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एने कांई सुध नथी. जाणे हजी थाक लाग्यो न होय तेम स्वर्गादिने इच्छे छे, भवने इच्छे छे. परंतु भाई! भवमात्र दुःखरूप छे; स्वर्गनो भव होय ते पण दुःखरूप ज छे. तेथी तो योगसारमां कह्युं छे के-
चारे गति दुःखमय छे. नरक दुःखरूप छे, भययोग्य छे अने स्वर्ग सुखरूप छे; डरवा योग्य नथी एम नथी. आमां तो एम कह्युं के भवमात्रथी भय राखीने परभाव - शुभाशुभभाव तजी दे अने एक स्वरूपनो अनुभव कर. भगवान आत्मा स्वरूपथी आनंदनुं निधान छे. एना आनंदना स्वादनी आगळ धर्मीने इन्द्रनां इन्द्रासन पण सडेलां तरणां जेवां तुच्छ अने फीकां लागे छे; समजाणुं कांई...! अहीं कहे छे-आत्मा अरागी ज्ञानी थयो थको ए बन्नेने (शुभ अने अशुभ भावो ने) बूरा-अहितरूप जाणी तेनी साथे राग अने संसर्ग करतो नथी.
‘हाथीने पकडवा हाथणी राखवामां आवे छे; हाथी कामांध थयो थको ते हाथणीरूपी कूटणी साथे राग तथा संसर्ग करे छे तेथी पकडाई जईने पराधीन थईने दुःख भोगवे छे,.. .’
जुओ, हाथीने पकडवा मोटो खाडो करीने एना पर वांस नाखी एने कपडाथी ढांकी दे छे. कामांध-विषयांध हाथी हाथणीनी पाछळ दोडतो दोडतो खाडा सुधी आवे एटले तालीम पामेली हाथणी बाजु पर खसी जाय अने हाथी खाडामां पडी जाय. पछी हाथीने पकडी लेवामां आवे. आ प्रमाणे हाथी हाथणी साथे राग अने संसर्गनी इच्छाथी पकडाई जईने पराधीन थईने दुःख भोगवे छे.
‘अने जो चतुर हाथी होय तो तेनी साथे राग तथा संसर्ग करतो नथी.’ चतुर हाथी हाथणीनां सानुकूळ भाषा, हावभाव के चेष्टाथी ललचातो नथी.
‘तेवी रीते अज्ञानी जीव कर्मप्रकृतिने सारी समजीने तेनी साथे राग तथा संसर्ग करे छे तेथी बंधमां पडी पराधीन थईने संसारनां दुःख भोगवे छे...’
जुओ, भाषामां तो ‘कर्मप्रकृति’ लीधी छे पण एनुं कारण जे भावकर्म तेने पण भेगुं समजी लेवुं. अहा! अज्ञानी शुभाशुभकर्म साथे राग अने संसर्ग करे छे तेथी बंधनमां पडी पराधीन थईने संसारनां दुःख भोगवे छे. कर्मप्रकृति अने भावकर्म शुभ हो के अशुभ हो, बन्ने बंध-स्वभाव ज छे, भलां तो कोई नथी, अबंधस्वरूप तो कोई नथी. छतां अज्ञानी शुभने सारुं जाणी एना प्रेममां पडीने बंधाय छे; मिथ्यात्वथी बंधाईने ते नरक अने निगोदना अकथ्य पारावार दुःखने भोगवे छे.
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‘अने जो ज्ञानी होय तो तेनी साथे राग तथा संसर्ग कदी करतो नथी.’ चाहे तो शुभभाव हो के तेनुं निमित्त द्रव्यकर्मप्रकृति हो, ज्ञानी एनी साथे प्रेम करतो नथी, संसर्ग करतो नथी. वाणी द्वारा पण शुभभाव भलो छे, हितरूप छे एम कहेतो नथी केमके एनी द्रष्टि तो एक शुद्ध चैतन्य उपर ज चोंटेली छे. व्यवहारथी कदाचित् एम कहे के बीजुं कांई (पाप क्रिया) करवा करतां देव-गुरु-शास्त्रनी भक्ति करवी ठीक छे, पण ए तो व्यवहारनी वात थई; निश्चयथी तो ए बेमांथी एकेयने सारो मानतो नथी अने कहेतो पण नथी.
आखो दिवस संसारना काममां-वेपार-धंधा आदिमां अने बायडी-छोकरां साचववामां मशगुल रहे पण एमां कयां आत्मा छे? रागमात्रने बूरो जाणी तेने गौण करी आखो भगवान निर्विकल्प चैतन्यरस, निराकुळ आनंदना रसनो कंद प्रभु आत्मा छे एनी द्रष्टि करवी ते कर्तव्य छे. जुओ, आ धर्मीनुं कर्तव्य छे, राग धर्मीनुं कर्तव्य नथी. हवे आवुं (भेदज्ञान) कठण पडे एटले ओलुं-व्रत करो, भक्ति करो, जात्रा करो, वंदना करो इत्यादि एने सुगम- सहेलुं थई पडयुं छे-(अनादिनी टेव पडेली छे ने). आवे छे ने के-
पण नरक-पशु न थाय एमां दि शुं वळ्यो? शुभभाव होय तो एकाद भव स्वर्गमां जाय, एकाद भव (तीव्र दुःखथी) बची जाय; पण नरक अने निगोदना भव घटया विना, एनो नाश थया विना भवभ्रमण केम मटशे बापु? कोई कहे के-सम्मेदशिखरनी आटली जात्रा करे तो भव घटे. धूळेय न घटे, सांभळने. लाख-क्रोड जात्रा करे शत्रुंजयनी तोय शुं? (अंदर चैतन्यना नाथनी जात्रा न करे तो भव न मटे). एम तो त्रण लोकना नाथ तीर्थंकरदेवना समोसरणमां अनंत वार गयो, अनंतवार साक्षात् दिव्य-ध्वनि सांभळी, मणिरत्नथी भगवाननी पूजा करी, पण एथी शुं? भव तो ऊभो छे; केमके ए तो शुभभाव हतो, धर्म न हतो.
आथी एम न समजवुं के शुभभाव छोडीने अशुभ करवुं. परंतु भाई! तने जे अनादिथी शुभभावनी रुचि छे तेनो त्याग करवो. शुभ-भावमां अमे धर्म करीए छीए एवी मान्यता विपरीत छे, मिथ्यात्वनुं शल्य छे.
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अथोभयं कर्म बन्धहेतुं प्रतिषेध्यं चागमेन साधयति–
एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज।। १५०।।
एषो जिनोपदेशः तस्मात् कर्मसु मा रज्यस्व।। १५०।।
बन्धसाधनमुशन्त्यविशेषात्।
तेन सर्वमपि तत्प्रतिषिद्धं
ज्ञानमेव विहितं शिवहेतुः।। १०३।।
हवे, बन्ने कर्मो बंधनां कारण छे अने निषेधवायोग्य छे एम आगमथी सिद्ध करे छेः-
–ए जिन तणो उपदेश तेथी न राच तुं कर्मो विषे. १प०.
गाथार्थः– [रक्तः जीवः] रागी जीव [कर्म] कर्म [बध्नाति] बांधे छे अने [विरागसम्प्राप्तः] वैराग्यने पामेलो जीव [मुच्यते] कर्मथी छूटे छे- [एषः] आ [जिनोपदेशः] जिनभगवाननो उपदेश छे; [तस्मात्] माटे (हे भव्य जीव!) तुं [कर्मसु] कर्मोमां [मा रज्यस्व] प्रीति-राग न कर.
टीकाः– ‘‘रक्त अर्थात् रागी अवश्य कर्म बांधे अने विरक्त अर्थात् विरागी ज कर्मथी छूटे’’ एवुं जे आ आगमवचन छे ते, सामान्यपणे रागीपणाना निमित्तपणाने लीधे शुभ अने अशुभ बन्ने कर्मने अविशेषपणे बंधनां कारण तरीके सिद्ध करे छे अने तेथी बन्ने कर्मने निषेधे छे.
आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [यद्] कारण के [सर्वविदः] सर्वज्ञदेवो [सर्वम् अपि कर्म] समस्त (शुभ तेम ज अशुभ) कर्मने [अविशेषात्] अविशेषपणे [बन्धसाधनम्] बंधनुं
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प्रवृत्ते नैष्कर्म्ये न खलु मुनयः सन्त्यशरणाः।
तदा ज्ञाने ज्ञानं प्रतिचरितमेषां हि शरणं
स्वयं विन्दन्त्येते परमममृतं तत्र निरताः।। १०४ ।।
साधन (कारण) [उशन्ति] कहे छे [तेन] तेथी (एम सिद्ध थयुं के सर्वज्ञदेवोए) [सर्वम् अपि तत् प्रतिषिद्धं] समस्त कर्मने निषेध्युं छे अने [ज्ञानम् एव शिवहेतुः विहितं] ज्ञानने ज मोक्षनुं कारण फरमाव्युं छे. १०३.
