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नथी. आत्मानुं विकारी-अशुद्ध परिणमन कर्मने लईने थाय छे एम नथी; तेम द्रव्य-गुणने लईने थाय छे एम पण नथी, केमके द्रव्य-गुण तो सदाय शुद्ध-निर्मळ छे. त्यां पंचास्तिकायमां अस्तिकाय सिद्ध करवुं छे ने? सत्ने अहेतुक सिद्ध करवुं छे. तेथी विकारी पर्यायनुं परिणमन पण पोताना कर्ता, कर्म आदि षट्कारकोने लीधे परथी निरपेक्ष स्वतंत्र छे एम त्यां कह्युं छे.
अहीं कहे छे के-पोताना अपराधथी रागमां रोकाणो ए मिथ्यात्वभाव छे. अरे भगवान! स्वभावमां-चैतन्यस्वरूपमां आववुं जोईए. एने ठेकाणे रागमां रोकाणो ए मिथ्यादर्शन छे. आवी वात छे.
प्रश्नः– तो समकितीने पण पंचपरमेष्ठीनी भक्ति आदि तो होय छे?
उत्तरः– हा, समकितीने पंचपरमेष्ठीनी भक्ति आदि शुभराग होय छे. पण तेने ते मोक्षनुं कारण थाय छे एम नथी. जेटलो शुभराग छे तेटलो तो बंधनुं ज कारण छे. वळी तेने जे राग आवे छे तेमां ते रोकाईने रहेतो नथी पण एना जाणनार-देखनार स्वरूपे रहे छे. एने रागनुं स्वामित्व के रागमां अहंबुद्धि नथी. जेटलो राग छे ते तेने चारित्रनो दोष छे एने एटलो (अल्प पण) बंध ज छे. भाई! शुभरागना-व्यवहारना कारणे आत्माने मोक्षनुं कारण प्रगटे एवो आत्मानो स्वभाव ज नथी.
ज्यारे द्रष्टि अने द्रष्टिना विषयनी अपेक्षा होय त्यारे ज्ञानी निरास्रव अने निर्बंध छे एम कथन आवे छे. ज्यारे ज्ञाननी अपेक्षा लईए त्यारे जेटले अंशे ज्ञानी रागद्वेषभावे परिणमे एटलो एनो अपराध छे एम ते जाणे छे. ए अपराध पोतानी (पर्यायनी) सत्तामां छे. वळी ज्यारे चारित्र अपेक्षाथी कहीए त्यारे ए रागना परिणाम झेर छे एम कहेवाय. राग द्रष्टिनी अपेक्षाए पर छे, ज्ञाननी अपेक्षाए पोतानुं ज्ञेय छे अने चारित्रनी अपेक्षाए झेर छे. अहो! आवा परमामृतनी वात बीजे कयांय नथी. बापु! बीजे तो बधो मूळथी फेरफार थई गयो छे. भाई! शुं करीए! वीतराग परमेश्वरनो आ मार्ग लोकोने यथार्थ सांभळवामां- समजवामां आव्यो नथी!
भगवान! तुं परमात्मस्वरूप छो. जेम परमेश्वर-परमात्मा सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी पर्यायपणे छे तेम तुं सर्वज्ञ-सर्वदर्शी त्रिकाळी द्रव्यस्वरूप छो. आवा त्रिकाळी द्रव्यस्वरूपने न जोतां रागने जोवामां अटकयो छे तेथी सर्व प्रकारे संपूर्ण-अनंतज्ञान, अनंतसुख इत्यादि अनंत सामर्थ्यथी भरेला अनंतगुणमंडित परिपूर्ण-एवा आत्माने (पोताने) जाणतो नथी; सर्व प्रकारे सर्वज्ञेयोने जाणनारा एवा पोताने जाणतो नथी. जुओ, अहीं रागमां रोकायेलो जीव सर्वज्ञेयोने जाणतो नथी एम न कह्युं पण सर्वज्ञेयोने
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जाणनार एवा पोताने (-आत्माने) जाणतो नथी एम कह्युं छे. (पोताने जाणवुं ए मुख्य छे केमके पोताने जाणे छे ते सर्वने जाणे छे अने पोताने जाणतो नथी ते सर्वने जाणतो नथी). समजाणुं कांई...?
अहा! जेनी सभामां इन्द्रो तथा गणधरो बेठेला होय एवा भगवान ज्यां बिराजे छे ते क्षेत्रथी वर्तमानमां विरह पडयो! जंबूद्वीपना पूर्व विदेहमां अत्यारे साक्षात् सीमंधर भगवान बिराजी रह्या छे. तेमनी पासे भगवान कुंदकुंदाचार्य संवत् ४९ मां गया हता, आठ दिवस त्यां रह्या हता. सदेहे साक्षात् परमात्मानी जात्रा करी हती अने भगवाननी वाणी सांभळी हती. श्रुतकेवळी भगवंतो साथे पण चर्चा करी हती. अने भरतमां पाछा आवी भगवाननो जे संदेश लाव्या हता ते आ शास्त्रमां प्रगट कर्यो छे. अहो कुंदकुंदाचार्य! अहो समयसार! आ समयसार तो भरतक्षेत्रनो भगवान छे. एवा आ समयसारनी टीका भगवान अमृतचंद्राचार्यदेवे करी छे. शुं टीका छे! एकलां अमृत रेडयां छे. आवे छे ने के-
अहो! त्रण लोकना नाथनो संदेशो प्रगट करीने -जाहेर करीने आचार्य भगवंतोए परमामृत वरसाव्यां छे. एक एक गाथामां केटकेटलुं भर्युं छे, हें!
पहेलां आव्युं हतुं के -राग ए मोक्षना मार्गनी परिणतिनुं घातक छे. हवे कहे छे के राग पोते बंधस्वरूप छे अने तेथी तेनो निषेध छे. सर्वने जाणवा-देखवानो स्वभाव तो अबंधस्वरूप छे. आवो अबंधस्वरूप भगवान आत्मा रागमां रोकावाथी पोताने जाणतो नथी; अहा! सर्व ज्ञेयोने जाणनार एवा पोताने ते जाणतो नथी! पोताने जाणतो नथी एम कीधुं, पण सर्वज्ञेयोने जाणतो नथी एम न कीधुं. केमके पोताने जाणवुं ए निश्चय छे अने परने जाणवुं ए व्यवहार छे.
सर्वने एटले स्व अने परने (एकला परने एम नहि) जाणनार-देखनार एवो भगवान आत्मा पोते रागमां रोकाई रहीने पोताने नहि जाणतो थको प्रत्यक्ष अज्ञानभावे प्रवर्ते छे. जुओ, आ बंधस्वरूपने सिद्ध करे छे. ए शुभभाव अने शुभभावमां रोकाई रहेवुं ए बंधस्वरूप छे, अज्ञानस्वरूप छे. ते जे रागमां वर्ते छे ते प्रत्यक्ष अज्ञान भावरूप दशा छे. रागमां जाणवानी शक्ति कयां छे? शुभराग हो तोपण ते पोताने के आत्माने जाणतो नथी. राग तो सर्व अचेतन, अज्ञानमय ज छे.
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‘ए प्रमाणे प्रत्यक्ष अज्ञानभावे वर्ते छे’ एटले शुं? सर्वज्ञ-सर्वदर्शी-सर्वने (स्व- परने) जाणवा-देखवाना स्वभाववाळो पोते पोताने जाणवामां नहि प्रवर्ततां रागने-परने ज जाणवामां प्रवर्ते छे ते अज्ञानभाव छे. राग पोते ज अज्ञानमय भाव छे ने? तेमां रोकाई रही प्रवर्तवुं ते अज्ञानभावरूप प्रवर्तन छे. अहा! ज्ञानस्वभावी पोताना भगवानने देखतो- जाणतो नथी ते मिथ्यादर्शन छे, अज्ञान छे. हवे कहे छे-
‘तेथी ए नक्की थयुं के कर्म पोते ज बंधस्वरूप छे. माटे, पोते बंधस्वरूप होवाथी कर्मने निषेधवामां आव्युं छे.’ जुओ आ सिद्ध कर्युं के व्रत, तप, भक्ति, दान, शील, पूजा इत्यादिना शुभभावरूप जे कर्म ते बंधस्वरूप छे. अहीं कर्म एटले रागरूप कार्यनी वात छे, जड पुद्गलकर्मनी वात नथी. पोते बंधस्वरूप होवाथी व्रतादि कर्म निषेधवामां आव्युं छे. हवे आवी वात शुभभाव वडे धर्म थवानुं मानता होय एमने आकरी पडे एवी छे. बे पांच उपवास कर्या, आहारपाणीनो त्याग कर्यो अने रस छोडया होय एटले माने के थई गयो धर्म. एमां धूळेय धर्म नथी, सांभळने भाई! ए तो बधी रागनी क्रिया बंधस्वरूप छे अने एमां तुं धर्म माने छे ते मिथ्यात्व छे. भगवाने तो कर्म पोते ज बंधस्वरूप होवाथी मोक्षमार्गमां निषेध्युं छे.
