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जोडाईने आस्रव करे तो नवीन बंध थाय छे, न करे तो कर्म छूटी-झरी जाय छे.
१. निमित्तथी उपादानमां कार्य थाय अने
२. व्यवहारथी निश्चय थाय अर्थात् चरणानुयोगनुं आचरण-व्रत-पचकखाण आदि
१. प्रवचनसार गाथा १०२ मां स्पष्ट कह्युं छे के-मिथ्यात्व, राग-द्वेषादि के सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्र आदि जे कोई परिणाम उत्पन्न थाय छे ते तेनी उत्पत्तिनो काळ छे, जन्मक्षण छे. ते परिणाम परथी-निमित्तथी उत्पन्न थाय छे एम नथी. परद्रव्य-निमित्तने तो आत्मा स्पर्शतो पण नथी. जुओ, घडो जे थयो छे ते माटीथी थयो छे. बीजुं निमित्त (कुंभार) हो भले, परंतु निमित्तथी घडो थयो नथी. समयसार गाथा ३७२ मां आचार्य भगवान कहे छे के- कुंभार घडाने करे छे एम अमे देखता नथी; केमके माटी पोताना स्वभावने नहि उल्लंघती होवाने लीधे, कुंभार घडानो उत्पादक छे ज नहि; माटी ज कुंभारना स्वभावने नहि स्पर्शती थकी, पोताना स्वभावथी कुंभभावे उपजे छे. माटीमां घडो उत्पन्न थवानो काळ हतो तो ते घडानी पर्याये उत्पन्न थई छे, कुंभारे घडो कर्यो ज नथी.
वळी त्यां ज (गाथा ३७२ मां) आचार्य भगवाने कह्युं छे के-‘वळी जीवने परद्रव्य रागादिक उपजावे छे एम शंका न करवी; कारण के अन्य द्रव्य वडे अन्य द्रव्यना गुणनो उत्पाद करावानी अयोग्यता छे; केमके सर्व द्रव्योना स्वभावथी ज उत्पाद थाय छे’ जुओ, कर्मनी ए शक्ति नथी के ते आत्माने विकार करावी दे. कर्म निमित्त जरूर छे, पण ते आत्माने विकार करावी दे एवी तेनी योग्यता नथी, अयोग्यता छे. ज्ञानावरणीय कर्मने लईने ज्ञान रोकाय एम अज्ञानीओ माने छे. त्यां शब्द ‘ज्ञानावरणीय’ पडयो छे ने? पण भाई! एम नथी. ज्ञानावरणीय कर्म तो निमित्तमात्र छे. पोतानी ज्ञाननी हीणी परिणति पोते पोताथी करे छे तो कर्मने निमित्त कहे छे. जेम कुंभार घडानो उत्पादक छे नहि तेम कर्म जीवमां विकारनो उत्पादक छे नहि.
२. व्यवहारथी निश्चय थाय एम केटलाक लोको माने छे. आ व्रत, तप, भक्ति, जात्रा आदि करे तो जाणे धर्म थई गयो एम अज्ञानीओ माने छे. भाई! ए सर्व भावो पर लक्षे थता होवाथी शुभभाव छे, पण एमां धर्म कयांथी आव्यो? अशुभथी बचवा धर्मीने पण ते आवे छे पण ते धर्म नथी. धर्म तो भगवान आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप जे ध्रुव परमात्मद्रव्य तेना आश्रये थाय छे. सम्यग्दर्शन ए धर्मनुं पहेलुं पगथियुं छे. सम्यग्दर्शन अर्थात् आत्मानुभवमंडित आत्मश्रद्धान विना धर्म केवो? सम्यग्दर्शन विनाना क्रियाकांड तो एकडा विनाना मींडां अथवा वर विनानी जान जेवा छे.
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समयसार गाथा ७२ मां (आत्मा अने आस्रवोनुं भेदज्ञान करावतां) स्पष्ट कह्युं छे के-शुभ अने अशुभ भाव बंने आस्रवभावो छे. दया, दान, व्रतादिना भाव आस्रव छे. अरे जे भावे तीर्थंकरगोत्रनो बंध थाय ते शुभभाव पण आस्रव छे, अने ते आस्रवो मलिन छे, विपरीत स्वभाववाळा जड छे अने आकुळताने उत्पन्न करवावाळा छे. ज्यारे बीजी बाजु भगवान आत्मा अति निर्मळ, चैतन्यमात्रस्वभावपणे अने सदाय निराकुळ स्वभावपणे अनुभवमां आवे छे. आ रीते भगवान आत्मा शुभभावथी भिन्न छे. आ प्रमाणे जे शुभराग आत्माथी भिन्न छे ते निश्चयनुं कारण केम थाय? राग कारण अने निर्मळ वीतरागी पर्याय कार्य एम छे नहि, राग करतां करतां सम्यक्त्व थाय ए वात तद्न मिथ्या छे. शुं लसण खातां खातां कस्तूरीना ओडकार आवे? न ज आवे. तेम चरणानुयोगनी लाख क्रिया व्रत, तप आदि करे परंतु एनाथी निश्चय (धर्म) प्रगट न थाय.
वीतरागनो मार्ग बहु सूक्ष्म छे, भाई! लोकोने सांभळवा मळ्यो नथी एटले तेओ अजैनने जैन मानी बेठा छे. शुं थाय? जीवनी योग्यता न होय तो एने (जैनपणुं) मळे शी रीते? हवे कहे छे-
‘सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्वनो अने अनंतानुबंधी कषायनो उदय नहि होवाथी तेने ते प्रकारना भावास्रवो तो थता ज नथी अने मिथ्यात्व तेम ज अनंतानुबंधी कषाय संबंधी बंध पण थतो नथी.’
जुओ, पुण्यथी धर्म थाय के रागथी (व्यवहारथी) निश्चय थाय एवी विपरीत मान्यता सम्यग्द्रष्टिने होती नथी. ज्ञेयने इष्ट मानी राग थवो अने अनिष्ट मानीने द्वेष थवो ते अनंतानुबंधी कषाय छे. एनो सम्यग्द्रष्टिने अभाव छे. विपरीत मान्यताना नाश सहित सम्यग्द्रष्टिने अनंतानुबंधी कषायनो अभाव थयो छे अने तेटलो ते स्वरूपाचरणमां स्थिर थयो छे तेथी तेने ते प्रकारना भावास्रवो थता ज नथी अने तेथी मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी कषाय संबंधी बंध पण थतो नथी. आ गाथामां समकितीने जे अस्थिरतानो राग थाय छे तेने गण्यो ज नथी, कारण के मिथ्यात्व संबंधी राग-द्वेष ज संसारनी जड छे. अहो! सम्यग्दर्शन ए एवी अद्भुत चीज छे जे संसारनी जड छेदी नाखे छे.
अहा! आत्मद्रव्य अनंत अनंत आनंदना स्वभावथी भरेली वस्तु छे. एवा द्रव्यनी द्रष्टि थतां पर्यायमां आनंदनो स्वाद आवे छे. एकला आनंदनो नहि परंतु द्रव्यमां जेटला गुणो छे ते दरेकनो व्यक्त अंश सम्यग्दर्शनना काळे प्रगट थाय छे. आवा सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधीना रागद्वेष तो छे ज नहि तेथी ते प्रकारनो बंध पण नथी. क्षायिक सम्यग्द्रष्टिने सत्तामांथी मिथ्यात्वनो क्षय थती वखते
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ज अनंतानुबंधी कषायनो तथा ते संबंधी अविरति अने योगभावनो पण क्षय थई गयो होय छे तेथी तेने ते प्रकारनो बंध थतो नथी.’ जुओ! जयचंद पंडित थोडो वधु खुलासो करे छे के परमाणुनी (जडकर्मनी)-मिथ्यात्वकर्मनी सत्ता छे एनो क्षय थती वखते क्षायिक सम्यग्द्रष्टिने अनंतानुबंधी कषायनो क्षय थाय छे तथा ते संबंधी अविरतिनो पण नाश थाय छे. वळी सम्यग्दर्शन थतां कषाय थवानुं जे ते प्रकारनुं योग-कंपन (योगगुणनी विकृत अवस्था) हतुं ते पण नाश थयुं छे केमके अयोग-गुण-अकंपस्वभावनो एक अंश त्यारे प्रगट थयो छे. अहीं एम कहे छे के सम्यग्दर्शन थतां अनंतगुणनो अंश प्रगट थाय छे अने साथे ते ते प्रकारना अवगुणनो अंश पण नाश पामे छे.