जो समस्त कर्म निषेधवामां आव्युं छे तो पछी मुनिओने शरण कोनुं रह्युं ते हवेना कळशमां कहे छेः-
श्लोकार्थः– [सुकृतदुरिते सर्वस्मिन् कर्माणि किल निषिद्धे] शुभ आचरणरूप कर्म अने अशुभ आचरणरूप कर्म-एवा समस्त कर्मनो निषेध करवामां आवतां अने [नैष्कर्म्ये प्रवृत्ते] ए रीते निष्कर्म अवस्था प्रवर्ततां, [मुनयः खलु अशरणाः न सन्ति] मुनिओ कांई अशरण नथी; [तदा] (कारण के) ज्यारे निष्कर्म अवस्था (निवृत्तिअवस्था) प्रवर्ते छे त्यारे [ज्ञाने प्रतिचरितम् ज्ञानं हि] ज्ञानमां आचरण करतुं-रमण करतुं-परिणमतुं ज्ञान ज [एषां] ते मुनिओने [शरणं] शरण छे; [एते] तेओ [तत्र निरताः] ते ज्ञानमां लीन थया थका [परमम् अमृतं] परम अमृतने [स्वयं] पोते [विन्दन्ति] अनुभवे छे-आस्वादे छे.
भावार्थः– ‘सुकृत के दुष्कृत-बन्नेनो निषेध करवामां आव्यो छे तो पछी मुनिओने कंई पण करवानुं नहि रहेवाथी तेओ मुनिपणुं शाना आश्रये, शा आलंबन वडे पाळी शके?’- एम कोईने शंका थाय तो तेनुं समाधान आचार्यदेवे कर्युं छे केः-सर्व कर्मनो त्याग थये ज्ञाननुं महा शरण छे. ते ज्ञानमां लीन थतां सर्व आकुळता रहित परमानंदनो भोगवटो होय छे-जेनो स्वाद ज्ञानी ज जाणे छे. अज्ञानी कषायी जीव कर्मने ज सर्वस्व जाणी तेमां लीन थई रह्यो छे, ज्ञानानंदनो स्वाद नथी जाणतो. १०४.
हवे बन्ने कर्मो बंधनां कारण छे अने निषेधवायोग्य छे एम आगमथी सिद्ध करे छेः-
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‘‘रक्त अर्थात् रागी अवश्य कर्म बांधे अने विरक्त अर्थात् विरागी ज कर्मथी छूटे’’...
शुं कह्युं आ? के जेने रागनो प्रेम छे, राग साथे एकत्व छे ते रागी छे. अहीं अस्थिरतानो राग होय एनी वात नथी. आ तो जेने रागमां एकताबुद्धि-अहंबुद्धि छे ते रागी छे एम वात छे. ज्ञानीने अस्थिरतानो राग होय छे पण ते रागमां रक्त नथी, रुचिवंत नथी तेथी ते विरागी छे.
आ व्रत, तप, भक्ति इत्यादि करे तथा शास्त्रनी धारणा थवाथी उपदेश दे अने ए बधी शुभरागनी क्रियामां हुं सारुं (-धर्मकार्य) करी रह्यो छुं अने ए वडे मारुं हित थशे एम जे माने ते रागी छे अने ते जरूर कर्म बांधे छे.
आगळनी गाथानी टीकामां ‘अरागी ज्ञानी’ एम शब्द आव्यो छे. मतलब के जे अरागी-विरागी छे ते ज्ञानी छे अने जे रागी छे ते अज्ञानी छे. अज्ञानी रागमां रक्त छे. तेने वीतरागस्वभावी चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा उपर नजर नथी. अहाहा...! जिनपदस्वरूप पोते छे एनो एने स्वीकार नथी. जेने पोतानो (-आत्मानो) स्वीकार नथी ते बीजे कयांक पण पोतानुं अस्तिपणुं तो मानशे ज ने? रागरहित पोताना निर्मळ तत्त्वने जे जोतो नथी ते ‘हुं राग छुं’ एम ज जाणे छे अने माने छे. आवो रागमां रक्त रागी जीव अवश्य कर्म बांधे छे.
सामान्यपणे दशमा गुणस्थान सुधी राग छे ते अपेक्षाए त्यां सुधी जीव रागी कहेवाय छे. पण अहीं ए वात नथी. अहीं तो जेने रागनो प्रेम छे, रागमां स्वामीपणुं छे, धर्मबुद्धि छे तेने राग-रक्त एटले रागी कह्यो छे.
धर्मीने साधकदशामां अस्थिरतानो राग यथासंभव आवे पण त्यां (-रागमां) तेने रुचि-पोसाण नथी. धर्मीने तो पोतानो एक आत्मा ज पोसाय छे. अहीं कहे छे-जेनी द्रष्टि एक शुद्ध चैतन्यवस्तु पोताना आत्माथी बंधाई छे एवो विरक्त अर्थात् विरागी ज कर्मथी छूटे छे. ल्यो, आ जिन भगवाननो उपदेश छे.
कोई बायडी-छोकरां, दुकान-धंधो इत्यादि बहारमां छोडी दे माटे ते वैरागी छे एवो विरक्तनो अर्थ नथी. अहीं तो जेने अंतरमां परनी (-रागनी) रुचि छूटी गई छे अने जेने आनंदनो नाथ वीतरागस्वभावी शुद्ध चैतन्यमय आत्मानी द्रष्टि-रुचि, ज्ञान अने अनुभव थयां छे ए विरक्त एटले विरागी छे; अने ते ज कर्मथी छूटे छे एवुं आगमवचन छे.
जुओ, पाठमां (-मूळ गाथामां) ‘जिनोपदेश’ शब्द छे. तेनो अर्थ अहीं टीकामां ‘आगम-वचन’ लीधो छे. जिनोपदेश अर्थात् जिनवाणी अनुसार आगम
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रचायां छे. तेथी जिनोपदेशनो अर्थ आगमवचन कर्यो छे. ते आगमवचन शुं छे? के रागमां एकतावाळो रागी जीव अवश्य कर्म बांधे छे अने जेने रागनी एकता तूटी गई छे ते विरागी जीव ज कर्मथी मुक्त थाय छे. आ द्रष्टि अपेक्षाए कथन छे. बाकी ज्ञानी विरागी होवा छतां दशमा गुणस्थान सुधी तेने जेटले अंशे राग छे एटला अंशे बंधन छे. अहीं द्रष्टिने प्रधान करीने रागनी रुचि जेने नाश पामी छे एवा ज्ञानीने वर्तमानमां किंचित् पुण्य-पापना भाव होवा छतां विरागी कह्यो छे.
विरागी ज कर्मथी छूटे छे त्यां ‘विरागी’ नो एवो अर्थ नथी के कोई बहारथी वस्त्रादि बधुं छोडी दे, साधु थाय अने पंचमहाव्रत पाळे माटे ते विरागी छे. परंतु जेने अंतरमां रागनी रुचि छूटतां वीतरागस्वभावी शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्माना आनंदनी स्वानुभवदशा प्रगट थाय ते विरागी छे. पुण्य-पापना बन्ने भावथी जे वैराग्य पामे ते विरागी छे अने ते ज कर्मथी छूटे छे. परंतु कोई पापना परिणामथी तो वैराग पामे पण पुण्यपरिणामना प्रेममां रहे तो ते विरागी नथी पण रागी छे अने ते कर्मथी अवश्य बंधाय छे एवुं आगमवचन छे अर्थात् एवुं भगवानना उपदेशमां आव्युं छे.
केटलाक कहे छे-जेओ एकला अशुभ रागमां रच्यापच्या रहे छे तेमने शुभराग करवानुं कहो तो?
तेने कहीए छीए के-भाई! शुभराग ए कयां नवी चीज छे? अनादिथी ते शुभाशुभभाव तो करतो ज आव्यो छे. ए निगोदमां हतो त्यारे पण शुभाशुभभावना परिणाम वाराफरती करतो ज हतो. अरे! आजे निगोदमां एवा जीवो अनंत छे जे कदीय त्रसपणुं नहि पामे; तेमने पण शुभभाव थाय छे. घडीकमां अशुभ अने घडीकमां शुभ एम परिणामनी धारा त्यां निरंतर चाले छे. त्यां दया, दान, पूजा, भक्ति इत्यादि कांई छे नहि पण शुभ अने अशुभ भावो तो त्यां थया ज करे छे. भाई! शुभभाव ए कांई अपूर्व चीज नथी. आत्मभान विना तुं नवमी ग्रैवेयक जाय एवा शुकल लेश्याना शुभभावना परिणाम तने अनंतवार थया छे. पण तेथी शुं?