आवे छे ने पचीस प्रकारना मिथ्यात्व? अधर्मने धर्म माने तो मिथ्यात्व, धर्मने अधर्म माने तो मिथ्यात्व, साधुने कुसाधु माने तो मिथ्यात्व अने कुसाधुने साधु माने तो मिथ्यात्व, इत्यादि. पण एने खबर कयां छे के मिथ्यात्व कोने कहेवुं अने साधु कोने कहेवाय? अहीं तो आ स्पष्ट वात छे के-पोते ज बंधस्वरूप होवाथी कर्मने निषेधवामां आव्युं छे. आ तो बार अंगनो सार छे. शुभराग बंधस्वरूप होवाथी तेने निषेधवामां आव्यो छे. शुभभाव कांई धर्म नथी, एटले के अधर्म छे. आकरी लागे पण सत्य वात छे, बापा! बंधस्वरूप कहो के अधर्मस्वरूप कहो, बन्ने एक ज वात छे. समजाणुं कांई...
‘अहीं पण ‘‘ज्ञान’’ शब्दथी आत्मा समजवो.’
पाठमां ज्ञान शब्द छे ने? ए ज्ञान एटले आत्मा अर्थात् आत्मपदार्थ.
‘ज्ञान अर्थात आत्मद्रव्य स्वभावथी तो सर्वने देखनारुं तथा जाणनारुं छे परंतु अनादिथी पोते अपराधी होवाथी कर्म वडे आच्छादित छे. अने तेथी पोताना संपूर्ण स्वरूपने जाणतुं नथी; ए रीते अज्ञानदशामां वर्ते छे.’
अहीं कर्म वडे आच्छादित छे एम कह्युं त्यां आत्मद्रव्य पुण्य-पापरूप भावकर्म
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वडे आच्छादित-ढंकायेलुं छे एम समजवुं. भावकर्म छे ए भावघाती छे अने द्रव्यघाती कर्म छे ए तो जड छे, पर छे. शुं परद्रव्य आत्माने रोके? (ना). पोतानो अपराध जे भावकर्म ते एने रोके छे. भावकर्म एनुं वेरी छे. पर एने भलुं माने अने पोतानुं स्वरूप माने ए ज महा अपराध छे. झीणी वात, बापा!
भाई! आवो मनुष्यदेह मळ्यो अने एमां वीतराग मार्गने-भगवान जिनेश्वरदेवना पंथने न ओळख्यो तो जन्म-मरणना आंटा नहि मटे. जेम वंटोळिये चढेलुं तणखलुं कयां जईने पडे ते नक्की नथी तेम अज्ञानना पंथे चढेलो जीव कागडे-कूतरे कंथवे-कयां जईने पडशे बापु! ए विचारवा जेवुं छे. भगवान! तुं जन्म-मरणनी चक्कीमां आज सुधी पीसाईने मरी गयो छे. वर्तमानमां कांईक बहारमां संजोगो ठीक होय, शरीर ठीक होय, बायडी-छोकरां अनुकूळ होय अने पांच-पचास लाखनी संपत्ति होय एटले जाणे के ठीक छे पण धूळेय ठीक नथी, सांभळने. ए तो बधी पर चीज छे. अनंत ज्ञान-दर्शननी लक्ष्मीथी भरेलो भगवान तुं छे एनी तने रुचि नथी अने आ परनी-धूळनी रुचि छे तो कहीए छीए के तुं अबजोपति होय तोय भिखारो छे. अरे भगवान! आ सर्वने देखनार-जाणनारनो स्वामी न थतां तुं जडनो (धूळनो) स्वामी थयो!
अहीं कहे छे-भगवान! तुं रागमां रोकायो छे ए तारो अपराध छे; कोई (जड) कर्मनो दोष नथी. आम अनादिथी अपराधी होवाथी कर्म वडे आच्छादित छे तेथी पोताना संपूर्ण स्वरूपने जाणतो नथी. जोयुं? परने-सर्वने जाणतो नथी एम नहि पण पोतानुं जे स्व- परने जाणवा-देखवारूप संपूर्ण स्वरूप तेने जाणतो नथी एम कहे छे. स्व-परने सर्वने जाणवा-देखवानो जेनो स्वभाव छे ते जाणनारो जाणनारने पोताने जाणतो नथी; अने ए रीते अज्ञानदशामां वर्ते छे. आचार्यदेव न्यायथी तो वात करे छे; पण समजवुं होय एने ने? भाई! मारी-मचडीने गमे तेम कोई वात करे ए कांई वस्तु नथी. आ तो न्यायथी सिद्ध थयेली वात छे.
सम्यग्दर्शनमां जेवुं पोतानुं संपूर्ण स्वरूप छे तेवी ज प्रतीति थाय छे. केवळज्ञान आदि भले पछी प्रगट थशे पण वर्तमानमां सम्यग्द्रष्टिने अनंतगुणनो पिंड सदाय स्व-परने सर्वने जाणवा-देखवाना स्वभावे रहेलो परिपूर्ण भगवान आत्मा प्रतीतिमां आवेलो होय छे. हुं मारामां परिपूर्ण छुं एवुं समकितीने यथार्थ श्रद्धान होय छे. ए रागने के अल्पज्ञ पर्यायने पोतानी मानतो नथी अर्थात् ए पर्याय जेवडो हुं छुं एम ते मानतो नथी.
जुओ, समकितीना चोथा गुणस्थाननी आ वात छे. भगवान! हजु सम्यग्दर्शन (चोथा गुणस्थान)नां ठेकाणां नथी त्यां व्रत, तप ने चारित्र कयांथी आवी गयां? एकडा
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विनानां मींडांनी संख्या कयांथी थई गई? अहीं तो कहे छे के व्रतादिना रागमां रोकाई रहेवाथी ते संपूर्ण पोताना स्वरूपने जाणतो नथी अने ए रीते अज्ञानदशामां वर्ते छे. रागमां रोकाई रहे ए मिथ्याद्रष्टि छे; एने कोई साचां व्रत, तप, चारित्र होई शकतां नथी. वात आकरी लागे पण आ सत्य वात छे. हवे कहे छे-
‘आ प्रमाणे केवळज्ञानस्वरूप अथवा मुक्तस्वरूप आत्मा कर्म वडे लिप्त होवाथी अज्ञानरूप अथवा बद्धरूप वर्ते छे, माटे ए नक्की थयुं के कर्म पोते ज बंधस्वरूप छे. तेथी कर्मनो निषेध करवामां आव्यो छे.’
अहाहा...! केवळ एकलो ज्ञानस्वरूप, प्रज्ञाब्रह्म, ज्ञाननी मूर्ति एकलो ज्ञाननो रसकंद भगवान आत्मा सदा मुक्तस्वरूप ज छे. केवळ देखवा-जाणवाना स्वरूपे छे एमां बंध कयांथी होय? भगवान आत्मा पोते अबंधस्वरूप ज छे. बंधनी सामे लेवुं छे ने? आवो केवळज्ञान स्वरूप वा मुक्तस्वरूप आत्मा कर्म वडे पुण्य-पापना भाव वडे लिप्त होवाथी अज्ञानरूप वा बंधरूपे वर्ते छे, रागमां अज्ञानपणे वर्ते छे. माटे एम नक्की थयुं के कर्म पोते ज बंधस्वरूप छे. पोते (कर्म) बंधस्वरूप होवाथी कर्मनो-शुभाशुभभावनो निषेध करवामां आव्यो छे.
जुओ, आत्माना संबंधमां भेख बे प्रकारना छे-एक जडकर्मनो भेख ए अजीव बंध छे, द्रव्यबंध छे, बीजो रागनो भेख ए जीवबंध छे, भावबंध छे. भावबंध छे ए चेतननो विकारी भेख छे.
