Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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हरिगीतमां ‘नय परिहीणा’ नो अर्थ शुद्धनयपरिच्युत’ कर्यो छे तेमां मूळ अर्थ फेरवी नाख्यो नथी पण मूळ अर्थनुं स्पष्टीकरण कर्युं छे.

* गाथा १७९–१८०ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘ज्यारे ज्ञानी शुद्धनयथी च्युत थाय त्यारे तेने रागादिभावोनो सद्भाव थवाथी...,’

जुओ, आम कहीने शुं कहेवा मागे छे? ए ज के निर्विकल्प अभेद निज चैतन्यमहाप्रभुनी द्रष्टिमां अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन थवुं-आववुं ए शुद्धनयमां रहेवुं छे, अने त्यांथी-स्वभावथी खसी पर्यायबुद्धि थई जवी अर्थात् शुभरागमां एकत्वबुद्धिए परिणमे एवी रागनी द्रष्टि थई जवी ते शुद्धनयथी च्युत-भ्रष्ट थई जवुं छे. अहीं कहे छे-शुद्धनयथी भ्रष्ट थई जाय त्यारे तेने मिथ्यात्वसंबंधीना अर्थात् अनंतानुबंधीना रागादिभावोनो सद्भाव थाय छे. अहा! ज्यां स्वभावनी रुचि छूटी रागनी रुचि थई गई त्यां (फरी) मिथ्यात्व थई गयुं अने त्यां तेने अनंतानुबंधी रागद्वेष उत्पन्न थाय छे. ‘रागादिभावोनो सद्भाव’ नो अर्थ मिथ्यात्वसंबंधी रागद्वेष उत्पन्न थवानी वात छे. (अस्थिरताना रागनी वात नथी). अहाहा...! बहारमां धर्मीने व्रत, संयम, तप, निर्दोष आहार इत्यादि क्रिया एवी ने एवी देखाती होय पण अंदरमां चैतन्य भगवान जे परमात्मस्वरूपे विराजमान छे एना वेदनमांथी खसी दया, दान, व्रत, तप आदिना शुभरागनी रुचिमां आवी जाय तो ते मिथ्याद्रष्टि थई जाय छे अने तेने अनंतानुबंधीना रागादिनो सद्भाव थई जाय छे.

हवे कहे छे-आ रीते तेने रागादिभावोनो सद्भाव थवाथी, ‘पूर्वबद्ध द्रव्यप्रत्ययो, पोताने (-द्रव्यप्रत्ययोने) कर्मबंधना हेतुपणाना हेतुनो सद्भाव थतां हेतुमान भावनुं (- कार्यभावनुं) अनिवार्यपणुं होवाथी, ज्ञानावरणादिभावे पुद्गलकर्मने बंधरूपे परिणमावे छे.’

अहा! जुओ! जूनां कर्मो तो ज्ञानी अने अज्ञानी बन्नेने सत्तामां पडयां छे पण ज्ञानीने एना उदयकाळमां, द्रष्टिना वेदनमां आत्माना आनंदनुं वेदन छे तेथी तेने मिथ्यात्वसंबंधी रागद्वेष थता नथी अने तेथी तेने ते उदय खरी जाय छे अने नवा बंधनुं कारण थतो नथी. परंतु ज्यारे ते ज आत्मा चैतन्यस्वभावनी द्रष्टिथी भ्रष्ट थई पर्यायबुद्धि थई जाय छे वा रागनी रुचिपणे परिणमी जाय छे त्यारे मिथ्यात्वसंबंधी रागद्वेषना सद्भावने लीधे द्रव्यप्रत्ययो एटले पूर्वे बंधायेलां कर्मो नवा कर्मबंधनुं कारण थाय छे. रागादिभावोनो सद्भाव थतां तेने नवा बंधनुं अनिवार्यपणुं छे अर्थात् हवे तेने नवुं बंधन थशे ज. जूनां कर्मना उदयने, अज्ञानीनो स्वभावथी भ्रष्ट थवाथी उत्पन्न थयेलो रागद्वेषनो भाव हेतुनो हेतु होवाथी अर्थात् नवीन बंधनुं निमित्त होवाथी तेने बंधन थशे ज. अज्ञानी थतां द्रष्टि पलटी जवाथी रागादिभावोनो


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सद्भाव थाय छे अने ते नवीन कर्मबंधनुं निमित्त थवाथी तेने ज्ञानावरणादि कर्मोनो बंध थशे ज.

‘अने आ अप्रसिद्ध पण नथी (अर्थात् आनुं द्रष्टांत जगतमां प्रसिद्ध-जाणीतुं छे); कारण के उदराग्नि, पुरुषे ग्रहेला आहारने रस, रुधिर, मांस आदि भावे परिणमावे छे एम जोवामां आवे छे.’ जेम जठराग्नि पुरुषे ग्रहण करेला आहारने रस, रुधिर, मांस आदि भावे परिणमावे छे तेम अज्ञानीने जे रागद्वेषमोह थया ए पुद्गलकर्मने ज्ञानावरणादिभावे बंधरूपे परिणमावे छे. रागद्वेषमोह कर्मबंधनुं निमित्त छे ने? तेथी कर्मबंधरूपे परिणमावे छे एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे. समजाणुं कांई...?

सूक्ष्म वात छे, भाई! समजवी कठण पडे पण एने समज्ये ज छूटको छे. दुर्लभ लागे, आकरो लागे पण मार्ग तो आ ज छे. एना विना जन्म-मरणना आरा नहि आवे. बापु! तारां मानेलां व्रत, तप अने उपवास तो अनंतवार करी चूकयो छुं पण तारा आत्मानी उप नाम समीप कदीय वस्यो नथी.

व्यवहार नथी एम कोई कहे तो एम नथी. निमित्त छे, पण निमित्त परनुं कार्य करे छे एम नथी. निमित्तने निमित्त-कारण, व्यवहारने व्यवहारकारण कहेवाय पण ए अंदर उपादानमां कांई कार्य करे छे एम नथी.

हवे आवी वातो समजाय नहि एटले नवा माणसने तो एम लागे के अमे धर्म सांभळवा आव्या छीए अने आमां तो धर्म केम थाय ए तो आवतुं ज नथी. अरे भाई! तो आ शुं वात चाले छे? वीतराग मार्गमां पुण्य-पापना परिणामथी भिन्न पडी निज चैतन्यनी द्रष्टि अने एनो ज अनुभव करवो एने धर्म कहे छे. अने शुद्ध चैतन्यनो आदर अने द्रष्टि छोडी रागनो आदर अने सत्कार करवो तेने अधर्म कहे छे.

अज्ञानीओ कहे छे-तमे गमे ते कहो पण उपवास छे ते तपश्चर्या छे अने तपश्चर्याथी निर्जरा छे अने निर्जरा छे ते मोक्षमार्ग छे. वळी तेओ कहे छे- शास्त्रमां पण तपनी व्याख्या करतां अनशन, उणोदरने तप कह्युं छे.

हा, भाई! पण ए तो बधां निमित्तनां कथन छे. आनंदनो नाथ चैतन्य महाप्रभु भगवान आत्मा छे. एमां स्थिरता थतां शरीर, कुटुंब आदि प्रत्ये ममता छूटी अंतरमां कषायरहित परिणति थवी तेने भगवान तप कहे छे. शुद्ध निर्विकल्प चैतन्यस्वरूपमां लीनपणे प्रतपवुं-पर्यायनुं शोभायमानपणे थवुं एनुं नाम तप छे.

लोको तो बहारमां कोई उपवास करी वर्षीतप करे तो एना वखाण करवा लागी जाय के-जोयुं? आ करोडपतिना छोकरानी वहुए आ साल वर्षीतप कर्युं.


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जाणे शुं ए करी नाख्युं एम एने थई जाय छे. पण एमां तो धूळेय तप अने धर्म नथी, सांभळने. ए बधा बहारना भपका तो स्मशानना हाडकाना फोस्फरसनी चमक जेवा छे. अरे! बहारनी चमकमां जगत फसाई गयुं छे! भाई! ए तो बधो स्थूळ राग छे अने एने हुं करुं एम माने ए मिथ्यात्व छे. अहीं तो ‘हुं शुद्ध चैतन्य छुं’-एवा अभिप्रायथी खसी ‘राग ते हुं छुं’ ए अभिप्राय थयो त्यां ते शुद्धनयथी भ्रष्ट थई गयो; भले बहारना क्रियाकांड एवा ने एवा ज रह्या करे पण ते अंदरथी भ्रष्ट थई गयो छे अने नवीन कर्मबंध अवश्य थाय ज छे...एम कहे छे.

* गाथा १७९–१८०ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञानी शुद्धनयथी छूटे त्यारे तेने रागादिभावोनो सद्भाव थाय छे.’

