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गुणस्थान धारण करे छतां ९६ हजार राणीओना भोगमां होय. आवी जे रागनी धारा समकितीने होय छे ते बंधनुं काम करे छे. अने जोडे जाणनार ज्ञायक जे जाग्यो छे ते ए रागनो जाणनार ज्ञातापणानुं ज कार्य करे छे. ए जाणवा-देखवानुं ज्ञातापणे जे पर्याय काम करे छे ते संवर-निर्जरारूप छे. जेटला अंशे ज्ञानधारा छे तेटली संवर-निर्जरा छे अने वच्चे जेटला अंशे रागधारा रहे ए वडे कर्मबंध ज थाय छे, एना वडे जराय संवर-निर्जरा नथी. अहीं तो कह्युं ने के-विषयकषायना विकल्पो, व्रत-नियमना विकल्पो-शुद्ध स्वरूपनो विचार सुद्धां-कर्मबंधनुं कारण छे.
आ ज वात कळश टीकाकारे कळश ११० मां आ प्रमाणे कही छे-
‘‘अहीं कोई भ्रान्ति करशे के मिथ्याद्रष्टिनुं यतिपणुं क्रियारूप छे. ते बंधनुं कारण छे. सम्यग्द्रष्टिनुं छे जे यतिपणुं शुभक्रियारूप, ते मोक्षनुं कारण छे; कारण के अनुभव-ज्ञान तथा दया-व्रत-तप-संयमरूप क्रिया बन्ने मळीने ज्ञानावरणादि कर्मनो क्षय करे छे. आवी प्रतीति केटलाक अज्ञानी जीवो करे छे.
त्यां समाधान आम छे के-जेटली शुभ-अशुभ क्रिया, बहिर्जल्परूप विकल्प अथवा अंतर्जल्परूप अथवा द्रव्योना विचाररूप अथवा शुद्ध स्वरूपनो विचार इत्यादि समस्त, कर्मबंधनुं कारण छे. आवी क्रियानो आवो ज स्वभाव छे, सम्यग्द्रष्टि-मिथ्याद्रष्टिनो एवो भेद तो कांई नथी; एवा करतूतथी एवो बंध छे. शुद्धस्वरूप परिणमनमात्रथी मोक्ष छे. जोके एक ज काळमां सम्यग्द्रष्टि जीवने शुद्ध ज्ञान पण छे, क्रियारूप परिणाम पण छे, तोपण क्रियारूप छे जे परिणाम तेनाथी एकलो बंध थाय छे, कर्मनो क्षय एक अंशमात्र पण थतो नथी. आवुं वस्तुनुं स्वरूप छे, सहारो कोनो? ते ज काळे शुद्ध स्वरूप-अनुभव-ज्ञान पण छे, ते ज्ञानथी कर्मक्षय थाय छे, एक अंशमात्र पण बंध थतो नथी. वस्तुनुं एवुं ज स्वरूप छे.’’
वळी त्यां आगळ कह्युं छे के-‘‘एक जीवमां एक ज काळे ज्ञान-क्रिया बंने कई रीते होय छे? समाधान आम छे के-विरुद्ध तो कांई नथी. केटलाक काळ सुधी बंने होय छे, एवो ज वस्तुनो परिणाम छे; परंतु विरोधी जेवां लागे छे, छतां पण पोतपोताना स्वरूपे छे, विरोध तो करतां नथी.’’
आ प्रमाणे ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मामां एकाग्र थईने प्रवर्तमान जेटली ज्ञानधारा छे ए संवरनिर्जरानुं कारण छे, एमां जराय बंधनुं कारण नथी अने बर्हिमुखपणे प्रवर्तती जेटली शुभाशुभ रागधारा छे तेटलुं बंधनुं ज कारण छे, अंश पण संवर-निर्जरानुं कारण नथी. भावलिंगी मुनिवरने जे पंचमहाव्रतना परिणाम छे ए बंधनुं कारण छे. एक शुद्ध परिणतिरूप ज्ञानधारा ज मोक्षनुं कारण छे. कथंचित् ज्ञानधारा अने कथंचित् रागधारा मोक्षनुं कारण छे एवुं स्वरूप नथी. लोकोने शुभभाव कोठे पडी गयो छे अने शुभभावमांथी नीकळवुं गोठतुं नथी तेथी समयसार गाथा-१६१ थी १६३ ] [ २०१
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समयसार नाटकमां पण मुनिराजने जे पंचमहाव्रतना परिणाम होय छे ते प्रमादना परिणाम छे अने ते जगपंथ छे, संसारनो पंथ छे, बंधनो मार्ग छे एम कह्युं छे. एनाथी भव मळशे अने आत्मानी जे आत्मरूप ज्ञानधारा छे एनाथी ज मोक्ष थशे. आवी तो चोख्खी वात छे. भगवान! आवो अवसर मळ्यो एमां आ विवाद-झघडा शाना? बधा विवाद मूकीने नक्की कर के-तरवानो उपाय एक स्व-आश्रयथी ज थाय छे अने पराश्रयना सघळा भाव बंधनुं ज कारण बने छे.
बंध अधिकार, कळश १७३ मां पण कह्युं छे के-जिन भगवानोए सर्व वस्तुओमां जे अध्यवसान थाय छे ते बधांय त्यागवा योग्य कह्यां छे. तेथी अमे एम मानीए छीए के पर जेनो आश्रय छे एवो व्यवहार ज सघळोय छोडाव्यो छे. तो पछी आ सत्पुरुषो एक सम्यक् निश्चयने ज निष्कंपपणे अंगीकार करीने शुद्धज्ञानघनस्वरूप आत्मस्वरूपमां स्थिरता केम धरता नथी? आचार्यदेवे अहीं आश्चर्य साथे सर्व पराश्रय छोडीने संपूर्ण अंतःस्थितिने प्राप्त थवानी प्रेरणा करी छे. गाथा २७२ मां पण कह्युं छे के-‘निश्चयनयाश्रित मुनिवरो प्राप्ति करे निर्वाणनी.
अहाहा...! आटलुं स्पष्ट होवा छतां जेना अंतरमां शुभरागनो महिमा वस्यो छे तेने पूर्णानंदनो नाथ सच्चिदानंदस्वरूप भगवान पूर्ण वीतरागताना, प्रभुताना अने ईश्वरताना स्वभावथी भरेलो पोतानो जे आत्मा तेनो महिमा केम आवे? तेने तो रागनी रुचिनी आडमां आखो परमात्मा नजरथी दूर थई गयो छे. जेम एक म्यानमां बे तलवार न रही शके तेम रागनो महिमा अने शुद्ध चिद्रूपनो महिमा बे साथे रही शकतां नथी. भगवान! जो तने मोक्षनी इच्छा छे तो रागनी रुचि छोडी शुद्ध चैतन्यमय निज परमात्मद्रव्यनो महिमा करी तेमां ज अंतर्लीन था. अहीं कहे छे के धर्मी जीवने थता जे पंचमहाव्रतादिना परिणाम ते पण एकांत बंधनुं ज कारण छे अने एक मात्र शुद्धत्वपरिणमनरूप जे ज्ञानधारा छे ते ज एकांते मोक्षनुं कारण छे.
प्रश्नः– जेटलो अशुभथी बच्यो एटलो तो संवर छे ने?
उत्तरः– ना; अशुभथी बची जे शुभमां आव्यो ते शुभ पोते पण बंधनुं ज कारण छे. एक ज्ञान-परिणति ज संवर-निर्जरानुं कारण छे. समजाणुं कांई...?
हवे कर्म अने ज्ञाननो नयविभाग बतावे छेः-
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‘कर्मनयावलंबनपराः मग्नाः’ कर्मनयना आलंबनमां तत्पर (अर्थात् कर्मनयना पक्षपाती) पुरुषो डूबेला छे, ‘यत्’ कारण के ‘ज्ञानं न जानन्ति’ तेओ ज्ञानने जाणता नथी.
जुओ, कर्म एटले शुभभावनुं आलंबन लेनारा शुभकर्मना पक्षपाती पुरुषो डूबेला छे एटले संसारमां खूंचेला छे केमके तेओ पोते सदा चैतन्यमूर्ति भगवान छे एम जाणता नथी. अहा! रागने अवलंबनारा पुरुषो रागरहित पोतानुं त्रिकाळी शुद्ध स्वरूप छे एने जाणता नथी, अनुभवता नथी अने तेथी तेओ भवसमुद्रमां डूबेला छे अर्थात् भवसमुद्रमां गोथां खाया करे छे. वळी कहे छे-
‘ज्ञाननय–एषिणः अपि मग्नाः’ ज्ञाननयना इच्छक (-पक्षपाती) पुरुषो पण डूबेला छे, ‘यत्’ कारण के ‘अतिस्वच्छन्दमन्द–उद्यमाः’ तेओ स्वच्छंदथी अति मंद उद्यमी छे.
