Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 154-155.

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ज ज्ञानरूप थयेला एटले के व्यवहार रत्नत्रयना विकल्प छे तो ज्ञानरूप थाय छे एम नहि पण स्वयं स्वरूपमां एकाकार थईने ज्ञानरूप थयेला ज्ञानीओने शुभकर्मोनो अभाव होवा छतां चिदानंदस्वरूपना अंतर परिणमनथी प्राप्त चिदानंदरसना अनुभवमां मोक्षनो सद्भाव छे.

अज्ञानी जीवोए रागने पोतानो मानी, शुभरागथी लाभ थशे एम मानीने मिथ्यात्वभाव कर्यो छे. ए मिथ्यात्वभाव संसारना परिभ्रमणनुं ज कारण छे. व्रतादिना शुभपरिणामथी मने धर्म थई रह्यो छे एवी मिथ्या मान्यता अनंत संसारना दुःखना कारणरूप छे, केमके मिथ्यात्वभाव पोते अज्ञानभावरूप ज छे, अर्थात् मिथ्यात्वभावमां ज्ञाननो-चैतन्यनो अभाव छे.

व्रतादिना विकल्प मटतां जे निर्विकल्प अनुभव थयो, जे निर्विकल्प आनंदना रसनो स्वाद आव्यो, स्वरूपमां मग्न थई तेने अहीं मोक्षनुं कारण कह्युं छे. राग तो आकुळता अने दुःखनुं कारण छे. जे आकुळतानुं कारण होय ते निराकुळ सुखनुं कारण केम थाय? (न ज थाय). हवे आ मोटो वांधो पडयो छे पंडितोने अने पदधारीओने तेओ कहे छे-सोनगढनुं एकान्त छे, केमके व्यवहार आचरण (व्रतादिनुं) जे करीए छीए ते मोक्षनुं कारण छे एम मानता नथी. पण भाई! ए मार्ग नथी; ए हितनो पंथ नथी. अहीं तो अति स्पष्ट कह्युं छे के-अज्ञानीने व्रतादि होवा छतां आत्माना आनंदस्वभावनुं ज्ञान नहि होवाथी मोक्षनो अभाव छे अने चैतन्यस्वरूपमां ठरेला ज्ञानीने व्रतादिना विकल्पनो अभाव होवा छतां शुद्ध चैतन्यनी परिणति थई होवाथी मोक्षनो सद्भाव छे. भाई! आवी तो चोकखी वात छे. आमां सोनगढनुं शुं छे? आ सोनगढनुं छे के भगवाननुं छे? पण सोनगढथी चोखवट बहार पडी एटले लोकोने एम के आ सोनगढनुं छे. भाई! आ तो अनंता तीर्थंकरोनी दिव्यध्वनिमां आवेली वात छे.

* गाथा १प३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञानरूप परिणमन ज मोक्षनुं कारण छे.’ एटले शुं? के भगवान आत्मा त्रिकाळी ज्ञानस्वरूप प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप छे. एनुं जे निर्मळ स्वभावपरिणमन ते मोक्षनुं कारण छे. स्वभाव मोक्षस्वरूप ज छे ने? तेथी स्वभावनुं ज्ञानभावरूप जे परिणमन ते मोक्षनुं कारण छे.

‘अने अज्ञानरूप परिणमन ज बंधनुं कारण छे; व्रत, नियम, शील, तप आदि शुभभावरूप शुभकर्मो कांई मोक्षनुं कारण नथी.’

व्रत, नियम, शील, तप आदि बधुंय राग होवाथी अज्ञानरूप परिणमन छे अने ते बंधनुं कारण छे. टीकामां ‘कर्म’ शब्द वापर्यो हतो एनो अहीं खुलासो


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करी नाख्यो के ‘कर्म’ एटले आ जडकर्मनी वात नथी पण शुभभावरूप शुभकर्म - शुभपरिणामनी वात छे. ए शुभभावरूप कर्म मोक्षनां कारण नथी पण बंधनां कारण छे.

केटलाक कहे छे के देव-गुरुनी भक्ति छे ते धर्मानुराग छे अने ते मोक्षनो उपाय छे. माटे आपणे देव-गुरुने पकडवा जेथी तेओ आपणने तारी देशे.

अहीं कहे छे के साक्षात् त्रिलोकना नाथने पकडो तोपण ए राग छे अने राग अज्ञानमय भाव छे, बंधनुं कारण छे. स्वद्रव्यना आश्रय विना त्रण काळमां संवर, निर्जरा अने मोक्ष थतां नथी. परद्रव्यनो आश्रय नियमथी बंधनुं कारण छे, कदीय पराश्रयभाव मोक्षनुं कारण थई शके नहि.

अरे! रागथी लाभ थाय एवी भ्रमणा सेवीने जीवे अनादिथी भवभ्रमण कर्युं छे. आवी भ्रमणा करीकरीने एणे पोताना चैतन्यस्वरूपने जाण्युं नहि. राग चाहे तो गुण-गुणीना भेदनो सूक्ष्म विकल्प हो तोपण ते आस्रव छे, बंधनुं कारण छे.

परमात्मप्रकाशमां आवे छे के-निश्चयना बे भेद छेः एक सविकल्प अने बीजो निर्विकल्प-पोताना आश्रये जे विकल्प उठे के-हुं शुद्ध छुं, विज्ञानघन छुं, इत्यादि ते सविकल्प निश्चय छे अने ते आस्रव छे; बंधनुं कारण छे. अने पोते जे विकल्परहित निर्विकल्प चीज छे एनुं निर्विकल्प तद्रूप अंतरमग्न परिणमन थाय ते निर्विकल्प निश्चय छे अने ते ज मोक्षनुं कारण छे.

भाई! अनंता तीर्थंकरो, केवळीओ, गणधरो, संतो अने मुनिवरो पोकार करीने कही गया छे के अनादिकालीन आ ज मोक्षनो मार्ग छे. आ ज सनातन सत्य दिगंबरदर्शन अर्थात् जैनदर्शन छे. भाई! दिगंबर ए कोई वेश के वाडो नथी; ए तो वस्तुनुं स्वरूप छे. अहाहा...! बहारथी शरीर पर वस्त्रनो धागो पण राखे अने अंतरमां सूक्ष्म विकल्पनी लागणी पण पोतानी छे, भली छे एम माने ते दिगंबर साधु नथी. आवी वात छे. अहो! दिगंबरत्व ए कोई अद्भुत अलौकिक चीज छे! वीतरागता कहो के दिगंबरत्व कहो, बन्ने एक ज छे.

आनंदघनजी कहे छे के-

‘‘धार पर नाचता देख बाजीगरा, सेवना धार पर न रहे देवा;
धार तलवारनी सोह्यली दोह्यली चौदमा जिनतणी चरणसेवा.’’

मंत्र, तंत्र आदि वडे तलवारनी धार पर नाचवुं सहेलुं छे; बाजीगरो ईजा पाम्या विना नाचे पण छे, परंतु चौदमा भगवान अनंतनाथनी चरणसेवा दुर्लभ छे. एटले शुं? एटले के अनंत ज्ञान, दर्शन अने आनंदनो नाथ जे भगवान आत्मा छे तेनी सेवा-उपासना- प्राप्ति अनादिकालीन अणअभ्यासने लीधे दोह्यली छे. देवो पण


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सिवाय सम्यग्दर्शन अंतरस्थिरता करी शकता नथी. जोके पोते सदाय सत्स्वरूपे अंतरमां विराजमान छे अने अंतर्मुख थई एकाकाररूपे-चिदाकारपणे परिणमतां एनी प्राप्ति सुलभ छे तोपण स्वरूपनां ज्ञान-श्रद्धान नहि होवाथी पर्यायमां एनी प्राप्ति थवी दोह्यली-दुर्लभ कही छे. आत्मानो अनुभव कर्या विना राग वडे आत्मप्राप्ति थवी दुर्लभ छे.

अहीं कहे छे-ज्ञानरूपे परिणमेला ज्ञानीने व्रत, तप, शील, संयम आदि शुभकर्मो नहि होवा छतां मोक्षनो सद्भाव छे अर्थात् ते (ज्ञानी) मोक्षने पामे छे; अने अज्ञानरूपे परिणमेला अज्ञानीने व्रत, तप, शील, संयम आदि शुभकर्मो होवा छतां, ते सघळां बंधनां कारण होवाथी मोक्षनो असद्भाव छे अर्थात् अज्ञानी मोक्षने पामतो नथी, बंधने ज पामे छे.

