वम्] तमे मुदित थाओ.
भावार्थः– ज्ञान तो चेतनास्वरूप छे अने रागादिक पुद्गलविकार होवाथी जड छे; परंतु अज्ञानथी, जाणे के ज्ञान पण रागादिरूप थइ गयुं होय एम भासे छे अर्थात् ज्ञान अने रागादिक बन्ने एकरूप-जडरूप-भासे छे. ज्यारे अंतरंगमां ज्ञान अने रागादिनो भेद पाडवानो तीव्र अभ्यास करवाथी भेदज्ञान प्रगट थाय छे त्यारे एम जणाय छे के ज्ञाननो स्वभाव तो मात्र जाणवानो ज छे, ज्ञानमां जे रागादिकनी कलुषता-आकुळतारूप संकल्पविकल्प-भासे छे ते सर्व पुद्गलविकार छे, जड छे. आम ज्ञान अने रागादिकना भेदनो स्वाद आवे छे अर्थात् अनुभव थाय छे. ज्यारे आवुं भेदज्ञान थाय त्यारे आत्मा आनंदित थाय छे कारण के तेने जणाय छे के “पोते सदा ज्ञानस्वरूप ज रह्यो छे, रागादिरूप कदी थयो नथी”. माटे आचार्यमहाराजे कह्युं छे के “हे सत्पुरुषो! हवे तमे मुदित थाओ”. १२६.
शरूआतमां पंडित जयचंदजी मांगलिक करे छे-के मोह अर्थात् मिथ्यात्व, राग अने द्वेषने दूर करीने तथा निश्चय समिति, निश्चय गुप्ति अने निश्चय व्रत पाळीने जेणे आत्माने संवरमय एटले चैतन्यनी निर्मळ परिणतिरूप कर्यो छे तेने मनमां (-ज्ञानमां) लक्षमां लईने नमन करुं छुं. जेणे परमात्मपद ग्रहण कर्युं अने पोताना आत्माने पवित्र संवरमय कर्यो तेने मनमां धारण करीने नमुं छुं एम कहे छे.
आ भेदज्ञाननो अलौकिक अधिकार छे. आ अधिकारनी शरूआत करतां कळश टीकाकार श्री राजमलजीए प्रथम ‘ॐ नमः’ करी अधिकार शरू कर्यो छे. रागथी भिन्नत्व अने स्वभावमां एकत्व स्थापित करतुं जे भेदज्ञान तेनो विस्तार करता अधिकारमां ‘ॐ नमः’ प्रथम कर्युं. शास्त्रना बीजा अधिकारमां आ शब्द नथी. हवे-
प्रथम टीकाकार आचार्य महाराज कहे छे के ‘‘हवे संवर प्रवेश करे छे.’’ आस्रव रंगभूमिमांथी बहार नीकळी गया पछी हवे संवर रंगभूमिमां प्रवेशे छे.
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त्यां प्रथम तो टीकाकार आचार्यदेव सर्व स्वांगने जाणनारा सम्यग्ज्ञानना महिमारूप मंगळ करे छेः-
जुओ तो खरा आ केवुं मांगळिक कर्युं छे! कहे छे-‘आसंसार–विरोधि–संवर–जय– एकान्त–अवलिप्त–आस्रव–न्यक्कारात्’ अनादि संसारथी मांडीने पोताना विरोधी संवरने जीतवाथी जे एकांत-गर्वित थयो छे एवो जे आस्रव तेनो तिरस्कार करवाथी...
जुओ, अनादिथी मिथ्यात्व अने रागद्वेषे संवरने उत्पन्न थवा दीधो नथी तेथी आस्रवने गर्व थयो छे के-अनादिकाळथी (निगोदथी मांडीने) में मोटा मोटा मांधाताओने नीचे पाडया छे. मोटां राजपाट अने हजारो राणीओ छोडी जैननो द्रव्यलिंगी दिगंबर साधु थई जंगलमां रह्यो एवा मांधाताओने पण में (-आस्रवे) पछाडया छे-जीती लीधा छे. द्रव्यलिंगी मुनिए पंचमहाव्रत, गुप्ति, समिति इत्यादि बधो जे राग छे तेना प्रेममां संवरने उत्पन्न थवा न दीधो एटले त्यां आस्रवनो जय थयो. द्रव्यलिंगी मुनि पंचमहाव्रत आदि रागनी क्रियामां संतुष्ट थई मने संवर थाय छे एम आस्रवनी क्रियामां संवर मानी एमां गर्वित थयो अने पडयो; संवर थयो नहि तो आस्रव जीत्यो.
आम अनादिकाळथी जे एकांत-गर्वित थयो छे एवा आस्रवनो तिरस्कार करवाथी ‘प्रतिलब्ध–नित्य–विजयं संवरं’ जेणे सदा विजय मेळव्यो छे एवा संवरने ‘सम्पादयत्’ उत्पन्न करती, ‘पररूपतः व्यावृत्तं’ पररूपथी जुदी ‘ज्योतिः’ ज्योति ‘उज्जृम्भत’ प्रगट थाय छे, फेलाय छे.
अहीं एम कहे छे के-आस्रवनो नाश करी जे संवर प्रगट थयो ते हवे मोक्षदशा प्रगट थाय त्यां सुधी पाछो हठवानो नथी एवो विजय संवरे प्राप्त कर्यो छे. रागथी पृथक् थई जे एणे आस्रवने जीत्यो ते जीव सदाय रहेशे एम आ पंचमआराना मुनिवर कहे छे. अमारो भगवान जे आनंदनो नाथ एने अमे पकडयो छे अने तेने अनुभवीने अमे जे संवर प्रगट कर्यो छे ते हवे पडशे नहि; द्रव्य पडे तो संवर पडे. (द्रव्य अविनाशी छे तेथी संवर हवे पडशे नहि). अमोए हवे शाश्वत विजय मेळव्यो छे, हवे अमने आस्रव उत्पन्न थशे नहि.
आम तो सम्यग्दर्शन पामीने कोई जीव पडे छे एम आस्रव अधिकारनी टीकामां आवी गयुं छे. पण अमे पडवाना नथी एम अप्रतिहत उपाडथी अहीं वात करी छे. बेनश्रीना जातिस्मरणज्ञानमां आव्युं छे ने? क्षायिकना बे प्रकार छे-एम सीधुं क्षायिक अने बीजुं जोडणी क्षायिक; एटले वर्तमानमां क्षायिक समकित नथी पण ए क्षयोपशम समकित क्षायिकमां ज जवानुं, पडवानुं नहि. अहीं ए शैली छे. जोडणी क्षायिक छे तो
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वर्तमानमां क्षयोपशमभावे पण ए क्षयोपशम समकित पडे नहि (पडीने मिथ्यात्व न थाय) पण तेनो व्यय थईने क्षायिक सम्यग्दर्शन ज थाय. आनंदघनजीमां आवे छे के-
अनंतगुणना परिवार (आत्मा) साथे समकितमां सगाई करी छे; हवे अमे केवळज्ञान साथे लग्न करीशुं ज. जुओ तो खरा केवी वात छे! कहे छे-अमोए सदाने माटे विजय मेळव्यो छे. हवे पछी अमने संवर टळीने आस्रव थवानो नथी.
