Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 157-160.

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केम जाय? पोताना परमात्मस्वरूपमां-चैतन्यस्वरूपमां स्थिर थाय एटले राग नीकळी जाय छे अने एकली वस्तु रही जाय छे. ए कह्युं हतुं पहेलां-आत्मावलोकनमां आवे छे के भगवाननी मूर्ति के साक्षात् भगवानने देखीने धर्मीने एवो विचार आवे छे के जेना होठ हलता नथी, पग चालता नथी, शरीर स्थिर छे, आंखनी पांपण पण हालती नथी एवा भगवान स्थिरबिंब छे. अने एवो ज अचळ अंदर आत्मस्वभाव छे. जेम परमात्माने राग हतो ते टळी गयो अने वीतरागतानो जे स्वभाव हतो ते रही गयो तेम आत्मानो अंदर वीतरागस्वभाव ज छे; राग आत्मानो स्वभाव छे ज नहि.

अहाहा...! भगवान आत्मा चैतन्यस्वभावनो महासागर छे; अने राग तो जड स्वभाव छे. रागने कयां खबर छे के हुं राग छुं? आ शरीर अने राग इत्यादिने जाणनार तो जीव पोते जे सदाय ज्ञानस्वरूप छे ते छे. अहाहा...! आवो जाणनार-जाणनार-जाणनार जे ज्ञायकभावपणे छे ते पोते जीव छे. एमां राग कयां छे? पोताने अने परने जाणे नहि एवो राग तो अन्यद्रव्यस्वभावी छे. तेथी रागना स्वभावथी ज्ञाननुं-आत्मानुं भवन थतुं नथी. हवे आवी वात सांभळवानी बिचाराने मांडमांड कोईक दि नवराश मळती होय ते समजे के दि अने पडके के दि? आ चोविहार करो, उपवास करो, अठ्ठम करो, तप करो, दया पाळो, एथी निर्जरा थशे-इत्यादि वात तो सहेली सट पडी जाय छे. पण भाई! एमां कयां धर्म ने निर्जरा छे? ए तो बधो राग छे.

हा, पण ए बधुं करशे तो पामशे ने?

पामशे? शुं पामशे? जे शुभरागने कर्तापणाना भावे करे छे ते मिथ्यात्व पामे छे. भाई! आ राग हुं करुं अने ए मारुं कर्तव्य छे एवी मान्यता मिथ्यात्व छे. मिथ्यात्व छे ते अनंत संसारनी जड छे; परंपराए नरक अने निगोदने आपनारुं छे. मिथ्यात्व जेवुं जगतमां कोई बीजुं पाप नथी.

भरत चक्रवर्ती समकिती हता. ९६ हजार स्त्री, ९६ करोड पायदळ, ९६ करोड गाम, इत्यादि अपार वैभव वच्चे पण तेओ आत्मज्ञानी हता. जे राग थाय छे ते चीज पोतानी (आत्मानी) नहि एवुं अंतरमां भान हतुं. अलबत चारित्र न हतुं. छ लाख पूर्व सुधी चक्रवर्ती पदमां रह्या. (एक पूर्वमां ७० लाख छप्पन हजार करोड वर्ष थाय). चारित्रना अभावमां केटलुं कर्म बंधाणुं? तो कहे छे के दीक्षा लई आत्मानी अंदर ध्यानमग्न थया तो अंतर्मुहूर्तमां सर्व कर्म नाश करी नाख्युं, अने केवळज्ञान उपजाव्युं. चारित्र-दोष हतो, पण समकित हतुं, मिथ्यात्व न हतुं तेथी जे बंध थतो हतो ते अत्यंत अल्प हतो.


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जुओ! एक बाजु मिथ्यात्वनुं पाप एवुं होय छे के ते अनंता नरक-निगोदना भव करावे अने बीजी बाजु समकित सहित होवाथी भरतने ९६ हजार राणीओना संगमां विषय संबंधी राग हतो पण ए रागनुं पाप अल्प हतुं, अल्पस्थिति अने अल्परसवाळुं हतुं. ज्यां अंदर ध्यानमां आव्या तो लीलामात्रमां उडावी दीधुं अने क्षणमां ज झळहळ ज्योतिमय केवळज्ञान उपजावी दीधुं.

अहाहा...! एकावतारी इन्द्र जेनी पासे मित्रपणे बेसे अने जे हीराजडित सिंहासन पर आरूढ थाय एवा भरत चक्रवर्ती आत्मज्ञानी हता. रागथी अने (बाह्य) वैभवथी भिन्न पोतानी चीज जे परिपूर्ण शुद्ध चैतन्यस्वभावमय भगवान आत्मा तेनुं अंतरमां भान हतुं. भगवान ऋषभदेव ज्यारे अष्टापद (कैलास) पर्वत उपर मोक्ष पधार्या त्यारे त्यां भरतनी हाजरी हती. ते वखते ३२ लाख विमानना स्वामी एकावतारी इन्द्र पण त्यां आव्या. त्यां जोयुं तो भरतनी आंखोमांथी आंसुनी धारा वही रही हती. भरत विलाप करता हता के-अरे! भरतक्षेत्रमां आजे सूर्य अस्त थयो! आ सूर्य तो सवारे रोज उगे जे सांजे आथमे; पण भगवान केवळज्ञान-सूर्यनो अस्त थयो अने हा! सर्वत्र अंधकार थई गयो! आम भरतजीने विलापनां आंसु वही रह्यां हतां. त्यारे इन्द्रे कह्युं-अरे! भरतजी, आ शुं? तारे तो आ छेल्लो देह छे, अमारे तो हजु एक देह मनुष्यनो थशे त्यारे मोक्ष थशे. भरते कह्युं-इन्द्र! बधी खबर छे. आ तो एवो राग आवी गयो छे; ए चारित्र-दोष छे, दर्शन-दोष नहि. आम भरतजीने स्वरूपनुं श्रद्धान तो अकबंध छे.

अहाहा...सम्यग्दर्शन कोई अद्भुत अलौकिक चीज छे! सम्यग्दर्शन शुं अने एनो विषय शुं-एना महिमानी लोकोने खबर नथी. तेथी एकला क्रियाकांडनो महिमा तेमने भासे छे. जाहेरखबरो पण क्रियाकांडनी करे छे के-आणे उपवास कर्या, आणे आटलो त्याग कर्यो, आणे पांच लाखनुं दान कर्युं, आणे संघ जमाडयो ने आणे ब्रह्मचर्य अंगीकार कर्युं, इत्यादि. पण भाई! एमां शुं छे बापु! अहीं कहे छे-कर्म छे, जे पुण्य-पापना भाव छे, (अहीं खरेखर तो पुण्यभावने कर्म लेवुं छे) ते अन्यद्रव्यस्वभावी छे. आ व्रत, तप, दान, शील, ब्रह्मचर्यना भाव छे ते अन्यद्रव्यस्वभावी छे; एनाथी आत्मानुं भवन थई शकतुं नथी. निश्चयथी तो ब्रह्मस्वरूप जे शुद्ध आत्मा तेमां चरवुं ते ब्रह्मचर्य छे अने ते धर्म छे.

कर्म एटले पुण्यना परिणाम अन्यद्रव्यस्वभावी होवाथी एनाथी ज्ञाननुं-आत्मानुं पवित्र मोक्षमार्गरूप परिणमन थतुं नथी. तेथी कहे छे-‘तत्’ माटे ‘कर्म मोक्षहेतुः न’ कर्म मोक्षनुं कारण नथी.

जुओ, आ दांडी पीटीने कांई पण गुप्त राख्या विना जाहेर कर्युं के व्रत-तप आदि क्रिया मोक्षनुं कारण नथी. अहा! लोकोने आवुं सांभळवुं मुश्केल अने समजवुंय


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मुश्केल! जेनां महाभाग्य होय तेना काने पडे. अने काने पडे तोय शुं? पुरुषार्थ करीने ज्यारे अंतर-निमग्न थाय त्यारे आत्मानां ज्ञान-श्रद्धान थाय; सांभळवामात्रथी न थाय. दिव्यध्वनि सांभळे एटला मात्रथी आत्मानुं ज्ञान न थाय. भगवान आत्माना-स्वद्रव्यना आश्रयथी सम्यग्ज्ञान थाय. श्लोक १०६ मां पहेली लीटीमां कह्युं के-ज्ञान एकद्रव्यस्वभावी होवाथी एनाथी मोक्षनुं कारण थाय. अहीं कह्युं के-कर्म अन्यद्रव्यस्वभावी होवाथी एनाथी मोक्षनुं कारण न थाय. ‘कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि’-कर्मना स्वभावथी ज्ञाननुं भवन थतुं नथी माटे कर्म मोक्षनुं कारण नथी. आ सघळो क्रियाकांड मोक्षनुं कारण नथी; समजाणुं कांई...?

