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मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग-ए पुद्गलपरिणामो, ज्ञानावरणादि पुद्गलकर्मना आस्त्रवणनां (-आववानां) निमित्त होवाथी, खरेखर आस्त्रवो छे; अने तेमने (मिथ्यात्वादि पुद्गलपरिणामोने) कर्म-आस्त्रवणना निमित्तपणानुं निमित्त रागद्वेषमोह छे-के जेओ अज्ञानमय आत्मपरिणामो छे. माटे (मिथ्यात्वादि पुद्गलपरिणामोने) आस्त्रवणना निमित्तपणाना निमित्तभूत होवाथी राग-द्वेष-मोह ज आस्त्रवो छे. अने ते तो (-रागद्वेषमोह तो) अज्ञानीनेज होय छे एम अर्थमांथी ज नीकळे छे. (गाथामां स्पष्ट शब्दोमां कह्युं नथी तोपण गाथाना ज अर्थमांथी ए आशय नीकळेछे.)
भावार्थः– ज्ञानावरणादि कर्मो ना आस्त्रवणनुं (-आगमननुं) कारण तो मिथ्यात्वा- दिकर्मना उदयरूप पुद्गलना परिणाम छे, माटे ते खरेखर आस्त्रवो छे. वळी तेमने कर्म- आस्त्रवणना निमित्तभूत थवानुं निमित्त जीवना रागद्वेषमोहरूप (अज्ञानमय) परिणाम छे माटे रागद्वेषमोह ज आस्त्रवो छे. ते रागद्वेषमोहने चिद्विकार पण कहेवामां आवे छे. ते रागद्वेषमोह जीवने अज्ञान-अवस्थामां ज होय छे. मिथ्यात्व सहित ज्ञान ज अज्ञान कहेवाय छे. माटे मिथ्याद्रष्टिने अर्थात् अज्ञानीने ज रागद्वेषमोहरूपी आस्त्रवो होय छे.
शुभ अने अशुभभाव बन्ने आस्रव छे. तेना स्वरूपने जाणीने आत्मा तेने जीते छे तेनो आ अधिकार छे.
आत्मा द्रव्य एटले जड आस्रवथी त्रिकाळ जुदो छे. परमाणु-रजकणो तो अजीव अचेतन छे अने एनाथी चैतन्यमहाप्रभु आत्मा जुदो ज छे. तथा भावास्रव जे पुण्य-पापना विकारी भावो-तेमनो स्वभावना आश्रये जेमणे नाश कर्यो अने परम वीतराग भावने प्राप्त थई जेओ परमात्मपद-‘णमो सिद्धाणं’ पदने पाम्या अर्थात् मोक्ष पधार्या तेमने हुं अतीन्द्रिय आनंदनी-सुखनी अभिलाषाथी नमन करुं छुं-एम कहे छे.
जुओ, नमन करुं छुं-एम जे विकल्प छे ए तो शुभराग छे, पण अभिलाषा तो अंदर निराकुळ आनंदनी प्राप्तिनी छे. नमन करवाथी-विकल्पथी थाय एम नहि, पण कथनमां बीजी शैली शुं आवे? (थशे तो स्वाश्रये ज)
पुण्य थशे अने तेथी स्वर्गादि मळशे अने आ धूळना (-लक्ष्मीना) ढग मळशे एवी पुण्यना सुखनी अभिलाषाथी नमुं छुं एम लीधुं नथी.
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वळी परमात्मपदने पाम्या ते आस्रवथी पाम्या एम नथी. शुं व्यवहार मोक्षमार्गनुं (- शुभास्रवनुं) फळ निश्चय मोक्षमार्ग हशे? (ना). एम जे माने छे ए तो अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे. ‘भावास्रव करी नाश’ एम कह्युं एटले पुण्य-पापरूप समस्त आस्रवनो नाश करी परमात्मपदने पाम्या छे. पण शुं थाय? माणसने पुण्यनी मीठाश अने पकड थई गई छे. पुण्यना फळमां बहार पैसा, आबरू, बाग, बंगला, बायडी-छोकरां, मखमलनां कपडां, इत्यादि चमक-दमक देखाय छे तेथी ते भरमाई गयो छे. पण भाई! ए बधुं शुं छे? ए तो धूळ छे, पुद्गल छे.
पेलो बाळकनो दाखलो नथी? के जेठ महिनानी गरमी होय, एक दोढ वर्षनुं बाळक होय अने भूख करतां वधारे दूध पीवाई गयुं होय तो पछी ते बाळकने सेरणुं-पातळा दस्त थई जाय. बाळकने कांई खबर नहि एटले एमां हाथ नाखे अने ठंडु ठंडु लागे एटले ते एने चाटे. बस, आवुं ज अज्ञानीने पुण्यना फळना भोगनुं चाटवुं छे. हवे आवुं आकरुं लागे पण शुं थाय? ईंदोरमां काचना मंदिरमां लख्युं छे ने के-
सम्यग्द्रष्टि लोको एटले के ज्ञानीओ, पुण्यनां फळ एवां चक्रवर्तीपद के जेमां हजारो राणीओ तथा इन्द्रपद के जेमां करोडो देवांगनाओनो समागम होय-तेने कागडानी विष्टा समान तुच्छ माने छे. एम के माणसनी विष्टामांथी तो खातरेय थाय अने एने भुंड पण खाय पण कागडानी विष्टामांथी तो खातरेय न थाय अने एने भुंड पण न खाय.
अहा! आत्मा एकली पवित्रतानो पिंडप्रभु त्रिकाळ सच्चिदानंदस्वरूप -सत् नाम शाश्वत ज्ञान अने आनंदनुं घर छे. ए निज घरमां आवतो नथी अने व्यभिचारी थईने परघरमां सुख मानी रझळे छे!
पुण्यने विष्टा कही त्यां तो राड पाडी उठे छे. पण भाई! पुण्यना फळना भोगमां बेठेलो खरेखर विष्टाना ढगला पर बेठेलो छे.
समयसार, मोक्ष अधिकारमां शुभभावने झेरनो घडो कह्यो छे. पापना परिणाम तो झेरनो घडो छे ज, पण शुभभाव पण झेरनो घडो-विषकुंभ छे. एक भगवान आत्मा अमृतनो सागर छे; केमके पुण्य-पापथी ए रहित छे ने? आवा पुण्य-पापथी रहित निज आत्माने जेणे जोयो छे ते पुण्यनी आशा करता नथी. ते तो मात्र सिद्ध भगवानना जेवा अतीन्द्रिय आनंदने ज इच्छे छे. समजाणुं कांई...? बापु! अंदर आनंदनो नाथ सदाय विराजी रह्यो छे पण एनी तने खबर नथी.
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अहीं प्रथम टीकाकार कहे छे के-‘‘हवे आस्रव प्रवेश करे छे.’’
‘जेम नृत्यना अखाडामां-नाटकशाळामां नृत्य करनार पुरुष स्वांग धारण करीने प्रवेश करे छे तेम अहीं आस्रवनो स्वांग छे.’ पुण्य अने पाप बेउ आस्रव छे, नवां आवरण आववानुं कारण छे. जेम वहाणमां छिद्र होय तो अंदर पाणी आवे छे तेम भगवान आत्मामां पुण्य-पापरूप छिद्र पडतां स्वर्गादिनुं आवरण आवे छे.
‘ते स्वांगने यथार्थ जाणनारुं सम्यग्ज्ञान छे.’ नाटकमां जेम प्रथम नारद स्वांग लईने आवे छे अने बोले छे- ‘ब्रह्मासुत हुं नारद कहावुं, ज्यां होय संप त्यां कुसंप करावुं’ एम अहीं नाटकमां एम आवे छे के- ‘ब्रह्मासुत हुं ज्ञान कहावुं, ज्यां तीर्थंकर त्यां संग करावुं.’ एम के पुण्य-पापनो प्रेम तोडवीने हुं भगवान साथे प्रीति करावुं. भगवान आत्मानी रुचि करावुं. अहो! वीतरागताना नाटकनी शरूआत आ रीते थाय छे.
एवा सम्यग्ज्ञानना महिमारूप मंगळ करे छेः-
‘अथ’ हवे ‘समररङ्गपरागतम्’ समरांगणमां आवेला, ‘महामदनिर्भरमन्थरं’ महामदथी भरेला मदमाता ‘आस्रवम्’ आस्रवने ‘अयम् दुर्जयबोधधनुर्धरः’ आ दुर्जय ज्ञानबाणावळी ‘जयति’ जीते छे.
शुं कह्युं आ? आ समयसार नाटक छे ने? एमां आस्रवरूपी महामदथी भरेलो योद्धो छे तेने भारे अभिमान चढी गयुं छे. एम के-में मोटा मोटा महाव्रतना धरनारा अने २८ मूलगुणना पाळनारा एवा दिगंबर साधुओने (द्रव्यलिंगीओने) पण पछाडया छे. पंचमहाव्रतना शुभ परिणामथी लाभ थाय एवी मान्यता करावीने में महंतोने पण मिथ्यात्वना कूवामां उतारी दीधा छे. तो तारी तो शुं विसात? आखा जगत पर जेनी आण वर्ते छे एवो हुं समरांगणनो महान योद्धो छुं. एम आस्रवने खूब मद चढी गयो छे. अहीं कहे छे-आवा ए आस्रवने, दुर्जय एटले जेने जीतवो कठण छे एवो आ ज्ञान-बाणावळी जीते छे.