त्यारे तेओ कहे छे के-ए शुभभावथी पुण्य बंधायुं अने तेथी ते मनुष्य थयो अने तेने धर्म सांभळवा मळ्यो; आ लाभ तो थयो ने?
बापु! एवुं तो अनंतवार सांभळ्युं, पण रागनो प्रेम छूटया वगर तारुं सांभळेलुं बधुं ज निरर्थक गयुं; केमके शास्त्रनुं तात्पर्य तो वीतरागता छे. शास्त्र सांभळीने पण तने रागनी रुचि न छूटी अने स्वभावनी द्रष्टि न थई तेथी तुं शास्त्रनुं तात्पर्य पाम्यो ज नहि. चाहे प्रथमानुयोग हो के करणानुयोग हो, चरणानुयोग हो
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के द्रव्यानुयोग हो; दरेकनुं तात्पर्य वीतरागता छे. ए निमित्तनी उपेक्षा करीने स्वभावनी अपेक्षा करवी ए बधानुं तात्पर्य छे. परंतु स्वभावनी अपेक्षा करी नहि अने खाली वाणी सांभळी एमां तने (-आत्माने) शुं लाभ थयो? कांई नहि. समजाणुं कांई...? भाई! वीतरागनो मार्ग बहु झीणो छे, बापु!
आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप भगवान सदा वीतरागस्वरूप ज छे. वीतरागस्वरूप कहो के अकषायस्वरूप कहो ते एक ज छे. भगवान आत्मामां कषायना विकल्पनी गंध पण कयां छे? भगवान आत्मा तो सदाय अणास्रवी छे, अबंध छे, अनाकुळ छे. अने आ जे पुण्य-पापना भावो छे ए तो बन्नेय आस्रवरूप, बंधरूप अने आकुळतामय दुःखरूप छे. ए पुण्य-पापना भावो मारा छे एम जे माने ते रागी अवश्य कर्मथी बंधाय छे अने जे पुण्य-पापथी रहित शुद्ध चैतन्यमय आत्मानो अनुभव करे छे ते कर्मथी मुक्त थाय छे. आ जिनवचन-आगमवचन छे.
हवे कहे छे-‘एवुं जे आगमवचन छे ते, सामान्यपणे रागीपणाना निमित्तपणाने लीधे शुभ अने अशुभ बन्ने कर्मने अविशेषपणे बंधनां कारण तरीके सिद्ध करे छे अने तेथी बन्ने कर्मने निषेधे छे.’
अहाहा...! शुं कहे छे? शुभकर्म हो के अशुभ हो, एमां जे प्रेम छे एना कारणे अर्थात् रागीपणाना कारणे अविशेषपणे एटले के शुभ भलुं अने अशुभ बूरुं एवो भेद पाडया विना बन्नेने बंधना कारण तरीके सिद्ध करे छे. कोण? आगमवचन अर्थात् भगवान जिनेश्वरदेवनी वाणी. भगवान जिननुं वचन एम सिद्ध करे छे के पुण्य अने पापना बन्ने भाव सामान्यपणे बंधनुं कारण छे. तेथी आगमवचन पुण्य-पापना बन्ने भावनो निषेध करे छे.
प्रश्नः– तो शास्त्रमां पुण्यभावने साधन कह्युं छे ने?
उत्तरः– हा, कह्युं छे; पण ए तो निमित्तनुं के सहचरनुं ज्ञान कराववा त्यां व्यवहारनयथी कह्युं छे. आचार्य जयसेननी टीकामां तथा परमात्मप्रकाशमां व्यवहार-रत्नत्रयथी निश्चय थाय एम आवे छे; परंतु ए व्यवहारनयनुं कथन छे. निश्चयरत्नत्रय जेने प्रगट छे तेने बाह्य व्यवहार-व्यवहाररत्नत्रय केवो होय छे ते बताववा शास्त्रमां एवां कथन आवे छे. (पण ते पुण्यभाव यथार्थ साधन छे एम न समजवुं).
खरेखर तो निश्चयधर्म प्रगट न होय तेने तो बाह्य व्यवहार होतो ज नथी. एकला बाह्य व्यवहारवाळाने तो गाथा ४१३ मां (टीकामां) व्यवहारमूढ कह्यो छे ‘‘तेओ अनादिरूढ व्यवहारमां मूढ वर्तता थका, प्रौढ विवेकवाळा निश्चय पर अनारूढ वर्तता थका, परमार्थसत्य भगवान समयसारने देखता-अनुभवता नथी’’ -एम त्यां कह्युं छे.
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ज्ञानी जे निश्चय पर आरूढ छे ते तेने जे व्यवहार होय छे तेनो मात्र जाणनार छे, कर्ता नथी. अहाहा...! राग विनानुं पोतानुं जे शुद्ध चैतन्यस्वरूप छे तेनुं संचेतन अने अनुभवन करनार ज्ञानी विरागी छे अने तेने जे पर्यायमां राग छे तेने मात्र साक्षीभावे जाणे ज छे, करतो नथी. ज्यारे व्यवहार करवाथी धर्म थाय छे एम माननार व्यवहारमां ज तल्लीन एवो रागी व्यवहारमूढ छे; ते धर्मने पामतो नथी.
अहीं आचार्य कुंदकुंददेव आगमवचनने प्रसिद्ध करीने कहे छे के-‘रागनी रुचिवाळा बंधाय छे अने रागनी अरुचिवाळा विरागी बंधाता नथी.’ हरिगीतमां छे ने के-
आम छतां आगमना वचनने न समजे अने पुण्यथी धर्म थाय, भगवाननां स्मरण, स्तुति, भक्ति, वंदना इत्यादि करतां करतां धर्म थाय एम माने अने निरूपे तेने आगम वचन कयां छे? ए तो स्वच्छंदीनुं वचन छे केमके तेने आगमवचननुं श्रद्धान ज नथी. त्रणलोकना नाथ अरिहंतदेवे तो दिव्यध्वनिमां एम कह्युं छे के शुभ अने अशुभ बन्नेय भाव अविशेषपणे बंधनां कारण छे माटे निषेधवायोग्य छे. भाई! आ तो वीरनो मार्ग छे. ते सांभळीने जेनां काळजां कंपी ऊठे छे एवा कायरनां आमां काम नथी. श्रीमदे कह्युं छे ने के-
वीतरागनां वचनो शान्तरस-वीतरागरसनां प्रेरनारां छे अने ते भवरोगने मटाडनारां महा औषध छे. परंतु शुभभावमां ज रक्त एवा कायरोने ते प्रतिकूळ पडे छे.
शास्त्रमां शुभभावना (एकांत) प्रेमीने वीर्यहीन-नपुंसक कह्यो छे; केमके एने धर्मनी प्रजा पेदा थती नथी. जेम पावैयाने प्रजा न थाय तेम रागना रुचिवाळा नपुंसकोने धर्मनी प्रजा न थाय. आत्मानी ४७ शक्तिओमां एक वीर्यशक्ति कही छे. आत्मस्वरूपनी रचनाना सामर्थ्यरूप वीर्यशक्ति छे. आ वीर्यशक्तिनुं कार्य शुं? के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी निर्मळ पर्यायने रचे ते एनुं कार्य छे. शुभभावनी-रागनी रचना करे ते वीर्यशक्तिनुं कार्य नथी. अशुद्धतानी रचनामां जे वीर्य रोकाई रहे ए तो कायर-नपुंसकपणुं छे. स्वरूपनी रचना छोडीने एकांते रागने रचे ए तो नपुंसकता छे. हुं तो रागनो जाणनारो छुं एम भूलीने जे रागनो करनारो थाय ए हतवीर्य नपुंसक छे. ते बंधना कारणने ज सेवनारो छे अर्थात् तेने बंध ज थशे.
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त्यारे केटलाक कहे छे-वीतरागनी वाणीमां पुण्यभाव बंधनुं कारण छे एम अहीं निश्चयथी कह्युं छे पण बीजे भिन्न साध्य-साधनभाव कह्यो छे के नहि? व्यवहार (-पुण्यभाव) साधन छे एम कह्युं छे के नहि?
