PDF/HTML Page 1641 of 4199
single page version
समरसीभावरूप परिणाम छे, अने ते मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे. तेने रोकनार कषाय एटले शुभाशुभभाव छे. आ व्रतादिना शुभभाव छे ते चारित्रना रोकनार छे. शुभभावनो व्यवहार कहो, कषाय कहो के चारित्रनो विरोधी परिणाम कहो-ए बधुं एकार्थवाचक छे. हवे आम छे छतां केटलाक कहे छे-शुभभावथी चारित्र थाय छे. पण जे चारित्रने रोकनार छे ते चारित्रने उत्पन्न केवी रीते करे? भाई! पुण्यना भाव, शुकललेश्याना परिणाम तो तें अनंतवार कर्या अने नवमी ग्रैवेयक गयो. पण तेथी शुं? अभवीने पण शुकल लेश्याना परिणाम तो होय छे. ए कयां मोक्षना कारणरूप चारित्र छे? अहीं तो कहे छे-ए (शुभभाव) चारित्रने रोकनार चारित्रना विरोधी छे. भगवाननो-जिनेश्वरदेवनो मार्ग बहु सूक्ष्म छे भाई! आवी वात दिगंबर सिवाय बीजे कयांय नथी.
परमात्मा त्रिलोकनाथ कहे छे के-आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप सदाय सिद्ध समान परमेश्वर छे; हमणां पण हों. सिद्धमां जेम अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंद प्रगट छे तेम भगवान आत्मामां अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदनो स्वभाव सदा विद्यमान छे. आवा स्वभावमां अंतर्लीन थई रमवुं अने प्रचुर आनंदनो अनुभव करवो एनुं नाम चारित्र छे. ए चारित्र मोक्षनुं कारण छे. तेने रोकनारो कषाय छे. कष्-एटले संसार अने आय एटले लाभ. जेनाथी संसारनो लाभ थाय ते कषाय छे. ते मोक्षना कारणने अटकावे छे.
शुभभाव छे ते कषाय छे. ते मोक्षना कारणने अटकावे छे, केमके जगपंथ छे ने? समयसार नाटकमां मोक्षद्वारमां ४० मा पद्यमां कह्युं छे के-
पंचमहाव्रतना शुभरागनो विकल्प जगपंथ एटले संसारपंथ छे. एनाथी भिन्न जे आत्मानो अनुभव छे ते मोक्षनुं कारण छे.
भाई! अनंतकाळ परिभ्रमण करतां गयो पण हजु भवनो अंत न आव्यो. भव- भव-भव; कदीक मनुष्यना तो कदीक तिर्यंचना तो कदीक देवना ने कदीक नरकना-एम दरेकना अनंत-अनंत भव कर्या पण रे! जन्म-मरणनो अंत न आव्यो! घणां पाप करे तो नरकमां जाय, माया-कपट करे तो तिर्यंचमां-ढोरमां जाय, कदीक कषायनी मंदता अने सरळ परिणाम धरे तो मनुष्य थाय, अने व्रत, तप, शील आदिना विशेष शुभपरिणाम करे तो देव थाय. पण ए चारे गति संसार छे, दुःखरूप छे. देवने पण एनुं सुख विषयने आधीन होवाथी दुःख ज छे. विषय-भोगना परिणाम छे ते राग छे अने राग छे ए दुःख ज छे.
आत्मा अंदर एकला आनंदनुं धाम छे. ए परमां सुख शोधवा जाय छे ए
PDF/HTML Page 1642 of 4199
single page version
एनी मूढता छे; जेम मृगजळमां पाणी शोधवा जवुं ए मूर्खता छे तेम इन्द्रियोना विषयोमां सुख मानवुं ए मूढता छे. खारी जमीनमां सूर्यनां किरण अडे एटले जळ जेवुं देखाय ते मृगजळ छे. मृगलां-हरणीयां आवा मृगजळनी पाछळ जळनी आशाए दोडादोड करी मूके छे, पण त्यां जळ कयां छे? तेम अज्ञानी इन्द्रियो आदि बहारना विषयोमां सुख मानी सुख माटे विषयोमां झावां नाखे छे, पण त्यां कयां सुख छे ते मळे? तारे सुख जोईतुं होय तो अनंत सुखनुं धाम प्रभु तुं पोते छे तेमां जाने? आनंदनो सागर प्रभु तुं पोते छे एने जोतो नथी अने बहार सुख शोधे छे ए तारी मूढता छे.
लोकमां तो कहे के आ मोटा करोडपतिओ, मोटा-मोटा बंगलावाळा, गाडीवाळा बधा सुखी छे. पण भाई! पैसामां, बंगलामां, गाडीमां के स्त्री-कुटुंब-परिवारमां कयांय रंचमात्र सुख नथी. सुख तो प्रभु! आत्मामां छे. बहारमां सुख माने ए तो मूढ मिथ्याद्रष्टि छे. अरे! ए भवसमुद्रमां कयांय खोवाई जशे!
अहीं स्वरूपना आचरणरूप जे चारित्र छे तेमां आनंद-सुख छे एम कहे छे. स्वरूपमां चरवुं ए चारित्र छे. ‘स्वरूपे चरणं चारित्रं’ ए प्रवचनसारमां आचार्य भगवंतनुं कथन छे. ए चारित्र मोक्ष एटले सुखना कारणरूप स्वभाव छे. तेने रोकनार कषाय छे. दया, दान, व्रत, तप आदिना जे शुभभाव छे ते चारित्रने रोकनार छे. हवे आवी वात सांभळीने राड नाखी जाय छे माणस-के आ कयांथी काढयुं? भाई! आ तो सीमंधर परमात्मा पासेथी जे भगवान कुंदकुंदाचार्य संदेशो लाव्या ए वात छे, नवीन तो कांई नथी. तने न बेसे तो शुं थाय? सौ पोतपोतामां स्वतंत्र छे. अनादिथी एने सत्य बेठुं ज नथी त्यारे तो ते विपरीत मान्यतामां रोकाईने भवभ्रमण करी रह्यो छे.
आ स्वरूपमां रमणतारूप जे भाव छे ते चारित्र छे. तेने रोकनार कषाय-शुभभाव छे. ते पोते कर्म ज छे. तेना उदयथी एटले प्रगट थवाथी आत्माने अचारित्रीपणुं छे. शुभभावनी प्रगटताथी आत्माने अचारित्रीपणुं छे. तेथी कहे छे-‘माटे, (कर्म) पोते मोक्षना कारणना तिरोधायीभावस्वरूप होवाथी कर्मने निषेधवामां आव्युं छे.’ ल्यो, ए विकारी शुभभाव निषेधवामां आव्यो छे. एटले के ते धर्म नथी, धर्मनुं कारण पण नथी; परंतु धर्मथी विरुद्ध स्वभाववाळो छे तेथी शुभभाव निषेध्यो छे. धर्मीने शुभभाव आवे खरो, पण एने ए धर्म नहि पण हेय माने छे. आ भगवान कुंदकुंदाचार्यनो पोकार छे.
‘सम्यग्दर्शन, ज्ञान अने चारित्र मोक्षना कारणरूप भावो छे तेमनाथी विपरीत मिथ्यात्वादि भावो छे.’
PDF/HTML Page 1643 of 4199
single page version
मोक्ष एटले आत्माना परम आनंदनी पूर्णतानो लाभ. आ बहारमां धनसंपत्ति, विषयभोग सामग्री, इज्जत-आबरू इत्यादिमां जे सुख-आनंद माने छे ए तो अज्ञानीनो भ्रम छे. सुख तो अंदर आत्मामां छे. पर्यायमां सुखनी परिपूर्ण प्राप्ति थवी एनुं नाम मोक्ष छे. ए मोक्षनुं कारण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र छे. अहा! भगवान आत्मा सदा परिपूर्ण ज्ञानानंदस्वभावी वस्तु छे. एनी सन्मुख थईने एमां ढळवाथी परिपूर्ण स्वभावनो भास थई एनी जे प्रतीति थाय ते सम्यग्दर्शन छे, एना वेदन सहित जे एनुं ज्ञान थाय ते सम्यग्ज्ञान छे अने एमां रमणता-लीनता थतां जे प्रचुर आनंदनुं वेदन थाय ते सम्यक्चारित्र छे. आ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, मोक्ष जे पूर्णानंदना लाभस्वरूप परिपूर्ण दशा छे तेना कारणरूप भावो छे.
अहीं कहे छे-तेमनाथी (-सम्यक्त्वादिथी) विपरीत मिथ्यात्वादि भावो छे. परमां सुख छे, पुण्यभावथी धर्म थाय, शरीरादि पर मारां छे इत्यादि जे मिथ्या मान्यता छे ते सम्यग्दर्शनथी विपरीत छे. एकलुं परलक्षी परनुं जे ज्ञान छे ते मिथ्याज्ञान छे अने स्वरूपना आचरणरहित जे पुण्यभावरूप आचरण छे ते मिथ्याचारित्र छे. आ मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षनुं कारण जे सम्यक्त्वादि एनाथी विपरीत छे. हवे कहे छे-
‘कर्म ते मिथ्यात्वादि भावोस्वरूप छे.’ जुओ, कर्म एटले पुण्य-पापना भाव मारा छे, भला छे एवी मान्यता मिथ्यात्व छे, एवुं ज्ञान ते मिथ्याज्ञान छे अने एनुं ज आचरण ते मिथ्याचारित्र छे. पहेलां आवी गयुं के चारित्रने रोकनार कषायभाव छे. चाहे तो पापनो भाव हो के पुण्यनो हो, ए कषाय छे अने ते सम्यक्त्वादिथी विपरीत छे. आ रीते कर्म मोक्षना कारणभूत भावोथी विपरीत भावो-स्वरूप छे.