भगवान आत्मा चिदानंदमय शुद्ध चैतन्यमूर्ति प्रभु छे. एमां एकाग्र थई जेणे अंतरमां ज्ञान प्रगट कर्युं ते ज्ञानरूपी दुर्जय बाणावळी छे. पुण्य-पापरहित भगवान आत्मानुं ज्ञान कर्युं ए महान बाणावळी छे. क्रमे क्रमे ते आस्रवने पछाडे छे, जीते छे, अने संवरने प्रगट करे छे. अहाहा...! शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूपनी द्रष्टिना प्रहार वडे एकाग्रतानुं वेधक बाण छोडी ते आस्रवने जीती ले छे.
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जुओ, आस्रवने अभिमानी योद्धो कह्यो, अने बोधने (सम्यग्ज्ञानने) दुर्जय धनुर्धर- बाणावळी कह्यो. पुण्य-पापमां एकाग्र थतां प्रगट थयेलो ए आस्रव विकार, विभाव, दुःख अने संसारनुं कारण हतो. तेने अवगणतां अने आनंदना नाथ त्रिकाळी सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मामां एकाग्र थतां प्रगट थयेलुं जे ज्ञान-ते दुर्जय बाणावळी आस्रवने जीती ले छे अने एक पछी एक एम क्रमशः संवर अने निर्जरा प्रगट करे छे, शुद्धिनी वृद्धि प्रगट करे छे. अहाहा...! वस्तुस्वभाव जे पूरण चैतन्यकंद प्रभु छे तेमां द्रष्टि अने एकाग्रता थतां जे ज्ञानधारा अने आनंदधारा प्रगट थई ते दुर्जय बोध-बाणावळी छे.
अगाउ जे परिणाममां पुण्य-पाप थता ते परिणामे संवरने जीती लीधो हतो. हवे ते परिणामने (आस्रवने) अवगणीने जे परिणाम शुद्ध चिद्रूपमां मग्न थया ते ज्ञानना परिणाम अशुद्धताने-आस्रवने जीती ले छे. गजब वात छे, भाई! जेम अर्जुन अने रामनां बाण पाछां न फरे, दुश्मनने जीतीने ज रहे; तेम पुण्य-पापना विकल्पथी भिन्न अंदर आखो चिदानंद भगवान त्रिकाळी पडयो छे एनो स्वीकार थतां जे श्रद्धान-ज्ञान अने आनंदनी धारा प्रगट थई तेणे आस्रवने जीती लीधो छे, खतम कर्यो छे.
परद्रव्यना अवलंबनथी थती दशा ते आस्रव छे. तेने स्वद्रव्यना अवलंबने प्रगट थयेलो ज्ञान-बाणावळी जीती ज ले छे. परना अवलंबने थता परिणामने स्वना अवलंबने थतुं परिणाम (-ज्ञान) जीती ले छे. आ एक ज आस्रवने जीतवानो-हठाववानो प्रकार छे.
अहाहा...! स्व एटले आत्मा पूर्णानंदनो नाथ चैतन्यमहाप्रभु छे. एना अतीन्द्रिय आनंदरसना स्वाद आगळ इन्द्रनां इन्द्रासनो पण सडेलां मींदडां जेवां तुच्छ भासे छे. अहा! जेमां दुनिया-मूढ जीवो मझा माने छे ते विषयो ज्ञानीने फीका-विरस अने झेर जेवा लागे छे. आवां ज्ञान-आनंद जेने प्रगट थयां छे ते ज्ञान-बाणावळी छे अने ते आस्रवने जीती ले छे. अहीं ज्ञान एटले शास्त्र-ज्ञान के बीजा जाणपणानी वात नथी. आ तो निर्विकार स्वसंवेदनपूर्वक प्रगट थयेला सम्यग्ज्ञाननी वात छे. पुण्य-पापना भावथी रहित एक ज्ञायकभावनो आश्रय लईने जे ज्ञानधारा, समकितधारा, आनंदधारा, स्वसंवेदनधारा प्रगट थई ते ज्ञानरूपी बाणावळी आस्रवने जीती ले छे; अने आ धर्म छे.
हवे आ ज्ञान-बाणावळी केवो छे? तो कहे छे-‘उदारगभीरमहोदयः’ ए ज्ञानरूपी बाणावळीनो महान उदय उदार छे. अहा! आस्रवने जीतवा माटे जेटलो पुरुषार्थ जोईए तेटलो काढीने आपे एवो छे. अहाहा...! भगवान आत्मा अंदर एकलो आनंद अने पुरुषार्थनो दरियो छे, स्वभावनो अनंतो सागर छे. गुणोनुं गोदाम छे. एमां
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अनंत-अनंत ज्ञान अने आनंदनी लक्ष्मी पडी छे. आवा चैतन्यरत्नाकरमां निमग्न थईने ज्ञानरूपी बाणावळी आस्रवने जीतवा जेटलो जोईए एटलो पुरुषार्थ पूरो पाडे एवो छे.
वळी ते गंभीर छे. भगवान आत्मा अनंत अनंत शक्तिओनो पिंड छे. तेना अनुभवथी प्रगट थयेलुं ज्ञान अनंत शक्तिओ सहित उछळे छे तेवुं गंभीर छे. तेना आनंद आदि स्वभावो साथे ज उछळे छे. अहाहा...! ते अपार-अपार-अपार छे. छद्मस्थ-आवरणमां रहेला अल्पज्ञ जीवो तेनो पार पामी शकता नथी तेवो ते छे.
जुओ, आस्रव अधिकार शरू करतां आस्रवने जीतनार सम्यग्ज्ञाननुं आ मांगलिक कर्युं. लोको बहार रळवा जाय के परणवा जाय त्यारे मांगलिक संभळावो-एम कहे छे ने? हवे ए तो बधा एकला पापना भावो छे. एमां शुं मांगलिक करवुं? अमंगळनुं वळी मांगलिक शुं? अहीं तो एनुं मांगलिक कर्युं जेणे पुण्य-पाप रहित थईने शुद्ध चैतन्यमय पोताना आत्मानो अनुभव प्रगट कर्यो अने आस्रवने जीती लीधो. अहाहा...! जे ज्ञान आत्मानो अनुभव करे अने तेनी (आत्मानी) याददास्त धारणामां रही गई छे ते आस्रवने जीते छे अने ते मंगळ छे. अहा! सांभळीने के वांचीने नहि परंतु अनुभव करीने यादगीरी प्राप्त करी छे ते आस्रवने जीते छे.
बीजे ठेकाणे आवे छे ने के-श्रुतज्ञाननी धारा केवळज्ञानने बोलावे छे. एम के-पूर्णज्ञान जे मारो स्वभाव छे ते पर्यायमां आवो, आवे, आवो. आवो गंभीर आत्मानो स्वभाव छे अने आवुं गंभीर आत्मानुं सम्यग्ज्ञान छे. छद्मस्थ अल्पज्ञ जीवो उपलक द्रष्टि वडे तेनो पार पामी शकता नथी एवुं ए अपार गंभीर छे. अहो! सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मा! एनी जे जागृत दशा थई तेनी महान उदारता अने अपार गंभीरतानी शी वात!
‘अहीं नृत्यना अखाडामां आस्रवे प्रवेश कर्यो छे. नृत्यमां अनेक रसनुं वर्णन होय छे तेथी अहीं रसवत् अलंकार वडे शान्त रसमां वीर रसने प्रधान करी वर्णन कर्युं छे के- ‘‘ज्ञानरूपी बाणावळी आस्रवने जीते छे.’’
जुओ, शुभाशुभ भाव छे ते अशांत रस छे. आस्रव छे ते अशांत रस छे. अने भगवान आत्मानां ज्ञान अने ध्यान ए शांत रस छे. अहीं छे तो शांत रसनुं, अकषाय रसनुं, उपशम रसनुं, वीतराग रसनुं वर्णन; पण अलंकार वडे वीर रसने प्रधान करीने वर्णन कर्युं छे के-‘ज्ञानरूपी बाणावळी आस्रवने जीते छे.’ मूळ तो शुद्ध चैतन्यस्वरूपमां निमग्न थतां आस्रव मटे छे अने ज्ञान अने शांति प्रगट थाय छे. अहीं आ वातने अलंकार वडे वीर रसने प्रधान करीने कह्युं के ज्ञान आस्रवने जीते छे.
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हवे आमां कोईने एम थाय के आ ते वळी केवो धर्म? दरिद्रीने दान देवुं, भूख्याने अनाज देवुं, तरस्याने पाणी पावुं, रोगीने औषध देवुं अने चिकित्सालयो बनाववां इत्यादि तो आमां आवतुं नथी.