हवे आगळना कथननी सूचनानो श्लोक कहे छेः-

* कळश १०८ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘मोक्षहेतुतिरोधानात्’ कर्म मोक्षना कारणनुं तिरोधान करनारुं होवाथी...

जुओ, कर्म मोक्षना कारणनुं तिरोधान करनारुं छे. शुं कह्युं आ? कर्म एटले पुण्य- पापना भाव, खरेखर तो अहीं कर्म एटले पुण्यना भाव एम लेवुं छे, मोक्षना कारणना घातक छे. व्रत, तप, दान, शील, भक्ति इत्यादिना शुभभाव मोक्षना कारणने ढांकनारा एटले घातनशील छे. हवे जे घातनशील छे ए मोक्षना कारणने मदद करे ए केम बनी शके? (न ज बनी शके). हवे आ मोटो वांधो छे अत्यारे लोकोने; एम के व्यवहारथी निश्चय थाय. पहेलां कायाथी त्यागनी शरुआत थाय, पछी मनथी थाय-एम बाह्यथी लेवुं छे. पण भाई! एम सम्यग्दर्शन केम थाय? बाह्य कर्म छे ए तो मोक्षना कारणनुं घातनशील छे.

भगवान आत्माने मोक्षनुं कारण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र छे. पूर्ण स्वभावनी प्रतीति, पूर्ण स्वभावनुं ज्ञान अने पूर्ण स्वभावमां रमणता-लीनतारूपे आत्मानुं थवुं ते मोक्षनुं कारण छे. अहीं कहे छे-व्रत, तप, शील, भक्ति, पूजा, दान इत्यादि समस्त शुभकर्म मोक्षनुं कारण जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तेनुं घातनशील छे. हवे आवी वात दुनियाने बेसे न बेसे ए दुनिया जाणे; दुनिया तो अनादिथी अज्ञानना पंथे छे. कह्युं छे ने के-

‘‘द्रव्यक्रियारुचि जीवडाजी, भाव धरम रुचिहीन;
उपदेशक पण एहवाजी, शुं करे जीव नवीन?’

द्रव्यक्रिया एटले दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादिनी रुचि तो अनादिथी अज्ञानी जीवने छे. वळी तेने उपदेश देनारा उपदेशक पण एवा मळ्‌या जे उपदेशे के-व्रतादि पाळवां ए धर्म छे अने ते करतां करतां मोक्ष पमाय. तेथी ए वात एने पाकी द्रढ थई गई. वारंवार सांभळी ने! एटले पाकी थई गई. हवे ए नवुं शुं करे? एने


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समकित केम थाय? न थाय. केमके ए पुण्यना परिणाम, मोक्षनुं कारण जे भगवान आत्मानां श्रद्धान-ज्ञान अने रमणता एनां घातनशील छे, घात करनारा छे. आ एक वात.

हवे कहे छे-‘स्वयमेव बन्धत्वात्’ ते (-कर्म) पोते ज बंधस्वरूप होवाथी...

कर्म पोते ज बंधस्वरूप छे. हवे जे बंधस्वरूप छे ते अबंधनुं-मोक्षनुं कारण केम थाय? (न थाय). कोईने आकरुं लागे पण ज्यां वस्तुस्थिति आवी छे त्यां शुं थाय?

अहाहा...! पूर्णानंदनो नाथ चैतन्यमूर्ति भगवान शुद्ध आत्मद्रव्य जे अनंतज्ञान अने आनंदनुं दळ छे तेनो आश्रय लीधा विना मोक्षनो मार्ग त्रणकाळमां बीजे कयांयथी प्रगटे एम नथी. भगवान आत्मा शुद्ध चिदानंदघनस्वरूपमात्र वस्तुनो आश्रय-अवलंबन करवाथी ज मोक्षनो मार्ग प्रगटे छे. आ एक ज रीत छे. आ सिवाय जे व्रत, तप, शील, दान, भक्ति इत्यादि शुभभाव छे ते पोते ज बंधस्वरूप छे तेथी बंधनुं कारण छे अने मोक्षना कारणनो घात करनारा छे.

समयसार कळशटीकामां आ श्लोकनी टीका करतां श्री राजमलजीए एम कह्युं छे के- ‘‘अहीं कोई जाणशे के शुभ-अशुभ क्रियारूप जे आचरणरूप चारित्र छे ते करवायोग्य नथी तेम वर्जवायोग्य पण नथी. उत्तर आम छे के-वर्जवायोग्य छे, कारण के व्यवहारचारित्र होतुं थकुं द्रुष्ट छे, अनिष्ट छे, घातक छे; तेथी विषयकषायनी माफक क्रियारूप चारित्र निषिद्ध छे’’ बहु आकरी वात भाई! सम्यग्दर्शन विना बधुं थोथेथोथां ज छे, चारित्र छे ज नहि. (व्यवहारेय नहि ने). भगवान कुंदकुंदाचार्ये दर्शन प्राभृत, गाथा ३ मां कह्युं छे के-

‘‘दंसणभट्टा भट्टा दंसणभट्टस्य णत्थि णिव्वाणं।
सिज्झंति चरियभट्टा दंसणभट्टा ण सिज्झंति।।’’

जे दर्शन-श्रद्धानथी भ्रष्ट छे ते सर्व रीते भ्रष्ट छे; ते कोई दि मुक्ति पामशे नहि. तथा जे चारित्रथी भ्रष्ट होवा छतां स्वरूपनां ज्ञान-श्रद्धानथी युक्त छे तो ते सिद्धि पामशे. एने स्वरूपनी द्रष्टि होवाथी चारित्र आववानुं, आववानुं ने आववानुं अने एनी मुक्ति थशे ज.

भगवान आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप, सिद्धस्वरूप प्रभु चेतनास्वरूप त्रिकाळ छे. एनी सन्मुखनी द्रष्टि, एनुं ज्ञान अने एमां ज रमणतारूप जे परिणमन छे ते मोक्षनुं कारण छे. भाई! वीतराग मार्ग वीतरागभावथी शरू थाय छे, सम्यग्दर्शनथी शरू थाय छे. ज्यां सम्यग्दर्शन नथी त्यां ज्ञान पण साचुं नथी अने चारित्र पण साचुं नथी. विना सम्यग्दर्शन जे कांई छे ते मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञान अने मिथ्याचारित्र छे. आ बे बोल थया. हवे त्रीजो बोल कहे छे-


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‘च’ अने ‘मोक्षहेतुतिरोधायित्वात्’ ते (-कर्म) मोक्षना कारणना तिरोधायिभावस्वरूप होवाथी...

शुं कहे छे? आ व्रतादिरूप जेटलुं छे शुभकर्म ते मोक्षना कारणना विरुद्ध स्वभाववाळुं छे. स्वरूपनां ज्ञान-श्रद्धान अने रमणतारूप जे मोक्षमार्ग छे तेनाथी कर्म एटले पुण्य-पापरूप परिणाम विपरीत स्वभाववाळा छे. हवे कहे छे-

तेथी ‘तत् निषिध्यते’ तेने (-कर्म) निषेधवामां आवे छे. जुओ, व्रतादि समस्त शुभभावरूप कर्मने निषेधवामां आवे छे एम त्रण बोलथी कह्युं-

१. कर्म मोक्षना कारणनुं ढांकनारुं वा घातनशील छे, २. कर्म स्वयं बंधस्वरूप छे अने ३. कर्म मोक्षना कारणना विरोधी स्वभाववाळुं छे.

अहाहा...! भगवान आत्मा तो चैतन्यस्वभावी सदा मुक्तरूप ज छे अने एना आश्रये जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना निर्मळ परिणाम थाय ए पण अबंधस्वरूप छे. अने तेथी मोक्षनुं कारण छे. परंतु शुभाशुभ कर्म जे छे ते मोक्षना कारणना घातनशील होवाथी, स्वयं बंधस्वरूप होवाथी अने मोक्षना कारणना विरुद्ध स्वभाववाळुं होवाथी निषिद्ध छे. अहाहा...! व्रत, तप आदिना शुभभाव सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना निर्मळ परिणामना घातक अने विरुद्धस्वभाववाळा होवाथी निषिद्ध छे. शुभभावथी मने कल्याण थशे ए मान्यता मिथ्यादर्शन, एवुं ज एकला शुभभावनुं ज्ञान ते मिथ्याज्ञान अने शुभभावमां ज रमणता ते मिथ्याचारित्र छे.

