Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 179-180.

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थाय ए वात सांभळी नथी ज्यारे मिथ्याद्रष्टिए रागथी-परथी आत्मा भिन्न छे ए वात सांभळी नथी. मिथ्याद्रष्टिए राग करवो, राग करवो ए ज वात अनंती वार सांभळी छे केमके एनुं ज एने वेदन छे.

रागद्वेषमोह न होय त्यां सम्यग्दर्शननी उपपत्ति छे अर्थात् मिथ्यात्वरूप मोह अने अनंतानुबंधी रागद्वेष ज्यां नथी त्यां सम्यग्द्रष्टिपणुं छे. रागद्वेषमोहना अभाव विना सम्यग्द्रष्टिपणुं बनी शकतुं नथी. रागथी लाभ थाय एवो जे मिथ्यात्वभाव तेना अभाव विना सम्यग्द्रष्टिपणुं होई शकतुं नथी. रागना कर्तापणाना भाव विनानुं सम्यग्द्रष्टिपणुं छे. अहाहा...! चैतन्य महासत्ता साक्षात् परमात्मस्वरूपे अंदर बिराजे छे तेने राग करुं एवी बुद्धिना अभाव विना सम्यग्द्रष्टिपणुं संभवित नथी. हवे कहे छे-

‘रागद्वेषमोहना अभावमां तेने (सम्यग्द्रष्टिने) द्रव्यप्रत्ययो पुद्गलकर्मनुं (अर्थात् पुद्गलकर्मना बंधननुं) हेतुपणुं धारता नथी कारण के द्रव्यप्रत्ययोने पुद्गलकर्मना हेतुपणाना हेतुओ रागादिक छे.’ मतलब के जीव जो रागद्वेषमोहभावे परिणमे तो जडकर्मनो उदय छे ते नवा बंधनुं कारण थाय छे. परंतु ज्ञानीने तो रागद्वेषमोहभाव छे नहि तेथी तेने पूर्वना द्रव्यकर्मोनो उदय नवा बंधनो हेतु थतो नथी. नवा बंधना हेतुमां निमित्त द्रव्यकर्म छे पण जीव द्रव्यकर्मना उदयमां जोडाई रागद्वेषमोह करे तो ते नवा बंधनो हेतु थाय छे. अस्थिरताना बंधनी अहीं वात नथी.

‘माटे हेतुना अभावमां हेतुमाननो (अर्थात् कारणनुं जे कारण तेना अभावमां कार्यनो) अभाव प्रसिद्ध होवाथी ज्ञानीने बंध नथी.’ ज्ञानीने रागद्वेषमोहनो अभाव होवाथी नवीन बंध नथी.

भाई! संसारनी कडाकूटथी छूटीने आ तत्त्व सांभळवानो-समजवानो परिचय करवो जोईए. लौकिकमां कांईक पुण्य सारुं होय अने पांच-पचास लाखनी संपत्ति थई होय एटले खुश थाय; पण भाई! ए तो बधुं धूळधाणी छे. ए बधाने मारुं माने छे ए तो महामूर्ख छे केमके आत्मा तो परद्रव्यने अडतोय नथी. आ दीकरा मारा, पत्नी मारी, संपत्ति मारी एम माने पण ए बधी चीज कयां तारामां आवी छे? वा तुं एमां कयां गयो छे? छतां ए मारी छे एम माने ए तो मिथ्यात्वभाव छे; ए मिथ्यात्वभावना गर्भमां अनंता जन्म-मरणनां दुःख पडेलां छे. समजाणुं कांई...?

त्यारे कोई कहे छे-जेनी साथे हस्तमेळाप करी परण्यो होय, साथे पचीस-पचास वर्ष रह्यो होय छतां ए स्त्री पोतानी नहि?

अरे भाई! ए स्त्री तो तारी नहि पण एना प्रत्ये जे आसक्ति थाय छे ते


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पण तारी नहि. बहु आकरी लागे पण वात तो आ छे. कोईने एकनो एक छोकरो होय अने सारी खानदान रूपाळी कन्या साथे तेना लग्ननो प्रसंग होय एटले छोकरानी मा अंदरथी खूब मलावा करे, घांटा ताणी-ताणीने गाय; बीजा कहे के आम तो साद बेसी जशे तो कहे-कयां वारंवार आ अवसर आववानो छे? अमारे तो आ पहेलो अने छेल्लो छे. अहा! केवुं गांडपण! गांडानां ते कांई जुदां गाम वसतां हशे! वळी घरना छोकरानी वहु आवे एटले सरस रूपाळो झरी भरेलो पांच हजारनो साडलो लावी आप्यो होय ते पहेरावी तेने बहार मोकले. त्यारे बीजा तेना तरफ नजर नाखे एटले आ खुशी थाय. अरे! जोनारा बीजी नजरे जोता होय त्यां आ जाणे के मारो साडलो बहार पडे छे; मारो साडलो छे ते पहेरावीने हुं बहार पडुं छुं-प्रसिद्ध थाउं छुं. आवुं छे; दुनियानुं बधुं पोकळ जोयुं छे. नाच्या नथी पण नाचनाराने जोया छे. अरे मूर्ख! कयां गई तारी बुद्धि? आ शुं थयुं तने? आ रागद्वेषमोहना भाव तने अनंत जन्म-मरण करावशे. अंदर रागरहित चैतन्यस्वरूप छे तेनी द्रष्टि करी रागद्वेषमोहरहित थई जा. रागद्वेषमोहरहित थतां तने नवो बंध नहि थाय.

* गाथा १७७–१७८ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अहीं, रागद्वेषमोहना अभाव विना सम्यग्द्रष्टिपणुं होई शके नहि एवो अविनाभावी नियम कह्यो त्यां मिथ्यात्वसंबंधी रागादिकनो अभाव समजवो. मिथ्यात्व संबंधी रागादिकने ज अहीं रागादिक गणवामां आव्या छे. सम्यग्द्रष्टि थया पछी कांईक चारित्रमोहसंबंधी राग रहे छे तेने अहीं गण्यो नथी; ते गौण छे.’

अहाहा...! अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीतरागी शांति तथा अनंत आनंदरूप जे अपरिमित आत्मस्वभाव छे तेना उपर द्रष्टि पडतां तथा तेमां एकाग्र थतां जेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान अने आनंदनो अंश प्रगट थाय छे ते सम्यग्द्रष्टि छे. एवा सम्यग्द्रष्टिने रागद्वेषमोहनो अभाव छे कारण के तेने रागद्वेषथी भिन्न निज चैतन्यस्वरूपना आश्रये स्वालंबी द्रष्टि प्रगट थई छे. ज्यां सम्यग्द्रष्टिपणुं होय त्यां रागद्वेषमोह न होय अने रागद्वेषमोह न होय त्यां ज सम्यग्द्रष्टिपणुं होय छे एवो अविनाभावी नियम छे.

ज्यां स्वभावनी रुचि नथी अने रागनी रुचि छे त्यां मिथ्यात्वसंबंधी रागद्वेषमोह समजवा, ज्यां रागनी रुचि छे एवी मिथ्यात्वनी अवस्थामां ज थता रागद्वेषने रागद्वेष गणवामां आव्या छे. जेने मिथ्यात्वना नाशपूर्वक ज्ञानीपणुं प्रगट थयुं छे तेने मिथ्यात्वसंबंधी रागद्वेषमोह होता नथी. अस्थिरताना रागद्वेषनी वात अहीं गौण छे. अहा! पुण्य-पापना विकल्पमां पोतानुं स्वरूप ज्यां सुधी मान्युं हतुं त्यां सुधी


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(पोतानो) भगवान द्रष्टिमांथी खोवाई गयो हतो, परंतु ज्यां विकारना (स्वरूपपणे) स्वीकारनो त्याग करीने द्रष्टिमां निज शुद्ध चैतन्यस्वरूपने ग्रहण कर्युं त्यां तेने मिथ्यात्वसंबंधीना रागद्वेष होता नथी.

शास्त्रोमां जे एम आवे छे के छठ्ठे गुणस्थाने जे पंचमहाव्रतना परिणाम छे ते आस्रव छे अने दसमे गुणस्थाने पण जे अबुद्धिपूर्वकनो राग छे ते आस्रव छे अने तेनाथी छ कर्म आवे छे ते अस्थिरतानी अपेक्षाए वात छे. अस्थिरताना रागने अहीं गण्यो नथी.

अहीं तो मूळ वस्तु जे अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदनो सागर शुद्ध चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा तेना तरफ द्रष्टि थई अर्थात् परिणामनो वळांक शुद्ध चैतन्यमय द्रव्यस्वभाव उपर गयो तेने मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधीना रागद्वेष होता नथी ए वात छे. चारित्रमोह संबंधी किंचित् राग होय छे पण एमां एने रुचि अने प्रेम कयां छे? एनुं एने स्वामित्व कयां छे? नथी; केमके राग दुःखरूप छे एम धर्मीने जाणपणुं थई गयुं छे. तेथी धर्मीना ते अल्प रागने अहीं गण्यो नथी. जे रागना एक अंशने पण पोतानो माने छे वा अंशमात्र रागनी जेने रुचि छे तेना रागद्वेषने रागद्वेष गणवामां आव्या छे.