अरे भाई! तुं दान आदि देवानी वात करे छे पण शुं आत्मा ए बधुं (-परद्रव्य) दई शके छे? (ना). शुं आत्मा चिकित्सालयो बनावी शके छे? (ना). ए बधी पर द्रव्यनी- पुद्गलनी अवस्थाओ तो पोतपोताना कारणे पोतपोताना समये थया करे छे; तेनो कर्ता आत्मा कदीय छे नहि. अहीं तो जन्म-मरणना रोगने मटाडवाना चिकित्सालयनी वात छे.
पैसा कमावा अने पैसा देवा इत्यादि आत्माना पुरुषार्थनुं कार्य नथी. ए तो पूर्वनां पुण्य होय तो मळे छे. पैसा कोई पुरुषार्थथी कमाय छे एम छे नहि. एकमात्र शांतरस- उपशमरस जीव पोताना पुरुषार्थ वडे प्रगट करी शके छे अने ते धर्म छे, ते जन्म-मरण मटाडनारुं औषध छे.
अहीं कहे छे-‘आखा जगतने जीतीने मदोन्मत्त थयेलो आस्रव संग्रामनी भूमिमां आवीने खडो थयो; परंतु ज्ञान तो तेना करतां वधारे बळवान योद्धो छे तेथी ते आस्रवने जीती ले छे अर्थात् अंतर्मुहूर्तमां कर्मोनो नाश करी केवळज्ञान उपजावे छे. एवुं ज्ञाननुं सामर्थ्य छे.’
भलभला अगियार अंगना पाठीओने पण में पछाडया छे एम गर्वथी उन्मत्त थयेलो आस्रव समरांगणमां आवी ऊभो छे. परंतु पोताना स्वरूपनुं जेने संचेतन छे एवो ज्ञानयोद्धो एनाथी महा बळवान छे. ते स्वरूपनो आश्रय करीने आस्रवने जीती ले छे, आस्रवने मिटावी दे छे. अहाहा...! पोताना अनंतबळस्वरूप भगवानने जेणे जाण्यो ते ज्ञान, पर्यायमां महा बळवान योद्धो थयो. वस्तु तो वस्तु सदा अनंतवीर्यसंपन्न छे ज, आ तो एना आश्रये पर्यायमां महा बळवान योद्धो थयो एनी वात छे. स्वरूपना आश्रये ज्ञान एवो बळवान योद्धो थयो के ते आस्रवने जीती ले छे अने अंतर्मुहूर्तमां समस्त कर्मोनो नाश करी केवळज्ञान उपजावे छे, सर्वोत्कृष्ट पदने उपजावे छे. जे पर्याय रागमां ढळती हती तेने अंतरमां वाळी ज्ञानस्वरूपमां मग्न करतां अंतर्मुहूर्तमां सर्व कर्मोनो नाश करीने ते केवळज्ञान उपजावे छे एवुं ज्ञाननुं सामर्थ्य छे.
आत्मानो स्वभाव कहो, शक्ति कहो के सामर्थ्य कहो; ए तो सिद्ध परमेश्वरना समान ज छे. तेने पर्यायमां प्रगट करी समस्त आस्रवनो नाश करी परमात्मपद-सिद्धपदने प्राप्त करवानी आ वात छे.
हुं तो ज्ञाता-द्रष्टा ज्ञानानंदस्वभावी एक चिन्मात्र भगवान आत्मा छुं, पुण्य-
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पाप ए मारुं स्वरूप नहि, मारुं कर्तव्य पण नहि. आम जाणीने जे स्वरूपना अंतरमां निमग्न थाय छे, एकाग्र थाय छे ते आस्रवने जीते छे अने ए ज धर्म छे. आवी वात छे.
हवे आस्रवनुं स्वरूप कहे छेः-
‘आ जीवमां राग, द्वेष अने मोह-ए आस्रवो पोताना परिणामना निमित्ते थाय छे माटे तेओ जड नहि होवाथी चिदाभास छे.’
राग, द्वेष अने मोह-ए आस्रवो पोताना परिणामना निमित्ते थाय छे एटले पोताना परिणामना आश्रये थाय छे; अने तेथी तेओ जड नथी. अहीं प्रथम आस्रवो जीवनी पर्यायमां थाय छे एम सिद्ध करवुं छे. आस्रवो वास्तविक चैतन्यनुं स्वरूप तो नथी, पण तेओ जीवनी पर्यायमां चिद्विकारपणे थाय छे माटे तेओ चिदाभास छे.
जुओ, समयसार, गाथा ७२ मां एम कह्युं के-पुण्य-पापरूपी आस्रवो जड छे, ते जीवनो चैतन्यस्वभाव नथी. त्यां शुद्ध चैतन्यस्वभावनी द्रष्टि कराववानुं प्रयोजन छे अने आस्रवो पोते पोताने जाणता नथी, परने जाणता नथी पण तेओ पर वडे (जीव वडे) जणाय छे माटे तेओ जड छे एम त्यां कह्युं छे.
अहीं कहे छे के-आस्रवो जड नथी. ‘अजडत्वे सति’ एम टीकामां पाठ छे ने! माटे ते चैतन्यना परिणाम छे अने चैतन्यना (पर्यायना) अस्तित्वमां पोताथी थाय छे. गंभीर वात. राग, द्वेष अने मोह-ए आस्रवो पोताना परिणामना कारणे-आश्रये थाय छे, एटले तेओ कर्मना उदयना कारणे थाय छे एम नथी एम अहीं साथे साथे सिद्ध करे छे. अहा! राग ते चैतन्यनी परिणति छे माटे चिदाभास एटले चैतन्यनो अभास एवो चिद्विकार छे.
हवे एककोर एम कहे के-आस्रवो जड, अशुचि अने दुःखनुं कारण छे अने अहीं कहे के तेओ जीवना परिणाम छे-आ ते केवी वात!
भाई! ज्यां आस्रवो जड, अशुचि अने दुःखनुं कारण कह्या त्यां आस्रवोनुं कर्तापणुं छोडावी शुद्ध चैतन्यनी द्रष्टि कराववी छे. त्यारे अहीं तेओ पोतानी-जीवनी पर्यायमां थाय छे एम सिद्ध करीने कर्मना उदयने लईने तेओ थाय छे एम नथी एम सिद्ध करवुं छे.
लोको राड पाडे छे ने के-विकार कर्मने लईने थाय छे; सिद्धमां कर्म नथी तो विकार नथी, माटे कर्म न होय तो विकार न थाय अर्थात् विकार कर्मने लईने थाय
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छे. तेने कहे छे के विकार पोताना कारणे थाय छे, कर्मने कारणे नहि. घणे ठेकाणे-प्रवचनसारमां, समयसारमां आवे छे के-कर्मना उदयमात्रथी जो आत्माने राग-द्वेषादि थाय तो सदाय संसार ज रह्या करे, केमके संसारीओने कर्मनो उदय तो सदाय होय छे ज. प्रवचनसार, गाथा ४प नी जयसेनाचार्यनी टीकामां आ वात लीधी छे. खरेखर तो जीव विकारना परिणाम करे तो कर्मने निमित्त कहेवामां आवे छे. वस्तुस्वरूप आवुं छे.
पंचास्तिकाय गाथा ६२ मां ज्यां पांच अस्तिकाय सिद्ध करवा छे त्यां विकार पोताना अस्तित्वमां पोतानी पर्यायमां पोताना षट्कारकना परिणमनथी थाय छे, एने पर कारकोनी अपेक्षा नथी एम कह्युं छे. विकारनो कर्ता पोते विकार, विकार कर्म विकारनुं पोतानुं, विकारनुं साधन विकार पोते, विकारनुं संप्रदान पोते विकार, विकारनुं अपादान विकार पोते अने विकारनुं अधिकरण पण विकार पोते. त्यारे कोई कहे के आ तो अभिन्न कारणनी वात थई? हा; पण अभिन्न कारणनो अर्थ शुं? के बीजुं कारण नथी. (पोते ज कारण छे).
भाषाथी तो समजाववामां आवे छे, परंतु जेने आ अंतरमां बेसी जाय एनी बलिहारी छे. समजाणुं कांई...?
मोटी तकरार छे ने? एम के विकार कर्मने लईने न थाय तो विकार स्वभाव थई जशे; आवो एमनो तर्क छे.
परंतु भाई! समयसार, गाथा ३७२ मां रागने जीवनो स्वभाव (पर्यायभाव) कह्यो छे. ‘स्वभावेनैवोत्पादात्’ एम त्यां टीकामां पाठ छे. मिथ्यात्व तथा पुण्य-पाप आदि पर्यायनो स्वभाव छे. त्यां कह्युं छे के-‘जीवने परद्रव्य रागादि उपजावे छे एवी शंका न करवी; कारण के अन्य द्रव्य वडे अन्य द्रव्यना गुणनो उत्पाद करावानी अयोग्यता छे.’ अहा! शुं थाय? आ तो जेने आत्मानी सत्यता शोधवी होय एना माटे छे. बाकी आ कांई वादविवादे पार पडे एवुं नथी.