पहेलां त्रण गाथाओमां (१प७-१प८-१प९ गाथामां) कह्युं हतुं के व्रत, नियम, तप, शील इत्यादि शुभभावरूप कर्म मोक्षना कारणरूप भावोनुं एटले सम्यक्त्वादिनुं घातक छे. पुण्यादि भाव मारा छे, भला छे एवो जे मिथ्यात्वभाव ते मोक्षना कारणरूप भावोनो घातक छे एटले के ते सम्यक्त्वादिने प्रगट थवा देतो नथी. पछी एक गाथामां (गाथा १६० मां) कह्युं के कर्म पोते बंधस्वरूप छे. पोते ज बंधस्वरूप होवाथी ते मोक्षनुं कारण थवाने लायक नथी. हवे आ छेल्ली त्रण गाथाओमां कह्युं के कर्म मोक्षना कारणरूप भावोथी विरुद्ध भावस्वरूप छे. माटे कर्म सघळुंय निषेध करवा लायक छे केमके ए धर्मनुं घातक छे, धर्मनुं कारण नथी अने धर्मथी विरुद्धभावरूप छे.
प्रश्नः– एने मोक्षनुं परंपरा कारण कह्युं छे ने?
उत्तरः– खरेखर तो समकिती धर्मात्माने जे शुद्धता प्रगटी छे, जे चारित्र
PDF/HTML Page 1644 of 4199
single page version
प्रगटयुं छे ते वृद्धि पामतुं थकुं पूर्णतानुं एटले मोक्षनुं परंपरा कारण थाय छे. पण एनी साथे जे सहकारी शुभभाव एने बाकी रहे छे, जेने ए शुद्ध चैतन्यस्वभावना उग्र आश्रय वडे क्रमशः टाळतो जाय छे तेने उपचारथी आरोप करीने मोक्षनुं परंपरा कारण कह्यो छे. ते वास्तविक परंपरा कारण छे नहि. निश्चयथी राग मोक्षनुं साक्षात् के परंपरा कारण होई शके नहि. जुओने! अत्यारे तो लोको एने ज वळगी पडया छे के परंपरा कारण कह्युं छे ने? भाई! उपचार कथनने पण जेम छे तेम यथार्थ समजवुं पडशे ने! अहीं तो कहे छे के ते घातक छे, बंधस्वरूप छे अने विपरीत भावस्वरूप छे. आ यथार्थ छे.
‘आ प्रमाणे एम बताव्युं के-कर्म मोक्षना कारणनुं घातक छे, बंधस्वरूप छे अने बंधना कारणस्वरूप छे, माटे निषिद्ध छे.’
जुओ, लोको कहे छे के-व्रत, तप, दान, शील इत्यादि करीए एटले धर्म थई जाय. तो अहीं कहे छे के जे शुभकर्म स्वयं बंधस्वरूप छे ए करतां करतां भगवान! तने अबंध परिणाम कयांथी थशे? (नहि थाय). ए तो अबंध परिणामनुं घातक छे, विरोधी छे अने तेथी निषिद्ध छे. आकरी वात, भाई! ज्ञानीए तो अंदर आनंदनो नाथ अतीन्द्रिय ज्ञानस्वभावी भगवान पडयो छे तेने उपादेय कर्यो छे अने एने जे शुभाशुभ राग आवे छे तेने ए हेय तरीके जाणे छे. दया, दान, व्रतादिनो जे शुभराग आवे तेने ते हेयरूप ज्ञेय तरीके जाणे छे. ज्ञेय तो त्रणे छे; त्रिकाळी शुद्ध आत्मा ज्ञेय छे, मोक्षमार्गना परिणाम ज्ञेय छे अने पुण्य-पापना भाव पण ज्ञेय छे पण एक ज्ञेय त्रिकाळी शुद्ध पोतानी वस्तु आदरवा लायक उपादेय छे, एक ज्ञेय वर्तमान शुद्ध परिणमन मोक्षनुं कारण प्रगट करवा योग्य छे अने एक ज्ञेय पुण्य-पापना भाव बंधरूप होवाथी हेय छे. जाणवानुं होय त्यां तो बधुं जाणवुं जोईए ने? सवारमां आव्युं हतुं ने के तत्त्व - अतत्त्वने जाणीने तत्त्वमां लीन थवुं. पण अरे! अत्यारे तो आत्मा शुं चीज छे ए समजवानुं मूकीने बहारनी (क्रियाकांडनी) बधी वातो चाले छे!
प्रश्नः– दिगंबर होय ए तो समजे ज ने?
उत्तरः– भाई! दिगंबर कहेवुं कोने? जयपुरमां एक पंडित हता ते कहेता हता के दिगंबरमां जन्म्या ए बधा भेदज्ञानी ज छे. एम स्थानकवासीमां पण कहेता के जे स्थानकवासी छे ते बधाने सम्यग्दर्शन अर्थात् साची श्रद्धा तो छे, हवे व्रत पाळे एटले चारित्र. स्थानकवासीनी श्रद्धा गणधर जेवी छे एम कहेता. बापु! ए श्रद्धा गणधर जेवी कोने कहेवी? भाई! अंदर वस्तु परिपूर्ण ज्ञानानंदस्वभावी त्रिकाळ छे तेने ज्ञानमां ज्ञेय करीने उपादेय न करे त्यांसुधी एने सम्यग्दर्शन-ज्ञान नथी. तो पछी एने व्रत, तप अने चारित्र कयांथी होय? (होतां ज नथी). अज्ञानी जे व्रत ने
PDF/HTML Page 1645 of 4199
single page version
तप करे छे तेने भगवाने बाळव्रत अने बाळतप कह्यां छे केमके एमां भगवान आत्मा होतो नथी.
हवे कहे छे-‘अशुभ कर्म तो मोक्षनुं कारण छे ज नहि, बाधक ज छे, तेथी निषिद्ध ज छे; परंतु शुभ कर्म पण कर्मसामान्यमां आवी जतुं होवाथी ते पण बाधक ज छे तेथी निषिद्ध ज छे एम जाणवुं.’
जुओ, आ शुं कह्युं? के हिंसा, जूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, विषयभोगनी वासना, काम, क्रोध आदि जे पाप छे ए तो मोक्षनुं कारण छे ज नहि, पण आ व्रत, तप, दान इत्यादि शुभकर्म पण कर्मसामान्यमां आवी जाय छे अने ते पण मोक्षनुं कारण नथी, बाधक ज छे, अने तेथी निषिद्ध ज छे. बहु आकरुं लागे, पण मार्ग तो आ ज छे भाई! एकान्त छे, एकान्त छे एम लोको राडो पाडे पण शुं थाय? एनी वर्तमान लायकात एवी छे एटले एम कहे, पण अंदर तो त्रिकाळी भगवान छे ने? पर्यायमां भूल छे. (ते स्वाश्रये मटी जशे) अहीं तो स्पष्ट कह्युं के शुभकर्म पण मोक्षनुं कारण नथी, बाधक ज छे तेथी निषिद्ध ज छे. व्रत, तप आदिना परिणाम मोक्षमार्गमां बाधक ज छे, निषिद्ध ज छे. मतलब के ए धर्म नहि, धर्मनुं कारण पण नहि, तेथी निषेध करवा योग्य ज छे.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘मोक्षार्थिना इदं समस्तं अपि तत् कर्म एव संन्यस्तव्यम्’ मोक्षार्थीए आ सघळुंय कर्ममात्र त्यागवा योग्य छे.
मोक्षार्थीए एटले जेने मोक्षनुं प्रयोजन छे, जेने परमानंदनी प्राप्तिनुं प्रयोजन छे तेने सघळुंय कर्ममात्र त्यागवा योग्य छे. ल्यो, सघळुंय कर्म कह्युं त्यां एमां शुं बाकी रही गयुं? सघळुंय कह्युं एमां पुण्य अने पाप ए बेय आवी गयां. पुण्य अने पाप ए बेय त्यागवा योग्य छे एम वात छे. ए ज कहे छे-
‘संन्यस्ते सति तत्र पुण्यस्य पापस्य वा किल का कथा’ ज्यां समस्त कर्म छोडवामां आवे छे त्यां पछी पुण्य के पापनी शी वात? ज्यां बधुं ज कर्म छोडवामां आवे छे त्यां पुण्य ठीक अने पाप अठीक-एवी वातने कयां अवकाश छे? एवो भेद छे ज नहि, केमके जेम पाप बंधनुं कारण छे तेम पुण्य पण बंधनुं ज कारण छे. कर्ममात्र त्याज्य छे एमां पाप अने पुण्य बन्नेय कर्मसामान्यमां आवी गयां. हवे आवुं आकरुं लागे पण बापु! वीतरागदेवनो मार्ग ज वीतरागनी द्रष्टिथी शरु थाय छे. रागने कारणे वीतरागी द्रष्टि न थाय; पण अंदर त्रिकाळी भगवान वीतरागी देव चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मा विराजे छे तेना आश्रये वीतरागी द्रष्टि एटले सम्यग्दर्शन
PDF/HTML Page 1646 of 4199
single page version
थाय छे. एवा जीवने पुण्य अने पाप बन्ने निषेधवा लायक छे. योगीन्द्रदेव योगसारमां पुण्यने पण पाप कहे छेः-
तेम आ अधिकारमां आचार्य जयसेननी टीकामां पण आ वात आवे छे. छेल्ले शिष्यनो प्रश्न छे के-
‘अत्राह शिष्यः। जीवादिसद्हणम् इत्यादि व्यवहाररत्नत्रयव्याख्यानं कृतं तिष्ठति कथं पापाधिकार इति।’
अहीं शिष्य प्रश्न करे छे के-जीवादिनुं श्रद्धान वगेरे व्यवहाररत्नत्रयनुं व्याख्यान-आ तो पापनो अधिकार चाले छे तेमां-कयांथी आव्युं? केमके व्यवहाररत्नत्रय तो पुण्य छे.
