Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 167-169.

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जे ज्ञानमयभाव प्रगटयो ते ज्ञाननी पर्यायनुं कर्तापणुं ज्ञानगुणमां छे, पण रागनुं कर्तापणुं ते ज्ञानस्वरूपमां छे नहि. आवी झीणी वात छे, भाई!

पण तुं झीणो-अरूपी छो ने प्रभु! संकल्प-विकल्प छे ए तो बधा जड, रूपी अचेतन छे. पुण्य-पापना अचेतन स्वभावथी भगवान त्रिकाळी चैतन्यस्वभाव तद्न भिन्न छे. आवा चैतन्यने जाणतां-अनुभवतां जे ज्ञानमय भाव प्रगट थयो ते अज्ञानमय भावनो कर्ता होतो नथी. तेने अज्ञानमय भाव उत्पन्न ज थता नथी एटले ते कर्ता नथी. तेने अज्ञानमय भावनुं परिणमन ज नथी.

* गाथा १६६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञानीने अज्ञानमय भावो होता नथी, अज्ञानमय भावो नहि होवाथी (अज्ञानमय) राग-द्वेष-मोह अर्थात् आस्रवो होता नथी अने आस्रवो नहि होवाथी नवो बंध थतो नथी. आ रीते ज्ञानी सदाय अकर्ता होवाथी नवां कर्म बांधतो नथी अने पूर्वे बंधायेलां जे कर्मो सत्तामां रह्यां छे तेमनो ज्ञाता ज रहे छे.’

जुओ, धर्मी जीव तो राग आदिनो सदाय अकर्ता छे, केमके ज्ञानस्वभावमां रागनुं करवापणुं छे ज नहि. आत्मामां कर्तागुण छे पण ए निर्मळ पर्यायने-ज्ञानभावने करे एवो तेनो स्वभाव छे. अहा! ज्ञानगुण अने आनंदगुणनी जेम आत्मामां कर्तागुण त्रिकाळ निर्मळ पवित्र छे. ए कर्तागुण पवित्र पर्यायने करे एवो तेनो स्वभाव छे. समयसारमां ४७ शक्तिओनुं वर्णन छे त्यां आ वात लीधी छे. अहाहा...! शक्ति जे निर्मळ छे ते निर्मळ परिणामने-ज्ञानपरिणामने करे छे, विकारने नहि. विकार जे थाय छे तेना ज्ञानपणे ज्ञानी परिणमे छे, विकारना कर्तापणे नहि. तेथी ज्ञानी नवां कर्म बांधतो नथी अने पूर्वे बंधायेलां कर्मो जे सत्तामां रह्यां छे तेमनो ते ज्ञाता ज छे, परज्ञेय तरीके तेमने ते केवळ जाणे ज छे. आवी वात छे.

‘अविरत सम्यग्द्रष्टिने पण अज्ञानमय रागद्वेषमोह होता नथी. मिथ्यात्व सहित रागादिक होय ते ज अज्ञानना पक्षमां गणाय छे, सम्यक्त्व सहित रागादिक अज्ञानना पक्षमां नथी.’

जुओ, राग छे ते हुं छुं, पुण्य छे ते हुं छुं अने ए रागभाव मारो स्वभाव प्रगटवानुं कारण छे एवी जे विपरीत मान्यता ते सहित जे रागादिक होय ते ज अज्ञानना पक्षमां गणाय छे. सम्यक्त्व सहित रागादिक अज्ञानना पक्षमां नथी. समकितीने चोथे, पांचमे, छट्ठे कंईक राग होय छे पण ए अज्ञानना पक्षमां नथी, केमके समकितीने सदा आत्माना वलणयुक्त ज्ञानमय भाव होय छे. जे राग होय छे तेनुं ते ज्ञान करे छे. राग छे माटे एनुं ज्ञान छे एम नहि, एने तो स्व-परने जाणनारा ज्ञाननुं ज


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ज्ञान होय छे, अने ते स्व-परने जाणनारुं ज्ञान पोते पोताने लईने थाय छे. तेथी ते रागादिनो ज्ञाता ज छे. तेने निरंतर ज्ञानमय ज परिणमन होय छे.

‘तेने चारित्रमोहना उदयनी बळजोरीथी जे रागादिक थाय छे तेनुं स्वामीपणुं तेने नथी.’

अहीं उदयनी बळजोरी कही त्यां कर्म बळजोरीए तेने राग करावे छे एम अर्थ नथी. पण तेने रागनी रुचि नथी छतां तेने अस्थिरताना कारणे किंचित् राग थाय छे तो तेने उदयनी बळजोरी कही छे. पोतानो पुरुषार्थ कंईक कमजोर छे एटले उदयनी बळजोरी छे एम कह्युं छे. रुचिमां तो भगवान आत्मा छे, राग नहि तेथी कह्युं के चारित्रमोहना उदयनी बळजोरीथी कंईक राग थाय छे पण तेनुं एने स्वामीपणुं नथी. ए भलो छे, करवा जेवो छे एम एने आत्मबुद्धि अने कर्ताबुद्धि नथी.

आस्रव अधिकारनी पहेली गाथामां (गाथा १६४-१६प मां) एवुं आव्युं के मिथ्यात्व- राग-द्वेषमय परिणाम जीवना जीवने कारणे थाय छे. तेओ (अज्ञानदशामां) जीवना छे अने एना अस्तित्वमां थाय छे एम त्यां ज्ञान कराव्युं. हवे अहीं तो ज्ञानस्वभावी आत्मानुं भान थयुं छे; तेनुं वलण थयुं छे तेथी आस्रवनो-रागादिनो जीव ज्ञाता ज छे एम कह्युं छे. ल्यो, आम ज्ञातापणे रहे-परिणमे तेने धर्म थाय छे.

भाई! उद्धारनो-मुक्तिनो रस्तो तो आ छे. एनो विरोध न थाय, बापु! केमके एथी तो पोतानो ज विरोध थाय छे. सामायिक, पोसा अने प्रतिक्रमण आदि बाह्य क्रियाओ छे ए तो शुभराग छे. ए रागनो पुरुषार्थ तो कृत्रिम छे. धर्मनी प्राप्ति तो स्वभावना सहज पुरुषार्थथी थाय छे. भाई! आ सत्य समजवानो काळ छे हों. मार्ग आकरो लागे पण खरेखर आकरो नथी केमके स्वभाव तो सहज छे.

नाथ! भगवाने तो एम कीधुं छे के जे स्वरूपनी रचना करे तेने वीर्य कहीए; रागनी रचना करे ए तो नपुंसकपणुं छे. विभावनी रचना करे ते वीर्य गुणनुं पुरुषार्थ गुणनुं कार्य नथी. शुं कीधुं? वीर्यगुण-पुरुषार्थ-शक्ति जे छे ते आत्मानुं सहज छे अने ते स्वरूपनी रचना करे छे. अहा! जेणे स्वभाववान भगवान आत्मानी द्रष्टि थई एणे स्वभावने-पुरुषार्थने मान्यो छे अने एने निर्मळ परिणतिनी रचना थाय छे. मलिन परिणति थाय ए वीर्यगुणनुं कार्य छे ज नहि.

पहेलां राग-द्वेष-मोहना परिणाम आत्मामां पोताथी थया छे एम कह्युं त्यां पर्यायने स्वतः सिद्ध करी छे. त्यारे अहीं आत्मा ज्यां ज्ञानी थयो त्यां एने चैतन्यना वलणवाळा ज्ञानमय परिणाम होवाथी रागनुं कर्तृत्व रहेतुं नथी. एम कहे छे. अहा!


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जेने चैतन्यस्वभावनुं ज्ञान अने भान थयुं ते ज्ञानीने उदयनी बळजोरीथी किंचित् राग थाय छे पण तेनुं एने स्वामीपणुं नथी; ते राग साथे एकत्व पामतो नथी. जे शुद्ध द्रव्यमां एकत्व करीने ज्ञानभावे परिणम्यो ते ज्ञानीने अल्प राग थाय पण तेमां ते एकपणुं पामीने खरडातो नथी.

भाई! तुं चोरासी लाख योनिमां-एक एक योनिमां अनंतवार जन्म-मरण करी चूकय ो छे. अहीं तने जन्म-मरण रहित थवानी रीत कहेवामां आवे छे. आ तारो समजणनो काळ छे.

आत्मामां एक ‘स्वस्वामी-संबंध शक्ति’ छे. ते वडे चैतन्यद्रव्य, गुण अने एनी निर्मळ पर्याय बस ए तेनुं स्व छे अने आत्मा तेनो स्वामी छे. आवी आत्मामां संबंध शक्ति छे. परंतु रागनो स्वामी थाय एवो कोई आत्मामां गुण नथी. तेथी ज्ञानी थतां रागनो स्वामी ज्ञानी थतो नथी. ‘ते रागादिकने रोग समान जाणीने प्रवर्ते छे-अने पोतानी शक्ति अनुसार तेमने कापतो जाय छे.’ ज्ञानीने राग रोगसमान दुःखरूप लागे छे. कोई रीते समाधान थतुं नथी तेथी रागमां आवी जाय छे पण ते एने रोग समान जाणीने प्रवर्ते छे. जेम कोई रोगी रोगने औषध वडे दूर करतो थको प्रवर्ते छे तेम ज्ञानी पोतानी शक्ति वडे-स्वभावना पुरुषार्थ वडे रागने कापतो जाय छे अर्थात् दूर करतो जाय छे.

