Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 170-172.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 87 of 210

 

PDF/HTML Page 1721 of 4199
single page version

(उपजाति)
भावास्रवाभावमयं प्रपन्नो
द्रव्यास्रवेभ्यः स्वत एव भिन्नः।
ज्ञानी सदा ज्ञानमयैकभावो
निरास्रवो ज्ञायक एक एव।। ११५।।

श्लोकार्थः– [भावास्रव–अभावम् प्रपन्नः] भावास्रवोना अभावने पामेलो अने [द्रव्यास्रवेभ्यः स्वतः एव भिन्नः] द्रव्यास्रवोथी तो स्वभावथी ज भिन्न एवो [अयं ज्ञानी] ज्ञानी- [सदा ज्ञानमय–एक–भावः] के जे सदा एक ज्ञानमय भाववाळो छे ते- [निरास्रवः] निरास्रव ज छे, [एकः ज्ञायकः एव] मात्र एक ज्ञायक ज छे.

भावार्थः– रागद्वेषमोहस्वरूप भावास्रवनो ज्ञानीने अभाव थयो छे अने द्रव्यास्रवथी तो ते सदाय स्वयमेव भिन्न ज छे कारण के द्रव्यास्रव पुद्गलपरिणामस्वरूप छे अने ज्ञानी चैतन्यस्वरूप छे. आ रीते ज्ञानीने भावास्रव तेम ज द्रव्यास्रवनो अभाव होवाथी ते निरास्रव छे. ११प.

* * *

समयसार गाथा १६९ः मथाळु

हवे, ज्ञानीने द्रव्यास्रवनो अभाव छे एम बतावे छेः-

* गाथा १६९ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जे पूर्वे अज्ञान वडे बंधायेला मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योगरूप द्रव्यास्रवभूत प्रत्ययो छे, ते अन्यद्रव्यस्वरूप प्रत्ययो अचेतन पुद्गलपरिणामवाळा होवाथी ज्ञानीने माटीनां ढेफां समान छे.’

जुओ, शुं कहे छे? के रागनी एकत्वबुद्धिथी उत्पन्न थतो अज्ञानभाव अने अज्ञानपूर्वकना राग-द्वेष बंधनुं कारण बने छे. पुण्य-परिणामने करवुं ए ज्ञाता-द्रष्टास्वभावी भगवान आत्मानो स्वभाव नथी; ए ते अज्ञानभाव छे अने ते-पूर्वकना कषायभाव मिथ्यात्वादिना बंधनुं कारण थाय छे.

पण जेणे रागथी पोताना ज्ञायकतत्त्वने भिन्न पाडयुं अने पर्यायमां ज्ञान अने आनंदनो स्वाद लीधो छे एवा धर्मीने पूर्वे अज्ञान वडे बंधायेला जे जड परमाणुओ- दर्शनमोहनो थोडो अंश अर्थात् सम्यक्मोहनीयना रजकणो जे क्षयोपशम समकित प्रगट थयुं छे छतां होय छे ते, तथा अविरति, कषाय अने योगरूप द्रव्यास्रवभूत प्रत्ययो छे; पण ते अन्यद्रव्यस्वरूप प्रत्ययो अचेतन पुद्गलपरिणामवाळा होवाथी तेने माटीनां ढेफां समान छे. जेम माटीनां ढेफां अजीव छे, ज्ञेय छे तेम ए


PDF/HTML Page 1722 of 4199
single page version

प्रत्ययो पण अजीव अने ज्ञेय छे. जेम माटीनां ढेफां पुद्गलस्कंधो छे तेम ए प्रत्ययो पण तेवा ज स्कंधो छे.

वळी कहे छे-‘ते तो बधाय, स्वभावथी ज मात्र कार्मण शरीर साथे बंधायेला छे- संबंधवाळा छे, जीव साथे नहि.’

मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योगना परमाणुओ जेओ जड अचेतन छे ते मात्र कार्मण शरीर साथे बंधायेला छे, जीव साथे नहि. मिथ्यात्वादि जड प्रत्ययोने आत्मा साथे संबंध नथी. वळी पर्यायमां द्रव्यकर्म साथे जे निमित्त-नैमित्तिक संबंध छे तेने ज्ञानीए तोडी नाख्यो छे. एटले द्रव्यकर्मने पुद्गल कार्मण शरीर साथे ज संबंध छे. सदाय चैतन्यघनस्वरूप भगवान आत्माने तो द्रव्यकर्म साथे निमित्त-नैमित्तिक संबंध छे ज नहि; अने आवा आत्मानी जेने द्रष्टि थई छे एवा ज्ञानीए पर्यायमां जे निमित्तपणानो संबंध छे ते तोडी नाख्यो छे. तेथी समकितीने मिथ्यात्व प्रकृति कदाच सत्तामां होय तोपण ते प्रकृतिना परमाणुने कार्मण शरीर साथे संबंध छे, जीव साथे नहि. ज्ञानीने द्रव्यास्रवो साथे संबंध छे ज नहि. हवे कहे छे-

‘माटे ज्ञानीने द्रव्यास्रवनो अभाव स्वभावथी ज सिद्ध छे.’

जेम शरीर, वाणी, स्त्री-कुटुंब-परिवार आदि पर पदार्थ पर ज छे, एनी साथे आत्माने कांई संबंध नथी तेम ज्ञानीने द्रव्यास्रवोथी कांई संबंध नथी. पर चीज पोतपोताना कारणे द्रव्य-गुणपणे कायम रहीने पर्यायमां बदलीने रही छे. शरीर पोताना द्रव्य-गुणमां पोतानी पर्याय करीने रह्युं छे; बीजा आत्माओ, बीजा शरीरो के पुद्गलो पोतपोताना द्रव्य- गुणमां पोतपोतानी पर्याय करीने रहेलां छे. कार्मण शरीर छे ते पण पोताना द्रव्य-गुण- पर्यायमां रहेलुं छे. कर्म-परमाणुओ कांई आत्मानी पर्यायमां आव्या नथी. भाई! आत्माने अने पर द्रव्योने कांई संबंध छे ज नहि. माटे ज्ञायकमूर्ति भगवान आत्मानो जेने आश्रय थयो छे ते ज्ञानीने द्रव्यास्रवनो अभाव स्वभावथी ज सिद्ध छे केमके परमाणुओनो संबंध जड साथे ज छे.

सवारे भेदाभेदरत्नत्रय मोक्षनुं कारण छे एम आव्युं हतुं ने? एनो खुलासो-

जुओ, भेदरत्नत्रय छे ते राग छे. शुद्ध चिदानंदघन भगवान आत्माना आश्रये जेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान अने स्वरूपाचरण प्रगट थयां छे एवा निश्चयद्रष्टिवंतने भेदरत्नत्रयरूप शुभराग आवे छे. तेने निश्चय अभेदरत्नत्रयनो सहकारी जाणीने व्यवहार मोक्षनुं कारण कह्युं छे. भेदरत्नत्रय राग होवाथी छे तो बंधनुं ज कारण, परंतु वास्तविक मोक्षनुं कारण जे अभेद रत्नत्रय तेना सहचरपणे एवो ज राग होय छे तेथी आरोप आपीने तेने व्यवहार मोक्षनुं कारण कहेवामां आव्युं छे. अभेदरत्नत्रय


PDF/HTML Page 1723 of 4199
single page version

एक ज निश्चयथी मोक्षनुं कारण छे; तोपण जेने निश्चय-द्रष्टि थई छे, कर्ताबुद्धि छूटी गई छे, छतां राग (भेदरत्नत्रयनो) आवे छे एवा धर्मी जीवना भेदरत्नत्रयना परिणामने आरोप आपीने अभेदरत्नत्रयनी साथे मोक्षनुं कारण कह्युं छे.

भाई! आत्मा शुं चीज छे एनी जेने खबर ज नथी एवा अज्ञानीने तो व्यवहार ज नथी. जेने अभेदनी द्रष्टि नथी एने कयां भेदरत्नत्रय छे? अज्ञानीनो देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग कांई व्यवहार नथी, ए तो व्यवहाराभास छे. ज्ञानीने जे राग थाय छे तेने ते मात्र जाणे ज छे, करतो नथी अने एवा जाणनारनी जे द्रष्टि अने स्थिरता अंदरमां थयां छे ते ज वास्तविक मोक्षनुं कारण छे. आवी वात छे.

* गाथा १६९ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञानीने जे पूर्वे अज्ञानदशामां बंधायेला मिथ्यात्वादि द्रव्यास्रवभूत प्रत्ययो छे ते तो माटीनां ढेफांनी माफक पुद्गलमय छे तेथी तेओ स्वभावथी ज अमूर्तिक चैतन्यस्वरूप जीवथी भिन्न छे.’