‘तत्र परिहारः’ तेनो उत्तर (खुलासो) आपे छे-
‘यद्यपि व्यवहारमोक्षमार्गो निश्चयरत्नत्रयस्योपादेयभूतस्य कारणभूतत्वादुपादेयः परंपरया जीवस्य पवित्रताकरणात् पवित्रस्तथापि बहिर्द्रव्यालंबनेन पराधीनत्वात्पतति नश्यतीत्येकं कारणं’–
जोके व्यवहार मोक्षमार्ग उपादेयभूत एवा निश्चयरत्नत्रयनुं कारण होवाथी व्यवहारे उपादेय कहेवामां आवे छे अने परंपरा जीवनी पवित्रता करनारुं होवाथी व्यवहारे पवित्र कहेवामां आवे छे तोपण परद्रव्यना अवलंबनथी पराधीनपणुं थवाथी स्वरूपथी पतित थाय छे. एटले स्वाधीनतानो नाश थाय छे केमके शुभरागमां परद्रव्यनुं अवलंबन छे. आ एक कारणथी निश्चयनयनी अपेक्षाए व्यवहाररत्नत्रय (पुण्य) ए पाप छे.
‘निर्विकल्पसमाधिरतानां व्यवहारविकल्पालंबनेन स्वरूपात्पतितं भवतीति द्वितीयं कारणम्। इति निश्चयनयापेक्षया पापं।’
निर्विकल्प समाधिमां लीन पुरुषोने व्यवहारना विकल्पना अवलंबनथी स्वरूपथी पडवापणुं थाय छे. एम बीजा कारणथी व्यवहार समकित, व्यवहार ज्ञान अने व्यवहार चारित्ररूप कषायनी मंदता (पुण्य) निश्चयनये तो पाप छे.
‘अथवा सम्यक्वादिविपक्षभूतानां मिथ्यात्वादीनां व्याख्यानं कृतमिति वा पापाधिकारः।’
अथवा सम्यक्त्वादिथी विपक्ष होवाथी मिथ्यात्वादिनो अर्थात् पापनो अधिकार चाले छे. केमके व्यवहाररत्नत्रयनो शुभराग सम्यक् रत्नत्रयना वीतरागी परिणामथी विरुद्ध होवाथी ए पाप छे. तेथी पाप अधिकारमां लीधेल छे.
PDF/HTML Page 1647 of 4199
single page version
अहाहा...! अहीं कहे छे-ज्यां समस्त कर्मने छोडवामां आव्युं छे त्यां पुण्य अने पापना भेद पाडवा ए शुं? स्वयं आचार्य कुंदकुंददेवे प्रवचनसार गाथा ७७ मां कह्युं छे के-
जे पुण्य अने पापमां फेर नथी एम नथी मानतो-एटले के पुण्य अने पापमां फेर नहि होवा छतां फेर छे एम माने छे ते मोहथी-मिथ्यात्वथी ढंकायेलो थको अपार संसारमां रखडे छे. पुण्य अने पाप सामान्यपणे बन्ने बंधरूप होवा छतां, पुण्य ठीक अने पाप अठीक एम जे कोई माने छे ते घोर संसारमां रखडे छे. अहो! मात्र कुंदकुंद ज नहि, सर्व दिगंबर संतो आ सनातन वीतरागी जैनदर्शनना प्रवाहोने ज पोषे छे.
कुंदकुंदाचार्य २००० वर्ष पहेलां थया, अमृतचंद्राचार्य १००० वर्ष पहेलां थया अने तेमनी पछी जयसेनाचार्य ९०० वर्ष पहेलां थया. बधाय दिगंबर संतोनुं एक ज कथन छे के- देव-गुरु-शास्त्रनी व्यवहार श्रद्धा, बार व्रत के पांच महाव्रतना भाव अने शास्त्रनुं परलक्षी ज्ञान ए त्रणे (निश्चयनयनी अपेक्षाए) पाप छे. आवी वात छे बापा! दिगंबर मुनिराज- नागा बादशाहथी आघा. एने कोई बादशाह के समाजनी शुं पडी छे? समाजमां शुं प्रतिक्रिया थशे? समाज मानशे के नहि? -एनी मुनिराजने शुं पडी छे? आ तो वस्तुनुं सत्य उद्घाटन कर्युं छे. कोई मानो के न मानो; सौ स्वतंत्र छे.
जे जीव एम माने छे के व्यवहारना शुभरागथी धर्म थशे अने एनाथी परंपराए मोक्ष थशे ते जीव मूळमां दर्शनभ्रष्ट छे, अने जे दर्शनभ्रष्ट छे. ते ज्ञान अने चारित्र बधेथी भ्रष्ट छे. अरे भाई! एवो शुभभाव तो तें अनंतवार कर्यो अने नवमी ग्रैवेयक गयो, पण ते वडे हजीय सम्यग्दर्शन न पाम्यो.
प्रश्नः– काळलब्धि पाके त्यारे समकित थाय ने?
उत्तरः– भाई! काळलब्धि-काळलब्धि एम तुं कहे छे पण काळलब्धि तो तुं स्वभावनो पुरुषार्थ करे त्यारे पाके ने? काळलब्धि थई एवुं साचुं ज्ञान कयारे थाय? आ काळलब्धिनो प्रश्न सं. १९७२ थी चाल्यो हतो. एम के भगवान केवळीए दीठुं हशे त्यारे थशे. पण जगतमां केवळी भगवान छे एनी तने प्रतीति छे? जेणे एनी प्रतीति करी होय तेने भवभ्रमण होय ज नहि, केमके स्वभावसन्मुख थया विना केवळीनी प्रतीति थती ज नथी.
जीव पोताना स्वभावसन्मुखतानो पुरुषार्थ करे त्यारे-
PDF/HTML Page 1648 of 4199
single page version
१. स्वभाव आवी गयो, २. स्वभावसन्मुखतानो पुरुषार्थ आवी गयो, ३. ते समये पोतानी जे निर्मळ पर्याय प्रगटी ते काळलब्धि आवी गई. ४. भवितव्यनो भाव आवी गयो. (जे थवा योग्य हतुं ते थयुं). प. कर्मनुं निमित्त पण हठी गयुं एटले कर्मनां उपशमादि आवी गयां. आ प्रमाणे पांचे समवाय साथे ज होय छे. आवी वात छे. बापु! वीतरागना मार्गनी समजण करवी ए महा पुरुषार्थ छे. चारित्रनो पुरुषार्थ तो अद्भुत अलौकिक छे ज, पण ए पहेलां सम्यग्दर्शननो पुरुषार्थ पण महा अलौकिक छे.
अहीं कहे छे-जयां सघळुंय कर्म त्याज्य छे त्यां पुण्य-पापना भेद शुं करवा? पापनी जेम पुण्यभावरूप कर्म पण त्याज्य ज छे केमके ते आत्मानुं-चैतन्यनुं कर्म नथी. निश्चयथी तो जे ज्ञाता-द्रष्टाना परिणाम-निर्मळ रत्नत्रयरूप परिणाम थाय ते आत्मानुं कर्म छे, अने भगवान आत्मा तेनो कर्ता छे.
वळी द्रव्य कर्ता अने परिणाम-पर्याय तेनुं कर्म-एम कहेवुं ए पण व्यवहार छे. खरेखर तो परिणाम पोते ज पर्यायनुं-परिणामनुं कर्ता-कर्म-करण आदि छे, द्रव्य-गुण नहि; केमके द्रव्य- गुण तो अक्रिय छे. सम्यग्दर्शननी उत्पत्तिमां शुद्ध त्रिकाळी द्रव्य उपर लक्ष जाय एटलुं ज; बाकी सम्यग्दर्शननी पर्याय पोते ज ते परिणामनी कर्ता, पोते ज ते कार्य, पोते ज एनुं करण, संप्रदान, अपादान अने अधिकरण छे. छए कारक पर्यायना पोताना पोतामां ज छे. आवी वात छे; आकरी लागे तोय सत्य आ ज छे. परिणाम सम्यग्दर्शनना होय के मिथ्यादर्शनना, एना कर्तादि निमित्त पण नहि अने द्रव्य-गुण पण नहि. पर्याय पोते ज पोताना षट्कारकभावने प्राप्त थईने स्वतंत्रपणे परिणमे छे.