वीतराग सर्वज्ञदेवनी दिव्यध्वनिमां एम आव्युं छे के-जे कोई आत्मा निमित्त, राग के एक समयनी पर्यायनी द्रष्टि छोडी अनंत अकषाय शांतिनो पिंड, चैतन्यप्रकाशना पूरसमा चैतन्यबिंबमय भगवान आत्मानो निर्विकल्प अनुभव करे छे ते ज्ञानी छे, धर्मी छे. हवे आवो धर्मी पोताना शुद्ध चैतन्यस्वभावनी महत्ताना महिमाथी छूटी एक समयनी ज्ञाननी वर्तमान अवस्था के दया, दान, व्रत आदि शुभरागनी अवस्थानी रुचिमां गरी जाय तो ते शुद्धनयथी च्युत छे. आत्मा सदा ज्ञानानंदस्वभावी वस्तु छे. तेना स्वभावनी द्रष्टिमां रहेवुं ते शुद्धनयमां रहेवुं छे, अने एनाथी छूटी दया, दान आदि पर्यायनी रुचि थई जवी ए शुद्धनयथी भ्रष्ट थवापणुं छे.

जेम नाळियेरमां उपरनी लाल छाल, अंदरनी काचली के गोळा उपरनी रातड ए कांई नाळियेर नथी. अंदरमां सफेद मीठो गोळो छे ते नाळियेर छे. तेम आत्मामां शरीर, कर्म के शुभाशुभभाव ते कांई आत्मा नथी; अंदर जे निर्मळानंदनो नाथ शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावी भगवान बिराजी रह्यो छे ते आत्मा छे. शरीरनी अवस्था बाळ हो, युवा हो के वृद्ध हो वा देह पुरुषनो हो के स्त्रीनो हो, आबालगोपाळ बधाना आत्मा वस्तुस्वभावे आवा ज छे. आवा आत्मानी द्रष्टि कर्या विना जे कांई दया, दान, व्रतादि करवामां आवे ए कांई आत्मानुं कार्य नथी, केमके ए तो बधो राग छे. आत्मानुं कार्य तो द्रष्टि शुद्ध चिदानंदघनमां प्रसरतां पर्यायमां परिपूर्ण स्वज्ञेयनुं ज्ञान थाय, अनुभव थाय ते छे. तेने ज सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र कहे छे. अहा! आवा सुखना पंथे चढयो होय अने त्यांथी भ्रष्ट थई फरीने रागनी रुचि थई जाय, बहारना व्रत, तप आदिना प्रेममां पडी जाय ते शुद्धनयथी भ्रष्ट थई गयो छे.

आ शरीर, मन, वाणी, मकान, वास्तु आदिना भपका तो जड अने नाशवान


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छे अने अंदर पुण्य अने पापना परिणाम थाय ते पण क्षणिक अने नाशवान छे. एना प्रेममां जे फस्यो ए दुःखना पंथे छे. भाई! भगवान तो एम कहे छे के राग छे ते व्यभिचार छे. शुद्ध आत्मानी रुचि छोडीने रागना प्रेममां फस्यो ते व्यभिचारी छे. पद्मनंदी पंचविंशतिमां कह्युं छे के-पोताना शुद्ध चैतन्यस्वभावथी खसी शास्त्रमां जे बुद्धि जाय छे ते बुद्धि व्यभिचारिणी छे. अहाहा...! प्रभु! एकवार सांभळ तो खरो के तुं कोण छो? पूर्णानंदनो नाथ सच्चिदानंदस्वरूप तुं भगवान आत्मा छो. आवा स्वरूपथी खसीने शुभरागना प्रेममां पडवुं ते व्यभिचार छे. गजब वात छे, प्रभु! अहीं कहे छे-तुं तारा स्वरूपना प्रेमथी खसी जाय छे त्यारे तने रागादिभावोनो सद्भाव थाय छे अर्थात् मिथ्यात्वसहित राग-द्वेषनी उत्पत्ति थाय छे.

हवे कहे छे-‘रागादिभावोना निमित्ते द्रव्यास्रवो अवश्य कर्मबंधनां कारण थाय छे अने तेथी कार्मणवर्गणा बंधरूपे परिणमे छे.’ शुं कह्युं आ? अंदर शुद्ध ज्ञानानंदनो मीठो मधुरो अमृतमय महेरामण उछळी रह्यो छे. तेनी रुचिमांथी छूटी रागना प्रेममां आव्यो एटले जूनां कर्म जे पडयां हतां ते नवा बंधमां निमित्त थाय छे. अहीं एम कहेवुं छे के मिथ्यात्वसंबंधी राग-द्वेष उत्पन्न थतां जूनां कर्म नवा बंधमां निमित्त कारण थाय छे.

अहाहा...! आत्मा त्रणलोकनो नाथ भगवान पोते ज्ञानानंदस्वभावनो मोटो महेरामण-दरियो छे. अंतरमां आवो अतीन्द्रिय आनंदनो सागर उछळे ते कदी माझा न मूके.

‘चेलैयो सत् न चूके’ एवी वैष्णवमां एक चेलैयानी कथा आवे छे. चेलैयो करीने एक छोकरो हतो. एक दिवसे एना घरे भिक्षा माटे एक बावो आव्यो. तेणे भिक्षामां चेलैयानुं मांस माग्युं. चेलैयाना बापे कह्युं-दीकरो अत्यारे निशाळे गयो छे; ए आवे एटले एने कापीने मांस आपुं. निशाळमां चेलैयाने खबर पडी के आ माटे मने घेर बोलाव्यो छे. तो ते बोल्यो-‘चेलैयो सत् न चूके.’ गमे ते थाओ, हुं पितानी आज्ञानो भंग न करुं, मर्यादा-माझा न मूकुं. एम अहीं कहे छे-आत्मा सच्चिदानंद ज्ञानानंदनो दरियो प्रभु एनी माझा मूकीने (स्वभाव मूकीने) रागमां न जाय अने अरागी आत्मानी द्रष्टि जेने थई छे ते ज्ञानी स्वभावने छोडीने व्रतादिना प्रेममां रुचिमां न जाय. आवी वातु! समजाणुं कांई...? बापु! एणे (स्वरूपनी) समजण विना दुःखना पंथे अनंतकाळ काढयो. आ शरीरनी जुवानी अने पांच-पचास लाख रूपियानी होंशु ए तो बधी झेरनी होंशु छे. अरे! अंदर अमृतनो सागर भगवान आत्मा छे तेनी एणे ओळखाण अने रुचि करी नहि!

अहीं कहे छे-एवा अमृतना सागर भगवान आत्मानी एकवार रुचि आवी

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अने पाछी एनी रुचि छोडी रागना महिमामां चाल्यो जाय तो रागादिनो सद्भाव थवाथी ते अवश्य नवां कर्म बांधे छे. अहीं मिथ्यात्वसहितना रागादिनी वात छे.

‘टीकामां जे एम कह्युं छे के-‘‘द्रव्यप्रत्ययो पुद्गलकर्मने बंधरूपे परिणमावे छे’’ ते निमित्तथी कह्युं छे. त्यां एम समजवुं के ‘‘द्रव्यप्रत्ययो निमित्तभूत थतां कार्मणवर्गणा स्वयं बंधरूपे परिणमे छे.’’ मतलब के नवां कर्म पोते पोताथी बंधाय छे-परिणमे छे त्यारे जूनां कर्मने निमित्त कहेवामां आवे छे.

हवे आवी व्याख्या सांभळवानी-समजवानी नवराश कोने छे? छोकराओ लौकिक भणवामां मशगुल छे. वेपारीओ वेपारमां मशगुल छे अने नोकरियातो नोकरीमां मशगुल छे. पण भाई! आ समज्या विना जीवन हारी जईश हों. अनंतकाळे मनुष्यभव मळे छे; ए फरी-फरीने मळवो मुश्केल छे. आ भव तो भवना अभावनुं टाणुं छे भाई! ए भवनो अभाव थाय कयारे? के जेमां भव अने भवनो भाव नथी एवा निज चैतन्यमय आत्मानो आश्रय ले त्यारे भवनो अभाव थाय छे. आ चैतन्यमय आत्मा ए तारुं निज घर छे. तेमां तुं जा. दोलतरामजीए भजनमां कह्युं छे ने के-

‘‘हम तो कबहुँ न निज घर आये,
परघर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धरायै.

अहा! अमे वाणिया, अमे शेठ, अमे वेपारी, अमे पुरुष, अमे स्त्री, अमे पुण्यशाळी, अमे धनवान, अमे रंक, अमे पंडित, अमे मूर्ख-एम अनेक स्वांग रचीने भगवान! तुं महा कलंकित थयो. ए बधुं निजघरमां कयां छे भाई? निजघर तो एकलुं चैतन्य-चैतन्य-चैतन्य आनंदनुं धाम छे. बस एमां जा जेथी तने भवनो अभाव थशे.

हवे आ सर्व कथनना तात्पर्यरूप श्लोक कहे छेः-

* कळश १२२ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

आ कळशमां एकलुं माखण भर्युं छे. भगवान! तारा घरमां शुं छे ए जो तो खरो एम कहे छे.

‘अत्र’ अहीं ‘इदम् एव तात्पर्यम्’ आ ज तात्पर्य छे के ‘शुद्धनयः न हि हेयः’ शुद्धनय त्यागवायोग्य नथी. ल्यो, आ आखा आस्रव अधिकारना मर्मनुं रहस्य कह्युं. शुं? के ‘शुद्धनयः न हि हेयः’-परमानंदना नाथ शुद्ध चैतन्य भगवानने उपादेयपणे जाण्यो ते छोडवा योग्य नथी. पोते शुद्ध चिदानंदमय परमात्मस्वरूप छे. एने जाणीने जे एनो आश्रय लीधो ते त्यागवा-योग्य नथी एम कहे छे.