कर्मथी पूर्ण छूटवुं ए द्रव्यमोक्ष छे. अने भावथी-अपूर्णता अने रागथी पूर्ण छूटी जवुं ए भावमोक्ष छे. मोक्ष छे ए पण आत्मानो एक भेख छे. द्रव्य छे ए त्रिकाळी छे अने मोक्ष छे ए एनो पर्यायरूप भेख छे. मोक्षनी पर्याय छे ए कांई द्रव्यनुं त्रिकाळी स्वरूप नथी. तथापि मोक्ष छे ते पूर्ण निर्विकार चैतन्यमय पर्याय होवाथी ते आत्मानो वास्तविक भेख छे-तेथी तेनो निषेध नथी. (प्रगट करवानी अपेक्षाए वात छे).
अहीं तो एणे जे अनादिथी बंधनो भेख धारण कर्यो छे एनी वात छे. अहा! अबंधस्वरूप सर्वज्ञानी-सर्वदर्शी एवो पोते पोताने जाणतो नथी केमके ए कर्म अने रागने जाणवामां रोकाई गयो छे. बीजी रीते कहीए तो राग जे परज्ञेय छे ते जाणे पोतानुं ज्ञेय होय, स्वज्ञेयरूप होय तेम राग छे ते हुं छुं एम मानी बेठो छे. तेथी पोतानुं त्रिकाळी ज्ञान-दर्शनमय अबंध तत्त्व एनी द्रष्टिमां आवतुं नथी. आ ज एनो मिथ्यात्वनो महा अपराध छे. तेथी कर्मनो निषेध करवामां आव्यो छे.
शुभभाव छे ए बंधस्वरूप छे, पोते बंधअवस्थारूप छे. खरेखर तो ए ज्ञाननुं ज्ञेयमात्र छे पण एम न मानतां अज्ञानी ए हुं छुं एम मानी एमां रोकाई रहे छे
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अने ए ज मिथ्यात्वरूप महाबंध छे. समजाणुं कांई...? ल्यो, आ कर्मनो निषेध करनारा त्रण बोल पैकी बे थया.
२. शुभभाव स्वयं बंधस्वरूप छे माटे तेनो निषेध करवामां आव्यो छे.
३. शुभभावनां श्रद्धान-ज्ञान अने आचरण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्गथी
गाथाओमां (१६१, १६२, १६३ मां) कहेशे.
हवे आवी वात कयां छे, बापा? सांभळवा मळवी पण दुर्लभ छे.
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अथ कर्मणो मोक्षहेतुतिरोधायिभावत्वं दर्शयति–
तस्सोदयेण जीवो मिच्छादिट्ठि त्ति णादव्वो।। १६१ ।।
तस्सोदयेण जीवो अण्णाणी होदि णादव्वो।। १६२ ।।
तस्सोदयेण जीवो अचरित्तो होदि णादव्वो।। १६३ ।।
तस्योदयेन जीवो मिथ्याद्रष्टिरिति ज्ञातव्यः।। १६१ ।।
तस्योदयेन जीवोऽज्ञानी भवति ज्ञातव्यः।। १६२ ।।
तस्योदयेन जीवोऽचारित्रो भवति ज्ञातव्यः।। १६३ ।।
हवे, कर्म मोक्षना कारणना तिरोधायिभावस्वरूप (अर्थात् मिथ्यात्वादिभावस्वरूप) छे एम बतावे छेः-
एना उदयथी जीव मिथ्यात्वी बने एम जाणवुं. १६१.
एना उदयथी जीव अज्ञानी बने एम जाणवुं. १६२.
एना उदयथी जीव बने चारित्रहीन एम जाणवुं.१६३.
गाथार्थः– [सम्यक्त्वप्रतिनिबद्धं] सम्यक्त्वने रोकनारुं [मिथ्यात्वं] मिथ्यात्व छे एम [जिनवरैः] जिनवरोए [परिकथितम्] कह्युं छे; [तस्य उदयेन] तेना उदयथी [जीवः] जीव [मिथ्याद्रष्टिः] मिथ्याद्रष्टि थाय छे [इति ज्ञातव्यः] एम जाणवुं. [ज्ञानस्य
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संन्यस्ते सति तत्र का किल कथा पुण्यस्य पापस्य वा।
सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्भवन्
नैष्कर्म्यप्रतिबद्धमुद्धतरसं ज्ञानं स्वयं धावति।। १०९ ।।
प्रतिनिबद्धं] ज्ञानने रोकानारुं [अज्ञानं] अज्ञान छे एम [जिनवरैः] जिनवरोए [परिकथितम्] कह्युं छे; [तस्य उदयेन] तेना उदयथी [जीवः] जीव [अज्ञानी] अज्ञानी [भवति] थाय छे [ज्ञातव्यः] एम जाणवुं. [चारित्रप्रतिनिबद्धः] चारित्रने रोकानार [कषायः] कषाय छे एम [जिनवरैः] जिनवरोए [परिकथितः] कह्युं छे; [तस्य उदयेन] तेना उदयथी [जीवः] जीव [अचारित्रः] अचारित्री [भवति] थाय छे [ज्ञातव्यः] एम जाणवुं.
टीकाः– सम्यक्त्व के जे मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे तेने रोकनारुं मिथ्यात्व छे; ते (मिथ्यात्व) तो पोते कर्म ज छे, तेना उदयथी ज ज्ञानने मिथ्याद्रष्टिपणुंथाय छे. ज्ञान के जे मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे तेने रोकनारुं अज्ञान छे; ते तो पोते कर्म ज छे, तेना उदयथी ज ज्ञानने अज्ञानीपणुं थाय छे. चारित्र के जे मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे तेने रोकनार कषाय छे; ते तो पोते कर्म ज छे, तेना उदयथी ज ज्ञानने अचारित्रीपणुं थाय छे. माटे, (कर्म) पोते मोक्षना कारणना तिरोधायिभावस्वरूप होवाथी कर्मने निषेधवामां आव्युं छे.
भावार्थः– सम्यग्दर्शन, ज्ञान अने चारित्र मोक्षना कारणरूप भावो छे तेमनाथी विपरीत मिथ्यात्वादि भावो छे; कर्म ते मिथ्यात्वादि भावो-स्वरूप छे. आ रीते कर्म मोक्षना कारणभूत भावोथी विपरीत भावो-स्वरूप छे
पहेलां त्रण गाथाओमां कह्युं हतुं के कर्म मोक्षना कारणरूप भावोनुं-सम्यक्त्वादिनुं-घातक छे. पछीनी एक गाथामां एम कह्युं के कर्म पोते ज बंधस्वरूप छे. आ छेल्ली त्रण गाथाओमां कह्युं के कर्म मोक्षना कारणरूप भावोथी विरोधी भावोस्वरूप छे-मिथ्यात्वादिस्वरूप छे. आ प्रमाणे एम बताव्युं के कर्म मोक्षना कारणनुं घातक छे, बंधस्वरूप छे अने बंधना कारणस्वरूप छे, माटे निषिद्ध छे.
अशुभ कर्म तो मोक्षनुं कारण छे ज नहि, बाधक ज छे, तेथी निषिद्ध ज छे; परंतु शुभ कर्म पण कर्मसामान्यमां आवी जतुं होवाथी ते पण बाधक ज छे तेथी निषिद्ध ज छे एम जाणवुं.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [मोक्षार्थिना इदं समस्तम् अपि तत् कर्म एव संन्यस्तव्यम्] मोक्षार्थीए आ सघळुंय कर्ममात्र त्यागवा योग्य छे. [संन्यस्ते सति तत्र पुण्यस्य पापस्य
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कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्षतिः।
किन्त्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बन्धाय तन्–
मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः।। ११० ।।
वा किल का कथा] ज्यां समस्त कर्म छोडवामां आवे छे त्यां पछी पुण्य के पापनी शी वात? (कर्ममात्र त्याज्य छे त्यां पुण्य सारुं अने पाप खराब-एवी वातने कयां अवकाश छे? कर्मसामान्यमां बन्ने आवी गयां.) [सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनात् मोक्षस्य हेतुः भवन्] समस्त कर्मनो त्याग थतां, सम्यक्त्वादि जे पोतानो स्वभाव ते-रूपे थवाथी-परिणमवाथी मोक्षना कारणभूत थतुं, [नैष्कर्म्यप्रतिबद्धम् उद्धतरसं] निष्कर्म अवस्था साथे जेनो उद्धत (-उत्कट) रस प्रतिबद्ध अर्थात् संकळायेलो छे एवुं [ज्ञानं] ज्ञान [स्वयं] आपोआप [धावति] दोडयुं आवे छे.