ज्ञानीने द्रव्यास्रवभूत प्रत्ययो एना द्रव्यमां तो नथी पण एनी पर्यायमां पण एनो अभाव छे. जेम पर्यायमां राग-द्वेषनो संबंध छे तेम पर्यायमां कर्मनो संबंध नथी. तेमनो बंध वा संबंध पुद्गलमय कार्मण शरीर साथे ज छे, चिन्मय जीव साथे नहि. भगवान आत्मा तो प्रज्ञा ब्रह्मस्वरूप चैतन्यमय ज छे; एनी साथे जड अचेतन एवा कर्मने कांई पण संबंध नथी.

लौकिकमां स्त्री-कुटुंब-परिवार वगेरेने आ अमारा संबंधीओ छे एम नथी कहेता? आ अमारा नातीला छे अने एमनी साथे अमारे खूब पुराणो संबंध छे एम कहे छे ने? बापु! कोनी साथे तारे संबंध? बहु तो अज्ञानमां तारे राग-द्वेष अने विकार साथे संबंध छे; ज्ञानमां तो ए संबंध पण नथी. त्यां हवे अन्य साथे संबंध कयांथी आव्यो? पुद्गलकर्म साथे पण संबंध कयांथी होय? अहा! चैतन्य भगवान आनंदना नाथने ज्यां रागना कर्तापणाथी भिन्न भाळ्‌यो त्यां एने कर्मना जड पुद्गलो साथे तो संबंध नथी, भावास्रव साथे पण संबंध नथी.

ज्ञानीने भावास्रवनो अभाव होवाथी द्रव्यास्रवभूत प्रत्ययो नवां कर्मना आस्रवणनुं कारण थता नथी. जड कर्म उदयमां आवे, पण मिथ्यात्व अने तत्संबंधी रागद्वेषरूप भावास्रवो नथी तो जूनां कर्म नवा बंधनुं कारण थतां नथी. आगळ आ वात आवी गई के जडकर्म छे ते खरेखर आस्रवो छे अने नवा बंधननुं कारण छे; पण कोने? मिथ्यात्व अने राग-द्वेषपणे परिणमे तेने. मिथ्यात्व अने राग द्वेष न करे तो ते कर्मनो उदय नवां कर्मना आस्रवणनुं कारण नथी. तेथी आ अपेक्षाए पण ज्ञानीने द्रव्यास्रवनो अभाव छे.


PDF/HTML Page 1724 of 4199
single page version

एक तो द्रव्यास्रव पुद्गल छे माटे संबंध नथी; अने बीजुं ज्ञानीने भावास्रवनो अभाव छे एटले द्रव्यास्रवो बंधनुं कारण नहि थता होवाथी ज्ञानीने द्रव्यकर्म नथी. आ प्रमाणे ज्ञानीने द्रव्यास्रवनो अभाव ज छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश ११पः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘भावास्रव–अभावम् प्रपन्नः’ भावास्रवोना अभावने पामेलो...

मतलब के धर्मी जीव शुद्ध द्रव्यस्वभावना अवलंबनथी मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधीना राग-द्वेषरूप भावास्रवना अभावने पामेलो छे. अहाहा! जेने रागनुं कर्तापणुं छूटी ज्ञाता-द्रष्टा स्वभावनो अनुभव थयो छे ते धर्मी भावास्रवना अभावने पामेलो छे. समकितीने भावास्रवनो एटले मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधीना राग-द्वेषनो अभाव ज छे. आ नास्तिथी वात करी. अस्तिथी कहीए तो धर्मी जीव भगवान जे त्रिकाळ ज्ञानानंदस्वरूप छे तेने पामेलो छे.

अनादिथी जीव राग-द्वेष-मोहरूप भावास्रवने पामतो हतो. रागद्वेष मारा अने ए मारां कर्तव्य एम अनादिथी कर्तापणुं मानतो हतो. हवे कर्तापणानो त्याग करी ते ज जीव ज्यारे-हुं तो परमानंदनो नाथ शुद्ध चैतन्यघन प्रभु एक ज्ञाता-द्रष्टा छुं, जगत आखुंय मात्र ज्ञेय छे, द्रश्य छे-एम पोताना ज्ञाता-द्रष्टास्वरूपने ध्येय बनावी तेमां अंतर्लीन थयो त्यारे ते भावास्रवना अभावने पामेलो ज्ञानी छे.

अनादिथी पुण्य-पापना भाव जे आस्रवो छे तेने जे पामेलो छे ते मिथ्याद्रष्टि अज्ञानी छे. जे वस्तु पोताथी भिन्न छे ए चीजने पोतानी माने ते जीव अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे. ए ऊंधो पुरुषार्थ करे छे ने? भाई! अज्ञानी के ज्ञानी-कोईने कोई कार्य पुरुषार्थ विनानुं होतुं नथी. परमाणुमां पण तेनुं कार्य तेनी वीर्यशक्तिना कारणे ज होय छे. आत्मानी जेम परमाणुमां पण वीर्यशक्ति छे. अज्ञानी भिन्न चीजने पोतानी माने छे, पण एम छे नहि अने एम बनवुं संभवित पण नथी. छतां पोतानी माने छे अने रागद्वेष करे छे; ए प्रमाणे एणे ऊंधुं वीर्य फोरव्युं छे.

श्रीमदे लख्युं छे के-‘दिगंबरना आचार्यो एम कहे छे के जीवनो मोक्ष थतो नथी, मोक्ष समजाय छे.’ अहाहा! चिदानंदघन प्रभु अनाकुळ शांत अने आनंदरसनो अमाप-अमाप गंभीर जेनो बेहद स्वभाव छे एवा भगवान आत्मानो मोक्ष थतो नथी. जीवने पहेलां मान्यता हती के हुं रागथी बंधाणो छुं; ज्ञान थतां हुं मोक्षस्वरूप ज छुं एम समजाय छे. आत्मा रागथी भिन्नस्वरूप ज छे एम अंतर-अनुभवमां समजाणुं त्यारे ते मुक्त ज छे, मुक्तस्वरूप ज छे. आवा ज्ञायकने


PDF/HTML Page 1725 of 4199
single page version

मुक्तस्वरूपे-अबद्धस्वरूपे देखवो ए जैनशासन छे. (ज्ञानी पर्यायमां जैनशासन पामेलो छे.)

समयसार गाथा १४ अने १प मां पण आव्युं के-आत्मा अबद्धस्पृष्ट छे. अहा! रागथी ए बंधायेलो नथी तो पछी कर्मथी ए बंधायेलो छे ए वात कयां रही? (न रही). सूकायेला नाळियेरमां जेम गोळो छूटो होय छे तेम भगवान आत्मा राग अने कर्मथी छूटुं तत्त्व छे.

प्रवचनसार, गाथा-२०० मां आवे छे के-अनादि संसारथी ज्ञायक ज्ञायकभावपणे ज रह्यो छे. अनेक ज्ञेयने जाणवापणे परिणम्यो होवा छतां सहज अनंतशक्तिवाळा ज्ञायकस्वभाव वडे एकरूपताने छोडतो नथी. अज्ञानी जीवोने मोहने लईने अन्यथा अध्यवसित थाय छे. अहाहा...! भगवान आत्मा तो सदा निर्मळानंद सच्चिदानंद प्रभु छे. सत् नाम शाश्वत ज्ञान अने आनंदनो गोळो भगवान आत्मा छे. ध्रुव-ध्रुव-ध्रुव अनादि-अनंत ज्ञायकभाव ज्ञायकभावरूपे ज छे. परज्ञेयने जाणवा छतां शुद्ध तत्त्व परज्ञेयपणे थयुं नथी, छे नहि अने थशे नहि.

हवे आवी (स्वभाव-विभावना भेदज्ञाननी) वात समजवानी लोकोने फुरसद होय नहि एटले बिचारा कोई उपवास करवामां, तो कोई व्रत पाळवामां, कोई जात्रा-भक्ति करवामां अने कोई मंदिरो बंधाववामां जोडाई गया छे. पण भाई! ए बधी जडनी क्रियाओ तो जडना कारणे एना काळमां थाय छे अने ए काळे तने जो शुभराग होय तो पुण्यबंध थाय पण धर्म नहि. परद्रव्यनी क्रिया-काळे रागनुं निमित्त हो भले, पण निमित्त कांई करतुं नथी. निमित्त होय छे खरुं, पण निमित्त परमां कांई (कार्य) करे छे एम नथी. लोकोने आ खटके छे. कर्मनो उदय निमित्त होय तो विकार थाय छे एम माने छे तेमने आ खटके छे. परंतु एवी मान्यता अयथार्थ छे. उपादाननी ते ते समयनी ‘योग्यता ज’ ते ते प्रकारे थवानी छे.

