Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 156.

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रखडशे. अने परम गुरु परमात्मा अरहंतादि प्रत्ये जे (स्वरूपनी ओळखाण सहित) अनुराग छे ते सवारनी संध्यानी जेम भगवान आत्मानो उदय थवानी निशानी छे. आ स्वरूपनी जेने रुचि थई छे एवा समकितीनी वात छे. एने ख्याल छे के जेवा भगवान परम वीतराग निर्मळ छे तेवो पोतानो चैतन्यस्वभाव परम वीतराग निर्मळ छे. एने स्वभावना अवलंबने वीतरागदेव प्रत्येनो अनुराग टळीने क्रमे वीतरागता प्रगटशे अने पूर्ण केवळज्ञानसूर्यनो उदय थशे केमके एने रागनुं ममत्व अने स्वामित्व नथी; ए रागने भलो अने लाभदायक मानतो नथी तेथी राग टळीने एने चैतन्य जागशे अने केवळज्ञान प्रगटशे. (अहीं अरहंतादिनो अनुराग केवळज्ञाननुं कारण छे एम न समजवुं पण स्वरूपनां जे श्रद्धान, ज्ञान अने एमां जे उग्र रमणता थाय ते ज केवळज्ञाननुं कारण छे एम समजवुं).

अहीं जीवादि पदार्थोनुं अधिगम ते ज्ञान एम जे कह्युं त्यां एम न समजवुं के जीव, अजीव अने तेमना विशेषोने शास्त्रमांथी जाणी लीधा अने तेनी धारणा करी लीधी एटले ज्ञान थई गयुं. अहीं तो स्वसंवेदन-प्रत्यक्ष स्वरूपना ज्ञानने ज्ञान कह्युं छे. चैतन्यनुं चैतन्यस्वभावे थवुं-परिणमवुं एने ज्ञान कह्युं छे अने ते मोक्षनो मार्ग छे.

‘रागादिपरिहरणं चरणं’–एमां तो एम आव्युं के पुण्य अने पाप ए बेयने छोडी अंतरमां स्थिरता करे एनुं नाम चारित्र छे. वीतरागस्वरूपे जीव छे अने एनुं वीतरागभावे परिणमवुं ते धर्म छे, चारित्र छे. आवा चारित्रवंत जैनना गुरु पण वीतरागभावनो ज वारंवार उपदेश करे छे.

तो शुं तेओ चरणानुयोगमां कहेलां आचरणने उपदेशता नथी?

चरणानुयोगमां जे व्रतादि आचरण कहेलां छे तेने यथासंभव ज्यां जेम होय तेम जणावे छे अवश्य, पण ते उपादेय छे. आदरणीय छे एम उपदेशता नथी. समकितीने जे जे भूमिकामां जे जे दया, दान, व्रत, भक्ति आदिनो राग होय छे तेने ते जाणवा योग्य होवाथी जणावे छे खरा, पण ते राग आदरणीय छे, वास्तविक धर्म छे-एम कहेता नथी. जैनना साधु तो वीतरागस्वभावी आत्मा एक वीतरागभावरूपे-सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपे परिणमे ए ज धर्म छे एम ज प्ररूपणा करे छे.

हवे समकितनां ठेकाणां न मळे अने जीवोने मा हणो, तेमनी दया पाळो, जीवदया पाळवी ए धर्म छे इत्यादि जे उपदेश करे ते जैनना साधु-गुरु नथी.

भाई! परनी दया करवी ए तो शकय नथी अने परनी दया करवानो जे भाव आवे ते राग छे अने रागनी उत्पत्ति थवी ए ज हिंसा छे एम जैनशासनमां कह्युं छे. (जुओ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय श्लोक ४४) तो-


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‘‘दया ते सुखनी वेलडी, दया ते सुखनी खाण;
अनंत जीव मुकित गया, दया तणा परिणाम.’’-एम कह्युं छे ने?

हा; कह्युं छे. पण ए दया एटले शुं? भाई! ए तो पोताना आत्मानी दयानी वात छे, परनी दयानी नहि. पुण्य-पापना विकल्पथी भिन्न पडीने आत्मानुं जीवन जे ज्ञान अने आनंदस्वरूपे छे तेनी एटले टकता तत्त्वनी टकता तत्त्व तरीके प्रतीति अने ज्ञान थवां एनुं नाम स्वदया छे. भाई, आत्मा जेवडो छे तेवडो स्वीकारवो ते दया छे अने तेथी ओछो के विपरीत मानवो ते हिंसा छे. आवी स्वदया ते सुखनी-मुक्तिनी खाण छे.

अत्यारे तो जेम वरने मूकीने जान जोडी दे तेम आत्माने छोडी दईने परथी-रागथी धर्म मनावे छे. पैसावाळाने पैसा बे-पांच लाख रूपिया खर्चो एटले धर्म थशे एम मनावी दे. पण भाई! पैसा कयां आत्मानी चीज छे के ते खर्चे? पैसा राखवानो (परिग्रहनो) भाव छे ए पाप छे अने एने धर्मकार्यमां खर्चवानो जे अनुराग छे ते मंदकषायरूप होय तो पुण्य छे. पण ए कांई धर्म नथी. (ऊलटुं हुं पैसा कमाउं छुं अने वापरुं छुं एवी जे मान्यता छे ते मिथ्यादर्शन छे).

प्रश्नः– तो पछी आ २६ लाखना खर्चे मोटुं आगममंदिर बनाव्युं अने अत्यार सुधीमां लाखो रूपिया खर्चाई गया छे ए बधुं कोण करे छे?

समाधानः– आ आगममंदिर जे बन्युं छे ते एना पोताना कारणे बन्युं छे. तेने कोण बनावे? शुं आत्मा परनुं कार्य करी शके छे? मंदिर ए तो जड पुद्गलोनी पर्याय छे; तेने शुं आत्मा करी शके छे? ना. आ तो जड परमाणुओ-माटी-धूळ स्वयं पोताना काळे मंदिररूपे रचना थईने परिणम्या छे. तेने कोई कारीगरे के बीजाए परिणमाव्या छे एम छे ज नहि. ए एनी जन्मक्षण हती, परमाणुओनो ते-रूपे रचाई जवानो-उत्पत्तिनो काळ हतो त्यारे ते रचाई गयुं छे. भगवाने तो कह्युं छे के-घडानो करनारो कुंभार नथी, घडो माटीथी थयो छे. माटी पोते प्रसरीने घडो बनावे छे, कुंभार नहि. कुंभारथी घडो थयानुं माने ए परद्रव्यनी पर्यायनो कर्ता परने माने छे माटे मूढ-मिथ्याद्रष्टि छे.

में उपवास आदि कर्या, आ छोडयुं, आ खाधुं नहि, आ पीधुं नहि-एम मूढ जीव माने छे. ए आहार अने पाणी तो जड, पर छे. खावानी अने छोडवानी जे क्रिया छे ए तो जडनी जडमां छे. शुं ए जडने तें छोडयुं छे? भाई! परनुं ग्रहण-त्याग मानवुं ए मिथ्यात्व छे. परने तें कयां पकडया छे के हवे हुं तेने छोडुं छुं एम माने छे? आत्मामां त्याग-उपादानशून्यत्व नामनी एक अनादि-अनंत शक्ति-गुण छे.


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ते गुणना कारणे आत्मा परने ग्रहतो नथी अने छोडतो य नथी. आवुं वस्तुनुं-आत्मानुं स्वरूप छे तेने स्वरूपमां एकाग्र थईने यथार्थ जाणवुं ते ज्ञान छे.

‘ज्ञान तेमनुं ज्ञान छे’ (हरिगीत) एम-कह्युं ने? एनो अर्थ शुं? के आत्मा जे सदाय वीतराग-विज्ञानस्वरूपे छे एना परिणमनमां वीतराग-विज्ञाननुं थवुं, ज्ञानरूपे परिणमवुं ए ज्ञान छे. ए ज्ञान वीतरागी पर्याय छे. आवो वीतराग मार्ग छे. ज्ञाननी साथे रागने भेळवे ए वीतराग मार्ग नथी. समजाणुं कांई...?

बे बोल थया. हवे त्रीजोः-‘रागादिना त्यागस्वभावे ज्ञाननुं थवुं-परिणमवुं ते चारित्र छे.’

जुओ, पंचमहाव्रतना परिणाम, २८ मूलगुणना पालननो विकल्प इत्यादि छे ते राग छे. लोकोने खबर नथी एटले एने धर्म माने छे. अव्रत छे ते पाप छे अने व्रत छे ते पुण्य छे; बेमांथी एकेय धर्म नथी. ए बेयना त्यागस्वभावे ज्ञाननुं एटले आत्मानुं थवुं-परिणमवुं ते धर्म छे. आत्मा ज्ञानस्वभावे अंतर-एकाग्र थई ज्यां परिणमे छे. त्यां सहेजे रागरूपे थतो नथी; ए परिणमन ज रागना अभावस्वरूप छे अने ते सम्यक्चारित्र छे. आ राग छे तेने हुं छोडुं छुं एम नहि, पण स्वरूपमां परिणाम मग्न थई स्थित थतां ज त्यां रागनी उत्पत्तिनो अभाव होय छे अने एवुं स्वरूपना आचरणरूप चारित्र छे ते ज वीतरागी चारित्र छे.

