Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 151-153.

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बे हजार वर्ष पहेलां आ शब्दरूप शास्त्र बन्युं छे; अने एक हजार वर्ष पहेलां एनी टीका थई छे. तेमां भगवान कुंदकुंदाचार्य दिगंबर संत महा मुनिराज मुनि कोने कहीए, मुनिपणुं शुं चीज छे एनी वात करे छे. कहे छे-पुण्य अने पापना विकल्पने मटाडतां-निषेधतां जेमां पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपना अतीन्द्रिय आनंदना रसनो जघन्य-थोडो स्वाद आवे एवो अनुभव ते सम्यग्दर्शन छे. कह्युं छे ने के-

‘रस स्वादत सुख उपजै अनुभव ताको नाम.’

तथा पोताना ज्ञानानंदस्वभावी भगवाननुं (-आत्मानुं) आनंदरसना अनुभवथी युक्त जे प्रचुर स्वसंवेदन छे ते मुनिपणुं छे. मुनिपणामां पोतानी निर्मळ परिणतिने वस्तुस्वभावनुं शरण (-आश्रय) रहेलुं छे. तथा ए निर्मळ पर्याय पण शरण छे.

प्रश्नः– ए बेय शरण केम होय?

उत्तरः– निर्मळ पर्याय भगवान आत्मानुं शरण ग्रहण करे छे ने? तेथी आत्मा शरण छे. तथा राग शरण नथी एम कह्युं त्यां निर्मळ परिणतिनुं शरण छे एम कहेवाय. वास्तवमां तो पर्यायने ध्रुव आत्मा ज शरण छे. समजाणुं कांई...?

गाथा ७१ मां आवी गयुं छे के वस्तुनुं स्वभावरूप परिणमन ए वस्तु छे. भगवान आत्मानो ज्ञान अने आनंदनो स्वभाव छे. एना ए स्वभावरूप परिणमन वस्तु कहेतां आत्मा छे. त्यां कह्युं छे के-‘‘आ जगतमां वस्तु छे ते स्वभावमात्र ज छे, अने ‘स्व’ नुं भवन (-परिणमन थवुं) ते स्वभाव छे.’’ केमके स्वना परिणमनमां स्वभावनुं भान थयुं के वस्तु आवी छे. माटे स्वनुं परिणमन ते स्वभाव छे. ‘‘माटे निश्चयथी ज्ञाननुं थवुं-परिणमवुं ते आत्मा छे.’’ जुओ शुद्धरूपे परिणमवुं ए ज आत्मा छे एम कहे छे. बापु! मार्ग आवो बहु झीणो छे. जन्ममरण रहित तो एक वीतरागभावथी ज थवाय छे. ए वीतरागभाव अपूर्व छे. अरे! जेमने आ सांभळवाय मळतुं नथी ते बिचारा शुं करे?

जेना ज्ञानमां राग आदि जड चीजोनुं भान थाय छे ते जाणवावाळो चैतन्य-महाप्रभु छे. तेनामां जे परनुं ज्ञान थाय छे ते पोतानुं स्वस्वरूप छे; परने जाणनारुं ज्ञान कांई परस्वरूपे थई जतुं नथी. हवे आवुं जे जाणे-समजे नहि ते बिचारा शुं करे? स्वभावथी विरुद्ध पुण्य-पापना भावरूपे परिणमे, क्रोधादिरूपे परिणमे. रागनी रुचि अने निज चैतन्यस्वरूपनी अरुचि ते क्रोध छे. अरेरे! क्रोधादिरूपे परिणमता तेओ चारगतिरूप संसारमां अनंतकाळ रखडे छे. आत्मानुं स्वभावपणे (-ज्ञानपणे) परिणमवुं-थवुं ए आत्मा छे अने ए शरण छे, धर्म छे.

अहीं कहे छे-‘ज्ञानमां (-आत्मामां) लीन थतां सर्व आकुळताथी रहित परमानंद (-परमामृत)नो भोगवटो होय छे.’ आ साचुं मुनिपणुं छे. ‘एनो स्वाद


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ज्ञानी ज जाणे छे.’ अर्थात् आवुं अतीन्द्रिय आनंदनुं-परम अमृतनुं वेदन एक ज्ञानीने ज होय छे. अज्ञानीने एनी खबर नथी एटले मंडी पडे बहारनां व्रत पाळवा, तप करवा, उपवास करवा. पण भाई! ए बधुं आचरण आकुळता अने दुःख छे अने संसारना परिभ्रमणनुं कारण छे.

त्यारे केटलाक कहे छे-सोनगढवाळा निश्चयनी ज वात करे छे, व्यवहार तो कहेता ज नथी; एम के व्यवहारथी निश्चय थाय एम कहेता नथी.

तेमने कहीए छीए के आ २००० वर्ष पहेलां भगवान कुंदकुंदाचार्ये बनावेलुं शास्त्र छे. एमां शुं कह्युं छे? के धर्म एने कहीए के जेमां पुण्य-पापना आचरणनी के आकुळतानी गंधेय नथी. आ तो नास्तिथी वात छे. अस्तिथी शुं छे? के अतीन्द्रिय परम पदार्थ ज्ञानानंद स्वरूप जे पोतानो भगवान आत्मा छे तेमां लीन थयेली पर्यायमां अतीन्द्रिय आनंदनो जे भोगवटो थयो ए मुनिपणुं छे, धर्म छे, चारित्र छे, मोक्षनो मार्ग छे. अहाहा...! जेणे अनुभवमां आत्मा लीधो छे तेने खबर पडे के आ परम आनंदनो-अमृतनो स्वाद शुं छे? बीजा रागी-कषायी जीव शुं जाणे? कह्युं छे ने के-‘खाखरानी खीसकोली साकरनो स्वाद शुं जाणे?’ कषायी जीव कर्मने ज सर्वस्व जाणी, मुख्यपणे व्रत, तप आदि पुण्यभावने सर्वस्व जाणी एमां ज तद्रूप थई रह्यो छे. परंतु तेथी एने कषायनो-झेरनो ज स्वाद आवे छे, ज्ञानानंदनो स्वाद आवतो नथी.

अहाहा...! आत्मा पूर्णानंदनो नाथ प्रभु अतीन्द्रिय आनंदना रसथी भरपूर छे. जेम सक्करकंदने लाल छाल विना जुओ तो ते एकलो साकरनो (-मीठाशनो) पिंड छे तेम भगवान आत्मा शुभाशुभकर्मथी रहित, पुण्य-पापना विकल्पथी रहित परम अतीन्द्रिय आनंदनो पिंड छे. ए आनंदकंदस्वरूपमां चरवुं अने रमवुं अने परम आनंदमय परिणतिनो भोग करवो एनुं नाम धर्म अने मुनिपणुं छे. भाई! संसारथी मुक्त थवानो आ ज उपाय छे. लोकोने कठण पडे एटले राडो पाडे के ‘आ निश्चय छे, निश्चय छे;’ पण भाई! निश्चय छे ए ज सत्य छे, यथार्थ छे अने व्यवहार तो उपचार छे. व्यवहार तो लौकिक कथनमात्र छे. द्रव्यसंग्रहमां आवे छे के- व्यवहार छे ए लौकिक छे अने भगवान आत्मा परमार्थ निश्चय वस्तु छे ते लोकोत्तर छे.

आत्मा चैतन्यमहाप्रभु चिदानंदनी गांठ छे. जेम रत्ननी गठडी होय अने खोले तो रत्न नीकळे तेम ज्ञानानंदरत्ननी गांठ प्रभु आत्माने खोले एटले रागनुं एकत्व छोडीने स्वभावमां एकत्व करे तो ते खुली जतां एमांथी ज्ञान अने आनंद प्रगट थाय छे. आ ज्ञानानंदना स्वादने अज्ञानी जाणतो नथी. दया, दान, भक्ति आदि कषाय-भावमां लीन कषायी जीवो अकषायस्वभावी ज्ञानानंदस्वरूपना स्वादने केम जाणे? जेम


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मरचाना जीव मरचामां घर बनावीने मरचामां रहे छे (मरचामां जेम बाचकां थई जाय छे), तेम अज्ञानी कषायी जीव कषायमां घर बनावीने कषायमां रहे छे. एने आत्मा पोतानुं ज्ञानानंदस्वरूप घर छे एवी कयां खबर छे? ए तो पुण्य-क्रियाओमां (-क्रियाकांडमां) पोतानुं सर्वस्व मानी एमां ज लीन रहे छे तेथी ते ज्ञानानंदनो स्वाद जाणतो नथी.