प्रश्नः– परमात्मानी दिव्यध्वनिथी आत्माने ज्ञान थाय छे-एम आवे छे ने? बनारसी- विलासमां कह्युं छे के-

‘‘ॐकार धुनि सुनि अर्थ गणधर विचारै;
रचि आगम उपदेश भविक जीव संशय निवारै.’’

उत्तरः– भाई! निमित्तनां (निमित्तनी मुख्यतानां) कथन एम ज आवे. जीव स्वयं पोताथी संशय टाळे तो वाणीने निमित्त कहेवाय छे. बाकी भगवान ज्ञायकनी अंतर्द्रष्टि करतां जे ज्ञान थयुं ते संशय रहित ज्ञान छे-अने ते स्वभावना पुरुषार्थथी स्वतः थयुं छे; निमित्तथी नहि. कह्युं छे ने के-


PDF/HTML Page 1726 of 4199
single page version

‘‘जिन सोही है आत्मा अन्य सोई है कर्म,
यही वचनसे समजले जिन-प्रवचन का मर्म.’’

रागादि पण अन्य कर्म छे, आत्मा नहि. भगवान त्रिलोकीनाथनी वाणीनो आ मर्म छे. भाई! जैनशासन कोई वाडो नथी, वस्तुनुं स्वरूप छे. भगवान! तुं मुक्तस्वरूप छो, अने जे शुद्धोपयोगमां आत्मा मुक्तस्वरूप जणायो ते शुद्धोपयोग जैनशासन छे.

हवे आवी अंतर्द्रष्टिनी वातमां सूझ पडे नहि एटले व्रत करवां, दया पाळवी, भक्ति करवी, दान करवुं इत्यादि बाह्य क्रियाओमां जीव लागी जाय छे, केमके एमां झट समज पडे छे. महावरो छे ने एनो? वळी बीजाने पण खबर पडे के कांईक कर्युं. पण भाई! ए तो बधी बहारनी क्रियाओ छे. एमां कयां आत्मा छे? जन्म-मरणनो अंत करवो होय तो एनाथी नहि थाय. भगवान! पोताने समज्या विना अने अंतर्द्रष्टि कर्या विना जीव अनादिथी दुःखी छे. आ मोटा राजाओ अने करोडपति शेठियाओ बधा आत्मद्रष्टि विना दुःखी ज छे. शांतरसनो समुद्र एवा भगवान आत्माने भूलीने तेओ कषायनी अग्निमां बळी ज रह्या छे. छहढालामां आवे छे ने के-

‘‘यह राग आग दहै सदा, तातैं समामृत सेईए.
चिर भजे विषय-कषाय अब तो, त्याग निजपद बेईए.’’

भाई! अनंतकाळ विषय-कषाय सेव्या, हवे तो तेने छोडी अंतर्द्रष्टि कर. पोतानी अंदर विकारना परिणाम थाय छे एने छोडवानुं ज्ञानीओ कहे छे, परने सेववानी अने छोडवानी कोई वात नथी, केमके परने कोण सेवे अने छोडे छे? अहीं तो एम कहे छे के-विषय- कषायरहित अंदर आनंदनो नाथ भगवान छे एनी सेवामां एकवार आव. तेथी तने आनंद थशे, सुख थशे अने अंदर भणकार वागशे के हवे हुं अल्पकाळमां मुक्ति पामीश.

अहा! सम्यग्ज्ञान जे थयुं ते भावास्रवथी रहित थयुं छे. भले मति-श्रुतज्ञान हो तोपण एणे स्वज्ञेयने पकडयुं छे ने? सम्यक् मति-श्रुतज्ञान केवळज्ञानने बोलावे छे एटले के ते केवळज्ञानने प्राप्त करवानुं कारण छे.

प्रश्नः– बहारमां मंदिर आदि बंधावे, मोटा गजरथ काढे तो धर्मनी प्रभावना थाय ने?

उत्तरः– शुद्ध स्वभावमां एकाग्रता पूर्वक विज्ञानघनस्वभावनी पर्यायमां वृद्धि थवी ते निश्चय प्रभावना छे. आवी निश्चय-प्रभावना जेने प्रगट थई छे तेवा जीवना


PDF/HTML Page 1727 of 4199
single page version

शुभरागने व्यवहार प्रभावना कहे छे. बहारमां जडनी क्रियामां तो एनुं कांई कर्तव्य नथी. लोकोने एकलो व्यवहार गळे वळग्यो छे, पण अज्ञानीनो शुभराग कांई व्यवहार प्रभावना नथी. (ए तो प्रभावनानो आभासमात्र छे) हवे कहे छे-

आ रीते भावास्रवना अभावने पामेलो अने ‘द्रव्यास्रवेभ्यः स्वतः एव भिन्नः’ द्रव्यास्रवोथी तो स्वभावथी ज भिन्न एवो ‘अयं ज्ञानी’ आ ज्ञानी ‘सदा ज्ञानमय–एक–भावः’ के जे सदा एक ज्ञानमयभाववाळो छे ते ‘निरास्रवः’ निरास्रव ज छे.

अहाहा...! अभेद एक ज्ञान जे शुद्ध आत्मा तेने पामेलो ज्ञानी सदाय ज्ञानमयभाववाळो होवाथी निरास्रव ज छे. आ मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी कषायना अभावनी अपेक्षाए वात छे. अस्थिरतानो जे राग छे तेने स्वभावना अवलंबने टाळवानो प्रयत्न छे तेथी तेने गौण करीने ज्ञानी निरास्रव ज छे एम कह्युं छे. वळी ‘एकः ज्ञायकः एव’ मात्र एक ज्ञायक ज छे. ज्ञानी जाणनार-जाणनार-जाणनार ज छे; परने जाणनार एम नहि, पण जाणनारने जाणनारो ते ज्ञायक ज छे.

* कळश ११पः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘रागद्वेषमोहस्वरूप भावास्रवनो ज्ञानीने अभाव थयो छे अने द्रव्यास्रवथी तो ते सदाय स्वयमेव भिन्न ज छे.’ जड द्रव्यास्रवोथी तो अज्ञानी पण भिन्न छे, पण ए माने छे विपरीत के-मारे अने द्रव्यकर्मने संबंध छे. द्रव्यास्रव पुद्गलपरिणामस्वरूप छे अने ज्ञानी चैतन्यस्वरूप छे तेथी ज्ञानी द्रव्यास्रवथी स्वभावथी ज भिन्न छे.

‘आ रीते ज्ञानीने भावास्रव तेम ज द्रव्यास्रवनो अभाव होवाथी ते निरास्रव ज छे.’ ज्ञानी मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी कषायना अभाववाळो अने समकित अने स्वरूपस्थिरतावाळो होवाथी तेने अहीं निरास्रव ज कह्यो छे. कोई एकांते पकडी बेसे के तेने आस्रवनुं अस्तित्व ज नथी तो एम नथी.

बापु! अनंतकाळमां नहीं करेली आ वात छे. भगवान! तुं पंचमहाव्रतधारी दिगंबर साधु अनंतवार थयो पण स्वरूपे ग्रह्या विना एकली रागनी क्रियाओमां व्यस्त रहीने त्यां ने त्यां (संसारमां) ज रोकाई रह्यो. बाकी ज्ञान थतां ज्ञानी तो निरास्रव ज होय छे; ते अल्पकाळमां मुक्तिने पामे छे. आवी वात छे.

[प्रवचन नं. २३३ * दिनांक १६-११-७६]

PDF/HTML Page 1728 of 4199
single page version

कथं ज्ञानी निरास्रव इति चेत्–

चउविह अणेयभेयं बंधंते णाणदंसणगुणेहिं।
समए समए जम्हा तेण अबंधो त्ति णाणी दु।। १७०।।
चतुर्विधा अनेकभेदं बध्नन्ति ज्ञानदर्शनगुणाभ्याम्।
समये समये यस्मात् तेनाबन्ध इति ज्ञानी तु।। १७०।।

हवे पूछे छे के ज्ञानी निरास्रव कई रीते छे? तेना उत्तरनी गाथा कहे छेः-

चउविध प्रत्यय समयसमये ज्ञानदर्शनगुणथी,
बहुभेद बांधे कर्म, तेथी ज्ञानी तो बंधक नथी. १७०.