हवे आवी वात समजे नहि अने बेसी गया चारित्र लईने. एके लुगडां फेरव्यां अने बीजा नग्न थई गया. पण एथी शुं? बेमांथी एकेनेय चारित्र नथी, धर्म नथी. श्वेतांबरमां साधुने २७ मूलगुण कह्या अने दिगंबरमां २८; पण ए तो बन्नेय विकल्प छे, राग छे ए कयां चारित्र छे? चारित्र तो रागना अभावस्वरूप आत्मानुं आत्मरूप-वीतरागरूप परिणमन छे. चाहे व्रतादिना विकल्प हो के गुण-गुणीनो भेदरूप विकल्प हो के नवतत्त्वना भेदरूप श्रद्धाननो विकल्प हो; ए सर्व राग छे, अचारित्र छे अने एने चारित्र माने ए मिथ्यात्व छे.

अहाहा...! जेमां अतीन्द्रिय आनंदनुं प्रचुर वेदन होय एवी रागना त्यागरूप आनंदनी दशारूपे आत्मानुं थवुं ए चारित्र छे. आ टूंकी ने टच वात छे के-परथी खस अने स्वमां वस. बस स्वमां वसवुं ए चारित्र छे. भाई! जो चारित्रनी भावना छे तो व्रतादिना विकल्पथी खसी जा अने चैतन्यस्वभावमां आवी जा. अरे! पण स्वभावनी जेने खबर न होय ते कयां आवे अने कयां जाय? ए तो संसारमां ज रखडे छे. शुं थाय? मोक्षनुं कारण तो सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्र छे. व्यवहाररत्नत्रय ए कांई मोक्षनो मार्ग नथी. हवे कहे छे-

‘तेथी ए रीते एम फलित थयुं के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ए त्रणे एकलुं


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ज्ञाननुं भवन (-परिणमन) ज छे. माटे ज्ञान ज परमार्थ मोक्षकारण छे.’

जुओ, आ निष्कर्ष-सार काढयो के-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ए आनंदकंद प्रभु आत्मानुं ज चैतन्यमय परिणमन छे. महाव्रतना जे परिणाम छे ए तो विजातीय छे, अचेतन छे केमके तेमां चैतन्यनो अंश नथी. आ नग्न दशा अने २८ मूलगुणनो विकल्प अजीव छे केमके ते ज्ञानस्वरूप भगवान आत्माथी विरुद्ध जातिना भाव छे. वस्त्रवाळानी तो अहीं वात ज नथी केमके वस्त्रवाळो साधु होय ए जैनदर्शन नथी, वीतरागदर्शन नथी, अन्य दर्शन छे. आवी वात कोईने आकरी लागे पण शुं थाय? वस्त्र राखे अने मुनिपणुं माने ए तो जैनदर्शनथी- सत्यदर्शनथी विरुद्ध छे, केमके एने तो द्रव्यलिंग पण यथार्थ नथी. अहीं तो एम वात छे के नग्नपणुं आदि २८ मूलगुणना जे परिणाम छे ते चारित्र नथी.

तो भावलिंगीने पण नग्नता सहित २८ मूलगुणना परिणाम तो होय छे?

हा, भावलिंगीने पण नग्नता सहित २८ मूलगुणना पालननो व्यवहार होय छे पण ए तो बधो राग छे. ए बाह्य सहकारीपणे-निमित्तपणे होय छे पण अंतरमां जे शुद्ध रत्नत्रयरूप निर्मळ चैतन्यनुं परिणमन तेने थयुं छे ए ज चारित्र छे.

प्रश्नः– ए बाह्य सहकारी निमित्त साधन तो छे ने?

उत्तरः– निमित्त खरेखर साधन नथी. एने साधन कहेवुं ए तो उपचारकथन छे. कोईए ठीक कह्युं छे के-सोनगढवाळा निमित्तनो निषेध करता नथी पण निमित्तने कर्ता मानता नथी. वात तो एम ज छे. जेमके कर्म विकारमां निमित्त छे, पण निमित्त-कर्म विकारनुं कर्ता नथी. तेम कर्मनुं परिणमन कर्ममां कर्मना कारणे थाय छे, अने रागद्वेषना परिणाम एमां निमित्त छे. पण तेथी कोई एम माने के निमित्तना कारणे कर्मबंधन थयुं तो ते यथार्थ नथी. तेवी रीते अहीं व्यवहाररत्नत्रयना परिणाम छे तो एना कारणे आत्मानुं चारित्ररूप वीतरागी परिणमन थाय छे एम नथी. निमित्त छे, होय छे, पण निमित्त कर्ता नथी, यथार्थ साधन नथी.

जुओ, आ अहीं सरवाळो काढयो-बधानुं तात्पर्य काढयुं के-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र त्रणे एकलुं ज्ञाननुं एटले एकलुं आत्मानुं भवन ज छे ‘एकलुं’ एटले पंचमहाव्रतनुं परिणमन साथे मळीने चारित्र छे एम नहि. भाई! आ तो जन्म-मरण मटाडनारुं वीतरागनुं शास्त्र-चोपडो छे. एनो शब्दे-शब्द गंभीर आशयथी भरेलो छे. एकलुं आत्मानुं भवन कह्युं एमां व्रतादिना रागनो निषेध थई गयो. मात्र चैतन्यनुं वीतराग चैतन्यमय परिणमन ज रत्नत्रयरूप चारित्र छे एम सिद्ध कर्युं.

भाई! आ जिंदगी चाली जाय छे हों. पांच-पचास लाखनुं धन थाय एटले


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जगत, तुं सारुं रळ्‌यो अने कमाणो एम कहेशे पण ए तो जिंदगी हारी जवानुं छे. भाई! ए तो बधो खोटनो ज वेपार छे. आ पैसा थाय ए कांई सुखनुं निमित्त नथी, बल्के दुःखनुं ज निमित्त छे. स्त्री, कुटुंब-परिवार, लक्ष्मी, आबरू ए बधां दुःखनां निमित्त छे. सुखनुं कारण तो एक भगवान आत्मा छे. वीतरागी आनंदनुं स्थान भगवान आत्मा छे. ए (वीतरागी आनंद) पैसामां नथी, बायडीमां नथी, अने सारां कपडां पहेरे एमांय नथी, अने मोटो हजीरो-महेल लाख-करोड रूपियानी किंमतनो होय एमांय नथी. भाई! ए तो बधां दुःखनां निमित्त छे अने दुःखे करीने प्राप्त थाय छे.

अहाहा...! सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ए त्रणे एकलुं ज्ञाननुं भवन ज छे. अहीं ज्ञान एटले आत्मा; चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मानुं श्रद्धानस्वभावे थवुं ते सम्यग्दर्शन, एनुं पोताना ज्ञानरूपे थवुं ए ज्ञान अने एनुं रागना अभावस्वभावे स्थिरता-रमणतारूप परिणमन ते चारित्र. एमां कर्मना अभावनी के व्यवहाररत्नत्रयना सद्भावनी कोई अपेक्षा नथी. एकलो आत्मा स्वयं निर्मळ रत्नत्रयरूप परिणमे छे. निश्चयथी तो दर्शन-ज्ञान-चारित्रना परिणाम स्वयं पोताना षट्कारकपणे परिणमता थका प्रगट थाय छे. एने द्रव्य-गुणनी पण अपेक्षा नथी. (पण ए वात अहीं नथी). अहीं कीधुं ने के आत्मानुं परिणमवुं; त्यां वीतरागभावे परिणमे ए तो पर्याय छे. आत्मा (द्रव्य आखुं) कांई पर्यायमां आवतो नथी. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ए (सजातीय) चैतन्यमय वीतराग परिणाम छे तेथी चैतन्यमय आत्मानुं परिणमन छे एम अभेद करीने कह्युं पण ए परिणमनमां द्रव्यस्वभाव आवतो नथी. शुद्ध द्रव्यना लक्षे निर्मळ वीतराग परिणमन थयुं तेथी द्रव्यनुं-आत्मानुं परिणमन कह्युं, बाकी परिणमन तो पर्यायमां थाय छे अने तेने द्रव्यस्वभावनीय अपेक्षा नथी. (वीतरागतानुं परिणमन द्रव्यस्वभावना लक्षे थाय छे बस एटलुं ज).