बीजी चोपडीना पाठमां आवतुं के-
लाखो कीडीओ भेगी थईने सापने फोली खाय. कीडी एम तो नबळी (क्षुद्र जंतु) छे; पण भेगी थईने मोटा सर्पने पण मारी नाखे. पण आवुं कांई अध्यात्ममां लागु न पडे. जगतमां मिथ्याद्रष्टि झाझा होय पण तेथी शुं? तेओ आवी भगवाननी तत्त्वनी वात न माने तेथी आपणने तेमना प्रति वेर न होय. अंदर तो बधा ज भगवान छे. पर्यायमां भूल छे पण ए तो स्वरूपना आश्रये नीकळी जवा योग्य छे. अंदर तो बधा ज पूर्णानंदना नाथ सच्चिदानंदस्वरूप भगवानरूपे छे. चाहे बाळकनो देह हो, स्त्रीनो देह हो, पुरुषनो देह हो के पावैया-हीजडानो देह हो; कीडीनो देह
PDF/HTML Page 1649 of 4199
single page version
हो, हाथीनो देह हो के मोटा मत्स्यनो हजार योजननो देह हो; पण अंदर तो आत्मा शुद्ध चैतन्यघनस्वरूपे विराजी रह्यो छे. अहीं कहे छे के पुण्य-पापना भेदनुं लक्ष छोडीने पोताना शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप भगवान आत्मानो आश्रय करतां मोक्षनो मार्ग उत्पन्न थाय छे. हवे आवी कल्याणनी वातने लोको एकान्त कहे छे; शुं थाय?
प्रवचनसार गाथा ७७ मां कह्युं छे के-पुण्य-पापमां विशेष (-फेर) कांई नथी छतां विशेष (-फेर) छे एम जे माने ते मोहथी ढंकायेलो थको घोर संसारमां रखडे छे. आवुं स्पष्ट होवा छतां एनी गाथा ४प मां ‘पुण्णफला अरहंता’ एम जे पाठ छे एनो ‘पुण्यना फळ तरीके अरिहंतपद मळे छे’ एवो अर्थ करे छे. अरे भगवान! गाथानुं मथाळुं तो जुओ! त्यां एम कह्युं छे के-
‘अथैवं सति तीर्थकृतां पुण्यविपाकोऽकिंचित्कर एवेत्यवधारयति’ तीर्थंकरने पुण्यनो विपाक अकिंचित्कर ज छे एटले कांई करतो नथी एम नक्की करे छे. हवे आवे चोकखो पाठ छे छतां कोई पंडितो पुण्यना फळमां अरिहंतपद मळे एम कहे छे! भारे विचित्र! आमां तो पुण्यना अतिशय मळे एनी वात छे; पण आत्माने ए पुण्य कांई करतुं नथी एम कहे छे. अरिहंतपदमां जे समोसरणनी रचना, दिव्यध्वनि, विहार वगेरे क्रिया छे ए पुण्यनुं फळ छे, अतिशय छे. ए बधी उदयनी क्रिया छे ते मोहादिथी रहित होवाथी तेने क्षायिकी कही छे. मतलब के क्षणेक्षणे जे उदयभाव छे ते क्षणेक्षणे नाश पामे छे केमके त्यां मोहभाव छे नहि. एटले उदयनी क्रियाने क्षायिकी कही छे ए वात त्यां कही छे. तेमा हवे पुण्यना फळमां अरिहंतपद मळे एवी वातने कयां अवकाश छे? (नथी).
हवे कहे छे-‘सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनात् मोक्षस्य हेतुः भवन् समस्त कर्मनो त्याग थतां, सम्यक्त्वादि जे पोतानो स्वभाव ते-रूपे थवाथी-परिणमवाथी मोक्षना कारणभूत थतुं ‘नष्कर्म्यप्रतिबद्धम् उद्धतरसम्’ निष्कर्म अवस्था साथे जेनो उद्धत रस प्रतिबद्ध अर्थात् संकळायेलो छे एवुं ‘ज्ञानं स्वयं धावति’ ज्ञान आपोआप दोडयुं आवे छे.
पुण्य-पापना भाव जे विभाव छे ते सर्वनो त्याग थतां सम्यक्त्वादि जे पोतानो स्वभाव ते-रूपे परिणमवाथी, निष्कर्म अवस्था साथे जेनो उत्कट रस संकळायेलो छे ते ज्ञान आपोआप दोडयुं आवे छे.
जुओ, पुण्य-पापनो जे रस छे ए दुःखरूप झेरनो रस छे, अने एना त्यागथी जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र थाय छे ते परम अतीन्द्रिय आनंदनो अमृतरस छे. अहाहा...! सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप जे निष्कर्म अवस्था छे ते उत्कट अतीन्द्रिय आनंदना अमृतरसथी संबंधित छे; पण कर्मनी (व्यवहाररत्नत्रयनी) अवस्था एनाथी संबंधित नथी केमके कर्मनो जे रस छे ए तो झेरनो आकुळतामय रस छे.
PDF/HTML Page 1650 of 4199
single page version
पुण्य-पापना भाव जे कर्म अवस्था छे तेनो त्याग थतां मोक्षमार्गरूप निष्कर्म अवस्थापणे जे ज्ञान एटले आत्मानी परिणति थाय छे ते मोक्षनुं कारण छे. ए निष्कर्म अवस्था साथे आत्माना अतीन्द्रिय आनंदना रसनी उद्धताई प्रगटी छे, तेथी ए रागने गणकारतो नथी. जेम कुटुंबमां कोई छोकरो उद्धत होय तो ते कोईने-माताने पिताने के मोटाभाईने गणतो नथी, तेम आ आत्मा जेने स्वभावनी परिणति-श्रद्धा, ज्ञान अने स्वरूपमां रमणता प्रगट थयां छे ते रागने अवगणीने अतीन्द्रिय आनंदना उद्धत रसमां लीन- तरबोळ थाय छे, रागने ते गणकारतो नथी, तेनो आदर करतो नथी. भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनंदरसना स्वभावथी छलोछल भरेलो छे. तेनुं जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप स्वभाव परिणमन थाय ते ते उद्धत (उत्कट) आनंदना रसथी संकळायेलुं छे. अहा! सम्यग्दर्शन उत्कट आनंदना रसथी संकळायेलुं छे, सम्यग्ज्ञान उत्कट आनंदना रसथी संकळायेलुं छे अने सम्यक्चारित्र अति अति आनंदना रसथी संकळायेलुं छे. आवी वात छे.
अरे! लोको चारित्रने दुःखरूप कहे छे! चारित्र तो मीणनां दांते लोढाना चणा चाववा जेवुं छे एम कहे छे! पण भाई! एम नथी. चारित्र तो सहज सुखरूप छे, ए तो अतीन्द्रिय आनंदना रसथी संकळायेलुं छे. ए दुःखरूप केम होय? चारित्रने दुःखरूप माने ए तो मिथ्याद्रष्टि छे. छहढालामां कह्युं छे ने के-
एटले के जेओ मिथ्याद्रष्टि छे तेओ एम माने छे के चारित्र कष्टदायी छे. अहीं तो कळशमां अमृतचंद्राचार्य एम कहे छे के चारित्र आत्माना अतीन्द्रिय आनंदना उद्धतरसथी संकळायेलुं छे.
‘ज्ञानं स्वयं धावति’ एम कह्युं छे ने? मतलब के निर्मळ परिणमन स्वयं प्रगट थाय छे; एने व्यवहारनी कोई अपेक्षा नथी. कषायनी मंदतारूप व्यवहाररत्नत्रयथी निश्चय थाय एम शास्त्रमां आवे ए तो उपचारथी व्यवहारनयनुं कथन करेलुं होय छे. अहीं तो चोख्खुं आव्युं छे के-एवुं ज्ञान आपोआप दोडयुं आवे छे. पुण्य-पापथी रहित अंदरमां श्रद्धा, ज्ञान अने स्वरूपरमणतानी परिणति आपोआप दोडी आवे छे. हवे आवी वात वांचे नहि, विचारे नहि अने पोतानो पक्ष छोडे नहि; पण शुं थाय? भाग्यशाळी होय एना काने आवी वात पडे. जेने अंतरमां बेसी जाय एनी तो वात ज शी? अहीं एम कहे छे के-व्रतादि शुभकर्म दुःखथी संकळायेलुं छे अने पुण्य-पाप रहित आत्माना श्रद्धान-ज्ञान-चारित्ररूप निर्मळ परिणमन अतीन्द्रिय आनंदना रसथी संकळायेलुं छे, केमके भगवान आत्मा एकला आनंदनुं ढीम छे.