अहीं मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रना परिणाम विपरीतस्वभाववाळा कहीने जड अचेतन कह्या. मतलब के ज्यां चैतन्यना सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणाम होय त्यां मिथ्या-दर्शन- ज्ञान-चारित्रना परिणाम न होय. बन्ने जातना परिणाम एकी साथे न होय. सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्रना परिणाम जेने छे तेने मिथ्यात्वसहित रागना परिणाम नथी. अहीं त्रणे वात साथे लेवी छे ने? जेने आत्मानां निर्विकल्प श्रद्धान-ज्ञान अने शांतिनुं वेदन थाय तेने कदाचित् राग होय पण ते मिथ्यात्व सहित नथी अने तेने रागनुं स्वामित्व अने एमां इष्टपणानो भाव पण नथी. तेथी तेने पूर्ण वीतरागता न होवा छतां मिथ्याचारित्र नथी, सम्यक्चारित्र ज छे.

अहाहा...! स्वभावथी ज आत्मद्रव्य भगवानस्वरूप वीतरागस्वरूप छे. तेनां श्रद्धान- ज्ञान अने रमणतारूप परिणाम मोक्षमार्ग छे. अने शुभाशुभ कर्म तेनां घातक छे, स्वयं बंधस्वरूप छे अने शुद्ध परिणामथी विपरीत स्वभाववाळां छे माटे निषेध्यां छे. ल्यो, आ भगवान अमृतचंद्राचार्यदेवे पीरसेलुं परमामृत छे. श्रीमदे कह्युं छे ने के-


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‘‘वचनामृत वीतरागनां, परम शांतरस मूळ;
औषध जे भवरोगनां, कायरने प्रतिकूळ.’’

भाई! आ भगवाननी वाणी तो भवरोगने मटाडनारुं परमामृत छे. पण शुभभावनी जेमने रुचि छे ए कायरोने ते सुहाती नथी. शुभरागनी रुचिवाळाने शास्त्रमां कायर-नपुंसक कह्या छे. भले ए मोटो अबजोपति शेठ होय, के मोटो राजा होय के नवमी ग्रैवेयकनो देव होय, जो तेने पुण्यभावनी रुचि-प्रेम छे तो ते कायर-नपुंसक छे केमके एने धर्मनी प्रजा नथी. जेम पावैयाने प्रजा न होय तेम आने धर्मनी प्रजा नथी तेथी ते नपुंसक छे. आवी वात छे भाई!

जे दर्शन-भ्रष्ट छे ते बधायथी भ्रष्ट छे. शुभभाव करतां करतां कल्याण थशे एवी जेने मान्यता छे ते दर्शनथी-श्रद्धाथी भ्रष्ट छे; माटे ते दर्शन, ज्ञान अने चारित्र एम त्रणेयथी भ्रष्ट छे. तेथी तो कह्युं के-पंचमहाव्रत, गुप्ति, समिति, २८ मूलगुण इत्यादि जे व्यवहारचारित्रना परिणाम छे ते शुभभावरूप कर्मकांड छे; ए आत्माना निर्मळभावरूप ज्ञानकांड नथी. बहु आकरी वात बापु! आवा बधा पुण्यना भाव तो तें अनंतवार कर्या; पण तेथी शुं वळ्‌युं? छहढाळामां कह्युं छे ने के-

‘‘मुनिव्रत धार अनंतवार ग्रीवक उपजायो,
पै निज आतमज्ञान बिना सुख लेश न पायो.’’

अहा! आत्मज्ञान विना-सम्यग्दर्शन विना अनंतवार मुनिव्रत धारण कर्यां. पांच महाव्रत, समिति अने गुप्ति अनंतवार पाळ्‌यां. अनंतवार बाळ ब्रह्मचारी रह्यो. पण एथी शुं? आत्मज्ञान विना लेश पण सुख न थयुं, अर्थात् दुःख ज थयुं. मतलब के ए व्रत अने तपना परिणाम एने लेश पण सुख न आपी शकया. नवमी ग्रैवेयक गयो पण आत्मदर्शन विना एने जराय आनंद न मळ्‌यो, सुखनी प्राप्ति न थइ. परिभ्रमण ऊभुं रह्युं, केमके आत्मानुभव विना बधुं ज दुःखरूप छे, फोगट संसार खाते ज छे. आवी वात छे. बापु! समजाय एटलुं समजो. मार्ग आ छे; अहीं वीतराग मार्गमां कोईनी सिफारस लागती नथी.

सत्यने माननारा थोडा छे अने असत्यने माननारा झाझा छे. पण ए रीते संख्या वडे सत्य-असत्यनुं माप नथी. सत्यनुं माप तो स्वयं सत्यथी छे. तेने माननारा भले एकाद बे होय वा न होय, तेथी सत्य कांई बीजुं थई जतुं नथी.

[प्रवचन नं. २१९ शेष, २२०, २२१ * दिनांक २-११-७६ थी ४-११-७६]

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अथ कर्मणो मोक्षहेतुतिरोधानकरणं साधयति–

वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो।
मिच्छत्तमलोच्छण्णं तह सम्मत्तं खु णादव्वं।। १५७ ।।
वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो।
अण्णाणमलोच्छण्णं तह णाणं होदि णादव्वं।। १५८ ।।
वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो।
कसायमलोच्छण्णं तह चारित्तं पि णादव्वं।। १५९ ।।
वस्त्रस्य श्वेतभावो यथा नश्यति मलमेलनासक्तः।
मिथ्यात्वमलावच्छन्नं तथा सम्यक्त्वं खलु ज्ञानव्यम्।। १५७ ।।

वस्त्रस्य श्वेतभावो यथा नश्यति मलमेलनासक्तः।
अज्ञानमलावच्छन्नं तथा ज्ञानं भवति ज्ञातव्यम्।। १५८ ।।

वस्त्रस्य श्वेतभावो यथा नश्यति मलमेलनासक्तः।
कषायमलावच्छन्नं तथा चारित्रमपि ज्ञातव्यम्।। १५९ ।।

हवे प्रथम, कर्म मोक्षना कारणनुं तिरोधान करनारुं छे एम सिद्ध करे छेः-
मळमिलनलेपथी नाश पामे श्वेतपणुं ज्यम वस्त्रनुं,
मिथ्यात्वमळना लेपथी सम्यक्त्व ए रीत जाणवुं. १प७.
मळमिलनलेपथी नाश पामे श्वेतपणुं ज्यम वस्त्रनुं,
अज्ञानमळना लेपथी वळी ज्ञान ए रीत जाणवुं. १प८.
मळमिलनलेपथी नाश पामे श्वेतपणुं ज्यम वस्त्रनुं,
चारित्र पामे नाश लिप्त कषायमळथी जाणवुं. १प९.

गाथार्थः– [यथा] जेम [वस्त्रस्य] वस्त्रनो [श्वेतभावः] श्वेतभाव [मलमेलनासक्तः] मेलना मळवाथी खरडायो थको [नश्यति] नाश पामे छे-तिरोभूत थाय


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छे, [तथा] तेवी रीते [मिथ्यात्वमलावच्छन्नं] मिथ्यात्वरूपी मेलथी खरडायुं-व्याप्त थयुं-थकुं [सम्यफ्‍त्वं खलु] सम्यक्त्व खरेखर तिरोभूत थाय छे [ज्ञातव्यम्] एम जाणवुं. [यथा] जेम [वस्त्रस्य] वस्त्रनो [श्वेतभावः] श्वेतभाव [मलमेलनासक्तः] मेलना मळवाथी खरडायो थको [नश्यति] नाश पामे छे-तिरोभूत थाय छे, [तथा] तेवी रीते [अज्ञानमलावच्छन्नं] अज्ञानरूपी मेलथी खरडायुं-व्याप्त थयुं-थकुं [ज्ञानं भवति] ज्ञान तिरोभूत थाय छे [ज्ञातव्यम्] एम जाणवुं. [यथा] जेम [वस्त्रस्य] वस्त्रनो [श्वेतभावः] श्वेतभाव [मलमेलनासक्तः] मेलना मळवाथी खरडायो थको [निश्यति] नाश पामे छे-तिरोभूत थाय छे, [तथा] तेवी रीते [कषायमलावच्छन्नं] कषायरूपी मेलथी खरडायुं-व्याप्त थयुं-थकुं [चारित्रम् अपि] चारित्र पण तिरोभूत थाय छे [ज्ञातव्यम्] एम जाणवुं.