संसारनी जड जे मिथ्यात्व तेनो जेणे पोताना अनंत अनंत शक्तिओना पिंडरूप चैतन्यमय भगवानना आश्रये नाश कर्यो तेनुं संसारनुं मूळ कपाई गयुं छे. अहाहा...! आवो ज्ञानी लडाईना अशुभ रागमां के छन्नु हजार राणीओना विषयमां ऊभेलो देखाय तोपण ते चारित्रमोहसंबंधी अल्प राग छे अने तेने अहीं गण्यो नथी. जेम कोई मोटी आंबलीना झाडनुं मूळ कापी नाख्या पछी पांदडां रहे एनी गणतरी शुं? थोडा दिवसोमां ज ते सूकाई जशे. तेम मिथ्यात्वनुं मूळियुं कपाई गया पछी धर्मीने अस्थिरतानो अल्प राग रहे तो थोडा ज काळमां नाश पाम्या विना रहेतो नथी. आ अपेक्षाए अस्थिरताना अल्प रागने अहीं गण्यो नथी. गण्यो नथी एटले एनो अभाव छे एम नहि, परंतु एनी मुख्यता नथी वा एने गौण कर्यो छे एम अर्थ छे.

लोकोने मूळ पाप मिथ्यात्व छे एनी खबर नथी. एटले रागनी कंईक मंदता के बहारनो त्याग जुए एटले जाणे धर्म थई गयो एम माने; स्त्री-पुत्र-परिवारने छोडे एटले जाणे संसार छूटी गयो एम समजे. परंतु भाई! रागनी रुचि, रागनुं कर्तापणुं के जे संसारनुं मूळ छे ते ज्यां सुधी साबूत (जीवंत) छे त्यांसुधी संसारनुं परिभ्रमण छूटतुं नथी. राग तो आग छे, अशांति छे, दुःख छे. रागने ज्यां सुधी लाभरूप वा कर्तव्यरूप माने त्यां सुधी बहारथी गमे तेवो त्याग देखाय छतां तेने संसार ऊभो ज रहे छे.


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हवे कहे छे-‘आ रीते सम्यग्द्रष्टिने भावास्रवनो अर्थात् रागद्वेषमोहनो अभाव छे. द्रव्यास्रवोने बंधना हेतु थवामां हेतुभूत एवा रागद्वेषमोहनो सम्यग्द्रष्टिने अभाव होवाथी द्रव्यास्रवो बंधना हेतु थता नथी, अने द्रव्यास्रवो बंधना हेतु नहि थता होवाथी सम्यग्द्रष्टिने- ज्ञानीने बंध थतो नथी.’

अहाहा...! पोतानो भगवान अतीन्द्रिय आनंदना स्वभावथी सर्वांग छलोछल भरेलो सच्चिदानंद प्रभु छे. एनी जेने द्रष्टि थई, वलण थयुं ते सम्यग्द्रष्टि छे. अहा! सम्यग्दर्शन थतां तेने जेनी (शुद्ध चैतन्यतत्त्वनी) किंमत करवी हती तेनी किंमत (-द्रष्टि) थई गई अने जेनी (-रागनी) किंमत नहोती तेनी किंमत (-रुचि) गई, पछी भले थोडो अस्थिरतानो राग हो, एनी कांई किंमत (-विसात) नथी. आ अपेक्षाए सम्यग्द्रष्टिने रागद्वेषमोहनो अभाव छे. अने रागद्वेषमोहनो अभाव होवाथी द्रव्यास्रवो एटले पूर्वे बंधायेलां जडकर्मो तेने बंधनुं कारण थतां नथी. तेथी सम्यग्द्रष्टि-ज्ञानीने बंध थतो नथी.

अहो! समयसारनी एके-एक गाथा चैतन्य-चमत्कारथी भरेली छे. आत्मा पोते चैतन्य-चमत्कार वस्तु छे. अहा! ए अनुपम अलौकिक चिंतामणि रत्न छे. ज्यां अंदर नजर करी के अतीन्द्रिय आनंदमय चैतन्यरत्न सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. परंतु अरे! अज्ञानीए अनंतकाळमां ज्यां नजर करवानी हती तेना उपर नजर न करी अने धर्मना नामे पुण्य अने परद्रव्य उपर ज नजर करी! परिणामे एनो संसार मटयो नहि. अहीं कहे छे-ज्ञानीने पुण्यभाव होवा छतां एनी द्रष्टि चैतन्य-चिंतामणि भगवान आत्मा उपर छे. आठ वर्षनी बालिका सम्यग्दर्शन पामे त्यारे एनी द्रष्टि विज्ञानघन एवा निज चैतन्यतत्त्वमां निमग्न होय छे; निमित्त, राग के पर्याय उपर एनी द्रष्टि होती नथी अने तेथी तेने नवीन बंध थतो नथी.

द्रष्टि द्रव्यमां निमग्न थाय छे एनो अर्थ पर्याय द्रव्यमां भळी जाय छे एम नथी. पूर्वना जे परिणाम रागमां एकाकार हता तेनो व्यय थई वर्तमान परिणाम निज ज्ञायकभाव तरफ ढळ्‌या त्यां ए परिणाम द्रव्यमां लीन-निमग्न थया एम कहेवामां आवे छे. (प्रगट) पर्यायमां पूर्ण द्रव्यनुं ज्ञान तथा प्रतीति आवे पण ए पर्याय द्रव्यमां भळी जाय एम अर्थ नथी.

हवे आगळ कहे छे-‘सम्यग्द्रष्टिने ज्ञानी कहेवामां आवे छे ते योग्य ज छे.’ चोथे गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टिने ज्ञानी कहेवामां आवे छे, पछी भले ते नरकनो नारकी होय, तिर्यंच होय, मनुष्य होय के देवनो जीव होय. अनंत अनंत चैतन्यना प्रकाशनुं पूर प्रभु आत्मा छे तेने जेणे स्वानुभवमां जाण्यो ते ज्ञानी छे, पछी भले तेने शास्त्रनुं विशेष जाणपणुं न होय. पुण्य अने पुण्यना फळथी अधिक-जुदो चैतन्यमय भगवान अंतरमां जेवो छे तेवो जेणे जुदो जाण्यो ते ज्ञानी छे.


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हवे तेनो विशेष खुलासो करे छे-‘ज्ञानी’ शब्द मुख्यपणे त्रण अपेक्षाए वपराय छेः- (१) प्रथम तो, जेने ज्ञान होय तेने ज्ञानी कहेवाय; आम सामान्य ज्ञाननी अपेक्षाए तो सर्व जीवो ज्ञानी छे. बधा आत्मा ज्ञानस्वरूप ज छे ते अपेक्षाए बधा आत्मा ज्ञानी कहेवाय. अहीं सम्यक्त्व-मिथ्यात्वनी अपेक्षाए नथी.

(२) सम्यक्ज्ञान अने मिथ्याज्ञाननी अपेक्षा लेवामां आवे तो सम्यग्द्रष्टिने सम्यग्ज्ञान होवाथी ते अपेक्षाए ते ज्ञानी छे अने मिथ्याद्रष्टि अज्ञानी छे. अहा! अगियार अंग अने नव पूर्वनुं ज्ञान होवा छतां जेने ज्ञानस्वरूप निज भगवान आत्मानुं भान (-ज्ञान) नथी अने रागनी रुचि अने अधिकता छे ते बधा मिथ्याद्रष्टि अज्ञानी छे. अगियार अंग पैकी पहेला अंगमां अढार हजार पद होय छे अने एक एक पदमां एकावन करोड जाजेरा श्लोक होय छे. बीजामां एथी बमणा, त्रीजामां एथी बमणा; एम बमणा बमणा करतां जे पद थाय ते अगियार अंगनुं ज्ञान अने नव पूर्वनी लब्धि जे भणवाथी न प्रगटे पण रागनी अति मंदताने लईने अंदरथी एवी लब्धि प्रगटे-एटलुं बधुं ज्ञान होवा छतां शुद्ध चैतन्यना भान विना ते अज्ञानी छे. जाणनारने जाणे ते ज्ञानी छे अने जाणनारने न जाणे ते अज्ञानी छे. आवो वीतरागनो मार्ग छे. शुं थाय? अनंतकाळमां जाणनारने जाण्यो नहि अने बीजी माथाफूट करी-शास्त्रो भण्यो, जगतने उपदेश पण आप्यो. पण जाणनारने जाण्या विना, देखनारने देख्या विना अने आनंदना माणनारने माण्या विना बधा जीवो मिथ्याद्रष्टि अज्ञानी छे.

(३) संपूर्ण ज्ञान अने अपूर्ण ज्ञाननी अपेक्षा लेवामां आवे तो केवळी भगवान ज्ञानी छे, अने छद्मस्थ अज्ञानी छे कारण के सिद्धांतमां पांच भावोनुं कथन करतां बारमा गुणस्थान सुधी अज्ञानभाव कह्यो छे.