बीजी वात-‘मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग-ए पुद्गलपरिणामो, ज्ञानावरणादि पुद्गलकर्मना आस्रवणनां (-आववानां) निमित्त होवाथी, खरेखर आस्रवो छे;...’
शुं कीधुं ए? जूनां कर्मनो जे उदय छे ए नवां कर्मने आववानुं निमित्त छे माटे तेने आस्रव कहे छे. असंज्ञ आस्रवो ते जडना परिणाम-जडना भाव छे. ते अजीव पुद्गल छे. दर्शनमोह कर्म, चारित्रमोह कर्म, कषाय तथा योगनो जे उदय आवे छे ते जडना परिणाम छे. भाई! ज्यां जे अपेक्षा होय ते जाणवी जोईए, नहितर एकांतनी पकड थई जाय.
एक बाजु समयसार गाथा ७प-७६ मां एम कहे के-ज्ञानीनो आत्मा ज्ञानस्वभावे
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परिणमे छे माटे ज्ञानीने आत्मा व्यापक अने निर्मळ परिणाम एनुं व्याप्य कर्म छे. तथा जे कांई विकार बाकी रह्यो छे तेमां कर्म व्यापक थईने विकार करे छे अर्थात् ते विकार कर्मनुं व्याप्य कार्य छे. त्यां तो ज्ञान अने रागने जुदा पाडवानी वात छे. द्रव्यस्वभावमां के तेना अनंत गुणोमां कयां विकार छे के विकार तेनुं व्याप्य थाय? तेथी ज्ञानभावे परिणमनार ज्ञानीने विकार कर्मनुं व्याप्य कह्युं.
अहीं तो विकार प्रथम चैतन्यनी पर्यायना अस्तित्वमां थाय छे एम सिद्ध करी पछी काढी नाखे छे. राग, द्वेष अने मोह ए आत्मद्रव्यनी पर्यायना अस्तित्वमां ज छे अने ते पोताथी ज छे, परने-कर्मने लईने नहि एम सिद्ध करीने पछी काढी नाखशे. झीणी वात छे, भाई!
अहा! एक बाजु राग-द्वेष-मोह-ए आस्रवोने चैतन्यना परिणाम सिद्ध करीने चिदाभास कह्या. बीजी बाजु दर्शनमोह-मिथ्यात्व, चारित्रमोह-अविरति, कषाय अने योग एवा जडना परिणामने खरेखर आस्रवो कह्या; केमके जूनां (पूर्वनां) जड कर्मनो उदय नवां कर्म जे बंधाय तेनुं निमित्त छे. पण ए जूनां कर्म नवा कर्मना आस्रवणनुं निमित्त थाय कयारे? तो कहे छे के-जीव राग-द्वेष-मोहना परिणाम करे त्यारे. जूनां जड कर्मना उदयने खरेखर आस्रव केम कह्यो? (कारण के नवा पुद्गल कर्मना बंधनमां पुद्गल निमित्त होय, जीवस्वभाव नहि एम अध्यात्मनी अपेक्षाए वात छे) के जूनां कर्म, नवां कर्मना बंधनमां निमित्त होवाथी तेओने खरेखर आस्रवो कह्या.
हवे कहे छे-‘अने तेमने (मिथ्यात्वादि पुद्गलपरिणामोने) कर्म-आस्रवणना निमित्तपणानुं निमित्त रागद्वेषमोह छे-के जेओ अज्ञानमय आत्मपरिणामो छे.’
व्रत, भक्ति आदि राग अने क्रोध, मान आदि द्वेषना भाव-जे आस्रवो छे ते जीवना परिणामो छे अने ते जीवने कारणे जीवमां थाय छे, कर्मने लईने नहि. हवे आ संज्ञ आस्रवो स्वयं प्रगट थतां, ते काळे जे जूनां कर्मनो उदय छे ते नवा कर्मना आस्रवणनुं निमित्त थाय छे. तेथी ते जूनां मिथ्यात्वादि पुद्गलपरिणामोने आस्रवो कहेवामां आव्या छे.
आवी वात; हवे साधारण माणसने कांई विचार, मनन होय नहि एटले शुं नक्की करे? माथेथी जे कहे ते ‘जय नारायण’ एम स्वीकारी ले. अरे! पंडित पण कोने कहेवा? सत्नो नाश करे ते शुं पंडित कहेवाय? तेने तो मोक्षमार्ग प्रकाशकमां-हे पांडे!-हे पांडे! हे पांडे! तुं फोतरां ज खांडे छे माटे मूर्ख ज छे एम कह्युं छे.
अहीं आस्रवो संज्ञ, असंज्ञ एम बे लीधा ने! संज्ञ एटले जे चेतनाभास छे ते जीवना परिणाम छे अने असंज्ञ छे ते जड पुद्गलना परिणाम छे. राग-द्वेष-मोह छे ते स्पर्श, रस, गंध, वर्ण विनाना चेतनना आभासरूप परिणाम छे अने दर्शनमोह,
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चारित्रमोह, योग अने कषायनो जे उदय छे ते स्पर्शादिरहित अजीव पुद्गलना परिणाम छे. ते मिथ्यात्वादि पुद्गलना परिणामो जीवने राग-द्वेषादि होतां नवां आवरणनुं निमित्त थाय छे.
अत्यारे तो अनेक वांधा उठया छे ने! एम के-कर्मथी विकार थाय, शुभराग- व्यवहारथी निश्चय थाय; क्रमबद्ध (परिणमन, पर्याय) छे नहि, इत्यादि. लोकोने लागे छे के आ नवी वात छे. पण नवी कयां छे? अनंत तीर्थंकरोए कहेली अनादिनी तो छे. प्रवचनसार, गाथा ९९ मां दरेक परिणाम तेना स्वकाळे पोताना अवसरे प्रगट थाय छे एवो चोकखो पाठ तो छे. भाई! निश्चयथी विकारनो कर्ता जीव छे, तेमां परना कारकनी अपेक्षा छे नहि. आ बधानो निर्णय करवा माटे उल्लास जोईए.
अहो! भगवान आत्मा अमृतनो सागर छे. पुण्य-पापना भाव छे ते एना द्रव्य- गुणमां नथी. द्रव्य एटले शक्तिवान अखंड वस्तु अने गुण एटले शक्ति. अहाहा...! अंदर आत्मा सुखना रसना स्वादथी भरेलो अनंत गुणोनो भंडार एवो भगवान पोते छे. आवो अमृतनो नाथ भगवान मृतक कलेवरमां मूर्छाई गयो छे. शरीर मारुं छे, एनी संभाळ राखवी जोईए इत्यादि भाव वडे ते मूर्छाई गयो छे. अरे भाई! जरा सांभळ. आ देह तो परमाणुनी चीज छे. शुं कहीए नाथ! पहेलां जे वींछीना डंखपणे परिणमेला ते परमाणु अहीं आ शरीररूपे थईने आव्या छे. वींछीना डंखपणे हता त्यारे एमां तने ठीक न होतुं लागतुं अने आ शरीरपणे थया एटले जाणे ते मारा छे, एनाथी रमत करुं, विषय भोग लउं-एम चेष्टा करे छे! खावानी क्रिया, पीवानी क्रिया, भोगनी क्रिया इत्यादि मारी अने एमां मने मझा छे एम मूर्छाई गयो छे! अरे! शुं थयुं छे प्रभु! तने? आ (मिथ्यात्वनो) रोग कयांथी वळग्यो तने? अहीं कहे छे-ए रोग तें स्वयं उत्पन्न कर्यो छे; ए तारो ज अपराध छे, कोई कर्मने लईने थयो छे एम नथी. गंभीर वात छे, भाई!
अहीं त्रण वात लीधी छे-
१. जीवना राग-द्वेष-मोहना परिणाम पोते पोताना कारणे उत्पन्न करे छे; कोई कर्मना कारणे थाय छे एम नहि.
२. ते काळे मिथ्यात्वादि जड पुद्गलना परिणाम जे उदयरूपे थाय छे ते कर्मना पोताना कारणे थाय छे.
३. ते मिथ्यात्वादि अजीव पुद्गलकर्मना परिणामने आस्रव केम कहीए? तो कहे छे के नवां कर्मना आस्रवणमां निमित्त छे माटे. हवे ते नवां कर्मना आस्रवणमां निमित्त कयारे थाय के जूनां कर्मना उदयकाळे जीव राग-द्वेष-मोहने उत्पन्न करे तो जूनां कर्म नवां कर्मना आवरणमां निमित्त थाय छे.
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बहु झीणी वात. आ वाणियाने आवुं विचारवानो वखत कयांथी मळे? आखो दिवस वेपार-धंधामां पैसा कमावानी मजुरीमां पडया रहे तेमने कयांथी नवराश मळे? पण अरे! ए शुं छे बापु? आ पैसाना ढगला तो पैसामां छे; ए कयां तारामां गरी गया छे? एने देखीने आ मारा छे एवी ममता तारामां तो छे. ए ममता छे ते एकलुं दुःख छे, अने एनुं फळ पण बहु आकरुं छे. अहीं कहे छे-ए दुःख पोते उत्पन्न कर्युं छे, पैसाने लईने के कर्मने लईने थयुं छे एम नथी.
