Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 173-176.

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तो समकितीने आत्मा पूर्ण आवी गयो छे, पण देखवा-जाणवामां अने आचरवामां जे पूर्ण आववो जोईए ते हजु आव्यो नथी. भगवान आत्माने सर्वोत्कृष्ट भावे देखवो-जाणवो एटले परिपूर्ण आश्रय करीने देखवो-जाणवो एम वात छे. आ पर (अरहंतादि) भगवानने देखवा- जाणवानी वात नथी पण पोतानुं जे पूर्ण स्वरूप छे तेने देखवा-जाणवानी वात छे. भाई! आ तो सर्वज्ञ भगवाननी साक्षात् जे दिव्यध्वनि थई तेने संतो कहे छे.

छहढालामां आवे छे ने के-

‘‘ज्ञान समान न आन जगतमें सुखको कारन,
इहि परमामृत जन्मजरामृति-रोग-निवारन.’’

भगवान आत्मानुं ज्ञान ते सुखनुं कारण छे, केमके ए ज्ञान थतां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे. आवुं आत्मज्ञान जन्म-जरा-मरणरूप रोगने टाळनार परम अमृत छे. आ सिवाय आ शरीर, स्त्री, कुटुंब-परिवार, बाग-बंगला के धन-संपत्ति इत्यादि कोई सुखनुं कारण नथी. लौकिक ज्ञान के पुण्यना परिणाम ए कोई सुखनां साधन नथी.

केटलाक कहे छे के आमां शुं करवुं तेनी सूझ पडती नथी. व्रत, उपवास, एकाशन, रसत्याग, ब्रह्मचर्य आदि पाळवानुं कहो तो समजाय तो खरुं.

भाई! जे करवानुं तने समजाय छे ए तो बधो राग छे. एनाथी तो आत्माने बंध अने दुःख थाय छे. चिद्ब्रह्मस्वरूप भगवान आत्माने जघन्य भावे देखे-जाणे अने आचरे एटलुं जघन्य ब्रह्मचर्य छे अने सर्वोत्कृष्ट भावे देखे-जाणे-आचरे तो ते सर्वोत्कृष्ट एटले संपूर्ण ब्रह्मचर्य छे. (ब्रह्मचर्य पाळवानो राग तो कथनमात्र ब्रह्मचर्य छे.)

ज्ञानी ज्यांसुधी पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपने जघन्यभावे देखे-जाणे अने आचरे छे त्यां सुधी जघन्य भावनी अन्यथा अनुपपत्ति वडे अर्थात् जो राग न होय तो जघन्यभाव बनतो (सिद्ध थतो) नथी तेथी जेनुं अनुमान थई शके छे एवा अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंकना विपाकनो सद्भाव होवाथी तेने पुद्गलकर्मनो बंध थाय छे. त्यां बुद्धिपूर्वकनो-रुचिपूर्वकनो राग भले न होय पण अरुचिपूर्वक त्यां राग छे अने तेथी तेटलो बंध पण छे. तेथी कहे छे-

‘माटे त्यां सुधी ज्ञानने देखवुं, जाणवुं अने आचरवुं के ज्यां सुधीमां ज्ञाननो जेवडो पूर्ण भाव छे तेवडो देखवामां, जाणवामां अने आचरवामां बराबर आवी जाय.’ जोयुं? ज्यां सुधी सर्वोत्कृष्टभावे जाणवुं, देखवुं अने आचरवुं न थाय त्यां सुधी अंदर देखवा-जाणवा- आचरवानो पुरुषार्थ करता रहेवुं एम कहे छे. आमां


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दर्शन, ज्ञान अने चारित्र त्रणेय लीधां. अहा! शुं टीका छे! शुं समयसार! परम अलौकिक वात छे.

हवे कहे छे-ज्यारथी ज्ञाननो एटले शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मानो जेवडो पूर्ण भाव छे तेवडो देखवा-जाणवा अने आचरवामां पूरेपूरो आवी जाय ‘त्यारथी साक्षात् ज्ञानी थयो थको (आत्मा) सर्वथा निरास्रव ज होय छे.’ केवळज्ञानमां पोतानो आत्मा पूर्ण देखाय, पूर्ण जणाय अने पूर्ण आचरणमां आवे त्यारे ते जीव साक्षात् ज्ञानी थाय अने त्यारे ते सर्वथा निरास्रव थाय छे.

टीकानी शरूआतमां जे कह्युं के ‘जे खरेखर ज्ञानी छे’-एमां ते ज्ञानी तो छे पण साक्षात् ज्ञानी नथी. साक्षात् ज्ञानी तो पोताने सर्वोत्कृष्टभावे देखे, जाणे अने आचरे त्यारे थाय छे. ज्ञानीने बुद्धिपूर्वक राग-द्वेष-मोहरूपी आस्रवभावनो अभाव होवाथी ते द्रष्टि अपेक्षाए निरास्रव ज छे एम कह्युं. अने अहीं ते साक्षात् ज्ञानी थयो थको सर्वथा निरास्रव ज होय छे एम कह्युं. उपरनी अने आ नीचेनी-एम बन्ने वातनो मेळ छे.

पुण्य-पाप अधिकारमां गाथा १६० मां आवे छे के-‘जे पोते ज ज्ञान होवाने लीधे विश्वने सामान्य-विशेषपणे जाणवाना स्वभाववाळुं छे एवुं ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य, अनादिकाळथी पोताना पुरुषार्थना अपराधथी प्रवर्तता एवा कर्ममळ वडे लेपायुं-व्याप्त थयुं- होवाथी ज, बंध-अवस्थामां सर्व प्रकारे संपूर्ण एवा पोताने अर्थात् सर्व प्रकारे सर्व ज्ञेयोने जाणनारा एवा पोताने नहि जाणतुं थकुं, आ प्रमाणे प्रत्यक्ष अज्ञानभावे वर्ते छे.’ जुओ, सर्वज्ञानी, सर्वदर्शी एवो पोते सर्वने जाणतो नथी एम नथी लीधुं पण संपूर्ण एवा पोताने जाणतो नथी एम वात लीधी छे. अहीं पण पोताने देखवा-जाणवा अने आचरवानी वात छे. ज्ञानी पोताने ज्यांसुधी जघन्यभावे देखे-जाणे अने आचरे छे त्यांसुधी तेने किंचित् अस्थिरतानो राग छे अने तेथी बंध पण छे. परंतु ज्यारे ते सर्वोत्कृष्ट भावे पोताने देखे- जाणे अने आचरे छे त्यारे ते साक्षात् ज्ञानी थाय छे अने त्यारे ते सर्वथा निरास्रव ज होय छे.

वळी त्यां (गाथा १६० मां) कह्युं छे के-‘ते अनादि काळथी पोताना पुरुषार्थना अपराधथी प्रवर्तता एवा कर्ममळ वडे लेपायुं होवाथी ज’-जुओ, आमां पण पोताना पुरुषार्थनो अपराध लीधो छे; वळी कर्ममळ लीधुं छे, कर्मरज नहि. (मतलब के पोताना विकारना-अज्ञानना भाव जड द्रव्यकर्मने लीधे छे एम नहि). पण कोण जाणे त्रणेय संप्रदायने अत्यारे तो कर्म वळग्युं छे! जेम इश्वरकर्तावाळा इश्वरने माथे नाखे छे तेम अहीं (जैनमां) बधा कर्मने माथे नाखे छे! (बन्ने विपरीत अभिप्राय छे).


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वळी केटलाक कहे छे के-तमे नियतने मानो छो एटले तमारी श्रद्धामां मोटी भूल छे; श्रद्धा खोटी छे.

नियत एटले जे समये द्रव्यनी जे पर्याय थवानी होय ते ते काळे ज थाय ते निश्चय छे. आत्मावलोकन, चिद्विलास तथा स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षामां त्रणेमां आ वात आवे छे. जे समये द्रव्यनी जे पर्याय थवानी होय ते ते समये ज थाय ए निश्चय छे एमां निमित्त विना थाय ए वात आवी गई. (पर्याय स्वकाळे ज थाय एमां निमित्त आवे तो थाय ए वात रहेती नथी).

निमित्त विना तो शुं ध्रुव ने व्यवहार विना उत्पाद छे ए निश्चय छे. निमित्त तो परद्रव्य छे, पण जे समये जे उत्पाद थाय तेने ध्रुवनी एटले के पोताना नियत द्रव्यनी पण अपेक्षा नथी. परद्रव्यने तो बीजुं द्रव्य अडे छे ज कयां?

प्रश्नः– उत्पादने द्रव्यनी अपेक्षा नथी एनो अर्थ शुं? (आप एम कहीने शुं सिद्ध करवा मागो छो?).