हिंसा, जूठ, चोरी, विषय-वासना ए बधो पाप-आस्रव छे अने व्रत, तप, भक्ति वगेरे पुण्य-आस्रव छे. अनादिथी बन्ने आस्रव गर्व करता हता के-अमारी जीत छे. परंतु अहीं कहे छे-ज्ञानानंदस्वरूप जे चैतन्यलक्ष्मीनो भंडार भगवान आत्मा तेनो अमे आश्रय कर्यो छे अने तेथी आस्रवने पछाडीने (-दूर करीने) अमने जे संवर प्रगट थयो छे तेणे हवे शाश्वत विजय मेळव्यो छे; अनंतकाळमां हवे अमे पाछा पडवाना नथी.
जेम मोटानां कहेण पाछां फरे नहि तेम अहीं कहे छे-अमोने ज्ञाननुं (भेदज्ञाननुं) बळ प्राप्त थयुं छे, अमे केवळज्ञानने वरवा नीकळ्या छीए ते अमे पाछा फरीशुं नहि. अहाहा...! कुंदकुंदाचार्यदेव पछी हजार वर्षे थयेल आचार्य अमृतचंद्रदेवे गजबनी वात करी छे. अवधि, मनःपर्यय अने केवळज्ञाननो भले विरह हो, पण अंदरना चिदानंद भगवाननो विरह तूटी गयो छे. सच्चिदानंद प्रभु आत्माना अमने भेटा थया छे अने एनी द्रष्टिपूर्वक अमे एमां ठर्या छीए तेथी अमे कहीए छीए के अमे सदाय माटे आस्रव उपर विजय मेळव्यो छे. हवे आस्रव विजय पामे अने मिथ्यात्व अने रागद्वेष थाय एम कदीय बनशे नहि. अहो! शुं अप्रतिहत भाव अने शुं मांगलिक! अहो! असाधारण मांगलिक कर्युं छे! आवी वात बीजे कयांय छे नहि.
भगवान (महावीर) पछी पंदरसो वर्षे आचार्य अमृतचंद्र थया ते कहे छे- अमने पूर्णानंदनो नाथ भगवान आत्माना भेटा थया छे अने अमे संवर प्रगट कर्यो छे, सम्यग्दर्शन- ज्ञान अने शांतिनी अद्भुत दशा प्रगट करी छे; अमे आस्रव उपर कायमी विजय मेळव्यो छे. रागथी भिन्न एवुं जे भेदज्ञान अमे प्रगट कर्युं छे ते हवे एम ने एम रहेशे, रागमां एकता थशे ए वात हवे छे ज नहि. अनंतकाळ पर्यंत हवे अमारो विजयडंको छे अने आस्रवनी हार छे. हवे अमे केवळज्ञान लईशुं ज.
बापु! आ तो एकलुं माखण छे. जगत बहारमां-स्त्रीमां, लक्ष्मीमां, बंगलामां, आबरूमां सुख कल्पे छे पण ए तो एकला झेरना प्याला छे अने आ (संवरनी दशा) निर्विकल्प अमृतना प्याला छे. कुंदकुंदाचार्यदेव तो महाविदेहमां भगवान पासे गया
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हता, परंतु अमृतचंद्राचार्यदेव भगवान पासे गया नहोता. पण तेथी शुं? पोताना चिदानंद भगवान पासे तो गया हता ने? एथी ज तेओ कहे छे-अमे आस्रव उपर विजय मेळव्यो छे, आस्रवने पछाडयो छे, दूर कर्यो छे. हवे अमने केवळज्ञान थशे पण आस्रव थशे नहि.
‘आस्रवनो तिरस्कार कर्यो’-एटले के शुभभावनो आदर छोडयो अने पोताना चैतन्यस्वभावनो आदर कर्यो. ज्यांसुधी शुभभावनो आदर हतो त्यांसुधी मिथ्यात्व हतुं. स्वभावनो आदर करतां ज आस्रव तिरस्कृत थयो. पोते पोतामां गयो त्यां आस्रव छूटी गयो. बापु! अनादिथी तुं रागने पडखे चढीने जन्म-मरणना चक्रावामां हेरान थईने मरी गयो. अहीं ज्ञानानंदस्वरूप भगवानना पडखे जे चडया ते कहे छे-अमे चडया ते चडया, हवे अमे पाछा पडवाना नथी.
जेम मोटा पत्थरने वचमां तड-सांध होय छे. त्यां काणुं पाडी सुरंग चांपतां हजारो मण पथ्थरना जुदा कटका थई जाय छे. तेम भगवान आत्मा-अतीन्द्रिय महापदार्थ प्रभु कारण परमात्मा अने राग वच्चे तड छे, सांध छे. त्यां प्रज्ञाछीणी नाखतां फडाक दईने आत्मा अने राग जुदा पडी जाय छे.
त्यारे एक भाई पूछता हता के तमे आत्माने कारणपरमात्मा कहो छो तो कार्य जे आववुं जोईए ते केम आवतुं नथी?
समाधानः– भाई! जेणे विश्वासमां भगवान पूर्णानंदमय कारणपरमात्मानो स्वीकार कर्यो तेने कारणनुं कार्य समकित आव्या विना रहे नहि. पण कारण परमात्मा चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मानो विश्वास छे तने? अनादिथी एक समयनी पर्यायमां रमतुं मांडी छे, पर्यायने ज पोतानुं स्वरूप मान्युं छे. भाई! तुं पुण्य करी-करीने अनंतवार नवमी ग्रैवेयक गयो, तने नवपूर्वनी लब्धि पण थई, परंतु कारणपरमात्मामां द्रष्टि करी तेने जाण्यो नहि; शुभभाव अने ज्ञानना उघाडनी पर्यायनी रुचि करी पण बापु! भगवान आत्मा त्रिकाळी द्रव्य कारणपरमात्मा प्रभु एक समयनी पर्याय जेटलो नथी. एक समयनी पर्यायमां त्रिकाळी भगवान ज्ञायकनुं ज्ञान आवे पण भगवान ज्ञायक न आवे. अहाहा...! अनंतगुणनो सागर भगवान आत्मा छे; तेनुं पुरुं ज्ञान पर्यायमां आवे, एनी पूरी श्रद्धा पर्यायमां थाय पण वस्तु त्रिकाळी तो भिन्न ज रहे. आवा त्रिकाळी अखंड एकरूप चैतन्यद्रव्य-कारणपरमात्मानो अंतःसन्मुख थई विश्वास करतां समकित आदि कार्य प्रगट थाय छे. समजाणुं कांई...?