गाथार्थः– [यस्मात्] कारण के [चतुर्विधाः] चार प्रकारना द्रव्यास्रवो [ज्ञानदर्शन– गुणाभ्याम्] ज्ञानदर्शनगुणो वडे [समये समये] समये समये [अनेकभेदं] अनेक प्रकारनुं कर्म [बध्नन्ति] बांधे छे [तेन] तेथी [ज्ञानी तु] ज्ञानी तो [अबन्धः इति] अबंध छे.

टीकाः– प्रथम, ज्ञानी तो आस्रवभावनी भावनाना अभिप्रायना अभावने लीधे निरास्रव ज छे; परंतु जे तेने पण द्रव्यप्रत्ययो समय समय प्रति अनेक प्रकारनुं पुद्गलकर्म बांधे छे, त्यां ज्ञानगुणनुं परिणमन ज कारण छे.

* * *

समयसार गाथा १७०ः मथाळु

हवे पूछे छे के ज्ञानी निरास्रव कई रीते छे?-तेना उत्तरनी गाथा कहे छे.

अहाहा...! शुद्धचिदानंदस्वरूप अखंड एक ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मानी द्रष्टि अने अनुभव जेने थयां ते ज्ञानी छे, धर्मी छे. तेने ज्ञानी कहो, धर्मी कहो वा सम्यग्द्रष्टि कहो-ए बधुं एकार्थवाचक छे. एवा ज्ञानीने मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी आस्रवनो अभाव छे. चाहे तो दया, दान, व्रत, भक्तिना शुभभाव हो के हिंसा, जूठ, चोरी, विषयवासनाना अशुभभाव हो-बन्ने भाव आस्रव छे. ज्ञानी एनाथी रहित छे. वळी जडकर्म-द्रव्यास्रवोथी ते स्वभावथी ज भिन्न छे. आ वात आगळनी गाथाओमां आवी गई छे.


PDF/HTML Page 1729 of 4199
single page version

हवे अहीं शिष्य पूछे छे के ज्ञानी निरास्रव कई रीते छे? बस, ज्ञानी थयो एटले निरास्रव थई गयो? आवी आशंका पूर्वक पूछे छे तेने आ गाथामां उत्तर आपवामां आवे छे.

* गाथा १७०ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘प्रथम, ज्ञानी तो आस्रवभावनी भावनाना अभिप्रायना अभावने लीधे निरास्रव ज छे.’ धर्मी जीवने पुण्य-पापरूप आस्रवभाव करवानो अभिप्रायमां अभाव छे. आस्रवभाव करवा लायक छे एवा अभिप्रायथी ज्ञानी रहित छे; तेथी तेने निरास्रव कहेवामां आवे छे.

जेने समकित थयुं छे, सम्यग्ज्ञान थयुं छे एवा धर्मी जीवने शुभाशुभ भावनी भावना नथी, शुभाशुभ भाव करवानो अभिप्राय नथी. अहाहा...! धर्मात्माने दया, दान, भक्ति आदि शुभभाव करवा योग्य छे एम अभिप्राय नथी. गजब वात छे! शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप पूर्णानंदनो नाथ भगवान आत्मा छे. तेनां श्रद्धान-रुचि अने आश्रय जेने थयां छे तेने शुद्ध चैतन्यस्वभावनी एकाग्रतानी भावनामां पुण्य-पापनी भावनानो अभिप्रायमां अभाव छे. अहो! भगवाननी दिव्यध्वनिमां जे आव्युं ते अहीं समयसारमां आचार्य कुंदकुंददेवे कह्युं छे. वाह! संतो भगवानना आडतिया थईने भगवाननो संदेश जगत समक्ष जाहेर करे छे.

कहे छे-भाई! ८४ ना जन्म-मरणना फेरा मटाडवानो उपाय अंदर जे पूर्णानंदनो नाथ शुद्ध चिदानंदघन परमात्मा प्रभु पडयो छे तेनी द्रष्टि-रुचि अने अभिप्राय बांधवो ते छे. धर्मनुं प्रथम पगथियुं सम्यग्दर्शन छे, अर्थात् धर्मनी शरूआत सम्यग्दर्शनथी थाय छे.

निमित्त, राग अने अल्पज्ञपणुं-ए बधानी उपेक्षा अने पूर्ण सर्वज्ञस्वभावी भगवान आत्मानी अपेक्षा अने ते पूर्वक शुद्ध आत्मानो अनुभव थवो ते सम्यग्दर्शन छे. समकिती जाणे छे के-हुं शरीर, मन, वाणी के पुण्य-पाप के अल्पज्ञ नथी, हुं तो चैतन्यरसकंद परिपूर्ण सर्वज्ञस्वभावी भगवान छुं. भगवानने जे पर्यायमां सर्वज्ञपणुं प्रगट छे ते कयांथी आव्युं? अंदर आत्मामां सर्वज्ञपणानो स्वभाव पडयो छे तो बहिर्मुख वलणनो त्याग करी अंतर्मुख वलण वडे तेनी प्रतीतिपूर्वक परिपूर्ण अंतर-एकाग्रता करवाथी ते प्रगट थयुं छे.

अहीं कहे छे-धर्मीने अंतरमुख वलण होवाथी अभिप्रायमां-श्रद्धानमां आस्रव एटले पुण्य-पापना भावनी भावना-एटले ते भला छे, करवा योग्य छे एवी चिंतवना-नो अभाव छे. पुण्य-पापना भाव ज्ञानीने आवे छे खरा, पण ते करवा


PDF/HTML Page 1730 of 4199
single page version

लायक छे एवो भाव तेना अभिप्रायमांथी छूटी गयो छे. आ कारणथी ज्ञानी निरास्रव ज छे. जोयुं ‘ज’ लीधुं छे. अभिप्रायनी अपेक्षाए ज्ञानी निरास्रव ज छे. हवे कहे छे-

‘परंतु जे तेने पण द्रव्यप्रत्ययो समय समय प्रति अनेक प्रकारनुं पुद्गलकर्म बांधे छे, त्यां ज्ञानगुणनुं परिणमन ज कारण छे.’

पूर्वनां जड कर्म उदयमां आवतां ज्ञानीने जरा (थोडां) नवां कर्म बंधाय छे तेमां ज्ञानगुणनुं (जघन्य) परिणमन ज कारण छे; अर्थात् जीवना ज्ञानगुणनी क्षयोपशमय दशा ज बंधनुं कारण छे. वस्तु-आत्मा अने एनी द्रष्टि बंधनुं कारण नथी. अभिप्राय बंधनुं कारण नथी तो बंधनुं कारण शुं छे? तेनो आ खुलासो कर्यो के कमजोरीना कारणे ज्ञाननी जे हीणी दशा परिणमे छे ते बंधनुं कारण छे.

अहो! सम्यग्दर्शन कोई अलौकिक चीज छे. दुनिया देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धाने के नवतत्त्वनी भेदरूप श्रद्धाने समकित माने छे पण ए (मान्यता) अयथार्थ छे, विपरीत छे. महाविदेह क्षेत्रमां साक्षात् सर्वज्ञ परमात्मा बिराजे छे ते एम फरमावे छे के-जेने पोताना शुद्ध चैतन्यमय आत्मानो द्रष्टिमां स्वीकार-सत्कार थयो छे एवा ज्ञानीने अभिप्रायमां आस्रव करवानो भाव छूटी गयो छे. पण आ स्थितिमां जे अल्प कर्मबंधन थाय छे ते पूर्वकर्मना उदयमां जे वर्तमान ज्ञाननी परिणति थोडी कमजोरीथी जोडाय छे ते कारण छे. ज्ञानगुणनी हीणी-क्षयोपशम दशा ज त्यां बंधनुं कारण छे. ए हीणी दशा समकितनो विषय के समकितनुं कारण नथी.

[प्रवचन नं. २३४ * दिनांक १७-११-६६]

PDF/HTML Page 1731 of 4199
single page version

कथं ज्ञानगुणपरिणामो बन्धहेतुरिति चेत्–

जम्हा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणो वि परिणमदि।
अण्णत्तं णाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो।। १७१।।
यस्मात्तु जधन्यात् ज्ञानगुणात् पुनरपि परिणमते।
अन्यत्वं ज्ञानगुणः तेन तु स बन्धको भणितः।। १७१।।

हवे वळी पूछे छे के ज्ञानगुणनुं परिणमन बंधनुं कारण कई रीते छे? तेना उत्तरनी गाथा कहे छेः-

जे ज्ञानगुणनी जघन्यतामां वर्ततो गुण ज्ञाननो,
फरीफरी प्रणमतो अन्यरूपमां, तेथी ते बंधक कह्यो. १७१.