चोथे गुणस्थानके गृहस्थाश्रममां आत्माना चारित्रगुणनो व्यक्त अंश प्रगट थाय छे अने तेथी ते प्रकारना (अनंतानुबंधी) कषायनो पण नाश थाय छे. औपशमिक सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्व तेम ज अनंतानुबंधी कषायो मात्र उपशममां-सत्तामां ज होवाथी सत्तामां रहेलुं द्रव्य उदयमां आव्या विना ते प्रकारना बंधनुं कारण थतुं नथी. उपशम समकितमां मिथ्यात्वनो उदय थतो ज नथी. क्षायोपशमिक सम्यग्द्रष्टिने पण सम्यक्मोहनीय सिवायनी छ प्रकृतिओ विपाक- उदयमां आवती नथी, तेथी ते प्रकारनो बंध थतो नथी. क्षयोपशम समकितीने मिथ्यात्व, मिश्र अने अनंतानुबंधीनी चार एम छ प्रकृतिओनो उदय ज नथी. सम्यक् मोहनीयनो जरी उदय छे पण एनो कोई बंध नथी. हवे कहे छे-
‘अविरतसम्यग्द्रष्टि वगेरेने जे चारित्रमोहनो उदय वर्ते छे तेमां जे प्रकारे जीव जोडाय छे ते प्रकारे तेने नवो बंध थाय छे.’ शुं कह्युं ए? निमित्तपणे जडकर्म चारित्रमोहनो उदय वर्ते छे, पण तेमां जीव जे प्रकारे जोडाय छे एटलो बंध थाय छे. उदयने लईने बंध थाय छे वा उदय आव्यो माटे विकार करवो पडे एम छे नहि. जीवनी पर्यायनी योग्यता (कर्मना उदयमां) जोडावानी जेटली छे एटलो जोडाय छे. बीजी रीते कहीए तो (निश्चयथी) तेनो जोडाणनो काळ छे ते प्रकारे जोडाय छे. कर्मनो उदय आवे एना प्रमाणमां विकार करवो पडे एवुं छे नहि. जे समये जे पर्याय थवानी होय ते ते समये थाय छे अने ते निमित्तनी अपेक्षा विना ज थाय छे.
द्रव्यनी जे समये जे पर्याय थाय छे ते बधी क्रमबद्ध थाय छे. आमां कोई एम कहे के द्रव्यनी एक पछी एक एम क्रमथी पर्याय तो थाय पण आना पछी आ ज पर्याय थाय एम नियतक्रम नहि तो तेनी वात खोटी छे. दरेक द्रव्यनी पर्याय नियतक्रममां ज सर्वज्ञे जोई छे अने ए ज प्रमाणे जेम छे तेम थाय छे; आडी-अवळी
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थाय नहि अने स्वकाळमां थया विना रहे नहि. पर्यायनो-आयतसमुदायनो प्रवाहक्रम छे. गुणो अक्रम छे अने पर्यायोनो प्रवाहक्रम एटले एक पछी एक थवानो क्रम छे. ए क्रम नियत ज छे. जेम जमणा पछी डाबो अने डाबा पछी जमणो पग उपडे छे-ए नियत क्रम छे तेम जे समये जे पर्याय थवानी होय ते ते समये ज थाय एवो नियत क्रम छे. अहा! वस्तुनुं आवुं स्वरूप छे, छतां जे पर्यायो क्रमबद्ध मानतो नथी तेना मतमां सर्वज्ञता रहेती नथी अर्थात् ते सर्वज्ञने मानतो नथी.
अहा! जेनी एक एक गुण-शक्ति परिपूर्ण छे एवा द्रव्यस्वभावनुं अने समये समये स्वतंत्रपणे थती पर्यायोनुं सम्यग्द्रष्टिने यथार्थ ज्ञान होय छे. सम्यग्दर्शननी पर्याय पोताना कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान अने अधिकरणरूप षट्कारकना परिणमनथी थाय छे; अने निमित्तनी पर्याय निमित्तमां एना पोताना काळक्रमे थाय छे. (कार्यकाळे) निमित्त होय पण निमित्तथी कार्य थाय एम नहि, केमके व्यवहार ने निश्चय एक ज समये होय छे. द्रष्टि स्वभाव उपर जतां सम्यग्दर्शननी पर्याय एना काळे पोताथी निश्चयथी थाय छे अने ते ज काळे जे राग बाकी छे तेनो पण ए ज क्रम अने काळ पोताथी छे. एटले व्यवहारथी निश्चय थाय ए वात रहेती नथी. सम्यग्दर्शननी पर्यायनो कर्ता जे राग-व्यवहार छे ए तो नथी पण एना द्रव्य-गुण पण एना कर्ता नथी. अहा! आवुं वस्तुनुं स्वरूप प्रगट होवा छतां अज्ञानीओ हठथी पोकार करे छे के-निमित्त आवे तो उपादानमां कार्य थाय! पण भाई! पर्याय पोतानी ते ते क्षणे स्वतः प्रगट थाय छे एमां निमित्त आवे तो थाय ए कयां रह्युं? बापु! जे रीते द्रव्य- गुण-पर्याय छे ते रीते एनुं ज्ञान करीने द्रव्यनी द्रष्टि-प्रतीति करवामां आवे त्यारे सम्यग्दर्शन थाय छे. समय समयनी पर्याय प्रत्येक पोताना काळे प्रगट थाय छे एवो निर्णय करनारनी द्रष्टि द्रव्यस्वभावमां जाय छे अने ए सम्यग्दर्शन छे.
हवे कहे छे-‘तेथी गुणस्थानोना वर्णनमां अविरत-सम्यग्द्रष्टि आदि गुणस्थानोए अमुक अमुक प्रकृतिनो बंध कह्यो छे, परंतु आ बंध अल्प होवाथी तेने सामान्य संसारनी अपेक्षाए बंधमां गणवामां आवतो नथी.’ चोथे गुणस्थाने समकितीने ४१ प्रकृतिओनो नाश होय छे. समकितीने चारित्रमोहना उदयकाळमां पोतानी जेटली योग्यता छे एटलो विकार थाय छे अने एटलो बंध पण थाय छे पण ते अल्प छे तेथी सामान्य एटले मूळ संसारनी अपेक्षाए एने बंधमां गण्यो नथी.
‘सम्यग्द्रष्टि चारित्रमोहना उदयमां स्वामित्वभावे तो जोडातो ज नथी, मात्र अस्थिरतारूपे जोडाय छे; अने अस्थिरतारूप जोडाण ते निश्चयद्रष्टिमां जोडाण ज नथी.’ जुओ, धर्मी कर्ता थईने रागने करतो नथी. तेने मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी तो क्षय पामी गया छे तेथी एटलो तो एनी पर्यायमां विकार-राग छे ज नहि. चारित्रमोहना उदयमां पोतानी जेटली (पर्यायनी) योग्यता छे तेटला प्रमाणमां जोडाय छे
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पण जे किंचित् राग थाय छे तेनो ते स्वामी के कर्ता थतो नथी. व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे एम बारमी गाथामां जे आवे छे ते प्रमाणे धर्मी रागने मात्र जाणे ज छे. खरेखर ज्ञानी रागनो स्वामी नथी पण पोतानी निर्मळ पर्यायनो स्वामी छे. आत्मामां स्वस्वामित्वनो एक गुण छे जेने लईने शुद्ध द्रव्य, शुद्ध गुण अने निर्मळ शुद्ध पर्याय ए धर्मीनुं स्व छे अने आत्मा तेनो स्वामी छे. आत्मा रागनो स्वामी नथी. समयसार परिशिष्टमां शक्तिओना वर्णनमां द्रव्य-गुण अने पर्याय त्रणे निर्मळ लीधां छे. गुणनो धरनार गुणी आत्मानो आश्रय बनतां गुणनुं जे निर्मळ परिणमन थाय तेनो आत्मा स्वामी छे, रागनो नहि.
सम्यग्द्रष्टि चारित्रमोहना उदयमां मात्र अस्थिरतारूपे जोडाय छे, एटले के ते ते समये ते अस्थिरतारूप पर्याय थवानी थाय छे पण अस्थिरतारूप जोडाण ते निश्चयद्रष्टिमां जोडाण ज नथी. अस्थिरताना रागनी अहीं गणत्री नथी; अहीं तो मिथ्यात्व सहितना रागद्वेषने ज आस्रव-बंधमां गण्यो छे. माटे सम्यग्द्रष्टिने रागद्वेषमोहनो अभाव कहेवामां आव्यो छे.
‘ज्यां सुधी कर्मनुं स्वामीपणुं राखीने कर्मना उदयमां जीव परिणमे त्यां सुधी ज जीव कर्मनो कर्ता छे.’ दया, दान, व्रत, तप आदिना परिणाम ते ते काळमां ज्ञानीने आवे छे पण ज्ञानी तेना स्वामीपणे थतो नथी; ज्यारे अज्ञानी शुभरागना स्वामीपणे थईने-परिणमीने रागनो कर्ता थाय छे. भाई! चरणानुयोगनुं जेटलुं व्यवहाररूप आचरण छे तेना कर्ता थईने परिणमवुं ते अज्ञान छे एम अहीं कहे छे.