भावार्थः– कर्मने दूर करीने, पोताना सम्यक्त्वादिस्वभावरूपे परिणमवाथी मोक्षना कारणरूप थतुं ज्ञान आपोआप प्रगट थाय छे, त्यां पछी तेने कोण रोकी शके? १०९
हवे आशंका ऊपजे छे के-अविरत सम्यग्द्रष्टि वगेरेने ज्यां सुधी कर्मनो उदय रहे त्यां सुधी ज्ञान मोक्षनुं कारण केम थई शके? वळी कर्म अने ज्ञान बन्ने (-कर्मना निमित्ते थती शुभाशुभ परिणति अने ज्ञानपरिणति बन्ने-) साथे केम रही शके? ते आशंकाना समाधाननुं काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [यावत्] ज्यां सुधी [ज्ञानस्य कर्मविरतिः] ज्ञाननी कर्मविरति [सा सम्यक् पाकम् न उपैति] बराबर परिपूर्णता पामती नथी [तावत्] त्यां सुधी [कर्मज्ञानसमुच्चयः अपि विहितः, न काचित् क्षतिः] कर्म अने ज्ञाननुं एकठापणुं शास्त्रमां कह्युं छे; तेमना एकठा रहेवामां कांई पण क्षति अर्थात् विरोध नथी. [किन्तु] परंतु [अत्र अपि] अहीं एटलुं विशेष जाणवुं के आत्मामां [अवशतः यत् कर्म समुल्लसति] अवशपणे (-जबर- दस्तीथी) जे कर्म प्रगट थाय छे अर्थात् उदय थाय छे [तत् बन्धाय] ते तो बंधनुं कारण थाय छे, अने [मोक्षाय] मोक्षनुं कारण तो, [एकम् एव परमं ज्ञानं स्थितम्] जे एक परम ज्ञान छे ते एक ज थाय छे- [स्वतः विमुक्तं] के जे ज्ञान स्वतःविमुक्त छे (अर्थात् त्रणे काळे परद्रव्य- भावोथी भिन्न छे).
भावार्थः– ज्यां सुधी यथाख्यात चारित्र थतुं नथी त्यां सुधी सम्यग्द्रष्टिने बे धारा रहे छे-शुभाशुभ कर्मधारा अने ज्ञानधारा. ते बन्ने साथे रहेवामां कांई
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मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः।
विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं
ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च।। १११ ।।
पण विरोध नथी. (जेम मिथ्याज्ञानने अने सम्यग्ज्ञानने परस्पर विरोध छे तेम कर्मसामान्यने अने ज्ञानने विरोधी नथी.) ते स्थितिमां कर्म पोतानुं कार्य करे छे अने ज्ञान पोतानुं कार्य करे छे. जेटला अंशे शुभाशुभ कर्मधारा छे तेटला अंशे कर्मबंध थाय छे अने जेटला अंशे ज्ञानधारा छे तेटला अंशे कर्मनो नाश थतो जाय छे. विषय-कषायना विकल्पो के व्रतनियमना विकल्पो- शुद्ध स्वरूपनो विचार सुद्धां-कर्मबंधनुं कारण छे; शुद्ध परिणतिरूप ज्ञानधारा ज मोक्षनुं कारण छे. ११०.
हवे कर्म अने ज्ञाननो नयविभाग बतावे छेः-
श्लोकार्थः– [कर्मनयावलम्बनपराः मग्नाः] कर्मनयना आलंबनमां तत्पर (अर्थात कर्मनयना पक्षपाती) पुरुषो डुबेला छे [यत्] कारण के [ज्ञानं न जानन्ति] तेओ ज्ञानने जाणता नथी. [ज्ञाननय–एषिणः अपि मग्नाः] ज्ञाननयना इच्छक (अर्थात पक्षपाती) पुरुषो पण डुबेला छे [यत्] कारण के [अतिस्वच्छन्दमन्द–उद्यमाः] तेओ स्वच्छंदथी अति मंद- उधमी छे (स्वरूप प्राप्तिनो पुरुषार्थ करता नथी, प्रमादी छे अने विषयकषायमां वर्ते छे). [ते विश्वस्य उपरि तरन्ति] ते जीवो विश्वना उपर तरे छे के [ये स्वयं सततं ज्ञानं भवन्तः कर्म न कुर्वन्ति] जेओ पोते निरंतर ज्ञानरूप थतापरिणमता थका कर्म करता नथी [च] अने [जातु प्रमादस्य वशं न यान्ति] कयारेय प्रमादने वश पण थता नथी (-स्वरूपमां उधमी रहे छे).
भावार्थः– अहीं सर्वथा एकांत अभिप्रायनो निषेध कर्यो छे कारण के सर्वथा एकांत अभिप्राय ज मिथ्यात्व छे.
केटलाक लोको परमार्थभूत ज्ञानस्वरूप आत्माने तो जाणता नथी अने व्यवहार दर्शनज्ञानचारित्ररूप क्रियाकांडना आडंबरने मोक्षनुं कारण जाणी तेमां तत्पर रहे छे-तेनो पक्षपात करे छे. आवा कर्मनयना पक्षपाती लोको-जेओ ज्ञानने तो जाणता नथी अने कर्मनयमां ज खेदखिन्न छे तेओ-संसारमां डूबे छे.
वळी केटलाक लोको आत्मस्वरूपने यथार्थ जाणता नथी अने सर्वथा एकांतवादि मिथ्याद्रष्टिओना उपदेशथी अथवा पोतानी मेळे ज अंतरंगमां ज्ञाननुं स्वरूप खोटी
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मूलोन्मूलं सकलमपि तत्कर्म कृत्वा बलेन।
हेलोन्मीलत्परमकलया सार्धमारब्धकेलि
ज्ञानज्योतिः कवलिततमः प्रोज्जजृम्भे भरेण।। ११२ ।।
रीते कल्पी तेमां पक्षपात करे छे. पोतानी परिणतिमां जराय फेर पडया विना तेओ पोताने सर्वथा अबंध माने छे अने व्यवहार दर्शनज्ञानचारित्रना क्रियाकांडने निरर्थक जाणी छोडी दे छे. आवा ज्ञाननयना पक्षपाती लोको जेओ स्वरूपनो कांई पुरुषार्थ करता नथी अने शुभ परिणामोने छोडी स्वच्छंदी थई विषय-कषायमां वर्ते छे तेओ पण संसारसमुद्रमां डूबे छे.
मोक्षमार्गी जीवो ज्ञानरूपे परिणमता थका शुभाशुभ कर्मने हेय जाणे छे अने शुद्ध परिणतिने ज उपादेय जाणे छे. तेओ मात्र अशुभ कर्मने ज नहि परंतु शुभ कर्मने पण छोडी, स्वरूपमां स्थिर थवाने निरंतर उद्यमवंत छे-संपूर्ण स्वरूपस्थिरता थतां सुधी तेनो पुरुषार्थ कर्या ज करे छे. ज्यां सुधी, पुरुषार्थनी अधूराशने लीधे, शुभाशुभ परिणामोथी छूटी स्वरूपमां संपूर्णपणे टकी शकातुं नथी त्यां सुधी-जोके स्वरूपस्थिरतानुं अंर्त-आलंबन (अंतःसाधन) तो शुद्ध परिणति पोते ज छे तोपण-अंर्त-आलंबन लेनारने जेओ बाह्य आलंबनरूप कहेवाय छे एवा (शुद्ध स्वरूपना विचार आदि) शुभ परिणामोमां ते जीवो हेयबुद्धिए प्रवर्ते छे. परंतु शुभ कर्मोने निरर्थक गणी छोडी दईने स्वच्छंदपणे अशुभ कर्मोमां प्रवर्तवानी बुद्धि तेमने कदी होती नथी. आवा जीवो-जेओ एकांत अभिप्राय रहित छे तेओ-कर्मनो नाश करी, संसारथी निवृत्त थाय छे. १११.