भाई...! आत्मा तो आत्मा छे; एनी द्रष्टि अने स्थिरतानी जरूर छे. एना कार्य माटे बहु पंडिताईनी-क्षयोपशमनी जरूर छे एम नथी. पशुनो आत्मा पण एनी रुचि करीने समकित पामे छे. हजारो योजनना लांबा मगरमच्छने पण सम्यग्दर्शन
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थाय छे. अहीं मुनिराज एम कहे छे के अमे ज्ञानानंदनी मूर्ति अतीन्द्रिय सुखनो सागर एवा त्रिकाळी भगवान आत्मानी द्रष्टिपूर्वक रागने जीत्यो छे. अहाहा...! वस्तु आत्मा परिपूर्ण ज्ञायकतत्त्व छे. एमां द्रष्टि बांधीने अमे आस्रव पर सदाने माटे विजय प्राप्त कर्यो छे. अहाहा...! जेणे नित्य विजय प्राप्त कर्यो छे एवा संवरने उत्पन्न करती, पररूपथी जुदी चैतन्यज्योति अमने प्रगट थई छे हवे कहे छे-
केवी छे ते चैतन्यज्योति? ‘सम्यक्–स्वरूपे नियमितं स्फुरत्’ पोताना सम्यक् स्वरूपमां निश्चळपणे-अचळपणे प्रकाशित छे, ‘चिन्मयम्’ चिन्मय छे, ‘उज्जवलं’ उज्ज्वळ (निर्मळ, निराबाध, देदीप्यमान) छे. वळी ‘निज–रस–प्राग्भारम्’ निजरसना (पोताना चैतन्यरसना) भारवाळी-अतिशयपणा वाळी छे. आवी चैतन्यज्योति प्रगट थाय छे अने फेलाय छे एटले के ते मुक्त आत्मदशाने पामे छे. दुःखरूप एवा पुण्य-पापना बन्ने भावोने जीतीने संवरने पामेली ज्योति आस्रवने हवे कोई दि’ अडशे नहि अर्थात् हवे आस्रव फरीथी उत्पन्न नहि थाय.
समयसार गाथा ३ मां आवे छे के दरेक आत्मा पोताना गुणपर्यायोने चुंबतो -स्पर्शतो टकी रह्यो छे, परद्रव्य के एना गुणपर्यायोने कदी अडतो-स्पर्शतो नथी. अहीं कहे छे के आत्मा पोताना गुण तथा स्वसंवित्तिरूप एवी ज्ञाननी पर्यायने स्पर्शे छे, रागने स्पर्शतो नथी. अहीं रागने आत्मानी पर्यायमांथी काढी नाख्यो. (संवर अधिकार छे ने?)
निजरसना भारवाळी एटले शुद्ध चैतन्यरसना-आनंदरसना-वीतरागरसना-शांतरसना भारवाळी-अतिशयपणावाळी चैतन्यज्योति प्रगट थाय छे. अहाहा...! शुं कळश छे! अलौकिक अद्भुत वात छे. जेम हजार पांखडीवाळा गुलाबनी कळी बीडायेली होय अने विकसित थाय तेम अनंतगुणनी अनंत पांखडिये विकसित थई भगवान प्रगट थाय छे. ल्यो, आवी वात!
अनादिकाळथी जे आस्रवनो विरोधी छे एवा संवरने जीतीने आस्रव मदथी गर्वित थयो छे. ते आस्रवनो तिरस्कार-अनादर करीने तेना पर जेणे हंमेशने माटे जय मेळव्यो छे अर्थात् केवळज्ञान पामतां सुधी जे रहेवानो छे एवा संवरने उत्पन्न करतो, समस्त पररूपथी जुदो-परद्रव्य अने परभावथी जुदो अने पोताना स्वरूपमां निश्चळ एवो आ चैतन्यप्रकाश निजरसनी अतिशयतापूर्वक निर्मळपणे उदय पामे छे. जुओ ‘निजरसनी अतिशयतापूर्वक’ एटले चैतन्यप्रकाश रागना कारण वडे उदय पामे छे एम नहि पण निज चैतन्यरसना कारणे उदय पामे छे; पहेलां
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(चैतन्यप्रकाश प्रगटयो ते पहेलां) राग मंद हतो एनाथी उदय पामे छे एम नथी. समजाणुं कांई...?
त्यां (संवर अधिकारनी) शरूआतमां ज (भगवान कुंदकुंदाचार्य) सकळ कर्मनो संवर करवानो उत्कृष्ट उपाय जे भेदविज्ञान तेनी प्रशंसा करे छे. भेदविज्ञान संवर करवानो उत्कृष्ट उपाय छे. समयसार नाटकमां आवे छे ने के-
धोबी अंतर आतमा धोवै निजगुन चीर.’’
अधिकार सूक्ष्म छे. ध्यान दईने सांभळे तो समजाय तेवो छे. शुं कहे छे? ‘खरेखर एक वस्तुनी बीजी वस्तु नथी (अर्थात् एक वस्तुनी बीजी वस्तु कांई संबंधी नथी).’
जुओ, खरेखर एटले यथार्थ द्रष्टिथी जोईए तो एक वस्तुनी बीजी वस्तु छे नहि. आ आत्मा ज्ञायकस्वरूप चिदानंदमय वस्तु छे अने दया, दान, व्रतादिना परिणाम आस्रव तत्त्व छे. अहीं कहे छे-ए आस्रव तत्त्व आत्मतत्त्वनुं नथी. ‘खलु’ एम कह्युं छे ने? एटले के वास्तविकपणे एक वस्तुनी बीजी वस्तु नथी. रागना परिणाम आत्माना नहि अने आत्मा रागनो नहि. भाई! जेने संवर नाम धर्म प्रगट करवो होय, धर्मनी प्रथम सीडी एवुं सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं होय एना माटे आ वात छे. भगवान आत्मा सच्चिदानंद प्रभु - ‘सिद्ध समान सदा पद मेरो’ एवुं जे पोतानुं स्वरूप ए पुण्य-पापना भावनो थतो नथी. अहाहा...! आ तो गजब टीका छे!
एक वस्तु बीजी वस्तुनी कांई पण संबंधी नथी अने एक वस्तुनी बीजी वस्तु कांई पण संबंधी नथी. गजब वात! भगवान आत्मा सहजानंदस्वरूपी सदा परम ज्ञान अने आनंद स्वरूप छे. अहीं कहे छे-दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादिना शुभभाव भगवान आत्माना (संबंधी) थता नथी अने आत्मा ए शुभभावमां आवतो नथी. आवुं अंदर भेदविज्ञान करवुं एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. पुण्य-पापना परिणाम ए आत्मानी चीज नथी केमके ए तो आस्रव तत्त्व छे ज्यारे आत्मा ज्ञायक तत्त्व सिद्धस्वभावी छे. बे चीज भिन्न भिन्न छे. आत्मामां आस्रव नहि अने आस्रवमां आत्मा नहि.
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पाठमां शब्द छे के-‘उपयोगमां उपयोग छे.’ उपयोगमां क्रोध नथी. ‘उपयोगमां उपयोग छे एटले के रागथी भिन्न पडी जे जाणवा-देखवानुं (ज्ञानमय) परिणमन थयुं एमां उपयोग एटले आत्मा छे. जाणनक्रिया ए ज्ञाननुं स्वरूप छे. आत्मानुं स्वरूप ज जाणनक्रिया छे. अहीं आत्माना आधारे जाणनक्रिया छे एम न लीधुं केमके अहीं एम बताववुं छे के रागथी भिन्न पडी जे जाणनक्रिया थई एमां ‘आ आत्मा छे’ एम आत्मा जणायो. माटे जाणनक्रिया ते आधार अने आत्मा आधेय एम अहीं लीधुं छे. अधिकार खूब झीणो छे; एकलुं माखण छे.