बापु! ए साधननो अर्थ शुं? समकितीने स्वरूपनी निर्मळ द्रष्टि छे ते निश्चय (सम्यक्त्व) छे अने साथे देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो जे राग छे तेने निमित्त जाणीने उपचारथी-व्यवहारथी आरोप आपीने समकित कह्युं छे. शुं ए राग खरेखर समकित छे? ना; ए तो चारित्रनो दोष छे. परंतु स्वरूपनां द्रष्टि-ज्ञान-रमणता साथे ते राग सहकारी छे, निमित्त छे एवुं ज्ञान कराववा तेने आरोप आपीने व्यवहारथी समकित कह्युं छे. व्यवहार समकित छे तो बंधनुं कारण पण एने उपचारथी मोक्षनो मार्ग कह्यो छे. पण एनो अर्थ शुं? के ते मोक्षनुं कारण नथी. मोक्षमार्ग प्रकाशक, पानुं २प६ उपर आनो अत्यंत स्पष्ट खुलासो कर्यो छे. त्यां कह्युं छे के-
‘‘जिनमार्गमां कोई ठेकाणे तो निश्चयनयनी मुख्यता सहित व्याख्यान छे तेने तो ‘सत्यार्थ एम ज छे’ एम जाणवुं. तथा कोई ठेकाणे व्यवहारनयनी मुख्यता सहित व्याख्यान छे तेने ‘एम नथी पण निमित्तादिनी अपेक्षाए आ उपचार कर्यो छे’ एम जाणवुं.’’
जरी शरीर ठीक होय, पांच-पचास लाखनी संपत्ति होय, आबरू ठीक होय अने पहोळो-पहोंचतो क्षयोपशम होय त्यां ए बधाना रागमां अने रागनी रुचिमां तुं मरी रह्यो छे भाई! नाथ! तुं अनंत-अनंत ज्ञान, आनंद अने शांतिनो पिंड छे. आवा तारा त्रिकाळी सत्नुं लक्ष नहि होवाथी रागनी रुचिए तने घायल कर्यो छे, मारी नाख्यो छे. जेने रागनी रुचि छे. तेने शुद्ध चैतन्यस्वरूप निज आत्मा प्रति अरुचि-द्वेष छे. श्री आनंदघनजीए कह्युं छे- ‘द्वेष अरोचक भाव.’ जेने परमात्मस्वरूप पूर्णानंदनो नाथ भगवान आत्मा रुचतो नथी अने राग रुचे छे तेने पोताना आत्मा प्रत्ये द्वेष छे. (तेने अनंतानुबंधीनो क्रोध छे). एणे पडखुं फेरव्युं छे ने! स्वभावना पडखे रहेवाने बदले ते रागना पडखे रह्यो छे. तेने अहीं आचार्यदेव कहे छे-भाई! शुभ अने अशुभ बन्ने भाव बंधनां कारण छे अने तेथी भगवाननी वाणी बन्ने कर्मोने निषेधे छे. आवी वात छे.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘यद्’ कारण के ‘सर्वविदः’ सर्वज्ञदेवो ‘सर्वम् अपि कर्म’ समस्त (शुभ तेम ज अशुभ) कर्मने ‘अविशेषात्’ अविशेषपणे ‘बन्धसाधनम्’ बंधनुं साधन (-कारण) कहे छे...
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शुं कह्युं? के दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादिनो शुभभाव होय के हिंसा, जूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इत्यादिनो अशुभभाव होय, बन्नेय भाव विभावभाव छे अने सर्वज्ञदेवोए-जिनभगवंतोए बन्नेनेय अविशेषपणे-बेयमां कांई फेर पाडया विना एकसरखां बंधनां साधन-कारण कहे छे. बेउमांथी एकेय धर्म के धर्मनुं साधन नथी, पण बन्नेय समानपणे ज बंधनां साधन छे.
‘समस्त कर्म’ एम कह्युं छे ने! एटले के शुभ अने अशुभ बन्ने कर्मने सर्वज्ञ भगवाने अविशेषपणे बंधनां कारण कह्यां छे. बंधननी अपेक्षाए बन्ने सरखां छे, बेमां कोई फेर नथी. आवी वात आकरी पडे छे माणसने, केमके व्यवहार करतां करतां निश्चय थशे एम माने छे ने? पण भाई! तारी ए मान्यता सर्वज्ञनी आज्ञाथी बहार छे. व्यवहार करतां निश्चय प्रगटशे ए सर्वज्ञनी आज्ञा नथी. आचार्य अमृतचंद्रदेवे ‘सर्वविदः’ शब्द मूकीने सर्वज्ञदेवनी साक्षी आपी छे. अहाहा...! एक समयमां त्रणकाळ त्रणलोकने जाणनारुं जेनुं अनंतज्ञान छे, जेने अनंत आनंदनुं वेदन छे अने जेनुं अनंतवीर्य स्वरूपनी परिपूर्ण रचना करी रह्युं छे ते सर्वज्ञदेव छे. आवा सर्वज्ञदेव पुण्य-पापना बन्ने भावने अविशेषपणे बंधनां साधन कहे छे. एटले जेम विषय-कषायना भाव बंधनुं कारण छे तेम व्रत, तप, शील, ब्रह्मचर्य इत्यादि शुभभाव पण बंधनुं कारण छे, केमके बन्नेय कर्मचेतना छे.
हवे कहे छे-‘तेन’ तेथी (एम सिद्ध थयुं के सर्वज्ञदेवोए) ‘सर्वम् अपि तत् प्रतिषिद्धं’ समस्त कर्मने निषेध्युं छे अने ‘ज्ञानम् एव शिवहेतुः विहितं’ ज्ञानने ज मोक्षनुं कारण फरमाव्युं छे.
ल्यो, शुं बाकी रह्युं? समस्त कर्मने एटले शुभ अने अशुभरूप सर्व भावोनो सर्वज्ञदेवे निषेध कर्यो छे अने एक ज्ञानने ज मोक्षनुं कारण फरमाव्युं छे. मतलब के पुण्य-पापना विकल्पथी रहित निर्विकल्प शुद्ध चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मानी सेवा-रमणता-लीनता अने एकाग्रता करवानुं फरमाव्युं छे, केमके ते एक ज मोक्षनुं कारण छे.
साधारण प्राणीने न बेसे एटले आचार्यदेवे सर्वज्ञनो आधार आप्यो छे. परंतु अत्यारे घणी बधी गरबड थई गई छे. व्रत करो, तप करो, भक्ति करो, जात्रा करो, उपवास करो इत्यादि; एम करतां करतां मोक्षमार्ग अने मोक्ष थशे एम केटलाक कहे छे. पण भाई! ए बधा शुभभाव छे एने सर्वज्ञ भगवाने बंधनुं कारण कह्युं छे. राग अशुभ हो के शुभ; बन्ने कर्मचेतना छे, विकारी कार्य छे. भगवान! तारो मार्ग तो एक ज्ञानचेतना छे.
‘ज्ञानम् एव विहितं शिवहेतुः’ -एम चोथा पदमां अहीं पूरी चोखवट करी दीधी छे. ज्ञानने ज एटले के ज्ञानस्वरूपी भगवान ज्ञायकने ज मोक्षनो हेतु कह्यो छे.
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कथंचित् ज्ञानथी अने कथंचित् रागथी एम कहो तो?
भाई! कथंचित् ज्ञानथी अने कथंचित् रागथी (मोक्ष थाय) एवो स्याद्वाद वीतरागना शासनमां नथी. अहीं तो कहे छे-प्रभु! तुं ज्ञान छो; तारा ज्ञानस्वरूपमां पुण्य-पापना विकल्पनो अभाव छे. आवा निर्भेळ, निर्विकल्प ज्ञानस्वरूपी आत्मामां एकाग्रता करीने ज्ञानमात्र भावनो अनुभव करवो, चैतन्यरसनो-वीतरागरसनो, शांतरसनो अनुभव करवो ए मोक्षनुं कारण छे. रागनो अनुभव तो आकुळतामय दुःख अने बंधनुं कारण छे, संसारनुं कारण छे. तेथी सर्व रागनो निषेध करीने, भगवान एम कहे छे के तुं ज्ञान अने आनंदना अनुभवना रसनुं सेवन कर. ज्ञानस्वरूपना अनुभवनो रस ए अनाकुळ आनंद अने वीतरागी शान्तिनो रस छे अने ए ज एक मोक्षनुं कारण छे एम सर्वज्ञदेवे फरमाव्युं छे.
हवे आमां ‘व्यवहार साधक अने निश्चय साध्य’ एवा प्रश्नने कयां अवकाश छे? कोई ठेकाणे व्यवहारने साधक कह्यो छे ए तो साधकदशामां साधक (शुद्ध रत्नत्रय) पर्यायनी साथे साथे व्यवहार-शुभराग केवो होय छे तेनुं त्यां ज्ञान कराव्युं छे. अहीं तो आ एक ज वात छे के-‘ज्ञानम् एव विहितं शिवहेतुः’ -भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यस्वरूपमां मशगूल थईने आनंद-केलि करे ए एक ज मोक्षनुं कारण कह्युं छे. अहा! वीतराग सर्वज्ञदेव जैन परमेश्वरनी आज्ञा शुं छे ए लोकोने खबर नथी; शानो निषेध कर्यो छे अने शुं कर्तव्य छे एनी लोकोने खबर नथी!