अल्पज्ञाननी अपेक्षाए बारमा गुणस्थान सुधी अज्ञान गणवामां आव्युं छे. मिथ्यात्वनुं अज्ञान जुदुं अने ज्ञाननी कमीरूप अज्ञान जुदुं. बारमे गुणस्थाने मोहनो बिलकुल नाश अने पूर्ण अकषायभाव होवा छतां केवलज्ञानीने जेवी ज्ञाननी पूर्णता छे तेवी नथी ते अपेक्षाए तेने अज्ञानी कहेवामां आवे छे.

एक बाजु शास्त्रमां सम्यग्द्रष्टिने मात्र आत्मानुं ज्ञान होय छतां ज्ञानी कहे अने मिथ्याद्रष्टिने अगियार अंग अने नवपूर्वनी लब्धि प्रगट होय छतां अज्ञानी कहे; बीजी बाजु पूर्णज्ञान पर्यायमां प्रगटयुं छे एवा केवळज्ञानीने ज्ञानी कहे अने ज्ञाननी अपूर्णतानी अपेक्षाए बारमे गुणस्थाने पूर्ण वीतरागता प्रगट थई गई होवा छतां तेने अज्ञानी कहे; आ बधी विवक्षानी विचित्रता छे ते यथार्थ समजवी जोईए. आ प्रमाणे अनेकांतथी अपेक्षा वडे विधिनिषेध निर्बाधपणे सिद्ध थाय छे; सर्वथा एकांतथी कांई पण सिद्ध थतुं नथी.


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हवे ज्ञानीने बंध थतो नथी ए शुद्धनयनुं माहात्म्य छे माटे शुद्धनयना महिमानुं काव्य कहे छेः-

* कळश १२०ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘उद्धतबोधचिन्हम् शुद्धनयम् अध्यास्य’ उद्धत ज्ञान (-कोईनुं दबाव्युं दबाय नहि एवुं उन्नत ज्ञान) जेनुं लक्षण छे एवा शुद्धनयमां रहीने अर्थात् शुद्धनयनो आश्रय करीने...

जुओ, जे उन्नत ज्ञान प्रगट थाय छे ते त्रिकाळी द्रव्यने ज गणे छे. जे ज्ञाननी पर्याय अंदर द्रव्यमां वळेली छे ए अगियार अंग अने नवपूर्वनुं ज्ञान जाणपणुं होय तेने पण गणतुं नथी. स्वना ज्ञान विनाना ज्ञानने उद्धत ज्ञान गणतुं नथी. उद्धत ज्ञान बे प्रकारेः-(१) त्रिकाळी ज्ञानस्वरूप वस्तुने उद्धत ज्ञान कहीए अने (२) तेने जाणनार शुद्धनयनुं परिणमन तेने पण उद्धत ज्ञान कहीए. स्वना आश्रये प्रगट थयेलुं भेदज्ञान स्वने ज गणे छे. जे ज्ञानमां भगवान आत्मा आवतो नथी ते ज्ञानने ज्ञान ज कहेता नथी एम अहीं कहे छे.

आ उद्धत छोकरो नथी होतो कोई? ते एना बापने, माने कोईने गणतो नथी. तेम शुद्ध त्रिकाळीने ग्रहण करनार शुद्धनय उद्धत छे; ते कोईने गणतो नथी. स्वने गणनारुं ते ज्ञान कोई परने गणतुं नथी.

त्रिकाळी ज्ञान कोईथी दबायुं दबे नहि तेम त्रिकाळी ज्ञानने जाणनारुं-गणनारुं ज्ञान पण कोईथी दबायुं दबतुं नथी. ज्ञानावरणीयनो उदय ते ज्ञानने दबावे एम छे नहि. ज्ञानावरणीयने लईने अहीं (आत्मामां) ज्ञाननो घटाडो-वधारो थाय ए वात बीलकुल नथी. सम्यग्ज्ञान पोते शुद्ध अल्पज्ञ पर्यायरूप होवा छतां ते निमित्तने एटले के त्रणलोकना नाथने, रागने के अल्पज्ञताने गणतुं नथी. सम्यग्ज्ञाननी पर्यायनो नाथ तो अंतरमां रहेलो पूर्णानंद प्रभु आत्मा छे; तेने ते गणे छे के-आ मारो नाथ छे.

अरे! आत्मानी आवी वात अज्ञानीओने रुचती नथी. थोडुंघणुं जाणपणुं थाय त्यां तो एने थई जाय के हवे आपणे जाणीए छीए अने बीजाथी अधिक छीए. लोकमां पण कोईने थोडुं जाणपणुं होय अने बोलतां आवडतुं होय तो तेने ज्ञानी कहे छे अने अंदर सम्यक् जाणपणुं होय पण बोलतां न आवडतुं होय तो तेने अज्ञानी गणे छे. अहा! लोकनी मान्यतामां ज मोटो फेर छे.

अहीं कहे छे-शुद्धनयनो आश्रय करीने धर्मी-ज्ञानी सदाय एकाग्रपणानो ज अभ्यास करे छे. आत्मामां-स्वरूपमां एकाग्रता थवी ए ज वस्तु छे. प्रवचनसारमां पण आचार्य अमृतचंद्रदेवे ए ज कह्युं छे के-अमने झाझा क्षयोपशम-जाणपणानी


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आकांक्षाथी बस थाओ, अमने विशेष-विशेष जाणपणानी जरूर नथी; अमने तो अमारा स्वरूपमां ज निश्चय एकाग्र थवुं छे.

भाई! तुं एकलो ज्ञाननो पुंज, ज्ञाननो गंज, ज्ञाननुं स्थान-धाम छो. अहाहा...! ज्ञानस्वरूप ज आखी चीज छे. एवा स्वरूपनो आश्रय करीने ‘ये’ जेओ ‘सदा एव’ सदाय एकाग्रयम् एव’ एकाग्रपणानो ज ‘कलयन्ति’ अभ्यास करे छे ‘ते’ तेओ ‘सततं’ निरंतर ‘रागादिमुक्तमनसः भवन्तः’ रागादिथी रहित चित्तवाळा वर्तता थका, ‘बन्धविधुरं समयस्य सारम्’ बंधरहित एवा समयना सारने ‘पश्यन्ति’ देखे छे-अनुभवे छे.

शुं कह्युं? के स्वरूपनो आश्रय करीने तेमां ज एकाग्रतानो अभ्यास करवो ते कर्तव्य छे. महाव्रतादिनुं पालन करवुं ते कर्तव्य छे एम नहि. महाव्रतादि पाळवां ए तो राग छे, ए राग कर्तव्य केम होय? अहीं तो कहे छे-स्पष्ट कहे छे के जेओ स्वरूपनो आश्रय करीने अंतर- एकाग्रतानो अभ्यास करे छे तेओ रागादिरहित चित्तवाळा वर्तता थका बंध-विधुर एटले बंधरहित एवा समयसारने पामे छे अंतरमां परिपूर्ण एकाग्र थतां पूर्ण केवळज्ञानने पामे छे.

लोकमां पति मरी जाय तेने विधवा कहे छे अने पत्नी मरी जाय तेने विधुर कहे छे. अहीं बंध-विधुर एटले बंधरहित स्वभावना आश्रये जेने बंध मरी जाय-नाश पामी जाय तेने बंध-विधुर कहे छे. बंध-विधुर भगवान समयसारने देखे छे एटले के अंतरमां एकाग्रतानी पूर्णता थतां बंधनो सर्वथा अभाव थईने केवळज्ञानने पामे छे.

अहा! अध्यात्मनी आवी वात घणाने झीणी पडे एटले बहारमां व्रत पाळवां, संयम पाळवो, पर जीवोनी रक्षा करवी इत्यादिमां तेओ तणाई जाय छे. परंतु भाई! एवी क्रिया तो एण अनंतवार करी छे. भगवान! तें तारी (अंदर रहेला चैतन्य भगवाननी) दरकार करी नथी. अंतरमां चैतन्यहीरलो अनंत अनंत शक्ति-गुणना पासाथी चमकी रह्यो छे. अहा! ते कयां छे, केवो छे, केवडो छे अने केम जणाय तेनी तें कदीय खबर नथी करी! परिणामे अनेकविध बहारनी क्रियाओ करवा छतां तने संसार-परिभ्रमण मटयुं नहि.

प्रश्नः– तो शुं अहिंसादि धर्म नथी?

उत्तरः– भाई! अहिंसा ते धर्म छे, पण भगवान महावीरे कोने अहिंसा कही छे ते लोको जाणता नथी. भगवान! रागथी पृथक् चैतन्यतत्त्व जे रीते छे तेने ए रीते पर्यायमां प्रगट करवुं (श्रद्धवुं, जाणवुं ने आचरवुं) एनुं नाम अहिंसा


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छे. अंतरमां रहेला त्रिकाळी वीतरागभावने पर्यायमां प्रगट करवो एनुं नाम अहिंसा छे अने ते धर्म छे.