उत्तरः– उत्पाद सत् छे अने जे सत् छे ते अहेतुक छे. उत्पादना उत्पन्न थवामां द्रव्य होवा छतां द्रव्यनी अपेक्षा नथी. तेवी ज रीते उत्पाद ने व्ययनी अपेक्षा नथी. त्रणे-उत्पाद, व्यय अने ध्रुव स्वतंत्र सत् छे.

(बीजी रीते लईए तो) आत्मामां एक प्रभुत्वशक्ति छे. ते प्रभुत्व शक्तिनुं रूप एक-एक पर्यायमां छे. तेथी सम्यग्दर्शन आदि बधी पर्यायो स्वतंत्रपणे पोते पोताना अखंड प्रतापथी शोभायमान छे. एने निमित्तनी-परद्रव्यनी अपेक्षा तो नथी पण पोताना द्रव्यनी पण अपेक्षा नथी.

प्रश्नः– उत्पादने द्रव्यनी अपेक्षा लईए तो शुं वांधो आवे?

उत्तरः– द्रव्यनी अपेक्षा आवी त्यां व्यवहार थई गयो. अहीं तो निश्चय सिद्ध करवुं छे. धर्मने धर्मीनी अने धर्मीने धर्मनी निश्चयथी अपेक्षा नथी. बंने भिन्न छे एम नहि मानवामां आवे तो बंने पोताथी छे एम सिद्ध नहि थाय. (एकवार निश्चय सिद्ध कर्या पछी) आ पर्याय द्रव्यनी छे एम कहेवुं ते व्यवहार छे केमके तेमां अपेक्षा आवी गई.

जे समये जे पर्याय थवानी होय ते ते पर्यायनी जन्मक्षण छे. भाई! आनो स्वीकार करवामां अनंत पुरुषार्थ रहेलो छे; केमके प्रत्येक पर्याय पोतानी जन्मक्षणे थाय छे एवो निर्णय द्रव्यस्वभावना (-ज्ञायकभावना) आश्रये थाय छे. एक एक पर्याय नियत छे एम जाणवानुं तात्पर्य वीतरागता छे; केमके द्रव्यना आश्रये ते निर्णय थतां पर्यायमां वीतरागता प्रगट थाय छे. ते समये वीतरागता थवानो ज काळ छे ने थाय छे, कोई व्यवहारने लईने के पूर्वनी पर्यायने लईने थाय छे एम नथी.


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भाई! आमां (आडु-अवळुं करवानी) तारी पंडिताई काम नहि आवे. आ तो भेदज्ञान करवानी अंतरनी जुदी ज वात छे.

सर्वज्ञे दीठुं एम ज क्रमबद्ध एटले जे काळे जे पर्याय थवानी होय ते ते काळे ज थाय, आघी-पाछी नहि-एवो निर्णय जेणे कर्यो तेणे ए पोताना ज्ञायकस्वभाव तरफ जईने कर्यो छे, केमके ज्ञायकस्वभावमां सर्वज्ञता छे. ज्ञायकस्वभावनी प्रतीति पर्यायना आश्रये न थाय. ज्ञायकस्वभावनी प्रतीतिमां सर्वज्ञनी प्रतीति आवे छे अने तेना ज्ञानमां सर्वज्ञस्वभावनुं ज्ञान आवे छे. अहो! जेने आवा सर्वज्ञस्वभावनी प्रतीति थई, अनुभव थयो तेने क्रमबद्धनुं यथार्थ ज्ञान थयुं छे. सर्वज्ञ भगवान जगतमां छे अने एणे जे जोयुं ते जेम छे तेम ज छे अने ते प्रमाणे ज थाय; एमां जे शंका करे ते मिथ्याद्रष्टि छे. छे तो एम ज, पण एनो निर्णय कोेने थाय? आत्माना ज्ञानस्वभावनो (ज्ञायकस्वभावनो) जेने अंतर्द्रष्टि वडे निश्चय थाय छे तेने ज क्रमबद्धनो साचो निर्णय थाय छे.

ज्ञायकस्वभावनो निर्णय करवा जतां- -तेमां ज्ञायकस्वभावनी जे सन्मुखता करी ते पुरुषार्थ आव्यो, -सन्मुखता ज्ञायकभाव प्रति थई ते स्वभाव आव्यो, -स्वभावसन्मुखतानी नियतिनो पर्याय-काळ छे ते काळलब्धि आवी, -जे भाव थवा योग्य हतो ते थयो-एम भवितव्य आव्युं, अने -ते समये निमित्तनो (कर्मनो) जे अभाव छे ते निमित्त पण आव्युं. आम पांचे समवाय एक साथे आवी जाय छे.

सर्वज्ञना मार्गमां आवीने पण केटलाक लोको कहे छे के-सर्वज्ञ पुरुषार्थ करवानुं कहे नहि अर्थात तुं पुरुषार्थकर-एवी आज्ञा सर्वज्ञ आपे नहि कारण के सर्वज्ञ जाणे छे के-आ समये एने पुरुषार्थ थशे. पुरुषार्थ करी शकाय नहि, पुरुषार्थना काळे पुरुषार्थ थशे, आपणे नवो करी शकीए नहि.

आवा प्रकारनी मान्यतावाळाने ज्ञानीओ कहे छे-भाई! सर्वज्ञनी सत्तानो स्वीकार सर्वज्ञस्वभावनी सन्मुख थईने ज थाय छे अने ए ज पुरुषार्थ छे. प्रवचनसारनी गाथा ८० मां कह्युं छे के-

‘‘जे जाणतो अरहंतने गुण, द्रव्य ने पर्ययपणे,
ते जीव जाणे आत्मने, तसु मोह पामे लय खरे.’’

अरिहंतनी पर्यायने जे जाणे ते आत्माने-निर्मळ शुद्ध ज्ञायकस्वभावने जाणे


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ज, -अरिहंतने यथार्थ जाणनारनी एवी ज योग्यता छे. पोताना आत्माने जाणे त्यारे ज अरिहंतने व्यवहारे साचा जाण्या कहेवाय. आवी वात छे. अहा! वीतरागनी वाणी नीकळे ए आत्माना स्वभावना पुरुषार्थनो ज आदेश करनारी होय. (तुं स्वभावनो पुरुषार्थ कर एवी ज वाणी आवे केमके भगवाने पण स्वभावना पुरुषार्थ वडे ज वीतरागता प्रगट करी छे अने स्वभावना पुरुषार्थ सिवाय जीवे बीजुं करवा योग्य पण शुं छे?).

अहा! ज्ञानस्वभावी आत्मा करे शुं? बस जाणे. त्रणकाळ त्रणलोकने जाणे त्यां पण स्वपरप्रकाशकपणानुं पोताना स्वभावनुं सामर्थ्य छे ते वडे जाणे छे; परवस्तु छे माटे परने जाणे छे एम नहि. (पोताने जाणे-देखे अने पोताने पोतामां आचरे ए ज साचो पुरुषार्थ छे).

क्रमबद्धना यथार्थ निर्णयमां निश्चय-व्यवहार अने उपादान-निमित्तनुं पण यथार्थ ज्ञान आवी जाय छे. वस्तुनी निर्विकल्प द्रष्टि अने अनुभव ते निश्चय अने ते काळे जे रागनी मंदता छे ते व्यवहार. तेथी व्यवहारथी निश्चय थाय ए वात न रही; बंने एक काळमां साथे ज छे. वळी जे समये जे पर्याय थवानी होय ते काळे ज ते थाय एम निर्णय थतां निमित्त आवे तो पर्याय थाय ए वात पण न रही. कार्यकाळे निमित्तनी उपस्थितिनो काळ छे तो निमित्त हो, परंतु उपादाननी पर्याय पोताना काळे पोताथी थई छे, निमित्तथी थई नथी.

द्रव्यसंग्रह, गाथा ४७ मां आवे छे के-‘निश्चय अने व्यवहार बंने मोक्षमार्ग एक साथे ध्यानमां प्रगट थाय छे.’ आ वात पण क्रमबद्धना निर्णयमां यथार्थ सिद्ध थाय छे. क्रमबद्धनो ज्यारे निर्णय करे छे त्यारे द्रष्टि आत्मस्वभाव तरफ जाय छे अने त्यारे स्वभावनुं जे निर्मळ परिणमन थाय छे ते निश्चय छे अने ए ज काळे जे राग बाकी रह्यो ते व्यवहार छे. आ प्रमाणे व्यवहारथी निश्चय थाय ए वात रहेती नथी. मार्ग तो आवो छे, भाई!

सर्वज्ञ परमात्मा केवळज्ञानमां त्रणकाळ-त्रणलोकने प्रत्यक्ष जाणे अने सर्वज्ञनो निर्णय करनारुं वर्तमान मति-श्रुतज्ञान त्रणकाळ-त्रणलोकने परोक्षपणे जाणे. बस जाणे ज; बीजानुं कांई करे के बीजामां फेरफार करे एवुं कांई छे नहि. वस्तुस्वरूप ज आवुं छे.