आ सिवाय बे-पांच करोड के अबजनी धूळ (संपत्ति) भेगी थाय तो ते कांई


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चीज नथी. एने तुं मारी मारी कहे पण भगवान! ए तो जड छे; ए कयां तारामां छे? एवी रीते आ शरीर पण माटी-धूळ छे. ए जड पुद्गलनी चीज छे ते तारा चैतन्यस्वरूप कयांथी थाय? वळी अंदरमां आ जे पुण्य-पापना भाव थाय छे ए पण तारी चीज नथी; ए तो आस्रव छे, आस्रवनी चीज छे, जड छे, केमके चैतन्यनो अंश एमां कयां छे? (नथी)

तेथी तो आ सिद्धांत-रहस्य कह्युं के ‘शुद्धनय त्यागवायोग्य नथी. त्रण लोकना नाथ सर्वज्ञ परमात्मानी दिव्यध्वनिनुं रहस्य आ छे के-शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप भगवान आत्मा जे उपादेय छे ते कोई क्षणे के कोई कारणे छोडवा योग्य नथी; अने राग जे अनादिथी पर्यायमां उपादेय कर्यो छे ते ग्रहण करवा योग्य नथी, अर्थात् छोडवा योग्य छे. आ टूंकी अने टच सार वात छे.

अहा! अत्यारे संप्रदायमां तत्त्वना विरह पडया एटले लोकोने आ वात सांभळतां दुःख लागे छे. एमने थाय छे-शुं अमे व्रत ने तप करीए छीए ते धर्म नहि? आमां तो अमारी वात बधी खोटी पडे छे.

बापु! तने दुःख थाय तो क्षमा करजे भाई! पण मार्ग तो आ छे अने सत्य पण आ ज छे. तारो ए भगवान (आत्मा) पूर्णानंद प्रभु छे ते क्षमा आपे भाई! भगवान! तारी वात बधी खोटी होय अने खोटी पडे एमां तारुं हित छे. आमां कोई व्यक्तिनो विरोध के तिरस्कार नथी. ‘सत्वेषु मैत्री’, बधा ज भगवान छे, द्रव्ये साधर्मी छे त्यां कोनाथी विरोध? अमने तो बधा प्रत्ये वात्सल्य छे, कोई प्रति द्वेष नथी. ज्ञानीने तो कोईनो अनादर न होय. आ तो वस्तुनुं स्वरूप अने मार्गनी रीत जेम छे तेम अहीं कहे छे.

एक आर्या मळ्‌यां हतां ते कहेतां हतां-बार प्रकारना तपना भेदमां प्रथम ‘अनशन’ एटले आहार छोडवो तेने शास्त्रमां तप कह्युं छे; अने तप छे ते निर्जरा छे अने निर्जराने भगवाने मोक्षमार्ग कह्यो छे. माटे तमे बीजुं गमे ते कहो पण उपवास छे ते तप छे, निर्जरा छे अने धर्म छे.

अहा! आवी वात, हवे शुं थाय? भाई! हुं आहारनो त्याग करुं छुं अने उपवासने ग्रहण करुं छुं एवो भाव ते उपवास नथी; ए तो अपवास एटले के माठो वास छे, केमके एवी मान्यता मिथ्यात्व छे.

आत्मामां एक ‘त्यागउपादानशून्यत्व’ नामनी शक्ति छे जेना कारणे आत्मामां कोई पण परद्रव्यनां ग्रहण-त्याग छे ज नहीं. भगवान आत्मा तो अनादिथी परद्रव्यना ग्रहण- त्यागरहित ज छे. फक्त एणे पर्यायमां रागने पडकयो छे तेने


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त्यागवो अने शुद्ध चैतन्यस्वभावने छोडयो छे एने ग्रहण करवो-बस आ वात छे. अहो! जुओ, संतो परमात्मानी वाणीनुं रहस्य कहे छे. मूळमां (कळशमां) तात्पर्य कीधुं छे ने! प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, के द्रव्यानुयोग होय, चारे अनुयोगनुं तात्पर्य वीतरागता छे. पंचास्तिकाय, गाथा १७२ मां सर्व शास्त्रोनुं तात्पर्य वीतरागता कह्युं छे.

अहीं पण ए ज कहे छे के भगवान पूर्णानंदनो नाथ चैतन्य महाप्रभु जेने उपादेयपणे अनुभव्यो ते त्यागवायोग्य नथी. सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्माना त्यागथी ज-एनो अनादर-अरुचि करवाथी ज बंधन छे. स्वभावनो त्याग ए ज बंधन छे अने एनो अत्याग ए ज अबंधन अर्थात् मुक्ति छे.

कोईने (अज्ञानीने) एम थाय के आमां ते शुं समजवुं? (एम के कोई दया, दान, व्रत, तपनी क्रिया करवानी वात कहे ए तो समजवा योग्य छे.) बापु! आ समज्ये ज छूटको छे, अन्यथा नरक अने निगोदना भव करी-करीने तारां छोतां नीकळी जशे. आजेय जेने लोको जीव मानवाने हा न पाडे एवा निगोदना अनंत जीवो छे. त्यां अक्षरना अनंतमा भागे उघाड रही गयो छे जेनी कोई गणतरी नथी. भगवान! आ समज्या विना अनंतकाळ तुं आवी स्थितिमां रह्यो हतो. बापु! स्वरूपनी समजणनो त्याग करे तो एनुं परंपरा फळ निगोद ज छे. समजाणुं कांई...?

छहढाळामां कह्युं छे के-

‘‘लाख बातकी बात यही, निश्चय उर आनो;
तोरि सकल जग द्वंद-फंद, नित आतम ध्याओ.’’

ल्यो, सर्व शास्त्रोनुं आ रहस्य!

शुद्धनय त्यागवायोग्य नथी; केम? ‘हि’ कारण के ‘तत्–अत्यागात् बन्धः नास्ति’ तेना अत्यागथी बंध थतो नथी अने ‘तत्–त्यागात् बन्धः एव’ तेना त्यागथी बंध ज थाय छे.

अहाहा...! शुद्ध चिदानंदघन प्रभु परमात्मस्वरूपे अंदर विराजी रह्यो छे तेने जेणे उपादेय करी सत्कार्यो, सन्मान्यो, आश्रयभूत कर्यो ते हवे त्यागवायोग्य नथी केमके एना अत्यागथी अर्थात् ग्रहणथी-आश्रयथी बंध थतो नथी. शुद्ध आनंदकंद प्रभु आत्मानो त्याग न थाय. जुओ आ त्याग अने अत्यागनी व्याख्या!

वस्तु आत्मा अतीन्द्रिय आनंदनो शुद्ध चैतन्यगोळो छे. एनी पर्यायमां पुण्य-पाप आदि विकार हो, पण वस्तुना स्वभावमां ए छे नहि. आवी वस्तुने जे सम्यग्द्रष्टिए


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अनुभवी, आदरी, सत्कारी, स्वीकारी वा उपादेयपणे ग्रहण करी तेने कर्मबंधन थतुं नथी. अहाहा...! निज चैतन्यवस्तुना अत्यागथी कर्मबंधन थतुं नथी.

अहीं तो भाई! एक आत्मानी ज वात छे. दुनियाने रुचे न रुचे, दुनिया माने न माने एनी जवाबदारी दुनियाने छे. अहा! दुनिया स्वतंत्र छे. तीर्थंकरना जीवे पण पूर्वे मिथ्यात्वादि अनंत पाप कर्यां हतां. ए पण अनादिथी एकेन्द्रियपणे निगोदमां हता. तेमणे पण ज्यारे तरवाना उपायने पकडयो, पोताना शुद्ध आत्माने उपादेय कर्यो अने एमां ज ठर्या त्यारे तर्या छे. समजाणुं कांई...?

संप्रदायमां तो ‘मा हणो, मा हणो’ ए भगवाननो उपदेश छे एम प्ररूपणा करे छे; पण परने हणी कोण शके? अने परनी दया पाळी कोण शके? एक पण पर पदार्थनी अवस्थाने बीजो कोण करी शके? अहीं तो एम कह्युं के शुद्ध आत्माने ग्रहण करी वीतरागता प्रगट करवी ए भगवाननो उपदेश छे. अहीं तो पूर्णानंदना नाथ भगवान आत्माने उपादेय करी एनो जेने अत्याग छे एने कर्मबंधन नथी एम कहे छे. अरे! एने सत्य सांभळवा मळ्‌युं त्यारे पण एणे ऊंधाई ज ऊंधाई करी छे. एम के आ तो एकांत छे; व्यवहार-शुभराग करतां करतां ज आत्मा उपादेय थाय. शास्त्रमां कयांक लख्युं होय के व्यवहार साधन छे तो तेने चोंटी पडे पण त्यां निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे एम मर्म समजे नहि. सवारे तो आव्युं हतुं के व्रत ने नियम ए कांई कार्यकारी नथी अर्थात् एनाथी आत्मानुं कार्य थाय (आत्मानी निर्मळ पर्याय प्रगट थाय) एम छे नहि.

