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अथोभयं कर्माविशेषेण बन्धहेतुं साधयति–
बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं।। १४६।।
बध्नात्येवं जीवं शुभमशुभं वा कृतं कर्म।। १४६।।
हवे, (शुभ-अशुभ) बन्ने कर्मो अविशेषपणे (कांई तफावत विना) बंधनां कारण छे एम सिद्ध करे छेः-
एवी रीते शुभ के अशुभ कृत कर्म बांधे जीवने. १४६.
गाथार्थः– [यथा] जेम [सौवर्णिकम्] सुवर्णनी [निगलं] बेडी [अपि] पण [पुरुषम्] पुरुषने [बध्नाति] बांधे छे अने [कालायसम्] लोखंनी [अपि] पण बांधे छे, [एवं] तेवी रीते [शुभम् वा अशुभम्] शुभ तेम ज अशुभ [कृतं कर्म] करेलुं कर्म [जीवं] जीवने [बध्नाति] (अविशेषपणे) बांधे छे.
टीकाः– जेम सुवर्णनी अने लोखंडनी बेडी कांई पण तफावत विना पुरुषने बांधे छे कारण के बंधनपणानी अपेक्षाए तेमनामां तफावत नथी, तेवी रीते शुभ अने अशुभ कर्म कांई पण तफावत विना पुरुषने (-जीवने) बांधे छे कारण के बंधपणानी अपेक्षाए तेमनामां तफावत नथी.
हवे, (शुभ-अशुभ) बन्ने कर्मो अविशेषपणे (कांई तफावत विना) बंधनां कारण छे एम सिद्ध करे छेः-
जेम सुवर्ण बेडी पण पुरुषने बांधे छे अने लोखंडनी पण बांधे छे, तेवी रीते शुभ तेम ज अशुभ करेलुं कर्म जीवने (अविशेषपणे) बांधे छे.
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अहीं गाथामां ‘कदं कम्मं’ शब्द छे ने! मतलब के करेलुं-करायेलुं शुभाशुभ कर्म कर्मबंधननुं कारण छे, पण जाणनारपणे रहीने थयेलुं कर्म कर्मबंधननुं कारण नथी. संस्कृतमां ‘कृतं कर्म’ एम पाठ छे; एटले के कर्ता थईने करेलुं शुभाशुभ कर्म जीवने बांधे छे.
अहाहा...! एक ज्ञायकपणे अंदर विराजमान भगवान आत्मा चैतन्यबिंब प्रभु त्रिकाळ एकलो ज्ञानानंदनो सागर छे. आवा ज्ञानानंदस्वरूपनी जेने द्रष्टि नथी ते अज्ञानी जीवने शुभ के अशुभरागरूप करायेलुं कर्म बंधनुं कारण थाय छे. परंतु ज्ञाता थईने जे जाणनारपणे परिणमे छे तेने तो ते (शुभाशुभ कर्म) ज्ञाननुं ज्ञेय थाय छे. भगवान आचार्यदेवने अहीं एम सिद्ध करवुं छे के अज्ञानी रागने पोतानुं कर्तव्य अथवा करवा लायक कार्य माने छे अने तेथी तेने करेलुं शुभाशुभ कर्म अवश्य बांधे छे; पण जे मात्र जाणे छे तेने ते कर्मबंधननुं कारण थतुं नथी.
१२ मी गाथामां कह्युं ने के ज्ञानीने जे व्यवहार आवे छे, होय छे ते जाणेलो प्रयोजनवान छे. केटलाक लोको जेओ आचार्य भगवानना आशयने समजता नथी तेओ कहे छे के व्यवहारनो (व्यवहार आचरवानो) उपदेश करवो, पण एम नथी प्रभु! व्यवहार त्यां जे होय छे तेने जाणवो, बस. अरे भाई! राग जाणेलो प्रयोजनवान छे, करेलो-करायेलो नहि. समजाणुं कांई...! कह्युं ने अहीं के ‘बंधदि एवं जीवं सुहमसुहुं वा कदं कम्मं’ करेलुं-करायेलुं शुभाशुभ कर्म पुरुषने (-आत्माने) बांधे छे. शुभाशुभ भाव होय छे खरा; पण ए जाणवा योग्य छे आचरवा योग्य (उपादेय) नथी. भाई! थोडा फेरमां बधो मोटो फेर पडी जाय छे. (अर्थात् जाणवामां ज्ञातापणानो-अकर्तापणानो सम्यक्भाव छे अने करवामां कर्तापणानो मिथ्यात्वभाव छे).
‘जेम सुवर्णनी अने लोखंडनी बेडी कांई पण तफावत विना पुरुषने बांधे छे कारण के बंधनपणानी अपेक्षाए तेमनामां तफावत नथी,.. .’ जुओ, बेडी लोढानी होय के सोनानी होय, बन्ने कोई पण तफावत विना पुरुषने बांधे ज छे. सोनानी बेडी भले देखवामां सारी लागे, पण बंधननी द्रष्टिए तो बन्ने समान ज छे, कांई फेर नथी.
जुओ, एक वहु हती, एणे गळामां एक सोनानी सांकळी पहेरेली. सांकळीमां एक खूब भारे चगदु हतुं. चगदु लोढाना एक शेरनुं उपरथी सोनाथी मढेलुं हतुं. वलोणुं करती वखते आ चगदु आमतेम छातीए अथडाईने वागे एटले सासुए वहुने कह्युं-वहुजी, हमणां वलोणुं करती वेळा सांकळी छोडी दो. पण वहुने ते
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काढवानुं मन न थाय, केमके सांकळी सोनानी खरी ने! एटले चगदु छातीमां वागे पण वहु सांकळी छोडे नहि; उलटी खुश थाय. तेम अज्ञानी जीवने अनुकूळ संयोगो मळतां संयोगनी भावना छोडतो नथी. ज्ञानी तेने कहे छे के-भाई! संयोगनी द्रष्टि दुःखकारी छे, संयोगनी द्रष्टि छोडी दे. पण तेने संयोग अने संयोगनी द्रष्टि छोडवानुं मन थतुं नथी केमके संयोगथी सुख मान्युं छे ने! अरर...! अनुकूळतामां पण पराधीनतानुं दुःख होवा छतां सुख मानीने अज्ञानी तेमां खुशी थाय छे!
अहीं कहे छे-जेम सुवर्ण अने लोखंडनी बेडी कांई पण तफावत विना पुरुषने बांधे छे, ‘तेवी रीते शुभ अने अशुभ कर्म कांई पण तफावत विना पुरुषने (-जीवने) बांधे छे कारण के बंधपणानी अपेक्षाए तेमनामां तफावत नथी.’ ‘‘कांई पण तफावत विना बांधे छे’’-भाषा जोई? गाथामां ‘कदं कम्मं’ (-करेलुं कर्म) शब्दनो अर्थ अहीं टीकामां ‘‘कांई पण तफावत विना-अविशेषपणे’’ एम कर्यो छे. मतलब के अशुभ करायेलो भाव होय के शुभ करायेलो भाव होय, बन्नेमां फरक नथी केमके कर्ताबुद्धिमां कोई फेर नथी अने तेथी बन्ने समानपणे कर्मबंधनुं कारण थाय छे. जे कर्ता थईने शुभ के अशुभ भाव करे छे तेने ए बन्नेय भाव कांई पण तफावत विना कर्मबंधनुं कारण थाय छे.