सर्वज्ञस्वभाव जेने प्रगट थयो तेने गुणना आश्रये कहीए तो सर्वज्ञस्वभावमांथी प्रगट पर्याय आवी छे; सर्वज्ञस्वभावनुं लक्ष छे ए अपेक्षाए; बाकी तो सर्वज्ञस्वभावना लक्षे थयेली पर्याय पोताना (पर्यायना) षट्कारकना परिणमनथी थई छे. आकरी वात भाई! पण वीतरागनो मार्ग जेवो सूक्ष्म छे तेवो फळदायक


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(सुखदायक) छे. अरे! लोकोए वर्तमानमां पोतानी मति-कल्पनाथी शास्त्रो लखी वीतरागना नामे चढावीने वीतराग मार्गने वींखी नाख्यो छे!

* गाथा १७२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञानीने बुद्धिपूर्वक (अज्ञानमय) राग-द्वेष-मोहनो अभाव होवाथी ज्ञानी निरास्रव ज छे.’

अहीं एम कहे छे के ज्ञानीने अज्ञानमय राग-द्वेष-मोहनो अभाव छे. हुं राग करुं अने राग मारुं कर्तव्य छे एवी बुद्धि ज्ञानीने नथी. हुं तो निमित्त, राग अने अल्पज्ञताथी रहित परिपूर्ण सर्वज्ञस्वभावी ज्ञानस्वरूप परमात्मा छुं-एवी ज्ञानीने द्रष्टि होवाथी तेने अज्ञानपूर्वकना रागादिनो अभाव छे अने ते अपेक्षाए ते निरास्रव ज छे.

जे कर्ता थईने दया, दान, व्रत, भक्ति आदि पुण्यभावने करे छे एनी तो द्रष्टि परनी क्रिया अने राग उपर छे. तेथी ए तो मिथ्याद्रष्टि ज छे. जेनी द्रष्टि भगवान आत्मा पर नथी ए तो मिथ्यात्व सहित राग-द्वेष-मोहने ज करे छे.

प्रश्नः– बुद्धिपूर्वकना (रुचि पूर्वकना) राग-द्वेष-मोहनो नाश थया पछी शुं करवुं? (व्रत, तप करवां के नहि?)

उत्तरः– तेणे पछी स्वरूपमां अंदर स्थिर थवानो पुरुषार्थ करवो. अंदर स्थिर थवुं ए ज करवुं छे. (व्रतादिना विकल्प करवा-ए करवानी तो वात छे ज नहि केमके ए तो राग छे.) जुओ, ए ज वात करे छे-

‘परंतु ज्यां सुधी क्षायोपशमिक ज्ञान छे त्यां सुधी ते ज्ञानी ज्ञानने सर्वोत्कृष्ट भावे देखी, जाणी अने आचरी शकतो नथी-जघन्य भावे देखी, जाणी अने आचरी शके छे; तेथी एम जणाय छे के ते ज्ञानीने हजु अबुद्धिपूर्वकनो कर्मकलंकनो विपाक (अर्थात् चारित्रमोह संबंधी राग-द्वेष) विद्यमान छे अने तेथी तेने बंध पण थाय छे. माटे तेने एम उपदेश छे के- ज्यां सुधी केवळज्ञान न ऊपजे त्यां सुधी ज्ञाननुं ज निरंतर ध्यान करवुं, ज्ञानने ज देखवुं, ज्ञानने ज जाणवुं अने ज्ञानने ज आचरवुं.’

जुओ, पछी शुं करवुं एनो खुलासो कर्यो. भाई! जीवने प्रथम भूमिका (सम्यग्दर्शन) प्रगट थया पछी शुं करवुं एनी शंका रहेती ज नथी, केमके तेना ज्ञानमां बधो खुलासो थई ज जाय छे. क्षायिक समकितीने पण जघन्य परिणमन छे त्यां सुधी चारित्रमोहनो राग छे अने एटलो बंध पण छे. माटे आ उपदेश छे के केवळज्ञान थतां सुधी ज्ञानमां ज रमणता करवी, ज्ञानने ज देखवुं, जाणवुं अने आचरवुं. व्यवहाररत्नत्रयना रागनुं आचरण करवुं एम वात नथी. आत्मानुं ज आचरण करवुं एम वात छे. हवे कहे छे-


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‘आ ज मार्गे दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं परिणमन वधतुं जाय छे अने एम करतां करतां केवळज्ञान प्रगटे छे.’

अहीं व्यवहार करतां करतां केवळज्ञान थाय छे एम न कह्युं, पण स्वरूपनी एकाग्रता वधारतां वधारतां केवळज्ञान प्रगट थाय छे एम कह्युं छे. समजाणुं कांई...?

‘केवळज्ञान प्रगटे त्यारथी आत्मा साक्षात् ज्ञानी छे अने सर्व प्रकारे निरास्रव छे.’ जोयुं? ज्ञानी तो हतो पण केवळज्ञान प्रगटे साक्षात् ज्ञानी थयो अने त्यारे ते सर्वथा-सर्व प्रकारे निरास्रव छे. सम्यग्द्रष्टि (चोथे गुणस्थानके) मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी कषायना अभावनी अपेक्षाए निरास्रव हतो अने केवळज्ञान प्रगटतां पूर्ण साक्षात् ज्ञानी थयो त्यारे ते सर्व प्रकारे निरास्रव छे. आवी वात छे. समजाणुं कांई...?

प्रश्नः– आप तो समजवुं-समजवुं-समजवुं-बस एटलुं ज कहो छो, करवानुं तो कांई कहेता नथी.

उत्तरः– भाई! समजवुं ए शुं करवुं नथी? खरेखर ए ज एनुं करवुं अने ए ज एनुं कार्य छे. स्वज्ञेयाकारे जे ज्ञान (समजवुं) थाय ते ज्ञानने ज अहीं ज्ञान कह्युं छे. अस्थिरताथी पछी पर तरफ लक्ष जाय छे त्यारे रागादि सहित परज्ञेयनुं ज्ञेयाकार परिणमन थाय छे. परने ज्ञेय बनावीने जे ज्ञेयनुं ज्ञान थयुं ते पोतानुं ज्ञान छे पण ते रागादि सहित छे. तेथी अहीं तो स्वज्ञेयमां एकाग्र थईने तेने ज जाणवुं-देखवुं अने आचरवुं एम कह्युं छे.

‘ज्यां सुधी क्षायोपशमिक ज्ञान छे त्यां सुधी अबुद्धिपूर्वक (अर्थात् चारित्रमोहनो) राग होवा छतां, बुद्धिपूर्वक रागना अभावनी अपेक्षाए ज्ञानीने निरास्रवपणुं कह्युं अने अबुद्धिपूर्वक रागनो अभाव थतां अने केवळज्ञान प्रगटतां सर्वथा निरास्रवपणुं कह्युं. आ, विवक्षानुं विचित्रपणुं छे. अपेक्षा समजतां ए सर्व कथन यथार्थ छे.’

क्षायोपशमिक ज्ञान छे त्यां सुधी ज्ञानीने अस्थिरतानो राग छे तो खरो, पण बुद्धिपूर्वकना अज्ञानमय रागना अभावनी अपेक्षाए तेने राग नथी अर्थात् ते निरास्रव छे एम कह्युं. सर्वथा निरास्रव तो केवळज्ञान प्रगट थये ज थाय छे. आम जे विवक्षा छे ते यथार्थ समजतां बंने कथन बराबर छे.

हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश ११६ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आत्मा यदा ज्ञानी स्यात् तदा’ आत्मा ज्यारे ज्ञानी थाय त्यारे,.. .

जुओ, एकांत रागने ज्यांसुधी अनुभवे छे त्यांसुधी आत्मा अज्ञानी छे. परंतु


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ज्यारे ते पोताना ज्ञानस्वभावनो अनुभव करे छे त्यारे ते ज्ञानी थाय छे. ए रीते ज्यारे आत्मा ज्ञानी थाय छे त्यारे-

‘स्वयं’ पोते ‘निजबुद्धिपूर्वम् समग्रं रागं’ पोताना समस्त बुद्धिपूर्वक रागने ‘अनिशं संन्यस्यन्’ निरंतर छोडतो थको अर्थात् नहि करतो थको,.. .