हवे पुण्य-पाप अधिकारने पूर्ण करतां आचार्यदेव ज्ञाननो महिमा करे छेः-
श्लोकार्थः– [पीतमोहं] जेणे मोहरूपी मदिरा पीधी होवाथी [भ्रम–रस–भरात् भेदोन्मादं नाटयत्] जे भ्रमना रसना भारथी (अतिशयपणाथी) शुभाशुभ कर्मना भेदरूपी उन्मादने (गांडपणाने) नचावे छे [तत् सकलम् अपि कर्म] एवा समस्त कर्मने [बलेन] पोताना बळ वडे [मूलोन्मूलं कृत्वा] मूळथी उखेडी नाखीने [ज्ञानज्योतिः भरेण प्रोज्जजृम्भे] ज्ञानज्योति अत्यंत सामर्थ्य सहित प्रगट थई. केवी छे ते ज्ञानज्योति? [कवलिततमः] जे अज्ञानरूपी अंधकारने कोळियो करी गई छे अर्थात् जेणे अज्ञानरूपी अंधकारनो नाश कर्यो छे, [हेला–उन्मिलत्] जे लीलामात्रथी (-सहज पुरुषार्थथी) ऊघडती-विकसती जाय छे अने [परमकलया सार्धम् आरब्धकेलि]
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इति पुण्यपापरूपेण द्विपात्रीभूतमेकपात्रीभूय कर्म निष्क्रान्तम्।
इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ पुण्यपापप्ररूपकः तृतीयोऽङ्कः।। जेणे परम कळा अर्थात् केवळज्ञान साथे क्रीडा शरू करी छे एवी ते ज्ञानज्योति छे. (ज्यां सुधी सम्यग्द्रष्टि छद्मस्थ छे त्यां सुधी ज्ञानज्योति केवळज्ञान साथे शुद्धनयना बळथी परोक्ष क्रीडा करे छे, केवळज्ञान थतां साक्षात् थाय छे.)
भावार्थः– पोताने (ज्ञानज्योतिने) प्रतिबंधक कर्म के जे शुभ अने अशुभ-एवा भेदरूप थईने नाचतुं हतुं अने ज्ञानने भुलावी देतुं हतुं तेने पोतानी शक्तिथी उखेडी नाखी ज्ञानज्योति संपूर्ण सामर्थ्य सहित प्रकाशित थई. आ ज्ञान ज्योति अथवा ज्ञानकळा केवळज्ञानरूपी परमकळानो अंश छे अने केवळज्ञानना संपूर्ण स्वरूपने ते जाणे छे तेम ज ते तरफ प्रगति करे छे, तेथी एम कह्युं छे के “ज्ञानज्योतिए केवळज्ञान साथे क्रिडा मांडी छे”. ज्ञानकळा सहजपणे विकास पामती जाय छे अने छेवटे परमकळा अर्थात् केवळज्ञान थई जाय छे. ११२.
टीकाः– पुण्य-पापरूपे बे पात्ररूप थयेलुं कर्म एक पात्ररूप थईने (रंगभूमिमांथी) बहार नीकळी गयुं.
भावार्थः– कर्म सामान्यपणे एक ज छे तोपण तेणे पुण्य-पापरूपी बे पात्रोनो स्वांग धारण करीने रंगभूमिमां प्रवेश कर्यो हतो. तेने ज्ञाने यथार्थपणे एक जाणी लीधुं त्यारे ते एक पात्ररूप थईने रंगभूमिमांथी बहार नीकळी गयुं, नृत्य करतुं अटकी गयुं.
आश्रय, कारण, रूप, सवादसुं भेद विचारी गिने दोऊ न्यारे,
पुण्य रु पाप शुभाशुभभावनि बंध भये सुखदुःखकरा रे;
ज्ञान भये दोऊ एक लखै बधु आश्रय आदि समान विचारे,
बंधके कारण हैं दोऊ रूप, इन्हैं तजि जिनमुनि मोक्ष पधारे.
आम श्री समयसारनी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमनी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी टीकामां पुण्य-पापनो प्ररूपक त्रीजो अंक समाप्त थयो.
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हवे कर्म मोक्षना कारणना विरोधायीभावस्वरूप (अर्थात् मिथ्यात्वादिभावस्वरूप) छे एम बतावे छेः-
हवे, पुण्यपरिणाम जे कर्म छे ए मोक्षनुं कारण जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र एना तिरोधायीभावस्वरूप एटले विरुद्ध भावस्वरूप छे-एम कहे छे. शुभभावनी रुचि ते मिथ्यात्व छे, शुभभावमां रोकायेलुं ज्ञान ते अज्ञान छे अने शुभभावनुं आचरण ते अचारित्र छे. ए त्रणेय भाव सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्रथी विपरीतभाव छे. माटे कर्म निषेधवा लायक छे. जुओ, आ लोजीकथी-न्यायथी तो वात चाले छे, कचडी-मचडीने कहेवाय छे एम तो छे नहि. पण अरे! एणे समजवानी कोई दि दरकार करी नथी!
पहेलां (गाथा १प७-१प८-१प९मां) एम कह्युं के कर्म एटले शुभभाव मोक्षना कारणरूप निर्मळ रत्नत्रयपरिणतिनुं घातनशील छे.
पछी (गाथा १६० मां) एम कह्युं के कर्म एटले शुभभाव पोते ज बंधस्वरूप छे तेथी निषेधवा योग्य छे.
हवे आ गाथाओमां एम कहे छे के कर्म एटले शुभभाव मोक्षना कारणना तिरोधायिभावस्वरूप एटले मिथ्यात्वादिभावस्वरूप छे, तेथी ते निषेधवा योग्य छे. खरेखर शुभभाव छे ते मिथ्यात्व नथी पण शुभभावने पोताना मानवा ते मिथ्यात्व छे अने मिथ्यात्व सहित जे ज्ञान अने आचरण छे ते अज्ञान अने अचारित्र छे. तेथी कर्म छे ते मोक्षना कारणना विरुद्धभावस्वरूप होवाथी निषेधवा योग्य छे एम हवे कहे छे-
‘सम्यक्त्व के जे मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे तेने रोकनारुं मिथ्यात्व छे.’
जुओ, शुद्ध सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मा छे तेनो अंदर अनुभव करीने प्रतीति करवी ते सम्यक्त्व छे. आ सम्यक्त्व मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे. अहीं स्वभाव एटले त्रिकाळीनी वात नथी, पण समकितनी वात छे. सम्यक्त्व मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे अने तेने रोकनारुं मिथ्यात्व छे, मिथ्यात्व एटले जीवना परिणाम हों, मिथ्यात्व कर्मनी वात नथी. कर्मना निमित्तथी तो कथन करेलुं होय छे, बाकी तत्त्वना अश्रद्धानरूप जे मिथ्यात्व ते सम्यक्त्वने रोकनारुं छे.
अहा! राग केम टळे? प्रतिबंधक कारण-कर्म टळे तो राग टाळे. आ प्रतिबंधक कर्म एटले जडकर्म नहि. जडकर्म तो खरेखर प्रतिबंधक कारण छे ज नहि, केमके ए तो पर छे. आत्मा जडने तो कदी स्पर्श्योय नथी, जड चेतनने त्रणकाळमां स्पर्श्युं नथी. आत्मा जडने स्पर्श्यो नथी अने जड आत्माने स्पर्श्युं नथी. तो पछी जडकर्म आत्माने केम रोके? आत्मा फक्त पोतानी मिथ्याश्रद्धारूप विपरीत
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दशाने स्पर्श्यो छे. सम्यक्त्वने रोकनारुं जे प्रतिबंधक कारण छे ते आ मिथ्याश्रद्धानरूप भाव छे, अने ते मोक्षना कारणथी विपरीतभावरूप छे.
अहीं गाथामां मिथ्यात्वादिनो उदय-एम जे लीधुं एनो अर्थ एम छे के शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप भगवान आत्मानी प्रतीतिरूप जे श्रद्धान एनाथी विपरीत परिणमन थवुं ते मिथ्यात्वनो उदय छे. पुण्यथी धर्म थाय, निमित्तथी आत्मामां लाभ-नुकशान थाय, पर मने लाभ करे, हुं परने लाभ करुं इत्यादि अनेक प्रकारे जे मान्यता छे ए समकित विरुद्ध छे अने ए विरुद्धभावरूप परिणमन ए मिथ्यात्व छे.
कर्म छे ए तो अजीवनो भेख छे; अने मिथ्यात्वभाव छे ए जीवनो भेख छे.