बधा शास्त्रोमां-चारे अनुयोगमां-प्रथमानुयोग हो के करणानुयोग हो, चरणानुयोग हो के द्रव्यानुयोग हो, ए सर्वमां एक ज्ञान ज मोक्षनुं कारण छे एम फरमाव्युं छे. अहाहा...! शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप भगवान आत्मा छे. एमां ज एकाग्र थई एनां श्रद्धान-ज्ञान अने रमणता प्रगट करवां ए एक ज मोक्षनो मार्ग छे. ज्ञानस्वरूप तो पोते त्रिकाळ छे. वर्तमानमां ए त्रिकाळी ज्ञानस्वरूपमां एकाग्रता करवी एवो ‘ज्ञानमेव’ नो अर्थ छे. समजाणुं कांई...?
‘ज्ञानमेव’ कह्युं ए वर्तमान पर्यायनी-शुद्धरत्नत्रयरूप पर्यायनी वात छे. भगवान आत्मा त्रिकाळी ध्रुव ज्ञानस्वभावी वस्तु छे. तेमां एकाग्रता करवी ए मोक्षनुं कारण छे. अशुभनी जेम शुभने पण भगवाने धर्मना कारण तरीके निषेध्यो छे केमके ए तो बंधनुं ज कारण-साधन छे. अहाहा...! स्वरूपनुं भान कर्या विना एकांते व्यवहारनो शुभराग करतां करतां निश्चय (-धर्म) थई जशे एवी जेने हठ छे ते भारे भ्रमणामां छे.
अरे! शिवपुरीनो राजा शिवभूप भगवान आत्मा रागमां रोकाई गयो छे! अहा! ज्ञान, दर्शन, आनंद, शान्ति इत्यादि अनंतगुणनो भंडार गुणनिधि प्रभु
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पोतानी निधिने भूलीने रागमां रति करे छे! ते रागने पोतानो माने छे, धर्मरूप माने छे. परंतु भाई! राग शुभ हो के अशुभ, बन्ने पर छे, पुद्गलस्वभाव छे, चैतन्यस्वभाव नथी; अने परने पोतानुं माने ए तो चोर छे. बनारसीदासे कह्युं छे के-
रागने-परने पोतानो मानवारूप चोरीना अपराधनी सजा चारगतिनो जेलवास छे भाई!
आवो मार्ग त्रणलोकना नाथ सर्वज्ञदेवे फरमाव्यो छे अने ए ज मार्ग दिगंबर आचार्यो अने मुनिवरोए अहीं प्रसिद्ध कर्यो छे. आचार्यो अने मुनिवरो तो छठ्ठा-सातमा गुणस्थाने दिवसमां हजारो वार आवजा करे छे. तेओने पाछली रात्रे निद्रा पण अत्यंत अल्प होय छे. आवी भावलिंग मुनिदशा छे. तेमने चारित्रदशामां अतीन्द्रिय आनंदनी छापवाळुं प्रचुर स्वसंवेदन होय छे. आवी दशाने भगवाने मोक्षमार्ग कह्यो छे. परंतु पंचमहाव्रतना के व्यवहाररत्नत्रयना रागने मोक्षमार्ग कह्यो नथी. गंभीर वात छे, भाई! कथंचित् ज्ञानथी (- शुद्ध रत्नत्रयथी) अने कथंचित् शुभरागथी (-व्यवहाररत्नत्रयथी) मोक्षमार्ग थाय एम भगवाने कह्युं नथी. ज्ञान ज एक मोक्षनो हेतु कह्यो छे. ज्ञान एटले अहीं त्रिकाळी ज्ञाननी, द्रव्यस्वभावनी वात नथी, पण ए त्रिकाळी द्रव्यस्वभावमां एकाग्रता करतां प्रगट थती शुद्ध रत्नत्रयरूप चैतन्यनी परिणतिने अहीं मोक्षनुं साधन कह्युं छे. ‘ज्ञानमेव’ नो आ अर्थ छे.
प्रश्नः– जो आम छे तो पछी आ बधी धमाल-२प-२६ लाखनां मंदिरो, भगवाननी प्रतिष्ठा, रथयात्रा, गजरथ अने स्वाध्याय-प्रवचनो वगेरेनी शी जरूर छे?
समाधानः– ए सर्व बाह्य वस्तु तो पोतपोताना काळे पोतपोताना कारणे होय छे. मंदिर, प्रतिष्ठा इत्यादि शुं जीव करे छे? ना; जीवने तो ते काळे तेवो शुभराग होय तो पुण्यबंध थाय छे; धर्म नहि. ए शुभराग कांई मोक्षनुं साधन नथी. साधकने पण वच्चे आवो शुभभाव आवे खरो; भक्ति, पूजा, प्रतिष्ठा इत्यादि करवानो ज्ञानीने पण शुभभाव आवे छे, पण ए बंधनुं ज कारण छे, ए कांई धर्मनुं साधन नथी. (उपचारथी एने धर्मसाधन कहे छे ए जुदी वात छे; छे नहि.).
शुभाशुभभाव छे ए तो राग छे, रोग छे, आकुळता छे, बंधनुं कारण छे अने ज्ञान ज एक मोक्षनुं कारण छे. निर्मळानंदनो नाथ शुद्ध सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु भगवान आत्मा त्रिकाळ छे. एमां एकाग्र थतां शुद्ध चैतन्यनी जे निर्मळ परिणति थाय ते ज्ञान ज मोक्षनुं कारण छे एम कह्युं छे. ‘विहितम्’ एम शब्द पडयो छे ने!
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एम के आ ज विधि छे अने आ ज मार्ग कह्यो छे. अहाहा...! आचार्यना शब्दने-कथनने यथार्थ समजे तो न्याल थई जाय एवी वात छे.
मोटां लांबा लांबा पुस्तको-शास्त्रोनी वात करे पण परमार्थ प्रगट न करे तो तेथी शुं? जेनाथी जन्म-मरण न मटे ए चीज गमे तेटली बहारथी ऊंची जणाय तोपण तेनी कांई किंमत नथी. छहढालामां आवे छे ने के-
भाई! नवमी ग्रैवेयक जाय एवा शुकललेश्याना शुभभाव ए पण कलेश ज छे. भगवाने एने बंधनुं ज कारण कह्युं छे. (विचार तो खरो के मोक्ष माटे शुं अनंतवार मुनिव्रत धारण करवां पडतां हशे?) अंदर भगवान आत्मा शिवपुरीनो राजा चैतन्यदेव प्रभु ‘राजते’ एटले अनंतगुणनी समृद्धि वडे शोभी रह्यो छे. जे पोताना चैतन्यमय स्वरूपमां एकाग्र थईने ‘राजते’ एटले शोभे छे ते राजा छे, भूप छे.
पोताना ज्ञान अने आनंद स्वरूपमां एकाग्र थवुं ए ज्ञानचेतना छे, अर्थात् जे शक्तिरूपे ज्ञान त्रिकाळ छे तेने पर्यायमां प्रगट करवुं एनुं नाम ज्ञानचेतना छे अने एने ज भगवाने मोक्षनुं साधन कह्युं छे.
‘जो समस्त कर्म निषेधवामां आव्युं छे तो पछी मुनिओने शरण कोनुं रह्युं?’ भगवान! शुभाशुभभाव बंधनुं कारण छे, शुभभाव पण बंधनुं कारण छे, धर्म नथी एम कहीने आपे तेनो निषेध कर्यो तो हवे मुनिओए पाळवुं शुं? पांच महाव्रत, पांच समिति, त्रण गुप्ति इत्यादि व्यवहारनो आपे बंधनां कारण कहीने निषेध कर्यो; तो पछी मुनिओए पाळवुं शुं? आलंबन-आश्रय कोनो करवो? मुनिओ जेनो आश्रय करे छे तेनो तो आपे निषेध कर्यो तो ए मुनिवरोने शरण शुं रह्युं? शिष्यना आ प्रश्न प्रति समाधान करतो आचार्यदेव कळश कहे छेः-
‘सुकृतदुरिते सर्वस्मिन् कर्मणि किल निषिद्धे’ शुभ आचरणरूप कर्म अने अशुभ आचरणरूप कर्म-एवा समस्त कर्मनो निषेध करवामां आवतां ‘नैष्कर्म्ये प्रवृत्ते’ ए रीते निष्कर्म अवस्था प्रवर्ततां, ‘मुनयः खलु अशरणाः न सन्ति’ मुनिओ कांई अशरण नथी.