आनाथी जुदुं ज्ञानीने कर्ताबुद्धि नथी, ज्ञातानी द्रष्टि छे. शुभने जाणतां ठीक अने अशुभने जाणतां अठीक एम शुभाशुभभावमां ज्ञानीने ठीक-अठीकपणानी बुद्धि नथी. खरेखर तो ज्ञानी ए शुभाशुभ भावने कयां जाणे छे? ए तो शुभ के अशुभ भावना काळमां पोतानी स्वपर-प्रकाशकज्ञाननी जे पर्याय थाय छे तेने जाणे छे. जे प्रकारनो राग छे ते समये ते ज प्रकारनी परप्रकाशक ज्ञाननी पर्याय थाय छे. त्यां ए रागने लईने नहि पण पोतानी स्वपरप्रकाशक पर्यायना सामर्थ्यने लईने एनुं ज्ञान छे. शुं ए राग छे माटे परप्रकाशक ज्ञाननी पर्याय उत्पन्न थई? (ना, एम नथी). जेम अज्ञानीने शुभ-अशुभ राग करवामां फेर नथी (अर्थात् बन्नेमां सरखी ज कर्ताबुद्धि छे) तेम अहीं ज्ञानीने जाणवामां फेर नथी (अर्थात् बन्नेमां सरखी ज ज्ञाताबुद्धि-अकर्ताबुद्धि छे). खरेखर ज्ञानी शुभाशुभने जाणतो नथी पण पोते तत्संबंधी जे पोतानुं ज्ञान छे तेने जाणे छे. ते समये ते (शुभाशुभ) तेनी योग्यताथी त्यां उत्पन्न थाय छे पण ज्ञानी तेने करतो नथी. आ प्रमाणे कर्ता (अज्ञानी) मां अने ज्ञाता (ज्ञानी) मां बहु मोटो फेर छे. बापु! आ तो वीतरागनो मार्ग बहु गंभीर छे.
अहाहा...! केवळी परमेश्वर कोने कहेवाय? के जेनी पर्यायमां आखुं लोकालोक-जेमां अनंता केवळीओ आव्या ते पण जणाय. ए केवळज्ञान शुं चीज छे भाई!!
केवळीए दीठुं हशे एम थशे (एम के केवळीए दीठा हशे एटला भव थशे), एमां आपणे शुं करीए? आ प्रश्न बाबते वि. सं. १९७२ मां चर्चा चालेली त्यारे
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कीधुं’ तुं के-भाई! जुओ, तमे बोलो छो ए वस्तुनी स्थिति नथी. केमके केवळीए दीठुं छे एम थशे एम तमे कहो छो पण हुं तमने पूछुं छुं के-केवळी छे एम एना अस्तित्वनी तमने प्रतीति-श्रद्धा छे? भाई! स्वसन्मुख थया विना एनो यथार्थ स्वीकार थई शकतो नथी अर्थात् एनो यथार्थ स्वीकार करनारने पोताना केवळज्ञानस्वभावी आत्मानुं दर्शन-सम्यग्दर्शन थई जाय छे; अने तो पछी एने भव के भवनी शंका रहेतां नथी. समजाणुं कांई....? अहा! जगतमां सर्वज्ञ छे, एक समयनी पर्यायमां त्रणकाळनी सर्व सत्ताओने अडया विना ज जाणे एवा केवळज्ञाननुं अस्तित्व छे एनो स्वीकार करनारने भव अने भवनो भाव होई शके नहि. ए वखते प्रवचनसार वांच्युं न हतुं पण एनी गाथा ८०-८१-८२ नो भाव आव्यो हतो. कीधुं के जेने अरहंतनी -केवळीनी प्रतीति थई होय तेना भगवाने भव न दीठा होय.
आगळ गाथा १६० मां आवे छे के-‘सो सव्वणाणदरसी कम्मरएण णियेणावच्छण्णो’ ‘ते सर्वज्ञानी-दर्शी पण निज कर्मरज-आच्छादने’ मतलब के भगवान आत्मा तो सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी छे तोपण पोताना कर्मरूपी रजथी खरडायो थको-जुओ, आमां बीजा केटलाक लोको कहे छे के-द्रव्यकर्मना कारणे बंध-अवस्थामां, सर्व प्रकारे सर्वज्ञेयोने जाणनारा एवा पोताने जाणतो नथी. एने ज्ञानीओ कहे छे-भाई! एम नथी. जुओ, टीकामां अर्थ छे ते वांचो. टीकामां कह्युं छे के-‘‘जे पोते ज ज्ञान होवाने लीधे विश्वने सामान्य-विशेषपणे जाणवाना स्वभाववाळुं छे एवुं ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य, अनादिकाळथी पोताना पुरुषार्थना अपराधथी प्रवर्तता एवा कर्ममळ वडे लेपायुं होवाथी ज...’’ जुओ, भाषा जुओ; ‘कर्मरज-आच्छादने’ एटले पुद्गलकर्मथी लेपायेलुं छे एम नहि पण पोताना अपराधथी प्रवर्तता कर्ममळ एटले भावकर्मथी लेपायुं होवाथी ज बंध अवस्थामां सर्व प्रकारे संपूर्ण एवा पोताने ‘ण विजाणदि सव्वदो सव्वं’ सर्वथा सर्व प्रकारे जाणवा लायक पोताने जाणतो नथी तेथी सर्व ज्ञेयोने जाणतो नथी. अहा! स्वभावथी सर्वथा सर्व प्रकारे जाणनार एवो प्रभु (-आत्मा) पोताना पुरुषार्थना अपराधने लईने पोताने जाणतो नथी माटे बधाने जाणतो नथी. ‘कम्मरएण’-नो आ अर्थ कर्यो छे भाई!
प्रश्नः– तो गोम्मटसारमां ज्ञानावरणीय कर्मथी ज्ञान रोकाय छे एम आवे छे ने?
समाधानः– भाई! ए तो निमित्तनी मुख्यताथी करेलुं व्यवहारनयनुं कथन छे.
आ बाबते वर्णीजी साथे वि. सं. २०१३ मां मोटी चर्चा थई हती. तेनुं रेकोर्डिंग थयेलुं छे अने हजारो पुस्तको छपाई गयां छे.
प्रश्नः– रतनचंदजी (सहरानपुर)ः-महाराज कानजीस्वामी एम कहे छे के-
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ज्ञानावरणीय कर्म कांई करतुं नथी; पोतानी योग्यताथी ज्ञानमां घट-वध थाय छे, महाराज! शुं आ ठीक छे?
उत्तरः– क्षुल्लक वर्णीजी महाराजः-शुं ठीक छे? तमे ज समजो केवी रीते ठीक छे? ए ठीक नथी; कोई अंगधारी कहे तोपण ए ठीक नथी, ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञानमां घट-वध करतुं नथी ए ठीक नथी, करे छे-एम एमना पुस्तकमां लख्युं छे.
आ वांधा (-मतभेद) अहींथी ऊठया. वर्णीजी एम मानता के निमित्त परमां कांई करतुं नथी ए वात बराबर नथी.
परंतु भाई! परद्रव्य आत्माने हीणुं करे ए वात यथार्थ नथी. ज्ञानावरणीय कर्म छे खरुं, पण ए कर्ता थईने ज्ञानने हीणुं करे ए वस्तुस्वरूप नथी. आमां कीधुं ने के ‘‘पोताना पुरुषार्थना अपराधथी’’ ज्ञानादि हीणुं थाय छे. कह्युं छे ने के ‘अपनेको आप भूलके हेरान हो गया.’’
श्रीमद् राजचंद्रे कह्युं छे-‘‘तुं तारा अपराधथी रखडयो. तारो अपराध ए के परने पोतानुं मानवुं अने पोताने भूली जवुं.’’ कर्मनी वात त्यां कयांय लीधी नथी.
प्रश्नः– कोण करे छे ए अपराध?
उत्तरः– पोते ज करे छे. ए अपराधनुं षट्कारकरूप परिणमन पोतानुं पोताने कारणे छे. एमां कर्मनी अपेक्षा छे नहि.
त्यां (गाथा १६० मां) एम कह्युं के-पोताना पुरुषार्थना अपराधथी प्रवर्तता एवा कर्ममळ वडे लेपायुं होवाथी ज बंधअवस्थामां सर्व प्रकारे संपूर्ण एवा पोताने नहि जाणतो एटले के सर्वप्रकारे सर्व ज्ञेयोने जाणनारा एवा पोताने नहि जाणतो...; जुओ, शुं भाषा छे! सर्वथा सर्व प्रकारे परने नहि जाणतो एम लीधुं नथी, परंतु पोताने नहि जाणतो एम लीधुं छे. अहाहा...! पोते स्वभावथी ज सर्वज्ञ, सर्वदर्शी छे (लोकालोकने कारणे नहि), ते पर्यायना अपराधने लईने पोते सर्वज्ञ-सर्वदर्शी छे एवा पोताने जाणतो नथी. समजाणुं कांई...? आ तो शब्दे-शब्दमां खूब गंभीरता भरेली छे.