जेओ बहारथी मात्र ज्ञाननी वातो करे छे पण द्रष्टि अने रमणता ज्ञानमां एटले अंदर शुद्ध चैतन्यस्वरूपमां करता नथी एवा ज्ञानना पक्षपातीओ पण भवसमुद्रमां डूबेला छे अर्थात् संसारमां रखडे छे. तेओ स्वच्छंदथी अति मंद-उद्यमी छे. एटले एकला स्वच्छंदथी ज्ञाननी वातो करे छे पण स्वरूपनी प्राप्तिनो अंतरसन्मुखतानो पुरुषार्थ करता नथी तेथी निरुद्यमी छे, प्रमादी छे; विषय-कषायमां वर्ते छे अने स्वसन्मुखता द्वारा स्वरूप-प्राप्तिनो विचार सरखो पण करता नथी. कळशटीकामां लीधुं छे के ‘मंद-उद्यमी’ एटले शुद्ध चैतन्यस्वरूपनो विचारमात्र पण करता नथी. खाली ज्ञाननी वातो करे छे, शुभथी दूर रहे छे अने शुद्धनो विचार सरखो करता नथी तेओ स्वच्छंदे परिणमता थका अशुभमां चाल्या जाय छे अने ८४ ना अवतारमां रझळी मरे छे.
जेने द्रष्टिने अंदर चैतन्यस्वभावमां एकाग्र करवा प्रति वलण हजु थयुं नथी अने मात्र जे कोरी ज्ञाननी-आत्मानी वातो करे छे ते पुरुष मिथ्याद्रष्टि छे. वळी स्वभावमां द्रष्टिनी एकाग्रतानो विचार तो करे छे पण स्वरूपनो प्रत्यक्ष आस्वाद नथी तो ते पण सम्यक्त्व- सन्मुख मिथ्याद्रष्टि छे. बेय वात छे ने? अहीं बे प्रकारना जीवो लीधा छे-एक शुभरागनी क्रियाने धर्म माननारा अने बीजा ज्ञाननी मात्र कोरी वातो करनारा. एक शुभरागनी अनेक क्रियाओमां रोकाई रहीने मिथ्यात्वसहित होवाथी संसारमां डूबे छे अने बीजा पुरुषार्थरहित प्रमादी थईने विषय-कषायमां स्वच्छंदे वर्तता थका संसार समुद्रमां डूबे छे.
हवे कहे छे-‘ते विश्वस्य उपरि तरन्ति’ ते जीवो विश्वना उपर तरे छे के ‘ये स्वयं सततं ज्ञानं भवन्तः कर्म न कुर्वन्ति’ जेओ पोते निरंतर ज्ञानरूप थता-परिणमता
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थका कर्म करता नथी ‘च’ अने ‘जातु प्रमादस्य वशं न यान्ति’ कयारेय प्रमादने वश पण थता नथी.
आत्मा सदा ज्ञानानंद परमानंदस्वरूपी अंदर विराजमान छे. तेनां द्रष्टि-ज्ञान अने रमणतारूपे थवुं-परिणमवुं ते ज्ञानरूप परिणमन छे. अहीं कहे छे जे जीवो ज्ञानरूप परिणमता थका कर्म करता नथी तेओ तरी जाय छे. ‘कर्म करता नथी’ एटले के अनुभव काळे बुद्धिपूर्वकनो राग होतो नथी अने ज्ञानीने जे राग आवे छे ते रागना कर्तापणानो तेने अभिप्राय नथी, तेनुं स्वामित्व नथी तेथी ते कर्मनो कर्ता नथी. रागने तद्न वश थईने ते अशुभमां (-मिथ्यात्वमां) जतो नथी. आ प्रमाणे स्वरूपमां निरंतर उद्यमशील एवा ते जीवो प्रमादरहित थईने संसारने तरी जाय छे. स्वरूपमां जेओ झुकेला छे अने तेमां ज उद्यमी रहे छे, प्रयत्नशील रहे छे तेओ मोक्षमार्गी छे अने तेओ तरी जाय छे; बीजा के जेओ स्वरूपथी विमुख छे तेओ तो मिथ्याद्रष्टि छे अने संसारमां डूबेला छे. आवी वात छे.
‘अहीं सर्वथा एकान्त अभिप्रायनो निषेध कर्यो छे कारण के सर्वथा एकांत अभिप्राय ज मिथ्यात्व छे.’
जुओ, निश्चयथी लाभ थाय अने व्यवहारथी-रागथी पण लाभ थाय एम केटलाक अनेकान्त करे छे पण तेमनी ए मान्यता एकान्त छे. व्यवहारथी (-शुभभावथी) बंध ज छे अने निश्चयथी-शुद्ध परिणतिथी मोक्ष छे-आनुं नाम अनेकान्त छे. पण शुद्धभाव-सन्मुखताथी पण मोक्ष थाय अने रागथी पण मोक्ष थाय-एम अनेकान्त नथी. ए तो मिथ्या एकान्त छे. वळी राग-व्यवहार साधन अने निश्चय साध्य-एवी मान्यता पण एकान्त छे. ते सर्वथा एकान्त होवाथी मिथ्यात्व छे, तेथी तेनो अहीं निषेध कर्यो छे.
त्यारे कोई कहे-के व्यवहार साधन नथी एम तमे कहो छो तो तेथी लोको स्वच्छंदी थई जशे.
अरे भाई! जेने भवनो भय छे अने अंतरमां मुमुक्षुता प्रगटी छे ए स्वच्छंदी केम थाय! जेने आत्मानी आराधना प्रगटी छे वा जे आत्मानी आराधनाना प्रयत्नमां वर्त्या ज करे छे ते स्वच्छंदी केम थशे? (नहि थाय).
हवे कहे छे-‘केटलाक लोको परमार्थभूत ज्ञानस्वरूप आत्माने तो जाणता नथी अने व्यवहार दर्शनज्ञानचारित्ररूप क्रियाकांडना आडंबरने मोक्षनुं कारण जाणी तेमां तत्पर रहे छे- तेनो पक्षपात करे छे.’
जोयुं? केटलाक लोको-पोते परमानंदनो नाथ ज्ञाता-द्रष्टास्वरूप भगवान छे एवा
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आत्माने जाणता नथी अने व्यवहार दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप क्रियाकांडना आडंबरमां तत्पर रहे छे. आ व्यवहार समकित-ज्ञान-चारित्र ए बधुं क्रियाकांड छे. देव-शास्त्र-गुरुनी रागरूप श्रद्धा क्रियाकांड छे, शास्त्रनुं भणतर अने व्रतादिनुं आचरण ए बधुं क्रियाकांड छे. राग छे ने? व्यवहाररत्नत्रयनी बधी रागनी क्रिया छे अने ते क्रियाकांड ज छे.
हवे आ क्रियाकांडनो मोटो आडंबर रचे. महिना-महिनाना उपवास करे ने व्रत करे ने तप करे ने वळी एनां उजमणां करे, वरघोडा काढे-ए बधो क्रियाकांडनो आडंबर छे. भगवाननी पासे भक्तिमां मागे के मने मोक्ष आपो अने आठ-दस कलाक शास्त्र वांचे ने सामायिक-प्रतिक्रमणादि क्रियाओ करे ए बधो क्रियाकांडनो-रागनी क्रियानो आडंबर छे. अहीं कहे छे-केटलाक लोको एने मोक्षनुं कारण जाणी तेमां तत्पर रहे छे, तेनो पक्षपात करे छे. एटले एम के आ क्रियाकांडना व्यवहारथी कदीक निश्चय प्रगट थशे एम जाणी व्यवहाररत्नत्रयमां तत्पर रहे छे. अशुभथी तो शुद्ध न थाय पण शुभ करतां करतां शुद्ध उपयोग थई जशे एम जाणी व्रत, नियम, तप, शील, दान, भक्ति, पूजा इत्यादि शुभभावमां तत्पर रहे छे. आवा लोको कर्मनयना, एकांत पक्षपाती छे, मिथ्याद्रष्टि छे. हवे कहे छे-
‘आवा कर्मनयना पक्षपाती लोको-जेओ ज्ञानने तो जाणता नथी अने कर्मनयमां ज खेदखिन्न छे तेओ-संसारमां डूबे छे.’
जुओ, आवा लोको ज्ञानने कहेतां क्रिया-रागथी रहित पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्माने जाणता नथी-अनुभवता नथी अने मात्र कर्म एटले शुभरागनी क्रियामां रच्या-पच्या रही खेदखिन्न थाय छे. जुओ, शुभराग छे ते खेदरूप-दुःखरूप छे, केमके ते आत्मानी निराकुळ शान्तिनो क्षय करे छे. शुभभावमां भगवान आत्मानी शान्तिनो क्षय थाय छे. माटे जेओ शुभरागना पक्षपाती जीवो छे तेओ संसारमां डूबे छे, संसारमां ८४ ना अवतार करी-करीने रझळे छे. आ एक प्रकारना लोकोनी (व्यवहाराभासी मिथ्याद्रष्टिओनी) वात थई.