जुओ, शुं कहे छे? मुनिवरो शुभाशुभरूप समस्त कर्मनो निषेध करीने निष्कर्म अवस्थामां प्रवृत्त थाय छे. एटले शुं? एटले के तेओ रागना कर्म नाम कार्य
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विनाना ज्ञानचेतनारूप कर्ममां प्रवृत्त थाय छे. शुभाशुभ कर्मरहित निष्कर्म अवस्थाने प्राप्त थईने मुनिवरो शुद्धोपयोगरूप चैतन्यनी निर्मळ अवस्थामां प्रवृत्त थाय छे तेथी तेओ कांई अशरण नथी; अर्थात् तेमने शुद्ध चैतन्यनुं शरण छे. हवे आवी वात समजवी कठण पडे एटले बिचारा जीवो अनंतकाळथी शुभाशुभमां ज मंडी रहेला छे, लागी रहेला छे.
परंतु भाई! शुभाशुभभाव ए कोई अपूर्व चीज नथी. शुभाशुभभाव तो निगोदना जीवने पण थया करे छे. कदी पण त्रस न थया होय एवा अनंता निगोदना जीव पडया छे. एने पण क्षणे शुभ अने क्षणे अशुभ भाव थया करे छे.
आ डुंगळी, लसण, कांदा, सक्करकंद वगेरे कंदमूळनी एक राई जेटली कटकीमां असंख्य औदारिक शरीर छे; अने ए दरेक शरीरमां शक्तिए भगवानस्वरूप एवा चैतन्यस्वभावमय अनंता निगोदना जीव छे. त्यां कोईने देव-गुरु-शास्त्रनो योग नथी अने दानादि पण संभवित नथी. छतां ते दरेक जीवने क्षणे अशुभ अने क्षणे शुभ एवी कर्मधारा निरंतर चालु ज छे. शुभाशुभभाव ए कांई नवी चीज नथी. अरे! ए कोई चीज ज नथी; आत्मा कयां छे एमां?
जेम सक्करकंदमां उपरनी जे लाल छाल होय छे तेनुं लक्ष छोडी दो तो अंदर आखोय छालथी जुदो सक्करकंद नाम साकरनी मीठाशनो पिंड छे. एम भगवान आत्मा, शुभ अने अशुभभावरूप छालनुं लक्ष छोडी दो तो अंदर शुभाशुभभावथी जुदो चैतन्यस्वरूप अतीन्द्रिय आनंदना रसथी भरेलो अमृतनो कंद छे. जेम सक्करकंद मीठाशनो कंद छे तेम भगवान आत्मा चिदानंदकंद छे. हवे शुभाशुभकर्मथी रहित थतां मुनिवरो अशरण छे एम नथी पण तेमने चिदानंदकंदस्वरूप भगवान आत्मानुं शरण होय छे एम अहीं कहे छे.
जुओ, अहीं ‘शुभाचरणरूप कर्म’ एम लीधुं छे. एटले के जड परमाणु जे बंधाय एनी आ वात नथी. अहीं तो ‘सुकृत’ एटले शुभ आचरणरूप दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादिना शुभभाव अने ‘दुरित’ एटले हिंसा, जूठ, चोरी, कुशील, विषयवासना इत्यादिना अशुभभाव-ए बेय भावनो निषेध करीने मुनिवरो निष्कर्म अवस्थारूप प्रवर्ते छे. एटले शुं? एनो अर्थ एम छे के शुभाशुभरागथी निवृत्ति पामीने शुद्धभावमां-शुद्धचैतन्यस्वभावमां प्रवृत्ति करे छे. अहो! आवो वीतरागनो मार्ग परम अद्भुत अने अलौकिक छे! आवो मार्ग बीजे कयांय नथी; बीजा बधा मार्ग अमार्ग छे, विपरीत मार्ग छे. वेदान्त हो के सांख्य हो, वैशेषिक हो के बुद्ध हो, ए कोईए सम्यक् मार्ग जाण्यो ज नथी. आ तो जेणे एक समयमां त्रण काळ-
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त्रण लोकने जोया छे एवा वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरनी वाणी द्वारा प्रगट थयेलो सम्यक् मोक्षमार्ग छे.
जुओ, अशुभ आचरणनी जेम शुभ आचरण पण बंधनुं कारण होवाथी निषेध्युं छे तो पछी मुनिवरो कोनुं शरण ले? शुं प्रवृत्ति करे? तो कहे छे के मुनिवरोने शुभरागरहित निष्कर्म अवस्था थतां तेओ अंदर अतीन्द्रिय आनंदरसथी भरेला अमृतस्वरूप भगवान आत्मामां एकाग्रतारूप-रमवारूप प्रवृत्ति करे छे. ‘निष्कर्म अवस्था प्रवर्ततां’ एम भाषा छे ने? निष्कर्म नाम (शुभाशुभ) कर्मथी निवृत्त एवी अवस्थामां-एटले के शुद्ध चैतन्यमय अरागी परिणतिमां-प्रवृत्त थाय छे. अहाहा...! मुनिवरो पोते शुद्ध चैतन्यघन भगवान अंदर अतीन्द्रिय आनंदरस-वीतरागरस-शांतरसथी भर्यो पडयो छे तेमां प्रवृत्त थाय छे. ल्यो, आ मुनिवरोनुं अंतरंग प्रवर्तन छे अने आ ज मार्ग छे. पंचमहाव्रत अने नग्नपणुं ए कांई मुनिपणुं नथी; ए तो जडरूप बाह्यलिंग छे. समजाणुं कांई...?
आ तो सोनगढनुं छे एम केटलाक कहे छे?
जुओ, आ शास्त्र (-समयसार) सोनगढनुं बनावेलुं नथी पण महा समर्थ मुनिवरनुं बनावेलुं छे. २००० वर्ष पूर्वे भगवान कुंदकुंदाचार्य महान दिगंबराचार्य थई गया एमनुं बनावेलुं आ शास्त्र छे. त्यार बाद एक हजार वर्ष पछी तेनी टीका आचार्य अमृतचंद्रदेवे करी छे. ए मुनिवरो एम कहे छे के-शुभभावथी निवृत्ति थतां शुद्धभावनी प्रवृत्तिनुं मुनिने शरण होय छे अने ए ज (वास्तविक) शरण छे, शुभभाव कांई शरण नथी. ल्यो, आ मुनिनुं कर्म नाम कार्य छे.
अरे! आवो वीतरागनो मार्ग छोडीने जेनुं चित्त पांच इन्द्रियोना विषयोमां-भगवान अने भगवाननी वाणीमां (एना रागमां) रमे छे ते चोर छे. ३१ मी गाथामां साक्षात् अरिहंत भगवान अने भगवाननी वाणीने इन्द्रियना विषयमां गण्या छे. त्यां कह्युं छे के जे कोई आत्मा आ पांच जड इन्द्रियो अने अंदर एक एक खंडखंडरूप भावेन्द्रिय अने इन्द्रियना विषयो-स्त्री, कुटुंब, देश, देव-गुरु-शास्त्र अने एमनी वाणी-ए सर्वने जीतीने एटले के ए सर्वनुं लक्ष छोडी दईने पोताना शुद्ध चैतन्यमय आत्माने अनुभवे छे ते जितेन्द्रिय जिन छे. जुओ, आ चैतन्यनी प्रवृत्तिरूप निष्कर्म प्रवर्तन मुनिने शरण छे.
अहाहा...! कहे छे-‘निष्कर्म अवस्था प्रवर्ततां ‘‘मुनयः खलु अशरणाः न सन्ति’’ मुनिओ कांई अशरण नथी;’ अर्थात् तेमने शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप निज आत्मानुं शरण छे. रागनुं शरण छूटयुं अने भगवान आत्मानुं शरण तेमने प्राप्त थयुं छे. मंदिरमां पूजा वखते चत्तारि शरणं बोले छे ने? अरिहंता शरणं,
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सिद्धा शरणं-एम बोले छे ने? भाई! ए तो बधी व्यवहारनी वातो छे. अहीं तो निश्चय शरण शुं छे एनी वात छे. अरिहंतादिनुं शरण लेवा जतां तो विकल्प ऊठे छे अने ए विकल्प शुभराग छे; अने ए शुभराग बंधनुं कारण होवाथी सर्वज्ञदेवोए निषेध्यो छे.