[प्रवचन नं. २१२ शेष थी २१४ चालु * दिनांक २प-१०-७६ थी २७-१०-७६]

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अथ ज्ञानं मोक्षहेतुं साधयति–

परमट्ठो खलु समओ सुद्धो जो केवली मुणी णाणी।
तम्हि ट्ठिदा सहावे मुणिणो पावंति णिव्वाणं।। १५१ ।।

परमार्थः खलु समयः शुद्धो यः केवली मुनिर्ज्ञानी।
तस्मिन् स्थिताः स्वभावे मुनयः प्राप्नुवन्ति निर्वाणम्।। १५१ ।।

हवे, ज्ञान मोक्षनुं कारण छे एम सिद्ध करे छेः-

परमार्थ छे नक्की, समय छे, शुद्ध, केवळी, मुनि, ज्ञानी छे,
एवा स्वभावे स्थित मुनिओ मोक्षनी प्राप्ति करे. १प१.

गाथार्थः– [खलु] निश्चयथी [यः] जे [परमार्थः] परमार्थ (परम पदार्थ) छे, [समयः] समय छे, [शुद्धः] शुद्ध छे, [केवली] केवळी छे, [मुनिः] मुनि छे, [ज्ञानी] ज्ञानी छे, [तस्मिन् स्वभावे] ते स्वभावमां [स्थिताः] स्थित [मुनयः] मुनिओ [निर्वाणं] निर्वाणने [प्राप्नुवन्ति] पामे छे.

टीकाः– ज्ञान मोक्षनुं कारण छे, केम के ज्ञान शुभाशुभ कर्मोना बंधनुं कारण नहि होवाथी तेने ए रीते मोक्षनुं कारणपणुं बने छे. ते ज्ञान, समस्त कर्म आदि अन्य जातिओथी भिन्न चैतन्य-जातिमात्र परमार्थ (-परम पदार्थ) छे-आत्मा छे. ते (आत्मा) एकीसाथे (युगपद्) एकीभावे (एकत्वपूर्वक) प्रवर्ततां एवां जे ज्ञान अने गमन (परिणमन) ते- स्वरूप होवाथी समय छे, सकळ नयपक्षोथी अमिलित (अमिश्रित) एवा एक ज्ञानस्वरूप होवाथी शुद्ध छे, केवळ चिन्मात्र वस्तुस्वरूप होवाथी केवळी छे, फकत मननमात्र (ज्ञानमात्र) भावस्वरूप होवाथी मुनि छे, पोते ज ज्ञानस्वरूप होवाथी ज्ञानी छे, ‘स्व’ ना भवनमात्रस्वरूप होवाथी स्वभाव छे अथवा स्वतः (पोताथी ज) चैतन्यना *भवनमात्रस्वरूप होवाथी सद्भाव छे (कारण के जे स्वतः होय ते सत्-स्वरूप ज होय). आ प्रमाणे शब्दभेद होवा छतां वस्तुभेद नथी (-नाम जुदां जुदां छे छतां वस्तु एक ज छे).

भावार्थः– मोक्षनुं उपादान तो आत्मा ज छे. वळी परमार्थे आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे; ज्ञान छे ते आत्मा छे अने आत्मा छे ते ज्ञान छे. माटे ज्ञानने ज मोक्षनुं कारण कहेवुं योग्य छे. * भवन= होवुं ते.


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समयसार गाथा १प१ः मथाळुं

हवे, ज्ञान मोक्षनुं कारण छे एम सिद्ध करे छेः-

* गाथा १प१ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञान मोक्षनुं कारण छे, केमके ज्ञान शुभाशुभ कर्मोना बंधनुं कारण नहि होवाथी तेने ए रीते मोक्षनुं कारणपणुं बने छे.’

ज्ञान मोक्षनुं कारण छे एटले शुं? एटले अंदर जे शुद्ध चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा छे एनां ज्ञान-श्रद्धान आदिरूप जे निर्मळ परिणति थाय ते मोक्षनुं कारण छे. अहाहा...! अंदर चिदानंदमय परम पवित्र भगवान पडेलो छे तेमां द्रष्टि अने लीनता करवाथी पर्यायमां जे निर्विकल्प ज्ञान अने आनंदनो स्वाद आवे ते मोक्षनुं कारण छे.

जुओ, सम्यग्दर्शन थया पछी पण धर्मी जीवने भक्ति, पूजा, जात्रा आदिना शुभभाव आवे छे, पण ए सर्व शुभभाव ज्ञानीनी द्रष्टिमां हेय छे. आत्माना आनंदनो स्वाद आव्यो छे एवा धर्मी जीवने उपयोग अंतरमां लीन न रही शके त्यारे अशुभथी बचवा तेने शुभ आवे छे, पण ते शुभाचरणने आदरणीय अने मोक्षनुं कारण जाणतो नथी. (ए तो स्वसन्मुखतानो पुरुषार्थ उग्र करीने क्रमशः शुभने पण टाळतो ज जाय छे). आवी वात छे.

अरे भाई! आवो मनुष्यभव मळ्‌यो अने वीतरागमार्गना संप्रदायमां जन्म थयो त्यारे पण आ मार्ग नहि समजे तो भवनो अभाव केम थशे? (नहि थाय). भवपरंपरा तो तने अनादिथी छे. चाहे नरक हो के स्वर्ग हो, बधाय भव दुःखरूप छे. ज्ञान ज मोक्षनुं (परम सुखनुं) कारण छे; केमके ज्ञान शुभाशुभ कर्मोना (भावना) बंधनुं कारण थतुं नथी. जे शुभाशुभभाव बंधना कारण छे ते ज्ञानमां नथी. तेथी शुद्ध आत्माना अवलंबनथी जे पुण्य- पापरहित निर्मळ शुद्ध परिणति प्रगट थाय छे ए बंधनुं कारण नथी.

जुओ, आ अस्ति-नास्ति कर्युं. ज्ञान मोक्षनुं कारण छे अने ते शुभाशुभ कर्मोना बंधनुं कारण नथी. ज्ञान बंधनुं कारण नथी तेथी तेने ए रीते मोक्षनुं कारणपणुं बने छे. आ भगवान आत्मा जाणवा-देखवाना (ज्ञाता-द्रष्टा) स्वभाववाळो छे. एना ज्ञान-श्रद्धानपणे परिणमन थवुं ए आत्मानुं परिणमन छे अने ए परिणमन मोक्षनुं कारण छे, केमके बंधना कारणथी रहित छे. अर्थात् एमां अंश पण बंधननुं कारण नथी. गंभीर वात छे भाई! बंधभावमां अंशे पण मोक्षमार्ग नहि अने मोक्षमार्गमां बंधनो अंशमात्र पण नहि. शुद्ध चैतन्यस्वभावनां ज्ञान, श्रद्धान अने रमणता ए चैतन्यनी ज्ञानस्वभावरूप परिणति छे अने ते मोक्षनुं कारण छे. केम? तो कहे छे के


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बंधनुं कारण जे शुभाशुभ कर्म तेनो एमां अभाव छे अने तेथी एने (-ज्ञानने) मोक्षनुं कारणपणुं बने छे. आम भगवान ज्ञानानंद स्वभावनां द्रष्टि, ज्ञान अने रमणता ए एक ज मोक्षनुं कारण छे.

तो व्यवहार मोक्षमार्ग पण छे एम आवे छे ने?

एनो खुलासो कर्यो छे ने मोक्षमार्गप्रकाशकमां; के-‘‘मोक्षमार्ग तो बे नथी पण मोक्षमार्गनुं निरूपण बे प्रकारथी छे. ज्यां साचा मोक्षमार्गने मोक्षमार्ग निरूपण कर्यो छे ते निश्चय मोक्षमार्ग छे तथा ज्यां जे मोक्षमार्ग तो नथी पण मोक्षमार्गनुं निमित्त छे वा सहचारी छे तेने उपचारथी मोक्षमार्ग कहीए ते व्यवहार मोक्षमार्ग छे.’’ वळी त्यां कह्युं छे के-‘‘साचुं निरूपण ते निश्चय अने उपचार निरूपण ते व्यवहार. माटे निरूपणनी अपेक्षाए बे प्रकारे मोक्षमार्ग जाणवो, पण एक निश्चय मोक्षमार्ग छे तथा एक व्यवहार मोक्षमार्ग छे एम बे मोक्षमार्ग जाणवा मिथ्या छे.’’ ल्यो, आ वात छे; निश्चय मोक्षमार्ग एक ज मोक्षनुं कारण छे.