प्रश्नः– घडीकमां आत्मानुं परिणमन कहो छो ने वळी आत्मानुं नहि पर्यायनुं परिणमन छे एम कहो छो तो ते केवी रीते छे?

उत्तरः– पर्याय अपेक्षाए द्रव्य परिणमे छे एम कहेवाय छे अने द्रव्यनी अपेक्षाए द्रव्य परिणमतुं नथी केमके द्रव्य तो त्रिकाळ ध्रुव अक्रिय अचळ छे. जे अपेक्षाथी कथन होय तेने यथार्थ समजवुं जोईए.

अहाहा...! सम्यग्दर्शन-ज्ञानमां जे आत्मानां ज्ञान-श्रद्धान थाय छे ते शुं चीज छे? तो कहे छे के ए सदाय ध्रुव अचळ एकरूप चैतन्यमूर्ति सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मा छे; अने एनुं ज्ञान-श्रद्धानपणे परिणमवुं-थवुं ते सम्यग्दर्शन-ज्ञान छे. हवे आवी वात बेसे नहि एटले माने के बोले-चाले, उपदेश-उपवासादि करे ते


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आत्मा. पण भाई! शुं आत्मा कदी बोले छे? (ना). आ जे बोले-चाले छे ए तो जड छे. अने आ जे उपदेश-उपवासादिना परिणाम छे ए आस्रव तत्त्व छे, अने ए पण जड अजीव तत्त्व छे. ए जड अजीव तत्त्व सदा चेतनस्वभावी एवा भगवान आत्मामां केम होय? (नथी ज). अने तो ए वडे धर्म केम थाय? (न ज थाय).

भाई! धर्म तो आत्मरूप छे. अहीं कह्युं ने के-वीतरागी सम्यग्दर्शन, वीतरागी ज्ञान अने वीतरागी चारित्र ए त्रणेय वीतरागस्वभावी भगवान आत्मानुं घर छे, एटले आत्मानुं घर छे. रहेठाण छे. (भवननो एक अर्थ घर-रहेठाण थाय छे.) राग अने पुण्यना परिणाम ए आत्मानुं घर-स्थान नथी. ए तो परघर छे. उपदेश-उपवासादि पुण्यनी क्रिया परघर छे. आ लोको मोटां तप करे, एनी ऊजवणी करे, वरघोडा काढे अने लोको भेगा थईने बहु भारे धर्म कर्यो एम वखाण करे, पण भाई! ए तो बधो रागमां रहे ते आत्मा नहि. राग तो परघर छे अने परघरमां रहेवानो अभिप्राय तो मिथ्यात्व छे. आत्मानुं स्वघर तो वीतरागता छे. वीतरागतामां वसे ते आत्मधर्म छे.

गाथा १प३ मां आवी गयुं के-व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि शुभकर्मो राग छे, अने ए बधां होवा छतां अज्ञानीओने मोक्षनो अभाव छे. अज्ञानीओने वळी तप केवुं? तप तो एने कहीए जेमां भगवान आत्मा, अंतर्मुखाकार परिणति वडे इच्छाओनो निरोध थवाथी अतीन्द्रिय आनंदरसना-अमृतना स्वादना अनुभवथी परितृप्त होय. आवी शुद्ध चैतन्यना प्रतपनरूप आनंदनी दशाने तप कहे छे. अज्ञानीनुं तप तो वृथा कलेश छे. भाई! व्रत, तप, शील, इत्यादि रागमां जे धर्म माने छे एने तो मिथ्यात्वनुं महापाप थाय छे. भगवान जिनेश्वरदेवना मार्गमां तो वीतरागता वडे ज धर्म कहेलो छे. राग वडे धर्म थवानुं माननारा जिनमार्गमां नथी; एमनो तो ए कल्पित मार्ग छे, ए तो अज्ञानीनो मार्ग छे.

जुओ, अहीं शुं कह्युं छे? के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ए त्रणेय एकलुं ज्ञाननुं भवन ज छे. आत्मानुं एकलुं वीतरागतारूप थवुं-परिणमवुं ए ज शुद्ध रत्नत्रय छे. अहाहा...! एक लीटीमां केटलुं भर्युं छे! रागमां रत्नत्रय नहि अने रत्नत्रयमां राग नहि. गजब वात छे भाई! हवे आवो (अद्भुत) मार्ग! कहे छे-‘माटे ज्ञान ज परमार्थ मोक्षकारण छे’. अहाहा...! भगवान आत्मा पूर्णानंदनो नाथ प्रभु अतीन्द्रिय आनंदपणे परिणमे ए एक ज मोक्षनो मार्ग छे. कोई वळी बे मोक्षमार्ग कहे छे तेनो अहीं स्पष्ट निषेध कर्यो छे. ज्ञान ज एटले वीतरागस्वभावी चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मा निर्विकारपणे-वीतरागपणे परिणमे ते एक ज मोक्षनुं कारण छे. ल्यो, आ सारसार वात कही.

* गाथा १पपः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आत्मानुं असाधारण स्वरूप ज्ञान ज छे.’

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शुं कह्युं आ? के आत्माना स्वभावमां तो अनंत गुणो-धर्मो छे; एमां असाधारण गुण एक ज्ञान ज छे. ज्ञानगुण बीजा कोई द्रव्यमां नथी. वळी स्व अने परने भिन्न भिन्नपणे जाणे एवो ज्ञाननो ज स्वभाव छे. आत्माना बीजा कोई गुणमां आवो स्वभाव नथी. अहाहा...! आत्मामां जे अनंत गुणो छे एमां एक ज्ञाननो ज स्वपरने भेदपूर्वक जाणवानो स्वभाव छे. श्रद्धा, सुख आदि गुणो नथी स्वने जाणता के नथी परने जाणता. तेथी ज्ञानने आत्मानुं असाधारण स्वरूप कह्युं छे. आत्मानुं असाधारण स्वरूप ज्ञान ज छे. (एम के ज्ञान वडे ज आत्मा परथी भिन्न जणाय एवो छे). हवे कहे छे-

‘वळी आ प्रकरणमां ज्ञानने ज प्रधान करीने व्याख्यान छे. आ मोक्षमार्गना प्रकरणमां ज्ञान कहेतां आत्मा अने आत्मानी वीतराग परिणति ज प्रधान छे. व्रतादिना जे राग वच्चे आवे ते प्रधान नथी केमके ते मोक्षमार्ग नथी. ज्ञाननुं परिणमन ज मोक्षनो मार्ग छे.

‘तेथी सम्यग्दर्शन, ज्ञान अने चारित्र ए त्रणेय स्वरूपे ज्ञान ज परिणमे छे एम कहीने ज्ञानने ज मोक्षनुं कारण कह्युं छे.’ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपे एक आत्मा ज परिणमे छे अर्थात् ए रत्नत्रय आत्मानुं ज वीतरागी परिणमन छे माटे आत्मा ज मोक्षनुं कारण छे.

‘ज्ञान छे ते अभेद विवक्षामां आत्मा ज छे-एम कहेवामां कांई पण विरोध नथी.’ जोयुं? ज्ञान ए ज आत्मा एम अभेद कथनथी ज्ञानने ज आत्मा कह्यो छे अने एमां कांई विरोध नथी.

‘माटे टीकामां केटलेक स्थळे आचार्यदेवे ज्ञानस्वरूप आत्माने ‘‘ज्ञान’’ शब्दथी कह्यो छे.’

जुओ, ज्ञान छे तो आत्मानो एक गुण; पण असाधारण छे ने! तेथी अभेद विवक्षाथी ज्ञानने ज आत्मा कह्यो छे. आवी वात, हवे मांड मांड दुकानना धंधा आदि मजूरी करीने नवरा पडता होय त्यां वळी आ कयां समजवुं? केवी रीते समजवुं? पण भाई! ए तो बधी एकला पापनी मजूरी छे हों. एमां धर्म तो दूर रहो, पुण्येय नथी. फुरसद लईने रोज बे चार कलाक सत्समागम अने शास्त्रस्वाध्याय, मनन-चिंतन करे ए पुण्य छे. ए पुण्यथीय धर्म थाय एम नहि, पण गति सुधरे. एवा अवसरमां जो कोई प्रकारे अंर्त-पुरुषार्थ जाग्रत करे तो धर्म थई जाय, समकित थई जाय एटलुं खरुं. पण एने कयां फुरसद छे? अने कदाच कोई वार सांभळवा मळी जाय तो-व्रत करो, तप करो, भक्ति करो, -ए वडे धर्म थशे इत्यादि रागनो मिथ्या उपदेश सांभळे. श्रीमद् राजचंद्रे कह्युं छे के-२४ कलाकमां बिचाराने मांड एकाद


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कलाक मळे अने सांभळवा जाय त्यां अरे! कुगुरु एनो कलाक लूंटी ले! रे शुं थाय? आ जिंदगी एम ने एम चाली जशे हों. आ पैसा-बैसा कोई शरण नहि थाय प्रभु! कदाच एमांथी थोडा पैसा धर्मने नामे खर्चे तोपण एथी धर्म नहि थाय, मात्र धर्मना नामे तुं छेतराशे केमके एने जे तुं धर्म माने छे ए (-मान्यता) मिथ्यात्व छे.