जुओ, कोई एम कहे के ज्ञानीने राग-द्वेष, दुःख होय ज नहि तो ए बराबर नथी. अरे भाई! जे होई एने कापतो जाय के न होय एने? ज्ञानीने अस्थिरतानो अल्प राग-द्वेष तो थतो होय छे अने तेने ए स्वरूपना अवलंबननी एकाग्रता उग्र करीने कापतो जाय छे एटले क्रमशः मटाडी दे छे. जेम जेम स्वरूपनी एकाग्रता वधती जाय छे तेम तेम रागनो क्रमशः अभाव थतो जाय छे. परंतु जेटला अंशे तेने राग छे तेटलुं ज्ञानीने दुःख पण अवश्य छे. हवे कहे छे-

‘माटे ज्ञानीने जे रागादिक होय छे ते विद्यमान छतां अविद्यमान जेवा छे; तेओ आगामी सामान्य संसारनो बंध करता नथी.’ जुओ, बंध तो करे छे पण सामान्य एटले अनंत संसारनो बंध करता नथी, मात्र अल्प स्थिति-अनुभागवाळो बंध करे छे. आवा अल्प बंधने अहीं गणवामां आव्यो नथी.’ द्रष्टिनी प्रधानतामां अल्प बंध कांई नथी. अहो! आवो द्रष्टिनो कोई अचिंत्य महिमा छे.

‘आ रीते ज्ञानीने आस्रव नहि होवाथी बंध थतो नथी.’

[प्रवचन नं. २३० * दिनांक १३-११-७६]

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अथ रागद्वेषमोहानामास्रवत्वं नियमयति–

भावो रागादिजुदो जीवेण कदो दु बंधगो भणिदो।
रागादिविप्पमुक्को अबंधगो जाणगो णवरि।। १६७ ।।
भावो रागादियुतो जीवेन कृतस्तु बन्धको भणितः।
रागादिविप्रमुक्तोऽबन्धको ज्ञायकः केवलम्।। १६७ ।।

हवे, रागद्वेषमोह ज आस्त्रव छे एवो नियम करे छेः-

रागादियुत जे भाव जीवकृत तेहने बंधक कह्यो;
रागादिथी प्रविमुक्त ते बंधक नहीं, ज्ञायक नर्यो. १६७.

गाथार्थः– [जीवेन कृतः] जीवे करेलो [रागादियुतः] रागादियुक्त [भावः तु] भाव [बन्धकः भणितः] बंधक (अर्थात् नवां कर्मनो बंध करनार) कहेवामां आव्यो छे. [रागादिविप्रमुक्तः] रागादिथी विमुक्त भाव [अबन्धकः] बंधक नथी, [केवलम् ज्ञायकः] केवळ ज्ञायक ज छे.

टीकाः– खरेखर, जेम लोहचुंबक-पाषाण साथे संसर्गथी (लोखंडनी सोयमां) उत्पन्न थयेलो भाव लोखंडनी सोयने (गति करवाने) प्रेरे छे तेम रागद्वेषमोह साथे भेळसेळपणाथी (आत्मामां) उत्पन्न थयेलो अज्ञानमय भाव ज आत्माने कर्म करवाने प्रेरे छे, अने जेम लोहचुंबक-पाषाण साथे असंसर्गथी (लोखंडनी सोयमां) उत्पन्न थयेलो भाव लोखंडनी सोयने (गति नहि करवारूप) स्वभावमां ज स्थापे छे तेम रागद्वेषमोह साथे अभेळसेळपणाथी (आत्मामां) उत्पन्न थयेलो ज्ञानमय भाव, जेने कर्म करवानी उत्सुकता नथी (अर्थात् कर्म करवानो जेनो स्वभाव नथी) एवा आत्माने स्वभावमां ज स्थापे छे; माटे रागादि साथे मिश्रित (-मळेलो) अज्ञानमय भाव ज कर्तृत्वमां प्रेरतो होवाथी बंधक छे अने रागादि साथे अमिश्रित भाव स्वभावनो प्रकाशक (-प्रगट करनार) होवाथी केवळ ज्ञायक ज छे, जरा पण बंधक नथी.

भावार्थः– रागादिक साथे मळेलो अज्ञानमय भाव ज बंधनो करनार छे, रागादिक साथे नहि मळेलो ज्ञानमय भाव बंधनो करनार नथी-ए नियम छे.

* * *

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समयसार गाथा १६७ः मथाळु

हवे, रागद्वेषमोह ज आस्रव छे एवो नियम करे छेः-

जेने रागमां एकत्वबुद्धि छे एवा मिथ्याद्रष्टिना राग-द्वेष-मोह ज आस्रवनुं कारण थाय छे एम कहे छे-

* गाथा १६७ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘खरेखर, जेम लोहचुंबक-पाषाण साथे संसर्गथी (लोखंडनी सोयमां) उत्पन्न थयेलो भाव लोखंडनी सोयने (गति करवाने) प्रेरे छे तेम...’

जुओ, लोहचुंबक-पाषाणना संसर्गमां आववाथी सोयमां गति थवानी प्रेरणा उत्पन्न थई अर्थात् एमां गतिनी भावना छती थई-एम कहे छे. लोखंडनी सोय लोहचुंबक-पाषाणना संसर्गमां आवे छे तेथी एनाथी उत्पन्न थयेलो भाव सोयमां गति प्रेरे छे, एटले के ते वडे सोय चुंबक पासे जाय छे. लोहचुंबक तो निमित्त छे; सोयमां ते वखते पोताना कारणे पोतामांथी थयेलो भाव तेने चुंबक भणी गति करवाने प्रेरे छे. लोहचुंबक एने खेंचे छे एम कहेवुं ए तो निमित्तनुं कथन छे. लोहचुंबक सोयने खेंचे छे एम नहि, पण लोहचुंबकनो सोये संसर्ग कर्यो तेथी स्वयं सोयमां तेनी समीप जवानी भावना जाग्रत थई छे. जुओ आ द्रष्टांत कह्युं.

हवे सिद्धांतः-‘तेम रागद्वेषमोह साथे भेळसेळपणाथी (आत्मामां) उत्पन्न थयेलो अज्ञानमय भाव ज आत्माने कर्म करवाने प्रेरे छे.’

भगवान आत्मा तो सच्चिदानंद प्रभु सदाय ज्ञानानंदस्वभावी छे. तेने रागद्वेषमोह साथे भेळसेळपणुं थवाथी अर्थात् रागादिमां एकत्वबुद्धि थवाथी उत्पन्न थयेलो अज्ञानमय भाव कर्म करवा प्रति प्रेरे छे. हुं शुद्ध चिद्रूप चैतन्यरसकंद प्रभु आत्मा छुं एम जेने खबर नथी ते वर्तमान पर्यायमां थता रागद्वेषमोहना भाव साथे एकत्व मानीने अज्ञानमय भाव उत्पन्न करे छे अने ते अज्ञानमय भाव तेने कर्म करवा प्रति प्रेरे छे. अहा! दया, दान, व्रत, भक्ति आदि अने काम, क्रोध, विषयवासना आदि जे विकल्प छे ते मारुं कर्तव्य छे एवो जे अज्ञानमय भाव ते आत्माने कर्म एटले रागादि करवाने प्रेरे छे. अर्थात् ए अज्ञानमय भावने कारणे आत्मा रागादिनो कर्ता थाय छे. पोताना शुद्ध स्वरूपनी खबर नथी एटले जीव रागने पोतानो मानीने एकत्वबुद्धिथी रागना कर्तृत्वमां प्रेराय छे.

कोई कहे-अमने खबर न होय एमां शुं दोष? तेने कहे छे के भाई! तने खबर नथी ए ज महान दोष छे. स्वरूपनुं अज्ञान ए महादोष छे. अज्ञान ए कांई बचाव नथी. कोई हीमजनी जगाए अज्ञानथी सोमल (झेर) खाई जाय तो तेथी तेनुं मोत ज थाय. खबर नथी माटे ते बची न जाय. एम स्वरूपनुं अज्ञान राखे तो


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ते चारगतिमां रखडी-रखडीने मरी ज जाय केमके स्वरूपनुं अज्ञान ए ज महापाप छे. अहीं कहे छे-हुं ज्ञानानंदस्वरूप छुं, राग मारुं स्वरूप नथी एवी खबर नहि होवाथी अज्ञानमय भाव वडे जे राग करवाने प्रेराय छे ते बंधनमां ज पडे छे. समजाणुं कांई...?