जुओ, आत्मा ज्यारे ज्ञानी थाय छे त्यारे तेने पहेलां जे रुचिपूर्वक राग थतो हतो ते समग्र छूटी जाय छे. वळी ‘अबुद्धिपूर्वम्’ जे अबुद्धिपूर्वक राग छे-रुचि नथी छतां राग थाय छे ‘तं अपि’ तेने पण ‘जेतुं’ जीतवाने ‘स्वशक्तिम् स्पृशन्’ स्वशक्तिने स्पर्शतो थको एटले के ज्ञानस्वभावी एवा निज परमात्माने स्पर्शतो थको रागने टाळे छे. पोताना चैतन्यमहाप्रभुमां एकाग्र थतो ते अबुद्धिपूर्वक रागने टाळे छे. व्यवहारना क्रियाकांड करतां रागने टाळे छे एम नहि; वा कर्म टळे-हठी जाय तो राग टळे एम पण नहि. ज्ञानीने व्यवहारनो जे (यथासंभव) राग आवे छे तेनी एने रुचि नथी. ए रागने ते उग्र आत्म- एकाग्रता करीने टाळे छे.

घणा वखत पहेलां एकवार चर्चामां प्रश्न थयेलो के-राग केम टळे? त्यारे (सामावाळा) कहे के-प्रतिबंधक कारण एवुं कर्म टळे तो राग टळे. तो कह्युं-

अरे भाई! परद्रव्य (जड एवां द्रव्यकर्म) अने आत्माने संबंध शो? (परस्पर अडवानोय संबंध नथी). भाई! कर्म टळे तो राग टळे एवी मान्यता तो मूळमां भूल छे, तद्न विपरीत द्रष्टि छे, अज्ञान छे. अहीं कहे छे के स्वद्रव्यने-अनंत अनंत शक्तिवान चिदानंदघनस्वरूप आत्माने स्पर्शवाथी राग टळे. आने सिद्धांत कहेवाय. स्वना आश्रये राग टळे ए सिद्धांत छे. स्वना आश्रये वीतरागता प्रगटे अने जेटली वीतरागता प्रगटे एटलो रागनो अभाव थाय. अहो! आ अलौकिक सिद्धांत छे!

ज्ञानानंदस्वभावी भगवान आत्माने स्पर्शतां एटले एमां एकाग्र थतां प्रथम मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी कषाय टळे छे, त्यारे जीव ज्ञानी थाय छे. पछी जे अबुद्धिपूर्वकनो राग बाकी रहे छे ते पण स्वनो उग्रपणे आश्रय करवाथी टळे छे; आवी वात छे.

केटलाक कहे छे के-विकार बेथी थाय, आत्माथी पण थाय अने कर्मथी पण थाय, जेम दीकरो मा अने बाप बेथी थाय छे, एकथी नहि तेम.

अरे भाई! ए तो (पुद्गल कर्म) परमाणुनुं ज्ञान करवानी वात छे. बाकी राग निश्चयथी एकथी ज थाय छे. राग पोताना षट्कारकरूप परिणमनथी थाय छे अने निर्विकारी परिणामना षट्कारकनुं परिणमन थतां ते (राग, भावकर्म) टळी जाय छे. जड-द्रव्यकर्म टाळवानी वात नथी. कर्म जड तो एने कारणे टळे छे अने एने कारणे रहे छे. अहीं कह्युं ने के-‘स्वशक्ति स्पृशन्’ स्वशक्ति कहेतां पोतानो जे शुद्ध


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चैतन्यस्वभाव तेने स्पर्शतो थको अर्थात् तेमां एकाग्र-स्थिर थतो थको ज्ञानी अबुद्धिपूर्वक रागने टाळे छे.

वळी कोई कहे के राग केम टाळवो एनुं शास्त्रमां लखाण नथी. अरे भाई! स्वभावने स्पर्शे त्यारे राग उत्पन्न थतो नथी एने राग टाळ्‌यो एम कहेवामां आवे छे. चोकखी वात तो छे. आ राग छे अने एने टाळुं एम रागना लक्षे राग न टळे, एथी तो राग ज थया करे. पोताना शुद्ध चैतन्यशक्तिवानना लक्षे-आश्रये राग टळे छे केमके त्यारे राग उत्पन्न थतो नथी. कर्मना, रागना के पर्यायना लक्षे राग टळे एवुं वस्तुस्वरूप नथी.

‘णमो अरिहंताणं’ एम पाठ छे ने? एनो केटलाक एवो अर्थ करे छे के कर्मरूपी अरिने हंत कहेतां जेणे हण्या छे ते अरिहंत. पण तेनो खरो अर्थ एम नथी. कर्म कयां वेरी छे? जडकर्मने वेरी कहेवुं ए तो निमित्त पर आरोप आपीने करेलुं कथन छे. जड घातीकर्म वेरी छे एम नहि पण भावघातीकर्म (विकारी परिणति) आत्मानो वेरी छे, अने भावघातीने जे हणे ते अरिहंत छे. पोतानी विकारी परिणति वेरी हती तेने जेणे हणी ते अरिहंत छे. प्रवचनसारमां विकारने अनिष्ट कह्यो छे. विकार अनिष्ट छे अने शुद्ध स्वभाव जे प्रगट थाय ते इष्ट छे. निश्चयथी राग-द्वेष-मोह जीवनी स्वभावगुणनी पर्यायना वेरी छे. बीजो (कर्म) वेरी कयां छे? जड द्रव्यकर्म अने आत्मा भले एक प्रदेशे हो, पण कोई कोईना कर्ता नथी, कोई कोईनी पर्यायमां जता नथी (व्यापता नथी). सौ पोतपोतामां ज परिणमी रह्या छे.

अहा! आवुं वस्तुनुं स्वरूप प्रगट (सुस्पष्ट) होवा छतां अत्यारे लुप्त थई गयुं होवाथी लोको तेनो विरोध करे छे! सत्यने यथार्थ समजी तेने प्राप्त करवानी अरे! लोकोने कयां दरकार छे? पण आवी परम सत्य वात कदी सांभळी पण न होय तेने सत्यनी रुचि अने प्राप्ति कयांथी थशे भाई!

अहीं कहे छे-वळी जे अबुद्धिपूर्वक राग छे तेने पण जीतवाने वारंवार ज्ञानानुभवनरूप स्वशक्तिने स्पर्शतो थको अने ए रीते ‘सकलां परवृत्तिम् एव उच्छिन्दन्’ समस्त परवृत्तिने-परपरिणतिने उखेडतो ‘ज्ञानस्य पूर्णः भवन्’ ज्ञानना पूर्णभावरूप थतो थको, ‘हि’ खरेखर ‘नित्यनिरास्रवः भवति’ सदा निरास्रव छे. आत्मा स्वभावे ज्ञानमय छे अने एनी पर्यायमां पूर्ण ज्ञानमय थतां खरेखर ते सदा निरास्रव छे.

समकितीने बुद्धिपूर्वक रागद्वेषमोहनो अभाव होवाथी द्रष्टिनी अपेक्षाए निरास्रव कह्यो, पण जघन्य परिणमनना कारणे तेने अबुद्धिपूर्वकनो आस्रव थतो होय छे तेने ते आत्माना उग्र आश्रय वडे उत्कृष्ट परिणमनने प्राप्त थई-वस्तुनी शक्तिने उत्कृष्टपणे स्पर्शीने उखेडी नाखे छे. उखेडी नाखे छे ए तो व्यवहारथी कथन छे, खरेखर तो


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आत्मानो पूर्ण आश्रय थतां रागनो संपूर्ण अभाव ज रहे छे, रागनी उत्पत्ति ज थती नथी.

धर्मी विकारनो नाश करे छे एम कहेवुं ए तो व्यवहार-कथन छे. समयसार गाथा ३४ मां कह्युं छे के-‘‘प्रत्याख्यानना समये प्रत्याख्यान करवायोग्य जे परभाव तेनी उपाधिमात्रथी प्रवर्तेलुं त्यागना कर्तापणानुं नाम होवा छतां पण परमार्थथी जोवामां आवे तो परभावना त्यागकर्तापणानुं नाम पोताने नथी, पोते तो ए नामथी रहित छे. कारण के ज्ञानस्वभावथी पोते छूटयो नथी, माटे प्रत्याख्यान ज्ञान ज छे.’’ जुओ, रागना त्यागनो कर्ता कहेवो ए पण नाममात्र छे. आम ज्यां वस्तुनुं स्वरूप छे त्यां परना त्यागनी तो वात ज शी करवी?

आत्मामां ‘त्याग-उपादान-शून्यत्व’ नामनी शक्ति छे. ते शक्तिना कारणे आत्मामां परनां ग्रहण-त्याग छे ज नहि. लोको तो आहारनो त्याग कर्यो माटे अमने उपवास थई गयो इत्यादि परना त्याग वडे धर्म थयो माने छे. परंतु भाई! आत्मा परने ग्रहे शी रीते अने त्यागे पण शी रीते? आत्माने परनां ग्रहण-त्याग मानवां ए तो मिथ्यादर्शन छे.