भाई! तुं चैतन्यमूर्ति वीतरागस्वभावी आत्मा छे ने प्रभु! एनुं ज्ञान करीने अंतर्मुख थई एने लक्षमां ले तो तने धर्म थाय.

कोईने एम लागे के आत्मा अत्यारे वीतराग केम होय? ए तो केवळी थाय त्यारे वीतराग होय. तेने कहीए छीए के-भाई! तुं सदाय (त्रणेकाळ) स्वभावे वीतरागस्वरूप छे; हमणांय वीतरागस्वरूप ज छे. जो स्वभावथी वीतराग न होय तो प्रगटे कयांथी? माटे भगवान! एवा वीतरागस्वरूप आत्मामां तन्मयपणे एकाग्र थई एनो ज आश्रय कर, एमां ज जामी जा. तेथी पर्यायमां-अवस्थामां वीतरागता-रत्नत्रयना परिणाम प्रगट थशे अने ए ज धर्म छे, ए ज मोक्षमार्ग छे, ए ज भगवान थवानो मार्ग छे.

[प्रवचन नं. २२८ अने २२९ * दिनांक १-११-७६ थी २-११-७६]

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अथ परमार्थमोक्षहेतोरन्यत् कर्म प्रतिषेधयति–

मोत्तूण णिच्छयट्ठं ववहारेण विदुसा पवट्टंति।
परमट्ठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खओ विहिओ।। १५६ ।।

मुक्त्वा निश्चयार्थं व्यवहारेण विद्वांसः प्रवर्तन्ते।
परमार्थमाश्रितानां तु यतीनां कर्मक्षयो विहितः।। १५६ ।।

हवे, परमार्थ मोक्षकारणथी अन्य जे कर्म तेनो निषेध करे छेः-

विद्वज्जनो भूतार्थ तजी व्यवहारमां वर्तन करे,
पण कर्मक्षयनुं विधान तो परमार्थ–आश्रित संतने. १प६.

गाथार्थः– [निश्चयार्थ] निश्चयनयना विषयने [मुक्त्वा] छोडीने [विद्वांसः] विद्वानो [व्यवहारेण] व्यवहार वडे [प्रवर्तन्ते] प्रवर्ते छे; [तु] परंतु [परमार्थम् आश्रितानां] परमार्थने (-आत्मस्वरूपने) आश्रित [यतीनां] यतीश्वरोने ज [कर्मक्षयः] कर्मनो नाश [विहितः] आगममां कह्यो छे. (केवळ व्यवहारमां प्रवर्तनारा पंडितोने कर्मक्षय थतो नथी.)

टीकाः– परमार्थ मोक्षहेतुथी जुदो, जे व्रत, तप वगेरे शुभकर्मस्वरूप मोक्षहेतु केटलाक लोको माने छे, ते आखोय निषेधवामां आव्यो छे; कारण के ते (मोक्षहेतु) अन्य द्रव्यना स्वभाववाळो (अर्थात् पुद्गलस्वभावी) होवाथी तेना स्व-भाव वडे ज्ञाननुं भवन थतुं नथी, -मात्र परमार्थ मोक्षहेतु ज एक द्रव्यना स्वभाववाळो (अर्थात् जीवस्वभावी) होवाथी तेना स्वभाव वडे ज्ञाननुं भवन थाय छे.

भावार्थः– मोक्ष आत्मानो थाय छे तो तेनुं कारण पण आत्मस्वभावी ज होवुं जोईए. जे अन्य द्रव्यना स्वभाववाळुं होय तेनाथी आत्मानो मोक्ष केम थाय? शुभ कर्म पुद्गलस्वभावी छे तेथी तेना भवनथी परमार्थ आत्मानुं भवन न थइ शके; माटे ते आत्माना मोक्षनुं कारण थतुं नथी. ज्ञान आत्मस्वभावी छे तेथी तेना भवनथी आत्मानुं भवन थाय छे; माटे ते आत्माना मोक्षनुं कारण थाय छे. आ रीते ज्ञान ज वास्तविक मोक्षहेतु छे.


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(अनुष्टुभ्)
वृत्तं ज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं सदा।
एकद्रव्यस्वभावत्वान्मोक्षहेतुस्तदेव तत्।। १०६ ।।

(अनुष्टुभ्)
वृत्तं कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि।
द्रव्यान्तरस्वभावत्वान्मोक्षहेतुर्न कर्म तत्।। १०७ ।।

(अनुष्टुभ्)
मोक्षहेतुतिरोधानाद्बन्धत्वात्स्वयमेव च।
मोक्षहेतुतिरोधायिभावत्वात्तन्निषिध्यते।। १०८ ।।

हवे आ ज अर्थना कळशरूप बे श्लोको कहे छेः-

श्लोकार्थः– [एकद्रव्यस्वभावत्वात्] ज्ञान एकद्रव्यस्वभावी (-जीवस्वभावी-) होवाथी [ज्ञानस्वभावेन] ज्ञानना स्वभावथी [सदा] हंमेशां [ज्ञानस्य भवनं वृत्तं] ज्ञाननुं भवन थाय छे; [तत्] माटे [तद् एव मोक्षहेतुः] ज्ञान ज मोक्षनुं कारण छे. १०६.

श्लोकार्थः– [द्रव्यान्तरस्वभाववात्] कर्म अन्यद्रव्यस्वभावी (-पुद्गल-स्वभावी-) होवाथी [कर्मस्वभावेन] कर्मना स्वभावथी [ज्ञानस्य भवनं न हि वृत्तं] ज्ञाननुं भवन थतुं नथी; [तत्] माटे [कर्म मोक्षहेतुः न] कर्म मोक्षनुं कारण नथी. १०७.

हवे आगळना कथननी सूचनानो श्लोक कहे छेः-

श्लोकार्थः– [मोक्षहेतुतिरोधानात्] कर्म मोक्षना कारणनुं तिरोधान करनारुं होवाथी, [स्वयम् एव बन्धत्वात्] ते पोते ज बंधस्वरूप होवाथी [च] अने [मोक्षहेतुतिरोधायिभावत्वात्] ते मोक्षना कारणना * तिरोधायिभावस्वरूप होवाथी [तत् निषिध्यते] तेने निषेधवामां आवे छे. १०८.

* * *

समयसार गाथा १प६ः मथाळु

हवे, परमार्थ मोक्षकारणथी अन्य जे कर्म तेनो निषेध करे छेः- * तिरोधायि = तिरोधान करनार


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आत्मानो जे वीतरागस्वभाव छे ते-रूपे परिणमवुं ए ज परमार्थ मोक्षनुं कारण छे. ए सिवाय दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादिना शुभभाव जे राग छे ते मोक्षनुं कारण नथी एम हवे कहे छेः-

* गाथा १प६ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘परमार्थ मोक्षहेतुथी जुदो, जे व्रत, तप वगेरे शुभकर्मस्वरूप मोक्षहेतु केटलाक लोको माने छे, ते आखोय निषेधवामां आव्यो छे.’

जुओ, आत्मा शुद्ध चैतन्यस्वरूप भगवान सदाय वीतरागस्वभावी छे. ते वीतरागस्वरूपे निराकुळ आनंदना स्वभावे निर्विकार परिणमे ते परमार्थ कहेतां सत्यार्थ मोक्षमार्ग छे. हवे एनाथी जुदो व्रत, तप वगेरे शुभकर्मरूप-शुभभावरूप जे राग छे तेने केटलाक लोको मोक्षनो उपाय माने छे तेनो समग्रपणे निषेध करवामां आव्यो छे एम कहे छे. अर्थात् ते व्रतादिनो राग मोक्षनुं कारण नथी एम स्पष्ट कहेवामां आवे छे. गाथा १प४ मां व्रत, नियम, शील, तप, इत्यादि-एम चार बोल लीधा छे. अहीं पहेलो अने छेल्लो व्रत अने तपनो बोल कहीने ए बधानो आमां समावेश करीने कह्युं के ए सघळो जे पुण्यनो भाव छे तेने केटलाक अज्ञानी लोको मोक्षनो मार्ग माने छे पण ते मोक्षनो मार्ग नथी. ए व्रतादिना रागने मोक्षना हेतुपणे आखोय निषेधवामां आव्यो छे.