हवे बीजी (निश्चयाभासी मिथ्याद्रष्टिओनी) वात करे छे. जेओ ज्ञाननी वातो करे छे पण ज्ञाननी सन्मुख थता नथी एमनी वात करे छे. कहे छे-
‘वळी केटलाक लोको आत्मस्वरूपने यथार्थ जाणता नथी अने सर्वथा एकांतवादी मिथ्याद्रष्टिओना उपदेशथी अथवा पोतानी मेळे ज अंतरंगमां ज्ञाननुं स्वरूप खोटी रीते कल्पी तेमां पक्षपात करे छे.’
ज्ञान एटले आत्मा पोते सदाय ज्ञाता-द्रष्टारूपे छे एनी तेओने खबर नथी, एनो अनुभव पण नथी अने खाली एनो पक्षपात करे छे.
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‘पोतानी परिणतिमां जराय फेर पडया विना तेओ पोताने सर्वथा अबंध माने छे अने व्यवहार दर्शन-ज्ञान-चारित्रना क्रियाकांडने निरर्थक जाणी छोडी दे छे.’
अहा! पोतानी परिणतिमां तो एवा ने एवा विषय-कषायनुं सेवन रह्या करे छे, आत्मस्वरूपना वलणनो विचार सरखो पण करता नथी अने अमने बंध नथी एम मानीने व्यवहारना क्रियाकांडने-व्रत, तप, शील, संयम, इत्यादि आचरणने निरर्थक-निष्फळ जाणी छोडी दे छे. अहा! तेओ शुद्धनी प्रति ढळता नथी, शुभ छोडी दे छे, तेथी अशुभमां-विषयकषायमां ज मग्न रहे छे.
‘आवा ज्ञाननयना पक्षपाती लोको जेओ स्वरूपनो कांई पुरुषार्थ करता नथी अने शुभ परिणामोने छोडी स्वच्छंदी थई विषय कषायमां वर्ते छे तेओ पण संसारसमुद्रमां डूबे छे.’
आवा ज्ञाननयना एकांत पक्षपाती लोको एकली कोरी आत्मानी वातो करे छे पण शुद्ध स्वरूपमां ढळवानो पुरुषार्थ करता नथी अने शुभभावने छोडी दई स्वेच्छाचारी बनीने निरंकुशपणे विषय-कषायमां वर्ते छे. अहा! स्वरूपनां श्रद्धान-ज्ञान संबंधी अशुद्धता टळी नथी अने मात्र कोरी आत्मानी वातो करनारा तेओ संसारसमुद्रमां डूबे छे. श्रीमदे कह्युं छे ने के-
आथी एम न समजवुं के शुभभाव छोडीने अशुभ करवा; वळी अुशभभाव छोडया छे माटे शुभथी हळवे हळवे निश्चय (धर्म) थशे एम पण अर्थ नथी. आशय एम छे के निश्चयस्वरूप जे निज शुद्धात्मा तेनो विचार अने तेनुं लक्ष कर्या विना, अंतरमां ढळ्या विना बाह्य क्रिया के खाली आत्मानी कोरी वातो करवाथी जीवो संसारमां ज डूबे छे.
हवे त्रीजी मोक्षमार्गी जीवोनी वात करे छे-‘मोक्षमार्गी जीवो ज्ञानरूपे परिणमता थका शुभाशुभ कर्मने हेय जाणे छे अने शुद्ध परिणतिने ज उपादेय जाणे छे.’
जुओ, आ जयचंदजी पंडित खुलासो करे छे. मोक्षमार्गी जीवो शुद्धतापणे थया थका, शुद्ध उपयोगपणे परिणमता थका शुभाशुभ कर्मने हेय जाणे छे. जुओ, अशुभ अने शुभ-बेयनेय हेय जाणे छे. शुभथी आत्माने लाभ थशे एम ज्ञानी जाणता नथी. वळी विषय-कषायना परिणाममां पण होंशथी जोडाता नथी. समाधान थतुं नथी एटले एने रागनुं आचरण थई जाय छे, पण ते एमां स्वच्छंदी नथी आ राग ठीक छे एवो भाव एने नथी, जो एवी ठीकपणानी बुद्धि होय तो तो ए मिथ्यात्व छे. विषयकषायमां सुख छे, आनंद-मझा छे एवी जेने बुद्धि होय ए तो
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मिथ्याद्रष्टि छे. धर्मी तो अंदर स्वभावमां टकीने रही शकता नथी अने एथी एने राग आवे छे, पण ते रागने हेय जाणे छे अने शुद्ध परिणतिने ज उपादेय जाणे छे.
‘तेओ मात्र अशुभ कर्मने ज नहि परंतु शुभकर्मने पण छोडी, स्वरूपमां स्थिर थवाने निरंतर उद्यमवंत छे-संपूर्ण स्वरूपस्थिरता थतां सुधी तेनो पुरुषार्थ कर्या ज करे छे.’
जुओ, शुं कहे छे? के मोक्षमार्गी जीवो मात्र अशुभ कर्मने (-भावने) ज नहि पण शुभ कर्मने (-भावने) पण छोडी स्वरूप-रमणता करे छे. पण शुभभावने छोडी स्वच्छंदमां जाय छे-अशुभ करे छे एम नथी. अहाहा...! संपूर्ण स्वरूपमां स्थिरता थाय त्यां सुधी स्वरूपनुं ज वलण कर्या करे छे, स्वरूपमां ज उद्यमी रहे छे. हवे कहे छे-
‘ज्यांसुधी, पुरुषार्थनी अधूराशने लीधे, शुभाशुभ परिणामोथी छूटी स्वरूपमां संपूर्णपणे टकी शकातुं नथी त्यांसुधी-जोके स्वरूपस्थिरतानुं अंर्त-आलंबन तो शुद्ध परिणति पोते ज छे तोपण अंर्त-आलंबन लेनारने जेओ बाह्य आलंबनरूप कहेवाय छे एवा शुभ परिणामोमां ते जीवो हेयबुद्धिए प्रवर्ते छे.’
जुओ, पुरुषार्थनी कचाशने लीधे उपयोग संपूर्णपणे टकीने रहेतो नथी तो तेओ शुभ परिणामोमां-व्रत, तप, भक्ति, स्वरूपना विचार, इत्यादिमां हेयबुद्धिए प्रवर्ते छे. आ शुभ परिणामो बाह्य आलंबन छे एटले के निमित्तरूपे छे. एनाथी शुद्ध प्रगटशे एम नहि, पण उपयोग शुद्धमां टकयो नथी त्यारे देव-गुरु-शास्त्रनी भक्ति, स्वरूपना विचार, व्रत, तप आदि शुभभावमां तेओ हेयबुद्धिए प्रवर्तता होय छे. हवे कहे छे-
‘परंतु शुभ कर्मोने निरर्थक गणी छोडी दईने स्वच्छंदपणे अशुभ कर्मोमां प्रवर्तवानी बुद्धि तेमने कदी होती नथी.’
शुभ अने अशुभ बन्नेने तेओ बंधनुं कारण जाणे छे तेथी तेमां एमने सुखबुद्धि नहि होवाथी शुभने छोडीने शुद्धोपयोगपणे परिणमे छे पण शुभने छोडीने स्वच्छंदी थई अशुभमां प्रवर्तवानी तेमने कदीय भावना थती नथी. ज्ञानीने शुभाशुभ भाव बन्ने यथासंभव आवे छे, पण अहीं तेने स्वछंद परिणमन होवानो निषेध कर्यो छे.
केटलाक ज्ञाननी वातो करे अने व्यभिचार अने लंपटपणुं सेवता होय अने कहे के अमारे शुं? ए तो इन्द्रियो इन्द्रियोनुं काम करे; शरीर अने इन्द्रियो तो जड छे, जड जडनुं काम करे एमां अमारे शुं? भाई! ए तो संसारमां उंडे डूबवाना, केमके ए तो निरर्गल स्वच्छंद कषाय प्रवृत्ति छे. अहीं कहे छे-आवा एकांत अभिप्रायथी रहित ज्ञानी जीवो होय छे.
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हवे कहे छे-‘आवा जीवो-जेओ एकांत अभिप्राय रहित छे तेओ-कर्मनो नाश करी, संसारथी निवृत्त थाय छे.’
अहाहा...! जेमने आनंदनो नाथ चैतन्यमहाप्रभु द्रष्टिमां आव्यो अने तेना आश्रये जेनी परिणति निर्मळ शुद्ध थई ते एकांत अभिप्रायथी रहित छे. उपयोग अंदर स्थिर थईने टकतो नथी तो तेओ शुभाशुभ भावमां जोडाय छे पण तेमने तेनो अभिप्राय नथी. एकला बहारना जाणपणाथी ज मुक्ति थाय वा शुभभावथी ज मुक्ति थाय एवो एमने एकांत अभिप्राय नथी. आहाहा...! आवा जीवो शुद्ध चैतन्यस्वभावनुं उग्र आलंबन लईने शुद्ध परिणति द्वारा कर्मनो नाश करीने संसारथी निवृत्त थाय छे.