* कळश ११६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञानीए समस्त रागने हेय जाण्यो छे. ते रागने मटाडवाने उद्यम कर्या करे छे; तेने आस्रवभावनी भावनानो अभिप्राय नथी; तेथी ते सदा निरास्रव ज कहेवाय छे.’ जुओ आ द्रष्टिनो महिमा! ज्ञानीने अंतर्द्रष्टि थई होवाथी तेने पुण्यपरिणामनी भावनानो पण अभिप्राय नथी. तेने तो एक वीतराग भावनी भावनानो अभिप्राय छे. तेथी ते सदा निरास्रव ज कहेवाय छे.

‘परवृत्ति (परपरिणति) बे प्रकारनी छे-अश्रद्धारूप अने अस्थिरतारूप. ज्ञानीए अश्रद्धारूप परवृत्ति छोडी छे अने अस्थिरतारूप परवृत्ति जीतवा माटे ते निजशक्तिने वारंवार स्पर्शे छे. ए रीते सकळ परवृत्तिने उखेडीने केवळज्ञान प्रगटावे छे.’ ज्ञानी पोतानी परिणतिने स्वरूप प्रति वारंवार वाळ्‌या करे छे. मुनिदशामां तो अंतर्मुहूर्तमां आवुं थया करे छे. ए रीते ए संपूर्ण उत्कृष्ट स्थिरता करीने केवळज्ञान प्रगटावे छे.

‘बुद्धिपूर्वक’ अने अबुद्धिपूर्वक’नो अर्थ आ प्रमाणे छेः-जे रागादि परिणाम इच्छा सहित थाय ते बुद्धिपूर्वक छे अने जे रागादि परिणाम ईच्छा विना पर निमित्तनी बळजोरीथी थाय ते अबुद्धिपूर्वक छे. परनिमित्तनी बळजोरी एटले इच्छा रहितपणे परनिमित्तना लक्षे राग थाय छे तेने परनी बळजोरीथी थया एम कहेवामां आवे छे. निमित्तनी कांई खरेखर बळजोरी छे एम नथी. पोताना (हीन) पुरुषार्थनो


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क्रम (पुरुषार्थनी नबळाईनो काळ) एवो छे अने ते समये रागनो पण एवो ज क्रम छे तो निमित्तनी बळजोरी कही छे. निमित्त छे खरुं, परंतु निमित्तथी परमां कांई थाय छे वा निमित्त बळथी (बळपूर्वक) परनुं परिणमन करावे छे एम नथी.

‘ज्ञानीने जे रागादि परिणाम थाय छे ते बधाय अबुद्धिपूर्वक ज छे; सविकल्प दशामां थता रागादि परिणामो ज्ञानीनी जाणमां छे तोपण अबुद्धिपूर्वक छे कारण के इच्छा विना थाय छे. ज्ञानीने रागनी रुचि नथी, राग ठीक छे एम नथी छतां राग थाय छे तेने अबुद्धिपूर्वकनो राग कहेवामां आवे छे.

राजमल्लजीए आ कळशनी टीका करतां ‘बुद्धिपूर्वक’ अने अबुद्धिपूर्वक’नो आ प्रमाणे अर्थ लीधो छेः-जे रागादि परिणाम मनद्वारा, बाह्य विषयोने अवलंबीने, प्रवर्ते छे अने जेओ प्रवर्तता थका जीवने पोताने जणाय छे तेम ज बीजाने पण अनुमानथी जणाय छे ते परिणामो बुद्धिपूर्वक छे. दया, दान, भक्ति, पूजा इत्यादि जे राग आवे छे ते मनद्वारा पोताने ख्यालमां आवे छे. स्वरूपना ज्ञान साथे आ रागनुं पण ज्ञान थई आवे छे अने बीजाने पण आ भक्ति आदिनो राग छे एम अनुमानथी जणाय छे तेथी ते परिणामो बुद्धिपूर्वक छे.

अने जे रागादि परिणाम इन्द्रिय-मनना व्यापार सिवाय केवळ मोहना उदयना निमित्ते थाय छे अने जीवने जणाता नथी ते अबुद्धिपूर्वक छे. खरेखर तो ज्यां अबुद्धिपूर्वकनो राग छे त्यां पण मननुं जोडाण तो छे परंतु स्थूळपणे जोडाण नथी एम अहीं लेवुं छे. कर्मना उदयमां जोडाण छे त्यां मन तो छे पण सूक्ष्म छे ते अपेक्षाए मन नथी एम कह्युं छे.

ज्ञानीने जाणवामां आवे एवो (बुद्धिपूर्वक) राग थाय छे छतां तेने रागथी निरंतर भेदज्ञान वर्ते छे. मारी चीज तो रागथी भिन्न छे अने हुं तो शुद्ध चैतन्यमय आनंदरसकंद भगवान आत्मा छुं एवुं भान तेने निरंतर वर्ते छे. समकिती नारकी हो के तिर्यंच हो-दरेकने आवुं भान निरंतर होय छे.

परवस्तु मारी छे, राग मारो छे-एवी मान्यता जेने छे तेने तो रागनो-झेरनो ज स्वाद आवे छे. परंतु रागथी भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वरूपनो जेने अनुभव छे तेने अनाकुळ आनंदनो-परम अमृतनो स्वाद आवे छे. समयसार, मोक्ष अधिकारमां शुभभावने पण विषकुंभ कह्यो छे. हवे शुभभावने पण भगवान ज्यां झेर कहे छे त्यां रळवुं, कमावुं अने भोग भोगववा-इत्यादि अशुभभावनी तो वात ज शुं?

आ अबुद्धिपूर्वक परिणामने प्रत्यक्ष ज्ञानी जाणे छे अने तेमना अविनाभावी चिन्ह वडे तेओ अनुमानथी पण जणाय छे.


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पहेलां बुद्धिपूर्वक अने अबुद्धिपूर्वक-रुचिनी अपेक्षाए कह्या अने अहीं राजमल्लजीए जाणवा न जाणवानी अपेक्षाए कह्या छे. विवक्षाभेद जेम छे तेम समजवुं.

हवे शिष्यनी आशंकानो श्लोक कहे छेः-

* कळश ११७ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘सर्वस्याम् एव द्रव्यप्रत्ययसंततौ जीवन्त्यां’ ज्ञानीने समस्त द्रव्यास्रवनी संतति विद्यमान होवा छतां ‘ज्ञानी’ ज्ञानी ‘नित्यम् एव’ सदाय ‘निरास्रवः’ निरास्रव छे ‘कुतः’ एम शा कारणे कह्युं?

जे रागथी भिन्न पडयो छे अने जेने शुद्ध चैतन्यस्वरूपना निराकुळ आनंदनो स्वाद आव्यो छे तेवा धर्मीने तेना आत्मप्रदेशे आठे जडकर्म स्थित छे, तेनो उदय पण छे अने अहीं पर्यायमां राग-द्वेष पण थाय छे तो तेने निरास्रव केम कह्यो?

‘इति चेत् मतिः’ एम जो तारी बुद्धि छे अर्थात् एवी जो तने आशंका छे तो हवे तेनो उत्तर कहेवामां आवे छे.

[प्रवचन नं. २३प अने २३६ * दिनांक १८-११-७६ अने १९-११-७६]

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सव्वे पुव्वणिबद्धा दु पच्चया अत्थि सम्मदिट्ठिस्स।
उवओगप्पाओगं बंधंते कम्मभावेण।। १७३।।
होदूण णिरुवभोज्जा तह बंधदि जह हवंति उवभोज्जा।
सत्तट्ठविहा भूदा णाणावरणादिभावेहिं।। १७४।।
संता दु णिरुवभोज्जा बाला इत्थी जहेह पुरिसस्स।
बंधदि ते उवभोज्जे तरुणी इत्थी जह णरस्स।। १७५।।
एदेण कारणेण दु सम्मादिट्ठी अबंधगो भणिद्रो।
आसवभावाभावे ण पच्चया बंधगा भणिदा।। १७६।।

सर्वे पूर्वनिबद्धास्तु प्रत्ययाः सन्ति सम्यग्द्रष्टेः।
उपयोगप्रायोग्यं बध्नन्ति कर्मभावेन।। १७३ ।।
भूत्वा निरुपभोग्यानि तथा बध्नाति यथा भवन्त्युपभोग्यानि।
सप्ताष्टविधानि भूतानि ज्ञानावरणादिभावैः।। १७४।।

हवे पूर्वोक्त आशंकाना उत्तरनी गाथा कहे छेः-

जे सर्व पूर्वनिबद्ध प्रत्यय वर्तता सुद्रष्टिने,
उपयोगने प्रायोग्य बंधन कर्मभाव वडे करे. १७३.
अणभोग्य बनी उपभोग्य जे रीत थाय ते रीत बांधता,
ज्ञानावरण इत्यादि कर्मो सप्त–अष्ट प्रकारनां. १७४.
सत्ता विषे ते निरुपभोग्य ज, बाळ स्त्री ज्यम पुरुषने;
उपभोग्य बनतां तेह बांधे, युवती जेम पुरुषने. १७प.
आ कारणे सम्यक्त्वसंयुत जीव अणबंधक कह्या,
आसरवभावअभावमां नहि प्रत्ययो बंधक कह्या. १७६.