‘उपयोगमां उपयोग छे’ एटले रागथी भिन्न पडीने जे भेदविज्ञान कर्युं ते जाणनक्रियामां आत्मा छे अर्थात् जाणनक्रियामां आत्मा जणाय छे. जाणनक्रियामां आत्मा छे, एमां राग नथी अने रागमां आत्मा नथी.
भाई! आ तो जन्म-मरणनी गांठ गाळवानी वात छे. संसारनां पाप तो अनंतवार कर्यां अने पुण्य पण अनंतवार कर्यां. एक नरकना भव सामे असंख्य स्वर्गना भव-ए रीते अनंता नरकना अने एनाथी असंख्यगुणा अनंता स्वर्गना भव कर्या. जे पुण्यना फळमां स्वर्गना भव थया ते पुण्यना परिणाम आत्मामां नथी. व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प जे पुण्य छे ते आत्मामां नथी अने आत्मा ए व्यवहाररत्नत्रयमां-पुण्यमां नथी. भाई! पुण्यथी आत्मा जणाय एवी वस्तु आत्मा नथी. रागथी-पुण्यथी भिन्न पडी, ज्ञाननी परिणतिमां आत्माने लक्षमां लेतां, तेमां (जाणनक्रियामां) आत्मा जणाय छे.
राग छे ते जडमां-अजीवमां जाय छे. देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग, शास्त्र भणवानो विकल्प के पंचमहाव्रतादिना परिणाम ए बधा जडमां जाय छे. आत्माना आधारमां ए जड छे नहि; तेम आत्माना आधारे ए जड थाय छे एम पण नहि. भाई! व्यवहाररत्नत्रयना विकल्प आत्माना आधारे थाय छे एम नथी, तेम रागना आधारे आत्मा जणाय छे एम पण नथी. जेम जड पुद्गल अने आत्मा जुदा छे एम आस्रव अने आत्मा जुदा छे. सात तत्त्वमां भगवाने आस्रवतत्त्व अने जीवतत्त्व भिन्न भिन्न कह्यां छे. माटे जेने भेदज्ञान करवुं होय तेणे रागनो आश्रय छोडीने ज्ञायकस्वभावनो आश्रय लेवो जोईए.
खरेखर एक वस्तुनी बीजी वस्तु नथी. माटे आत्मा जाणनक्रियाना आधारे जणाय अने राग रागना आधारे थाय, राग आत्माना आधारे न थाय. व्यवहाररत्नत्रयनो राग आत्माना आधारे न थाय, एने परनो-निमित्तनो आधार-आश्रय छे. एनुं वलण पर तरफ छे.
व्यवहाररत्नत्रय करतां करतां निश्चय प्रगटे एम कोई माने तो ते यथार्थ नथी.
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व्यवहाररत्नत्रय ए चीज जुदी छे अने जाणनक्रियाना आधारे जणाय ते आत्मा चीज जुदी छे. आस्रवभाव अने चैतन्यभाव एकबीजाना कोई संबंधी नथी. आस्रव पण वस्तु छे ते पोतापणे छे अने परपणे एटले जीवपणे नथी. आगळ कळश २०० मां पण आवशे के एक वस्तुने बीजी वस्तु साथे कांई संबंध छे ज नहि.
एक वस्तुनी बीजी वस्तु नथी; केम? तो कहे छे-‘कारण के बन्नेना प्रदेशो भिन्न होवाथी तेमने एक सत्तानी अनुपपत्ति छे (अर्थात् बन्नेनी सत्ता जुदी जुदी छे).’
शुं कहे छे आ? के शुद्ध आत्माना प्रदेशो अने आस्रवना प्रदेशो तद्न भिन्न भिन्न छे. छे तो असंख्य प्रदेशो, पण जेटला अंशमां आस्रव उठे छे ते प्रदेशोने भिन्न कह्या छे.
ल्यो, लोको तो कहे छे-आ व्रत, तपस्या करो, उपवास करो, भक्ति करो, जात्रा करो-ने थई गयो धर्म. बापु! ए धर्म छे ज नहि. एवा कलेश तो अनंतवार कर्या पण छांटो पण धर्म थयो नहि. भाई! तने खबर नथी पण राग ए कलेश छे, दुःख छे भगवान!
जेम आ आत्मा बीजा आत्मानो नथी, जेम आत्मा शरीरमां नथी अने शरीर आत्मामां नथी तेम, अहीं कहे छे-जे दया, दान, व्रत आदिना विकल्प उठे छे ते राग छे अने तेनुं क्षेत्र-प्रदेशो भिन्न छे अने आत्माना प्रदेशो भिन्न छे. बे वस्तु ज भिन्न छे केमके बन्नेना प्रदेशो भिन्न भिन्न छे.
आत्माना असंख्य प्रदेशमां विकार थाय छे, पण जेटला अंशमांथी विकार उठे छे ते प्रदेशोने भिन्न गणवामां आव्या छे. आम आस्रवना अने आत्माना प्रदेशो भिन्न भिन्न होवाथी तेमने (बेने) एक सत्तानी अनुपपत्ति छे. असंख्य प्रदेशमां बे भाग पडे छे-द्रव्य ए पर्याय नहि अने पर्याय ए द्रव्य नहि. खरेखर तो निर्मळ पर्यायना प्रदेशो (अंशो) पण (ध्रुव आत्माथी) जुदा छे पण अहीं एनी वात नथी, अहीं मलिन पर्यायनी वात छे. वळी एवी ज रीते जेटला अंशमां आस्रव थाय छे अने जेटला अंशमां संवर-निर्मळता थाय छे ए बेना (आस्रव अने संवरना) प्रदेशो पण भिन्न भिन्न छे. गजब वात छे भाई! आ माथाना वाळ नथी होता? एमां कोई कोई वाळमां छेडे बे छेडा होय छे; वाळ एक अने छेडा बे. एमां बे छेडा भिन्न न पडे, बे फणगा होय छतां चीरी न शकाय. अहीं (ज्ञानमां) चिराय छे एनी वात छे. अलौकिक वात छे भाई! दिगंबर संतो सिवाय आवी वात बीजे कयांय छे नहि. अहो! दिगंबर संतो तो केवळीना केडायतीओ छे.
अहा! आवुं दुर्लभ मनुष्यपणुं एने कयारे मळे अने कयारे एने आवुं
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सांभळवा मळे? अरे! छतां हजु ते पापमांथी नवरो पडतो नथी. धंधो-वेपार अने बैरां- छोकरां साचववामां अने भोग अने भोगनी सामग्रीमां आखो दिवस पापकार्यमां गुंचायेलो रहे छे, कदाच एकाद कलाक शास्त्र सांभळवानो वखत ले तो ते पण शुभभाव छे; एनाथी पुण्य बंधाय पण धर्म न थाय. अरे भाई! आ मनुष्यपणुं आम ने आम वेडफाई जाय छे. मिथ्यादर्शन रहे तो आंखो मिंचाईने ते कयांय चाल्यो जशे. (८४ ना अवतारमां एवो खोवाई जशे के पत्तो ज नहि लागे).