हवे कहे छे-‘ते ज्ञान, समस्त कर्म आदि अन्य जातिओथी भिन्न चैतन्य-जाति-मात्र परमार्थ (-परम पदार्थ) छे-आत्मा छे.’

शुं कह्युं? के पुण्य-पापरूप जे समस्त कर्म ते अन्य जाति छे अने एनाथी भिन्न एक चैतन्यजातिमात्र परमार्थ-परम पदार्थ भगवान आत्मा छे. ‘परमट्ठो’ एम पहेलुं पद छे ने! निश्चयथी परमार्थ कहेतां परम पदार्थ परमात्मस्वरूप प्रभु आत्मा छे ते चैतन्यजातिमात्र छे; अने एनुं चैतन्यरूप परिणमन ए मोक्षनुं कारण छे अने ते परमार्थ छे.

अहाहा...! आ निश्चय ए एक ज सत्य छे, व्यवहार असत्य छे. ११ मी गाथामां आव्युं ने के-‘‘व्यवहारो अभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ’’ त्रिकाळी वस्तु, नित्यानंद, चिदानंद, प्रभु, विकारथी रहित, एक समयनी पर्यायथी रहित, भगवान परमानंदनो नाथ परम पदार्थ भूतार्थ छे ते शुद्धनय छे अने ते एकना आश्रये ज सम्यग्दर्शन थाय छे; व्यवहार- अभूतार्थना आश्रये नहि. समजाणुं कांई...?

‘विद्वद्-जनबोधक’मां खूब लीधुं छे के व्यवहार साधक अने निश्चय साध्य; पण ए तो व्यवहारनयथी कथन छे. त्यां पूर्व पर्यायने साधक कही छे, मोक्षनुं कारण कही छे पण ए तो बधुं व्यवहारनयनुं कथन छे. खरेखर तो त्रिकाळी शुद्ध जे द्रव्यस्वभाव ते एकने आश्रये ज मोक्ष थाय छे. छतां पूर्ववर्ती पर्यायने मोक्षनुं कारण कहेवुं ए व्यवहार छे. निश्चय मोक्षमार्गनी पर्यायने मोक्षनुं कारण कहेवुं ए पण व्यवहार छे. मोक्षनुं-मोक्षनी पर्यायनुं वास्तविक परमार्थ कारण तो द्रव्यस्वभाव छे.

तो एम शा माटे कह्युं?


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समाधान एम छे के मोक्ष थवा पहेलां पूर्ववर्ती पर्याय शुं हती ते बताववा सारु पूर्वनी (मोक्षमार्गनी) पर्यायने उत्तर पर्याय (मोक्ष) नुं कारण कहे छे. बाकी पूर्व पर्याय जे व्ययरूप - अभावरूप छे एनाथी मोक्षरूप उत्तरपर्यायनो उत्पादरूप भाव केवी रीते थाय? (न ज थाय). एटले पूर्व पर्याय उत्तर पर्यायनुं खरेखर कारण नथी, पण पूर्व पर्यायनुं ज्ञान कराववा एने व्यवहारथी कारण कहेवामां आवे छे.

अहो! जैनदर्शननी आ कोई अद्भुत स्याद्वाद शैली छे! ‘स्यात्’ एटले कोई अपेक्षाए, ‘वाद’ कहेतां कथन-एम कोईने कोई अपेक्षाए कथन करनारी आ स्याद्वाद शैली परम आश्चर्यकारी अने समाधानकारी छे. भाई! जे नयथी कथन होय एने यथार्थ समजवुं जोइए. शास्त्रना अर्थ करवा माटे पांच बोल आवे छे ने? शब्दार्थ, नयार्थ, आगमार्थ, मतार्थ, अने भावार्थ. शब्दनो अर्थ करवो ते शब्दार्थ, आ व्यवहारनयनुं कथन छे के निश्चयनयनुं ए नक्की करी समजवुं ते नयार्थ, आ आगमनुं वाकय छे एम जाणवुं ते आगमार्थ, आ अन्यमतनो कई रीते निषेध करे छे ए समजवुं ते मतार्थ अने एनुं तात्पर्य शुं छे ए जाणवुं ते भावार्थ. आम पांच रीते वाकयनो अर्थ नक्की करवो ते सूत्र-तात्पर्य, अने शास्त्र-तात्पर्य वीतरागता बताव्युं छे. अनुभव प्रकाशमां आवे छे के-सूत्र तात्पर्य साधक छे अने शास्त्र- तात्पर्य (-वीतरागता) साध्य छे.

शास्त्रनुं तात्पर्य वीतरागता छे; ते साध्य छे अने सूत्रतात्पर्य साधक छे. मतलब के जे गाथासूत्र चालतुं होय तेना अर्थ उपरांत तेमांथी शास्त्रना तात्पर्यरूप वीतरागता काढवी जोईए. ए वीतरागता केम थाय? तो कहे छे-परनी-निमित्त, राग अने पर्यायनी उपेक्षा करीने स्वनी-त्रिकाळ चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मद्रव्यनी अपेक्षा करे त्यारे वीतरागता उत्पन्न थाय छे. निमित्त, राग के पर्यायना लक्षे वीतरागता थती नथी. तेथी स्वनी अपेक्षा अने परनी उपेक्षा जेमां थाय ते शास्त्र-तात्पर्य छे.

हवे आवी वात समजवानो वखत कोने छे? एने एवी निवृत्ति कयां छे? आखो दि वेपार आदि पापना धंधा करे, बे त्रण कलाक बायडी-छोकरां साथे रमतमां जाय, बे कलाक खावामां जाय अने छ-सात कलाक ऊंघमां जाय. हवे आमां एने कयां नवराश मळे? पण आ बधामां आत्मानुं शुं छे भाई? अरेरे! एनुं शुं थशे? आ काळे जो नहि समजे तो के दि समजशे प्रभु! आवो अवसर कयां मळशे? श्री टोडरमलजीए तो कह्युं छे के-‘सब अवसर आ चुका है’-बधो अवसर आवी मळ्‌यो छे. अहा! साची जिनवाणी सांभळवानो योग मळ्‌यो त्यां सुधी तो तुं आवी गयो छो. माटे हे भाई! तुं अंतर्द्रष्टि कर अने ज्यां आ आत्मा भगवान स्वरूपे पोते विराजी रह्यो छे त्यां जो. अहीं जे परम पदार्थ कह्यो ते निश्चयथी सच्चिदानंदस्वरूप पोते परमात्मा छे अने एना अवलंबनथी जे परिणति थाय ए मोक्षनुं कारण छे.


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हवे कहे छे-‘ते (आत्मा) एकीसाथे (युगपद्) एकीभावे (एकत्वपूर्वक) प्रवर्ततां एवां जे ज्ञान अने गमन (परिणमन) ते-स्वरूप होवाथी समय छे.’

आत्मा एक समयमां एकीभावे प्रवर्तमान छे. एकीभावे परिणमे छे एटले एकत्वपणे-ज्ञानपणे परिणमे छे. अर्थात् पुण्य-पापना विकल्पपणे नहि पण शुद्ध चैतन्यनी वीतराग परिणतिए परिणमे ते आत्मा नाम समय छे. आवी वात; हवे बहारनी वातोमां होंश आवे, हरख आवे, लाख-पांच लाख खर्चे, गजरथ चलावे अने घणी हा-हो (विकल्पनी धमाल) करे; तथा दुनिया पण भारे काम, भारे खर्च कर्या एम प्रशंसा करे; पण भाई ए बधी प्रवृत्तिमां तो विकल्पनी रागनी वात छे. ए कांई आत्मानी चीज नथी. अहीं तो कहे छे के ज्ञानना एकत्वपणे परिणमे ते समय छे अने ते ज्ञाननुं जे निर्मळ परिणमन छे ते मोक्षनुं कारण छे.

ज्ञानने समय कहे छे. समय एटले सम्+अय-सम्यक् प्रकारे ज्ञाननुं परिणमन करे, आनंदनुं परिणमन करे अने एकीसाथे एकरूपे प्रवर्तमान अनंतगुणोनुं परिणमन करे ते समय नाम आत्मा छे. ए आत्माना आश्रये पुण्य-पापना विकल्पथी रहित जे निर्मळ वीतरागी परिणति उत्पन्न थाय ते ज्ञान मोक्षनुं कारण छे.