कर्म-आस्रवणना निमित्तपणानुं निमित्त राग-द्वेष-मोह छे के जेओ अज्ञानमय आत्मपरिणामो छे. जीवने जे राग-द्वेष-मोहना परिणाम थया ते परने कारणे थया छे एम नहि पण ते पोताने कारणे करेला अज्ञानमय आत्मपरिणाम छे. अहा! मिथ्यात्व अने शुभाशुभभाव, पुण्य-पापना भाव-ए बधा अज्ञानमय आत्मपरिणाम छे. परद्रव्यने एमां शुं संबंध छे? परद्रव्य परद्रव्यमां छे; अने आत्मा पोते पोताना विकार के अविकारमां रमे तेमां परनी साथे कांई संबंध नथी. प्रवचनसार (गाथा ६७) मां तो एम कह्युं छे के-पांच इन्द्रियना विषयो आत्माने राग-द्वेष कराववाने असमर्थ-अकिंचित्कर छे. जेम कर्म राग-द्वेष कराववाने असमर्थ छे तेम नोकर्म पण राग-द्वेष कराववा अकिंचित्कर छे.
कर्मनो उदय जे प्रमाणे आवे ते प्रमाणे रागादि परिणाम करवा ज पडे, कर्म निमित्त थईने आवे एटले जीवे विकार करवो ज पडे ए वात यथार्थ नथी. गोम्मटसार आदि शास्त्रमां जे अनेक व्यवहारथी करेलां कथनो आवे-जेमके कर्मनुं जोर छे माटे निगोदना जीवो निगोद छोडता नथी इत्यादि-ए बधां निमित्तनुं ज्ञान करावनारां निमित्तनी मुख्यता करीने करवामां आवेलां कथनो छे. निमित्त शुं होय छे एवुं त्यां ज्ञान कराव्युं छे एम समजवुं. भाई! वीतराग मार्गमां पूर्वापर विरोधवाळी वात होय नहीं. आ तो वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरनी वाणी छे. तेमां जे अपेक्षाथी कथन होय तेने यथार्थ समजवुं जोईए.
पहेलां एटलुं कह्युं हतुं के-आस्रवो पोताना परिणामना निमित्ते एटले के आश्रये थता होवाथी तेओ जड नहि पण चिदाभास छे. वळी तेने ज पछी अज्ञानमय आत्मपरिणाम कह्या. राग, द्वेष अने मोहना परिणाम अज्ञानमय आत्मपरिणाम छे एम कह्युं. हवे कहे छे-तेओ ‘मिथ्यात्वादि पुद्गल परिणामोने आस्रवणना निमित्तपणाना निमित्तभूत होवाथी राग-द्वेष- मोह ज आस्रवो छे.’ जोयुं? पहेलां जूनां कर्मने खरेखर आस्रव कह्या हता अने हवे अहीं चेतनना राग-द्वेष-मोह-ते ‘ज’ खरेखर आस्रव छे एम लीधुं; ‘ज’ नाख्यो. छे, पाठमां (टीकामां) ‘एव’ शब्द पडयो छे.
भाई! पोतानो अभिप्राय छोडीने आचार्य भगवाननो अभिप्राय शुं छे, तेओ शुं कहेवा मागे छे ते समजवानो प्रयत्न करवो जोईए. शांतिथी, धीरजथी, जिज्ञासु थईने स्वाध्याय करे नहि तो वात यथार्थ केम समजमां आवे? (न आवे).
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अहा! भगवान! तुं अतीन्द्रिय आनंदनो दरियो छो. प्रभु! तने एनी खबर नथी, तने एनो विश्वास आवतो नथी. अरे! पोताने पोतानो भरोसो नहि अने परना भरोसे (आंधळे-बहेरो) चाल्यो जाय छे!
प्रश्नः– आत्मा आवो होई शके-एटलो बधो विश्वास केम आवे?
उत्तरः– अरे भाई! तें जेनी साथे लग्न कर्यां छे ते कन्याने पहेलां ओळखतो हतो? (ना). बीलकुल अजाणी होवा छतां तने कदी शंका पडी के आ मारुं अहित करशे तो? मने मारी नाखशे तो? भगवान! तने विषयमां रस-रुचि छे तेथी त्यां शंका पडती नथी अने विश्वास पाको थई गयो छे. तेना संगे रहे छे अने तेना संगे रमे छे. बीजा कोई बीजी वात करे तोपण शंका ज पडती नथी. विषयमां रस-रुचि छे ने? तेम जेने अंतरमां रस-रुचि थई तेने भगवान आत्मानो एवो विश्वास आवे छे के त्रणकाळमां फरे नहि. अजाणी कन्याने जोईने जेम पहेली घडीए विश्वास आवी गयो, शंका पडी नहि तेम पहेली घडीए ज ज्यां चिद्ज्ञानने चिदानंद भगवाननो भेटो थाय त्यां ते ज क्षणे अतीन्द्रिय आनंदनी लहर साथे तेनो विश्वास पाको थई जाय छे, शंका रहेती नथी. पूर्णानंदना नाथने ज्यां अंदर जई जोयो अने एनो भेटो कर्यो त्यां ते ज क्षणे तेनो पाको विश्वास आवी जाय छे, अने अतीन्द्रिय आनंदनो रसास्वाद आवे छे. भाई! आवो अतीन्द्रिय आनंद ते आनंद छे, बाकी बधी वातो छे. आवो आनंद मात्र ज्ञानीने ज होय छे. समजाणुं कांई...?
अहीं सिद्ध करवुं छे के-मिथ्यात्व संबंधी राग-द्वेष-मोह ज्ञानीने होता नथी. मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधीना राग-द्वेष-मोह तो अज्ञानीने ज होय छे; माटे अज्ञानीने ज आस्रव छे एम कहे छे-
‘अने ते तो (राग द्वेष मोह तो) अज्ञानीने ज होय छे एम अर्थमांथी ज नीकळे छे,’ ‘ज’ शब्द लीधो छे. भगवान कुंदकुंदना केडायत टीकाकार अमृतचंद्राचार्य एम कहे छे के गाथाना ज अर्थमांथी आ वात सिद्ध थाय छे. राग-द्वेष-मोह जे अज्ञानमय आत्मपरिणाम छे ते अज्ञानीने ज होय छे, ज्ञानीने नहि. गाथामां स्पष्ट शब्दोमां कह्युं नथी छतां गाथाना ज अर्थमांथी आ आशय सिद्ध थाय छे. अज्ञानीने ज राग-द्वेष-मोह होय छे, केमके मिथ्यात्वभाव ज्यां छे त्यां ज राग-द्वेषना परिणामनी रुचि होय छे. तेनो प्रेम होय छे.
ज्ञानीने किंचित् रागादि होवा छतां एने एनी रुचि होती नथी तेथी ज्ञानीने राग-द्वेष नथी एम द्रष्टि अपेक्षाए कहीए छीए. अहीं तो जेनी द्रष्टि विपरीत छे तेने ज राग-द्वेष-मोह छे एम सिद्ध करवुं छे. सम्यग्द्रष्टिने हजु जेटलो चारित्रमोह छे ते अहीं गणवामां आव्यो नथी. अहीं द्रष्टिनी मुख्यतामां ना पाडे छे पण पछी
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आगळ (गाथा १७१ मां) लेशे के ज्यां सुधी यथाख्यातचारित्र नथी त्यां सुधी ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनुं परिणमन जघन्य छे. तेथी तेने राग-द्वेष छे अने एनाथी किंचित् बंध पण छे.
भाई! कई अपेक्षाए कयां शुं कह्युं छे ए यथार्थ समजवुं पडे. पोतानो आग्रह न चाले. पोतानो आग्रह छोडी देवो पडे; अमे मान्युं छे एम शास्त्रमां आववुं जोईए एम वात न चाले. शास्त्रने जे कहेवुं छे ते अभिप्राय एमांथी काढवो जोईए. (ए ज समजणनी रीत छे.)
‘ज्ञानावरणादि कर्मोना आस्रवणनुं (-आगमननुं) कारण तो मिथ्यात्वादि कर्मना उदयरूप पुद्गलना परिणाम छे, माटे ते खरेखर आस्रवो छे.’ नवां ज्ञानावरणादि कर्मना आस्रवणनुं निमित्त जूनां मिथ्यात्वादि कर्मनो उदय छे; माटे ते मिथ्यात्वादि जूनां कर्मो खरेखर आस्रवो छे.
‘वळी तेमने कर्म-आस्रवणना निमित्तभूत थवानुं निमित्त जीवना रागद्वेषमोहरूप (अज्ञानमय) परिणाम छे, माटे रागद्वेषमोह ज आस्रवो छे. ते राग-द्वेष-मोहने चिद्विकार पण कहेवामां आवे छे. ते रागद्वेषमोह जीवने अज्ञान-अवस्थामां ज होय छे. मिथ्यात्व सहित ज्ञान ज अज्ञान कहेवाय छे. माटे मिथ्याद्रष्टिने अर्थात् अज्ञानीने ज रागद्वेषमोहरूपी आस्रवो होय छे.’