* * *

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश १०पः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

अहाहा...! कळशे कळशे अने गाथाए गाथाए केटला खुलासा करेला छे. कहे छे-‘यद् एतद्’ जे आ ज्ञानस्वरूप आत्मा ध्रुवपणे अने अचळपणे ज्ञानस्वरूपे थतो-परिणमतो भासे छे ‘अयं शिवस्य हेतुः’ ते ज मोक्षनो हेतु छे. शुं कह्युं? ध्रुवपणे एटले निश्चयपणे-नक्कीपणे अने अचळपणे एटले न फरे ए रीते ज्ञानस्वरूपे थतो एटले अतीन्द्रिय आनंदना स्वादे परिणमतो जे आ भगवान आत्मा छे ते ज मोक्षनो हेतु छे.

रागनो जे स्वाद छे ते दुःख छे. अशुभराग-काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, विषयवासना इत्यादि तीव्र दुःख छे तो शुभराग-दया, दान, व्रत, तप, शील इत्यादि पण दुःखरूप ज छे, आकुळता ज छे. अने ए बन्नेथी रहित भगवान आत्मा छे जेनो ज्ञान अने आनंद स्वभाव छे. आवा ज्ञानानंदस्वभावी भगवान आत्मानुं अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदरूपे परिणमवुं ए ज मोक्षनुं कारण छे. हवे कारण दर्शावे छे-

‘यतः’ कारण के ‘तत् स्वयम् अपि शिवः इति’ ते पोते पण मोक्षस्वरूप छे. जुओ, आत्मा पोते मोक्षस्वरूप ज छे अने तेनुं परिणमन पण मोक्षस्वरूप ज छे. अहाहा...! वस्तुस्वभाव रागथी भिन्न मोक्षस्वरूप छे. तेथी तेनुं परिणमन जे मोक्षस्वरूप छे ते ज मोक्षनुं कारण थाय छे. हवे आवी वात बहु आकरी लागे माणसने. शुभथी थाय एम माने छे ने? तेथी आकरी लागे छे पण शुं थाय? हवे कहे छे-

‘अतः अन्यत्’ तेना सिवाय जे अन्य कांई छे ‘बन्धस्य’ ते बंधनो हेतु छे. ज्ञान अने आनंदना परिणाम सिवाय बीजुं जे कांई एटले शुभाशुभरागना परिणाम


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छे ते बंधनो हेतु छे. ज्ञानीने पण जे बार व्रतना के पांचमहाव्रत आदिना शुभभावना परिणाम होय छे ते बंधनुं कारण थाय छे. ‘यतः’ कारण के ‘तत् स्वयम् अपि बन्धः इति’ ते पोते पण बंधस्वरूप छे. जे राग छे, व्यवहारनी क्रिया छे ते बंधस्वरूप छे माटे बंधनुं कारण छे.

चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मानी जे शुद्ध परिणति-वीतरागी दशा ए ज मोक्षनुं कारण छे केमके भगवान आत्मा पोते मुक्तस्वरूप ज छे. वस्तु रागथी मुक्त-मूकायेली छे अने एनुं निर्मळ परिणमन पण रागथी मुक्त होवाथी मोक्षनुं कारण छे. पण आ सिवाय जे कांई रागनुं परिणमन छे ते बंधनुं ज कारण छे केमके राग पोते बंधस्वरूप छे. अरे! रागनी रमतमां तें अनंतकाळ काढयो बापु! पण पोताना चैतन्यनी रमतमां तने नवराश न मळी! हवे तो चेत.

जो, आ केवळीना विरह भूलावे एवो वारसो आचार्य-भगवंतो मूकता गया छे. ए भव्योने नवजीवन आपनारो छे. रागनुं जीवन छोडीने शुद्धनुं जीवन करे ए खरुं ज्ञाननुं जीवन छे. रागनुं जीवन तो बंधनुं अज्ञानमय जीवन छे. व्रत, तप, शील, संयम इत्यादिनो जे शुभभाव छे ए बंधनुं कारण छे केमके ते पोते बंधस्वरूप छे. अने ज्ञान अने आनंदना स्वभावे जे परिणमन थाय ते ज्ञाननुं परिणमन मोक्षनुं कारण छे केमके पोते मोक्षस्वरूप छे. भाई! आ कांई संस्कृत अने व्याकरण भणे तो समजाय एवुं छे एम नथी. आमां तो शुद्धना संस्कार जोईए. आत्मानुं ज्ञानस्वरूपे, आनंदस्वरूपे परिणमन थवुं ए संस्कार छे अने ए ज मोक्षनुं कारण छे हवे कहे छे-

‘ततः’ माटे ‘ज्ञानात्मत्वं भवनम्’ ज्ञानस्वरूप थवानुं (परिणमवानुं) एटले के ‘अनुभूतिः हि’ अनुभूति करवानुं ज ‘विहितम्’ आगममां विधान अर्थात् फरमान छे.

ल्यो, आगममां एटले भगवाननी वाणीमां-बार अंगमां-सिद्धांतमां ज्ञाननुं परिणमन अर्थात् अनुभूति करवानुं ज विधान छे पण राग करवानुं विधान नथी. व्यवहारनयथी व्रत, तप, शील, संयम पाळवां एम कथन आवे पण निश्चयथी ए राग कांई वस्तु नथीः ‘अनुभूतिः हि’ एक मात्र आत्मानुभूति ज निश्चयथी करवा योग्य कही छे. समयसार नाटकमां पण कह्युं छे के-

‘‘अनुभव चिंतामनि रतन, अनुभव है रसकूप;
अनुभव मारग मोखकौ, अनुभव मोखसरूप.’’

अहीं पण ए ज कह्युं के-‘अनुभूतिः हि’ अनुभूति ज-आत्मानो अनुभव ज करवो अर्थात् आनंदना वेदनमां ज रहेवुं-ठरवुं. भगवान आत्मा पोते ज्ञान अने आनंदनी मोटी गांठडी छे तेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान द्वारा खोलीने अनुभूति ज करवी.


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जुओ, आ सम्यक् एकान्त कर्युं के-अनुभूतिनुं ज फरमान छे. मतलब के शुभनुं य फरमान छे एम नथी. अनुभूति करवानुं फरमान छे अने राग करवानुं फरमान नथी एम सम्यक् अनेकान्त छे. केटलाक कहे छे-व्रत, भक्ति, पूजा इत्यादि विधान विधिपूर्वक करवां तेने कहे छे के ए विधि-विधान नहि पण अनुभूति ज करवी ए ‘विहितम्’ भगवाने कहेलुं विधि-विधान छे.

‘ज्ञानात्मत्वं भवनम्’ एम आव्युं ने! एनो अर्थ एम छे के आत्मा जे ज्ञानस्वरूपी वस्तु छे तेनुं ते-रूपे थवुं ए एनुं भवन कहेतां घर-रहेठाण छे अने एमां ज वास्तु करवुं. लोको बिचारा आखो दिवस बायडी-छोकरां साचववामां अने धंधा-वेपारमां-एकली पापनी मजूरीमां बळदनी जेम वखत गाळे तेमने आ सांभळवानी फुरसद कयांथी मळे? अरे! मोक्षनो मार्ग तो छे नहि अने सत्समागम अने शास्त्र-स्वाध्यायनी फुरसदेय न मळे, तो तेओ कयां जशे? रोजनुं शास्त्र-श्रवण-वांचन बे चार कलाक जोईए ए पण जो नथी तो भले मोटा शेठीआ होय तोपण मरीने तिर्यंचे-कूतरे-बिलाडे ज जशे. शुं थाय? एवा परिणामनुं एवुं ज फळ छे. अहीं तो कहे छे-परमात्माना आगममां अनुभूतिनुं ज विधान छे, शास्त्र-स्वाध्याय आदि शुभरागनुं य नहि. कळशटीकामां (कळश १३ मां) आवे छे के-‘‘कोई जाणशे के द्वादशांगज्ञान कोई अपूर्व लब्धि छे. तेनुं समाधान आम छे के द्वादशांगज्ञान पण विकल्प छे. तेमां पण एम कह्युं छे के शुद्धात्मानुभूति मोक्षमार्ग छे’’ अहाहा...! अंतर्मुख थईने एक आत्मानो अनुभव करवो ए ज विधान आगममां कह्युं छे अने ए ज वीतरागनो मार्ग छे.

[प्रवचन नं. २१६ * दिनांक ३०-१०-७६]

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अथ पुनरपि पुण्यकर्मपक्षपातिनः प्रतिबोधनायोपक्षिपति–

परमट्ठबाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छंति।
संसारगणहेदुं पि मोक्खहेदुं अजाणंता।। १५४ ।।
परमार्थबाह्या ये ते अज्ञानेन पुण्यमिच्छन्ति।
संसारगमनहेतुमपि मोक्षहेतुमजानन्तः।। १५४ ।।

हवे फरीने पण, पुण्यकर्मना पक्षपातीने समजाववा माटे तेनो दोष बतावे छेः-

परमार्थबाह्य जीवो अरे! जाणे न हेतु मोक्षनो,
अज्ञानथी ते पुण्य इच्छे हेतु जे संसारनो. १प४.