आपणे अहीं वात एम चाले छे के-सोनानी बेडी छे तेमां पण बंधनपणानी अपेक्षाए कांई तफावत नथी. ‘कदं कम्मं’ नो अर्थ अहीं बेयमां कांई पण फेर नथी एम कर्यो छे. माटे शुभ के अशुभ करायेलुं कर्म कांई पण तफावत विना जीवने बांधे छे, कारण के बंधपणानी अपेक्षाए तेमनामां फरक नथी. शुभ अने अशुभ बन्ने बंधनुं कारण छे, मोक्षना कारणमां बेमांथी एकेय कर्म आवतुं नथी.
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अथोभयं कर्म प्रतिषेधयति–
साहीणो हि विणासो कुसीलसंसग्गरायेण।। १४७।।
स्वाधीनो हि विनाशः कुशीलसंसर्गरागेण।। १४७।।
हवे बन्ने कर्मोनो निषेध करे छेः-
छे कुशीलना संसर्ग–रागे नाश स्वाधीनता तणो. १४७.
गाथार्थः– [तस्मात् तु] माटे [कुशीलाभ्यां] ए बन्ने कुशीलो साथे [रागं] राग [मा कुरुत] न करो [वा] अथवा [संसर्गम् च] संसर्ग पण [मा] न करो [हि] कारण के [कुशीलसंसर्गरागेण] कुशील साथे संसर्ग अने राग करवाथी [स्वाधीनः विनाशः] स्वाधीनतानो नाश थाय छे (अथवा तो पोतानो घात पोताथी ज थाय छे).
टीकाः– जेम कुशील (खराब) एवी मनोरम अने अमनोरम हाथणीरूप कूटणी साथे राग अने संसर्ग (हाथीने) बंधनां कारण थाय छे तेवी रीते कुशील एवां शुभ अने अशुभ कर्म साथे राग अने संसर्ग बंधनां कारण होवाथी, शुभाशुभ कर्मो साथे राग अने संसर्गनो निषेध करवामां आव्यो छे.
हवे बन्ने कर्मोनो निषेध करे छेः-
‘जेम कुशील (खराब) एवी मनोरम अने अमनोरम हाथणीरूप कूटणी साथे राग अने संसर्ग (हाथीने) बंधनां कारण थाय छे...’-जुओ, हाथीने पकडवा माटे
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खाडो बनावीने पछी पाळेली मनोरम के अमनोरम हाथणीने हाथी तरफ मोकलवामां आवे छे. हाथणी हाथीने पोता तरफ आकर्षीने खाडा भणी दोरी लावे छे अने त्यारे हाथी खाडामां- बंधनमां पडे छे. ए वात अहीं कहे छे के-जेम कुशील हाथणी हाथीने बंधननुं कारण थाय छे तेवी रीते कुशील एवां शुभ अने अशुभ कर्म बेय बंधननुं कारण थाय छे. हवे आ लोकोने आकरुं पडे छे.
अहीं स्पष्ट कहे छे ने के शुभ अने अशुभभाव बन्नेय कुशील छे; ए जीवनो स्वभाव के जीवना स्वभावमय शुद्ध परिणति नथी. भाई! जीव तो शुभाशुभभावरहित चिदानंदघनस्वरूप वस्तु त्रिकाळ छे. तेना आनंदना रसना स्वादमां शुभाशुभभाव छे नहि. अहाहा...! भगवान आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु अतीन्द्रिय आनंदरसनो समुद्र छे. एना अनुभवमां एकलो आनंदनो स्वाद होय छे, एना अनुभवमां-सेवनमां कुशील एवा शुभाशुभभावनो स्वाद होतो नथी. भाई! आवा आत्माना आनंदरसना-शांतरसना अनुभव- सेवन सिवाय अन्य कोई मोक्षमार्ग छे नहि.
जुओ, शुभाशुभभाव कुशील छे, अने निज चैतन्यस्वभावनां द्रष्टि-ज्ञान-रमणता सुशील छे. अहाहा...! निज ज्ञानानंदस्वभावी भगवान आत्मानी श्रद्धान-ज्ञान-रमणतारूप निर्मळ शांत वीतरागी परिणतिने छोडीने जे दया, दान, व्रत, भकित, पंचपरमेष्ठीनुं स्मरण इत्यादि जे शुभभावरूप विभावरूप परिणति छे ते, कुशील छे. आकरी वात छे, भाई! पण आ ज सत्य छे.
त्यारे कोई कहे छे-आ तो सोनगढनुं होय एम लागे छे.
अरे भाई! आ सोनगढनुं छे के भगवाननुं (कहेलुं) छे? विदेहमां सदेहे भगवान सीमंधरस्वामी अरिहंतपदे विराजमान छे. आचार्य कुंदकुंददेव तेमनी पासे गया हता अने आठ दिवस त्यां रह्या हता. समोसरणमां भगवाननी दिव्यध्वनि जे सांभळी ते वात अहीं आचार्यदेवे कही छे.
तेओ अहीं कहे छे-भाई! तें शुभाशुभभाव सेवीने शुभाशुभ गति विभावनी गति अनंतवार करी छे, एमां कांई अपूर्व के नवीन नथी. अहा! शुभभाव चाहे तो पंचपरमेष्ठीना स्मरणनो हो के अनंतगुण-संपन्न निज आत्मद्रव्यना गुणस्तवननो हो, ए बधोय विकल्प छे, राग छे, कुशील छे. आवी गजब वात, बापा! परमात्म-प्रकाशमां आवे छे के गुणस्तवन के वस्तुस्तवन बन्ने विकल्प छे; समजाणुं कांई...?
भगवान आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु त्रिकाळी सत् छे. ‘ओम् तत् सत् परमात्मस्वरूप’-एम आवे छे ने! एटले के ओम् एवुं स्वरूप आत्मानुं छे. ‘ओम्’ बे प्रकारे छेः एक आत्मिक अने एक शाब्दिक. ‘ओम्’ शब्द छे ते वाचक छे
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अने ‘ओम्’ जे परमात्मस्वरूप छे ते एनुं वाच्य छे. बनारसी विलासमां (ज्ञान बावनीमां) आवे छे के-
ओंकारना बे अर्थ लीधाः एक तो शुद्ध आत्मस्वरूप चिदानंदमय वस्तुनुं स्वरूप ते भाव ओंकार छे अने बीजो ओम्-ओम्-ओम् एवो जे अशुद्ध विकल्प ते जडस्वरूप छे. अहाहा...! ‘उठयो राय चिदानंद’ एटले के आनंदरसनो जे स्वाद आव्यो ते भाव ओंकाररूप छे. अने भगवानना गुणना स्तवननो विकल्प के हुं शुद्ध चिदानंदमय अनंतगुणस्वरूप आत्मा छुं, शुद्ध छुं, अबंध छुं एवो वस्तुस्वरूपनो विकल्प ते शुभराग छे. एवो विकल्प दुःखरूप छे, जडस्वरूप छे, कुशील छे, बंधनुं कारण छे एम अहीं कहे छे. आकरुं लागे पण वस्तुस्वरूप ज आवुं छे, भाई! कर्ताकर्म अधिकारमां आवी गयुं के-हुं बद्ध छुं, रागी छुं इत्यादि व्यवहारनयनो पक्ष तो पहेलेथी ज छोडावता आव्या छीए, पण ते उपरांत हुं अबंध छुं, अरागी छुं एवो शुद्ध आत्मस्वरूपनो विकल्प पण राग होवाथी दुःखरूप ज छे, छोडवा योग्य ज छे.
प्रश्नः– घणे ठेकाणे (पंचास्तिकाय आदिमां) भिन्न साध्य-साधन कह्युं छे ने?
उत्तरः– हा, व्यवहारथी कह्युं छे. पण त्यां साध्य जे निश्चय तेनुं साधन भिन्न जे राग ते खरेखर साधन छे एम अर्थ नथी. वास्तविक साधन तो रागथी भिन्न अंदर आत्माना स्वादनो जे अनुभव थाय ते एक ज छे, अने ए भूमिकामां जे विकल्प-राग छे एने व्यवहारथी साधननो आरोप आप्यो छे.