समय एटले सम्+अय. ज्ञाननुं ‘सम्’-एकीसाथे ‘अय’ एटले जाणवुं अने परिणमवुं ते स्वरूप होवाथी ज्ञान समय छे. आ मोक्षमार्गनी दशा (-पर्याय)नी वात छे. अहीं समय एटले द्रव्य नहि, पर्याय समजवी. शुद्ध चैतन्यवस्तु त्रिकाळ छे ते समय छे अने तेना आश्रये ज्ञाननुं ज्ञानपणे जे निर्मळ परिणमन छे ते पण समय छे, अने ते मोक्षनुं कारण छे. तेमां बंधनुं कारण जे शुभाशुभ कर्म ते नथी माटे ते मोक्षनो उपाय छे. आने परम पदार्थ कहेवाय छे. आत्मा पोते परम पदार्थ परमात्मा छे अने एनुं ज्ञानरूप परिणमन जे मोक्षना उपायभूत छे ते पण परम पदार्थ छे. शुभाशुभ भाव परम पदार्थ नथी. ल्यो ‘परमट्ठो’ पहेलो बोल, अने ‘समओ’ बीजो बोल थयो. हवे ‘शुद्धो’ त्रीजो बोलः-

‘सकळ नयपक्षोथी अमिलित (अमिश्रित) एवा एक ज्ञानस्वरूप होवाथी शुद्ध छे.’

अहीं सकळ नयपक्षथी रहित-एवी शुद्धनी व्याख्या छे. ‘अहमिक्को खलु सुद्धो’ एम कह्युं छे ने? (गाथा ३८ अने ७३ मां). त्यां शुद्धनी बीजी व्याख्या छे. ‘शुद्ध’ शब्दना घणा अर्थ थाय छे. जे स्थाने जे योग्य होय ते समजवो. एकरूपने शुद्ध कहेवाय अने शुद्धने एकरूप कहेवाय. अहीं सकल नयपक्षोथी अमिलित एटले के हुं अबंध छुं, मुक्त छुं, एक छुं-इत्यादि नयपक्षना विकल्पथी नहि मळेलो एवो एक ज्ञानस्वरूप होवाथी शुद्ध छे एम कहेवुं छे. जेमां शुभाशुभभावनुं वेदन नथी अने


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एकली चैतन्यजातिनुं निर्मळ परिणमन छे तेने अहीं शुद्ध कह्युं छे. ७३ मी गाथामां जे शुद्ध कह्युं त्यां एक समयनी षट्कारकनी परिणतिथी रहित ते शुद्ध एम वात हती. ३८ मी गाथामां शुद्ध कह्युं त्यां नवतत्त्वना व्यवहारिक भावोथी जुदो अखंड, एक ज्ञायकभावपणे शुद्ध एम कह्युं हतुं. अहीं नयपक्षोथी रहित एटले जे स्थूळ दया, दान, व्रतादिना शुभभाव एनाथी तो रहित खरो, पण नयपक्षना जे सूक्ष्म विकल्प एनाथी पण रहित एक ज्ञानस्वरूप होवाथी शुद्ध छे एम वात छे. आ त्रीजो बोल थयो.

हवे चोथो ‘केवळी’नो बोलः-‘केवळ चिन्मात्र वस्तुस्वरूप होवाथी केवळी छे.’

जुओ, आ राग विनानी केवळ वीतराग निर्मळ परिणति ते केवळी एम वात छे. चारित्र पाहुडमां (गाथा ४ मां) अक्षय-अमेय पर्यायनी वात छे. पोते भगवान आत्मा अक्षय अने अमेय एटले अपरिमित बेहद स्वभावयुक्त गंभीर छे. अहाहा...! भगवान आत्मानो एक एक गुणनो बेहद मर्यादा विनानो अगाध स्वभाव छे. आवो जे अनंतगुण मंडित आत्मस्वभाव छे तेनुं एकत्वरूप परिणमन ते केवळी छे. केवळी एटले राग विनानो एकलो, केवळ भाव. आ केवळी भगवाननी वात नथी, पण मोक्षमार्गनी वात छे. मोक्षमार्ग शुभाशुभभावथी रहित (एकलो) केवळ शुद्ध परिणमननो भाव होवाथी केवळी छे एम कह्युं छे. जेने शुभाशुभ रागनो जरीये संग नथी, संबंध नथी एवो केवळ शुद्ध मार्ग ते केवळी छे एम अहीं वात छे. भगवान आत्मा जे केवळ शुद्ध स्वभावमय छे तेना आश्रये उत्पन्न केवळ शुद्ध परिणाम ते केवळी छे.

हवे पांचमो बोल कहे छेः-‘फक्त मननमात्र (ज्ञानमात्र) भावस्वरूप होवाथी मुनि छे.’

ज्ञाननुं स्वभावमां एकाग्रपणुं ए मनन छे. आ विकल्परूप चिंतननी वात नथी. शुद्ध चैतन्यस्वरूपमां एकाग्रता-परिणामनी मग्नता जे छे एने मननमात्र भावरूप मुनि कहे छे. तेने अहीं मोक्षमार्ग वा मोक्षनुं कारण कहे छे. ल्यो, आवुं मुनिपणुं छे जेमां व्रत, तप ने बाह्यक्रिया कयांय छे नहि. आत्मा ज्ञान अने आनंदनो नाथ प्रभु परम पदार्थ छे एमां एकाग्रतारूप मननमात्र भाव जे छे ते मुनि छे; व्रत, तपना विकल्प ते मुनि नहि. अहीं अंतर एकाग्रतारूप जे मोक्षमार्ग छे तेने मुनि कह्यो छे. समजाणुं कांई...? फक्त मननमात्र कह्युं एटले त्रिकाळी ज्ञानस्वभावमां एकाग्रतामात्र होवाथी मुनि छे एम वात छे.

वाडामां पकडाई गया होय (अने क्रियामां सपडाई गया होय) एटले एम लागे के आ शुं कहे छे? भाई! आ अंतरनी अगम्य वात छे. बापु! व्रत, तप, शील


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वगेरे करी शकाय अने स्थूळपणे ख्यालमां आवे एटले ते सुगम लागे, पण भाई! ए बंधनां कारण छे. अहीं फक्त मननमात्र कह्युं ते भगवान शुद्ध चैतन्यमय आत्मामां मनन-एकाग्रतानी वात छे, कांई व्रत, तप, शील, दया, दान आदि शुभरागमां एकाग्रतानी-मनननी वात नथी. बहु झीणो मार्ग बापु! एनी हा पाडवी ए पण महा पुरुषार्थ छे. भाई! मार्ग तो आ छे. एने पहोंची वळी शकाय नहि एटले एमां फेरफार करवो, बीजी रीते मानवुं-मनाववुं ए कांई वीतरागनो मार्ग छे? (नथी).

भगवान आत्मा शुद्ध छे. एना अनंत गुणो शुद्ध छे. आवा अनंत गुणोनो धरनारो एक चैतन्य महाप्रभु एकनुं ज मनन वा ते एकनी ज एकाग्रता ते मुनि छे. जुओ, आ मुनि अने आ मोक्षमार्ग कह्यो. पण पंचमहाव्रत पाळे अने नग्न रहे माटे मुनि एम नथी कह्युं. सूक्ष्म वात छे भाई! एकलुं त्रिकाळ, नित्य, निरावरण, अखंड, एक, शुद्ध पारिणामिकभाव लक्षण जे निज परमात्मद्रव्य तेनुं मनन अर्थात् तेमां ज्ञाननुं एकाग्र थवुं ते मुनि छे. आ मननमात्र भावस्वरूप मुनिनी व्याख्या छे. तेने मुनि कहीए, शुद्ध कहीए, परमार्थ कहीए, केवळी कहीए वा समय कहीए ए बधुं एक ज छे.

हवे छट्ठो बोलः-‘पोते ज ज्ञानस्वरूप होवाथी ज्ञानी छे.’

ल्यो, ज्ञाननी प्रगटता माटे पोते ज ज्ञानस्वरूप छे. पोतानुं त्रिकाळ ज्ञानस्वरूप जे छे एमांथी ज ज्ञाननी परिणति आवे छे; एने कोई अन्यनी सहाय के मददनी अपेक्षा-जरूर नथी. एनी पर्याय-परिणति आत्मसन्मुख-स्वसन्मुख होतां ज शुद्ध छे, ज्ञानी छे.