गाथार्थः– [ये] जेओ [परमार्थबाह्यः] परमार्थथी बाह्य छे [ते] तेओ [मोक्षहेतुम्] मोक्षना हेतुने [अजानन्तः] नहि जाणता थका- [संसारगमनहेतुम् अपि] जोके पुण्य संसारगमननो हेतु छे तोपण- [अज्ञानेन] अज्ञानथी [पुण्यम्] पुण्यने (मोक्षनो हेतु जाणीने) [इच्छन्ति] इच्छे छे.

टीकाः– समस्त कर्मना पक्षनो नाश करवाथी ऊपजतो जे आत्मलाभ (-निज स्वरूपनी प्राप्ति) ते आत्मलाभस्वरूप मोक्षने आ जगतमां केटलाक जीवो इच्छता होवा छतां, मोक्षना कारणभूत सामायिकनी-के जे सामायिक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वभाववाळा परमार्थभूत ज्ञानना * भवनमात्र छे, एकाग्रतालक्षणवाळुं छे अने समयसारस्वरूप छे तेनी- प्रतिज्ञा लइने पण, दुरंत कर्मचक्रने पार ऊतरवानी नामर्दाइने लीधे (असमर्थताने लीधे) परमार्थभूत ज्ञानना भवनमात्र जे सामायिक ते सामायिकस्वरूप आत्मस्वभावने नहि पामता थका, जेमने अत्यंत स्थूळ संकलेशपरिणामरूप कर्मो निवृत्त थयां छे अने अत्यंत स्थूल विशुद्धपरिणामरूप कर्मो प्रवर्ते छे एवा तेओ, कर्मना अनुभवना गुरुपणा-लधुपणानी प्राप्तिमात्रथी ज संतुष्ट चित्तवाळा थया थका, (पोते) स्थूळ लक्ष्यवाळा होइने (संकलेशपरिणामोने छोडता होवा छतां) समस्त कर्मकांडने मूळथी उखेडता नथी. आ रीते तेओ, पोते पोताना अज्ञानथी केवळ अशुभ *भवन = थवुं ते; पणिमन


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कर्मने ज बंधनुं कारण मानीने, व्रत, नियम, शील, तप वगेरे शुभ कर्मो पण बंधनां कारण होवा छतां तेमने बंधनां कारण नहि जाणता थका, मोक्षना कारण तरीके तेमने अंगीकार करे छे-मोक्षना कारण तरीके तेमनो आश्रय करे छे.

भावार्थः– केटलाक अज्ञानी लोको दीक्षा लेती वखते सामायिकनी प्रतिज्ञा ले छे परंतु सूक्ष्म एवा आत्मस्वभावनी श्रद्धा, लक्ष तथा अनुभव नहि करी शकवाथी, स्थूल लक्ष्यवाळा ते जीवो स्थूल संकलेशपरिणामोने छोडीने एवा ज स्थूल विशुद्धपरिणामोमां (शुभ परिणामोमां) राचे छे, (संकलेशपरिणामो तेम ज विशुद्ध- परिणामो बन्ने अत्यंत स्थूल छे; आत्मस्वभाव ज सुक्ष्म छे.) आ रीते तेओ जोके वास्तविक रीते सर्वकर्मरहित आत्मस्वभावनुं अनुभवन ज मोक्षनुं कारण छे तोपण-कर्मानुभवना बहुपणा-थोडापणाने ज बंध-मोक्षनुं कारण मानीने, व्रत, नियम, शील, तप वगेरे शुभ कर्मोनो मोक्षना हेतु तरीके आश्रय करे छे.

* * *

समयसार गाथा १प४ः मथाळुं

हवे फरीने पण, पुण्यकर्मना पक्षपातीने समजाववा माटे तेनो दोष बतावे छेः- सामायिकस्वरूप पोतानो भगवान आत्मा छे एनी तो खबर नथी अने बहारथी सामायिक (चारित्र) ग्रहण करीने दया, व्रत, तप, भक्ति इत्यादि शुभरागनुं आचरण करीने धर्म थयो माने छे तेने समजावे छे के-भाई! ए धर्म नथी; तारुं शुभाचरण छे ए तो बंधनुं, संसारनुं कारण छे अने एने तुं धर्म माने छे ए मान्यता मिथ्यात्व छे.

* गाथा १प४ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘समस्त कर्मना पक्षनो नाश करवाथी ऊपजतो जे आत्मलाभ (-निजस्वरूपनी प्राप्ति) ते आत्मलाभस्वरूप मोक्षने आ जगतमां केटलाक जीवो इच्छता होवा छतां...’

शुं कहे छे? के समस्त कर्मना पक्षनो नाश करवाथी-एटले एकला पापकर्मनो नाश करवाथी एम नहि, पण पाप अने पुण्य ए बेय भावोनो नाश करवाथी आत्मलाभनी प्राप्ति थाय छे. आ आत्मोपलब्धि ए मोक्ष छे अने मोक्षने जगतमां केटलाक जीवो इच्छता होवा छतां-

कहे छे-‘मोक्षना कारणभूत सामायिकनी-के जे सामायिक सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्रस्वभाववाळा परमार्थभूत ज्ञानना भवनमात्र छे, एकाग्रतालक्षणवाळुं छे अने समयसार स्वरूप छे...’


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अहाहा...! आ मोक्षना कारणभूत जे सामायिक ते सामायिक कोने कहेवाय ते अहीं बतावे छे. ए सामायिक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वभाववाळा परमार्थभूत ज्ञानना भवनमात्र छे. परम पदार्थ, पूर्णानंदनो नाथ प्रभु जे आत्मा तेनुं ज्ञान-श्रद्धान अने रमणतारूप जे भवन-परिणमन तेने सामायिक कहीए. आवुं सामायिक शुभरागना सूक्ष्म विकल्पना पण अभावरूप छे. शुभरागरूप विकल्प ए कांई सामायिक नथी, विकल्पमात्रमां सामायिकनी नास्ति छे-अने सामायिकमां विकल्पनी-रागनी नास्ति छे.

सामायिक परमार्थभूत ज्ञानना भवनमात्र एटले आत्माना भवनमात्र छे. भवननो एक अर्थ घर (-रहेठाण) पण थाय छे. भगवान आत्मा सदा आनंदस्वरूप छे. एनुं आनंदरूप भवन थवुं ए एनुं घर छे. शुभाशुभभावनो नाश एटले अभाव करवाथी आनंदरूप जे निर्मळ वीतराग परिणति थाय ते एनुं भवन-घर छे. दया, दान आदि जे शुभभाव थाय ते कांई चैतन्यनुं भवन-घर नथी. एवा भवनमां (दया, दान आदिरूप भवनमां) आत्मा रहेतो नथी. बहु सूक्ष्म-झीणी वात भाई! काले (श्लोक १०प मां) आव्युं हतुं ने के सर्वकल्याणरूप मोक्षनो हेतु ज्ञाननुं भवन छे. भगवान आत्मा पुण्य-पापथी रहित एवो स्वरूपथी ज वीतरागस्वभावी छे. आवा वीतरागमूर्ति भगवान आत्मानुं दर्शन एटले जेवुं एनुं पूर्ण स्वरूप छे तेवी एनी निर्विकल्प प्रतीति, ज्ञान एटले जेवुं पूर्ण स्वरूप छे तेवुं एनुं निर्विकल्प (राग विनानुं) ज्ञान अने चारित्र एटले ए स्वरूपमां ज रमणता-ते-रूप जे भवन ते एनुं निजघर छे अने ते सामायिक छे.

सामायिक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वभाववाळा परमार्थभूत ज्ञानना भवनमात्र छे ए एक वात. वळी बीजुं-ते एकाग्रतालक्षणवाळुं छे. सामायिक स्वरूपमां एकाग्रता रूप छे. ‘साम्’ एटले साम्य-समता-वीतरागता अने ‘आय’ एटले लाभ. जेमां समतानो, वीतरागतानो, आनंदनो लाभ मळे ते परिणाम सामायिक छे अने ते शुद्ध चैतन्यस्वरूपमां एकाग्रतालक्षणवाळुं छे. पोताना ध्रुव एक चैतन्यस्वरूपने अग्र बनावीने जे परिणति-वीतरागी आनंदनुं परिणमन-थाय ते एकाग्रतालक्षणवाळुं सामायिक छे. हवे आवी खबरेय न होय अने पाथरणुं पाथरीने बे घडी बेसी जाय अने जाणे के सामायिक थई गई अने बीजा शेठीआओ रूपियानी लहाणी करे; बस, जाणे बन्नेने धर्म थई गयो! पण भाई! एमां धूळेय धर्म नथी. एमां तो मिथ्यात्व पुष्ट थाय छे केमके एणे रागनी क्रियाने सामायिक मानीने धर्म मान्यो. आवी सांप्रदायिक द्रष्टि गृहीत मिथ्यात्व छे, बाकी अगृहीत तो अनादिनुं छे ज.