गाथार्थः– [यस्मात् तु] कारण के [ज्ञानगुणः] ज्ञानगुण, [जघन्यात् ज्ञानगुणात्] जघन्य ज्ञानगुणने लीधे [पुनरपि] फरीने पण [अन्यत्वं] अन्यपणे [परिणमते] परिणमे छे, [तेन तु] तेथी [सः] ते (ज्ञानगुण) [बन्धकः] कर्मनो बंधक [भणितः] कहेवामां आव्यो छे.

टीकाः– ज्ञानगुणनो ज्यां सुधी जघन्य भाव छे (-क्षायोपशमिकभाव छे) त्यां सुधी ते (ज्ञानगुण) अंतर्मुहर्तमां विपरिणाम पामतो होवाथी फरीफरीने तेनुं अन्यपणे परिणमन थाय छे. ते (ज्ञानगुणनुं जघन्य भावे परिणमन), यथाख्यातचारित्र-अवस्थानी नीचे अवश्यंभावी रागनो सद्भाव होवाथी, बंधनुं कारण ज छे.

भावार्थः– क्षायोपशमिक ज्ञान एक ज्ञेय पर अंतर्मुहूत ज थंभे छे, पछी अवश्य अन्य ज्ञेयने अवलंबे छे; स्वरूपमां पण ते अंतर्मुहूर्त ज टकी शके छे, पछी विपरिणाम पामे छे. माटे एम अनुमान पण थई शके छे के सम्यग्द्रष्टि आत्मा सविकल्प दशामां हो के निर्विकल्प अनुभवदशामां हो, -यथाख्यातचारित्र-अवस्था थया पहेलां तेने अवश्य रागभावनो सद्भाव होय छे; अने राग होवाथी बंध पण थाय छे. माटे ज्ञानगुणना जघन्य भावने बंधनो हेतु कहेवामां आव्यो छे.

* * *

समयसार गाथा १७१ः मथाळु

हवे वळी पूछे छे के ज्ञानगुणनुं परिणमन बंधनुं कारण कई रीते छे? -तेना उत्तरनी गाथा कहे छेः-


PDF/HTML Page 1732 of 4199
single page version

अहा! आ तो एकदम अध्यात्म-वाणी छे. अनंतकाळमां तुं एने समज्यो नथी. छहढालामां आवे छे ने के-

‘‘मुनिव्रत धार अनंतवार ग्रीवक उपजायो,
पै निज आतमज्ञान विना सुख लेश न पायो.’’

जीव नग्नदशा सहित २८ मूलगुणनुं पालन करीने अनंतवार ग्रैवेयकमां उपज्यो छे, पण आस्रवरहित भगवान आत्माना ज्ञान विना तेने अंश पण सुख प्रगट थयुं नहि; अर्थात् दुःख ज थयुं. जेने आत्मज्ञान थाय तेने तो पर्यायमां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे. आवा आत्मज्ञानना अभावमां पंचमहाव्रतादिनो भाव ए पण दुःख अने आस्रव ज हता.

सम्यग्द्रष्टिने कमजोरीथी व्रतनो विकल्प आवे छे पण तेने एमां कर्ताबुद्धि नथी (स्वामीपणुं नथी). धर्मीने व्रतादिनी भावना नथी. श्रेणिक महाराजा क्षायिक समकिती हता. हाल नरकमां छे. त्यां समये समये तीर्थंकर गोत्र बांधे छे अने आवती चोवीसीमां प्रथम तीर्थंकर थशे. तेने हजारो राजाओ चामर ढाळता अने हजारो राणीओ हती. छतां समकिती हता ने? अभिप्रायनी अपेक्षाए तेओ निरास्रव ज हता. अहा! सम्यग्दर्शन शुं चीज छे एनी लोकोने खबर नथी. लोको बाह्य त्यागमां धर्म मानी ले छे पण धर्म अंतरनी जुदी चीज छे भाई! त्रण लोकना नाथ वीतराग परमेश्वरनी वाणीमां तो एम आव्युं के-पंचमहाव्रतादि जेटला क्रियाकांडना भाव छे ते बधा आस्रव छे अने बंधनुं कारण छे. समजाणुं कांई...?

तो ज्ञानीने ते आस्रव भावो केवी रीते छे? एनुं समाधान करे छे-

* गाथा १७१ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञानगुणनो ज्यां सुधी जघन्य भाव छे (-क्षायोपशमिक भाव छे) त्यां सुधी ते (ज्ञानगुण) अंतर्मुहूर्तमां विपरिणाम पामतो होवाथी फरीफरीने तेनुं अन्यपणे परिणमन थाय छे.’

शुं कहे छे? के अभिप्रायनी अपेक्षाए ज्ञानीने निरास्रव कह्यो, परंतु परिणतिमां तेने अस्थिरतानो कमजोरीनो राग-आस्रवभाव छे अने तेटलो बंध पण थाय छे. ज्ञानीने ज्ञाननी परिणति पूर्ण केवळज्ञानपणे प्रगट न थाय अर्थात् ज्यांसुधी ज्ञानगुण जघन्यभावे (अल्पभावे) परिणमे छे त्यांसुधी ज्ञानगुण विपरिणामने पामे ज छे. पोते आत्मा ज्ञानस्वरूप चिदानंद भगवान परमात्मा छे एवा भानपूर्वक शुद्ध चैतन्यस्वरूपनो ज्ञानीने अनुभव थयो छे पण अंतरध्यानमां-आत्माना अनुभवनी दशामां तो ते अंतर्मुहूर्त ज रही शके छे, तेथी विशेष रही शकतो नथी; अने त्यारे तेने


PDF/HTML Page 1733 of 4199
single page version

विकल्प ऊठे छे, चाहे ते विकल्प व्रतादिनो हो के विषयकषायनो हो, पण राग आवे ज छे. ज्ञानगुणनुं जघन्य परिणमन होवाथी अंतर्मुहूर्त एटले घडीना अंदरना काळमां तेनुं विपरिणमन थाय ज छे अर्थात् रागनुं परिणमन आवी ज जाय छे.

क्षायिक समकिती होय तोपण निर्विकल्प अनुभवमां आव्या पछी अंतर्मुहूर्तमां अनुभवनी परिणतिथी विपरीत रागभाव आवी जाय छे, एटले के फरीफरीने तेनुं अन्यपणे परिणमन थाय छे. हवे कहे छे-

‘ते (ज्ञानगुणनुं जघन्यभावे परिणमन), यथाख्यातचारित्र-अवस्थानी नीचे अवश्यंभावी रागनो सद्भाव होवाथी, बंधनुं कारण ज छे.’

समकिती धर्मीने अभिप्रायनी अपेक्षाए निरास्रव कह्यो केमके अभिप्राय अने अभिप्रायनो विषय तो अखंड वस्तु छे. धर्मीने अभिप्रायनी अपेक्षाए तो चैतन्यस्वभावमां ज एकाग्रतानी भावना छे, पण एनी परिणति जघन्य छे अर्थात् नीचला दरज्जानी वीतराग परिणति छे. तेने परिपूर्ण वीतरागता प्रगटी नथी माटे साथे रागनो सद्भाव जरूर छे; अने ते बंधनुं ज कारण छे, अने एटलुं दुःख पण ज्ञानीने छे. पर्यायमां हीणप छे ते अपेक्षाए ज्ञानीने एटलुं बंधन छे अने ते जाणवा लायक छे. ज्ञानीने निश्चय-व्यवहार बन्ने नयो यथार्थ होय छे.

ज्ञानीने राग थतो ज नथी, दुःख होतुं ज नथी-ए जुदी अपेक्षाए-द्रष्टिनी अपेक्षाए कह्युं छे. परंतु ज्ञान अपेक्षाए ज्ञानी जाणे छे के छट्ठे गुणस्थानके मुनिने-के जेने समकित सहित प्रचुर स्वसंवेदनमां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आव्यो छे-तेने पण महाव्रतादिना जे परिणाम आवे छे ते प्रमाद अने दुःख छे. श्री बनारसीदासे समयसार नाटकमां भावलिंगी संतने पण जे २८ मूलगुण आदिनो राग आवे छे तेने ‘जगपंथ’ कह्यो छे, ‘शिवपंथ’ नहि.

‘‘ता कारण जगपंथ इति, उत सिवमारग जोर;
परमादी जगकौं धुकै, अपरमादी सिव ओर.’’ (४० मोक्षद्वार)

मात्र स्वभावसन्मुखतानुं जेटलुं परिणमन छे तेटलो ज शिवपंथ-मोक्षमार्ग छे. अहो! अगाउना पंडितो-बनारसीदास, टोडरमलजी वगेरेए अलौकिक वातो करी छे! तेओ परंपरा अने शास्त्रने अनुसरीने कहेनारा हता.