तो मिथ्यात्वादिने पुद्गलस्वभावी कह्या छे ने?
हा, कह्या छे; केमके मिथ्यात्वादिभाव पोते निमित्तने आधीन थईने थाय छे. वळी शुद्ध जीवद्रव्यमां ते नथी माटे (द्रष्टि अपेक्षाए) तेमने पुद्गलस्वभावी कह्या छे. बाकी छे तो ए जीवनी अशुद्ध परिणति. एने परनी-जडनी साथे शुं संबंध छे? (कांई नहि). भारे वात, भाई! भाई! अशुद्धपणानुं जे परिणमन छे ते जीवनो भेख छे, जीवमां थाय छे. खरेखर तो मिथ्यात्वभावरूप अशुद्ध परिणमन पर्यायमां पोताना षट्कारकथी थाय छे. तेने परनी के कर्मनी अपेक्षा तो नथी, एने द्रव्य-गुणनी पण अपेक्षा नथी. आवी वस्तु छे. शुभभाव करतां करतां समकित थशे एवी विपरीत मान्यतारूप जे मिथ्यात्वभाव छे ए जीवनी पोतानी परिणति छे अने ते सम्यक्त्वथी विरुद्ध छे.
केटलाक कहे छे के कर्मने लईने राग थाय छे अने कर्म टळे तो राग टळे. भाई! ए बधो मिथ्या भ्रम छे. लोकमां जेम बधुं भगवान करे एम जैनमां बधुं कर्म करे एवुं कर्मनुं लाकडुं (मिथ्या भ्रम) बहु गरी गयुं छे. पण भाई! कर्म तो अजीव पुद्गल छे; एमां जीवनी नास्ति छे अने जीवमां एनी नास्ति छे. जीव अरूपी अने कर्म रूपी; कर्म जीवने त्रणकाळमां अडयुं-स्पर्श्युं नथी अने जीव कर्मने त्रणकाळमां अडयो-स्पर्श्यो नथी. हवे आम ज्यां परस्पर नास्ति छे तो कर्म जीवने करे शुं? कांई न करे. भाई! द्रष्टिमां पोते जे विपरीतता करे छे ते मिथ्यात्व छे अने ते आत्माना समकितथी विरुद्धभावरूप छे. जड कर्मने जे विरुद्ध कह्युं छे ए तो जडमां-परमां छे, अने ए तो उपचार कथन छे.
भगवान आत्मा त्रिकाळ सच्चिदानंद प्रभु सत् नाम शाश्वत ज्ञान अने आनंदनो सागर छे. एना यथार्थ श्रद्धानरूप जे सम्यक् परिणति एनाथी मिथ्यात्व परिणति विरुद्ध छे. अनुभव प्रकाशमां आवे छे के पोताना वेरी पोतानो विकार छे ए निश्चय छे. पर वेरी छे ए वस्तुस्वरूप ज नथी. ‘णमो अरिहंताणं’ बोले छे ने बधा.
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एनो अर्थ एम कर्यो छे के-नमस्कार हो तेमने जेमणे कर्मरूपी वेरीने हण्या छे. भाई! आमां तो आ निमित्तनुं कथन छे, वास्तविक नथी. वास्तवमां तो अनिष्ट जे विकारना-अज्ञानना परिणाम हता ते अरि हता. एने हणीने पूर्ण वीतरागता प्रगट करी एनुं नाम अरिहंत छे. हवे आ एकडे एकथी ज वांधा के कर्म वेरी छे. पण भाई! चेतनने जड वेरी होई शके ज नहि. वेरी तो एनो जे विपरीतभाव-विकार ने अज्ञान छे ते वेरी छे. प्रवचनसार गाथा ६१ मां आवे छे के-केवळी भगवाने सर्व अनिष्टनो नाश कर्यो छे अने सर्व इष्टनी प्राप्ति करी छे. त्यां अनिष्ट एटले कांई जड अनिष्ट छे? (ना). पोताना विकारना-अज्ञानना जे परिणाम छे ते अनिष्ट छे. भगवाने आ सर्व अनिष्टनो नाश करी सर्व इष्ट एवुं केवळज्ञान अने अनंत सुख प्राप्त कर्युं छे. आ वात छे.
‘सम्मत्तपडिणिबद्धं’ एम पाठ छे ने? एनो अर्थ आ छे के-अनिष्ट परिणाम जे मिथ्यात्वना परिणाम छे ते सम्यग्दर्शनने रोकनारा एनाथी विरुद्ध अर्थात् समकितना प्रतिबंधक छे.
तो गाथा ७प मां एने पुद्गलना परिणाम कह्या छे ने?
ए कई अपेक्षाए? के ए जीवनो स्वभाव नथी ए अपेक्षाए कह्या छे. अशुद्ध परिणाम छे ए जीवनी-चैतन्यनी जातिना नथी अने जीवमांथी नीकळी जाय छे माटे ए परिणाम जीवना नथी. रागादि अशुद्धता जो जीवनी होय तो ते नीकळी न जाय; पण नीकळी जाय छे अने वस्तु जेवी आनंदघन वीतरागस्वरूप छे तेवी रही जाय छे. माटे रागादि अशुद्धता जीवनी नथी अने जीवनी नथी तो ते अजीव, अचेतन छे अने पुद्गलना संगे थाय छे माटे ते पुद्गलनी छे एम कह्युं छे. त्यां तो पर्यायनुं लक्ष छोडावी त्रिकाळी चैतन्यस्वभावनुं लक्ष कराववानुं प्रयोजन छे.
अहीं सवाल आवे छे के-पर्यायमां जो समकित नथी तो एनुं प्रतिबंधक कोण छे? तो कहे छे-पोतानी विपरीत मान्यता-श्रद्धानरूप जे परिणाम छे ते ज सम्यक्त्वनुं प्रतिबंधक एटले विरोधी छे; जडकर्म कांई सम्यक्त्वनुं विरोधी नथी. पोते जे रागादिमां अटकीने विपरीत परिणमी रह्यो छे ते परिणमन सम्यक्त्वनुं प्रतिबंधक छे. कर्म प्रतिबंधक छे एम कहेवुं ए तो निमित्तनुं कथन छे.
आ पुण्य-पाप अधिकार छे ने? एटले पहेलेथी कर्मथी लीधुं छे, पण अर्थमां पाछुं बधुं लीधुं छे; के जे परिणामथी पुण्य बंधाय ते शुभ छे अने जे परिणामथी पाप बंधाय ते अशुभ छे. बेय अज्ञानभाव छे. भगवान! एने सत्य समजवामां ज हजी वांधा छे त्यां सत्य हाथ केम आवे? कर्म विकार करावे एवी विपरीततामां ज पडयो छे त्यां शुं थाय? पण भाई! कर्म तो निमित्तमात्र वस्तु छे, विकारना
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परिणामनुं कर्ता जडकर्म छे ज नहि. जेम मिथ्यात्वना परिणामनो कर्ता दर्शनमोह कर्म नथी तेम जीवना द्रव्य-गुण पण एनो कर्ता नथी. खरेखर विकारी परिणामनो कर्ता ते परिणाम पोते ज छे.
पंचास्तिकायनी गाथा ६२ मां आवे छे के-विकारना षट्कारकनुं परिणमन पर कारकनी (-कर्मनी) अपेक्षा विना छे. मिथ्यात्वनुं परिणमन पर निमित्तना (-कर्मना) कारकनी अपेक्षा विनानुं छे. आनी मोटी चर्चा थई हती सं. २०१३ मां (वर्णीजी साथे). तेओ कहे-प्रतिबंधक कारण टळे तो विकार टळे. पण प्रतिबंधक कारण कर्म छे के पोतानी विपरीत मान्यता छे? अहा! दर्शनमोहना निमित्तमां जे उपयोग गयो ए पोतानो उपयोग छे. जे मिथ्यात्वना परिणाम थया ए पोतामां पोताना ज कारणे थया छे. अधिक स्पष्ट कहीए तो परिणाम पोते परिणामनो कर्ता छे. परिणामनो कर्ता निमित्त नथी तेम पोताना द्रव्य-गुण पण नथी.