आत्मा पोताना शुद्ध चैतन्यस्वभावना आलंबनथी जेटली शुद्धता प्रगट करे छे तेटलो (पर्यायमां) शुद्ध थाय छे, परंतु परिपूर्ण शुद्ध परिणति न थाय त्यां सुधी तेने पुण्य-पापना भाव आवी जाय छे पण तेमां एने हेयबुद्धि छे. हेयबुद्धि एटले शुं? के एवा भाव एने अवशे आवी पडे छे पण एनो एने आदर नथी, एमां एने उपादेयबुद्धि, सुखबुद्धि के आत्मबुद्धि नथी. शुभनो व्यवहार आवे खरो अने कदाचित् अशुभ भाव पण आवे खरो पण एमां एने रुचिनो भाव नथी, एनुं एने पोसाण नथी. आवी वातो छे बधी अंदरनी.
आ समज्या विना जीव चोरासीना अवतार करी-करीने रखडी मर्यो छे. वर्तमानमां अहीं मोटो करोडपति शेठीओ होय अने मरीने कुतरीने पेटे गलुडियुं थाय; केमके स्वरूपनी द्रष्टिनुं भान नथी अने अशुभने छोडतो नथी, निरंतर माया, कपट, कुटिलताना भावना सेवनमां रच्योपच्यो रहे छे एटले एनुं फळ एवुं ज आवे. एनुं फळ बीजुं शुं होय? अहीं कहे छे-एकांत अभिप्रायथी रहित थई जे शुद्धात्मानुं सेवन करे छे ते ज कर्मनो नाश करी संसारथी निवृत्त थई जाय छे.
हवे पुण्य-पाप अधिकारने पूर्ण करतां आचार्यदेव ज्ञाननो महिमा करे छेः-
आ पुण्य-पाप अधिकारनी छेल्ली त्रण गाथाओ पछीना कळशोमांथी छेल्लो कळश छे. शुं कहे छे एमां? के-‘पीतमोहं’ जेणे मोहरूपी मदिरा पीधी होवाथी ‘भ्रम–रस–भरात् भेदोन्मादं नाटयत्’ जे भ्रमना रसना भारथी (अतिशयपणाथी) शुभाशुभ कर्मना भेदरूपी उन्मादने (गांडपणाने) नचावे छे.........
अहाहा...! शुं कह्युं? शुभभाव-व्यवहाररत्नत्रयादिना भाव ठीक-भला छे अने अशुभभाव अठीक-बूरा छे-एम बेमां जे उन्मादपणे भेद पाडे छे तेओ, जेम दारू पीने कोई पागल थई जाय तेम मिथ्यात्वना जोरे भ्रमणारूप रसने पीने पागल थई गया छे एम कहे छे. मोहरूपी दारूना अमलथी उत्पन्न भ्रमणाना रसनी अतिशयताथी,
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पुण्य ठीक छे अने पाप अठीक छे-एम पुण्य-पापमां भेद पाडीने जेओ उन्मादने नचावे छे तेओ पागल थई गया छे. हवे आवी वात लोकोने आकरी पडे; पुण्यनो पक्ष थई गयो छे ने?
व्यवहारथी (निश्चय) थाय, व्यवहारथी थाय; व्यवहारथी थाय-एम रटण थई गयुं छे ने? एम के-शुभभावथी भले न थाय पण एमां जे कषायनी मंदता छे एनाथी थाय. अहीं कहे छे-आवुं जे माने छे तेओ मिथ्यात्वना जोरथी मोहरूपी दारू पीने पागल थई गया छे.
त्यारे तेओ कहे छे-व्यवहारथी पण थाय अने निश्चयथी पण थाय एम नहि मानो तो एकांत थई जशे; प्रमाणज्ञान करवुं होय तो आम बन्ने मानवां जोईए.
समाधानः– भाई! आमां ज्ञान करवानी वात तुं कयां करे छे? ए (-शुभाशुभ भाव) जाणवा लायक (करवा लायक नहि) छे एम तुं कयां कहे छे? तुं तो ए बेमांथी पुण्यने कारणे धर्म थाय अने पापने कारणे धर्म न थाय एम कहे छे. शुभभावथी शुद्धता थाय अने अशुभभावथी न थाय एम तुं भेद पाडे छे. ज्यारे छे तो बंनेय जाणवा योग्य मात्र.
ज्यारे निश्चयथी आत्मा स्वस्वरूपना आश्रये निर्विकार स्वसंवेदन-प्रत्यक्षनो अनुभव करे छे त्यारे सम्यग्दर्शन पामे छे. ते काळमां जे व्यवहार होय छे तेने ते जाणे छे. जाणवानो एमां कयां वांधो छे? जे राग होय छे तेने हेय तरीके जाणे छे. आ प्रमाणज्ञान छे. व्यवहार होतो नथी एम वात नथी. पूर्ण वीतराग न थाय त्यां सुधी व्यवहार आवे छे, पण एनाथी निश्चय पमाय, एनाथी शुद्धता थाय, ए (मोक्षनुं) साधन थाय एम तो मोहरूपी मदिरा पीने उन्मत्त-पागल थयेला होय तेओ माने छे एम अहीं कहे छे. कर्म-शुभभाव वळी साधन केवुं? ए तो पहेलां आवी गयुं के कर्म-शुभभाव मोक्षमार्गनुं घातक एटले विघ्न करनारुं छे, विरुद्धस्वभावी छे अने स्वयं बंधनुं कारण छे. हवे कर्मधारा जे बंधनुं कारण छे ते मोक्षनुं साधन केम थाय? (न थाय). भाई! शुभथी पण थाय अने शुद्धथी पण थाय-एम अनेकान्त छे एवुं माननारा तो बेयने (स्वभाव-विभावने) भेगा (एक) करीने मानता होवाथी एकांत मिथ्यात्वरूप मदिराने पीने पागल थयेला छे-एम अहीं कह्युं छे.
हवे कहे छे-‘तत् सकलम् अपि कर्म’ एवा समस्त कर्मने ‘बलेन’ पोताना बळ वडे ‘मूलोन्मूलं कृत्वा’ मूळथी उखेडी नाखीने ‘ज्ञानज्योतिः भरेण प्रोज्जजृम्भे’ ज्ञानज्योति अत्यंत सामर्थ्य सहित प्रगट थई.
जुओ, समस्त कर्म एटले शुभ हो के अशुभ, पुण्यभाव हो के पापभाव-बन्नेय विकारी कर्म छे, आत्माना स्वभावरूप धर्म तो एकेय नथी, एवा समस्त
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कर्मने एटले पुण्य-पापना भावने पोताना बळथी मूळथी उखेडी नाखे छे. ‘पोताना बळथी’- भाषा जुओ! पोताना बळथी एटले शुद्ध चैतन्यस्वभावना आश्रयना बळ वडे पुण्य-पाप बेयनो जे मूळथी नाश करे छे ते धर्मी छे. पोताना बळथी एटले कर्म मंद पडे अने (धर्म) प्रगट थाय एम नहि पण स्वभावना आश्रयना पुरुषार्थ वडे पुण्य-पापनो नाश करे छे-एम वात छे.
त्यारे कोई कहे छे-जे समये जे पर्याय थवानी होय ते समये ते ज पर्याय थाय; एमां कोई फेरफार न करी शके. हवे आम छे तो बीजो पुरुषार्थ करवानो कयां रहे छे?
बापु! जे समये जे थवानुं होय ते समये ते ज थाय एवो जेने अंतरमां निर्णय थयो छे एनी द्रष्टि तो त्रिकाळी ज्ञायकनी सन्मुख छे अने ए ज्ञायकसन्मुखनी द्रष्टि छे ए ज पुरुषार्थ छे. अहाहा...! हुं एक शुद्ध ज्ञायकस्वभावी छुं एवी द्रष्टिना पुरुषार्थमां जे समये जे थाय तेनुं मात्र ते ज्ञान करे छे. (जे थाय तेने हुं करुं के पलटी दउं एवो एने अभिप्राय रहेतो नथी). गजब वात छे, भाई! शुं थाय? मार्गमां फेरफार थई गयो!
पराश्रयरूप समस्त कर्मने स्वआश्रयना बळथी मूळथी उखेडी नाखे छे. जेम वृक्ष ऊभुं होय तेनां पांदडां तोडवामां आवे तोय ते थोडा वखतमां नवां आवे. पण जो वृक्षने मूळथी उखेडी नाखे तो नवां पांदडां न आवे, होय ते नाश पामी जाय. तेम अहीं कहे छे-पुण्य- पापरूप समस्त कर्मने स्वरूपना आश्रये मूळमांथी उखेडी नाखे छे एटले के अभिप्रायमांथी तेनो नाश करे छे, जेथी नवां न आवे पण अल्पकाळमां नाश पामी जाय.