हवे आवी वात कयां छे भाई? आवो अवसर मळ्यो, आवुं मनुष्यपणुं अने भगवान जिनदेवनो संप्रदाय (परंपरा) मळ्यां; एमां आवो निर्णय नहि करे तो कयारे करीश? झाझा माणसोनी संख्या आ वातने माने छे के नहि ए कयां जोवानुं छे? सत्य छे के नहि एटलुं ज जोवानुं छे. सत्यने माननारा बहु थोडा ज होय. कह्युं छे ने के-
अज्ञानीने ज रागद्वेषमोहरूपी आस्रवो होय छे एम कहीने आ गाथामां ज्ञानीने आस्रवोनो अभाव दर्शाव्यो छे. ज्ञानीने रागथी भिन्न शुद्ध चैतन्यद्रव्यनुं ज्ञान-श्रद्धान छे ने? अहा! द्रव्यने गुण तो त्रिकाळ शुद्ध छे; अने ए शुद्धनो जेने अंतरमां अनुभव थयो ते ज्ञानीने शुद्धनुं परिणमन होवाथी भाव-आस्रवनो अभाव छे. मिथ्यात्व संबंधी राग-द्वेष-मोहनो ज्ञानीने अभाव छे तेथी ज्ञानीने आस्रव-बंध छे नहि एम अहीं कह्युं छे.
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अथ ज्ञानिनस्तदभावं दर्शयति–
संते पुव्वणिबद्धे जाणदि सो ते अबंधंतो।। १६६ ।।
सन्ति पूर्वनिबद्धानि जानाति स तान्यबध्नन्।। १६६ ।।
हवे ज्ञानीने आस्त्रवोनो (भावास्त्रवोनो) अभाव छे एम बतावे छेः-
नहि बांधतो, जाणे ज पूर्वनिबद्ध जे सत्ता विषे. १६६.
गाथार्थः– [सम्यग्द्रष्टेः तु] सम्यग्द्रष्टिने [आस्रवबन्धः] आस्रव जेनुं निमित्त छे एवो बंध [नास्ति] नथी, [आस्रवनिरोधः] (कारण के) आस्रवनो (भावास्रवनो) निरोध छे; [तानि] नवां कर्मोने [अबध्नन्] नहि बांधतो [सः] ते, [सन्ति] सत्तामां रहेलां [पूर्वनिबद्धानि] पूर्वे बंधायेलां कर्मोने [जानाति] जाणे ज छे.
टीकाः– खरेखर ज्ञानीने ज्ञानमय भावो वडे अज्ञानमय भावो अवश्यमेव निरोधाय छे-रोकाय छे-अभावरूप थाय छे कारण के परस्पर विरोधी भावो साथे रही शके नहि; तेथी अज्ञानमय भावोरूप राग-द्वेष-मोह के जेओ आस्त्रवभूत (आस्त्रवस्वरूप) छे तेमनो निरोध होवाथी, ज्ञानीने आस्त्रवनो निरोध होय ज छे. माटे ज्ञानी, आस्त्रवो जेमनुं निमित्त छे एवां (ज्ञानावरणादि) पुद्गलकर्मोने बांधतो नथी, -सदाय अकर्तापणुं होवाथी नवां कर्मो नहि बांधतो थको सत्तामां रहेलां पूर्वबद्ध कर्मोने, पोते ज्ञानस्वभाववाळो होईने, केवळ जाणे ज छे. (ज्ञानीनो ज्ञान ज स्वभाव छे, कर्तापणुं स्वभाव नथी; कर्तापणुं होय तो कर्म बांधे, ज्ञातापणुं होवाथी कर्म बांधतो नथी.)
भावार्थः– ज्ञानीने अज्ञानमय भावो होता नथी, अज्ञानमय भावो नहि होवाथी (अज्ञानमय) रागद्वेषमोह अर्थात् आस्त्रवो होता नथी अने आस्त्रवो नहि होवाथी नवो बंध थतो नथी. आ रीते ज्ञानी सदाय अकर्ता होवाथी नवां कर्म बांधतो नथी अने पूर्व बंधायेलां जे कर्मो सत्तामां रह्यां छे तेमनो ज्ञाता ज रहे छे.
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अविरतसम्यग्द्रष्टिने पण अज्ञानमय रागद्वेषमोह होता नथी. मिथ्यात्व सहित रागादिक होय ते ज अज्ञानना पक्षमां गणाय छे, सम्यक्त्व सहित रागादिक अज्ञानना पक्षमां नथी. सम्यग्द्रष्टिने निरंतर ज्ञानमय परिणमन ज होय छे. तेने चारित्रमोहना उदयनी बळजोरीथी जे रागादिक थाय छे तेनुं स्वामीपणुं तेने नथी; ते रागादिकने रोग समान जाणीने प्रवर्ते छे अने पोतानी शक्ति अनुसार तेमने कापतो जाय छे. माटे ज्ञानीने जे रागादिक होय छे ते विद्यमान छतां अविद्यमान जेवा छे; तेओ आगामी सामान्य संसारनो बंध करता नथी, मात्र अल्प स्थिति-अनुभागवाळो बंध करे छे. आवा अल्प बंधने अहीं गणवामां आव्यो नथी.
हवे ज्ञानीने आस्रवोनो (भावास्रवोनो) अभाव छे एम बतावे छेः-
‘खरेखर ज्ञानीने ज्ञानमय भावो वडे अज्ञानमय भावो अवश्यमेव निरोधाय छे- रोकाय छे-अभावरूप थाय छे कारण के परस्पर विरोधी भावे साथे रही शके नहि.’
जेने शुद्ध चैतन्यमय ध्रुव आनंदकंद प्रभु आत्मानी द्रष्टि थई छे, अहाहा...! जेने पूर्णानंदनो नाथ प्रभु ज्ञानमां जणायो छे, जेने पर्यायमां निर्विकल्प अनुभव थयो छे अने अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन आव्युं छे एने धर्मी अथवा ज्ञानी कहे छे. आवा ज्ञानीने ज्ञानमय एटले आत्ममय-शुद्ध चैतन्यमय परिणाम थाय छे. तेने ज्ञानमय-चैतन्यमय भावो वडे अज्ञानमय भावो अवश्यमेव रोकाय छे. मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी रागद्वेषना अज्ञानमय भाव ज्ञानमय भाव वडे अवश्य निरोधाय छे.
आस्रवनो निरोध ते संवर एम बहारथी संवर लई कोई व्रतादि लई बेसी जाय ए वात आ नथी. एवुं संवरनुं स्वरूप नथी.
प्रश्नः– पण ए रीते महावरो-प्रेकटीस तो पडे ने?
उत्तरः– भाई! रागना विकल्पथी भिन्ननी (शुद्ध चैतन्यनी) अंदरमां प्रज्ञा (भेदविज्ञान) वडे प्रेकटीस करे ते प्रेकटीस छे. आत्मा शुद्ध चैतन्यघन प्रभु एकलो पवित्रतानो पिंड छे; ते पोतानुं स्व छे. त्यां पर तरफना रागना वलणथी छूटी ए स्व तरफना वलणनी प्रेकटीस करे तो ते जणाय एवो छे. व्यवहारना-रागना साधन वडे भगवान आत्मा जणाय एवुं एनुं स्वरूप ज नथी.
प्रवचनसार, गाथा १७२ मां अलिंगग्रहणना छठ्ठा बोलमां छे के ‘लिंग द्वारा
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नहि पण स्वभाव वडे जेने ग्रहण थाय छे ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता छे एवा अर्थनी प्राप्ति थाय छे.’ अहाहा...! आत्मा पोताना स्वभावथी जणाय एवो प्रत्यक्ष ज्ञाता छे. शुद्ध चैतन्यना प्रकाशथी-परिणामथी जणाय एवो भगवान आत्मा छे. दया, दान, व्रत आदिना विकल्पथी आत्मा जणाय एवी चीज नथी. मति-श्रुतज्ञाननी निर्मळ पर्यायमां आत्मा प्रत्यक्ष जणाय छे, तेने परनी अपेक्षा नथी. प्रत्यक्ष कह्युं एटले प्रदेशे प्रत्यक्ष एम वात नथी, पण अनुभव-प्रत्यक्ष-वेदन-प्रत्यक्षनी वात छे.
आत्मा रागनुं वेदन अनादिथी करी रह्यो छे. अहा! मोटो नग्न दिगंबर साधु थईने एणे पांच महाव्रत अने २८ मूलगुण पाळ्या अने एना फळमां नवमी ग्रैवेयक गयो; पण ए तो बधुं रागनुं वेदन हतुं. ए रागना वेदनथी हठीने अंदर परिपूर्ण सच्चिदानंदस्वरूप भगवान पोते छे. एनो जे अनुभव करे अने अतीन्द्रिय आनंदना स्वादने वेदे ते ज्ञानी अने धर्मी छे.