अहीं सम्यक्त्वना परिणाम जे मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे एने रोकनारुं मिथ्यात्व छे एम कहे छे. मिथ्यात्व एटले विपरीत मान्यता. ते पोते ज कर्म छे, विकार छे; ए कांई आत्मा नथी. पहेलां गाथा १प४ मां आवी गयुं के व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि शुभभाव कर्मर् छे. कर्म एटले कार्य; विकारना परिणाम कार्य छे. ए जीवना परिणामरूप कार्य छे. पछी ए जीव छे वा जीव एनो कर्ता छे एम व्यवहारथी कहेवाय छे. हवे आवी वात; आ वाणियाओने कांई खबर होय नहि, आखो दिवस पापनी मजूरीमांथी नवरा पडे नहि अने कयांक सांभळवा जाय तो माथे (पाटे) बेठेला कहे एटले ‘जै बापजी’-एम माथुं धुणावे; पण भाई! आ तो वीतरागनो मार्ग छे. (एने यथार्थ समजवो जोईए).
जे दर्शनमोहनो उदय छे ते जडनो भेख छे. एमां उपयोग जोडाई जाय छे ते मिथ्यात्वपरिणाम छे. ते जीवनी ऊंधाई भरी द्रष्टि पोते पोताना कारणे छे, कर्मना कारणे छे एम नहि. कर्म तो परवस्तु छे. ते कांई वेरी के मित्र होई शके नहि. पोतानी जे विपरीतद्रष्टि छे ए ज वेरी छे अने ते पोते पोताना कारणे छे. हवे कहे छे-
‘ते (मिथ्यात्व) तो पोते कर्म ज छे, तेना उदयथी ज ज्ञानने मिथ्याद्रष्टिपणुं थाय छे.’
जुओ, मिथ्यात्व पोते कर्म ज छे एटले के ते आत्मानो स्वभाव नथी. तेना उदयथी एटले मिथ्यात्वना प्रगट थवाथी ज ज्ञानने एटले आत्माने मिथ्याद्रष्टिपणुं थाय छे. उदय एटले उदयभाव. मिथ्यात्व उदयभाव छे. कर्मनो उदय तो कयारे कहेवाय के उपयोग एमां जोडाय त्यारे; एमां न जोडाय तो कर्म तो खरी जाय छे. एने
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कारणे आव्युं अने एने कारणे खरी जाय छे. अहा! आत्मा पोतानी शुद्ध चैतन्यमय चीजने भूलीने दर्शनमोहने वश थई परने जाणवा-देखवामां रोकाई गयो ए तेनो पोतानो अपराध छे अने ते मिथ्यात्वभाव छे. ए मिथ्यात्वभावने लईने आत्माने मिथ्याद्रष्टिपणुं छे, जडकर्मने लईने नहि. समजाणुं कांई...
विकार छे ते कर्मथी थाय एम केटलाक कहे छे. हवे आ वांधा सं. १९७१ थी ऊठया छे. तेओ कहे छे-विकार छे ते कर्मथी थाय एम न मानो तो ए (-विकार) स्वभाव थई जाय.
पण भाई! गाथा ३७२ मां तो रागने (विकारी परिणमनने) स्वभाव कह्यो छे. पुण्य ने पापनो भाव पण स्वभाव एटले एनुं पोतानुं परिणमन छे. त्यां गाथामां छे के - ‘‘अन्यद्रव्यथी अन्यद्रव्यने गुणनी उत्पत्ति करी शकाती नथी; तेथी ए सिद्धांत छे के सर्व द्रव्यो पोतपोताना स्वभावथी उपजे छे.’’ अहीं विकारनी वात करवी छे. ए पण एनो स्व-भाव एटले स्वनुं भवन (पोतानुं परिणमन) छे एम वात छे. त्यां गाथानी टीकामां पण कह्युं छे के-‘‘जीवने परद्रव्य रागादि उपजावे छे एम शंका न करवी; कारण के अन्यद्रव्य वडे अन्यद्रव्यना गुणनो (-पर्यायनो) उत्पाद करावानी अयोग्यता छे; केमके सर्व द्रव्योनो स्वभावथी ज उत्पाद थाय छे.’’ जुओ कर्मथी आत्मामां विकार कराय ए अयोग्य छे, अलायक छे, विकारी परिणाम के अविकारी परिणाम ए एनो (पर्यायनो) स्वभाव छे. ‘स्वस्य भवनम् तु स्वभावः’ एम अहीं अपेक्षा छे. ‘विकार ए स्वभाव नथी’ एम ज्यां कह्युं ए तो द्रव्यद्रष्टिनी वात छे. विकार द्रव्यमां नथी अने पर्यायमांथी पण नीकळी जवा योग्य छे ए अपेक्षाए वात छे. ज्यारे अहीं विकार ए पर्यायनो पोतानो भाव छे ए अपेक्षाए स्वभाव कह्यो छे. आ प्रमाणे ‘कर्म विकार करावे छे’ ए मान्यता साव जूठी छे, अयथार्थ छे. विकार पोताना ऊंधा पुरुषार्थथी (बळथी) थाय छे. आम वात छे. पण एने निर्णय करवानी गरज कयां छे? अरे! सत्य शुं छे अने एनी प्राप्ति केम थाय ए समजवानी एने दरकारेय नथी!
प्रश्नः– तो गोम्मटसारमां तो एम आवे छे के ज्ञानावरणीय कर्म घातीकर्म छे अने ते ज्ञानने घाते छे?
उत्तरः– भाई! ए तो निमित्तथी व्यवहारनयनुं कथन छे. ज्ञानावरणीय कर्म ए तो जीवने अडतुंय नथी, तो पछी ए ज्ञानने शुं घात करे? जीव पोते ज ज्यारे ज्ञाननी पर्यायमां भावघातीरूप हीणुं परिणमन करे त्यारे द्रव्यघातीने निमित्त कहेवामां आवे छे. निमित्त ज्ञानना परिणमनने कांई करे छे एम त्रणकाळमां नथी.
घाती कर्म-एम कहेवुं अने घात करे नहि ए केवुं?
भाई! प्रवचनसार गाथा १६ नी टीकामां आवे छे के घातीकर्म बे प्रकारनां छे,
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एक भावघाती अने बीजुं द्रव्यघाती. भावघाती कर्म ए जीवना ज्ञान, दर्शन आदि गुणोनी ऊंधी (अशुद्ध, विकारी) दशा छे अने द्रव्यघाती ए जीवनी ऊंधी दशाना परिणमनमां निमित्त जड कर्मनी अवस्था छे.
भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यमूर्ति पूर्णस्वभावे भरेलो चिदानंदघन प्रभु त्रिकाळ छे. एनी सन्मुख थतां एनी जे निर्विकल्प, निर्मळ प्रतीति थाय के जेमां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद भेगो आवे ते सम्यग्दर्शन छे. आ सम्यग्दर्शन धर्मनुं प्रथम सोपान छे अने मोक्षनुं कारण छे. ए मोक्षना कारणथी विपरीत छे ते मिथ्यात्वभाव छे अने ते भावघाती छे. जीवने परनी साथे शुं संबंध छे? दर्शनमोहनीय, ज्ञानावरणीय आदि कर्म छे ए तो जड पुद्गलना खेल छे. कर्मथी, निमित्तथी व्यवहारनयनुं कथन करवामां आवे ए जुदी वात छे, पण कर्म के निमित्त जीवने विकार करावे छे एम छे नहि. अहीं कहे छे-मिथ्यात्वना उदयथी एटले मिथ्यात्वभाव प्रगट थवाथी ज ज्ञानने-आत्माने मिथ्याद्रष्टिपणुं आवे छे, केमके मिथ्यात्वभाव आत्माना समकितने रोकनारो विरोधीभाव-विपरीतभाव छे.
हवे कहे छे-‘ज्ञान के जे मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे तेने रोकनारुं अज्ञान छे; ते तो पोते कर्म ज छे, तेना उदयथी ज ज्ञानने अज्ञानीपणुं थाय छे.’