अत्यारे केटलाक पंडितोए मोटो विवाद ऊभो कर्यो छे के-आ सोनगढनुं एकान्त छे- एकान्त छे केमके तेओ महाव्रतादि, भगवाननुं स्मरण, भक्ति इत्यादि जे शुभ विकल्पनी जात छे एनाथी आत्मानो लाभ थाय एम कहेता नथी. परंतु भाई! ‘चिदानंद भूपालकी राजधानी’-चिदानंदस्वरूप आत्मराजानी राजधानी कहेतां स्वभाव तो एक ज्ञान अने आनंद छे. अहाहा...! एनो अनुभव करतां जे आनंदरसनो स्वाद आवे ते सुशील छे अने ते सिवाय बीजुं बधुं (शुभराग पण) कुशील छे. आवी वात छे. (माटे एनाथी आत्माने लाभ केवी रीते थाय?)
अहीं कहे छे के जेम हाथणी बहारमां मनोरम होय के अमनोरम, बेय हाथणीरूपी कूटणी हाथीने खाडामां (बंधनमां) नाखवा लई जवावाळी होवाथी कुशील छे, खराब छे. तेम शुभ के अशुभ बेय परिणाम कूटणीनी माफक जीवने
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संसाररूपी खाडामां नाखी बंधन कराववावाळा होवाथी कुशील-खराब छे. एकमात्र शुद्ध चैतन्यस्वरूप चिदानंदमय भगवान आत्मानो अनुभव मोक्षमार्ग होवाथी सुशील छे, सारो छे. समयसार नाटकमां कह्युं छे के-
अनुभव मोक्षनो मार्ग छे एम कह्युं छे, पण शुभभाव मोक्षमार्ग के मोक्षमार्गनुं कारण छे एम छे नहि. जोके ज्ञानीने पण साधकदशामां अशुभथी बचवा भकित, स्तुति, पूजा इत्यादि शुभभाव होय छे, आवे छे पण ए छे बंधनुं कारण.
परमात्मप्रकाशमां आवे छे के भरत अने सगर आदि समकिती पुरुषो पण गुणस्तवन, वस्तुस्तवन करे छे; वळी तेओने शुद्ध रत्नत्रयधारी मुनिवरोने सुपात्र दान आपवानो शुभभाव होय छे; पण एनी साथे एमने स्वभावनो अनुभव छे. तेथी रागनी अपेक्षाथी तेमने सराग सम्यग्द्रष्टि कहीए छीए. पण कोईने आत्मानुभव होय नहि अने एकलो राग ज होय तो तेने एवो व्यवहार लागु पडतो नथी.
अहीं तो कह्युं ने के-‘कुशील एवां शुभ अने अशुभ कर्म साथे राग अने संसर्ग बंधनां कारण होवाथी, शुभाशुभ कर्मो साथे राग अने संसर्गनो निषेध करवामां आव्यो छे. जुओ, आ दया, दान, व्रत, भकित, पूजा इत्यादि भाव कुशील छे, बंधनां कारण छे अने तेथी निषिद्ध छे. भगवान साक्षात् त्रणलोकना नाथ समोसरणमां विराजमान होय तेनी बहु प्रकारे भक्ति करे पण ए शुभराग कुशील छे, बंधनुं कारण छे; माटे निषिद्ध छे.
प्रश्नः– जो एम छे तो तमे ते करो छो शा माटे? आ २प-२६ लाखनुं परमागम मंदिर, आ पोणाचार लाख अक्षरो, बारीए बारीए चित्रामण इत्यादि तमे लोकोने खेंचवा सारु करो छो! वळी तमे निमित्तनो निषेध करो छो अने पाछा निमित्त द्वारा लोकोने धर्म समजावो छो! तमारी कथनी अने करणीमां आवो फेर!!
समाधानः– भाई! मंदिरनी रचना इत्यादि तो एना कारणे अने एना उत्पत्तिकाळे पुद्गलोथी थई छे. एने अन्य कोण बनावे? तथा धर्मीने, जोके कुशील छे तोपण एवो शुभराग आवे छे, आव्या विना रहेतो नथी; तथापि ए शुभरागना कारणे मंदिरनी रचना थई छे एम नथी अने ए शुभराग धर्म छे के धर्मनुं कारण छे एम पण नथी. धर्मी जीव एवा शुभरागने हेय जाणे छे. अस्थानना तीव्र रागथी बचवा धर्मीने आवा शुभभाव आवे छे पण तेना कर्तापणानो-स्वामीपणानो एने अभिप्राय नथी, ए तो मात्र एना ज्ञातापणे ज रहे छे. (कथनी तो अभिप्राय अनुसार छे अने करणी वर्तमान पुरुषार्थनी तारतम्यता अनुसार छे अन.े तेथी धर्मीनी कथनी अने करणीमां फेर जणाय छे). समजाणुं कांई...?
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व्यवहार चारित्र-पांच महाव्रत, २८ मूळगुण वगेरे जे मुनिनो व्यवहार धर्म छे ए बधाने अनात्मा कह्यो छे, आत्मा नहि. प्रवचनसार, गाथा १७२ मां अलिंगग्रहणना वीस बोल छे. एमां १७ मो बोल छे के-‘आत्माने बहिरंग यतिलिंगोनो अभाव छे.’ यतिनो बाह्य आचार-महाव्रत, गुप्ति, समिति इत्यादि अंतरस्वरूपमां छे नहि. पछी १८ मो बोल छे के- गुणभेदनो आत्माने स्पर्श नथी. १९ मो बोल छे के-आत्मा अर्थावबोध एवो जे पर्याय विशेष (पर्यायनो भेद) तेनाथी स्पर्शातो नथी. पछी २० मो बोल छे के-प्रत्यभिज्ञाननुं कारण एवुं जे अर्थावबोध सामान्य ते पर्यायने स्पर्शतो नथी.
अहाहा...! आत्मा पोते सामान्य छे ते विशेषने स्पर्शतुं नथी. आ विशेष ते कोण? के शुभाशुभ भावरहित निर्मळ निर्विकल्प प्रतीति, निर्विकल्प ज्ञान अने निर्विकल्प शांति-चारित्र जेने शुद्ध रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग कह्यो छे तेने द्रव्यसामान्य स्पर्शतुं नथी. हवे आवी वात छे त्यां आ शुभरागरूप व्यवहार चारित्र तो कयांय दूर रही गयुं. समयसार कळशटीका, कळश १०८ मां एनो सरस खुलासो छे. त्यां कह्युं छे के-‘‘कोई जाणशे के शुभ-अशुभ क्रियारूप जे आचरणरूप चारित्र छे ते करवायोग्य नथी तेम वर्जवायोग्य पण नथी. उत्तर आम छे के- वर्जवायोग्य छे, कारण के व्यवहारचारित्र होतुं थकुं द्रुष्ट छे, अनिष्ट छे, घातक छे; तेथी विषयकषायनी माफक क्रियारूप चारित्र निषिद्ध छे.’’
बहु आकरी वात भाई! केटलाकने एम छे के निश्चय समकितनी खबर पडे नहि, माटे तमे एना पर शुं काम जोर (वजन) आपो छो? (एम के एक ज मोक्षमार्ग छे एम शा माटे कहो छो?)
भाई! निश्चय समकितनी खबर पडे नहि एम तुं कहे छे एथी ज अमे जाणीए छीए के तने समकित नथी अर्थात् मिथ्यात्व ज छे. तारे व्यवहारथी (शुभरागथी) ज काम चलाववुं छे एटले व्यवहार मोक्षमार्ग ए (बीजो) साचो मोक्षमार्ग छे एम तुं दलील करे छे. भाई! एथी लोको राजी थशे पण तारो आत्मा राजी नहि थाय प्रभु! एनुं फळ खूब आकरुं आवशे भाई! कह्युं ने के ‘व्यवहारचारित्र होतुं थकुं द्रुष्ट छे, अनिष्ट छे, घातक छे.’ झीणी वात छे प्रभु! तुं परनी-रागनी रुचिमां फसाईने भरमाई गयो छे.