परनी दया पाळवानो भाव ए तो राग अने हिंसा छे. एवी ज रीते सत्याग्रह करी बीजाने दबाणमां लेवा ए भाव पण राग होवाथी हिंसा छे. अरे भाई! जे भावे तीर्थंकरगोत्र बंधाय के जे भावे सर्वार्थसिद्धिनुं आयुष्य बंधाय ते भाव शुभराग छे अने ते अपराध छे केमके राग छे ते आत्मस्वभावनी हिंसा करनारो भाव छे. भगवाने तो रागनी अनुत्पत्ति अने वीतरागतानी उत्पत्तिने अहिंसा कही छे.

वस्तु पोते स्वरूपथी ज अहिंसकस्वरूप एटले के वीतरागस्वरूप छे, एनी द्रष्टि अने एमां स्थिरता थतां पर्यायमां जे वीतरागता प्रगट थाय ते अहिंसा छे. सम्यक्त्वादिनी वीतरागी परिणति ते अहिंसा छे. आवी अहिंसानी परिणति कयांथी आवी? अहिंसकस्वरूप जे त्रिकाळी आत्मा छे त्यांथी (तेनो आश्रय करवाथी) आवी छे, रागमांथी के पर निमित्तमांथी नहीं.

भगवान महावीरे कोईनुंय भलुं के भूंडु कर्युं नथी. एमणे तो पोतानो (आत्मानो) जे अनादि अहिंसक स्वभाव छे तेने पर्यायमां परिपूर्ण प्रगट कर्यो छे. एटले तो भगवान वीतराग-अहिंसक छे. भाई! भगवान आत्मानुं स्वरूप ज वीतरागअहिंसक छे; तेने ओळखी तेना आश्रये वीतराग परिणति प्रगट करवी ते अहिंसा छे. ते काळे जेटलो राग उत्पन्न न थयो तेने राग छोडयो एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे.

अहिंसक आत्मानी द्रष्टि विना (सम्यग्दर्शन विना) जे कोई व्रत, तप आदि आचरे छे ते बधा मूढ छे (मिथ्याद्रष्टि छे). व्यवहारना एकांत आग्रहवाळाने आवुं सांभळीने दुःख लागे पण शुं थाय? ए दुःखनुं कारण एनी विपरीत मान्यता छे. बीजाने दुःख देवानो कोई ज्ञानीने भाव न होय.

पहेलांना वखतमां शाहूकार पासे कोई खोटा रूपिया (सिक्का) लईने आवे अने शाहूकारने ते खबर पडे तो तेने पाछा न आपे; दुकानना बारणा आगळ जे उमरो होय त्यां लाकडे तेने जडी दे, आगळ चालवा न दे. एम आ पण भगवाननी शराफनी पेढी छे; तेमां खोटुं चालवा न देवाय. भाई! आत्मानी द्रष्टि विना जे कांई व्रत, तप, भक्ति, पूजा आदिना भाव छे ते राग छे अने राग छे ते आत्मानी हिंसा छे. (राग उत्पन्न थतां चैतन्यप्राणनो घात थाय छे). भाई! परिणामने अंतरमां वाळी त्यां ज एकाग्र थया विना वस्तु (चैतन्यतत्त्व) हाथ नहि आवे. ज्यां वस्तु छे त्यां परिणामने वाळ्‌या विना वस्तुनुं ज्ञान केम थाय? एमां ज एकाग्र थया विना वस्तुनुं आचरण केम थाय? बापु! अनंत तीर्थंकरोए दिव्य-देशना द्वारा धर्म पामवानो


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आ ज मार्ग कह्यो छे अने वीतरागी मुनिवरोए तेमना आडतिया थईने ते जगतने जाहेर कर्यो छे.

भगवानने वाणी नीकळे छे ते इच्छा विना सहज नीकळे छे. अने छद्मस्थ मुनिओने जे वाणी होय छे त्यां साथे विकल्प छे; त्यां चारित्रमोहनो एटलो दोष छे. हवे आमांथी कोईने प्रश्न थाय के-राग ते हिंसा छे, तो ए राग (हिंसा) द्वारा तमारे अहिंसा समजाववी छे? एक बाजु निमित्तथी थाय नहीं एम कहो छो अने वळी निमित्त द्वारा समजावो छो-केवी वात?

समाधानः– भाई! एम न बोलाय भगवान! एनो उपकार लेवाय. (छद्मस्थ दशामां तो) राग द्वारा ज वस्तुना स्वरूपनुं कथन करी शकाय छे. समयसार गाथा ८ मां आ वात आचार्य भगवाने लीधी छे-के व्यवहार विना परमार्थ समजावी शकातो नथी.

त्यारे एमांथी कोई काढे के-ल्यो, व्यवहारथी समजी शकाय छे के नहीं? अरे भगवान! एम अर्थ नथी बापु! त्यां ज खुलासो कर्यो छे के-कहेनारे अने सांभळनारे, व्यवहार (निश्चय समजतां वचमां) आवे छे, पण व्यवहारने अनुसरवुं नहि. व्यवहारना भेद पाडया विना समजावाय नहि माटे भेद पाडीने संतो समजावे छे परंतु तेथी भेदनुं लक्ष करवुं-भेदमां ज अटकी रहेवुं एम कयां छे? लक्ष तो अभेदनुं ज करवानी वात छे. व्यवहार निश्चयनो प्रतिपादक छे तेथी दर्शाव्यो छे, परंतु व्यवहार अनुसरवा योग्य नथी एम त्यां स्पष्ट कह्युं छे. समजाणुं कांई...?

अहीं कहे छे-स्वरूपनो आश्रय करीने जेओ अंतर-एकाग्रतानो निरंतर अभ्यास करे छे तेओ रागरहित चित्तवाळा थया थका बंधरहित भगवान समयसारने देखे छे-अनुभवे छे अर्थात् अंतर-एकाग्रतानी पूर्णता करीने केवळज्ञानने प्राप्त थई जाय छे.

* कळश १२०ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अहीं शुद्धनय वडे एकाग्रतानो अभ्यास करवानुं कह्युं छे. ‘‘हुं केवळज्ञानस्वरूप छुं, शुद्ध छुं.’’-एवुं जे आत्मद्रव्यनुं परिणमन ते शुद्धनय.’

अहीं केवळ एटले केवळज्ञान पर्यायनी वात नथी. हुं केवळ ज्ञानस्वरूप एटले मात्र ज्ञानस्वरूप शुद्ध-पवित्र छुं एवुं जे आत्मद्रव्यनुं ज्ञानमय परिणमन थवुं तेने शुद्धनय कहे छे. परनी साथे तो आत्माने कांई संबंध छे नहि. परंतु पुण्य-पापना विकल्प के अल्पज्ञता ते हुं नहि एम निश्चय करी रागथी भिन्न पडी शुद्ध चैतन्यमय आत्मामां अंतर्द्रष्टि करवी तेने शुद्धनय कहे छे. समयसार गाथा ११ मां त्रिकाळीने


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शुद्धनय कह्यो छे. अहीं तेनुं जे निर्मळ ज्ञानमय परिणमन थयुं तेने शुद्धनय कह्यो केमके परिणमन थयुं त्यारे जाण्युं के पोतानी चीज (आत्मा) आ छे.

भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव जेमने बहारमां मात्र पींछी-कमंडळ अने अंतरमां प्रचुर अतीन्द्रिय आनंदनी मस्ती वर्तती हती तेओ जगतने मोटा अवाजे जाहेर करे छे के-आत्मा एक शुद्धविज्ञानघन छे जेमां शरीर ने कर्म तो शुं दया, दानना विकल्प पण अंदर प्रवेश पामी शकता नथी. ए तो सदाय चैतन्यरूप वीतरागस्वरूप छे. एनुं वीतरागतारूप परिणमन थवुं ते शुद्धनय छे अने ते मोक्षमार्ग छे. सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना परिणमनने शुद्धनयनुं परिणमन कहे छे. देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धा, शास्त्रनां जाणपणां के पंचमहाव्रतना विकल्प इत्यादिरूप जे व्यवहाररत्नत्रय ए कांई शुद्धनय नथी, मोक्षमार्ग नथी; ए तो राग छे. राग आवे छे, राग होय खरो, पण रागमां एकाग्र थई परिणमवुं ए तो महादोष छे, विपरीतता छे. अहीं तो ‘सिद्ध समान सदा पद मेरो’ एवो जे निज शुद्ध चैतन्य भगवान तेमां एकाग्र थई परिणमवुं ते शुद्धनय छे. शुद्धनय वीतरागी पर्याय छे जेमां शुद्ध चैतन्यनुं ग्रहण थाय छे.