अहाहा...! आचार्य भगवान केवी शैलीमां कहे छे! आत्मा तो चैतन्यमूर्ति भगवान ज्ञान अने आनंदस्वरूप छे. पण एनी जेने द्रष्टि थई नथी अने मात्र पर्यायबुद्धिए अज्ञानमय भाव जेने वर्ते छे तेने पर्यायबुद्धिमां रागनी ज उत्पत्ति थाय छे, अने ए बंधनमां ज पडे छे.

भाई! धर्म अने धर्मनी पद्धति बहु सूक्ष्म छे. आ तो जन्म-मरणनो मोटो भवसमुद्र पार करवानी वातो छे. भगवान एम कहे छे के-प्रभु! तें द्रव्यलिंगी जैन साधुपणुं एटली वार धारण कर्युं के लोकमां एवो कोई भाग (क्षेत्र) नथी जेमां तुं अनंतवार जन्म्यो अने मर्यो न होय. भगवान! द्रव्यलिंग धारण करीने पण रागने पोतानुं कर्तव्य मानीने अज्ञानभावे तुं बंध ज करतो हतो. भगवान कुंदकुंदाचार्य तो एम कहे छेे के-मारा प्रति जेने-द्वेष थयो छे तेने पण द्रव्यलिंग न हजो; केमके वस्तु अंदर प्राप्त थई न होय अने द्रव्यलिंग लेवाई जाय पछी मुंझवणनो पार रहेतो नथी. द्रव्यलिंगी कर्ताबुद्धिए राग करे छे. ते पंचमहाव्रतने बराबर पाळे छे पण एवा रागने धर्म मानी करवापणानी बुद्धिए ते करवा प्रति प्रेराय छे. आ अज्ञानमय भाव ज एने बंधननुं कारण बने छे.

भाई! आ तो परम सत्य वातो छे. कुदरती अहीं आवी गई छे. आ तो भगवानना संदेशा छे. अभ्यास नहि एटले साधारण माणसोने झीणुं लागे, पण भाई! हुं ज्ञानस्वरूप छुं, रागस्वरूप नथी एवुं जेने भान नथी, विवेक नथी तेने व्यवहारनी जे बाह्यक्रियाओनुं करवापणुं छे ते अज्ञाननी प्रेरणाथी छे अने ते बंधनुं कारण बने छे. कर्तापणे थयेला सर्व भावो बंधनुं ज कारण छे.

आ वाणिया मालमां भेळसेळपणुं नथी करता? काळां मरी साथे बपैयानां बीज भेळवी दे-एवी घणी बधी भेळसेळ करे छे ने? तेम अनादिथी अज्ञानी आत्मा पोताना ज्ञानानंदस्वभाव साथे पुण्य-पापना परिणामोनी भेळसेळ करीने बेठो छे. परमात्मा कहे छे- प्रभु! तुं निर्मळानंदनो नाथ ज्ञाता-द्रष्टास्वभावथी भरेलो-एमां तें रागने भेळवी नाख्यो! भगवान! तने शुं थयुं आ? अंदर शुद्ध चैतन्यमूर्ति ज्ञायकदेव विराजी रह्यो छे तेनी साथे अरे! तें विभावने-रागद्वेषने पोताना मानीने भेळवी दीधा! भगवान! तुं तो एकलो ज्ञानस्वरूप छो ने! तारामां अनंत आनंद अने अनंत ज्ञान पडयां छे ने! आवा स्वरूपने छोडीने, राग मारो एम मानीने राग करवानी बुद्धि तने


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केम थई? भाई! आ राग छे ते तारी पोतानी जात नथी, ए तो कजात छे. पुण्य-पापना भाव तो विभाव-चंडालणीना पुत्र छे. भाई! स्वरूपथी अजाण रही, रागने पोतानो मानीने राग करवा प्रति प्रेराय छे ए अज्ञानभाव मिथ्यात्वादिना बंधनुं कारण थाय छे.

भगवान आत्मा पूर्णानंदनो नाथ सच्चिदानंद-सत् नाम शाश्वत ज्ञान अने आनंदना शांत-शांत-शांत स्वभावे सदाय रहेलो छे. तेने भूलीने पुण्य-पापना विकल्पोनी भेळसेळ करी आत्माने माने छे-राग मारुं स्वरूप छे वा रागथी मने लाभ थाय, धर्म थाय-एम जे माने छे-ते अज्ञानमय भाव छे अने ते अज्ञानमय भाव जीवने कर्म करवाने प्रेरे छे. भगवान ज्ञायक साथे रागनी भेळसेळ करवाथी जे अज्ञानमय भाव थयो ते कर्म करवाने प्रेरे छे अने ते बंधननुं कारण बने छे.

संप्रदायमां तो कहे के-भगवाननी सेवा भक्ति करतां करतां कल्याण थई जाय; एटले के राग करतां करतां वीतराग थई जाय वा बंधभाव करतां करतां निर्बंध थई जाय. आवुं ते होय बापु? (न होय). राग चाहे तो शुभभाव हो, पण ए तो आस्रव तत्त्व छे अने भगवान आत्मा ज्ञायकतत्त्व छे. बन्ने भिन्न भिन्न छे. तथापि बन्नेनी भेळसेळ करीने एक माने तो तेथी अज्ञानमय भाव उपजे छे अने ते राग-द्वेषने ज करवा प्रति प्रेरे छे, बंधनना भाव प्रति ज धकेले छे. (रागना करवापणानो भाव ए बंधननो ज भाव छे).

स्वरूपना अज्ञाननो नाश अने ज्ञाननी प्राप्ति ए मूळ वात छे. धर्मी जीवने अस्थिरतानो दोष होय तेनी अहीं गणतरी नथी. ज्ञानीने पण थोडी अशुद्धता होय छे अने तेना निमित्ते थोडो बंध पण थाय छे पण तेने रागना कर्तापणानी बुद्धि नहि होवाथी तेनो ते ज्ञाता ज रहे छे. जेम भगवान केवळी व्यवहार नयथी लोकालोकने जाणे छे त्यां लोकालोकमां तन्मय थईने भगवान जाणता नथी तेम ज्ञानी, पर्यायमां जे राग थाय छे तेने जाणे छे पण ते रागमां तन्मय नथी. ज्ञानी पोतामां ज रहीने रागने परज्ञेय तरीके जाणे छे, रागमां भळीने रागने जाणे छे एम नहि. राग संबंधीनुं ज्ञान रागथी नहि पोताना सामर्थ्यपणे पोताथी थाय छे. रागमां एकत्वबुद्धि करीने रागने जाणे ए तो अज्ञानमय मिथ्यात्वना भाव छे अने ए ज आस्रव-बंधनुं कारण छे.

अहो! मार्ग बहु गूढ, बापु! जेना फळमां अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनंत आनंद प्रगटे ए मार्ग-उपाय तो गूढ अलौकिक ज होय ने?

हवे सवळेथी ले छे-‘अने जेम लोहचूंबक-पाषाण साथे असंसर्गथी (लोखंडनी सोयमां) उत्पन्न थयेलो भाव लोखंडनी सोयने (गति नहि करवारूप) स्वभावमां ज स्थापे छे तेम...’


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जुओ, शुं कह्युं? के जो लोहचुंबक-पाषाण साथे सोय संसर्ग करती नथी तो ते गतिपरिणामने उत्पन्न करनारा भावने पामती नथी अने तेथी गति करती नथी. लोहचुंबकना संसर्गना अभावे सोय सोयमां ज एटले तेना स्वभावमां ज रहे छे. चुंबकना संसर्गना अभावे उत्पन्न थयेलो भाव सोयने (स्थिरपणाना) स्वभावमां स्थापे छे, सोयमां गति- परिणामने (विभावने) उत्पन्न करतो नथी.

‘तेम रागद्वेषमोह साथे अभेळसेळपणाथी (आत्मामां) उत्पन्न थयेलो ज्ञानमय भाव, जेने कर्म करवानी उत्सुकता नथी (अर्थात् कर्म करवानो जेनो स्वभाव नथी) एवा आत्माने स्वभावमां ज स्थापे छे.’

जुओ, भगवान आत्मा एकला ज्ञानस्वरूपे छे, तेमां राग-द्वेष-मोहनी भेळसेळ नथी. राग ने आत्मा एक नथी. आवी भिन्नताना विवेकयुक्त भावने ज्ञानमय भाव कहे छे. शुद्ध चैतन्यमय आत्माना अनुभवथी-परिचयथी उत्पन्न थयेला ज्ञानमय भावमां अस्थिरतानो जे राग थाय तेने करवानी उत्सुकता नथी. अहा! ज्ञानीने राग करवानी रुचि के होंश नथी. राग भलो छे एम रागनी दशाने प्रेरीने राग करे एवी दशा ज्ञानीने नथी.