अनुभवप्रकाश पान ३७ मां आवे छे के-‘‘अविद्या जड नानी शक्तिथी तारी महान शक्ति न हणाई जाय. परंतु तारी शुद्ध शकित पण मोटी, तारी अशुद्ध शकित पण मोटी, तारी चिंतवणी तारे गळे पडी अने तेथी परने देखी आत्मा भूल्यो, ए अविद्या तारी ज फेलावेली छे.’’ अहाहा...! चिदानंदघनस्वरूप
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एवा तारा आत्मानो स्वभाव-शक्ति तो अमाप अपरंपार छे अने अविद्यानी शक्ति तो अल्प छे. जो तुं अविद्यारूप कर्ममां पोताने न जोडे तो ए जडनुं तो कांई जोर नथी. परंतु अज्ञानने वश थतां तारी चिंतवणी तारे गळे पडी छे. परने देखीने ए मारी चीज छे एम मानी पोताने (आत्माने) तुं भूल्यो छे. एटले तो अमे कहीए छीए के जेम तारी शुद्धता मोटी (बडी) तेम तारी अशुद्धता मोटी (बडी) छे. भाई! तुं ए अशुद्धताना-शुभरागना प्रेममां, हाथी हाथणीमां फसाई जाय तेम फसाई गयो छे. भारे आकरुं (-विषम) काम भाई! (कारण के एनुं फळ बहु आकरुं छे).
कुशील एवां शुभाशुभ कर्म साथे राग अने संसर्ग बंधनुं कारण छे एम कह्युं एमां कर्म एटले बंधायेलुं जडकर्म एम केटलाक अर्थ करे छे, पण खरेखर तो जीवनी पर्यायमां शुभाशुभ परिणाम जे थाय छे एने अहीं कर्म कह्युं छे. आ वात आचार्यदेवे गाथा १प३नी टीकामां एकदम स्पष्ट करी छे. त्यां टीकामां कह्युं छे-‘‘ज्ञान ज मोक्षनो हेतु छे; कारण के तेना (-ज्ञानना) अभावमां, पोते ज अज्ञानरूप थयेला अज्ञानीओने अंतरंगमां व्रत, नियम, शील, तप वगेरे शुभ कर्मोनो सद्भाव (हयाती) होवा छतां मोक्षनो अभाव छे.’’ जुओ, अहीं शुभकर्मो एटले जड कर्मना परमाणु जे बंधाय ते नहि पण शुभ परिणाम, व्रतादिना शुभभाव एम अर्थ छे. शुभभावने अहीं कर्म कह्युं छे.
आ व्रत, नियम, शील, तप कह्यां एमां जे तप कह्युं एमां तो बारे प्रकारनां तप आवी गयां; एमां ध्यानेय आवी गयुं. त्यां जे विकल्परूप ध्यान करे ए विकल्प शुभकर्म- शुभकार्य-शुभपरिणाम छे. ए ध्यानना विकल्प कुशील छे एम अहीं कहे छे. हमणां ध्यान करावो, ध्यान करावो एम ध्याननुं खूब चाल्युं छे. एम के आ सोनगढवाळा अध्यात्म- अध्यात्म करे छे तो आपणे ध्याननुं चलावो. हमणां हमणां तो छापामां ध्यान करवा बेठा होय एना फोटा पण आवे छे. पण ध्यान कोने कहेवाय, बापु! अंदर शुद्ध स्वरूपमां एकाग्र थई ठरवुं ते ध्यान छे. पण जेने हजु आत्मानी प्रतीति थई नथी ते ठरशे शामां? पोतानी चीज जे ध्रुव नित्यानंद चिदानंदस्वरूप छे ते हजी द्रष्टिमां-वेदनमां-अनुभवमां आवी नथी तो ए चीजमां मग्न थई ठरवारूप ध्यान कयांथी आवे? बापु! आ ध्यानना जे बाह्य विकल्प छे ए तो राग छे अने ते कुशील छे, बंधनुं कारण छे; समग्र शुभकर्म बंधनुं कारण छे. आवी वात छे.
अहा! पोते आनंदनो नाथ सच्चिदानंद प्रभु भगवानस्वरूपे छे. परंतु रागनी रुचिमां फसाई पोताना निज स्वरूपने भूलीने ते अनादिथी रागनी रमतोमां पडयो छे. सत् नाम शाश्वत चैतन्य अने आनंद पोतानो स्वभाव छे. आवा पोताना स्वभावने
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भूलीने दया, दान, व्रत, तप इत्यादि जे शुभराग एमां ज धर्म मानी बेठो छे. तेने अहीं कुंदकुंदाचार्य अने अमृतचंद्राचार्य फरमावे छे के-भाई! तारुं तो परमेश्वर-पद छे. ए परमेश्वरपदमां शुभभाव कयां छे? शुभराग आवे खरो पण ते तारी चैतन्यमय वस्तुमां नथी, अने चैतन्यनी परिणतिमां पण नथी. जुओ, त्रणलोकना नाथ जिनेश्वरदेव दिव्यध्वनि द्वारा जे कहेता हता ते आ वात छे. अत्यारे केटलाक लोको शुभरागने साधन मानी ते (-शुभराग) करतां करतां निश्चय स्वरूप प्रगटशे एम कहे छे पण ते यथार्थ नथी. शुभरागनी रुचिनुं फळ तो चार गतिमां चोरासीना अवतारमां रखडवानुं छे.
अहीं कहे छे के-शुभ अने अशुभ कर्म (-कर्म एटले रागरूप कार्य) साथे राग अने संसर्ग बंधनां कारण होवाथी तेमनो राग अने संसर्ग निषिद्ध छे. जुओ, देव-गुरु-शास्त्रनी भकितनो राग, पंचमहाव्रतना परिणाम, दया, दान, व्रत, तप, ब्रह्मचर्य इत्यादिनो राग अने गुण-गुणीनो भेदरूप राग इत्यादि सर्व शुभकर्म छे अने तेनी रुचि अने संसर्ग निषिद्ध छे एम कहे छे. गजब वात छे भाई! चिद्ब्रह्मस्वरूप पोते परमात्मा छे तेनी अंदर रमत रम्या विना (बीजी रीते, शुभरागथी) मोक्षमार्ग नहि थाय अने तो मोक्ष पण नहि थाय एम कहे छे.
कोईने बहु समजावतां आवडतुं होय माटे एनुं ज्ञान सम्यक् छे एम नथी, तथा समजावतां न आवडे तेथी सम्यग्ज्ञान नथी एम पण नथी. अहीं कहे छे के-आ समजाववानो जे विकल्प छे तेनो राग-प्रेम-रुचि अने संसर्ग कहेतां वारंवारनो परिचय बंधनां कारण होवाथी निषिद्ध करवामां आव्यां छे. आनो अर्थ जयसेनाचार्यनी टीकामां बीजी रीते कर्यो छे. ते आ प्रमाणे-
जयसेन आचार्ये टीकामां राग अने संसर्ग एटले मनथी, वाणीथी अने कायाथी पण शुभाशुभभावनो राग अने संसर्ग करीश नहि एम अर्थ कर्यो छेः तस्मात् कारणात् कुशीलैः कुत्सितैः शुभाशुभकर्मभिः सह चित्तगतरागं मा कुरु–ते कारणथी कुशील एवा शुभाशुभकर्म- परिणाम साथे ऊंडे ऊंडे मनमां पण राग करीश नहि. बहिरंग वचनकायगतसंसर्गं च मा कुरु– अने बहिरंग वचन अने कायाथी पण संसर्ग न करीश. मतलब के वचनथी व्यवहारे बोलीश नहि के शुभाशुभभाव करवा जेवा छे; वारंवार एनी प्ररूपणा करीश नहि; अने कायाथी पण एनो परिचय करीश नहि. शुभराग करवा जेवो छे एम माननार अने मनावनारनो परिचय के संगति करीश नहि. अहाहा...! आवी वात; समजाणुं कांई...?