अहा! एक बाजु कहे के ज्ञानी निरास्रव ज छे अने वळी पाछुं कहे के यथाख्यातचारित्र थवा पहेलां तेने राग छे-आ ते केवी वात!

भाई! अभिप्राय अने अभिप्रायना विषयनी अपेक्षाए ज्ञानीने निरास्रव कह्यो, पण परिणमनमां जघन्यता छे तेनी अपेक्षाए तेने अल्प रागांश विद्यमान छे अने


PDF/HTML Page 1734 of 4199
single page version

एटलुं बंधन छे एम कह्युं, गणधरदेवने पण जे राग बाकी छे ते बंधनुं ज कारण छे. तीर्थंकरने पण ज्यां सुधी छद्मस्थदशा छे त्यां सुधी राग छे अने ते राग तेमने पण अवश्य बंधनुं कारण छे. भाई! वीतरागनी वाणीमां ज्यां जे अपेक्षाए कथन होय ते यथार्थ समजवुं जोईए.

तीर्थंकर हो के गणधर हो, चारित्रनी पूर्णता न थाय त्यां सुधी राग जरूर आवे छे. साधकदशामां जेटलो अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आव्यो तेटली ज्ञानधारा छे, मुक्तिमार्ग छे अने जेटलो राग छे ते कर्मधारा छे, जरूर बंधनुं कारण छे.

ज्ञानीने पण राग बंधनुं ज कारण छे. शुभरागथी कल्याण थशे, परंपरा मुक्ति थशे- एवी मान्यतानो अहीं निषेध करे छे. बंधनुं कारण ते वळी मोक्षनुं कारण थाय? (न थाय). जे शुभरागने मुक्तिनुं कारण माने छे तेनी श्रद्धामां बहु फेर छे; ते जीवो मिथ्याद्रष्टि छे, जैन नहीं. तेओ अनंत संसारी छे. भाई! दिगंबर धर्म कोई संप्रदाय नथी, वस्तुनुं स्वरूप छे. भगवाननो मार्ग वीतरागतानो छे. तेमनो उपदेश तो आ छे के-जो तारे सुखी थवुं होय तो अमारी सामे जोवानुं छोड अने अंतरमां स्वसन्मुख जो.

* गाथा १७१ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘क्षायोपशमिक ज्ञान एक ज्ञेय पर अंतर्मुहूर्त ज थंभे छे, पछी अवश्य अन्य ज्ञेयने अवलंबे छे; स्वरूपमां पण ते अंतर्मुहूर्त ज टकी शके छे, पछी विपरिणाम पामे छे.’ स्वरूपमां एटले आनंदना अनुभवमां क्षायोपशमिक ज्ञान अंतर्मुहूर्त ज रही शके छे. पछी जरूरथी स्वथी विचलित थई परने अवलंबे छे अने राग थाय छे.

‘माटे एम अनुमान पण थई शके छे के सम्यग्द्रष्टि आत्मा सविकल्प दशामां हो के निर्विकल्प अनुभवदशामां हो-यथाख्यातचारित्र-अवस्था थया पहेलां तेने अवश्य रागनो सद्भाव होय छे; अने राग होवाथी बंध पण थाय छे. माटे ज्ञानगुणना जघन्य परिणमनने बंधनो हेतु कहेवामां आव्यो छे.’

अहा! केटलुं स्पष्ट कर्युं छे? साचा संत हो के ज्ञानी-ज्यां सुधी राग छे त्यां सुधी बंध छे एम यथार्थ जाणवुं जोईए. द्रष्टि अपेक्षाए ज्ञानी निरास्रव होवा छतां परिणतिमां जे जघन्य परिणमन छे ते अवश्य बंधनुं कारण छे.

[प्रवचन नं. २३४ * दिनांक १७-११-७६]

PDF/HTML Page 1735 of 4199
single page version

एवं सति कथं ज्ञानी निरास्रव इति चेत्–
दंसणणाणचरित्तं जं परिणमदे जहण्णभावेण।
णाणी तेण दु बज्झदि पोग्गलकम्मेण विविहेण।। १७२।।
दर्शनज्ञानचारित्रं यत्परिणमते जघन्यभावेन।
ज्ञानी तेन तु बध्यते पुद्गलकर्मणा विविधेन।। १७२।।

हवे वळी फरी पूछे छे के-जो आम छे (अर्थात् ज्ञानगुणनो जघन्य भाव बंधनुं कारण छे) तो पछी ज्ञानी निरास्रव कई रीते छे? तेना उत्तरनी गाथा कहे छेः-

चारित्र दर्शन, ज्ञान जेथी जघन्य भावे परिणमे,
तेथी ज ज्ञानी विविध पुद्गलकर्मथी बंधाय छे. १७२.

गाथार्थः– [यत्] कारण के [दर्शनज्ञानचारित्रं] दर्शन-ज्ञान-चारित्र [जघन्यभावेन] जघन्य भावे [परिणमते] परिणमे छे [तेन तु] तेथी [ज्ञानी] ज्ञानी [विविधेन] अनेक प्रकारना [पुद्गलकर्मणा] पुद्गलकर्मथी [बध्यते] बंधाय छे.

टीकाः– जे खरेखर ज्ञानी छे ते, बुद्धिपूर्वक (इच्छापूर्वक) रागद्वेषमोहरूपी आस्रवभावोनो तेने अभाव होवाथी, निरास्रव ज छे. परंतु त्यां एटलुं विशेष छे के -ते ज्ञानी ज्यां सुधी ज्ञानने सर्वोत्कृष्ट भावे देखवाने, जाणवाने अने आचरवाने अशक्त वर्ततो थको जघन्य भावे ज ज्ञानने देखे छे, जाणे छे अने आचरे छे त्यां सुधी तेने पण, जघन्य भावनी अन्यथा अनुपपत्ति वडे (अर्थात् जघन्य भाव अन्य रीते नहि बनतो होवाने लीधे) जेनुं अनुमान थइ शके छे एवा अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंकना विपाकनो सद्भाव होवाथी, पुद्गलकर्मनो बंध थाय छे. माटे त्यां सुधी ज्ञानने देखवुं, जाणवुं अने आचरवुं के ज्यां सुधीमां ज्ञाननो जेवडो पूर्ण भाव छे तेवडो देखवामां, जाणवामां अने आचरवामां बराबर आवी जाय. त्यारथी साक्षात् ज्ञानी थयो थको (आत्मा) सर्वथा निरास्रव ज होय छे.

भावार्थः– ज्ञानीने बुद्धिपूर्वक (अज्ञानमय) रागद्वेषमोहनो अभाव होवाथी ज्ञानी निरास्रव ज छे. परंतु ज्यां सुधी क्षायोपशमिक ज्ञान छे त्यां सुधी ते ज्ञानी ज्ञानने सवोत्कृष्ट भावे देखी, जाणी अने आचरी शकतो नथी-जघन्य भावे देखी,


PDF/HTML Page 1736 of 4199
single page version

(शार्दूलविक्रीडित)
संन्यस्यन्निजबुद्धिपूर्वमनिशं रागं समग्रं स्वयं
वारंवारमबुद्धिपूर्वमपि तं जेतुं स्वशक्तिं स्पृशन्।
उच्छिन्दन्परवृत्तिमेव सकलां ज्ञानस्य पूर्णो भव–
न्नात्मा नित्यनिरास्रवो भवति हि ज्ञानी यदा स्यात्तदा।। ११६।।

जाणी अने आचरी शके छे; तेथी एम जणाय छे के ते ज्ञानीने हजु अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंकनो विपाक (अर्थात् चारित्रमोहसंबंधी रागद्वेष) विद्यमान छे अने तेथी तेने बंध पण थाय छे. माटे तेने एम उपदेश छे के-ज्यां सुधी केवळज्ञान न ऊपजे त्यां सुधी ज्ञाननुं ज निरंतर ध्यान करवुं, ज्ञानने ज देखवुं, ज्ञानने ज जाणवुं अने ज्ञानने ज आचरवुं. आ ज मार्गे दर्शन-ज्ञान- चारित्रनुं परिणमन वधतुं जाय छे अने एम करतां करतां केवळज्ञान प्रगटे छे. केवळज्ञान प्रगटे त्यारथी आत्मा साक्षात् ज्ञानी छे अने सर्व प्रकारे निरास्रव छे.