टीकाः– ज्ञाननुं सम्यक्त्व के जे मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे ते, परभावस्वरूप जे मिथ्यात्व नामनो कर्मरूपी मेल तेना वडे व्याप्त थवाथी, तिरोभूत थाय छे-जेम परभावस्वरूप मेलथी व्याप्त थयेलो श्वेत वस्त्रना स्वभावभूत श्वेतस्वभाव तिरोभूत थाय छे तेम. ज्ञाननुं ज्ञान के जे मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे ते, परभावस्वरूप अज्ञान नामना कर्ममळ वडे व्याप्त थवाथी तिरोभूत थाय छे-जेम परभावस्वरूप मेलथी व्याप्त थयेलो श्वेत वस्त्रना स्वभावभूत श्वेतस्वभाव तिरोभूत थाय छे तेम. ज्ञाननुं चारित्र के जे मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे ते, परभावस्वरूप कषाय नामना कर्ममळ वडे व्याप्त थवाथी तिरोभूत थाय छे-जेम परभावस्वरूप मेलथी व्याप्त थयेलो श्वेत वस्त्रना स्वभावभूत श्वेतस्वभाव तिरोभूत थाय छे तेम. माटे मोक्षना कारणनुं (-सम्यग्दर्शन, ज्ञान अने चारित्रनुं-) तिरोधान करतुं होवाथी कर्मने निषेधवामां आव्युं छे.

भावार्थः– सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग छे. ज्ञाननुं सम्यक्त्वरूप परिणमन मिथ्यात्वकर्मथी तिरोभूत थाय छे; ज्ञाननुं ज्ञानरूप परिणमन अज्ञानकर्मथी तिरोभूत थाय छे; अने ज्ञाननुं चारित्ररूप परिणमन कषायकर्मथी तिरोभूत थाय छे. आ रीते मोक्षना कारणभावोने कर्म तिरोभूत करतुं होवाथी तेनो निषेध करवामां आव्यो छे.

* * *

समयसार गाथा १प७–१प८–१प९ः मथाळुं

हवे प्रथम कर्म मोक्षना कारणनुं तिरोधान करनारुं छे एम सिद्ध करे छे.

* गाथा १प७–१प८–१प९ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘‘ज्ञाननुं सम्यक्त्व के जे मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे ते, परभावस्वरूप जे मिथ्यात्व नामनो कर्मरूपी मेल तेना वडे व्याप्त थवाथी, तिरोभूत थाय छे-जेम


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परभावस्वरूप मेळथी व्याप्त थयेलो श्वेत वस्त्रना स्वभावभूत श्वेतस्वभाव तिरोभूत थाय छे तेम.’

जुओ, मिथ्यात्व नामनो कर्मरूपी मेल एटले भाव मिथ्यात्व अर्थात् शुभभाव धर्म छे एवी विपरीत मान्यतारूप मिथ्यात्वनी वात छे. ए मिथ्यात्व नामनो जे भावकर्मरूपी मेल तेना वडे व्याप्त थवाथी ज्ञान नाम चैतन्यस्वरूप त्रिकाळी भगवान आत्मानुं सम्यक्त्व तिरोभूत थाय छे अर्थात् समकितनो नाश-घात थाय छे.

जुओ! आ वीतरागनी वाणी दिगंबर संतो जाहेर करे छे. समाज समतुल रहेशे के नहि, मानशे के नहि, विपरीत थई जशे के नहि एनी संतोने शुं पडी छे? नागा बादशाहथी आघा; ए तो सत्य जेम छे तेम जाहेर करे छे. लोको माने वा न माने तेथी कांई सत्य बदलाई जतुं नथी.

ज्ञाननुं समकित-आत्मानुं समकित एटले त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मानी अनुभवसहित प्रतीति जे मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे तेनो परभावस्वरूप जे मिथ्यात्वभाव छे ते घात करे छे. अर्थात् मिथ्यात्वभाव छे ते समकित थवा देतुं नथी. आ व्रतादिना शुभभाव ए धर्म छे एवी विपरीत श्रद्धारूप जे मिथ्यात्वभाव छे ते समकित थवा देतुं नथी. आवो वीतरागनो मार्ग दिगंबर जैनदर्शन सिवाय बीजे कयांय छे नहि; वेदांतमांय नहि अने वैशेषिकमांय नहि; सांख्यमांय नहि अने बौद्धमांय नहि. अरे! श्वेतांबरमांय आ वात नथी; बधुं विपरीत छे. कोई वात कयांक ठीक होय पण तेथी शुं? मूळ तत्त्वमां ज आखो फेर छे. केवळीने आहार ठरावे, वस्त्रसहितने मुनि ठरावे, स्त्रीने तीर्थंकर ठरावे इत्यादि बधुं ज विपरीत छे. आ कोई व्यक्तिना विरोधनी वात नथी. भाई! व्यक्ति तो आत्मा स्वभावथी भगवानस्वरूप छे. आ तो द्रष्टिमां जे विपरीतता छे तेने यथार्थ जाणवी जोईए एम वात छे.

परभावरूप जे मिथ्यात्व छे ते कर्मरूपी मेल छे. आ कर्म एटले जडकर्म नहि, पण विपरीतश्रद्धानरूप भावमिथ्यात्वनी वात छे. शुभभावनुं ज्ञान करवाथी जाणे ज्ञान थयुं, अने शुभमां रमणता थई ए जाणे चारित्र थयुं-एम शुभभावमां धर्म मानवो ते मिथ्यात्वरूप मेल छे अने ते आत्माना समकितनो घात करे छे अर्थात् समकित प्रगट थवा देतुं नथी. जेम श्वेत वस्त्रने तेना श्वेतस्वभावथी अन्यभूत मेल लागवाथी तेनो श्वेतस्वभाव ढंकाई जाय छे तेम भगवान आत्माने तेना विपरीत श्रद्धानरूप मेल लागवाथी तेनो समकितनो भाव ढंकाई जाय छे, प्रगट थतो नथी. आ एक वात थई.

हवे कहे छे-‘ज्ञाननुं ज्ञान के जे मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे ते, परभावस्वरूप अज्ञान नामना कर्ममळ वडे व्याप्त थवाथी तिरोभूत थाय छे-जेम परभावस्वरूप मेलथी व्याप्त थयेलो श्वेत वस्त्रना स्वभावभूत श्वेतस्वभाव तिरोभूत थाय छे तेम.’


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शुं कह्युं आ? भगवान चैतन्यदेव ज्ञानानंदस्वरूपी चैतन्यसूर्य-चैतन्यना नूरनुं-तेजनुं पुर एवो महाप्रभु छे. अहाहा...! जेम पाणीनुं पूर होय तेम भगवान आत्मा एकला चैतन्यना नूरना-तेजना पुरथी परिपूर्ण भरेलो छे. अरे! एनी खबरेय न मळे! कोई दि एनी कोर जोयुं होय तो ने! अनादिथी पर्यायमां ने रागमां अनंतकाळनुं जीवतर काढयुं छे. पण भाई! ए एक समयनी पर्याय पाछळ आखो भगवान चैतन्यमहाप्रभु विराजी रह्यो छे. एनुं जे ज्ञान छे ते ज्ञाननुं ज्ञान एटले आत्मानुं ज्ञान छे. अहीं ज्ञान शब्दथी आखो आत्मा कहेवो छे. ज्ञाननुं ज्ञान एटले अखंड एकरूप त्रिकाळी वस्तु जे आत्मा छे तेनुं ज्ञान. अहीं कहे छे-ए चैतन्यमय आत्मानुं ज्ञान मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे. आ शास्त्र आदि जे परनुं ज्ञान छे एनी वात नथी. अहाहा...! आ तो जेमां संवर, निर्जरा अने मोक्षनी पर्याय पण नथी एवुं जे शुद्ध चैतन्यमय नित्यानंदस्वरूप अनंत गुणनुं एकरूप दळ-एवा आत्मानुं ज्ञान ते मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे एम कहे छे.

आवुं जे मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे ते ज्ञाननुं ज्ञान कहे छे, परभावस्वरूप जे अज्ञानरूपी कर्ममळ तेना वडे व्याप्त थवाथी ढंकाई जाय छे अर्थात् प्रगट थतुं नथी. आ शुभभाव छे ते धर्म छे एवुं जे ज्ञान छे ते अज्ञान छे अने ते अज्ञान छे ते मेल छे. आवा अज्ञानरूपी मेलथी व्याप्त होवाथी आत्मानुं ज्ञान तिरोभूत थाय छे अर्थात् सम्यग्ज्ञान उत्पन्न थतुं नथी. जेम बाह्य मेलथी श्वेत वस्त्रनी सफेदाई ढंकाई जाय छे तेम मिथ्याज्ञानरूपी कर्ममळथी ज्ञाननुं (-आत्मानुं) ज्ञान ढंकाई जाय छे, अर्थात् सम्यग्ज्ञान थतुं नथी.