‘उदयनो ज्ञाताद्रष्टा थईने परना निमित्तथी मात्र अस्थिरतारूपे परिणमे त्यारे कर्ता नथी, ज्ञाता ज छे.’ जुओ, धर्मीने जे कांई अस्थिरतारूप रागादि परना निमित्तथी मात्र एटले परना-निमित्तना लक्षे थाय छे तेनो ते ज्ञाता ज छे, कर्ता नथी. ‘परना निमित्तथी’ एम कह्युं त्यां पर-निमित्तना कारणे राग थाय छे एम नहि पण पर-निमित्तमां पोते जोडाय छे तो राग थाय छे एम वात छे. जड नयमां एक ईश्वरनय छे. त्यां कह्युं छे-‘आत्मद्रव्य ईश्वरनये परतंत्रता भोगवनार छे’. एटले के आत्मा पोते परने आधीन थईने परिणमे एवी एनी पर्यायनी योग्यता छे; पर निमित्त एने आधीन करे छे एम नहि, पण पोते निमित्तने आधीन थाय छे. आमां बहु मोटो फेर छे. जुओ, भाषा-के ‘परना निमित्तथी मात्र’ मतलब के निमित्त तो निमित्तमात्र छे. ज्ञाता-द्रष्टास्वभावे परिणमतो ज्ञानी जे अस्थिरतानो राग थाय तेनो ज्ञाता ज रहे छे कर्ता नहि.
‘आ अपेक्षाए, सम्यग्द्रष्टि थया पछी चारित्रमोहना उदयरूप परिणमवा छतां तेने ज्ञानी अने अबंधक कहेवामां आव्यो छे. ज्यां सुधी मिथ्यात्वनो उदय छे अने तेमां जोडाई ने जीव रागद्वेषमोहभावे परिणमे छे त्यां सुधी ज तेने अज्ञानी अने
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बंधक कहेवामां आवे छे.’ द्रष्टि अने द्रष्टिनो विषय शुद्ध निर्मळ छे ए अपेक्षाए निर्मळ द्रष्टिवंत ज्ञानीने मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधीना परिणाम नहि होवाथी ते प्रकारनुं बंधन नथी अने तेथी तेने अबंधक कहेवामां आव्यो छे. बीजी बाजु (पर्यायनुं) ज्ञान कराववुं होय त्यारे एम कहे छे के दशमा गुणस्थान सुधी जे राग थाय छे ए पोतानो अपराध छे अने पोते एने करे छे, कर्मने लईने ए राग थाय छे एम नहि. रागना स्वामीपणा अने कर्तापणा विना ए राग पोताथी थाय छे. आवी वात छे.
हवे कहे छे-‘ज्ञानी-अज्ञानीनो अने बंध-अबंधनो आ विशेष जाणवो. वळी शुद्ध स्वरूपमां लीन रहेवाना अभ्यास द्वारा केवळज्ञान प्रगटवाथी ज्यारे जीव साक्षात् संपूर्णज्ञानी थाय छे त्यारे तो ते सर्वथा निरास्रव थई जाय छे एम पहेलां कहेवाई गयुं छे.’
जुओ, ज्ञानीने शुद्ध स्वरूप जे अनुभवमां आव्युं छे तेमां लीन रहेवाना अभ्यास द्वारा तेने केवळज्ञान प्रगटे छे. केवळज्ञान प्रगटवानो आ एक ज उपाय छे; व्रत, तप, भक्ति आदि पण उपाय छे एम छे नहि. शास्त्रमां ज्यां एवुं कथन होय त्यां ते आरोपथी करेलुं कथन छे एम समजवुं. जीवने ज्यारे शुद्धात्माना अनुभव वडे सम्यग्दर्शन प्रगट थाय त्यारे ते ज्ञानी थाय छे अने ए ज अनुभवना अभ्यास द्वारा ते केवळज्ञान प्रगट करे छे त्यारे ते साक्षात् ज्ञानी थाय छे. चोथे गुणस्थानके ज्ञानीने द्रष्टि अपेक्षाए निरास्रव कह्यो छे अने केवळज्ञान थतां साक्षात् ज्ञानी थयो थको ते सर्वथा निरास्रव थई जाय छे. ल्यो, हवे आ बधुं समजवुं पडशे हों.
अरे! आ बधुं समजवानी वाणियाओने फुरसद कयां छे? बिचारा वेपार धंधामां अने बैरां-छोकरांनी मावजतमां गुंचवाई गया छे. मांड कलाक सांभळवा मळे तो एमां आवी सूक्ष्म वात बिचाराओने पकडाय नहि! करे शुं? भाई! आ तो फुरसद लईने समजवा जेवुं छे. समजण-ज्ञान तो पोतानो स्वभाव छे. एने न समजाय ए तो छे नहि; पोतानी रुचिनी दिशा बदलवी जोईए. भाई! ए बधी दुनियादारीनी वातो कांई काम आवशे नहि हों. तथा घणा बधा बीजुं माने छे माटे ए साचुं-एवी आंधळी श्रद्धा पण काम नहि आवे. सत्य जे रीते छे ए रीते मान्युं हशे तो सत्य एने जवाब आपशे. लाखो-करोडो लोको माने छे माटे ते सत्य छे एम नथी. सत्यने संख्याथी शुं संबंध छे? सत्यने तो अंतरनी समजणनी जरूर छे, संख्यानी नहि.
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अहीं सम्यग्द्रष्टिनी वात चाले छे. अहा! सम्यग्द्रष्टि कोने कहीए? भगवान आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु परिपूर्ण ध्रुव सदा परमात्मस्वरूपे अंदर बिराजमान छे. परंतु जीवे पोताना ध्रुवस्वभावनुं अवलंबन कदी लीधुं नथी; अने ध्रुवना अवलंबन विना तेने परनुं- पर्यायनुं ज अवलंबन अनंतकाळथी छे. त्यां पर्यायनुं लक्ष छोडी जे पोताना चिदानंदघनस्वरूप परमात्मद्रव्यनी अंतर्द्रष्टि करी तेमां लीन थाय छे ते सम्यग्द्रष्टि छे. अहाहा...! एक समयनी व्यक्त पर्यायथी भिन्न त्रिकाळी भगवान ज्ञायकदेव आनंदरसकंद प्रभु सदा जाणवा-देखवाना स्वभावे अंदर रहेलो छे तेना आश्रये अनुभूति-रुचि प्रगट करवी ते सम्यग्दर्शन छे.
अहा! जीवने अनादिथी दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा इत्यादि परावलंबी भावोनी सावधानीमां पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपनी सूझ-बूझ रही नथी. भाई! ए परावलंबी भावोनी सावधानी मिथ्यात्व छे. व्रत, तप, भक्ति आदि परावलंबी भावोथी धर्म थाय एवो मिथ्यात्व भाव ज अनंत संसारनी जड छे.
आवुं मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी रागद्वेषनो जेणे नाश कर्यो छे तेने सम्यग्द्रष्टि कहीए. अनंतानुबंधी एटले के अनंत संसारनुं कारण जे मिथ्यात्व छे तेनी साथे अनुबंध एटले संबंध राखवावाळा जे रागद्वेष एनो सम्यग्द्रष्टिए नाश कर्यो छे. अस्तिथी कहीए तो त्रिकाळी मुक्तस्वरूप जे शुद्ध चैतन्यस्वभावी भगवान ज्ञायक जाणवा-देखवाना स्वभावे ध्रुव- ध्रुव-ध्रुव अंदर रहेलो छे तेने अनुसरीने जेणे अनुभूति प्रगट करी छे, पर्यायमां अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव प्रगट कर्यो छे ते सम्यग्द्रष्टि छे.
शुद्ध समकितना स्वरूपने जेओ जाणता नथी एवा अज्ञानीओ कहे छे के-(बाह्य) संयम ए ज चीज छे. संयमभाव मनुष्यपर्यायमां ज होय छे, बीजी त्रण गतिमां होतो नथी. तेथी मनुष्य अवस्थामां व्रतादि संयमनां साधननुं आचरण करवुं जोईए.
अरे भाई! संयम कोने कहीए एनी तने खबर नथी. जेने शुद्ध आत्माना अनुभवपूर्वक सम्यग्दर्शन थयुं छे तेने जे आत्मस्वरूपमां लीनता-रमणता होय छे तेनुं नाम संयम छे. आ व्रत, तप आदि जे शुभराग छे ते संयम नथी; ए तो (खरेखर) असंयम छे. भगवान तो एम कहे छे के-मिथ्याद्रष्टिनां बधां व्रत अने तप बाळव्रत अने बाळतप छे. अरे! पण एने आ समजवानी कयां दरकार छे?