पहेलां कोईना मरण पछी बाईओ छाजियां लेती. एमांथी जो कोई बराबर छाजियां न ले तो बीजी बाईओ टकोर करे के-आ शुं लाकडुं भाग्युं छे ते बराबर छाजियां नथी लेतां? एम आजे कोई बाईए वर्षीतप, उपवास वगेरे कर्या होय अने पोते खर्च करीने उजमणुं करे एवी संपत्तिवान होय पण जो खर्च करीने एनुं उजमणुं न करे तो बीजी बाईओ टकोर करे के-शुं आ ते कांई लांघणो करी छे ते उजमणुं नथी करतां? अरे! धर्मने नामे आ व्रत अने तप करीने रागना मलावा करे ए बधा (आत्मानां) छाजियां लेनारा छे; केमके एमां आत्मा कयां छे? आत्माने तो रागना प्रेममां मरणतोल करी नाख्यो छे. शुं थाय? अत्यारे तो वीतराग मार्ग पडयो रह्यो एककोर ने बीजो मार्ग चाले छे. अहीं कहे छे एवो बीजो मार्ग जैनशासनमां छे ज नहि. भाई! आ समजवुं पडशे हों; नहितर अवतार खलास थई जशे. (एळे जशे). अरेरे! आ सांभळवानुंय मळे नहि ए बिचारा शुं करे? कयां जाय? माथे परिभ्रमण ऊभुं रहे.

टीकामां ‘केटलाक लोको माने छे’-एम कह्युं छे. पाठमां तो लीधुं छे के-‘ववहारेण विदुसा पवट्टंति’-विद्वानो व्यवहारमां प्रवर्ते छे. विद्वानो एटले शास्त्रना पाठी, शास्त्रना वांचनारा शास्त्र वांचीने एमांथी व्यवहार शोधीने काढे छे. एटले एम


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के आ व्रत, तप, शील वगेरे मोक्षमार्ग छे एम शास्त्र भणी-भणीने अर्थ काढे छे, अने एम वर्ते छे. अहीं कहे छे के तेओ (-शास्त्र भणीने पण) मूढ अज्ञानी छे अने तेमनो मोक्ष थतो नथी; केमके ते व्रतादिनो राग वीतरागमार्गथी-मोक्षमार्गथी जुदो अन्य छे.

जुओ, भगवान कुंदकुंदना समयमां पण शास्त्रनुं पठन करनारा कोई विद्वानो व्यवहारथी धर्म थाय एम माननारा हशे. त्यारे तो गाथामां कीधुं के-‘मोत्तूण णिच्छयट्ठं ववहारेण विदुसा पवट्टंति’ विद्वानो निश्चयने छोडीने एटले के-शुद्ध चिदानंदघन पूर्णानंदनो नाथ प्रभु आत्मा- एने छोडी दईने व्यवहारमां व्रतादिना रागमां वर्ते छे पण ‘परमट्ठमस्सिदाण’...परमार्थने आश्रित यतीश्वरोने ज कर्मनो नाश आगममां कह्यो छे. अहाहा...! स्वरूपमां गुप्त थयेला अंतर-आनंदमां रमनारा मुनिवरोने ज आगममां मोक्ष कह्यो छे. भाई! तुं व्रत, तप इत्यादि व्यवहारने मोक्षनुं कारण माने छे पण शुद्ध चैतन्यस्वरूपना आश्रये प्रगट थतां वीतरागपरिणतिरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान अने चारित्र ज मोक्षनुं कारण छे.

बिचाराने खबर न मळे के-आनंद शुं अने दुःख शुं? अने मंडी पडे व्रत अने तप करवा. पण भाई! ए व्रत अने तपनो राग बधो दुःख अने आकुळता छे. शुं थाय? निराकुळ आनंद जोयो (अनुभव्यो) होय तो आकुळतानी खबर पडे ने? ए मेळवे कोनी साथे? बीजो साचो माल जोयो होय तो मेळवे ने के आ माल खोटो छे? एम ने एम आंधळे-बहेरुं कूटे राखे छे. पण एनुं फळ बहु आकरुं आवशे प्रभु!

अहीं कहे छे-यतिवरोने एटले मुनिवरोने-संतोने परमार्थ कहेतां शुद्ध आत्माना आश्रये मोक्षनो मार्ग अने मोक्ष थाय छे अने व्यवहारमां लीनपणे जे विद्वानो वर्ते छे तेमने तो बंध ज थाय छे, संसार ज फळे छे. बंधना कारणने तेओ मोक्षनुं कारण समजे छे ते एमनुं अज्ञान अने मिथ्यात्व छे. वीतरागनो आवो मार्ग छे बापा! लौकिकथी साव जुदो. आवो मार्ग कदी सांभळवा न मळ्‌यो होय एटले शुं सत्य कांई बीजुं थई जाय? सत्य तो त्रिकाळ जे छे ते ज छे.

प्रश्नः– पण ए (-व्रतादि) व्यवहार मोक्षमार्ग तो छे ने?

उत्तरः– व्यवहार मोक्षमार्ग तो कथनमात्र छे. व्यवहार मोक्षमार्ग कांई मोक्षमार्ग नथी. ए तो साचा मोक्षमार्गना सहचारी रागने उपचारथी मोक्षमार्ग कहीने व्यवहारमोक्षमार्ग कह्यो छे. (ए तो बाह्य यथासंभव राग केवो छे ते बतावनारुं निमित्तनुं कथन छे). अरे! आम ने आम निश्चय-व्यवहारमां भरमाईने प्रभु! तुं चोरासीना अवतार करी-करीने रखडी मर्यो छे!


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शास्त्रमां व्यवहारनी प्रधानताथी कथन कर्युं होय एटले विद्वानो (-कोई पंडितो) एने यथार्थ समज्या विना व्यवहारथी-रागथी मोक्ष थवानुं माने छे. जुओ, शास्त्र भणीने पण एमांथी आवुं (विपरीत) काढे छे! ११ मी गाथामां तो पंडित श्री जयचंदजीए भावार्थमां छेल्ले सुंदर खुलासो कर्यो छे के-‘‘प्राणीओने भेदरूप व्यवहारनो (-रागनो) पक्ष तो अनादिकाळथी ज छे, अने एनो उपदेश पण बहुधा सर्व प्राणीओ परस्पर करे छे. वळी जिनवाणीमां व्यवहारनो उपदेश शुद्धनयनो हस्तावलंब (सहायक) जाणी बहु कर्यो छे; पण एनुं फळ संसार ज छे.’’ जुओ, आ भावार्थ! शुं भावार्थ कर्यो छे जयचंदजीए! आनुं नाम ते पंडित.

अहीं कहे छे के-भगवान त्रिलोकीनाथ तीर्थंकरदेवनी वाणीमां व्रत, नियम, शील, तप, भक्ति, पूजा इत्यादि जेटला कोई शुभभाव छे ते बधायनो मोक्षमार्गमां निषेध कर्यो छे; एटले के ते मोक्षमार्ग नथी. ‘आखोय’ निषेधवामां आव्यो छे एम कह्युं छे ने! मतलब के-व्यवहार कथंचित् लाभ करे अने कथंचित् ना करे एम वात नथी. ‘आखोय’ शब्द मूकीने मोक्षमार्गमां किंचित् पण लाभ न करे एम अर्थ सूचित कर्यो छे. अर्थात् व्रतादिना रागमां मोक्षमार्ग नहि अने मोक्षमार्गमां व्रतादिनो राग नहि एम सूचित कर्युं छे. समजाणुं कांई...? हवे एनुं कारण समजावे छे-

‘कारण के ते (मोक्षहेतु) अन्यद्रव्यना स्वभाववाळो (अर्थात् पुद्गलस्वभावी) होवाथी तेना स्वभाव वडे ज्ञाननुं भवन थतुं नथी.’

जुओ, व्यवहार छे ते अन्यद्रव्यना स्वभावमय छे, चैतन्यस्वभावमय नहि. आ जे व्रत, तप, शील, संयम, उपवास, देव-गुरु-शास्त्रनां भक्ति-पूजा-विनय, शास्त्र-स्वाध्याय इत्यादि बधाय जे शुभराग छे ते अन्य द्रव्यना स्वभावमय छे अर्थात् पुद्गलस्वभावी छे, एमां चैतन्यनो स्वभाव नथी. केमके तेना (रागना, पुद्गलना) स्वभाव वडे ज्ञाननुं भवन- परिणमन थतुं नथी तेथी व्यवहारना क्रियाकांड वडे आत्मानो निश्चय धर्म-मोक्ष-मार्ग प्रगट थतो नथी. अर्थात् व्रतादि मोक्षमार्गनुं साधन नथी.

प्रश्नः– व्यवहारने साधन कह्युं छे ने?

उत्तरः– व्यवहार साधन अने निश्चय साध्य एम साधननुं निरूपण आवे छे पण ए तो निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटे व्यवहारनयथी निरूपवामां आवे छे. खरेखर तो साधन एक ज प्रकारे छे. विकल्पथी जुदो पडीने अंदर शुद्ध चैतन्यनुं साधन साधे ए एक ज साधन छे. समयसार नाटकमां बनारसीदासे कह्युं छे के-

‘‘जे जे वस्तु साधक हैं, तेऊ तहां बाधक हैं,
बाकी रागदोषकी दसाकी कान बातु हें.’’