वळी ए सामायिक समयसार स्वरूप छे. द्रव्यकर्म, भावकर्म अने नोकर्मथी रहित जे आत्मा-समयसार तेनो अनुभव ते सामायिक-समयसारस्वरूप छे. भगवान आत्मानुं भवन थवुं ते सामायिक समयसारस्वरूप छे. पण एनुं भवन केम थाय?


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एनो आश्रय ले तो एनुं भवन थाय. पण एनी (-आत्मानी) खबरेय न होय तो भवन कयांथी थाय? न थाय. शुभाशुभभावना आश्रये एनुं भवन न थाय. एक सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्माना आश्रये चैतन्य अने आनंदनुं भवन थाय छे अने ते सामायिक छे. ए समयसारस्वरूप छे.

हवे कहे छे-‘तेनी (-सामायिकनी) प्रतिज्ञा लईने पण, दुरंत कर्मचक्रने पार ऊतरवानी नामर्दाईने लीधे (असमर्थताने लीधे)...’

शुं कह्युं? सामायिकनी तेओ प्रतिज्ञा लईने बेसी जाय छे पण दुरंत कर्मचक्रने तेओ पार ऊतरवा नामर्द एटले असमर्थ रहे छे. जुओ, पुण्य-पापना जे भाव छे ते द्रुरंत कर्मचक्र छे. एटले शुं? एटले के अंतरना महा पुरुषार्थ वडे तेओ ओळंगी शकाय तेम छे, बीजी कोई रीते नहि. पुण्य-पापना चक्रने ओळंगी जवुं ए (स्वसन्मुखतानो) प्रचंड पुरुषार्थ मागे छे. परंतु दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादिना जे शुभभाव छे तेने तेओ ओळंगी शकता नथी तेथी तेओ नपुंसक छे. सामायिकमां णमोकारमंत्र गणे, अनुपूर्वी गणे, सज्झाय करे, स्तुति करे; पण ए तो बधो बहिर्लक्षी शुभराग छे. ते शुभरागने तेओ नहि छोडता होवाथी तेओ नपुंसक छे, हीजडा छे, पावैया छे; केमके जेम पावैयाने प्रजा पाके नहि तेम आमने पण मात्र पुण्यभावना आचरणथी धर्मनी प्रजा पाकती नथी. अहो! जगतने सांभळवा मळवी पण मुश्केल एवी आ अलौकिक वात छे.

जुओ, पाठमां-संस्कृत टीकामां ‘क्लीबतया’ एम शब्द छे. अहा! अशुभ भावने तो तेओ छोडी दे छे पण दया, दान आदिना शुभभावने के जे कर्मवैरी छे तेने छोडवाने तेओ असमर्थ रहे छे. तेमनुं वीर्य शुभभावने छोडवा समर्थ नथी तेथी तेओ कलीब एटले नपुंसक छे. जे सर्व रागने छोडी पर्यायमां स्वरूपनी शुद्धतानी रचना करे तेने वीर्य कहीए अने ते साचुं सामायिक छे. एनुं ज नाम संवर अने मोक्षनो मार्ग छे.

हवे कहे छे-‘द्रुरंत कर्मचक्रने पार ऊतरवानी नामर्दाईने लीधे परमार्थभूत ज्ञानना भवनमात्र जे सामायिक ते सामायिकस्वरूप आत्मस्वभावने नहि पामता थका, जेमने अत्यंत स्थूळ संकलेशपरिणामरूप कर्मो निवृत्त थयां छे अने अत्यंत स्थूळ विशुद्धपरिणामरूप कर्मो प्रवर्ते छे एवा तेओ,.. .’

शुं कह्युं आ? के भगवान आत्मा जे ज्ञानानंदस्वभावी शुद्ध चैतन्यधातुमय छे तेने अनुसरीने भवन थवुं एने सामायिक कहे छे. रागने अनुसरीने जे भवन छे ए तो नपुंसकता छे, पुरुषार्थ नथी. जेम पापने छोडे छे तेम पुण्यने पण छोडीने चैतन्यस्वरूपनो अनुभव करे ते पुरुषार्थ छे अने ते सामायिक छे.


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पुण्य-पापनो जे भाव छे ते एक समयनो विकृत भाव छे. ते सिवाय अंदर आखी चीज निर्मळानंद चिदानंद प्रभु छे. वस्तुपणे पोते अंदर परमेश्वर परमात्मस्वरूप भगवान छे. पण एनी खबर कयां छे एने? अने एने ए वात कयां बेसे छे? तेथी पुण्यना परिणाममां रोकाई रहीने, अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदना परिणमनरूप-थवारूप जे सामायिक ते सामायिकस्वरूप आत्मस्वभावने तेओ पामता नथी. अहाहा...! आत्मा तो अतीन्द्रिय ज्ञान अने अतीन्द्रिय सुखस्वरूप छे; आ इन्द्रियज्ञान अने इन्द्रिय-सुख ते आत्मा नहि. परंतु शुभभावने छोडवा असमर्थ होवाथी तेओ शुद्ध चैतन्यमय ज्ञानानंदस्वभावी आत्माने पामता नथी.

आथी तेओ अत्यंत स्थूळ संकलेश परिणामरूप कर्मो एटले हिंसादिना अशुभ भावरूप कर्मोथी निवृत्त थया छे पण अत्यंत स्थूल विशुद्ध परिणामरूप कर्मो तेमने वर्ते छे. मतलब के पापना भावो तो तेमणे तजी दीधा छे पण व्रत, तप, भक्ति, भगवाननी स्तुति, वंदना इत्यादि शुभभावरूप कार्योमां तेओ वर्ते छे. अहीं कर्मो एटले जडकर्मनी वात नथी पण शुभाशुभभावरूप कर्मोनी वात छे. अहाहा...! आत्मा सूक्ष्म अरूपी चैतन्यघनस्वरूप महाप्रभु छे एनी एने खबर नथी तेथी सामायिकनी प्रतिज्ञा लईने पण ते स्थूळ एवा अचेतन शुभरागमां प्रवर्ते छे. परंतु भाई! शुभभाव ए सामायिक कहेतां आत्मानो समभावरूप परिणाम नथी; ए तो विषम भाव छे.

जुओ, अहीं व्रत, तप, पूजा भक्ति इत्यादि शुभभावने अत्यंत स्थूल एटले जाडो कह्यो छे. गाथा ७२ मां एने अशुचि, अचेतन, अने दुःखनुं कारण कह्युं छे. भाई! ए (-शुभराग) मोक्षनुं कारण तो नहि पण दुःखनुं कारण छे एम कह्युं छे. हवे कहे छे-जेमने

‘अत्यंत स्थूळ विशुद्धपरिणामरूप प्रवर्ते छे एवा तेओ, कर्मना अनुभवना गुरुपणा- लघुपणानी प्राप्तिमात्रथी ज संतुष्ट चित्तवाळा थया थका, (पोते) स्थूल लक्ष्यवाळा होईने (संकलेश परिणामोने छोडाता होवा छतां) समस्त कर्मकांडने मूळथी उखेडता नथी.’

शुं कीधुं? के शुभभाव छे ए लघु कर्म छे अने अशुभ छे ए गुरुभारे कर्म छे. त्यां अशुभ जे भारे छे एने तो छोडयुं छे पण जे लघु-हळवो स्थूळ शुभभाव छे एने राख्यो छे, संचित कर्यो छे. पण बेय कर्म छे, बेय विकार छे, बेय दोष-अपराध छे. परंतु शुभभावरूप कर्ममां हळवापणुं अनुभवीने तेमां संतुष्ट चित्तवाळा थाय छे. मतलब के शुभभावनी हळवाशमां मीठाश अनुभवीने अतीन्द्रिय आनंदनी प्राप्तिनो पुरुषार्थ करता नथी, अंतर- पुरुषार्थ करता नथी. आ प्रमाणे स्थूळ लक्ष्यवाळा होईने तेओ समस्त कर्मकांडने मूळथी उखेडता नथी. अहाहा...! अत्यंत सूक्ष्मस्वरूप


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जे चिदानंदमय चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा तेना लक्ष्यथी रहित होवाथी तेओ समस्त कर्मकांडने मूळथी उखेडता नथी.

प्रश्नः– प्रवचनसारमां छेल्ले ४७ नयोनी वात कीधी छे त्यां प्रचंड कर्मकांड वडे ज्ञानकांड प्रचंड करवानी वात आवे छे ने?