प्रवचनसारमां ज्ञेय अधिकारमां आवे छे के दरेक द्रव्यनी पर्याय दोडती एटले एक पछी एक क्रमसरथी दोडती आवे छे. एम अहीं कहे छे के मोक्षना कारणभूत
PDF/HTML Page 1651 of 4199
single page version
एवुं आनंदना उत्कट रसथी संकळायेलुं ज्ञान एटले आत्मानुं निर्मळ परिणमन आपोआप दोडतुं आवे छे. जेणे, वर्तमान पुण्यना परिणाम होवा छतां, पुण्य-परिणामने ओळंगीने ज्ञाननी पर्यायने द्रव्यमां जोडी दीधी तेने ते पर्यायमां उत्कट आनंदना रसनो स्वाद आवे छे, केमके मोक्षमार्गनी दशा सहज आनंदना रस साथे संकळायेली छे.
लौकिकमां तो कहे छे के-पोते युवान होय, २प-प० लाखनी संपत्ति होय अने रोजनी मोटी आवक होय, पत्नी पण रूपाळी जुवान होय एटले मनमान्या विषयभोग भोगवतो ते सुखी छे. हवे धूळेय सुखी नथी, सांभळने. विषयोमां कयां सुख छे? सुख तो आत्मामां छे. विषयभोगमां पडीने एणे तो आत्माने-आनंदना नाथने दुःखमां रगदोळी नाख्यो छे. भगवान! एक मोक्षमार्गनी दशा ज आनंदना रसथी प्रतिबद्ध छे, शुभाशुभ कर्म नहि. समजाणुं कांई...
‘कर्मने दूर करीने,.. .’
आ पुण्य-पाप अधिकार छे ने! दया, दान, व्रत, तप आदिना भाव पुण्यकर्म छे. तेने दूर करीने, ‘पोताना सम्यक्त्वादि स्वभावरूपे परिणमवाथी मोक्षना कारणरूप थतुं ज्ञान आपोआप प्रगट थाय छे.’
जुओ, भगवान आत्मा शुद्ध चिदानंदघनस्वभावी वस्तु छे, एनी निर्मळ प्रतीति, एनी सन्मुखनुं ज्ञान, अने एमां रमणता-ते-रूपे परिणमवाथी, ते-रूप थवाथी पूर्ण आनंदनी प्राप्तिरूप जे मोक्ष तेना कारणरूप थतुं ज्ञान (-आत्मा) आपोआप प्रगट थाय छे. आत्मा पुण्य-पापना भावथी रहित थईने, पोताना स्वभावना लक्षे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं परिणमन थवाथी ते-रूपे आपोआप प्रगट थाय छे. मतलब के ते-रूप परिणमतां एने कांई परनी-निमित्तनी के व्यवहाररत्नत्रयनी अपेक्षा नथी.
हवे कहे छे-‘त्यां पछी तेने कोण रोकी शके?’
ज्यां रोकाई रह्यो हतो ते पुण्य-पापना भावने ज्यां छोडी दीधा त्यां मोक्षना कारणरूप ज्ञान आपोआप प्रगट थाय छे. आपोआप एटले व्यवहाररत्नत्रयनी अपेक्षा विना प्रगट थाय छे. ज्यां कोईनी अन्यनी अपेक्षा नथी त्यां एने कोण रोकी शके? शुभाशुभ भाव जेणे द्रष्टिमांथी छोडी दीधा अर्थात् शुभाशुभभावनुं जेणे लक्ष छोडी दीधुं अने एक त्रिकाळी ज्ञायकस्वभाव उपर द्रष्टि स्थापीने तेनो आश्रय कर्यो तेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निर्मळ परिणमन आपोआप थयुं के जे मोक्षनुं कारण
PDF/HTML Page 1652 of 4199
single page version
छे. अहीं कहे छे के एने (ज्ञानने) प्रगटतुं कोण रोकी शके? ज्यां कोईनी-व्यवहारनी अपेक्षा नथी त्यां कोण रोकी शके?
केटलाक लोको कहे छे के-शुं आवो धर्म होय? एम के व्रत करवां, तप करवां, दया करवी, सम्मेदशिखरनी जात्रा करवी इत्यादि बधुं कहो तो एमां तो समजण पडे, पण आ ते केवो धर्म? तेने कहे छे के-भाई! जेने तुं धर्म माने छे ए तो बधो राग छे, कर्म छे. एनाथी कदीय धर्म थाय नहि. धर्म तो स्वभावना आश्रये ज थाय. स्वभावनो आश्रय करवाथी धर्म आपोआप प्रगट थाय छे.
एटले ए राडो पाडे छे के-एकान्त छे, एकान्त छे. व्यवहाररत्नत्रयथी निश्चय थाय एवो एने व्यवहारनो पक्ष थई गयो छे ने? एटले एकान्त छे, एकांत छे एम राडो पाडे छे.
पण भाई! आ सम्यक् एकान्त छे. स्वद्रव्यना आश्रये धर्म थाय अने व्यवहारना - रागना आश्रये धर्म न थाय एम साचो अनेकान्त छे.
आ शरीर, मन, वाणी, इन्द्रियो तो एककोर रह्यां. ए तो एना (-आत्माना) द्रव्य- गुण के पर्यायमां एक समयमात्र पण नथी. परंतु दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादि शुभभावनुं एनी पर्यायमां एक समय माटे अस्तित्व छे. अहीं कहे छे-ए शुभभावनुं लक्ष छोडी दईने अंदर ज्ञायकस्वभावी आत्मामां एकाग्र थवाथी जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं सहज परिणमन थाय ते धर्म छे, मोक्षनुं कारण छे. आ सम्यक् एकान्त छे. अने बीजा जे व्रत, तप आदि शुभराग करतां करतां निश्चय धर्म प्रगट थाय एम कहे छे ते मिथ्या एकान्त छे.
प्रश्नः– कोई एम माने के एनाथी (व्रतादिना शुभभावथी) न थाय पण एना (व्रतादिना शुभभाव) विना पण न थाय-एम तो अनेकान्त छे ने?
उत्तरः– ना; ए मिथ्या अनेकान्त छे. एना वगर ज थाय; एनो अभाव कर्यो तो एना वगर ज थयुं ने? ‘कर्मने दूर करीने’-शब्द तो एम छे. एनो अर्थ शुं? के रागभावने दूर करीने, स्वभावनी समीपमां आव्यो एटले सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं परिणमन थयुं. हवे ए निर्मळ परिणमन एना (शुभरागना) विना थयुं छे. भाई! सम्यग्दर्शननो आश्रय त्रिकाळी द्रव्यस्वभाव छे, रागादि नहि. रागादिना आश्रये परिणमे त्यां सुधी समकित थतुं ज नथी. सम्यक्त्वादिना निर्मळ परिणाम व्यवहारना रागथी तद्न निरपेक्ष छे, एटले के ए व्यवहारना- रागना लक्षे थतुं ज नथी.
आवी वात छे; पण अत्यारे परंपरा बधी तूटी गई एटले आ एकान्त लागे छे. पण मार्ग तो आ छे, बापु! एनी सम्यक् श्रद्धाना पक्षमां आववुं पडशे. पहेलां श्रद्धानो दोर समजणमां तो बांध के रागथी-परदिशा तरफना वलणथी स्वदिशा
PDF/HTML Page 1653 of 4199
single page version
तरफनुं वलण न थाय. उगमणा जवुं होय तो शुं आथमणे चालवाथी जवाय? (न जवाय). तेम शुं ऊंधी श्रद्धाथी मोक्षमां जवाय? (न जवाय). ए वडे तो चारगतिनुं परिभ्रमण ज थाय.
अरे! चोरासीना अवतारोमां जन्म-मरण करी-करीने जीव दुःखी दुःखी थयो छे, केमके एने भगवान आत्माना निराकुल आनंदना स्वादनी खबर नथी. कळशमां आव्युं ने के- ‘नैष्कर्म्यप्रतिबद्धउद्धतरसं’ जेनो अर्थ कर्यो के-रागरहित जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी निष्कर्म अवस्था ते उद्धत आनंदना रसथी संबंधित छे, संकळायेली छे. भाई! जेने अनाकुळ मोक्षनुं कारण प्रगट करवुं होय, धर्म प्रगट करवो होय तेणे पुण्य-पापना परिणामोने- आकुळतामय रागने द्रष्टिमांथी छोडी दईने अंतरमां आनंदनो नाथ चैतन्य महाप्रभु जे विराजे छे तेनो आश्रय करवो पडशे. भाई! व्यवहाररत्नत्रयना जे परिणाम छे ते आकुळतामय रागना परिणाम छे, ए जेनाथी आनंदरस संकळायेलो छे एवुं मोक्षनुं कारण नथी.
हवे ए बहारना धंधामांथी नवरो न थाय, आखो दिवस धन-संपत्ति, बायडी-छोकरां अने विषय-भोगोमां गूंचायेलो रहे त्यां एने आवी वात विचारवानी फुरसद कयां मळे? वळी अज्ञानथी एम माने के आ वडे अमे सुख छीए ते एकला पापना प्रपंचमां संडोवायेलो रहीने आत्माने दुःखना दावानळमां ज धकेली दे छे. कदाचित् देव-गुरु-शास्त्रनी बाह्य श्रद्धा थाय तो ते पापथी खसीने पुण्यभावमां आवे छे, पण ए पुण्यभाव पण राग-विकार छे, बंधन छे एम नहि जाणवाथी ते केवळ व्रत, तप, भक्ति आदि पुण्यकर्ममां ज रोकायेलो रहे छे. ए पण मिथ्याद्रष्टि ज छे. अहाहा...! जे पुण्यना फळरूप धूळमां (लक्ष्मी आदिमां) रोकायेलो रहे छे ए तो भ्रमणामां छे पण जे दया, दान, व्रत, तप आदि पुण्यभावमां रोकायेलो रहे छे ए पण मिथ्यात्वभावमां ज रोकायेलो छे. आवी वात छे.