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अत्यारे तो बस आ ज-व्रत, तप, भक्ति, पूजा, जात्रा इत्यादि बधुं खूब चाल्युं छे. लोकोने बहारना त्यागनो अने बाह्य क्रियाओनो महिमा छे; एम के पोते व्रत पाळे छे, दया पाळे छे, ब्रह्मचर्य पाळे छे, स्त्रीनो त्याग कर्यो छे, नग्न रहे छे एम बाह्य आचरणना महिमा आडे अंदर मिथ्यात्वनुं महा शल्य पडयुं छे तेने त्यागवानुं एने सूझतुं नथी. अरे भाई! ए बधी बाह्य त्यागनी क्रियाओ तो अभवी पण अनंतवार करे छे. ए कोई अंतरनी चीज नथी. ए क्रियाओमां भगवान आत्मा नथी. विना सम्यग्दर्शन कदाचित् ११ अंग भणी जाय तोपण ते अज्ञानी छे. लोकोने आकरुं लागे पण शुं थाय? रागनी क्रियामां धर्म माने तेने तो मिथ्यात्वनो बंध थाय छे. भगवान आत्मा अंदर सदा अबंधस्वरूप छे तेनो महिमा करी तेमां अंतर्लीन थवुं ते अबंधपरिणाम छे. अहीं कळशमां जे आवा अबंध परिणामने प्राप्त थयो छे एवा समकिती-ज्ञानीनी वात छे.
कहे छे–‘यद्यपि’ जोके ‘समयम् अनुसरन्तः’ पोतपोताना समयने अनुसरता (अर्थात् पोतपोताना समये उदयमां आवता) एवा ‘पूर्वबद्धाः’ पूर्वबद्ध (पूर्वे अज्ञान-अवस्थामां बंधायेला) ‘द्रव्यरूपाः प्रत्ययाः’ द्रव्यरूप प्रत्ययो ‘सत्तां’ पोतानी सत्ता ‘न हि विजहति’ छोडता नथी...
शुं कह्युं? के सम्यग्दर्शन प्रगट थतां मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधी संबंधी कषायनो नाश थवा छतां आठ कर्म जे पडयां छे ते पोतानी सत्ता छोडतां नथी. सम्यग्द्रष्टिने पण आत्मप्रदेशे संबंधमां रहेलां आठ जडकर्मनुं अस्तित्व छे अने तेओ समये समये उदयमां पण आवे छे. ‘तदपि’ तोपण ‘सकलरागद्वेषमोहव्युदासात्’ सर्व रागद्वेषमोहनो अभाव होवाथी ‘ज्ञानिनः’ ज्ञानीने ‘कर्मबन्धः’ कर्मबंध ‘जातु’ कदापि ‘अवतरति न’ अवतार धरतो नथी- थतो नथी. ज्ञानीने (द्रष्टि अपेक्षाए) कोई पण रागद्वेषमोह थता नहि होवाथी तेने नवां कर्म बंधाता नथी एम कहे छे. अहीं अनंत संसारनुं कारण एवां मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी कषायनो नाश थयो छे ते अपेक्षाए वात छे. अस्थिरतानो अल्प चारित्र-दोष अहीं गणवामां आव्यो नथी. चारित्र-दोष ए तो अति अल्प दोष छे. तेने गौण करीने अहीं कहे छे के ज्ञानीने-धर्मीने कर्मबंध कदापि अवतरतो-थतो नथी.
वळी केटलाक कहे छे के-ज्ञानी कोई जुदी चीज छे अने धर्मी कोई जुदी चीज छे. तेओ कहे छे के अमे धर्मी छीए पण ज्ञानी नथी. परंतु ए वात बराबर नथी. ज्ञानी न होय ते वळी धर्मी केवो? भाई! ज्ञानी कहो के धर्मी कहो-बंने एक ज छे; धर्मी ज्ञानी छे अने ज्ञानी धर्मी छे. निर्विकल्प आत्मानो जेने अनुभव छे ते सम्यग्द्रष्टि धर्मी छे, ज्ञानी छे. भाई! आ अपूर्व वात छे.
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जुओ, ‘भरत चक्री घरमां वैरागी’ एम आवे छे ने? भरत चक्रवर्तीने ९६ हजार राणीओ अने ते संबंधी वासना हती. पण ए तो चारित्रनो अल्प दोष हतो. तेने गौण करीने ‘भरत घरमां वैरागी’ एम कह्युं छे. ज्यारे कोई लाखो करोड के अबज वर्ष सुधी व्रत, तप करे अने ब्रह्मचर्यादि पाळे अने एनाथी पोताने धर्म थवानुं माने तो तेने मिथ्यात्वनो महादोष उपजे छे जे अनंत संसारनुं कारण थाय छे.
विपरीत मान्यता (मिथ्यात्व) अने तेने अनुसरीने थवावाळा रागद्वेषनो जेणे आत्माना अंतर-अनुभव द्वारा नाश कर्यो छे एवी आठ वर्षनी बालिका पण सम्यग्द्रष्टि ज्ञानी छे. सम्यग्दर्शन थया पछी कदाचित् लग्न करे तोपण तेने मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधीनां रागद्वेष छे नहि. अल्प चारित्रना दोषने गौण करीने अहीं कह्युं के तेने नवीन कर्मबंध अवतरतो नथी. भाई! सम्यग्दर्शन कोई अद्भुत चीज छे.
‘ज्ञानीने पण पूर्व अज्ञान-अवस्थामां बंधायेला द्रव्यास्रवो सत्ता-अवस्थामां हयात छे अने तेमना उदयकाळे उदयमां आवता जाय छे.’ जुओ, कळशमां पोतपोताना समयने अनुसरता’’-एम जे कह्युं हतुं तेनो आ अर्थ कर्यो के ज्ञानीने सत्तामां रहेलां पूर्वनां जडकर्मो पोताना काळमां उदयमां आवे छे. हवे कहे छे-
‘परंतु ते द्रव्यास्रवो ज्ञानीने कर्मबंधनुं कारण थता नथी, केमके ज्ञानीने सकळ रागद्वेषमोह भावोनो अभाव छे.’ जेने अंदर रहेला सच्चिदानंदमय भगवान आत्माना अवलंबने सम्यग्दर्शन थयुं तेने मिथ्यात्व अने तेने अनुसरीने थनारा रागद्वेष नाश पामी गया. तेथी तेने पूर्व द्रव्यास्रवोनो उदय नवीन कर्मबंधनुं कारण थता नथी. अहीं जे सकळ राग-द्वेष-मोहनो अभाव कह्यो त्यां मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी रागद्वेषमोह समजवा. संसारनुं मूळ मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी कषाय छे. तेथी जे अपेक्षाए वात छे ते यथार्थ समजवी. मूळ-जडनो ज जेणे नाश कर्यो छे तेवा समकितीने रागद्वेषमोह थता ज नथी अने तेथी तेने पूर्व द्रव्यास्रवो नवा कर्मबंधनुं कारण थता नथी एम कहे छे.
भरत चक्रवर्ती छ लाख पूर्व चक्रवर्ती-पदे रह्या. एक पूर्वमां ७० लाख प६ हजार करोड वर्ष थाय. एवा छ लाख पूर्व चक्रवर्ती-पदे रहेवा छतां तेमने कर्मबंधन थतुं न हतुं कारण के तेओ समकिती हता.
त्यारे कोई वळी कहे छे के ते तो ए ज भवे मोक्ष जनार महान पुरुष हता, पण बीजाने तो कर्मबंधन थाय ज ने!
समाधानः– भाई! महान तो आत्मा छे अने तेनो एमने अनुभव हतो. अनंत संसारनी जड एवां मिथ्यात्व अने ते प्रकारना रागद्वेष एमने हता नहि.
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अल्प राग हतो तेने कारणे कर्मनी स्थिति अने रस पडयो ते पण अल्प हतो. भरत चक्रवर्ती मोक्षगामी हता परंतु कोई ते भवे मोक्ष न जाय अने स्वर्गमां जाय तोपण समकितीने दीर्घ संसारना कारणरूप एवा रागद्वेषमोह होता नथी.