उत्तरः– हा, पण एनो अर्थ शुं? शुं राग छे माटे सूक्ष्म चैतन्य हाथ आवे छे एम छे? शुद्ध चैतन्यनी वीतरागी परिणति शुं रागने लईने छे? ना; एम नथी. ए तो ज्ञानकांडना सहचरपणे वर्तता कर्मकांडने बताववा एवुं व्यवहारनयनुं कथन छे. बाकी शुद्ध परिणति स्वयं पोताना स्वकाळे स्वतः उत्पादरूप थाय छे; एने रागनी के निमित्तनी-देव-गुरु-शास्त्रनी कोई अपेक्षा नथी. अरे एने (-शुद्ध परिणतिने) निज द्रव्यनी पण कयां अपेक्षा छे? ते पर्याय मात्र शुद्ध चैतन्यमय द्रव्यनुं लक्ष करे छे बस एटलुं ज; बाकी जे शुद्ध रत्नत्रयनी जे वीतरागी पर्याय थाय ते स्वतंत्र पोताना षट्कारकरूप परिणमनथी थाय छे अने ए ज एनी जन्मक्षण (स्वकाळ) छे.

अहीं कहे छे के तेओ शुभभावमां वर्ते छे तेथी स्थूळ लक्ष्यवाळा छे केमके सूक्ष्म चैतन्यना लक्ष्यनो तेमने अभाव छे. तेथी तेमने सामायिक कयांथी होय? तेओ बे घडी माटे सामायिक लईने बेसी जाय अने ‘णमो अरिहंताणं’ इत्यादि पंचपरमेष्ठीनुं स्मरण-स्तुति करे पण तेथी शुं? भगवान पंचपरमेष्ठी निज आत्मद्रव्यथी भिन्न परद्रव्य छे अने ए परद्रव्यनुं स्मरण स्थूळ शुभराग छे. त्यां (शुभरागमां) ज्ञानना भवनमात्र सामायिक कयां आवी?

अहीं ‘स्थूळ लक्ष्यवाळा होईने’ एम कहीने ए पण सिद्ध कर्युं के तेओ जे शुभमां वर्ते छे ते कोई जड पुद्गलकर्मने लईने वर्ते छे एम नथी, पण पोताना ऊंधा पुरुषार्थथी शुभमां वर्ते छे. हवे ज्यां पुरुषार्थ ज ऊंधो छे त्यां सामायिक केम होय? (न ज होय).

त्यारे केटलाक कहे छे-शुभभाव होय तो पछी ए काळे शुभ छूटीने शुद्धता थाय पण अशुभना काळे अशुभ छूटीने कांई शुद्धता थोडी प्रगट थाय? स्वरूपनी द्रष्टि थाय त्यारे तेनी पहेलां छेल्लो भाव शुभ होय छे अने ए शुभना अभावपूर्वक निश्चयनी द्रष्टि थाय छे, पण अशुभने छोडीने निश्चयद्रष्टि प्रगट थाय एम बनतुं नथी. माटे एटलो तो शुभ सारो छे एम कहो; एम के-शुभभाव एटली तो मदद करे छे ने?

तो कहे छे-ना; एम नथी. बेय (शुभाशुभ बंने) निरर्थक, जूठा छे. ए अशुभमां वर्ते तोय कर्मकांडमां वर्ते छे अने शुभमां वर्ते तोय कर्मकांडमां वर्ते छे. आत्मकांडमां (ज्ञानकांडमां) एटले निर्मळ वीतराग परिणतिमां ते वर्त्यो ज नथी.


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तेथी तेने सामायिक होती नथी.

कर्मकांड एटले शुभ अने अशुभभाव ए बेय कर्म कहेतां विकारनी धारा छे. बेय कर्मधारा छे. आवे छे ने के ज्ञानीने ज्ञानधारा अने कर्मधारा एम बेय धारा होय छे. त्यां जे राग छे तेने ज्ञानी हेय जाणे छे अने एक शुद्ध चैतन्यमय आत्माने ज उपादेय जाणे छे. ज्ञानीने जेटली परिणति शुद्ध निर्मळ छे एटलुं मोक्षनुं कारण बने छे अने साथे जेटलो राग- अशुद्धता छे ते बंधनुं कारण छे. ज्ञानी पण एम ज यथार्थ जाणे छे. पूर्ण वीतराग थया पहेलां तेने (-साधकने) आ बेय धारा होय छे. पण अज्ञानीने एक कर्मधारा ज होय छे. तथा केवळीने एक ज्ञानधारा ज होय छे. आवी वात छे.

हवे कहे छे-‘आ रीते तेओ पोते पोताना अज्ञानथी केवळ अशुभकर्मने ज बंधनुं कारण मानीने, व्रत, नियम, शील, तप वगेरे शुभकर्मो पण बंधनां कारण होवा छतां तेमने बंधनां कारण नहि जाणता थका, मोक्षना कारण तरीके तेमने अंगीकार करे छे-मोक्षना कारण तरीके तेमनो आश्रय करे छे.’

‘‘आ रीते तेओ पोते पोताना अज्ञानथी...’’-जोयुं? भाषा केटली स्पष्ट छे? एम के कर्मनुं जोर छे माटे ते शुभथी छूटता नथी एम नथी; पण आनंदनो नाथ चिदानंद भगवान पोते अंदर जे बिराजे छे तेनी चैतन्यज्योतमां आ बधुं जणाय छे-जाणनारो पोते जणाय छे तोपण रागकाळे रागने जाणनारो पोते जुदो छे एवुं ज्ञान नहि होवाथी रागथी-शुभभावथी छूटता नथी. अहाहा...! टीका ते कांई टीका छे! खूब गंभीर, भाई! कहे छे-जेनी सत्तामां जाणवुं वर्ते छे अने जेनी सत्ता परनी सत्ताने जाणे छे ए सत्ता पोतानी छे एवी निज चैतन्यसत्ता पर द्रष्टि नहि होवाथी अज्ञानी थईने शुभभावमां अटके छे. समजाणुं कांई...?

आ प्रमाणे अज्ञानी जीव अज्ञानवश हिंसा, जूठ, चोरी इत्यादि अशुभ कर्मने ज बंधनुं कारण माने छे पण व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि शुभभाव बंधनां कारण होवा छतां तेमने बंधनां कारण जाणतो नथी. उलटुं तेमने मोक्षना कारणपणे अंगीकार करीने शुभभावोनो आश्रय करे छे. व्यवहार छे ते मोक्षनुं कारण छे, एमांथी मोक्षनो मार्ग प्रगटशे एम अज्ञानी माने छे ने? तेथी ते शुभभावनो ज एकांते आश्रय करे छे.

परंतु भाई! शुभ अने अशुभ बेय एक ज जात छे; बेय कर्म रागनी-विकारनी ज जात छे. आगळ आवी गयुं ने के बेय विभावरूप चंडालणीना ज पुत्रो छे. जेम चंडालणीनो पुत्र ब्राह्मणने त्यां ऊछर्यो एटले कहे के-मारे मदिरा आदि खपे नहि, पण ए छे तो चंडालणीनो ज दीकरो; तेम शुभाचरणमां तल्लीन कोई कहे के-


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अमने हिंसादि अशुभ खपे नहि, पण ते शुभाचरणरूप कर्म छे तो विभावचंडालणीनो ज दीकरो. भाई! आ वीतराग परमेश्वर जिनेश्वरदेवनुं फरमान छे. परंतु अरे! अज्ञानी जीवो स्थूळ लक्ष्यवाळा होईने शुभभावने बंधनुं कारण नहि जाणता थका, तेने मोक्षनुं कारण जाणीने तेनुं ज सेवन करे छे.

भाई! जेओ व्रत, तप, इत्यादि शुभाचरणने मोक्षनुं कारण जाणी अंगीकार करे छे तेओ मिथ्याद्रष्टि छे. तेमने जैन धर्मनी खबर नथी. जैन धर्म तो एक वीतरागभाव छे. राग कदीय जैन धर्म नथी.

प्रश्नः– हा, पण शुभराग, दुकाने बेसवाना अशुभराग करतां तो सारो खरो के नहि?

उत्तरः– भाई! एक अशुभरागनी दुकान छे तो बीजी शुभरागनी दुकान छे. (रागरहितपणुं तो एकेय नथी). बन्नेमां परलक्षी भाव छे. बेय एकनी एक कर्मनी जात छे, धर्म तो एकेय नथी. बेडी लोढानी हो के सोनानी, बंधन अपेक्षाए तो बेउ समान छे, सारी तो एकेय नथी. पाप लोढानी बेडी छे तो पुण्य सोनानी बेडी छे, पण बेय बेडी ज छे.