अहाहा...! परमेश्वर पद पोते शक्तिए अंदर गुप्त पडयुं छे. एने तुं व्यवहारना रागथी प्रगट करवा मागे छे पण ए रीते प्रगट नहि थाय. भाई! शक्ति अपेक्षाए
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परमात्मपद अंदर गुप्त छे; खरेखर ते ढंकायुं छे एम नथी, पण शक्तिपणे गुप्त छे. पर्यायमां रागनो संबंध छे; रागनो प्रेम छे ए भावआवरण छे अने द्रव्यआवरण (जड कर्म) तो एनुं निमित्त छे. आचार्य कहे छे-माटे चित्तमां-मनमां ऊंडे ऊंडे पण राग प्रत्ये प्रेम करीश नहि. आगळ गाथा १४८ मां आवशे-‘कुच्छियसीलं जणं वियाणित्ता’-आ कुशीलियो छे, व्यभिचारी छे एम जाणीने सत्पुरुषो एनो संग-संसर्ग करता नथी तेम सत्पुरुष (सत्+पुरुष) अर्थात् सत्स्वरूप निज शुद्ध आत्माना आश्रये जेने सत् जीवन जीववुं छे तेणे कुशील एवा रागनो संसर्ग न करवो जोईए. माटे कहे छे-भाई! चित्तगतं रागं मा कुरु–मनमां ऊंडे ऊंडे पण रागनी प्रीति मा कर. भाई! आ तारा हितनी वात छे प्रभु!
अज्ञानी जीव अनादिथी कषायनुं-रागनुं सेवन करी-करीने खुशी थई रह्यो छे. ते शुभभावरूप व्रत, तप इत्यादि करे छे अने तेनी उजवणी करीने राजी थाय छे. वळी सगांसंबंधीओ भेगां थाय ते पण राजीपो दर्शावे छे अने अनुमोदन आपे छे. तेने अहीं सद्गुरु कहे छे के-भाई! ए शुभरागरूप जे कषाय छे ते अग्नि छे, आग छे. ते तारा जीवने (पर्यायमां) बळतरा करनारी छे, दुःखदायक छे. एमां खुशी थवा जेवुं नथी भाई! माटे शुभरागनो स्नेह तुं छोडी दे. भगवान! आ तारा हितनी वात छे हों. प्रभु! तने तारी प्रभुतानी खबर नथी! अंदर तुं परमेश्वर स्वरूपे बिराजे छे ने नाथ! आ रागनी पामरता ए तारुं पद नथी. ए रागनी रुचिनी आडमां तने तारुं निजपद-परमेश्वरपद जणातुं नथी माटे तुं रागनां रुचि अने संसर्ग छोडी दे.
जुओ, ‘आ रागनो संसर्ग न करवो’ एनुं स्पष्टीकरण चाले छे. गाथामां पद पडयुं छे ने के-‘साहीणो हि विणासो कुसीलसंसग्गरायेण’–कुशीलना संसर्ग अने रागथी स्वाधीनतानो नियमथी नाश थाय छे. एनो अहीं आ अर्थ कर्यो के ‘शुभ अने अशुभ कर्म साथे राग अने संसर्ग बंधनां कारण होवाथी शुभाशुभ कर्मो साथे राग अने संसर्गनो निषेध करवामां आव्यो छे. ‘स्वाधीनताना नाश’ नो अहीं अर्थ कर्यो के ए बंधनां कारण छे. अहाहा...! स्वाधीनता शुद्ध अबंधस्वरूप छे; एनी पर्यायमां आ राग जे बंधनुं कारण छे ते पराधीनता छे. भगवान! तारुं स्वाधीन अबंध परमेश्वरपद छे एमां आ शुभरागनो प्रेम तारी स्वाधीनतानो नाश करे छे, तने बंधनमां नाखी पराधीन करे छे. अहाहा...! जुओ आ संतोनी वाणी!!-
‘‘जागीने जोउं तो जगत दीसे नहि, अज्ञानमां अटपटा खेल दिखे.’’ स्वरूपमां सावधान थईने जुए एने राग ने विकल्पने आखुंय जगत कयां जणाय छे? केमके जगदीशमां जगत अने जगतमां जगदीश परमार्थे छे ज नहि ने. आ राग मारो
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अने विकल्प मारो इत्यादि तो अज्ञानमां भासे छे. समजाणुं कांई...? हवे आवी वात पेला भक्तिना रागनी होंशवाळाने आकरी लागे, पण शुं थाय? वस्तुस्वरूप ज आवुं छे.
व्याख्यान सांभळीने एक भाईए रात्रिचर्चामां प्रश्न कर्यो के-निश्चयनी प्राप्ति करवी ए वात तो साची, पण एनुं साधन शुं?
एमने मन एम के आ भक्ति करीए, स्तुति गाईए, व्रत, पूजा करीए ए बधुं साधन छे. पण भाई! ए बधां साधन छे ज नहि. ए तो राग छे, कुशील छे अने एनुं साधन करतां बंधन थाय छे, स्वाधीनतानो नाश थाय छे. कह्युं ने अहीं के-
भाई! अंतरंग साधन निज शुद्धात्मा छे अने तेना आश्रये प्रगट थतां जे शुद्धरत्नत्रय ते बहिरंग साधन छे. आ सिवाय अन्य कोई (-शुभराग) साधन छे नहि.
गाथा १प मां ना कह्युं के-‘जो पस्सदि अप्पाणं अबद्ध पुट्ठं......पस्सदि जिणसासणं सव्वं’–अबंधस्वरूप भगवान आत्मा छे एने जे देखे छे एवुं सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान ते जैनशासन छे; राग कांई जैनशासन नथी. भाई! वीतरागनो आवो मार्ग छे एने तुं रुचिमां तो ले. भगवान आत्माना अनुभवना रसना स्वाद विना ए (मोक्षना) मार्गनी शरूआत ज थती नथी. आ रागनो जे रस छे, स्वाद छे ए तो आकुळता छे, पराधीनता छे.
वि. सं. २०१० मां प्रश्न थयो हतो के-
महाराज! आ देव-गुरु-शास्त्र तो शुद्ध छे. ए शुद्धने परद्रव्य केम कहेवाय?
त्यारे कीधुं हतुं के-भाई! शुद्ध चिदानंदघनस्वरूप आ (-पोते) भगवान आत्मा स्वद्रव्य छे अने ए सिवाय बीजुं बधुं परद्रव्य छे, केमके स्वद्रव्यमां ए सर्वनो अभाव छे. साक्षात् जिनदेव होय के जिनप्रतिमा होय के जिन-वाणी होय, ए सर्वनो स्वद्रव्यमां अभाव छे माटे ते परद्रव्य छे. अने ए परद्रव्यना आश्रये जे परिणाम थाय ते राग छे. ए राग कुशील छे, बंधनुं कारण छे एम अहीं कहे छे. पद्मनंदी-पंचविंशतिमां कह्युं छे के-स्वरूपने छोडीने आ बुद्धि जे शास्त्रमां जोडाय छे ते व्यभिचारिणी छे. एटले के शुभराग छे ते व्यभिचार छे. जेम परस्त्रीनो संसर्ग व्यभिचार छे तेम परभावनो संसर्ग ए व्यभिचार छे. जेम स्त्रीना संभोगमां मैथुन छे एम रागनो संभोग ए मैथुन छे. गजब वात छे भाई! ज्यां सुधी पूर्ण वीतरागता न थाय त्यां सुधी साधकदशामां वच्चे एवा देव-गुरु-शास्त्र प्रत्येनी भक्तिना भाव आवे खरा, पण ए धर्मनुं के मोक्षनुं कारण छे एम छे नहि; समजाणुं कांई...?
प्रश्नः– परंपराए पण नहि?
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उत्तरः– परंपराए छे एनो अर्थ शुं? समकिती धर्मात्माने वर्तमानमां साक्षात् मोक्षमार्ग छे अने साथे यथासंभव राग पण छे. हवे पछी ते स्वभावनो उग्र आश्रय करीने ए रागने टाळशे अने मोक्षने पामशे माटे ए शुभरागने उपचारथी परंपरा कारण कह्युं छे. खरेखर राग ए वीतरागतानुं कारण होई शके नहि. (अज्ञानीना रागमां आवो उपचार पण संभवित नथी).
कुंदकुंदाचार्यनुं बार भावनानुं पुस्तक छे. एमां रागने परंपरा अनर्थनुं कारण कह्युं छे. समयसार गाथा ७४ मां शुभरागने वर्तमानमां दुःखनुं कारण अने भविष्यमांय दुःखनुं कारण कह्युं छे. एनो अर्थ शुं? के शुभभावथी जे पुण्य बंधाशे एना कारणे भविष्यमां जिनदेव, जिनगुरु, जिनवाणी आदि संयोगो मळशे अने एनुं लक्ष थतां एने राग ज थशे, दुःख ज थशे. भाई! राग गमे ते हो, पण ते पराधीनता करीने आत्मानी शांति अने स्वाधीनतानो नाश ज करे छे.