ज्यां सुधी क्षायोपशमिक ज्ञान छे त्यां सुधी अबुद्धिपूर्वक (अर्थात्चारित्रमोहनो) राग होवा छतां, बुद्धिपूर्वक रागना अभावनी अपेक्षाए ज्ञानीने निरास्रवपणुं कह्युं अने अबुद्धिपूर्वक रागनो अभाव थतां अने केवळज्ञान प्रगटतां सर्वथा निरास्रवपणुं कह्युं. आ, विवक्षानुं विचित्रपणुं छे. अपेक्षाथी समजतां ए सर्व कथन यथार्थ छे.

हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [आत्मा यदा ज्ञानी स्यात् तदा] आत्मा ज्यारे ज्ञानी थाय त्यारे, [स्वयं] पोते [निजबुद्धिपूर्वम् समग्रं रागं] पोताना समस्त बुद्धिपूर्वक रागने [अनिशं] निरंतर [संन्यस्यन्] छोडतो थको अर्थात् नहि करतो थको, [अबुद्धिपूर्वम्] वळी जे अबुद्धिपूर्वक राग छे [तं अपि] तेने पण [जेतुं] जीतवाने [वारंवारम्] वारंवार [स्वशक्तिं स्पृशन्] (ज्ञानानुभवनरूप) स्वशक्तिने स्पर्शतो थको अने (ए रीते) [सकलां परवृत्तिम् एव उच्छिन्दन्] समस्त परवृत्तिने-परपरिणतिने-उखेडतो [ज्ञानस्य पूर्णः भवन्] ज्ञानना पूर्णभावरूप थतो थको, [हि] खरेखर [नित्यनिरास्रवः भवति] सदा निरास्रव छे.

भावार्थः– ज्ञानीए समस्त रागने हेय जाण्यो छे. ते रागने मटाडवाने उद्यम कर्या करे छे; तेने आस्रवभावनी भावनानो अभिप्राय नथी; तेथी ते सदा निरास्रव ज कहेवाय छे.

परवृत्ति (परपरिणति) बे प्रकारनी छे-अश्रद्धारूप अने अस्थिरतारूप. ज्ञानीए अश्रद्धारूप परवृत्ति छोडी छे अने अस्थिरतारूप परवृत्ति जीतवा माटे ते निज


PDF/HTML Page 1737 of 4199
single page version

(अनुष्टुभ्)
सर्वस्यामेव जीवन्त्यां द्रव्यप्रत्ययसन्ततौ।
कुतो निरास्रवो ज्ञानी नित्यमेवेति चेन्मतिः।। ११७ ।।

शक्तिने वारंवार स्पर्शे छे अर्थात् परिणतिने स्वरूप प्रति वारंवार वाळ्‌या करे छे. ए रीते सकळ परवृत्तिने उखेडीने केवळज्ञान प्रगटावे छे.

‘बुद्धिपूर्वक’ अने ‘अबुद्धिपूर्वक’नो अर्थ आ प्रमाणे छेः-जे रागादिपरिणाम इच्छा सहित थाय ते बुद्धिपूर्वक छे अने जे रागादिपरिणाम इच्छा विना परनिमित्तनी बळजोरीथी थाय ते अबुद्धिपूर्वक छे. ज्ञानीने जे रागादिपरिणाम थाय छे ते बधाय अबुद्धिपूर्वक ज छे; सविकल्प दशामां थता रागादिपरिणामो ज्ञानीनी जाणमां छे तोपण अबुद्धिपूर्वक छे कारण के इच्छा विना थाय छे.

(राजमल्लजीए आ कळशनी टीका करतां ‘बुद्धिपूर्वक’ अने अबुद्धिपूर्वक’नो आ प्रमाणे अर्थ लीधो छेः-जे रागादिपरिणाम मन द्वारा, बाह्य विषयोने अवलंबीने, प्रवर्ते छे अने जेओ प्रवर्तता थका जीवने पोताने जणाय छे तेम ज बीजाने पण अनुमानथी जणाय छे ते परिणामो बुद्धिपूर्वक छे; अने जे रागादिपरिणाम इंद्रियमनना व्यापार सिवाय केवळ मोहना उदयना निमित्ते थाय छे अने जीवने जणाता नथी ते अबुद्धिपूर्वक छे. आ अबुद्धिपूर्वक परिणामने प्रत्यक्ष ज्ञानी जाणे छे अने तेमना अविनाभावी चिह्न वडे तेओ अनुमानथी पण जणाय छे.) ११६.

हवे शिष्यनी आशंकानो श्लोक कहे छेः-

श्लोकार्थः– ‘[सर्वस्याम् एव द्रव्यप्रत्ययसंततौ जीवन्त्यां] ज्ञानीने समस्त द्रव्यास्रवनी संतति विद्यमान होवा छतां [ज्ञानी] ज्ञानी [नित्यम् एव] सदाय [निरास्रवः] निरास्रव छे [कुतः] एम शा कारणे कह्युं?’- [इति चेत् मतिः] एम जो तारी बुद्धि छे (अर्थात् जो तने एवी आशंका थाय छे) तो हवे तेनो उत्तर कहेवामां आवे छे. ११७.

* * *
समयसार गाथा १७२ः मथाळुं

हवे वळी फरी पूछे छे के-जो आम छे (अर्थात् ज्ञानगुणनो जघन्य भाव बंधनुं कारण छे) तो पछी ज्ञानी निरास्रव कई रीते छे? तेना उत्तरनी गाथा कहे छेः-

एककोर एम कहो छो के जेने अंतरस्वरूपनो अनुभव अर्थात् सम्यग्दर्शन थयुं छे ते ज्ञानी निरास्रव छे अने वळी पाछा कहो छो के ज्यां सुधी ज्ञाननुं जघन्य


PDF/HTML Page 1738 of 4199
single page version

परिणमन छे त्यां सुधी ज्ञानीने राग छे अने तेथी बंध पण छे तो आ केवी रीते छे? ज्ञानी निरास्रव कई रीते छे?

सम्यग्द्रष्टि-ज्ञानी सर्वथा निरास्रव होय तो तेने केवळज्ञान होवुं जोईए; पण ए तो छे नहि माटे तेने हजु आस्रव छे, बंध छे; छतां ते निरास्रव छे एम कहेवुं ए तो विरुद्ध छे. तो कई अपेक्षाए तेने निरास्रव कहेवामां आवे छे तेनो खुलासो करे छे-

* गाथा १७२ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जे खरेखर ज्ञानी छे ते, बुद्धिपूर्वक (इच्छापूर्वक) रागद्वेषमोहरूपी आस्रवभावोनो तेने अभाव होवाथी निरास्रव ज छे.’

जुओ, ‘जे खरेखर ज्ञानी छे’ एम कहीने आ सम्यग्द्रष्टि ज्ञानीनी वात करे छे. हवे आमांथी कोईने एम थाय के जेने सम्यग्दर्शन नथी तेणे पहेलां शुं करवुं?

उत्तरः– सम्यग्दर्शन थया पहेलां-आत्मा अखंड पूर्ण शुद्ध छे, पर्यायमां मलिनतानो अंश छे पण वस्तुमां मलिनता नथी-एवो प्रथम विकल्प द्वारा निर्णय करवो. रागनी भूमिकामां एवो निर्णय होय छे (आवे छे) छतां ते वास्तविक निर्णय नथी. आ वात गाथा ७३ मां आवी गई छे. त्यां कह्युं छे के-जेम वहाण वमळमां पकडाई गयुं होय ते वमळ छूटतां छूटी जाय छे तेम विकल्पथी छूटीने निर्विकल्प अनुभव करवो. समुद्रमां वमळ एनी मेळे छूटे छे अने राग तो पोते पुरुषार्थ करीने छोडे तो छूटे छे एटलो द्रष्टांत अने सिद्धांतमां फेर छे. गाथा १४४ मां पण आवे छे के-आत्मा ज्ञानस्वरूप छे एम प्रथम निर्णय करवो.