अहीं तो आ स्पष्ट वात छे के भगवान आत्मानो अत्याग ते अबंध छे अने तेना त्यागथी बंधन ज छे. कोई कर्मने लईने आम छे (बंधन छे) एम वात नथी. कर्मना जोरने लईने भगवान आत्मानो त्याग थाय अने कर्म मंद पडे तो तेनो अत्याग रहे एम छे नहि. (कर्म तो बाह्य निमित्तमात्र छे).

अहा! त्रिलोकनाथ सर्वज्ञ परमात्माने सांभळवा महाविदेहक्षेत्रमां एकावतारी इन्द्रो स्वर्गमांथी आवे छे अने जंगलमांथी सेंकडो सिंह, वाघ अने मोटा मोटा नाग चाल्या आवे छे. अहाहा...! ए वाणी केवी होय? शुं आ करो ने ते करो-एम करवानी कथा भगवाननी होय? (ना). भगवाननी दिव्य वाणीमां तो एम आव्युं के -आत्मा राग विनानी परिपूर्ण चैतन्यस्वभावथी भरेली चीज छे जेमां एक समयनी पर्यायनो पण नास्तिभाव छे. आवी पोतानी चीजनो जेणे स्वीकार करी आश्रय कर्यो तेने कर्मबंधन होतुं नथी अने जेणे पोतानी चीजनो अनादर करी त्याग कर्यो तेने अवश्य कर्मबंधन थाय छे.

बाह्य त्याग करे एने कर्मबंधन न होय एम नहि अने बाह्य त्याग नथी कर्यो


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एने कर्मबंधन होय एम पण नहि. गजब वात भाई! बहारमां स्त्री-कुटुंबपरिवार, दुकान- धंधा आदि छोडीने बेसे तो मोटो त्याग कर्यो एम दुनिया कहे पण शेनो त्याग कर्यो? परद्रव्योनेएणे के दि’ ग्रह्या हता के एनो त्याग कर्यो? अहीं तो त्रिकाळी शुद्ध स्वरूपनुं ग्रहण अने रागनो त्याग ए ज वास्तविक ग्रहण-त्याग छे जे अबंधनुं कारण छे. ज्यारे त्रिकाळी स्वरूपनो त्याग अने रागनुं ग्रहण ए बंधनुं कारण छे पछी भले बाह्य त्याग गमे तेटलो होय, आवो परमेश्वरनो वीतराग मार्ग छे भाई!

त्रिलोकीनाथ परमात्मा एम कहे छे के अंदरमां शुद्ध चैतन्यमूर्ति आनंदघन भगवान आत्मानी रुचि-द्रष्टि छोडीने रागनो-शुभरागनो प्रेम अने आदर करे छे ए अज्ञानी बहिरात्मा बाळक छे. अने जेणे द्रष्टिमांथी रागनो त्याग करी निज शुद्ध चैतन्यतत्त्वनो आदर कर्यो ते अंतरात्मा युवान छे अने एमांथी परमात्मा थाय त्यारे ते वृद्ध (वर्धमान) थयो. बाकी आ शरीरनी बाळ, युवा अने वृद्धावस्था ए तो जडरूप जडनी छे.

हवे आवी व्याख्या अने आवी वात मांड कोई दि’ सांभळवा मळे अने मांड पकडाय त्यां वळी लाकडां ऊंधां गरी गयां होय के-कांईक व्रत करे, तप करे तो धर्म थाय-ए आनो निर्णय करे कयारे? अने निर्णय थया विना शुद्धात्मानुं ग्रहण केम थाय? अरे भाई! धर्मीने एवो राग-व्यवहार आवे छे, थाय छे खरो पण ए आचरवा लायक नथी, छोडवा लायक ज छे. हजु परमात्मा पूर्ण पर्यायमां प्रगट थयो नथी छतां ते पूर्णस्वरूप छे ते ज उपादेय छे, आदरणीय अने आचरणीय छे आवी वात छे.

फरी, ‘‘शुद्धनय छोडवा योग्य नथी’’ एवा अर्थने द्रढ करनारुं काव्य कहे छेः-

* कळश १२३ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘धीर–उदार–महिम्नि अनादिनिधने बोधे धृतिं निबध्नन् शुद्धनयः’ धीर (चळाचळता रहित) अने उदार जेनो महिमा छे एवा अनादिनिधन ज्ञानमां स्थिरता बांधतो शुद्धनय-

जुओ, शुं कहे छे? भगवान आत्मा धीर एटले शाश्वत स्थिर चळाचळता रहित छे. वळी ते उदार छे अर्थात् विश्वना गमे तेटला (अनंत) ज्ञेयो होय तोय ते सर्वने जाणवाना सामर्थ्य सहित छे. अहाहा...! त्रणकाळ त्रणलोकना अनंत पदार्थने जाणे एवी ज्ञानस्वभावनी उदारता छे. करे कोईने नहि अने जाणे सर्वने एवा उदार स्वभाववाळो छे. जे आवे तेने पैसा आपे एने लोको उदार माणस छे एम नथी कहेता? एम ज्ञानस्वभाव सर्वने जाणे एवो उदार छे.

एक भाई पूछता हता के-महाराज! सिद्ध परमात्मा शुं करे? कोईनुं भलुं-बुरुं करे के नहि?


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त्यारे कह्युं के-भाई! सिद्ध परमात्मा परनुं कांई न करे, फक्त पोताना अतीन्द्रिय आनंद अने वीतरागी शांतिनो अनुभव करे. (निजानंदरसमां लीन रहे). त्यारे ए भाई कहेवा लाग्या -अमे साधारण माणस छीए तोय अमे केटलायनुं भलुं करीए छीए अने सिद्ध भगवान कोईनुं कांई न करे तो ए भगवान केवा? जुओ आ मिथ्याभाव! अमे परनुं करीए छीए, जीव परनां कार्य करे एवुं जे कर्तापणानुं अभिमान ते मिथ्यात्व छे, केमके आत्मा परनुं धूळेय (कांई पण) करतो नथी -करी शकतो नथी. समजाणुं कांई...?

अहो! त्रणकाळ त्रणलोकने जाणे एवी ज्ञाननी शक्तिनी उदारता छे. अरे! एना श्रुतज्ञानमां पण परोक्षपणे लोकालोकने जाणे एटली ताकात छे. अल्पज्ञानमां पण लोकालोक जणाय एटली एनी ताकात छे. शक्तिए उदार छे अने दशाए पण उदार छे, एवो एनो महिमा छे. अहा! एना महिमानां गाणां पण एणे सांभळ्‌यां नथी, अने कदाच सांभळ्‌यां होय तो सांभळीने गांठे बांध्यां नथी.

लोकमां कोई सरखाईनी गाळ आपे तो एने पचास-पचास वर्ष सुधी गांठे बांधी राखे के आणे मने आवा प्रसंगे गाळ आपी हती. आ तो दाखलो छे (एम करवुं जोईए एम नहि). तेम अहीं कहे छे-भगवान! आवा परम महिमावंत तारा आत्मानां गीत सांभळीने तुं गांठे बांध के हुं आवो छुं. भगवान! तारी परिणतिने एक वार तारा आत्मामां स्थिर कर. (परिणतिने ध्रुवना खीले बांध).

अहीं कहे छे के-धीर अने उदार जेनो महिमा छे एवा अनादिनिधन ज्ञानमां स्थिरता बांधतो शुद्धनय अर्थात् त्रिकाळी ध्रुव ज्ञायकस्वरूपनो आश्रय लईने एमां ज स्थिरता करती ज्ञाननी परिणति जेने शुद्धनय कहीए ते, कर्मणाम् सर्वंकषः’ के जे कर्मोने मूळथी नाश करवानो छे ते ‘कृतिभिः’ पवित्र धर्मी पुरुषोए ‘जातु’ कदी पण ‘न त्याज्यः’ छोडवा योग्य नथी.

अहाहा...! भगवान पूर्णानंदनो-पोतानी पूर्ण वस्तुनो आश्रय लेतां परिणतिमां शुद्धता-पवित्रता प्रगट थई, सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट थयां. हवे ते समकिती जीव कर्मोने मूळथी नाश करनारो छे अर्थात् रागनी उत्पत्ति करनारो नथी. ‘कृतिभिः’ कह्युं छे ने? एटले के धर्मात्मा जेणे आत्माना आनंदना अनुभवरूप जे कार्य करवा योग्य हतुं ते पूर्णानंदना नाथने द्रष्टिमां अने वेदनमां लईने पूरुं कर्युं छे. रागथी पोताने बहार काढी ज्ञानानंदस्वभावी आत्माना आश्रये तेणे करवा योग्य सुकृत-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र करी लीधुं छे. सुकृत एटले सत्कार्य. सम्यग्दर्शनादिरूप सत्कार्य प्रगट कर्युं होवाथी हवे ते धर्मी पवित्र पुरुष रागादिनो करनारो नथी.

तो शुं धर्मात्माने राग आवतो ज नथी?


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ना, एम नथी; धर्मी जीवने किंचित् राग आवे छे, पण ए रागनो ते कर्ता नथी; केमके तेने राग करवानो अभिप्राय नथी. ए तो स्वरूपमां स्थिर थवानो निरंतर उद्यम करीने क्रमशः रागनो अभाव ज करतो होय छे.