अहीं समकितीने रागद्वेषमोह छे ज नहि एम कह्युं त्यां अस्थिरताना अल्प रागने गण्यो नथी एम समजवुं. बाकी समकितीने अस्थिरताना कारणे शुभाशुभ बंने भाव आवे छे, परंतु तेमां विशेषता ए छे के ज्यां सुधी तेने अशुभभाव रहे छे त्यां सुधी तेने भविष्यना आयुष्यनो बंध पडतो नथी; ज्यारे ते शुभभावमां आवे छे त्यारे भविष्यना आयुष्यनो बंध पडे छे. भरत चक्रवर्ती तो ते ज भवे मोक्ष गया एटले एमने भविष्यना आयुना बंधनो सवाल नथी, परंतु बीजा चक्रवर्ती के बळदेव आदि के जे स्वर्गमां वैमानिक देवमां जाय छे तेने ज्यां सुधी अशुभ भावनो काळ छे त्यां सुधी भविष्यना आयुनो बंध पडतो नथी.
चोथे गुणस्थानके धर्मीने आर्त्त अने रौद्र बन्ने ध्यान होय छे. घणा शुभभाव तेम ज घणा अशुभभाव आवे छे. स्त्री-सेवननो अशुभ राग पण आवे छे. परंतु ते काळे धर्मीने भविष्यना आयुनो बंध न पडे एटलुं कोई गजबनुं सम्यग्दर्शननुं जोर छे. अहो! सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञाननो कोई अचिंत्य अलौकिक महिमा छे!
लोकोने कोई बहारमां राज्य, दुकान के कुटुंबपरिवार छोडी दे के शरीरथी ब्रह्मचर्य पाळे तो तेनो महिमा आवे छे. परंतु एमां शुं छे भाई? एमां तो जो कषाय मंद होय तो पुण्यभाव छे, पण मिथ्यात्व तो ऊभुं ज छे. एमां त्याग तो जराय नथी केमके मिथ्यात्वनो ज्यां त्याग नथी त्यां बीजो त्याग जराय संभवित नथी. मिथ्यात्वनो त्याग थतां सर्व राग- द्वेष-मोहनो त्याग थई जाय छे. अहीं कह्युं ने के-ज्ञानीने समस्त राग-द्वेष-मोहनो अभाव छे. भाई! आचार्य भगवान कई शैलीथी वात करे छे ते यथार्थ समजवी जोईए.
अरे! पण एने कयां पडी छे? आखो दिवस बायडी-छोकरां अने वेपार-धंधानुं जतन करवामां ज गूंचायेलो रहे छे. त्यां वळी थोडो वखत मळे तो एवुं सांभळवा मळे के-व्रत करो, तप करो, भक्ति करो इत्यादि; ते वडे तमारुं कल्याण थई जशे. परंतु भाई! ए तो ऊंधी श्रद्धारूप मिथ्यात्वने पोषक-अज्ञानने पोषक प्ररूपणा छे.
भगवान! ज्यां पोते सच्चिदानंदस्वरूपे त्रिकाळ बिराजे छे त्यां द्रष्टि करवा जेवी छे. पोते सदा परमात्मस्वरूप ज छे तेनी पासे जवा जेवुं छे, अने निमित्त, राग ने पर्याय तरफ पीठ करवा जेवी छे. समजाणुं कांई...?
त्यारे कोई वळी कहे छे के-‘समाधि शतक’ शास्त्रमां अव्रतना परिणामने तडकानी अने व्रतना परिणामने छायानी उपमा आपी छे ने?
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समाधानः– हा, परंतु ए व्रत कोने होय? भाई! जेने अंतरना अवलंबने आत्मज्ञान थयुं छे एनी त्यां वात छे. विना आत्मज्ञान अव्रतना परिणाम तडको अने व्रतना परिणाम छांयो-एम छे नहि. जेने आत्माना अनुभवसहित सम्यग्दर्शन थयुं छे एवा समकितीने अव्रतना अशुभभावमां रहेवुं ए तडको छे. ज्यारे ते व्रतना शुभमां आवे छे त्यारे ते व्रत- परिणाम छांया समान छे. ज्यारे समकितीने अंदर वीतरागी शांति वधी जाय छे, वैराग्यना परिणाम द्रढतर थाय छे त्यारे तेने साथे व्रतना विकल्प आवे छे एनी त्यां वात छे.
अहीं हवे विशेष खुलासो करे छे के-‘अहीं सकळ रागद्वेषमोहनो अभाव बुद्धिपूर्वक रागद्वेषमोहनी अपेक्षाए समजवो.’ मतलब के ज्ञानीने जे सर्व रागद्वेषमोहनो अभाव कह्यो ते बुद्धिपूर्वक एटले रुचिपूर्वकना रागद्वेषमोहनी अपेक्षाए समजवुं. पंडित राजमलजीए ‘बुद्धिपूर्वक’नो बीजो अर्थ ‘जाणवामां आवे ते’-एम कर्यो छे परंतु ए वात अहीं नथी. अहीं तो अभिप्रायमां ज्ञानीने सर्व रागद्वेषमोहनो अभाव छे एनी वात छे.
लोको पूछे छे ने के-राग केम टळे? भाई! पोते चिदानंदघनस्वरूप परमात्मा छे तेने स्पर्श करतां एटले के तेमां एकाग्र थई परिणमतां रागनो नाश थई जाय छे. आ सिवाय रागना नाशनो बीजो कोई उपाय नथी.
अरे! संसारना काम आडे एने आ सांभळवा अने समजवानी कयां नवराश छे? घरे पोताने दीकरो न होय तो कोई बीजानो दीकरो गोदमां ले पण संसारनुं लप तो अंदर राखे ज. अरे! आ संसारीओनी केवी रीत! बीजाना दीकराने गोदे लेवा करतां जे पैसा होय ते धर्मकार्यमां खर्चे तो शुभभाव थाय, अने समय तत्त्व-विचारमां काढे तो आत्मकल्याण पण थाय.
हा, पण गोदमां लेवाथी पोतानो वंश रहे ने? पैसा धर्मकार्यमां खर्चे एमां वंश कयां रहे?
समाधानः– कोनो वंश भाई? आ जड देहनो वंश? भारे विचित्र संसार! भाई! ए देहना वंशनी रुचि अनंत जन्म-मरणना दुःखमां नाखनारी छे. ए बधा लपने छोडी आ शास्त्र शुं कहे छे एनुं श्रवण, चिंतन अने मनन करवानी फुरसद लेवी जोईए.
हवे आ ज अर्थ द्रढ करनारी बे गाथाओ आवे छे तेनी सूचनिकारूप श्लोक कहे छेः-
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‘यत्’ कारण के ‘ज्ञानिनः रागद्वेषविमोहानां असम्भवः’ ज्ञानीने रागद्वेषमोहनो असंभव छे ‘ततः एव’ तेथी ‘अस्य बंधः न’ तेने बंध नथी.
जुओ तो खरा! आ शुं कहे छे? के चोथे गुणस्थानके समकितीने-ज्ञानीने रागद्वेषमोह एटले के दुःख नथी. खरेखर तो अहीं मिथ्यात्वनो नाश थयो छे तेथी ते संबंधी रागद्वेषमोह नथी एम कहेवुं छे. आथी कोई एम समजी ले के सर्वथा रागद्वेष के दुःख नथी अर्थात् एकलुं सुख ज सुख छे तो एम नथी. साचा भावलिंगी संत के जेने आत्मज्ञान सहित प्रचुर स्वसंवेदन वर्ते छे तेने पण छठ्ठे गुणस्थानके किंचित् राग, अशुद्धता अने दुःख छे. अहीं आ कळशमां तो बुद्धिपूर्वक एटले रुचिपूर्वकना आस्रवना अभावनी अपेक्षाए वात छे.
अढी द्वीपनी बहार स्वयंभूरमण समुद्रमां एक समकितीए असंख्य मिथ्याद्रष्टि-ए रीते असंख्य समकिती पांचमे गुणस्थानके छे. एवी ज रीते अविरत सम्यग्द्रष्टि तिर्यंच पण त्यां असंख्य छे. ते बधा ज्ञानी छे तेथी ते बधाने अहीं जे अपेक्षाए कहेवामां आवे छे ते अपेक्षाए रागद्वेषमोहनो अभाव छे, अने तेथी तेमने बंध नथी. ते पाणीमां एक हजार जोजन एटले चार हजार गाउ लांबों मगरमच्छ रहे छे. ते दरियानुं पाणी पीवे छे जे पाणीना बिंदुमां असंख्य जीव रहेला छे; त्यां गरणुं नथी के पाणी गळीने पीवे. छतां तेने एनुं पाप अल्प छे अने बंधन पण अल्प छे. सम्यग्दर्शननी अपेक्षाए (द्रष्टिनी मुख्यताए) तेने आस्रव अने बंध नथी अने चारित्रनी अल्प अस्थिरता छे तेनी अपेक्षाए जोवामां आवे तो अल्प अस्थिरता छे अने अल्प बंध पण छे. कोईने एम थाय के आ केवुं? घडीकमां छे ने घडीकमां नथी! भाई! ज्यां जे अपेक्षाए वात होय ते यथार्थ समजवी जोईए.