पोते ज ज्ञानस्वरूप होवाथी ज्ञानी छे. अहीं शास्त्रोनुं घणुं ज्ञान-भणतर होय माटे ज्ञानी छे एम नहि पण एनी परिणति ज ज्ञानस्वरूप होवाथी ज्ञानी छे. जेम वस्तु त्रिकाळ ज्ञानस्वरूप, आनंदस्वरूप छे तेम एनी परिणति, एनी व्यक्ततानो अंश पण ज्ञानस्वरूप छे अने तेथी ज्ञानी छे. अहीं व्यक्त अंश जे पर्याय ते ज्ञानमय छे पण रागमय के विकल्पमय नथी तेथी ज्ञानी छे एम कह्युं छे. अहो! गाथाए गाथाए अने शब्दे शब्दे केटकेटला भाव भर्या छे. आ समयसार तो जगतनुं अजोड चक्षु छे!

कहे छे-एक समयमां केवळज्ञान अने अनंत आनंदनी लब्धि प्रगट करी शके एवा अनंत सामर्थ्यवाळो तुं भगवान छो. बापु! तुं एने अल्प अने अधूरो केम माने छे? एनुं जे परिपूर्ण ज्ञान अने आनंदनुं स्वरूप छे तेनी तद्रूप परिणति थतां ते ज्ञानी छे. ज्ञानी एटले बहारनुं खूब जाणे अने शास्त्रो घणां भण्यो होय


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एम नहि, पण ज्ञानस्वरूपमां मग्न-लीन जे मोक्षमार्गरूप परिणति छे ते ज्ञानी छे. मोक्षमार्गनी परिणति ज्ञानस्वरूप-स्वस्वरूप होवाथी तेने ज्ञानी कहे छे.

हवे सातमो बोल कहे छे-‘स्वना भवनमात्रस्वरूप होवाथी स्वभाव छे. स्वभाव केम कह्यो? तो कहे छे-शुद्ध परिणति स्वना भवनमात्र छे; एटले चैतन्यना भवनरूप छे पण रागना भवनरूप नथी. राग तो पर छे; रागनुं भवन एमां छे नहि. भाई! आ तारा हितनी वात छे. एकान्त छे, एकान्त छे एम कहीने एने काढी न नाख. भाई! आ समजवानो अत्यारे अवसर छे.

जुओने! जुवान जोध होय तेने पण जोतजोतामां आयुष्य पुरुं थये समयमात्रमां देह छूटी जाय छे. देहनी स्थिति केटली? हमणां अमे नीरोगी छीए, अमने कयांय नखमां पण रोग नथी एम तुं माने छे पण भाई! एने फरवाने केटली वार? मात्र एक समय. अने सम्यग्दर्शन थवामां पण एक समय. देह छूटवामां जेम एक समय तेम समकित थवामां पण एक समय छे. आ देह छोडीने भाई! बीजे समये कयां जईश? तारा स्वभावमात्र जे (परिणाम) छे ते प्रगट कर्यो हशे तो ज्यां जईश त्यां तुं स्वभावमां ज छे. श्रीमद्ने कोईए एकवार पूछयुं हतुं के श्रीकृष्ण हमणां कयां छे? तो श्रीमदे कह्युं-ए आत्माना स्वभावमां छे. ते एम जाणे के कोई गतिमां छे एम कहेशे; पण भाई! समकिती पुरुष ज्यां होय त्यां स्वभावमां ज छे, कोई गतिमां छे एम परमार्थे छे ज नहि. ए तो आनंद अने ज्ञानना- स्वरूपना परिणमनमां छे, जे विकल्प आवे एमां ए नथी.

कोई समकिती नरकमां होय अने त्यां दुःख थाय, अणगमानो भाव आवे, छतां ते एमां नथी. ए तो स्वना भवनमात्र जे स्वभावभाव चैतन्यभाव छे एमां ज छे. समयसार कळशटीका (कळश ३१) मां आवे छे के-‘‘मिथ्यात्वपरिणतिनो त्याग थतां, शुद्ध स्वरूपनो अनुभव थतां, साक्षात् रत्नत्रय घटे छे.’’ समकितीने थोडो पण स्वरूपस्थिरतानो अंश चोथे गुणस्थाने आवे छे. मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी कषाय मटतां ते निज घरमां थोडो स्थिर थयो ए अपेक्षाथी समकिती पण स्वभावमात्र छे.

‘तम्हा ट्ठिदा सहावे’–एटले स्वना भवनमात्र होवाथी स्वभाव छे एम एक अर्थ कर्यो. एनो बीजो अर्थ हवे कहे छे के-‘स्वतः (पोताथी ज) चैतन्यना भवनमात्रस्वरूप होवाथी सद्भाव छे.’ पर्यायमां रागना होवानो अभाव अने चैतन्यना होवानो सद्भाव ए सद्भाव छे. जेवो स्वभाव छे तेवुं थवुं एनुं नाम सद्भाव छे; कारण के जे स्वतः होय ते सत्स्वरूप ज होय. जेवुं स्वतः स्वरूप त्रिकाळी छे एवो ज एनो चैतन्यपरिणाम-मोक्षनो मार्ग पण स्वतः होवाथी सद्भाव छे. एने कोई व्यवहारनी के निमित्तनी अपेक्षा नथी. आवी वात छे. हवे कहे छे-


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‘आ प्रमाणे शब्दभेद होवा छतां वस्तुभेद नथी.’ नाम जुदां जुदां छे पण वस्तु एक ज छे. शब्दभेद सात बोलथी कह्या, अने एना आठ अर्थ कर्या पण मोक्षमार्गनी परिणति तो एक ज प्रकारनी छे; वस्तुभेद नथी, वस्तु एक ज छे, मोक्षमार्ग एक ज छे.

* गाथा १प१ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘मोक्षनुं उपादान तो आत्मा ज छे.’

मोक्षनुं मूळ उपादान, शुद्ध उपादान आत्मा ज छे.

‘वळी परमार्थे आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे. ज्ञान छे ते आत्मा छे अने आत्मा छे ते ज्ञान छे.’

आत्माना बधा गुणोमां ज्ञानगुणनी आ विशेषता छे के ज्ञान पोते पोताने जाणे अने परने पण जाणे छे. विकल्प-राग विना मात्र जाणे एवो एनो स्वभाव छे. तथा विकल्पपूर्वक (-भेद पाडीने) जाणे एवो पण एनो स्वभाव छे. स्व-परने भेद पाडीने जाणवुं एवो आत्मानो स्वभाव छे. आम ज्ञानस्वभावी आत्मा होवाथी ज्ञान छे ते आत्मा छे अने आत्मा छे ते ज्ञान छे-(एम अभेदथी वात छे).

‘‘माटे ज्ञानने ज मोक्षनुं कारण कहेवुं योग्य छे.’ अहाहा...! ज्ञान आत्मानो स्वभाव छे अने तेनुं परिणमन ए ज मोक्षनुं कारण छे. मोक्षनुं कारण छे ते ज्ञाननुं ज परिणमन छे, रागनुं नहि; समजाणुं कांई...?

[प्रवचन नं. २१४ शेष, २१प * दिनांक २७-१०-७६]

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अथ ज्ञानं विधापयति–

परमट्ठम्हि दु अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेदि।
तं सव्वं बालतवं बालवदं बेंति सव्वण्हू।। १५२ ।।
परमार्थे त्वस्थितः यः करोति तपो व्रतं च धारयति।
तत्सर्वं बालतपो बालव्रतं ब्रुवन्ति सर्वज्ञः।। १५२ ।।

हवे, आगममां पण ज्ञानने ज मोक्षनुं कारण कह्युं छे एम बतावे छेः-

परमार्थमां अणस्थित जे तपने करे, व्रतने घरे,
सघळुंय ते तप बाळ ने व्रत बाळ सर्वज्ञो कहे. १प२.

गाथार्थः– [परमार्थे तु] परमार्थमां [अस्थितः] अस्थित [यः] एवो जे जीव [तपः करोति] तप करे छे [च] तथा [व्रतं धारयति] व्रत धारण करे छे, [तत्सर्व] तेनां ते सर्व तप अने व्रतने [सर्वज्ञाः] सर्वज्ञो [बालतपः] बाळतप अने [बालव्रतं] बाळव्रत [ब्रुवन्ति] कहे छे.

टीकाः– आगममां पण ज्ञानने ज मोक्षनुं कारण फरमाव्युं छे (एम सिद्ध थाय छे); कारण के जे जीव परमार्थभूत ज्ञानथी रहित छे तेनां, अज्ञानपूर्वक करवामां आवेलां व्रत, तप आदि कर्मो बंधनां कारण होवाने लीधे ते कर्मोने ‘बाळ’ एवी संज्ञा आपीने निषेध्यां होवाथी ज्ञान ज मोक्षनुं कारण ठरे छे.