प्रश्नः– दया पाळवी, व्रत पाळवां, तपश्चरण करवुं इत्यादि बधां शुं सत्कार्य-सदाचरण नहि?

उत्तरः– जेमां आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे ते (सम्यक्दर्शन-ज्ञान- चारित्र) सत्कार्य नाम सत्-आचरण-सदाचरण छे. आ सिवाय व्रत, तप आदिनो राग कोई सदाचरण छे नहि. धर्मीना (व्रतादिने सदाचरण व्यवहारथी कहे छे ए बीजी वात छे).

हजु मिथ्यात्वथी पाछो फरीने पोताना चैतन्यभगवाननो स्वीकार कर्यो नथी तेना व्रतादिना रागमां तो सदाचरणनो उपचार पण संभवित नथी केमके तेने मूळ सामायिक आदि निरुपचार चारित्र कयां छे?

जेणे वीतरागमूर्ति ज्ञायकस्वरूप भगवान आत्मानो स्वीकार करीने एनो अनुभव कर्यो छे ते वीतरागताना लाभने पामे छे. सम्+आय-सामायिक; समतानो-वीतरागतानो लाभ थाय ते सामायिक छे. आत्माना भान विना (स्वानुभव विना) साचुं सामायिक होतुं नथी. ए ज प्रमाणे भगवान आनंदना नाथने पोषवो तेनुं नाम पोसह (प्रौषध) छे. रागनुं पोसाण छोडी, निर्मळानंदना नाथने द्रष्टिमां लई एमां ज पुष्ट थवुं-स्थिर थवुं ते पोसह छे. जेम चणाने पाणीमां नाखतां फूले तेम आनंदना नाथने द्रष्टिमां लई तेमां स्थिरता थतां आत्मा पुष्ट थाय तेने पोसह कहे छे. अज्ञानीने साचां सामायिक अने पोसह होतां नथी.

शुं थाय? वाते वाते (दरेक वातमां) फेर पडे अर्थात् जेने वीतरागनी आवी वात न पचे (बेसे) तेने विरोध लागे. पण बापु! मार्ग तो आ छे. ज्यारे पण सुखना पंथे जवुं हशे त्यारे मार्ग तो आ ज छे.

‘कृतिभिः’ एटले सुकृतवाळा पवित्र धर्मी सम्यग्द्रष्टि पुरुषोए अंदर निज चैतन्यमय परमात्मानो जे आदर कर्यो छे ते कोई दि’ छोडवा योग्य नथी. अहा! व्रत, तप, भक्ति आदिनो विकल्प ऊठे पण पोतानी चैतन्यमय चीज छोडवा योग्य नथी. जे विकल्प आवे ते जाणवा योग्य छे. वळी प्रतिकूळताना गंज आवे, शत्रुओनां टोळां घेरी वळे के दुश्मनो डारे तोपण जेणे आत्मकल्याण करवुं छे अने जन्म-मरण रहित थवुं छे एवा पुरुषे स्वनो आश्रय छोडवा योग्य नथी. दुःखना दरियामां (संसार-समुद्रमां) तो भगवान! अनादिथी डूबकी मारी रह्यो छे. हवे ज्यारे आत्मद्रष्टि थई


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छे तो निज आत्मस्वरूपमां ज द्रष्टि स्थिर बांधवा जेवी छे. ‘ज्ञानमां स्थिरता बांधतो शुद्धनय’ एम कह्युं छे ने? एनो अर्थ ज ए छे के अंदरमां शुद्ध चैतन्यस्वरूपनो आश्रय पकडयो छे एटले शुद्धनय स्वरूपमां ज स्थिरता बांधे छे, स्वरूपथी खसतो नथी. समजाणुं कांई...?

भाई! आ तो अध्यात्मशास्त्र छे बापा! आ कोई लौकिक कथा-वार्ता नथी, आ तो भगवान आत्मा-परमात्मानी कथा छे. चिदानंद चैतन्यमय भगवाननी अंतरनी स्थिरता छोडीने व्यवहारना विकल्पनी दशाथी जीवने लाभ थाय एम कहे ते कुकथा-विकथा छे. शास्त्रमां चार प्रकारे विकथा कही छे-स्त्रीकथा, राजकथा, भोजनकथा अने चोरकथा. एनो ज विस्तार करतां ‘भावदीपिका’मां पचीस प्रकारनी विकथा कही छे. त्यां रागना विकल्पथी धर्म थाय एवी वातने विकथा कही छे.

अरे भगवान! तने तारी दया नथी? चैतन्यनो आदर छोडीने तुं रागना आदरमां गयो! प्रभु! तें तारी हिंसा ज करी छे. ‘आवो त्रिकाळ पवित्र प्रभु आत्मा ते हुं नहि अने राग ते हुं’ -एम सहजानंदस्वरूप चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मानो ईन्कार करीने अने क्षणिक पुण्य-पापना विकल्पोने स्वीकारीने भगवान! तें जीवती ज्योत एवी निज चैतन्यज्योतिनो नाश कर्यो छे. हे भाई! जो तने हिंसा-दुःखथी निवृत्तिनी इच्छा छे तो रागनी द्रष्टि छोडीने निज चैतन्यस्वरूपनी द्रष्टि कर, अने शुद्ध चैतन्यस्वरूपमां ज स्थिर थई बंधाई जा.

हवे कहे छे-‘तत्रस्थाः’ शुद्धनयमां स्थित ते पुरुषो, ‘बहिः निर्यत् स्व–मरीचिचक्रम् अचिरात् संहृत्य’ बहार नीकळता एवा पोतानां ज्ञानकिरणोना समूहने अल्प काळमां समेटीने, ‘पूर्ण ज्ञान–घन–ओघम् एकम् अचलम् शान्तम् महः’ पूर्ण ज्ञानघनना पुंजरूप, एक, अचळ, शांत तेजने-तेजःपुंजने ‘पश्यन्ति’ देखे छे अर्थात् अनुभवे छे.

जुओ, शुं कह्युं? के शुद्धनयमां स्थित एटले चैतन्यमूर्ति निज ज्ञायकभावमां स्थित ते पुरुषो बहार नीकळता एवा पोताना ज्ञानकिरणोना समूहने समेटीने अंदर ज्ञानघनना पुंजरूप अविचळ एक निज आत्मस्वरूपने अनुभवे छे. ज्ञानकिरणोना समूहने समेटीने एटले के जे ज्ञाननी पर्याय पर अने व्यवहाररत्नत्रयना अवलंबनमां बहार नीकळती हती तेने संकोचीने- रोकीने शुद्ध चैतन्यघन एवा निज परमात्मद्रव्यमां लीन-विलीन करी दे छे. अहाहा...! अहीं कहे छे -ज्ञाननां किरणो अर्थात् ज्ञाननी पर्यायो शुभाशुभभावमां आम बहार जाय छे एने हवे समेटी ले, रोकी दे, पाछी वाळ अने पोताना स्वरूपमां मग्न कर; केमके ते बन्ने भावो अठीक छे. जो तारे शांति जोईती होय तो विकल्पमां जती ज्ञाननी पर्यायने पाछी वाळ- अशुभरागथी तो पाछी वाळ पण व्रत, तप आदि शुभरागथी पण पाछी वाळ. ज्ञान भेदना लक्षे सूक्ष्म पण विकल्पमां रोकाई रहे ए बधुं नुकशान छे भाई! केमके पोताना भगवानमांथी बहार


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नीकळती ज्ञाननी पर्यायो परावलंबी थाय छे. स्वावलंबन छोडी परावलंबी थवुं ए नुकशान ज छे, दुःख ज छे, समजाणुं कांई...?

भाई! आ तो समजीने अंदर पोतामां शमाई जवानी वात छे. कहे छे-भर्युं घर छे ने प्रभु! तारुं; अरे! एमांथी बहार नीकळवुं तने केम गोठयुं? अहा! देव-गुरु-शास्त्रमां जती पर्याय पण परावलंबी अने रागयुक्त छे. द्रष्टिमां तो एनो निषेध कर्यो छे. पण हवे अंतःस्थिरता करी एने (परावलंबनने, रागने) छोडी दे. ‘अल्पकाळमां समेटीने’ एम लीधुं छे ने? मतलब के शीघ्र काम ले, विलंब न कर, लांबो काळ न थवा दे हवे; भगवान! तुं अल्पकाळमां ‘अचिरात्’ एटले तत्काळ पाछो वळी जा. हवे आवो मार्ग! अरे भाई! एनो निर्णय तो कर के मार्ग आ छे, बीजो कोई नहि. अहो! आ तो एक एक कळश एकला अमृतथी भरेलो छे. आचार्य अमृतचंद्रे आ पंचमकाळमां अमृत वरसाव्यां छे. अहो! ‘अमृत वरस्यां रे पंचमकाळमां!’