ल्यो, आ वीतराग मार्गनी आवी बधी वातो छे. पण आखो दिवस संसारना काममां रच्यो-पच्यो रहे-रात्रे छ-सात कलाक ऊंघमां जाय अने जागे त्यारे आ बधी दुनियादारीनी- बायडीनी, छोकरांनी, पैसानी होळी सळगती ज होय. त्यां मांड कलाक सांभळवानुं मळे एमांय शुं भलीवार आवे? (बिचारो कषाय-अग्निमां बळी रह्यो होय एना सांभळवामां शुं ठेकाणुं होय?) हवे ए आवा (वीतरागी) तत्त्वनो निर्णय कयारे करे? भाई! आ तो खास फुरसद लईने समजवा जेवुं छे हों. प्रभु! आ तारो मार्ग तद्न जुदी जातनो छे. (विषय-कषायनी प्रवृत्ति साथे एनो मेळ आवे एम नथी).

भगवान जैन परमेश्वर एम कहे छे के-ज्ञाननुं ज्ञान एटले जे आत्मानुं ज्ञान छे ते सम्यग्ज्ञान छे. बहु गंभीर वात छे प्रभु! आ शास्त्रनुं ज्ञान छे ते सम्यग्ज्ञान छे एम नहि. भगवाननी दिव्यध्वनि सांभळवाथी उत्पन्न थयेलुं ज्ञान छे ते सम्यग्ज्ञान छे एम नहि. बहिर्लक्षी-परलक्षी छे ने? भगवान! दिव्यध्वनि तो अनंतवार सांभळी; पण तेथी शुं? दिव्यध्वनि सांभळतां जे धारणारूप परलक्षी ज्ञान थाय ते सम्यग्ज्ञान


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छे एम नहि. दिव्यध्वनि तो निमित्तमात्र छे. अहीं कहे छे-ज्ञाननुं ज्ञान ते सम्यग्ज्ञान छे. आखो ज्ञाननो पिंड प्रभु ज्ञायक चैतन्यस्वरूपे अंदर जे बिराजे छे तेनुं ज्ञान-स्वसंवेदनज्ञान थाय ते सम्यग्ज्ञान छे. आवुं ज्ञाननुं ज्ञान, शुभभाव जे अज्ञान छे, कर्ममळ छे ते वडे ढंकाई जाय छे अर्थात् प्रगट थवा पामतुं नथी, घात पामे छे.

हवे ज्ञाननुं चारित्र-ए त्रीजी वात. ‘ज्ञाननुं चारित्र के जे मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे ते, परभावस्वरूप कषाय नामना कर्ममळ वडे व्याप्त थवाथी तिरोभूत थाय छे-जेम परभावस्वरूप मेलथी व्याप्त थयेलो श्वेत वस्त्रना स्वभावभूत श्वेतस्वभाव तिरोभूत थाय छे तेम.’

जुओ, आ चारित्र साचु कोने कहेवुं? आत्मा जे ज्ञानस्वरूपे-आनंदस्वरूपे अंदर नित्य विराजे छे तेनी अंतर्द्रष्टि करी तेमां अंतर्लीन थतां-रमणता करतां जे अतीन्द्रिय आनंदनुं- शांतिनुं वेदन थाय ते चारित्र छे. ‘ज्ञाननुं-चारित्र’-एम कह्युं ने? अहीं ज्ञान एटले आत्मा; एटले आत्मानुं चारित्र जे अतीन्द्रिय आनंदना प्रचुर स्वसंवेदनस्वरूप छे ते मोक्षना कारणरूप स्वभाव छे एम कहे छे. पंचमहाव्रत आदि जे पुण्यना परिणाम ते मोक्षना कारणरूप स्वभाव नथी. ए तो शुभराग छे, कषायरूपी मेल छे. ए पंचमहाव्रतादिना परिणाम तो ज्ञानना चारित्रने ढांकी दे छे-घाते छे एम कहे छे. हवे जे घात करे ते शुं आत्माने लाभ (धर्म) करी दे? (न करे). भाई! पुण्यना परिणाम आत्माने लाभ करे एम जे माने छे एनी तो मूळ श्रद्धामां ज मोटो फेर छे. एनुं श्रद्धान विपरीत छे तेथी एनुं ज्ञान अने चारित्र पण विपरीत एटले मिथ्या छे.

अहा! व्रत करो, तप करो, शील पाळो, भक्ति करो, इत्यादि, ते वडे तमारुं कल्याण थशे; हवे आवो जेमनो उपदेश छे, आवी जेमनी प्ररूपणा छे तेमनुं पोतानुं श्रद्धान मिथ्या छे अने तेमनो एवो उपदेश पण मिथ्या श्रद्धाननो पोषक छे. तेथी तो छहढालामां कह्युं के-

‘‘मुनिव्रतधार अनंत वार, ग्रीवक उपजायो;
पै निज आतमज्ञान बिना, सुख लेश न पायो.’’

पंचमहाव्रतादि अनंतवार पाळ्‌यां अने ग्रैवेयक सुधी गयो; पण अंतरमां आत्मानुं ज्ञान प्रगट थया विना, अंतरनी रमणता थया विना लेश पण आनंद न आव्यो. एनो अर्थ ए थयो के पंचमहाव्रतादिना परिणाम-रागरूप बाह्य चारित्रना परिणाम दुःखरूप ज हता; भवभ्रमण छेदवाना कारणरूप न हता. जुओ! आ वीतरागनी वाणी अने वीतरागनो मार्ग! भाई! मार्ग तो आ छे बापु!

लोको शांतिथी स्वाध्याय करता नथी. आवां शास्त्रो पडयां छे ए तो वीतराग समयसार गाथा-१प७-१प९ ] [ १प१


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बापु! आ तो त्रणलोकना नाथ वीतराग सर्वज्ञदेव जेमनी एक समयनी दशामां (केवलज्ञानमां) त्रणकाळ त्रणलोक झळकी उठया छे एवा जिन परमेश्वरनी जे इच्छा विना दिव्यध्वनि खरी तेनो आ दिव्य वारसो आचार्य भगवंतो मूकी गया छे. बनारसी विलासमां शारदाष्टकमां आवे छे के-

‘‘नमो केवल नमो केवल रूप भगवान,
मुख ओंकारधुनि सुनि अर्थ गणधर विचारै,
रचि आगम उपदेश भविक जीव संशय निवारै,
सो सत्यारथ शारदा तासु भक्ति उर आन,
छन्द भुजंगप्रयातमें अष्टक कहों बखान.’’

भगवानना श्रीमुखेथी ॐ ध्वनि नीकळे छे. ते होठ हल्या विना, कंठ ध्रुज्या विना ज ॐ एवो ध्वनि ऊठे छे. अहीं ‘मुख’ शब्द तो लोकमां मुखथी वाणी नीकळे एम लोको माने छे माटे लख्यो छे; बाकी भगवाननी ॐध्वनी सर्व प्रदेशेथी ऊठे छे, आखा शरीरथी ऊठे छे. ए ओंकारध्वनि सांभळी गणधर संत-मुनि एनो अर्थ विचारी एमांथी आगम रचे छे. ए उपदेशने जाणी भव्य जीवो संशयने दूर करे छे एटले के धर्मने प्राप्त थाय छे. ल्यो, आवो आ दिव्य वारसो छे.

एमां संतो एम कहे छे के-भगवान सच्चिदानंदस्वरूप वीतरागमूर्ति प्रभु आत्मानी अंतर-रमणतारूप जे निर्विकल्प वीतराग परिणति तेने चारित्र कहीए. आवा ज्ञानना चारित्रनो परभावस्वरूप जे कषाय शुभभाव ते घातक छे. अहाहा...! केटलुं स्पष्ट छे! छतां माणसोने एम थाय छे के व्यवहार करतां करतां निश्चय थशे. पण भाई! ए तो लसण खातां खातां कस्तूरीनो ओडकार आवशे एना जेवी तारी वात छे. जेम लसण खाय तो कस्तूरीनो ओडकार न आवे तेम शुभरागरूप व्यवहार करतां करतां वीतरागभावरूप निश्चय प्रगट न थाय. शुं रागथी वीतरागी पर्याय प्रगटे? (कदी न प्रगटे). वात तो आवी छे; पण रागनी आदत पडी गई छे तेथी लोकोने आकरी लागे छे.

आकरी लागे छे तेथी राडो पाडे छे के-आ तो सोनगढनी वात छे. पण भगवान! जुओ तो खरा के आ जैन परमेश्वर देवाधिदेव भगवाननी छे के सोनगढनी छे? पोताना (मिथ्या) अभिप्रायथी बीजो अर्थ नीकळे एटले कही दीधुं के आ


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सोनगढनी छे. पण भाई! एथी तने शुं लाभ छे? दुनिया पासे भगवाननी वाणीनो पोकार तो आ छे. तने न बेसे तेथी सत्य कांई फरी नहि जाय. तारे ज सत्यने समजी फरवुं पडशे.