भावार्थः– ज्ञान विना करायेलां तप तथा व्रतने सर्वज्ञदेवे बाळतप तथा बाळव्रत (अर्थात् अज्ञानतप तथा अज्ञानव्रत) कह्यां छे, माटे मोक्षनुं कारण ज्ञान ज छे.

* * *

समयसार गाथा १प२ः मथाळुं

हवे, आगममां पण ज्ञानने ज मोक्षनुं कारण कह्युं छे एम बतावे छेः-

* गाथा १प२ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘आगममां पण ज्ञानने ज मोक्षनुं कारण फरमाव्युं छे. (एम सिद्ध थाय छे);...’

जुओ, वीतराग अरिहंतदेवनी दिव्यध्वनिमां जे उपदेश आव्यो ते आगम छे.


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ए दिव्यध्वनिमां-आगममां ज्ञानने ज मोक्षनुं कारण फरमाव्युं छे एम कहे छे. बनारसी विलासमां (शारदाष्टकमां) आवे छे ने के-

‘‘मुख ओंकरधुनि सुनि अर्थ गणधर विचारै,
रचि आगम उपदेश भविक जीव संशय निवारै.’’

भगवाननी ॐध्वनि सांभळीने गणधरदेवोए आगमनी रचना करी छे. अहा! भगवाननी वाणीमां जे आव्युं तेनुं आगममां कथन छे. ए आगममां पण ज्ञानने ज मोक्षनुं कारण फरमाव्युं छे.

कोई एम कहे के-आ व्रत, तप इत्यादि शुभाचरण पण मोक्षनुं कारण छे तो कहे छे- ना; आगममां एम कह्युं नथी. वीतराग परमेश्वर अनंता तीर्थंकरोनी दिव्यध्वनि अनुसार रचायेलां जे आगम छे तेमां तो ज्ञान एटले आत्माने ज मोक्षनुं कारण कह्युं छे. व्रत, तप आदिना रागने मोक्षमार्ग कहे ते वीतरागनां आगम नहि.

एक पंडितनो कोई सामयिकमां मोटो लेख आव्यो छे के-आ व्यवहार व्रत अने तप बधां संवर-निर्जरनां कारण छे. अरे! एने बिचाराने एम (ऊंधुं) बेठुं छे एटले शुं थाय? अहीं तो कहे छे-सत्य एवो आत्मा जेने हाथ आवे (द्रष्टिमां आवे) एने मोक्षनो मार्ग थाय. बाकी रागना परिणाम तो अनंतकाळ थया पण ए वडे हजु मोक्षमार्ग थयो नथी. (थाय पण नहि). आ सत्य वात छे. कोई माने तो माने; सत्ने संख्यानी कयां जरूर छे? घणां माने तो साचुं अने थोडा माने तो साचुं नहि एवी सत्ने संख्यानी अपेक्षा छे नहि. सत् तो त्रणे काळ स्वयं आप मेळे सत् ज छे.

गाथामां पण आव्युं ने के-‘बेंति सव्वण्हू’ सर्वज्ञदेवो आम कहे छे. अहाहा...! वीतराग सर्वज्ञदेवोनी वाणीमां-आगममां ज्ञानने ज एटले शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्माने ज मोक्षनुं कारण फरमाव्युं छे. भाई! कोई पोतानी मति-कल्पनाथी ऊंधा अर्थ काढे अने व्रत-तप आदिना रागने मोक्षनुं कारण कहे तो ते कांई आगमना अर्थ नथी. आगममां तो आ भर्युं छे के-अंदर विकल्पथी पार शुद्ध चिदानंदघनस्वरूप परमात्मतत्त्व छे जेने अहीं ज्ञान शब्द वडे कीधुं छे तेनुं अंतःपरिणमन जे ज्ञान ते ज्ञानने ज मोक्षनो मार्ग कह्यो छे. आ सम्यक् एकान्त छे. मोक्षनो मार्ग कथंचित् ज्ञानथी थाय अने कथंचित् रागथी थाय ए अनेकान्त नथी, ए तो मिथ्या अनेकान्त छे.

अहीं तो ‘ज्ञानने ज’ मोक्षनुं कारण कहीने सम्यक् एकान्त कर्युं छे. मतलब के जे मोक्षनो मार्ग छे ते एक ज छे अने ते स्वभावना आलंबन-एकाग्रतारूप छे. जैन परमेश्वरना आगममां आ आव्युं छे.


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हवे कहे छे-‘ज्ञानने ज मोक्षनुं कारण फरमाव्युं छे; कारण के जे जीव परमार्थभूत ज्ञानथी रहित छे तेनां, अज्ञानपूर्वक करवामां आवेलां व्रत, तप आदि कर्मो बंधनां कारण होवाने लीधे ते कर्मोने ‘‘बाळ’’ एवी संज्ञा आपीने निषेध्यां होवाथी ज्ञान ज मोक्षनुं कारण ठरे छे.’

शुं कहे छे आ? जे जीव परम पदार्थ प्रभु आत्माना ज्ञान-श्रद्धानथी रहित छे तेनां अज्ञानपूर्वक करवामां आवेलां व्रत, तप आदि कर्मो बंधनां कारण छे. तो शुं ज्ञानीनां करवामां आवेलां व्रत, तप आदि कर्मो मोक्षनां कारण छे? ना; एम नथी. आ तो मिथ्याद्रष्टिनां व्रत, तप आदि कर्म अज्ञानपूर्वक होय छे एम वात छे. ज्ञानी तो व्रत, तप आदि कर्मोनो कर्ता थतो ज नथी. तथापि अस्थिरतानो किंचित् जे राग तेने होय छे ते बंधनुं कारण बने छे, मोक्षनुं नहि. कळशटीका कळश ११० मां आवे छे के-‘‘कोई भ्रान्ति करशे के मिथ्याद्रष्टिनुं यतिपणुं क्रियारूप छे ते बंधनुं कारण छे पण सम्यग्द्रष्टिनुं जे शुभक्रियारूप यतिपणुं ते मोक्षनुं कारण छे; कारण के अनुभव-ज्ञान तथा दया-व्रत-तप-संयमरूप क्रिया बन्ने मळीने ज्ञानावरणादि कर्मनो क्षय करे छे. आवी प्रतीति केटलाक अज्ञानी जीवो करे छे. त्यां समाधान आम छे के-जेटली शुभ-अशुभ क्रिया, बहिर्जल्परूप विकल्प अथवा अंतर्जल्परूप अथवा द्रव्योना विचाररूप अथवा शुद्धस्वरूपनो विचार इत्यादि समस्त, कर्मबंधनुं कारण छे. आवी क्रियानो आवो ज स्वभाव छे. सम्यग्द्रष्टि मिथ्याद्रष्टिनो एवो भेद तो कांई नथी; एवा करतूतथी (कृत्यथी) एवो बंध छे, शुद्धस्वरूप परिणमनमात्रथी मोक्ष छे.’

अहाहा...! अंदर सच्चिदानंद प्रभु अनंत-अनंत गुणनो भंडार सदा हाजराहजूर छे. पण तारी नजरमां तुं एने लेतो नथी तो ए तने केम जणाय? एने जाण्या विना, परमार्थभूत ज्ञानथी रहित थई अज्ञानपूर्वक करवामां आवेलां व्रत, तप आदि कर्मो-जडकर्मो नहि, पण रागरूप कार्यो बंधनां कारण छे. अने तेथी तेने बाळव्रत अने बाळतप कहीने सर्वज्ञ परमेश्वरे निषेध्यां छे. तेथी एम ज ठरे छे के ज्ञान ज मोक्षनुं कारण छे. आवी चोकखेचोकखी वात छे छतां लोको गडबड-गोटा करे छे ए मोटुं आश्चर्य छे.

भावार्थः– ज्ञान विना करायेलां तप तथा व्रतने सर्वज्ञदेवे बाळतप तथा बाळव्रत कह्यां छे, माटे मोक्षनुं कारण ज्ञान ज छे. ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्माने कारणपणे ग्रहण करतां पर्यायमां जे ज्ञान-श्रद्धान अने स्थिरता थाय ते एक ज मोक्षनुं कारण छे, बीजुं कोई मोक्षनुं कारण भगवाने कह्युं नथी.