शुद्ध चैतन्यमूर्ति भगवान ज्ञायकनुं जेने भान थयुं छे ते ज्ञानीने रागादि साथे अभेळसेळपणाने लीधे ज्ञानमय भाव प्रगट थयो छे, अने तेथी रागना कर्तापणानी बुद्धि एने छूटी गई छे. हुं राग करुं एवो अभिप्राय एने छूटी गयो. भगवान ज्ञायक साथे एकत्व थयुं होवाथी तेने कर्म करवानी उत्सुकता होंश नथी. अहाहा...! ज्ञायकस्वभावमां कर्म (-रागादि) नहि अने कर्मनुं (-रागादिनुं) कर्तापणुं पण नहि. आवा ज्ञायकने द्रष्टिमां लेनार ज्ञानीने कर्म करवा प्रति निरुत्सुकता छे. (अर्थात् ते रागादिना कर्तापणाथी विरत्त छे).

धर्मना स्वरूपनी आवी वातो छे. संप्रदायमां तो दया पाळवी, व्रत करवां, पोसा ने प्रतिक्रमणनी क्रियाओ करवी-एटले समजे के धर्म थई गयो, केमके ए बधुं सहेलुं सट हतुं ने? पण सहेलुं शुं? भाई! ए तो बधुं जिंदगी हारी जवानुं हतुं. रागथी भेळसेळ करीने रागनो कर्ता थाय ए तो अज्ञानमय भाव छे, बंधनमां नाखनारो भाव छे. ज्ञानीने जोके बाह्यक्रियानो अल्प राग थाय छे पण तेने रागमां एकताबुद्धि नथी. ते रागने ज्ञानथी पृथक् राखीने रागनुं ज्ञान करे छे, रागनो कर्ता थतो नथी.

भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप ज्ञाता-द्रष्टा छे. ते पोताना स्वसंवेदनज्ञानमां ज्यां प्रत्यक्ष जणायो त्यां राग पृथक् पडी जाय छे. ज्ञानी रागनी भेळसेळ करतो नथी. ते पुण्यना-दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना भाव साथे अभेळसेळपणे


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पृथक् ज रहे छे. ज्ञान रागने जाणे छे पण ज्ञान रागमय थई जतुं नथी, भिन्न ज रहे छे.

आवो मार्ग बापा! समजवानो आ अवसर छे. अरे! क्षणमां देह तो छूटीने चाल्यो जशे. कोईनी पासेथी मान के अभिनंदन मळ्‌यां हशे ते कोई त्यां काम नहीं आवे. त्यां तो ज्ञानानंदस्वरूप भगवान आत्मानां ज्ञान-श्रद्धान अने रमणता जे थयां छे ते ज काम आवशे. अहो! अमृतचंद्राचार्यदेवनी आ ‘आत्मख्याति’ टीका अति गंभीर रहस्योथी भरेली छे.

श्री जयसेनाचार्ये पण लोहचुंबकनो दाखलो लीधो छे. भगवान आत्मा सदाय ज्ञायक ज छे. परंतु ते रागना विकल्पथी भेळसेळपणुं करे छे त्यारे तेने उत्पन्न थयेलो अज्ञानमय भाव तेने रागादि कर्म करवाने प्रेरे छे. पण जो ते रागादिथी भेळसेळपणुं करतो नथी, संसर्ग करतो नथी तो ते स्वभावमां-ज्ञानभावमां ज रहे छे. अहा! रागथी एकता तोडीने जेणे निज ज्ञायकस्वभावमां एकत्व कर्युं ते पोताने स्वभावमां स्थापे छे अर्थात् ते पोताने पोतामां जवा माटे प्रेरे छे. ज्ञानी आत्माने आत्मामां ज स्थापे छे. जेम चुंबकना संसर्गना अभावमां लोखंडनी सोय गति करतां अटकी जाय छे तेम ज्ञानी ज्ञानमय भावना कारणे रागमां गति करतां अटकी जाय छे. ज्ञानी ज्ञानस्वभावमां-ज्ञायकभावमां ज पोताने स्थापे छे. आनुं नाम धर्म अने आनुं नाम मोक्षमार्ग छे.

रागनुं जेटलुं परिणमन पोतामां छे तेने ज्ञानी जाणे ज छे, करतो नथी. अलबत परिणमननी अपेक्षाए ज्ञानी ते ते रागनो कर्ता छे एम कहेवाय छे पण त्यां राग करवा लायक कर्तव्य छे एम तेने नथी. मुनिराजने छट्ठे गुणस्थाने जे रागांश छे तेना ते परिणमननी द्रष्टिए कर्ता छे पण कर्ताबुद्धिए नहि; केमके कर्ताबुद्धिए रागने करवो ए जीवनो स्वभाव ज नथी.

हवे कहे छे-‘माटे रागादि साथे मिश्रित (-मळेलो) अज्ञानमय भाव ज कर्तृत्वमां प्रेरतो होवाथी बंधक छे अने रागादि साथे अमिश्रित भाव स्वभावनो प्रकाशक (-प्रगट करनार) होवाथी केवळ ज्ञायक ज छे, जरा पण बंधक नथी.’

जुओ, आ सरवाळो कह्यो. भगवान आत्मा प्रज्ञा-ब्रह्मस्वरूप प्रभु सदा अबंधस्वभाव छे. पण रागादि एटले पुण्य-पापना भाव साथे तेने भेळवतां अज्ञानमय भाव उत्पन्न थाय छे; ते रागादि करवाने प्रेरतो होवाथी बंधक छे, बंधननो करनारो छे.

परंतु रागथी भेळसेळ विनानो, रागथी भिन्न पडेलो जे भाव छे ते स्वभावनो प्रकाशक छे. पुण्य-पापथी नहि भळेलो भाव स्वभावनो प्रकाशक एटले प्रगट करनारो होवाथी केवळ ज्ञायक ज छे, जरापण बंधक नथी.


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ज्ञानीने किंचित् राग थाय छे, पण ते रागमां एकत्व नहि करतो होवाथी द्रष्टिनी अपेक्षाए तेनो ते स्वामी नथी. परिणमननी अपेक्षाए ते रागनो स्वामी छे कारण के रागना परिणाम कांई कर्मने लईने थाय छे एम नथी. ज्ञानीने छट्ठे गुणस्थाने जे राग छे तेनो ते पर्याय अपेक्षाए स्वयं कर्ता-भोक्ता छे. ते पण जे अल्प राग छे तेनुं कर्तापणुं अने भोक्तापणुं पोतानुं छे एम यथार्थ जाणे छे. तेने कर्मने लईने राग थयो छे अने कर्मने लईने रागनुं भोगववापणुं थाय छे एम नथी.

कोई एम माने के-ज्ञानी थयो एटले एने रागेय नथी अने बंधनेय नथी तो एम वात नथी. आगळ गाथा १७१ मां आवशे के ज्ञानीने पण ज्यां सुधी जघन्य परिणमन छे, यथाख्यातचारित्र प्रगट थयुं नथी त्यां सुधी रागनुं परिणमन छे अने तेटलुं बंधन पण छे, परंतु अनंत संसारनुं कारण थाय तेवुं बंधन नथी.

कोईने वळी थाय के आवो धर्म कयांथी काढयो! काढे कयांथी? ए तो अनादिनो छे ज. आ तो बहार काढीने बताव्यो छे.

राग करतां करतां लाभ थाय, शुभरागथी-पुण्यभावथी धर्म थाय एम अबंधस्वभावने राग साथे भेळववुं ए ज अज्ञान छे अने ते अज्ञानमय भाव, मिथ्यादर्शननो भाव बंधक छे, बंधनुं ज कारण छे. अने भगवान ज्ञायकने बंधस्वभावी राग साथे भेळसेळ न करतां, अर्थात् रागथी भिन्न पडीने स्वभावमां रहेतां जे ज्ञानभाव प्रगट थयो ते जरापण बंधक नथी. ज्ञानभाव प्रगटतां मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधीनो जराय बंध थतो नथी. ल्यो, आनुं नाम धर्म छे अने आ धर्मी छे.

* गाथा १६७ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘रागादिक साथे मळेलो अज्ञानमय भाव ज बंधनो करनार छे. पुण्य-पापना भाव अने आत्मा एक छे एवा भेळसेळथी उत्पन्न जे अज्ञानमय भाव छे ते ज बंधनो करनार छे.’ ‘रागादिक साथे नहि मळेलो ज्ञानमय भाव बंधनो करनार नथी-ए नियम छे.’ पुण्यना विकल्प साथे नहि मळेलो एवो ज्ञानमय भाव बंधनो करनारो नथी. अबंधस्वभावी भगवान आत्माना आश्रये उत्पन्न थयेलो ज्ञानमय भाव अबंधक छे.