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अहीं तो आ खुलासो कर्यो छे के व्रत, तप आदिनो भाव अन्यद्रव्यना पुद्गलद्रव्यना स्वभावमय होवाथी तेना वडे ज्ञाननुं एटले आत्मानुं भवन-परिणमन थतुं नथी अर्थात् वीतरागी परिणमन थतुं नथी. तेथी तेना वडे मोक्षमार्ग केम थाय? (न थाय). त्यारे-

जयपुरमां आ प्रश्न थयो हतो के-राग-द्वेषना परिणाम जीवना छे (जीवनी पर्यायमां थाय छे). एने पुद्गलना केम कह्या?

समाधानः– समाधान एम छे के-राग छे ते वस्तु-तत्त्व (-आत्मानो स्वभाव) नथी. नीकळी जाय छे ने? जो राग आत्मानो स्वभाव होय तो नीकळी न जाय, आत्माथी भिन्न न पडे, पण नीकळी जाय छे तेथी ते अन्यद्रव्यना स्वभावमय छे. पुद्गलना उदयना संगे थाय छे तेथी ए बधा पुद्गलना ज छे एम कह्युं छे. आत्मानी चैतन्यजातिना नथी अने पुद्गलना आश्रये उत्पन्न थाय छे तेथी राग बधा पुद्गलना ज छे एम कहेवामां आव्युं छे. अहीं पुद्गलना कहीने एनाथी भेदज्ञान कराव्युं छे, सर्व राग छोडाव्यो छे.

भगवान आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु सदा ज्ञानानंदस्वभावी छे. अने व्रत, तप, भक्ति इत्यादिना शुभभाव जड पुद्गलस्वभावी छे. अहीं कहे छे-ए पुद्गलस्वभावी राग वडे भगवान आत्मानुं निर्मळ चैतन्यनुं भवन-परिणमन थतुं नथी. तेथी व्रतादिनो राग मोक्षनुं कारण थई शकतुं नथी. हवे आवो मार्ग; दुनियाथी साव जुदी चीज छे बापु! भगवान आत्मा तो निर्मळ ज्ञानानंदस्वभावी वस्तु छे. एमां राग कयां छे? जो होय तो नीकळी केम जाय? ए नीकळी जाय छे माटे ए आत्मानी चीज नथी. ए नीकळी जतां एकलो भगवान द्रव्यस्वभाव, शुद्ध चैतन्य, ज्ञान-आनंद रही जाय छे. आवा चैतन्यनो-शुद्धनो अनुभव ते मोक्षमार्ग छे, मोक्षनुं कारण छे. जे नीकळी जाय ते मोक्षनुं कारण केम थाय? न थाय.

अत्यारे तो लोको तप ने त्यागमां धर्म मानी बेठा छे. वळी पाछुं समाचारपत्रोमां आवे छे के-आणे आटला उपवास कर्या, आणे आटलो त्याग कर्यो, आणे ब्रह्मचर्यना हाथ जोडया, आ दश वर्षनी बालिकाए पण आठ उपवास कर्या, १प वर्षनी छोकरीए मासखमण कर्युं, इत्यादि. अहो! धन्य छे तेमने. अहीं कहे छे-ए बधी क्रिया परना लक्षणवाळी, चैतन्यना स्वभावथी रहित, पुद्गलना स्वभावनी क्रिया छे. ते क्रिया मोक्षनुं कारण थती नथी केमके तेना (क्रियाना) स्वभाव वडे ज्ञाननुं-आत्मानुं भवन थतुं नथी. भगवान आत्मानुं ज्ञान अने आनंदरूपे थवुं-परिणमवुं ए रागनी क्रिया वडे थतुं नथी. भारे आकरी वात, भाई! पण आ ज सत्य वात छे.

अरेरे! आवी परम सत्य वात सांभळवाय मळे नहि एणे कयां जवुं बापु! एना कय ां उतारा थशे? भाई! आ मोभा-आबरू बधा पडया रहेशे. आ पांच-


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पचास करोडनी मूडी-धूळ बधी पडी रहेशे. बापु! ए धूळ कयां तारी छे? अनंत ज्ञान अने अनंत आनंदनी तारी पुंजी तो अंदरमां पडी छे. अरेरे! सरोवरना काठे आव्यो ने तरस्यो रही गयो.

अहीं पुद्गलना निमित्ते थयेला विकारने अन्यद्रव्यनो स्वभाव गणीने एनाथी (विकारथी) आत्मानो जे ज्ञान अने आनंद स्वभाव छे तेनुं भवन-परिणमन थतुं नथी एम सिद्ध कर्युं. भाई! आ तो मूळ मुदनी रकमनी वात छे. एनो निश्चय कर्या विना बधुं (व्रतादि) थोथेथोथां छे.

हवे कहे छे-‘मात्र परमार्थ मोक्षहेतु ज एक द्रव्यना स्वभाववाळो (अर्थात् जीवस्वभावी) होवाथी तेना स्वभाव वडे ज्ञाननुं भवन थाय छे.’

भगवान आत्मा ज्ञान अने आनंदना स्वभाववाळो छे. एना परिणमनमां एकलुं जे ज्ञान अने आनंदनुं परिणमन थाय ए ज मोक्षनो हेतु छे. ओलुं हुकमचंदजीनुं आवे छे ने के-

‘‘मैं ज्ञानानंद स्वभावी हूँ’’

एमां खूब बधुं आवे छे के-मारे रंग, राग अने भेद साथे लेश पण संबंध नथी. भगवान आत्मा गुणी अने ज्ञान अने आनंद एना गुण-एवो गुणभेद एकाकार स्वरूप भगवानमां नथी. अहाहा...! भगवान आत्मा तो गुणभेदनेय स्पर्शतो नथी एवी अभेद एकरूप चीज छे. आवा आत्मानुं ज्ञानानंदस्वभावे थवुं-परिणमवुं ए मोक्षमार्ग छे. बाकी बधुं थोथेथोथां छे. आवी वात आकरी पडे पण शुं थाय? सत्य तो जेम छे तेम ज छे.

भाई! आ तो भगवान जिनेश्वरदेव त्रण लोकना नाथ इन्द्रो अने गणधरोनी समक्ष जे कहेता हता ते अहीं दिगंबर संतो कहे छे. कहे छे-अन्यद्रव्यना स्वभाव वडे मोक्षनो हेतु थाय एवी मान्यता मिथ्यादर्शन अर्थात् महापाप छे; केमके परमार्थ मोक्षनो हेतु एकद्रव्यना स्वभाववाळो अर्थात् चैतन्यस्वभावी छे. तेना (चैतन्यना) स्वभाव वडे ज्ञाननुं-आत्मानुं भवन-परिणमन निर्मळ वीतरागभावपणे-आनंदपणे थाय छे, केमके एक जीवद्रव्यस्वभाव वीतरागस्वभाव छे. अहाहा...! एक चैतन्यद्रव्यना स्वभावे जे ज्ञातापणे-आनंदपणे- शान्तिपणे-स्वच्छतापणे-प्रभुतापणे ज्ञाननुं-आत्मानुं परिणमन थाय ए ज मोक्षनो हेतु छे. जेणे शुद्ध चैतन्यथी व्याप्त भगवान आत्मा उपर द्रष्टि मूकी एनुं परिणमन शुद्ध चैतन्यमय थयुं अने एनुं ए परिणमन मोक्षनुं कारण छे.

दया, दान, व्रतना परिणाम पुद्गलस्वभावे होवाथी ते निषेधवामां आव्या छे. एनाथी भिन्न एकद्रव्यस्वभावे-चैतन्यस्वभावे जे परिणमन थाय ते मोक्षनो हेतु छे. भगवान आत्मा स्वभावथी दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरूप छे. तेनुं सम्यक् दर्शन-ज्ञान-


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चारित्रपणे जे आचरण थाय, स्वस्वरूप आचरण जे थाय ते मोक्षनो हेतु छे. तथा जेटलुं परस्वरूप आचरण छे ते बधुं बंधनुं कारण छे. बहारमां बब्बे महिनाना संथारा कर्या होय एटले जाणे के समाधिमरण कर्यां; पण भाई! धूळेय एमां समाधिमरण नथी, सांभळने. समाधिमरण कोने कहेवुं बापु? जेने हजु साचा देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धा नथी अने व्रतादिना रागनी क्रियाने धर्म माने छे तेने समाधि-मरण केवुं? (तेने समाधिमरण होतुं नथी). कदाचित् शुभभाव होय तो स्वर्गमां जाय, पण एथी शुं? स्वर्गमां तो अभवी पण जाय छे.