ज्ञानीने रागद्वेषमोहनो असंभव छे तेथी तेने बंध नथी-ए परथी कोई एम समजे के ज्ञानी करोडो पूर्व मोटा राजपाटमां अने हजारो स्त्रीओना भोगमां रहे, जेनो एक कोळियो छन्नुं करोडनुं पायदळ न पचावी शके एवा बत्रीस कोळियानुं भोजन करे छतां तेने बंध नथी तो ते बराबर नथी. तेने अल्प अस्थिरतानो राग छे अने तेटलुं बंधन पण छे. चक्रवर्ती छन्नु हजार राणीओने भोगवे छतां तेना भोगने निर्जरानुं कारण कह्युं छे माटे तेने सर्वथा बंध थतो ज नथी एम कोई माने तो ते यथार्थ नथी. तेने मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी कषाय नथी अने अनंत संसारना कारणभूत बंध ए ज होवाथी एना (मिथ्यात्वादिना) अभावनी अपेक्षाए बंध नथी, निर्जरा छे एम कह्युं छे. त्यां कोई पकडी ले के-ल्यो, भोगने निर्जरानुं कारण कह्युं छे तो भाई! तुं अपेक्षा समज्यो नथी. भाई! तुं धीरजथी सांभळ.
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द्रष्टिपूर्वक स्वभावनी रुचिमां रागनो अभिप्राय छूटी जाय छे तेथी द्रष्टिनो महिमा दर्शाववा ज्ञानीना भोगने निर्जरानुं कारण कह्युं छे; अन्यथा जे पंचमहाव्रतना शुभ परिणामने बंधनुं कारण कहे ते शुं भोगना अशुभ परिणामने निर्जरानुं कारण कहे? भाई! तुं अपेक्षा न समजे अने (एकांते) ताणे तो ए न चाले बापा!
निर्जरा अधिकारमां एक बीजी वात आवे छे के-‘‘हे समकिती! तुं परद्रव्यने भोगव.’’ हवे आत्मा ज्यां परद्रव्यने भोगवी शकतो नथी त्यां तुं एने भोगव एम कहे एनो अर्थ शुं? भाई! त्यां परद्रव्यना कारणे तने अपराध छे एवी विपरीत द्रष्टि छोडाववानी वात छे. एम के परद्रव्यना कारणे तने अपराध-नुकशान थाय छे एवी मिथ्या मान्यता छोडी दे. तारा अपराधथी तने बंध छे एम त्यां सिद्ध करवुं छे.
ज्ञानीने किंचित् राग होय छे पण ए तो अस्थिरतानो दोष छे, अने ते स्वरूपना उग्र अवलंबने क्रमशः मटी जाय छे. शास्त्रमां कह्युं छे ने के-
‘सिज्झंति चरियभट्टा दंसणभट्टा ण सिज्झंति’ (दर्शनपाहुड) मतलब के व्रत, तप आदिरूप पुण्यभावथी धर्म थाय एम जे माने छे ते आत्मा दर्शनथी भ्रष्ट छे अने तेनो मोक्ष थतो नथी केमके जे दर्शनथी भ्रष्ट छे ते ज्ञान अने चारित्रथी पण भ्रष्ट छे. मिथ्याद्रष्टिने आत्मानां रुचि, ज्ञान के चारित्र एकेय होतां नथी. ज्यारे समकिती चारित्रथी रहित होय छतां तेने सम्यक्दर्शन छे एटले वर्तमानमां पुरुषार्थनी ओछपना कारणे किंचित् अस्थिरतानो दोष छे तेने ते (हेयपणे) जाणे छे अने क्रमे अंतरना उग्र अवलंबनना पुरुषार्थ वडे तेनो ते नाश करी दे छे.
भाई! व्रत, तप, भक्ति, पूजा आदिना परिणाम शुभभाव छे अने ते दोष छे. समयसारमां आलोचननो ज्यां पाठ छे त्यां शुभभाव छे ते वर्तमान दोष छे एम कह्युं छे; माटे तो तेनुं (आत्माना आश्रये) आलोचन करे छे. परंतु अत्यारे बहु फेरफार थई गयो! लोकोए वीतरागना मार्गने चुंथी चुंथीने रागमां रगडी नाख्यो छे.
भाई! भगवान केवळी परमात्मानो मार्ग वीतरागतानो मार्ग छे, अने ते वीतराग पर्यायथी उत्पन्न थाय छे. रागनी पर्याय वडे वीतराग मार्ग कदीय उत्पन्न न थाय. चोथे गुणस्थाने सम्यग्दर्शन, ज्ञान अने चारित्रनो जे अंश छे ते वीतराग पर्याय छे अने ते पर्याय रागना आश्रये उत्पन्न थई नथी, पण पोताना त्रिकाळी वीतरागस्वभावना आश्रये उत्पन्न थई छे.
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जेना उपदेशमां एम आवतुं होय के आ व्रत अने तप आदिना शुभभाव करतां करतां कल्याण थई जशे एनी तो द्रष्टि ज मिथ्या छे. एनुं श्रद्धान ज्यां विपरीत छे त्यां व्रत अने तप एने (सम्यक्) छे ज कयां? (छे ज नहि). अज्ञानीनी वाते वाते फेर छे, भाई!
अहीं कहे छे-ज्ञानीने नवीन बंध नथी केमके रागद्वेषमोह छे ते बंधनुं कारण छे अने ज्ञानीने रागद्वेषमोहनो असंभव छे.
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तम्हा आसवभावेण विणा हेदू ण पच्चया होंति।। १७७।।
तेसिं पि य रागादी तेसिमभावे ण बज्झंति।। १७८।।
तस्मादास्रवभावेन विना हेतवो न प्रत्यया भवन्ति।। १७७।।
तेषामपि च रागादयस्तेषामभावे न बध्यन्ते।। १७८।।
हवे आ अर्थ ना समर्थननी बे गाथाओ कहे छेः-
तेथी ज आस्रवभाव विण नहि प्रत्ययो हेतु बने; १७७.
तेनांय रागादिक कह्या, रागादि नहि त्यां बंध ना. १७८.
गाथार्थः– [रागः] राग, [द्वेषः] द्वेष [च मोहः] अने मोह- [आस्रवाः] ए आस्रवो [सम्यग्द्रष्टेः] सम्यग्द्रष्टिने [न सन्ति] नथी [तस्मात्] तेथी [आस्रवभावेन विना] आस्रवभाव विना [प्रत्ययाः] द्रव्यप्रत्ययो [हेतवः] कर्मबंधनां कारण [न भवन्ति] थता नथी.
[चतुर्विकल्प हेतुः] (मिथ्यात्वादि) चार प्रकारना हेतुओ [अष्टविकल्पस्य] आठ प्रकारनां कर्मोनां [कारणं] कारण [भणितम्] कहेवामां आव्या छे, [च] अने [तेषाम् अपि] तेमने पण [रागादयः] (जीवना) रागादि भावो कारण छे; [तेषाम् अभावे] तेथी रागादि भावोना अभावमां [न बध्यन्ते] कर्म बंधातां नथी. (माटे सम्यग्द्रष्टिने बंध नथी.)
टीकाः– सम्यग्द्रष्टिने रागद्वेषमोह नथी कारण के सम्यग्द्रष्टिपणानी अन्यथा अनुपपत्ति छे (अर्थात् रागद्वेषमोहना अभाव विना सम्यग्द्रष्टिपणुं बनी शकतुं नथी);
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मैकाग्रयमेव कलयन्ति सदैव ये ते।
रागादिमुक्तमनसः सततं भवन्तः
पश्यन्ति बन्धविधुरं समयस्य सारम्।। १२०।।
रागद्वेषमोहना अभावमां तेने (सम्यग्द्रष्टिने) द्रव्यप्रत्ययो पुद्गलकर्मनुं (अर्थात् पुद्गलकर्मना बंधननुं) हेतुपणुं धारता नथी कारण के द्रव्यप्रत्ययोने पुद्गलकर्मना हेतुपणाना हेतुओ रागादिक छे; माटे हेतुना हेतुना अभावमां हेतुमाननो (अर्थात् कारणनुं जे कारण तेना अभावमां कार्यनो) अभाव प्रसिद्ध होवाथी ज्ञानीने बंध नथी.