‘बहार नीकळता एवा पोताना ज्ञानकिरणोना समूहने’ -अहा! आ भाषा तो जुओ,. ज्ञाननी पर्यायो पोते बहार नीकळे छे, परने अवलंबी परावलंबी थाय छे; कोई कर्मने लईने परावलंबी थाय छे एम नहि. कर्म शुं करे? कर्म तो निमित्तमात्र छे. कर्म निमित्त छे पण कर्म (उपादानमां) कांई करे छे एम नथी. निमित्त उपादाननुं करे तो ते निमित्त कहेवाय नहि. कोईए संदेशमां (छापामां) लख्युं छे के-सोनगढवाळा निमित्तनो निषेध नथी करता, निमित्त नथी एम नथी कहेता पण निमित्त परना (उपादानना) कार्यना कर्ता नथी एम कहे छे. वात तो एम ज छे बापा! निमित्त छे अवश्य पण निमित्त परमां कांई करे छे ए वात नथी.

हवे एवा पुरुषो केवा आत्माने अनुभवे छे ते कहे छे. भाई! तुं कोण छो अने तारे कयां जवुं नाथ? अनादि अनंत धीर अने उदार एवा एक ज्ञानघनना पुंजरूप तुं तत्त्व छो, अहाहा...! ज्ञान-ज्ञान-ज्ञान सामान्य अभेद एक छे तेमां जे विशेष-भेद पडे छे त्यांथी (भेदना लक्षथी) पाछो वळी सामान्यमां जा; त्रिकाळी ज्ञानघन भगवान अनादिथी एक समयनी पर्यायमां रमतु रमतो हतो ए रमतु फेरव अने निजानंदघनस्वरूपमां रमतु मांड एम कहे छे. तेथी तने पूर्णज्ञानघननो पुंज परमात्मस्वरूपे अंदर विराजी रह्यो छे ते देखाशे. केवो छे ते? तो कहे छे ज्ञाता द्रष्टाना स्वभावे भरेलो ते ‘एक’ छे अर्थात् अभेद छे. वळी ते ‘अचळ’ अर्थात् चैतन्यस्वरूपथी चळे नहि तेवो छे. वळी शांत तेजपुंज छे अर्थात् अविकारी शांतिना तेजनो गोळो छे.

अहाहा...! बहार जती पर्यायोने बहारमांथी पाछी वाळी त्यां अंदरमां आवो आत्मा देखे छे-अनुभवे छे. भाई! आ भगवाननी वाणी छे. कुंदकुंदाचार्य तो एना आडतिया छे. अहो! एकलां हितनां अमीझरणां छे. भगवान! तारा आत्माना हितनी


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वात सांभळीने होंश करजे-हा पाडजे, ना न पाडीश. ‘ना’ पाडीश तो कयांय नरक-निगोदमां चाल्यो जईश; अने हा पाडीश तो हालत थई जशे. अस्थिरता छोडी दईने स्वभावमां जईश तो शांत-अकषाय तेजने अनुभवीश. ‘अनुभवे’ छे एम कह्युं ने? एटले के प्रत्यक्ष अनुभवे छे-वेदे छे.

कलकत्तामां बनेली एक घटना छे. मा, बाप अने एमनो दीकरो एक दिवस सांजे फरवा नीकळ्‌यां. त्यां त्रणे होडीमां बेठां. होडीमां बीजा पण सात-आठ माणस हतां. एवामां पेला छोकराए होडीनी बहार पग काढयो अने बन्युं एम के एक मगरमच्छे एनो पग पकडय ो. होडीवाळाए आ जोयुं अने कहेवा लाग्यो-अरे भाई! ए छोकराने फेंकी दो नहितर जोतजोतामां आखी होडी डूबी जशे केमके मगरमच्छे तेनो पग पकडयो छे. जो तमे न फेंकी शको तो मारे ए काम करवुं पडशे. हवे करवुं शुं? मा-बाप मुंझायां; पण रोषे भराईने होडीवाळाए झडप करवा कह्युं. आखरे माबापे छोकराने सगा हाथे दरियामां फेंकी देवो पडयो-करे पण शुं? नहि तो बधां ज डूबी मरत. जेनुं जतन करीने रक्षा करी तेने ज मारी नाखवानी तैयारी?

एम भगवान कहे छे-भाई! तारी होडी भवसमुद्रमां न डूबे माटे एमांथी (भवना भावमांथी) खसी जा अने आम अंदरमां (चैतन्यस्वरूपमां) जा. रागे तने भवसमुद्रमां अंदर खेंची नाख्यो छे; चाहे शुभराग हो तोपण ते संसारसमुद्रनो महा मगरमच्छ छे. ए तने भवसमुद्रमां डूबाडीने ज रहेशे. माटे रागना पाशमांथी खसी जा अने तारा अंतःस्वरूपमां लीन थई जा. आवी वात छे.

त्यारे एक दाक्तर वळी कहेता हता के जो आपणे आ बधी महाराजनी वात सांभळीशुं तो आ संसारनुं कांई करी शकीशुं नहि. अरे भाई! संसारनुं कोण करी शके छे? बापु! ए जडनी क्रिया तो स्वयं जडथी थाय छे. आ आंखमां दवानुं टीपुं नाखे अने आंख ऊंची-नीची थाय ए क्रिया जडनी (आंखना परमाणुओनी) छे. अज्ञानीने एम लागे छे के जाणे ए क्रिया आत्मा (पोते) करे छे. धूळेय आत्मा करतो नथी, सांभळने. बापु! तने खबर नथी के एमां (एवी क्रियामां) तने जे कर्तापणानुं अभिमान थाय ए मिथ्यात्वभाव छे अने ए मिथ्यात्व तने चारगतिमां रझळावी मारशे; तने एमांथी बहार नीकळवुं मुश्केल पडशे. भाई! मिथ्यात्वनुं परंपरा फळ निगोद छे ज्यांथी अनंतकाळे नीकळी त्रस थवुं मुश्केल छे.

लाठीनी आ वात छे. अढार वर्षनी एक रूपाळी छोडी हती. एना पतिने बे वर्षनुं परणेतर, पहेली वहु मरी गई पछी आनी साथे तेने बीजी वारनुं लग्न हतुं. एने शीतळा नीकळ्‌या, आखा शरीरे दाणा-दाणा फूटी नीकळ्‌या. अहा! दाणे-दाणे


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ईयळो पडी. तळाईमां सूतेली ज्यां पडखुं फेरवे त्यां पारावार वेदना थाय. बिचारी रुवे-रुवे- रुवे, चीस पाडीने भारे आक्रंद करे. एनी माने कहे-बा में आ भवमां तो आवां पाप कर्यां नथी अने आवी पीडा! पीडा-पीडा-पीडा-असह्य पीडा, पण नरकनी पीडाथी तो अनंतमा भागे हो.

एक छोडी हती. एने हडकायुं कूतरुं करडेलुं. ते एवी तो वेदनाभरी राड नाखे के-मने कोई मारी नाखो, माराथी आ सहन थतुं नथी, मने पवन नाखो; अरे! शुं थाय छे एनी मने खबर पडती नथी. अहा! अडतालीस कलाक आम ने आम राड नाखती मरी गई. एवी भयानक पीडा के जोनार पण त्रासी ऊठे.

भाई! आनंदनो नाथ भगवान पोते ज्यारे उलटो पडे त्यारे एनी पर्यायमां आवां भयानक दुःख ऊभां थाय छे. भाई! आवां दुःख तें अनंतवार सहज कर्या छे. पण भूली गयो तुं. अहीं तने तेनुं स्मरण करावी ए दुःखने मटाडवानो आचार्य उपाय बतावे छे तेने तुं ग्रहण कर.

* कळश १२३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘शुद्धनय, ज्ञानना समस्त विशेषोने गौण करी तथा परनिमित्तथी थता समस्त भावोने गौण करी, आत्माने शुद्ध, नित्य, अभेदरूप एक चैतन्यमात्र ग्रहण करे छे अने तेथी परिणति शुद्धनयना विषयस्वरूप चैतन्यमात्र शुद्ध आत्मामां एकाग्र-स्थिर थती जाय छे.’

जुओ, शुद्धनय, आ मति-श्रुत आदि जे ज्ञानना भेदो पडे छे-जेने समयसार गाथा २०४ मां ते भेदो एक अभेदने ज अभिनंदे छे एम कह्युं छे-ते भेदोने तथा कर्मना निमित्तथी थता समस्त पुण्य-पापना विकारी भावोने गौण करीने एक चैतन्यमात्र शुद्ध ज्ञायकने ज ग्रहण करे छे. गौण करीने एटले के भेद अने विकार परनुं लक्ष छोडी दईने द्रव्यना लक्षे शुद्धताना अंशो वधता जाय छे अने ए वधता जता अंशो एक अभेदने ज अभिनंदे छे. ए भेदो उपर लक्ष करवायोग्य नथी एम अहीं कहे छे.

ते भावोने ‘गौण करीने’ एम कह्युं छे, अभाव करीने-एम नहि. समयसार गाथा ११ मां व्यवहारनयने गौण करीने अभूतार्थ कह्यो छे, अभाव करीने नहि. मुख्य अने गौण एवा बे भेद तो ज्ञानमां पडे छे, श्रद्धामां नहि. धर्मीने तो सदा पोतानी शुद्ध चैतन्यमय चीज उपर ज द्रष्टि होय छे.