जेम परभावस्वरूप मेलथी व्याप्त थयेलो श्वेतवस्त्रनो श्वेत-स्वभाव ढंकाई जाय छे तेम परभावस्वरूप मिथ्यात्व, अज्ञान अने कषाय नामनो जे कर्ममळ ते वडे मोक्षना कारणस्वरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तिरोभूत थई जाय छे. तेथी हवे कहे छे-‘माटे मोक्षना कारणनुं (- सम्यग्दर्शन, ज्ञान अने चारित्रनुं-) तिरोधान करतुं होवाथी कर्मने निषेधवामां आव्युं छे.’ मतलब के शुभभाव-पुण्यभावरूप कर्म मोक्षना कारणनुं घातनशील होवाथी भगवाननी आज्ञामां तेनो निषेध करवामां आव्यो छे.

प्रश्नः– राग (-शुभराग) मोक्षना कारणरूप स्वभावनुं निश्चयथी घातक छे, पण व्यवहारथी शुं? व्यवहारथी तो व्यवहार मोक्षमार्ग छे ने?

उत्तरः– जुओ, त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य ते निश्चय अने शुद्ध रत्नत्रयना-सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्रना परिणाम ते व्यवहार. आ सद्भूत व्यवहार छे. हवे शुद्ध रत्नत्रयना परिणाम स्वना होवाथी एने निश्चय कह्या तो तेने सहकारी वा निमित्त जे बाह्य शुभरागना परिणाम तेने व्यवहारथी व्यवहाररत्नत्रय वा व्यवहार मोक्षमार्ग कह्यो. आ असद्भूत व्यवहार छे. एनो अर्थ शुं? एनो अर्थ ज ए के व्यवहाररत्नत्रय मोक्षमार्ग छे ज नहि, एने मोक्षमार्ग कहेवो ए तो कथनमात्र आरोप-उपचार छे. वास्तवमां तो ए शुद्ध रत्नत्रयनो घातक विरोधी भाव ज छे, वेरी ज छे.

‘आत्मावलोकन’मां लीधुं छे के निश्चयथी राग ज आत्मानो वेरी छे, कर्म वेरी नथी. विकारभाव छे ते अनिष्ट छे अने एक आत्मस्वभाव ज इष्ट छे. वळी, कळशटीका, कळश १०८ मां त्रण बोलथी कह्युं छे ते आवी गयुं के-व्यवहारचारित्र होतुं थकुं ते द्रुष्ट छे, अनिष्ट छे अने घातक छे.

मूळ आ प्ररूपणानो उपदेश घटी गयो एटले लोकोने एम लागे के आ तो बधी निश्चयनी वात छे, निश्चयनी वात छे. परंतु भाई! निश्चय ए ज सत्य छे अने व्यवहार तो उपचार छे. छहढालामां त्रीजी ढालमां पं. श्री दोलतरामजीए कह्युं ने के-

‘‘सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरण, शिवमग सो द्रुविध विचारो;
जो सत्यारथरूप सो निश्चय, कारण सो व्यवहारो.’’

निश्चयमोक्षमार्ग सत्यार्थ छे अने एनुं कारण (बाह्य निमित्त) व्यवहार मोक्षमार्ग असत्यार्थ छे. भाई! छहढालामां तो जाणे गागरमां सागर भरी दीधो छे! पण लोकोने आखो दि दुनियादारीनी होळी आडे आ वीतरागी तत्त्वने सांभळवानो,


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वांचवानो के विचारवानो वखत कयां छे? बापु! विषय-कषायमां गुंचाई गयो छे पण अवसर चाल्यो जशे हों. (पछी अनंतकाळे अवसर मळवो द्रुर्लभ छे).

* गाथा १प७–१प८–१प९ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग छे. तत्त्वार्थसूत्रमां पण भगवान उमास्वामीए पण कह्युं छे के-

‘‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’’ आ मोक्षमार्ग कह्यो. हवे कहे छे-

‘ज्ञाननुं सम्यक्त्वरूप परिणमन मिथ्यात्वकर्मथी तिरोभूत थाय छे.’

शुभभावने पोतानो मानवो इत्यादि जे मिथ्यात्वभाव छे ते आत्माना सम्यक्त्वरूप परिणमननो घातक छे; एटले ते सम्यक्त्वने प्रगट थवा देतो नथी. अहीं मिथ्यात्वकर्म एटले जीवनो मिथ्याश्रद्धानरूप मिथ्यात्वभाव लेवो. कर्म तो निमित्त छे, जड छे. कर्मनो उदय तो जीवने अडतोय नथी तो ते जीवना भावनो घात शी रीते करे? पण कर्मना निमित्ते जे जीवनो मिथ्यात्वभाव-विपरीतभाव छे ते तेना अविपरीतभाव-स्वभावभावनो, समकितनो घात करे छे.

अहीं भले कर्मथी वात लीधी छे; पण कर्मथी एटले कर्मना निमित्ते थता जीवना भावथी-एम अर्थ लेवो. अगाउ गाथा १प६ मां आवी गयुं के व्रत, तप आदि शुभरागरूप भावकर्म छे ते शुभकर्म छे, अने ते नुकशान करनारुं होवाथी निषेधवामां आव्युं छे. अहीं कहे छे के एनुं जे रागनुं अशुद्ध उपादान छे ते एना शुद्ध उपादाननी परिणतिनो घात करे छे.

सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षनुं कारण छे. त्यां ज्ञाननुं एटले आत्मानुं सम्यक्त्वरूप जे निर्मळ परिणमन ते मिथ्यात्वभावथी तिरोभूत थाय छे. मिथ्यात्वभाव ए निर्मळ परिणमननो घात करे छे अर्थात् समकित प्रगट थवा देतो नथी. जुओ, आ सत्य वात! संक्षेपमां कहेलुं पण आ सत्य छे. हवे कहे छे-

‘ज्ञाननुं ज्ञानरूप परिणमन अज्ञानकर्मथी तिरोभूत थाय छे.’

आत्मानुं ज्ञानरूपे जे परिणमवुं-थवुं ते अज्ञानकर्मथी तिरोभूत थाय छे. स्वरूपनुं अज्ञान, शुभभावमां अटकवारूप अज्ञान आत्माना ज्ञानरूप परिणमनने रोकी दे छे. शुभभावमां जे ज्ञान रोकाई गयुं छे ते अज्ञान छे अने ए सम्यग्ज्ञानना परिणामनो घात करे छे.

भाई! आ धर्मकथा छे. आत्मानुं हित केम थाय एनी आ वात छे. शुभभावरूप जे कर्म छे ते आत्मधर्मने रोकनारा ऊंधा परिणाम छे. कोई माने के जड कर्म घात


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करे छे तो ते यथार्थ नथी. कर्म तो निमित्त भिन्न चीज छे. ते केम करीने घात करे? पूजामां आवे छे ने के-

‘‘कर्म बिचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई;
अग्नि सहै घनघात लोहकी संगति पाई.’’

कर्म तो बिचारां जड-माटी छे. एने तो खबरेय नथी के अमे कोण छीए. मिथ्या परिणमन तो पोतानो ज दोष छे. वळी भक्तिमां आवे छे के-

‘‘अपनेको आप भूलके हैरान हो गया.’’

पोते कोण छे एनुं ज्ञान पोताने नथी तेथी संसारमां रखडीने हेरान थई रह्यो छे. दुनियानुं बधुं डहापण डहोळे, एवुं डहोळे जाणे देवनो दीकरो; पण पोते कोण छे एनुं भान न मळे! अरे भाई! पोताने भूली गयो छे ए तारुं अज्ञान छे अने ते अज्ञान तारा निर्मळ परिणमनने थवा देतुं नथी.

हवे कहे छे-‘अने ज्ञाननुं चारित्ररूप परिणमन कषायकर्मथी तिरोभूत थाय छे.’

ज्ञाननुं चारित्ररूप परिणमन एटले आत्मानुं अतीन्द्रिय आनंदनुं-शांतिनुं परिणमन. पंचमहाव्रतना परिणाम ए कांई आत्मानुं चारित्र नथी. ए तो रागनुं आकुळतारूप आचरण छे. आत्मानुं चारित्र तो वीतराग-परिणतिरूप छे. आवुं वीतरागी चारित्र कषायरूप कर्म एटले व्रत, तप, शील आदिरूप कर्म वडे तिरोभूत थाय छे. जे शुभभाव छे ते आत्माना चारित्रनो घात करे छे अर्थात् चारित्रने थवा देतो नथी.

हवे कहे छे-‘आ रीते मोक्षना कारणभावोने कर्म तिरोभूत करतुं होवाथी तेनो निषेध करवामां आव्यो छे.’