अनंता जिनभगवंतोए दिव्यध्वनि द्वारा कहेली वात आ छे. भगवान महावीर आदि तीर्थंकरो तो मोक्षमां पधार्या छे अने सिद्धपदे बिराजे छे. पण महाविदेहक्षेत्रमां सीमंधर आदि तीर्थंकरो अत्यारे साक्षात् बिराजे छे. प०० धनुष्यनो देह तथा क्रोड-पूर्वनुं आयुष्य छे, अरिहंतपदे बिराजे छे. तेमनी समोसरणसभामां मुनिवरो, स्वर्गना इन्द्रो, चक्रवर्ती, राजा- महाराजाओ, श्रावक-श्राविकाओ, सिंह, वाघ अने सर्प इत्यादि जीवो वाणी सांभळवा आवे छे. ते वाणीमां भगवान जे कहे छे ते आ छे. महान दिगंबर संत भगवान श्री कुंदकुंदाचार्य त्यां सीमंधरनाथ पासे गया हता, आठ दिवस त्यां रह्या हता. आठ दिवस भगवाननी वाणी छ घडी सवारे, छ घडी बपोरे, छ घडी सांजे छूटे छे ते सांभळी आगळपाछळना वखतमां त्यांना श्रुतकेवळीओ साथे चर्चा-वार्ता करी अहीं भरतमां पाछा आवीने आ शास्त्रो बनाव्यां छे. एमां आ भगवाननो संदेश छे एम कहे छे-
शुं कहे छे? के अशुभ आचरणनी जेम शुभ आचरणरूप कर्मनो निषेध करवामां आवतां मुनिओ कांई अशरण थई जता नथी. आ पंचाचार-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार-ए शुभाचारनो निषेध थई जतां मुनिओ शुं आचरण पाळशे एम अशरण थई जता नथी; परंतु अंदर निर्मळानंदनो नाथ सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मा जे त्रिकाळ बिराजे छे तेना ज्ञानमां आचरण करवुं, तेना श्रद्धानमां आचरण करवुं, एनी स्थिरतामां आचरण करवुं, इच्छा निरोधरूप आनंदमां आचरण करवुं अने वीर्यनी शुद्धतानी रचनामां आचरण करवुं-आ प्रमाणे अतीन्द्रिय आनंदनी रमणतारूप पंचाचार तेओ पाळता होय छे. आवुं निष्कर्म अवस्थारूप स्वरूपनुं आचरण मुनिओने होय छे तेथी तेओ अशरण नथी.
अहाहा...! मुनिदशा-चारित्रनी दशा कोई अलौकिक होय छे! मुनिवरो बहारमां वस्त्रथी रहित अने अंदर रागना विकल्पथी रहित शुद्ध चैतन्यना ध्यानमां मग्न थईने आनंदरूपी अमृतना घूंटडा पीता होय छे. जेम कोई शेरडीनो मीठो रस गटक-गटक घूंटडा भरी-भरीने पीए तेम आ धर्मी पुरुषो अंतरमां अतीन्द्रिय आनंदनो रस गटक-गटक घूंटडा भरीभरीने पीए छे. तेमने एमांथी बहार नीकळवुं गोठतुं नथी. अहो! धन्य ए चारित्रदशा! आ धर्म अने आ चारित्रदशा छे अने एने अहीं निष्कर्म अवस्थामां प्रवर्तन कह्युं छे.
हवे कहे छे-‘तदा’ ज्यारे निष्कर्म अवस्था प्रवर्ते छे त्यारे ‘ज्ञाने प्रतिचरितम्
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ज्ञानम् हि’ ज्ञानमां आचरण करतुं-रमण करतुं-परिणमतुं ज्ञान ज ‘एषां’ ते मुनिओने ‘शरणं’ शरण छे.
ल्यो, आ आचरण अने आ शरण. ज्ञानानंदस्वरूप भगवान आत्मामां चरवुं-रमवुं ते आचरण अने शरण छे. भाई! शुभभावरूप आचरण छे ए तो झेर छे, केमके ते अमृतस्वरूप भगवान आत्माथी विरुद्ध छे अने बंधनुं साधक छे. तेथी मुनिओ शुभाचरणरूप कर्मनो निषेध करीने अंतरमां निर्विकल्प आनंदरूपी अमृतनुं वेदन करे छे. आ ज मुनिनुं साचुं आचरण छे. वात आकरी पडे, पण थाय शुं बापुं? आनी समजण अने एनुं श्रद्धान प्रथम करवुं पडशे, अनुभव तो पछी थशे अने अंदर स्थिरतारूप चारित्रनी वात तो ए पछीनी छे.
अहो! मुनिनी चारित्रदशा-अनुभवनी स्थिरतारूप दशा कोई अलौकिक छे. टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेवे नियमसारमां एक कळशमां (कळश २प३) त्यां सुधी कह्युं छे के-अतीन्द्रिय आनंदमां झूलता-रमता एवा मुनि अने सर्वज्ञ-वीतरागदेवमां जे अंतर-तफावत जुए छे ते जड छे. अहा! आवी वीतरागी आनंदमय चारित्र दशा छे. समयसार नाटकमां बनारसीदासे कह्युं छे के-मुनि जे पोताना (-आत्माना) आनंदमां रमे छे ए एनुं मोक्षमार्गरूप आचरण छे, पण एने जे पंचमहाव्रतादिनो विकल्प ऊठे छे ते जगपंथ छे (संसारमार्ग छे). भाई! चारित्रदशा ए अंतरनी चीज छे.
तो बनारसीदास अने टोडरमल अध्यात्मनी भांग पीने नाच्या हता एम लोको कहे छे ते शुं छे?
लोकोने अध्यात्मतत्त्वनी खबर नथी अने एकला शुभभावमां धर्म छे एम माने छे तेथी तेओ गमे ते कहे. अरे! स्वभावने छोडीने शुभाभावनी लालचमां फसाई रहेला तेओ परिभ्रमणना पंथे छे. अहीं कहे छे-भगवान! तने खबर नथी. तुं शिवनगरीनो राजा अनंतगुणनी खाण प्रभु चैतन्यरत्नाकर छो. एमां एकाग्र थतां एक एक गुणनी अनंत निर्मळ पर्यायो नीकळे एवी तारी चीज छे. आवा अनंत गुण-रत्नोथी भरेलो प्रभु तुं आत्मा छो. हवे बे सरखाईनी बीडी पीवे त्यारे तो भाई साहेबने पायखानामां दस्त उतरे, आवां जेनां अपलक्षण एने कहीए के तुं चैतन्यरत्नाकर छो ते एने गळे केम उतरे? अरे! शुभभावनी आदत पडी गई छे तेने पोते चैतन्यरत्नाकर छे ए केम बेसे?
अहीं कहे छे-भगवान आत्मा चैतन्यना रत्नोनो समुद्र छे. एमां एकाग्र थईने आचरण करतां-रमणता करतां वीतरागी आनंदनो अनुभव करनारा मुनिओने पोताना आत्मानुं शरण छे. अहाहा...! रागनो निषेध करीने अंतरमां डूबी जता
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मुनिवरोने निज शुद्धात्मा ज शरण छे. अरहंता शरणं, सिद्धा शरणं ए तो व्यवहारथी शरण कहेवामात्र छे.
वीतरागनो मार्ग निवृत्ति मार्ग छे. रागथी निवृत्ति थाय छे ने? तथापि शुद्धमां प्रवृत्तिनी अपेक्षाए तेने प्रवृत्तिपणुं पण कहे छे. पोते शुद्ध चिदानंदघनस्वरूप शिवस्वरूप प्रभु शिवपुरीनो राजा छे. एमां आचरण करता थका मुनिओने एक ज्ञान ज शरण छे. ज्ञान एटले शास्त्रज्ञान एम नहि; शास्त्रज्ञान तो भेदरूप विकल्पज्ञान छे. अहीं तो ज्ञानमां (-स्वभावमां) आचरण करतुं, रमण करतुं ज्ञान ज शरण छे एम कह्युं छे. ‘ज्ञानं हि’ एम कह्युं छे ने? जुओ, आ एकांत (सम्यक् एकान्त) कीधुं छे. मतलब के राग शरण नथी. कथंचित् ज्ञान शरण अने कथंचित् राग शरण एम नथी. ज्ञानमां आचरण करतुं ज्ञान ज मुनिओने शरण छे. हवे कहे छेः-
‘एते’ तेओ ‘तत्र निरताः’ ते ज्ञानमां लीन थया थका ‘परमम् अमृतम्’ परम अमृतने ‘स्वयं विन्दन्ति’ पोते अनुभवे छे-आस्वादे छे. ‘स्वयम्’ एटले रागनी अपेक्षा विना, विकल्पनी अपेक्षा विना साधक परम अमृतने आस्वादे छे. व्यवहाररत्नत्रयनो शुभराग हतो तेथी अमृतनो स्वाद आवे छे एम नथी. शुं कळश छे! गजब चीज छे, भाई! एक कळशमां तो बधो सार भरी दीधो छे!
प्राणी (-जीव) बहारनी प्रवृत्तिमां एटलो बधो रोकाई गयेलो रहे छे के तेने संसारना अशुभभावथी निवृत्ति मळती नथी. बस, आखो दिवस धंधो-वेपार, करवो स्त्री-परिवारनुं पोषण करवुं अने सौने राजी राखवा इत्यादि पापना कार्योमां गाळे छे. एमांय पांच-पचास लाख के करोड-बे करोडनी संपत्ति थई जाय तो पूछवुं ज शुं? एमां ज खुश खुशाल थईने रहे अने बिचारो नवरो ज न पडे. पछी एने शुभभाव पण कयांथी थाय? अने ज्यां शुभभाव ज थतो नथी एने एनाथी निवृत्तिनी तो वात ज कयां रही? ए तो संसारना-परिभ्रमणना पंथे ज छे. ए परिभ्रमणनो पंथ बहु आकरो छे, भाई!