अहीं ज्ञान शब्दे त्रिकाळी आत्मा नहि, पण आत्मानुं ज्ञानरूपे परिणमन थतां सम्यग्ज्ञान प्रगट थाय एनी वात छे. आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदनो कंद प्रभु छे. एनी सन्मुख ढळतां जे स्वस्वरूपनुं ज्ञान थाय ते सम्यग्ज्ञान छे अने ते मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे. झाझुं शास्त्रज्ञान होय ते ज्ञान छे एम नहि, केमके ए तो परलक्षी ज्ञान छे. वळी आ वकीलातनुं के दाक्तरीनुं ज्ञान होय ते पण ज्ञान नहि. जेमां एल. एल. बी के एम.बी.बी. एस इत्यादि पूंछडां लगाडयां होय ए ज्ञान तो कुज्ञान छे. ज्ञान तो एने कहीए के जे पूर्णानंदनो नाथ ज्ञानस्वरूप निज शुद्धात्माने जाणतुं-अनुभवतुं थकुं प्रगट थयुं होय. आ ज्ञान मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे. तेने रोकनारुं, तेनो विरोधी अज्ञान छे. ज्ञानने एकलुं रागमां अने पर पदार्थने जाणवामां रोकवुं ते अज्ञान छे अने ते सम्यग्ज्ञाननुं विरोधी छे.
हवे वीतरागदेवे कहेलो मोक्षनो मार्ग कोने कहेवाय एनी खबरेय न मळे अने मंडी पडे व्रत ने तप करवा, तथा मंदिर बंधावे अने जात्राओ करे अने माने के धर्म थई गयो; पण एमां तो धूळेय धर्म थतो नथी, सांभळने. ए तो बधो शुभराग छे अने एथी पुण्यबंध थाय पण धर्म न थाय. ए पुण्यबंधन स्वभावथी विपरीत दशा छे ए तो अहीं सिद्ध करे छे.
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ज्ञान एटले चिदानंदघनस्वरूप भगवान आत्मानुं स्वसंवेदन ज्ञान जेने आत्मज्ञान कहे छे, अने जे अतीन्द्रिय आनंद सहित होय छे. छहढाळामां कह्युं छे ने के-
पांच महाव्रत अने २८ मूलगुण अनंतवार पाळ्यां ने नवमी ग्रैवेयक सुधी गयो पण आत्मज्ञान कर्युं नहि तेथी अंश पण निराकुळ आनंद न मळ्यो. अहीं जेना विना निराकुळ आनंद न उपजे ए आत्मज्ञानने ज्ञान कह्युं छे. भाई! पंचमहाव्रतना परिणाम ए आस्रव छे तेथी दुःखरूप छे. सम्यग्ज्ञान ज मोक्षना कारणरूप, सुखरूप छे. बापु! आ वीतराग परमेश्वरनो मार्ग आखी दुनियाथी बहु जुदो छे.
अहाहा...! भगवान चैतन्यदेव आनंदमूर्ति प्रभु आत्मा सदाय अंदर विराजमान छे. तेनी सन्मुख थई एमां ज ढळीने जे ज्ञान उत्पन्न थाय ते आत्मज्ञान छे. आ आत्मज्ञान आनंद अने वीतरागता सहित छे अने ते मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे. स्वभाव एटले अहीं त्रिकाळीनी वात नथी, पर्याय जे सम्यग्ज्ञानरूप छे एनी वात छे. अहीं कहे छे -तेने रोकनारुं अज्ञान छे. ते (अज्ञान) पोते कर्म ज छे एटले विकारी भाव ज छे, आत्मस्वभाव नथी. तेना उदयथी एटले अज्ञान प्रगट थवाथी ज्ञान कहेतां आत्माने अज्ञानीपणुं थाय छे. आ प्रमाणे मिथ्यात्व अने अज्ञान ए मोक्षमार्गथी विपरीतभाव छे एम बे बोल थया.
हवे चारित्रनो त्रीजो बोलः-अहाहा...! पूर्णानंदनो नाथ सच्चिदानंद ज्ञायकमूर्ति प्रभु आत्मामां रमणता करवी, एमां चरवुं एने चारित्र कहीए. समयसार नाटकमां आवे छे के-
ग्यानकला उपजी अब मोहि, कहौं गुन नाटक आगम केरौ,
जासु प्रसाद सधै सिवमारग, वेगि मिटै भववास बसेरौ.’’
आमां बनारसीदास एम कहे छे के-जेनी कोई उपमा नथी अने जे अमूर्त छे एवुं चैतन्यनुं जागृतस्वरूप, ज्ञाता-द्रष्टानुं स्वरूप ते सदाय सिद्धसमान एवुं मारुं पद छे. परंतु मोहरूपी महाअंधकारनो संग करवाथी हुं आंधळो बनी रह्यो हतो; एटले के राग अने पुण्यनो संग करवाथी हुं मारुं निजपद जाणी शकतो नहोतो. हवे मने ज्ञाननी ज्योति प्रगट थई छे. अहाहा..! दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादिना शुभभावथी-रागथी रहित मारी शुद्ध चैतन्यमय चीज छे अने ते एकना आश्रये ज,
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तेमां एकाग्र थईने अतीन्द्रिय आनंदनुं भोजन करवुं ते चारित्र छे एवुं मने भान थयुं छे. अहो! आवी ज्ञाननी ज्योति प्रगट थई होवाथी हुं आ नाटक समयसार ग्रंथ कहुं छुं. केमके एना प्रसादथी मोक्षमार्गनी सिद्धि थाय छे अने संसारनो निवास-जन्ममरण छूटी जाय छे.
आ रोटला खाय छे ने? ए तो कहेवाय एम; बाकी जीव रोटला खातो-भोगवतो नथी. रोटला तो जड छे. शुं जडने आत्मा खाय? ए तो बधी जडनी क्रिया छे, आत्मानी नहि. पण एना तरफनो जे राग करे छे ते रागने जीव खाय छे, भोगवे छे. आ महेसूब ठीक छे, रसगुल्लां ठीक छे, स्त्रीनुं शरीर ठीक छे, इत्यादि जे राग करे छे ते रागने ते भोगवे छे. शरीरने के पर पदार्थने आत्मा त्रणकाळमां भोगवतो नथी. भगवान आत्मा शरीरादि पर पदार्थोने त्रणकाळमां अडतोय नथी तो तेमने ते केम भोगवे? परंतु भोगना काळे पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपने भूलीने, आ ठीक छे एवो जे राग करे छे तेने ते भोगवे छे.
अहीं एनाथी बीजी वात छे. अहीं कहे छे-स्वरूपमां रमणतारूप जे चारित्र प्रगट थयुं ते चारित्रमां अतीन्द्रिय आनंदने भोगवे छे. चारित्र एने कहीए जेमां अतीन्द्रिय आनंदनुं प्रचुर स्वसंवेदन प्रगट थयुं होय. अहाहा...! भगवान आत्मा एकला आनंदनी खाण छे. एनी पर्यायमां आनंदनी प्रकृष्ट धारा वहेवी ते चारित्र छे. भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवे पांचमी गाथामां कह्युं छे के-हुं मारा निज वैभवथी शुद्धात्मा बतावीश. केवो छे ते निज वैभव? के जेमां प्रचुर स्वसंवेदन, आनंदनुं उग्रवेदन थयेलुं छे एवा अनुभवथी मुद्रित छे. जुओ, आ आत्मानो वैभव! आ पांच-पचास करोडनुं धन होय ए आत्मानो वैभव नथी. ए तो माटी-धूळ छे. वळी खूब पुण्य उपजावे ए पण आत्मानो वैभव नथी, केमके ए तो राग छे, आकुळता छे. एमां आनंद कयां छे? (नथी). त्रिकाळ निर्मळानंदस्वरूप भगवान आत्मामां रमणता करवाथी प्रचुर अतीन्द्रिय आनंद जेनी महोर-मुद्रा छे एवो जे अनुभव प्रगट थाय ते आत्मानो वैभव छे अने ते चारित्र छे. आवुं चारित्र मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे. अहीं स्वभाव कह्यो ते पर्यायनी वात छे, त्रिकाळी स्वभावनी वात नथी.
अहीं कहे छे-‘चारित्र के जे मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे तेने रोकनार कषाय छे; ते तो पोते कर्म ज छे, तेना उदयथी ज ज्ञानने अचारित्रीपणुं थाय छे.’
जुओ, आ शुभाशुभ भाव छे ते चारित्रने रोकनार चारित्रना विरोधी भाव छे. आ शरीरनुं नग्नपणुं छे ए तो जड माटीनी-पुद्गलनी दशा छे. अने महाव्रतादिना जे शुभभाव छे ते आस्रव छे. हवे ए आस्रव छे ए कांई चारित्र नथी. चारित्र तो सिद्धसमान पोतानुं जे स्वरूप छे ते स्वरूपमां रमणता करतां उत्पन्न थतो पोतानो