ज्यां सुधी रागमिश्रित पोतानुं स्वरूप माने छे त्यां सुधी अज्ञानभाव छे अने ते रागना करवापणानो प्रेरनार होवाथी बंधक ज छे. तथा रागथी भिन्न पोताना ज्ञायकस्वभावने जाणतां-अनुभवतां ज्ञानमय भाव प्रगट थाय छे अने ते आत्माने आत्मामां- ज्ञानमां स्थापे छे, रागना करवापणामां स्थापतो नथी अने तेथी ते अबंधक छे. आवी वात छे. (अहीं अस्थिरतानो राग गणतरीमां नथी एम समजवुं).

[प्रवचन नं. २३१ * दिनांक १४-११-७६]
गाथा–१६८

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अथ रागाद्यसङ्कीर्णभावसम्भवं दर्शयति–

पक्के फलम्हि पडिए जह ण फलं बज्झए पुणो विंटे।
जीवस्स कम्मभावे पडिए ण पुणोदयमुवेदि।। १६८।।

पक्वे फले पतिते यथा न फलं बध्यते पुनर्वृन्तैः।
जीवस्य कर्मभावे पतिते न पुनरुदयमुपैति।। १६८।।

हवे रागादि साथे नहि मळेला भावनी उत्पत्ति बतावे छेः-

फळ पकव खरतां, वृंत सह संबंध फरी पामे नहीं,
त्यम कर्मभाव खर्ये, फरी जीवमां उदय पामे नहीं. १६८.

गाथार्थः–

[यथा] जेम [पक्वे फले] पाकुं फळ [पतिते] खरी पडतां [पुनः] फरीने

[फलं] फळ [वृन्तैः] डींटा साथे [न बध्यते] जोडातुं नथी, तेम [जीवस्य] जीवने [कर्मभावे] कर्मभाव [पतिते] खरी जतां (अर्थात् छूटो थतां) [पुनः] फरीने [उदयम् न उपैति] उत्पन्न थतो नथी (अर्थात् जीव साथे जोडातो नथी).

टीकाः– जेम पाकुं फळ डींटाथी एकवार छूटुं पडयुं थकुं फरीने डींटा साथे संबंध पामतुं नथी, तेम कर्मना उदयथी उत्पन्न थतो भाव जीवभावथी एकवार छूटो पडयो थको फरीने जीवभावने पामतो नथी. आ रीते ज्ञानमय एवो, रागादिक साथे नहि मळेलो भाव उत्पन्न थाय छे.

भावार्थः– जो ज्ञान एकवार (अप्रतिपाती भावे) रागादिकथी जुदुं परिणमे तो फरीने ते कदी रागादिक साथे भेळसेळ थई जतुं नथी. आ रीते उत्पन्न थयेलो, रागादिक साथे नहि मळेलो ज्ञानमय भाव सदाकाळ रहे छे. पछी जीव अस्थिरतारूपे रागादिकमां जोडाय ते निश्चयद्रष्टिमां जोडाण छे ज नहि अने तेने जे अल्प बंध थाय ते पण निश्चयद्रष्टिमां बंध छे ज नहि, कारण के अबद्धस्पृष्टरूपे परिणमन निरंतर वर्त्या ज करे छे. वळी तेने मिथ्यात्वनी साथे रहेनारी प्रकृतिओनो बंध थतो नथी अने अन्य प्रकृतिओ सामान्य संसारनुं कारण नथी; मूळथी कपायेला वृक्षनां लीलां पांदडां जेवी ते प्रकृतिओ शीघ्र सुकावायोग्य छे.

हवे, ‘जे ज्ञानमय भाव छे ते ज भावास्रवनो अभाव छे’ एवा अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-


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(शालिनी)
भावो रागद्वेषमोहैर्विना यो
जीवस्य स्याद् ज्ञाननिर्वृत्त एव।
रुन्धन् सर्वान् द्रव्यकर्मास्रवौधान्
एषोऽभावः सर्वभावास्रवाणाम्।। ११४।।

श्लोकार्थः– [जीवस्य] जीवने [यः] जे [रागद्वेषमोहैः विना] रागद्वेषमोह वगरनो, [ज्ञाननिर्वृत्तः एव भावः] ज्ञानथी ज रचायेलो भाव [स्यात्] छे अने [सर्वान् द्रव्यकर्मास्रव– ओधान् रुन्धन्] जे सर्व द्रव्यकर्मना आस्रवना थोकने (अर्थात् जथ्थाबंध द्रव्यकर्मना प्रवाहने) रोकनारो छे, [एषः सर्व–भावास्रवाणाम् अभावः] ते (ज्ञानमय) भाव सर्व भावास्रवना अभावस्वरूप छे.

भावार्थः– मिथ्यात्व रहित भाव ज्ञानमय छे. ते ज्ञानमय भाव रागद्वेषमोह वगरनो छे अने द्रव्यकर्मना प्रवाहने रोधनारो छे; तेथी ते भाव ज भाव-आस्रवना अभावस्वरूप छे.

संसारनुं कारण मिथ्यात्व ज छे; तेथी मिथ्यात्व संबंधी रागादिकनो अभाव थतां, सर्व भावास्रवनो अभाव थयो एम अहीं कह्युं. ११४.

* * *
समयसार गाथा १६८ मथाळुं

हवे रागादि साथे नहि मळेला भावनी उत्पत्ति बतावे छेः-

रागादि एटले मिथ्यात्व अने राग-द्वेष साथे नहि मळेला एवा ज्ञानमय भावनी उत्पत्ति बतावे छे; अर्थात् भगवान चैतन्यनो दरबार जे अनंत अनंत ज्ञान अने आनंदथी भरेलो छे तेने प्रगट करनारो, रागादि साथे नहि मळेलो एवो जे स्वभावभाव-ज्ञानमय भाव तेनी उत्पत्ति प्रसिद्ध करे छे-

* गाथा १६८ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जेम पाकुं फळ डींटाथी एकवार छूटुं पडयुं थकुं फरीने डींटा साथे संबंध पामतुं नथी, तेम...’ जुओ, ध्यान राखीने सांभळवा जेवी बहु मझानी वात करी छे. कहे छे-पाकुं फळ एकवार डींटाथी छूटुं पडी जाय पछी ते फरीने डींटा साथे संबंध पामतुं नथी. आ द्रष्टांत कह्युं. हवे कहे छे- ‘तेम कर्मना उदयथी उत्पन्न थतो भाव जीवभावथी एकवार छूटो पडयो थको फरीने जीवभावने पामतो नथी.


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शुं कहे छे? कर्मना उदये उत्पन्न मिथ्यात्वनो विकारी भाव एकवार जीवथी छूटा पडया पछी जीव साथे फरीने संबंध पामतो नथी. अहाहा...! सम्यग्दर्शन थईने पछी ए पडी जाय ए वात अहीं छे नहि. ज्यां रागथी भिन्न पडीने भगवान आत्मानुं ज्ञान कर्युं त्यां ए ज्ञानभावमां कर्मनो उदय आवे अर्थात् राग थाय तो पण ते रागनी साथे एकत्वबुद्धि थती नथी अने तेथी ते उदय खरी जाय छे; पछी फरीने बंध थतो नथी. अहाहा...! आचार्यदेव पोतानो अप्रतिहत भाव दर्शावे छे.

भगवान आत्मा रागथी जुदो-अधिक शुद्ध चिदानंदघनस्वरूप छे. आवा आत्मानुं ज्यां भान थयुं त्यां रागनी एकता तूटी गई. एटले हवे कहे छे के ज्ञानीने जे कर्मनो उदय आवे छे ते, डींटाथी खरी गयेला पाका फळनी जेम खरी जाय छे, कर्म फरीने उदयमां आवतुं नथी. भगवान ज्ञायकने रागथी भिन्न अनुभव्यो अने रागना एकपणाथी जुदो पाडयो; एटले हवे कहे छे के जे ज्ञानभाव प्रगट थयो ते वडे कर्मनी निर्जरा थाय छे अर्थात् कर्मनो उदय जे आवे छे ते खरी जाय छे अने जे खरी गयुं ते फरीने संबंध पामतुं नथी. (मिथ्यात्व-दशा तो जे गई ते गई).

कर्मनो उदय खरी जतां एने रागनो (-मिथ्यात्वनो) बंध थईने वळी रागथी एकत्व थाय एवुं ज्ञानीने बनतुं नथी एम कहे छे. ज्ञानीने ज्ञाननो क्षयोपशमभाव छे. तेथी तेने कर्मनो उदय आवे छे पण ते खरी जाय छे, फरीने उदयमां आवीने बंध करतो नथी. अहाहा...! रागनी एकता तोडीने ज्ञायकभावनी एकता करी छे जेणे ते जीव हवे पडशे ज नहि एवा अप्रतिहतभावनी शैलीथी अहीं वात छे.