जुओ, आ निष्कर्ष कह्यो के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षना मार्गनो कर्म घात करतुं होवाथी तेनो निषेध करवामां आव्यो छे. भगवान त्रिलोकीनाथ श्री सर्वज्ञदेवे शुभभावने धर्म तरीके मानवानो, जाणवानो अने आचरवानो निषेध कर्यो छे. समजाणुं कांई...?

[प्रवचन नं. २२१ शेष * दिनांक ४-११-७६]

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अथ कर्मणः स्वयं बन्धत्वं साधयति–

सो सव्वणाणदरिसी कम्मरएण णियेणावच्छण्णो।
संसारसमावण्णो ण विजाणदि सव्वदो सव्वं।। १६० ।।
स सर्वज्ञानदर्शी कर्मरजसा निजेनावच्छन्नः।
संसारसमापन्नो न विजानाति सर्वतः सर्वम्।। १६० ।।

हवे, कर्म पोते ज बंधस्वरूप छे एम सिद्ध करे छेः-

ते सर्वज्ञानी–दर्शी पण निज कर्मरज–आच्छादने,
संसारप्राप्त न जाणतो ते सर्व रीते सर्वने. १६०.

गाथार्थः– [सः] ते आत्मा [सर्वज्ञानदर्शी] (स्वभावथी) सर्वने जाणनारो तथा देखनारो छे तोपण [निजेन कर्मरजसा] पोताना कर्ममळथी [अवच्छन्नः] खरडायो-व्याप्त थयो-थको [संसारसमापन्नः] संसारने व्याप्त थयेलो ते [सर्वतः] सर्व प्रकारे [सर्वम्] सर्वने [न विजानाति] जाणतो नथी.

टीकाः– जे पोते ज ज्ञान होवाने लीधे विश्वने (-सर्व पदार्थोने) सामान्यविशेषपणे जाणवाना स्वभाववाळुं छे एवुं ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य, अनादि काळथी पोताना पुरुषार्थना अपराधथी प्रवर्तता एवा कर्ममळ वडे लेपायुं-व्याप्त थयुं-होवाथी ज, बंध-अवस्थामां सर्व प्रकारे संपूर्ण एवा पोताने अर्थात् सर्व प्रकारे सर्व ज्ञेयोने जाणनारा एवा पोताने नहि जाणतुं थकुं, आ प्रमाणे प्रत्यक्ष अज्ञानभावे (-अज्ञानदशामां) वर्ते छे; तेथी ए नक्की थयुं के कर्म पोते ज बंधस्वरूप छे. माटे, पोते बंधस्वरूप होवाथी कर्मने निषेधवामां आव्युंछे.

भावार्थः– अहीं पण ‘ज्ञान’ शब्दथी आत्मा समजवो. ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य स्वभावथी तो सर्वने देखनारुं तथा जाणनारुं छे परंतु अनादिथी पोते अपराधी होवाथी कर्म वडे आच्छादित छे, अने तेथी पोताना संपूर्ण स्वरूपने जाणतुं नथी; ए रीते अज्ञानदशामां वर्ते छे. आ प्रमाणे केवळज्ञानस्वरूप अथवा मुक्तस्वरूप आत्मा कर्म वडे लिप्त होवाथी अज्ञानरूप अथवा बद्धरूप वर्ते छे, माटे ए नक्की थयुं के कर्म पोते ज बंधस्वरूप छे तेथी कर्मनो निषेध करवामां आव्यो छे.

* * *

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समयसार गाथा १६०ः मथाळुं

हवे, कर्म पोते ज बंधस्वरूप छे एम सिद्ध करे छेः-

पहेलां त्रण गाथामां (१प७-१प८-१प९ मां) एम कह्युं के व्रत, तप, दान, शील, भक्ति इत्यादिना शुभभाव, आत्मानी निर्मळ परिणति जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणाम छे तेनो घातक छे, तेथी मोक्षमार्गमां तेनो निषेध छे.

हवे अहीं आ गाथामां ए व्रत, तपादिना शुभभाव पोते ज बंधस्वरूप छे एम सिद्ध करे छे, जडकर्म छे ए तो द्रव्यबंध छे. एनी साथे आत्माने कांई संबंध नथी पण जीवनी दशामां जे रागादि परिणाम थाय छे ते भावबंध छे. भगवान आत्मा अबंधस्वरूप छे अने ए अबंधस्वरूपना आश्रये थता सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना परिणाम पण अबंधस्वरूप छे. ज्यारे व्रतादिनो शुभभाव छे ते पोते ज भावबंध छे तेथी निषेधवा लायक छे-एम अहीं सिद्ध करे छेः-

* गाथा १६०ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जे पोते ज ज्ञान होवाने लीधे विश्वने (-सर्व पदार्थोने) सामान्यविशेषपणे जाणवाना स्वभाववाळुं छे एवुं ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य,’...

शुं कह्युं? के भगवान आत्मा ज्ञान अने दर्शनस्वरूप छे. सामान्य जे दर्शन अने विशेष जे ज्ञान ए चैतन्यस्वरूप आत्मानो स्वभाव छे. आवुं जाणवा-देखवाना स्वभाववाळुं आत्मद्रव्य शरीर, कर्म अने शुभाशुभभावथी भिन्न तत्त्व छे.

एवुं ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य ‘अनादिकाळथी पोताना पुरुषार्थना अपराधथी प्रवर्तता एवा कर्ममळ वडे लेपायुं-व्याप्त थयुं-होवाथी ज,.. .’

जुओ, घणा वखत पहेलां आ गाथा प्रवचनमां चालती हती त्यारे इंदोरथी शेठ सर हुकमीचंदजी अने तेमनी साथे पंडित श्री जीवंधरजी आवेला हता. पंडितजीए त्यारे कह्युं के-मूळ गाथामां ‘कम्मरएण’ शब्द छे अने एनो अर्थ कर्मरज वडे आत्मा ढंकाएलो छे एम थाय. त्यारे कह्युं के एम अर्थ नथी. जुओ, टीकामां एनो अर्थ छे. टीकामां पाठ एम छे के-‘पोताना पुरुषार्थना अपराधथी ढंकायेलो’ अर्थात् भावकर्मथी आत्मा ढंकाई गयेलो छे. भावकर्मनुं जे परिणमन छे ए ज भावघाती छे. जडकर्म छे ए तो मात्र निमित्त छे. जडने तो आत्मा अडतोय नथी. शरीर, मन, इन्द्रिय अने जड कर्मरजकण वगेरेने तो भगवान आत्मा कोई दि अडयोय नथी. अरूपी आत्मा रूपीने अडे कयांथी? (अडे तो बंने एक थई जाय).

जडकर्मना उदयकाळमां आत्मा पोते परने जाणवामां रोकाई जाय छे अने त्यारे तेने शुभ अने अशुभ भावो थाय छे. ए शुभाशुभ भाव ते भावआवरण छे. कर्म- समयसार गाथा १६० ] [ १प७


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‘‘कर्म बिचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई’’

जडकर्म शुं करे? ए तो बिचारां छे एटले के आत्मामां कांई करवा समर्थ नथी. पण पुण्यना भाव भला छे अने मारा छे एवी जे मान्यता छे ते भूल छे, अपराध छे अने ते बंधनो भेख छे. शुभाशुभ भाव छे ते आत्मानी पर्यायमां बंधनो भेख छे, ए निजस्वरूप नथी. सर्वने जाणवुं-देखवुं ए जेनुं स्वरूप छे एवुं जाणग-जाणग स्वभाववाळुं तत्त्व प्रभु आत्मा छे. एमां जे शुभरागना परिणाम छे ए भावबंधस्वरूप छे. अहा! पर्याय त्यां जे रागमां रोकाई गई छे ते भावबंध छे अने ते एनो अपराध छे.

हवे आवो यथार्थ निर्णय करवानुंय जेनुं ठेकाणुं नथी तेने धर्मनी पहेली भूमिका जे सम्यग्दर्शन ते कयांथी थाय? वर्तमानमां भाई! आ निर्णय करवानुं टाणुं छे, अवसर छे; माटे निर्णय करी ले. जोजे हों, एम न बने के अवसर चाल्यो जाय अने अज्ञान ऊभुं रहे.

अहीं कहे छे के ज्ञान अने दर्शनथी भरेलो भगवान आत्मा सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी छे. सर्वज्ञ अने सर्वदर्शीपणुं आत्मानो शक्तिरूप स्वभाव एटले गुण छे. आवा सर्वज्ञ अने सर्वदर्शीना स्वभावने भूलीने ते रागमां रोकाई रहे ए पोताना पुरुषार्थनो अपराध छे, अने ते अपराधथी प्रवर्तता एवा कर्ममळ वडे ते लेपाय छे. पुण्य-पापना परिणाम ए कर्ममळ छे, मेल छे अने ते वडे आत्मा लेपाय छे. कर्मने लीधे लेपाय छे एम नहि केमके ए तो पर जड छे; एनी साथे आत्माने अडकवानोय संबंध नथी. आवे छे ने के-

‘‘अपनेको आप भूलके हेरान हो गया.’’