आत्मामां एक वीर्य गुण छे; ते द्रव्य, गुण अने पर्याय त्रणेमां व्यापेलो छे. आथी पर्यायमां पण वीर्य छे ते विकल्प द्वारा प्रथम एम निर्णय करे छे के-हुं शुद्ध बुद्ध अखंड चैतन्यघन छुं, सदा अबद्धस्पृष्ट सामान्य एकरूप छुं. आवो निर्णय (प्रथम) आवे पण ए विकल्परूप निर्णय अनुभवने आपे एम नहि. जेने निर्विकल्प अनुभव थाय तेने प्रथम आवो निर्णय होय छे बस एटलुं ज. सर्वज्ञ परमेश्वरे जे रीते आत्मा कह्यो छे ते रीते आत्माने यथार्थ जाणवा माटे तेने विकल्प आवे परंतु वास्तविक निर्णय तो त्यारे ज थाय ज्यारे वस्तुनी अंतर्द्रष्टि करवाथी विकल्प छूटीने निर्विकल्प अनुभव थाय. भाइ! खरेखर तो पहेलां-पछी छे ज कयां? (केमके निर्विकल्प अनुभव ए ज निर्णय छे) ते निर्णयने विकल्परूप निर्णयनी अपेक्षा ज कयां छे? छतां होय छे. जेने विकल्पपूर्वक पण शुद्ध आत्मानो निर्णय नथी एने तो अंतरमां जवानां ठेकाणां ज नथी. मार्ग आवो छे, भाइ! वस्तु तो अंतर्मुख छे; आखी वस्तु पर्यायमां कयां छे? त्यां अंतरमां द्रष्टि पडे त्यारे निर्विकल्प निर्णय थाय छे. आवी वात छे.


PDF/HTML Page 1739 of 4199
single page version

अहीं-‘जे खरेखर ज्ञानी छे’-एम वात उपाडी छे. संस्कृतमां ‘हि’ एटले ‘खरेखर’- एम शब्द छे; एटले के शास्त्रना वांचनथी जाणपणुं कर्युं, धारणा करी के विकल्पथी निर्णय कर्यो ते ज्ञानी-एम नहि. अंतर्द्रष्टि करवाथी जेने निर्विकल्प अनुभव थयो छे, भगवान आनंदना नाथनुं जेने स्वसंवेदन-ज्ञान प्रगट थयुं छे ते ज्ञानी छे. स्व नाम पोताना संवेदन एटले प्रत्यक्ष ज्ञानना अवलंबनथी (वेदनथी) जेने आत्मा जणायो छे ते ज्ञानी छे. समजाणुं कांई...!

प्रश्नः– तो विद्वान अने ज्ञानीमां शुं फरक छे?

उत्तरः– जे घणां शास्त्र भणेलो होय ते विद्वान छे. जेने निश्चयतत्त्व भगवान पूर्णानंदस्वरूप आत्मानुं ज्ञान नथी अने शास्त्रमां व्यवहारनां (निमित्तादिनां) ज्ञान कराववा माटेनां जे लखाण होय तेने पकडीने तेमां वर्ते ते विद्वान छे. ज्यारे निर्विकल्प वस्तु अनाकुळ आनंदस्वरूप वीतरागमूर्ति प्रभु आत्माना आश्रये जेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान अने स्वरूपाचरण प्रगट थयां छे ते ज्ञानी छे. जेने वास्तविक आत्मज्ञान प्रगटयुं छे ते ज्ञानी छे.

अहीं कहे छे-जे खरेखर ज्ञानी छे ते, बुद्धिपूर्वक एटले रुचिपूर्वक-इच्छापूर्वक- अज्ञानपूर्वक तेने अज्ञानमय एवा रागद्वेषमोहरूपी आस्रवभावोनो अभाव होवाथी निरास्रव ज छे. अभिप्रायमां आस्रवनी भावनानो धर्मीने अभाव होवाथी तथा तेनो स्वामी नहि थतो होवाथी ज्ञानीने निरास्रव कह्यो छे. जड द्रव्यास्रवोनो तो तेने स्वभावथी ज अभाव छे अने आस्रवभावोना कर्तापणानो तेने अभिप्राय-श्रद्धान नथी तेथी ज्ञानी निरास्रव छे एम कह्युं छे. जे आस्रव थाय छे तेमां ज्ञाननी जघन्य-हीणी परिणति ज कारण छे.

अबुद्धिपूर्वक रागना बे अर्थ थाय छे-(१) अबुद्धिपूर्वक एटले रुचि विना जे राग थाय ते-जे अर्थ अहीं कर्यो छे अने (२) राजमलजीए अबुद्धिपूर्वक राग एटले जे राग जाणवामां न आवे ते राग-एम अर्थ कर्यो छे.

ज्ञानीने पापना परिणामनी तो शुं पुण्यना परिणामनी पण रुचि नथी. पुण्य- परिणामने ज्ञानी भावतो नथी. आनंदस्वरूप भगवान आत्मामां एकाग्रतानी जेने भावना छे अने रागादि आस्रवभावनी जेने भावना नथी एवो ज्ञानी निरास्रव ज छे. हवे कहे छे-

‘परंतु त्यां एटलुं विशेष छे के-ते ज्ञानी ज्यां सुधी ज्ञानने सर्वोत्कृष्ट भावे देखवाने, जाणवाने अने आचरवाने अशक्त वर्ततो थको जघन्य भावे ज ज्ञानने देखे छे, जाणे छे अने आचरे छे त्यां सुधी तेने पण, जघन्य भावनी अन्यथा उपपत्ति


PDF/HTML Page 1740 of 4199
single page version

वडे जेनुं अनुमान थई शके छे एवा अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंकना विपाकनो सद्भाव होवाथी, पुद्गलकर्मनो बंध थाय छे.’

आगळनी गाथामां एम लीधुं हतुं के यथाख्यातचारित्र थया पहेलां ज्ञानी जघन्यभावे परिणमे छे तेथी तेने राग छे अने बंध पण छे. अहीं एम कह्युं के ज्ञानी ज्ञानने एटले शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप भगवान आत्माने ज्यां सुधी जघन्यभावे ज देखे छे, जाणे छे अने आचरे छे अने सर्वोत्कृष्ट भावे देखवाने, जाणवाने अने आचरवाने समर्थ नथी त्यां सुधी तेने राग छे अने तेथी बंध पण छे. ज्ञानी जे सर्वोत्कृष्ट भावे आत्माने देखवा-जाणवा अने आचरवामां अशक्तपणे वर्ते छे ते अशक्तपणुं कोई कर्मने लईने छे एम नथी पण पोतानी पर्यायनुं वीर्य एटलुं ज काम करे छे एम वात छे. अने त्यां सुधी तेने किंचित् राग छे अने बंध पण छे.

असमर्थपणुं पोताना पुरुषार्थनी नबळाईथी छे, कर्मना उदयनुं जोर के बळजोरी छे माटे छे एम नथी. शास्त्रमां कोई ठेकाणे एम आवे के-ज्ञानीने कर्मना उदयनुं जोर छे तेथी राग-द्वेषमां जोडाय छे पण तेनो अर्थ एटलो ज छे के ज्ञानीने होंश विना-रुचि विना राग- द्वेषमां जोडावुं थाय छे. रागनी ज्ञानीने रुचि नथी एम बताववा माटे कर्मना उदयनुं जोर कहेवामां आवे छे. इष्टोपदेशमां ‘‘जीवो बळियो, कम्मो बळियो’’ कोई वखते जीव बळवान अने कोई वखते कर्म बळवान-एवो पाठ आवे छे. पर तरफना लक्षे जीव परिणमे छे त्यारे कर्मनुं बळ कहेवामां आवे छे अने स्व तरफना एटले भगवान आत्माना लक्षे परिणमे त्यारे जीवनुं बळ कहेवामां आवे छे. जड कर्म तो आत्माने अडतुंय नथी तो एनुं बळ कयांथी आव्युं? परद्रव्यने अने आत्माने कोई संबंध नथी तेथी कर्म जीवने राग करावे के रखडावे ए वात त्रणकाळमां संभवित नथी. पोताने पर्यायमां पुरुषार्थनी हीणताना कारणे निमित्तना आश्रये रागादि-परिणमन थाय छे ते भावकर्मनुं बळ छे तो त्यां उपचारथी द्रव्यकर्मनुं बळ छे एम कहेवामां आवे छे; बाकी द्रव्यकर्म बळ करीने जीवने रागादि भावे परिणमावे छे ए वात नथी.

प्रश्नः– कर्मनी साथे निमित्त-नैमित्तिक संबंध तो छे ने?

उत्तरः– अरे भाई! एनो अर्थ शुं? के कर्मना उदयमां पोताना पुरुषार्थनी कमजोरीना कारणे जोडाय त्यारे कर्मनी साथे निमित्त-नैमित्तिक संबंध कहेवाय. (निश्चयथी संबंध छे नहि). लोकोने निमित्त-नैमित्तिक संबंधमां अत्यारे मोटा गोटा उठया छे; एम के निमित्त कर्म नैमित्तिक रागने करावे छे; पण एम छे नहि.

अहीं कहे छे-ज्ञानी पोताना आत्माने जघन्य भावे देखे, जाणे अने आचरे छे त्यां सुधी तेने अबुद्धिपूर्वक राग छे अने एटलो बंध पण छे. क्षायिक श्रद्धानमां