[प्रवचन नं. २१प (शेष) * दिनांक २८-१०-७६]

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अथ ज्ञानाज्ञाने मोक्षबन्धहेतू नियमयति–

वदणियमाणि धरंता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता।
परमट्ठबाहिरा जे णिव्वाणं ते ण विंदंति।। १५३ ।।

व्रतनियमात् धारयन्तः शीलानि तथा तपश्च कुर्वन्तः।
परमार्थबाह्या ये निर्वाणं ते न विन्दन्ति।। १५३ ।।

ज्ञान ज मोक्षनो हेतु छे अने अज्ञान ज बंधनो हेतु छे एवो नियम छे एम हवे कहे छेः-

व्रतनियमने धारे भले, तपशीलने पण आचरे,
परमार्थथी जे बाह्य ते निर्वाणप्राप्ति नहीं करे. १प३.

गाथार्थः– [व्रतनियमान्] व्रत अने नियमो [धारयन्तः] धारण करता होवा छतां [तथा] तेम ज [शीलानि च तपः] शील अने तप [कुर्वन्तः] करता होवा छतां [ये] जेओ [परमार्थबाह्याः] परमार्थथी बाह्य छे (अर्थात् परम पदार्थरूप ज्ञाननुं एटले के ज्ञानस्वरूप आत्मानुं जेमने श्रद्धान नथी) [ते] तेओ [निर्वाण] निर्वाणने [न विन्दन्ति] पामता नथी.

टीकाः– ज्ञान ज मोक्षनो हेतु छे; कारण के तेना (-ज्ञानना) अभावमां, पोते ज अज्ञानरूप थयेला अज्ञानीओने अंतरंगमां व्रत, नियम, शील, तप वगेरे शुभ कर्मोनो सद्भाव (हयाती) होवा छतां मोक्षनो अभाव छे. अज्ञान ज बंधनो हेतु छे; कारण के तेना अभावमां, पोते ज ज्ञानरूप थयेला ज्ञानीओने बाह्य व्रत, नियम, शील, तप वगेरे शुभ कर्मोनो असद्भाव होवा छतां मोक्षनो सद्भाव छे.

भावार्थः– ज्ञानरूप परिणमन ज मोक्षनुं कारण छे अने अज्ञानरूप परिणमन ज बंधनुं कारण छे; व्रत, नियम, शील, तप आदि शुभ भावरूप शुभ कर्मो कांइ मोक्षनां कारण नथी, ज्ञानरूपे परिणमेला ज्ञानीने ते शुभ कर्मो न होवा छतां ते मोक्षने पामे छे; अज्ञानरूपे परिणमेला अज्ञानीने ते शुभकर्मो होवा छतां ते बंधने पामे छे.


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(शिखरिणी)
यदेतद् ज्ञानात्मा ध्रुवमचलमाभाति भवनं
शिवस्यायं हेतुः स्वयमपि यतस्तच्छिव इति।
अतोऽन्यद्बन्धस्य स्वयमपि यतो बन्ध इति तत्
ततो ज्ञानात्मत्वं भवनमनुभूतिर्हि विहितम्।। १०५ ।।

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [यद् एतद् ध्रुवम् अचलम् ज्ञानात्मा भवनम् आभाति] जे आ ज्ञानस्वरूप आत्मा ध्रुवपणे अने अचळपणे ज्ञानस्वरूपे थतो-परिणमतो भासे छे [अयं शिवस्य हेतुः] ते ज मोक्षनो हेतु छे [यतः] कारण के [तत् स्वयम् अपि शिवः इति] ते पोते पण मोक्षस्वरूप छे; [अतः अन्यत्] तेना सिवाय जे अन्य कांई छे [बन्धस्य] ते बंधनो हेतु छे [यतः] कारण के [तत् स्वयम् अपि बन्धः इति] ते पोते पण बंधस्वरूप छे. [ततः] माटे [ज्ञानात्मत्वं भवनम्] ज्ञानस्वरूप थवानुं (-ज्ञानस्वरूप परिणमवानुं) एटले के [अनुभूतिः हि] अनुभूति करवानुं ज [विहितम्] आगममां विधान अर्थात् फरमान छे. १०प.

* * *

समयसार गाथा १प३ः मथाळुं

ज्ञान ज मोक्षनो हेतु छे अने अज्ञान ज बंधनो हेतु छे एवो नियम छे एम हवे कहे छेः-

* गाथा १प३ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञान ज मोक्षनो हेतु छे.’ ज्ञान एटले शुद्ध चैतन्यस्वभावी आत्मा ज मोक्षनो हेतु छे केमके ए पोते मोक्षस्वरूप छे. आत्मा पोते मोक्षस्वरूप छे माटे ते मोक्षनो हेतु छे.

‘कारण के तेना (-ज्ञानना) अभावमां, पोते ज अज्ञानरूप थयेला अज्ञानीओने अंतरंगमां व्रत, नियम, शील, तप वगेरे शुभकर्मोनो सद्भाव (हयाती) होवा छतां मोक्षनो अभाव छे.’

जोयुं? भगवान आत्मा चिदानंदघन प्रभु पोते मोक्षस्वरूप छे अने मोक्षनुं कारण छे एवुं ज्ञान नहि होवाथी अज्ञानीओ पोते ज अज्ञानरूप थया छे. कोई कर्मे अज्ञानरूप कर्या छे वा कर्मने लईने अज्ञानरूप थया छे एम नहि, पण पोताना परमेश्वर चैतन्यघन प्रभु आत्मानुं भान नहि करवाथी पोते ज अज्ञानरूप थया छे. एवा अज्ञानीओने अंतरंगमां व्रतना परिणाम, नियमना अभिग्रहादि भाव, शीलनो


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भाव अने बार प्रकारना तपना भाव इत्यादि शुभकर्मोनो सद्भाव होवा छतां मोक्षनो अभाव छे, केमके ए शुभकर्मो बधां राग छे, बंधनां कारण छे; भगवान आत्मा एक ज अबंधस्वरूप छे. ‘अंतरंग’मां एम जे शब्द कह्यो छे ते व्रतादिमां बहारनी शरीरनी जे क्रिया थाय छे तेना निषेधार्थे कह्यो छे. मतलब के शरीरनी क्रियाओ तो दूर रहो, पण अंदर जे शुभरागनी-व्रतादि क्रियाओ थाय तेनो सद्भाव होवा छतां अज्ञानीओने मोक्षनो अभाव छे.

अहा! अज्ञानीओ व्रत पाळे, ब्रह्मचर्य पाळे, सत्य बोले, चोरी न करे, वस्त्रनो एक धागोय न राखे अने महिना महिनाना उपवास करे, उणोदर, रसपरित्याग, कायकलेश, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान इत्यादि अनेकविध तपना विकल्प करे तोपण तेमने मोक्षनो अभाव छे-एम कहे छे. हमणां ध्याननुं खूब चाल्युं छे ने? ध्यान करो, ध्यान करो एम प्रचार थाय छे. पण कोनुं ध्यान? वस्तुनुं स्वरूप नजरमां आव्या विना शानुं ध्यान करवुं? स्वरूपनी द्रष्टि विना बधुं रागनुं ध्यान छे. राग छे ए कांई ध्यान छे? ए तो आर्त्त- रौद्रध्यान छे. भगवान आत्मानां द्रष्टि, ज्ञान अने अनुभव थया विना व्रत, तप, ध्यान इत्यादिना विकल्प करे पण एथी मोक्ष छे नहि, केमके शुभराग बधोय बंधनुं ज कारण छे.

हवे कहे छे-‘अज्ञान ज बंधनो हेतु छे.’ जुओ, व्रत, तप, भक्ति इत्यादिनो शुभराग- शुभकर्म अज्ञान छे केमके एमां भगवान आत्माना ज्ञानस्वभावनो अभाव छे. ए अज्ञान ज बंधनुं कारण छे.

आ व्रत, नियम, शील, तप इत्यादिना शुभभावने अज्ञानभाव कह्यो छे. बहु आकरी वात, भाई! अत्यारे तो केटलाक माने छे के व्रत, तप इत्यादि मोक्षनुं कारण छे केमके ए करतां करतां निश्चय प्रगटी जशे. परंतु भाई! तारी ए मान्यता वीतरागमार्गथी विरुद्ध छे. ए व्रतादिना विकल्पमां शुद्ध चैतन्यस्वभावनो-ज्ञाताद्रष्टास्वभावनो अभाव छे-तो एनाथी चैतन्यरूप ज्ञानभाव-वीतरागभाव केम प्रगट थाय? (न थाय). चिद्घनस्वरूप प्रभु आत्माना स्वसंवेदनरहित जे कांई व्रतादिनुं वेदन छे ते बधुंय रागनुं वेदन छे अने ए बधो अज्ञानभाव छे. समजाणुं कांई...?