अहाहा...! आखाय विश्वने एटले समस्त पदार्थोने जाणवा-देखवाना स्वभाववाळुं ज्ञाता-द्रष्टास्वभाववाळुं एवुं पोते अनुपम तत्त्व छे. लोकालोकनी सर्व चीजोने देखे-जाणे एवुं एना स्वभावनुं सामर्थ्य छे. एवा पोताना स्वभावसामर्थ्यने भूलीने भगवान पोताना अपराधथी व्रत, तप, शील, दान इत्यादिना रागमां रोकाईने-अटकीने बंध भावने प्राप्त थयो छे. भाई! अशुभनी जेम शुभभाव पण बंधभाव छे अने तेथी तेने अहीं निषेधवामां आव्यो छे.


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अहा! भगवान! तुं अनादिथी केम भूल्यो छे? तो कहे छे के पोताना अपराधथी भूल्यो छे. पोतानुं जे शुद्ध ज्ञाता-द्रष्टास्वभावी तत्त्व छे एना पर नजर होवी जोईए एना बदले राग उपर तारी नजर छे. आ जडकर्मना भेख तो अजीवना छे; अने आ भावकर्म छे ते जीवनी पर्यायनो भेख छे. ते मेल छे, बंधरूप छे. अहीं खास तो पुण्य-परिणामने कर्ममळ तरीके लेवुं छे. अशुभ तो कर्ममळ छे ज ए साधारण वात छे. भाई! व्रतादिना शुभभाव जेने तुं धर्म माने छे ते कर्ममळ छे, बंधरूप छे एम अहीं कहे छे.

अहीं जे एम कह्युं के ‘कर्ममळ वडे लेपायुं-व्याप्त थयुं होवाथी ज’ एनो अर्थ जडकर्म साथे व्याप्ति-एम नथी. भगवान आत्मा व्यापक अने जडकर्म व्याप्य एम नथी; पण एनुं (अज्ञानदशामां) व्याप्य भावकर्म छे. एटले व्यापक आत्मा अने व्रत, तप आदिना परिणाम एनुं व्याप्य कर्म नाम कार्य छे. एमां (-भावकर्ममां) रोकावाथी एनुं (-आत्मानुं) ज्ञान-दर्शन एटले सर्वने जाणवा-देखवानुं कार्य प्रगट थतुं नथी.

आ शरीर, मन, वाणी, कर्म, नोकर्म-ए बधी बाह्य चीजोने तो आत्मा अडतोय नथी, अनंतकाळमां कदी अडतोय नथी. पण सदाय अबंधस्वरूप एवो पोतानो जे ज्ञाताद्रष्टा स्वभाव छे एनाथी भ्रष्ट थई भगवान रागमां रोकाई गयो ए पोतानो अपराध छे अने ए ज भावबंध छे. हवे कहे छे-

एवा कर्ममळ वडे लेपायुं-व्याप्त थयुं होवाथी ज, ‘बंध-अवस्थामां सर्व प्रकारे संपूर्ण एवा पोताने अर्थात् सर्व प्रकारे सर्व ज्ञेयोने जाणनारा एवा पोताने नहि जाणतुं थकुं, आ प्रमाणे प्रत्यक्ष अज्ञानभावे (अज्ञानदशामां) वर्ते छे.’

जुओ, शुं कह्युं? बंध-अवस्थामां एटले रागमां रोकावानी दशामां ते सर्वप्रकारे संपूर्ण एवा पोताने एटले त्रिकाळी, अनंतगुणनो पिंड एवा ज्ञानानंदस्वभावी भगवान आत्माने-के जे सर्वने सर्व प्रकारे जाणवाना स्वभाववाळो छे -तेने नहि जाणतो थको अज्ञानभावे वर्ते छे.

अहा! अनंतकाळमां भगवान! ए दुःखी केम थयो छे? तो कहे छे -एनो स्वभाव तो परिपूर्ण सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी छे, परंतु पोते रागमां रोकाई रहेवाथी पोताना पूर्णानंदस्वरूप भगवानने देखतो नथी अने तेथी अनादिथी दुःखी थई रह्यो छे. जुओ, आ अध्यात्मनी वात छे, पण न्यायथी कहेवाय छे ने? कहे छे -दया, दान, व्रत, तप इत्यादि वृत्तिनुं जे उत्थान छे ए बधो राग छे, चैतन्यनुं स्वरूप नथी. चैतन्यस्वरूपमां ए (-राग) कयां छे? हवे पर एवा रागमां पोते रोकाई रह्यो ए एनो अपराध छे अने ए अपराधने लईने सर्वने जाणवा- देखवाना स्वभाववाळा पोताना


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चैतन्यमहाप्रभुने आनंदना नाथने ते देखतो नथी. बस, तेथी ते दुःखी थई रह्यो छे, कोई जड कर्मने लईने दुःखी थई रह्यो छे एम नथी. समजाणुं कांई...?

लोकोने-जैनमां पण ज्यां-त्यां कर्म नडे छे एवी (विपरीत) मान्यता छे. पण अहीं जुओ, एनो स्पष्ट खुलासो कर्यो छे. कहे छे -तुं परने-रागने जाणवामां रोकाई रहेतां सर्वने जाणनार-देखनार एवा पोताने देखतो नथी ए तारो महाअपराध छे. राग अने राग द्वारा बीजाने जाणवामां ज्यां रोकाय छे त्यां सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी एवुं पोतानुं तत्त्व तने जणातुं नथी. पोताना सच्चिदानंदस्वरूप भगवानने जाणवो (अनुभववो) जोईए एने बदले तुं परने-रागने जाणे (अनुभवे) छे अने एमां रोकाई रहे छे ए तारो अपराध छे, अज्ञानभाव छे. अहो! आचार्यदेवे कांई अद्भुत टीका रची छे! गजब वात छे!

जुओ, मूळ गाथामां ‘सव्वणाणदरिसी’ -एवो पाठ छे. एमांथी टीकाकार आचार्यदेवे काढयुं के -विश्वने (-सर्व पदार्थोने) जाणवा-देखवाना स्वभाववाळुं द्रव्य जे पोते छे तेने जाणवुं जोईए एना बदले रागने जाणवामां रोकाई गयो ए एनो अपराध छे, केमके राग छे ए कयां चैतन्यतत्त्व छे? ए तो आस्रवतत्त्व छे, बंधतत्त्व छे.

त्यारे एक भाई कहेता हता के आवो धर्म कयांथी काढयो? एम के अमे व्रत, तप, दया, दान, भक्ति करीए ते धर्म नहि अने आ धर्म!

बापु! वीतरागनो मार्ग ज आ छे. भाई! जेणे पूर्ण सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी एवा आत्माने केवळज्ञानमां जाण्यो छे एवा देवाधिदेव त्रणलोकना नाथ तीर्थंकरदेवनी वाणीमां जे मार्गनी वात आवी ते अहीं वीतरागी संतोए कही छे.

भगवान! तुं कोण छो? केवडो छो? तो कहे छे के -सर्वने जाणवा-देखवानो जेनो स्वभाव छे एवो तुं सर्वज्ञ-सर्वदर्शी प्रभु परमात्मद्रव्य छो. आवो तुं रागमां रोकाई रह्यो ते अपराध छे. ‘कर्मरजथी’ एम पाठमां शब्द छे एनो टीकाकार आचार्यदेवे आ अर्थ कर्यो के- पोताना पुरुषार्थना अपराधथी वर्तता एवा कर्ममळ वडे एटले पुण्य-पापना भाव वडे लेपायो होवाथी ज एटले के रागमां-बंधमां एकाकार थवाथी ज सर्वप्रकारे संपूर्ण एवा पोताने अर्थात् सर्वप्रकारे सर्वज्ञेयोने जाणनारा एवा पोताने जाणतो नथी. भाई! कर्मने लईने रागमां रोकायो छे एम नथी. कर्मनो उदय आव्यो माटे राग आव्यो अने एमां रोकायो एम नथी. एम कहेवुं ए तो निमित्तनुं कथन छे.

पंचास्तिकाय गाथा ६२ मां कह्युं छे के-आत्मामां जे मिथ्यात्वना परिणाम थाय छे एटले के ‘राग ते हुं’ एवा जे मिथ्यात्वना परिणाम थाय छे ते परिणाम पोताना षट्कारकरूप परिणमनथी स्वतंत्र थाय छे; ते अन्य कर्मना कारकोनी अपेक्षा राखता