अहीं कहे छे-पुण्य-पापना भाव बन्ने आस्रव छे अने (पोतानाथी) भिन्न चीज छे. एने पोताना मानवा ए हिंसा छे. परनी दया पाळवानो राग उठे ते हिंसा छे अने एने पोतानो मानवो ते महाहिंसा (मिथ्यात्व) छे. रागथी भिन्न पडी भगवान ज्ञायकना आश्रये जाणनक्रिया-वीतरागी अवस्था थाय ते अहिंसा छे अने ए अहिंसाथी आत्मा जणाय छे. समजाणुं कांई...? ‘कांई’ एटले जे कहेवाय छे एनी गंध पण आवे छे के? अहा! आखुं समजाय एनो तो बेडो पार थई जाय; महा कल्याण थई जाय.
अहाहा...! आत्मा आनंदकंद प्रभु चैतन्यबिंब-अनंत चैतन्यप्रकाशनो पिंड छे; अने राग अंधकार छे. राग नथी जाणतो पोताने, नथी जाणतो जोडे रहेला चैतन्यने; राग बीजा द्वारा (चैतन्य द्वारा) जणाय छे. माटे राग छे ते जड स्वभाव छे, अजीव छे. भाई? जीवनुं जीवन-धर्मीनुं जीवन तो स्व-अनुभव छे. रागथी भिन्न पडीने भेदविज्ञाननी परिणति सहित जीववुं ए जीवनुं जीवन छे. रागने कर्तव्य मानीने जीववुं ए तो मिथ्यात्वनुं जीवन छे, ए चैतन्यनुं जीवन नथी. अहीं कहे छे -राग अने आत्माना प्रदेशो भिन्न छे, राग अने निर्मळ परिणतिना अंशो (प्रदेशो) पण भिन्न छे. अहो! भेदज्ञाननी आ अपूर्व वात छे.
अहीं सुधी एक वस्तुनी बीजी वस्तु नथी अने आस्रव अने आत्मानी भिन्न भिन्न सत्ता छे एम बे वात थई. हवे त्रीजी वात-
‘अने ए रीते एक वस्तुनी बीजी वस्तु नहि होवाथी एक साथे बीजीने आधार- आधेय संबंध पण नथी ज. तेथी (दरेक वस्तुने) पोताना स्वरूपमां प्रतिष्ठारूप (द्रढपणे रहेवारूप) ज आधारआधेय संबंध छे.’
जुओ शुं कहे छे? एक वस्तुनी बीजी वस्तु नहि होवाथी अर्थात् आत्मानी आस्रववस्तु नहि होवाथी वा आस्रव आत्मवस्तुनो नहि होवाथी आत्मा साथे आस्रवने आधार-आधेय संबंध नथी. रागना-व्यवहाररत्नत्रयना आधारे आत्मा जणाय के आत्माना आधारे व्यवहाररत्नत्रय-राग थाय एवो परस्पर आधारआधेय संबंध छे नहि. जाणनक्रिया जे आत्माना स्वरूपभूत छे तेमां आत्मा जणाय छे. माटे आत्माने
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पोताना स्वरूपभूत जे जाणनक्रिया तेमां प्रतिष्ठारूप-द्रढपणे रहेवारूप आधारआधेय संबंध छे पण रागमां रहेवारूप आधारआधेय संबंध नथी ज.
आवी वात! भाई! आ तो कोलेज ज जुदी जातनी छे. आ तो जन्म-मरणथी रहित थवाना अभ्यासनी कोलेज छे. भाई! तने पुण्य-परिणाम मारा एवी मान्यतारूप मिथ्यात्वनो महारोग थयो छे. श्रीमदे कह्युं छे ने के-
राग ने आत्मा भिन्न भिन्न चीज छे. जे भिन्न छे एवा रागथी आत्माने लाभ माने अने एनुं पोताने कर्तापणुं माने ए मिथ्यात्वभाव छे. शुद्ध चैतन्यस्वरूपने छोडी जे शुभरागनो कर्ता थाय ते मिथ्याद्रष्टि छे. अहाहा...! शुद्ध चैतन्यना भानपूर्वक रागथी भिन्न पडीने जेणे भेदज्ञान कर्युं एवो ज्ञानी, राग हो भले पण रागनो कर्ता थतो नथी. अहाहा...! रागमां आत्मा नहि अने आत्मामां राग नहि एवो आत्मा तो सदा सर्वज्ञस्वरूप छे-जाणे सौने पण करे कोईने नहि एवुं एनुं स्वरूप छे.
लोकोने तो आ व्रत करो, तप करो, उपवास करो, भक्ति करो-एम करो करो ए ज जाणे धर्म छे. अरे भाई! एवुं तो तें अनंतवार कर्युं छे, अभवी पण करे छे. छहढाळामां आवे छे ने के-
सांभळने भाई! ए पंच महाव्रत अने अट्ठावीस मूलगुणना पालननो राग ए दुःख छे, आस्रव छे. एवा रागनी क्रिया तो अनंतवार करी, पण रागथी भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वरूप पोते छे एवुं ज्ञान-भेदविज्ञान कदी कर्युं नहि. भेदज्ञान विना, सम्यग्दर्शन विना सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र होतां नथी.
ज्ञान अने आनंदनी परिणतिथी आनंदनो नाथ भगवान जणाय छे. आनंदनुं अने दुःखनुं स्वरूप तद्न भिन्न भिन्न छे. प्रभु! तने आ शुं थयुं? तारो नाथ तो अंदर निर्मळानंद सच्चिदानंद प्रभु बिराजे छे. जाणनक्रिया ए एनुं स्वरूप छे; जाणनक्रियामां ए जणाय छे. राग-आस्रव एनुं स्वरूप नथी, राग-आस्रवथी ए जणातो नथी. राग तो जडस्वरूप छे. पंचमहाव्रतना परिणाम पण राग छे तेथी जड छे, दुःख छे, अजीव छे. आत्माथी एनुं लक्षण तद्न भिन्न छे, एना प्रदेश जुदा, तेथी एनुं होवापणुं जुदुं छे. रागने अने आत्माने आधारआधेय संबंध नथी. रागनो आधारआधेय संबंध पण जुदो छे.
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अहा...! पांच-पचास लाख रूपिया मळे एटले जाणे हुं पहोळो अने शेरी सांकडी एम एने थई जाय छे. पण भाई! ए तो पर चीज छे ने नाथ! ज्यारे रागने पर चीज कही त्यां शरीर अने पैसा पोतानी चीज कयांथी थई? आ व्यवहाररत्नत्रयना रागने पण अहीं पर चीज कही छे. बापु! तने सांभळवुं आकरुं लागे पण सत्य तो आ छे भाई! सत्यने संख्यानी जरूर नथी; झाझा माननार होय तो ए सत्य एम नथी. सत्य सत्यपणे जणायुं पछी भले ते एकलो ज होय, पोते ज सत्य छे.
आनंदनो सागर मीठो महेरामण अंदर प्रभु पडयो छे. ते एनी शुद्ध परिणतिमां जणाय एवो छे. तेथी अहीं शुद्ध परिणतिने आधार अने आत्माने आधेय कह्यो छे. वस्तु सदा परमात्मस्वरूप ज छे; पण ए परमात्मस्वरूप एना ज्ञानमां आवे त्यारे परमात्मस्वरूप कहेवाय ने? आ सिवाय व्रत करे ने भक्ति करे ने सम्मेदशिखरनी जात्रा करे-ए बधुं कांई नथी. साक्षात् त्रणलोकना नाथ समोसरणमां बिराजमान होय एनां दर्शन-भक्ति करे तोय ए कांई नथी. ए तो शुभराग छे अने ए राग अने आत्मा तद्न भिन्न भिन्न छे.