भावार्थः– अहीं, रागद्वेषमोहना अभाव विना सम्यग्द्रष्टिपणुं होई शके नहि एवो अविनाभावी नियम कह्यो त्यां मिथ्यात्वसंबंधी रागादिकनो अभाव समजवो. मिथ्यात्वसंबंधी रागादिकने ज अहीं रागादिक गणवामां आव्या छे. सम्यग्द्रष्टि थया पछी कांईक चारित्रमोहसंबंधी राग रहे छे तेने अहीं गण्यो नथी; ते गौण छे. आ रीते सम्यग्द्रष्टिने भावास्रवनो अर्थात् रागद्वेषमोहनो अभाव छे. द्रव्यास्रवोने बंधना हेतु थवामां हेतुभूत एवा रागद्वेषमोहनो सम्यग्द्रष्टिने अभाव होवाथी द्रव्यास्रवो बंधना हेतु थता नथी, अने द्रव्यास्रवो बंधना हेतु नहि थता होवाथी सम्यग्द्रष्टिने-ज्ञानीने -बंध थतो नथी.
सम्यग्द्रष्टिने ज्ञानी कहेवामां आवे छे ते योग्य ज छे. ‘ज्ञानी’ शब्द मुख्यपणे त्रण अपेक्षाए वपराय छेः- (१) प्रथम तो, जेने ज्ञान होय ते ज्ञानी कहेवाय; आम सामान्य ज्ञाननी अपेक्षाए तो सर्व जीवो ज्ञानी छे. (२) सम्यक् ज्ञान अने मिथ्या ज्ञाननी अपेक्षा लेवामां आवे तो सम्यग्द्रष्टिने सम्यग्ज्ञान होवाथी ते अपेक्षाए ते ज्ञानी छे अने मिथ्याद्रष्टि अज्ञानी छे. (३) संपूर्ण ज्ञान अने अपूर्ण ज्ञाननी अपेक्षा लेवामां आवे तो केवळी भगवान ज्ञानी छे अने छद्मस्थ अज्ञानी छे कारण के सिद्धांतमां पांच भावोनुं कथन करतां बारमा गुणस्थान सुधी अज्ञानभाव कह्यो छे. आ प्रमाणे अनेकांतथी अपेक्षा वडे विधिनिषेध निर्बाधपणे सिद्ध थाय छे; सर्वथा एकांतथी कांई पण सिद्ध थतुं नथी.
हवे, ज्ञानीने बंध थतो नथी ए शुद्धनयनुं माहात्मय छे माटे शुद्धनयना महिमानुं काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [उद्धतबोधचिह्नम् शुद्धनयम् अध्यास्य] उद्धत ज्ञान (-कोईनुं दबाव्युं दबाय नहि एवुं उन्नत ज्ञान) जेनुं लक्षण छे एवा शुद्धनयमां रहीने अर्थात् शुद्धनयनो आश्रय करीने [ये] जेओ [सदा एव] सदाय [ऐकाग्रयम् एव] एकाग्रपणानो
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रागादियोगमुपयान्ति विमुक्तबोधाः।
ते कर्मबन्धमिह बिभ्रति पूर्वबद्ध–
द्रव्यास्रवैः कृतविचित्रविकल्पजालम्।। १२१।।
ज [कलयन्ति] अभ्यास करे छे [ते] तेओ, [सततं] निरंतर [रागादिमुक्तमनसः भवन्तः] रागादिथी रहित चितवाळा वर्तता थका, [बन्धविधुरं समयस्य सारम्] बंधरहित एवा समयना सारने (अर्थात् पोताना शुद्ध आत्मस्वरूपने) [पश्यन्ति] देखे छे-अनुभवे छे.
भावार्थः– अहीं शुद्धनय वडे एकाग्रतानो अभ्यास करवानुं कह्युं छे. ‘हुं केवळ ज्ञानस्वरूप छुं, शुद्ध छुं’-एवुं जे आत्मद्रव्यनुं परिणमन ते शुद्धनय. आवा परिणमनने लीधे वृत्ति ज्ञानमां वळ्या करे अने स्थिरता वधती जाय ते एकाग्रतानो अभ्यास.
शुद्धनय श्रुतज्ञाननो अंश छे अने श्रुतज्ञान तो परोक्ष छे तेथी ते अपेक्षाए शुद्धनय द्वारा थतो शुद्ध स्वरूपनो अनुभव पण परोक्ष छे. वळी ते अनुभव एकदेश शुद्ध छे ते अपेक्षाए तेने व्यवहारथी प्रत्यक्ष पण कहेवामां आवे छे. साक्षात् शुद्धनय तो केवळज्ञान थये थाय छे. १२०.
हवे कहे छे के जेओ शुद्धनयथी च्युत थाय तेओ कर्म बांधे छेः-
श्लोकार्थः– [इह] जगतमां [ये] जेओ [शुद्धनयतः प्रच्युत्य] शुद्धनयथी च्युत थईने [पुनः एव तु] फरीने [रागादियोगम्] रागादिना संबंधने [उपयान्ति] पामे छे [ते] एवा जीवो, [विमुक्तबोधाः] जेमणे ज्ञानने छोडयुं छे एवा थया थका, [पूर्वबद्धद्रव्यास्रवैः] पूर्वबद्ध द्रव्यास्रवो वडे [कर्मबन्धम्] कर्मबंधने [विभ्रति] धारण करे छे (-कर्मोने बांधे छे) - [कृत–विचित्र–विकल्प–जालम्] के जे कर्मबंध विचित्र भेदोना समूहवाळो होय छे (अर्थात् जे कर्मबंध अनेक प्रकारनो होय छे).
भावार्थः– शुद्धनयथी च्युत थवुं एटले ‘हुं शुद्ध छुं’ एवा परिणमनथी छुटीने अशुद्धरूपे परिणमवुं ते अर्थात् मिथ्याद्रष्टि बनी जवुं ते. एम थतां, जीवने मिथ्यात्व संबंधी रागादिक उत्पन्न थाय छे, तेथी द्रव्यास्रवो कर्मबंधनां कारण थाय छे अने तेथी अनेक प्रकारनां कर्म बंधाय छे. आ रीते अहीं शुद्धनयथी च्युत थवानो अर्थ शुद्धताना भानथी (सम्यक्त्वथी) च्युत थवुं एम करवो. उपयोगनी अपेक्षा अहीं गौण छे, अर्थात् शुद्धनयथी च्युत थवुं एटले शुद्ध उपयोगथी च्युत थवुं एवो
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अर्थ अहीं मुख्य नथी; कारण के शुद्धोपयोगरूप रहेवानो काळ अल्प होवाथी मात्र अल्प काळ शुद्धोपयोगरूप रहीने पछी तेनाथी छूटी ज्ञान अन्य ज्ञेयोमां उपयुक्त थाय तोपण मिथ्यात्व विना जे रागनो अंश छे ते अभिप्रायपूर्वक नहि होवाथी ज्ञानीने मात्र अल्प बंध थाय छे अने अल्प बंध संसारनुं कारण नथी. माटे अहीं उपयोगनी अपेक्षा मुख्य नथी.
हवे जो उपयोगनी अपेक्षा लईए तो आ प्रमाणे अर्थ घटेः-जीव शुद्धस्वरूपना निर्विकल्प अनुभवथी छूटे परंतु सम्यक्त्वथी न छूटे तो तेने चारित्रमोहना रागथी कांईक बंध थाय छे. ते बंध जोके अज्ञानना पक्षमां नथी तोपण ते बंध तो छे ज. माटे तेने मटाडवाने सम्यग्द्रष्टि ज्ञानीने शुद्धनयथी न छूटवानो अर्थात् शुद्धोपयोगमां लीन रहेवानो उपदेश छे. केवळज्ञान थतां साक्षात् शुद्धनय थाय छे. १२१.
हवे आ अर्थना समर्थननी बे गाथाओ कहे छेः-
शुं कहे छे? के जे जीव रागद्वेषमोह करे छे तेने जूनां द्रव्यकर्म नवां कर्मना बंधनुं कारण थाय छे. परंतु सम्यग्द्रष्टिने भावास्रव नथी तेथी तेने द्रव्यास्रवो नवा बंधनुं कारण थता नथी एम आ गाथाओमां द्रढ करे छे-
‘सम्यग्द्रष्टिने रागद्वेषमोह नथी कारण के सम्यग्द्रष्टिपणानी अन्यथा अनुपपत्ति छे...’
जुओ, शुं कहे छे? के रागथी भिन्न पडीने जेणे भेदज्ञान प्रगट कर्युं अने सच्चिदानंदमय भगवान आत्मानो अनुभव कर्यो ते सम्यग्द्रष्टिने रागद्वेषमोह नथी. रागना कर्तापणानो जेने अभिप्राय नथी अने शुद्ध चैतन्यना आश्रये प्रगट थती वीतराग पर्याय ज धर्मरूप छे एवी जेनी मान्यता छे ते सम्यग्द्रष्टि छे अने एना उपदेशमां शुभरागथी शुद्धता प्रगटे एवो अभिप्राय कदीय आवे नहि. अहा! निर्मळ विज्ञानघनस्वरूप भगवान आत्माने रागथी भिन्न अनुभववो ए ज सम्यग्दर्शन छे अने त्यांथी ज मोक्षमार्गनी शरूआत थाय छे.