तो बारमा गुणस्थान सुधी अज्ञानभाव तो कह्यो छे?

बारमा गुणस्थान सुधी जे अज्ञानभाव कह्यो छे ए वात जुदी छे. त्यां तो ज्ञाननी ओछप छे, अपूर्ण ज्ञान छे; ज्ञाननी परिपूर्णता थई नथी ए अपेक्षाए अज्ञानभाव कह्यो छे. ज्ञान सम्यग्ज्ञान नथी ए वात त्यां नथी. अहीं तो अज्ञानी जीवनी वात छे. व्रत, तप आदि शुभरागमां चैतन्यना जाणपणाना स्वभावनो अंश नथी


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माटे तेने अज्ञानभाव कह्यो छे. जेनी रुचिमां एकलो राग ज भास्यो छे अने भगवान पूर्णानंदस्वरूपनी जेने द्रष्टि ज नथी ए पहेला गुणस्थानवाळा अज्ञानीनी आ वात छे. ते व्रतादिने मोक्षनुं कारण माने छे ने? तेने कहे छे के भाई! ए व्रतादिनो शुभराग बधो अज्ञानभाव छे.

‘अज्ञान ज बंधनो हेतु छे; कारण के तेना अभावमां, पोते ज ज्ञानरूप थयेला ज्ञानीओने बाह्य व्रत, नियम, शील, तप वगेरे शुभ कर्मोनो असद्भाव होवा छतां मोक्षनो सद्भाव छे.’

‘पोते ज ज्ञानरूप थयेला ज्ञानीओने’ एम कह्युं एनो अर्थ ए छे के ज्ञानीओ पोते ज स्वरूपनी अंतर्द्रष्टि करी ज्ञानरूप थाय छे, कोई राग के निमित्तथी ज्ञानरूप थाय छे एम नथी. ज्ञानीओ पोते ज ज्ञानानंदस्वरूपमां तद्रूप थई ज्ञानरूप थाय (परिणमे) छे. एवा ज्ञानीओने बाह्य व्रत, नियम, शील तप वगेरे शुभ कर्मोना अभावमां पण मोक्षनो सद्भाव होय छे. अहीं ज्ञानीओना प्रसंगमां ‘बाह्य’ व्रतादि कह्यां, पहेलां अज्ञानीओना प्रसंगमां ‘अंतरंग’ व्रतादि कह्यां. एम केम? कारण एम छे के अज्ञानी व्रतादि शुभ कर्मोने ज पोतानुं (अंतरंग) स्वरूप मानीने तेनुं (क्रियाकांडनुं) आचरण करे छे, ज्यारे ज्ञानी ते सर्व शुभकर्मो पोताना स्वरूपथी बाह्य छे एम माने छे. अनाकुळ आनंद अने ज्ञाननो सागर अंदर परमेश्वर स्वरूपे पोते विराजी रह्यो छे तेनुं ज्ञान नहि होवाथी अज्ञानी व्रत, नियम, शील, तप वगेरेने मोक्षनुं कारण जाणी सेवे छे पण ए बधो अज्ञानभाव छे, बंधनुं कारण छे.

हवे आमां अत्यारे लोकोने वांधा पडया छे. एम के अमे व्रत, तप, शील, संयमादि करीए छीए एने तमे अज्ञानभाव अने बंधनुं कारण कहो छो!

शुं थाय बापु? आत्माना आनंदना अनुभव विना मार्ग तो नथी. भगवाननी वाणीमां जे आव्यो ते हितनो मार्ग तो आ ज छे. तने दुःख लागे तो क्षमा करजे भाई! भगवान आत्माना आनंदना वेदन अने अनुभव विना जेटलां व्रत, नियम, शील, तप करे ए बधो शुभराग छे अने ते बधो अज्ञानभाव छे, बंधनुं कारण छे.

त्यारे तेओ कहे छे-आवुं एकान्त करो छो एने बदले अनेकान्त करो. एम के शुभ आचरण करतां करतां पण कोईकने (मोक्षमार्ग) थाय अने कोईकने शुद्धथी (शुद्धोपयोगथी) थाय. आम लोको अनेकान्त कराववा मागे छे पण भाई एवो अनेकान्त छे ज नहि, ए तो मिथ्या अनेकान्त छे.

वस्तुस्थिति ए छे के पोते शिवस्वरूप ज छे. हवे पछी कळश (१०प) मां कहेशे के भगवान आत्मा शिवस्वरूप कहेतां मोक्षस्वरूप अर्थात् मुक्त अबद्धस्वरूप ज छे. १४ मी तथा १प मी गाथामां पण आवी गयुं के आत्मा अबद्धस्पृष्ट एटले


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रागथी नहि बंधायेलो एवो मुक्तस्वरूप ज छे. एना आश्रये जे ज्ञान-श्रद्धान-आनंद प्रगटे ते एक ज मोक्षनुं कारण छे. लोकोए अत्यार सुधी आ सांभळेलुं नहि एटले तेमने नवुं लागे छे, पण भाई! आ नवुं नथी; आ तो अनंत तीर्थंकरो जे थई गया तेमनो कहेलो पुराणो मार्ग छे.

निर्जरा अधिकार, गाथा २१प मां आवे छे के ज्ञानीओने शरीर वगेरेना भोगनो भाव तथा सर्व रागादि वियोगभावे वर्ते छे, केमके ते वियोगस्वरूप ज छे. शरीरादि अने रागादि तारी चीज कयां छे, प्रभु! ए तो संयोगी चीज छे. संयोगी चीज हंमेशां वियोगसहित ज होय छे. भाई! सत्य तो आ छे. एने वादविवाद करीने वींखी-पींखी न नखाय. तारो मार्ग तो प्रभु! असंयोगी एवा तारा परमात्मस्वरूपनां अंतरंगमां श्रद्धान-ज्ञान करीने अंदर ठरवुं ए छे. त्रणकाळ त्रणलोकमां सर्वज्ञदेवोए पोकार करीने आ कह्युं छे. भगवान! तुं एनुं श्रद्धान करीने एनो पक्ष तो कर.

गाथा ६९-७० मां पण आवे छे के शुभाशुभभाव संयोगी भाव छे, स्वभावभाव नथी. जे संयोगे छे ते छूटी जशे. ए (-शुभाशुभभाव) छूटी जशे माटे ए तारा नथी. जे पोतानुं होय ते छूटे नहि, अने जे छूटी जाय ते पोतानुं नहि. भाई! आमां पंडिताईनी कयां जरूर छे? आमां तो पोतानो जे असंयोगी स्वभाव छे एमां रुचिनी जरूर छे. स्वभावनी रुचि महत्त्वनी चीज छे, ज्ञान ओछुं-वत्तुं होय तेनुं कांई महत्त्व नथी.

अहीं शुं कहे छे? के तेना (-अज्ञानना) अभावमां अर्थात् व्रतादि रागनी क्रियाना अभावमां ज्ञानीओने चिदानंदस्वरूप भगवान आत्माना आश्रये प्रगट थयेली ज्ञाननी क्रिया बाह्य व्रतादि शुभकर्मोनो असद्भाव होवा छतां वर्ते छे अने ते मोक्षनुं कारण छे. ज्ञानी व्रतादिना विकल्पथी भिन्न पडीने अंदर ज्ञानानंदस्वरूपमां ठर्यो छे. तेथी व्रतादिना शुभकर्मोथी रहित होवा छतां ते मोक्षमार्गमां स्थित छे. ज्यारे अज्ञानी व्रतादि शुभरागना विकल्पथी भिन्न पडीने अंदर स्वरूपमां ठरतो नथी तेथी एने व्रतादिनो शुभराग होवा छतां ए रागनी क्रियाओ बंधनुं कारण होवाथी, मोक्षमार्गनो अभाव छे.

भगवान आत्मा ज्ञान अने आनंदना अपरिमित स्वभावथी भरेलुं शुद्ध चैतन्यतत्त्व छे. एनुं निर्मळ परिणमन-अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदना स्वादथी युक्त परिणमन मोक्षनुं कारण छे. भगवान ज्ञानस्वभाव तो त्रिकाळ मुक्त ज छे. पण ए मुक्तस्वभावनुं तद्रूप जे परिणमन थाय ते पण अबंध कहेतां बंधना भाव विनानुं छे. ज्ञानीने शुभभाव होय खरो, पण एने जे शुद्धनुं परिणमन छे तेमां शुभनो अभाव छे अने ते शुद्धनुं परिणमन ज एने मोक्षनुं कारण छे. आ प्रमाणे पोते