गाथार्थः– [सम्यग्द्रष्टेः] सम्यग्द्रष्टिने [सर्वे] बधा [पूर्वनिबद्धाः तु] पूर्वे बंधायेला [प्रत्ययाः] प्रत्ययो (द्रव्य आस्रवो) [सन्ति] सत्तारूपे मोजूद छे तेओ


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सन्ति तु निरुपभोग्यानि बाला स्त्री यथेह पुरुषस्य।
बध्नाति तानिं उपभोग्यानि तरुणी स्त्री यथा नरस्य।। १७५।।
एतेन कारणेन तु सम्यग्द्रष्टिरबन्धको भणितः।
आस्रवभावाभावे न प्रत्यया बन्धका भणिताः।। १७६।।

[उपयोगप्रायोग्यं] उपयोगना प्रयोग अनुसार, [कर्मभावेन] कर्मभाव वडे (-रागादिक वडे) [बध्नन्ति] नवो बंध करे छे. ते प्रत्ययो, [निरुपभोग्यानि] निरुपभोग्य [भूत्वा] रहीने पछी [यथा] जे रीते [उपभोग्यानि] उपभोग्य [भवन्ति] थाय छे[तथा] ते रीते, [ज्ञानावरणादिभावैः] ज्ञानावरणादि भावे [सप्ताष्टविधानि भूतानि] सात-आठ प्रकारनां थयेलां एवां कर्मोने [बध्नाति] बांधे छे. [सन्ति तु] सत्ता-अवस्थामां तेओ [निरुपभोग्यानि] निरुपभोग्य छे अर्थात् भोगववायोग्य नथी- [यथा] जेम [इह] जगतमां [बाला स्त्री] बाळ स्त्री [पुरुषस्य] पुरुषने निरुपभोग्य छे तेम; [तानि] तेओ [उपभोग्यानि] उपभोग्य अर्थात् भोगववायोग्य थतां [बध्नाति] बंधन करे छे- [यथा] जेम [तरुणी स्त्री] तरुण स्त्री [नरस्य] पुरुषने बांधे छे तेम. [एतेन तु कारणेन] आ कारणथी [सम्यद्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टिने [अबन्धकः] अबंधक [भणतिः] कह्यो छे, कारण के [आस्रवभावाभावे] आस्रवभावना अभावमां [प्रत्ययाः] प्रत्ययोने [बन्धकाः] (कर्मना) बंधक [न भणिताः] कह्या नथी.

टीकाः– जेम प्रथम तो तत्काळनी परणेली बाळ स्त्री अनुपभोग्य छे परंतु यौवनने पामेली एवी ते पहेलांनी परणेली स्त्री यौवन-अवस्थामां उपभोग्य थाय छे अने जे रीते उपभोग्य थाय ते अनुसारे, पुरुषना रागभावने लीधे ज, पुरुषने बंधन करे छे-वश करे छे, तेवी रीते जेओ प्रथम तो सत्ता-अवस्थामां अनुपभोग्य छे परंतु विपाक-अवस्थामां उपभोगयोग्य थाय छे एवा पुद्गलकर्मरूप द्रव्यप्रत्ययो होवा छतां तेओ जे रीते उपभोग्य थाय ते अनुसारे (अर्थात् उपयोगना प्रयोग अनुसारे), कर्मोदयना कार्यरूप जीवभावना सद्भावने लीधे ज, बंधन करे छे. माटे ज्ञानीने जो पूर्वबद्ध द्रव्यप्रत्ययो विधमान छे, तो भले हो; तथापि ते (ज्ञानी) तो निरास्रव ज छे, कारण के कर्मोदयनुं कार्य जे रागद्वेषमोहरूप आस्रवभाव तेना अभावमां द्रव्यप्रत्ययो बंधना कारण नथी. (जेम पुरुषने रागभाव होय तो ज जुवानी पामेली स्त्री तेने वश करी शके छे तेम जीवने आस्रवभाव होय तो ज उदयप्राप्त द्रव्यप्रत्ययो नवो बंध करी शके छे.)

भावार्थः– द्रव्यास्रवोना उदयने अने जीवना रागद्वेषमोहभावोने निमित्तनैमित्तिकभाव छे. द्रव्यास्रवोना उदय विना जीवने आस्रवभाव थइ शके नहि अने तेथी बंध पण थई शके नहि. द्रव्यास्रवोनो उदय थतां जीव जे प्रकारे तेमां जोडाय


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(मालिनी)
विजहति न हि सत्तां प्रत्ययाः पूर्वबद्धाः
समयमनुसरन्तो यद्यपि द्रव्यरूपाः।
तदपि सकलरागद्वेषमोहव्युदासा–
दवतरति न जातु ज्ञानिनः कर्मबन्धः।। ११८।।

अर्थात् जे प्रकारे तेने भावास्रव थाय ते प्रकारे द्रव्यास्रवो नवीन बंधनां कारण थाय छे. जीव भावास्रव न करे तो तेने नवो बंध थतो नथी.

सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्वनो अने अनंतानुबंधी कषायनो उदय नहि होवाथी तेने ते प्रकारना भावास्रवो तो थता ज नथी अने मिथ्यात्व तेम ज अनंतानुबंधी कषाय संबंधी बंध पण थतो नथी. (क्षायिक सम्यग्द्रष्टिने सत्तामांथी मिथ्यात्वनो क्षय थती वखते ज अनंतानुबंधी कषायनो तथा ते संबंधी अविरति अने योगभावनो पण क्षय थइ गयो होय छे तेथी तेने ते प्रकारनो बंध थतो नथी; औपशमिक सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्व तेम ज अनंतानुबंधी कषायो मात्र उपशममां-सत्तामां-ज होवाथी सत्तामां रहेलुं द्रव्य उदयमां आव्या विना ते प्रकारना बंधनुं कारण थतुं नथी; अने क्षायोपशमिक सम्यग्द्रष्टिने पण सम्यक्त्वमोहनीय सिवायनी छ प्रकृतिओ विपाक-उदयमां आवती नथी तेथी ते प्रकारनो बंध थतो नथी.)

अविरतसम्यग्द्रष्टि वगेरेने जे चारित्रमोहनो उदय वर्ते छे तेमां जे प्रकारे जीव जोडाय छे ते प्रकारे तेने नवो बंध थाय छे; तेथी गुणस्थानोना वर्णनमां अविरतसम्यग्द्रष्टि आदि गुणस्थानोए अमुक अमुक प्रकृतिनो बंध कह्यो छे, परंतु आ बंध अल्प होवाथी तेने सामान्य संसारनी अपेक्षाए बंधमां गणवामां आवतो नथी. सम्यग्द्रष्टि चारित्रमोहना उदयमां स्वामित्वभसावे तो जोडातो ज नथी, मात्र अस्थिरतारूपे जोडाय छे; अने अस्थिरतारूप जोडाण ते निश्चयद्रष्टिमां जोडाण ज नथी. माटे सम्यग्द्रष्टिने रागद्वेषमोहनो अभाव कहेवामां आव्यो छे. ज्यां सुधी कर्मनुं स्वामीपणुं राखीने कर्मना उदयमां जीव परिणमे छे त्यां सुधी ज जीव कर्मनो कर्ता छे; उदयनो ज्ञाताद्रष्टा थइने परना निमित्तथी मात्र अस्थिरतारूपे परिणमे त्यारे कर्ता नथी, ज्ञाता ज छे. आ अपेक्षाए, सम्यग्द्रष्टि थया पछी चारित्रमोहना उदयरूप परिणमवा छतां तेने ज्ञानी अने अबंधक कहेवामां आव्यो छे. ज्यां सुधी मिथ्यात्वनो उदय छे अने तेमां जोडाइने जीव रागद्वेषमोहभावे परिणमे छे त्यां सुधी ज तेने अज्ञानी अने बंधक कहेवामां आवे छे. ज्ञानी-अज्ञानीनो अने बंध-अबंधनो आ विशेष जाणवो. वळी शुद्ध स्वरूपमां लीन रहेवाना अभ्यास द्वारा केवळज्ञान प्रगटवाथी ज्यारे जीव साक्षात् संपूर्णज्ञानी थाय छे त्यारे तो ते सर्वथा निरास्रव थइ जाय छे एम पहेलां कहेवाइ गयुं छे.