हवे सत्यनी (-आत्मानी) श्रद्धानां ठेकाणां न होय अने बहारथी व्रत ने तप ने नियम धारण करे पण भाई! ए तो बधां बाळव्रत, बाळतप अने बाळनियम छे. हवे आथी माणसने दुःख लागे तो कहीए छीए-दुःख लागे तो क्षमा करजे, भाई! तारो आत्मा पण स्वरूपथी भगवान छे, अमारो साधर्मी छे. बाकी पर्यायमां मिथ्याश्रद्धाननो दोष छे तेनो पक्ष केम करीने करीए? वस्तुस्थिति ज जे छे ते छे; एमां शुं थाय? एना (वस्तुस्थितिना) विरोधनुं फळ बहु आकरुं छे बापु! सत्यथी विरुद्ध श्रद्धानुं एटले मिथ्यात्वनुं परंपरा फळ नरक अने निगोद छे. अमने एवा प्राणी प्रत्ये वेर न होय, विरोध न होय. अमने तो ‘सत्वेषु मैत्री’ बधा जीवो प्रत्ये मैत्रीभाव छे. केमके बधा अंदर भगवान छे. वस्तु तरीके वस्तु तो अंदर परमात्मस्वरूपे ज छे, एनी पर्यायमां भूल छे ए तो स्वरूपना आश्रये नीकळी जवा योग्य छे.
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अहीं कहे छे-पुण्य-पापना भावरूप समस्त कर्मने मूळथी उखेडी नाखीने ज्ञानज्योति अत्यंत सामर्थ्य सहित प्रगट थई. अहाहा...! जेने चैतन्यसूर्यनो प्रकाश प्रगट थयो तेणे अज्ञानरूप अंधकारनो नाश कर्यो. पुण्य-पापना भाव छे ते अज्ञानरूप अंधकार छे. हवे एमां शुभनी-पुण्यनी शुं होंश करीए? भाई! आवी ज वस्तुस्थिति जगतमां छे एनो ज्ञानमां स्वीकार कर.
भगवान आत्मा चैतन्यबिंब प्रभु ज्ञायकस्वभावी देव छे. तेनो आश्रय लईने जेणे पुण्य-पापना भावनो मूळमांथी नाश कर्यो एने निर्मळ ज्ञानज्योति अतिशयपणे प्रगट थई. जे पुण्य-पापनो संतापरूप, कलेशरूप, दुःखरूप स्वाद हतो तेने छेदीने भगवान आत्माना आश्रये तेने चैतन्यना निराकुळ आनंदनो स्वाद आव्यो, अंतरमां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निर्मळ चैतन्यनी परिणति प्रगट थई. अहाहा...! वस्तु तो अखंड चैतन्यज्योतिरूप हती ज; तेनो आश्रय लेवाथी शुभाशुभ कर्मने छेदीने वर्तमान पर्यायमां ज्ञानज्योति निर्मळ प्रगट थई अर्थात् शुद्धरत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग प्रगट थयो. आत्माना स्वभावमां ज्यां शुद्ध उपयोगनुं अतिशय सामर्थ्य प्रगट कर्युं, ज्यां वीर्यनुं स्फूरण अंतरमां कर्युं, त्यां हीन पुण्य-पापना भाव मूळथी छेदाई गया, व्यवहाररत्नत्रयनो राग पण छेदाई गयो अने शुद्धरत्नत्रयरूप वीतराग परिणति उत्पन्न थई.
स्वभावनी सन्मुख थतां अने विभावथी विमुख थतां, व्यवहाररत्नत्रयना रागथी पण विमुख थईने ज्ञानज्योति अत्यंत सामर्थ्य सहित प्रगट थई. हवे कहे छे-केवी छे ते ज्ञानज्योति? ‘कवलिततमः’ जे अज्ञानरूपी अंधकारने कोळियो करी गई छे अर्थात् जेणे अज्ञानरूपी अंधकारनो नाश कर्यो छे.
जुओ, पुण्य-पापरूप भाव छे ते अज्ञान छे, केमके तेमां ज्ञानज्योति नथी. अहीं अज्ञान एटले मिथ्यात्व एम नहि, पण पुण्य-पापना भावमां ज्ञानना-चैतन्यना प्रकाशनुं किरण नथी तेथी ते अज्ञान छे. ज्ञानज्योति अज्ञानरूपी अंधकारनो कोळियो करी गई. भाषा तो जुओ! शुभभाव मोक्षमार्गीने आवे छे तेथी शुभथी धर्म थशे अने अशुभथी नहि थाय- एवा अज्ञानरूपी अंधकारनो तेणे (ज्ञानज्योतिए) नाश करी नाख्यो.
वळी केवी छे ते ज्ञानज्योति? तो कहे छे-‘हेला–उन्मिलत्’ जे लीलामात्रथी (-सहज पुरुषार्थथी) उघडती-विकसती जाय छे. लीलामात्रथी एटले अंदर रमत करतां करतां, आत्मानी अंदर आनंदनी मोज करतां करतां ज्ञानज्योति विकसती जाय छे. शुभाशुभभाव जे दुःखरूप हता तेने उखेडी नाख्या एटले ज्ञानज्योति सहजपणे क्षणे-क्षणे निर्मळ विकसती जाय छे, प्रगट थती जाय छे. आवो धर्म बापु! माणसने परंपराथी जे (खोटुं) मनाणुं होय एमां फेर पडे एटले आकरुं लागे, पण भाई! मार्ग तो आ ज छे.
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अनंता तीर्थंकरो अने अनंता संतोए प्रवाहरूपे आ ज मार्ग कह्यो छे. आगळनी गाथाओमां वात आवी गई के-
-शुभाशुभ भावनी जे रुचि एवो जे मिथ्यात्वभाव ते समकितनो घातक छे -शुभभाव स्वयं बंधस्वरूप ज छे, अने -शुभभाव ए सम्यग्दर्शनादि मोक्षना कारणरूप भावोथी विपरीत भावस्वरूप छे.
जुओ, सम्यग्दर्शनादि अबंध स्वरूप छे, अने शुभभाव बंधस्वरूप छे अने शुभभावनी रुचि सम्यक्त्वादिनी घातक छे. हवे जे घातक छे ते आत्माने सम्यग्दर्शनादिमां मदद केम करे? (न करे). भाई! ज्यां भेद साधक अने अभेद साध्य-एम कह्युं छे त्यां तो उपचारथी आरोप आपीने कह्युं छे. जो एम न होय तो जिनवाणीमां विरोध आवे; केमके एककोर घातक कहे अने वळी बीजी कोर साधक छे एम कहे ए तो विरोध थयो. ए विरोध टाळवानो उपाय शुं? जे साधक कह्युं ए तो व्यवहारनयथी आरोपथी कह्युं छे. प्रज्ञाछीणी वडे रागथी भिन्न पडीने जे अंतरअनुभव कर्यो ते वास्तविक (मोक्षनो) साधक छे. ते काळमां जे व्यवहारनुं वर्तन छे तेने उपचारमात्रथी आरोप आपीने साधक कहेवामां आवे छे. आम वात छे. वस्तुस्थिति ज आवी छे एमां कोईनो कांई (विपरीत) पक्ष चाली शके नहि.
‘लीलामात्रथी’ एम कह्युं ने? एटले के चैतन्यस्वभावने ज्यां द्रष्टिमां पकडयो अने तेना अनुभवमां स्थिरता अने रमणता जामी त्यां सहज आनंदनी दशा विकसती जाय छे. वळी ‘लीलामात्रथी’ एम केम कह्युं? तो कहे छे के-चारित्र बहु कष्टदायक छे एम केटलाक लोको माने छे तेनो आ शब्द वडे परिहार कर्यो छे, अर्थात् तेमनी ए मान्यता खोटी छे एम आ शब्द द्वारा स्पष्ट कर्युं छे. अहाहा...! धर्मी जीव लीलामात्रथी एटले सहजपणे आनंदनी लहेर करतो करतो चारित्रने साधे छे एम कहेवुं छे.
वळी ते ज्ञानज्योति केवी छे? तो कहे छे-‘परमकलया सार्धम् आरब्धकेलि’ जेणे परमकळा अर्थात् केवळज्ञान साथे क्रीडा शरू करी छे एवी ते ज्ञानज्योति छे. (ज्यां सुधी सम्यग्द्रष्टि छद्मस्थ छे त्यांसुधी ज्ञानज्योति केवळज्ञान साथे शुद्धनयना बळथी परोक्ष क्रीडा करे छे, केवळज्ञान थतां साक्षात् थाय छे).
अहाहा...! साधकभाव जे छे ते केवळज्ञाननी साथे क्रीडा करे छे एटले शुं? एटले के तेने साधकभाव मटीने अल्पकाळमां केवळज्ञान थशे. जेम बीज उगी छे तो १३ दिवसे पूनम थये ज छुटको, तेम जेने ज्ञानकला जागी एनी ज्ञानकळाए मति-श्रुतनी कळाने केवळज्ञाननी कळा साथे जोडी दीधी छे. षट्खंडागममां कह्युं छे के-मति-श्रुतज्ञान केवळज्ञानने बोलावे छे. एटले के अल्पकाळमां ए (मटीने) केवळज्ञान थशे. हवे आवी वात बीजे कयां छे भाई?