अहीं कहे छे-पुण्य-पापरूप समस्त कर्मनी द्रष्टि छोडीने जे स्वना आश्रयमां रोकाईने परिणम्यो तेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निराकुळ आनंदना भावे परिणमतो कोण रोकी शके? पहेलां तो पुण्यना प्रेममां रोकायो हतो, अर्थात् पुण्यनी रुचिए तेने रोकी राख्यो हतो, पण हवे ज्यां पुण्यभावनी रुचि-द्रष्टि छूटी गई त्यां स्वाधीन सुखना स्वभावभावे परिणमतो एने कोण रोकी शके?
जेम दरेक पदार्थ पोताना द्रव्य-गुण अने पर्यायनी सत्तामां छे, तेम आ आत्मा पण पोताना द्रव्य-गुण अने पर्यायनी सत्तामां छे. आ अबाधित मर्यादा छे. आ शरीर, मन, वाणी, स्त्री-कुटुंब, पैसो-टको-ए बधी तो बहारनी चीज छे, ए आत्मानी पर्यायमां नथी. एनी साथे आत्माने संबंध शुं? (कांई नथी). पण शरीर
PDF/HTML Page 1654 of 4199
single page version
मारुं, स्त्री-कुटुंब मारां, पैसो मारो-एवी जे ममता छे ते एनी एक समयनी पर्यायमां छे, पण ए चीज कयां एनी पर्यायमां छे? कांई विचार नहि अने एमने एम आंधळे-बहेरुं कूटे राखे छे. अहीं कहे छे ए बधां मारां छे एवी जे ममता छे ते मिथ्यात्वभाव छे अने ते समकितने रोकी राखे छे. तथा पर्यायमां जे व्रतादिना शुभभाव थाय छे ते बंधरूप छे तोपण ते भला छे एम जे तुं माने छे ते पण मिथ्यात्वभाव छे अने ते समकितने प्रगट थवा देतो नथी. परंतु जेणे पुण्य-पापनी भावना छोडीने स्वरूपने आश्रय कर्यो छे, स्वरूपमां परिणाम जोडयां छे तेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप आनंदनुं परिणमन थाय छे अने तेने तेम परिणमतां कोण रोकी शके? गजब वात छे.
भाई! दया, दान, व्रत, भक्ति आदि शुभभावनी रुचिमां जे अटकयो छे तेने आत्मा प्रत्ये द्वेष छे. आनंदघनजीए स्तवनमां कह्युं छे के-‘द्वेष अरोचक भाव.’ आत्मानी अरुचि अने परनी रुचि ए द्वेष छे, क्रोध छे. स्वभावथी जे विरुद्धभाव छे तेनो प्रेम ए क्रोध छे. माटे सदाय ज्ञाता-द्रष्टा स्वभावे रहेलुं जे ज्ञायकतत्त्व तेने पामवा माटे पुण्यभावनी रुचि छोडवी पडशे. ए सिवाय आत्मानी रुचि जाग्रत नहि थाय. भगवान त्रिलोकनाथ तीर्थंकरदेव फरमावे छे के पुण्यनी रुचि छोडीने भगवान ज्ञायकदेव ज्यां अंदर विराजे छे त्यां तुं जा, त्यां तने निराकुल आनंद थशे.
जेने हजु पुण्यनां ठेकाणां नथी अने निरंकुश पाप-प्रवृत्तिमां पडेलो छे तेनी तो शुं वात करवी? ए तो भवसमुद्रमां बूडेलो छे ज. अहीं तो जे देव-गुरु-शास्त्रनी भक्ति आदि पुण्यभावमां आवेलो छे तेने कहे छे के-भाइ! जो तारे जन्म-मरणथी, भवभ्रमणना ८४ना अवतारना दुःखथी छूटवुं होय तो पुण्यभावनी रुचि छोडी दे अने अंदर ज्यां चैतन्यमूर्ति भगवान ज्ञायकस्वरूपे विराजमान छे तेमां द्रष्टि कर, तेमां रमणता-लीनता कर; तेथी तने परम आनंदनी प्राप्ति थशे.
ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती हता. ७०० वर्षनुं एनुं आयुष्य हतुं. एने ९६००० राणीओ, ९६ करोड गाम अने ९६ क्रोडनुं पायदळ हतुं. एना वैभवनी शी वात? सोळ हजार देवो तो एनी सेवामां रहेता. एनी पटराणीनी एक हजार देवो सेवा करता. ते हीरा-मणीरत्नना ढोलियामां तो शयन करतो. आ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती मरती वखते कुरुमति...कुरुमति करतां करतां सातमी नरके गयो. ममतानी तीव्रतानी तीखाशना फळमां ते एक श्वासोच्छ्वासनी सामे ११ लाख छप्पन हजार पल्योपमना दुःखमां सातमी नरके पोढयो. एने ८प हजार वर्ष थयां, हजु तो असंख्य अबज वर्षनो नरकवास रहेशे.
PDF/HTML Page 1655 of 4199
single page version
मागे त्यां महेसूबना रसदार कटका मळे, जेने खम्मा, अन्नदाता शुं जोईए एम पूछनारा सेवको सदा तत्पर होय अने जे मणिरत्नना ढोलियामां मखमलनी गादीओमां हंमेशां सूतो होय एवा चक्रवर्तीनी आ दशा! एवा परिणामनुं एवुं ज फळ होय छे. तुं आडुं-अवळुं करवा जईश तो तेम नहि थाय.
एक प्रश्न कर्यो हतो सात वर्षना छोकराए (सं. १९९४ मां) के-महाराज! भरत चक्रवर्ती जेने ९६००० राणीओ हती अने जे मणिरत्नना ढोलियामां मखमलनां त्रण त्रण गादलामां सूता ते धर्मी अने अमे सादाईथी रहीए तोपण धर्मी नहि-ए केवी वात?
त्यारे कह्युं के-बापु! एने राणीओ हती अने मखमलनां गादलामां ए सूता हता पण ए राणीओमां अने गादलांमां कयां हता? जे राग थाय एमां ए नहोता, ए तो रागने जाणता थका ज्ञाताना ज्ञानमां हता. धर्मी तो रागमां हता ज नहि अने राणीओमां अने गादलांमां पण कयारेय नहि. समजाणुं कांई?
ज्यारे अज्ञाननी दशावाळा रतनना ढोलियामां सूता होय त्यां एनी द्रष्टिमां फेर छे. ते वडे अमे सुखी छीए, अमने आ सुखनां साधन छे, अने अमे ते भोगवीए छीए एवी तेनी अज्ञानमय मिथ्या मान्यता होय छे. अने सादाईथी रहे त्यां अमे सादाईथी रहीए छीए एवी परद्रव्यना लक्षे थता परिणाममां आत्मबुद्धि होय तो ते पण अज्ञानमय मिथ्या दशा छे. समजाणुं कांई...?
अहा! जे पापमां तल्लीनपणे रोकाया छे एमनी तो अहीं वात नथी; केमके एमने तो उपदेश शुं काम करे? अहीं तो जे दया, दान, व्रत, तप आदि पुण्यभावमां रोकाया छे तेने कहे छे-भगवान! जो तारे धर्म करवो होय तो पुण्यनी रुचि छोडवी पडशे अने भगवान आनंदना नाथना प्रेममां तारे आववुं पडशे. ज्यां पुण्यभावनो प्रेम दूर थयो त्यां भगवान आत्मा जे दूर हतो ते समीप थयो, अने त्यारे मोक्षनुं कारण खरेखर प्रगटयुं. अहीं कहे छे-जेने मोक्षनुं कारण प्रगटयुं तेने मोक्ष सुधी पहोंचतां कोण रोकी शके? एने तो ज्ञान आपोआप दोडतुं आवे छे, अर्थात् ते पूर्ण वीतरागपदने अवश्य प्राप्त करशे.
कोईने थाय के आवी व्याख्या अने आवो धर्म? पांच-दस लाखनुं देरासर बनावीए ने धर्म थाय एम तो सांभळ्युं छे.
तेने कहीए छीए-भाई! एमां धूळेय धर्म नहि थाय. अंदर चैतन्यमूर्ति सच्चिदानंद स्वरूप भगवान शाश्वत स्वरूपे रहेलो छे एनां श्रद्धान-ज्ञान अने रमणता करे तो ज धर्म थाय, अने तो ज मोक्ष पामे. आ एक ज मार्ग छे.
PDF/HTML Page 1656 of 4199
single page version
तो तमे कहो छो ते सत्य न होय-एवो भाव; अने आशंकानो अर्थ तो तमे कहो छो ए समजायुं नथी एवो भाव छे. शंका अने आशंका वच्चे आवो फेर छे. अहीं शिष्य आशंका उपजावीने समजवा मागे छे के-‘अविरत सम्यग्द्रष्टि वगेरेने ज्यांसुधी कर्मनो उदय रहे त्यांसुधी ज्ञान मोक्षनुं कारण केम थई शके?’ एम के एने राग थाय छे, द्वेष थाय छे अने विषय-कषायना भाव पण थाय छे. आवा शुभाशुभ भाव तो एने होय छे; तो कर्मनो उदय रहे त्यां सुधी ज्ञान (-आत्मा) मोक्षनुं कारण केम थई शके?