प्रवचनसार, गाथा ९२ मां कह्युं छे के-आगम कौशल्य अने स्वभावना आश्रय वडे आत्मज्ञान द्वारा में मिथ्यात्वनो नाश कर्यो छे ते फरीथी मने उत्पन्न थवानो नथी. अहाहा...! भगवानना विरह होवा छतां पंचम आराना मुनि आम कहे छे! आचार्य मुनिवर कहे छे-भले भगवानना विरह छे, पण अंदर मने मारा आनंदना नाथनो भगवाननो भेटो थयो छे. में रागथी भिन्न पडीने भगवान चिदानंदस्वरूप आत्मानो आश्रय लीधो छे; हवे कर्मनो उदय आवे अने मने तेमां एकत्वबुद्धि थाय ए वात छे नहि.

कोईने एम थाय के मुनि छद्मस्थ छे, भगवान केवळी पासे गया नथी अने पंचम आरो छे छतां आटलुं जोर! मुनिराज कहे छे के हुं मारा सम्यक् मतिश्रुतज्ञानना सामर्थ्यथी कहुं छुं, केमके भगवान आत्माना समवसरण-सम् कहेतां सम्यक् प्रकारे गुणोनुं उतरवुं जेमां थयुं छे एवा अनंत अनंत गुणोथी भरेला आत्मामां हुं गयो छुं. आवा चैतन्यमहाप्रभुनुं में शरण लीधुं छे तो हवे मने रागमां फरीथी एकत्वबुद्धि थाय एम बननार नथी.

जुओ, द्रष्टिना विषयमां आस्रव नथी अने एवा अभेदस्वरूपनी द्रष्टिमां पण आस्रव नथी एम अहीं सिद्ध करवुं छे.


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प्रवचनसारनी ४प मी गाथा ‘पुण्णफला अरहंता...नो आधार लईने कोई पंडित वळी अत्यारे एम कहे छे के-पुण्यने लईने अरिहंतपद मळे छे. परंतु आ वात साव खोटी छे. त्यां तो गाथानुं मथाळु ज आ छे के-‘तीर्थंकरोने पुण्यनो विपाक अकिंचित्कर ज छे’ अर्थात् स्वभावनो किंचित् घात करतो नथी. भाई! पुण्यनुं फळ तीर्थंकरना आत्माने अकिंचित्कर छे. तीर्थंकरने पुण्यनो अतिशय उदय छे ए वात जुदी छे पण पुण्यना फळमां अरिहंतपद मळे छे ए वात तद्न खोटी छे. भाई! पोतानी मति-कल्पनाथी मचडी-कचडीने गाथाना अर्थ न कराय; एम करवाथी तने नुकशान थशे प्रभु!

त्यां (प्रवचनसारमां) गाथा ७७ मां तो एम कह्युं छे के-पुण्य अने पापमां तफावत नथी एम जे नथी मानतो अर्थात् पुण्य अने पापना परिणाममां जे भेद पाडे छे-पापथी बंध थाय अने पुण्यथी लाभ थाय-एम पुण्य-पापमां जे भेद पाडे छे ते मोहाच्छादित वर्ततो थको घोर अपार संसारमां परिभ्रमण करे छे. भाई! आ सिद्धांत छे; सिद्धांत तो बधे एकसरखो ज होय.

भगवान केवळीने जे दिव्यध्वनि आदि क्रियाओ छे ते पुण्यना विपाकरूप छे अने ते भगवानना आत्माने अकिंचित्कर छे एटले बंधनी करनार नथी पण क्षायिकी छे; उदय प्रतिक्षण क्षय पामे छे एम त्यां गाथा ४प मां सिद्ध कर्युं छे. हवे आवुं स्पष्ट छे त्यां पुण्यना फळमां अरिहंतपद मळे छे ए वात कयां रही? (ए वात यथार्थ छे ज नहि). भाई! सिद्धांतनो विरोध करवा जतां तो भगवान तारो ज विरोध थशे; परनो विरोध तो कोण करी शके छे?

अहीं कहे छे-कर्मना उदयथी उत्पन्न थतो भाव जीवभावथी एकवार छूटो पडयो थको फरीने जीवभावने पामतो नथी. रागथी भिन्नता अने भगवान ज्ञायकनी एकता थतां ज्ञानभाव प्रगट थयो त्यारे जे कर्मनो उदय झरी गयो अने मिथ्यात्वभाव मटी गयो ते फरीने थाय ए वस्तुमां छे नहि. अहो! दिगंबर मुनिवरोने अंतरज्ञानधारा अक्षयधारा छे. भाई! चारित्रदोष जुदी चीज छे अने द्रष्टि-दोष जुदी चीज छे. एकवार दर्शन-दोष (-मिथ्यात्व) नाश पाम्यो अने ज्ञानभाव प्रगट थयो पछी ते दर्शन-दोष अने रागनी अस्थिरता जे नाश पाम्यां ते फरीने नहि थाय एम कहे छे. आ तो धारावाही अंर्त-पुरुषार्थनी अप्रतिहत पुरुषार्थनी अहीं वात छे.

अहा! आ भगवान वीरनो मार्ग वीरनो-शूरानो ज मार्ग छे. कह्युं छे ने के-

‘वीरनो मार्ग छे शूरानो, नहि कायरनुं काम जो ने!’

वीरनो मार्ग-भगवाननो मार्ग शूरानो छे, अंर्त-पुरुषार्थथी भागनारा हीणपुरुषार्थी कायरोनुं एमां काम नथी.


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हवे कहे छे-‘आ रीते ज्ञानमय एवो, रागादिक साथे नहि मळेलो भाव उत्पन्न थाय छे.’

आ रीते रागना-पुण्यना विकल्पथी एकरूप नहि थयेलो एवो सम्यग्दर्शन-ज्ञान अने आनंदनो भाव उत्पन्न थाय छे. हुं शुद्ध चैतन्यघन वस्तु छुं एवो वेदनरूप ज्ञानमयभाव रागादि साथे एकत्व नहि थयेलो उत्पन्न थाय छे. राग थाय छे पण राग साथे ज्ञानभाव एकत्व पामतो नथी. चोथे गुणस्थाने आ स्थिति होय छे एम वात छे.

कोई ज्ञानीने क्षयोपशम के क्षायिक सम्यग्दर्शन थयुं होय अने तेने तीर्थंकर गोत्र बांधे एवो जे भाव थाय ते अपराध-गुन्हो छे. सम्यग्द्रष्टिने ते शुभभाव अपराध छे. ते भाव ज्ञानमयभावथी पृथक् छे ने? जुओ, श्रेणीक राजानो जीव अत्यारे नरकमां छे, अने त्यां तीर्थंकर गोत्र बांधे छे. पण ते शुभभाव अपराध छे. ज्ञानीनो ज्ञानभाव एवा राग साथे पण एकत्व नहि करतो थको उत्पन्न थयेलो होय छे.

भाई! आ तो वीतराग परमेश्वरनो सर्वज्ञनो मार्ग छे. भगवान आत्मानो ‘ज्ञ’ स्वभाव ज छे. एमां अपूर्णता केवी? ‘ज्ञ’ स्वभाव कहो के सर्वज्ञस्वभाव कहो-एक ज वात छे. जेने पर्यायमां सर्वज्ञस्वभाव प्रगट थयो तेने विश्वनुं जेटलुं (अनंत) ज्ञेय छे ते समस्त पर्यायमां-केवळज्ञानमां जणाय छे. एथी अनंतगणुं ज्ञेय होय तोपण तेने जाणी ले एवुं स्वभावनुं अने केवळज्ञान पर्यायनुं सामर्थ्य छे. आवुं स्वभावनुं परिपूर्ण सामर्थ्य छे.

हवे आमांय लोको वांधा उठावे छे के-ज्ञेय विशेष नथी माटे ज्ञान वधारे नथी अर्थात् निमित्त नथी एटले भगवान जाणता नथी. निमित्त होय तो जाणे.

अरे भाई! निमित्तने जाणवुं कहेवुं ए तो असद्भूत उपचरित व्यवहार नय छे, केमके परने जाणतां परमां तन्मय थईने जाणता नथी. सम्यक् मति-श्रुतज्ञानमां पण एटली ताकात छे के परज्ञेयने जाणतां ते परज्ञेयमां तन्मय थईने जाणतुं नथी. पोताना ज्ञानमां तद्रूप थईने पोताने जाणे छे तेमां परज्ञेय जणाई जाय छे. परज्ञेयने जाणे छे एम कहेवुं ए असद्भूत व्यवहार छे. जणाय छे ते यथार्थ छे.

प्रश्नः– सर्वज्ञ परने जाणे छे ते असद्भूत व्यवहार नय छे तो ते परने जाणे छे ते जूठुं ठर्युं; तो परने जाणवुं सर्वज्ञपणामां रहेतुं नथी?