बीजी वात-मुख्य ते निश्चय अने गौण ते व्यवहार-एम वस्तुनुं स्वरूप छे; निश्चय ते मुख्य अने व्यवहार ते गौण-एम नहि. (जो एम थाय तो परनी अपेक्षाए पर्याय पण निश्चयनो विषय छे तेथी पर्याय पण आश्रयरूप मुख्य थई जाय). बेमां बहु फेर छे.


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त्रीजी वात-समयसार गाथा १६ ना कळशमां भेदने मेचक-मलिन कह्यो छे; पण ए छे, निश्चयसहित भेद-मलिनता एवो व्यवहार छे; व्यवहार नथी एम नहि; नहितर तो वेदांत थई जाय.

हवे आ वातने समजता नथी एटले अमुक लोको कहे छे के-भगवान कुंदकुंदाचार्ये समयसारने वेदांतना ढांचामां ढाळी दीधुं छे. आवा लोकोने तत्त्वनी कांई खबर ज नथी. अरे भाई! वेदांतमां अनंत संसारी आत्मा, अनंत सिद्ध परमात्मा इत्यादि वात छे ज कयां?

अहीं (जैनमां) तो जेम पोते एक आत्मा एवा अनंत भिन्न भिन्न आत्माओ अने एथी पण अनंतगुणा भिन्न भिन्न रजकणो इत्यादि बधुं छे. पण शुद्धनय तेने गौण करे छे. ए तो ठीक पण दया, दान, व्रत आदि जे शुभ विकल्प ऊठे तेने तथा एक समयनी पर्यायने पण गौण करी-लक्ष छोडी शुद्धनय आत्माने शुद्ध, अभेद, नित्य, एक चैतन्यमात्र ग्रहण करे छे.

अहाहा...! जेने अहीं शुद्ध, नित्य, अभेदरूप एक चैतन्यमात्र कह्यो एने ज समयसार गाथा १४-१प मां अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नित्य, अविशेष अने असंयुक्त कह्यो छे, एने ज समयसार गाथा ७ मां ज्ञान, दर्शन अने चारित्रना भेदने गौण करीने एक शुद्ध ज्ञायकभाव कह्यो छे. केमके छद्मस्थ रागी जीवने भेद उपर लक्ष जतां राग-विकल्प थया विना रहेता नथी तेथी ज भेदने गौण करीने शुद्धनय त्रिकाळी अभेद द्रव्यने ग्रहण करे छे. गाथा ११ मां एने ज भूतार्थ कह्यो छे. भाई! आ एकरूप ज्ञायकभाव ज मुख्य छे, मोटो छे. एनां ज मोटप अने महत्ता छे. अरे भगवान! एने छोडी बहारमां कोनां मान अने कोनां सन्मान? बहारनां मान अने मोटपमां तुं मरी गयो पण अंदर मोटो भगवान छे त्यां गयो ज नहि!

अहाहा...! अनंतवार हजारो राणीओ छोडी तथा पंचमहाव्रत पाळीने दिगंबर साधु थयो, पण रमतु बधी पर्यायमां ज रम्यो, एक वार पण द्रव्यमां-ध्रुवमां आव्यो नहि; अंदर भगवान चैतन्यनो दरियो भर्यो छे तेमां डूबकी लगावी नहि. पंचमहाव्रतना रागनी रुचिनी आडमां त्रिकाळी शुद्ध ज्ञायकस्वरूपनी द्रष्टि थई नहि, पछी स्थिरतानी तो वात ज कयां रही? अरे भगवान! जेनी द्रष्टि राग अने पर्याय पर छे ते मोटो साधु थयो होय तोय मिथ्याद्रष्टि छे अने ते मिथ्यादर्शनना कारणे देह छोडीने चोरासीना अवतारमां चाल्यो जशे; ऊंधी श्रद्धाना लोढमां तणातो तणातो नरक ने निगोदमां चाल्यो जशे. शुं थाय? एवा (मिथ्यादर्शनना) परिणामनुं एवुं ज फळ छे.

ज्यांसुधी पूर्णानंदनी पूर्ण प्राप्ति थई नथी त्यांसुधी भेद तो उत्पन्न थाय ज. पण ए भेदने गौण करीने-बाजु पर एककोर राखीने शुद्धनय एक, अभेद चैतन्यमात्रने


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ग्रहण करे छे. एक एटले वेदांत जेम बधा थईने एक कहे छे एम नहि; आ तो वस्तु पोते एकरूप-भेद विनानी सामान्य जे छे तेने एक कहे छे. प्रवचनसार गाथा १७२ मां अलिंगग्रहणना १प मा बोलमां बधुं थईने एक सर्वव्यापक आत्माने माननारने पाखंडी कह्या छे.

अहीं कहे छे-शुद्धनय एक अभेदरूप चैतन्यमात्र वस्तुने ग्रहण करे छे अने तेथी परिणति शुद्धनयना विषयभूत चैतन्यमात्र आत्मामां एकाग्र-स्थिर थाय छे. अहाहा...! जेणे पोतानी ज्ञाननी पर्यायने अभेद तरफ वाळी छे ए क्रमे-क्रमे अभेदमां एकाग्र थती जाय छे. रागनी एकाग्रता छूटी स्वभावनी एकाग्रता थई त्यां परिणति शुद्ध थई-सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान थयुं अने ते पछी विशेष एकाग्र थतां चारित्र थयुं.

‘ए प्रमाणे शुद्धनयनो आश्रय करनारा जीवो अल्पकाळमां बहार नीकळती ज्ञाननी विशेष व्यक्तिओने संकेलीने, शुद्धनयमां (आत्मानी शुद्धताना अनुभवमां) निर्विकल्पपणे ठरतां सर्व कर्मोथी भिन्न, केवळज्ञानस्वरूप, अमूर्तिक पुरुषाकार, वीतराग ज्ञानमूर्तिस्वरूप पोताना आत्माने देखे छे अने शुकलध्यानमां प्रवृत्ति करीने अंतर्मुहूर्तमां केवळज्ञान प्रगटावे छे. शुद्धनयनुं आवुं माहात्म्य छे. माटे शुद्धनयना आलंबन वडे ज्यां सुधी केवळज्ञान उपजे नहि त्यां सुधी सम्यग्द्रष्टि जीवोए शुद्धनय छोडवा योग्य नथी एम श्री गुरुओनो उपदेश छे.’ ल्यो, कुंदकुंद, अमृतचंद्र आदि संतोनो आ उपदेश छे एम कहे छे.

पहेलां विकल्प सहित पण निर्णय तो कर के मार्ग आ छे. विकल्प सहितना निर्णयमां पण नक्की तो कर के भेदने लक्षमांथी छोडी अभेदनी द्रष्टि थतां जे अनुभव थाय ते सम्यग्दर्शन छे अने पछी एमां ज स्थिरता जामती जाय ते चारित्र छे, अने ते चारित्रमां अंतर्मुहूर्त शुकलध्यानपणे प्रवर्ततां केवलज्ञान थाय छे. आ रीत छे.

हवे, आस्रवोनो सर्वथा नाश करवाथी जे ज्ञान प्रगट थयुं ते ज्ञानना महिमानुं काव्य कहे छेः-

* कळश १२४ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘नित्य–उद्योतं’ जेनो उद्योत (प्रकाश) नित्य छे एवी ‘किम् अपि परमं वस्तु’ कोई परम वस्तुने ‘अन्तः सम्पश्यतः’ अंतरंगमां देखनारा पुरुषने, ‘रागादीनां आस्रवाणाम्’ रागादिक आस्रवोनो ‘झगिति’ शीघ्र ‘सर्वतः अपि’ सर्व प्रकारे ‘विगमात्’ नाश थवाथी, ‘एतत् ज्ञानम्’ आ ज्ञान ‘उन्मग्नम्’ प्रगट थयुं-

जुओ, जेनो ज्ञानप्रकाश नित्य छे एवी अभेद एकरूप द्रव्यवस्तुने अंतरंगमां जेवी छे तेवी प्रत्यक्ष देखनार पुरुषने रागादिक आस्रवोनो सर्व प्रकारे शीघ्र नाश


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थवाथी आ ज्ञान प्रगट थयुं एटले केवळज्ञान प्रगट थयुं. जेम फूलनी कळी सर्व पांखडिये खीली नीकळे तेम ज्ञानना परिपूर्ण सामर्थ्यरूप ज्ञानस्वरूप भगवानमां पूर्ण एकाग्र थतां ज्ञान केवळज्ञानरूपे खीली नीकळ्‌युं. अहीं रागनी कोई क्रिया करवाथी खीली नीकळ्‌युं एम नहि, रागनो तो नाश करीने खीली नीकळ्‌युं छे; एकाग्रतानी अंतःक्रिया वडे खीली नीकळ्‌युं छे. आवी वात!

‘रागादिक आस्रवोनो नाश थवाथी’ एम कह्युं ने! त्यां कोईने थाय के-ल्यो, आमां क्रमबद्ध कयां रह्युं? तो कहे छे-भाई! क्रमबद्ध ज रह्युं-क्रमबद्ध ज छे. स्वभावमां एकाग्र थनार जीव रागादिनो अभाव करीने अल्पकाळमां मुक्ति पामे एवो ज एनो क्रम होय छे. रागनो सर्वथा अभाव थईने केवळज्ञान प्रगट थयुं ए क्रमबद्ध ज छे -समजाणुं कांई...?