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अरे! शुभभावमां तुं संतोष मानीश पण ए वडे चैतन्यरत्न हाथ नहि आवे. मिथ्यात्वना भावमां तो भविष्यना अनंत नरक-निगोदना भाव पडया छे. ए भवनुं निवारण करवानो आ एक ज उपाय छे के-चैतन्यस्वभावनी सन्मुखता करवी, स्वभावनो अनुभव करवो अने स्वभावनी आनंददशानुं वेदन करवुं. जेणे स्वरूपनुं ज्ञान, सम्यक् मति-श्रुतज्ञान प्रगट कर्युं छे तेणे केवळज्ञान साथे रमत मांडी छे, अर्थात् भवनो अभाव करवानी रमत मांडी छे. आ हुं (साधक पर्याय, अल्पज्ञान) ते एनो (केवळज्ञान स्वभावनो) अंश छुं, ए अंशीने (केवळज्ञानस्वभावनी पूर्णताने) हुं प्रगट करुं. आशय एम छे के शुभभाव के व्यवहाररत्नत्रयनो भाव ए कांई स्वभावनो अंश नथी; ए तो विभावभाव छे. एनाथी रहित जे भगवान आत्मानां श्रद्धान-ज्ञान प्रगटयां ए स्वभावनो अंश छे अने केवळज्ञान स्वभावनी पूर्णता छे. आ स्वभावनो अंश पूर्णतानी साथे रमत मांडे छे. अहाहा...! एने ध्येयमां द्रव्य छे अने साध्य केवळज्ञान (परिपूर्णता) छे.
आ ज्ञानज्योति शुद्धनयना बळथी केवळज्ञान साथे क्रीडा करे छे. एटले के ध्रुवने ध्येय बनावीने एणे पूर्ण पर्यायने साध्य बनावी छे. शुद्धनयना बळथी एटले शुद्धनयनो विषय जे शुद्ध आत्मा तेने ध्येय बनावीने शुद्धनयनी पूर्णता जे केवळज्ञान तेनो उद्यम मांडयो छे. जोके शुद्धनयनो विषय तो परिपूर्ण ध्रुव त्रिकाळी द्रव्य छे, पण ज्यारे केवळज्ञान थाय छे त्यारे ध्रुवनो आश्रय करवानो रहेतो नथी एटले शुद्धनयनी पूर्णता केवळज्ञानमां थाय छे एम कहेवाय छे. ज्यां सुधी पूर्णता थई नथी त्यां सुधी शुद्धनयनो एटले तेना विषयभूत द्रव्यनो आश्रय होय छे अने पूर्णता थतां तेनो (द्रव्यनो) आश्रय करवानो रहेतो नथी एटले त्यां शुद्धनय पूर्ण थई गयो एम कहे छे. आ प्रमाणे केवळज्ञाननी पर्याय थतां शुद्धनयनी पूर्णता थई एम कहेवामां आवे छे. (ज्यां सुधी ज्ञाननी पर्यायनो उपयोग शुद्धनयना विषयभूत ध्रुव आत्मद्रव्यमां परिपूर्णपणे जामतो नथी त्यां सुधी शुद्धनयनी अपूर्णता अर्थात् अल्पज्ञान छे अने ज्यारे ज्ञाननो उपयोग शुद्धनयना विषयभूत आत्मद्रव्यमां परिपूर्ण जामी गयो, पछी उपयोग पलटतो नथी-ज्ञेयथी ज्ञेयांतरपणे थतो नथी, एक ध्रुवमां ज जामेलो रहे छे त्यारे तेने शुद्धनयनी पूर्णता अर्थात् केवळज्ञान कहेवाय छे).
११ मी गाथामां भगवान पूर्णानंदनो नाथ त्रिकाळी ध्रुव अखंड एक चैतन्यभावी सत्यार्थ-भूतार्थ वस्तुने शुद्धनय कह्यो. त्यां शुद्धनयना विषय साथे अभेद करीने एने शुद्धनय कह्यो. अहीं केवळज्ञान थतां शुद्धनयनो आश्रय पूरो थयो, पछी एनो आश्रय करवानो रह्यो नहि ए अपेक्षाए शुद्धनयनी पूर्णताने केवळज्ञान कह्युं. आस्रव अधिकारमां आ वात आवे छे. अरे भाई! होंशथी तुं हा तो पाड; एनो विरोध न कर, भाई! केमके एनो विरोध थतां तारो पोतानो ज विरोध थाय छे. ज्यां पुण्यभावनुं बळपणुं थाय छे त्यां पोतानुं बळपणुं ढंकाई जाय छे. अहा! शुभभावनी होंश करतां एनी
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भावना थई जाय छे; अने एनी भावना थतां मिथ्यात्व थाय छे. एनुं फळ बहु आकरुं छे भाई!
अहीं कहे छे के चैतन्यस्वभावनी भावना एटले एकाग्रतारूप जे दशा प्रगटी ते पूर्ण एकाग्रताने साधे छे. एनी साथे क्रीडा मांडी छे ने! तेथी ते पूर्ण एकाग्रता करशे ज. गजबनी वात छे! अंतरमां बेसवी कठण छे; जेना भवना आरा नजीक छे तेने ते गोठी जशे.
मिथ्याद्रष्टिने, भले ते व्यवहारने साधे तोय निश्चय असाध्य ज छे. पुण्यना प्रेममां पडया छे ते असाध्य दशामां पडया छे. अरे! तेओ महा असाध्य दशामां-निगोदमां ज्यां अक्षरना अनंतमा भागे क्षयोपशम खुल्लो छे त्यां जशे! त्यां वस्तु तो पूर्णानंदस्वरूप परिपूर्ण चैतन्यमय छे, पण पर्यायमां उघाड तो अक्षरना अनंतमा भागे ज छे. अक्षर एटले क्षय-नाश न थाय एवुं जे केवळज्ञान एना अनंतमो भाग त्यां निगोदमां उघाड रहेवा पामे छे. भाई! जेणे सत्यने आळ दीधां छे, पोताना सच्चिदानंद भगवानने आळ दीधां छे ते आळ दीधेलानी एवी हीन पर्याय रहे छे के पोते जीव छे एनी एने तो खबर न मळे पण बीजा जीव पण ‘आ जीव छे’ एम मानवा तैयार न रहे. आजे पण एवा निगोदना अनंता जीव छे जेओ पोतानी हयातीने आळ आपता थका-आ शरीर ते हुं, राग ते हुं -एम परमां एकत्वबुद्धि करीने चिरकाळथी पडेला छे.
चोथी गाथामां न आव्युं? के ‘सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स...’ निगोदमांथी हजु जे जीवो नीकळ्या नथी तेमणे रागनी कथा सांभळी छे एम त्यां कह्युं. मतलब के तेओ रागने ज वेदे छे. त्यां पण क्षणमां शुभ, क्षणमां अशुभ-एम जे परिणाम थाय छे तेने ज अनुभवे छे, अने भगवान आत्मा एककोर रही जाय छे.
बापु! सत्यनो मार्ग कोई अचिंत्य अलौकिक छे. जेना फळमां जे अनंती भूतकाळनी पर्यायो गई एनाथी अनंतगणी भविष्यनी पर्यायो अनंत ज्ञान, अनंत सुख अने अनंत आनंदना वेदनयुक्त पर्यायो फळे छे ते मोक्षनो उपाय महा अलौकिक छे. अहीं कहे छे-जेने आवो मोक्षमार्ग मळ्यो, ज्ञानज्योति प्रगट थई ते शुद्धनयना बळथी केवळज्ञान साथे परोक्ष क्रीडा करे छे, अने केवळज्ञान थतां साक्षात् थाय छे-एटले के केवळज्ञान थतां शुद्धनय पूर्ण थाय छे. अहाहा...! एक कळशमां केटली बधी वात मूकी छे! शुद्धनयना बळे जे केवळज्ञान साथे रमत मांडी छे ते रमत पूरी थये केवळज्ञान थईने रहेशे. अहो! शुं अद्भुत मार्ग! अने शुं अद्भुत दिगंबर संतोनी कथनी!
‘पोताने (ज्ञानज्योतिने) प्रतिबंधक कर्म के जे शुभ अने अशुभ एवा
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भेदरूप थईने नाचतुं हतुं अने ज्ञानने भुलावी देतुं हतुं तेने पोतानी शक्तिथी ऊखेडी नाखी ज्ञानज्योति संपूर्ण सामर्थ्य सहित प्रकाशित थई.’