अहीं मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी कषायनी अपेक्षाए वात छे. सम्यग्द्रष्टिने अनंतानुबंधी रागद्वेष अने मोह नाम मिथ्यात्व ए त्रणे नथी. मिथ्यात्व अने रागद्वेष जे अनंतसंसारनी जड छे एने अहीं संसार गणीने आस्रव कह्यो छे.
हवे आथी कोई बचाव करे के अमने अस्थिरता गमे तेटली होय तेमां अमने
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शुं छे? तो एम न चाले. (एवो बचाव करनार तो समकिती ज नथी). समकितीने जे किंचित् अस्थिरता छे ते चारित्रनो दोष छे अने तेनुं एने अल्प बंधन पण छे. ठेठ दसमा गुणस्थाने ज्यां अबुद्धिपूर्वकनो राग छे त्यां पण मोह तथा आयु कर्म सिवाय छ कर्मनुं बंधन पडे छे. समकितीने ज्यां सुधी शुभराग छे त्यां सुधी ए दोष छे; परंतु मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी रागद्वेष जेवो ए महा दोष नथी.
अरे! जगतमां अज्ञानीओ शास्त्र वांचवाथी, भगवाननी प्रतिमाना दर्शनथी, भगवाननी भक्तिथी सम्यग्दर्शन थशे एम माने छे. वळी शुभराग करतां करतां समकित प्रगटशे एम परस्पर आचार्यपणुं करे छे; आचार्यपणुं एटले मांहोमांहे एकबीजाने उपदेशे छे. तेओ कहे छे-पंचमकाळमां अत्यारे आ ज करी शकाय अने आ ज (शुभराग ज) करवा जेवुं छे. कंईक (पुण्यभाव) करो, करो; कंईक करशो तो कल्याण थशे.
तेमने अहीं स्पष्ट कहे छे के रागथी भिन्न पडीने आत्मानुभव करे तेने सम्यग्दर्शन थाय छे अने समकितीने रागद्वेषमोहनो अभिप्राय होतो नथी. भाई! परमार्थनो आ एक ज पंथ छे. पांचमा आरामां रागथी (धर्म) थाय अने चोथा आरामां भेदज्ञानथी थाय-शुं एम छे? (ना). अरे! लोकोए बहु फेरफार करी नाख्यो छे! रागथी प्राप्ति थाय एवी वातो परस्पर होंशथी करे छे अने होंशथी सांभळे छे पण पोते निर्मळानंदनो नाथ शुद्ध चैतन्यमय भगवान सदा रागथी भिन्न अंदर पडयो छे एनी एने खबर नथी. अरे भाई! एक वार अंदर डोकियुं करी एनी श्रद्धा तो कर; तेथी तने लाभ थशे, समकित थशे. पण एने कयां नवराश छे?
बिचाराने आखो दिवस-चोवीसे कलाक संसारमां-वेपार-धंधो अने बायडी-छोकरां आदिनुं जतन करवामां-पापमां चाल्यो जाय छे. धर्म तो कयांय रह्यो, पुण्येय एने कयांथी मळे? (पुण्यनां पण एने ठेकाणां नथी). आखो दि आम रळवुं अने आम कमावुं, माल आम लाववो अने आम वेचवो, आम वखारमां नाखवो अने आम संभाळ करवी-इत्यादि अनेक विकल्पो करी आखो दि पाप ज पाप उपजावे छे. पाप, पाप ने पापमां पडेला तेने धर्मबुद्धि केम थाय?
आत्मानो वेपार तो रागरहित थवुं ते छे. मोक्षना पंथे जवुं छे जेने एवा मोक्षार्थीए तो केवळज्ञानने उत्पन्न करनारी भेदज्ञानज्योति प्रगट करवानी छे. शुं (जेनाथी भिन्न थयुं छे एवा) रागने राखीने भेदज्ञान थाय? (न थाय). वीतरागनी वाणीमां तो रागथी भिन्न पडीने वीतराग दशा प्रगट करवानी वात छे. जन्म-मरणनो अंत लाववो होय तो बापु! आ वात छे. बाकी तो पुण्येय अनंतवार कर्यां अने एना फळमां स्वर्गमां पण अनंतवार गयो. भगवानना समोसरणमां पण अनंतवार
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एणे आ वात सांभळी परंतु रागथी भिन्न पडवानी वात एने रुचि नहि. तेथी तो कह्युं छे के-‘केवळी आगळ रही गयो कोरो.’ द्रव्य संयमथी ठेठ ग्रैवेयक सुधी जईने आत्माना भान विना त्यांथी मनुष्य थई, ढोरमां जई नरक-निगोदमां जीव चाल्यो जाय छे. आवी वात छे, भाई!
अहो! आ तो खूब गंभीर वात छे! कुंदकुंदाचार्यनां शास्त्रो एटले सीधी भगवाननी वाणी. वळी ए महा दिगंबर संत पोताना निजवैभवथी वात करी रह्या छे. समयसार गाथा प मां परमगुरु सर्वज्ञदेव एटले भगवान महावीर आदि सर्वज्ञ-देवो-त्यांथी शरू करीने मारा गुरु पर्यंत बधा निर्मळ विज्ञानघनस्वभावमां मग्न हता एम कह्युं छे. त्यां महाव्रत पाळता हता के नग्न दिगंबर हता एम वात लीधी नथी. अरे! केवळी बधाने जाणे छे एम पण त्यां लीधुं नथी. तेओ निर्मळ विज्ञानघनस्वभावमां मग्न हता एम कह्युं छे. अहो! शुं शैली छे! वळी त्यां ज कह्युं छे के-एमनाथी ‘‘प्रसादरूपे अपायेल’’ अर्थात् एमणे कृपा करीने शुद्धात्मतत्त्वनो उपदेश आप्यो; अमे लायक हता माटे अमने उपदेश आप्यो एम त्यां न कह्युं. जुओ, केवी नम्रता!
समयसार गाथा प मां भगवाने कह्युं ने में सांभळ्युं ते हुं कहुं छुं एम न कह्युं पण हुं मारा निज वैभवथी कहुं छुं एम आचार्यदेवे कह्युं छे. अहा! आ तो शैली ज जुदी छे! आमां तो अंतरनिमग्नतापूर्वक स्वानुभवनी ज प्रधानता छे. स्वानुभव विना भगवान पासेथी सांभळ्युं छे माटे भगवाननो आशय ज अज्ञानीनी वाणीमां आवे एम होतुं नथी. माटे ज ज्ञानीना उपदेशनुं निमित्त बनतां मुमुक्षु जीवे सौ प्रथम स्वानुभव सहित सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं ए ज मुख्य छे. मोक्षमार्ग प्रकाशकमां लीधुं छे के अज्ञानीनो उपदेश सम्यग्दर्शन प्राप्त थवामां निमित्त थतो नथी. तथा ज्ञानी पासेथी सांभळेलुं होय छतां मिथ्याद्रष्टिना उपदेशमां भले ते वीतरागनी वात कहेतो होय छतां कारणविपरीतता, भेदाभेदविपरीतता अने स्वरूपविपरीतता आव्या विना रहेती नथी. तेथी तो आचार्यदेवे कह्युं के हुं कहुं छुं ते स्वानुभवथी प्रमाण करवुं. (श्रोता अने वक्ता बंनेमां स्वानुभवनी ज मुख्यता छे).
अहीं कहे छे-सम्यग्द्रष्टिने रागद्वेषमोह नथी कारण के सम्यग्द्रष्टिपणानी अन्यथा अनुपपत्ति छे अर्थात् रागद्वेषमोहना अभाव विना सम्यग्द्रष्टिपणुं बनतुं नथी. सम्यग्द्रष्टिने रागद्वेषमोह नथी एटले के रागादि करवा लायक छे एवी बुद्धि सम्यग्द्रष्टिने नथी. अनंतानुबंधीना रागद्वेष एने नथी अने जे किंचित् राग छे एनुं एने स्वामित्व नथी. सम्यग्द्रष्टिए तो रागरहित आखो भगवान आत्मा पर्यायमां प्रसिद्ध कर्यो छे. क्षणिक कृत्रिम अवस्थाथी पोतानुं सहज त्रिकाळी चैतन्यतत्त्व भिन्न छे एवुं एना परिचयमां अने वेदनमां आवी गयुं छे. सम्यग्द्रष्टिए रागथी लाभ