‘आवा परिणमनने लीधे वृत्ति ज्ञानमां वळ्‌या करे अने स्थिरता वधती जाय ते शुद्धनय वडे एकाग्रतानो अभ्यास छे.’ सम्यग्दर्शनमां प्रथम आनंदनो स्वाद आव्यो पछी अंतरमां द्रष्टिना बळे झुकतां जेटली स्थिरता वधे तेटला प्रमाणमां आनंद अने शुद्धि वधतां जाय छे तेने एकाग्रतानो अभ्यास कहे छे. आवो अंतर-एकाग्रतानो अभ्यास निरंतर करवानुं कह्युं छे. व्रतादिना विकल्पनो अभ्यास करवो एम नहि पण अंतर-एकाग्रतानो अभ्यास करवानुं कह्युं छे. हवे कहे छे-

शुद्धनय ज्ञाननो अंश छे अने श्रुतज्ञान तो परोक्ष छे तेथी ते अपेक्षाए शुद्ध नय द्वारा थतो शुद्ध स्वरूपनो अनुभव पण परोक्ष छे.’ जेने आत्मानो अनुभव थाय छे, सम्यग्दर्शन थाय छे एनी पर्यायमां भावश्रुतज्ञान प्रगट थाय छे. ते भावश्रुतज्ञाननो शुद्धनय एक अंश छे. अहीं द्रव्यश्रुत जे शब्द-वाणी तेनी वात नथी केमके ए तो पर छे. अहीं तो शुद्धनय भावश्रुतज्ञाननो एक अंश छे एम वात छे. ए शुद्धनय द्वारा आत्मा प्रत्यक्ष जणातो नथी. प्रत्यक्ष तो केवळज्ञान प्रगटतां जणाय छे. छतां अनुभवना काळमां आनंदना वेदनने आत्मा प्रत्यक्ष वेदे छे. हुं आत्मा अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप छुं एवी द्रष्टि थतां पर्यायमां अतीन्द्रिय आनंद प्रत्यक्ष वेदनमां आवे छे तेने तेथी स्वानुभव प्रत्यक्ष पण कहे छे अने तेने भावश्रुतज्ञान अने जैनशासन कहे छे; (जुओ समयसार गाथा १प). वच्चे जे राग आवे ते कांई जैनशासन नथी.

शुं थाय? अत्यारे तो आ उपदेश अने प्ररूपणा ज चालती नथी. अंदर चिदानंदमय भगवान आत्माना लक्षे जे आनंदनुं वेदन-अनुभूति थाय ते सम्यग्दर्शन


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छे अने ते सौ प्रथम धर्म छे. विना सम्यग्दर्शन ज्ञान के चारित्र सम्यक् होतां नथी. विना सम्यग्दर्शन आचरवामां आवतां व्रत ने तप इत्यादि सर्व एकान्त अज्ञानमय भाव छे, संसार छे अने बंधनुं कारण छे.

‘वळी ते अनुभव एकदेश शुद्ध छे ते अपेक्षाए तेने व्यवहारथी प्रत्यक्ष पण कहेवामां आवे छे.’ जुओ, अनंतगुणनो पिंड असंख्यप्रदेशी आत्मा प्रत्यक्ष तो केवळज्ञान थतां देखाय छे पण नीचे सम्यग्दर्शनमां परोक्ष श्रुतज्ञाननी अपेक्षाए तथा श्रुतज्ञाननो पेटाभेद जे शुद्धनय तेनी अपेक्षाए आत्मानुं पूर्ण स्वरूप परोक्षपणे प्रतीतिमां आवे छे तेथी तेने व्यवहारे प्रत्यक्ष पण कहेवामां आवे छे. छतां वेदननी अपेक्षाए चोथे गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टि निर्विकल्प आनंदनुं वेदन प्रत्यक्ष पोताथी वेदे छे. अनुभव परिपूर्ण नहि पण एकदेश शुद्ध होवाथी तेने व्यवहारथी प्रत्यक्ष पण कहे छे.

‘साक्षात् शुद्धनय तो केवळज्ञान थये थाय छे.’ मतलब के पूर्ण पवित्रतानुं परिणमन केवळज्ञान थतां थाय छे. खरेखर तो केवळज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण छे अने शुद्धनय तो परोक्ष श्रुतज्ञानप्रमाणनो अंश छे. पण केवळज्ञान थतां शुद्धनयनुं पूर्ण परिणमन थई गयुं ए अपेक्षाए साक्षात् शुद्धनय तो केवळज्ञान थये थाय छे एम कह्युं छे. पर्यायमां ज्यारे त्रिकाळी वस्तु एटले के अनंतगुण अने असंख्यात प्रदेश सहित शुद्ध चैतन्यवस्तु प्रत्यक्ष थई त्यारे शुद्धनय साक्षात् पूर्ण थयो अर्थात् शुद्धनयनुं फळ प्रगट थयुं तेथी केवळज्ञान थतां साक्षात् शुद्धनय थयो एम कह्युं छे. अहाहा...! वस्तु पोतानी अपेक्षाए पोताथी तो व्यक्त-प्रगट-प्रत्यक्ष ज छे पण पर्यायमां प्रत्यक्ष भासी त्यारे शुद्धनय पूर्ण थयो एम वात छे.

हवे आवो उपदेश, ल्यो; कोईने वळी थाय के आ ते केवो उपदेश! भक्ति करवी, व्रत पाळवां, तप करवुं, उपवासादिक करवा -एवो उपदेश होय तो समजमां पण आवे. पण बापु! ए तो बधा रागना प्रकार छे; धर्मीने पण अशुभथी बचवा शुभराग आवे छे पण ए कांई धर्म नथी, जैनशासन नथी. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना परिणाम वा शुद्धनय द्वारा अंतर- एकाग्रतानो अभ्यास थाय ए ज धर्म छे. समजाणुं कांई...! भाई! आ समज्या विना ज एणे चोरासी लाख योनिमां-प्रत्येक योनिमां अनंत अनंतवार अवतार धारण कर्या छे.

हवे कहे छे-के जेओ शुद्धनयथी च्युत थाय तेओ कर्म बांधे छेः-

* कळश १२१ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘इह’ जगतमां ‘ये’ जेओ ‘शुद्धनयतः प्रच्युत्य’ शुद्धनयथी च्युत थईने... जुओ! शुद्धनयथी च्युत थईने एम कह्युं, ज्यारे हवे पछीनी गाथा १८० मां


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‘नयपरिहीनास्तु’ -बस एटलुं ज कहेशे. एनो अर्थ ए के शुद्धनयने ज त्यां नय कह्यो छे. (अर्थात् आश्रययोग्य नय एक ज छे एम कहे छे). ‘शुद्धनयथी च्युत थईने’-एना बे अर्थ- (१) शुद्ध चैतन्यस्वभावनो अनुभव एटले के सम्यग्दर्शन प्रगटतां अतीन्द्रिय आनंदनो जे अनुभव हतो एनाथी च्युत थईने मिथ्याद्रष्टि थतां अनंतसंसारनुं कारण एवा दर्शनमोहनीय कर्मने बांधे छे. (२) ज्ञाता, ज्ञेय, ज्ञानना भेदने छोडी शुद्धोपयोगमां रहेवुं ते शुद्धनय; एनाथी (शुद्धोपयोगथी) च्युत थईने जे विकल्पमां आव्यो ते पण (किंचित्) कर्मने बांधे छे. अहीं कहे छे-

जगतमां जेओ शुद्धनयथी च्युत थईने ‘पुनः एव तु’ फरीने ‘रागादियोगम्’ रागादिना संबंधने ‘उपयान्ति’ पामे छे ‘ते’ एवा जीवो, ‘विमुक्तबोधाः’ जेमणे ज्ञानने छोडयुं छे एवा थया थका, ‘पूर्वबद्धद्रव्यास्रवैः’ पूर्वबद्ध द्रव्यास्रवो वडे ‘कर्मबन्धम् विभ्रति’ कर्मबंधने धारण करे छे.

जुओ, फरीने–पुनः एम कह्युं छे ने? एनो अर्थ ए के पहेलां शुद्धनयमां आव्यो हतो अर्थात् सम्यग्दर्शन थवाथी चोथे गुणस्थाने ज्ञानीने रागनो संबंध छूटी स्वभावनो संबंध थयो हतो-अतीन्द्रिय आनंदना वेदनमां आव्यो हतो ते त्यांथी छूटीने फरीने रागना संबंधने पाम्यो. ते छूटवाना बे प्रकारः-

१. शुद्धोपयोगमां हतो ते त्यांथी छूटी विकल्पमां-रागमां आव्यो छतां सम्यग्दर्शन छे; केवळ शुद्ध उपयोगथी छूटी गयो छे.

२. सम्यग्दर्शनथी छूटी मिथ्याद्रष्टि थई गयो.

हवे एवा जीवो जेमणे ज्ञानने छोडयुं छे अर्थात् आनंदकंद स्वरूप भगवान आत्माने छोडी दीधो छे अने रागनी रुचिसहित रागने पकडयो छे तेओ पूर्वे बंधायेला द्रव्यास्रवो वडे कर्मोने बांधे छे.