‘वळी कर्म अने ज्ञान बन्ने साथे केम रही शके? कर्म एटले शुभाशुभ रागनी परिणति अने ज्ञाननी परिणति बन्ने साथे केम रही शके? पांचमे अने छठ्ठे गुणस्थाने विकार होय अने धर्म (निर्विकार परिणाम) पण होय-ए बन्नेय साथे केम होई शके? आ आशंकाना समाधाननुं काव्य कहे छेः-
‘यावत्’ ज्यां सुधी ‘ज्ञानस्य कर्मविरतिः’ ज्ञाननी कर्मविरति ‘सा सम्यक् पाकम् न उपैति’ बराबर परिपूर्णता पामती नथी...एटले शुं कहे छे? के धर्मीने पण ज्यां सुधी पुण्य- पापना भावनी-रागना भावनी निवृत्ति बराबर परिपूर्णताने पामती नथी अर्थात् परिपूर्ण वीतरागता थती नथी-‘तावत्’ त्यां सुधी ‘कर्मज्ञानसमुच्चयः अपि विहितः न काचित् क्षतिः’ कर्म अने ज्ञाननुं एकठापणुं शास्त्रमां कह्युं छे; तेमना एकठा रहेवामां कांई पण क्षति अर्थात् विरोध नथी.
‘अत्र अपि’ अहीं एटलुं विशेष जाणवुं के आत्मामां ‘अवशतः यत् कर्म समुल्लसति’ अवशपणे (-जबरदस्तीथी) जे कर्म प्रगट थाय छे अर्थात् उदय थाय छे ‘तत् बन्धाय’ ते तो बंधनुं कारण थाय छे.
धर्मीने रागनी जरा पण रुचि नथी, छतां तेने शुभाशुभ राग थाय छे. जे पुण्य- पापना भाव एने थाय छे ते बंधनुं कारण थाय छे एम कहे छे.
तो ज्ञानीनो भोग निर्जरानो हेतु छे एम कह्युं छे ने?
हा, पण कई अपेक्षाए? ए तो समकितीने जेने भगवान पूर्णानंदनो नाथ अनुभवमां आव्यो छे तेने द्रष्टिनुं जोर छे. तो ते काळमां एने जे भोगनो भाव आव्यो ते, एने भोगनी रुचि नहि होवाथी निर्जरी जाय छे, खरी जाय छे ए अपेक्षाए ज्ञानीनो भोग निर्जरानो हेतु कह्यो छे. (त्यां एना ए भोगनो महिमा नथी पण द्रष्टिनो ए महिमा छे एम वात छे.) अहीं एम वात छे के धर्मीने जे शुभ के अशुभ परिणाम थाय छे ए तो बंधनुं कारण छे.
PDF/HTML Page 1657 of 4199
single page version
अने ‘मोक्षाय’ मोक्षनुं कारण तो ‘एकम् एव परमं ज्ञानं स्थितम्’ जे एक परम ज्ञान छे ते एक ज थाय छे. अहाहा...! जुओ, धर्मीने जेटलुं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप स्वभावनुं-आनंदनुं परिणमन छे एटलुं मोक्षनुं कारण छे. जेटला शुभाशुभ भाव छे ए बंधनुं कारण छे अने निर्मळ रत्नत्रयनुं जे परिणमन छे ते मोक्षनो हेतु छे.
धर्मीने पण अवशपणे-एटले रुचि नथी छतां नबळाईने कारणे पुण्य-पापना भाव थाय छे. एने पुण्य-पापनी होंश नथी, पण जबरदस्तीथी एटले अस्थिरताने कारणे तेने पुण्य-पापना भाव थाय छे ते बंधनुं कारण थाय छे. अने मोक्षनुं कारण तो जे एक परम ज्ञान छे ते एक ज थाय छे. ‘एकमेव’नो अर्थ कळशटीकामां निष्कर्म कर्यो छे. एटले के कर्मथी निरपेक्षपणे, पुण्य-परिणामनी अपेक्षा विना जे शुद्ध चैतन्यस्वभावनां द्रष्टिज्ञान अने रमणता प्रगट थाय ते एक ज मोक्षनुं कारण छे, अने पुण्य-पापना भाव जे थाय छे ए तो बंधनुं कारण छे.
पूर्ण बंधरहित तो पोते भगवान थाय त्यारे थाय. भगवान केवळी संपूर्ण अबंध छे, मिथ्याद्रष्टिने संपूर्ण बंध छे अने मोक्षमार्गी समकिती साधक जीवने कांईक अबंध अने कांईक बंध छे. समकिती धर्मीने कांईक बंधनो अभाव अने कांईक बंधनो सद्भाव बन्ने एक साथे होय छे. द्रव्यस्वभावने स्पर्शीने साधकने जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप स्वभाव प्रगट थाय ए ज्ञान ज एकलुं मोक्षनुं कारण छे, अने जेटलो शुभाशुभभावे परिणमे एटलुं बंधनुं कारण छे. ‘स्वतः विमुक्तम्’ ज्ञान स्वतः विमुक्त छे. तेथी ज्ञान ज एकलुं मोक्षनुं कारण छे.
ज्यां सुधी पूर्ण वीतरागदशा न थाय त्यां सुधी साधकने रागरहित दशा अने कांईक रागसहित दशा एम बन्ने एकसाथे होय छे. एम बेने साथे रहेवानो विरोध नथी. मिथ्यादर्शन अने सम्यग्दर्शनने साथे रहेवामां विरोध छे. ज्यां मिथ्यादर्शन होय त्यां सम्यग्दर्शन न होय अने समकित होय तो मिथ्यादर्शन न होय. पण कांईक राग अने कांईक वीतरागताने साथे रहेवामां विरोध नथी. पण त्यां जे आत्मदर्शन-ज्ञान अने रमणतारूप वीतरागता छे ते मोक्षनुं कारण थाय छे अने जेटलो पुण्य-पापरूप राग छे ते एकान्त बंधनुं कारण छे. जेटलुं ज्ञान छे ते एकान्त मोक्षनुं कारण छे अने जेटलो राग छे ते एकान्त बंधनुं कारण छे. आवो मार्ग छे. ओलुं तो सहेलुं सट के-‘इच्छामि भंते.........तच्च मिच्छामि द्रुक्कडं’ एम पाठ थई गयो अने थई गयां प्रतिक्रमण अने सामायिक. पण एमां तो धूळेय सामायिक नथी, सांभळने. सामायिक तो एने कहीए जेमां आत्मामां समभाव प्रगट थईने अतीन्द्रिय आनंद प्रगटयो होय. ए सामायिक मोक्षनुं कारण छे अने जेटलो राग वर्ते छे एटलुं बंधनुं कारण छे.
PDF/HTML Page 1658 of 4199
single page version
अहीं कहे छे-जेने आत्मज्ञान थयुं छे तेने रागमांथी प्रेम ऊठी गयो छे, अने भगवान आत्मानी रुचि जागी छे. परंतु हजु एने अपूर्णता-अस्थिरता छे, रागनी पूर्ण निवृत्ति नथी. वीतराग भगवानने रागनी पूर्ण निवृत्ति थई छे, मिथ्याद्रष्टिने भगवान आत्मानी पूर्ण निवृत्ति छे अने साधकने कांईक रागथी निवृत्ति छे अने कांईक रागमां प्रवृत्ति छे. जेटली रागथी निवृत्ति छे ते मोक्षनुं कारण छे अने जेटली रागमां प्रवृत्ति छे तेटलुं बंधनुं कारण छे.
श्रेणीक राजा क्षायिक समकिती हता, हजारो राणीओ हती, हजारो राजा एमनी सेवा करता. एमणे तीर्थंकर गोत्र बांध्युं हतुं, पण नरकनुं आयुष्य बंधाई गयुं हतुं-एटले हाल नरकमां छे. त्यांथी नीकळीने भगवान महावीरनी जेम तीर्थंकर थवाना छे. अत्यारे पहेली नरकमां ८४ हजार वर्षनी स्थितिए छे.
श्रेणीक पहेलां बौद्धधर्मी हता, जैनना द्वेषी मिथ्याद्रष्टि हता. तेमनी राणी चेलणा समकिती जैन धर्मी हती. एक वखते श्रेणीक राजाए जैन मुनिनी डोकमां मरेलो साप नाख्यो. घेर आवीने महाराणी चेलणाने वात करी तो ते खूब खेद पामी. त्यारे राजाए कह्युं, मुनिराजे तो साप कयारनोय काढी नाख्यो हशे. तो चेलणाए कह्युं-महाराज! ए तो मुनिने उपसर्ग थयो, जैन मुनि तो उपसर्गना समये ध्यानस्थ रहे पण उपसर्ग दूर करवानी चेष्टा न करे. बीजे दिवसे खात्री करवा बंने मुनि पासे गयां तो जोयुं के गळामां सर्प एम ज हतो अने एना उपर करोडो कीडीओ चढी हती. मुनिने शरीरनुं लक्ष ज न हतुं, ए तो आत्मध्यानमां लीन हता. श्रेणीक राजा तो जोईने आभो ज बनी गयो अने विचारवा लाग्यो के-आवो जैन धर्म अने आवा मुनि! धन्य मुनिदशा! बन्नेए मुनिनो उपसर्ग दूर कर्यो. त्यार पछी मुनिराजना धर्मोपदेशने प्राप्त थई श्रेणीक समकित पाम्या.