प्रश्नः– जो एम छे तो हवे अमारे करवुं शुं?
समाधानः– भाई! आ करवुं के पोते शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप वस्तु छे तेने रागथी भिन्न पाडीने पोताना शुद्ध स्वरूपनुं सेवन करवुं. काम तो कठण छे (केमके अनंतकाळमां कर्युं नथी) पण अलभ्य नथी. भगवान! तुं आत्मा (-पोते) छे के नहि? (छे ने). तो एनी सामे जो. ए (-पोते) ज्यां छे त्यां जो; ज्यां ए नथी त्यां जोवानुं छोडी दे. आ ज मार्ग छे.
चोथी गाथामां आवे छे ने के-
‘सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा’ काम नाम इच्छा अने भोग नाम भोगववुं; रागनुं करवुं अने रागनुं भोगववुं-एवी वात तो तें अनंतवार सांभळी छे, एनो अनंतवार परिचय कर्यो छे अने अनंतवार अनुभव पण कर्यो छे. प्रभु! तुं रागथी खूब टेवाई गयो छुं, शुभरागथी हों; पछी अशुभनी तो वात ज शी करवी? तुं निगोदमां हतो त्यां पण तने शुभाशुभ रागनो ज अनुभव हतो ने?
जुओ, बटाटानी एक राई जेटली कटकीमां असंख्य औदारिक शरीर छे. एक एक शरीरमां अनंत निगोदना जीव ठसोठस भरेला छे. ते दरेक जीव शक्ति-सामर्थ्यपणे परमात्मस्वरूपे छे. आवा शक्तिपणे परमात्मस्वरूप एवा अनंता जीवो पर्यायबुद्धि वडे रागनी एकताना अनुभवमां ज पडेला छे. ए बधा निगोदना जीव रागने वश थईने त्यां रह्या छे, कर्मने कारणे नहि. रागना प्रेमने आधीन थईने पराधीनपणे तेओ निगोदने छोडता नथी. गोम्मटसारमां (गाथा १९७ मां) आवे छे के-
‘‘भावकलंकसुपउरा णिगोदवासं ण मुञ्चन्ति’’ प्रचुर भावकलंक कहेतां मिथ्यादर्शन
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अने मिथ्याज्ञानने कारणे तेओ निगोदवासने छोडता नथी. अरे! एवा केटलाय अनंता जीवो एवा पडया छे के जे कदीय निगोदवास नहि छोडे! रागने वश थईने करवामां आवतुं जे मिथ्यात्वनुं सेवन तेने लईने तेओ निगोदवासने नहि छोडे. आवी वात छे.
अहीं कहे छे-शुभाशुभ कर्मो साथे राग अने संसर्ग स्वाधीनतानो नाश करता होवाथी अर्थात् बंधनां कारण होवाथी शुभाशुभ कर्मो साथे राग अने संसर्गनो निषेध करवामां आव्यो छे. त्रिलोकनाथ सर्वज्ञदेवोए अने संतोए शुभाशुभभावनो निषेध कर्यो छे. अहाहा...! एक गाथामां केटलुं भर्युं छे!! भाई! गाथानो भाव (-मर्म) बहु गंभीर छे.
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अथोभयं कर्म प्रतिषेध्यं स्वयं द्रष्टान्तेन समर्थयते–
वज्जेदि तेण समयं संसग्गं रागकरणं च।। १४८।।
वज्जंति परिहरंति य तस्संसग्गं सहावरदा।। १४९।।
वर्जयति तेन समकं संसर्गं रागकरणं च।। १४८।।
एवमेव कर्मप्रकृतिशीलस्वभावं च कुत्सितं ज्ञात्वा।
वर्जयन्ति परिहरन्ति च तत्संसर्गं स्वभावरताः।। १४९।।
हवे, बन्ने कर्म निषेधवायोग्य छे ए वातनुं भगवान कुंदकुंदाचार्य पोते ज द्रष्टांतथी समर्थन करे छेः-
संसर्ग तेनी साथ तेम ज राग करवो परितजे; १४८.
निज भावमां रत राग ने संसर्ग तेनो परिहरे. १४९.
गाथार्थः– [यथा नाम] जेम [कोऽपि पुरुषः] कोई पुरुष [कुत्सितशीलं] कुत्सित शीलवाळा अर्थात् खराब स्वभाववाळा [जनं] पुरुषने [विज्ञाय] जाणीने [तेन समकं] तेनी साथे [संसर्गं च रागकरणं] संसर्ग अने राग करवो [वर्जयति] छोडी दे छे, [एवम् एव च] तेवी ज रीते [स्वभावरताः] स्वभावमां रत पुरुषो [कर्मप्रकृतिशीलस्वभावं] कर्मप्रकृतिना शील-स्वभावने [कुत्सितं] कुत्सित अर्थात् खराब [ज्ञात्वा] जाणीने [तत्संसर्गं] तेनी साथे संसर्ग [वर्जयन्ति] छोडी दे छे [परिहरन्ति च] अने राग छोडी दे छे.
टीकाः– जेम कोई कुशळ वन-हस्ती पोताना बंधने माटे समीप आवती सुंदर मुखवाळी मनोरम के अमनोरम हाथणीरूपी कूटणीने परमार्थे बूरी जाणीने
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तेनी साथे राग तथा संसर्ग करतो नथी, तेवी रीते आत्मा अरागी ज्ञानी थयो थको पोताना बंधने माटे समीप आवती (उदयमां आवती) मनोरम के अमनोरम (शुभ के अशुभ)-बधीये कर्मप्रकृतिने परमार्थे बूरी जाणीने तेनी साथे राग तथा संसर्ग करतो नथी.
भावार्थः– हाथीने पकडवा हाथणी राखवामां आवे छे; हाथी कमांध थयो थको ते हाथणीरूपी कूटणी साथे राग तथा संसर्ग करे छे तेथी पकडाई जईने पराधीन थईने दुःख भोगवे छे, अने जो चतुर हाथी होय तो तेनी साथे राग तथा संसर्ग करतो नथी; तेवी रीते अज्ञानी जीव कर्मप्रकृतिने सारी समजीने तेनी साथे राग तथा संसर्ग करे छे तेथी बंधमां पडी पराधीन थईने संसारनां दुःख भोगवे छे, अने जो ज्ञानी होय तो तेनी साथे राग तथा संसर्ग कदी करतो नथी.
हवे, बन्ने कर्म निषेधवायोग्य छे ए वातनुं भगवान कुंदकुंदाचार्य पोते ज द्रष्टांतथी समर्थन करे छेः-
‘जेम कोई कुशळ वन-हस्ती पोताना बंधने माटे समीप आवती सुंदर मुखवाळी मनोरम के अमनोरम हाथणीरूपी कूटणीने परमार्थे बूरी जाणीने तेनी साथे राग तथा संसर्ग करतो नथी,.. .. जुओ, आ द्रष्टांत छे.
‘तेवी रीते आत्मा अरागी ज्ञानी थयो थको पोताना बंधने माटे समीप आवती (उदयमां आवती) मनोरम के अमनोरम (शुभ के अशुभ)-बधीये कर्मप्रकृतिने परमार्थे बूरी जाणीने तेनी साथे राग तथा संसर्ग करतो नथी.’
‘आत्मा अरागी ज्ञानी थयो थको’-एम भाषा लीधी छे. मतलब के रागरहित वीतरागस्वभावी शुद्ध चैतन्यमय निज आत्मस्वरूपनी जेने द्रष्टि थई छे ते अरागी ज्ञानी छे. धर्मी जीव अरागी होय छे. जेने रागनी रुचि होय ते धर्मी न होय. जेने दया, दान, व्रत, तप इत्यादिना रागनी के गुण-गुणी भेदना विकल्पनी रुचि छे ए तो अज्ञानी छे.
प्रश्नः– अरागी तो ११ मे, १२ मे गुणस्थाने थाय छे?