सम्यग्द्रष्टि धर्मीए व्यवहाररत्नत्रय आदि समस्त रागने (अभिप्रायथी) छोडयो छे अने स्वभावने ग्रहण कर्यो छे. तेथी द्रव्यास्रवो होवा छतां ज्ञानीने रागनो संबंध नथी तेथी कर्मबंधन थतुं नथी. ज्यारे स्वरूपने छोडीने रागना संबंधमां आवे छे एवा अज्ञानी जीवोने पूर्वबद्ध कर्म नवा कर्मबंधनुं कारण थाय छे अर्थात् नवां कर्म बांधे छे-‘कृत–विचित्र– विकल्पजालम्’– के जे कर्मबंध विचित्र भेदोना समूहवाळो होय छे अर्थात् जे कर्मबंध अनेक प्रकारनो होय छे. वस्तु अबद्धस्वभाव कहो के मुक्तस्वभाव कहो, ज्यां तेनी द्रष्टि छूटीने रागना संबंधमां आव्यो त्यां ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अंतराय आदि आठ कर्मो अनेक प्रकारे बंधाय छे. अहीं मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी रागनी अपेक्षाए वात छे. सम्यग्द्रष्टिने ते प्रकारनो रागेय नथी अने बंधेय नथी.


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भाई! आ तत्त्वनी वातनो परिचय करी खूब अभ्यास करवो जोईए. बाकी तो दिगंबर साधु थईने पंचमहाव्रत लीधां, हजारो राणीओनो त्याग कर्यो, शरीरनी चामडीने उतारीने खार छांटे तोय क्रोध न कर्यो-एवुं एवुं तो घणुंय बधुं कर्युं; पण तेथी शुं? आवी क्रियाओ अनंत वार करी पण अंतरमां एक क्षण माटे साचो धर्म-सम्यग्दर्शन प्रगट कर्युं नहि. शुभराग-रागनी मंदताना शुकल लेश्याना परिणाम अनंतवार कर्या पण रागथी भिन्न पोतानी शुद्ध चैतन्यमय चीजनी द्रष्टि करी नहि तो जन्म-मरणना दुःखनो अंत न आव्यो. छहढालामां श्री दोलतरामजीए कह्युं छे ने के-

‘‘मुनिव्रत धार अनंतवार, ग्रीवक उपजायो;
पै निज आतमज्ञान विना सुख लेश न पायो.’’

स्वर्गमां ग्रीवाना स्थाने नव पाटडा छे. त्यां पुण्य करीने अनंतवार जन्म लीधो पण रागथी खसीने शुद्ध चैतन्यस्वभावनो अनुभव कदी कर्यो नहि तो लेश पण सुख न थयुं अर्थात् दुःख ज थयुं. भाई! पंचमहाव्रतादिना पालननो राग पण आस्रव अने दुःख ज छे. छहढालामां कह्युं छे के-

‘‘राग आग दहै सदा, तातै समामृत सेईए.’

शुभराग छे ते पण आग छे केमके ते कषाय छे ने! आत्माने कषे एटले दुःख दे ए शुभराग कषाय छे.

* कळश १२१ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘शुद्धनयथी च्युत थवुं एटले ‘‘हुं शुद्ध छुं’’ एवा परिणमनथी छूटीने अशुद्धरूपे परिणमवुं ते अर्थात् मिथ्याद्रष्टि बनी जवुं ते.’ शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप भगवान आत्मानो अनुभव थवो ते शुद्धनय छे. तेनाथी च्युत थवुं एटले पूर्णानंदना नाथनी जे द्रष्टि थई हती ते छूटीने हुं राग छुं, पुण्य छुं -एवी द्रष्टि थवी अर्थात् मिथ्याद्रष्टि बनी जवुं ते.

आत्मा शुद्ध चैतन्यघन प्रभु अतीन्द्रिय महापदार्थ छे. एवा चैतन्यमहाप्रभुनी अंतर्द्रष्टिपूर्वक जेने अनुभव थयो तेने शुद्धनयनुं ग्रहण थयुं अने हुं शुद्ध चिदानंदघनस्वरूप आत्मा छुं एवुं जे अतीन्द्रिय आनंदनुं परिणमन एनाथी भ्रष्ट थई रागनी एकताना अशुद्ध परिणमनमां आवी जवुं तेने शुद्धनयथी भ्रष्ट थवुं कहे छे. ‘एम थतां जीवने मिथ्यात्वसंबंधी रागादिक उत्पन्न थाय छे, तेथी द्रव्यास्रवो कर्मबंधनां कारण थाय छे अने तेथी अनेक प्रकारनां कर्म बंधाय छे.’ पुण्यना परिणाम मने लाभदायक छे एवी मिथ्या मान्यताथी परिणमतां अनंतानुबंधी रागद्वेष उत्पन्न


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थाय छे अने तेथी द्रव्यास्रवो एटले जूनां द्रव्यकर्मो नवां कर्मबंधनां कारण थाय छे, अने तेथी अनेक प्रकारनां-आठेय प्रकारनां कर्म बंधाय छे.

अहा! सम्यक् रुचि हती त्यारे रागनी उत्पत्ति ते हिंसा अने रागनी अनुत्पत्ति ते अहिंसा एम यथार्थ मानतो हतो ते रुचि पलटतां (मिथ्या रुचि थतां) फरीने एम मानवा लाग्यो के रागनी उत्पत्ति ते पण अहिंसा छे; अर्थात् परनी दयानो भाव, परने सुखी करवानो भाव, परने सहाय करवानो भाव ते धर्मी छे एम मानवा लाग्यो. अरे! शुद्धनयथी भ्रष्ट थतां आत्मानी जेमां हिंसा थाय छे तेमां अहिंसा मानवा लाग्यो.

‘आ रीते अहीं शुद्धनयथी च्युत थवानो अर्थ शुद्धताना भानथी (सम्यक्त्वथी) च्युत थवुं एम करवो.’ जुओ! जयचंदजी पंडिते केवो सरस खुलासो कर्यो छे! शुद्धनयथी च्युत थवुं एटले शुद्ध चिदानंदघनस्वरूप हुं छुं एवा विश्वासना परिणमनथी पतित थई हुं रागी अने अल्पज्ञ छुं एम मानवुं. अहा! ते आत्मा मिथ्याद्रष्टि थई गयो. शुद्धनयथी च्युत थवानो अर्थ शुद्ध स्वरूपनी प्रतीतिथी च्युत थवुं ते मुख्य छे.

‘उपयोगनी अपेक्षा अहीं गौण छे, अर्थात् शुद्धनयथी च्युत थवुं एटले शुद्ध उपयोगथी च्युत थवुं एवो अर्थ अहीं मुख्य नथी.’ शुं कीधुं आ? अंतरमां ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय एवा भेदनुं लक्ष छोडी ज्ञायकना अनुभवमां उपयोगनी जमावट थवी तेने शुद्धोपयोग कहे छे. एवा शुद्ध उपयोगथी छूटी विकल्पमां-रागमां आववुं ए अर्थ अहीं गौण छे. शुद्ध चैतन्यमहाप्रभुनो अनुभव थईने एनी प्रतीति आववी ते सम्यग्दर्शन छे. आवो सम्यग्द्रष्टि शुद्ध उपयोगमांथी छूटी अशुद्ध उपयोगमां आवे ते अर्थ अहीं मुख्य नथी पण शुद्ध स्वभावथी भ्रष्ट थई रागनी रुचिमां-प्रेममां आवी जवुं ते अर्थ मुख्य छे.

‘कारण के शुद्धोपयोगरूप रहेवानो काळ अल्प होवाथी मात्र अल्प काळ शुद्धोपयोगरूप रहीने पछी तेनाथी छूटी ज्ञान अन्य ज्ञेयोमां उपयुक्त थाय तोपण मिथ्यात्व विना जे रागनो अंश छे ते अभिप्रायपूर्वक नहि होवाथी ज्ञानीने मात्र अल्प बंध थाय छे अने अल्प बंध संसारनुं कारण नथी. माटे अहीं उपयोगनी अपेक्षा मुख्य नथी.’

शुं कह्युं आ? अहीं एम कहे छे के निज परमात्मद्रव्यना अनुभवनी स्थिरतारूप शुद्ध उपयोग-ध्याननी दशा अल्प काळ ज रहे छे. माटे अल्प काळ शुद्धोपयोगरूप रहीने, पछी एनाथी छूटी ज्ञान अन्य ज्ञेयोमां उपयुक्त थाय छे अर्थात् उपयोग अंदर


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ध्यानमां हतो ते फरीने विकल्पमां आवी जाय छे. शुद्ध उपयोगमां झाझो काळ रही शकातुं नथी एटले रागने जाणवानी दशामां आवे छे खरो; स्वना जाणपणा पूर्वक रागने जाणवानी दशामां आवे छे पण राग करवा जेवो छे एवो अभिप्राय नहि होवाथी ज्ञानीने मात्र अल्प बंध थाय छे. समकितीने अभिप्रायमां राग कर्तव्य नथी अने तेथी जे रागनो अंश उत्पन्न थाय छे तेनाथी अल्प बंध थाय छे. अल्प बंध संसारनुं कारण नहि थतो होवाथी अहीं उपयोगनी अपेक्षा मुख्य नथी.