अज्ञानीने शुभभाव मिथ्यात्वसहित होय छे. मिथ्याश्रद्धा सहित शुभभाव वडे भाई! तुं नवमी ग्रैवेयक अनंतवार गयो, पण भवभ्रमण न मटयुं. मिथ्यात्वसहित शुभभाव वखते घातीनो तो बंध थाय छे ज, साथे अघातीनुं पुण्य जे बंधाय छे तेना फळमां एकाद भव स्वर्ग मळे के मोटो राजा वा शेठीओ थाय तोपण शुं? मिथ्यात्वनुं परंपरा फळ तो निगोद छे. समजाणुं कांई...? आ मोटा करोडपति-अजबपति शेठीआ दारू-मांस न खाता होय एटले नरके तो न जाय पण सत्समागम, स्वाध्याय अने चिंतन-मननना अभावे अशुभभावना फळमां तिर्यंचमां-ढोरनी गतिमां ज जाय. शुं थाय? एवा भावनुं फळ एवुं ज छे.

पालेज दुकान उपर स्थानकवासीनां पुस्तको-आचारांग, सूत्रकथांग, दशा वैकालिक, उत्तराध्ययन वगेरे बधां वांच्यां हतां. पण ज्यां आ समयसार हाथमां आव्युं ने जोयुं (अवगाह्युं) तो कह्युं के मोक्षनो मार्ग तो आमां (दर्शाव्यो) छे. बीजे तो एकली क्रियाकांडनी वातो छे.

* गाथा १प६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘मोक्ष आत्मानो थाय छे तो तेनुं कारण पण आत्मस्वभावी ज होवुं जोईए.’

जुओ, आ न्याय आप्यो-के मोक्ष एटले सिद्धपद आत्माने थाय छे माटे एनुं कारण पण आत्मस्वभावमय ज होवुं जोईए. मतलब के ज्ञाता-द्रष्टाना वीतरागी निराकुळ आनंदमय जे परिणाम जे जीवस्वभावमय छे ते ज मोक्षनुं कारण होई शके, अने छे. हवे कहे छे-

‘जे अन्यद्रव्यना स्वभाववाळुं होय तेनाथी आत्मानो मोक्ष केम थाय?’

आ दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादिनो भाव अन्यद्रव्यना स्वभाववाळो छे. रागस्वभावी छे ने? राग कांई जीवस्वभाव छे? जो होय तो राग नीकळी केम जाय? जुओ, आ जे वीतराग थया तेमने राग नीकळी गयो ने वीतरागता रही गई. तेथी राग अन्यद्रव्यना स्वभाववाळो छे अने तेथी रागथी आत्मानो मोक्ष थई शके नहि, अर्थात् राग मोक्षनुं कारण छे नहि.


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हवे आवी वात सांभळवा न मळे एने धर्म थाय के दि? एक तो बायडी-छोकरां साचववां अने धंधो-वेपार करवो इत्यादि संसारनां काम आडे बिचारो नवरो न थाय अने कदाचित् मांड नवराश लई सांभळवा जाय तो मळे ऊंधुं के-व्रत करो, तपस्या करो, साधुने वहोरावो, दानमां पैसा वापरो एटले तमने धर्म थई जशे. हवे आम ने आम जिंदगी चाली जाय अने चार गतिनी रखडपट्टी ऊभी रहे. भाई! आ नवराश लईने समजवानुं छे हों.

दुनियामां तो बे-पांच करोडनी संपत्ति होय, घरे बे-चार दीकरा होय अने बधाने रहेवाना आवास होय एटले लोको तने भाग्यशाळी कहेशे पण ए कांई भाग्यशाळीनां लक्षण नथी. ए तो भोगशाळी एटले भांगशाळी छे. जेम भांगनुं सेवन मनुष्यने बेभान-पागल बनावे तेम आ भोगोनुं सेवन तने पागल बनावनारुं छे. भाग्यशाळी तो एने कहीए जेने आवी सत्य वात सांभळवा अने समजवा मळे. आ समज्यां विना तो जिंदगी हारी जवानी छे बापु!

श्वेतांबरमां ३२ सूत्रमां एक विपाकसूत्र छे. एमां आवे छे के दान देनारो मिथ्याद्रष्टि हतो पण साधु आव्या अने एणे एमने हरखथी खूब आदर-सत्कार करीने आहार वहोराव्यो अने संसार परित कर्यो. हवे आवी वात तो तद्न गप-जूठी छे. मोटी चर्चा संप्रदायमां नीकळेली त्यारे कह्युं हतुं के-परद्रव्यना आश्रये संसार मटे ए वात त्रणकाळमां सत्य होई शके नहि.

जेम श्वेतांबरमां शत्रुंजय-माहात्म्यनुं पुस्तक छे तेम एक दिगंबर साधु पासे सम्मेदशिखरजीना माहात्म्यनुं पुस्तक हतुं. ते कहेता हता के एमां एम लख्युं छे के- सम्मेदशिखरजीनी जात्रा करे एने ४९ भवे मोक्ष थाय. तो कीधुं के आ वीतरागनी वाणी नहि. परद्रव्यना दर्शनथी संसार परित थाय एवी वात त्रणकाळमां वीतरागनी वाणी न होय. अहीं तो एम कहे छे के-दया, दान, पूजा, जात्रा, आहार-दान इत्यादिना भाव अन्यद्रव्यस्वभावी (-पुद्गलस्वभावी) होवाथी संसारनुं कारण छे; ते आत्माना मोक्षनुं कारण केम थाय? मोक्ष तो आत्मानो थाय छे तेथी तेनुं कारण पण आत्मस्वभावी ज होवुं जोईए. राग विभावस्वभाव छे; एनाथी मोक्षनो हेतु थाय अने संसार घटे ए त्रणकाळमां बने नहि.

श्वेतांबरमां एक ज्ञानसूत्रमां मेघकुमारनो अधिकार आवे छे. एमां मेघकुमारना जीवे पूर्वे हाथीना भवमां ससलानी दया पाळी, एनाथी संसार परित कर्यो एम आवे छे. मेघकुमारनो जीव पूर्व भवमां हाथी हतो. तेणे कोई वखत वनमां दव लागे त्यारे बचवा माटे एक जोजन विस्तारमां साफसूफी करीने मंडप करेलो. एमां एक वखत जंगलमां चारेकोर अग्नि लागी. एटले बधां प्राणीओ बचवा माटे मंडपमां


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आवीने ऊभां रही गयां. मंडप प्राणीओथी खीचोखीच भराई गयो हतो. जराय जग्या न हती. एवामां एक ससलुं आव्युं. ए ज वखते हाथीने पगे खंजवाळ आवी अने जेवो खंजवाळवा पग ऊंचो कर्यो के ए जगामां ससलुं गरी गयुं. पछी ज्यारे पग नीचे मूकवा जतो हतो त्यां तो ससलुं जोयुं; एटले अढी दिवस सुधी (दावानळ शमी गयो त्यां सुधी) पग एमने एम ऊंचो राख्यो. आम ससलानी दया पाळी एटले संसार परित कर्यो एवो पाठ छे. अहीं कहे छे-अन्य द्रव्यना स्वभाव वडे त्रणकाळमां संसार घटे नहि. दया आदिना भाव तो अन्यद्रव्यना स्वभावमय छे. ते वडे संसार केम परित थाय? (न थाय).

मार्ग आवो छे भाई! पण बधो फेरफार थई गयो, अने भगवानना नामे शास्त्रो बनावीने बिचाराओने रझळावी मार्या छे! अहीं तो एम कहे छे के-‘शुभ कर्म पुद्गलस्वभावी छे तेथी तेना भवनथी परमार्थ आत्मानुं भवन न थई शके; माटे ते आत्माना मोक्षनुं कारण थतुं नथी. ज्ञान आत्मस्वभावी छे तेथी तेना भवनथी आत्मानुं भवन थाय छे; माटे ते आत्माना मोक्षनुं कारण थाय छे.’

ज्ञाता-द्रष्टाना चैतन्यमय परिणमन वडे मोक्षनो हेतु थाय छे अने रागना परिणमन वडे मोक्षनो हेतु थतो नथी. आ वात छे. आनंदनो नाथ भगवान आत्मा ज्ञाननो समुद्र छे. एनी रुचि करी एमां ज निमग्न थईने परिणमवुं ते आत्मस्वभावी परिणमन छे अने ए निर्मळ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं परिणमन ज मोक्षनुं कारण थाय छे. व्रतादिना शुभकर्मरूप परिणमन तो अन्यद्रव्यस्वभावी होवाथी तेना वडे आत्मानुं परिणमन थई शकतुं नथी तेथी ते मोक्षनुं कारण थई शकतुं नथी.