बाह्य क्रियाकांडना पक्षवाळाओने आ आकरुं पडे छे. परंतु भाई! चरणानुयोगमां कहेलां बाह्य व्रत, तप आदिनी क्रियारूप आचरण करवाथी साधक थाय छे एम नथी. चरणानुयोगमां तो ज्ञानीने-साधकने भूमिका प्रमाणे बाह्य व्रतादि केवां होय छे तेनुं ज्ञान कराव्युं छे. ज्ञानी तेने (बाह्य व्रतादिने) आचरे, करे-एम व्यवहारथी कहेवाय छे, पण निश्चयथी बाह्य आचरण ते चारित्र ज नथी. आवो मार्ग छे, भाई! जेम खोराक पचे नहि तेने अजीर्ण थाय ते मार्ग यथार्थ समजे नहि तेने मुश्केल पडे एवुं छे. (मतलब के ते मार्गने पामी शकतो नथी).
प्रश्नः– तो आप पाचन थाय तेवी गोळी आपो तो?
उत्तरः– द्रष्टिनी पर्याय भगवान पूर्णानंदना नाथने स्वीकारे ते पाचन छे. श्री जयसेनाचार्यनी टीकामां आवे छे के-जेम अग्निमां पाचक, प्रकाशक अने दाहकनो -एम त्रण गुण छे तेम आत्मामां पाचक, प्रकाशक अने दाहकना त्रण गुण छे. आत्मामां सम्यग्दर्शननी पाचकशक्ति छे. अहाहा...! आत्मानुं निर्मळ श्रद्धान जे सम्यग्दर्शन तेमां भगवान पूर्णानंदनुं पाचन थाय छे. भले वर्तमान अल्पज्ञ दशा होय पण सम्यग्दर्शन भगवान पूर्णानंदना नाथने जेवो छे तेवो परिपूर्ण प्रतीतिमां लई ले छे, ते आत्माने पूर्णपणे पचावी दे छे. अहाहा...! अनंतगुणना पासाथी सदाय शोभायमान अंदर चैतन्य हीरो प्रकाशी रह्यो छे. तेने प्रतिसमय अनंतगुणनी पर्यायो प्रगटे छे. तेमां सम्यग्दर्शननी पर्यायनी भगवान पूर्णानंदना नाथने पचाववानी शक्ति छे, सम्यग्ज्ञाननी प्रकाशकनी शक्ति छे अने सम्यक्चारित्र अथवा स्वरूपस्थिरतानी रागादिने बाळवानी दाहकशक्ति छे. आवी पाचक, प्रकाशक अने दाहक शक्ति जेने प्रगट थई छे ते ज्ञानी छे.
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परमात्मप्रकाशमां आवे छे के व्रतना विकल्पथी छूटीने भगवान आनंदना नाथमां स्थिर थई जवुं, जामी जवुं, लीन थई जवुं तेने व्रत नाम चारित्र कहे छे. पंचमहाव्रतना विकल्पने तो उपचारथी चारित्र कहे छे.
अहा! पर तरफना विकल्पोनी लागणीओने प्रभु! ते अनंतकाळ सेवी छे. जन्म-मरण रहित थवुं होय तो आ एक ज पंथ छे के अंतरसन्मुख थई सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मानी प्रतीति जेनुं लक्षण छे एवुं सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं. आवी समकितनी दशा-जेमां अनाकुळ आनदनो स्वाद वेदायो-ते जेने प्रगट थई ते ज्ञानी छे. अंदर ‘ज्ञानी’ शब्द पडयो छे ने? ज्ञानी कोने कहेवाय एनी आ व्याख्या छे.
घणां शास्त्र भण्यो होय अने व्याख्यान करी शास्त्र समजावतो होय माटे ते ज्ञानी एम नहि. समजाववानी भाषा छे ए तो जड पुद्गलनी छे, अने समजाववा प्रत्ये वलण छे ए राग छे. भणवुं अने भणाववुं -एम जे वलण छे ए तो बधा विकल्प राग छे. एमां कयां भगवान आत्मा छे? आ तो स्वरूपसंवेदन सहित रागथी भिन्न आत्मानां ज्ञान-श्रद्धान जेने प्रगट थयां छे ते ज्ञानी छे एम वात छे. समजाणुं कांई...!
भाई! रागना पक्षमां रहीने ८४ ना अवतार करी करीने तुं मरी गयो छे, दुःखी थयो छे. क्षणमां देह छूटी जाय, खबर पण न पडे एवां अनंतवार जन्म-मरण थई चूकयां छे. घणी वखत तो कांई साध्य न रहे एवी तारी असाध्य दशा थई छे. ए असाध्य तो बहारना (- शरीरना) रोगोनी अपेक्षाए छे. पण अंदर आत्मा रागथी भिन्न छे एवुं स्वस्वरूपनुं साध्यपणुं प्रगटयुं नहि ते महा असाध्य छे.
प्रश्नः– काळलब्धि पाकशे एटले साध्यपणुं प्रगटी जशे.
उत्तरः– भाई! तुं शास्त्रमांथी धारणामां लईने काळलब्धिनी कोरी वातो करे छे पण एनो शुं अर्थ छे? एथी कांई साध्य नथी. ज्यारे अंतर-एकाग्र थईने स्वभावनुं भान करे त्यारे काळलब्धिनुं साचुं ज्ञान थाय छे. ७२ नी सालमां आ प्रश्न चर्चायो हतो के-केवळीए दीठुं हशे ते थशे. त्यारे कह्युं हतुं के जेनी पर्यायमां दिव्य केवळज्ञान प्रगटयुं छे जेमां आखो आ लोकालोक तो शुं एनाथी अनंतगुणो लोकालोक होय तोय जणाई जाय एवा केवळीनी सत्तानो तने स्वीकार छे? एनी सत्तानो स्वीकार पर केवळीनी के पर्यायनी सन्मुख थईने थई शकतो नथी. एनी सत्तानो स्वीकार तो निज चैतन्यस्वभावनी-सर्वज्ञस्वभावनी सन्मुख थवाथी ज थाय छे अने त्यारे काळलब्धि पाकी जाय छे. अहाहा..! सर्वज्ञ-स्वभावनी द्रष्टिमां सर्वज्ञतानो स्वीकार थाय छे अने सर्वज्ञतानो स्वीकार करनारी द्रष्टि थतां काळलब्धि पाकी जाय छे. श्रीमदे कह्युं छे ने के-
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भगवाने दीठुं हशे ते थशे-एम काळलब्धि अने भवस्थितिनुं नाम लई तुं स्वभावसन्मुखताना पुरुषार्थने छेदीश मा. भगवान आत्माना यथार्थ श्रद्धाननो पुरुषार्थ जाग्रत कर.
संसारमां धन रळवा जाय त्यां तो काळलब्धि हशे तो पैसा मळशे एम कहेतो नथी. त्यां काळलब्धिनी राह जोई बेसी रहेतो नथी. जमवाना काळे जमवानो काळ पाकशे त्यारे जमाशे एम तुं शुं विचारे छे? (ना). त्यां तो प्रयत्न अने पुरुषार्थ करे छे. भले, भोजन तो एना काळे एना कारणे आवे छे, पण तुं एवो प्रयत्न तो करे छे ने? खावा-पीवा आदिनी बधी जडनी क्रिया ए आत्मानी नहि, छतां आम करुं, तेम करुं एम राग तो करे छे ने? तेवी ज रीते आत्मोपलब्धि माटे अंतरमां पुरुषार्थ मांडीने आत्मानुभव प्रगट करवो पडशे. निज भगवाननुं आराधन करवा अने रागनो-विकारनो भुक्को बोलाववा अखंड चैतन्यप्रभुनी अखंड द्रष्टि साधीने अखंडपणे अंतर-रमणतानो पुरुषार्थ करवो पडशे. अहीं कहे छे-आवो अंतर-पुरुषार्थ जेणे प्रगट कर्यो छे ते ज्ञानी छे.
अहाहा...! पोते शुद्ध चैतन्यघन ज्ञानघन प्रभु छे एवी जेने द्रष्टि थई छे एवा ज्ञानीने बधा भावो ज्ञानमय होय छे एम कहे छे. एने रागमय मिथ्यात्वभाव होता नथी. तेने ज्ञानमय भाव वडे मिथ्यात्वसंबंधी राग अने द्वेष अवश्यमेव निरोधाय छे, अज्ञानमय भाव जरूर रोकाई जाय छे. भाषा जुओ! ज्ञानीने ज्ञानमय भाव छे, ज्ञानवाळा एम नहि. ज्ञानमय भाव एटले भगवान शुद्धज्ञानघनस्वरूप चैतन्यबिंब प्रभु जे अंदर त्रिकाळ विराजे छे तेना अभेद वलणवाळा भाव. अहाहा...! आवा ज्ञानमय भावो वडे अज्ञानमय भावो जरूरथी रोकाई जाय छे, रूंधाई जाय छे, अभावरूप थाय छे.