पुरुषार्थसिद्धयुपाय नामना शास्त्रमां जे भावे तीर्थंकरगोत्र बंधाय ए पण हिंसा अने अपराध छे एम कह्युं छे. तीर्थंकर गोत्र बांध्युं एने बे भव वधी गया. भाई! अमृतना नाथने शरीर मळे ए तो कलंक छे. भाई! मार्ग तो आ छे. एकान्त छे एम कहीने एने तुं ना न पाड भाई! आ तो सम्यक् एकान्त छे.
भगवान! तारी चीज केवी छे अने ते केम जाणाय एनी तने खबर नथी. तारी चीजमां तो आनंद, आनंद, आनंद भर्यो छे, अने ते ज्ञाननी-जाणनक्रियानी निर्मळ परिणतिमां जणाय छे. ए आनंदरूप चीजमां आस्रवना परिणाम थाय ए दुःखरूप छे. हवे आवी वात कोई दि’ सांभळवा मळी न होय एटले राड पाडे के आ निश्चयनी वात छे, निश्चयनी वात छे; पण भाई! निश्चय एटले ज सत्य, निश्चय नाम यथार्थ, वास्तविक, निरुपचार सत्यार्थ वस्तु.
महाविदेह क्षेत्रमां सीमंधर, भगवान बिराजे छे. प्रभुनुं करोड पूर्वनुं आयुष्य छे. संवत् ४९ मां श्री कुंदकुंदाचार्यदेव प्रभु पासे गया हता अने आठ दिवस त्यां रह्या हता. त्यांथी शुं लाव्या? तो आ संदेशो लाव्या के-राग आत्मानो नथी अने आत्मा रागनो नथी. आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदनो भंडार छे अने राग दुःखनो भंडार छे. आचार्य भगवंतोए गाथामां अने टीकामां जे कह्युं छे तेनुं आ स्पष्टीकरण चाले छे. छेल्ले तो एम कहेशे के- भगवान आत्मा चैतन्यस्वरूप ज्ञानस्वरूप छे अने दया, दान आदिना भाव, देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग इत्यादि अज्ञान छे अर्थात् एमां ज्ञान नथी. रागमां ज्ञान नथी ए कारणे ते अज्ञान छे, अहीं अज्ञान एटले मिथ्यात्व
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नहि पण ज्ञान नहि एटले अज्ञान एम अर्थ छे. ज्ञानस्वरूपी आत्मा रागमां नहि अने राग ज्ञानस्वरूपी आत्मामां नहि. ज्ञान (आत्मा) अने अज्ञान (राग) भिन्न भिन्न छे.
भेदज्ञान शुं चीज छे ए जीवोए सांभळ्युं नथी; अने एना विना चारगतिमां रखडवुं मटे एम नथी. नवतत्त्वमां दरेक तत्त्व भिन्न भिन्न छे. राग आस्रव छे अने आत्मा आनंदकंद प्रभु ज्ञायक छे. ते बे वच्चे आधार-आधेय संबंध नथी. व्यवहाररत्नत्रयमां आत्मा जणाय अने आत्मामां व्यवहाररत्नत्रय होय एम कदी छे नहि. धर्मनी मूळ चीज आ छे. रागना आधारे आत्मा जाणवामां आवे अने ज्ञानथी रागनी उत्पत्ति थाय एम छे नहि; केमके रागनी उत्पत्ति परलक्षे थाय छे अने ज्ञाननी परिणति स्वलक्षे उत्पन्न थाय छे. बन्नेनी दिशा अने दशामां फेर छे. पर तरफनी दिशाथी रागनी दशा उत्पन्न थाय छे ज्यारे स्व तरफनी दिशाथी धर्मनी दशा उत्पन्न थाय छे. भाई! धर्मनी दशानो आश्रय स्व छे, राग नहि, पर नहि. अहो! धर्म कोई असाधारण अलौकिक चीज छे.
अहीं कहे छे-राग आधार अने आत्मा आधेय के आत्मा आधार अने राग आधेय एम छे नहि. हजी तो आ सम्यग्दर्शन केम थाय एनी वात चाले छे. सम्यग्दर्शन विना, आत्माना अनुभव विना चारित्र त्रणकाळमां होतुं नथी. अज्ञानीनां व्रत ने तपने भगवाने (मूर्खाई भर्यां) बाळव्रत अने बाळतप कह्यां छे. भाई! तुं अनंतवार समोसरणमां गयो, भगवाननी अनंतवार पूजा करी, हीराना थाळ, मणिरत्नना दीवा अने कल्पवृक्षनां फूल वडे अनंतवार भगवाननी आरती उतारी. पण ए तो बधो शुभभाव छे; एमां कयां आत्मा छे? आ बधुं समजवुं पडशे हों, नहितर एम ने एम जींदगी चाली जशे, अने मरीने कयांय ढोरमां-तिर्यंचमां चाल्यो जईश. कदाचित् कांई पुण्यभाव थयो हशे तो मिथ्यात्व सहित स्वर्गमां जशे; पण तेथी शुं? मिथ्यात्वनुं परंपरा फळ तो निगोद ज छे.
आचार्य कुंदकुंददेव अतीन्द्रिय आनंदना स्वादना रसिया अनुभवी पुरुष हता. अहो! भावलिंगी मुनिवरोने पर्यायमां प्रचुर आनंदना स्वादनुं वेदन होय छे. आचार्यदेव गाथा प मां कहे छे-हुं मारा निजवैभवथी समयसार कहीश. त्यां निजवैभव केवो छे तेनुं वर्णन करतां कहे छे-‘‘सुंदर जे आनंद तेनी छापवाळुं जे प्रचुर-स्वसंवेदनस्वरूप स्वसंवेदन, तेनाथी जेनो जन्म छे.’’ जुओ आ धर्म अने आ मुनिपणुं! पंचमहाव्रत पाळता हता अने नग्न हता एम त्यां न कह्युं; कारण के ए मूनिपणुं कयां छे?
समयसार गाथा ७२ मां आत्माने ‘भगवान आत्मा’ एम त्रणवार आचार्य अमृतचंद्रे कह्युं छे. अहाहा...! तुं भगवान आत्मा छो ने? भगवान! तारा महिमानो
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कोई पार नथी. नाना बाळकने जेम एनी मा पारणामां झुलावी एनां वखाण करे छे अने सुवाडी दे छे तेम अहीं आचार्यदेव आत्माने ‘भगवान आत्मा’ कही अज्ञानमांथी जगाडे छे. कहे छे-जाग रे जाग, नाथ! तुं त्रणलोकनो नाथ छे. तारी पुंजीमां तो अनंत अनंत आनंदनी लक्ष्मी भरी छे. आ सम्यग्दर्शनमां अतीन्द्रिय आनंदनो जे स्वाद आवे छे ते तारी चैतन्यपुंजीमांथी आवे छे. ए (चैतन्यलक्ष्मी) तारी पुंजी छे; आ धूळ (धन) ते तारी पुंजी नहि. आ शरीर-बरीर तो हाडकांनो माळो छे. अने एमां जे सडन-गलननी क्रियाओ थाय छे ए बधी जडनी क्रियाओ छे.