अहाहा...! शास्त्रनी एक पण कडी यथार्थ समजे तो तेना ख्यालमां आवी जाय के अंदर वस्तु शुं छे? भाई! वस्तुनी द्रष्टि थया विना भले शास्त्रनो घणो अभ्यास होय, अने लाखो माणसोने समजाववानी शक्ति पण होय पण ए कोई चीज नथी. पोताना आत्माने पकडवानी अंतर्द्रष्टि थवी ते चीज छे. आवो सूक्ष्म मार्ग छे; तेने धीरज अने शान्तिथी अभ्यास करी प्राप्त करवो जोईए. अरे! लौकिक केळवणी पाछळ वर्षोनां वर्षो काढी नाखे छे अने आ अभ्यास माटे एने निवृत्ति मळती नथी!

प्रश्नः– लौकिक केळवणी लेवाथी तो पैसा कमावाय छे ने?

उत्तरः– भाई! पैसा तो आववाना होय तो आवे, लौकिक भणे माटे आवे छे एम नथी. लक्ष्मी तो पुण्यने लईने आवे छे; दुनियामां चतुर होय, खूब भणेलो होय एटले लक्ष्मी मळे छे ए वातमां कांई तथ्य नथी. अणघड अने अभण होय एवा पण लाखो-करोडोनी संपत्ति कमाय छे. धन मळवुं ए कांई पुरुषार्थनुं कार्य नथी, धर्म मळवो ए पुरुषार्थनुं कार्य छे अने ए ज कर्तव्य छे. धनमां शुं भर्युं छे? (धनथी सुख नथी, धर्म वडे सुख छे).

हवे कहे छे-‘हवे जो उपयोगनी अपेक्षा लईए तो आ प्रमाणे अर्थ घटे छेः-

जीव शुद्ध स्वरूपना निर्विकल्प अनुभवथी छूटे परंतु सम्यक्त्वथी न छूटे तो तेने चारित्रमोहना रागथी कांईक बंध थाय छे.’ मिथ्यात्व नथी तेथी अनंत संसारना कारणरूप बंध थतो नथी कारण के मिथ्यात्व ए ज खरेखर संसार छे. ‘ते बंध जो के अज्ञानना पक्षमां नथी तोपण ते बंध तो छे ज. माटे तेने मटाडवाने सम्यग्द्रष्टि ज्ञानीने शुद्धनयथी न छूटवानो अर्थात् शुद्धोपयोगमां लीन रहेवानो उपदेश छे,’ अंदर निर्विकल्प ठरवानो उपदेश छे.

‘केवलज्ञान थतां साक्षात् शुद्धनय थाय छे.’ खरेखर तो त्रिकाळी शुद्ध वस्तु ते शुद्धनय छे. (समयसार गाथा ११). परंतु एनो आश्रय केवळज्ञान प्रगट थतां पूर्ण थई गयो, हवे पछी आश्रय लेवानुं रह्युं नहि ए अपेक्षाए केवळज्ञान थतां साक्षात् शुद्धनय थाय छे एम कह्युं छे. शुद्धनयनो (आश्रयनो) अभाव थयो त्यारे साक्षात्


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शुद्धनय थाय छे एम कह्युं. केवळज्ञानमां नय कयां छे? त्यां तो ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण थई गयुं छे. अनंत आनंद, अनंत ज्ञान, अनंत शांति, अनंत स्वच्छता, अनंत प्रभुता पर्यायमां परिपूर्ण खीलीने प्रगट थई गयां छे. केवळज्ञान थतां तो जेवी शुद्ध वस्तु छे एवी शुद्धता प्रगट थई गई त्यां पछी नय होतो नथी. (शुद्धनयनो आश्रय होतो नथी).

बापु! तुं पोतानी जातने भूलीने कजातने (रागने) सेवी रह्यो छे. धर्म असली शुं ने नकली शुं एनी तने खबर नथी. दया, दान, व्रतादिना रागने धर्म मानवो ए नकली धर्म छे, ज्यारे अंदर चिदानंदघन पोतानो भगवान छे तेनो अनुभव करवो ते असली धर्म छे. व्यवहार धर्मने पण धर्म नाम तो छे पण ए परमार्थ धर्म नथी.

समयसार निर्जरा अधिकारमां ‘ज्ञानी धर्मने इच्छतो नथी’ एवो पाठ छे. त्यां धर्म एटले पुण्य अर्थ कर्यो छे, समकिती धर्मीने, पूर्ण वीतराग न थाय त्यां सुधी व्यवहार (शुभभाव) होय छे अने उपचारथी तेने धर्मनुं कारण (साधन) पण कह्युं छे पण ए कांई खरुं कारण नथी. (निमित्तनुं ज्ञान कराववा उपचारथी तेने कारण कह्युं छे). दया, दान, भक्ति आदिना परिणाम धर्मीने आवे छे पण एना उपर धर्मीनी द्रष्टि नथी; धर्मी तो एनो जाणनार रहे छे. जेम खेडूतनी नजर अनाज पर होय छे, घास पर नहि तेम धर्मीनी द्रष्टि चैतन्यस्वभाव पर होय छे, पुण्यभाव पर नहि. चोथे गुणस्थाने कोई समकिती छ खंडना राज्यना वैभवमां होय, छन्नु हजार राणीओना वृंदमां होय छतां ए राजवैभव के ए राणीओ मारी छे एम एनी द्रष्टि नथी. तेथी तो कह्युं छे के ‘भरत घरमां वैरागी.’ समजाणुं कांई...!

[प्रवचन नं. २४० शेष थी २४३ * दिनांक २३-११-७६ थी २६-११-७६]

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जह पुरिसेणाहारो गहिदो परिणमदि सो अणेयविहं।
मंसवसारुहिरादी भावे उदरग्गिसंजुत्तो।। १७९।।

तह णाणिस्स दु पुव्वं जे बद्धा पच्चया बहुवियप्पं।
बज्झंते कम्मं ते णयपरिहीणा दु ते जीवा।। १८०।।

यथा पुरुषेणाहारो गृहीतः परिणमति सोऽनेकविधम्।
मांसवसारुधिरादीन् भावान् उदराग्निसंयुक्तः।। १७९।।

तथा ज्ञानिनस्तु पूर्व ये बद्धाः प्रत्यया बहुविकल्पम्।
बध्नन्ति कर्म ते नयपरिहीनास्तु ते जीवाः।। १८०।।

हवे आ ज अर्थने द्रष्टांत द्वारा द्रढ करे छेः-

पुरुषे ग्रहेल अहार जे, उदराग्निने संयोग ते
बहुविध मांस, वसा अने रुधिरादि भावे परिणमे; १७९.
त्यम ज्ञानीने पण प्रत्ययो जे पूर्वकाळनिबद्ध ते
बहुविध बांधे कर्म, जो जीव शुद्धनयपरिच्युत बने. १८०.

गाथार्थः– [यथा] जेम [पुरुषेण] पुरुष वडे [गृहीतः] ग्रहायेलो [आहारः] जे आहार [सः] ते [उदराग्निसंयुक्तः] उदराग्निथी संयुक्त थयो थको [अनेकविधम्] अनेक प्रकारे [मांसवसारुधिरादीन्] मांस, वसा, रुधिर आदि [भावान्] भावोरूपे [परिणमति] परिणमे छे, [तथा तु] तेम [ज्ञानिनः] ज्ञानीने [पूर्व बद्धाः] पूर्वे बंधायेला [ये प्रत्ययाः] जे द्रव्यास्रवो छे [ते] ते [बहुविकल्पम्] बहु प्रकारनां [कर्म] कर्म [बध्नन्ति] बांधे छे;- [ते जीवाः] एवा जीवो [नयपरिहीनाः तु] शुद्धनयथी च्युत थयेला छे. (ज्ञानी शुद्धनयथी च्युत थाय तो तेने कर्म बंधाय छे.)

टीकाः– ज्यारे ज्ञानी शुद्धनयथी च्युत थाय त्यारे तेने रागादिभावोनो सद्भाव थवाथी, पूर्वबद्ध द्रव्यप्रत्ययो, पोताने (-द्रव्यप्रत्ययोने) कर्मबंधना हेतुपणाना हेतुनो सद्भाव थतां हेतुमान भावनुं (-कार्यभावनुं) अनिवार्यपणुं होवाथी, ज्ञानावरणादि भावे पुद्गलकर्मने बंधरूपे परिणमावे छे. अने आ अप्रसिद्ध पण नथी (अर्थात्


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(अनुष्टुभ्)
इदमेवात्र तात्पर्यं हेयः शुद्धनयो न हि।
नास्ति बन्धस्तदत्यागात्तत्त्यागाद्बन्ध एव हि।। १२२।।
(शार्दूलविक्रीडित)
धीरोदारमहिम्न्यनादिनिधने बोधे निबध्नन्धृतिं
त्याज्यः शुद्धनयो न जातु कृतिभिः सर्वङ्कषः कर्मणाम्।
तत्रस्थाः स्वमरीचिचक्रमचिरात्संह्य्त्य निर्यद्बहिः
पूर्ण ज्ञानघनौघमेकमचलं पश्यन्ति शान्तं महः।। १२३।।

आनुं द्रष्टांत जगतमां प्रसिद्ध-जाणीतुं छे); कारण के उदराग्नि, पुरुषे ग्रहेला आहारने रस, रुधिर, मांस आदि भावे परिणमावे छे एम जोवामां आवे छे.