आ तो अध्यात्मनां लढण अथवा घूंटण छे भाई! आ कांई कथा नथी. (बहु शांति अने धीरजथी उपयोगने सूक्ष्म करी सावधानीथी सांभळवुं जोईए).
शुं कहे छे? के आत्मा पर तरफना वलणने छोडीने अंतरना स्वना वलणमां गयो एटले एने ज्ञानमय भावो थाय छे अने ते वडे अज्ञानमय एटले मिथ्यात्वमय राग-द्वेषादिना भाव जरूर रोकाई जाय छे केमके परस्पर विरोधी भाव साथे रही शके नहि. अस्थिरताना अनेक भाव होय तेनी अहीं वात नथी. अहीं तो ज्ञानमय भावमां मिथ्यात्वमय भाव होय नहि अने मिथ्यात्वमय भावोमां सम्यक् ज्ञानमय भावो होय नहि एम वात छे. मिथ्यात्व अने मिथ्यात्वसंबंधी राग-द्वेषना भाव सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञानना भावोमां रही शके नहि. बेय परस्पर विरोधी छे. एक साथे होई शकता नथी. ज्ञानभावमां अज्ञानभावनो अभाव ज होय छे. हवे कहे छे-
‘तेथी अज्ञानमय भावोरूप राग-द्वेष-मोह के जेओ आस्रवभूत (आस्रवस्वरूप)
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छे तेमनो निरोध होवाथी, ज्ञानीने आस्रवनो निरोध होय ज छे.’ जुओ, ज्ञानीने मिथ्यात्व अने मिथ्यात्वसंबंधी रागद्वेष-एवा जे आस्रवो तेनो निरोध होय ज छे. भाई! आ कांई वाते वडां पाके एवुं नथी. वडां आम थाय ने तेम थाय एम मात्र वातोथी वडां न थई जाय. वडां माटे लोट जोईए, तेल जोईए, एनी आवडत जोईए, बधुं जोईए ने? तेम भगवान आत्माने प्रगट करवा अंतरनो पुरुषार्थ जोईए. ए वात कहे छे के-अंतरना ज्ञायकस्वभावना प्रति वीर्यना वलणवाळा धर्ममय भावथी अधर्ममय भाव उत्पन्न थता नथी तेथी ज्ञानीने अधर्मनो-आस्रवनो निरोध ज छे.
अरे! एने पोते चैतन्यमूर्ति भगवान छे एनुं महात्म्य आवतुं नथी! अनादिथी एणे परमां अने एक समयनी पर्यायमां रमत मांडी छे ने? दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा, काम, क्रोध अने इन्द्रियोना भोग आदिमां तथा पर्यायमां ज्ञाननो क्षयोपशम उघाड होय एमां ते अनंतकाळथी रमी रह्यो छे. पण भगवान! तारा त्रिकाळी चैतन्यतत्त्वनी आगळ ए क्षयोपशमनी शुं किंमत छे? कांई किंमत नथी. माटे अंदर जा अने ध्रुव चैतन्यतत्त्वने पकड; तेथी तने मिथ्यात्वादि भावोनो अभाव थशे, निराकुळ आनंद थशे.
ज्ञानीने आस्रवनो निरोध होय ज छे. ‘माटे ज्ञानी, आस्रवो जेमनुं निमित्त छे एवां (ज्ञानावरणादि) पुद्गलकर्मोने बांधतो नथी, -सदाय अकर्तापणुं होवाथी नवां कर्मो नहि बांधतो थको सत्तामां कहेलां पूर्वबद्ध कर्मोने, पोते ज्ञानस्वभाववाळो होईने, केवळ जाणे ज छे.’
जुओ, ज्ञानीने आस्रव नथी एटले नवां ज्ञानावरणादि कर्म बंधातां नथी. खरेखर तो परमाणुओने ते काळे बंधावानो योग ज होतो नथी, परंतु समजाववुं होय त्यारे बीजी शी रीते कथन आवे? ज्ञानी तो, पोते ज्ञानस्वभाववाळो होईने सत्तामां रहेलां पूर्वबद्ध कर्मोनो जाणनार-देखनार छे. दुनियानी आंख छे ने? आखी दुनिया जेना ज्ञानमां जणाय एवो भगवान ज्ञाता-द्रष्टा छे. ज्ञातास्वभावना वलणमां ज्ञानी केवळ जाणे ज छे, कर्मनो कर्ता नथी. सदाय अकर्तापणुं होवाथी एटले के ज्ञानीने रागनुं कर्तापणुं नहि होवाथी कर्मने बांधतो नथी, केमके कर्मबंधनुं निमित्त तो रागना कर्तापणानो भाव छे. समयसार नाटकमां आवे छे ने के-
रागना कर्तापणे रोकाय तेने ज्ञातापणुं रहेतुं नथी अने जे ज्ञातापणामां आव्यो तेने रागनुं कर्तापणुं होतुं नथी. ज्ञानीने बंधनुं कारण जे आस्रव ते होतो नथी तेथी तेने बंध पण थतो नथी. अहो! आवी स्वभावनी वात सहज अने सरल छे.
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पण स्वभावनो पुरुषार्थ करे तो ने? भाई! खाली वातोथी काम पार पडे एम नथी.
हवे केटलाक लोको कहे छे के-सोनगढनुं नियत मिथ्यात्व छे, कारण के सोनगढ वाळा तो जे समये जे पर्याय थाय एमां निमित्तथी कांई न थाय एवुं माननारा छे.
तेने कहीए छीए-भगवान! नियत ज छे. जे समयमां जे पर्यायनी निजक्षण- जन्मक्षण वा उत्पत्तिनो काळ होय ते समये ते पर्याय थाय छे, निमित्तथी थती नथी. परंतु एनो (क्रमबद्धनो) निर्णय कोने होय? के जे अंतःस्वभावमां सन्मुख थयो होय तेने एनो सम्यक् निर्णय होय छे.
ज्ञानीने भले मति-श्रुतज्ञान होय, पण एक समयमां लोकालोकने (परोक्ष) जाणवानी ताकातवाळी पर्याय तेने प्रगट थई छे. ज्ञानीने रागनुं कर्तापणुं नथी. तेने पोतानुं जाणवापणुं अने जे राग थाय तेनुं जाणवापणुं पोतामां छे. तेथी नवां कर्मो नहि बांधतो थको सत्तामां रहेलां पूर्वबद्ध कर्मोने ज्ञानी केवळ जाणे ज छे. जेम केवळी भगवानने चार घाती कर्मो पडया छे तेने ए केवळ जाणे ज छे, मारां कर्म छे अने मारामां छे एम नहि, पण पोतानी सत्ताथी भिन्न संयोगमां संयोगी भिन्न चीज छे एम केवळ जाणे ज छे तेम ज्ञानी पूर्वबद्ध कर्मोने केवळ जाणे ज छे.
ज्ञानीनो ज्ञान ज स्वभाव छे, कर्तापणुं एनो स्वभाव नथी. जेम केवळी भगवान लोकालोकने जाणे छे-एटले के लोकालोक केवळज्ञानमां निमित्त होवा छतां लोकालोकना कर्ता नथी, मात्र ज्ञाता छे तेम ज्ञानी ज्ञानमां रागादिने जाणवा छतां ते रागनो कर्ता नथी, मात्र ज्ञाता छे. अहो! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने स्वरूपाचरण कोई अलौकिक चीज छे! एनाथी धर्मनी शरूआत छे अने एना विना धर्म शरू थतो नथी.
ज्ञानीने अस्थिरतानो किंचित् राग-द्वेष छे. परंतु स्वज्ञेयना जाणनारने रागादि अने ते वडे थतो अल्प बंध-ते ज्ञानमां परज्ञेय तरीके जणाय छे. अहीं गाथा ११ मां जे कही ते शैलीथी वात लीधी छे. भूतार्थ-सत्यार्थ त्रिकाळी परमात्मस्वरूप पोते-तेनो आश्रय करतां सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. हवे तेने अशुद्धता अने अपूर्णता जे (पर्यायमां) रही ते जाणेलां प्रयोजनवान छे, आदरेलां नहि. ते काळे ज्ञाता-स्वभाव ज स्वयं एवो छे के ते स्वने जाणे छे अने साथे जे राग थाय छे तेने पण स्पर्श्या विना केवळ जाणे छे. आवुं ज एनुं स्वरूप छे.
ओहो! एक ज्ञानगुणमां बीजो गुण नथी छतां ज्ञानगुणमां अनंतगुणोनुं रूप छे. जेम ज्ञानगुणमां अस्तित्वगुण नथी छतां ज्ञानगुणमां अस्तित्वगुणनुं रूप छे. अर्थात् ज्ञान छे ते स्वयं अस्तित्वपणे छे. अस्तिपणुं ज्ञाननुं रूप छे. एवी रीते ज्ञानमां वस्तुपणुं, प्रमेयपणुं, कर्तापणुं, कर्म-करणपणुं इत्यादि रूप छे. ज्ञान पोते ज्ञानना कर्तापणे छे; कर्ता गुणथी नहि, पोतानुं स्वरूप ज कर्तापणे छे, अहीं कहे छे-