उत्तरः– एम नथी, सांभळने भाई! आत्मानो स्व-परप्रकाशक स्वभाव पोतानो पोताथी ज छे, परने लीधे नथी. परज्ञेयने जाणनारुं ज्ञाननुं परिणमन पोतानुं पोताथी ज थयुं छे, परज्ञेयना कारणे थयुं नथी. परज्ञेयने जाणवाना काळे खरेखर परज्ञेय जणाय छे एम नथी पण खरेखर तत्संबंधी पोतानुं स्वपरप्रकाशक ज्ञान ज जणाय छे. परज्ञेयने


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जाणनारुं ज्ञान परज्ञेयमां तद्रूप नथी पण पोतामां ज तद्रूप रहीने, परज्ञेयने भिन्न राखीने जाणे छे माटे असद्भूत व्यवहारनयथी जाणे छे एम कह्युं छे; त्यां जाणपणानो अभाव छे एम अर्थ नथी. सर्वज्ञपणानी-स्वपरप्रकाशकपणानी शक्ति स्वनी स्वतः छे, परने लईने छे एम नथी-ए वात छे.

अरे भगवान! अग्नि कोने न बाळे? सूकाने बाळे अने भेगुं लीलुं होय तेने पण सूकुं करीने बाळे. तेम भगवाननुं ज्ञान के जे परिपूर्ण सामर्थ्यरूपे अंदर हतुं ते पूर्णपणे प्रगट थतां कोने न जाणे? एने मर्यादा शी? ए स्व-पररूप समस्त लोकालोकने जाणे छे. एक समयमां शक्तिमां जे अनंतानंत अविभाग प्रतिच्छेद छे ते केवळज्ञानमां बधा प्रगट थई गया छे. एटला ज बीजा समये होय, एटला ज त्रीजा समये होय इत्यादि. बधा अनंत समयनो सरवाळो करीने अनंत होय एम नहि. ए सर्वने केवळज्ञान एक समयमां-सेकन्डना असंख्यातमा भागमां जाणे छे.

जेम केवळी लोकालोकने जाणे पण लोकालोकमां तद्रूप नथी तेम ज्ञानीनो ज्ञानमय भाव रागादिक साथे मळेलो रागथी तद्रूप नथी. रागथी नहि मळेलो एवो ज्ञानमय भाव ज्ञानीने उत्पन्न थाय छे-एम अहीं कहे छे.

* गाथा १६८ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जो ज्ञान एकवार (अप्रतिपाती भावे) रागादिकथी जूदुं परिणमे तो फरीने ते कदी रागादिक साथे भेळसेळ थई जतुं नथी.’

भगवान आत्मा लोकालोकने एक समयमां जाणे एवा ज्ञानस्वभावना सामर्थ्यथी भरेलो चैतन्यबिंब छे. एनो आश्रय करवाथी उत्पन्न थयेलो रागादिक साथे नहि मळेलो ज्ञानमय भाव फरीथी रागादिक साथे एकपणाने पामतो नथी. दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना विकल्पथी जूदुं पडेलुं ज्ञान-भेदज्ञान जे थयुं ते-फरीथी राग साथे एकत्व करतुं नथी. चाहे शुभ हो के अशुभ हो-राग छे ते मेल छे. ते मेलथी जूदुं पडेलुं जे निर्मळ ज्ञान भगवान निर्मळानंदना आश्रये प्रगट थयुं ते फरीथी मेल साथे एकपणुं करतुं नथी. ज्ञानमय भाव ज्ञानमय ज रहे छे, रागमय थतो नथी. भाषा तो सादी छे पण भाव-मर्म बहु ऊंडो छे, भाई!

जुओ, आ कुंदकुंदाचार्य पछी १००० वर्षे थयेला अमृतचंद्राचार्य गाथामां जे भाव छे तेनुं दोहन करीने आ अर्थ काढे छे.

‘‘मंगलं भगवान वीरो मंगलं गौतमो गणी,
मंगलं कुंदकुंदार्यो जैन धर्मोऽस्तु मंगलं.’’

आ मांगलिकमां भगवान महावीर अने गौतम गणधर पछी जेमनुं त्रीजुं


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नाम आवे छे ते भगवान कुंदकुंदाचार्यनी आ वाणी छे. तेनो भगवान अमृतचंद्राचार्ये दोहन करीने अर्थ काढयो छे ते आ छे. समजाणुं कांई...?

प्रश्नः– आमां बीजा आचार्यो अने महामुनिवरोनो अनादर तो नथी थतो ने?

उत्तरः– भाई! कुंदकुंदाचार्यनी शैली वस्तुस्वरूपने शास्त्र द्वारा संक्षेपमां यथार्थ स्पष्ट करवानी रही छे तेथी तेओ प्रसिद्ध छे. बीजा मुनिवरो पोतानुं कल्याण करी गया अने केटलाक तो एमांथी मोक्ष पण गया; भगवान कुंदकुंदाचार्य हवे मोक्ष जशे. पण एमनी अर्थगंभीर अति स्पष्ट वाणी रही गई. तेथी पोताने थयेलो उपकार जाणीने तेमनो महिमा कर्यो एमां बीजाना अनादरनी वात कयां आवी?

आचार्य देवसेने ‘दर्शनसार’ ग्रंथनी रचना करी छे. तेमां तेओए कह्युं छे के - महाविदेहक्षेत्रमां वर्तमान तीर्थंकरदेव श्री सीमंधरस्वामी पासेथी मळेला दिव्यज्ञान वडे श्री पद्मनंदीदेवे (कुंदकुंदाचार्यदेवे) बोध न आप्यो होत तो मुनिओ साचा मार्गने केम जाणत? आचार्य श्री देवसेन ज्ञानी हता अने एमना गुरु पण ज्ञानी हता. छतां पोते कुंदकुंदाचार्यनो उपकार माने छे. तेमां शुं तेमना गुरुनो अने बीजा मुनिवरोनो अनादर थयो कहेवाय? एम अर्थ न थाय भाई! अरे! लोकोने पोतानी मोटाई आगळ सत् शुं छे ते देखातुं नथी. गौतम गणधर पछी केटलाक मुनिओ मोक्ष पधार्या छे. पण गौतम गणधर पछी कुंदकुंदाचार्यनुं नाम आव्युं ते परंपरामां आवेलुं छे, कोईए नवुं करेलुं नथी.

श्रीमद् राजचंद्रे पण कह्युं छे के-हे कुंदकुंदादि आचार्यो! तमारा वचनो पण स्वरूपना अनुसंधानने विशे आ पामरने परम उपकारभूत थयां छे. ते माटे हुं तमने अतिशय भक्तिथी नमस्कार करुं छुं.

हवे कहे छे-‘आ रीते उत्पन्न थयेलो, रागादिक साथे नहि मळेलो ज्ञानमय भाव सदाकाळ रहे छे. पछी जीव अस्थिरतारूपे रागादिकमां जोडाय ते निश्चयद्रष्टिमां जोडाण छे ज नहि अने तेने जे अल्प बंध थाय ते पण निश्चयद्रष्टिमां बंध छे ज नहि, कारण के अबद्धस्पृष्टरूपे परिणमन निरंतर वर्त्या ज करे छे.’

एकत्वबुद्धि छूटी गई छे ते अपेक्षाए ज्ञानीने रागमां जोडाण छे ज नहि. अस्थिरता छे तेने ते भिन्न राखीने जाणे छे. द्रष्टि अने द्रष्टिना विषयनी अपेक्षाए जे अल्प बंध थाय छे ते गौण छे, केमके अबद्धस्पृष्टरूपे परिणमन निरंतर वर्त्या ज करे छे. ज्ञानमय भाव निरंतर वर्त्या ज करे छे.

‘वळी तेने मिथ्यात्वनी साथे रहेनारी प्रकृतिओनो बंध थतो नथी अने अन्य प्रकृतिओ सामान्य संसारनुं कारण नथी; मूळथी कपायेला वृक्षनां लीलां पांदडां जेवी ते प्रकृतिओ शीघ्र सुकावायोग्य छे.’


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अहाहा...! मूळ कापी नाख्या पछी जेम पांदडां सूकाई ज जाय तेम मिथ्यात्वनुं मूळ जेणे छेदी नाख्युं छे ते ज्ञानीने रागनी परंपरा वधवा पामे एम बनतुं नथी पण रागादि बधो सूकाई ज जाय छे, नाश ज पामी जाय छे. चोथे गुणस्थाने ४१ प्रकृतिओनो तो समकितीने बंध थतो ज नथी अने अन्य प्रकृतिओ दीर्घ (अनंत) संसारनुं कारण नथी. आवो समकितनो अचिंत्य महिमा छे.

हवे, ‘जे ज्ञानमय भाव छे ते ज भावास्रवनो अभाव छे’ एवा अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छे-

* कळश ११४ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जीवस्य’ जीवने ‘यः’ जे ‘रागद्वेषमोहैः विना’ रागद्वेष मोह वगरनो, ‘ज्ञाननिर्वृत्तः एव भावः’ ज्ञानथी ज रचायेलो भाव ‘स्यात्’ छे अने ‘सर्वान् द्रव्यकर्मास्रव–ओघान् रुन्धन्’ जे सर्व द्रव्यकर्मना आस्रवना थोकने रोकनारो छे; ‘एषः सर्व–भावास्रवाणाम् अभावः’ ते (ज्ञानमय) भाव सर्व भावास्रवना अभावस्वरूप छे.