हवे कहे छे-आ ज्ञान प्रगट थयुं-‘स्फारस्फारैः’ के जे ज्ञान अत्यंत अत्यंत (-अनंत अनंत) विस्तार पामता ‘स्वरसविसरैः’ निजरसना फेलावथी ‘आ–लोक अन्तात्’ लोकना अंतसुधीना ‘सर्वभावान्’ सर्व भावोने ‘प्लावयत्’ तरबोळ करी दे छे अर्थात् सर्व पदार्थोने जाणे छे-लोक-अलोक बधाने जाणी ले छे. ‘प्लावयत्’ एम कह्युं ने? मतलब के पूरणपोळी जेम घीमां तरबोळ थई जाय छे तेम समस्त लोकालोकने ज्ञान तरबोळ करी दे छे अर्थात् आखा लोकालोकने जाणी ले छे. आनाथी विरुद्ध जे ज्ञान रागनी साथे एकता करे छे ते ज्ञान डूबी जाय छे एटले के पर्यायमां ढंकाइ जाय छे. वस्तुनो आदर करी तेमां ज एकाग्र थतां शक्तिनो विस्तार फेलाव थाय छे अने जेम हजार पांखडिये गुलाब खीली नीकळे तेम अनंतगुणनी पांखडिये आत्मा खीली नीकळे छे.

केवुं छे ते ज्ञान? तो कहे छे-‘अचलम्’ जे ज्ञान प्रगट थयुं त्यारथी सदाकाळ अचळ छे अर्थात् प्रगटया पछी सदा एवुं ने एवुं ज रहे छे-चळतुं नथी; गुलाबनी कळी तो खील्या पछी बे-चार दिवसमां करमाई जाय पण केवळज्ञान तो एक वखत प्रगटया पछी एवुं ने एवुं ज रहे छे. वळी ‘अतुलं’ जे ज्ञान अतुल छे अर्थात् एना तुल्य बीजुं कोई नथी, उपमा विनानुं निरुपम छे. अहाहा...! केवळज्ञान थतां जाणे बधुं अने करे कोईनुं नहि. आवी वातो ने आवो धर्म! आथी केटलाक कहे छे के सोनगढमां तो एकली निश्चय-निश्चयनी वातो करे छे. पण भाई! निश्चय एटले ज परमार्थ परम सत्य अने व्यवहार एटले उपचार-अपरमार्थ.

अहो! आ तो भगवाननी ध्वनिनी मीठी मधुरी मोरलीनो नाद! गाजीने कहे छे- भगवान! तारा स्वरूपमां अंदर जतां तने आनंद प्रगटशे, एमां ज विशेष एकाग्र थतां तने चारित्र-शांति वृद्धि पामशे अने परिपूर्ण एकाग्र थतां केवळज्ञान प्रगट थशे. अहा! ए केवळज्ञान अचळ अने अतुल छे.


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हवे आवो आत्मा एणे सांभळ्‌योय नथी. आत्माने (-पोताने पामर मानीने एणे एने मरणतोल करी नाख्यो छे. परथी सुख माने ए बधा पर्याये पामर छे. ज्यां पांच-पचास लाखनुं धन थाय के बायडी कांईक सारी रूपाळी मळे, के दीकरो कमाउ पाके त्यां माने के अमे सुखी छीए. कांईक संजोग ठीक मळे के संजोगना मोहमां तणाई जाय. अरे भाई! आ शुं थयुं तने? तारी अनंती महत्ता भूलीने तुं परनी महत्तामां मूर्छाई गयो! बापु! एथी तो तारा चैतन्यस्वरूपनो घात थयो छे.

अरे भाई! जेनां जीवन आम ने आम अज्ञानमां चाल्या जाय छे ए बधा ढोरमां जई नरक-निगोदमां चाल्या जशे. तत्त्वनो विरोध करनारा निगोददशाने पामे छे, अने तत्त्वनुं आराधन करनारा अविचळ मोक्षदशाने पामे छे. बाकीनी बे-नरक अने स्वर्गनी गति तो शुभाशुभभावनुं फळ छे. (खरेखर तो बे ज गति छे).

आ वेपारादि वडे पैसानी कमाणी थाय ए तो बधी पापनी कमाणी छे. अंदर निज चैतन्यभगवाननुं शरण लेतां पवित्रतानी कमाणी थाय छे. अहो! अंदर आखुं चैतन्यनिधान पडयुं छे ने? अनंत सत्नुं सत्त्व, अनंतगुण-स्वभावनी खाण अंदर पडी छे. अहाहा...! अनंत गुणनुं गोदाम, अनंत शक्तिओनुं संग्रहस्थान प्रभु आत्मा छे. एनी पर्यायमां राग थाय ए एने मोटुं नुकशान छे. ज्ञानीने वचमां व्रतादिनो व्यवहार-राग आवे छे पण छे ए नुकशान. ज्ञानी तेने अंतःएकाग्रताना अभ्यास वडे दूर करे छे अने अंतरमां परिपूर्ण एकाग्रता करी केवळज्ञान उपजावे छे. आवुं केवळज्ञान सदा अचल अने अतुल छे एम अहीं कहे छे.

* कळश १२४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जे पुरुष अंतरंगमां चैतन्यमात्र परम वस्तुने देखे छे अने शुद्धनयना आलंबन वडे तेमां एकाग्र थतो जाय छे ते पुरुषने, तत्काळ सर्व रागादिक आस्रवभावोनो सर्वथा अभाव थईने, सर्व अतीत, अनागत ने वर्तमान पदार्थोने जाणनारुं निश्चळ, अतुल केवळज्ञान प्रगट थाय छे. ते ज्ञान सर्वथी महान छे, तेना समान अन्य कोई नथी.’

प्रश्नः– दरेक द्रव्यनी पर्याय क्रमबद्ध छे अने भगवानना केवळज्ञानमां वर्तमान जणाई रही छे तो पुरुषार्थ करवो कयां रह्यो?

उत्तरः– दरेक द्रव्यनी पर्याय क्रमबद्ध छे अने जे समये जे पर्याय थवानी ते समये ते ज थशे एम जेने यथार्थ निर्णय थयो तेने तो स्वभावनी अंतर्द्रष्टि-पूर्वक सम्यग्दर्शन थयुं अने ए ज पुरुषार्थ छे. पर्यायबुद्धि-पर्यायद्रष्टि दूर थईने अंतर्द्रष्टि-द्रव्यद्रष्टि थाय तेने ज क्रमबद्धनो यथार्थ निर्णय होय छे अने ते ज पुरुषार्थ छे. क्रमबद्धना निर्णयमां आखुं कर्तापणुं छूटी अकर्तापणुं वा ज्ञातापणुं प्रगट थाय छे.

आगळनी टीकाः– आ रीते आस्रव (रंगभूमिमांथी) बहार नीकळी गयो.


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भावार्थः– ‘आस्रवनो स्वांग रंगभूमिमां आव्यो हतो तेने ज्ञाने तेना यथार्थ स्वरूपे जाणी लीधो तेथी ते बहार नीकळी गयो.’ पुण्य-पापना भाव दुःखस्वरूप छे अने भगवान आत्मा आनंदस्वरूप छे एवुं भेदज्ञान थतां आत्मा आत्मामां ठर्यो-स्थित थयो अने त्यारे आस्रवनो नाश थई गयो; तेने आस्रवनो स्वांग रंगभूमिमांथी नीकळी गयो एम कहे छे. ‘योग कषाय मिथ्यात्व असंयम, आस्रव द्रव्यत आगम गाये’

आ निमित्तरूप जे द्रव्यास्रवो छे ते कह्या. हवे- ‘राग विरोध विमोह विभाव अज्ञानमयी यह भाव जताये’

आ पंक्तिमां भावास्रवनी वात कही छे. हवे त्रीजी पंक्तिमां कहे छे- ‘जे मुनिराज करै इनि पाल सुरिद्धि समाज लये सिव थाये’

जे मुनिराज निज निर्मळ विज्ञानघन-स्वभावमां ठरे छे एणे रागनी आडे पाळ बांधी दीधी छे अने ते आनंद आदि अनंतगुणनी वृद्धिने पामी मोक्षमां जाय छे. अहाहा...! अतीन्द्रिय आनंदनो सागर भगवान ज्यारे आस्रवने रोके छे त्यारे एनी पर्यायमां अतीन्द्रिय आनंदनो उभरो आवे छे. ए एनी रिद्धि ने वैभव छे. ‘समाज’ एटले अनंतगुणनी पर्यायमां वृद्धि थईने मोक्षने पामे छे. छेल्ली पंक्तिमां पंडित श्री जयचंदजी कहे छे-

‘काय नवाय नमुं चित लाय कहूं जय पाल लहूं मन भाये.’

चित्तने स्वरूपमां लावीने काया वडे नमन करुं छुं; एकलुं कायाथी नमुं छुं एम नहि. आवी तैयारीवाळा संतो शिवपदने पामे छे; एमनो जय थयो छे एम जाणीने एनी हुं भावना भावुं छुं.

आम श्री भगवान कुंदकुंदाचार्य-रचित समयसार, आस्रव अधिकार परनां परमपूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामीनां प्रवचन समाप्त थयां.