* गाथा १प४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘केटलाक अज्ञानी लोको दीक्षा लेती वखते सामायिकनी प्रतिज्ञा ले छे परंतु सूक्ष्म एवा आत्मस्वभावनी श्रद्धा, लक्ष तथा अनुभव नहि करी शकवाथी, स्थूल लक्ष्यवाळा ते जीवो स्थूल संकलेशपरिणामोने छोडीने एवा ज स्थूल विशुद्ध परिणामोमां (-शुभ परिणामोमां) राचे छे.’

जुओ, शुभ अने अशुभ बन्ने परिणामोने स्थूल कीधा अने एनाथी भिन्न आत्मस्वभाव-एक ज्ञायकभावने सूक्ष्म कीधो. अशुभभाव जेवो स्थूल छे तेवो ज स्थूल शुभभाव छे. बंधना कारण तरीके बेउ एक ज छे.

केटलाक राडो पाडे छे के आ तो निश्चयनी वात छे; एम के एनुं साधन तो कांई (- शुभाचरण) हशे के नहि?

भाई! रागथी भिन्न पडी शुद्ध चैतन्यस्वभावनो आश्रय करवो, बस ए एक ज साधन छे. राग ए साधन छे ज नहि. ए तो कोई ठेकाणे निश्चयनी-शुद्धनी भूमिकामां रागनी मंदता कई जातनी सहचरणपणे छे तेनुं ज्ञान कराववा आरोपथी तेने साधन कह्युं होय छे. पण एनो अर्थ ज ए छे के ते (-मंद राग) साधन छे नहि.

अज्ञानी अशुभने तो बंधनुं कारण जाणीने छोडे छे पण शुभने बंधनुं कारण नहि जाणतो थको, एने मोक्षनुं कारण जाणीने तेनो आश्रय करे छे. भगवाननी सेवा


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करो, देशनी सेवा करो, मानवसेवा करो, ‘मानवसेवा ते प्रभु-सेवा’ -आवो आवो उपदेश सांभळी अज्ञानी राजी राजी थई जाय छे, अने शुभभावमां राचे छे. भगवान वीतरागदेवे तो वीतरागताने धर्म फरमाव्यो छे, पण एनी एने कयां खबर छे? आनो (जिनागमनो) स्वाध्याय करे तो खबर पडे ने? पण एने कयां फुरसद छे? भाई! अहीं तो कहे छे के संकलेश परिणामोनी जेम ज विशुद्ध परिणामो अत्यंत स्थूल छे अने बंधनां कारण छे. एक आत्मस्वभाव ज सूक्ष्म छे अने मोक्षनुं कारण छे.

हवे कहे छे-‘आ रीते तेओ-जोके वास्तविक रीते सर्वकर्मरहित आत्मस्वभावनुं अनुभवन ज मोक्षनुं कारण छे तोपण-कर्मानुभवना बहुपणा-थोडापणाने ज बंध-मोक्षनुं कारण मानीने, व्रत, नियम, शील, तप वगेरे शुभकर्मोनो मोक्षना हेतु तरीके आश्रय करे छे.’

अज्ञानी अशुभकर्मने बंधनुं कारण माने छे पण जेमां कर्मनो भेद अनुभव छे एवा शुभने मोक्षनुं कारण माने छे; एम के शुभ करतां करतां मोक्षमार्ग थई जशे. ते एम कहे छे- आपणे कयां दुकाने बेठा छीए, आपणे तो अपासरे बेठा छीए; आपणे कयां घरमां (गृहवासी) छीए, आपणे तो देरासरमां भगवान पासे बेठा छीए; इत्यादि. पण भाई! ज्यां तुं बेठो छे ए बधो शुभराग छे. कांई अंदर आत्मामां बेठो नथी, सामायिकस्वरूप पोताना भगवानमां बेठो नथी.

प्रश्नः– शास्त्रमां शुभने मोक्षनुं परंपरा कारण कह्युं छे ने?

उत्तरः– हा, पण एनो अर्थ शुं? के साधक धर्मीजीव एनो (-शुभनो) अभाव करीने- एटले के वर्तमानमां एनो पूरो अभाव नथी तो अंदर स्वभावनो अति उग्र आश्रय करीने एनो अभाव करशे ते अपेक्षाए तेने परंपरा कारण कह्युं छे. बधानी आ तकरार छे के शुभने परंपरा कारण कह्युं छे. पण एनो अर्थ शुं थाय एनी खबर नथी. भाई! चैतन्यना अवलंबने जे वीतराग परिणति वृद्धिगत थती जाय छे. ते पूर्ण वीतरागताने प्राप्त थाय छे अने ते परंपरा मोक्षनुं कारण छे. पण ते वेळा क्रमशः अभावरूप थतो जे शुभराग सहचरपणे छे तेमां आरोप आपीने तेने परंपरा कारण कह्युं छे. शुभराग खरेखर परंपरा कारण छे एम छे नहि; समजाणुं कांई...! ल्यो, आवी खबर नथी एटले अज्ञानी जीवो शुभने ज मोक्षनुं कारण जाणी तेनो आश्रय करे छे.

[प्रवचन नं. २१७ * दिनांक ३१-१०-७६]

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अथ परमार्थमोक्षहेतुं तेषां दर्शयति–

जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं।
रागादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो।। १५५ ।।
जीवादिश्रद्धानं सम्यक्त्वं तेषामधिगमो ज्ञानम्।
रागादिपरिहरणं चरणं एषस्तु मोक्षपथः।। १५५ ।।

हवे एवा जीवोने परमार्थ मोक्षकारण (खरुं मोक्षनुं कारण) बतावे छेः-

जीवादिनुं श्रद्धान समकित, ज्ञान तेमनुं ज्ञान छे,
रागादि–वर्जन चरण छे, ने आ ज मुक्तिपंथ छे. १पप.

गाथार्थः– [जीवादिश्रद्धानं] जीवादि पदार्थोनुं श्रद्धान [सम्यक्त्वं] सम्यक्त्व छे, [तेषाम् अधिगमः] ते जीवादि पदार्थोनो अधिगम [ज्ञानम्] ज्ञान छे अने [रागादिपरिहरणं] रागादिनो त्याग [चरणं] चारित्र छे;- [एषः तु] आ ज [मोक्षपथः] मोक्षनो मार्ग छे.

टीकाः– मोक्षनुं कारण खरेखर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र छे. तेमां, सम्यग्दर्शन तो जीवादि पदार्थोना श्रद्धानस्वभावे ज्ञाननुं थवुं-परिणमवुं ते छे; जीवादि पदार्थोना ज्ञानस्वभावे ज्ञाननुं थवुं-परिणमवुं ते ज्ञान छे; रागादिना त्यागस्वभावे ज्ञाननुं थवुं-परिणमवुं ते चारित्र छे. तेथी ए रीते एम फलित थयुं के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ए त्रणे एकलुं ज्ञाननुं भवन (-परिणमन) ज छे. माटे ज्ञान ज परमार्थ मोक्षकारण छे.

भावार्थः– आत्मानुं असाधारण स्वरूप ज्ञान ज छे. वळी आ प्रकरणमां ज्ञानने ज प्रधान करीने व्याख्यान छे. तेथी ‘सम्यग्दर्शन, ज्ञान अने चारित्र-ए त्रणेय स्वरूपे ज्ञान ज परिणमे छे’ एम कहीने ज्ञानने ज मोक्षनुं कारण कह्युं छे. ज्ञान छे ते अभेद विवक्षामां आत्मा ज छे-एम कहेवामां कांइ पण विरोध नथी. माटे टीकामां केटलेक स्थळे आचार्यदेवे ज्ञानस्वरूप आत्माने ‘ज्ञान’ शब्दथी कह्यो छे.

* * *

समयसार गाथा १पपः मथाळुं

हवे एवा जीवोने परमार्थ मोक्षनुं कारण (खरुं मोक्षनुं कारण) बतावे छेः-


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* गाथा १पपः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘मोक्षनुं कारण खरेखर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र छे.’ तत्त्वार्थसूत्रमां पहेलुं सूत्र छे ने के–सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः–मोक्षनो मार्ग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र छे; अने संसारमां रखडवानो मार्ग मिथ्यादर्शन-ज्ञान अने अव्रत छे. (मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र छे.)

प्रश्नः– अव्रतना पापभाव करतां व्रतना शुभभाव तो सारा ने?

उत्तरः– बे य समान छे. चोरासीना अवतार-जे नरक-निगोदना भव, कीडा, कागडा अने कंथवाना भव-ए सर्वनुं कारण मिथ्याश्रद्धा, मिथ्याज्ञान अने मिथ्याआचरण छे. मिथ्यात्व सहित सर्व आचरण मिथ्याचारित्र छे. एथी विरुद्ध मोक्षनुं कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र छे. आवी वात छे. हवे कहे छे-

‘तेमां, सम्यग्दर्शन तो जीवादि पदार्थोना श्रद्धानस्वभावे ज्ञाननुं थवुं-परिणमवुं ते छे.’