मुनिनी विराधनाथी जे सातमी नरकनुं ३३ सागरोपमनुं आयुष्य बंधायुं हतुं ते स्थिति तोडी नाखी अने पहेली नरकनी ८४ हजार वर्षनी स्थिति बंधाई गई. गति तो रही पण आयुनी स्थिति घटी गई. हाल श्रेणीकनो जीव नरकमां छे. अढी हजार वर्ष गयां छे अने ८११/
आवीने एमनी मातानी सेवा करशे.
समकित थया पछी श्रेणीके भगवाननी सभामां जई दिव्य देशना सांभळी अने त्यां क्षायिक समकित पामीने तीर्थंकर गोत्र बांध्युं. आ श्रेणीक राजाने हजारो राणीओ हती, हजारो राजाओ सेवा करता हता, हीराजडित सिंहासन पर बिराजता, इत्यादि प्रकारे राग तो हतो पण अंदर साथे समकित पण हतुं. हुं तो पूर्णानंदनो नाथ छुं, राग छे ते चीज मारी नथी, पर्यायमां अपूर्णता छे ए पण हुं नथी एवुं
PDF/HTML Page 1659 of 4199
single page version
निर्मळ श्रद्धान अने अतीन्द्रिय आनंदना वेदन सहित आत्मप्रतीति अने ज्ञान हतां. अहीं ए समकित अने आनंद जे हतां ए तो मोक्षनुं कारण कह्युं अने जे अवशेष राग हतो एने बंधनुं कारण कह्युं. आ रीते ज्ञानीने एकसाथे कर्मधारा अने ज्ञानधारा बन्ने होय छे, केवळीने एकली ज्ञानधारा छे अने अज्ञानीने एकली कर्मधारा होय छे. आशय एम छे के-ज्ञानीने जेटली सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निर्मळ परिणति थाय ते एकान्ते मोक्षनुं ज कारण छे, बंधनुं नहि अने तेने जेटलो शुभाशुभ राग छे ते एकान्ते बंधनुं ज कारण छे अने बीलकुल मोक्षनुं नहि.
‘ज्यां सुधी यथाख्यातचारित्र थतुं नथी त्यां सुधी सम्यग्द्रष्टिने बे धारा रहे छे- शुभाशुभ कर्मधारा अने ज्ञानधारा.’
शुं कह्युं? के सम्यग्द्रष्टिने आत्मानुं दर्शन थयुं, भान (-ज्ञान) थयुं अने अंशे शुद्धनुं परिणमन पण थयुं पण परिपूर्ण शुद्धनुं परिणमन-यथाख्यातचारित्र न थाय त्यां सुधी बे धारा रहे छे; एक शुभाशुभ कर्मधारा एटले रागधारा अने बीजी ज्ञानधारा. अहीं रागधारामां एकली शुभ लीधी नथी पण शुभ अने अशुभ बेय होय छे अने ज्ञानधारा, रागथी भिन्न एवी आत्मज्ञाननी धारा पण वहे छे.
‘ते बन्ने साथे रहेवामां कांई पण विरोध नथी.’
शुद्ध चैतन्यस्वभावना अवलंबनथी प्रगटेली सम्यग्दर्शननी ज्ञानधारा अने परना अवलंबनथी प्रगटेली शुभाशुभ भावनी रागधारा-ए बेय एक समये रहेवामां विरोध नथी. जेम सम्यग्ज्ञान अने मिथ्याज्ञानने साथे रहेवामां परस्पर विरोध छे एम अहीं नथी. जेम मिथ्याज्ञान होय त्यां सम्यग्ज्ञान न होय अने सम्यग्ज्ञान होय त्यां मिथ्याज्ञान न होय एवुं अहीं नथी. अहीं तो कर्मसामान्य एटले पुण्य-पापना भाव अने ज्ञानने साथे रहेवामां विरोध नथी एम कहे छे.
समकितीने चोथे गुणस्थाने लडाईना भाव पण होय छे अने पांचमा गुणस्थान सुधी रौद्रध्यान होय छे. ए अशुभ रागनी धारा छे, अने सम्यग्दर्शन-ज्ञान अने अंशे स्थिरता छे ते ज्ञानधारा छे. रागनी अशांतिनी धारा छे अने सम्यग्दर्शन-ज्ञाननी शांतिनी धारा छे. हवे कहे छे-
‘ते स्थितिमां कर्म पोतानुं कार्य करे छे अने ज्ञान पोतानुं कार्य करे छे.’
आवी स्थितिमां कर्म एटले पुण्य-पापना भाव बंधनुं कार्य करे छे अने स्वभावना अवलंबने प्रगटेलां जे दर्शन-ज्ञान ते शुद्धता अने शुद्धतानी वृद्धिनुं अर्थात् संवर-निर्जरानुं काम करे छे. साधकने एक समये बेय होय छे अने बेयनुं काम भिन्न-भिन्न छे.
PDF/HTML Page 1660 of 4199
single page version
वीतरागने कर्मधारा होती नथी, एकली ज्ञानधारा छे; मिथ्याद्रष्टिने ज्ञानधारा होती नथी, एकली कर्मधारा होय छे. अहा! जेने चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मानो चैतन्यप्रकाश पर्यायमां प्रगटयो नथी एवा मिथ्यात्वी जीवने एकली कर्मधारा-रागधारा वर्ते छे. तेने केवळ बंध ज छे. अहीं साधकने बेय धारा साथे होय छे एनी वात छे. साधकने-ज्ञानीने जे शुभ- अशुभ भाव आवे छे ते बंधनुं कारण बने छे. एने जे दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा इत्यादिना भाव वर्ते छे ते बंधनुं कारण बने छे, मोक्षनुं नहि. जे बंधनुं कारण छे अने जे हेय छे ते मोक्षनुं साधन केम होय? (न होय).
प्रश्नः– पंचास्तिकायमां एने साधन कह्युं छे ने?
उत्तरः– ए तो धर्मीने एवा शुभभाव निश्चयधर्मनी साथे सहवर्ती होय छे एनुं ज्ञान कराववा एने उपचारथी साधन कह्युं छे. खरेखर ए साधन नथी. निश्चयथी जेने स्वरूपनी द्रष्टि अने अनुभव थयां छे एवा जीवने बहारमां देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग होय छे. ए रागने व्यवहारथी व्यवहार समकित कह्युं छे पण तेथी कांई ए समकित नथी. ए तो राग ज छे अने बंधनुं ज कारण छे. भाई! जेटलुं स्वावलंबन प्रगटयुं छे एटलो संवर-निर्जरारूप मोक्षमार्ग छे अने जेटलो परावलंबी भाव छे ते चाहे तो भगवाननी भक्तिरूपे हो, के व्रत- तपरूपे हो, ए परावलंबी भाव बंधनुं ज कारण छे, मोक्षनुं साधन नथी. एने साधन कहेवुं ए तो उपचारमात्र छे. निश्चय अने व्यवहारनुं बधे आ प्रमाणे लक्षण समजवुं. मोक्षमार्गप्रकाशकमां पंडित प्रवर टोडरमलजीए आनो सरस खुलासो कर्यो छे. (पानुं २प३- २पप-२प६).
श्रीमद राजचंद्रे आत्मसिद्धिमां कह्युं छे के -‘एक होय त्रण काळमां परमारथनो पंथ.’ परमार्थनो पंथ एक ज होय. पोतानी शुद्ध चैतन्यस्वभावमय जे वस्तु तेनुं अवलंबन-आश्रय लेवाथी जे दशा प्रगट थाय ते एक ज मोक्षनो मार्ग छे. बे मोक्षमार्ग छे ज नहि. बेनुं तो निरूपण होय छे, पण एमां एक तो यथार्थनुं निरूपण छे अने बीजुं आरोपित कथन छे. बे मोक्षमार्ग मानवा ए तो भ्रम छे.
त्यारे कोई पंडित वळी अत्यारे एम कहे छे के बे मोक्षमार्ग न माने ए भ्रम छे. अरे भगवान! तुं आ शुं कहे छे? तारा हितनी वात तो अहीं आ कही छे के-‘जेटला अंशे शुभाशुभ कर्मधारा छे तेटला अंशे कर्मबंध थाय छे अने जेटला अंशे ज्ञानधारा छे तेटला अंशे कर्मनो नाश थतो जाय छे. विषय-कषायना विकल्पो के व्रत-नियमना विकल्पो-शुद्ध स्वरूपनो विचार सुद्धां-कर्मबंधनुं कारण छे.’
समकितीने पांचमे गुणस्थाने तीर्थंकर जेवाने पण अशुभभाव होय छे. उत्तर पुराणमां पाठ छे के-कोई तीर्थंकर चक्रवर्ती के कामदेव होय ते आठमा वर्षे पंचम