जुओ, क्रिया त्रण प्रकारनी छे-
१. जडनी क्रिया. आ चालवानी, बोलवानी, खावापीवानी इत्यादि जे शरीरनी क्रिया छे ते जडनी क्रिया छे, आत्मानी नहि.
२. विभाविक क्रिया. अंदर जे रागादि परिणमन छे ते विभाविक क्रिया छे. आ दुःखरूप क्रिया छे. दया, दान आदि रागना परिणाम दुःखरूप छे.
३. ज्ञाननी क्रिया. रागथी भिन्न पडीने स्वरूपमां अंतर एकाग्र थवुं ते ज्ञाननी क्रिया छे. एमां अतीन्द्रिय आनंद आवे छे. रागथी भिन्न पडी आनंदना नाथ उपर द्रष्टि पडतां जे ज्ञानक्रिया थई एमां भेगो शुद्धतानो आनंद आवे छे. रागमां आनंद कयां छे? स्त्री के पैसामां आनंद कयां छे? (नथी). रागनी उत्पत्ति न थाय एवी ज्ञानक्रियामां-जाणनक्रियामां भेगो आनंद होय छे, अने ते धर्मीनी क्रिया छे.
प्रश्नः– तो शुं जीवोनी दया पाळवी ते धर्म नहि?
उत्तरः– रागनी उत्पत्ति न थवी अने जाणन-पर्याय उत्पन्न थवी एने भगवान साची दया कहे छे. रागनी उत्पत्ति थवी ए आत्मानी अदया छे, हिंसा छे. धर्मीने दया आदि राग आवे छे पण ए धर्म छे एम नथी. (व्यवहारथी-उपचारथी एने धर्म कहे छे ए जुदी वात छे).
हवे आगळ कहे छे-‘माटे ज्ञान के जे जाणनक्रियारूप पोताना स्वरूपमां प्रतिष्ठित (- रहेलुं) छे ते, जाणनक्रियानुं ज्ञानथी अभिन्नपणुं होवाने लीधे, ज्ञानमां ज छे.’
शुं कहे छे? ज्ञान एटले भगवान आत्मा अने जाणनक्रिया एटले चैतन्यनी जाणवानी क्रिया. रागथी भिन्न पडी स्वरूपना लक्षे जे जाणनक्रियारूप वीतरागी आनंदनी दशा थई तेमां पोतानुं स्वरूप प्रतिष्ठित छे अर्थात् तेमां आत्मा छे एटले के आत्मा जणाय छे. तेथी जाणनक्रिया ते आधार छे अने आत्मा आधेय छे. अहाहा...! शुद्ध चैतन्यस्वरूपना लक्षे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-आनंदरूप जे परिणति थई तेमां आत्मा
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जाणवामां आवे छे माटे तेने आधार कह्यो अने आत्माने आधेय कह्यो. आ जाणनक्रिया स्वभावभूत होवाथी आत्माथी अभिन्न छे. माटे कह्युं के ज्ञान ज्ञानमां ज छे.
वळी, ‘क्रोधादिक के जे क्रोधादिक्रियारूप पोताना स्वरूपमां प्रतिष्ठित छे ते, क्रोधादिक्रियानुं क्रोधादिथी अभिन्नपणुं होवाने लीधे, क्रोधादिकमां ज छे.’
आत्मस्वभावनी अरुचिरूप जे भाव-क्रोध, मान, माया अने लोभ तेने क्रोधादि कह्या छे. स्वरूपनी अरुचिना बे प्रकार-राग अने द्वेष. तेमां स्वरूपनी अरुचि एवो जे द्वेषभाव तेना बे प्रकार-क्रोध अने मान अने स्वरूप प्रत्येनो अनादर एवो जे राग तेना बे प्रकार-माया अने लोभ.
आत्मा सदा चैतन्यमूर्ति प्रभु आनंदस्वरूपे अंदर विराजे छे. तेने छोडी जेने पुण्यभावनी रुचि छे तेने आत्मा प्रत्ये द्वेष छे, क्रोध छे. अहीं कहे छे-आत्मानी अरुचिरूप क्रोधादि परिणामनी क्रिया थई तेना आधारे क्रोधादि छे. विकारना परिणमननी क्रियाना आधारे विकार छे, आत्माना आधारे विकार नथी. रागनी क्रिया ते आत्माना विरोधनी-क्रोधादि क्रिया छे. जीवनी क्रोधादिकनी पर्याय अनादिथी क्रोधादि क्रियामां छे; तेनी परिणतिमां क्रोधादि विकारभाव आत्माने लईने नथी. विकार पण पोताना षट्कारकथी परिणमे छे. क्रोधादि क्रिया एटले विकारनुं षट्कारकरूप जे परिणमन तेमां क्रोधादि छे, आत्मा नथी अने आत्मामां क्रोधादि नथी. स्वरूपनी विपरीत मान्यतारूप जे मिथ्यात्वनी क्रिया एना परिणमनमां विकार छे, आत्माना परिणमनमां मिथ्यात्वादि विकार नथी.
क्रोधादिक्रिया एटले क्रोधादिनुं परिणमन; ए परिणमनमां क्रोधादि छे. आत्मानी पर्यायमां क्रोधादिनुं परिणमन नथी. आत्मानी पर्याय तो जाणवुं-देखवुं आनंद आदि छे. आत्मानी पर्यायमां भगवान आत्मा जणाय छे केमके एमां भगवान आत्मा छे ज्यारे क्रोधादि परिणमनमां आत्मा जणातो नथी केमके तेमां आत्मा कयां छे के जणाय?
अहीं कहे छे-क्रोधादि क्रियानुं क्रोधादिथी अभिन्नपणुं छे, जेम ज्ञान अने आनंदनुं परिणमन ज्ञानानंदस्वरूप आत्माथी अभिन्न छे तेम क्रोधादिनुं परिणमन क्रोधादिथी अभिन्न छे. क्रोधादि परिणमनमां क्रोधादि जणाय छे, आत्मा नहि. पुण्य-पापरूप परिणमनमां पुण्य- पापना भाव छे एम जणाय छे. पुण्य-पापना भावमां आत्मा छे अने आत्माथी ते थया छे एम छे नहि. अहीं बन्ने वच्चेनी गांठने भेदी-चीरी नाखी छे.
ज्यांसुधी पर्यायबुद्धि छे त्यांसुधी रागनी बुद्धि छे. ए रागनी बुद्धिना आधारे राग छे, आत्माना आधारे राग छे एम छे नहि. क्रोधादि क्रियानुं क्रोधादिथी अभिन्नपणुं होवाने लीधे अर्थात् विकारनुं परिणमन विकारथी एकमेक होवाने लीधे
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विकार विकारमां ज छे. विकारनुं लक्ष पर छे, परंतु विकार एना पोताना (विकारना) परिणमनमां छे, आत्मामां नहि अने पर निमित्तमां पण नहि. स्वभावनी द्रष्टि विना राग अने विकारनुं जे परिणमन थयुं ते विकारनुं परिणमन विकारमां छे, परना परिणमनमां नहि तेम ज आत्माना परिणमनमां पण नहि. पर्यायबुद्धिमां जे विकार थयो ए विकारना परिणमननो आधार विकार छे. मिथ्याद्रष्टिपणानुं परिणमन मिथ्याद्रष्टिपणामां छे एम कहे छे. ए परिणमनने पोतानुं करवुं ए परिणमननुं स्वरूप छे; केमके विकारनी एक समयनी पर्याय पण पोताना षट्कारकथी परिणमी रही छे, निमित्तना कारणे नहि अने पोताना द्रव्य-गुणना कारणे पण नहि.