अहीं हवे बीजुं कहे छे. अहीं कहे छे-देवदर्शन, गुरुपूजा, दान, तप, संयम, स्वाध्याय आदि जे शुभभावरूप आचरण छे ते पण राग छे, बंधनुं कारण छे, संसारनुं कारण छे. अने जे एने धर्मरूप जाणे अने माने ते मिथ्याद्रष्टि छे अने ते पण संसारपरिभ्रमणना पंथे छे; समजाणुं कांई?
तो समकितीने पण ते आवश्यक कर्म तो होय छे?
हा, पूर्ण वीतराग न थाय त्यां सुधी स्वभावनां द्रष्टि-अनुभव होवा छतां समकितीने पण शुभभावरूप आचरण होय छे. पण एने ए बंधनुं कारण जाणे छे.. (अने क्रमशः तेनो निषेध करीने ते अंतरमां उग्र पुरुषार्थ करीने शुद्धि वधारतो जाय छे). आवो मार्ग छे.
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कह्युं ने के-‘परमम् अमृतम् स्वयं विन्दन्ति’ स्वयं एटले परनी अपेक्षा विना पोताथी परम आनंदरूप अमृतनो अनुभव करे छे. जुओ, आ मुनिपणुं छे. ‘परम अमृत’ कह्युं ने? अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थवो ए परम अमृत छे. मुनिवरो परम आनंदरूप अमृतनो अनुभव करे छे ते एमनुं आचरण (-चारित्र) छे. शुभाचरणने निषेध्युं तो बीजुं कांई साधन रह्युं नहि एम जो कोई कहे तो ए बराबर नथी. अंतर चिदानंदस्वरूपमां आचरण करतुं, रागथी भिन्न पडेलुं ज्ञान परम आनंदरूपी अमृतनो जे अनुभव करे छे ते साधन छे, शरण छे. मुनिओ एमां रहे छे. जुओ, आ मुनिपणुं, आ चारित्र अने आ मोक्षनुं साधन छे.
अहाहा...! मुनिवरो परम अमृतनो स्वाद ले छे! आ घीनो अने साकरनो स्वाद छे ए चैतन्यनो स्वाद नथी अने ए (-स्वाद) जीवने आवे छे एम पण नथी. ए तो जड छे. आ मीठुं, महेसूब अने रसगुल्लांनो स्वाद छे ए तो जडनो छे, अजीव छे अने भगवान आत्मा रूप, रस, गंध, स्पर्श विनानी चीज छे. आवा अरस अने अरूपी जीवने रूपी अजीवनो स्वाद होय नहि. परंतु ते समये एने जाणतां आ ठीक छे एवो जे राग करे छे ए रागनो स्वाद जीवने आवे छे. स्त्रीना संयोगमां स्त्रीना विषयनो स्वाद जीवने आवतो नथी, केमके स्त्रीनुं शरीर तो हाड-मांस-रुधिर-चामडानुं बनेलुं जड छे, अजीव छे. पण आ ठीक छे एवो जे जीव राग करे छे ए रागनो एने स्वाद आवे छे. परंतु ए रागनो स्वाद झेरनो स्वाद छे भाई! ए दुःखरूप छे, अने धर्मीने आत्मामां परम आनंदनो स्वाद आवे छे, अने ए सुखनो स्वाद छे.
अहीं ‘परम अमृतने अनुभवे छे’ एम कह्युं छे ए मुनिनी प्रधानताथी कह्युं छे. प्रचुर स्वसंवेदन कहेवुं छे ने! पांचमी गाथामां आवे छे के मुनिने प्रचुर स्वसंवेदन होय छे, चोथे गुणस्थाने स्वसंवेदन छे पण ए जघन्य छे, अल्प छे. पांचमे श्रावकने विशेष आनंद छे अने छट्ठे मुनिराजने प्रचुर स्वसंवेदन छे. जेटलो स्वसंवेदनरूप आनंदनो स्वाद छे तेटलुं आचरण छे. अहो! अंदर चिदानंदमय त्रिलोकीनाथ भगवान आत्मामां एकाग्र थतां-रमतां-जामतां जे परम अमृतस्वरूप आनंदनो स्वाद आवे एनुं नाम आचरण अने मुनिपणुं छे. सर्वज्ञदेवनी दिव्य देशनामां अने सर्वज्ञदेवना शास्त्रमां-परमागममां आ आव्युं छे.
‘सुकृत के दुष्कृत-बन्नेनो निषेध करवामां आव्यो छे तो पछी मुनिओने कांई पण करवानुं नहि रहेवाथी तेओ मुनिपणुं शाना आश्रये, शा आलंबन वडे पाळी शके?’
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जुओ, हिंसा जूठ, चोरी, विषयवासना अने क्रोध, मान आदि दुष्कृत एटले अशुभ आचरण अने दया, दान, व्रत, तप, शील, संयम आदि सुकृत एटले शुभ आचरण-ए सर्वनो निषेध कर्यो तो मुनिओने शुं करवानुं रह्युं? पंच महाव्रत, पांच समिति, त्रण गुप्ति, अट्ठावीस मूलगुण इत्यादि शुभाचरणनो ए धर्म नथी एम निषेध कर्यो तो पछी मुनिओ शाना आश्रये मुनिधर्म पाळे?-आम कोईने शंका थाय तो तेनुं समाधान आचार्यदेवे कर्युं छे केः-
जुओ, आ मुनिधर्म कह्यो. अहाहा...! त्रिकाळ ज्ञानस्वरूप परमात्मस्वरूप भगवान आत्मा पोते छे एमां लीन थवुं ए ज्ञाननुं महाशरण छे. अर्थात् आत्मा सदाय शुद्ध वीतरागस्वभावी वस्तु छे एनुं ज मुनिओने शरण छे अने ए ज धर्म छे.
अहा! आ अट्ठावीस मूलगुण, पांचमहाव्रत आदि शुभाचरण जो धर्म नथी, चारित्र नथी एम कह्युं तो हवे शुं करवुं? तो कहे छे-भगवान! सांभळ. अंदर चैतन्यमूर्ति ज्ञायकभावस्वरूप, नित्यानंद-सहजानंदस्वभावी महाप्रभु परम पदार्थ त्रिकाळ विद्यमान अस्तिपणे विराजमान छे, एनुं शरण ले; ए शरण छे. अहाहा...! मुनिवरो जे परिणति द्वारा स्वभावनी द्रष्टि अने लीनता-रमणता करे छे ते वीतरागी परिणतिने एक मात्र शरण त्रिकाळी शुद्ध आत्मद्रव्य ज छे. पोतानी त्रिकाळी ध्रुव वस्तु जे सच्चिदानंद, पूर्णानंद, सहजानंद, अणकरायेल (-अकृत्रिम) सहजात्मस्वरूप अविनाशी अनंतगुणधाम सदाय अंदर पडेली छे एनो आश्रय करीने एमां लीन थवुं ए ज शरण छे.
आवो वीतरागनो मार्ग लोकपद्धतिथी साव जुदो छे भाई! ‘सर्व कर्मनो त्याग थये ज्ञाननुं महाशरण छे.’ अहीं ज्ञान एटले विकल्पथी रहित निर्विकल्प त्रिकाळी आत्मस्वभाव सच्चिदानंदस्वभाव, सत् नाम शाश्वत ज्ञान अने आनंद जेनो स्वभाव छे ते आत्मा मुनिने शरण छे, आवा आत्माना आश्रयथी मुनिने जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप अनाकुळ आनंदनो स्वाद आवे छे ते शरण छे, ते मुनिधर्म छे.
धर्म तो एने कहीए के जेमां आत्माना अतीन्द्रिय आनंदरसनुं वेदन होय. जे शुभाशुभ भाव छे ते कर्मरस छे; एनो स्वाद झेरनो स्वाद छे. शुद्धनी अपेक्षाए बन्ने झेर छे. अशुभ तीव्र अने शुभ मंद झेर; पण छे बन्ने झेर. तेथी बन्नेनो निषेध कर्यो छे. एक शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप आत्मामां लीनता करवी ए ज अमृतस्वरूप आनंदनो स्वाद छे अने ए धर्म छे. झीणी वात छे भाई! गाथा १प१ मां आवशे के परमार्थ-परम पदार्थ, महापदार्थ अनादि- अनंत सच्चिदानंदमय नित्यानंदमय प्रभु आत्मा ज शरण छे. एमां झूकी जतां आनंदरसनो अनुभव आवे छे अने एवो अनुभव ज परमार्थ मुनिपणुं छे.