जुओ, कर्म तो एक ज जात छे; शुभ अने अशुभ भाव बन्नेथी बंधन थतुं होवाथी कर्म एक ज जात छे. तोपण शुभभावनी जात जुदी अने अशुभभावनी जात जुदी; पुण्यबंधनी प्रकृति जुदी अने पापबंधनी प्रकृति जुदी एम कर्म भेदरूप थईने नाचतुं हतुं, परिणमतुं हतुं अने ज्ञानने एटले आत्माने भुलावी देतुं हतुं. शुभभाव ठीक अने अशुभ अठीक-एम भेदरूप थईने कर्म शुद्ध चैतन्यस्वरूप चिदानंदमय भगवान आत्माने भुलावी देतुं हतुं. (शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा ठीक अने शुभाशुभकर्म अठीक एम भेद पाडवा जोईए एने बदले शुभ ठीक अने अशुभ अठीक एम खोटा भेद पाडीने कर्म ज्ञानने भुलावी देतुं हतुं). हवे ते कर्मने पोतानी शक्तिथी एटले शुद्ध चैतन्यस्वभावना आश्रयना पुरुषार्थथी उखेडी नाखीने ज्ञानज्योति संपूर्ण सामर्थ्य सहित प्रकाशित थई.
‘आ ज्ञानज्योति अथवा ज्ञानकळा केवळज्ञानरूपी परमकळानो अंश छे अने केवळज्ञानना संपूर्ण स्वरूपने ते जाणे छे तेम ज ते तरफ प्रगति करे छे.’
ल्यो, लोकोने आमांय विवाद; एम के केवळज्ञाननो अंश आ होय? केवळज्ञान प्रगटे ते पूर्णरूपे प्रगटे छे, तो एनो वळी अंश केवो? केमके केवळज्ञानावरणीय घाती कर्मनी प्रकृति तो सर्वघाती छे, ते टळे तो एकी साथे टळे, एनो थोडो अंश कांई उघडे नहि. वळी मति- श्रुतज्ञानावरणीय देशघाती प्रकृति छे, तेनो उघाड ए तो क्षयोपशमनो अंश छे. एने केवळज्ञाननो-क्षायिकनो अंश केम कहेवाय?
समाधानः– मति-श्रुतज्ञाननो जे अंश सम्यक् प्रगट थयो तेने केवळज्ञाननो अंश कह्यो केमके बन्ने एक ज सम्यग्ज्ञान (शुद्ध चैतन्यनी)नी जातिना ज छे. मति-श्रुतज्ञान छे ते केवळज्ञानना परिपूर्ण स्वरूपने जाणे छे अने ते अंश वधी वधीने केवळज्ञान थशे. जेम बीजनो चंद्र उगे छे ते बीजने प्रकाशे छे अने चंद्रना पूरा आकारने पण बतावे छे. बीजना चंद्रमां थोडी रेखा चमकती प्रगट देखाय छे अने तेना प्रकाशमां बाकीनो आखो आकार पण झांखो जणाय छे. आम बीजनो चंद्र पूर्ण चंद्रने बतावे छे. तेम मति-श्रुतज्ञाननो अंश पूर्ण केवळज्ञानने बतावे छे.
मति-श्रुतज्ञान पूर्णने जाणे छे अने पूर्ण तरफ गति करे छे. शुभाशुभभाव प्रगति नथी करता केमके ए तो विकार छे. शुभाशुभभावरहित जे निर्मळ मति-श्रुतज्ञाननो अंश छे ते अंश वधतो-वधतो परिपूर्ण केवळज्ञानरूप थाय छे. जेम बीजनी त्रीज, चोथ, पांचम,.. . वगेरे थईने पूनम थाय तेम मति-श्रुतनो अंश वधी-वधीने केवळज्ञानने प्राप्त थशे. तेथी एम कह्युं छे के- ‘‘ज्ञानज्योतिए केवळज्ञान साथे क्रीडा मांडी छे.’’
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‘ज्ञानकळा सहजपणे विकास पामती जाय छे अने छेवटे परमकळा अर्थात् केवळज्ञान थई जाय छे.’ अहीं सिद्धांत शुं सिद्ध करवो छे? के शुभाशुभ भावथी भिन्न पडेलुं ज्ञान वधीने केवळज्ञान थई जाय छे. ए सम्यग्ज्ञानज्योति पोताथी वधती जाय छे; एने रागनी मददनी जरूर नथी. व्यवहाररत्नत्रय होय एनाथी प्रगति थाय, आगळ वधाय एम नथी. जोके केवळज्ञान भणी गति करता ज्ञानीने वचमां शुभभाव आवशे खरो, पण एना वडे केवळज्ञान भणी गति थशे एम छे नहि. जेटला अंशे शुभ-अशुभथी भिन्न पडीने निर्मळ थयो छे तेटला अंशे ते गति करे छे अने ते निर्मळ अंश वधतो वधतो केवळज्ञानने-पूर्णने प्राप्त थशे. एटले के शुभभावनो अभाव करीने पूर्णने पामशे, पण शुभभाव वधी वधीने केवळज्ञान पामशे एम छे नहि. आवो मार्ग छे, बापु! पूर्वे कोई दि कर्यो नथी एटले नवो लागे छे पण ए पोतानी ज जातनी चीज छे, पोताना घरमां ज पडी छे. अरे, पोते ज ए-रूपे छे. भगवान पूर्णानंदनो नाथ जे सदाय परमात्मस्वरूपे ज छे ते ज (पर्यायमां) परमात्मरूपे प्रगट थाय छे.
‘पुण्य-पापरूपे बे पात्ररूप थयेलुं कर्म एक पात्ररूपे थईने (रंगभूमिमांथी) बहार नीकळी गयुं.’
कर्मरूपे थईने बहार नीकळी गयुं. ए पात्र जे वेश हता ते छोडी दईने कर्मरूप थईने बहार नीकळी गयुं. जयसेनाचार्यनी टीकामां तो जे पुण्य छे तेने पाप ज कह्युं छे. पुण्य-पाप एम बे नथी पण बेय एक पाप ज छे एम कह्युं छे. योगसारमां पण कह्युं छे के-
लोकोने आ आकरुं लागे छे पण शुं थाय? वस्तुनी स्थिति ज आवी छे. एने कचडी- मचडीने बीजी रीते बेसाडवा जईश तो ए नहि बेसे, भाई! मात्र तने खेद अने दुःख ज थशे.
‘कर्म सामान्यपणे एक ज छे तोपण तेणे पुण्य-पापरूपी बे पात्रोनो स्वांग धारण करीने रंगभूमिमां प्रवेश कर्यो हतो. तेने ज्ञाने यथार्थपणे एक जाणी लीधुं त्यारे ते एक पात्ररूप थईने रंगभूमिमांथी बहार नीकळी गयुं, नृत्य करतुं अटकी गयुं.’
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कुशील, परिग्रह इत्यादिना अशुभभाव-ए बेय भाव विकार छे, बेमांथी एकेय धर्म के धर्मनुं कारण नथी. बेय बंधस्वरूप अने बंधनां ज कारण छे. तेथी बेय कर्म-सामान्यपणे एक ज छे.
पुण्य-पापना तो एना बे स्वांग-भेख छे. जेम नाटकमां एक ज पुरुष जुदा जुदा पात्ररूपे स्वांग धारण करे तेम कर्म पुण्य अने पापना स्वांग धारण करीने रंगभूमिमां प्रवेश्युं हतुं तेने ज्ञाने यथार्थ जाणी लीधुं. भगवान आत्मा ज्ञाता-द्रष्टा स्वभावी छे. तेमां एकाग्र थयेला ज्ञाने पुण्य-पापना स्वांग धारण करेला कर्मने यथार्थ जाणी लीधुं. पहेलां बेमां फेर जणातो हतो ते मिथ्यात्व हतुं. पण अंतरमां एकाग्र थतां जे ज्ञान प्रगट थयुं तेणे जाणी लीधुं के बेय एक ज छे, विभाव छे, पुद्गलनी जात छे, फरक कांई नथी, बन्नेय संसारनुं ज कारण छे. आम यथार्थ ज्ञान ज्यां प्रगट थयुं त्यां ते पुण्य-पापना स्वांग तजी दईने रंगभूमिमांथी कर्म बहार नीकळी गयुं. अहाहा...! आत्माए ज्यां ज्ञाननो भेख धारण कर्यो त्यां पुण्य-पाप पलायन थई गयां. हवे आ बधानो सरवाळो कहे छे-
ज्ञान भये दोऊ एक लखै बुध आश्रय आदि समान विचारे,
बंधके कारण है दोऊ रूप, इन्हैं तजि जिनमुनि मोक्ष पधारे.’’
अज्ञानी जीव पुण्यपरिणाम मोक्षमार्गना आश्रये छे अने पापपरिणाम बंधना आश्रये छे एम भेद पाडे छे. अज्ञानी पुण्यबंधमां शुभभाव निमित्त छे अने पापबंधमां अशुभभाव निमित्त छे-एम कारणभेद माने छे. वळी ते एक पुण्यप्रकृतिरूप छे बीजुं पापप्रकृतिरूप छे एक स्वरूपभेद माने छे. तथा पुण्यनो स्वाद भलो-मीठो अने पापनो स्वाद बूरो-कडवो माने छे. आ प्रमाणे ते कर्ममां भेद पाडी बन्नेने जुदां जुदां सुख दुःखनां करवावाळा माने छे.