जुओ, आ चोथा गुणस्थाननी वात चाले छे. शुं कहे छे? के समकित थतां जे ज्ञाता- द्रष्टा स्वभावथी रचायेलो ज्ञानमय भाव, श्रद्धामय भाव, स्थिरतामय भाव प्रगट थयो तेमां मिथ्यात्व अने दया, दान आदि भावास्रवनो अभाव छे.

अरे प्रभु! शुं थाय? लोकोने तो शुभभाव मोक्षनुं कारण ठराववुं छे. पण एम छे नहि. बंध छे ते मोक्षनुं कारण नथी अने मोक्षनो मार्ग छे ते बंधनुं कारण नथी.

अहा! सत्यने स्वीकारतां जो बहारनी आबरू जाय तो जवा दे. भगवान आत्मामां ए आबरू कयां छे? भूलमां तो अनादिथी पडयो छे. ते भूलने टाळवामां तारी आबरू नहि जाय, परंतु तने एनाथी लाभ थशे. पहेलां न जाणे त्यां सुधी खोटी मान्यता होय, अमने पण हती पण हवे सत्यने स्वीकारवामां बहारनी प्रतिष्ठानो प्रश्न आगळ करीश नहि.

अहीं तो कहे छे के-राग-द्वेष-मोह विनानो ज्ञानथी रचायेलो ज्ञानमयभाव जथ्थाबंध द्रव्यकर्मना-जडकर्मना प्रवाहने रोकनारो छे केमके ते भाव सर्व भावास्रवना अभावस्वरूप छे. अहीं मिथ्यात्व छे ए ज मुख्यपणे आस्रव छे, संसारनुं कारण छे एम वात छे.

* कळश ११४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘मिथ्यात्वरहित भाव ज्ञानमय छे.’ मिथ्यात्वसहित जे भाव छे ते अज्ञानमय छे. रागने पोतानी साथे मेळववो-भेळववो-एवो मिथ्यात्वसहित भाव छे ते अज्ञानमय छे. अने रागने आत्मा साथे नहि भेळवेलो एवो मिथ्यात्वरहित भाव ज्ञानमय छे.

‘ते ज्ञानमय भाव राग-द्वेष-मोह वगरनो छे, अने द्रव्यकर्मना प्रवाहने रोधनारो छे.’ भावास्रव नथी एटले द्रव्यकर्म रोकाई जाय छे. द्रव्यकर्मनो प्रवाह आवनारो हतो


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ने रोकी दीधो -एम नहि, पण भावास्रव ज्यां नथी त्यां द्रव्यास्रवनो प्रवाह उद्भवतो ज नथी-तेने रोकी दीधो एम कहेवामां आव्युं छे.

हवे कहे छे-‘तेथी ते भाव ज (ज्ञानमय भाव ज) भाव-आस्रवना अभावस्वरूप छे.’

रागथी भिन्न पडेलो ज्ञानमय भाव भावास्रवना अभावस्वरूप छे, अने तेथी द्रव्यास्रव थतो नथी. दया, दान, व्रत, काम, क्रोध, विषयवासना आदि भाव भावास्रव छे अने द्रव्यकर्मना रजकणो जे आत्माना एकक्षेत्रावगाहे आवे ते द्रव्यास्रव छे.

हवे अहीं पंडित जयचंदजी विशेष खुलासो करतां कहे छे के-‘संसारनुं कारण मिथ्यात्व ज छे; तेथी मिथ्यात्वसंबंधी रागादिकनो अभाव थतां, सर्व भावास्रवनो अभाव थयो एम अहीं कह्युं.’

ल्यो, एक बाजु कहे के-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग ए बंधनुं कारण छे अने अहीं एम कहे के मिथ्यात्व ए ज संसार छे, ए ज बंध छे-ए केवुं!

अहीं अव्रतादिना परिणाम अल्प संसारनुं कारण होवाथी तेने गौण करेल छे. बाकी तो मुनिने छट्ठे गुणस्थाने जे शुभभाव थाय तेने ‘जगपंथ’ कह्यो छे. परंतु ते अनंत संसारनो पंथ नथी; थोडा देव अने मनुष्यना भव थाय तेवो ए भाव छे. तेने अहीं गौण कर्यो छे. आत्मस्वभावना भावने-ज्ञानमय भावने शिवपंथ कह्यो छे. अनंतानुबंधीना अभाव-पूर्वकनुं जे स्वरूप-आचरण छे ते पण वीतराग अवस्था छे अने ते शिवपंथ छे.

संसारनुं कारण मिथ्यात्व ज छे एम कह्युं. अनंत नरक-निगोदना भवसिंधुनुं कारण मिथ्यात्व ज छे. मिथ्यात्व नाश पामतां जे अल्प कषाय रह्यो तेनो अल्प काळमां-एक, बे भवमां अभाव थई जाय छे. जेम वृक्षनां मूळ उखडी गया पछी तेनां लीलां पांदडां सूकाई ज जाय तेम मिथ्यात्वनुं मूळ कपाई जतां अल्प काळमां रागादिनो अभाव थई ज जाय छे. परंतु जेम वृक्षनां मूळ साजां होय तो तोडी नाखवा छतां पांदडां फरी आवे छे तेम मिथ्यात्व रहे त्यां सुधी रागनी परंपरा-संसारनी परंपरा अनंत काळ सुधी चाल्या ज करे छे. माटे मिथ्यात्वनो अभाव थतां सर्व भावास्रवनो अभाव थयो एम अहीं कह्युं छे.

भाई! जेने श्रद्धामां गोटा छे तेनां व्रत, तप के संयम साचां होतां नथी.

[प्रवचन नं. २३२ * दिनांक १प-११-७६]

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अथ ज्ञानिनो द्रव्यास्रवाभावं दर्शयति–

पुढवीपिंडसमाणा पुव्वणिबद्धा दु पच्चया तस्स।
कम्मसरीरेण दु ते बद्धा सव्वे वि णाणिस्स।। १६९।।
पृथ्वीपिण्डसमानाः पूर्वनिबद्धास्तु प्रत्ययास्तस्य।
कर्मशरीरेण तु ते बद्धाः सर्वेऽपि ज्ञानिनः।। १६९।।

हवे, ज्ञानीने द्रव्यास्रवनो अभाव छे एम बतावे छेः-

जे सर्व पूर्वनिबद्ध प्रत्यय वर्तता ते ज्ञानीने,
छे पृथ्वीपिंड समान ने सौ कर्मशरीरे बद्ध छे. १६९.

गाथार्थः– [तस्य ज्ञानिनः] ते ज्ञानीने [पूर्वनिबद्धाः तु] पूर्वे बंधायेला [सर्वे अपि] समस्त [प्रत्ययाः] प्रत्ययो [पृथ्वीपिण्डसमानाः] माटीनां ढेफां समान छे [तु] अने [ते] ते [कर्मशरीरेण] (मात्र) कार्मण शरीर साथे [बद्धाः] बंधायेल छे.

टीकाः– जे पूर्वे अज्ञान वडे बंधायेला मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योगरूप द्रव्यास्रवभूत प्रत्ययो छे, ते अन्यद्रव्यस्वरूप प्रत्ययो अचेतन पुद्गलपरिणामवाळा होवाथी ज्ञानीने माटीनां ढेफां समान छे (-जेवा माटी वगेरे पुद्गलस्कंधो छे तेवा ज ए प्रत्ययो छे); ते तो बधाय, स्वभावथी ज मात्र कार्मण शरीर साथे बंधायेला छे-संबंधवाळा छे, जीव साथे नहि; माटे ज्ञानीने द्रव्यास्र्रवनो अभाव स्वभावथी ज सिद्ध छे.

भावार्थः– ज्ञानीने जे पूर्वे अज्ञानदशामां बंधायेला मिथ्यात्वादि द्रव्यास्रवभूत प्रत्ययो छे ते तो माटीनां ढेफांनी माफक पुद्गलमय छे तेथी तेओ स्वभावथी ज अमूर्तिक चैतन्यस्वरूप जीवथी भिन्न छे. तेमनो बंध अथवा संबंध पुद्गलमय कार्मण शरीर साथे ज छे, चिन्मय जीव साथे नथी. माटे ज्ञानीने द्रव्यास्रवनो अभाव तो स्वभावथी ज छे. (वळी ज्ञानीने भावास्रवनो अभाव होवाथी, द्रव्य आस्रवो नवां कर्मना आस्रवणनुं कारण थतां नथी तेथी ते द्रष्टिए पण ज्ञानीने द्रव्य आस्रवनो अभाव छे.)

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-