दिल्हीमां आ गाथानी चर्चा नीकळी हती. तेओ कहे-गाथामां ‘जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं’–जीवादि पदार्थोनुं श्रद्धान समकित छे एम कह्युं छे. त्यारे कह्युं के अहीं एटलो मात्र अर्थ नथी. टीका जुओ; टीकामां जीवादि पदार्थोना श्रद्धानस्वभावे ज्ञाननुं थवुं-परिणमवुं समकित कह्युं छे. झीणी वात छे. प्रभु!

आत्मावलोकनमां आवे छे के-वीतरागदेवनी जे प्रतिमा छे ते प्रतिमा स्थिर बिंब छे, हालती-चालती नथी अने आंखनी पांपणेय फरकती नथी. आवी स्थिर-स्थिर जिनप्रतिमा देखीने एम विचार आवे छे के-वीतरागने पहेलां जे राग हतो ते राग टळीने वस्तु जे वीतरागस्वभावे हती ते, तेवी वीतराग रही गई. एटले के वीतरागनी मूर्ति होय के साक्षात् वीतराग परमेश्वर होय, बेयने देखीने आवो विचार थवो जोईए के भगवानने पहेलां जे दया, दान, व्रत, पूजा, उपवास इत्यादिना शुभरागना जे विकल्प हता के जेने लोको अत्यारे धर्म माने छे-ते नीकळी गया अने वीतराग स्थिर बिंब जे पोतानुं हतुं ते रही गयुं. भगवानमां जे वीतरागपणुं छे ते पोतानी वस्तु छे. राग जे पोतानो नहोतो ते नीकळी गयो. अरे! आम छे छतां लोको अत्यारे रागने धर्म माने छे! (खेदनी वात छे).

अत्यारे लोको आ सामायिक, पोसा ने प्रतिक्रमण करे छे ने? भाई! ए धर्म नथी, ए तो बधो राग छे. भाई! आत्मानुभव विना जेटला कोई परिणाम थाय छे ते बधा रागादि ज छे, धर्म नथी.

भगवान सर्वज्ञ वीतरागदेव छे तेमने हिंसादिना जेम परिणाम नथी तेम अहिंसादि व्रतना शुभरागना परिणामेय नथी. ए बधा रागना परिणाम तो कृत्रिम


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हता, एनी वस्तुमां न हता. पोतानी वस्तुमां जे न हता ते वस्तुनो आश्रय थतां नीकळी गया अने वस्तु जेवी वीतराग हती तेवी रही गई. समजाणुं कांई...? वीतराग एटले वीत+राग- वीती गयो छे राग जेने ते वीतराग छे. एथी ए सिद्ध थयुं के-राग वस्तुनो-आत्मानो स्वभाव न हतो ते नीकळी गयो अने वीतरागता रही गई.

हवे गुरुनो विचार करीए-के जेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्ध रत्नत्रयनुं निर्मळ वीतराग परिणाम थयुं छे अने जे वीतरागस्वभावी शुद्ध चैतन्यस्वरूपनुं ज कथन करे छे ते गुरु छे. जे बहारना दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादिना शुभभावमां धर्म थवानुं माने अने मनावे ते साचा गुरु नथी, ते दिगंबर साधु नथी. गुरु स्वयं शुद्ध चैतन्यस्वभावी आत्माना आश्रये वीतरागभावने प्राप्त थयेला छे अने वीतरागी परिणमननी ज प्ररूपणा करे छे. वीतरागपणुं प्रगट करो एम एमना उपदेशमां आवे छे अने ते वीतरागता चैतन्यस्वभावना आश्रये प्रगट थाय छे, क्रियाकांडना आश्रये नहि एवो स्पष्ट तेमनो उपदेश होय छे. क्रियाकांड वडे वीतरागता प्रगट थाय एवी प्ररूपणा करे ते साचा जैन गुरु नथी.

एवी ज रीते जे वीतरागस्वभावे आत्मानुं भवन-परिणमन थाय ते धर्म छे. अहीं कह्युं ने के-जीवादि पदार्थोना श्रद्धानस्वभावे आत्मानुं थवुं-परिणमवुं ते समकित छे. भगवान आत्मा अनंत ज्ञान अने आनंदनो सागर छे. तेना श्रद्धानपणे जे अंतरमां तद्रूप परिणमन थाय ते समकित छे. अहाहा...! हुं सदाय वीतरागस्वरूप ज छुं, आ जे पर्यायमां राग छे ए तो आगंतुक छे; महेमाननी जेम ते आवे ने जाय, ए कांई मारी चीज नथी; आवो जे प्रतीतिभाव ते समकित छे. आवुं जे निर्मळ ज्ञान ते सम्यग्ज्ञान छे अने शुद्ध स्वरूपना आश्रये जे रागनो अभाव थवो ते वीतरागी चारित्र छे अने आत्मानुं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमन ते धर्म छे.

आ प्रमाणे देव, गुरु अने धर्म त्रणेय वीतरागस्वरूप ज होय छे. ल्यो, आ भगवाननी वाणी जे बार अंग अने चौदपूर्वना विस्ताररूप छे तेनुं तात्पर्य एक वीतरागता ज छे. ए बधुं विस्तारपूर्वक जे वर्णन छे ते एक समभावने-वीतरागभावने ज प्रसिद्ध करे छे. अहाहा...! भगवान सर्वज्ञदेव परम वीतराग समभावी, निर्ग्रंथ दिगंबर गुरु समभावी अने एमनो प्ररूपेलो धर्म पण वीतराग-समभावरूप ज छे. वीतराग कहो के समभाव कहो, बन्ने एक ज छे. आ पुण्य-पापना जे भाव छे ते विषमभाव छे अने एनाथी रहित जे चैतन्यना निर्मळ परिणाम छे ते समभाव छे, वीतरागभाव छे अने ते धर्म छे. अहा! वीतरागनो धर्म बहु झीणो छे बापु! अरे! अत्यारे लोकोए तेमां फेरफार करी नाख्यो छे!

धर्मना यथार्थ स्वरूपने समज्या विना मंद कषायना परिणाम करी करीने जीव

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अनंतकाळथी दुःखनो भार भरी-भरीने मरी रह्यो छे. उपवास करे, प्रोषध करे, प्रतिक्रमण वगेरे करे अने माने के अमे धर्म करीए छीए, पण भाई! एमां तो धूळेय धर्म नथी, सांभळने. ए तो बधो राग छे अने जे तुं एम माने छे के-आ राग करुं छुं ते धर्म छे अने कर्तव्य छे ए मान्यता मिथ्यादर्शन छे. बहु गंभीर वात छे प्रभु! भगवान जैन परमेश्वर तो व्यवहारथी पण जैन एने कहे छे जेने, देव वीतरागी, गुरु निर्ग्रंथ वीतरागी अने एमनो प्ररूपेलो धर्म पण वीतरागी ज होय एवुं वास्तविक श्रद्धान छे. अंतरंग जैनपणुं तो कोई अलौकिक चीज छे भाई! ए वाडानी चीज नथी. समजाणुं कांई...?

शुभाशुभरागथी रहित भगवान आत्मा एकलो शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप छे. एनुं पोताना श्रद्धानस्वभावे जे निर्मळ वीतरागी परिणमन थाय ते सम्यग्दर्शन छे. जीवादि पदार्थोनुं जे भेदरूप श्रद्धान ते सम्यग्दर्शन नहि. ए तो राग छे. सम्यग्दर्शन तो शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्माना अंतरंग श्रद्धानना रागरहित परिणमनरूप छे. हवे आवी खबर न मळे अने अनेक प्रकारे क्रियाकांडनी धमाल करे अने माने के पाप धोवाई गयां तो कहीए छीए के धूळेय पाप धोवायां नथी. ए क्रियाकांडमां आत्मा कयां छे, धर्म कयां छे के पाप धोवाय?

भाई! सम्यग्दर्शन कोई अपूर्व अने अलौकिक चीज छे. धर्मी जीव एम विचारे छे के- आ शरीर, मन, वाणी, कर्म इत्यादि अजीव छे अने आ पुण्य-पापना जे भाव छे ते आस्रव छे, बंध छे. अने ए सर्वथी जुदो पोते जीव ज्ञायकतत्त्व छे. ए पुण्य-पाप आदि सर्वथी लक्ष छोडीने भगवान ज्ञायकना श्रद्धानपणे थवुं-परिणमवुं ते सम्यग्दर्शन छे. अहाहा...! जे ज्ञायकनी अनुभूतिना परिणाम थतां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे, अने आत्मा आनंदनुं धाम प्रभु आवो ज छे एवो प्रतीतिनो भाव ऊपजे ते सम्यग्दर्शन छे. आ धर्मनुं पहेलुं पगथियुं छे. आवा सम्यग्दर्शन विना ज्ञान पण साचुं नहि अने चारित्र पण साचुं नहि. अरे! आ व्रत, तप, शील, संयम इत्यादि तो एकडा विनानां मीडां छे.