उत्तरः– हा, पण ए वात अहीं नथी. अहीं तो सम्यग्दर्शन थतां ज सर्व रागनी रुचि छूटी जाय छे एने अरागी ज्ञानी कह्यो छे.
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भाई! जे रागथी धर्म थवानुं माने के मनावे ए तो प्रत्यक्ष मिथ्याद्रष्टिनुं लक्षण छे. ल्यो, आवी झीणी वात छे.
त्यारे कोई एम कहे छे के आपणे-असंयमीओए संयमीओनी टीका न करवी केमके द्रव्यलिंगी छे के भावलिंगी एना जवाबदार तो ए पोते छे; एमां आपणे शुं?
भाई! अहीं कोईनी टीकानो सवाल ज नथी. अहीं तो तत्त्वना स्वरूपनी वात छे; के जे कोई दया, दान, व्रत, तपथी (-रागथी) धर्म थाय एवी (आगमविरुद्ध) प्ररूपणा करे ए प्रगट मिथ्याद्रष्टि छे. आ तो वीतरागमार्ग छे. एमां रागथी धर्म थाय एवी प्ररूपणा आगमनी यथार्थ द्रष्टिथी तद्न विरुद्ध छे. आवुं तत्त्वस्वरूप जेम छे तेम पोताना हित माटे जाणवुं जोईए. आमां परनिंदानो सवाल ज कयां छे?
शुं थाय, भाई! एक वखत जाहेरमां कह्युं हतुं के मार्ग तो आ छे बापु! सत्य वातनी प्रसिद्धि करतां कोईने दुःख लागे तो क्षमा करजो, भाई! राग जे पर तरफना वलणवाळी दशा छे एने धर्म माने अने मनावे ए तो रागी मिथ्याद्रष्टिनुं लक्षण छे अने जेने समस्त रागनी रुचि छूटी गई छे एवो आत्मद्रष्टिवंत पुरुष अरागी ज्ञानी छे. समकिती धर्मी जीव अरागी छे. अहा! समकितीने अस्थिरतानो राग, आसक्ति छे; पण एने रागनी रुचि नथी, रागथी एकत्वबुद्धि नथी.
अहो! आ भाषा ते कांई भाषा छे!! अद्भुत वात छे. ‘आत्मा अरागी ज्ञानी थयो थको’-एम कह्युं एनो भाव ए छे के आत्मा स्वयं पोताना पुरुषार्थना बळे ज्ञानी थयो छे, पण कोई दर्शनमोह कर्मे मार्ग आप्यो तो ज्ञानी थयो छे एम नथी. अहाहा...! केटली स्पष्टता छे? केटलाक लोको कहे छे के-कर्मने लईने आ थाय ने ते थाय; एम के कर्मने लईने बिचारा जीवो भूल करे छे. पण बापु! तने खबर नथी. अपराध तुं पोते करे अने नाखे कर्मने माथे ए तो अनीति छे. आवी अनीति वीतरागशासनमां केम चाले? (न चाले).
अहीं कहे छे के धर्मी-ज्ञानी जीव अरागी छे. जुओ आ धर्मीनी ओळखाण. अंदर पोते पोताना शुद्ध आत्माने अनुभवे छे, संचेते छे ए तेने ओळखवानुं अंतरलक्षण छे अने बहारमां रागनी रुचिनो अत्यंत अभाव होवाथी रागथी धर्म मानतो नथी, मनावतो नथी के कोई अन्य माननारने अनुमोदतो नथी ए तेने ओळखवानुं बाह्य लक्षण छे. भाई! आ कोई व्यक्तिनी वात नथी, आ तो अनादि परंपराथी चाल्या आवता वीतरागमार्गनुं कथन छे. रागमात्र पर तरफना लक्ष-वलणवाळी वस्तु छे अने तेनो शुद्ध चैतन्यमय स्वस्वरूप अने स्वस्वरूप तरफना लक्ष-वलणवाळी परिणतिमां कांई संबंध नथी. आवी झीणी वात छे.
कहे छे-आत्मा अरागी ज्ञानी थयो थको पोताना बंधने माटे समीप आवती-उदयमां आवती मनोरम के अमनोरम-शुभ के अशुभ कर्मप्रकृतिने परमार्थे बूरी जाणे
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छे. उदयमां आवती-समीप आवती कर्मप्रकृति एम भाषा लीधी छे. आशय एम छे के शुभकर्मना उदये शुभभाव थाय अने अशुभकर्मना उदये अशुभभाव थाय एने कर्मप्रकृति समीप आवी कहेवाय. मतलब के शुभाशुभ प्रकृतिना उदय काळे जे शुभाशुभभाव थाय तेने ज्ञानी जीव बूरा जाणे छे अने तेमने बूरा जाणीने एनी साथे राग के संसर्ग करतो नथी.
हवे आवी वात छे त्यारे केटलाक कहे छे के आ तो जड कर्मनी वात छे, शुभाशुभभावनी नहि. पण भाई! एम नथी. गई काले गाथा १प३ नी टीकामांथी बताव्युं हतुं के व्रत, तप, नियम, शील ए बधुं शुभकर्म छे. एटले रागरूपी कार्यने त्यां शुभकर्म कह्युं छे. जड कर्म तो भिन्न छे. भावकर्मनुं निमित्त जे कर्म (-प्रकृति) ते उदयमां आवतां जे शुभाशुभ भाव थाय तेने ज्ञानी बूरां जाणे छे. जड कर्म प्रकृतिने नहि पण एना उदयना निमित्ते थता शुभाशुभ भावने बूरा जाणे छे. गाथा १४प मां पण कर्म शब्द छे. तेना टीकामां जे चार अर्थ कर्या छे ते पैकी एक अर्थ कर्मनो (जड कर्मनो) हेतु जे शुभाशुभभाव तेने कर्मपणे ग्रहण कर्यो छे.
आवो मार्ग बहु आकरो बापा! पण संतोए आंटीघूंटीओ दूर करीने सहेलो करी दीधो छे. अहा! पुण्यने धर्म माने, पुण्यने साधन माने, पुण्यने भलुं माने ए बधी आंटीघूंटी छे भाई! एने अनादिथी रागनो प्रेम अने संसर्ग छे ने! एटले तो स्वरूपनी अंतर्द्रष्टि विना दिगंबर जैन साधु थईने नवमी ग्रैवेयक अनंतवार गयो. पण तेथी शो लाभ? स्वरूपना भान विना पंचमहाव्रतना परिणाम जे अचारित्र छे तेने चारित्र मानीने पाळे, पण ए बधी आंटीघूंटी छे, मिथ्यादर्शन छे.
आत्मा ज्ञानी थयो थको उदयमां आवती बधीय कर्मप्रकृतिने (एटले के ते काळे थता शुभाशुभ भावने) परमार्थ बूरी जाणीने तेनी साथे राग तथा संसर्ग करतो नथी. ‘शुभाशुभ भाव थाय छे तेने बूरा जाणीने’ एम कह्युं एनो अर्थ ज ए थयो के ए भाव थाय छे खरा; जो न थाय तो तो वीतराग होय. तेथी थोडा शुभाशुभ भाव छे तेने बूरा (-अहितरूप) जाणीने एनाथी एकत्व करतो नथी. ‘परमार्थे बूरी जाणीने’ -एम कह्युं त्यां कोई एम अर्थ काढे के ‘व्यवहारे सारी जाणीने’ तो ते बराबर नथी. ए जुदी वस्तु छे के शुभने व्यवहारे ठीक कहेवाय, पण अशुभने पण व्यवहारे ठीक केम कहेवाय? बंधननी अपेेक्षाए तो बन्ने (समानपणे) अठीक ज छे. (व्यवहारे ठीकनो अर्थ ज परमार्थे बूरी समजवुं जोईए). तेथी अहीं कहे छे के ज्ञानी तेनी साथे राग एटले चित्तमां ऊंडे ऊंडे पण शुभाशुभ प्रत्येनो राग अने संसर्ग एटले वाणी द्वारा तेनी प्रशंसा अने कायाद्वारा ए ठीक छे एम हाथ वगेरेनी चेष्टा थाय एवा भाव करतो नथी. ल्यो, आवुं झीणुं छे.