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(अनुष्टुभ्)
रागद्वेषविमोहानां ज्ञानिनो यदसम्भवः।
तत एव न बन्धोऽस्य ते हि बन्धस्य कारणम्।। ११९।।

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [यद्यपि] जोके [समयम् अनुसरन्तः] पोतपोताना समयने अनुसरता (अर्थात् पोतपोताना समये उद्रयमां आवता) एवा [पूर्वबद्धाः] पूर्वबद्ध (पूर्वे अज्ञान- अवस्थामां बंधायेला) [द्रव्यरूपाः प्रत्ययाः] द्रव्यरूप प्रत्ययो [सत्तां] पोतानी सत्ता [न हि विजहति] छोडता नथी (अर्थात् सत्तामां छे-हयात छे), [तदपि] तोपण [सकलरागद्वेषमोहव्युदासात्] सर्व रागद्वेषमोहनो अभाव होवाथी [ज्ञानिनः] ज्ञानीने [कर्मबन्धः] कर्मबंध [जातु] कदापि [अवतरति न] अवतार धरतो नथी-थतो नथी.

भावार्थः– ज्ञानीने पण पूर्वे अज्ञान-अवस्थामां बंधायेला द्रव्यास्रवो सत्ता-अवस्थामां हयात छे अने तेमना उदयकाळे उदयमां आवता जाय छे. परंतु ते द्रव्यास्रवो ज्ञानीने कर्मबंधनुं कारण थता नथी, केम के ज्ञानीने सकळ रागद्वेषमोहभावोनो अभाव छे. अहीं सकळ रागद्वेषमोहनो अभाव बुद्धिपूर्वक रागद्वषमोहनी अपेक्षाए समजवो. ११८.

हवे आ ज अर्थ द्रढ करनारी बे गाथाओ आवे छे तेनी सूचनिकारूप श्लोक कहे छेः-

श्लोकार्थः– [यत्] कारण के [ज्ञानिनः रागद्वेषविमोहानां असम्भवः] ज्ञानीने रागद्वेषमोहनो असंभव छे [ततः एव] तेथी [अस्य बन्धः न] तेने बंध नथी; [हि] केम के [ते बन्धस्य कारणम्] ते (रागद्वेषमोह) ज बंधनुं कारण छे. ११९.

* * *

समयसार गाथा १७३ थी १७६ः मथाळु

हवे, पूर्वोक्त आशंकाना उत्तरनी गाथा कहे छेः-

* गाथा १७३ थी १७६ः टीका उपरनुं प्रवचन *

प्रथम द्रष्टांत आपे छे-‘जेम प्रथम तो तत्काळनी परणेली बाळ स्त्री अनुपभोग्य छे परंतु यौवनने पामेली एवी ते पहेलांनी परणेली स्त्री यौवन-अवस्थामां उपभोग्य थाय छे अने जे रीते उपभोग्य थाय ते अनुसारे, पुरुषना रागभावने लीधे ज, पुरुषने बंधन करे छे, वश करे छे...’

जुओ, कोई बाळ कन्या १०-१२ वर्षनी परणेली होय ते तेना पतिने उपभोग्य


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नथी एटले के भोगववा लायक नथी. परंतु ते ज परणेली स्त्री यौवनने प्राप्त थाय त्यारे उपभोग्य थाय छे. हवे जे रीते उपभोग्य थाय ते अनुसारे-जोयुं? अहीं वजन छे-के जे रीते उपभोग्य थाय ते अनुसारे, पुरुष तेना प्रति जेटलो राग करे तेटला प्रमाणमां ते स्त्री बंधन करे छे, वश करे छे.

कोईने वळी प्रश्न थाय के आचार्यदेवे आवुं द्रष्टांत केम आप्युं? भाई? आचार्यदेव तो मुनिवर छे. दुनियाने समजमां आवे माटे आवुं द्रष्टांत आप्युं छे. वीतरागी संतो द्रष्टांत आपवामां निःसंकोच होय छे. तेमने शुं संकोच? हवे कहे छे-

‘तेवी रीते जेओ प्रथम तो सत्ता-अवस्थामां अनुपभोग्य छे परंतु विपाक-अवस्थामां उपभोग्य थाय छे एवा पुद्गलकर्मरूप द्रव्यप्रत्ययो होवा छतां तेओ जे रीते उपभोग्य थाय ते अनुसारे (अर्थात् उपयोगना प्रयोगना अनुसारे), कर्मोदयना कार्यरूप जीवभावना सद्भावने लीधे ज, बंधन करे छे.’

अहीं आ ज्ञानीनी वात छे. ज्ञानीने आठ कर्म जे सत्तामां पडयां छे ते बाळ स्त्रीनी जेम अनुपभोग्य छे. परंतु ते ज कर्मो विपाक-अवस्थामां एटले पाकीने उदयमां आवे छे त्यारे उपभोग्य थाय छे, भोगववा योग्य थाय छे. हवे ते द्रव्यप्रत्ययो जे रीते उपभोग्य थाय ते अनुसारे एटले के उपयोग तेमां जोडाय ते प्रमाणे, कर्मोदयना कार्यभूत जेटलो रागादि भाव होय तेटला प्रमाणमां बंधन करे छे. कर्मना उदयमां वर्तमान जेटलो उपभोग करे एटलुं बंधन थाय छे.

हवे ज्ञानीने रुचिपूर्वक राग करवो ए तो छे नहि. एने पर्यायमां किंचित् राग देखाय छे छतां रुचिपूर्वक ते परिणाम तेने थया नथी. ज्ञानीने मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी राग- द्वेषनो तो अभाव ज छे अने चारित्रनी अस्थिरतानो जे अल्प राग थाय छे तेनुं एने पोसाण नथी. तेथी कहे छे-

‘माटे ज्ञानीने जो पूर्वबद्ध द्रव्यप्रत्ययो विद्यमान छे, तो भले हो; तथापि ते (ज्ञानी) तो निरास्रव ज छे, कारण के कर्मोदयनुं कार्य जे रागद्वेषमोहरूप आस्रवभाव तेना अभावमां द्रव्यप्रत्ययो बंधनां कारण नथी.’

वेपारीने जे मालनुं पोसाण होय ते माल ते खरीदे छे, बीजो माल खरीदतो नथी. तेम ज्ञानीने रागनुं पोसाण नथी. अस्थिरतानो अल्प राग तेने थाय छे पण एनुं पोसाण नथी. तेथी तेने गौण गणीने ज्ञानी निरास्रव ज छे एम कह्युं केमके उदयना कार्यभूत जे मिथ्यात्व अने रागद्वेषमोहभाव तेनो अभाव होवाथी द्रव्यप्रत्ययो ज्ञानीने बंधनां कारण नथी.

कर्मोदयना कार्यभूत जे जीवभाव एटले के जीवनी पर्यायमां थता रागद्वेषमोहना परिणाम ते जो जीव करे तो द्रव्य प्रत्ययो बंधनां कारण थाय. परंतु ज्ञानीने तो


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राग-द्वेष-मोह छे नहि. माटे तेना अभावमां ज्ञानीने द्रव्यप्रत्ययो बंधनां कारण थतां नथी. अहीं आ मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी रागद्वेषनी अपेक्षाए वात छे. पोताना आत्माना आनंदना स्वादना आस्वादी ज्ञानीने बंधनना कारणभूत एवा मिथ्यात्व सहित रागद्वेषमोह थता ज नथी. तेनी द्रष्टि सम्यक् आत्मा उपर छे अने स्वरूपाचरण पण छे तेथी ज्ञानीने निरास्रव कह्यो छे.

अस्थिरतानो अल्प राग ज्ञानीने छे अने द्रव्यकर्ममां पण अल्प बंधन, अल्प स्थिति पडे छे पण संसारमां दीर्घ परिभ्रमण करवुं पडे एवुं कर्मनुं बंधन होतुं नथी.

अहा! रागनो कर्ता हुं छुं एवो मिथ्यात्वभाव ज (मुख्यपणे) आस्रवभाव छे, अने ए ज दीर्घ संसार छे, महापाप छे, अनंत भवनुं कारण छे. एथी विपरीत जेने मिथ्यात्वनो नाश थईने समकित थयुं ते मानो भवरहित थई गयो. ‘भरतजी घरमां वैरागी’-एम आवे छे ने? एनो अर्थ ज ए छे के द्रष्टि स्वभाव उपर होवाथी कर्मना उदयमां पण तेने मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी राग उत्पन्न थाय एटलुं जोडाण तो थतुं ज नथी.