प्रश्नः– हा; पण ए (-व्रतादि) वडे परंपरा तो धर्म थशे ने?

उत्तरः– अरे भाई! सम्यग्दर्शननुं जे बाह्य निमित्त देव अने गुरु ते वीतरागी ज होय एवी य हजु जेने खबर नथी ते मिथ्याद्रष्टिना क्रियाकांडमां परंपरा धर्म केवो? भाई! शुभरागनी क्रियाने जे परंपराए धर्म कह्यो छे ए तो आरोप आपीने कह्यो छे अने ए आरोप तो समकितीनी बाह्य क्रियामां लागु पडे छे. (मिथ्याद्रष्टिने ज्यां धर्मपरिणति ज नथी त्यां कोनो आरोप करवो?). मार्ग बहु आकरो छे भाई! पण शुं थाय?


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जन्म-मरण रहित थवानो भगवान जिनवरदेवनो मार्ग एकलो वीतरागतारूप छे. सम्यग्दर्शन ए आत्मानी प्रतीतिरूप वीतरागी पर्याय छे.

प्रश्नः– तो ‘सराग समकित’-एम आवे छे ने?

उत्तरः– समकित तो सराग नथी; जे प्रतीतिरूप परिणमन छे ए तो शुद्ध वीतराग ज छे. परंतु धर्मीने सहकारी चारित्रना दोषरूप जे सरागता होय छे तेनो आरोप आपीने सराग समकित एम उपचारथी कहेवामां आवे छे.

आत्मा शुद्ध चिदानंदकंद प्रभु सदा वीतरागस्वभावी छे. तेना श्रद्धानरूप जे भवन- परिणमन ते समकित छे. ते वीतरागी पर्याय छे. आ चोथा गुणस्थाने जे समकित प्रगट थाय छे एनी वात छे. अत्यारे तो चीज आखी जाणे दुर्लभ थई पडी छे! श्रावकना पांचमा अने मुनिना छट्ठा गुणस्थाननी वीतरागतानी (-चारित्रनी) तो कोई ओर वात छे. आ वाडाना जे श्रावक ते श्रावक नहि, ए तो श्रावक छे ज नहि. आ तो साचा समकिती श्रावकनी वात छे. हजी समकितना स्वरूपनीय खबर न होय ते वळी श्रावक केवो? वळी पांच महाव्रत पाळे, समिति, गुप्ति पाळे, २८ मूलगुण पाळे माटे साधु-एम जैनदर्शनमां एने साधु कह्या नथी, केमके ए बधो राग-विकल्प छे. आ तो रागरहित शुद्ध चैतन्यस्वरूपना आश्रये त्रण कषायना अभावपूर्वक जे वीतरागता प्रगट थाय ते साधुपणुं छे, धर्म छे.

‘जीवादिनुं श्रद्धान समकित’-एम जे कह्युं त्यां आ (एकेन्द्रियादि) जीव छे अने आ (घटपटादि) अजीव छे एवी श्रद्धानी वात नथी. परंतु जीव ज्ञायकभावे- वीतरागस्वभावे छे अने रागस्वभावे-कर्मस्वभावे नथी एवी स्वभाव-विभावनी भिन्नताना श्रद्धानरूप जे वीतरागी परिणति थवी ते समकित छे. ‘श्रद्धानस्वभावे ज्ञाननुं थवुं’-एम छे ने टीकामां? त्यां ज्ञान एटले आत्मा; ज्ञान केम लीधुं? के ओलो राग नहि; रागनो अभाव सूचववो छे. व्रतादिनो राग जे विभाव छे, विकार छे तेनाथी रहित ज्ञाननुं थवुं एटले के आत्मानुं परिणमवुं एम वात छे. अहाहा...! वीतरागस्वरूपी आत्मा स्वरूपना श्रद्धानरूप वीतराग परिणतिए परिणमे तेने सम्यग्दर्शन कह्युं छे. बहु सूक्ष्म वात छे भाई!

प्रश्नः– तो कांईक सहेलुं बतावो ने?

उत्तरः– सहेलुं कहो तो सहेलुं अने अघरूं कहो तो अघरूं कार्य करवानुं आ छे. भाई! वेपार-धंधा आदि पापनी मजूरीमां डटया रहेवुं अने पूछो छो के झट समजाई जाय एवुं सहेलुं बतावो तो कहीए छीए के-ए बेय साथे बने एम नथी. समजाणुं कांई...? आ तो फुरसद लईने समजवा जेवी चीज छे.


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अहीं कहे छे के-जीवादि पदार्थोना (नव पदार्थोना) श्रद्धानस्वभावे एटले के जेवो अंदर पोतानो श्रद्धास्वभाव छे तेवा श्रद्धानस्वभावे पर्यायमां आत्मानुं थवुं ते सम्यग्दर्शन छे. अहाहा...! आत्मा पोते सदाय वीतरागस्वरूप ज छे अने एना श्रद्धानरूप जे दशा थाय ते पण वीतरागी पर्याय छे.

हवे कहे छे-‘जीवादि पदार्थोना ज्ञानस्वभावे ज्ञाननुं थवुं-परिणमवुं ते ज्ञान छे.’

जुओ, आ शास्त्रनुं जे ज्ञान छे ते ज्ञान-एम नहि. ए तो परलक्षी ज्ञान छे. अहीं तो आत्माना ज्ञाननुं अंतरमां स्वसंवेदनरूपे, स्वना प्रत्यक्ष ज्ञानपणे थवुं तेने ज्ञान कहे छे. कोईने शास्त्रोनुं झाझुं भणतर होय एटले एने ज्ञान छे एम वात नथी. आ तो सदा ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा पोताना स्वरूपना ज्ञानरूपे थई परिणमे एने ज्ञान कहे छे अने ए वीतरागी पर्याय छे. भाई! त्रिलोकीनाथ वीतराग सर्वज्ञदेवे इन्द्रो अने गणधरोनी वच्चे धर्मसभामां जे प्ररूप्यो छे ते आ मार्ग छे. बाकी बीजा बधा कल्पित मार्ग छे.

जीवादि पदार्थोना ज्ञानस्वभावे ज्ञाननुं एटले आत्मानुं थवुं-परिणमवुं अर्थात् ज्ञाननी पर्यायनुं एक ज्ञायकना लक्षे ज्ञानरूपे परिणमवुं एने सम्यग्ज्ञान कहे छे. एमां पुण्य-पापनी भगवान ज्ञायकमां नास्ति छे एवुं ज्ञान भेगुं आवी जाय छे. अहाहा...! जेमां पुण्य-पापनी नास्ति छे एवा ज्ञायकने जाणनारुं ज्ञायकना लक्षे परिणमनारुं ज्ञान पण पुण्य-पापना भावथी रहित छे. भाई! आ सम्यग्ज्ञाननी जे पर्याय छे ते वीतरागी पर्याय छे. गाथा १७-१८ मां आवी गयुं ने के-ज्ञाननी पर्यायमां ज्ञायक आत्मा ज जणाय छे, पण अज्ञानीनुं ज्ञायक उपर लक्ष-द्रष्टि नथी तेथी तेनुं ज्ञान मिथ्या छे अने ज्ञानीनुं लक्ष-द्रष्टि ज्ञायक उपर छे तेथी तेनुं ज्ञान सम्यग्ज्ञान छे. ज्ञानस्वभावना लक्षे परिणमतुं ज्ञान ते ज्ञान छे.

हवे आवी वात; नवा नवा सांभळवा आव्या होय तेने तो एम लागे के आ शुं कहे छे? शुं जैनमार्ग आवो हशे? एम के चोवियार करवो, कंदमूळ न खावां, पर्व-तिथिए लीलोतरी न खावी, ब्रह्मचर्य पाळवुं अने पोसा-प्रतिक्रमण करवां ए तो बधुं जैनमां सांभळ्‌युं छे पण आ शुं? भगवान! जरा धीरो थईने सांभळ. तुं जे कहे छे ए तो बधी रागनी क्रियानी वातो छे. एमां भगवान आत्मा कयां छे? (नथी). अने जो एमां आत्मा नथी तो ए धर्म केम होय? (न होय).

‘अनुभवप्रकाश’ मां आवे छे के-सांजनी संध्या (लाली) सूर्यने अस्त थवानी निशानी छे अने सवारनी संध्या (लाली) सूर्यनो उदय थवानी निशानी छे. तेम आ शरीर, बायडी-छोकरां, कुटुंब, धनसंपत्ति प्रत्येनो जे राग छे ते आत्मानो अस्त थवानी निशानी छे, अर्थात् ए राग वडे करीने आत्मा अंध बनी चार गतिमां