समुद्रना तळिये मोती होय छे. तेने लेवा लोको साधन सज्ज थई तळिये पहोंचे छे. तेम भगवान आत्मा ज्ञाननो समुद्र छे. तेनी अंदर पूरा तळमां ज्ञान ने आनंद अने शांति वगेरे रत्नो पडयां छे. अहीं कहे छे-भगवान! तुं शुभाशुभने भेदीने एना तळमां जाने ज्यां ज्ञान अने आनंद भर्यां छे? अहाहा...!

‘सहेजे समुद्र उलसियो, मांही मोती तणातां जाय;
भाग्यवान कर वावरे, एनी मोतीए मुठ्ठीओ भराय.’

भगवान ज्ञानसमुद्र पोताना तळमां गुणरत्नो लईने उछळी रह्यो छे. त्यां जे भाग्यवान एटले धर्मी पुरुषार्थी जीव छे ते अंतरमां तळमां पहोंचीने आनंद, शांति अने ज्ञाननां रत्नोने प्राप्त करे छे. तेथी तेने मोक्षमार्ग मळे छे.

वळी-‘सहेजे समुद्र उलसियो, मांही मोती तणातां जाय;

भाग्यहीन कर वावरे, एनी शंखले मूठीओ भराय.’

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जेओ भाग्यहीन एटले पुरुषार्थहीन छे, तळमां जता नथी तेओने राग अने पुण्यना शंखला ज हाथ आवे छे. तेओने संसार ज प्राप्त थाय छे. अहा! धर्मीने ज्ञान अने आनंद पाके अने पुण्यनी रुचिवाळाने संसार ज पाके छे. आवुं छे, बापु! मार्ग आवो छे भाई!

त्यारे केटलाक कहे छे-आ सोनगढनुं एकान्त छे. वळी केटलाक कहे छे के कानजीस्वामी जादूगर छे; एम के लाकडीथी लोकोने वश करी नाखे छे. आम गमे तेम लोको डींग हांके राखे छे. भाई! आ लाकडी तो हाथमां परसेवो थाय ते शास्त्रने न लागे, असातना न थाय ए माटे राखी छे. एक सुखडनी हती ए तो चोराई गई. पछी आ प्लास्टीकनी लाव्या छे. आ लाकडीमां शुं छे? ए तो जड माटी-पुद्गल छे. त्यारे कहे छे-आपे मंत्र लगाडयो छे. मंत्र-बंत्र कांई छे नहि, भाई! अहीं तो तुं शुद्ध ज्ञान अने आनंदनो नाथ प्रभु आत्मा छो एवो मंत्र छे. एनी वात सांभळीने जिज्ञासुओ आकर्षाय छे. बस आ मंत्र छे.

अहाहा...! समजणनो पिंड चैतन्यरसकंद प्रभु आत्मा छे. एना स्वभावे परिणमवुं एटले एना तळमां द्रष्टि ठेरवीने वीतरागी परिणतिए-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना भावे परिणमवुं ए एकद्रव्यस्वभावी होवाथी मोक्षनुं कारण छे. हवे आने एकान्त कहो तो एकान्त; ए सम्यक् एकान्त छे. समजाणुं कांई...? आवुं एने आकरुं लागे; अने आणे दया पाळी ने आणे उपवास कर्या ने आणे करोडोनुं दान कर्युं इत्यादि बधुं सारुं लागे, पण प्रभु! एथी धर्म नहि थाय. एम ने एम जिंदगी वही जशे, बापा! आवुं मनुष्यपणुं मळ्‌युं एनी एक क्षण पण महामूल्यवान छे; एनी एक क्षण सामे करोडो रत्नोनो ढगलो करो तोपण एनी किंमत न थाय एवुं आ मनुष्यपणुं मोंघु छे. भाई! एने विषय-कषायमां अने रागना रागमां रगदोळी न नखाय.

अहा! आ जुवानी झोला खाती वृद्धावस्था आवीने ऊभी रहेशे. पछी खेद करवाथी शुं? ज्यां सुधी वृद्धावस्था आवे नहि, इन्द्रियो शिथिल पडे नहि, शरीरमां रोग व्यापे नहि ते पहेलां (तत्त्वद्रष्टि) करी ले बापु! पछी ताराथी कांई नहि थाय. पछी तो केड दुःखशे, माथु चढशे, उठ-बेस थई शकशे नहि, देखाशे नहि, संभळाशे नहि. माटे हमणां ज आत्महित करी ले. आ साडात्रण हाथना शरीरमां एक एक तसुए ९६ रोग छे-एम भगवानना ज्ञानमां आव्युं छे. तो आखा शरीरमां केटला रोग थया? भाई! तुं गण तो खरो. आमां अमने मझा छे अने अमे सुखी छीए एवी भ्रमणा छोड, विषय-कषायनी द्रष्टि छोड, रागनी द्रष्टि छोड. ए तो बधी आकुळता छे, बापु! आ अहीं भगवान कहे छे ते सांभळ!


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के-मोक्षनो मार्ग तो एकद्रव्यस्वभावी छे. परमार्थे परद्रव्यथी आत्मानुं भवन न थई शके माटे ते आत्माना मोक्षनुं कारण थतुं नथी. ज्ञान आत्मस्वभावी होवाथी तेना भवनथी आत्माने मोक्षनुं कारण थाय छे. भवन एटले थवुं-परिणमवुं. अहाहा...! ज्ञानरूपे-आनंदरूपे वीतरागभावपणे आत्मानुं थवुं ए ज मोक्षनुं कारण छे. आ रीते ज्ञान ज वास्तविक मोक्षनो हेतु छे. ज्ञान एटले शुद्ध चैतन्यस्वभावी आत्मा ज मोक्षनुं कारण छे; बीजुं कांई मोक्षनुं कारण छे नहि.

हवे आ ज अर्थना कळशरूप बे श्लोको कहे छेः-

* कळश १०६ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘एकद्रव्यस्वभावत्वात्’ ज्ञान एकद्रव्यस्वभावी (-जीवस्वभावी) होवाथी ‘ज्ञानस्वभावेन’ ज्ञानना स्वभावथी ‘सदा ज्ञानस्य भवनं वृत्तं’ हंमेशां ज्ञाननुं भवन थाय छे.

शुं कह्युं? आ जाणवुं, श्रद्धवुं अने ठरवुं-ए एक द्रव्यस्वभावी एटले जीवस्वभावी मात्र चैतन्यस्वभावी छे. अहाहा...! रागनी क्रियाथी भिन्न पडतां जे अंतर-परिणमन थयुं ते चैतन्यस्वभावी होवाथी ते ज्ञाननुं कहेतां आत्मानुं परिणमन छे. शुद्ध आत्मद्रव्यना स्वभावथी शुद्ध आत्मद्रव्यनुं भवन-परिणमन थाय छे. एमां कोई परद्रव्यना के रागना आश्रयनी- अवलंबननी अपेक्षा छे ज नहि. श्री नियमसारनी बीजी गाथानी टीकामां आवे छे के-‘निज परमात्मतत्त्वनां सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप शुद्ध रत्नत्रयात्मक मार्ग परम निरपेक्ष होवाथी मोक्षनो उपाय छे.’ मतलब के शुद्ध रत्नत्रयात्मक मार्ग शुद्ध चैतन्यना भवनमात्र ज छे. हवे कहे छे-

‘तत्’ माटे ‘तत् एव मोक्षहेतुः’ ज्ञान ज मोक्षनुं कारण छे. ज्ञान एटले स्वरूपने जाणवा-श्रद्धवाना परिणाम अने स्वरूपमां ज विश्रांतपणे ठरवाना वीतराग परिणामने प्रगट करवा ए ज्ञान ज मोक्षनुं कारण छे. जुओ, आ एक कळशमां केटलुं भर्युं छे! श्रद्धा-ज्ञान अने शांतिरूप वीतरागी परिणति ए एकद्रव्यस्वभावी छे अने ए ज आत्मानुं परिणमन छे. तेथी मोक्षनुं कारण छे. रागनी क्रिया अन्यद्रव्यस्वभावी होवाथी एनाथी त्रणकाळमां धर्म थाय नहि. ल्यो, आ १०६ थयो; हवे १०७; टीका छे ने! एना साररूप कळश कहे छे.

* कळश १०७ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘द्रव्यान्तरस्वभावत्वात्’ कर्म अन्यद्रव्यस्वभावी (-पुद्गलस्वभावी) होवाथी ‘कर्मस्वभावेन’ कर्मना स्वभावथी ‘ज्ञानस्य भवनं न हि वृत्तं’ ज्ञाननुं भवन थतुं नथी.

जुओ, कर्म एटले व्रत, तप, दया, दान, पूजा, भक्ति इत्यादि ए बधो शुभभाव अन्यद्रव्यस्वभावी-पुद्गलस्वभावी छे. हवे आ सांभळीने लोको राड नाखे छे पण भाई! राग आत्मानो स्वभाव छे ज नहि. जो राग आत्मानो स्वभाव होय तो ते नीकळी