शांतिनाथ, कुंथुनाथ अने अरनाथ त्रणे तीर्थंकर चक्रवर्ती अने कामदेव हता. तेओ संसारमां राग मारुं कर्तव्य छे अने रागथी मने लाभ छे ए बुद्धिनो नाश करीने रहेता हता. राग थतो हतो खरो, पण ए पोताने लाभदायक छे एवी द्रष्टि उडी गई हती. मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी राग-द्वेषनो तेमने अभाव हतो. आ अपेक्षाए तेमने (गृहस्थदशामां पण) निरास्रव कह्या छे; अस्थिरतानो अल्प राग हतो ते अहीं गौण छे.

अहा! मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी कषायनो जेने अभाव थयो छे एवा सम्यग्द्रष्टिने श्रद्धा अपेक्षाए जोवामां आवे तो कर्मनी एकसो अडतालीसे प्रकृतिनो बंध नथी पछी भले ते सम्यग्द्रष्टि बहारमां चक्रवर्ती हो के बलदेव. समयसार नाटकमां आवे छे ने के-

‘‘करै करम सोई करतारा जो जानै सो जाननहारा,
जो करता नहि जानै सोई जानै सो करता नहि होई.’’

ज्ञानीने राग मारुं कर्तव्य-कर्म छे ए वात छूटी गई छे. तेने राग थाय छे पण ते एनुं कर्म बनतुं नथी, ज्ञानी एनो कर्ता थतो नथी. जे रागनो कर्ता बने वा राग जेनुं कर्म- कर्तव्य बने छे ए ज्ञानी नहि पण मिथ्याद्रष्टि छे.


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लोकोने बाह्य त्यागना महिमा आगळ समकित शुं चीज छे, अंदरमां मोह-मिथ्यात्वनो त्याग अने वीतरागतानी प्रगटता शुं चीज छे एनी खबर नथी. भाई! भवबीजनो नाश करनार समकित परम महिमावंत चीज छे. भव अने भवना भावरहित भगवान आत्मानी रुचि-प्रतीति जेने थई तेने बहारमां छ खंडनुं राज्य अने छन्नु हजार राणीओनो संयोग होय तोपण एने एना भोगनी रुचि नथी; तेने अभिप्रायमां सर्व रागनो त्याग थई गयो छे अने तेथी समकिती-ज्ञानी निरास्रव ज छे. अहो! समकित परम अद्भुत चीज छे!

आवा समकितनो विषय परिपूर्ण भगवान आत्मा छे. आत्मश्रद्धान थया विना देव- गुरु-शास्त्रनी के नवतत्त्वनी भेदरूप श्रद्धा कांई समकित नथी, केम के ए तो बधो राग छे. आवुं तो अनंतवार जीवे कर्युं छे; एक मात्र भवछेदक एवी आत्मानी अंतर्द्रष्टि दुर्लभ रही छे.

* गाथा १७३ थी १७६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘द्रव्यास्रवोना उदयने अने जीवना राग-द्वेष-मोहना भावोने निमित्त-नैमित्तिक भाव छे.’

शुं कह्युं आ? के भगवान आत्मा स्वभावथी जुओ तो शुद्ध चैतन्यस्वरूप परम पवित्र सदा वीतरागस्वभावी छे; पण एनी पर्यायमां जे विकार थाय छे ते भावास्रव छे. तेमां द्रव्यास्रव एटले जड कर्मनो उदय निमित्त होय छे. जडकर्मनो उदय ते निमित्त अने पोतानी अवस्थामां जे विकार थाय छे ते नैमित्तिक छे. प्रथम जे कर्म सत्तामां हतां ते प्रगट थाय तेने (कर्मनो) उदय कहे छे. त्यां पोतानी पर्यायमां नैमित्तिक जे विकार तेनुं अशुद्ध उपादान तेना पोताथी ज छे, निमित्तथी नहि. राग-द्वेष-मोह आदि आस्रवभावो पोतपोताना काळमां पोताथी थवावाळा होय ते थाय छे. जूना कर्मनो उदय निमित्तपणे भले हो, पण निमित्तथी ते विकारी पर्याय थाय छे एम नथी. निमित्तनो निमित्तपणे निषेध नथी, पण निमित्त उपादानमां कांई करे छे ए वातनो निषेध छे.

तो केटलाक अज्ञानीओ पोकार करे छे के-कथंचित् पोताथी थाय अने कथंचित् निमित्तथी थाय एम अनेकान्त करवुं जोईए.

अरे भाई! आवुं अनेकान्तनुं स्वरूप नथी. ए तो फुदडीवाद छे, मिथ्यावाद छे. पोताथी थाय अने निमित्तथी न थाय ए सम्यक् अनेकान्त छे. आत्मा जेटला प्रमाणमां कर्मना उदयमां जोडाय छे तेटला प्रमाणमां आत्माने मिथ्यात्व अने रागद्वेष उत्पन्न थाय छे अने तेनाथी नवा कर्मनो बंध थाय छे.


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कर्मनो उदय आवे एटले विकार करवो ज पडे अर्थात् निमित्तना प्रमाणमां जोडाण थाय ज एवी अत्यारे केटलाकनी मान्यता छे परंतु ते मान्यता यथार्थ नथी, खोटी विपरीत छे. अरे भाई! कर्मनो उदय तो जड छे अने आत्मा चेतन छे; बन्ने भिन्न भिन्न छे, कर्म आत्माने स्पर्शतुंय नथी; तो पछी जडकर्म चेतनने शुं करे? चेतननी पर्यायमां जे मिथ्यात्वादि छे ते एनी जन्मक्षण छे, ते पोताना काळे पोताथी छे, कर्मने लीधे छे एम नथी. ज्यारे पर्यायमां विकार थाय त्यारे कर्मना उदयने निमित्त कहे छे. एवी रीते पोताना शुद्ध द्रव्यना आश्रये सम्यग्दर्शन थाय छे त्यां रागनी मंदता निमित्त छे, परंतु ए निमित्त नैमित्तिक एवी सम्यग्दर्शननी पर्यायने उत्पन्न करे छे एम नथी. सम्यग्दर्शननी पर्याय निमित्तना कारणे के निमित्तना आश्रये-अवलंबने उत्पन्न थाय छे एम नथी. हवे आगळ कहे छे-

‘द्रव्यास्रवोना उदय विना जीवने आस्रवभाव थई शके नहि अने तेथी बंध पण थई शके नहि. द्रव्यास्रवोनो उदय थतां जीव जे प्रकारे तेमां जोडाय अर्थात् जे प्रकारे तेने भावास्रव थाय ते प्रकारे द्रव्यास्रवो नवीन बंधना कारण थाय छे. जीव भावास्रव न करे तो तेने नवो बंध थतो नथी.’

द्रव्यास्रवोना उदय विना एटले द्रव्यास्रवोना उदयमां जोडाया विना जीवने आस्रवभाव थई शके नहि. उदयमां जेटलुं जीव स्वतंत्रपणे जोडाण करे छे तेटलो भावास्रव थाय छे. केटलाक लोको आशयने समजता नथी एटले कहे छे के आ तो तमारा घरनी वात छे. परंतु भाई! एम नथी, बापु! एनो आशय ज आ छे. द्रव्यास्रवोना उदय विना एटले उदयथी भावास्रवो थाय एम नहि, पण उदयकाळे जीव उदयमां जोडाय छे, जीवनुं लक्ष निमित्त उपर जाय छे त्यारे विकार-भावास्रवो उत्पन्न थाय छे. निमित्त विना न थाय एनो अर्थ निमित्तथी थाय एम नथी. (निमित्त विना न थाय-ए तो मात्र निमित्तनी उपस्थिति सूचवे छे).

अहा! शुं थाय? सर्वज्ञ वीतराग परमेश्वरनी आ वाणी हमणां हमणां चालती न होती एटले लोकोने एकांत लागे छे. पण जुओ, आगळ पंडितजी स्वयं खुलासो करे छे के द्रव्यास्रवोनो उदय थतां जीव जे प्रकारे तेमां जोडाय अर्थात् जे प्रकारे तेने भावास्रव थाय ते प्रकारे द्रव्यास्रवो नवीन बंधनां कारण थाय छे; उदयना प्रमाणमां थाय एम नहि. बीजी रीते कहीए तो जीव जे प्रकारे पोताना उपयोगनुं उदयमां जोडाण करे ते प्रकारे द्रव्यास्रवो बंधनुं कारण थाय छे, जीवने भावास्रवो जे प्रकारे थाय छे ते प्रकारे द्रव्यास्रवो नवीन बंधनां कारण थाय छे. जीव भावास्रव न करे तो नवो बंध थतो नथी. जो कर्मनो उदय आवे त्यारे आस्रव अने बंध थाय ज (विकार करवो ज पडे) एवो नियम होय तो-कर्मनो उदय तो सदाय छे अने तो पछी बंध पण सदाय थया ज करे; पण एम छे नहि. पोते एमां