भावार्थः– ज्ञानी शुद्धनयथी छूटे त्यारे तेने रागादिभावोनो सद्भाव थाय छे, रागादिभावोना निमित्ते द्रव्यास्रवो अवश्य कर्मबंधना कारण थाय छे अने तेथी कार्मणवर्गणा बंधरूपे परिणमे छे. टीकामां जे एम कह्युं छे के “द्रव्यप्रत्ययो पुद्गलकर्मने बंधरूपे परिणमावे छे”, ते निमित्तथी कह्युं छे. त्यां एम समजवुं के “द्रव्यप्रत्ययो निमित्तभूत थतां कार्मणवर्गणा स्वयं बंधरूपे परिणमे छे”.

हवे आ सर्व कथनना तात्पर्यरूप श्लोक कहेछेः-

श्लोकार्थः– [अत्र] अहीं [इदम् एव तात्पर्य] आ ज तात्पर्य छे के [शुद्धनयः न हि हेयः] शुद्धनय त्यागवायोग्य नथी; [हि] कारण के [तत्–अत्यागात् बन्धः नास्ति] तेना अत्यागथी (कर्मनो) बंध थतो नथी अने [तत्–त्यागात् बन्धः एव] तेना त्यागथी बंध ज थाय छे. १२२.

फरी, ‘शुद्धनय छोडवायोग्य नथी’ एवा अर्थने द्रढ करनारुं काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [धीर–उदार–महिम्नि अनादिनिधने बोधे धृतिं निबध्नन् शुद्धनयः] धीर (चळाचळता रहित) अने उद्रार (सर्व पदार्थोमां विस्तारयुक्त) जेनो महिमा छे एवा अनादिनिधन ज्ञानमां स्थिरता बांधतो (अर्थात् ज्ञानमां परिणतिने स्थिर राखतो) शुद्धनय- [कर्मणाम् सर्वकषः] के जे कर्मोने मूळथी नाश करनारो छे ते- [कृतिभिः] पवित्र धर्मी (सम्यग्द्रष्टि) पुरुषोए [जातु] कदी पण [न त्याज्यः] छोडवायोग्य नथी. [तत्रस्थाः] शुद्धनयमां स्थित ते पुरुषो, [बहिः निर्यत् स्वमरीचि–चक्रम् अचिरात् संह्य्त्य] बहार नीकळता एवा पोतानां ज्ञानकिरणोना


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(मन्दाक्रान्ता)
रागादीनां झगिति विगमात्सर्वतोऽप्यास्रवाणां
नित्योद्योतं किमपि परमं वस्तु सम्पश्यतोऽन्तः।
स्फारस्फारैः स्वरसविसरैः पॢावयत्सर्वभावा–
नालोकान्तादचलमतुलं ज्ञानमुन्मग्नमेतत्।। १२४।।

समुहने (अर्थात् कर्मना निमित्ते परमां जती ज्ञाननी विशेष व्यकितओने) अल्प काळमां समेटीने, [पूर्ण ज्ञान–धन–ओधम् एकम् अचलं शान्तं महः] पूर्ण, ज्ञानघनना पुंजरूप, एक, अचळ, शांत तेजने-तेजःपुंजने- [पश्यन्ति] देखे छे अर्थात् अनुभवे छे.

भावार्थः– शुद्धनय, ज्ञानना समस्त विशेषोने गौण करी तथा परनिमित्तथी थता समस्त भावोने गौण करी, आत्माने शुद्ध, नित्य, अभेदरूप, एक चैतन्यमात्र ग्रहण करे छे अने तेथी परिणति शुद्धनयना विषयस्वरूप चैतन्यमात्र शुद्ध आत्मामां एकाग्र-स्थिर-थती जाय छे. ए प्रमाणे शुद्धनयनो आश्रय करनारा जीवो अल्प काळमां बहार नीकळती ज्ञाननी विशेष व्यक्तिओने संकेलीने, शुद्धनयमां (आत्मानी शुद्धताना अनुभवमां) निर्विकल्पपणे ठरतां सर्व कर्मोथी भिन्न केवळ ज्ञानस्वरूप, अमूर्तिक पुरुषाकार, वीतराग ज्ञानमूर्तिस्वरूप पोताना आत्माने देखे छे अने शुकलध्यानमां प्रवृत्ति करीने अंतर्मुहूर्तमां केवळज्ञान प्रगटावे छे. शुद्धनयनुं आवुं माहात्म्य छे. माटे शुद्धनयना आलंबन वडे ज्यां सुधी केवळज्ञान ऊपजे नहि त्यां सुधी सम्यग्द्रष्टि जीवोए शुद्धनय छोडवायोग्य नथी एम श्री गुरुओनो उपदेश छे. १२३.

हवे, आस्रवोनो सर्वथा नाश करवाथी जे ज्ञान प्रगट थयुं ते ज्ञानना महिमानुं काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [नित्य–उद्योतं] जेनो उद्योत (प्रकाश) नित्य छे एवी [किम् अपि परमं वस्तु] कोई परम वस्तुने [अन्तः सम्पश्यतः] अंतरंगमां देखनारा पुरुषने, [रागादीनां आस्रवाणां] रागादिक आस्रवोनो [झगिति] शीघ्र [सर्वतः अपि] सर्व प्रकारे [विगमात्] नाश थवाथी, [एतत् ज्ञानम्] आ ज्ञान [उन्मग्नम्] प्रगट थयुं- [स्फारस्फारैः] के जे ज्ञान अत्यंत अत्यंत (-अनंत अनंत) विस्तार पामता [स्वरसविसरैः] निजरसना फेलावथी [आ–लोक– अन्तात्] लोकना अंत सुधीना [सर्वभावान्] सर्व भावोने [प्लावयत्] तरबोळ करी दे छे अर्थात् सर्व पदार्थोने जाणे छे, [अचलम्] जे ज्ञान प्रगट थयुं त्यारथी सदाकाळ अचळ छे अर्थात् प्रगटया पछी सदा एवुं ने एवुं ज रहे छे-चळतुं नथी, अने [अतुलं] जे ज्ञान अतुल छे अर्थात् जेना तुल्य बीजुं कोई नथी.


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इति आस्रवो निष्क्रान्तः।

इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ आस्रवप्ररूपकः चतुर्थोऽङ्कः।।

भावार्थः– जे पुरुष अंतरंगमां चैतन्यमात्र परम वस्तुने देखे छे अने शुद्धनयना आलंबन वडे तेमां एकाग्र थतो जाय छे ते पुरुषने, तत्काळ सर्व रागादिक आस्रवभावोनो सर्वथा अभाव थइने, सर्व अतीत, अनागत ने वर्तमान पदार्थोने जाणनारुं निश्चळ, अतुल केवळज्ञान प्रगट थाय छे. ते ज्ञान सर्वथी महान छे, तेना समान अन्य कोई नथी. १२४.

टीकाः– आ रीते आस्रव (रंगभूमिमांथी) बहार नीकळी गयो.

भावार्थः– आस्रवनो स्वांग रंगभूमिमां आव्यो हतो तेने ज्ञाने तेना यथार्थ स्वरूपे जाणी लीधो तेथी ते बहार नीकळी गयो.

योग कषाय मिथ्यात्व असंयम आस्रव द्रव्यत आगम गाये,
राग विरोध विमोह विभाव अज्ञानमयी यह भाव जताये;
जे मुनिराज करै इनि पाल सुरिद्धि समाज लये सिव थाये,
काय नवाय नमूं चित लाय कहूं जय पाल लहूं मन भाये.

आम श्री समयसारनी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्रीसमयसार परमागमनी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी टीकामां आस्रवनो प्ररूपक चोथो अंक समाप्त थयो.

* * *
समयसार गाथा १७९–१८०ः मथाळु

हवे आ ज अर्थने द्रष्टांत द्वारा द्रढ करे छेः-

जुओ, गाथा १८० मां ‘णयपरिहीणा’–नयपरिहीना शब्द मूकीने आचार्य भगवाने शुद्धनय ए ज वास्तविक-खरेखर नय छे, ज्यारे व्यवहारनय ते उपचरित (कथन करतो) होवाथी व्यवहार छे एम कह्युं छे.

शुद्ध चैतन्यपिंड प्रभु आत्मानो अनुभव थवो द्रष्टि थवी ए शुद्धनय छे, अने एने छोडी दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना शुभभावमां एकताबुद्धि थवी ए ‘नयपरिहीना’ एटले नयथी परिभ्रष्ट छे केमके ते शुद्धनयथी परिभ्रष्ट थई गयो छे. बीजी रीते कहीए तो आनंदना नाथ भगवान ज्ञायकनी बेठकमांथी खसी रागनी बेठकमां गयो ते ‘नयपरिहीणा’ एटले वास्तविक नयथी परिभ्रष्ट थयो छे.