परंतु पोते सच्चिदानंदस्वरूप पूर्णानंदनो नाथ प्रभु भगवान छे एनुं जेने भान थयुं ते धर्मी जीव पुण्य अने पाप बन्नेने एक ज जाणे छे. बन्ने बंधमार्गना आश्रये ज छे एम जाणे छे. पुण्य-पापना भाव बन्ने विकार छे अने बंधना ज कारण छे एम जाणे छे. बन्ने प्रकृति पुद्गलमय ज छे अने बन्नेनुं फळ पण पुद्गलमय ज छे एम यथार्थ जाणे छे.
पुण्यना फळमां मोटो देव थाय वा मोटो शेठ थाय अने स्त्री, कुटुंब-परिवार वगेरे संजोगो ठीक मळे, संपत्तिना ढगला थाय पण ए बधुं धूळ-माटी पुद्गल ज छे एम समकिती यथार्थ जाणे छे.
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प्रश्नः– आप धनादि संपत्ति वगेरेने धूळ-माटी कहो छो पण एना विना शुं चाले छे?
उत्तरः– एना विना न चाले ए तारी मान्यता भ्रम अने अज्ञान छे. ए तो कह्युं हतुं एक फेरा के स्वद्रव्य (-जीव) अनंता परद्रव्य (पुद्गलादि सर्व)ना अभावथी ज टकी रह्युं छे. जुओ, आ बे आंगळी छे ने? तेमां आ एकमां बीजीनो अभाव छे. बीजीनो अभाव छे तो आ एक पोताना भावे टकी रही छे. तेम सच्चिदानंद निर्मळानंदस्वरूप आ चैतन्य महाप्रभुमां कर्म-द्रव्यकर्म, भावकर्म अने नोकर्मादिनो अभाव छे एटले ए त्रिकाळ अस्तिपणे टकी रह्यो छे. भाई! आ शरीर, बायडी-छोकरां अने धूळना (-धनना) ढगला-ए बधानो एमां अभाव छे, सदाकाळ अभाव छे. ए बधाना विना ज एनुं जीवन चाले छे एटले ए टकी रह्यो छे. वस्तु सदाय पोताना भावथी अने परना अभावथी स्वयं टकी रही छे. (जो आत्मा धनादि परभावथी टके तो बे एक थई जतां आत्मानो अभाव थई जाय). हवे आवी वात छे त्यां आना विना न चाले एम माननारा तो मूढ मिथ्याद्रष्टि छे, संसारमां चारगतिमां रझळनारा- रखडनारा छे. समजाणुं कांई...!
प्रश्नः– आ छोकरा पैसा-बेसा रळे त्यारे (धंधामांथी) निवृत्ति मळे ने?
उत्तरः– आ पैसा-बैसा तो धूळेय नथी, सांभळने. ए कांई जीवनुं जीवतर छे? जीवनुं जीवतर तो चैतन्यप्राण वडे छे, धूळ वडे नहि; एनो तो जीवमां अत्यंत अभाव छे. अने निवृत्ति तो अंदर जे पुण्य-पापना विकल्पो थाय छे तेनाथी निवृत्त थतां-विरत्त थतां थाय छे. जेमां जन्म-मरणना अंत आवे एने निवृत्ति कहीए. भगवान आत्मानी सहज-प्राप्त परमानंदमय दशा ते निवृत्तिनो-मोक्षनो मार्ग छे. बाकी आ करो ने ते करो, व्रत करो ने दया करो ए बधो संसारनो मार्ग छे.
जिन भगवानना मार्गमां तो जिनमुनि पुण्य-पापनी भावना छोडीने अंतर चैतन्यस्वरूपमां उग्र लीनता करी पुण्य-पापरहित थईने मोक्ष पधारे छे. ते रागनी रमत छोडीने शुद्ध चैतन्यनी रमतमां सावधान थई उग्र पुरुषार्थ वडे सर्वरागरहित वीतरागपदने प्राप्त थई जाय छे-एम कहे छे. आ अधिकार पूरो थयो, ल्यो.
आ प्रमाणे भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत समयसार शास्त्र परनां परम कृपाळु सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीना प्रवचननो त्रीजो पुण्य-पाप अधिकार समाप्त थयो. इति.
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अथ प्रविशत्यास्त्रवः।
समररङ्गपरागतमास्रवम्।
अयमुदारगभीरमहोदयो
जयति दुर्जयबोधधनुर्धरः।। ११३ ।।
थया सिद्ध परमातमा, नमुं तेह, सुख आश.
प्रथम टीकाकार कहे छे के ‘हवे आस्त्रव प्रवेश करे छे’.
जेम नृत्यना अखाडामां नृत्य करनार माणस स्वांग धारण करीने प्रवेश करे छे तेम अहीं आस्त्रवनो स्वांग छे. ते स्वांगने यथार्थ जाणनारुं सम्यग्ज्ञान छे; तेना महिमारूप मंगळ करे छेः-
श्लोकार्थः– [अथ] हवे [समररङ्गपरागतम्] समरांगणमां आवेला, [महामद– निर्भरमन्थरं] महा मदथी भरेला मदमाता [आस्रवम्] आस्रवने [अयम् दुर्जयबोधधनुर्धरः] आ दुर्जय ज्ञान-बाणावळी [जयति] जीते छे- [उदारगभीरमहोदयः] के जे ज्ञानरूपी बाणावळीनो महान उदय उद्रार छे (अर्थात् आस्रवने जीतवा माटे जेटलो पुरुषार्थ जोईए तेटलो पूरो पाडे एवो छे) अने गंभीर छे (अर्थात् जेनो पार छद्मस्थ जीवो पामी शक्ता नथी एवो छे).
भावार्थः– अहीं नृत्यना अखाडामां आस्त्रवे प्रवेश कर्यो छे. नृत्यमां अनेक रसनुं वर्णन होय छे तेथी अहीं रसवत् अलंकार वडे शान्त रसमां वीर रसने प्रधान करी वर्णन कर्युं छे के ‘ज्ञानरूपी बाणावळी आस्त्रवने जीते छे’. आखा जगतने जीतीने मदोन्मत्त थयेलो आस्त्रव संगा्रमनी भूमिमां आवीने खडो थयो; परंतु ज्ञान तो तेना करतां वधारे बळवान योद्धो छे तेथी ते आस्त्रवने जीती ले छे अर्थात् अंतर्मुहूर्तमां कर्मोनो नाश करी केवळज्ञान उपजावे छे. एवुं ज्ञाननुं सामर्थ्य छे. ११३.
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तत्रास्रवस्वरूपमभिदधाति–
बहुविहभेया जीवे तस्सेव अणण्णपरिणामा।। १६४ ।।
तेसिं पि होदि जीवो य रागदोसादिभावकरो।। १६५ ।।
मिथ्यात्वमविरमणं कषाययोगौ च संज्ञासंज्ञास्तु।
बहुविधभेदा जीवे तस्यैवानन्यपरिणामाः।। १६४ ।।
ज्ञानावरणाद्यस्य ते तु कर्मणः कारणं भवन्ति।
तेषामपि भवति जीवश्च रागद्वेषादिभावकरः।। १६५ ।।
हवे आस्त्रवनुं स्वरूप कहे छेः-
गाथार्थः– [मिथ्यात्वम्] मिथ्यात्व, [अविरमणं] अविरमण, [कषाययोगौ च] कषाय अने योग-ए आस्रवो [संज्ञासंज्ञाः तु] संज्ञ (अर्थात् चेतनना विकार) पण छे अने असंज्ञ (अर्थात् पुद्गलना विकार) पण छे. [बहुविधभेदाः] विविध भेदवाळा संज्ञ आस्रवो- [जीवे] के जेओ जीवमां उत्पन्न थाय छे तेओ- [तस्य एव] जीवना ज [अनन्यपरिणामाः] अनन्य परिणाम छे. [ते तु] वळी असंज्ञ आस्रवो [ज्ञानावरणाद्यस्य कर्मणः] ज्ञानावरण आदि कर्मनुं [कारणं] कारण (निमित्त) [भवन्ति] थाय छे [च] अने [तेषाम् अपि] तेमने पण (अर्थात् असंज्ञ आस्रवोने पण कर्मबंधनुं निमित्त थवामां) [रागद्वेषादिभावकरः जीवः] रागद्वेषादि भाव करनारो जीव [भवति] कारण (निमित्त) थाय छे.
टीकाः– आ जीवमां राग, द्वेष अने मोह-ए आस्त्रवो पोताना परिणामना निमित्ते थाय छे माटे तेओ जड नहि होवाथी चिदाभास छे (-जेमां चैतन्यनो आभास छे एवा छे, चिद्विकार छे).