भाई! आ तो वीतरागनुं तत्त्वज्ञान छे जेने इन्द्रो अने गणधरो एकचित्त थईने सांभळे छे. अहा! चार ज्ञानना धारी जेने बार अंग अने चौद पूर्वनी लब्धि प्रगट थई छे एवा गणधरदेव जे दिव्यध्वनि सांभळे ते वाणी केवी होय? परम अद्भुत, अलौकिक! भाई! एकवार सांभळ तो खरो. कहे छे-
तारी जाणनक्रियामां तुं रह्यो छुं. स्वरूपना लक्षे जे ज्ञान, दर्शन, आनंद अने स्थिरतानी क्रिया थाय ते क्रिया स्वरूपभूत होवाथी भगवान! तुं ए जाणनक्रियामां रहेलो छुं. तुं शरीरमां, वाणीमां, कुटुंबमां के रागमां रह्यो छुं एम नथी. समयसार गाथा ६ मां आवे छे के शुभाशुभभावना स्वभावे भगवान ज्ञायक थयो ज नथी. ज्ञायकभाव एटले समजणनो पिंड, ज्ञाननो सागर एनी ज्ञाननी परिणतिमां रहेलो छे, शुभाशुभभावमां नहि. शुभाशुभभाव तो जड छे. भाई! आ पंचमकाळमां पण आत्मा ज्ञायक प्रभु तो परिपूर्ण ज छे; जे दोष छे ते पर्यायमां छे. (ए दोषनी पर्यायमां आत्मा नथी).
आ देह तो जड माटी छे. लोढानी खीली वागे त्यारे कहे छे ने के-पाणी लगाडशो मा, केमके मारी माटी पाकणी छे. ल्यो, एक बाजु माटी कहे अने वळी पाछी मारी कहे! महा विचित्र! (अज्ञानीनां बोलवानां कांई ठेकाणां होतां नथी).
अहीं कहे छे-भगवान! तारो महिमा अपरंपार छे. तुं तारा महिमा भूली गयो एटले तने रागनी क्रियानो-पुण्यनी क्रियानो महिमा आवे छे. अहीं कहे छे- मिथ्याभ्रांतिनुं परिणमन मिथ्याभ्रान्तिने लईने छे, आत्माने लईने नहि; अन्यथा मिथ्याभ्रांति आत्मानो (त्रैकालिक) स्वभाव थई जाय. आ तो चैतन्यचमत्कारनी वातो छे. भगवान तारो चमत्कार तुं रागरहित ज्ञाननी चमत्कारिक परिणतिमां जणाय ते छे. आत्मा पवित्र शुद्ध छे; ए पवित्र ज्ञाननुं ज स्वरूप छे, ए ज तेनो आधार छे, केमके जाणनक्रिया अने ज्ञान एकमेक छे. जाणवानी, श्रद्धानी, आनंदनी वीतराग परिणति आत्माथी जुदी नथी, एकमेक छे. तेथी सिद्ध थयुं के ज्ञान ज्ञानमां ज छे,
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आत्मा आत्मामां ज छे. तेवी रीते क्रोध क्रोधमां ज छे, आत्मामां नहि. देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग अने पंचमहाव्रतादिना परिणाम इत्यादि विकार विकारमां छे. आत्मामां नहि.
‘वळी क्रोधादिकमां, कर्ममां के नोकर्ममां ज्ञान नथी अने ज्ञानमां क्रोधादिक, कर्म के नोकर्म नथी कारण के तेमने परस्पर अत्यंत स्वरूप-विपरीतता होवाथी तेमने परमार्थभूत आधारआधेय संबंध नथी.’
पहेलां कह्युं के ज्ञान ज्ञानमां ज छे अने क्रोधादि क्रोधादिमां ज छे. हवे कहे छे के क्रोधादिकमां, कर्ममां के नोकर्ममां ज्ञान कहेतां आत्मा नथी, अने आत्मामां क्रोधादिक, कर्म के नोकर्म नथी. जुओ, आत्मानुं परिणमन-ज्ञान-श्रद्धान-रमणतारूप परिणमन रागने लईने, कर्मने लईने के नोकर्मने लईने छे एम नथी. कर्म मार्ग आपे तो ज्ञाननुं, श्रद्धानुं परिणमन थाय एम नथी. आ शरीर, मन, वाणी, धनसंपत्ति, कुटुंब-परिवार इत्यादिमां आत्मा नथी. एमना वडे आत्माने लाभ थाय एम बीलकुल नथी. नियमसारमां उद्धृत एक श्लोकमां आवे छे के-बैरां-छोकरां कुटुंब-परिवार वगेरे धूताराओनी टोळी आजीविका माटे एकठी मळेली छे. जुओने, कोई रोग थयो होय अने छ महिना, बार महिना लंबाय तो एनी चाकरी करनार थाकी जाय एटले एने अंदर एम थाय के-‘खाटलो खाली करे तो सारुं.’ बचवानो होय नहि छतां लोकलाजे खर्च करवो पडतो होय, डोकटरने बोलाववा पडता होय अने सेवामां हाजर रहेवुं पडतुं होय एटले अंदरमां आवो विचार चाले! जुओ आ संसार! समजाणुं कांई...?
अहीं कहे छे के क्रोधादि विकारमां, कर्म के नोकर्ममां ज्ञान-आत्मा नथी अने ज्ञानमां- आत्मामां क्रोधादि विकार, कर्म के नोकर्म नथी. केम नथी? तो कहे छे-तेमने परस्पर अत्यंत स्वरूप-विपरीतता छे. पुण्य-पापना भावने अने आत्माने परस्पर अत्यंत स्वरूप-विपरीतता छे. तेवी ज रीते कर्म ने शरीरादिने अने आत्माने परस्पर अत्यंत स्वरूप-विपरीतता छे. आत्मानुं तो जाणनस्वरूप छे अने क्रोधादिनुं एनाथी विरुद्ध जडस्वरूप छे. तेथी आत्मामां रंग- रागना भाव छे ज नहि.
शुभरागने अने भगवान आत्माने परस्पर अत्यंत विरोध छे. माटे जो कोई कहे के रागनी मंदता करतां करतां धर्म थाय वा व्यवहारना क्रियाकांड करतां करतां निश्चय थाय तो ए यथार्थ नथी. राग वडे आत्मा जणाय ए त्रणकाळमां बनवा योग्य नथी. आत्मानुं ज्ञानस्वरूप अने पुण्य-पापना भावनुं स्वरूप परस्पर अत्यंत विरुद्ध होवाथी तेमने आधार-आधेय संबंध नथी. आत्मानी परिणति आधार अने रागादि आधेय एम नथी, वा रागादि आधार अने ज्ञान आधेय एम पण नथी. अहो! अमृतने पानारां अमृतचंद्रनां आ अमृत-वचनो छे.